1- तर्क से बुद्धि सत्य को जान लेती है-
भावनाओं के स्रोत ह्दय द्वारा अनुभूत होता है न कि तर्क के द्वारा बुद्धि तो सत्य को जान लेती है। इस प्रकार बुद्धि और भावना दोनों एक ही क्षण में आलोकिक हो उठते हैं, ह्दय ग्रन्थि खुल जाती है जिससे सब संशय मिट जाते हैं । प्राचीन काल में ऋषियों के ह्दय में ज्ञान और भाव एक साथ प्रस्फुटित हो उठते थे,तबसर्वोच्च सत्य ने काव्य की भाषा ग्रहण की, फलस्वरूप वेद और अन्य ग्रन्थ रचे गये । उन्हैं पढते समय लगता है कि मानो भाव और ज्ञान की दोनों सामान्तर रेखायें अन्ततः मिलकर एकाकार हो गई हैं और एक दूसरे से अभिन्न हैं ।।
2-भौतिक वस्तुओं के भीछे भागना मृत्यु के पाश में बंधना है-
मनुष्य बाहरी वस्तुओं के पीछे दौडते फिरते हैं,जिससे व्याप्त मृत्यु के पाश में बंध जाते हैं,लेकिन ज्ञानीपुरुष अमृत्व को जानकर अनित्य वस्तुओं में नित्य वस्तु की खोज नहीं करते ।अनन्त की खोज अनन्त में ही करनी होगी,और हमारी अन्तवर्ती आत्मा की एकमात्र अनन्त वस्तु है । शरीर, मन आदि जो प्रपंच हम देखते हैं अथवा जो हमारी चिन्ताएं या विचार हैं,अनमें से कोई भी अनन्त नहीं हो सकता ।मनुष्य की आत्मा जो सदा जाग्रत है,वही एकमात्र अनन्त है ।जो नाना रूप दिखते है,वे बारम्बार मृत्यु को प्राप्त होते हैं ।
3-अद्भुत विषय के प्रति जिज्ञासा-
जब लोग किसी अद्भुत विषय के सम्बन्ध में सुनते हैं.तो वे समझने लगते हैं कि वे उसे एकदम प्राप्त कर लेंगे ।क्षणभर में वे विचारते हैं कि उसकी प्राप्ति के लिए उन्हैं उसका रास्ता तय करना पडेगा ।वे कूदकर पहुंच जाना चाहते हैं । यदि वह स्थान उच्च है तब भी पहुंच जाना चाहते हैं। वे यह नहीं सोचते कि हममें उतनी शक्ति है या नहीं । नतीजा यह होता है कि वे कुछ नहीं कर पाते हैं ।हम किसी व्यक्ति को जबर्दस्ती उठाकर ऊपर नहीं धकेल सकते हैं,हम आप कुछ नहीं कर सकते हैं । हम सबको प्रयत्न करने की आवश्यकता होती है । अतः धर्म का यह पहला भक्ति का भाग है, यह उपासना की पहली और निचली सीढी है।
4-ईश्वर को अनुभव करने की सामर्थ्य-
सामान्यतः आपकी उस सर्वशक्तिमान के सम्बन्ध में क्या कल्पना हुआ करती है ?कुछ भी नहीं । ईश्वर के बारे में आपकी जो कल्पना है उसका अनुभव करना ही धर्म है । और ईश्वर के विषय में,जो आपकी कल्पना है, उसका अनुभव करने में जब आप समर्थ हो जायेंगे,तब हम आपको ईश्वर का उपासक कहेंगे । अभी तो आप शब्द तक के बारे में ही जानकारी रखते हैं । इससे अधिक आप कुछ भी नहीं जानते । उस अवस्था में पहुंचने के लिए, जिसमें ईश्वर का अनुभव कर सकेंगे,साकार माध्यम से ठीक उसी प्रकार जाना होगा जैसे बच्चे प्रथम बार साकार वस्तुओं का अभ्यास करके क्रमशः भाववाचक की ओर जाते हैं ।धीरे-धीरे चलने का तरीका है । यहॉ धर्म के क्षेत्र में सब बच्चे ही हैं, उम्र में चाहे हम बूढे हों,संसार की सारी पुस्तकों का अध्ययन चाहे हमने कर लिया हो, आध्यात्मिक क्षेत्र में तो हम सब बच्चे ही हैं । अनुभव करने की इसशक्ति से ही धर्म बनता है ।
5-अपने को प्रेम से भर लो-
