जीवन दर्शन भाग-3 https://www.youtube.com/c/mankishantikasangam
Friday, March 17, 2017
Friday, May 27, 2016
मनुष्य ईश्वर के प्रति भ्रमित होता जा रहा है
ईश्वर के सम्बन्ध में मनुष्य भ्रमित होता जा रहा है अगर देखें तो जीवन में कुछ न कुछ अनुभव हर एक को होते रहते है. कि जैसे कोई जन्म से ही बीमार पैदा हो तो उसे स्वास्थ्य का कभी कोई पता नहीं चलता। जैसे कोई जन्म से ही अंधा पैदा हो, तो जगत में कहीं प्रकाश भी है, इसका उसे कोई पता नहीं चलता। इसका मतलव हुआ कि वे एक अदभुत अनुभव से जन्म के साथ ही जैसे वंचित हो गए हैं। धीरे-धीरे मनुष्य-जाति को यह खयाल भी भूलता गया है कि वैसा कोई अनुभव है भी। उस अनुभव को इंगित करने वाले सब शब्द झूठे और थोथे मालूम पड़ने लगे हैं। ईश्वर शब्द थोथा दिखाई देने लगा है,मनुष्य के जीवन से परमात्मा का सम्बन्द समाप्त सा दिखाई देने लगा है।
इस दुर्भाग्य के कारण मनुष्य किस भांति जी रहा है, किस चिंता में, दुख में, पीड़ा में, परेशानी में, उसका भी हमें कोई अनुभव नहीं हो रहा है। और जब भी इस तरह की बात उठती है तो क्या ईश्वर से मनुष्य का संबंध क्यों टूटता जा रहा है? पशु-पक्षी ही ज्यादा आनंदित मालूम होते हैं। पौधों पर खिलने वाले फूल भी आदमी की आंखों से ज्यादा प्रफुल्लित मालूम होते हैं। आकाश में उगे हुए चांद तारे भी, समुद्र की लहरें भी, हवाओं के झोंके भी आदमी से ज्यादा आनंदिमत मालूम होते हैं।
आदमी को क्या हो गया है? अकेला आदमी भर इस जगत में रुग्ण, बीमार मालूम पड़ता है। लेकिन अगर हम पूछें कि ऐसा क्यों हो गया है? ईश्वर से संबंध क्यों टूट गया है? तो जिन्हें हम धार्मिक कहते हैं, वे कहेंगे-नास्तिकों के कारण, वैज्ञानिकों के कारण, भौतिकवाद के कारण, पश्चिम की शिक्षा के कारण ईश्वर से मनुष्य का संबंध टूट गया है। ये बातें एकदम ही झूठी हैं।किसी नास्तिक की कोई सामर्थ्य नहीं कि मनुष्य का संबंध परमात्मा से तोड़ सके। यह वैसा ही है-और किसी भौतिकवादी की यह सामर्थ्य नहीं कि मनुष्य के जीवन से अध्यात्म को अलग कर दे। किसी पश्चिम की कोई शक्ति नहीं कि उस दीये को बुझा सके, जिसे हम धर्म कहते हैं। यह वैसा ही है जैसे मेरे घर में अंधेरा हो और आप मुझसे पूछें आकर कि दीये का क्या हुआ?
मैं कहता हूं, दीया तो मैंने जलाया, लेकिन अंधेरा आ गया और उसने दीये को बुझा दिया! तो आप हंसेंगे और कहेंगे, अंधेरे की क्या शक्ति है कि प्रकाश को बुझा दे! अंधेरे ने आज तक कभी किसी प्रकाश को नहीं बुझाया। मिट्टी के एक छोटे से दीये में भी उतनी ताकत है कि सारे जगत का अंधकार मिलकर भी उसे नहीं बुझा सकता।
क्या अंधेरे की ताकत उजाले की ताकत से अधिक है--
हां, दीया बुझ जाता है तो अंधेरा जरूर आ जाता है। अंधेरे के आने से दीया नहीं बुझता; दीया बुझ जाता है, तो अंधेरा आ जाता है। नास्तिकता के कारण धर्म का दीया नहीं बुझाया बल्कि धर्म का दीया बुझ गया इसलिए नास्तिकता आ गई है। भौतिकवाद के कारण अध्यात्म नहीं बुझ गया है; अध्यात्म बुझा है, इसलिए भौतिकवाद है। फिर किसके कारण? क्योंकि जब कोई यह कहता है कि नास्तिकता, भौतिकवाद ये धर्म को मिटा रहे हैं, वह तो पता नहीं है उसे कि वह धर्म को कमजोर और नास्तिकता को मजबूत कह रहा है।
उसे पता नहीं कि वह धर्म के पक्ष में बोल रहा है या धर्म के विपक्ष में बोल रहा है। वह यह स्वीकार कर रहा है कि अंधेरे की ताकत ज्यादा बड़ी हैं, उजाले की ताकतों से। और अगर अंधेरे की ताकत बड़ी है तो वह प्रकाश को बुझा सकती है, तो फिर हमें यह भी समझना होगा कि प्रकाश के जलने की दुनिया में कभी कोई संभावना नहीं है। क्योंकि अंधेरा हमेशा बुझा देगा; आप जलाइए और अंधेरा बुझा देगा।
अगर नास्तिकता धर्म को मिटा सकती है, तो धर्म के जन्म की अब कोई संभावना नहीं है।
आइने का एक सच
एक पागल आदमी था। वह अपने को बहुत ही सुंदर समझता था। जैसा कि सभी पागल समझते हैं, वैसा वह समझता था कि पृथ्वी पर उस जैसा सुंदर और कोई भी नहीं है। यही पागलपन के लक्षण हैं। लेकिन वह आईने के सामने जाने से डरता था। और जब कभी कोई उसके सामने आईना ले आता तो तत्क्षण आईने को फोड़ देता था।
लोग पूछते, क्यों? तो वह कहता कि मैं इतना सुंदर हूं और आईना कुछ ऐसी गड़बड़ करता है कि आईना मुझे कुरूप बना देता है! आईना मुझे कुरूप बनाने की कोशिश करता है! मैं किसी आईने को बरदाश्त नहीं करूंगा, मैं सब आईने तोड़ दूंगा! मैं सुंदर हूं, और आईने मुझे कुरूप करते हैं! वह कभी आईने में न देखता। लोग आईना ले आते तो तत्क्षण तोड़ देता!
मनुष्य भी उस पागल की तरह व्यवहार करता रहा है। नहीं सोचता कि आईना वही दिखाता है? जो मेरी तस्वीर है। आईना वही बताता है? जो मैं हूं।
आईने का कोई प्रयोजन भी नहीं कि मुझे कुरूप करे। आईने को कोई मेरा पता भी नहीं। मैं जैसा हूं, आईना वैसा बता देता है। लेकिन बजाय यह देखने के कि मैं कुरूप हूं, आईने को तोड़ने में लग जाता हूं!
संसार को छोड़कर भाग जाने वाले लोग आईने को तोड़ने वाले लोग हैं। अगर संसार दुखद मालूम पड़ता है? तो स्मरण रखना कि संसार एक दर्पण से ज्यादा नहीं। वही दिखायी पड़ता है? जो हम हैं।
Saturday, January 2, 2016
Saturday, October 31, 2015
Monday, April 20, 2015
जिन्दगी में कुछ पाने की खुशी
1-– भूत, भविष्य और वर्तमान हर सांस पे लिखा है
योग विज्ञान में सिखाई जाने वाली कई योग क्रियाएं सांसों पर आधारित होती हैं। योग आसनों में भी सांस लेने और छोड़ने का एक खास तरीका सिखाया जाता है। सांसों में ऐसा क्या खास है, कि योग विज्ञान ने इन्हें इतना महत्व दिया है? सांस वो धागा है, जो आपको शरीर से बांध कर रखता है।
अगर मैं आपकी सांसें ले लूं तो आप अपने शरीर से अलग हो जाएंगे । यह सांस ही है, जिसने आपको शरीर से बांध रखा है।
जिसे आप अपना शरीर और जिसे ‘मैं’ कहते हैं, वे दोनों आपस में सांस से ही बंधे हैं। यह सांस ही आपके कई रूपों को तय करती है। जब आप विचारों और भावनाओं के विभिन्न स्तरों से गुजरते हैं, तो आप अलग-अलग तरह से सांस लेते हैं।
आप शांत हैं तो एक तरह से सांस लेते हैं। आप खुश हैं, आप दूसरी तरह से सांस लेते हैं। आप दुखी हैं, तो आप अलग तरह से सांस लेते हैं। क्या आपने यह महसूस किया है? इसके ठीक उल्टा है – प्राणायाम और क्रिया का विज्ञान। जिसमें एक खास तरह से, सचेतन हो कर सांस ली जाती है।
इस तरह से सांस लेकर अपने सोचने, महसूस करने, समझने और जीवन को अनुभव करने का ढंग बदला जा सकता है।
शरीर और मन के साथ कुछ दूसरे काम करने के लिए इन सांसों को एक यंत्र के रूप में कई तरह से इस्तेमाल किया जा सकता है। ईशा क्रिया में हम सांस लेने की एक साधारण प्रक्रिया का इस्तेमाल करते हैं। लेकिन पूरी ईशा क्रिया सिर्फ सांस लेने के तरीके तक सीमित नहीं है। सांस सिर्फ एक उपकरण है। सांस से हम शुरू करते हैं, पर जो होता है वह अद्भुत है। आप जिस तरह से सांस लेते हैं, उसी तरह से आप सोचते हैं।
आप जिस तरह से सोचते हैं, उसी तरह से आप सांस लेते हैं। आपका पूरा जीवन, आपका पूरा अचेतन मन आपकी सांसों में लिखा हुआ है। अगर आप सिर्फ अपनी सांसों को पढ़ सकें, तो आप अपना अतीत, वर्तमान और भविष्य जान सकते हैं। यह तीनों आपकी सांस लेने की शैली में लिखे हुए हैं। अगर आप सिर्फ अपनी सांसों को पढ़ सकें, तो आप अपना अतीत, वर्तमान और भविष्य जान सकते हैं।
एक बार जब आप इसे जान जाते हैं, तब जीवन बहुत अलग हो जाता है। इसे अनुभव करना होता है, यह ऐसा नहीं है जिसे आप प्रवचन से सीख सकते हैं। अगर आप कुछ सोचे या कुछ किए बिना सहजता से बैठने का आनंद जानते हैं, तो जीवन बहुत अलग हो जाता है।
आज इसका वैज्ञानिक सबूत है कि बिना शराब की एक बूंद लिए, बिना कोई चीज लिए, आप सहजता से बैठकर, अपने आप नशे में मतवाले और मदहोश हो सकते हैं। अगर आप एक खास तरह से जागरूक हैं, तो आप अपनी आंतरिक प्रणाली को इस तरह से चला सकते हैं, कि आप सिर्फ बैठने मात्र से परमानंद में चले जाते हैं।
एक बार जब केवल बैठना और सांस लेना इतना बड़ा आनंद बन जाए, तब आप बहुत हंसमुख, विनम्र और अद्भुत हो जाते हैं, क्योंकि तब आप अपने अंदर एक ऊंची अवस्था में होते हैं। दिमाग पहले से ज्यादा तेज हो जाता है।
2-बस आपको अपनी दिशा बदलनी होगी
ऐसा नहीं है कि आपके पास समय नहीं है। बात बस इतनी है कि ज्यादातर लोग समय का उपयोग नहीं करना चाहते। खाना मुश्किल से मिलता है, कपड़े भी मुश्किल से मिलते हैं, घर भी कठिनाई से बनता है। ऐसे में लोगों के दिमाग में कमी का एक मनोविज्ञान विकसित हो गया है। उन्हें लगता है कि खुशी भी दुर्लभ है, आनंद भी दुर्लभ है और प्रेम भी, जबकि ऐसा नहीं है। इन चीजों की कोई कमी नहीं हैं।
आप इन्हें जितना ज्यादा इस्तेमाल करेंगे, आपको ये उतनी ही मिलेंगी। ये चीजें ऐसी नहीं हैं जिनकी कभी कमी हो जाएगी। दिन में दो वक्त की रोटी का जुगाड़ कर लेना जीवित रहने के लिए काफी है, लेकिन दिल्ली में जीवित रहने के लिए लोगों की आवश्यकता मर्सिडीज हो गई है।
जीवित रहने के लिए जो चीजें असल में आवश्यक हैं, उन्हें हासिल कर जीवन की खोज करने की बजाय हम जीवित रहने के लिए जरूरी चीजों की सूची को ही बढ़ाते जा रहे हैं। नतीजा यह होता है कि आप हमेशा चाहत और इच्छाओं के दलदल में फंसे रहते हैं।
दरअसल, यही सामाजिक तरीका बन गया है। गौर से देखिए एक छोटा सा कीट जिसके पास इंसान की तुलना में महज दस लाखवां हिस्सा दिमाग है, जीवित रहने के काम को इंसानों से कहीं ज्यादा प्रभावशाली तरीके से कर रहा है।
हर जगह बस एक ही सवाल है। तुम्हारी रोजी रोटी कैसे चलेगी? मैं कहता हूं तुम्हारी रोजी रोटी चलेगी। अब देखो मेरी जेब में एक भी पैसा नहीं है और मैं हर जगह यात्रा करता हूं और गुजारा कर रहा हूं। कोई न कोई हमेशा मेरा ध्यान रखता है।
अगर आप सभी के लिए उपयोगी और कुछ काम के आदमी बन जाते हैं तो कोई न कोई हमेशा होगा, जो आपका हर तरह से ध्यान रखेगा। मेरा मानना है कि अगर आप अपने दिमाग का सौवां हिस्सा भी उपयोग कर लेते हैं तो आप शानदार तरीके से गुजारा कर सकेंगे। सिर्फ गुजारे की खातिर जीवन भर सोचते रहने की आवश्यकता नहीं है। अपने जीवन की दिशा को निर्धारित करने का यह एक बेहद गलत तरीका होगा। मानवता के खिलाफ यह एक तरह का अपराध है। जरा बताइए, आप कैसे जानते हैं कि मैं यहां हूं?एक छात्र: हम एक दूसरे को देख सकते हैं।
आप देख सकते हैं, आप सुन सकते हैं।
कल्पना कीजिए, आपको हल्की सी नींद आ जाए तो सबसे पहली चीज क्या होगी। मैं आपकी नजरों से गायब होने लगूंगा। फिर आपके आसपास के सभी लोग और खुद आप भी अपनी नजरों से गायब हो जाएंगे। लेकिन मैं तब भी यहीं हूं, दुनिया तब भी यहीं होगी, खुद आप भी यहीं हैं, आपका शरीर काम कर रहा है, आपका दिमाग भी क्रियाशील है, लेकिन आपके अनुभव में कुछ भी नहीं है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि आपकी पांचों ज्ञानेंद्रियां बंद हो गई हैं।
दरअसल, इन ज्ञानेंद्रियों की प्रकृति ही कुछ ऐसी है कि ये उन चीजों को ही समझ सकती हैं, जो भौतिक हैं।
आपका शरीर स्थूल है जिसे आपने बाहरी चीजों से इकट्ठा किया है। लेकिन इस स्थूल से परे भी कुछ है जो आपके अनुभव में नहीं है। यह आपके अस्तित्व का 99 फीसदी है। इसीलिए मैं कहता हूं कि आपके अनुभव में एक फीसदी से भी कम है।
स्थूल से परे जो पहलू है, आपको उसमें प्रवेश करना चाहिए।
अगर आप ऐसा करते हैं तो आपके अंदर एक ऐसी सोच विकसित होने लगेगी, जो पांचों ज्ञानेंद्रियों की सीमा से परे है। जिस पल आप मां के गर्भ से बाहर दुनिया में आते हैं, पांचों ज्ञानेंद्रियां काम करना शुरू कर देती हैं क्योंकि जीवित रहने के लिए इनकी आवश्यकता होती है। कल्पना कीजिए, एक नवजात बच्चा एक जंगल में खो गया है। अगर खाने योग्य कोई चीज उसके सामने आएगी तो क्या वह इसे अपने कानों में या नाक में डाल लेगा? नहीं, उसे पता होगा कि इसे कहां रखना है।
कहने का अर्थ यह है कि जो चीजें जीवित रहने के लिए आवश्यक हैं, उनके लिए हमें किसी ट्रेनिंग की आवश्यकता नहीं होती। ये अपने आप काम करती हैं। लेकिन क्या कोई नवजात बच्चा लिख या पढ़ सकता है? क्या वह वे सब काम कर सकता है, जो बड़े होने पर हम करते हैं? नहीं, क्योंकि इन सभी चीजों के लिए प्रयास करने की आवश्यकता होती है।
आपको वह अंग्रेजी का ए याद है। जब आप साढ़े तीन साल के थे तो आपके बड़े आपको इसे लिखना सिखाते थे। उस वक्त यह कितना मुश्किल लगता था। आज भी अगर किसी अनपढ़ व्यक्ति को आप पढ़ना-लिखना सिखाने की कोशिश करते हैं तो उसे संघर्ष करना पड़ता है। कहने का मतलब यह है कि हर उस चीज को सीखने के लिए आपको प्रयास करना पड़ता है, जो आपके जीवित रहने के लिए आवश्यक नहीं है।
जाहिर है, अगर स्थूल से परे किसी पहलू को आप अपने जीवन में लाना चाहते हैं तो आपको कुछ श्रम, कुछ प्रयास करने ही होंगे, लेकिन बिल्कुल अलग दिशा में। जो कुछ भी आपके इर्द-गिर्द है, आप उसे तो देख सकते हैं, लेकिन आप अपनी आंखों को भीतर की तरफ मोड़कर अपने अंतर की पड़ताल नहीं कर सकते।
आप बाहरी आवाजों को सुन पाते हैं, लेकिन आपके शरीर में इतना कुछ हो रहा है।
क्या आप उसकी आवाज सुन पाते हैं? नहीं। आपके हाथ पर अगर एक चींटी भी चढ़ जाए तो आपको महसूस हो जाता है, लेकिन आपके इसी शरीर के भीतर इतना सारा रक्त दौड़ रहा है। क्या आपको उसकी गति महसूस होती है? नहीं न। दरअसल, हमारी पांचों ज्ञानेंद्रियों की प्रकृति ही ऐसी होती है कि वे बाहर की दुनिया को ही देख और महसूस पाती हैं, लेकिन जो कुछ भी आपको अनुभव होता है, वह आपके भीतर होता है।
अभी मुझे आप सभी देख पा रहे हैं। मुझ पर प्रकाश की किरणें पड़ रही हैं और मेरे शरीर से परावर्तित होकर आपकी आंखों के लेंसों से गुजर रही हैं और रेटिना पर उलटा प्रतिबिंब बना रही हैं। इसीलिए आप अपने अंदर मुझे देख पा रहे हैं। आप अपने अंदर मुझे सुनते भी हैं। आप अपने अंदर पूरी दुनिया को देख पा रहे हैं। अभी आप अपने दोस्त का स्पर्श करो और देखो, आप उसके हाथ को महसूस नहीं करते। असल में आप चीजों को उसी तरह से महसूस करते हैं, जैसा आपका इंद्रियबोध होता है। इसके परे आपने कभी कुछ अनुभव ही नहीं किया है।
आपके साथ जो भी हुआ है, आपकी खुशियां, आपकी परेशानियां आपके अंदर ही हुई हैं। प्रकाश हो या अंधकार सब कुछ आपके अंदर हुआ है लेकिन क्या आपके पास कोई साधन है जिससे आप अपने भीतर देख सकें। याद रखिए, ऐसा माध्यम आपको तब तक हासिल नहीं होगा, जब तक आप प्रयास नहीं करेंगे।
एक दिन की बात है। पास के एक गांव में एक शख्स ईशा योग सेंटर को ढूंढता हुआ आया। उसने वहीं के रहने वाले एक बच्चे से पूछा, ‘ईशा योग सेंटर कितनी दूर है।’ लड़के ने कहा, ’24998 मील।’ वह शख्स चौंका, ‘क्या, इतनी ज्यादा दूर !’
