Thursday, March 7, 2013

जीवन की परिधि

 
1- सौन्दर्य का स्वरूप
 
1-          इस ग्रह पर जन्मा हरेक बच्चा सुंदर है, जैसे-जैसे वो बड़ा होने लगता है, बच्चे की सुंदरता, मासूमियत खो जाती है। निर्दोषता तुम्हें सुंदर बनाती है। दिखने में तुम चाहे जितने भी सुंदर क्यूं न हों, अगर तुम्हारा मन तनावग्रस्त है, अगर तुम्हारी चेतना क्रोध, निराशा और नकारात्मक विचारों से भरी है, तो यह तुम्हारे चेहरे पर साफ़ दिखाई देता है।
 
2-          असली सौन्दर्य आनंद है, और आनंद भीतर से आता है, जागो और देखो कि तुम एक बालक जैसे निर्दोष हो, एक बार जब हम मान लेते हैं कि हम स्वयं के, जीवन के बारे में बहुत कम जानते हैं, तब हम निर्दोषता की ओर वापस जाते हैं, ज्ञान का उद्देश्य तुम्हें उस अज्ञानमय "मैं कुछ नहीं जानता से एक सुन्दर "मैं कुछ नहीं जानता" तक ले के जाना है। जब ये परिवर्तन भीतर से घटित होता है। तब तुम सबसे सुन्दर व्यक्ति बन जाते हो।

3-          निराशा, क्रोध हमेशा अतीत को लेकर होते हैं और व्यग्रता हमेशा भविष्य के लिए होती है। जीवन में तुम्हें चिंता और पश्चाताप के बहुत से उदहारण मिले होंगे। अगर तुम भूतकाल से छुटकारा पा लो और वर्तमान में आ जाओ तो तुम आत्मा की निर्दोषता पर वापस आ सकते हो।

4-          भरोसा भी तुम्हारी सुन्दरता को बढ़ाता है। तुम लोगों की अच्छाई पर शक करते हो लेकिन लोगों के बुरे गुणों पर कभी शक नहीं करते। शक के स्वभाव को समझो। तुम इस संसार में भरोसे के गुणों को ले कर आए हो। एक बच्चे के रूप में हम इस ग्रह पर भरोसे के साथ आए हैं। इसीलिए बच्चा इतना सुंदर है। बालक उसके आनंद, मासूमियत और भरोसे की वजह से सुंदर है।

5-          बालक का दूसरा गुण है वर्तमान में जीना। ये गुण तुम्हारी सुन्दरता को बढ़ाता है। ज़रा आइने में अपने चेहरे पर निगाह डालो और देखो इस शरीर के भीतर क्या है। क्या भरोसा है। अगर नहीं, तो ऐसा कब होगा। अब ये होना चाहिए। जिस क्षण तुम उस पर ध्यान लगाओगे। तुम पाओगे कि भरोसा निरंतर बढ़ रहा है।

6-          किसी ऐसे व्यक्ति की तरफ देखो जो किसी चीज़ के लिए तरस रहा है और किसी ऐसे व्यक्ति की तरफ देखो जो संतुष्ट और तृप्त है। जो संतुष्ट है वह ज़्यादा सुन्दर लगता है। हम जितने ज़्यादा संतुष्ट होंगे उतनी ज़्यादा उन्नति कर सकेंगे।

7-          जब तुम अपना जीवन किसी उद्देश्यपूर्ण, उपयोगी सेवा में लगा देते हो, तुम्हारी सुन्दरता बढ़ती है, यदि तुम हमेशा अपने बारे में सोचते रहते हो, तो यह तुम्हें बदसूरत बनाने के लिए काफी है। अगर तुम अपना जीवन किसी के लिए बाँट सकते हो, तब भीतर से जो सुन्दरता उगती है, वो अद्वितीय है, असली सुन्दरता तुम्हारे भीतर जो गुण हैं उन्हें प्रदर्शित करने में है।

