Monday, March 11, 2013

जीवन जीने का पवित्र मार्ग

1-भक्ति में प्रेम मार्ग-
 
          प्रेम शक्ति भी है और आसक्ति भी। जब व्यक्ति का प्रेम कामना रहित होता है तो यह शक्ति होती है और जब प्रेम में किसी चीज को पाने का लोभ रहता है तो यह आसक्ति बन जाती है। सच्चा प्रेम वह होता है जो प्रेम में किसी प्रकार का लोभ और किसी चीज को पाने की कामना नहीं रखता है। ऐसा व्यक्ति प्रेम में ऐसा कमाल कर जाता है कि, बड़े से बड़े बलवान और धनवान उसके आगे घुटने टेक देते हैं।

          प्रह्लाह का आग के शोलों में भी मुस्कुराते हुए रहना और तुलसीदास का उफनती नदी को पार कर जाना यह प्रेम की शक्ति का उदाहरण है। संतजन कहते हैं कि जिसके हृदय में सच्चा प्रेम होता है वही व्यक्ति ईश्वर का भक्त हो सकता है। जरूरत है बस प्रेम की चाहे वह पैसे से हो, किसी स्त्री से, बच्चे से या अन्य सांसारिक वस्तुओं से।

          अगर हृदय में प्रेम होगा ही नहीं तो ईश्वर क्या संसार में किसी चीज से लगाव हो ही नहीं सकता। भगवान से प्रेम करना वास्तव में उसी प्रकार है जैसा एक दिशाहीन गाड़ी को सही दिशा देना। संत श्री गोकुलनाथ जी ने कहा है कि जिसके हृदय में प्रेम का अंकुर होता है उस व्यक्ति को भक्ति की ओर प्रेरित किया जा सकता है, क्योंकि प्रेम का वृक्ष तभी उग सकता है जब प्रेम का बीज, प्रेम का अंकुर हृदय में मौजूद हो। बिना बीज के खेती भला कैसे हो सकती है।

          इस संदर्भ में एक कथा है कि एक बार संत श्रीगोसाईं गोकुलनाथ जी के यहां एक धनवान व्यक्ति बहुत सारा धन लेकर शिष्य बनने की कामना से आया। गोसाईं जी ने उस व्यक्ति से पूछा कि क्या तुम्हारा कहीं किसी वस्तु पर ऐसा स्नेह है, जिसके बिना तुम्हारा मन व्याकुल हो जाता हो। उस व्यक्ति ने उत्तर दिया मेरा कहीं किसी वस्तु में तनिक भी स्नेह नहीं है।

          उत्तर सुनकर गोसाईं जी ने कहा कि फिर तो हम तुम्हें दीक्षा कदापि नहीं दे सकते। तुम किसी और गुरू को ढूंढ लो। भक्तिमार्ग में प्रेम ही प्रधान है। व्यक्ति का जो प्रेम संसार से होता है, दीक्षा शिक्षा से उसी को पलटकर भगवान में लगा दिया जाता है। जब तुम्हारे हृदय में कहीं प्रेम है ही नहीं तो भगवान के प्रेम से भला कैसे सराबोर हो सकते है।
 
 

2-अपने लिये कर्ज को अवश्य चुकाएं-
 
          लोग सुख-सुविधा में वृद्धि के लिए हर उपाय करते हैं, किसी से कर्ज लेना पड़े तो इसमें हिचकते नहीं हैं। लेकिन जब कर्ज चुकाने का समय आता है तो दस तरह के बहाने बनाने शुरू कर देते हैं। जब कर्ज देने वाला व्यक्ति पीछे पड़ जाता है तब उससे कन्नी काटते फिरते हैं कि, कहीं आमना-सामना न हो जाएं। मन में यह भी विचार आता रहता है कि किसी तरह कर्ज देने वाला व्यक्ति मर जाए ताकि कर्ज चुकाने के झंझट से मुक्ति मिल जाए। ऐसी स्थिति तब होती है जब कर्ज चुकाने की भावना नहीं रहती है। लेकिन आप चाहें न चाहें बिना कर्ज चुकाये मुक्ति नहीं मिल सकती।

          आप वर्तमान रूप में चुकाएं अथवा किसी अन्य रूप में कर्ज हर हाल में चुकाना पड़ता है। जिसने आपको कर्ज दिया है वह आपसे हर हाल में कर्ज वसूल कर रहेगा। इस नियम से भगवन भी वंचित नहीं है। तिरूपति बालाजी के विषय में मान्यता है कि इन्होंने विवाह के लिए कुबेर से सोना ऋण लिया था। जब तक बालाजी कुबेर का ऋण नहीं चुका देते तब तक इन्हें पृथ्वी लोक में रहना होगा। इसी मान्यता के कारण तिरूपति मंदिर में सोना चढ़ाया जाता है।

