Tuesday, February 19, 2013

जीवन की अभिव्यक्ति


1-          जब पानी दो किनारों के बीच में बहे तो उसे नदी कहते हैं। यदि पानी हर जगह फ़ैल जाए तो वह बाढ़ है। इसी तरह जब भावनाएं हर जगह फ़ैल जाती हैं तो मन उथल-पुथल हो जाता है। यदि वह तीव्रता से एक दिशा में बहता है तो उसे भक्ति कहते हैं। और वह सबसे शक्तिशाली है।
 
2-          प्रायः तुम कोई गलती करते हो और फिर उसे उचित सिद्ध करने की चेष्टा करते हो क्योंकि तुम ग्लानि से बचना चाहते हो। और यह उचित होने का प्रयास ग्लानि दूर नहीं करता क्योंकि तुम जानते हो तुम्हारा निर्दोष करण ऊपरी है। तुम और दोषी महसूर करते हो। यह ग्लानि चलती जाती है और भीतर से तुम्हारा व्यवहार विकृत करती रहती है। इसलिए, जब ग्लानि लगे, उसे हटाने की चेष्टा मत करो। उसके साथ 100% रहो और वह दर्द, ग्लानि, वह दुःख ही ध्यान बन जायेगा और तुम्हें मुक्त कर देगा।
 
4-          जब लोग कुछ ऐसा कहते हैं जिससे हममें ईर्ष्या, क्रोध, कुण्ठा या दुःख उत्पन्न होता है, तो हम सोचते हैं कि वे इसके लिए ज़िम्मेदार हैं हम ज़िम्मेदार हैं क्योंकि हमारा मन केन्द्रित नहीं है। हम अविचल शांति कैसे प्राप्त कर सकते हैं? स्वयं प्रसन्न होना पर्याप्त नहीं। हमारी कामना सबकी प्रसन्नता के लिए होनी चाहिए - यह सामूहिक चेतना, इन्द्र, मुझे स्वास्थ्य दे और मुझे अपने आत्म से जोड़े। यह मुझे केन्द्रित और प्रसन्न रखे। इसलिए, प्राचीन समय में सबकी प्रसन्नता की प्रार्थना की जाती थी।
 
5-          हर व्यक्ति अपने आप में एक किताब है - एक उपन्यास। हमें पुस्तकालय में हर तरह की किताबें मिलती हैं। यह विश्व ही एक पुस्तकालय है। इन सभी किताबों का एक ही लेखक है और उसने बाज़ार भर दिया है! केवल कुछ ही, जो जागे हुए हैं, देख पाते हैं कि ये सब कहानियाँ हैं और आनंदित होते हैं। और तुम उन कुछ जनों में से हो। यदि तुम्हें लगता है कि तुम नहीं हो, तो बन जाओ। इस पुस्तकालय में तुम्हारी आजीवन सदस्यता है।
 
6-          तुमने अपनी मुट्ठी ज़ोर से बंद कर रखी है। अपनी मुट्ठी खोलो, तुम पाओगे कि पूरा आकाश तुम्हारे हाथों में है।
 
7-          असंभव का स्वप्न देखो। तुम इस दुनिया में कुछ अनोखा और अद्वितीय करने आए हो; इस अवसर को मत जाने दो। स्वयं को सपना देखने की और बड़ा सोचने की पूरी छूट।
 
8-          जब भावनाएं अनुकूल हों और हम ऊँचे उड़ रहे होते हैं, तो कोई परेशानी नहीं होती। परेशानी होती है जब भावनाएं हमें नीचे गिरा देती हैं। जितना हम ऊपर उठने का प्रयास करते हैं, उतनी वे भावनाएं हमें नीचे धकेल देती हैं। जब भावनाएं नीचे ले जाएं तो बिलकुल नीचे चले जाओ। गहराई में जाओ और देखो बहुत सी संवेदनाएँ उठेंगी, जैसे भय। उनसे सहमत हो जाओ, "ठीक है, होने दो। मैं आज इसमें गोता लगाऊंगा।" तब तुम्हारे भीतर एक अद्भुत घटना होती है। यदि तुम अपनी भावनाओं से लड़ते हो, तो वे स्पष्ट होने में अधिक समय लेती हैं।
 