8-          बस, महसूस करो कि तुम इस दैवत्व का हिस्सा हो। यह ब्रह्माण्ड प्राणशक्ति का अखंड प्रवाह है। बस इस सत्य पर तुम्हारा ध्यान तुम्हारे भीतर की सुन्दरता को जागृत करता है। तुम्हारे पास जो भी है जैसे तुम्हारी ऑंखें, कानए पैर, आदि कुछ चीज़ों के लिए कृतज्ञता महसूस करो। हर रोज़ सुबह, जीवन में तुम्हें जो भी मिला है उसके बारे में सोचो। फिर तुम्हारा सारा दिन ज़्यादा कृतज्ञता और आभार में व्यतीत होगा।

9-          कृतज्ञता तुम्हें और भी सुंदर बनाती है। लगभग सभी सभ्यताओं में माँ अपने बच्चों को सोने से पहले प्रार्थना करना सीखाती है। इस प्राचीन अभ्यास का महत्त्व ये है कि जब तुम अपने हृदय में इतनी कृतज्ञता ले कर सोते हो, तुम्हारा मन शांत और स्थिर हो जाता है, रोज़ सोने से पहले तुम्हें जितने वरदान मिले हैं उनकी गिनती करना, ये तुम्हारे भीतर की सुन्दरता का आह्वान करेगी और तुम दुसरे दिन तरोताज़ा, तनावमुक्त और पुनर्जीवित हो कर जागोगे।

 

2-छोटा सुख बडे सुख में कैसे बदलें
 
अ-          छोटी सी बात हमें याद रखनी होगी कि कभी-कभी ऐसा होता है कि आज हमें लगता है कि इसमें खूब सुख है और हमें यह भी दिखायी पड़ता है कि अगर हम इसका त्याग कर दें तो कल अनंतगुना सुख हो सकता हैं। लेकिन वह कल तो होगा, लेकिन हम आज के ही सुख को पकड़ लेते हैं। कल के अनंत गुने को छोड़ देते है। इसलिए हम दीन रह जाते हैं, दरिद्र रह जाते हैं। माना तुम्हारे पास मुट्ठी भर अन्न है, हम उसे आज खा लेते हैं, तो थोड़ा सा सुख मिलेगा। लेकिन अगर तुम इसे बो देते हैं तो शायद दो-चार महीने प्रतीक्षा करनी पड़ेगी,लेकिन बड़ी फसल पैदा होगी। शायद साल भर के लायक भोजन पैदा हो जाए।

ब-          हमात्मॉ बुद्ध ने कहा है कि बुद्धिमान वह है, जो अल्प को छोड़कर विराट को उपलब्ध करने में लगा रहता है। जो जीवन में सदा ध्यान रखता है कि जो मैं कर रहा हूं, इसका अंतिम फल क्या होगा? आज का ही सवाल नहीं है, इसका अन्तिम परिणाम क्या होगा?


स-          गंगा बूंद-बूंद पैदा होती है। गोमुख से गिरती है गंगोत्री,उस समय तुम उस जल को अपनी मुट्ठी में ले सकते हो। फिर बड़ी होती जाती है, और बड़ी होती जाती है। जब गंगा सागर में गिरती है तब तुम विश्वास भी न कर सकोगे कि यह वही गंगा है जो गोमुख से गिरती है। जो गंगोत्री में बूंद-बूंद टपकती है, जिसको तुम मुट्ठी में बांध ले सकते थे, यह वही गंगा है? पहचान नहीं आती।

द-          बीज के बाद छोटा, वृक्ष फिर बहुत बड़ा हो जाता है। बुद्धिमान व्यक्ति अल्पसुख को महासुख के लिए छोड देता है। छोटे को न पकड़े, क्षुद्र को न पकड़े, विराट पर ध्यान रखे। ‘दूसरे को दुख देकर जो अपने लिए सुख चाहता है, वह वैर चक्र में फंसा हुआ व्यक्ति कभी वैर से मुक्त नहीं होता।’ और बुद्ध ने कहा है कि - सुख तो सभी चाहते हैं, मगर सुख की चाह में एक बात खयाल रखना-पहला सूत्र- अल्पसुख को छोड़ देना महासुख के लिए। दूसरा सूत्र कहा-यह खयाल रखना कि- सुख तो चाहना, लेकिन दूसरे के दुख पर तुम्हारा सुख निर्भर न हो। दूसरे के दुख पर आधारित सुख तुम्हें अंततः दुख में ही ले जाएगा, महादुख में ले जाएगा।