          ग्रामीण इलाकों में किसी की अल्पायु में मृत्यु होने पर लोग आज भी कहते हैं कि मरने वाला व्यक्ति किसी कर्ज की वसूली के लिए आया था। शास्त्रों में कहा गया है कि मृत्यु के समय किसी भी प्रकार का बंधन नहीं होना चाहिए। कर्ज भी एक प्रकार का बंधन बताया गया है जो जीवात्मा को बार-बार जीवन मृत्यु के चक्र में भटकाता है इसलिए जिससे कर्ज लिया है उसका कर्ज समय रहते चुका देना चाहिए।
 
 

3-पाप की पूंजी जमां न करें-
 
          आपने कभी किसी के ऊपर हो रहे अत्याचार के विरूद्ध आवाज उठायी है। किसी कमज़ोर और लाचार को पिटता देखकर मदद के लिए आगे आएं हैं। अगर आपने ऐसा नहीं किया है तो समझ लीजिए आपने अपने खाते में पाप की पूंजी जमा कर ली है। शास्त्रों में जिस प्रकार से पाप और पुण्य को परिभाषित किया गया है उसके अनुसार जो व्यक्ति किसी को कष्ट में देखकर उसकी मदद नहीं करता है। किसी के भय से अथवा अपने स्वार्थ के कारण झूठ बोलता है और शरण में आये व्यक्ति की रक्षा नहीं करता है वह पापी है।

          इस संदर्भ में एक कथा का उल्लेख पुराणों में मिलता है। एक थे राजा शिवि। इनके धार्मिक स्वभाव और दयालुता एवं परोपकार के गुण की ख्याति स्वर्ग में भी पहुंच गयी। इन्द्र और अग्नि देव ने योजना बनायी कि राशि शिवि के गुणों को परखा जाए। एक दिन अग्नि देव कबूतर बने और इन्द्र बाज। कबूतर उड़ता हुआ राजा शिवि की गोद में आकर बैठ गया और अपनी रक्षा के लिए प्रार्थना करने लगा। इसी बीज बड़ा सा बाज राजा शिवि के पास पहुंचा और कबूतर को वापस करने के मांग करने लगा। बाज ने कहा कि, कबूतर मेरा आहार है अगर आप मुझे वापस नहीं करेंगे तो आपको मुझे भूखा रखने का पाप लगेगा।

          बाज की बातों को सुनकर राजा शिवि ने कहा कि कबूतर मैं तुम्हें नहीं दूंगा अगर कोई अन्य उपाय है तो बताओ। बाज ने कहा कि कबूतर के मांस के बराबर मुझे मांस दे दीजिए इससे मेरा काम हो जाएगा। राजा ने विचार किया कि एक जीव को बचाने के लिए दूसरे जीव का कष्ट देना पाप होगा। यही सोच कर राजा ने कबूतर को तराजू के एक पलडे में डाल दिया और अपने शरीर से मांस काटकर दूसरे पलड़े में रखने लगे। लेकिन काफी मांस रखने के बाद भी पलड़ा हिला तक नहीं। अंत में राजा शिव स्वयं दूसरे पलड़े पर बैठ गये और बाज से कहा कि तुम मुझे खाकर अपनी भूख शांत कर लो।

          राजा के इस दयालुता और शरण में आये हुए कि मदद करने की भावना को देखकर कबूतर अग्नि देव और बाज देवराज इन्द्र के रूप में प्रकट हुए। आसमान से फूलों की वर्षा होने लगी। देवराज इन्द्र ने कहा कि तुम ने धर्म की लाज रखी है। जो शरण में आये की रक्षा नहीं करता वह पापी है। कमज़ोर की सहायता न करने वाला भी अधर्मी है। दोनों देवताओं ने राजा शिवि को आशीर्वाद दिया और स्वर्ग चले गये।
 
 

4-भगवान की नजर में सब एक समान हैं-
 
          इतिहास के पन्नों को उलट करके देखेंगे तो पाएंगे कि आज जितना ऊंच-नीच एवं अमीर-गरीब का भेद-भाव है वह वैदिक काल के आरंभ में नहीं था। उस समय सामाजिक व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए कर्म के अनुसार वर्ग विभेद किया गया। लेकिन बाद में व्यवस्थाओं में जटिलता आती गयी और भेद-भाव बढ़ता गया। लेकिन यह भेद-भाव ऊपरी स्तर पर है। मूल में कहीं भेद-भाव नहीं है। मूल ईश्वर है और ऊपरी दुनिया वह है जहां हम मनुष्य और जीव-जन्तु विचरण करते हैं।