9-          बिना त्याग के कोई प्रेम, कोई ज्ञान और सच्चा आनंद नहीं हो सकता। त्याग तुम्हें पवित्र बनाता है। पवित्र बनो।
 
10-          लोग यहाँ वहां रोमांच ढूंढते रहते हैं। वे यह नहीं जानते कि सबसे रोमांचकारी आत्म है।
 
11-          तुम थक चुके हो लोगों को मनाते हुए, सफाई देते हुए, आश्वासन देते हुए, उन्हें प्रसन्न करते हुए। यहाँ तक कि तुम सुख भोगते हुए भी थक चुके हो! वास्तव में थकान सुख की परछाई है। सुख की चाह तुम्हें भटकाती है, और प्रेम वापस घर लाता है।

12-          प्र: अहंकार और आत्मविश्वास में क्या अंतर है?
अहंकार किसी और की उपस्थिति में असहज कर देता है। आत्मविश्वास हर जगह सहज रहना है। सहज रहना अहंकार की दवा है और आत्मविश्वास का पूरक। यह आत्मविश्वास से अभिन्न है। जब तुम सहज हो तो विश्वास से भरे हो और जब विश्वास से युक्त हो तो सहज हो।
 
13-          भारत में यह पद्धति रही कि पढ़े लिखे लोग उन्हीं को कहते थे जो अपनी गलती स्वीकार करते थे और फिर खुद सजा लेते थे। यदि कोई भी राजनेता खड़ा हो और कहे "मुझसे गलती हुई, मैं प्रायश्चित करना चाहता हूँ", तो सभी लोग उन्हें सम्मान देने के लिए उठ जायेंगे। गलती को लीपा पोती करके बने रहना, यह नहीं। अपराधियों को टिकट देना बंद करना चाहिए। लोग कहते हैं "गुरूजी आपका काम तो ध्यान सिखाना है, राजनीती की बात क्यों करते हैं?" भई, राजनीति नहीं है, यह राष्ट्रनीति है, मानवनीति है।
 
14-          जब तुम किसी का आदर करते हो तो उससे तुम्हारी ही उदारता प्रकाशित होती है। दुनिया में जितने लोगों का तुम आदर नहीं करते, उतनी तुम्हारी संपत्ति कम है। प्रज्ञावान वह है जो सबका आदर करे।
15-जब तुम बैठ कर सोचते हो, "मुझे ख़ुशी कब मिलेगी?", तो वह तुम्हें नहीं मिलेगी। जब तुम अपनी ख़ुशी दूसरों की ख़ुशी में देखते हो, तब तुम वास्तव में खुश होते हो।
 
16-          यदि शब्दों का हेर फेर करो तो वह असत्य है।
यदि शब्दों से खेलो तो वह मज़ाक है।
यदि शब्दों पर निर्भर रहो तो वह अज्ञान है,
पर यदि शब्दों के परे चले जाओ तो वह ज्ञान है।
 
17-          उत्सव मनाने में ग्लानि तभी होती है यदि वह केवल अपने सुख के लिए हो। यदि उत्सव लोगों के दिलों को जोड़ने के लिए हो, पुराने दर्द से उभरने के लिए, भविष्य के प्रति आशा की ज्योति जलाने के लिए, यदि उत्सव समाज के उत्थान के लिए हो तो ग्लानि कहीं तुम्हारे पास भी नहीं आएगी। इस तरह का उत्सव सेवा है, पवित्र है। अपने उत्सव को सुख की खोज की प्रक्रिया से बदलकर उसे समाज के लिए पवित्र अर्पण बना दो।
 
18-          यह श्रद्धा रखो कि तुम्हारे दोष मिटाने के लिए कोई है। ठीक है, तुम एक, दो, तीन बार चूके। कोई बात नहीं। आगे बढ़ते रहो। लोग गलती न करने की शपथ ले लेते हैं। शपथ टूट जाने पर मन और खराब होता है। समर्पण करना बहतर है।
 