लड़का बोला, ‘जी हां, जिस दिशा में आप जा रहे हैं, उस दिशा से तो सेंटर इतनी ही दूर है, लेकिन अगर आप अपनी दिशा बदल दें तो यह महज 4 मील दूर ही है।
’ कहने का मतलब है कि अभी आपके पास जो भी है, उसका रुझान बाहर की ओर है, लेकिन जो कुछ भी हो रहा है, वह भीतर हो रहा है। यही वजह है कि आपको पूरी तरह गलत बोध हो रहा है। खुद को अंदर की ओर मोड़ने के लिए आपको प्रयास करने होंगे। अगर आप एकाग्रचित होकर 28 घंटे दे दें तो हम आपकी दिशा बदल सकते हैं।
3-जीवन एक प्रवाह और तीव्रता है
जीवन तीव्रता है। कभी आपने महसूस किया है कि आपके भीतर जो जीवन है, वह एक पल के लिए भी धीमा नहीं पड़ता। अगर कुछ धीमा पड़ता है, तो वह है आपका दिमाग और आपकी भावनाएं, जो कभी अच्छी हो जाती हैं तो कभी बिमार। अपनी श्वास को देखिए। क्या यह कभी धीमी पड़ती है? अगर कभी यह धीमी पड़ जाती है तो उसका मतलब मौत होता है। जब मैं आपको जीवंत बनने और अपने अंदर तीव्रता पैदा करने के तमाम तरीके बताता हूं, तो मैं बस यह कह रहा होता हूं कि आप जीवन की तरह बन जाएं।
अभी आपने अपने उन विचार और भावों को बहुत ज्यादा महत्व दिया हुआ है, जो आपके भीतर चल रहे हैं। आपने अपने भीतर के जीवन को महत्व नहीं दिया है। जरा सोचिए, क्या जीवित रहने से ज्यादा महत्व आपके विचारों का है? महान दर्शनशास्त्री देस्कार्ते ने कहा, ‘मैं सोचता हूं इसलिए मैं हूं।’
बहुत सारे लोगों का मानना है कि उनका अस्तित्व केवल इसलिए है क्योंकि वे सोच रहे हैं। नहीं, ऐसा नहीं है।
चूंकि आपका अस्तित्व है, इसलिए आप सोच पा रहे हैं, नहीं तो आप सोच ही नहीं सकते। आपकी जीवंतता आपके विचारों और भावों से कहीं ज्यादा मौलिक और महत्वपूर्ण हैं। लेकिन होता यह है कि आप केवल वही सुनते हैं जो आपके विचार और भाव कह रहे हैं।
अगर आप जीवन की प्रक्रिया के हिसाब से चलें, तो यह एक निरंतर प्रवाह है, चाहे आप सो रहे हों या जाग रहे हों। जब आप सो रहे होते हैं तो क्या जीवन आपके भीतर सुस्त पड़ जाता है? नहीं, यह आपका मन है जो कहता है, ‘मुझे यह पसंद है इसलिए मैं इसे पूरे जुनून के साथ करूंगा, मुझे वह पसंद नहीं है इसलिए उसे दिल से नहीं करूंगा।’
लेकिन आपकी जिंदगी इस तरह की नहीं है। यह हमेशा एक प्रवाह और तीव्रता में है।
अगर आप लगातार इस तथ्य के प्रति जागरूक या सजग रहेंगे कि बाकी सभी चीजें गुजर जाने वाली चीजें हैं और मैं मूल रूप से जीवन हूं, तो आपके अंदर एक प्रवाह और तीव्रता बनी रहेगी। आपके अस्तित्व में होने का कोई और तरीका ही नहीं है, क्योंकि जीवन को कोई दूसरा तरीका मालूम ही नहीं है। जीवन हमेशा प्रवाह में है, यह तो बस भाव और विचार ही हैं जो भ्रम पैदा करते हैं।
अब जरा अपनी भावनाओं और विचारों की प्रकृति को देखिए। जीवन में ऐसे तमाम मौके आए होंगे, जब इन विचारों और भावनाओं की वजह से आपने कई चीजों में भरोसा किया होगा। कुछ समय बाद आपको ऐसा लगने लगता है कि उस चीज पर भरोसा करना आपकी बेवकूफी थी। आज आपकी भावना आपसे कहती है कि यह शख्स बहुत अच्छा है। फिर कल आपकी भावना आपको बताती है कि यह सबसे खतरनाक व्यक्ति है – और दोनों ही बातें शत प्रतिशत सच मालूम पड़ती हैं।
इस तरह आपकी भावना और विचार आपको धोखा देने के शानदार जरिए हैं। वे आपको किसी भी चीज के बारे में भरोसा दिला सकते हैं।
अपनी खुद की मान्यताओं की ओर देखिए। उनमें से कोई भी किसी भी तरह की जांच का सामना नहीं कर पाएगी। अगर मैं आपसे तीन सवाल पूछूं, तो आपकी मान्यताएं पूरी तरह लडख़ड़ा जाएंगी। लेकिन जीवन में अलग-अलग मौकों पर आपका मन आपको अलग-अलग बातों पर भरोसा कराएगा और वह तब आपको बिल्कुल सच लगेगा।
कैसे बनाए रखें तीव्रता?
तीव्रता का अर्थ है जीवन के प्रवाह के साथ चलना। अगर आप यहां सिर्फ जीवन के रूप में, एक शुद्ध जीवन के रूप में मौजूद हैं, तो यह स्वाभाविक रूप से अपनी परम प्रकृति की ओर जाएगा। जीवन की प्रक्रिया अपने स्वाभाविक लक्ष्य की ओर बढ़ रही है। लेकिन आप एक विचार, भाव, पूर्वाग्रह, क्रोध, नफरत और ऐसी ही तमाम दूसरी चीजें बनकर एक बड़ी रुकावट पैदा कर रहे हैं। अगर आप बस जीवन के एक अंश के रूप में मौजूद हैं, तो स्वाभाविक रूप से आप अपनी परम प्रकृति तक पहुंच जाएंगे।
यह कोई ऐसी चीज नहीं है जिसके लिए आपको जूझना या संघर्ष करना पड़े। मैं हमेशा कहता हूं – बस अपनी तीव्रता को बनाए रखें, बाकी चीजें अपने आप होंगी। आपको स्वर्ग का रास्ता ढूंढने की जरूरत नहीं है। बस अपनी तीव्रता को बनाए रखिए। ऐसा कोई नहीं है जो इस जीवन को इसकी परम प्रकृति की ओर ले जाए या जाने से रोक दे। हम इसमें देरी कर सकते हैं या हम बिना किसी बाधा के इसे तेजी से जाने दे सकते हैं। बस यही है जो हम कर सकते हैं।
यह जितनी तेजी से हो सकती है, उतनी तेजी से इसे होने देने के लिए ही आध्यात्मिक प्रक्रियाएं होती हैं। मदद के लिए आपको देवताओं को बुलाने की जरूरत नहीं है, आपको जीवन होना होगा, विशुद्ध जीवन। अगर आप यहां एक विशुद्ध जीवन के रूप में जी सकते हैं, तो आप परम लक्ष्य तक स्वाभाविक रूप से पहुंच जाएंगे।
4-दो जिन्दगियों को एक धागे में पिरोना ही विवाह है
आज हमारी प्रिय राधे का संदीप नारायण के साथ शुभविवाह है। आप लोग दुनिया के अलग-अलग हिस्सों से यहां आए हैं और उनके जीवन के इस खास पल में शामिल हुए हैं। मैं उन सभी लोगों का बहुत आभारी हूं, जिन्होंने राधे के जीवन में एक अहम भूमिका निभाई है। आप लोगों के निरंतर सहयोग के बिना राधे वैसी नहीं होती, जैसी आज वह है। राधे ने चलने से पहले नाचना सीख लिया था और उसकी मां का यह स्वप्न था कि वह एक नर्तक बने।
मैं अक्सर यात्रा करते रहने की वजह से अपनी बेटी को ज्यादा समय नहीं दे पाया, पर किसी न किसी तरह से राधे के संपर्क में बना रहा हूं। तीन साल की उम्र से वह मेरे साथ यात्रा करती रही है, और मेरे साथ लगभग खानाबदोशों सी जिन्दगी जी है। लेकिन जब कहीं कार्यक्रम होते थे, तो कई परिवार लगातार कई महीनों तक उसका ख्याल रखते थे। इतने सालों में लोगों से मिले प्यार और सहयोग से मैं अभिभूत हूं।
दो जिन्दगियों को एक धागे में पिरोना बहुत खूबसूरत होता है। खुद से परे जाकर सोचना, जीना और महसूस करना, अपने भीतर और बाहर दूसरे के लिए जगह बनाना, परम मिलन के लिए एक सोपान बन सकता है।
5- –जिन्दगी की उलझन - शादी या सन्यास
अगर आप एक गृहस्थ हैं और साधना करना चाहते हैं तो आपको कई लोगों से अनुमति लेनी पड़ती है। वे अनुमति दे भी सकते हैं और नहीं भी दे सकते। उसमें कई समस्याएँ होती हैं, लेकिन अगर आप एक ब्रह्मचारी हैं तो आप अपने लिए निर्णय ले सकते हैं।
जब आप एक गृहस्थ होते हैं तो कुछ खास तरह की साधनाओं को करना थोड़ा कठिन होता है। वहां आवश्यक वातावरण बनाना संभव नहीं होता। तो क्या सत्य को जानने के लिए हर एक व्यक्ति को ब्रह्मचारी बन जाना चाहिए? नहीं। इसकी ज़रूरत नहीं है।
अगर आपको अपने भीतर के सत्य को जानना है तो यह मायने नहीं रखता कि बाहरी स्थितियां कैसी हैं। आप इस पर गौर करें कि आपके जीवन में क्या महत्वपूर्ण है, आपके जीवन की क्या – क्या जरूरतें हैं, उसी हिसाब से आप चुनाव कर सकते हैं।
किसी ने शादी कर ली और किसी ने ब्रह्मचर्य ले लिया। कौन सही है और कौन गलत? या कौन बेहतर है? ऐसी कोई चीज़ नहीं है। हर व्यक्ति को अपनी प्राथमिकताओं और व्यक्तिगत ज़रूरतों के आधार पर यह चुनाव करना चाहिए। कुछ लोगों के लिए शादी जरूरी है और उनकी शादी हो जाती है।
कुछ लोगों के लिए यह ज़रूरी नहीं है, और वे ब्रह्मचर्य ले लेते हैं। हर व्यक्ति पर एक ही नियम लागू नहीं होता। जिसको शादी की ज़रूरत है अगर उस व्यक्ति को ब्रह्मचर्य दे दिया जाए तो उसका जीवन नरक बन जाएगा। जो शादी नहीं करना चाहता, अगर उसकी बलपूर्वक शादी कर दी जाए, तो वह दूसरी तरह के नरक से गुजऱेगा।
ऐसा नहीं है कि शादी गलत है। यह दो लोगों के लिए जीवन साझा करने का और एकसाथ रहने का एक अवसर होता है।
यह जीने का एक अच्छा तरीका है, और इसे जीने के एक खूबसूरत तरीके में परिवर्तित किया जा सकता है। चूंकि लोग पूरी तरह परिपक्व नहीं होते, वे एक दूसरे के ऊपर बहुत ज्यादा अधिकार जताने लगते हैं। सबसे बड़ी बात तो यह है कि वे एक दूसरे का इस्तेमाल करके अपना जीवन बनाने की कोशिश करते हैं।
आप अपना जीवन एक दूसरे से बाँट सकते हैं और एकसाथ रह सकते हैं, लेकिन लोग एक दूसरे का इस्तेमाल करके अपना जीवन बनाने की कोशिश करने लगते हैं। तब शादी का असफल होना निश्चित है, कोर्ट-कचहरी में भले ही न जाना पड़े, लेकिन जीवन में ऐसा होना ही है।
यह रिश्ता अच्छे से निभता है जब आप या तो निरे मूर्ख हैं कि आपको कुछ भी पता नहीं है, आप बस सहज रहते हैं, या आप ऐसे व्यक्ति हैं जो पूरी तरह से समर्पित है। अगर आप में दूसरे व्यक्ति के प्रति पूरा समर्पण है, तो यह अच्छी तरह से चलता है।
या आप वाकई में एक दूसरे से इतना प्रेम करते है कि आप दोनों के बीच में सब कुछ बढ़िया है, दूसरा चाहे किसी भी तरह से रहे, फिर भी कोई समस्या नहीं है, सब ठीक है। अन्यथा इसका निभना संभव नहीं है। मात्र सामाजिक बाध्यताओं को लेकर दो लोग वर्षों तक चिपके रहते हैं, यह पागलपन है।
इस तरह से लोग बस एक दूसरे को बर्बाद कर रहे हैं।
मैंने स्त्रियों और पुरुषों दोनों को देखा है, यह स्त्री और पुरुष दोनों के लिए सत्य है। जब वे जवान होते हैं तब उनमें ज़्यादा उमंग और जीवंतता होती है। फिर वे शादी कर लेते हैं – मैंने ऐसे प्रेमियों को कॉलेज में देखा है। उन्होंने सोचा कि वे तो एक दूसरे के लिए ही बनाए गए हैं। वे आगे बढ़े और भारी विरोध के बीच शादी कर ली। वे माता पिता के खिलाफ, समाज के खिलाफ चले गए और शादी कर ली। वे बहुत जोशीले और जीवंत लोग थे।
शादी के बाद, चार-पाँच साल के अंदर ही दोनों बहुत दुखी इंसान बन गये। आप उनके चेहरों पर दु:ख देख सकते हैं, सारी जीवंतता चली गई। लोगों को इस तरह से देखना दुर्भाग्यपूर्ण है।
अगर आप प्रेम से कुछ हासिल करने की कोशिश करते हैं, तो प्रेम चला जाएगा; केवल हासिल की गई चीज़ बच जाएगी। दुर्भाग्यवश, सभी लोग यही करने की कोशिश करते हैं। उन्हें बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है, लेकिन लोग सीखते नहीं हैं। लोग वास्तव में एक बड़ी कीमत चुकाते हैं।
आपका दु:ख ही सबसे बड़ी कीमत है जिसे आप चुका सकते हैं, और क्या शेष रह जाता है? इस प्रक्रिया में आप अपना प्रेम और आनंद खो देते हैं। सबसे बड़ी बात तो यह है कि आप अपना प्यार खो देते हैं। इससे बड़ी कीमत और क्या हो सकती है? आपको नरक में जाने की ज़रूरत नहीं है। यह काफी है, है कि नहीं? कम से कम, अगर आप कॉलेज के उस प्रेम संबंध को याद करते तो वह आपके जीवन में आनंद का एक स्त्रोत होता। हां, लेकिन जब आपके सपने साकार हो गए तो आपने इससे एक व्यापार बना लिया।
वह खूबसूरत व्यक्ति, जो एक समय आपके लिए सब कुछ होता था, वह आपके लिए एक कुरूप व्यक्ति में बदल गया। यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है। लेकिन लोग पीढ़ी दर पीढ़ी यही काम कर रहे हैं। यह समय बदलाव का है। वास्तव में यह वक्त बदलने का है और यह निर्णय लेने का है कि आपके लिए क्या महत्व रखता है और क्या नहीं।
आप जो भी काम करते हैं, उसके बाद परिणामों का एक पूरा सिलसिला शुरु होता है।
अगर आप एक बुद्धिमान व्यक्ति हैं, तो आपको यह देखना चाहिए कि आप जो काम करने जा रहे हैं, उसके पीछे आने वाले परिणामों के सिलसिले के लिए आप तैयार हैं या नहीं। और फिर निर्णय लीजिए कि वह काम आपके लिए आवश्यक है या नहीं। सोचिए और निर्णय लीजिए कि उन परिणामों का सामना करने के लिए और उन्हें खुशी-खुशी स्वीकार करने के लिए आप तैयार हैं या नहीं। आपको इसे परखना चाहिए और फिर निर्णय लेना चाहिए। हर व्यक्ति के लिए एक ही बात तय नहीं की जा सकती।
6-हमारी सांस ही बंधन है और यही सांस मुक्ति है
सांस सिर्फ ऑक्सीजन और कार्बन डाइऑक्साइड का आदान-प्रदान नहीं है। आप जिस तरह के विचारों और भावनाओं से गुजरते हैं, आपकी सांस उसके अनुसार अलग-अलग स्वरूप ले लेती है। जब आप क्रोधित, शांत, खुश या उदास होते हैं, तो आपकी सांस में भी उसके अनुसार सूक्ष्म बदलाव होते हैं। आप जिस तरीके से सांस लेते हैं, वैसा ही आप सोचते हैं और जैसा आप सोचते हैं, उसी तरीके से आप सांस लेते हैं।
अपने तन और मन पर कई तरह के काम करने के लिए सांस को साधन के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। प्राणायाम एक विज्ञान है, जिसमें आप जागरूक होकर एक खास तरीके से सांस लेते हुए अपने सोचने, महसूस करने, समझने और जीवन को अनुभव करने का तरीका बदल सकते हैं। अगर मैं आपसे आपकी सांस पर ध्यान देने के लिए कहूं, जो आजकल लोगों के बीच सबसे आम चलन है, तो आपको लगेगा कि आप अपनी सांस पर ध्यान दे रहे हैं।
लेकिन आप बस हवा की गति से पैदा होने वाली हलचल को ही महसूस कर पाते हैं। यह कुछ ऐसा ही है कि जब कोई आपके हाथ को छूता है तो आपको लगता है कि आप दूसरे व्यक्ति के स्पर्श को जानते हैं, लेकिन असल में आप सिर्फ अपने शरीर में पैदा हुए अनुभव को ही जान पाते हैं, आप यह नहीं जानते कि दूसरा व्यक्ति कैसा महसूस करता है।
सांस ईश्वर के हाथ की तरह है। आप उसे महसूस नहीं करते। यह हवा से पैदा हुई हलचल नहीं है। जिस सांस का आप अनुभव नहीं कर सकते, उसे कूर्म नाड़ी कहा जाता है। यह वह डोर है जो आपको इस शरीर के साथ बांधती है, एक अखंडित डोर, जो आगे खिंचती जाती है। अगर मैं आपकी सांस बाहर निकाल लूं, तो आप और आपका शरीर अलग-अलग हो जाएंगे क्योंकि जीव और शरीर कूर्म नाड़ी से बंधे हुए होते हैं। यह एक बड़ा धोखा है। ये दोनों अलग-अलग चीजें हैं, लेकिन एक होने का दिखावा करते हैं। यह शादी की तरह है, पति-पत्नी दो इनसान होते हैं, लेकिन जब वे बाहर आते हैं, तो एक होने का दिखावा करते हैं। यहां पर दो लोग हैं, शरीर और जीव, दोनों एक-दूसरे के बिल्कुल विपरित, लेकिन वे एक होने का दिखावा करते हैं।
अगर आप सांस से होकर गहराई में अपने अंदर तक, सांस के सबसे गहरे केंद्र तक जाते हैं, तो वह आपको उस बिंदु तक ले जाएगा, जहां आप वास्तव में शरीर से बंधे हुए हैं। एक बार आपको पता चल जाए कि आप कहां और कैसे बंधे हुए हैं, तो आप अपनी इच्छा से उसे खोल सकते हैं। आप चेतन होकर शरीर को उसी सहजता से त्याग सकते हैं, जैसे अपने कपड़ों को। जब आपको पता होता है कि आपके कपड़े कहां पर बंधे हुए हैं, तो उन्हें उतारना आसान होता है।
जब आपको नहीं पता होता, कि वह कहां बंधा हुआ है, तो चाहे आप उसे जैसे भी खींचे, वह नहीं उतरता। आपको उसे फाड़ना होगा। इसी तरह अगर आपको नहीं पता कि आपका शरीर किस जगह आपसे बंधा हुआ है, और आप उसे छोड़ना चाहते हैं, तो आपको किसी न किसी रूप में उसे नुकसान पहुंचाना होगा। लेकिन अगर आपको पता हो कि वह कहां बंधा हुआ है, तो आप बड़ी सफाई से एक दूरी से उसे पकड़ सकते हैं।
जब आप उसे त्यागना चाहें, तो पूरे होशोहवाश में उसे त्याग सकते हैं। जीवन बहुत अलग हो जाता है। जब कोई अपनी इच्छा से शरीर को पूरी तरह त्याग देता है, तो इसे हम महासमाधि कहते हैं। आम तौर पर इसी को मुक्ति या मोक्ष कहा जाता है। सब कुछ बराबर हो जाता है, शरीर के अंदर और शरीर के बाहर में कोई अंतर नहीं रह जाता। खेल समाप्त हो जाता है।
हर योगी को इसकी चाह होती है। चाहे जान-बूझकर या अनजाने में हर इनसान भी इसी दिशा में प्रयास कर रहा है। वह विस्तार करना चाहता है, और यह चरम विस्तार है। बात सिर्फ इतनी है कि वे किस्तों में अनंत की ओर बढ़ रहे हैं, जो एक बहुत लंबी और असंभव प्रक्रिया है। अगर आप 1,2,3,4 गिनते जाएंगे, तो आप एक अंतहीन गणना बन कर रह जाएंगे। आप कभी अनंत तक नहीं पहुंच पाएंगे। जब इंसान इस बात की व्यर्थता समझ जाता है, तो वह स्वाभाविक रूप से अपने अंदर की ओर मुड़ जाता है ताकि जीवन की प्रक्रिया को शरीर से अलग कर सके।
7-टैगोर को जब सत्य का बोध हुआ तो--
यह गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर के जीवन से जुड़ी एक खास घटना है। टैगोर ने ढेर सारी कविताएं लिखी हैं। वह अकसर दिव्यता, अस्तित्व, कुदरत व सौंदर्य सहित तमाम चीजों के बारे में बहुत कुछ कहते व लिखते थे, जबकि खुद उन्हें इन चीजों का कहीं कोई अनुभव नहीं था। वहीं पास में एक बुजुर्ग व्यक्ति रहा करते थे, जो एक आत्मज्ञानी व्यक्ति थे। यह बुजुर्ग दूर से कहीं उनके रिश्ते में भी कुछ लगते थे। जब भी टैगोर कहीं भाषण देने जाते तो यह बुजुर्ग भी वहां पहुंच जाते और उन्हें देखते रहते।
जब भी रवींद्रनाथ उनकी तरफ देखते तो अचानक असहज हो जाते। दरअसल, वह बुजुर्ग मौका मिलते ही टैगोर से सवाल करने लगते कि तुम इतना सत्य के बारे में बातें करते हो, लेकिन क्या सचमुच तुम इसके बारे में जानते हो? टैगोर सत्य को नहीं जानते थे और उनको यह अहसास भी था कि वो नहीं जानते हैं।
हालांकि टैगोर इतने महान कवि थे कि जब आप उनकी कविता पढ़ते हैं, तो कहीं से भी यह नहीं लगता कि बिना अनुभव या बिना जानें उन्होंने ऐसी कविताएं लिखी होंगी।
लेकिन वह बुजुर्ग फिर भी उनसे इस मसले पर लगातार सवाल करते रहते। इसलिए जब भी गुरुदेव की नजरें उनसे मिलती, वह सकपका जाते। हालांकि धीरे धीरे उनके भीतर भी इसे लेकर एक खोज जारी हो चुकी थी, कि आखिर वो क्या है, जिसके बारे में मैं बातें तो करता हूं, लेकिन उसे जानता नहीं हूं।
एक दिन बारिश हुई और फिर रुक गई। टैगोर को हमेशा नदी के किनारे सूर्यास्त देखना बहुत अच्छा लगता था। तो उस दिन भी टैगोर सूर्यास्त देखने के लिए नदी किनारे चले जा रहे थे।
रास्ते में ढेर सारे गड्ढे थे, जो पानी से भरे थे। टैगोर उन गढ्ढों से बचते हुए सूखी जगह पर कदम बढ़ाते आगे बढ़ रहे थे। तभी उनका ध्यान पानी से भरे एक गढ्ढे पर गया, जिसके पानी में प्रकृति का पूरा प्रतिबिंब झलक रहा था। उन्होंने उसे देखा और अचानक उनके भीतर कुछ बहुत बड़ी चीज घटित हो गई। वह वहां से सीधे उस बुजुर्ग के घर गए और जाकर उनका दरवाजा खटखटाने लगे। बुजुर्ग ने दरवाजा खोला व एक नजर टैगोर को देखा और फिर बोले, ’अब तुम जा सकते हो। तुम्हारी आंखों में साफ दिखाई दे रहा है कि तुम सच जान चुके हो।’
8-लक्ष्य पाने की तरकीब सीखनी हो तो अर्जुन से सीखें
द्रोणाचार्य को धनुर्विद्या का सर्वश्रेष्ठ गुरु माना जाता था। धनुर्विद्या ही क्या, हर तरह के हथियार चलाने के तरीके उन्हें आते थे। कौरव और पांडव उनके शिष्य थे। इन 105 भाइयों में अर्जुन उनके सबसे प्रिय शिष्य थे, और इसीलिए उन्होंने अर्जुन को ही सबसे ज्यादा सिखाया। वह जो कुछ भी जानते थे, वह सब कुछ उन्होंने सिर्फ अर्जुन को बताया। इसके पीछे वजह यह नहीं थी कि द्रोणाचार्य पक्षपात करते थे। इसकी सीधी सी वजह यह थी कि अर्जुन के अलावा किसी और में वे गुण ही नहीं थे,कि उनकी दी गई सारी विद्या को ग्रहण कर पाते।
एक दिन की बात है। सभी भाई कक्षा में थे।
द्रोणाचार्य धनुर्विद्या के बारे में बता रहे थे। व्यावहारिक ज्ञान देने के लिए वह सभी भाइयों को बाहर ले गए। एक पेड़ की सबसे ऊंची शाखा पर उन्होंने एक खिलौने वाला तोता रख दिया। उन्होंने अपने हर शिष्य से कहा कि तोते की गर्दन में एक निशान है। उस निशान पर निशाना लगाओ। धनुष तान लेने के बाद शिष्यों को गुरु के अगले आदेश का इंतजार करना था। उनके ‘तीर चलाओ’ कहने पर ही उन्हें तीर चलाना था। गुरु ने उन्हें कुछ मिनटों के लिए इंतजार करते रहने दिया।
ज्यादातर लोग एक ही स्थान पर कुछ पल से ज्यादा ध्यान केंद्रित नहीं कर पाते। क्या आपने कभी अपने बारे में इस पर गौर किया है?
