1- लगभग सभी सम्बन्ध बहुत ज्यादा स्पष्टीकरण देने के कारण टूट जाते हैं - मैं ऐसा ही हूँ । मुझे गलत मत समझो । मेरा वो अर्थ नहीं था । यदि तुम चुपचाप रहते तो बेहतर होता । मैं तुम्हें बातचीत बंद करने के लिए नहीं कह रहा, केवल इतना कह रहा हूँ कि पुरानी बातों पर चिंतित न होओ, न तो स्पष्टीकरण दो और न मांगो ।
2- यह जान लो की अपमान तुम्हें शक्तिहीन नहीं शक्तिशाली बनाता है। तुम जितने अहंकारी हो, उतना अपमान अनुभव करोगे । जब तुम शिशु की भांति सुलभ हो, अपनेपन की भावना में हो, तो तुम अपमानित नहीं होते । यदि तुम सृष्टि के, प्रभु के प्रेम में ओत प्रोत हो, तो तुम्हारा अपमान हो ही नहीं सकता ।
3- प्रेम अधूरा है और उसे अधूरा ही रहना होगा। यदि कुछ पूरा हो जाये तो उसकी सीमाएं बैठा दी गयी हैं, वह कहीं ख़त्म होता है। प्रेम को असीमित रहने के लिए उसे अधूरा ही रहना होगा।
4- सुन्दरता दिल की भाषा है - जो श्रृंगार करती है, विस्तार करती है और बढ़ा चढ़ा कर कहती है। जब तुम कविता पढ़ते हो, गाना गाते हो या कोई वर्णन देते हो, वह हमेशा दिल से ही होता है। विश्लेषण या स्पष्टीकरण मन से होता है। न्याय या समानता बुद्धि से होती है। विलक्षणता केवल दिल से होती है। दिल सब कुछ विशेष बना देता है।
5- तुम नहीं जानते कि तुम वास्तव में कौन हो । यदि किसी के रसोईघर में जाओ तो कई बार डब्बे में कुछ होता है और उस पर लगे परचे पर कुछ और लिखा होता है । तुम एकदम ऐसे ही हो । तुम अपने ऊपर परचा या लेबल लगा लेते हो पर भीतर से तुम एकदम अलग हो ।आज की यही दुनियॉ है । अपने सारे लेबल उतार कर फेंक दो ।
6- स्वयं से पूछो कि तुम्हें अपने सच्चे मित्र से क्या चाहिए । तुम पाओगे कि वह कुछ भी नहीं है । तुम्हें केवल मित्रता चाहिए । मित्रता तुम्हारा स्वभाव है । उसका कोई और उद्देश्य नहीं । यह इतना महत्त्वपूर्ण नहीं कि तुम्हारी मित्रता किससे है।
7- मुझे तुमसे केवल दो बातें कहनी हैं । एक तो यह कि जीवन में कोई दुःख नहीं है । जागकर देखो, कोई दुःख, कोई शोक नहीं है । अगर इससे बात नहीं बनती तो दूसरी यह कि अपना दुःख मुझे दे दो ।
8- यह विश्व ऐसा ही है जैसी तुम्हारी दृष्टि है। एक भूखे व्यक्ति को चाँद रसगुल्ले जैसा दीखता है। एक प्रेमी को चाँद में अपने प्रियतम का मुखड़ा नज़र आता है । दैवी प्रेम पा लेने पर प्रेम के सिवा कुछ और दीखता ही नहीं है। पूर्णता को प्राप्त होने पर केवल पूर्णता ही दिखती है।
9- पूर्णता और कृतज्ञता की स्थिति में तुम्हारे भीतर अर्पण करने का भाव जगता है| "आपने मुझे यह विश्व दिया, मैं इसे वापस आपको ही अर्पित करता हूँ| आपने मुझे यह शरीर दिया, मैं इस शरीर का कण कण आपको अर्पित करता हूँ| मैं आपका ही हूँ|" यह तीव्र भावना विलीन होने की, अपने लिए कुछ न रखते हुए सब कुछ प्रभु को समर्पित कर देने की, स्वयं को ही अर्पित करने की, यह भावना पूजा है|