19-          हमने कई प्रकार की शिक्षा ग्रहण की है। हमें एक जटिल कम्प्यूटर चलाना आता है पर उन शक्तियों के बारे में नहीं जानते जिनसे हमारा जीवन चलता है। कोई हमें जीवन जीना नहीं सिखाता। हमें थोड़ा प्रयत्न करना होगा अपने मन और अहम् के बारे में जानने के लिए, हम कौन हैं और यहाँ क्यों हैं। केवल प्रेम के द्वारा ही हमारा ज्ञान, जीवन और विश्व के बारे में हमारी समझ बढ़ सकती है।
 
20-          प्रायः तुम जीवन में किसी जल्दबाज़ी में होते हो। जल्दी में तुम ठीक से चीज़ों को जान नहीं पाते हो। जल्दबाजी जीवन का आनंद छीन लेती है और वर्तमान क्षण की प्रसन्नता और अबद्धता खण्डित कर देती है। प्रायः तुम्हें ज्ञात भी नहीं होता कि जल्दी है किस बात की। बस एक जल्दबाज़ी का क्रम सा चल पड़ता है। जागो और अपने अन्दर की जल्दबाज़ी को देखो।
 
21-          समर्पण अधीनता नहीं है। समर्पण का अर्थ क्या है? यह जानना कि जो कुछ जहां भी है, ईश्वर का ही है। "मैं" नियंत्रण में नहीं हूँ - यह समर्पण है। और इस अनुभूति के साथ एक गहरा विश्राम मिलता है, एक विश्वास की भावना, जैसे हम घर पहुँच गए। समर्पण को ले कर इतना भय क्यों हैं; तुम्हें लगता है तुम कुछ खो दोगे? मैं कहता हूँ कि पृथ्वी और स्वर्ग दोनों में केवल पाओगे ही।
 
22-          यदि तुम अपने आप में निश्चिन्त हो तो सभी तुम्हारे साथ निश्चिन्त होंगे। सहज और सरल रहो। सम्बन्ध स्वाभाविक रूप से विकसित होते हैं। यदि तुम सम्बन्ध बनाने का प्रयत्न करो तो थोड़े बनावटी हो जाते हो। तुम चाहोगे कि कोई तुम्हारे साथ सच्चा, खुला, प्राकृतिक और बिना अहम् के व्यवहार करे। दुसरे भी तुमसे बस वही चाहते हैं।
 
23-          जब मन प्रसन्न होता है तो विस्तृत होता है और समय छोटा लगता है। जब मन अप्रसन्न होता है तो संकुचित हो जाता है और समय अधिक लगने लगता है। जब मन समता में होता है तो समय से परे चला जाता है।
 
24-          जो प्रेम तुम हो, जब वह उदय होता है, तो जीवन ही एक ग्रन्थ बन जाता है। अपना जीवन ही गीता, कुरान या बाइबल बना लो। यह प्राप्त करने की कुंजी है दिव्या प्रेम! ऐसे भक्त बनो जो प्रभु में ही खोया हो, उन्हीं से व्याप्त हो।
 
25-          नए वर्ष का स्वागत एक मुस्कान से करो। हम जैसे कैलेण्डर या तिथिपत्र के पन्ने पलटते हैं, हमें अपने मन को भी पलटते रहना चाहिए। प्रायः हमारी डायरी स्मृतियों से भरी रहती है। भविष्य की तारीखें भूत की घटनाओं से मत भरो। अतीत से सीखो और उसे छोड़कर आगे बढ़ो।
 
26-          बाहरी सुन्दरता के लिए तुम चीज़ें अपने ऊपर थोपते हो; वास्तविक सुन्दरता के लिए तुम्हें सब चीज़ें छोड़नी हैं। बाहरी सुन्दरता के लिए तुम्हें तैयारी करनी होती है; वास्तविक सुन्दरता के लिए केवल यह जानना है कि तुम पहले से तैयार हो।
 
27-          जो लोग शांतिप्रिय हैं वे लड़ना नहीं चाहते और जो लड़ते हैं उनके पास शांति नहीं। आवश्यकता है अन्दर से शांत रहकर लड़ने की। किसी झगड़े को अंत करने की चेष्टा से वह बढ़ता ही जाता है। ईश्वर सभी झगड़ों को युगों से झेल रहे हैं और यदि वे झेल सकते हैं तुम भी झेल सकते हो। जब तुम किसी द्वंद्व के साथ रहने को तैयार हो जाते हो, तो वह द्वंद्व प्रतीत नहीं होता।
 