 

3-सुख चाहिए तो पहले दुख को जानना सीखो

अ-          यदि तुम्हैं दुख को मिटाना हो, तो सुख की कल्पना छोड़ देनी पड़ेगी और पहले दु:ख को ही जानना पड़ेगा। और देखने वाली बात होगी कि जो दुख को जानता है, उसका दु:ख स्वतः मिट जाता है,और जो सुख को मानता है, उसका दुख छिप जाता है; मिटता नहीं, भीतर चला जाता है। इसी प्रकार अगर अज्ञान को मिटाना है, तो ज्ञान की कल्पना नहीं करनी है-अज्ञान को ही जानना है। अज्ञान को जो जानता है, उसे ज्ञान उपलब्ध हो जाता है। लेकिन जो ज्ञान को, झूठे ज्ञान को, कल्पित ज्ञान को पकड़ लेता है, उसका अज्ञान छिप जाता है, अज्ञान मिटता नहीं, जिससे ज्ञान उसे मिलता नहीं है, क्योंकि कल्पित ज्ञान का कोई भी अर्थ नहीं है।

ब-          जैसे एक प्रश्न है कि- क्या हम सुखी हैं? क्या हमने कभी भी सुख जाना है? अगर कोई बहुत निष्पक्ष रूप से अपने जीवन पर लौट कर देखेगा, तो पाएगा, सुख-सुख तो कभी नहीं जाना, दुख ही जाना है। लेकिन दुख को हम भुलाते हैं। और जिस सुख को नहीं जाना, उसको कल्पित करते हैं, उसको थोपते हैं। हां, एक आशा है मन में कि कभी जानेंगे। और आशा उसी की होती है, जिसने न जाना हो। सुख को जाना नहीं है, इसलिए निरंतर सोचते हैं- आने वाले कल, भविष्य में सुख मिलेगा। जो और भी ज्यादा काल्पनिक हैं,फिर वे सोचते हैं, अगले जन्म में। जो और भी ज्यादा काल्पनिक हैं, वे सोचते हैं, किसी स्वर्ग में,या मोक्ष में सुख मिलेगा।

स-          अगर आदमी ने सुख जाना होता, तो स्वर्ग की कल्पना कभी न करता। स्वर्ग की कल्पना उन लोगों ने की है, जिन्होंने सुख कभी भी नहीं जाना । जो नहीं जाना है, उसको स्वर्ग में निर्मित करने की आशा बांधे बैठे हुए हैं! सुख हमने जाना है कभी? कोई ऐसा क्षण है जीवन का जब हम कह सकें कि मैंने जाना सुख? और यह भी ध्यान रखने वाली बात है कि बहुत जल्दी में ऐसा मत कह देना; क्योंकि जिसने एक बार सुख जान लिया, वह दुख जानने में असमर्थ हो जाता है। जिसने सुख जान लिया, वह दुख जानने में असमर्थ हो जाता है। फिर वह दुख जानता ही नहीं। फिर वह दुख जान ही नहीं सकता। क्योंकि जो सुख जानता है, उसे यह भी पता चल जाता है कि मैं सुखी हूं। और चूंकि हम दुख जानते ही चले जाते हैं, यह इस बात का सबूत है कि सुख हमने कभी जाना नहीं। आशा है, कल्पना है। और कभी-कभी सुख को थोप भी लेते हैं।

द-          एक मित्र आया है, गले लग गया है और हम कहते हैं, बहुत सुख मिल रहा है। गले मिल कर कितना सुख मिला है, उसके आलिंगन में कितना रस मिला है; लेकिन कभी आपने सोचा है कि जो मित्र आकर गले मिल गया है, दस मिनट, पंद्रह मिनट, बीस मिनट और गला छोड़े ही नहीं, तब क्या होगा जानते हो? ऐसी तबीयत होगी कि कोई पुलिस वाला आकर छुडा लेता, किसी तरह इससे छुटकारा दिलाए, यह क्या कर रहा है? और अगर घंटे दो घंटे वह गले को न छोड़े तो फांसी मालूम पड़ेगी।