10- ऐसा कहा जाता है कि जब तुम उनके लिए गाते हो तो ईश्वर का तुममें उदय होता है । जब तुम गाते हो तो तुम्हें दैवी प्रेम का अनुभव होता है । यह बात निश्चित है । ईश्वर केवल तुम्हारे अपने भीतर और गहराई में जाने की प्रतीक्षा कर रहे हैं, ताकि वे तुम्हें और भी अमृत से भर दें । वे तुम्हें और भी देने की प्रतीक्षा कर रहे हैं । अपने दिल से उन्हें पुकारो, आत्मा से आवाज़ दो ।
11- प्रेम देने का आनंद इतना रसमय रहता है कि । जब ऐसी अवस्था तुम्हारे भीतर स्थापित हो जाती है, तो तुम सभी को प्रेम बांटने लगते हो - केवल मनुष्यों को ही नहीं, जंतुओं को, वृक्षों को, सितारों को । केवल एक प्रेममयी दृष्टि से भी सबसे दूरवर्ती तारे तक प्रेम पहुँच जाता है, प्रेममय स्पर्श से एक वृक्ष तक पहुँच जाता है । प्रेम संपूर्ण मौन में, बिना शब्द कहे भी व्यक्त हो सकता है ।
12- जो भी तुम्हारी परेशानी हो, उसे पूरी तरह त्याग दो । यदि तुम आज मुक्त नहीं हो, तो और किसी समय भी मुक्त नहीं हो सकते । मुक्ति तुम्हारे पास आयेगी, ऐसी अपेक्षा मत करो । "आज मैं मुक्त हूँ! जो जैसा होना है, वैसा ही होगा ।
13- जब तुम प्रेम से भर जाते हो तो उसे बांटने लगते हो। और तब यह आश्चर्य की बात पता चलता है कि जब तुम प्रेम देने लगते हो, तुम प्रेम पाने भी लगते हो - अज्ञात साधनों से, अनजान लोगों से, पेड़ों से, नदियों से, पहाड़ों से, सृष्टि के कोने कोने से तुमपर प्रेम कि वर्षा होने लगती है। जितना तुम देते हो, उतना तुम्हें मिलता है। जीवन प्रेम का नृत्य सा बन जाता है। 15-तुम्हें कैसे पता है कि मुझसे पूछने पर तुम्हें उत्तर मिलेगा, कि वह सही उत्तर होगा । यह श्रद्धा है ।
14- जब प्रेम चमकता है, वही आनंद है । जब वह बहता है, वही करुणा है । जब वह भड़कता है, वही क्रोध है । जब वह खमीर होता है, वही ईर्ष्या है । जब वह नकारात्मक है, वही घृणा है । जब वह क्रियाशील होता है, वही निपुणता है । जब वह अनुभूति है, वही मैं हूँ ।
15- प्रेम और आसक्ति में क्या अंतर है? आसक्ति वह है जो तुम्हें पीड़ा दे । प्रेम वह है जिसके बिना तुम जी नहीं सकते । यदि प्रेम आसक्ति बन जाये तो वही प्रेम जो आनंद देता था, पीड़ा देने लगता है । आसक्ति में तुम्हें बदले में कुछ चाहिए । यदि तुम प्रेम करो और बदले में कोई अपेक्षा न रखो तो वह प्रेम आसक्ति में नहीं परिणत होता ।
16- सामान्यतः शरण लेने में दुर्बलता, असफलता या गुलामी की भावना मानी जाती है । पर शरणागत होने का एक और पहलु है जिसमें स्वतंत्रता है । इसका अर्थ है सीमितता से असीमितता तक बढ़ना, दिव्यता में, सृष्टि के विशाल शक्तिशाली सिन्धु में विलीन हो जाना । शक्तिहीन व्यक्ति शरणागत नहीं हो सकता । जब तुम तनाव, भय, चिंता और संकीर्णता को छोड़ देते हो, तो तुम्हारे भीतर स्वंत्रता, वास्तविक आनंद और सच्चा प्रेम उदित होता है ।