28-          हम अनंत का अनुभव कैसे कर सकते हैं? यह केवल प्रेम से ही संभव है। केवल प्रेम ही ऐसी वस्तु है जिसके बारे में तुम सोच नहीं सकते। यदि उसके बारे में सोचते हो, तो वह प्रेम नहीं रहता। प्रेमी आपस में बेतुकी बातें करते हैं; वे सोचते नहीं हैं। वही बातें बार बार करते रहते हैं। तुम तर्क बुद्धि से परे चले जाते हो। हम किसी से भी प्रेम में पड़ें, वास्तव में स्वयं से प्रेम में पड़ रहे हैं।
 
29-          उदासी तब छाती है जब लड़ने का जोश न रहे। आक्रामकता उदासी दूर करने की दवा है। उदासी शक्ति का अभाव है; क्रोध और आक्रामकता शक्ति के वज्रपात हैं। यदि तुम उदास हो तो प्रोजैक की गोली मत लो - किसी सिद्धांत के लिए लड़ो। कृष्ण ने अर्जुन को इसी तरह लड़ने के लिए प्रेरित किया। पर यदि आक्रामकता एक सीमा पार कर ले तो फिर उदासी की ओर ले जाती है। कलिंग युद्ध के बाद अशोक के साथ यही हुआ। उन्हें बुद्ध की शरण लेनी पड़ी। ज्ञानी वे हैं जो आक्रामकता और उदासी दोनों में नहीं पड़ते।
 
30-          सरल और भोली अवस्था में रहो। यह जीवन बड़ा सुन्दर रहस्य है। बस इसे जियो! जब हम जीवन के इस सुन्दर रहस्य को पूर्णता से जीते हैं तब आनंद का उदय होता है।
 
31-          तुम क्रिसमस के वृक्ष के समान हो। उसपर उपहार और बत्तियां सजी होती हैं, अपने लिए नहीं, सबके लिए। तुम्हें जो भेंट अपने जीवन में मिली है, वह दूसरों के लिए है।
 
32-          दूसरों को सुख दो, तब तुम्हें पता चलेगा कि तुम्हारे सुख का ध्यान सृष्टि स्वयं रखेगी।
 
33-          जब सभी द्वार बंद हो जाएं और कोई जाने का स्थान न हो, तब भीतर जाओ। हर संकट एक अवसर है और तुम ही शुरुआत हो।
 
34-          प्रिय गुरुदेव, मैं कब और कैसे परमानंद को प्राप्त कर सकता हूँ?
श्री श्री: कोई सम्भावना ही नहीं है। भूल जाओ। क्या तुम भूलने के लिए तैयार हो? तो तुम इसी क्षण पा जाओगे।
 
35-          तुम एक आज़ाद पंछी हो, पूरी तरह खुले हुए| उड़ना सीखो| यह तुम्हें अपने भीतर ही अनुभव करना होगा| यदि तुम स्वयं को बाध्य समझते हो, तो तुम बंधन में ही रहोगे| तुम मुक्ति का अनुभव कब करोगे? इसी क्षण मुक्त हो जाओ| बस बैठो और तृप्त हो जाओ| थोड़ा समय ध्यान और सत्संग में बिताओ जिससे तुम्हारा अंतरात्म चुनौतियों से जूझने के लिए दृढ़ हो जाये|
 
36-           भक्ति एक हीरे के सामान है। मिट्टी से बनी वस्तुओं के लिए उसका सौदा मत करो।
37-सभी तरह की शिकायतों को मन से निकाल दो - चाहे वो किसी व्यक्ति के बारे में हों या वस्तु। तब तुम इस विश्व के लिए उपयोगी बन जाते हो।
 
38-          जब हमारा जन्म हुआ तो हम निर्भर थे। जब हम वृद्ध होंगे तब भी निर्भर होंगे। यह बीच के कुछ वर्षों में हमें लगता है कि हम आत्मनिर्भर हैं। यह भ्रम है। दूसरी ओर, हमारी चेतना सदा से ही आत्मनिर्भर है। यह बहुत सूक्ष्म बात है। हम निर्भरता और आत्मनिर्भरता - शरीर और चेतना, दोनों का मिश्रण हैं।
 