य-          अगर सुख था तो और बढ़ जाता? जो एक क्षण में सुख मिला था तो दस क्षण में और दस गुना हो जाता? लेकिन एक क्षण में सुख लगा था और दस क्षण में फांसी मालूम होने लगी! सुख नहीं था, कल्पित था; एक क्षण में खो गया। जो कल्पित है, वही क्षण भर टिकता है; जो सत्य है, वह सदा है। जो कल्पित है, वही क्षणभंगुर है। जो क्षणभंगुर है, उसे कल्पित जानना। क्योंकि जो है, वह शाश्वत है, वह सदा है। वह क्षण में नहीं है, वह नित्य है, वह कभी मिटता नहीं। वह है, और है, और है। था, और होगा, और होगा। कभी ऐसा क्षण नहीं आएगा, जब वह न हो जाए। जो सुख दु:ख में बदल जाता है, उसे कल्पित जानना। वह सुख था ही नहीं। और सब सुख जो हम जानते हैं, दु:ख में बदलने में समर्थ हैं।

4-           हमारे पास मन के सिवा और कुछ नहीं होता है
अ-इस सम्बन्ध में हम सन्यासी के अर्थ को जानते हैं कि-संन्यास का अर्थ यही है कि मैं निर्णय लेता हूं कि अब से मेरे जीवन का केंद्र बिन्दु ध्यान होगा। धन नहीं होगा, यश नहीं होगा, संसार नहीं होगा। जीवन का केंन्द्र ध्यान होगा, धर्म होगा, परमात्मा होगा-ऐसा निरणय लेना ही संन्यास है। जीवन के केंद्र को बदलने की प्रक्रिया संन्यास है। वह जो जीवन के मंदिर में हमने प्रतिष्ठा कर रखी है--इंद्रियों की, वासनाओं की, इच्छाओं की, उनकी जगह मुक्ति की, मोक्ष की, निर्वाण की, प्रभु-मिलन की, मूर्ति की प्रतिष्ठा ध्यान है।

ब-          जो व्यक्ति ध्यान को जीवन में अन्य कामों में एक काम की तरह करता है, घंटे भर ध्यान भी कर लेता है या चौबीस घण्टे ध्यान करता है-निश्चित ही उस व्यक्ति को बजाय जो व्यक्ति अपने चौबीस घंटे के जीवन को ध्यान में समर्पित करता है, चाहे दुकान पर बैठेगा तो ध्यानपूर्वक, चाहे भोजन करेगा तो ध्यानपूर्वक, चाहे बात करेगा किसी के साथ तो ध्यानपूर्वक, रास्ते पर चलेगा तो ध्यानपूर्वक, रात सोने जाएगा तो ध्यानपूर्वक, सुबह में बिस्तर से उठेगा तो ध्यानपूर्वक-ऐसे व्यक्ति का अर्थ है संन्यासी, जो ध्यान को अपने चैबीस घंटों पर फैलाने की आकांक्षा से भर गया है।

स-          निश्चित ही संन्यास ध्यान के लिए गति देगा। और मनुष्य के मन का नियम है कि निर्णय लेते ही मन बदलना शुरू हो जाता है। आपने भीतर एक निर्णय किया कि आपके मन में परिवर्तन होना शुरू हो जाता है। वह निर्णय ही परिवर्तन के लिए क्रिस्टलाइजेशन बन जाता है।

द-          कभी बैठे-बैठे इतना ही सोचें, चोरी करनी है, तो तत्काल आप दूसरे आदमी हो जाते हैं-तत्काल! चोरी करनी है इसका निर्णय आपने लिया कि चोरी के लिए जो मदद रूप है, वह मन आपको देना शुरु कर देता है सुझाव कि क्या करें, क्या न करें, कैसे कानून से बचें, क्या होगा, क्या नहीं होगा! एक निर्णय मन में बना कि मन उसके पीछे काम करना शुरु कर देता है। मन आपका गुलाम है। आप जो निर्णय ले लेते हैं, मन उसके लिए सुविधा शुरू कर देता है कि जब चोरी करनी ही है तो कब करें, किस प्रकार करें कि, फंस न जाएं, मन इसका इंतजाम जुटा देता है।

