Monday, April 20, 2015

जिन्दगी में कुछ पाने की खुशी

1-– भूत, भविष्य और वर्तमान हर सांस पे लिखा है
 
          योग विज्ञान में सिखाई जाने वाली कई योग क्रियाएं सांसों पर आधारित होती हैं। योग आसनों में भी सांस लेने और छोड़ने का एक खास तरीका सिखाया जाता है। सांसों में ऐसा क्या खास है, कि योग विज्ञान ने इन्हें इतना महत्व दिया है? सांस वो धागा है, जो आपको शरीर से बांध कर रखता है।
 
          अगर मैं आपकी सांसें ले लूं तो आप अपने शरीर से अलग हो जाएंगे । यह सांस ही है, जिसने आपको शरीर से बांध रखा है। जिसे आप अपना शरीर और जिसे ‘मैं’ कहते हैं, वे दोनों आपस में सांस से ही बंधे हैं। यह सांस ही आपके कई रूपों को तय करती है। जब आप विचारों और भावनाओं के विभिन्न स्तरों से गुजरते हैं, तो आप अलग-अलग तरह से सांस लेते हैं।
 
          आप शांत हैं तो एक तरह से सांस लेते हैं। आप खुश हैं, आप दूसरी तरह से सांस लेते हैं। आप दुखी हैं, तो आप अलग तरह से सांस लेते हैं। क्या आपने यह महसूस किया है? इसके ठीक उल्टा है – प्राणायाम और क्रिया का विज्ञान। जिसमें एक खास तरह से, सचेतन हो कर सांस ली जाती है। इस तरह से सांस लेकर अपने सोचने, महसूस करने, समझने और जीवन को अनुभव करने का ढंग बदला जा सकता है।
 
          शरीर और मन के साथ कुछ दूसरे काम करने के लिए इन सांसों को एक यंत्र के रूप में कई तरह से इस्तेमाल किया जा सकता है। ईशा क्रिया में हम सांस लेने की एक साधारण प्रक्रिया का इस्तेमाल करते हैं। लेकिन पूरी ईशा क्रिया सिर्फ सांस लेने के तरीके तक सीमित नहीं है। सांस सिर्फ एक उपकरण है। सांस से हम शुरू करते हैं, पर जो होता है वह अद्भुत है। आप जिस तरह से सांस लेते हैं, उसी तरह से आप सोचते हैं।
 
         आप जिस तरह से सोचते हैं, उसी तरह से आप सांस लेते हैं। आपका पूरा जीवन, आपका पूरा अचेतन मन आपकी सांसों में लिखा हुआ है। अगर आप सिर्फ अपनी सांसों को पढ़ सकें, तो आप अपना अतीत, वर्तमान और भविष्य जान सकते हैं। यह तीनों आपकी सांस लेने की शैली में लिखे हुए हैं। अगर आप सिर्फ अपनी सांसों को पढ़ सकें, तो आप अपना अतीत, वर्तमान और भविष्य जान सकते हैं।
 
         एक बार जब आप इसे जान जाते हैं, तब जीवन बहुत अलग हो जाता है। इसे अनुभव करना होता है, यह ऐसा नहीं है जिसे आप प्रवचन से सीख सकते हैं। अगर आप कुछ सोचे या कुछ किए बिना सहजता से बैठने का आनंद जानते हैं, तो जीवन बहुत अलग हो जाता है। आज इसका वैज्ञानिक सबूत है कि बिना शराब की एक बूंद लिए, बिना कोई चीज लिए, आप सहजता से बैठकर, अपने आप नशे में मतवाले और मदहोश हो सकते हैं। अगर आप एक खास तरह से जागरूक हैं, तो आप अपनी आंतरिक प्रणाली को इस तरह से चला सकते हैं, कि आप सिर्फ बैठने मात्र से परमानंद में चले जाते हैं।
 
          एक बार जब केवल बैठना और सांस लेना इतना बड़ा आनंद बन जाए, तब आप बहुत हंसमुख, विनम्र और अद्भुत हो जाते हैं, क्योंकि तब आप अपने अंदर एक ऊंची अवस्था में होते हैं। दिमाग पहले से ज्यादा तेज हो जाता है।
 
 
2-बस आपको अपनी दिशा बदलनी होगी
 
           ऐसा नहीं है कि आपके पास समय नहीं है। बात बस इतनी है कि ज्यादातर लोग समय का उपयोग नहीं करना चाहते। खाना मुश्किल से मिलता है, कपड़े भी मुश्किल से मिलते हैं, घर भी कठिनाई से बनता है। ऐसे में लोगों के दिमाग में कमी का एक मनोविज्ञान विकसित हो गया है। उन्हें लगता है कि खुशी भी दुर्लभ है, आनंद भी दुर्लभ है और प्रेम भी, जबकि ऐसा नहीं है। इन चीजों की कोई कमी नहीं हैं।
 
         आप इन्हें जितना ज्यादा इस्तेमाल करेंगे, आपको ये उतनी ही मिलेंगी। ये चीजें ऐसी नहीं हैं जिनकी कभी कमी हो जाएगी। दिन में दो वक्त की रोटी का जुगाड़ कर लेना जीवित रहने के लिए काफी है, लेकिन दिल्ली में जीवित रहने के लिए लोगों की आवश्यकता मर्सिडीज हो गई है। जीवित रहने के लिए जो चीजें असल में आवश्यक हैं, उन्हें हासिल कर जीवन की खोज करने की बजाय हम जीवित रहने के लिए जरूरी चीजों की सूची को ही बढ़ाते जा रहे हैं। नतीजा यह होता है कि आप हमेशा चाहत और इच्छाओं के दलदल में फंसे रहते हैं।
 
          दरअसल, यही सामाजिक तरीका बन गया है। गौर से देखिए एक छोटा सा कीट जिसके पास इंसान की तुलना में महज दस लाखवां हिस्सा दिमाग है, जीवित रहने के काम को इंसानों से कहीं ज्यादा प्रभावशाली तरीके से कर रहा है। हर जगह बस एक ही सवाल है। तुम्हारी रोजी रोटी कैसे चलेगी? मैं कहता हूं तुम्हारी रोजी रोटी चलेगी। अब देखो मेरी जेब में एक भी पैसा नहीं है और मैं हर जगह यात्रा करता हूं और गुजारा कर रहा हूं। कोई न कोई हमेशा मेरा ध्यान रखता है।
 
          अगर आप सभी के लिए उपयोगी और कुछ काम के आदमी बन जाते हैं तो कोई न कोई हमेशा होगा, जो आपका हर तरह से ध्यान रखेगा। मेरा मानना है कि अगर आप अपने दिमाग का सौवां हिस्सा भी उपयोग कर लेते हैं तो आप शानदार तरीके से गुजारा कर सकेंगे। सिर्फ गुजारे की खातिर जीवन भर सोचते रहने की आवश्यकता नहीं है। अपने जीवन की दिशा को निर्धारित करने का यह एक बेहद गलत तरीका होगा। मानवता के खिलाफ यह एक तरह का अपराध है। जरा बताइए, आप कैसे जानते हैं कि मैं यहां हूं?एक छात्र: हम एक दूसरे को देख सकते हैं। आप देख सकते हैं, आप सुन सकते हैं।
 