          भगवान की नज़र में सभी एक समान हैं। ईश्वर की दृष्टि में न तो जात-पात है और न लिंग भेद। श्री रामानंदाचार्य ने कहा है 'जात-पात पूछे न कोई। हरि को भजे सो हरि का होई।।' भगवान कभी किसी के साथ किसी आधार पर भेद-भाव नहीं करते हैं। केवट ने भगवान से प्रेम किया तो भगवान� बिना किसी भेद-भाव के केवट की नैया में बैठे और केवट की जीवन नैया को पार लगा दिया। श्री राम के चरण रज को पीकर केवट परम पद पाने में सफल हुआ।

          भगवान की दृष्टि में सभी बराबर हैं इसका उदाहरण भक्त सबरी के जीवन की एक घटना है। सबरी भील जाति की एक महिला थी। राम की भक्ति इनके मन में ऐसी बसी की राम में ही खुद को अर्पित कर दिया। एक बार सबरी मार्ग में झाड़ू लगा रही थी उस समय साधुओं का एक समूह मार्ग से गुजरा। अनजाने में सबरी का स्पर्श साधुओं से हो गया।

          साधु इससे नाराज हुए कि एक भीलनी उससे स्पर्श कर गयी। भगवान को यह बात अच्छी नहीं लगी। साधुओं को जात-पात के भेद-भाव की नासमझी को दूर करने के लिए भगवान ने एक लीला की। साधुगण जिस सरोवर में स्नान करते थे। उस सरोवर में जैसे ही साधुओं ने प्रवेश किया सरोवर का जल दूषित हो गया। सरोवर के जल से बदबू आने लगी।

          साधुओं ने सरोवर के जल को शुद्घ करने के लिए कई हवन और यज्ञ किया लेकिन कोई परिणाम नहीं निकला। एक दिन सीता की खोज करते हुए भगवान राम जब सबरी की कुटिया में पधारे तब साधुओं को अपने ऊपर काफी ग्लानि हुई। उन्हें समझ में आ गया कि सबरी की भक्ति उनकी भक्ति भावना से बढ़कर है। सभी साधु सबरी की कुटिया में पधारे।

          भगवान राम के दर्शनों के पश्चात साधुओं ने राम से प्रार्थना की, कि सरोबर के जल को निर्मल करने का उपाय बताएं। भगवान राम ने साधुओं से कहा कि आप सबरी के पैरों को धोएं और उस जल को ले जाकर सरोबर में मिलाएं। इस उपाय को करने से सरोबर का जल निर्मल हो जाएगा। साधुओं ने ऐसा ही किया और सरोवर का जल सुगंधित और स्वच्छ हो गया>
 
 

5-श्री कृष्ण और शंकर में छिड गया था युद्ध-
 
          भगवान श्री कृष्ण विष्णु के अवतार माने जाते हैं। भगवान विष्णु और शिव एक दूसरे के भक्त भी हैं। पुराणों में जो कथाएं मिलती हैं उनके अनुसार शिव को नहीं मानने वाला व्यक्ति विष्णु का प्रिय नहीं हो सकता। इसी प्रकार विष्णु का शत्रु शिव की कृपा का भागी नहीं हो सकता है। लेकिन एक घटना ऐसी हुई जिससे भगवान शिव और विष्णु के अवतार श्री कृष्ण युद्ध में आमने सामने आ गये, और छिड़ गया महासंग्राम।

          पुराणों में शिव और श्री कृष्ण के बीच हुए युद्ध की जो कथा मिलती है उसके अनुसार। राजा बलि के पुत्र वाणासुर ने भगवान शिव की तपस्या करके उनसे सहस्र भुजाओं का वरदान प्राप्त कर लिया। वाणासुर के बल से भयभीत होकर सभी उससे युद्ध करने से डरते थे। इससे वाणासुर को बल का अभिमान हो गया।

          वाणासुर की पुत्री उषा ने एक रात स्वप्न में श्री कृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध को देखा। उषा स्वप्न में ही अनिरुद्ध को देखकर उस पर मोहित हो गयी। उषा ने अपने मन की बात सखी को बतायी। सखी ने अपनी मायावी विद्या से अनिरुद्ध को उसके पलंग सहित महल से चुरा कर उषा के शयन कक्ष में पहुंचा दिया। अनिरुद्ध की नींद खुली तो उसकी नज़र उषा पर गयी, अनिरुद्ध भी उषा के सौन्दर्य पर मोहित हो गया।

          जब वाणासुर को पता चला कि उसकी पुत्री के शयन कक्ष में कोई पुरूष है तो सैनिकों को लेकर उषा के शयन कक्ष में पहुंचा। वहां पर वाणासुर ने अनिरुद्ध को देखा। वाणासुर के क्रोध की सीमा न रही और उसने अनिरुद्ध को युद्ध के ललकारा। वाणासुर और अनिरुद्ध के बीच युद्ध होने लगा। वाणासुर के सभी अस्त्र विफल हो गये तब उसने नागपाश में अनिरुद्ध को बांध कर बंदी बना लिया।