39-          सबसे पहला नियम है स्वयं को दोषी ठहराना बंद करो। अध्यात्म क्या है? गहराई में जाकर अपने साथ जुड़ना। यदि खुद को दोषी मानते रहोगे तो अपने निकट कैसे जाओगे? जो तुम्हें दोष देता रहे तुम उनके साथ रहना पसंद नहीं करोगे। ऐसा करते रहने से तुम कभी शांत नहीं हो सकते, अपनी गहराई में नहीं जा सकते। कभी स्वयं को दोषी मत ठहराओ।
 
40-          सामान्यतः यदि कोई बहुत बुरा है तो तुम उनसे दूर हट जाते हो। पर यदि तुम उनसे घृणा करने लगते हो तो इसका अर्थ है कि कोई गहरा सम्बन्ध है जिससे तुम दूर नहीं हट पा रहे हो। तुम उनके साथ रहना चाहते हो, उन्हें अपने मन में रखना चाहते हो और इसलिए उन्हें नापसंद करते हो। जो मन के भंवर में फंस गया हो वह करुणा का पात्र है, क्रोध का नहीं।
 
41-          बहादुर हैं वे जो केवल दोस्ती के लिए दोस्ती करते हैं। ऐसी दोस्ती कभी ख़त्म नहीं होगी।
 
42-          सफलता का अर्थ है किसी सीमा के पार जाना| सीमा पार करने के लिए तुम्हें पहले मानना होगा कि तुम्हार कोई सीमा है| सीमा मान लेने का अर्थ है तुम स्वयं को कम आंकते हो| यदि तुम्हारी सीमा ही नहीं है तो तुम्हारी सफलता कहाँ है? जब कोई दावा करता है कि वह सफल है तो वह केवल अपनी सीमा प्रकट कर रहा है| जब तुम अपनी असीमितता को जान लेते हो, तो कोई भी कार्य उपलब्धि नहीं रहता|
 
43-          इश्वर सदैव युवा हैं| मेरे लिए, इश्वर बहुत नटखट हैं| उन्हें खेल पसंद है|
 
44-          जब तुम मन में अस्पष्ट होते हो, तो तुम्हारे शब्द प्रभावशाली नहीं होते| मन जितना स्पष्ट होता है शब्द उतने शक्तिशाली हो जाते हैं| जो तृप्त हैं, उनके शब्दों में महान शक्ति होती है|
 
45-          विचार और कर्म में क्या सम्बन्ध है?
श्री श्री: कभी तुम बिना विचार के कर्म करते हो और कभी बिना कर्म किये केवल विचार ही करते हो| विचार और कर्म दोनों के स्रोत तुम ही हो| स्वयं को जानने से तुम्हारे विचार सरल और कर्म सिद्ध होते हैं|
 
46-          जल की तरह बनो| जब जल के पथ पर पत्थर होते हैं, तो वह क्या करता है? वह पत्थरों से ऊपर उभर कर बहता है| जीवन में विघ्न भी इसी तरह हैं| उनसे ऊपर उठकर उन्हें लाँघ जाओ| धैर्य रखो और उनके ऊपर से बहते चलो|
 
47-           एक सपना अपने लिए देखो और एक सपना जगत के लिए| और अगर दोनों एक ही हो तो वह सबसे उत्तम है! पर अगर ऐसा नहीं है तो भी कोई बात नहीं| बस इतना ध्यान रखो की दोनों में प्रतिरोध न हो।
 
48-          जब मैं-पन ख़त्म हो जाता है, कर्ता घुल जाता है, तब केवल शक्ति रह जाती है, केवल आनंद| यह प्रयत्न से नहीं, केवल गहरे विश्राम में ही संभव है| केवल यह भाव रखना "यह शक्ति मुझमें यहीं पर इसी क्षण उपस्थित है" पर्याप्त है|
 
49-          वह आत्मा जो तुम्हारा जीवन चला रही है, पवित्र है| जब तुम अपनी चेतना का सम्मान करते हो, तो तुममें बाकी सभी गुण भी अनायास ही अभिव्यक्त होने लगते हैं|
 