          कल्पना कीजिए, आपको हल्की सी नींद आ जाए तो सबसे पहली चीज क्या होगी। मैं आपकी नजरों से गायब होने लगूंगा। फिर आपके आसपास के सभी लोग और खुद आप भी अपनी नजरों से गायब हो जाएंगे। लेकिन मैं तब भी यहीं हूं, दुनिया तब भी यहीं होगी, खुद आप भी यहीं हैं, आपका शरीर काम कर रहा है, आपका दिमाग भी क्रियाशील है, लेकिन आपके अनुभव में कुछ भी नहीं है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि आपकी पांचों ज्ञानेंद्रियां बंद हो गई हैं।
 
           दरअसल, इन ज्ञानेंद्रियों की प्रकृति ही कुछ ऐसी है कि ये उन चीजों को ही समझ सकती हैं, जो भौतिक हैं। आपका शरीर स्थूल है जिसे आपने बाहरी चीजों से इकट्ठा किया है। लेकिन इस स्थूल से परे भी कुछ है जो आपके अनुभव में नहीं है। यह आपके अस्तित्व का 99 फीसदी है। इसीलिए मैं कहता हूं कि आपके अनुभव में एक फीसदी से भी कम है। स्थूल से परे जो पहलू है, आपको उसमें प्रवेश करना चाहिए।
 
          अगर आप ऐसा करते हैं तो आपके अंदर एक ऐसी सोच विकसित होने लगेगी, जो पांचों ज्ञानेंद्रियों की सीमा से परे है। जिस पल आप मां के गर्भ से बाहर दुनिया में आते हैं, पांचों ज्ञानेंद्रियां काम करना शुरू कर देती हैं क्योंकि जीवित रहने के लिए इनकी आवश्यकता होती है। कल्पना कीजिए, एक नवजात बच्चा एक जंगल में खो गया है। अगर खाने योग्य कोई चीज उसके सामने आएगी तो क्या वह इसे अपने कानों में या नाक में डाल लेगा? नहीं, उसे पता होगा कि इसे कहां रखना है।
 
          कहने का अर्थ यह है कि जो चीजें जीवित रहने के लिए आवश्यक हैं, उनके लिए हमें किसी ट्रेनिंग की आवश्यकता नहीं होती। ये अपने आप काम करती हैं। लेकिन क्या कोई नवजात बच्चा लिख या पढ़ सकता है? क्या वह वे सब काम कर सकता है, जो बड़े होने पर हम करते हैं? नहीं, क्योंकि इन सभी चीजों के लिए प्रयास करने की आवश्यकता होती है।
 
      आपको वह अंग्रेजी का ए याद है। जब आप साढ़े तीन साल के थे तो आपके बड़े आपको इसे लिखना सिखाते थे। उस वक्त यह कितना मुश्किल लगता था। आज भी अगर किसी अनपढ़ व्यक्ति को आप पढ़ना-लिखना सिखाने की कोशिश करते हैं तो उसे संघर्ष करना पड़ता है। कहने का मतलब यह है कि हर उस चीज को सीखने के लिए आपको प्रयास करना पड़ता है, जो आपके जीवित रहने के लिए आवश्यक नहीं है। जाहिर है, अगर स्थूल से परे किसी पहलू को आप अपने जीवन में लाना चाहते हैं तो आपको कुछ श्रम, कुछ प्रयास करने ही होंगे, लेकिन बिल्कुल अलग दिशा में। जो कुछ भी आपके इर्द-गिर्द है, आप उसे तो देख सकते हैं, लेकिन आप अपनी आंखों को भीतर की तरफ मोड़कर अपने अंतर की पड़ताल नहीं कर सकते।
 
          आप बाहरी आवाजों को सुन पाते हैं, लेकिन आपके शरीर में इतना कुछ हो रहा है। क्या आप उसकी आवाज सुन पाते हैं? नहीं। आपके हाथ पर अगर एक चींटी भी चढ़ जाए तो आपको महसूस हो जाता है, लेकिन आपके इसी शरीर के भीतर इतना सारा रक्त दौड़ रहा है। क्या आपको उसकी गति महसूस होती है? नहीं न। दरअसल, हमारी पांचों ज्ञानेंद्रियों की प्रकृति ही ऐसी होती है कि वे बाहर की दुनिया को ही देख और महसूस पाती हैं, लेकिन जो कुछ भी आपको अनुभव होता है, वह आपके भीतर होता है।
 
          अभी मुझे आप सभी देख पा रहे हैं। मुझ पर प्रकाश की किरणें पड़ रही हैं और मेरे शरीर से परावर्तित होकर आपकी आंखों के लेंसों से गुजर रही हैं और रेटिना पर उलटा प्रतिबिंब बना रही हैं। इसीलिए आप अपने अंदर मुझे देख पा रहे हैं। आप अपने अंदर मुझे सुनते भी हैं। आप अपने अंदर पूरी दुनिया को देख पा रहे हैं। अभी आप अपने दोस्त का स्पर्श करो और देखो, आप उसके हाथ को महसूस नहीं करते। असल में आप चीजों को उसी तरह से महसूस करते हैं, जैसा आपका इंद्रियबोध होता है। इसके परे आपने कभी कुछ अनुभव ही नहीं किया है।
 
  आपके साथ जो भी हुआ है, आपकी खुशियां, आपकी परेशानियां आपके अंदर ही हुई हैं। प्रकाश हो या अंधकार सब कुछ आपके अंदर हुआ है लेकिन क्या आपके पास कोई साधन है जिससे आप अपने भीतर देख सकें। याद रखिए, ऐसा माध्यम आपको तब तक हासिल नहीं होगा, जब तक आप प्रयास नहीं करेंगे। एक दिन की बात है। पास के एक गांव में एक शख्स ईशा योग सेंटर को ढूंढता हुआ आया। उसने वहीं के रहने वाले एक बच्चे से पूछा, ‘ईशा योग सेंटर कितनी दूर है।’ लड़के ने कहा, ’24998 मील।’ वह शख्स चौंका, ‘क्या, इतनी ज्यादा दूर !’ लड़का बोला, ‘जी हां, जिस दिशा में आप जा रहे हैं, उस दिशा से तो सेंटर इतनी ही दूर है, लेकिन अगर आप अपनी दिशा बदल दें तो यह महज 4 मील दूर ही है।
 
          ’ कहने का मतलब है कि अभी आपके पास जो भी है, उसका रुझान बाहर की ओर है, लेकिन जो कुछ भी हो रहा है, वह भीतर हो रहा है। यही वजह है कि आपको पूरी तरह गलत बोध हो रहा है। खुद को अंदर की ओर मोड़ने के लिए आपको प्रयास करने होंगे। अगर आप एकाग्रचित होकर 28 घंटे दे दें तो हम आपकी दिशा बदल सकते हैं।
 
3-जीवन एक प्रवाह और तीव्रता है
 
          जीवन तीव्रता है। कभी आपने महसूस किया है कि आपके भीतर जो जीवन है, वह एक पल के लिए भी धीमा नहीं पड़ता। अगर कुछ धीमा पड़ता है, तो वह है आपका दिमाग और आपकी भावनाएं, जो कभी अच्छी हो जाती हैं तो कभी बिमार। अपनी श्वास को देखिए। क्या यह कभी धीमी पड़ती है? अगर कभी यह धीमी पड़ जाती है तो उसका मतलब मौत होता है। जब मैं आपको जीवंत बनने और अपने अंदर तीव्रता पैदा करने के तमाम तरीके बताता हूं, तो मैं बस यह कह रहा होता हूं कि आप जीवन की तरह बन जाएं।
 