बहुत से लोग ऐसे होते हैं, जो किसी भी चीज पर अपना ध्यान केंद्रित नहीं कर पाते। खैर, द्रोणाचार्य ने धनुष ताने अपने शिष्यों को कुछ मिनट तक इंतजार करते रहने दिया। धनुष को तानकर रखना और किसी चीज पर ध्यान केंद्रित करना शारीरिक तौर पर थकाऊ काम होता है। कुछ मिनट के बाद द्रोणाचार्य ने एक-एक कर सभी शिष्यों से पूछा कि तुम्हें क्या नजर आ रहा है? शिष्य पेड़ के पत्तों, फल, फूल, पक्षी और यहां तक कि आकाश के बारे में बखान करने लगे।
जब अर्जुन की बारी आई, तो द्रोणाचार्य ने वही सवाल दोहराया, ‘तुम्हें क्या दिखाई दे रहा है, अर्जुन?’
अर्जुन ने कहा, ‘तोते की गर्दन पर बस एक निशान गुरुदेव, और कुछ भी नहीं।’
ऐसे ही लोग कुछ हासिल करते हैं। जो लोग बाकी भाइयों की तरह देखते हैं, वे कहां पहुंचते हैं? कहीं नहीं। अगर कहीं पहुंचते भी हैं, तो वह महज संयोग होता है। उनकी उपलब्धि अपनी खुद की वजह से नहीं होती, बल्कि इस जगत में मौजूद तमाम दूसरी शक्तियां उन्हें आगे ले जाती हैं।
लेकिन अर्जुन की उपलब्धि सिर्फ अपनी वजह से होगी, क्योंकि वह जानता है कि वह कहां है। आपको भी अर्जुन की तरह ही होना चाहिए। अपना ध्यान लक्ष्य पर केंद्रित कीजिए। फिर जो होना होगा, हो जाएगा। जो किसी और के साथ होना है, आवश्यक नहीं है कि वह आपके साथ भी हो, लेकिन जो आपके साथ होना है, वह जरूर होगा। इससे कोई इनकार नहीं कर सकता।
अगर आप इस बात को लेकर बहुत ज्यादा चिंतित हैं कि किसी और के साथ क्या हो रहा है, तो इससे वक्त बर्बाद होता है, जीवन बर्बाद होता है।
9-,काम आनंद से करें मेहनत से नहीं
बचपन से लेकर अब तक हमें यही बताया गया है कि खूब मेहनत से पढ़ाई करो। काम करो तो खूब मेहनत से करो। किसी ने भी हमें यह नहीं सिखाया कि पढ़ाई या काम आनंद और प्रेम के साथ करो। बस हर कोई यही कहता है – कठिन परिश्रम करो, मेहनत से पढ़ो। लोग हर काम कठिनता से करते हैं, और जब जीवन कठिन हो जाता है तो शिकायत करते हैं।
अहम की प्रकृति ही ऐसी है कि यह हर चीज को कठिनता से करना चाहता है। अहम इस बात को लेकर चिंतित नहीं रहता कि आप क्या कर रहे हैं। इसकी एक ही चिंता होती है, कि किसी और से एक कदम आगे रहे, बस।
जीवन जीने का यह बेहद दुखद तरीका है लेकिन अहम की तो प्रकृति ही यही है। जब लोग हर चीज को कठिन परिश्रम से करते हैं तो यह उनके लिए संतुष्टि का साधन बन जाती है। अगर वे चीजों को आनंद के साथ करते हैं, तो उन्हें ऐसा लगता है जैसे उन्होंने कुछ किया ही नहीं है।
क्या यह शानदार बात नहीं है कि बहुत सारे काम करने के बाद भी आपको ऐसा लगे कि आपने कुछ किया ही नहीं है ? ऐसा ही होना चाहिए।
दिन भर में 24 घंटे काम करने के बाद भी अगर आपको लगता है कि आपने कुछ नहीं किया है, तो आप काम का भार अपने ऊपर लेकर नहीं चलते। आप एक बच्चे की तरह जीवन से गुजरते हैं, अपनी क्षमताओं का अधिकतम इस्तेमाल करते हुए आगे बढ़ते हैं।
अगर आप सभी कामों को अपने सिर पर लेकर चलेंगे, तो आपकी क्षमताओं का कभी भरपूर उपयोग नहीं हो सकेगा और आपको रक्तचाप, मधुमेह या अल्सर जैसे रोग हो जाएंगे।
अगर आपके और आपके दिमाग के बीच, आपके और आपके शरीर के बीच, आपके और आपके आसपास की हर चीज के बीच एक खास दूरी है, तो वह आपको आजादी देती है कि आप जीवन के साथ जो भी करना चाहते हैं, वह कर सकते हैं, लेकिन जीवन आपको नहीं छुएगा।
यह आपको किसी भी तरह से चोट नहीं पहुंचाएगा। तर्क से सोचेंगे तो आप इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं, कि अगर आप इस तरह के हो जाते हैं तो आपके लिए दुनिया में रहना मुश्किल हो जाएगा, लेकिन सच्चाई यह नहीं है।
एक स्तर पर आप अनछुए हैं, लेकिन दूसरे स्तर पर आपकी सहभागिता इतनी ज्यादा है कि हर चीज आपका हिस्सा बन जाती है। आप खुद को हर किसी के जीवन में शामिल कर सकते हैं, जैसे वह आपका अपना ही जीवन हो। जब तकलीफ और उलझन का डर नहीं होता, तो आप खुद को पूरी तरह से जीवन में झोंक सकते हैं और हर चीज में बिना किसी हिचकिचाहट के शामिल हो सकते हैं।
10--जीवन प्रवाह के साथ तीव्रता भी है
जीवन तीव्रता है। कभी आपने महसूस किया है कि आपके भीतर जो जीवन है, वह एक पल के लिए भी धीमा नहीं पड़ता। अगर कुछ धीमा पड़ता है, तो वह है आपका दिमाग और आपकी भावनाएं, जो कभी अच्छी हो जाती हैं तो कभी बिमार। अपनी श्वास को देखिए। क्या यह कभी धीमी पड़ती है? अगर कभी यह धीमी पड़ जाती है तो उसका मतलब मौत होता है।
जब मैं आपको जीवंत बनने और अपने अंदर तीव्रता पैदा करने के तमाम तरीके बताता हूं, तो मैं बस यह कह रहा होता हूं कि आप जीवन की तरह बन जाएं। अभी आपने अपने उन विचार और भावों को बहुत ज्यादा महत्व दिया हुआ है, जो आपके भीतर चल रहे हैं। आपने अपने भीतर के जीवन को महत्व नहीं दिया है। जरा सोचिए, क्या जीवित रहने से ज्यादा महत्व आपके विचारों का है? महान दर्शनशास्त्री देस्कार्ते ने कहा, ‘मैं सोचता हूं इसलिए मैं हूं।’
बहुत सारे लोगों का मानना है कि उनका अस्तित्व केवल इसलिए है क्योंकि वे सोच रहे हैं। नहीं, ऐसा नहीं है। चूंकि आपका अस्तित्व है, इसलिए आप सोच पा रहे हैं, नहीं तो आप सोच ही नहीं सकते। आपकी जीवंतता आपके विचारों और भावों से कहीं ज्यादा मौलिक और महत्वपूर्ण हैं। लेकिन होता यह है कि आप केवल वही सुनते हैं जो आपके विचार और भाव कह रहे हैं। अगर आप जीवन की प्रक्रिया के हिसाब से चलें, तो यह एक निरंतर प्रवाह है, चाहे आप सो रहे हों या जाग रहे हों।
जब आप सो रहे होते हैं तो क्या जीवन आपके भीतर सुस्त पड़ जाता है? नहीं, यह आपका मन है जो कहता है, ‘मुझे यह पसंद है इसलिए मैं इसे पूरे जुनून के साथ करूंगा, मुझे वह पसंद नहीं है इसलिए उसे दिल से नहीं करूंगा।’ लेकिन आपकी जिंदगी इस तरह की नहीं है। यह हमेशा एक प्रवाह और तीव्रता में है।
अगर आप लगातार इस तथ्य के प्रति जागरूक या सजग रहेंगे कि बाकी सभी चीजें गुजर जाने वाली चीजें हैं और मैं मूल रूप से जीवन हूं, तो आपके अंदर एक प्रवाह और तीव्रता बनी रहेगी।
आपके अस्तित्व में होने का कोई और तरीका ही नहीं है, क्योंकि जीवन को कोई दूसरा तरीका मालूम ही नहीं है। जीवन हमेशा प्रवाह में है, यह तो बस भाव और विचार ही हैं जो भ्रम पैदा करते हैं।
अब जरा अपनी भावनाओं और विचारों की प्रकृति को देखिए। जीवन में ऐसे तमाम मौके आए होंगे, जब इन विचारों और भावनाओं की वजह से आपने कई चीजों में भरोसा किया होगा।
कुछ समय बाद आपको ऐसा लगने लगता है कि उस चीज पर भरोसा करना आपकी बेवकूफी थी। आज आपकी भावना आपसे कहती है कि यह शख्स बहुत अच्छा है। फिर कल आपकी भावना आपको बताती है कि यह सबसे खतरनाक व्यक्ति है – और दोनों ही बातें शत प्रतिशत सच मालूम पड़ती हैं। इस तरह आपकी भावना और विचार आपको धोखा देने के शानदार जरिए हैं। वे आपको किसी भी चीज के बारे में भरोसा दिला सकते हैं।
अपनी खुद की मान्यताओं की ओर देखिए। उनमें से कोई भी किसी भी तरह की जांच का सामना नहीं कर पाएगी। अगर मैं आपसे तीन सवाल पूछूं, तो आपकी मान्यताएं पूरी तरह लडख़ड़ा जाएंगी। लेकिन जीवन में अलग-अलग मौकों पर आपका मन आपको अलग-अलग बातों पर भरोसा कराएगा और वह तब आपको बिल्कुल सच लगेगा।
कैसे बनाए रखें तीव्रता?
तीव्रता का अर्थ है जीवन के प्रवाह के साथ चलना। अगर आप यहां सिर्फ जीवन के रूप में, एक शुद्ध जीवन के रूप में मौजूद हैं, तो यह स्वाभाविक रूप से अपनी परम प्रकृति की ओर जाएगा। जीवन की प्रक्रिया अपने स्वाभाविक लक्ष्य की ओर बढ़ रही है। लेकिन आप एक विचार, भाव, पूर्वाग्रह, क्रोध, नफरत और ऐसी ही तमाम दूसरी चीजें बनकर एक बड़ी रुकावट पैदा कर रहे हैं।
अगर आप बस जीवन के एक अंश के रूप में मौजूद हैं, तो स्वाभाविक रूप से आप अपनी परम प्रकृति तक पहुंच जाएंगे।
यह कोई ऐसी चीज नहीं है जिसके लिए आपको जूझना या संघर्ष करना पड़े। मैं हमेशा कहता हूं – बस अपनी तीव्रता को बनाए रखें, बाकी चीजें अपने आप होंगी। आपको स्वर्ग का रास्ता ढूंढने की जरूरत नहीं है। बस अपनी तीव्रता को बनाए रखिए।
ऐसा कोई नहीं है जो इस जीवन को इसकी परम प्रकृति की ओर ले जाए या जाने से रोक दे। हम इसमें देरी कर सकते हैं या हम बिना किसी बाधा के इसे तेजी से जाने दे सकते हैं। बस यही है जो हम कर सकते हैं।
यह जितनी तेजी से हो सकती है, उतनी तेजी से इसे होने देने के लिए ही आध्यात्मिक प्रक्रियाएं होती हैं। मदद के लिए आपको देवताओं को बुलाने की जरूरत नहीं है, आपको जीवन होना होगा, विशुद्ध जीवन। अगर आप यहां एक विशुद्ध जीवन के रूप में जी सकते हैं, तो आप परम लक्ष्य तक स्वाभाविक रूप से पहुंच जाएंगे।
11-ध्यान का प्रयोग कर्म के लिए शक्ति संचय करना है
हिमालय जाने के नाम पर मैंने घर छोड़ा, किंतु सौभाग्य से गांधीजी के पास पहुंच गया। ध्यान आदि के लिए मेरी हिमालय जाने की इच्छा थी, किंतु गांधीजी के पास मुझे ध्यान का पर्याप्त लाभ मिला। जब हम सेवा करते हैं, तब हमें ध्यान का मौका मिलता है। जो सेवा की, वह परमेश्वर की सेवा हुई, ऐसा मानेंगे तो वह ध्यान-योग होगा। अगर हम यह मानेंगे कि मनुष्य की सेवा हुई, तो वह सिर्फ सेवा कार्य होगा। उस सेवा कार्य द्वारा परमेश्वर के साथ संपर्क हो रहा है, ऐसी भावना रही तो वह ध्यान होगा।
'साधना कर्मयोगमय होनी चाहिए' का उपसिद्धांत बिल्कुल यूक्लिड (प्राचीन यूनान का एक प्रसिद्ध गणितज्ञ) की पद्धति से निष्पादित होता है। कर्म कहते ही दो दोष चिपकने को तत्पर हो जाते हैं- एक कर्मठता और दूसरा कर्म के पीछे भाग-दौड़। उल्टे 'योग' का नाम लेते ही कर्मशून्य ध्यान-साधना की ओर झुकाव होता है, जो काल्पनिक होती है। कर्माग्रही आत्मा की मूल निष्कर्म भूमिका खो बैठता है।
कर्म छोड़कर काल्पनिक ध्यान के पीछे लगना पैर को तोड़कर रास्ता तय करने की कोशिश करने के बराबर है।
कर्मयोगी इन दोनों दोषों से दूर रहता है। एक भाई ने कहा कि हम आध्यात्मिक मार्ग में आगे बढ़ना चाहते हैं, इसलिए ध्यान कर रहे हैं। हमने कहा कि ध्यान का अध्यात्म के साथ कोई खास संबंध नहीं है, ऐसा हम मानते हैं।
कर्म एक शक्ति है, जो अच्छे, बुरे, स्वार्थ, परार्थ और परमार्थ के काम में आ सकता है। उसी तरह ध्यान भी एक शक्ति है, जो उन पांचों कामों में आ सकती है।
कर्म स्वयं में ही कोई आध्यात्मिक शक्ति नहीं है, वैसे ही ध्यान भी स्वयमेव कोई आध्यात्मिक शक्ति नहीं है। कर्म करने के लिए मनुष्य को दस-पांच चीजों की तरफ खूब ध्यान देना पड़ता है। वह भी एक तरह का विविध ध्यान-योग ही है। चर्खा कातना हो तो इधर पहिए की तरफ ध्यान देना पड़ता है, तो उधर पूनी खींचने की तरफ। इस दोहरी प्रक्रिया के साथ-साथ सूत लपेटने की तरफ भी ध्यान देना पड़ता है। तभी सूत कतता है। बहनों को रसोई का काम करते समय कई बातों की तरफ ध्यान देना पड़ता है। इधर चावल पक रहा है तो उसे देखना, उधर आटा गूंथना, रोटी बेलना, सेंकना, तरकारी काटना, लकड़ी ठीक से जल रही है या नहीं, यह देखना। इसमें भी विविध ध्यान-योग है।
ध्यान करते समय हम अनेक चीजों की तरफ से ध्यान हटाकर एक ही चीज की तरफ ध्यान देते हैं। जैसे अनेक चीजों की तरफ एक साथ ध्यान देना एक शक्ति है, वैसे ही एक ही चीज की तरफ ध्यान देना, यह भी एक शक्ति है। लोगों के मन में अक्सर एक गलतफहमी रही है कि कर्म करना सांसारिकों का काम है और ध्यान करना अध्यात्म की चीज है। इस गलत खयाल को मिटाना बहुत जरूरी है।
अगर ध्यान का अध्यात्म से संबंध जोड़ा जाए, तो वह आध्यात्मिक है। हमने खेत में कुदाल चलाई, कुआं खोदने का काम किया, कताई, बुनाई, रसोई, सफाई आदि तरह-तरह के काम भी किए। बचपन में हमारे पिताजी ने हमसे रंगने का काम, चित्रकला, होजरी वगैरह के काम भी करवाए थे। वह सब करते समय हमारी यही भावना थी कि हम इस रूप में एक उपासना कर रहे हैं। इसमें हम अपने को मानवमात्र के साथ, कुदरत के साथ जोड़ते थे और इन सबका केंद्र स्थान, जो परमात्मा कहलाता है, उसके साथ भी जोड़ते थे।
यह हमारा अनुभव है।
ध्यान और कर्म परस्पर पूरक शक्तियां हैं। कर्म के लिए दस-बीस क्रियाएं करनी होती है, यानी उन सबका ध्यान करना पड़ता है। ध्यान में सब वस्तुओं को छोड़कर एक ही चीज का ध्यान किया जाता है। पचासों चीजों का ध्यान किया जाए, तो कर्म-शक्ति विकसित होती है और एक ही चीज पर एकाग्र होने से ध्यान-शक्ति विकसित होती है।
जैसे कर्म के लिए अनेक वस्तुओं का खयाल करना पड़ता है, वैसे ही ध्यान के लिए एक ही वस्तु का करना पड़ता है। दोनों पूरक शक्तियां हैं। घड़ी में अनेक पुर्जे होते हैं, उनको अलग-अलग कर दिया जाए, तो आपकी कर्म-शक्ति सध गई। पुर्र्जो को तो बच्चे भी अलग-अलग कर देते हैं, लेकिन एकत्र कर सही जगह लगाना कठिन है। पुर्र्जो को अलग करना और एक करना, इन दो प्रक्रियाओं में से एक कर्म की और दूसरी ध्यान की प्रक्रिया है। जब दोनों प्रक्रियाएं सधती हैं, तब प्रज्ञा बनती है, जो निर्णयकारी होती है।
व्यक्तिगत ध्यान की आवश्यकता है, लेकिन उससे भी अधिक महत्व की चीज है, हमारा सब काम ध्यानस्वरूप होना चाहिए। मिसाल के तौर पर बाबा (स्वयं के लिए) रोज घंटा, डेढ़ घंटा कभी-कभी ढाई घंटे तक सफाई करता है। सफाई में एक-एक तिनका, पत्ती, कचरा उठाता है और टोकरी में डालता है। परंतु बाबा को जो अनुभव आता है, वह सुंदर ध्यान का अनुभव आता है। माला लेकर जप करेगा तो जो अनुभव आएगा, उससे किसी प्रकार से कम या अलग अनुभव नहीं, बल्कि ऊंचा ही है। एक-एक तिनका उठाना और उसके साथ नाम-स्मरण करना। मैं कभी-कभी गिनता हूं।
आज 1225 तिनके उठाए। उसमें मन काम नहीं करता। वह एक ध्यान-योग ही है। यह मानकर चलिए कि जो आदमी बाहर जरा भी कचरा सहन नहीं करता, वह अंदर का कचरा भी सहन नहीं करेगा। उसे अंदर का कचरा निकालने की जोरदार प्रेरणा मिलेगी। यह आध्यात्मिक परिणाम है। हर एक को ऐसी प्रेरणा मिलेगी ही, ऐसा नहीं कह सकते। लेकिन तन्मय होकर कोई यह काम करेगा, तो उसे ध्यान-योग सध सकता है।
काम करते समय ध्यान होना ही चाहिए। तस्मात य इह मनुष्याणां महत्तां प्राप्नुवंति, ध्यानापादांशा इवैव ते भवंति। जो लोग दुनिया में कोई भी महत्ता प्राप्त करते हैं, वह उनको ध्यान के कारण प्राप्त होती है। कबीर ने वर्णन किया है- माला तो कर में फिरे यानी हाथ में माला घूम रही है, मुख में जबान घूम रही है और चित्त दुनिया में घूम रहा है। ध्यान के लिए आलंबन चाहिए। हमारा काम ही ध्यान के लिए आलंबन है।
12-बद्रीनाथ विष्णु की निवास भूमि है
क्या आप बद्रीनाथ की कहानी जानते हैं? यह वो जगह है, जहां शिव और पार्वती रहते थे। यह उनका घर था। एक दिन नारायण यानी विष्णु के पास नारद गए और बोले, ‘आप मानवता के लिए एक खराब मिसाल हैं। आप हर समय शेषनाग के ऊपर लेटे रहते हैं। आपकी पत्नी लक्ष्मी हमेशा आपकी सेवा में लगी रहती हैं, और आपको लाड़ करती रहती हैं। इस ग्रह के अन्य प्राणियों के लिए आप अच्छी मिसाल नहीं बन पा रहे हैं। आपको सृष्टि के सभी जीवों के लिए कुछ अर्थपूर्ण कार्य करना चाहिए।’
इस आलोचना से बचने और साथ ही अपने उत्थान के लिए (भगवान को भी ऐसा करना पड़ता है) विष्णु तप और साधना करने के लिए सही स्थान की तलाश में नीचे हिमालय तक आए। वहां उन्हें मिला बद्रीनाथ, एक अच्छा-सा, छोटा-सा घर, जहां सब कुछ वैसा ही था जैसा उन्होंने सोचा था। साधना के लिए सबसे आदर्श जगह लगी उन्हें यह। वह उस घर के अंदर गए। घुसते ही उन्हें पता चल गया कि यह तो शिव का निवास है और वह तो बड़े खतरनाक व्यक्ति हैं।
अगर उन्हें गुस्सा आ गया तो वह आपका ही नहीं, खुद का भी गला काट सकते हैं। ऐसे में नारायण ने खुद को एक छोटे-से बच्चे के रूप में बदल लिया और घर के सामने बैठ गए। उस वक्त शिव और पार्वती बाहर कहीं टहलने गए थे। जब वे घर वापस लौटे तो उन्होंने देखा कि एक छोटा सा बच्चा जोर-जोर से रो रहा है। पार्वती को दया आ गई। उन्होंने बच्चे को उठाने की कोशिश की। शिव ने पार्वती को रोकते हुए कहा, ‘इस बच्चे को मत छूना।’
पार्वती ने कहा, ‘कितने क्रूर हैं आप ! कैसी नासमझी की बात कर रहे हैं? मैं तो इस बच्चे को उठाने जा रही हूं। देखिए तो कैसे रो रहा है।’ शिव बोले, ‘जो तुम देख रही हो, उस पर भरोसा मत करो। मैं कह रहा हूं न, इस बच्चे को मत उठाओ।’
बच्चे के लिए पार्वती की स्त्रीसुलभ मनोभावना ने उन्हें शिव की बातों को नहीं मानने दिया। उन्होंने कहा, ‘आप कुछ भी कहें, मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। मेरे अंदर की मां बच्चे को इस तरह रोते नहीं देख सकती। मैं तो इस बच्चे को जरूर उठाऊंगी।’ और यह कहकर उन्होंने बच्चे को उठाकर अपनी गोद में ले लिया। बच्चा पार्वती की गोद में आराम से था और शिव की तरफ बहुत ही खुश होकर देख रहा था।
शिव इसका नतीजा जानते थे, लेकिन करें तो क्या करें? इसलिए उन्होंने कहा, ‘ठीक है, चलो देखते हैं क्या होता है।’ पार्वती ने बच्चे को खिला-पिला कर चुप किया और वहीं घर पर छोडक़र खुद शिव के साथ गर्म पानी से स्नान के लिए बाहर चली गईं। वहां पर गर्म पानी के कुंड हैं, उसी कुंड पर स्नान के लिए शिव-पार्वती चले गए। लौटकर आए तो देखा कि घर अंदर से बंद था।
शिव तो जानते ही थे कि अब खेल शुरू हो गया है। पार्वती हैरान थीं कि आखिर दरवाजा किसने बंद किया? शिव बोले, ‘मैंने कहा था न, इस बच्चे को मत उठाना। तुम बच्चे को घर के अंदर लाईं और अब उसने अंदर से दरवाजा बंद कर लिया है।’ पार्वती ने कहा, ‘अब हम क्या करें?’