50-          अपने मन में उठ रहे शोर को देखो| वह किस बारे में है? धन? यश? सम्मान? तृप्ति? सम्बन्ध? शोर किसी विषय को लेकर होता है, मौन का कोई विषय नहीं है| शोर ऊपरी सतह है, मौन आधार है।
 
51-          उत्साहपूर्ण रहो, यह जीवन को पूरी तरह जीने का मापदंड है| जीवन उत्साह है, पर उसे खोने की प्रक्रिया को आज हम जीना कहते हैं| अपना उत्साह बनाये रखो| यह तुम्हें दिल से युवा रखेगा|
 
52-          अपने मन में दिव्य ज्योति अनुभव करने की इच्छा रखो| जीवन के उत्कृष्ट लक्ष्य कुछ पलों के ध्यान और अन्तरावलोकन से ही साधे जा सकते हैं| शांति के कुछ पल रचनात्मकता का स्रोत होते हैं| दिन में किसी न किसी समय कुछ क्षणों के लिए अपने ह्रदय की गुफा में बैठो, आँखें बंद करो और दुनिया को गेंद की भांति फेंक दो| पर बाकी समय, अपने काम में १००% आसक्ति रखो| अंत में तुम आसक्त और अनासक्त दोनों रह पाओगे| यही जीवन जीने की कला है|
 
53-          यद्यपि नदी विशाल है, तुम्हारी प्यास एक घूँट से भर जाती है| यद्यपि पृथ्वी पर इतना भोजन है, थोड़ा सा ही तुम्हारा पेट भर देता है| तुम्हें केवल थोड़े थोड़े की ही आवश्यकता है| जीवन में हर चीज़ का छोटा सा अंश स्वीकार करो, उससे तुम्हें संतुष्टि मिलेगी| आज रात सोने तृप्ति की भावना के साथ जाओ, और अपने साथ दिव्यता का एक छोटा सा अंश ले जाओ|
 
54-           जीवन हर घटना में तुम्हें उसे छोड़कर आगे बढ़ना सिखाता है| जब तुम्हें छोड़ देना आ जाता है, तुम आनंद से भर जाते हो, और जब तुम आनंदित होते हो, तो तुम्हें और दिया जाता है।
 
55-          घर क्या होता है? एक ऐसी जगह जहाँ तुम्हें विश्राम मिले| जहाँ तुम अपने स्वभाव में आराम से रहो| मेरे लिए पूरी दुनिया मेरा घर है| मैं जहाँ जाता हूँ, सबसे एक जैसी आत्मीयता महसूस करता हूँ| यह संपूर्ण विश्व मेरा परिवार है, मेरा घर है|
 
56-          तुममें एक कर्ता है और एक साक्षी है| कर्ता स्पष्ट या अनिश्चय में हो सकता है, पर साक्षी केवल देखता और मुस्कुराता है| जितना यह साक्षी तुममें बढ़ेगा, तुम उतने आनंदी और अप्रभावित रहोगे| तब निष्ठा, श्रद्धा, प्रेम और आनंद तुम्हारे भीतर और चारों ओर खिल उठेंगे|
 
57-          तुम जिसका भी सम्मान करते हो, वह तुमसे बड़ा हो जाता है| यदि तुम्हारे सभी सम्बन्ध सम्मान से युक्त हैं, तो तुम्हारी अपनी चेतना का विकास होता है| छोटी चीज़ें भी महत्त्वपूर्ण लगती हैं| हर छोटा प्राणी भी गौरवशाली लगता है| जब तुममें सरे विश्व के लिए सम्मान है, तो तुम ब्रह्माण्ड के साथ लय में हो|
 
58-          ज़रा अपने मन में शोर को देखो| वह किस विषय में है? धन? यश? सम्मान? तृप्ति? सम्बन्ध? शोर सदा किसी बारे में होता है; मौन शून्य के बारे में होता है| शोर ऊपरी सतह है; मौन आधार है|
 
59-          प्र: मौन क्या है?
श्री श्री: साँस में प्रार्थना मौन है|
अनंत में प्रेम मौन है|
बिना शब्द का ज्ञान मौन है|
बिना उद्देश्य की करुणा मौन है|
बिना कर्ता के कर्म मौन है|
समष्टि के साथ मुस्कुराना मौन ।
 
61-          दुनिया के अरबों लोगों में कुछ हज़ार ही हैं जो आतंकवाद फैलाते हैं और उसका प्रभाव पूरी दुनिया पर पड़ता है| तुम्हें नहीं लगता कि इसी सिद्धांत से विपरीत भी सच हो? हम जैसे कुछ हज़ार जो सच में शांत हैं, पूरी पृथ्वी के लिए प्रेम रखने वाले, उसका ध्यान रखने वाले - क्या हम एक बदलाव नहीं ला सकते?
 