          अभी आपने अपने उन विचार और भावों को बहुत ज्यादा महत्व दिया हुआ है, जो आपके भीतर चल रहे हैं। आपने अपने भीतर के जीवन को महत्व नहीं दिया है। जरा सोचिए, क्या जीवित रहने से ज्यादा महत्व आपके विचारों का है? महान दर्शनशास्त्री देस्कार्ते ने कहा, ‘मैं सोचता हूं इसलिए मैं हूं।’ बहुत सारे लोगों का मानना है कि उनका अस्तित्व केवल इसलिए है क्योंकि वे सोच रहे हैं। नहीं, ऐसा नहीं है।
 
          चूंकि आपका अस्तित्व है, इसलिए आप सोच पा रहे हैं, नहीं तो आप सोच ही नहीं सकते। आपकी जीवंतता आपके विचारों और भावों से कहीं ज्यादा मौलिक और महत्वपूर्ण हैं। लेकिन होता यह है कि आप केवल वही सुनते हैं जो आपके विचार और भाव कह रहे हैं। अगर आप जीवन की प्रक्रिया के हिसाब से चलें, तो यह एक निरंतर प्रवाह है, चाहे आप सो रहे हों या जाग रहे हों। जब आप सो रहे होते हैं तो क्या जीवन आपके भीतर सुस्त पड़ जाता है? नहीं, यह आपका मन है जो कहता है, ‘मुझे यह पसंद है इसलिए मैं इसे पूरे जुनून के साथ करूंगा, मुझे वह पसंद नहीं है इसलिए उसे दिल से नहीं करूंगा।’
 
          लेकिन आपकी जिंदगी इस तरह की नहीं है। यह हमेशा एक प्रवाह और तीव्रता में है। अगर आप लगातार इस तथ्य के प्रति जागरूक या सजग रहेंगे कि बाकी सभी चीजें गुजर जाने वाली चीजें हैं और मैं मूल रूप से जीवन हूं, तो आपके अंदर एक प्रवाह और तीव्रता बनी रहेगी। आपके अस्तित्व में होने का कोई और तरीका ही नहीं है, क्योंकि जीवन को कोई दूसरा तरीका मालूम ही नहीं है। जीवन हमेशा प्रवाह में है, यह तो बस भाव और विचार ही हैं जो भ्रम पैदा करते हैं।
 
          अब जरा अपनी भावनाओं और विचारों की प्रकृति को देखिए। जीवन में ऐसे तमाम मौके आए होंगे, जब इन विचारों और भावनाओं की वजह से आपने कई चीजों में भरोसा किया होगा। कुछ समय बाद आपको ऐसा लगने लगता है कि उस चीज पर भरोसा करना आपकी बेवकूफी थी। आज आपकी भावना आपसे कहती है कि यह शख्स बहुत अच्छा है। फिर कल आपकी भावना आपको बताती है कि यह सबसे खतरनाक व्यक्ति है – और दोनों ही बातें शत प्रतिशत सच मालूम पड़ती हैं।
 
          इस तरह आपकी भावना और विचार आपको धोखा देने के शानदार जरिए हैं। वे आपको किसी भी चीज के बारे में भरोसा दिला सकते हैं। अपनी खुद की मान्यताओं की ओर देखिए। उनमें से कोई भी किसी भी तरह की जांच का सामना नहीं कर पाएगी। अगर मैं आपसे तीन सवाल पूछूं, तो आपकी मान्यताएं पूरी तरह लडख़ड़ा जाएंगी। लेकिन जीवन में अलग-अलग मौकों पर आपका मन आपको अलग-अलग बातों पर भरोसा कराएगा और वह तब आपको बिल्कुल सच लगेगा। कैसे बनाए रखें तीव्रता?
 
          तीव्रता का अर्थ है जीवन के प्रवाह के साथ चलना। अगर आप यहां सिर्फ जीवन के रूप में, एक शुद्ध जीवन के रूप में मौजूद हैं, तो यह स्वाभाविक रूप से अपनी परम प्रकृति की ओर जाएगा। जीवन की प्रक्रिया अपने स्वाभाविक लक्ष्य की ओर बढ़ रही है। लेकिन आप एक विचार, भाव, पूर्वाग्रह, क्रोध, नफरत और ऐसी ही तमाम दूसरी चीजें बनकर एक बड़ी रुकावट पैदा कर रहे हैं। अगर आप बस जीवन के एक अंश के रूप में मौजूद हैं, तो स्वाभाविक रूप से आप अपनी परम प्रकृति तक पहुंच जाएंगे।
 
          यह कोई ऐसी चीज नहीं है जिसके लिए आपको जूझना या संघर्ष करना पड़े। मैं हमेशा कहता हूं – बस अपनी तीव्रता को बनाए रखें, बाकी चीजें अपने आप होंगी। आपको स्वर्ग का रास्ता ढूंढने की जरूरत नहीं है। बस अपनी तीव्रता को बनाए रखिए। ऐसा कोई नहीं है जो इस जीवन को इसकी परम प्रकृति की ओर ले जाए या जाने से रोक दे। हम इसमें देरी कर सकते हैं या हम बिना किसी बाधा के इसे तेजी से जाने दे सकते हैं। बस यही है जो हम कर सकते हैं।
 
          यह जितनी तेजी से हो सकती है, उतनी तेजी से इसे होने देने के लिए ही आध्यात्मिक प्रक्रियाएं होती हैं। मदद के लिए आपको देवताओं को बुलाने की जरूरत नहीं है, आपको जीवन होना होगा, विशुद्ध जीवन। अगर आप यहां एक विशुद्ध जीवन के रूप में जी सकते हैं, तो आप परम लक्ष्य तक स्वाभाविक रूप से पहुंच जाएंगे।
 
 
4-दो जिन्दगियों को एक धागे में पिरोना ही विवाह है
 
          आज हमारी प्रिय राधे का संदीप नारायण के साथ शुभविवाह है। आप लोग दुनिया के अलग-अलग हिस्सों से यहां आए हैं और उनके जीवन के इस खास पल में शामिल हुए हैं। मैं उन सभी लोगों का बहुत आभारी हूं, जिन्होंने राधे के जीवन में एक अहम भूमिका निभाई है। आप लोगों के निरंतर सहयोग के बिना राधे वैसी नहीं होती, जैसी आज वह है। राधे ने चलने से पहले नाचना सीख लिया था और उसकी मां का यह स्‍वप्‍न था कि वह एक नर्तक बने। मैं अक्सर यात्रा करते रहने की वजह से अपनी बेटी को ज्यादा समय नहीं दे पाया, पर किसी न किसी तरह से राधे के संपर्क में बना रहा हूं। तीन साल की उम्र से वह मेरे साथ यात्रा करती रही है, और मेरे साथ लगभग खानाबदोशों सी जिन्दगी जी है। लेकिन जब कहीं कार्यक्रम होते थे, तो कई परिवार लगातार कई महीनों तक उसका ख्याल रखते थे। इतने सालों में लोगों से मिले प्यार और सहयोग से मैं अभिभूत हूं।
 
          दो जिन्दगियों को एक धागे में पिरोना बहुत खूबसूरत होता है। खुद से परे जाकर सोचना, जीना और महसूस करना, अपने भीतर और बाहर दूसरे के लिए जगह बनाना, परम मिलन के लिए एक सोपान बन सकता है।
 
5- –जिन्दगी की उलझन - शादी या सन्यास
 
          अगर आप एक गृहस्थ हैं और साधना करना चाहते हैं तो आपको कई लोगों से अनुमति लेनी पड़ती है। वे अनुमति दे भी सकते हैं और नहीं भी दे सकते। उसमें कई समस्याएँ होती हैं, लेकिन अगर आप एक ब्रह्मचारी हैं तो आप अपने लिए निर्णय ले सकते हैं।
 