शिव के पास दो विकल्प थे। एक, जो भी उनके सामने है, उसे जलाकर भस्म कर दें और दूसरा, वे वहां से चले जाएं और कोई और रास्ता ढूंढ लें। उन्होंने कहा, ‘चलो, कहीं और चलते हैं क्योंकि यह तो तुम्हारा प्यारा बच्चा है इसलिए मैं इसे छू भी नहीं सकता। मैं अब कुछ नहीं कर सकता। चलो, कहीं और चलते हैं।’
इस तरह शिव और पार्वती को अवैध तरीके से वहां से निष्कासित कर दिया गया। वे दूसरी जगह तलाश करने के लिए पैदल ही निकल पड़े। दरअसल, बद्रीनाथ और केदारनाथ के बीच, एक चोटी से दूसरी चोटी के बीच, सिर्फ दस किलोमीटर की दूरी है। आखिर में वह केदार में बस गए और इस तरह शिव ने अपना खुद का घर खो दिया। आप पूछ सकते हैं कि क्या वह इस बात को जानते थे।
आप कई बातों को जानते हैं, लेकिन फिर भी आप उन बातों को अनदेखा कर उन्हें होने देते हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से भी बद्रीनाथ का खास महत्व है क्योंकि यहां के मंदिर को आदि शंकराचार्य ने प्रतिष्ठित किया था। यह अद्भुत जगह सचमुच दर्शनीय है।
13--हमें हीनता से बाहर कैसे निकलना है
एक बड़े मनोविज्ञानी अल्फ्रेड एडलर ने पाया कि मनुष्य के जीवन की सारी उलझनों का मूल स्नोत हीनता की ग्रंथि में होता है। हीनता की ग्रंथि का अर्थ है कि जीवन में आप कहीं भी रहें, कैसे भी रहें, सदा मन में यह पीड़ा बनी रहती है कि कोई आपसे आगे है, कोई आपसे ज्यादा है, कोई आपसे ऊपर है। इसकी चोट भीतर के प्राणों में घाव बना देती है। फिर आप जीवन के आनंद को भोग नहीं सकते।
हीनता की ग्रंथि (इनफीरियॉरिटी कॉम्प्लेक्स) अगर एक ही होती, तब भी ठीक था। तब शायद कोई उपाय किया जा सकता था।
अल्फ्रेड एडलर ने तो हीनता की ग्रंथि शब्द का प्रयोग किया है, पर मैं तो 'हीनताओं की ग्रंथियां' कहना पसंद करूंगा। क्योंकि कोई हमसे ज्यादा सुंदर है। किसी का स्वर कोयल जैसा है और हमारा नहीं। कोई हमसे ज्यादा लंबा है, कोई हमसे ज्यादा स्वस्थ है। किसी के पास ज्यादा धन है, किसी के पास ज्यादा ज्ञान है, किसी के पास ज्यादा त्याग है। कोई संगीतज्ञ है, कोई चित्रकार है, कोई मूर्तिकार है।
करोड़ों लोग हैं हमारे चारों तरफ और हर आदमी में कुछ न कुछ खूबी है। जिसके भीतर हीनता की ग्रंथि है, उसकी नजर सीधे दूसरों की खूबी पर जाती है, क्योंकि जाने-अनजाने वह हमेशा तौल रहा है कि मैं कहीं किसी से पीछे तो नहीं हूं। उसकी नजर झट से पकड़ लेती है कि कौन-सी बात है, जिसमें मैं पीछे हूं।
जितने लोग हैं, उतनी ही हीनताओं का बोझ हमारे ऊपर पड़ जाता है। हीनताओं की एक भीड़ हमें चारों तरफ से दबा लेती है, हम उसी के भीतर तड़पते रहते हैं और बाहर निकलने का उपाय नहीं सूझता।
एक बार एक आदमी ने मुझसे कहा, 'बड़ी मुश्किल में पड़ा हूं। दो साल पहले अपनी प्रेयसी के साथ समुद्र तट पर बैठा था। एक आदमी आया, उसने पैर से रेत मेरे चेहरे पर उछाल दी और मेरी प्रेयसी से हंसी-मजाक करने लगा।' मैंने पूछा, 'तुमने कुछ किया?' उसने कहा, 'क्या कर सकता था? मेरा वजन सौ पौंड का, उसका डेढ़ सौ पौंड।''फिर भी, तुमने कुछ तो किया होगा?'
उसने कहा, 'मैंने स्त्रियों के बारे में सोचना ही छोड़ दिया, हनुमान अखाड़े में भर्ती हो गया। दंड-बैठक लगाने से दो साल में मेरा भी वजन डेढ़ सौ पौंड हो गया। फिर मैंने एक स्त्री खोजी। समुद्र तट पर गया। वहां बैठा भी नहीं था कि एक आदमी आया, उसने फिर लात मारी रेत में, मेरी आंखों में धूल भर दी और मेरी प्रेयसी से हंसी-मजाक करने लगा।' मैंने कहा, 'अब तो तुम कुछ कर सकते थे।'उसने कहा, 'क्या कर सकते थे? मैं डेढ़ सौ पौंड का, वह दो सौ पौंड का।'
'तो अब क्या करते हो?' उसने कहा, 'अब फिर हनुमान अखाड़े में व्यायाम करता हूं।
लेकिन अब आशा छूट गई। क्योंकि दो सौ पौंड का हो जाऊंगा तो क्या भरोसा कि ढाई सौ पौंड का आदमी नहीं आएगा।'
इस सोच से हम कभी भी हीनता के बराबर नहीं हो सकते। कितने लोग हैं, कितने विभिन्न रूप हैं, कितनी विभिन्न कुशलताएं हैं, योग्यताएं हैं, आप उनमें दब मरेंगे। यही वजह है कि अल्फ्रेड एडलर ने मनुष्य की सारी पीड़ाओं और चिंताओं का आधार दूसरे के साथ अपने को तौलने में पाया है। एडलर जैसे-जैसे गहराई में गया, उसे समझ में आया कि आदमी क्यों खुद को दूसरे से तौलता है? क्या जरूरत है? तुम तुम जैसे हो, दूसरा दूसरे जैसा है। यह अड़चन तुम उठाते क्यों हो? पौधे तो तुलना नहींकरते।
छोटी-सी झाड़ी बड़े से बड़े वृक्ष के नीचे निश्चित बनी रहती है, कभी यह नहीं सोचती कि यह वृक्ष इतना बड़ा है। छोटा-सा पक्षी गीत गाता रहता है। बड़े से बड़ा पक्षी बैठा रहे, इससे गीत में बाधा नहीं आती। प्रकृति में तुलना है ही नहीं, सिर्फ मनुष्य के मन में तुलना है।
तुलना क्यों है? एडलर ने कहा कि तुलना इसलिए है कि हम सभी यानी पूरी मनुष्यता एक गहन दौड़ से भरी है। उस दौड़ को एडलर कहता है: द विल टु पावर (शक्ति की आकांक्षा)। कैसे मैं ज्यादा शक्तिवान हो जाऊं, फिर चाहे वह धन हो, पद हो, प्रतिष्ठा हो, यश हो, कुशलता हो, कुछ भी हो, हर मामले में मैं शक्तिशाली हो जाऊं।
यही मनुष्य की सारी दौड़ का आधार है। लेकिन जब हम शक्तिशाली होना चाहते हैं, तो पाते हैं कि हम शक्तिहीन हैं। क्योंकि हम तुलना करते हैं। जगह-जगह हमारी शक्ति की सीमा आ जाएगी। सिकंदर और नेपोलियन और हिटलर भी चुक जाते हैं। उनकी भी शक्ति की सीमा आ जाती है।
एडलर ने प्रश्न तो खड़ा कर दिया, उलझन भी साफ कर दी, लेकिन मार्ग एडलर को भी नहीं सूझता कि इसके बाहर कैसे हुआ जाए। अभी पश्चिम का मनोविज्ञान समस्या को समझने में ही उलझा है, उसके बाहर जाने की तो बात ही बहुत दूर है। कैसे कोई बाहर जाए? एडलर का तो सुझाव इतना ही है कि तुम्हे अतिशय की आकांक्षा नहीं करनी चाहिए। जो उपलब्ध हो सकता है, उसका प्रयास करना चाहिए।
लेकिन इससे कुछ हल न होगा। क्योंकि कहां अतिशय की सीमा है? कौन सी चीज सामान्य है? जो तुम्हारे लिए सामान्य है वह मेरे लिए सामान्य नहीं। जो मेरे लिए सामान्य है, तुम्हारे लिए अतिशय हो सकती है। एक आदमी एक घंटे में पंद्रह मील दौड़ सकता है; वह उसके लिए सामान्य है। तुम एक घंटे में पांच मील भी दौड़ गए तो मुसीबतमें पड़ोगे। कहां तय होगी यह बात कि क्या सामान्य है? औसत क्या है?
लाओत्से के अनुसार, इसका एक ही रास्ता है। और वह रास्ता है घाटी के राज को जान लेना।
जब वर्षा होती है पहाड़ खाली रह जाते हैं, लेकिन घाटियां लबालब भर जाती हैं। राज यह है कि घाटी पहले से ही खाली है। जो खाली है वह भर जाता है। पहाड़ पहले से ही भरे हैं, इसलिए वे खाली रह जाते हैं। तुम जब तक दूसरे से अपने को तौलोगे और दूसरे से आगे होना चाहोगे, तब तक तुम पाओगे कि तुम सदा पीछे हो। लाओत्से कहता है, जो जीवन की इस व्यर्थ दौड़ को देखकर समझ गया और जिसने कहा कि हम आगे होने के लिए दौड़ते नहीं, तो एक अनूठा चमत्कार घटित होता है। तब जो आगे होने की दौड़ में होते हैं, तुम्हारे बजाय वे हीन हो जाते हैं। जैसे ही तुम्हारी हीनता मिट जाती है, तुम श्रेष्ठ हो जाते हो।
किसी से तौलोगे तो पीछे हो सकते हो। तौलते ही नहीं, तो हीनता का कैसे बोध होगा? हीनता का घाव भर जाएगा और श्रेष्ठता के फूल उस घाव की जगह प्रकट होना शुरू हो जाएंगे।
यह कैसे हुआ कि महान नदी और समुद्र खड्डों के, घाटियों के स्वामी बन गए? झुकने और नीचे रहने में कुशल होने के कारण। वे झुकना जानते हैं। वस्तुत: जहां जितनी झुकने की क्षमता होगी, उतना ही वहां जीवन होगा। लाओत्से को बहुत प्रिय है झुकने की कला। वह कहता है, जब तुम झुके होगे तो कोई तुम्हें कैसे झुका सकता है।
Sunday, April 19, 2015
अनुभव की बात
1-क्या भगवान हमारी परीक्षा लेते हैं?
मैं जानता हूं कि ‘भगवान आपकी परीक्षा लेता है’- आपने अपनी जिन्दगी में जो भी परीक्षाएं पास की हैं, अगर वही परीक्षाएं भगवान दें, तो वह असफल हो जाएंगे क्योंकि यह एक बिल्कुल अलग क्षेत्र है। जब आप गणित की परीक्षा देने जा रहे होते हैं तो बदकिस्मती से आप शिव को याद करते हैं। शिव तो अपनी उंगलियां भी नहीं गिन सकते।
उन्हें परेशान क्यों करना।
उसी तरह आपके गुरु भी एक अलग मकसद के लिए हैं। आध्यात्म के क्षेत्र में ऐसी परीक्षाओं का कोई मतलब नहीं है। अगर मुझे आपको कोई शारीरिक काम देना होगा, तो मैं आपकी परीक्षा लूंगा और आपके पास होने पर आपकी सराहना भी करूंगा। लेकिन आध्यात्मिक उद्देश्यों के लिए परीक्षा लेने की कोई जरूरत नहीं है। एक गुरु आपके कर्मों के हर बोझ को स्पष्ट रूप से देख सकता है। उसे परीक्षा लेने की कोई जरूरत ही नहीं है।
2--मानसिक रोग के लिए जिम्मेदार कौन ?
कुछ साल पहले एक सत्संग में सुना था कि मानव पीड़ा का सबसे बड़ कारण मानसिक रोग हैं। आखिर एक इंसान के अचानक मानसिक रूप से अस्वस्थ होने की वजह क्या होती है? क्या यह संभव है कि मानसिक रूप से बीमार व्यक्ति पूरी तरह से ठीक हो जाए और उसकी दवाई छूट जाए?