नफरत से बहुत शक्तिशाली है प्यार की बात,समुद्र की जैसी होती है प्रेम की थाह,समुद्र कितना भी बढ जाय उसकी थाह बढती ही रहती है ।कितनी भी नफरत बढ जाय संसार की, पर प्यार उससे भी ज्यादा बढता रहेगा।आपके अन्दर जो चैतन्य बह रहा है वह प्रेम ही तो है। आज के मानव जीवन के भयानक तौर-तरीकों को समाप्त करने के लिए हमें अपने ह्दयों में प्रेम की शक्ति विकसित करनी होगी, प्रेम की पहचान है वह कभी किसी का अहित करने की नहीं सोच सकता, जो कुछ भी होगा हितकारी ही होगा । अबोधिता प्रेम का स्रोत है । पवित्रता का सम्मान करने पर ही हम प्रेम मय हो सकते हैं,घृणॉ से तो प्रेम को धोया जाता है,हमारा लक्ष्य अपने प्रेम को उन्नत करना होना चाहिए । ध्यान धारण से प्रेम की शक्ति विकसित की जा सकती है । अगर किसी से मार-पीट भी होती है तो प्रेम में,सबकुछकरना धरना प्रेम में हो सकता है,जिसमें जिसका जितना हित हो वही प्रेम है, इसी को तो प्रेममय जीवन कहते हैं।
6-तुम्हारी कमजोरी अगले की ताकत है-
अपनी कमजोरी कभी भी प्रकट मत करो,एक दिन आपको धोखा मिलेगा। क्योंकि आपकी कमजोरी अगले की ताकत बन जाती है।जैसे कमजोर की बीबी सबकी भाभी होती है और पहलवान की बीवी सबकी बहन ।कमजोर दिलवाला तो हर जगह दुत्कारा जाता है। बस कमर कसो, तुम्हारी फतह होगी ।
7-त्रुटियॉ करना मानवीय स्वभाव है-
अपनी त्रुटियों के सम्बन्ध में हम अपने आपको स्वयं धोखा देते रहते हैं और अंत में उन्हैं को अपना सद्गुंण समझने लगते हैं। गलतियों की सबसे बडी औषधि तो उनको विस्मृति करना है।वैसे संसार में कुछ भी त्रुटि रहित नहीं है।त्रुटि करना तो मानवीय स्वभाव है, जबकि क्षमा कर देना स्वर्गिक। त्रुटि निकालना सरल है,अच्छा कार्य करना कठिन है। यदि आपको अपने पडोसियों की त्रुटियों के बारे में कहना है तो पहले अपनी त्रुटियों पर दृष्टि डालें। वैसे पुरुषों की त्रुटियों में उसकी स्वार्थपरता निहित होती है,जबकि नारियों की त्रुटियों के मूल में उनकी
8-दुःख जीवन की सबसे बडी पाठशाला है-
जीवन में दुःख से न घबडायें,दुःख तोसबसे बडी पाठशाला है,यह हमें अपने अन्दर झॉकने का अवसर देता है और कुछ नया करने को मजबूर करता है। दुख के लिए किस्मत या भगवान को कभी न कोसें । होंसला रखें जो काम सामने आये उसे जी जान से करें ।फिर आप महशूस करेंगे कि आपके पास मातम मनाने के लिए भी वक्त नहीं है। दुःख तो सिर्फ तबतक है जब तक आप मातम मनाते हैं ।
9-दुःख से मुक्ति पायें-
हम अपनी आत्मा से अपरचित होने के कारण स्वयं को दीन-हीन और दुःखी मानते हैं ।यदि अपने आपको दीन-हीन मानते रहें तो जीवनभर रोते रहोगे। ऎसा है कौन जो आपको दुखी कर सके। यदि आप न चाहो तो दुःख की क्या मजाल कि आपको स्पर्श भी कर सकें।जो इस ब्रह्मॉण्ड को संचालित कर रहा है वह चेतन तो आपके भीतर चमक रहा है,इसलिए अपनी आत्म महिमा में जग कर उसकी अनुभूति कर लो,वही तो हमारा-तुम्हारा वास्तविक स्वरूप है ।
10-दुर्भावना एक कलंक है-
दुर्भावना तो मनुष्य के लिए एक कलंक है।जो कि अपने विश का आधा भाग स्वयं पी लेती है। दूसरों के दुर्भाग्य से दुद्धिमान व्यक्ति यह शिक्षा ग्रहण करते हैं कि उन्हैं किस बात से बचना चाहिए। आदमी की दुर्भावना उसके दुश्मन के बजाय उसे ही अधिक दुख देती है ।दूसरों के दुर्भाग्य सहने के लिए भी हमसब में पर्याप्त सहनशीलता है।यदि सारा दुर्भाग्य एक ही स्थान पर एक ढेर में रख दिए जॉय और उनमें सबको समान भाग लेना पडे तो हममें से धिकॉंश अपना ही भाग लेकर संतुष्ट होकर विदा हो जायेंगे।