        जब आप एक गृहस्थ होते हैं तो कुछ खास तरह की साधनाओं को करना थोड़ा कठिन होता है। वहां आवश्यक वातावरण बनाना संभव नहीं होता। तो क्या सत्य को जानने के लिए हर एक व्यक्ति को ब्रह्मचारी बन जाना चाहिए? नहीं। इसकी ज़रूरत नहीं है। अगर आपको अपने भीतर के सत्य को जानना है तो यह मायने नहीं रखता कि बाहरी स्थितियां कैसी हैं। आप इस पर गौर करें कि आपके जीवन में क्या महत्वपूर्ण है, आपके जीवन की क्या – क्या जरूरतें हैं, उसी हिसाब से आप चुनाव कर सकते हैं। किसी ने शादी कर ली और किसी ने ब्रह्मचर्य ले लिया। कौन सही है और कौन गलत? या कौन बेहतर है? ऐसी कोई चीज़ नहीं है। हर व्यक्ति को अपनी प्राथमिकताओं और व्यक्तिगत ज़रूरतों के आधार पर यह चुनाव करना चाहिए। कुछ लोगों के लिए शादी जरूरी है और उनकी शादी हो जाती है।
 
         कुछ लोगों के लिए यह ज़रूरी नहीं है, और वे ब्रह्मचर्य ले लेते हैं। हर व्यक्ति पर एक ही नियम लागू नहीं होता। जिसको शादी की ज़रूरत है अगर उस व्यक्ति को ब्रह्मचर्य दे दिया जाए तो उसका जीवन नरक बन जाएगा। जो शादी नहीं करना चाहता, अगर उसकी बलपूर्वक शादी कर दी जाए, तो वह दूसरी तरह के नरक से गुजऱेगा। ऐसा नहीं है कि शादी गलत है। यह दो लोगों के लिए जीवन साझा करने का और एकसाथ रहने का एक अवसर होता है।
 
          यह जीने का एक अच्छा तरीका है, और इसे जीने के एक खूबसूरत तरीके में परिवर्तित किया जा सकता है। चूंकि लोग पूरी तरह परिपक्व नहीं होते, वे एक दूसरे के ऊपर बहुत ज्यादा अधिकार जताने लगते हैं। सबसे बड़ी बात तो यह है कि वे एक दूसरे का इस्तेमाल करके अपना जीवन बनाने की कोशिश करते हैं। आप अपना जीवन एक दूसरे से बाँट सकते हैं और एकसाथ रह सकते हैं, लेकिन लोग एक दूसरे का इस्तेमाल करके अपना जीवन बनाने की कोशिश करने लगते हैं। तब शादी का असफल होना निश्चित है, कोर्ट-कचहरी में भले ही न जाना पड़े, लेकिन जीवन में ऐसा होना ही है।
 
         यह रिश्ता अच्छे से निभता है जब आप या तो निरे मूर्ख हैं कि आपको कुछ भी पता नहीं है, आप बस सहज रहते हैं, या आप ऐसे व्यक्ति हैं जो पूरी तरह से समर्पित है। अगर आप में दूसरे व्यक्ति के प्रति पूरा समर्पण है, तो यह अच्छी तरह से चलता है। या आप वाकई में एक दूसरे से इतना प्रेम करते है कि आप दोनों के बीच में सब कुछ बढ़िया है, दूसरा चाहे किसी भी तरह से रहे, फिर भी कोई समस्या नहीं है, सब ठीक है। अन्यथा इसका निभना संभव नहीं है। मात्र सामाजिक बाध्यताओं को लेकर दो लोग वर्षों तक चिपके रहते हैं, यह पागलपन है।
 
          इस तरह से लोग बस एक दूसरे को बर्बाद कर रहे हैं। मैंने स्त्रियों और पुरुषों दोनों को देखा है, यह स्त्री और पुरुष दोनों के लिए सत्य है। जब वे जवान होते हैं तब उनमें ज़्यादा उमंग और जीवंतता होती है। फिर वे शादी कर लेते हैं – मैंने ऐसे प्रेमियों को कॉलेज में देखा है। उन्होंने सोचा कि वे तो एक दूसरे के लिए ही बनाए गए हैं। वे आगे बढ़े और भारी विरोध के बीच शादी कर ली। वे माता पिता के खिलाफ, समाज के खिलाफ चले गए और शादी कर ली। वे बहुत जोशीले और जीवंत लोग थे।
 
        शादी के बाद, चार-पाँच साल के अंदर ही दोनों बहुत दुखी इंसान बन गये। आप उनके चेहरों पर दु:ख देख सकते हैं, सारी जीवंतता चली गई। लोगों को इस तरह से देखना दुर्भाग्यपूर्ण है। अगर आप प्रेम से कुछ हासिल करने की कोशिश करते हैं, तो प्रेम चला जाएगा; केवल हासिल की गई चीज़ बच जाएगी। दुर्भाग्यवश, सभी लोग यही करने की कोशिश करते हैं। उन्हें बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है, लेकिन लोग सीखते नहीं हैं। लोग वास्तव में एक बड़ी कीमत चुकाते हैं।
 
      आपका दु:ख ही सबसे बड़ी कीमत है जिसे आप चुका सकते हैं, और क्या शेष रह जाता है? इस प्रक्रिया में आप अपना प्रेम और आनंद खो देते हैं। सबसे बड़ी बात तो यह है कि आप अपना प्यार खो देते हैं। इससे बड़ी कीमत और क्या हो सकती है? आपको नरक में जाने की ज़रूरत नहीं है। यह काफी है, है कि नहीं? कम से कम, अगर आप कॉलेज के उस प्रेम संबंध को याद करते तो वह आपके जीवन में आनंद का एक स्त्रोत होता। हां, लेकिन जब आपके सपने साकार हो गए तो आपने इससे एक व्यापार बना लिया।
 
          वह खूबसूरत व्यक्ति, जो एक समय आपके लिए सब कुछ होता था, वह आपके लिए एक कुरूप व्यक्ति में बदल गया। यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है। लेकिन लोग पीढ़ी दर पीढ़ी यही काम कर रहे हैं। यह समय बदलाव का है। वास्तव में यह वक्त बदलने का है और यह निर्णय लेने का है कि आपके लिए क्या महत्व रखता है और क्या नहीं। आप जो भी काम करते हैं, उसके बाद परिणामों का एक पूरा सिलसिला शुरु होता है।
          अगर आप एक बुद्धिमान व्यक्ति हैं, तो आपको यह देखना चाहिए कि आप जो काम करने जा रहे हैं, उसके पीछे आने वाले परिणामों के सिलसिले के लिए आप तैयार हैं या नहीं। और फिर निर्णय लीजिए कि वह काम आपके लिए आवश्यक है या नहीं। सोचिए और निर्णय लीजिए कि उन परिणामों का सामना करने के लिए और उन्हें खुशी-खुशी स्वीकार करने के लिए आप तैयार हैं या नहीं। आपको इसे परखना चाहिए और फिर निर्णय लेना चाहिए। हर व्यक्ति के लिए एक ही बात तय नहीं की जा सकती।
 