अगर आपने इसे देखा है तो आप समझ सकते हैं कि इससे बड़ी कोई पीड़ा नहीं है।
दरअसल मानव मस्तिष्क में अपार संभावनाए होती हैं। अगर ये संभावनाए आपके अनुकूल काम करती हैं तो आपका जीवन खुशियों से भर उठता है। लेकिन अगर ये आपके खिलाफ काम करने लगीं तो फिर आपको कोई नहीं बचा सकता। दरअसल, इस स्थिति में आपकी पीड़ा का कारण कहीं बाहर से नहीं आ रहा।
अगर आपकी पीड़ा का कारण कहीं बाहर से मसलन आपके पड़ोस, आपकी सास या आपके बॉस की तरफ से आ रहा होता तो आप उससे भाग सकते थे। वे कुछ करते, जिसके बदले में आप एक खास तरह से उस पर प्रतिक्रिया देते। लेकिन आप एक ऐसी जगह या हालात में है, जहां बिना किसी के कुछ किए भी अपने आप तकलीफें आ रही हैं तो यह अपने आप में एक मनोवैज्ञानिक स्थिति होगी।
सवाल है कि कोई व्यक्ति इस स्थिति से बाहर कैसे आ सकता है? यह इस बात पर निर्भर करता है कि इस बीमारी से नुकसान कितना हुआ है। कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो इससे बाहर आ जाते हैं, लेकिन वहीं कुछ लोगों में यह समस्या एक भौतिक रूप ले लेती है और मस्तिष्क का नुकसान कर देती है। इस स्थिति में दवाइयों के जरिए उसकी बाहर से मदद करनी पड़ती है। ऐसी स्थिति में लोग बड़े पैमाने पर सीडेटिव (ऐसी दवाइयां जो मानसिक शांति के लिए दी जाती हैं) का सेवन कर रहे हैं, लेकिन इसमें एक खतरा है कि इनका असर सिर्फ एक हिस्से में न होकर पूरे दिमाग में होता है।
आप जानें कि बहुत से लोग इसी कोशिश में बर्बाद हो गए।
कभी ये लोग हमारी-आपकी तरह बिलकुल सामान्य थे। लेकिन एक दिन सबकुछ खत्म हो गया। एक दिन अचानक कहीं कोई फ्यूज उड़ा ओर वे सड़क पर पर आ गए।
विवेक और अविवेक के बीच बहुत बारीक सा अंतर है। आपमें से बहुत से लोगों को इस रेखा को पार करने में बड़ा मजा आता होगा। मान लीजिए आप किसी पर गुस्से में फट पड़े और उसने आपसे डर कर वह काम कर दिया, जो आप चाहते थे। अब आप कहेंगे कि पता है, ‘मैं गुस्से में पागल होकर उस पर फट पड़ा और उसने डर कर तत्काल वह काम कर दिया, जो मैं चाहता था।’
आप गुस्से में पागल हुए और वापस सामान्य स्थिति में आ गए, आपके कहने से लगता है कि आपने इस स्थिति का आनंद उठाया। मान लीजिए आप गुस्से में पागल हो जाते और वापस सामान्य स्थिति में आ ही ना पाते तो? फिर तो यह अलग स्थिति होती।
आप गुस्से, नफरत, ईर्ष्या, शराब या मादक चीजों की लत के चलते इस रेखा को पार करते रहते हैं। आप समझदारी की रेखा को लांघते रहते हैं, साथ ही आप इस दौरान होने वाले पागलपन का भी मजा लेते रहते हैं और फिर इस स्थति से बाहर आ जाते हैं। मैं चाहता हूं कि आप जानें कि बहुत से लोग इसी कोशिश में बर्बाद हो गए। कभी ये लोग हमारी-आपकी तरह बिलकुल सामान्य थे। लेकिन एक दिन सबकुछ खत्म हो गया। एक दिन अचानक कहीं कोई फ्यूज उड़ा ओर वे सड़कर पर आ गए।
इसी तरह से हमारे शरीर में बीमारी आती है। हो सकता है कि आज आप पूरी तरह से ठीक हों और कल सुबह आपका डॉक्टर आपसे कुछ और कहे। इस तरह की चीजें लोगों के साथ हर रोज हो रही है। यही चीज इंसान के दिमाग के साथ भी हो सकती है। अगर यह चीज आपके शरीर के साथ होती है यानी आप शारीरिक रूप से बीमार पड़ते हैं तो कम से कम आपको अपने आसपास के सब लोगों से हमदर्दी मिलती है, लेकिन अगर यही दिक्कत आपके दिमाग के साथ हो जाए तो आपको हमदर्दी मिलने की संभावना ना के बराबर होती है। तब कोई भी आपके आसपास नहीं रहना चाहता, क्योंकि मानसकि रूप से बीमार व्यक्ति को झेलना बहुत मुश्किल है।
ऐसे में आपको भी पता नहीं होता कि कब वे बीमार हैं और कब वे बीमारी का नाटक कर रहे हैं, आप इसका फैसला नहीं कर पाते।
जब वे बीमारी का नाटक कर रहे होते हैं तो आप उनके प्रति कठोर रुख अपनाते हुए उन पर काबू पाना चाहते हैं, लेकिन जब वे सच में बीमार होते हैं तो आपको उनके प्रति करुणा रखनी चाहिए। यह कोई आसान काम नहीं है, बिल्कुल दो छोरों पर बंधी रस्सी पर चलने जितना मुश्किल है। यह पीड़ित व्यक्ति के लिए कष्टदायक तो है ही, लेकिन उससे ज्यादा कष्टदायक उसके आसपास के लोगों के लिए होता है।
आज हमें ऐसा सामाजिक ढांचा बनाने की जरूरत है, जहां मानसिक रोगों की संभावना बेहद कम हो।
अगर मैं लगातार भारतीय संस्कृति पर जोर देने के पीछे पड़ा रहता हूं तो इसके पीछे वजह है कि आज से 200-300 साल पहले इस देश में नाममात्र के ही मानसिक रोगी हुआ करते थे।
आज ऐसा सामाजिक ढांचा बनाने की जरूरत है, जहां मानसिक रोगों की संभावना बेहद कम हो। अगर मैं लगातार भारतीय संस्कृति पर जोर देने के पीछे पड़ा रहता हूं तो इसके पीछे वजह है कि आज से 200-300 साल पहले इस देश में नाममात्र के ही मानसिक रोगी हुआ करते थे।
इनकी संख्या कम होने की सीधी सी वजह एक खास तरह के सामाजिक ढांचे का होना भी था। लेकिन धीरे-धीरे हम अनजाने में इस ढांचे को खत्म करने में लगे हैं।
आज हालत ये है कि गांवों में भी आपको मनोवैज्ञानिक रूप से पीड़ित लोग मिल जाएंगे, जबकि अतीत में अपने यहां ऐसा नहीं था। अगर अतीत में कहीं कुछ हुआ भी तो उसकी संख्या लगभग ना के बराबर रही। लेकिन अब यह संख्या लगातार बढ़ रही है। आप तथाकथित धनी या समृद्ध समाज में साफ तौर पर देख सकते हैं कि वहां इनकी तादाद अपेक्षाकृत काफी अधिक है। इसकी वजह है कि जब तक इंसान खास चीजों का अतिक्रमण नही करता, वह एक सामाजिक प्राणी के तौर पर रहता है।
या तो हमारी कोशिश करने की होनी चाहिए या फिर हमें एक ऐसे समाज का निर्माण करना चाहिए, जो उसमें रहने वालों पर अत्यधिक बोझ डालने की बजाय एक सहयोगी माहौल मुहैया करा सके। फिलहाल हम जो सामाजिक संरचना बना रहे हैं, वह बहुत ज्यादा अपेक्षा रखने वाली और बोझ डालने वाली है।
आज यह शहरी इलाकों में ज्यादा हो रहा है, लेकिन इससे भी ज्यादा इसको पश्चिमी देशों में देखा जा सकता है।
अगर आप अमेरकिा में रहना चाहें और वहां अगर आप 30 दिन का उपवास भी करते हैं तो भी आपके बिल में 3000 डॉलर जुड़ जाएंगे। दरअसल, वह समाज बना ही इस तरह का है, जहां वह व्यक्ति विशेष से काफी तरह की अपेक्षाएं रहती हैं, वहां व्यक्ति काम से छुट्टी लेकर यूं ही नहीं बैठ सकता। हर व्यक्ति लगातार काम करने की क्षमता नहीं रखता। बहुत से ऐसे लोग हैं, जिन्हें कुछ खास चीजों से दूर हटने की जरूरत होती है।
अगर उनके जीवन में पर्याप्त साधना हो तो आप उन्हें 364 दिन चौबीसों घंटे सक्रिय रख सकते हैं। दरअसल, जीवन बहुत छोटा है और हम में से कोई भी व्यक्ति खाली नहीं बैठना चाहता। लेकिन अगर लोग साधना नहीं कर रहे तोयह बहुत जरूरी है कि लोगों के पास काम के बीच कुछ वक्त और मौका खाली हो।
हमारी मौजूदा शिक्षा व्यवस्था भी बहुत ज्यादा अपेक्षाएं रखने वाली और बोझ डालने वाली है।
हर कोई इसके लायक तैयार नहीं होता।
हमने ऐसे समाज की रचना की है, जहां रहने के लिए लगातार चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, जहां हर वक्त एक प्रतिस्पर्द्धा चलती रहती है। इंसान के शरीर के भीतर ऐसी प्रतिक्रिया होती है जिसे ‘फाइट ओर फ्लाइट’ कहते हैं(इसमें भयानक तनाव या उत्तेजना के प्रति शरीर एक खास तरह के हॉरमोन – एड्रेनैलिन, स्रावित कर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करता है)। हालंकि अनजाने में लोग अकसर कहते मिल जाएंगे कि ‘मुझे एड्रेनैलिन अच्छा लगता है।’
आप समझ नहीं रहे कि एड्रेनैलिन का असर क्या होता है। एंडरलीन हमारे शरीर में एक इमरजेंसी-सिस्टम है। मान लीजिए अचानक आपके सामने एक शेर आ जाता है, जिसे देखकर आपके शरीर में एड्रेनैलिन हॉरमोन स्रावित होने लगता है और आपको वहां से भागने में मदद करता है। लेकिन अगर आपके शरीर में सहज रूप से यूं ही एड्रेनैलिन प्रवाहित होता रहे तो आप सड़क पर चलते-चलते मर जांएगे।
आपको उस स्थिति में हर वक्त नहीं रहना चाहिए। अगर आप मरेंगे नहीं तो बुरी तरह से टूट जाएंगे।
किसी के लिए यह आसान सी बात होती है, जबकि कोई दूसरा एक साधारण से वाक्य को पच्चीस बार पढ़ने के बाद भी कुछ समझ नहीं पाता। लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि वह कुछ और कर पाने में सक्षम नहीं है। लेकिन हम उसे कुछ और करने की इजाजत ही नहीं देते। ‘उसे तो पहले यही करना होगा।’
आज समाज में ऐसे बहुत से ढांचे हैं जिन्हें क्रूर कहा जा सकता है, जो इंसान की भलाई और कल्याण के हिसाब से बिल्कुल उचित नहीं हैं। दरअसल, हम तो बस उन बड़ी मशीनों के पुर्जे बनाने की कोशिश कर रहे है, जो हमने बनाई हैं। हम चाहते हैं कि ये मशीने बनी रहें, सुचारु रूप से चलती रहें, लेकिन इस कोशिश में एक इंसान के साथ क्या हो रहा है, हम इसकी बिल्कुल परवाह नहीं करते। दरअसल यह मशीन एक छलावा है, जो कभी भी भरभरा कर गिर सकती है। अगर आप उस तरह की सामग्री से नहीं बने हैं कि इस बड़ी मशीन का पुर्जा बन सकें तो आप कई तरीके से छिन्न भिन्न हो सकते हैं।
हर इंसान को फलने फूलने के लिए एक खास तरह के शारीरिक, भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक निजता के साथ-साथ एक खास तरह के माहौल की जरूरत होती है। इंसान के जीवन में शुरू से ही यह माहौल गायब है। यहां तक कि एक नवजात शिशु को भी यह माहौल नहीं मिल पा रहा। एक समय ऐसा था जब मां बच्चे को अपनी छाती से लगाती थी तो फिर उसे वक्त या किसी की भी चिंता नहीं रहती थी।
आज मां बच्चे को दूध पिलाते समय घड़ी देखती रहती है कि बच्चा जल्दी से दूध क्यों नही पी रहा, उसे काम पर भी जाना है। यहां तक कि बच्चे के जन्म के एक हफ्ते बाद ही वह काम पर वापस चली जाती हैं। मैं यह नहीं कह रहा कि महिलाओं को काम नहीं करना चाहिए, बल्कि मैं यह कह रहा हूं कि इंसान को अच्छी तरह से जीना चाहिए। अगर इंसान को अच्छी तरह रहर्ना और जीना है तो उसे कुछ खास तरह की भीतरी सच्चाइयों को भी समझना होगा। हर बच्चे को ‘आगे चलकर मेरा क्या होगा’ जैसी किसी सोच या चिंता के बिना बड़ा होना चाहिए। लेकिन हो यह रहा है कि स्कूल के पहले दिन से ही बच्चे को अपने पड़ोस के बच्चे से दो नंबर कम आने का तनाव होने लग रहा है। यह सब बेकार की बात है।
यह भाव इंसान को खत्म कर देगा। जबकि हम सोचते हैं कि यही इंसान का प्रदर्शन या उपलब्धि, उसका कल्याण और उसकी कुशलता है, जो पूरी तरह से गलत है। अगर आपने इंसान को ही खत्म कर दिया तो फिर आपके द्वारा बनाए गए ढांचे का औचित्य ही क्या बचता है?
एक समय ऐसा था जब मां बच्चे को अपनी छाती से लगाती थी तो फिर उसे वक्त या किसी की भी चिंता नहीं रहती थी।
आज मां बच्चे को दूध पिलाते समय घड़ी देखती रहती है कि बच्चा जल्दी से दूध क्यों नही पी रहा, उसे काम पर भी जाना है।
ऐसे कुछ लोग हैं, जिनमें शारीरिक दिक्कतें आती हैं, जो स्वाभाविक रूप से पैदा हुई हैं। लेकिन इनकी संख्या बहुत कम है। हम लोग तो बाकी बचे हुए लोगों को तोड़ने के लिए जिम्मेदार हैं। सवाल ये है कि जो लोग इस स्थिति में पहुंच चुके हैं, उनका वहां से निकलने का क्या रास्ता है? अगर वह एक खास सीमा पार कर चुके हैं तो उनके लिए दवा जरूरी हो जाती है। अ
गर इस स्थिति में कुछ समय बाद हम दवा के साथ समानांतर रूप से साधना जैसी चीजों का सहारा भी लेते हैं तो इसके नतीजे बेहतर निकल सकते हैं। उस स्थिति में दवाओं के उपर निर्भरता कम होने की संभावना रहती है।
सबसे बड़ी बात यह कि हर व्यक्ति शारीरिक और मानसिक स्तर पर एक जैसा नहीं होता। मानसिक रूस से बीमार लोगों की देखभाल करने का कोई खास तरीका नहीं होता, यह काम अपने आप मे काफी मुश्किल और जटिल है। अगर आप ऐसे लोगों की देखभाल के लिए एक स्वस्थ माहौल तैयार करना चाहते हैं तो इसके लिए बहुत बड़े बुनियादी ढांचे की जरूरत होगी, जिसमें भौतिक ढांचे से लेकर इंसानी ढांचा तक सभी शामिल है।
अफसोस कि मुझे नहीं लगता कि कोई भी व्यक्ति इस दिशा में इतनी सामग्री और इतने इंसानों को लगाने के लिए इच्छुक है।
ऐसे लोगों को इस स्थिति से बाहर लाने के लिए बहुत ज्यादा विशेषज्ञता, देखभाल के साथ एक खास तरह से उसमे लगने की जरूरत होती है। हो सकता है कि इसके बाद भी इन्हें पूरी तरह से बाहर नहीं लाया जा सके। आपको उन्हें अपनी सीमाओं के भीतर ही सहजता और सुविधा का अहसास कराना होगा, ताकि आप उन्हें उनकी पीड़ाओं से कुछ राहत दिला सकें। लेकिन इसके लिए अत्यधिक समर्पित देखभाल के साथ-साथ एक खास तरह की विशेषज्ञता और परानुभूति की जरूरत होती है।
3-जोश और जड़ता का मिश्रण है जीवन
जोश
जोश उन परिंदों का
जिन्हें तलाश है मधुरस की
जोश उस शरारती बच्चे का
जो नहीं गया स्कूल
जोश उस प्रेमी का
जो जल रहा है विरह की अग्नि में।
जीवन है अच्छाई और बुराई से परे
जीने के लिए, जीवन को समझने के लिए
बस उत्साह है
जो जीवन की गहराई को छू सकता है
जो भरा है जीवन के जोश से
है वह मृत्यु की जड़ता से परे
वह अमर है, जिसने जान ली
बेमकसद जोश, जिंदगी का ।
जड़ता
जिनमें तत्परता नहीं है
उनकी जड़ता
जिनमें उत्साह नहीं है
उनकी जड़ता
जो नहीं रखते खयाल किसी का
जो नहीं करते परवाह किसी की
उनकी जड़ता
जो नहीं करते प्रेम किसी से
उनकी जड़ता
खो देगी
उत्साह जीवन का
जीवन तो है सैलाब
सृष्टि के आनंदमय स्रोत का
जड़ता निमंत्रण है मौत को
जड़ता एक प्रक्रिया है
जड़ बन जाने की
जड़ता नजरिये व व्यवहार की
लाती है किस्तों में
मृत्यु की कठोरता
जीवन और मृत्यु दोनों एक ही ऊर्जा हैं, अंतर है तो बस उत्साह और जड़ता का।
जीवन का उत्साह बहुत सी वजहों से बाधित हो सकता है। अपने खुद के कार्यकलाप और चीज़ों को ग्रहण करने का तरीका ही अपने कर्म तैयार करने की बुनियादी वजह है। हर व्यक्ति जोश और जड़ता का एक मिश्रण है अर्थात जीवन और मृत्यु का एक मेल है। हमारे जीवन का हर पहलू – हम क्या खाते हैं से लेकर हम कैसे सांस लेते हैं, कैसे बैठते हैं या कैसे खड़े होते हैं, हर पहलू, या तो हमारी जड़ता बढ़ाएगा या हमारा उत्साह।
4--जिंदगी एक सच होने वाला सपना है
हमारे मन और अस्तित्व के कुछ ऐसे पहलू हैं, जिन्हें हम सपना कहते हैं। आपने लोगों को अकसर यह कहते तो सुना ही होगा-हां, मेरा एक सपना है। इस दुनिया में अपने सपनों को साकार करने का सचेतन तरीका है, कि आप पहले सपना देखते हैं, फिर उस सपने को लगातार इतना मजबूत बनाते हैं कि वो हकीकत में बदल जाए। अपने सपनों को हकीकत में बदलने की काबिलियत अधिकतर लोगों में नहीं होती।
दरअसल, उनके सपनों में कोई एकरूपता नहीं होती। वे हर दिन एक नई चीज का सपना सजाते हैं। दरअसल उनकी चेतना पूरी तरह से अस्त-व्यस्त और बिखरी हुई होती है।
हमारे नब्बे प्रतिशत सपने तो बस मन में इकट्ठी हुई इच्छाओं को रिलीज करने के एक साधन हैं।
अगर ऐसा न हो तो ये हमारे अंदर एक कुंठा पैदा कर देंगी।
सपने को साकार करने का एक पहलू यह है कि आपकी चेतना और जीवन उर्जा एक निश्चित दिशा में हों, जिससे वे आपके लिए हकीकत का रूप ले सकें। एक तरह से हम जो भी सृजन करते हैं, वह हमारे सपनों का ही साकार रूप होता है। पर अब हम ऐसे सपनों के बारे में बात करते हैं जिनके बारे में आपने कभी सोचा नहीं, पर उनको अपने सपनों में देखते हैं।
5-खुद पैदा करें अपनी हंसी-खुशी
खुशी के बारे में आपका कोई विचार नहीं होना चाहिए। आपको बस खुश रहना चाहिए। चार्ल्स डार्विन ने बताया था कि आप बंदर थे। धीरे-धीरे आपकी पूंछ गायब हो गई और आप इंसान बन गए। पूंछ तो गायब हो गई, लेकिन क्या आपकी बंदर वाली आदतें भी खत्म हुई हैं? आपके और चिम्पैंजी के डीएनए में बस 1.23% का ही फर्क है। जाहिर है, बंदरों के गुण अब भी इंसानों में मौजूद हैं।
बहुत पुरानी बात है।
एक आदमी था, जिसका नाम था टोपीवाला। वह टोपी बेचता था। गर्मियों की दोपहर थी। काम करते-करते वह थक गया, और एक पेड़ के नीचे बैठ गया। उसने अपना खाना खोला और खाने लगा। खाना खाकर उसकी आंख लग गई। आंख खुली तो उसने देखा कि उसकी सारी टोपियां गायब हैं।
जब आपको कुछ समझ नही आता कि क्या किया जाए – तो आप क्या करते हैं? ऊपर देखते हैं, ऊपरवाले की याद आती है आपको। खैर, इस टोपीवाले ने भी ऊपर देखा। वह क्या देखता है – कुछ बंदर उसकी टोपियां पहने बैठे हैं। वह उन बंदरों पर चिल्लाया। बंदर भी उस पर चिल्लाए। उसने ईंट के टुकड़े बंदरों पर मारे। बंदरों ने भी इन टुकड़ों को उसकी तरफ वापस फेंका। परेशान होकर टोपीवाले ने अपने टोपी उतारी और जमीन पर फेंक दी। बस फिर क्या था, बंदरों ने भी अपनी-अपनी टोपियां उतारकर जमीन पर फेंक दीं।
दूसरों को देखकर हमें लगता है, कि उनके जैसे काम करके हम खुश हो सकते हैं।
उस घटना के कई सालों बाद ऐसी ही दूसरी घटना घटी। ऐसे ही एक और टोपीवाला टोपियां बेचने जा रहा था। गर्मी से परेशान होकर वह भी पेड़ के नीचे बैठ गया। इस टोपीवाले के साथ भी कुछ वैसा ही हुआ जैसा सालों पहले उस टोपीवाले के साथ हुआ था। इसकी भी टोपियां बंदर आ कर ले गए। उसने अपने पूर्वजों से वह कहानी सुन रखी थी, इसलिए वह उठा और उसने बंदरों को मुंह चिढ़ाना शुरू कर दिया। बंदरों ने भी उसे बदले में मुंह चिढ़ा दिया। टोपीवाले ने उन बंदरों के साथ खूब मजाक किया। अंत में उसने अपनी टोपी उतारी और जमीन पर फेंकदी। इतने में एक बड़ा बंदर नीचे उतरकर आया, टोपी उठाई और टोपीवाले के पास पहुंचा।
टोपीवाले के गाल पर एक जोरदार तमाचा जड़कर बंदर बोला, ‘मूर्ख, तुझे क्या लगता है, कि बस तेरे ही दादा थे।’
दरअसल, हम दूसरों को देखकर अपनी खुशी तय करने लगते हैं। यूं ही किसी राह चलते शख्स को देखकर हमें लगता है, कि यह वाकई खुश है। बस हम उसी की तरह हो जाना चाहते हैं, और फिर नतीजा होता है – निराशा। कुछ समय बाद हमें लगता है, कि साइकल पर चलने वाला शख्स खुश है।
हम साइकल पर चलना शुरू कर देते हैं और कुछ दिन बाद ही निराश होने लगते हैं। फिर हमें लगता है कि जो लोग कार में चल रहे हैं, असल में वे खुश हैं और कार में चलना ही असल मायनों में खुशी है। हो क्या रहा है? दूसरों को देखकर हमें लगता है, कि उनके जैसे काम करके हम खुश हो सकते हैं।
इसमें कोई दो राय नहीं कि खुशी के लिए कुछ बाहरी तत्व प्रेरक का काम करते हैं।
लेकिन सच यही है कि खुशी हमेशा हमारे अंदर से ही आती है। ऐसा नहीं होता कि बाहर कहीं से किसी ने आप पर खुशी की बारिश कर दी। कल्पना कीजिए, 1950 में आपने अपने लिए एक कार खरीदी। कार के साथ आपको दो नौकर भी रखने पड़े, क्योंकि कार धक्का लगाने से स्टार्ट होती थी। आज सब कुछ सेल्फ स्टार्ट होता है। अब आप ही बताइए कि आप अपनी खुशी, अपनी सेहत, शांति और सुख संपन्नता को सेल्फ स्टार्ट करना चाहते हैं, या पुश स्टार्ट?