62-          प्रेम की मधुर मिठाई बांटो,
राग द्वेष के पटाखे फोड़ो,
ज्ञान के दिए जलाओ,
नूतन पुरातन की अनमोल घड़ी है,
एक नयी क्रांति की प्रतीक्षा में धरती खड़ी है,
सब मिल के दीवाली मनाओ,
जीवन को उत्सव बनाओ।
 
63-          प्रेम और पीड़ा साथ साथ चलती है| जब तुम किसीसे प्रेम करते हो, एक छोटा सा कर्म भी चोट पहुंचा सकता है| और तब तुम बहुत नाज़ुक हो जाते हो| प्रेम और वियोग के एक जैसे ही लक्षण हैं| यदि तुम किसीसे प्रेम नहीं करते, वे तुम्हें पीड़ा नहीं दे सकते| यह समझ लो और स्वीकार कर लो| तब वह पीड़ा घाव में परिणत नहीं होगी| बल्कि वह पीड़ा तुम्हें वैराग्य और ध्यान की गहराईओं में ले जाएगी|
 
64-          जब हम आनंद की चाह में कर्म करते हैं तो वह कर्म निम्न हो जाता है| जैसे तुम प्रसन्नता फैलाना चाहते हो पर यदि तुम जानना चाहो कि वह व्यक्ति प्रसन्न हुआ कि नहीं तो तुम चक्रव्यूह में फंस जाते हो| इस बीच तुम अपना सुख खो बैठते हो| अपने कर्म के फल कि चिंता तुम्हें नीचे खींचती है| पर जब हम कोई कर्म आनंद की अभिव्यक्ति के रूप में करते हैं और फल की चिंता नहीं करते, वह कर्म ही पूर्णता ले आता है|
 
65-          तुम जैसे ही भीतर से कोमल होते हो, कठोरता छूट जाती है, बंधन में होने की भावना चली जाती है, सुख समृद्धि आने लगती है| जब तुम सौम्य और बिना प्रतिरोध के होते हो, तो यश भी आता है| प्रकृति तुम्हें देती है| आध्यात्मिक पथ पर यही सत्य है|
 
66-          तुम जो कुछ भी हो अपनी स्मृति के कारण हो| अनंत को भूल जाना दुःख है| तुच्छ को भूल जाना आनंद है।
 
67-          प्रेम अनुभव करना दिल का काम है और संदेह करना दिमाग का| दोनों का अपना अपना स्थान है| तुम्हें दोनों की आवश्यकता है| तुम कितना संदेह कर सकते हो? करते रहो और जब सारे संदेह ख़त्म हो जायें और नए उत्पन्न न हों, तब वहां से श्रद्धा का आरम्भ होता है|
 
68-          पहला कदम है विश्राम करना और आखरी कदम भी विश्राम करना ही है! सबसे आरामदेह और सुखदाई स्थान तुम्हारे भीतर ही है| अपने आत्म की शांत निर्मल गहराई में विश्राम करो - यह अति अमूल्य है| संपूर्ण ब्रह्माण्ड के इस अति सुन्दर, अति सुखदाई घर में स्वयं को दर्ज कर लो|
 
69-          सबसे बड़ी आहुति तुम स्वयं हो| आखिरकार, तुम दुखी क्यों होते हो? मुख्य रूप से तभी जब तुम जीवन में कुछ पा न सको| ऐसे समय में सब कुछ सर्वज्ञ ईश्वर को समर्पित कर दो| ईश्वर को समर्पण करने में सबसे बड़ी शक्ति है| जैसे एक बूँद समुद्र में घुल कर उसे अपना लेती है, यदि वह अलग रहती है तो मिट जाएगी| पर जब वह समुद्र बन जाती है तो अमर हो जाती है

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