          इस पूरी घटना की जानकारी जब श्री कृष्ण को मिली तो वह अपनी सेना के साथ वाणासुर की राजधानी में पहुंच गये। श्री कृष्ण और वाणासुर के बीच युद्ध होने लगा। युद्ध में अपनी हार होता हुआ देखकर वाणासुर को शिव की याद आयी जिसने वाणासुर को संकट के समय रक्षा करने का वरदान दिया था।

          वाणासुर ने शिव का ध्यान किया तो शिव जी युद्ध भूमि में प्रकट हो गये। वाणासुर की रक्षा के लिए शिव ने श्री कृष्ण से कहा कि युद्ध भूमि से लौट जाएं अन्यथा मेरे साथ युद्ध करें। श्री कृष्ण ने शिव से युद्ध करना स्वीकार किया और छिड़ गया शिव एवं श्री कृष्ण के बीच महासंग्राम। श्री कृष्ण ने देखा कि शिव के रहते हुए वह वाणासुर को परास्त नहीं कर सकते तो उन्होंने शिव से कहा कि मेरे हाथों से वाणासुर का पराजित होना विधि का विधान है।

          आपके रहते मैं विधि के इस नियम का पालन नहीं कर पाऊंगा श्री कृष्ण कि इन बातों को सुनकर भगवान शिव युद्ध भूमि से चले गये। इसके बाद श्री कृष्ण ने वाणासुर चार बाजुओं को छोड़कर सभी को सुदर्शन चक्र से काट दिया। वाणासुर का अभिमान चूर हुआ और उसने श्री कृष्ण से क्षमा मांगकर अनिरुद्ध का विवाह उषा से करवा दिया।
 
 
 
6-जीसस क्राइस्ट कृष्ण के अवतार थे-
 
          लुईस जेकोलियत ने 1869 ई. में अपनी एक पुस्तक 'द बाईबिल इन इंडिया' में लिखा है कि जीसस क्राइस्ट और भगवान श्री कृष्ण एक थे। लुईस जेकोलियत फ्रांस के एक साहित्यकार और वकील थे। इन्होंने अपनी पुस्तक में कृष्ण और क्राईस्ट का तुलना प्रस्तुत की है। इन्होंने अपनी पुस्तक में यह भी कहा है कि क्राईस्ट शब्द कृष्ण का ही रूपांतरण है। क्राइस्ट के अनुयायी क्रिश्चियन कहलाये।

          जीसस शब्द के विषय में लुईस ने कहा है कि क्राईस्ट को 'जीसस' नाम भी उनके अनुयायियों ने दिया है इसका संस्कृति में अर्थ होता है 'मूल तत्व'। भगवान श्री कृष्ण को गीता एवं धार्मिक ग्रंथों में इस रूप में ही व्यक्त किया गया है। जीसस क्राइस्ट के विषय में यह भी उल्लेख मिलता है कि इन्होंने अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा भारत में बिताया।

          निकोलस नातोविच नामक एक रूसी युद्घ संवाददाता ने अपनी पुस्तक 'द अननोन लाईफ ऑफ जीसस क्राइस्ट' में लिखा है कि जीसस ने अपने जीवन का 18 वर्ष भारत में बिताया। जीसस प्राचीन व्यापारिक मार्ग सिल्क रूट से भारत आये थे। इन्होंने तिब्बत और कश्मीर के मोनेस्ट्री में काफी समय बिताया और बौद्घ एवं भारतीय धर्म ग्रंथों एवं आध्यात्मिक विषयों का अध्ययन किया। अपनी भारत यात्रा के दौरान जीसस ने उड़ीसा के जगन्नाथ मंदिर की भी यात्रा की थी एवं यहां रहकर इन्होंने अध्ययन किया था।

          माना जाता है कि भारत में जब बौद्घ धर्म एवं ब्राह्मणों के बीच संघर्ष छिड़ा तब जीसस भारत छोड़कर वापस चले गये। भारत से वापसी के समय जीसस पर्सिया यानी वर्तमान ईरान गये। यहां इन्होंने जरथुस्ट्र के अनुयायियों को उपदेश दिया। जीसस के विषय में यह भी मान्यता है कि जीसस जीवन के अंतिम समय में पुनः भारत आये थे।

          सादिक ने अपनी ऐतिहासिक कृति 'इकमाल-उद्-दीन' में उल्लेख किया है कि जीसस ने अपनी पहली यात्रा में तांत्रिक साधना एवं योग का अभ्यास किया। इसी के बल पर सूली पर लटकाये जाने के बावजूद जीसस जीवित हो गये। इसके बाद ईसा फिर कभी यहूदी राज्य में नज़र नहीं आये। यह अपने योग बल से भारत आ गये और 'युज-आशफ' नाम से कश्मीर में रहे। यहीं पर ईसा ने देह का त्याग किया ।

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