6-हमारी सांस ही बंधन है और यही सांस मुक्ति है
 
          सांस सिर्फ ऑक्सीजन और कार्बन डाइऑक्साइड का आदान-प्रदान नहीं है। आप जिस तरह के विचारों और भावनाओं से गुजरते हैं, आपकी सांस उसके अनुसार अलग-अलग स्वरूप ले लेती है। जब आप क्रोधित, शांत, खुश या उदास होते हैं, तो आपकी सांस में भी उसके अनुसार सूक्ष्म बदलाव होते हैं। आप जिस तरीके से सांस लेते हैं, वैसा ही आप सोचते हैं और जैसा आप सोचते हैं, उसी तरीके से आप सांस लेते हैं।
 
          अपने तन और मन पर कई तरह के काम करने के लिए सांस को साधन के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है। प्राणायाम एक विज्ञान है, जिसमें आप जागरूक होकर एक खास तरीके से सांस लेते हुए अपने सोचने, महसूस करने, समझने और जीवन को अनुभव करने का तरीका बदल सकते हैं। अगर मैं आपसे आपकी सांस पर ध्यान देने के लिए कहूं, जो आजकल लोगों के बीच सबसे आम चलन है, तो आपको लगेगा कि आप अपनी सांस पर ध्यान दे रहे हैं।
 
          लेकिन आप बस हवा की गति से पैदा होने वाली हलचल को ही महसूस कर पाते हैं। यह कुछ ऐसा ही है कि जब कोई आपके हाथ को छूता है तो आपको लगता है कि आप दूसरे व्यक्ति के स्पर्श को जानते हैं, लेकिन असल में आप सिर्फ अपने शरीर में पैदा हुए अनुभव को ही जान पाते हैं, आप यह नहीं जानते कि दूसरा व्यक्ति कैसा महसूस करता है।
 
          सांस ईश्वर के हाथ की तरह है। आप उसे महसूस नहीं करते। यह हवा से पैदा हुई हलचल नहीं है। जिस सांस का आप अनुभव नहीं कर सकते, उसे कूर्म नाड़ी कहा जाता है। यह वह डोर है जो आपको इस शरीर के साथ बांधती है, एक अखंडित डोर, जो आगे खिंचती जाती है। अगर मैं आपकी सांस बाहर निकाल लूं, तो आप और आपका शरीर अलग-अलग हो जाएंगे क्योंकि जीव और शरीर कूर्म नाड़ी से बंधे हुए होते हैं। यह एक बड़ा धोखा है। ये दोनों अलग-अलग चीजें हैं, लेकिन एक होने का दिखावा करते हैं। यह शादी की तरह है, पति-पत्नी दो इनसान होते हैं, लेकिन जब वे बाहर आते हैं, तो एक होने का दिखावा करते हैं। यहां पर दो लोग हैं, शरीर और जीव, दोनों एक-दूसरे के बिल्कुल विपरित, लेकिन वे एक होने का दिखावा करते हैं।
 
          अगर आप सांस से होकर गहराई में अपने अंदर तक, सांस के सबसे गहरे केंद्र तक जाते हैं, तो वह आपको उस बिंदु तक ले जाएगा, जहां आप वास्तव में शरीर से बंधे हुए हैं। एक बार आपको पता चल जाए कि आप कहां और कैसे बंधे हुए हैं, तो आप अपनी इच्छा से उसे खोल सकते हैं। आप चेतन होकर शरीर को उसी सहजता से त्याग सकते हैं, जैसे अपने कपड़ों को। जब आपको पता होता है कि आपके कपड़े कहां पर बंधे हुए हैं, तो उन्हें उतारना आसान होता है।
 
          जब आपको नहीं पता होता, कि वह कहां बंधा हुआ है, तो चाहे आप उसे जैसे भी खींचे, वह नहीं उतरता। आपको उसे फाड़ना होगा। इसी तरह अगर आपको नहीं पता कि आपका शरीर किस जगह आपसे बंधा हुआ है, और आप उसे छोड़ना चाहते हैं, तो आपको किसी न किसी रूप में उसे नुकसान पहुंचाना होगा। लेकिन अगर आपको पता हो कि वह कहां बंधा हुआ है, तो आप बड़ी सफाई से एक दूरी से उसे पकड़ सकते हैं।
 
          जब आप उसे त्यागना चाहें, तो पूरे होशोहवाश में उसे त्याग सकते हैं। जीवन बहुत अलग हो जाता है। जब कोई अपनी इच्छा से शरीर को पूरी तरह त्याग देता है, तो इसे हम महासमाधि कहते हैं। आम तौर पर इसी को मुक्ति या मोक्ष कहा जाता है। सब कुछ बराबर हो जाता है, शरीर के अंदर और शरीर के बाहर में कोई अंतर नहीं रह जाता। खेल समाप्त हो जाता है।
 
          हर योगी को इसकी चाह होती है। चाहे जान-बूझकर या अनजाने में हर इनसान भी इसी दिशा में प्रयास कर रहा है। वह विस्तार करना चाहता है, और यह चरम विस्तार है। बात सिर्फ इतनी है कि वे किस्तों में अनंत की ओर बढ़ रहे हैं, जो एक बहुत लंबी और असंभव प्रक्रिया है। अगर आप 1,2,3,4 गिनते जाएंगे, तो आप एक अंतहीन गणना बन कर रह जाएंगे। आप कभी अनंत तक नहीं पहुंच पाएंगे। जब इंसान इस बात की व्यर्थता समझ जाता है, तो वह स्वाभाविक रूप से अपने अंदर की ओर मुड़ जाता है ताकि जीवन की प्रक्रिया को शरीर से अलग कर सके।
 
 
7-टैगोर को जब सत्य का बोध हुआ तो--
 
          यह गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर के जीवन से जुड़ी एक खास घटना है। टैगोर ने ढेर सारी कविताएं लिखी हैं। वह अकसर दिव्यता, अस्तित्व, कुदरत व सौंदर्य सहित तमाम चीजों के बारे में बहुत कुछ कहते व लिखते थे, जबकि खुद उन्हें इन चीजों का कहीं कोई अनुभव नहीं था। वहीं पास में एक बुजुर्ग व्यक्ति रहा करते थे, जो एक आत्मज्ञानी व्यक्ति थे। यह बुजुर्ग दूर से कहीं उनके रिश्ते में भी कुछ लगते थे। जब भी टैगोर कहीं भाषण देने जाते तो यह बुजुर्ग भी वहां पहुंच जाते और उन्हें देखते रहते।
 
          जब भी रवींद्रनाथ उनकी तरफ देखते तो अचानक असहज हो जाते। दरअसल, वह बुजुर्ग मौका मिलते ही टैगोर से सवाल करने लगते कि तुम इतना सत्य के बारे में बातें करते हो, लेकिन क्या सचमुच तुम इसके बारे में जानते हो? टैगोर सत्य को नहीं जानते थे और उनको यह अहसास भी था कि वो नहीं जानते हैं। हालांकि टैगोर इतने महान कवि थे कि जब आप उनकी कविता पढ़ते हैं, तो कहीं से भी यह नहीं लगता कि बिना अनुभव या बिना जानें उन्होंने ऐसी कविताएं लिखी होंगी।
 
          लेकिन वह बुजुर्ग फिर भी उनसे इस मसले पर लगातार सवाल करते रहते। इसलिए जब भी गुरुदेव की नजरें उनसे मिलती, वह सकपका जाते। हालांकि धीरे धीरे उनके भीतर भी इसे लेकर एक खोज जारी हो चुकी थी, कि आखिर वो क्या है, जिसके बारे में मैं बातें तो करता हूं, लेकिन उसे जानता नहीं हूं। एक दिन बारिश हुई और फिर रुक गई। टैगोर को हमेशा नदी के किनारे सूर्यास्त देखना बहुत अच्छा लगता था। तो उस दिन भी टैगोर सूर्यास्त देखने के लिए नदी किनारे चले जा रहे थे।
 