अगर आपकी खुशी अपने इर्द-गिर्द मौजूद लोगों के हाथों में है तो इस बात की संभावना बेहद कम है कि आप खुश रह सकें।
अगर यह सेल्फ स्टार्ट है तो आप यह नहीं पूछेंगे कि खुशी क्या है, क्योंकि आप जानते हैं कि आपके भीतर खुश रहने की क्षमता है। वैसे मेरे काम का एक महत्वपूर्ण हिस्सा यही है – हर किसी को सेल्फ स्टार्ट पर रखना। इसका अर्थ है लोगों के लिए खुश होने की तकनीक को बेहतर बनाते जाना। क्या आपको कोई ऐसा शख्स मिला है जिसके बारे में आप कह सकें कि वह बिल्कुल वैसा ही है जैसा आप चाहते हैं? आपमें से कई छात्र इतने रोमांटिक होंगे कि सोचते होंगे, कि किसी न किसी दिन उन्हें कोई न कोई ऐसा अवश्य मिलेगा, जो सौ फीसदी बिल्कुल ऐसा होगा जैसा कि वे चाहते हैं।
अगर वह 51 फीसदी भी आपके मुताबिक है, तो यह बहुत बढ़िया है। लेकिन कई लोग महज 10 फीसदी ही होंगे। ऐसे में संघर्ष करना होगा। दरअसल, दुनिया में ऐसा कोई भी शख्स नहीं है, जो बिल्कुल आपके मुताबिक चले। तो अगर आपकी खुशी अपने इर्द-गिर्द मौजूद लोगों के हाथों में है तो इस बात की संभावना बेहद कम है कि आप खुश रह सकें।
एक बार मैं प्रिंसटन यूनिवर्सिटी में बोल रहा था।
यूनिवर्सिटी एक ऐसी जगह होती है जहां लोगों के चेहरे बेहद गंभीर होते हैं। हो सकता है, यह उनके ज्ञान का बोझ हो, जो उनके चेहरों को बोझिल बना देता है। वहां हर कोई बड़ी गंभीरता के साथ बैठा था। इन लोगों के बीच दो युवा चेहरे ऐसे भी थे, जिनके चेहरे पर मुस्कराहट थी। मैंने कहा, ’30 साल से ज्यादा उम्र के इन लोगों को क्या हुआ।’ एक महिला खड़ी हुई और बोली, ‘ये सभी शादी शुदा हैं।’
ज्यादातर लोगों के साथ ऐसा ही होता है। जैसे-जैसे उनकी उम्र बढ़ती जाती है, उनके चेहरे से रौनक गायब होने लगती है। किसी सड़क के किनारे खड़े हो जाइए, और वहां से निकलने वाले लोगों को गौर से देखिए और ढूंढिए कि आपको कितने चेहरों पर आनंद दिखाई देता है। अगर आपको कोई आनंदित चेहरा दिखेगा भी तो आमतौर पर वह युवा होगा। वैसे आजकल युवा भी गंभीर और तनाव से भरे दिखाई देते हैं।
जैसे-जैसे उनकी उम्र बढ़ती जाती है, वे और गंभीर होते जाते हैं। ऐसा लगता है जैसे कब्र की तैयारी करने की उन्हें बड़ी जल्दी है। कब्र की तैयारी किसी और को करनी चाहिए, आपको नहीं। अभी मुझसे किसी ने पूछा, ‘सद्गुरु आप कैसे हैं?’ मैंने कहा, ‘मैंने तय किया है कि – या तो मैं बिल्कुल ठीक ठाक रहूंगा या फिर नहीं रहूंगा।’
हर इंसान ऐसा कर पाने में सक्षम है, बशर्ते उसने अपने अंदर सेल्फ स्टार्ट बटन का पता लगा लिया हो।
खुशी कोई ऐसी चीज नहीं है, जो किसी खास काम को करने से पैदा होती हो। इसे देखने के तमाम तरीके हैं। सबसे आसान तरीका है रासायनिक प्रक्रिया यानी केमिस्ट्री को समझना। इंसान के हर अनुभव के पीछे एक रासायनिक आधार होता है। अगर आप शांति चाहते हैं तो एक निश्चित रासायनिक प्रक्रिया होती है।
अगर आप आनंदित रहना चाहते हैं तो एक अलग तरह की रासायनिक प्रक्रिया होगी। यह पूरा मामला विज्ञान और तकनीक का है, जिसे आप अंदरूनी तकनीक भी कह सकते हैं। इसी तकनीक की मदद से आप अपने भीतर सही रासायनिक प्रक्रिया पैदा कर सकते हैं। परम आनंद की रासायनिक प्रक्रिया आपके जीवन के हर पल को परम आनंद से भर देगी।
अच्छी बात यह है कि हर इंसान ऐसा कर पाने में सक्षम है, बशर्ते उसने अपने अंदर सेल्फ स्टार्ट बटन का पता लगा लिया हो। अगर ऐसा नहीं है तो हर वक्त किसी न किसी को आपको धक्का मार कर स्टार्ट करते रहना पड़ेगा। जीवन में चीजें इस तरह नहीं चलतीं कि, वे हमेशा आपके लिए लाभकारी ही हों। अगर आप चाहते हैं कि जीवन हमेशा आपके अनुसार चलता रहे तो यह तभी हो सकता है जब आप दुनिया में कुछ भी न करें।
अगर आप चुनौतीपूर्ण स्थितियों का सामना कर रहे हैं, तो ऐसी तमाम चीजें होंगी जो आप नहीं चाहते। और अगर ये परिस्थितियां आपको कष्टों में डाल रही हैं, तो जाहिर है – धीरे धीरे आप अपने जीवन के दिन कम कर रहे हैं। कष्टों के डर ने पूरी मानवता को जकड़ लिया है। अब वक्त आ गया है कि इंसान अपने भीतर एक ऐसी रासायनिक प्रक्रिया पैदा करे या एक ऐसा सॉफ्टवेयर प्रोग्राम तैयार करे कि कष्टों के प्रति उसका डर खत्म हो जाए। कष्टों का डर ख़त्म होने से आनंद में जीना ही उसका स्वभाव बन जाएगा और तभी इंसान अपनी पूर्ण क्षमता को जानने के लिए स्वयं को दांव पर लगा सकेगा।
6-विभूति: कैसे और कहां लगायें?
विभूति क्या है, उसे क्यों और कैसे इस्तेमाल करना चाहिए और हमें उससे क्या -क्या फायदे हैं।
विभूति या पवित्र भस्म के इस्तेमाल के कई पहलू हैं। पहली बात, वह ऊर्जा को किसी को देने या किसी तक पहुंचाने का एक बढ़िया माध्यम है। इसमें ‘ऊर्जा-शरीर’ को निर्देशित और नियंत्रित करने की क्षमता है।
इसके अलावा, शरीर पर उसे लगाने का एक सांकेतिक महत्व भी है। वह लगातार हमें जीवन के नश्वरता की याद दिलाता रहता है, मानो आप हर समय अपने शरीर पर नश्वरता ओढ़े हुए हों।
आम तौर पर योगी श्मशान भूमि से उठाई गई राख का इस्तेमाल करते हैं। अगर इस भस्म का इस्तेमाल नहीं हो सकता, तो अगला विकल्प गाय का गोबर होता है।
इसमें कुछ दूसरे पदार्थ भी इस्तेमाल किए जाते हैं लेकिन मूल सामग्री गाय का गोबर होती है। अगर यह भस्म भी इस्तेमाल नहीं की जा सकती, तो चावल की भूसी से भस्म तैयार की जाती है। यह इस बात का संकेत है कि शरीर मूल पदार्थ नहीं है, यह बस भूसी या बाहरी परत है।
पवित्र भस्म का इस्तेमाल क्यों करते हैं?
सुबह घर से निकलने से पहले, आप कुछ खास जगहों पर विभूति लगाते हैं ताकि आप अपने आस-पास मौजूद ईश्वरीय तत्व को ग्रहण कर सकें, शैतानी तत्व को नहीं।
बदकिस्मती से कई जगहों पर यह एक शर्मनाक कारोबार बन गया है, जहां विभूति के नाम पर सफेद पत्थर का पाउडर दे दिया जाता है।
लेकिन अगर विभूति को सही तरीके से तैयार किया जाए और आपको पता हो कि उसे कहां और कैसे लगाना है – तो विभूति आपको और ग्रहणशील बनाती है। आप उसे अपने शरीर पर जहां भी लगाते हैं, वह अंग अधिक संवेदनशील हो जाता है और परम प्रकृति की ओर अग्रसर होता है। इसलिए, सुबह घर से निकलने से पहले, आप कुछ खास जगहों पर विभूति लगाते हैं ताकि आप अपने आस-पास मौजूद ईश्वरीय तत्व को ग्रहण कर सकें, शैतानी तत्व को नहीं।
उस समय आपका जो भी पहलू ग्रहणशील होगा, उसके आधार पर आप अलग-अलग रूपों में और अपने विभिन्न आयामों से जीवन को ग्रहण कर सकते हैं। आपने ध्यान दिया होगा – कभी आप किसी चीज को देखकर एक खास तरीके से उसका अनुभव करते हैं, फिर किसी और समय आप उसी चीज का अनुभव बिल्कुल अलग रूप में करते हैं। महत्वपूर्ण यह है कि आप जीवन को किस रूप में ग्रहण करते हैं।
आप चाहते हैं कि आपके उच्च पहलू ग्रहणशील हों, न कि निम्न पहलू।
आपके शरीर में, सात मूल केंद्र हैं जो जीवन का अनुभव करने के सात आयामों को दर्शाते हैं। इन केंद्रों को चक्र कहा जाता है। चक्र, ऊर्जा प्रणाली के भीतर एक खास मिलन बिंदु होते हैं। इन चक्रों की प्रकृति भौतिक नहीं, बल्कि सूक्ष्म होती है।
आप इन चक्रों को अनुभव से जान सकते हैं, लेकिन अगर आप शरीर को काटकर देखें, तो आपको कोई चक्र नहीं दिखेगा। जब आप तीव्रता के उच्च स्तरों की ओर जाते हैं, तो स्वाभाविक रूप से ऊर्जा एक चक्र से दूसरे चक्र की ओर बढ़ती है। अगर आप नीचे स्थित चक्रों से जीवन को ग्रहण करते हैं तो जो आपका अनुभव होगा उसकी तुलना में तब आपके अनुभव और आपकी स्थिति बिल्कुल अलग होगी जब आप शरीर में ऊपर की ओर स्थित चक्रों से जीवन को ग्रहण करेंगे ।
विभूति का इस्तेमाल कैसे करें?
पारंपरिक रूप से विभूति को अंगूठे और अनामिका के बीच लेकर – ढेर सारी विभूति उठाने की जरूरत नहीं है, बस ज़रा सा लगाना है – भौंहों के बीच, जिसे आज्ञा चक्र कहा जाता है, गले के गड्ढे में, जिसे विशुद्धि चक्र कहा जाता है और छाती के मध्य में, जिसे अनाहत चक्र के नाम से जाना जाता है, में लगाया जाता है।
भारत में आम तौर पर माना जाता है कि आपको इन बिंदुओं पर विभूति जरूर लगानी चाहिए। इन खास बिंदुओं का जिक्र इसलिए किया गया है क्योंकि विभूति उन्हें अधिक संवेदनशील बनाती है।
विभूति आम तौर पर अनाहत चक्र पर इसलिए लगाई जाती है ताकि आप जीवन को प्रेम के रूप में ग्रहण कर सकें।उसे विशुद्धि चक्र पर इसलिए लगाया जाता है ताकि आप जीवन को शक्ति के रूप में ग्रहण करें, शक्ति का मतलब सिर्फ शारीरिक या मानसिक शक्ति नहीं है, इंसान बहुत से रूपों में शक्तिशाली हो सकता है।
इसका मकसद जीवन ऊर्जा को बहुत मजबूत और शक्तिशाली बनाना है ताकि सिर्फ आपकी मौजूदगी ही आपके आस-पास के जीवन पर असर डालने के लिए काफी हो, आपको बोलने या कुछ करने की जरूरत नहीं है, बस बैठने से ही आप अपने आस-पास की स्थिति को प्रभावित कर सकते हैं। एक इंसान के भीतर इस तरह की शक्ति विकसित की जा सकती है।
विभूति को आज्ञा चक्र पर इसलिए लगाया जाता है, ताकि आप जीवन को ज्ञान के रूप में ग्रहण कर सकें।
यह बहुत गहरा विज्ञान है लेकिन आज उसके पीछे के विज्ञान को समझे बिना हम बस उसे एक लकीर की तरह माथे पर लगा लेते हैं। यह मूर्खता है कि एक तरह की लकीरों वाला व्यक्ति दूसरी तरह की लकीरों वाले व्यक्ति से खुद को अलग समझता है। विभूति शिव या किसी और भगवान की दी हुई चीज नहीं है।
यह विश्वास का प्रश्न नहीं है। भारतीय संस्कृति में, उसे गहराई से किसी व्यक्ति के विकास के उपकरण के रूप में देखा गया है। सही तरीके से तैयार विभूति की एक अलग गूंज होती है। इसके पीछे के विज्ञान को पुनर्जीवित करने और उसका लाभ उठाने की जरूरत है।
7--अभिमान का कहर
अभिमान का कहर
क्या है सबसे बड़ी मूर्खता
क्रोध, घृणा, लोभ या अभिमान?
बेशक क्रोध जलाता है तुम्हें और
बनता है कारण दूसरों की पीड़ा व मौत का।
घृणा प्रतिनिधि है क्रोध का
अधिक प्रत्यक्ष व विनाशक
किन्तु है संतान क्रोध की।
ऐसा प्रतीत होता है
कि नहीं लेना देना कुछ
लोभ का इन दोनों से
पर यही उपजाता है क्रोध व घृणा
उन सबके प्रति
जो आड़े आते हैं,
लोभ की उस ज्वाला के
जो नहीं होती तृप्त कभी
क्योंकि है नहीं कुछ ऐसा
जो लोभ के उदर को भर सके।
अभिमान यद्यपि दिखता है दिलकश
और बनाता है इंसान को ढीठ, पर
अहम भूमिका निभाता है नष्ट करने में
मानवता की सभी संभावनाओं को।
यह अभिमान ही है
जो चढ़ा देता है इंसान को
उस मंच पर, जहां
छली जाती है हकीकत
जो बना देता है
झूठ को भी यथार्थ
असत्य को भी सत्य।
क्रोध, घृणा व लोभ को
चाहिए अभिमान का एक रंगमंच
जहां खेल सकें ये अपना नाटक।
अभिमान है कांटों का एक ताज
जिसको पहनकर पीड़ा भी लगती है सुखद
अभिमान माया है, जीवन का भ्रम है
अज्ञान का शुद्धिकरण
नहीं ले जाता आत्मज्ञान की शरण में
8-क्या, आप बच्चे को आध्यात्मिक बनाना चाहते हैं?
हम में से कई लोग चाहते हैं कि हमारे बच्चे आध्यात्मिकता को अपनाएं। हम कैसे अपने बच्चों का आध्यात्मिकता से परिचय करा सकते हैं? क्या यह किसी शिक्षा या निर्देश के माध्यम से संभव है? या फिर हमें कुछ ऐसा करना चाहिए, कि आध्यात्मिकता अनजाने में ही बच्चों के जीवन का एक हिस्सा बनती चली जाए। सद्गुरु आज हमें बता रहे हैं कि कैसे बच्चों के जीवन में आध्यात्मिकता को लाया जा सकता है… इंसान में जानने की इच्छा का होना बड़ा स्वाभाविक है।
8-क्या, आप बच्चे को आध्यात्मिक बनाना चाहते हैं?
हम में से कई लोग चाहते हैं कि हमारे बच्चे आध्यात्मिकता को अपनाएं। हम कैसे अपने बच्चों का आध्यात्मिकता से परिचय करा सकते हैं? क्या यह किसी शिक्षा या निर्देश के माध्यम से संभव है? या फिर हमें कुछ ऐसा करना चाहिए, कि आध्यात्मिकता अनजाने में ही बच्चों के जीवन का एक हिस्सा बनती चली जाए। सद्गुरु आज हमें बता रहे हैं कि कैसे बच्चों के जीवन में आध्यात्मिकता को लाया जा सकता है… इंसान में जानने की इच्छा का होना बड़ा स्वाभाविक है।
इसी वजह से वह जीवन को जानना चाहता है। फिर उसके अंदर यह जानने की इच्छा होना कि जीवन के बाद क्या है, उतना ही स्वाभाविक है। ऐसे में आप आध्यात्मिकता से बच ही नहीं सकते। आप लंबे समय तक आध्यात्मिकता से इसलिए दूर रहे, क्योंकि आपने ऐसी चीजों के जरिए अपनी पहचान बना ली, जो वास्तव में आप हैं ही नहीं। जब मैं उन चीजों की बात करता हूं जो आप नहीं है, तो इसमें आपका तन और मन भी शामिल है।
जब आपकी पहचान किसी ऐसी चीज से होने लगती है जो आप नहीं हैं, तो आपकी बुद्धि में विकृति आ जाती है। फिर यह कोई भी चीज सही ढंग से नहीं देख पाती, क्योंकि फिर यह उस पहचान के साथ ही काम करती है। मान लीजिए आप कहते हैं, मैं एक औरत हूं। तो आप जो भी करते हैं, जो भी सोचते हैं, वह एक महिला की तरह ही करने लगते हैं।
शरीर के कुछ अंगों से आपकी पहचान बन गई। अगर आप यह कहते हैं कि मैं हिंदू हूं या मैं भारतीय हूं, तो आप उससे आगे सोच ही नहीं सकते।
तो कहने का मतलब यह है कि जिस पल आप किसी चीज के साथ आपनी पहचान बना लेते हैं आपकी बुद्धि में विकृति आ जाती है। अगर लोगों में विकृति नहीं आती तो आध्यात्मिकता एक स्वाभाविक चीज होती। फिर यह कोई ऐसी चीज नहीं रहती, जिसे आपको कोई याद दिलाता और सिखाता। यह महसूस करना बड़ा स्वाभाविक है कि जीवन में भौतिकता से भी परे कुछ है और इसे जानना बेहद आसान है।
यह बड़ी अजीब सी बात लगती है कि लोगों की एक बड़ी तादाद इस बात को नोटिस ही नहीं कर पाती है। अगर आप दो मिनट के लिए अपनी आंखें बंद कर लें, तो आप महसूस करेंगे कि आप महज एक शरीर ही नहीं हैं, उससे कुछ ज्यादा हैं।
यह सच है कि हर कोई इसे महसूस कर सकता है, लेकिन दुनिया में बहुत कम लोग ही ऐसा कर पाते हैं।
इसकी वजह यह है कि बचपन से ही आपके इर्द – गिर्द मौजूद हर शख्स के अपने कुछ निहित स्वार्थ रहे हैं। हर कोई आपको इस बात के लिए प्रेरित कर रहा है कि आपकी पहचान उनके स्वार्थों के साथ हो। आपके माता – पिता, आपके शिक्षक, सब यही चाहते हैं कि आप उनके द्वारा तय किए गए लक्ष्य की ओर चलें और उनकी दी गई शिक्षा को अपनाएं।
आपके नेता और दूसरे तमाम लोग आपकी पहचान देश, जाति जैसी दूसरी चीजों के साथ बनाना चाहते हैं, क्योंकि हर किसी का अपना एजेंडा है। मेरे कहने का यह मतलब कतई नहीं है कि इस तरह के जो भी काम किए जा रहे हैं, उनका कोई महत्व या मूल्य नहीं है। उसका महत्व है, लेकिन सिर्फ इसलिए कि वह काम उपयोगी है।आपको उसके साथ पहचान स्थापित करने की जरूरत नहीं है, भले ही वह कितना भी उपयोगी क्यों न हो। जैसे ही आप उस काम के साथ अपनी पहचान बना लेते हैं, आपके भीतर एक तरह की विकृति आने लगती है।
जिस इंसान के अंदर विकृति आ गई, वह दूसरों के लिए उपयोगी साबित हो ही नहीं सकता।
जैसे ही आपकी किसी चीज के साथ पहचान बन जाती है, आप दुनिया को लाखों हिस्सों में खंडित करके देखने लगते हैं।चीज़ों को विचार के आधार पर विभाजित करने के बाद, आपका हर काम इस दरार को बढ़ाता है।
इससे मानवता की भलाई नहीं होगी।
तो अगर आप किसी बच्चे के लिए ऐसा माहौल बना पाएं – जिसमें वह किसी चीज के साथ खुद की पहचान स्थापित न करे – तो वह खुद ही आध्यात्मिक हो जाएगा। फिर उसे आध्यात्मिकता सिखाने की जरुरत नहीं होगी। यह ठीक ऐसे ही है, जैसे हमें किसी पौधे को यह सिखाने की जरूरत नहीं होती कि उसे फूल देने हैं।
अगर पानी, सूर्य का प्रकाश और दूसरी तरह के पोषण न भी हों तो भी हमें पौधे को फूल देने की शिक्षा देने की जरूरत नहीं है। कुछ मालियों को ऐसा लगता है कि अगर उनके बगीचे के पौधे फूल दे रहे हैं, तो इसका श्रेय उन्हें जाता है, लेकिन वास्तव में यह सच नहीं है।
फूल देना तो पौधे का स्वभाव है। किसी जंगल में जाकर देखिए, वहां सब कुछ पूरी तरह खिला-खिला होता है। जाहिर है, बच्चों को आध्यात्मिकता सिखाने की जरूरत नहीं है। बस उन्हें फालतू की तमाम बातों से बचाइए। उन्हें प्रपंचों से दूर रखिए और फिर आप देखेंगे कि वे खुद ही आध्यात्मिक हो गए हैं।
जैसे एक मां अपने बच्चे को ब्रश करना सिखाती है, हम चाहते हैं कि आध्यात्मिक प्रक्रिया भी ठीक वैसे ही बन जाए।एक ऐसी प्रक्रिया जिसे बिना किसी कोशिश के अनजाने में ही बच्चों को सिखा दिया जाए।
हमारी संस्कृति में अब से एक या दो पीढ़ी पहले तक ऐसा था। आज भी भारत में धार्मिक शिक्षा किसी एक संस्था के द्वारा नहीं दी जाती है। इस देश का धर्म प्रमुख कोई एक व्यक्ति नहीं है। दुनिया के दूसरे हिस्सों की तरह हमारे यहां धर्म के मामले में लोगों का मार्गदर्शन करने की भूमिका कोई एक शख्स नहीं निभाता। यह हर किसी की जिंदगी का एक हिस्सा है और जो जितना जानता है, वह अपने हिसाब से इसकी शिक्षा देता है।