17- मृत्यु के समय केवल दो ही प्रश्न सामने रह जाते हैं:
१) तुमने कितना प्रेम बांटा और
२) तुमने कितना ज्ञान प्राप्त किया
18- जब हम जीवन के स्रोत से जुड़ जाते तो सारी चिंताएं और तनाव बिखर जाते हैं; हम गा सकते हैं, नाच सकते हैं, प्रसन्न हो सकते हैं । जीवन अत्यंत आनंदमय हो जाता है ।
19- अहंकार पर कैसे जीत पाएं? अहंकार तुम्हारे और दूसरों के बीच दीवार जैसा है । पर वास्तव में कोई दीवार नहीं है । तुम मेरे हो और मैं तु म्हारा । तुम जैसे भी हो स्वीकार्य हो । सहजता अहंकार की दवा है । अहंकार सहजता को नहीं झेल सकता । बच्चे कितने सहज होते हैं । बस बच्चे बनकर रहो ।
20- जब प्रेम तुम्हारे अनुभव में आने लगता है तो तुम सजग होने लगते हो । तुम वही पहचान सकते हो जो तुम जानते हो । जब प्रेम पहली बार तुम्हारे अन्तर्भाग को भर देता है, तो तुम पूर्णतः अभिभूत हो जाते हो । तुम्हारा ह्रदय नृत्य करने लगता है, दिव्य संगीत सुनाई देने लगता है और ऐसी सुगंधें आने लगती है जो पहले कभी महसूस नहीं हुईं ।
21- जब हमारे जीवन में व्यक्तिगत ज़रूरतें और इच्छाएं नहीं रहतीं, तो एक अद्भुत, रहस्यमयी प्रतिभा जाग उठती है जिससे हम दूसरों को आशीर्वाद दे सकते हैं । जब हमें अपने लिए कुछ नहीं चाहिए तो हममें दूसरों की इच्छाएं पूर्ण करने की शक्ति आ जाती है ।
22- जब तुम्हें आदर मिलता है, तो प्रायः तुम्हारी स्वतंत्रता कुछ कम हो जाती है । ज्ञान यही है कि स्वतंत्रता को प्राथमिकता देना और आदर कि चिंता न करना । जहां सच्चा प्रेम है, वहां आदर सहज ही होता है ।
23- यह सारा ब्रह्माण्ड केवल समूहों से बना है - परमाणुओं के, गुणों के, शक्ति के| गण का अर्थ है समूह और समूह अधिपति के बिना नहीं रह सकता| गणेश का जन्म अव्यक्त, अद्वितीय चेतना से हुआ जिसका नाम शिव है| जैसे परमाणुओं के जुड़ने से पदार्थों की उत्पत्ति होती है, उसी तरह हमारी चेतना के सभी पहलू जुड़ने पर दिव्यता सहज ही उत्पन्न होती है और वही शिव से गणेश का जन्म है|
24- दुर्भाग्यशाली हैं वे जो इच्छाएं करते रहते हैं पर जिनकी इच्छाएं पूरी नहीं होतीं| थोड़े भाग्यवान हैं वे जिनकी इच्छाएं बहुत समय बाद पूरी होती हैं| उनसे भी अधिक भाग्यशाली हैं वे जिनकी इच्छाएं उठते ही पूरी हो जाती हैं| सबसे सौभाग्यशाली हैं वे जिनकी इच्छाएं नहीं बचीं क्योंकि वे उठने से पहले ही पूरी हो जाती हैं|
25- तुम प्रेम को बुद्धि द्वारा नहीं समझ सकते । उसे अनुभव करना होगा । और अनुभव करने तके लिए संश्लेशण की आवश्यकता है,विश्लेषण की नहीं । उसे जानने के लिए उसके साथ एक होना होगा । तुम जो भी बुद्धि से जानते हो वह थोडी दूरी पर है । ज्ञाता ज्ञेय का भेद हमेशा रहेगा । पर प्रेम ऐसा नहीं है । मिठाई का स्वाद उसे खाने में है,संगीत का रस उसे सुनने में है । उसी तरह,प्रेम अनुभव में है ।