          रास्ते में ढेर सारे गड्ढे थे, जो पानी से भरे थे। टैगोर उन गढ्ढों से बचते हुए सूखी जगह पर कदम बढ़ाते आगे बढ़ रहे थे। तभी उनका ध्यान पानी से भरे एक गढ्ढे पर गया, जिसके पानी में प्रकृति का पूरा प्रतिबिंब झलक रहा था। उन्होंने उसे देखा और अचानक उनके भीतर कुछ बहुत बड़ी चीज घटित हो गई। वह वहां से सीधे उस बुजुर्ग के घर गए और जाकर उनका दरवाजा खटखटाने लगे। बुजुर्ग ने दरवाजा खोला व एक नजर टैगोर को देखा और फिर बोले, ’अब तुम जा सकते हो। तुम्हारी आंखों में साफ दिखाई दे रहा है कि तुम सच जान चुके हो।’
 
 
8-लक्ष्य पाने की तरकीब सीखनी हो तो अर्जुन से सीखें
 
          द्रोणाचार्य को धनुर्विद्या का सर्वश्रेष्ठ गुरु माना जाता था। धनुर्विद्या ही क्या, हर तरह के हथियार चलाने के तरीके उन्हें आते थे। कौरव और पांडव उनके शिष्य थे। इन 105 भाइयों में अर्जुन उनके सबसे प्रिय शिष्य थे, और इसीलिए उन्होंने अर्जुन को ही सबसे ज्यादा सिखाया। वह जो कुछ भी जानते थे, वह सब कुछ उन्होंने सिर्फ अर्जुन को बताया। इसके पीछे वजह यह नहीं थी कि द्रोणाचार्य पक्षपात करते थे। इसकी सीधी सी वजह यह थी कि अर्जुन के अलावा किसी और में वे गुण ही नहीं थे,कि उनकी दी गई सारी विद्या को ग्रहण कर पाते। एक दिन की बात है। सभी भाई कक्षा में थे।
 
          द्रोणाचार्य धनुर्विद्या के बारे में बता रहे थे। व्यावहारिक ज्ञान देने के लिए वह सभी भाइयों को बाहर ले गए। एक पेड़ की सबसे ऊंची शाखा पर उन्होंने एक खिलौने वाला तोता रख दिया। उन्होंने अपने हर शिष्य से कहा कि तोते की गर्दन में एक निशान है। उस निशान पर निशाना लगाओ। धनुष तान लेने के बाद शिष्यों को गुरु के अगले आदेश का इंतजार करना था। उनके ‘तीर चलाओ’ कहने पर ही उन्हें तीर चलाना था। गुरु ने उन्हें कुछ मिनटों के लिए इंतजार करते रहने दिया।
 
          ज्यादातर लोग एक ही स्थान पर कुछ पल से ज्यादा ध्यान केंद्रित नहीं कर पाते। क्या आपने कभी अपने बारे में इस पर गौर किया है? बहुत से लोग ऐसे होते हैं, जो किसी भी चीज पर अपना ध्यान केंद्रित नहीं कर पाते। खैर, द्रोणाचार्य ने धनुष ताने अपने शिष्यों को कुछ मिनट तक इंतजार करते रहने दिया। धनुष को तानकर रखना और किसी चीज पर ध्यान केंद्रित करना शारीरिक तौर पर थकाऊ काम होता है। कुछ मिनट के बाद द्रोणाचार्य ने एक-एक कर सभी शिष्यों से पूछा कि तुम्हें क्या नजर आ रहा है? शिष्य पेड़ के पत्तों, फल, फूल, पक्षी और यहां तक कि आकाश के बारे में बखान करने लगे।
 
          जब अर्जुन की बारी आई, तो द्रोणाचार्य ने वही सवाल दोहराया, ‘तुम्हें क्या दिखाई दे रहा है, अर्जुन?’ अर्जुन ने कहा, ‘तोते की गर्दन पर बस एक निशान गुरुदेव, और कुछ भी नहीं।’ ऐसे ही लोग कुछ हासिल करते हैं। जो लोग बाकी भाइयों की तरह देखते हैं, वे कहां पहुंचते हैं? कहीं नहीं। अगर कहीं पहुंचते भी हैं, तो वह महज संयोग होता है। उनकी उपलब्धि अपनी खुद की वजह से नहीं होती, बल्कि इस जगत में मौजूद तमाम दूसरी शक्तियां उन्हें आगे ले जाती हैं।
 
          लेकिन अर्जुन की उपलब्धि सिर्फ अपनी वजह से होगी, क्योंकि वह जानता है कि वह कहां है। आपको भी अर्जुन की तरह ही होना चाहिए। अपना ध्यान लक्ष्य पर केंद्रित कीजिए। फिर जो होना होगा, हो जाएगा। जो किसी और के साथ होना है, आवश्यक नहीं है कि वह आपके साथ भी हो, लेकिन जो आपके साथ होना है, वह जरूर होगा। इससे कोई इनकार नहीं कर सकता।
 
          अगर आप इस बात को लेकर बहुत ज्यादा चिंतित हैं कि किसी और के साथ क्या हो रहा है, तो इससे वक्त बर्बाद होता है, जीवन बर्बाद होता है।
 
 
9-,काम आनंद से करें मेहनत से नहीं
 
          बचपन से लेकर अब तक हमें यही बताया गया है कि खूब मेहनत से पढ़ाई करो। काम करो तो खूब मेहनत से करो। किसी ने भी हमें यह नहीं सिखाया कि पढ़ाई या काम आनंद और प्रेम के साथ करो। बस हर कोई यही कहता है – कठिन परिश्रम करो, मेहनत से पढ़ो। लोग हर काम कठिनता से करते हैं, और जब जीवन कठिन हो जाता है तो शिकायत करते हैं। अहम की प्रकृति ही ऐसी है कि यह हर चीज को कठिनता से करना चाहता है। अहम इस बात को लेकर चिंतित नहीं रहता कि आप क्या कर रहे हैं। इसकी एक ही चिंता होती है, कि किसी और से एक कदम आगे रहे, बस।
 
          जीवन जीने का यह बेहद दुखद तरीका है लेकिन अहम की तो प्रकृति ही यही है। जब लोग हर चीज को कठिन परिश्रम से करते हैं तो यह उनके लिए संतुष्टि का साधन बन जाती है। अगर वे चीजों को आनंद के साथ करते हैं, तो उन्हें ऐसा लगता है जैसे उन्होंने कुछ किया ही नहीं है। क्या यह शानदार बात नहीं है कि बहुत सारे काम करने के बाद भी आपको ऐसा लगे कि आपने कुछ किया ही नहीं है ? ऐसा ही होना चाहिए।
 
           दिन भर में 24 घंटे काम करने के बाद भी अगर आपको लगता है कि आपने कुछ नहीं किया है, तो आप काम का भार अपने ऊपर लेकर नहीं चलते। आप एक बच्चे की तरह जीवन से गुजरते हैं, अपनी क्षमताओं का अधिकतम इस्तेमाल करते हुए आगे बढ़ते हैं।
 