आध्यात्मिक प्रक्रिया को जीवन का इतना महत्वपूर्ण हिस्सा तो बनाया गया, लेकिन इसे बेलगाम छोड़ दिया गया। इसकी वजह यह रही कि यह प्रक्रिया कभी धर्म की सुनियोजित प्रक्रिया नहीं बन सकी। बस इसे इंसान के विकसित होने के तरीके के तौर पर ही देखा गया। पूरी धरती पर यही एक देश है जो देवरहित है, क्योंकि इस देश में ईश्वर को लेकर कोई एक ठोस विचार नहीं है। जिसकी जैसी मर्जी, वह उस तरह से पूजा कर सकता है। लोग तमाम तरह की चीजों की पूजा कर रहे हैं।
भारत में धर्मभ्रष्ट जैसी कोई बात नहीं होती क्योंकि हर इंसान का किसी न किसी के प्रति प्रेम और श्रद्धा है। कोई अपनी मां से प्रेम करता है, कोई अपने देवता से प्यार करता है, किसी को पैसा प्यारा है और किसी को अपना काम। कोई अपने कुत्ते को प्रेम करता है, तो कोई अपनी गाय को। इस तरह आध्यात्मिक राह पर तो हर कोई चल रहा है, बस सवाल इस बात का है कि यह आध्यात्मिक राह कितनी कमजोर या शक्तिशाली है।
ऐसा कोई इंसान नहीं है जो इस राह पर नहीं चल रहा है। डगमगाते हुए ही सही, लेकिन हर कोई अपने तरीके से इस रास्ते पर कदम बढ़ा रहा है। अगर आप अपने बच्चे को आध्यात्मिकता के बारे में बताना चाहते हैं तो घर पर उसे इसकी शिक्षा देनी शुरू मत कीजिए। अगर आपने बच्चे को ‘आध्यात्मिक बनो’, ‘ईश्वर को प्रेम करो’, जैसी शिक्षाएं देनी शुरू कर दीं तो आपके बच्चे आपसे नफरत करने लगेंगे।
फिर क्या करें? बस अपने जीवन के हर पहलू में जागरूकता लाइए। सौम्यता, शिष्टता, प्रेम और परवाह जैसी बातों को अपनी जिंदगी का हिस्सा बनाइए। वे भी इसका एक हिस्सा बन जाएंगे, क्योंकि ऐसा कोई इंसान नहीं है, जो इनसब चीजों को न चाहता हो। हर कोई चाहता है कि उसके इर्द गिर्द सुखद अहसास बना रहे। आपके बच्चे भी यही चाहते हैं। बस आप ऐसा माहौल पैदा कीजिए, आपके बच्चे इसे आत्मसात कर लेंगे।
9-क्या प्रेम ही अंतिम सत्य है
प्रेम मानव जीवन के सुखद अनुभवों में से एक है। पश्चिमी समाज में प्रेम को बहुत ज्यादा महत्व दिया जाता है और इसे परम सत्य से जोड़कर देखा जाता है। यहां तक की प्रेम को ही अंतिम सत्य माना जाता है। क्या प्रेम ही सत्य है? या फिर सत्य की स्थिति प्रेम से भी परे है? आज के ब्लॉग में सद्गुरु सत्य और प्रेम पर प्रकाश डाल रहे हैं… शेखर कपूरः सद्गुरु, एक और सवाल है।
पश्चिमी देशों में प्रेम और सत्य की बातें होती हैं। कहा जाता है कि प्रेम ही अंतिम सत्य है। यह भी कहा जाता है कि हमारे भीतर प्रेम नहीं है, बल्कि हम ही प्रेम हैं और इस तरह हम अपनी अंतरात्मा तक पहुंचने के मकसद से जुड़ते हैं। क्या आप इस बात से सहमत हैं? सद्गुरु: देखिये, अगर किसी समाज के लोग भूखे हैं, तो उस समाज में खाने की अहमियत सबसे ज्यादा होगी।
अगर आप बीमार हैं तो आपके लिए सबसे ज्यादा अहमियत होगी स्वास्थ्य की। अगर आप गरीब हैं तो धन आपके लिए सबसे महत्वपूर्ण होगा। इसी तरह अगर आपको प्रेम नहीं मिला है तो प्रेम की आपकी निगाह में सबसे ज्यादा अहमियत होगी और खुशी नहीं मिली है तो खुशी की। कुल मिलाकर कह सकते हैं कि आप जिस पल जिस चीज से वंचित हैं, उस पल आपको उसी की अहमियत सबसे ज्यादा महसूस होगी।
जब लोगों में किसी चीज़ की कमी की भावना होती है, तो लोगों को उसका महत्व बहुत ज्यादा लगता है।लेकिन वह चीज़ मिल जाने के बाद वो बात नहीं रहती। आज के संदर्भ में बात करें तो आज पश्चिम के देश औद्योगिक क्रांति के दौर से गुजर रहे हैं। महिलाएं अपने घरों से बाहर निकल रही हैं और पुरुष भी उन्हें सहयोग कर रहे हैं।
चीजें धीरे-धीरे बेहतर हो रही हैं, लेकिन अचानक जब इस तरह का बदलाव उस समाज में आया, तो बच्चों की एक पूरी पीढ़ी उस प्रेम से वंचित होने लगी, जिसकी वह हकदार थी। सामाजिक बदलाव निरंतर होने वाला एक ऐसा बदलाव है, जिससे निपटने के तरीकों को लेकर लोग आज भी जूझ रहे हैं। दरअसल, व्यवस्था कुछ ऐसी रही है कि घर की महिलाएं बच्चों के पास रहेंगी और उन्हें भरपूर प्रेम देंगी, लेकिन चीजें एकदम बदल गईं और नई व्यवस्था के साथ हम तालमेल ही नहीं बैठा पा रहे। लोगों की एक से दो पीढ़ियां ऐसी निकल गईं, जो उस प्रेम और देखभाल से वंचित रह गईं जो उन्हें मिलना चाहिए था।
आज भी तमाम नई चीजें हो रही हैं। मसलन अब मातृत्व अवकाश होता है, पितृत्व अवकाश होता हैं। पुरुष कुछ दिनों के लिए घर पर रुकते हैं और बच्चों की देखभाल करते हैं। पूरा नजरिया ही बदल चुका है। दुनिया में बहुत सी चीजें बदल चुकी हैं और तमाम चीजों के प्रति नजरिए में भी बदलाव आ चुका है। इसके अलावा, समाज में तमाम तरह की सुविधाएं भी आ चुकी हैं, जो दिनोंदिन आ रहे इन बदलावों से पैदा होने वाली स्थितियों में उपयोगी साबित होती हैं। यही वजहें हैं, जिनके चलते पश्चिमी देशों में प्रेम की इतनी ज्यादा बात होती है।
मैं प्रेम को हल्का करके पेश करने की कोशिश नहीं कर रहा हूं। प्रेम तो हमारी जिंदगी का एक बेहद जरूरी हिस्सा है। चीजों को जरा दूसरे नजरिए से देखिए। आप अपने जीवन में सुख की तलाश करते हैं। सुख का मतलब क्या है? अगर हमारा शरीर सुखी हो जाए तो आमतौर पर हम इसे स्वास्थ्य कहते हैं। अगर यह ज्यादा सुखद हो जाए तो इसे हम मजा कहते हैं। अगर आपका दिमाग सुखी हो जाए तो इसे हम शांति कह देते हैं और दिमाग में बहुत ज्यादा खुशनुमा अहसास होने लगे तो हम इसे खुशी कहते हैं। अगर आपकी भावनाएं सुखद हो जाएं तो इसे हम प्रेम कहते हैं।
अगर यह बहुत ज्यादा सुखद होने लगे तो इसे करुणा कहते हैं। अगर आपकी जीवन ऊर्जाएं सुखद हों तो हम इसे आनंद कहते हैं और अगर यह बेहद सुखद हो जाएं, इसे परमानंद कहते हैं। अगर आपकी बाहरी परिस्थितियां सुखद हो जाएं तो इसे हम सफलता कहते हैं। यही चीजें हैं, जिनकी तलाश इंसान कर रहा है। अगर भावनात्मक तौर पर वह सुखद स्थिति में है, जिसे हम प्रेम कह सकते हैं, तो इसका मतलब है कि ये मानवीय भावनाएं हैं जो सुखद हो रही हैं। या तो किसी व्यक्ति या चीज के प्रति ऐसा होता है या बस यूं ही अपने आप। ऐसा किसी भी तरीके से हो सकता है।
अब सवाल यह है कि क्या महज आपके भावों का सुखद हो जाना ही आपके लिए पर्याप्त है? क्या आपको स्वास्थ्य की जरूरत नहीं? क्या आपको सुख नहीं चाहिए? क्या आपको भोजन नहीं चाहिए? क्या आपको तमाम दूसरी क्षमताएं नहीं चाहिए? सोचिए अगर आपके पास बहुत सारा प्यार हो और आप दीन-हीन हों, जैसा कि दुर्भाग्य से बहुत सारे लोगों के साथ होता भी है, तो मुझे नहीं लगता कि आप खुश रह पाएंगे। जो लोग यह कहते हैं कि इस दुनिया का मूल प्रेम है, वे कहीं न कहीं अपने अंदर इससे वंचित रहे हैं।
हम जैसे लोग, जो भारत के परंपरागत परिवारों में पले बढ़े हैं, प्रेम के बारे में नहीं सोचते, क्योंकि हमें ऐसा करने की जरूरत ही नहीं पड़ती। हमें किसी ने नहीं बताया कि वह हमें प्रेम करता है। मेरी मां ने मुझसे कभी नहीं कहा कि वह मुझे प्रेम करती है और न ही मेरे मन में ऐसा कोई प्रश्न उठा कि वह प्रेम करती है या नहीं। मुझे कभी इस बात का अहसास ही नहीं हुआ कि मुझे प्रेम की आवश्यकता है। पूरा का पूरा वातावरण ही ऐसा होता था कि ऐसे सवाल कभी मन में ही नहीं आते थे।
यह बिल्कुल वैसा ही है, जैसे अगर किसी घर में खाने की कमी हो, लोगों के भूखे रहने की नौबत आ गई हो तो उस घर के लोग खाने और उसे हासिल करने के बारे में ही ज्यादा सोचेंगे। जब आपको रोज आराम से खाना मिलता है तो आप उसके बारे में सोचते ही नहीं। ठीक इसी तरह जब प्रेम आपके इर्द गिर्द होता है तो आपको यह सोचने की जरूरत नहीं होती कि प्रेम को कहीं से लाना है या हासिल करना है।
कहने का मतलब यही है कि ये चीजें एक खास तरह के अभाव की वजह से पैदा हो रही हैं। किसी इंसान के लिए प्रेम एक खूबसूरत अहसास और जीने का एक शानदार तरीका हो सकता है। लेकिन यह भी उतना ही सच है, कि इसे इसकी सीमाओं से ज्यादा बढ़ा चढ़ाकर देखने की आवश्यकता नहीं है। यहां पूछे गए सवाल में प्रेम के साथ-साथ सत्य की भी बात की गई है। मुझे नहीं पता कि आप कौन से सत्य की बात कर रहे हैं। अगर आप परम सत्य की बात कर रहे हैं तो वह तो सर्वव्यापक है, वह परम मिलन है।
प्रेम में आप एक दूसरे के नजदीक आने की कोशिश करते हैं, कुछ पल होते हैं मिलन के और फिर आप अलग अलग हो जाते हैं। कहीं भी ऐसा देखने को नहीं मिलता कि प्रेम करने वाले लगातार मिलन के पलों में रह सकें। मिलन के कुछ पल और फिर दूर हो जाना, फिर वही अहसास और फिर दूरी। बस, इसी तरह से बात आगे बढ़ती रहती है। परम सत्य का मतलब है परम मिलन की स्थिति, जिसे प्रेम नहीं कह सकते।
प्रेम तो उस दिशा में की गई एक कोशिश भर है। ऐसे ही आनंद और शांति भी उस दिशा की ओर बढ़ाए गए कदमों की तरह हैं। जब आपके भीतर शांति होती है तो आपका हर चीज के साथ एकाकार हो जाता है। जब आप आनंद में होते हैं तो भी ऐसा ही होता है। जरा सोचिए जब आप बैठकर एक दूसरे के साथ हंसी मजाक करते हैं तो कहीं न कहीं आपको एक दूसरे के साथ मेल महसूस होता है।
10-आओ चलें, रचें अपना भविष्य
हम में से कई लोग ऐसे हैं जो अपने भविष्य को जानने के लिए बहुत उत्सुक रहते हैं और कई तरह की भविष्यवाणियां या अपना राशिफल पढ़ते रहते हैं। क्या भविष्य पहले से’ ही तय होता है, जिसे कि राशिफल पढ़ कर जाना जा सकता है, या फिर भविष्य की रचना हम खुद कर सकते हैं? एक बार एक स्कूली छात्र ने सद्गुरु से भविष्यवाणियों के बारे में जानना चाहा। आइए हम भी जानते हैं इन भविष्यवाणियों का भविष्य – इस धरती पर दो तरह के इंसान हैं।
पहली श्रेणी उन लोगों की है जिनके पास समझदारी से योजना बनाने और उस पर अमल करने की क्षमता नहीं है। ऐसे लोग अपनी जिंदगी के साथ-साथ समाज और दुनिया की दिशा और दशा को तय करने के लिए भविष्यवाणियों पर यकीन करते हैं। दूसरी श्रेणी उन लोगों की है जिनके पास हर चीज के लिए एक योजना होती है। वे अपनी योजना के मुताबिक खुद तय करते हैं कि अपनी जिंदगी और इस संसार को वे किस दिशा में ले जाना चाहते हैं।
अब सवाल यह है कि आप क्या चाहते हैं? आप भविष्यवाणी चाहते हैं या फिर आपको कोई समझदारीपूर्ण योजना चाहिए? अगर किसी क्रिकेट मैच से पहले ही कोई शख्स यह बता देता है, कि मैच निश्चित तौर पर भारत ही जीतेगा, तो फिर वह केवल मैच फ़िक्सर ही हो सकता है।
हम जीतना चाहते हैं, यह बात अपनी जगह ठीक है; लेकिन हम मैच के परिणाम के बारे में नहीं जानते, इसीलिए यह खेल दिलचस्प है। चूंकि हमें इसका परिणाम नहीं पता, इसलिए हम इसमें जी जान लगाने को तैयार रहते हैं, जो कि बड़ी अच्छी बात है। अब जरा सोचिए – आपको मैच का परिणाम पहले से ही पता है। ऐसे में क्या खेल खेलने का कोई मतलब है? भविष्यवाणी एक तरह की मैच फिक्सिंग ही है, जिसमें हमें पहले ही पता है कि परिणाम क्या होगा।
हां, कुछ चीजें तय हैं। अगर आप इन चीजों को गहराई से देखेंगे तो आप जान सकते हैं, कि चीजें किस दिशा में चलेंगी। अगर मैं आपको आम का और नारियल का बीज दूं, तो जाहिर सी बात है कि आम के बीज में आम का पेड़ बनने की सम्भावना है, लेकिन आम का बीज आम का पेड़ बन ही जाएगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है। यह गाय का चारा भी बन सकता है, या फिर किसी के घर का फर्नीचर भी। तो एक चीज है संभावना और दूसरी चीज है वास्तविकता और दोनों के बीच हमेशा ही एक दूरी होती है। क्या आपके अंदर इस दूरी को तय करने का साहस और इच्छा शक्ति है? बस इसी से इंसानी जीवन का निर्माण होता है।
कल आप इस दुनिया को किस दिशा में ले जाना चाहते हैं ? कष्टों की राह पर या सुख संपन्नता के रास्ते पर? अगर हम सभी तय कर लें कि हम दुनिया को सुख और संपन्नता की ओर ले जाना चाहते हैं, तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा कि दुनिया के बारे में कैसी – कैसी भविष्यवाणियां की गई हैं। कभी किसी की भविष्यवाणी को मत सुनिए, चाहे वह भविष्यवाणी आपके जीवन के बारे में की गई हो या दुनिया के बारे में।
कभी भी अपने राशिफल को पढ़ने की चेष्टा ना करें, क्योंकि अगर आपकी जिंदगी में पहले से ही सब कुछ तय हो गया तो वाकई में यह जिंदगी हॉरर यानी डरावनी हो जाएगी। फिर यह जीने लायक नहीं बचेगी। जीने का मजा ही खत्म हो जाएगा।
जीवन एक संभावना है, और इस संभावना को वास्तविकता में बदलने के लिए एक खास तरह के साहस और अक्ल की आवश्यकता होती है। यही तो जीवन है।
11-बाप रे प्रदूषण से कैसे करें नुकसान की भरपाई
पिछले कुछ वर्षों में पृथ्वी के कई सारे हिस्सों में मौसमों में बदलाव आ रहा है। वैज्ञानिक इन बदलावों का मुख्य कारण कार्बन डाई ऑक्साइड की बढ़ती मात्रा को बता रहे हैं, और इसका समाधान हर व्यक्ति के कार्बन फुटप्रिंट को कम करना बता रहे हैं। क्या है यह कार्बन फुटप्रिंट और इसे कैसे कम करें? किसी एक व्यक्ति का हमारे पर्यावरण पर क्या असर होता है, इसे नापने के लिए वैज्ञानिकों ने कार्बन फुटप्रिंट नाम का सिद्धांत दिया है।
करीब-करीब वे सारे काम जो हम रोजाना करते हैं, या हम जिन भी साधनों का इस्तेमाल करते हैं, उन सब से कार्बन डाई ऑक्साइड (CO2) निकलता है। औद्योगिक क्रांति से पहले मनुष्यों द्वारा पैदा किया गया जितना भी कार्बन डाई ऑक्साइड वातावरण में आता था, वह आसपास के जंगलों और पेड़ – पौधों द्वारा सोख लिया जाता था। जंगल व पेड़ – पौधे कार्बन डाई ऑक्साइड को सोख कर ऑक्सीजन को वापस हवा में छोड़ देते हैं। और वे कार्बन को अपने भीतर जमा कर लेते हैं। औद्योगिक युग के शुरुआत के साथ ही ईधन का प्रयोग बड़े पैमाने पर होने लगा जिससे कार्बन डाई ऑक्साइड भारी मात्रा में निकलने लगी ।
साथ ही, बढ़ती आबादी का पेट भरने के लिए खेती के लिए बड़े पैमाने पर जंगल काटे गए, जो कार्बन सोखने का काम करते थे। आज स्थिति यह है कि जितना कार्बन डाई ऑक्साइड वातावरण में पैदा होती है, उसे सोखने के लिए पर्याप्त मात्रा में पेड़ ही नहीं बचे हैं। कार्बन डाइऑक्साइड क्या करती है? कार्बन डाइऑक्साइड वातावरण में ’ग्रीन हाउस गैस’ के रूप में काम करती है।
इस का मतलब है कि वह सूर्य की गर्मी को रोक लेती है। आज धरती के तापमान को बढ़ाने में ’ग्रीन हाउस गैस’ ही मुख्य रूप से जिम्मेदार हैं। इसकी वजह से मौसम में बदलाव आए हैं – गर्मी के मौसम में गरमी बढ़ी है, बेमौसम बरसात होने लगी है, सूखे और बाढ़ का प्रकोप भी बढ़ा है, सर्दी के मौसम में ठंड बढ़ी है। इन बदलावों का असर मनुष्य सहित पेड़ पौधों व पृथ्वी पर मौजूद सभी जीवों पर भी हो रहा है।
बातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड के बढ़ने के कारण: हमारे द्वारा चलाए जाने वाले वाहनों से होने वाले प्रदूषण के अलावा और भी ऐसे कई कारण हैं: बिजली/इलेक्ट्रिसिटीः हम जिस बिजली का इस्तेमाल करते हैं, वह ज्यादातर जीवाश्म ईंधन (जैसे कोयला, प्राकृतिक गैस और तेल जैसी प्राकृतिक चीजों) से बनती है। इंधनों के जलने से कार्बन डाइऑक्साइड निकलता है।
हम जितनी ज्यादा बिजली का इस्तेमाल करेंगे, बिजली के उत्पादन के लिए उतने ही ज्यादा ईंधन की खपत होगी और उससे उतना ही ज्यादा कार्बन डाइऑक्साइड बढे़गा। अन्नः जो अन्न हम खाते हैं वह भी हमारे कार्बन फुटप्रिंट में महत्वपूर्ण योगदान देता है। खासकर तब जब हम तैयार खाद्य पदार्थ खाते हैं, या फिर हम ऐसे पदार्थ खाते हैं जिनका उत्पादन स्थानीय तौर पर नहीं हुआ हो।
वनों का संहारः खेती योग्य जमीन, इमारतों के निर्माण, लकड़ी और खनिज को पाने के लिए हमने जंगलों और पेड़ो का विनाश किया है। औद्योगिक उत्पादन: ज्यादातर हम जिन चीजों का उपयोग करते हैं, वे कारखानों में बनती हैं। ये चीजें फिर से न पैदा होने वाले खनिजों व धरती से निकलने वाले ईंधन के इस्तेमाल से बनती हैं। जिन्हें दूर दराज के इलाकों तक मालगाड़ियों से भेजा जाता है।
क्या आप जानते हैं कि औसतन एक शहरी साल में चार टन कार्बन डाइऑक्साइड वातावरण में छोड़ता है? पर्यावरण की रक्षा हम सभी की ज़िम्मेदारी है। हम क्या कर सकते हैं? इंसान के पास अपने कार्बन फुटप्रिंट कम करने के कई तरीके हैं।
एक तरीका तो यह है कि आपके द्वारा कम से कम कार्बन डाइऑक्साइड वातावरण में बढ़े। इसका मतलब है कि आप सोच समझ कर चीजों का इस्तेमाल करें, रीसाइकिलिंग करें, सार्वजनिक यातायात का इस्तेमाल करें। जहां तक हो सके ज्यादा से ज्यादा पैदल चलें, स्थानीय और रिसाइकिल्ड उत्पादों का प्रयोग करें, स्थानीय चीजों का सेवन करें। कार्बन डाइऑक्साइड को कम करने का दूसरा तरीका इसको सोखना है।
वृक्षारोपण इसका सबसे आसान और प्रभावशाली तरीका है। एक पेड़ अपने जीवन काल में एक टन कार्बन डाइऑक्साइड को कार्बन और ऑक्सीजन में बदलता है। आप ‘कार्बन-न्यूट्रल’ बन सकते हैं, इसका मतलब है कि आप अपने कार्बन फुटप्रिंट को पूरी तरह से मिटाने के लिए उतने पेड़ लगाइए, और उनकी देखभाल कीजिए, जो आप द्वारा उत्सर्जित होने वाले पूरे कार्बन डाइऑक्साइड को सोख ले। तो चलें अभी से वृक्षरोपण में जुट जाएं !