य-          जैसे ही किसी ने निर्णय लिया कि मैं संन्यास लेता हूं कि, मन संन्यास के लिए भी सहायता पहुंचाना शुरू कर देता है। असल में निर्णय न लेने वाला आदमी ही मन के चक्कर में पड़ता है। जो आदमी निर्णय लेने की कला सीख जाता है, मन उसका गुलाम हो जाता है। वह जो अनिर्णयात्मक स्थिति है वही मन है। वह जो निर्णय है, संकल्प है,मन उनके बीच में खड़ा हो जाता है, मन उसके पीछे चलेगा। लेकिन जिसके पास कोई निर्णय नहीं है, संकल्प नहीं है, उसके पास सिर्फ मन होता है। और उस मन से बहुत पीड़ित और परेशान होते हैं। संन्यास का निर्णय लेते ही जीवन का रूपांतरण शुरू हो जाता है।

र-          आदमी बहुत अनूठा है। उसका अनूठापन ऐसा है कि कोई अगर आपसे कहे कि दो हजार, या दो करोड़ या अरब तारे हैं, तो आप बिल्कुल मान लेते हैं। लेकिन अगर किसी दीवार पर नया पेंट किया गया हो और लिखा हो कि ताजा पेंट है, छूना मत, तो छूकर देखते ही हैं कि है भी ताजा कि नहीं! जब किया गया हो और लिखा हो कि ताजा पेंट है, छूना मत, तो छूकर देखते ही हैं कि है भी ताजा कि नहीं! जब तक अंगुली खराब न हो जाए तब तक मन नहीं मानता।

ल-          सूरज को बिना सोचे मान लेते हैं और दीवार पर पेंट नया हो तो छूकर देखने का मन होता है। जितनी दूर की बात हो उतनी बिना दिक्कत के आदमी मान लेता है। जितनी निकट की बात हो उतनी दिक्कत खड़ी होती है। संन्यास आपके सर्वाधिक निकट की बात है। उससे निकट की और कोई बात नहीं है। अगर जो विवाह करेंगे तो वह भी दूर की बात है। क्योंकि उसमें दूसरा सम्मिलित है, आप अकेले नहीं है। संन्यास अकेली घटना है जिसमें आप अकेले ही हैं, कोई दूसरा सम्मिलित नहीं है। बहुत निकट की बात है। उसमें आप बड़ी परेशानी में हैं। उस निर्णय को लेकर मन को बड़ी कठिनाई होती है।

 


5-असुरक्षा में जीना सीखें
 
अ-          पूर्ण असुरक्षा और उसमें जीने की क्षमता तो बुद्धि का ही प्रयोग है। जो व्यक्ति अल्पबुद्धि युक्त है,वह तो असुरक्षा में नहीं रह सकता और जो पूर्ण असुरक्षा में नहीं रह सकता वह संबुद्ध नहीं हो सकता। ये दो बातें नहीं है, ये एक ही बात को कहने के दो ढंग हैं। तो तुम असुरक्षा में रहने की तब तक प्रतीक्षा न करो जब तक तुम संबुद्ध न हो जाओ। क्योंकि फिर तो तुम कभी संबुद्ध न हो पाओगे।

ब-           असुरक्षा में जीना शुरू करों, यही बुद्धत्व का मार्ग है।इसके लिए तुम्हैं पूर्ण असुरक्षा के बारे में नहीं सोचना है। जहां तुम हो वहीं से शुरू करो। जैसे तुम हो वैसे तो किसी चीज में समग्र नहीं हो सकते, लेकिन कहीं से तो शुरू करना ही होता है। शुरू में इससे संताप होगा, शुरू में इससे दुख होगा। लेकिन बस शुरू में ही। यदि तुम शुरूआत पार कर सको, तो दुख मिट जाएगा, संताप मिट जाएगा।