          अगर आप सभी कामों को अपने सिर पर लेकर चलेंगे, तो आपकी क्षमताओं का कभी भरपूर उपयोग नहीं हो सकेगा और आपको रक्तचाप, मधुमेह या अल्सर जैसे रोग हो जाएंगे। अगर आपके और आपके दिमाग के बीच, आपके और आपके शरीर के बीच, आपके और आपके आसपास की हर चीज के बीच एक खास दूरी है, तो वह आपको आजादी देती है कि आप जीवन के साथ जो भी करना चाहते हैं, वह कर सकते हैं, लेकिन जीवन आपको नहीं छुएगा।
 
          यह आपको किसी भी तरह से चोट नहीं पहुंचाएगा। तर्क से सोचेंगे तो आप इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं, कि अगर आप इस तरह के हो जाते हैं तो आपके लिए दुनिया में रहना मुश्किल हो जाएगा, लेकिन सच्चाई यह नहीं है। एक स्तर पर आप अनछुए हैं, लेकिन दूसरे स्तर पर आपकी सहभागिता इतनी ज्यादा है कि हर चीज आपका हिस्सा बन जाती है। आप खुद को हर किसी के जीवन में शामिल कर सकते हैं, जैसे वह आपका अपना ही जीवन हो। जब तकलीफ और उलझन का डर नहीं होता, तो आप खुद को पूरी तरह से जीवन में झोंक सकते हैं और हर चीज में बिना किसी हिचकिचाहट के शामिल हो सकते हैं।
 
 
10--जीवन प्रवाह के साथ तीव्रता भी है
 
          जीवन तीव्रता है। कभी आपने महसूस किया है कि आपके भीतर जो जीवन है, वह एक पल के लिए भी धीमा नहीं पड़ता। अगर कुछ धीमा पड़ता है, तो वह है आपका दिमाग और आपकी भावनाएं, जो कभी अच्छी हो जाती हैं तो कभी बिमार। अपनी श्वास को देखिए। क्या यह कभी धीमी पड़ती है? अगर कभी यह धीमी पड़ जाती है तो उसका मतलब मौत होता है।
 
          जब मैं आपको जीवंत बनने और अपने अंदर तीव्रता पैदा करने के तमाम तरीके बताता हूं, तो मैं बस यह कह रहा होता हूं कि आप जीवन की तरह बन जाएं। अभी आपने अपने उन विचार और भावों को बहुत ज्यादा महत्व दिया हुआ है, जो आपके भीतर चल रहे हैं। आपने अपने भीतर के जीवन को महत्व नहीं दिया है। जरा सोचिए, क्या जीवित रहने से ज्यादा महत्व आपके विचारों का है? महान दर्शनशास्त्री देस्कार्ते ने कहा, ‘मैं सोचता हूं इसलिए मैं हूं।’
 
          बहुत सारे लोगों का मानना है कि उनका अस्तित्व केवल इसलिए है क्योंकि वे सोच रहे हैं। नहीं, ऐसा नहीं है। चूंकि आपका अस्तित्व है, इसलिए आप सोच पा रहे हैं, नहीं तो आप सोच ही नहीं सकते। आपकी जीवंतता आपके विचारों और भावों से कहीं ज्यादा मौलिक और महत्वपूर्ण हैं। लेकिन होता यह है कि आप केवल वही सुनते हैं जो आपके विचार और भाव कह रहे हैं। अगर आप जीवन की प्रक्रिया के हिसाब से चलें, तो यह एक निरंतर प्रवाह है, चाहे आप सो रहे हों या जाग रहे हों।
 
          जब आप सो रहे होते हैं तो क्या जीवन आपके भीतर सुस्त पड़ जाता है? नहीं, यह आपका मन है जो कहता है, ‘मुझे यह पसंद है इसलिए मैं इसे पूरे जुनून के साथ करूंगा, मुझे वह पसंद नहीं है इसलिए उसे दिल से नहीं करूंगा।’ लेकिन आपकी जिंदगी इस तरह की नहीं है। यह हमेशा एक प्रवाह और तीव्रता में है। अगर आप लगातार इस तथ्य के प्रति जागरूक या सजग रहेंगे कि बाकी सभी चीजें गुजर जाने वाली चीजें हैं और मैं मूल रूप से जीवन हूं, तो आपके अंदर एक प्रवाह और तीव्रता बनी रहेगी।
 
          आपके अस्तित्व में होने का कोई और तरीका ही नहीं है, क्योंकि जीवन को कोई दूसरा तरीका मालूम ही नहीं है। जीवन हमेशा प्रवाह में है, यह तो बस भाव और विचार ही हैं जो भ्रम पैदा करते हैं। अब जरा अपनी भावनाओं और विचारों की प्रकृति को देखिए। जीवन में ऐसे तमाम मौके आए होंगे, जब इन विचारों और भावनाओं की वजह से आपने कई चीजों में भरोसा किया होगा।
 
          कुछ समय बाद आपको ऐसा लगने लगता है कि उस चीज पर भरोसा करना आपकी बेवकूफी थी। आज आपकी भावना आपसे कहती है कि यह शख्स बहुत अच्छा है। फिर कल आपकी भावना आपको बताती है कि यह सबसे खतरनाक व्यक्ति है – और दोनों ही बातें शत प्रतिशत सच मालूम पड़ती हैं। इस तरह आपकी भावना और विचार आपको धोखा देने के शानदार जरिए हैं। वे आपको किसी भी चीज के बारे में भरोसा दिला सकते हैं। अपनी खुद की मान्यताओं की ओर देखिए। उनमें से कोई भी किसी भी तरह की जांच का सामना नहीं कर पाएगी। अगर मैं आपसे तीन सवाल पूछूं, तो आपकी मान्यताएं पूरी तरह लडख़ड़ा जाएंगी। लेकिन जीवन में अलग-अलग मौकों पर आपका मन आपको अलग-अलग बातों पर भरोसा कराएगा और वह तब आपको बिल्कुल सच लगेगा।
 
          कैसे बनाए रखें तीव्रता? तीव्रता का अर्थ है जीवन के प्रवाह के साथ चलना। अगर आप यहां सिर्फ जीवन के रूप में, एक शुद्ध जीवन के रूप में मौजूद हैं, तो यह स्वाभाविक रूप से अपनी परम प्रकृति की ओर जाएगा। जीवन की प्रक्रिया अपने स्वाभाविक लक्ष्य की ओर बढ़ रही है। लेकिन आप एक विचार, भाव, पूर्वाग्रह, क्रोध, नफरत और ऐसी ही तमाम दूसरी चीजें बनकर एक बड़ी रुकावट पैदा कर रहे हैं।
 
          अगर आप बस जीवन के एक अंश के रूप में मौजूद हैं, तो स्वाभाविक रूप से आप अपनी परम प्रकृति तक पहुंच जाएंगे। यह कोई ऐसी चीज नहीं है जिसके लिए आपको जूझना या संघर्ष करना पड़े। मैं हमेशा कहता हूं – बस अपनी तीव्रता को बनाए रखें, बाकी चीजें अपने आप होंगी। आपको स्वर्ग का रास्ता ढूंढने की जरूरत नहीं है। बस अपनी तीव्रता को बनाए रखिए।
 
          ऐसा कोई नहीं है जो इस जीवन को इसकी परम प्रकृति की ओर ले जाए या जाने से रोक दे। हम इसमें देरी कर सकते हैं या हम बिना किसी बाधा के इसे तेजी से जाने दे सकते हैं। बस यही है जो हम कर सकते हैं। यह जितनी तेजी से हो सकती है, उतनी तेजी से इसे होने देने के लिए ही आध्यात्मिक प्रक्रियाएं होती हैं। मदद के लिए आपको देवताओं को बुलाने की जरूरत नहीं है, आपको जीवन होना होगा, विशुद्ध जीवन। अगर आप यहां एक विशुद्ध जीवन के रूप में जी सकते हैं, तो आप परम लक्ष्य तक स्वाभाविक रूप से पहुंच जाएंगे।
 