भारत में धर्मभ्रष्ट जैसी कोई बात नहीं होती क्योंकि हर इंसान का किसी न किसी के प्रति प्रेम और श्रद्धा है। कोई अपनी मां से प्रेम करता है, कोई अपने देवता से प्यार करता है, किसी को पैसा प्यारा है और किसी को अपना काम। कोई अपने कुत्ते को प्रेम करता है, तो कोई अपनी गाय को। इस तरह आध्यात्मिक राह पर तो हर कोई चल रहा है, बस सवाल इस बात का है कि यह आध्यात्मिक राह कितनी कमजोर या शक्तिशाली है।
ऐसा कोई इंसान नहीं है जो इस राह पर नहीं चल रहा है। डगमगाते हुए ही सही, लेकिन हर कोई अपने तरीके से इस रास्ते पर कदम बढ़ा रहा है। अगर आप अपने बच्चे को आध्यात्मिकता के बारे में बताना चाहते हैं तो घर पर उसे इसकी शिक्षा देनी शुरू मत कीजिए। अगर आपने बच्चे को ‘आध्यात्मिक बनो’, ‘ईश्वर को प्रेम करो’, जैसी शिक्षाएं देनी शुरू कर दीं तो आपके बच्चे आपसे नफरत करने लगेंगे।
फिर क्या करें? बस अपने जीवन के हर पहलू में जागरूकता लाइए। सौम्यता, शिष्टता, प्रेम और परवाह जैसी बातों को अपनी जिंदगी का हिस्सा बनाइए। वे भी इसका एक हिस्सा बन जाएंगे, क्योंकि ऐसा कोई इंसान नहीं है, जो इनसब चीजों को न चाहता हो। हर कोई चाहता है कि उसके इर्द गिर्द सुखद अहसास बना रहे। आपके बच्चे भी यही चाहते हैं। बस आप ऐसा माहौल पैदा कीजिए, आपके बच्चे इसे आत्मसात कर लेंगे।
9-क्या प्रेम ही अंतिम सत्य है
प्रेम मानव जीवन के सुखद अनुभवों में से एक है। पश्चिमी समाज में प्रेम को बहुत ज्यादा महत्व दिया जाता है और इसे परम सत्य से जोड़कर देखा जाता है। यहां तक की प्रेम को ही अंतिम सत्य माना जाता है। क्या प्रेम ही सत्य है? या फिर सत्य की स्थिति प्रेम से भी परे है? आज के ब्लॉग में सद्गुरु सत्य और प्रेम पर प्रकाश डाल रहे हैं… शेखर कपूरः सद्गुरु, एक और सवाल है।
पश्चिमी देशों में प्रेम और सत्य की बातें होती हैं। कहा जाता है कि प्रेम ही अंतिम सत्य है। यह भी कहा जाता है कि हमारे भीतर प्रेम नहीं है, बल्कि हम ही प्रेम हैं और इस तरह हम अपनी अंतरात्मा तक पहुंचने के मकसद से जुड़ते हैं। क्या आप इस बात से सहमत हैं? सद्गुरु: देखिये, अगर किसी समाज के लोग भूखे हैं, तो उस समाज में खाने की अहमियत सबसे ज्यादा होगी।
अगर आप बीमार हैं तो आपके लिए सबसे ज्यादा अहमियत होगी स्वास्थ्य की। अगर आप गरीब हैं तो धन आपके लिए सबसे महत्वपूर्ण होगा। इसी तरह अगर आपको प्रेम नहीं मिला है तो प्रेम की आपकी निगाह में सबसे ज्यादा अहमियत होगी और खुशी नहीं मिली है तो खुशी की। कुल मिलाकर कह सकते हैं कि आप जिस पल जिस चीज से वंचित हैं, उस पल आपको उसी की अहमियत सबसे ज्यादा महसूस होगी।
जब लोगों में किसी चीज़ की कमी की भावना होती है, तो लोगों को उसका महत्व बहुत ज्यादा लगता है।लेकिन वह चीज़ मिल जाने के बाद वो बात नहीं रहती। आज के संदर्भ में बात करें तो आज पश्चिम के देश औद्योगिक क्रांति के दौर से गुजर रहे हैं। महिलाएं अपने घरों से बाहर निकल रही हैं और पुरुष भी उन्हें सहयोग कर रहे हैं।
चीजें धीरे-धीरे बेहतर हो रही हैं, लेकिन अचानक जब इस तरह का बदलाव उस समाज में आया, तो बच्चों की एक पूरी पीढ़ी उस प्रेम से वंचित होने लगी, जिसकी वह हकदार थी। सामाजिक बदलाव निरंतर होने वाला एक ऐसा बदलाव है, जिससे निपटने के तरीकों को लेकर लोग आज भी जूझ रहे हैं। दरअसल, व्यवस्था कुछ ऐसी रही है कि घर की महिलाएं बच्चों के पास रहेंगी और उन्हें भरपूर प्रेम देंगी, लेकिन चीजें एकदम बदल गईं और नई व्यवस्था के साथ हम तालमेल ही नहीं बैठा पा रहे। लोगों की एक से दो पीढ़ियां ऐसी निकल गईं, जो उस प्रेम और देखभाल से वंचित रह गईं जो उन्हें मिलना चाहिए था।
आज भी तमाम नई चीजें हो रही हैं। मसलन अब मातृत्व अवकाश होता है, पितृत्व अवकाश होता हैं। पुरुष कुछ दिनों के लिए घर पर रुकते हैं और बच्चों की देखभाल करते हैं। पूरा नजरिया ही बदल चुका है। दुनिया में बहुत सी चीजें बदल चुकी हैं और तमाम चीजों के प्रति नजरिए में भी बदलाव आ चुका है। इसके अलावा, समाज में तमाम तरह की सुविधाएं भी आ चुकी हैं, जो दिनोंदिन आ रहे इन बदलावों से पैदा होने वाली स्थितियों में उपयोगी साबित होती हैं। यही वजहें हैं, जिनके चलते पश्चिमी देशों में प्रेम की इतनी ज्यादा बात होती है।
मैं प्रेम को हल्का करके पेश करने की कोशिश नहीं कर रहा हूं। प्रेम तो हमारी जिंदगी का एक बेहद जरूरी हिस्सा है। चीजों को जरा दूसरे नजरिए से देखिए। आप अपने जीवन में सुख की तलाश करते हैं। सुख का मतलब क्या है? अगर हमारा शरीर सुखी हो जाए तो आमतौर पर हम इसे स्वास्थ्य कहते हैं। अगर यह ज्यादा सुखद हो जाए तो इसे हम मजा कहते हैं। अगर आपका दिमाग सुखी हो जाए तो इसे हम शांति कह देते हैं और दिमाग में बहुत ज्यादा खुशनुमा अहसास होने लगे तो हम इसे खुशी कहते हैं। अगर आपकी भावनाएं सुखद हो जाएं तो इसे हम प्रेम कहते हैं।
अगर यह बहुत ज्यादा सुखद होने लगे तो इसे करुणा कहते हैं। अगर आपकी जीवन ऊर्जाएं सुखद हों तो हम इसे आनंद कहते हैं और अगर यह बेहद सुखद हो जाएं, इसे परमानंद कहते हैं। अगर आपकी बाहरी परिस्थितियां सुखद हो जाएं तो इसे हम सफलता कहते हैं। यही चीजें हैं, जिनकी तलाश इंसान कर रहा है। अगर भावनात्मक तौर पर वह सुखद स्थिति में है, जिसे हम प्रेम कह सकते हैं, तो इसका मतलब है कि ये मानवीय भावनाएं हैं जो सुखद हो रही हैं। या तो किसी व्यक्ति या चीज के प्रति ऐसा होता है या बस यूं ही अपने आप। ऐसा किसी भी तरीके से हो सकता है।
अब सवाल यह है कि क्या महज आपके भावों का सुखद हो जाना ही आपके लिए पर्याप्त है? क्या आपको स्वास्थ्य की जरूरत नहीं? क्या आपको सुख नहीं चाहिए? क्या आपको भोजन नहीं चाहिए? क्या आपको तमाम दूसरी क्षमताएं नहीं चाहिए? सोचिए अगर आपके पास बहुत सारा प्यार हो और आप दीन-हीन हों, जैसा कि दुर्भाग्य से बहुत सारे लोगों के साथ होता भी है, तो मुझे नहीं लगता कि आप खुश रह पाएंगे। जो लोग यह कहते हैं कि इस दुनिया का मूल प्रेम है, वे कहीं न कहीं अपने अंदर इससे वंचित रहे हैं।
हम जैसे लोग, जो भारत के परंपरागत परिवारों में पले बढ़े हैं, प्रेम के बारे में नहीं सोचते, क्योंकि हमें ऐसा करने की जरूरत ही नहीं पड़ती। हमें किसी ने नहीं बताया कि वह हमें प्रेम करता है। मेरी मां ने मुझसे कभी नहीं कहा कि वह मुझे प्रेम करती है और न ही मेरे मन में ऐसा कोई प्रश्न उठा कि वह प्रेम करती है या नहीं। मुझे कभी इस बात का अहसास ही नहीं हुआ कि मुझे प्रेम की आवश्यकता है। पूरा का पूरा वातावरण ही ऐसा होता था कि ऐसे सवाल कभी मन में ही नहीं आते थे।
यह बिल्कुल वैसा ही है, जैसे अगर किसी घर में खाने की कमी हो, लोगों के भूखे रहने की नौबत आ गई हो तो उस घर के लोग खाने और उसे हासिल करने के बारे में ही ज्यादा सोचेंगे। जब आपको रोज आराम से खाना मिलता है तो आप उसके बारे में सोचते ही नहीं। ठीक इसी तरह जब प्रेम आपके इर्द गिर्द होता है तो आपको यह सोचने की जरूरत नहीं होती कि प्रेम को कहीं से लाना है या हासिल करना है।
कहने का मतलब यही है कि ये चीजें एक खास तरह के अभाव की वजह से पैदा हो रही हैं। किसी इंसान के लिए प्रेम एक खूबसूरत अहसास और जीने का एक शानदार तरीका हो सकता है। लेकिन यह भी उतना ही सच है, कि इसे इसकी सीमाओं से ज्यादा बढ़ा चढ़ाकर देखने की आवश्यकता नहीं है। यहां पूछे गए सवाल में प्रेम के साथ-साथ सत्य की भी बात की गई है। मुझे नहीं पता कि आप कौन से सत्य की बात कर रहे हैं। अगर आप परम सत्य की बात कर रहे हैं तो वह तो सर्वव्यापक है, वह परम मिलन है।
प्रेम में आप एक दूसरे के नजदीक आने की कोशिश करते हैं, कुछ पल होते हैं मिलन के और फिर आप अलग अलग हो जाते हैं। कहीं भी ऐसा देखने को नहीं मिलता कि प्रेम करने वाले लगातार मिलन के पलों में रह सकें। मिलन के कुछ पल और फिर दूर हो जाना, फिर वही अहसास और फिर दूरी। बस, इसी तरह से बात आगे बढ़ती रहती है। परम सत्य का मतलब है परम मिलन की स्थिति, जिसे प्रेम नहीं कह सकते।
प्रेम तो उस दिशा में की गई एक कोशिश भर है। ऐसे ही आनंद और शांति भी उस दिशा की ओर बढ़ाए गए कदमों की तरह हैं। जब आपके भीतर शांति होती है तो आपका हर चीज के साथ एकाकार हो जाता है। जब आप आनंद में होते हैं तो भी ऐसा ही होता है। जरा सोचिए जब आप बैठकर एक दूसरे के साथ हंसी मजाक करते हैं तो कहीं न कहीं आपको एक दूसरे के साथ मेल महसूस होता है।
10-आओ चलें, रचें अपना भविष्य
हम में से कई लोग ऐसे हैं जो अपने भविष्य को जानने के लिए बहुत उत्सुक रहते हैं और कई तरह की भविष्यवाणियां या अपना राशिफल पढ़ते रहते हैं। क्या भविष्य पहले से’ ही तय होता है, जिसे कि राशिफल पढ़ कर जाना जा सकता है, या फिर भविष्य की रचना हम खुद कर सकते हैं? एक बार एक स्कूली छात्र ने सद्गुरु से भविष्यवाणियों के बारे में जानना चाहा। आइए हम भी जानते हैं इन भविष्यवाणियों का भविष्य – इस धरती पर दो तरह के इंसान हैं।
पहली श्रेणी उन लोगों की है जिनके पास समझदारी से योजना बनाने और उस पर अमल करने की क्षमता नहीं है। ऐसे लोग अपनी जिंदगी के साथ-साथ समाज और दुनिया की दिशा और दशा को तय करने के लिए भविष्यवाणियों पर यकीन करते हैं। दूसरी श्रेणी उन लोगों की है जिनके पास हर चीज के लिए एक योजना होती है। वे अपनी योजना के मुताबिक खुद तय करते हैं कि अपनी जिंदगी और इस संसार को वे किस दिशा में ले जाना चाहते हैं।
अब सवाल यह है कि आप क्या चाहते हैं? आप भविष्यवाणी चाहते हैं या फिर आपको कोई समझदारीपूर्ण योजना चाहिए? अगर किसी क्रिकेट मैच से पहले ही कोई शख्स यह बता देता है, कि मैच निश्चित तौर पर भारत ही जीतेगा, तो फिर वह केवल मैच फ़िक्सर ही हो सकता है।
हम जीतना चाहते हैं, यह बात अपनी जगह ठीक है; लेकिन हम मैच के परिणाम के बारे में नहीं जानते, इसीलिए यह खेल दिलचस्प है। चूंकि हमें इसका परिणाम नहीं पता, इसलिए हम इसमें जी जान लगाने को तैयार रहते हैं, जो कि बड़ी अच्छी बात है। अब जरा सोचिए – आपको मैच का परिणाम पहले से ही पता है। ऐसे में क्या खेल खेलने का कोई मतलब है? भविष्यवाणी एक तरह की मैच फिक्सिंग ही है, जिसमें हमें पहले ही पता है कि परिणाम क्या होगा।
हां, कुछ चीजें तय हैं। अगर आप इन चीजों को गहराई से देखेंगे तो आप जान सकते हैं, कि चीजें किस दिशा में चलेंगी। अगर मैं आपको आम का और नारियल का बीज दूं, तो जाहिर सी बात है कि आम के बीज में आम का पेड़ बनने की सम्भावना है, लेकिन आम का बीज आम का पेड़ बन ही जाएगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है। यह गाय का चारा भी बन सकता है, या फिर किसी के घर का फर्नीचर भी। तो एक चीज है संभावना और दूसरी चीज है वास्तविकता और दोनों के बीच हमेशा ही एक दूरी होती है। क्या आपके अंदर इस दूरी को तय करने का साहस और इच्छा शक्ति है? बस इसी से इंसानी जीवन का निर्माण होता है।
कल आप इस दुनिया को किस दिशा में ले जाना चाहते हैं ? कष्टों की राह पर या सुख संपन्नता के रास्ते पर? अगर हम सभी तय कर लें कि हम दुनिया को सुख और संपन्नता की ओर ले जाना चाहते हैं, तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा कि दुनिया के बारे में कैसी – कैसी भविष्यवाणियां की गई हैं। कभी किसी की भविष्यवाणी को मत सुनिए, चाहे वह भविष्यवाणी आपके जीवन के बारे में की गई हो या दुनिया के बारे में।
कभी भी अपने राशिफल को पढ़ने की चेष्टा ना करें, क्योंकि अगर आपकी जिंदगी में पहले से ही सब कुछ तय हो गया तो वाकई में यह जिंदगी हॉरर यानी डरावनी हो जाएगी। फिर यह जीने लायक नहीं बचेगी। जीने का मजा ही खत्म हो जाएगा।
जीवन एक संभावना है, और इस संभावना को वास्तविकता में बदलने के लिए एक खास तरह के साहस और अक्ल की आवश्यकता होती है। यही तो जीवन है।
11-बाप रे प्रदूषण से कैसे करें नुकसान की भरपाई
पिछले कुछ वर्षों में पृथ्वी के कई सारे हिस्सों में मौसमों में बदलाव आ रहा है। वैज्ञानिक इन बदलावों का मुख्य कारण कार्बन डाई ऑक्साइड की बढ़ती मात्रा को बता रहे हैं, और इसका समाधान हर व्यक्ति के कार्बन फुटप्रिंट को कम करना बता रहे हैं। क्या है यह कार्बन फुटप्रिंट और इसे कैसे कम करें? किसी एक व्यक्ति का हमारे पर्यावरण पर क्या असर होता है, इसे नापने के लिए वैज्ञानिकों ने कार्बन फुटप्रिंट नाम का सिद्धांत दिया है।
करीब-करीब वे सारे काम जो हम रोजाना करते हैं, या हम जिन भी साधनों का इस्तेमाल करते हैं, उन सब से कार्बन डाई ऑक्साइड (CO2) निकलता है। औद्योगिक क्रांति से पहले मनुष्यों द्वारा पैदा किया गया जितना भी कार्बन डाई ऑक्साइड वातावरण में आता था, वह आसपास के जंगलों और पेड़ – पौधों द्वारा सोख लिया जाता था। जंगल व पेड़ – पौधे कार्बन डाई ऑक्साइड को सोख कर ऑक्सीजन को वापस हवा में छोड़ देते हैं। और वे कार्बन को अपने भीतर जमा कर लेते हैं। औद्योगिक युग के शुरुआत के साथ ही ईधन का प्रयोग बड़े पैमाने पर होने लगा जिससे कार्बन डाई ऑक्साइड भारी मात्रा में निकलने लगी ।
साथ ही, बढ़ती आबादी का पेट भरने के लिए खेती के लिए बड़े पैमाने पर जंगल काटे गए, जो कार्बन सोखने का काम करते थे। आज स्थिति यह है कि जितना कार्बन डाई ऑक्साइड वातावरण में पैदा होती है, उसे सोखने के लिए पर्याप्त मात्रा में पेड़ ही नहीं बचे हैं। कार्बन डाइऑक्साइड क्या करती है? कार्बन डाइऑक्साइड वातावरण में ’ग्रीन हाउस गैस’ के रूप में काम करती है।
इस का मतलब है कि वह सूर्य की गर्मी को रोक लेती है। आज धरती के तापमान को बढ़ाने में ’ग्रीन हाउस गैस’ ही मुख्य रूप से जिम्मेदार हैं। इसकी वजह से मौसम में बदलाव आए हैं – गर्मी के मौसम में गरमी बढ़ी है, बेमौसम बरसात होने लगी है, सूखे और बाढ़ का प्रकोप भी बढ़ा है, सर्दी के मौसम में ठंड बढ़ी है। इन बदलावों का असर मनुष्य सहित पेड़ पौधों व पृथ्वी पर मौजूद सभी जीवों पर भी हो रहा है।
बातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड के बढ़ने के कारण: हमारे द्वारा चलाए जाने वाले वाहनों से होने वाले प्रदूषण के अलावा और भी ऐसे कई कारण हैं: बिजली/इलेक्ट्रिसिटीः हम जिस बिजली का इस्तेमाल करते हैं, वह ज्यादातर जीवाश्म ईंधन (जैसे कोयला, प्राकृतिक गैस और तेल जैसी प्राकृतिक चीजों) से बनती है। इंधनों के जलने से कार्बन डाइऑक्साइड निकलता है।
हम जितनी ज्यादा बिजली का इस्तेमाल करेंगे, बिजली के उत्पादन के लिए उतने ही ज्यादा ईंधन की खपत होगी और उससे उतना ही ज्यादा कार्बन डाइऑक्साइड बढे़गा। अन्नः जो अन्न हम खाते हैं वह भी हमारे कार्बन फुटप्रिंट में महत्वपूर्ण योगदान देता है। खासकर तब जब हम तैयार खाद्य पदार्थ खाते हैं, या फिर हम ऐसे पदार्थ खाते हैं जिनका उत्पादन स्थानीय तौर पर नहीं हुआ हो।
वनों का संहारः खेती योग्य जमीन, इमारतों के निर्माण, लकड़ी और खनिज को पाने के लिए हमने जंगलों और पेड़ो का विनाश किया है। औद्योगिक उत्पादन: ज्यादातर हम जिन चीजों का उपयोग करते हैं, वे कारखानों में बनती हैं। ये चीजें फिर से न पैदा होने वाले खनिजों व धरती से निकलने वाले ईंधन के इस्तेमाल से बनती हैं। जिन्हें दूर दराज के इलाकों तक मालगाड़ियों से भेजा जाता है।
क्या आप जानते हैं कि औसतन एक शहरी साल में चार टन कार्बन डाइऑक्साइड वातावरण में छोड़ता है? पर्यावरण की रक्षा हम सभी की ज़िम्मेदारी है। हम क्या कर सकते हैं? इंसान के पास अपने कार्बन फुटप्रिंट कम करने के कई तरीके हैं।
एक तरीका तो यह है कि आपके द्वारा कम से कम कार्बन डाइऑक्साइड वातावरण में बढ़े। इसका मतलब है कि आप सोच समझ कर चीजों का इस्तेमाल करें, रीसाइकिलिंग करें, सार्वजनिक यातायात का इस्तेमाल करें। जहां तक हो सके ज्यादा से ज्यादा पैदल चलें, स्थानीय और रिसाइकिल्ड उत्पादों का प्रयोग करें, स्थानीय चीजों का सेवन करें। कार्बन डाइऑक्साइड को कम करने का दूसरा तरीका इसको सोखना है।
वृक्षारोपण इसका सबसे आसान और प्रभावशाली तरीका है। एक पेड़ अपने जीवन काल में एक टन कार्बन डाइऑक्साइड को कार्बन और ऑक्सीजन में बदलता है। आप ‘कार्बन-न्यूट्रल’ बन सकते हैं, इसका मतलब है कि आप अपने कार्बन फुटप्रिंट को पूरी तरह से मिटाने के लिए उतने पेड़ लगाइए, और उनकी देखभाल कीजिए, जो आप द्वारा उत्सर्जित होने वाले पूरे कार्बन डाइऑक्साइड को सोख ले। तो चलें अभी से वृक्षरोपण में जुट जाएं !
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