स-          इस प्रक्रिया को समझना पड़ेगा। जब तुम असुरक्षित अनुभव करते हो तो परेशान क्यों होते हो? यह असुरक्षा का कारण नहीं है बल्कि सुरक्षा की मांग के कारण हैं। जब तुम असुरक्षित अनुभव करते हो तो परेशानी होने लगती है, संताप पैदा होता है। वह असुरक्षा के कारण पैदा नहीं हो रहा बल्कि जीवन को एक सुरक्षा प्रदान करने की मांग से पैदा हो रहा है। यदि तुम असुरक्षा में रहने लगो और सुरक्षा की मांग न करो तो जब मांग चली जाएगी तो संताप भी चला जाएगा। वह मांग ही संताप पैदा कर रही है।

द-          असुरक्षा तो जीवन का स्वभाव है। बुद्ध के लिए संसार असुरक्षित है; जीसस के लिए भी असुरक्षित है। लेकिन वे संतप्त नहीं है, क्योंकि उन्होनें इस तथ्य को स्वीकार कर लिया है। वे इस वास्तविकता की स्वीकृति के लिए प्रौढ़ हो गये हैं। उस व्यक्ति को मैं अपरिपक्व कहता हूं, जो कल्पनाओं और सपनों के लिए वास्तविकता से लड़ता रहता है। वह व्यक्ति अपरिपक्व है। प्रौढ़ता का अर्थ है वास्तविकता का साक्षात्कार करना, सपनों को एक ओर फेंक देना और वास्तविकता जैसी है वैसी स्वीकार कर लेना। बुद्ध प्रौढ़ है। वह स्वीकार कर लेते है कि यह ऐसा ही है।

य-          उदाहरण के लिए, भले ही मृत्यु सुनिश्चित है, पर अपरिपक्व व्यक्ति सोचे चला जाता है कि बाकी सब चाहें मर जाए लेकिन वह नहीं मरना चाहता। अपरिपक्व व्यक्ति सोचता है कि उसके मरने के समय तक कुछ खोज लिया जाएगा, कोई दवा खोज ली जाएगी, जिससे वह नहीं मरेगा। अपरिपक्व व्यक्ति सोचता है कि मरना कोई नियम नहीं है। निश्चित ही, बहुत से लोग मरे हैं, लेकिन हर चीज में अपवाद होते हैं और वह सोचता है कि वह अपवाद है।

र-          जब भी कोई मरता है तो तुम सहानुभूति अनुभव करते हो, तुम्हें लगता है, बेचारा मर गया। लेकिन तुम्हारे मन में यह कभी नहीं आता कि उसकी मृत्यु तुम्हारी भी मृत्यु है। नहीं, तुम उससे बचकर निकल जाते हो। इतनी सूक्ष्म बातों को तो तुम छूते ही नहीं। तुम सोचते रहते हो कि कुछ न कुछ तुम्हें बचा लेगा-कोई मंत्र, कोई चमत्कारी गुरु। कुछ हो जाएगा और तुम बच जाओगे। तुम कहानियों में, बच्चों की कहानियों में जी रहे हो।

ल-          प्रौढ़ व्यक्ति वह है जो इस तथ्य की ओर देखता है और स्वीकार कर लेता है कि जीवन और मृत्यु साथ-साथ हैं। मृत्यु जीवन का अंत नहीं है, वह तो जीवन का शिखर है। वह जीवन के साथ घटी कोई दुर्घटना नहीं है, वह तो जीवन के हृदय में विकसित होती है और एक शिखर पर पहुंचती हैं। प्रौढ़ व्यक्ति मृत्यु को स्वीकार कर लेता है और उसे मृत्यु का कोई भय नहीं रहता। वह समझ लेता है कि सुरक्षा असंभव है।

व-          तुम चाहे एक चारदीवारी बना सकते हो, बैंक बैलेंस रख लो, स्वर्ग में सुरक्षा पाने के लिए धन दान दे दो, तुम सब कर लो, लेकिन गहरे में तुम जानते हो कि असल में कुछ भी सुरक्षित नहीं है। बैंक तुम्हें धोखा दे सकता है। और पुरोहित धोखेबाज हो सकता है, वह सबसे बड़ा धोखेबाज हो सकता है, कोई नहीं जानता।

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