11-दुष्ट मनुष्य का साथ न करें-
दुष्ट मनुष्य के पास न तो किसी को ठहरना चाहिए और न उसके साथ कहीं जाना चाहिए ।दुष्ट व्यक्ति तो दूसरों के कार्य को नष्ट करना ही जानते हैं।सिद्ध करना नहीं। जिस प्रकार वायु वृक्षों को उखाडना ही जानती उन्हैं खडा करना नहीं ।इन्हैं तो महॉन लोगों के कार्य अच्छे नहीं लगते,इसीलिए वे उनसे द्वेष करते हैं। दुष्टों और कॉटों को सही रास्ते पर लाने के केवल दो ही उपाय हैं,या तो जूते से उनका मुंह तोड दिया जाय या उनकी अवहेलना कर दी जाय। दुष्ट यदि विद्वान हो तब भी उसके संग से बचना चाहिए,।दुष्ट बुद्धि के लोग दूसरों के उत्तम गुंणों को जानने की वैसी इच्छा नहीं करते,जैसी इच्छा उनके अवगुंणों को जानने की करते हैं। बिना कारण शत्रुता दिखाने वाले व्यक्ति से कौन नहीं डरता,जिसके मुंह में सॉप के विष जैसे असह्य अपशब्द रहते हैं।
12-दूसरे की विवशता को समझें-
जब कभी हमसे कोई गलती होती है तो हम कहते हैं कि हमसे भूल हो गई लेकिन जब कोई दूसरा वैसी ही गलती करता है तो हमको इसके पीछे कुछ गलत मंशा दिखने लगती है। हम तो यही सोचते हैं कि उसने जान बूझकर ऐसा किया।जबकि सच बात तो यह है कि हम दूसरे व्यक्तियों को वैसा नहीं देखते जैसे वे हैं अगर हम दूसरे की विवशता को समझें तो हम परेशान नहीं होंगे बल्कि उससे सहानुभूति रखते ।
13द्वेष-भाव हानिकारक है-
जिसका ह्दय द्वेष या वैर की आग में जलता है, उसे रात में नींद नहीं आती है।यदि आप द्वेष भाव कोमिटाना चाहते हैं तो,प्रेम की शक्ति ही उसे मिटा सकती है।किसी दूसरे की द्वेषयुक्त बुद्धि को हम द्वेष से नहीं मिटा सकते हैं बस द्वेष और कपट को त्याग दो,संगठित होकर दूसरे की सेवा करना सीखो,यही हमारे देश की पहली आवश्यकता है ।
14ध्यान क्या है-
ध्यान का अर्थ हैं एकाग्रचित्त होना, अर्थात जागृत होकर एकाग्रचित्त में किसी कार्य को करना ध्यान है। चलना,उठना, सुनना,ध्यान हो सकता है पक्षियों की चहचहाहट सुनना ध्यान हो सकता है,य़दि आप एकाग्रचित्त तथा जागृत होकर सुनते हैं या अपने भीतर की आवाजों को सुनना ध्यान हो सकता है।अर्थात सोये न रहें जागृत होकर जो करोगे ध्यान हो सकता है।ध्यान को चार चरणों में विभाजित किसा जा सकता हैः-
पहला चरण- अपने शरीर को पूर्ण जागृत रखकर,एकाग्रचित्त, निर्विचारिता की स्थिति में ले जाना है,
इससे आपके शरीर को अधिक विश्राम और शॉति मिलेगी। आपका शरीर लयबद्ध हो जाता है,महशूस करोगे कि शरीर में एक सूक्ष्म संगीत सा फैलता जा रहा है।
दूसराचरण-अपने लक्ष्य के अनुरूप शरीर में निहित सूक्ष्म विचार के प्रति जागृत होना।फिर धीरे-धीरे महशूस करोगे कि आपके अन्दर उस विचार के प्रति क्या अनुभूति होती है अगर लिख डालते हो तो,स्वयं चकित हो जाओगे।
तीसरा चरण-यदि आप अपने विचारों के प्रति जागृत हैं तो फिर एक कदम और आगे बढना है कि उस विचार के प्रति अधिक गहन जागृत होना है बस ये तीनों आयाम जुडकर एक घटना बन जाती है फिर देखोगे कि क्या अनुभूति होती है।
चौथा चरण–यह तुरीय स्थिति की घटना की अवस्था है, जो जब प्रथम तीन चरणों को साधचुके होते हैं उनके लिए यह पुरुष्कार प्राप्त होता है।जिसमें व्यक्ति बुद्ध हो जाता है
15-ध्यान से प्रेम होता है क्रोध नहीं-