26- जब हम आनंद की चाह में कर्म करते हैं तो वह कर्म निम्न हो जाता है। जैसे तुम प्रसन्नता फैलाना चाहते हो पर यदि तुम जानना चाहो कि वह व्यक्ति प्रसन्न हुआ कि नहीं तो तुम चक्रव्यूह में फंस जाते हो। इस बीच तुम अपना सुख खो बैठते हो। अपने कर्म के फल कि चिंता तुम्हें नीचे खींचती है। पर जब हम कोई कर्म आनंद की अभिव्यक्ति के रूप में करते हैं और फल की चिंता नहीं करते, वह कर्म ही पूर्णता ले आता है।
27- तुम जैसे ही भीतर से कोमल होते हो, कठोरता छूट जाती है, बंधन में होने की भावना चली जाती है, सुख समृद्धि आने लगती है। जब तुम सौम्य और बिना प्रतिरोध के होते हो, तो यश भी आता है। प्रकृति तुम्हें देती है। आध्यात्मिक पथ पर यही सत्य है।
28- हम जो कुछ भी हैं अपनी स्मृति के कारण हैं।अनंत को भूल जाना दुःख है । तुच्छ को भूल जाना आनंद है ।
29- प्रेम और पीड़ा साथ साथ चलती है। जब तुम किसीसे प्रेम करते हो, एक छोटा सा कर्म भी चोट पहुंचा सकता है। और तब तुम बहुत नाज़ुक हो जाते हो। प्रेम और वियोग के एक जैसे ही लक्षण हैं। यदि तुम किसीसे प्रेम नहीं करते, वे तुम्हें पीड़ा नहीं दे सकते। यह समझ लो और स्वीकार कर लो। तब वह पीड़ा घाव में परिणत नहीं होगी। बल्कि वह पीड़ा तुम्हें वैराग्य और ध्यान की गहराईओं में ले जाएगी।
30- ज़रा अपने मन में शोर को देखो। वह किस विषय में है? धन? यश? सम्मान? तृप्ति? सम्बन्ध? शोर सदा किसी बारे में होता है; मौन शून्य के बारे में होता है। शोर ऊपरी सतह है; मौन आधार है।
31- ज़रा अपने मन में शोर को देखो। वह किस विषय में है? धन? यश? सम्मान? तृप्ति? सम्बन्ध? शोर सदा किसी बारे में होता है; मौन शून्य के बारे में होता है। शोर ऊपरी सतह है; मौन आधार है।
32- तुम जिसका भी सम्मान करते हो, वह तुमसे बड़ा हो जाता है। यदि तुम्हारे सभी सम्बन्ध सम्मान से युक्त हैं, तो तुम्हारी अपनी चेतना का विकास होता है। छोटी चीज़ें भी महत्त्वपूर्ण लगती हैं। हर छोटा प्राणी भी गौरवशाली लगता है। जब तुममें सरे विश्व के लिए सम्मान है, तो तुम ब्रह्माण्ड के साथ लय में हो।
33- तुममें एक कर्ता है और एक साक्षी है। कर्ता स्पष्ट या अनिश्चय में हो सकता है, पर साक्षी केवल देखता और मुस्कुराता है। जितना यह साक्षी तुममें बढ़ेगा, तुम उतने आनंदी और अप्रभावित रहोगे। तब निष्ठा, श्रद्धा, प्रेम और आनंद तुम्हारे भीतर और चारों ओर खिल उठेंगे।
34- जब मैं-पन ख़त्म हो जाता है, कर्ता घुल जाता है, तब केवल शक्ति रह जाती है, केवल आनंद| यह प्रयत्न से नहीं, केवल गहरे विश्राम में ही संभव है। केवल यह भाव रखना "यह शक्ति मुझमें यहीं पर इसी क्षण उपस्थित है" पर्याप्त है।
35- वह आत्मा जो तुम्हारा जीवन चला रही है, पवित्र है। जब तुम अपनी चेतना का सम्मान करते हो, तो तुममें बाकी सभी गुण भी अनायास ही अभिव्यक्त होने लगते हैं।