जब ध्यान की बात आती है तो उस समय निर्विचारिता की स्थिति उत्पन्न होती है,और जहॉ निर्विचारिता होगी वहॉ ईश्वरीय शक्ति उत्पन्न होगी ,प्रेम जिसका प्रतीक है, इसलिए ध्यान करने पर प्रेम स्वतःही उत्पन्न हो जाता है अकबर ने अपनी आत्म कथा में ध्यान के सम्बन्ध मे एक रोचक घटना का उल्लेख किया हैः-कि जब मैं शिकार खेलने जंगल में गया था और साथियों से बिछुड गया, रास्ता भी भूल गया अंधेरा होनो लगा,मैं डरा हुआा था रात को कहॉ रुकूंगा,जंगल में खतरा था, भाग रहा था, तभी उसे सॉझ के वक्त प्रार्थना की याद आई यह तो जरूरी है, अपनी चादर विछाकर नमाज पढने लगा उसी समय अकबर ने देखा कि कोई स्त्री भागती हुई जा रही थी उसकी चादर में पॉव रखकर और उसपर घक्का देकर चली गई।अकबर को बडा क्रोध आया जल्दी-दल्दी नमाज पूरी कर घोडे पर सवार होकर भागा और रास्ते में उस स्त्री को पकड लिया और कहा बदतमीज तुम्हारी यही तमीज हैकि नमाज पढते वक्त तुमने ऎसा व्यवहार किया और फिर में तो एक सम्राट हूं। उस स्त्री ने जवाव में कहा महॉराज मुझे क्षमा करें मुझे पता नहीं था कि आप नमाज पढ रहे हैं,लेकिन महॉराज मुझे आपसे एक बात पूछनी है कि मैंअपने प्रेमी से मिलने जा रही थी तो मुझे कुछ भी नहीं दिखाई दिया कि मेरा प्रेमी राह देख रहा होगा,लेकिन आप तो परमात्मा से प्रार्थना कर रहे थे,मेरा धक्के का आभास आपको कैसे हो गया आपकी यह कैसी प्रार्थना है और ध्यान में तो प्रेम होता है आप तो गुस्से में हैं,इसका मतलव आप ढोंग कर रहे थे ।जो परमात्मा के सामने डा हो ,उसे तो सब भूल जाना चाहिए था,कोई आपकी गर्दन भी तलवार से काट लेता तो भी पता न चलता अकबर के दिल को कठोर चोठ पहुंची और इस घटना को अपनी आत्म कथा में लिखवाई । अकबर को महशूस हुआ कि प्रेम का ही विकास प्रार्थना है ।ध्यान में प्रेम का जागरण होता न कि क्रोध का
16-ध्यान से मन शॉत होता है-
किसी काम को करने के लिए मन को जितना मना करते हैं मन उतना ही उस काम को करना चाहता है, इसलिए मन को मना न करें,मन जो कर रहा है करने दें। बस ध्यान रहे कि आप शरीर से न करें । उस मन को अपने आप में लगाइये,बाहर न लगने दें,क्योंकि बाहर लगने से दुख होगा,कष्ट होगा ।इस बात को ध्यान में रखें कि ध्यान से मन शॉत होता है, स्थिर होता है। जब मन शॉत होगा तो आत्मा का दर्शन होगा । इसलिए ध्यान करना न भूले।
17–आहार में ईश्वरीय शक्ति का प्रवेश -
शुद्ध आहार ग्रहण करने से अन्त-करण की शुद्धि होती है। जिस भोजन को हम खाते हैं उससे केवल हमारे शरीर का पोषण ही नहीं होता है, बल्कि उस समय जिन संस्कारों या वातावरण में हम भोजन ग्रहण करते हैं,वे हमारे शरीर में बसते है और मॉस, रक्त, मज्जा,आदि का निर्माण करते हैं।क्योंकि भोजन के साथ हम विचार, भावनायें,मनोभावनाओ को भोजन व जल के साथ ग्रहण करते हैं इसलिए हमारा मन भी वैसा ही बन जाता है ।
18 – भय और वैराग्य-
भय का मनुष्य से गहरी मित्रता होती है, वह मनुष्य का पीछा नहीं छोडता है, ङसीलिए भोग विलास में मनुष्य को रोग का भय रहता है, बल में बैरी का भय,धन होने पर राजा का भय, मौन में दीनता का भय,रूप में बुढापे का भय,गुणों में दुष्टों का भय,शरीर को मृत्यु का भय,शास्त्र में विवाद का भय, कुल में च्युत होने का भय अर्थात संसार की सभी वस्तुओं..
19 -नयें स्वस्थ विचारों का विकास कैसे किया जाय -
मारे अन्दर यदि बुरे विचार हैं और उनके स्थान पर हम अच्छे विचारों को विकसित करना चाहते हैं ,तो ङसके लिए हमें उन बुरे विचारों को दबाने के लिए विरोधी शुभ विचार विकसित करने होंगे, जैसे क्रोध को दूर करने के लिए हमें प्रेम और शॉत विचारों का विकास करना होगा, यदि गंदे विचार या वासनाओं को दूर करना है तो उन्हैं दबाने के लिए विरोधी शुभ विचारों को विकसित करना होगा।
20 -स्थान परिवर्तन से विचारों में भी परिवर्तन हो जाता है -
प्रत्येक विचार या वासना का सम्बन्ध स्थान विशेष से होता है, किसी विशेष स्थान में रहने से मन में विशेष प्रकार के विचार उत्पन्न होते हैं। क्योंकि उस स्थान के ङर्द-गिर्द उस स्थान से सम्बन्धित गुप्त विचारों का वातावरण छाया रहता है। जैसे मन्दिर में जाने पर पवित्र विचारों का प्रवाह स्वतः आने लगता है,और ङसके विपरीत दूषित स्थान में रहने से विचार दूषित हो जाते हैं।
21निर्जीव साधन सजीव हो जाते हैं-
साधन तो निर्जीव होते हैं,और योग्यता जीवन का लक्षण है। यदि ये निर्जीव साधन किसी योग्य व्यक्ति के हाथ में पहुंचते हैं तो वे सजीव हो उठते हैं। इसलिए योग्यता आवश्यक है,साधन तो योग्य व्यक्ति के चरणों में खुद जा गिरते हैं
22- निर्विचार समाधि ही उत्थान का मार्ग है-
उत्थान पाने के लिए निर्विचार समाधि में होना आवश्यक है,बिना इसके उत्थान नहीं हो सकता है।इसके बिना चाहे आप कोई भी योजना बना लें,जो चाहें करें,यह कार्यान्वित नहीं होगा।सहज योग में यह सहज ही कार्यान्वित होता है।आप जागृत हो जॉय फिर देखना सहज किस प्रकार आपकी सहायता करता है। निर्विचार समाधि एक सुन्दर स्थिति है जो कि आपको पाना है,इस जीवन को नाटक मानकर लोगों को साक्षी भाव में देखते हुये आनंद की अनुभूति के साथ उत्थान की ओर अग्रसर होना है ।
23- समर्ण का अर्थ है परमात्मा के साम्राज्य में स्थापित हो जाना-
समर्पण का अर्थ यह नहीं है कि आप अपने बच्चों और घर को त्याग करें वल्कि अहं एवं वन्धनों का त्याग करें ।समर्पण से आपके अन्दर एक ऎसी स्थिति विकसित होती है जिसमें आन्तरिक रूप में आप सन्यासी बन जाते हैं।समर्पण का अर्थ है स्वयं को पूर्णतया शुद्ध करना। यह निर्लिप्सा ही उत्थान का एक मात्र मार्ग है।आपको यह मान लेना चाहिए कि मैं एक सहजयोगी हूँ,सारी शक्तियों को मैं अपने अन्दर आत्मसात कर सकता हूं।उन शक्तियों को अपने अन्दर बनाये रखें, ग्रहण करें और विश्वस्त हो जॉय कि मेरे अन्दर ये शक्तियॉ हैं।आपका सर्वव्यापक शक्ति से सम्बन्ध सच्चा,दृढ और निष्कपट होना चाहिए।तो फिर परमात्मा से एकाकारिता का आभास होना सहज है।आप जितना उन्नत होना चाहेंगे आपकी शक्ति आपको उतनी ही अधिक सामर्थ्य देगी ।आत्म निरीक्षण करें।समर्पण का अर्थ है आप( आदि शक्ति मॉ) सहज योग,सत्य से दृढतापूर्वक जुडे हैं।समर्पण में आपको किसी का कोई भय नहीं है,अपनी हानियों का भी नहीं ।समर्पण से गतिशील बन जाते हैं आप वास्तविक सृजनात्मकता शक्ति बन जाते हैं।