36- उत्साहपूर्ण रहो, यह जीवन को पूरी तरह जीने का मापदंड है। जीवन उत्साह है, पर उसे खोने की प्रक्रिया को आज हम जीना कहते हैं। अपना उत्साह बनाये रखो। यह तुम्हें दिल से युवा रखेगा।
37- अपने मन में दिव्य ज्योति अनुभव करने की इच्छा रखो। जीवन के उत्कृष्ट लक्ष्य कुछ पलों के ध्यान और अन्तरावलोकन से ही साधे जा सकते हैं। शांति के कुछ पल रचनात्मकता का स्रोत होते हैं। दिन में किसी न किसी समय कुछ क्षणों के लिए अपने ह्रदय की गुफा में बैठो, आँखें बंद करो और दुनिया को गेंद की भांति फेंक दो। पर बाकी समय, अपने काम में १००% आसक्ति रखो। अंत में तुम आसक्त और अनासक्त दोनों रह पाओगे। यही जीवन जीने की कला है।
38- यद्यपि नदी विशाल है, तुम्हारी प्यास एक घूँट से भर जाती है। यद्यपि पृथ्वी पर इतना भोजन है, थोड़ा सा ही तुम्हारा पेट भर देता है। तुम्हें केवल थोड़े थोड़े की ही आवश्यकता है। जीवन में हर चीज़ का छोटा सा अंश स्वीकार करो, उससे तुम्हें संतुष्टि मिलेगी। आज रात सोने तृप्ति की भावना के साथ जाओ, और अपने साथ दिव्यता का एक छोटा सा अंश ले जाओ।
39- जीवन हर घटना में तुम्हें उसे छोड़कर आगे बढ़ना सिखाता है। जब तुम्हें छोड़ देना आ जाता है, तुम आनंद से भर जाते हो, और जब तुम आनंदित होते हो, तो तुम्हें और दिया जाता है।
40- घर क्या होता है? एक ऐसी जगह जहाँ तुम्हें विश्राम मिले। जहाँ तुम अपने स्वभाव में आराम से रहो। मेरे लिए पूरी दुनिया मेरा घर है। मैं जहाँ जाता हूँ, सबसे एक जैसी आत्मीयता महसूस करता हूँ। यह संपूर्ण विश्व मेरा परिवार है, मेरा घर है।
41-जब तुम सुन्दरता में आनंदित होते हो, तो यह प्रकृति तुम्हारे साथ आनंदित होती
है। प्रकृति में इतनी विविधता का उद्देश्य ही है तुम्हें अपने आत्म में लाना - कि
तुम सुन्दर हो, तुम सौंदर्य ही हो।
42-देवता खेले विविध ज्योति से होली
ज्ञानी खेले विविध तत्त्वों से होली
भक्त खेले विविध भावों से होली
ध्यानी खेले विविध चक्रों से होली
योगी खेले कर्मों से होली
मूर्ख खेले कीचड से होली
असुर खेले राग द्वेष की होली
चलो हम खेलें फूल चन्दन से होली
हर दिन सेवा प्रार्थना की होली
43-जब तुम्हें कुछ करना है तो अपने बल पर ध्यान दो। तुम्हारी कमजोरी यह है कि तुम
दूसरों के बल पर ध्यान देते हो! जब तुम दौड़ में भागते हो तो नीचे ट्रैक पर देखोगे
न कि साथ वाले को। घोड़े की तरह जिसकी आँखों पर पट्टी लगी हो, केवल अपना मार्ग
देखो और बाकी सब को जो भी वे करना चाहें, करने दो।
44-सुन्दरता दिल की भाषा है - वह सजाती है, विस्तार करती है और बढ़ा चढ़ा कर कहती
है। जब तुम कविता पढ़ते हो, गीत गाते हो या किसी का वर्णन करते हो, वह हमेशा दिल से
होता है। विश्लेषण और स्पष्टीकरण मन के हैं। न्याय और समानता बुद्धि के विषय हैं।
अद्वितीयता केवल ह्रदय से होती है और ह्रदय सब कुछ विशेष बना देता है।
45-अपमान तुम्हें निर्बल नहीं बनाता, तुम्हें प्रबल बनाता है। तुम जितने
अहंकारी हो, उतना अपमान महसूस करोगे। जब तुम बच्चों की तरह सहज रहते हो
और आत्मीयता रखते हो, तब अपमान नहीं महसूस करते। जब तुम इस सृष्टि के, ईश्वर के
प्रेम में ओत प्रोत हो, तुम्हारा कोई अपमान नहीं हो सकता।
46-जीवन में पांच इन्द्रियों के पांच आयाम हैं। एक और आयाम है - सान्निध्य महसूस
करने का। प्रकाश सुना नहीं जा सकता,वह आँखों से देखा जाता है। वाणी देखी नहीं जाती, कानों से
सुनी जाती है। उसी तरह, सान्निध्य को दिल में महसूस किया जाता है। मानवीय जीवन तभी
निखरता है जब हम यह छठी इन्द्रिय जीवन में उतारते हैं।
47-दुखी होने का केवल इतना अर्थ है कि विवेक ढक गया है। विवेक का अर्थ है यह
जानना कि सब परिवर्तनशील है। तुम्हारा शरीर, तुम्हारी भावनाएं, आस पास के लोग, यह पूरा
जगत - सब बदल रहा है। तुम्हें पुनः पुनः इस सत्य के प्रति जागृत होना है। प्रायः
तुम परिवर्तन से भयभीत होते हो। जीवन सुधारने के लिए परिवर्तन की आवश्यकता होती है, पर तुम
अपनी पुरानी प्रवृत्ति में सुरक्षित महसूस करते हो। इसलिए अपनी बुद्धि का उपयोग
करो और जब भी आवश्यकता हो, तब परिवर्तन लाने का साहस रखो।
48-पहले, स्वयं को जानो। फिर प्रेम प्रसाद के रूप में प्राप्त होगा।
वह परलोक की ओर से प्रसाद है। वह तुमपर पुष्पों की वर्षा की भांति बरसता है और
तुम्हारे अस्तित्व को पूर्ण कर देता है। और साथ ही उसे बांटने की तीव्र आकांक्षा
लाता है।
49-एक है ईमानदार होना और एक है अपनी ईमानदारी जताना। जब तुम कहते हो, "मैं ईमानदार हूँ", वह प्रायः क्रोध से होता है। सबके प्रति सहज रहो, किसी धुन
में मत रहो। अपनी ईमानदारी की घोषणा करने की आवश्यकता नहीं है। ईमानदार का अर्थ
रूखा होना नहीं है। ईमानदार रहो पर कुशलता से।
50-अपने शरीर का सम्मान करो। जब भी भोजन करो तो याद रखो कि तुम अपने शरीर में
प्रतिष्ठित ईश्वर को भेंट चढ़ा रहे हो। जब लोग व्यथित होते हैं, तो अधिक
खाते हैं। अपना भोजन जल्दबाजी में नहीं, हिंसा से नहीं, अर्पण की भावना से
करो। यह भी पूजा है।
51-सभी सफल होना चाहते हैं। कभी सोचा है सफलता क्या है? केवल अपने
सामर्थ्य के बारे में अज्ञानता है। तुमने स्वयं पर एक सीमा लगा दी है और जब तुम वह
सीमा लांघते हो, तुम सफल होने का दावा करते हो। सफलता अपनी आत्मशक्ति का
अज्ञान है क्योंकि तुम मान लेते हो कि तुम उतना ही कर सकते हो।
52-मुक्ति क्या है? जीवन को एक गहराई से जीना, किसी भी परिस्थिति
में तनावपूर्ण न होना, परिस्थितियों से प्रभावित होने की बजाय उन्हें प्रभावित
करना। यदि तुम दिल की गहराईओं से मुस्कुरा सको, कहीं भीतर से...
मुक्ति तुम्हारा स्वभाव है। मनुष्यता और दिव्यता दो नहीं हैं। तनाव सबसे बाहर का
आवरण है, सेब पर लगे प्लास्टिक की तरह। मनुष्यता उसकी बाहरी त्वचा है
और दिव्यता उसके भीतर का गूदा है।