24-जहॉ कोई नहीं होता है वहॉ परमात्मा का निवास होता है-
यह सत्य है कि जहॉ कोई नहीं है वहॉ परमात्मॉ का निवास होता है, मस्तिष्क को विचारशून्य रखें यही निर्विचारिता है। निर्विचारिता की अवस्था में जो भी घटित होता है वह प्रकाशवान होता है, निर्विचारिता में आपके मन में जो विचार आता है वह एक अन्तः प्रेरणा होती है।निर्विचारिता में आप परमात्मा की शक्ति के साथ एक रूप हो जाते है,अर्थात आप परमात्मा में आकर मिल जाते हैं । परमात्मा की शक्ति आपके अन्दर आ जाती है।कोई भी निर्णय लेने से पहले निर्विचारिता में जाओ, अब जो निर्णय सामने आ जाए, उसी को कीजिए, यही सबसे उपयुक्त निर्णय होगा, क्योंकि उसमें आपका ईगो और सुपर ईगो दोनों काम करते हैं ।आपका संसार आपके पीछे खडा है,आपने जो भी लौकिक कमाया है,वह आपके पीछे खडा होगा लेकिन निर्विचारिता में करोगो तो आलौकिक व चमत्कारिक निर्णय होगा,आप ऎसा निर्णय लेंगे जो बडे-बडे लोगों के बस में नहीं। किसी भी कार्य को निर्वचारिता में करने से जान जाओगे कि कहॉ से कहॉ डाएनैमिक हो गया मामला। निर्विचारिता में रहना सीखें यही आपका स्थान है, आपका धन,आपका बल,शक्ति,आपका स्वरूप, सौन्दर्य तथा यही आपका जीवन है।निर्विचार होते ही बाहर का यन्त्र पूरा आपके हाथ में घूमने लग जाता है। सिर्फ जीवंतता का दर्शन होगा,आपको उस जगह से दिखाई देगा जहॉ से जीवन की धारा बहती है। इसलिए निर्विचारिता समाधि से स्वयं को ज्योतिर्मय बनाइयें यह कार्य कठिन नहीं है, यह स्थिति आपके अन्दर है, क्योंकि विचार या तो इधर से आते हैं या उधर से,ये आपके मस्तिष्क की लहरियॉ नहीं हैं,ये तो आपकी प्रतिक्रियायें हैं। लेकिन ध्यान धारण करने पर आप निर्विचार चेतना में चले जाते हैं, यह स्थिति प्राप्त करना आवश्यक है और तब आपके मस्तिष्क में आने वाले मूर्खतापूर्ण एवं व्यर्थ विचार समाप्त हो जाते है, इन विचारों के समाप्त होने पर ही आपका उत्थान सम्भव है तभी हम आप उन्नत होते हैं।
25-निर्विचारिता में निर्णय लें-
कोई भी निर्णय लेने से पहले निर्विचारिता मे जाओ, अब जो निर्णय सामने आ जाय,वह करिए,कभी गलत हो ही नहीं सकता है क्योंकि इसमें आपका ईगो और सुपर ईगो दोनों काम करते हैं।हर काम को करते समय हम निर्विचार हो सकते हैं,और निर्विचारिता होते ही उस की सुन्दरता,उसका सम्पूर्ण ज्ञान और सारा आनन्द आपको मिलने लगता है।