 
 11-ध्यान का प्रयोग कर्म के लिए शक्ति संचय करना है
 
          हिमालय जाने के नाम पर मैंने घर छोड़ा, किंतु सौभाग्य से गांधीजी के पास पहुंच गया। ध्यान आदि के लिए मेरी हिमालय जाने की इच्छा थी, किंतु गांधीजी के पास मुझे ध्यान का पर्याप्त लाभ मिला। जब हम सेवा करते हैं, तब हमें ध्यान का मौका मिलता है। जो सेवा की, वह परमेश्वर की सेवा हुई, ऐसा मानेंगे तो वह ध्यान-योग होगा। अगर हम यह मानेंगे कि मनुष्य की सेवा हुई, तो वह सिर्फ सेवा कार्य होगा। उस सेवा कार्य द्वारा परमेश्वर के साथ संपर्क हो रहा है, ऐसी भावना रही तो वह ध्यान होगा।
 
          'साधना कर्मयोगमय होनी चाहिए' का उपसिद्धांत बिल्कुल यूक्लिड (प्राचीन यूनान का एक प्रसिद्ध गणितज्ञ) की पद्धति से निष्पादित होता है। कर्म कहते ही दो दोष चिपकने को तत्पर हो जाते हैं- एक कर्मठता और दूसरा कर्म के पीछे भाग-दौड़। उल्टे 'योग' का नाम लेते ही कर्मशून्य ध्यान-साधना की ओर झुकाव होता है, जो काल्पनिक होती है। कर्माग्रही आत्मा की मूल निष्कर्म भूमिका खो बैठता है।
 
          कर्म छोड़कर काल्पनिक ध्यान के पीछे लगना पैर को तोड़कर रास्ता तय करने की कोशिश करने के बराबर है। कर्मयोगी इन दोनों दोषों से दूर रहता है। एक भाई ने कहा कि हम आध्यात्मिक मार्ग में आगे बढ़ना चाहते हैं, इसलिए ध्यान कर रहे हैं। हमने कहा कि ध्यान का अध्यात्म के साथ कोई खास संबंध नहीं है, ऐसा हम मानते हैं।
 
          कर्म एक शक्ति है, जो अच्छे, बुरे, स्वार्थ, परार्थ और परमार्थ के काम में आ सकता है। उसी तरह ध्यान भी एक शक्ति है, जो उन पांचों कामों में आ सकती है। कर्म स्वयं में ही कोई आध्यात्मिक शक्ति नहीं है, वैसे ही ध्यान भी स्वयमेव कोई आध्यात्मिक शक्ति नहीं है। कर्म करने के लिए मनुष्य को दस-पांच चीजों की तरफ खूब ध्यान देना पड़ता है। वह भी एक तरह का विविध ध्यान-योग ही है। चर्खा कातना हो तो इधर पहिए की तरफ ध्यान देना पड़ता है, तो उधर पूनी खींचने की तरफ। इस दोहरी प्रक्रिया के साथ-साथ सूत लपेटने की तरफ भी ध्यान देना पड़ता है। तभी सूत कतता है। बहनों को रसोई का काम करते समय कई बातों की तरफ ध्यान देना पड़ता है। इधर चावल पक रहा है तो उसे देखना, उधर आटा गूंथना, रोटी बेलना, सेंकना, तरकारी काटना, लकड़ी ठीक से जल रही है या नहीं, यह देखना। इसमें भी विविध ध्यान-योग है।
 
          ध्यान करते समय हम अनेक चीजों की तरफ से ध्यान हटाकर एक ही चीज की तरफ ध्यान देते हैं। जैसे अनेक चीजों की तरफ एक साथ ध्यान देना एक शक्ति है, वैसे ही एक ही चीज की तरफ ध्यान देना, यह भी एक शक्ति है। लोगों के मन में अक्सर एक गलतफहमी रही है कि कर्म करना सांसारिकों का काम है और ध्यान करना अध्यात्म की चीज है। इस गलत खयाल को मिटाना बहुत जरूरी है।
 
          अगर ध्यान का अध्यात्म से संबंध जोड़ा जाए, तो वह आध्यात्मिक है। हमने खेत में कुदाल चलाई, कुआं खोदने का काम किया, कताई, बुनाई, रसोई, सफाई आदि तरह-तरह के काम भी किए। बचपन में हमारे पिताजी ने हमसे रंगने का काम, चित्रकला, होजरी वगैरह के काम भी करवाए थे। वह सब करते समय हमारी यही भावना थी कि हम इस रूप में एक उपासना कर रहे हैं। इसमें हम अपने को मानवमात्र के साथ, कुदरत के साथ जोड़ते थे और इन सबका केंद्र स्थान, जो परमात्मा कहलाता है, उसके साथ भी जोड़ते थे।
 
          यह हमारा अनुभव है। ध्यान और कर्म परस्पर पूरक शक्तियां हैं। कर्म के लिए दस-बीस क्रियाएं करनी होती है, यानी उन सबका ध्यान करना पड़ता है। ध्यान में सब वस्तुओं को छोड़कर एक ही चीज का ध्यान किया जाता है। पचासों चीजों का ध्यान किया जाए, तो कर्म-शक्ति विकसित होती है और एक ही चीज पर एकाग्र होने से ध्यान-शक्ति विकसित होती है।
 
          जैसे कर्म के लिए अनेक वस्तुओं का खयाल करना पड़ता है, वैसे ही ध्यान के लिए एक ही वस्तु का करना पड़ता है। दोनों पूरक शक्तियां हैं। घड़ी में अनेक पुर्जे होते हैं, उनको अलग-अलग कर दिया जाए, तो आपकी कर्म-शक्ति सध गई। पुर्र्जो को तो बच्चे भी अलग-अलग कर देते हैं, लेकिन एकत्र कर सही जगह लगाना कठिन है। पुर्र्जो को अलग करना और एक करना, इन दो प्रक्रियाओं में से एक कर्म की और दूसरी ध्यान की प्रक्रिया है। जब दोनों प्रक्रियाएं सधती हैं, तब प्रज्ञा बनती है, जो निर्णयकारी होती है।
 
          व्यक्तिगत ध्यान की आवश्यकता है, लेकिन उससे भी अधिक महत्व की चीज है, हमारा सब काम ध्यानस्वरूप होना चाहिए। मिसाल के तौर पर बाबा (स्वयं के लिए) रोज घंटा, डेढ़ घंटा कभी-कभी ढाई घंटे तक सफाई करता है। सफाई में एक-एक तिनका, पत्ती, कचरा उठाता है और टोकरी में डालता है। परंतु बाबा को जो अनुभव आता है, वह सुंदर ध्यान का अनुभव आता है। माला लेकर जप करेगा तो जो अनुभव आएगा, उससे किसी प्रकार से कम या अलग अनुभव नहीं, बल्कि ऊंचा ही है। एक-एक तिनका उठाना और उसके साथ नाम-स्मरण करना। मैं कभी-कभी गिनता हूं।
 
          आज 1225 तिनके उठाए। उसमें मन काम नहीं करता। वह एक ध्यान-योग ही है। यह मानकर चलिए कि जो आदमी बाहर जरा भी कचरा सहन नहीं करता, वह अंदर का कचरा भी सहन नहीं करेगा। उसे अंदर का कचरा निकालने की जोरदार प्रेरणा मिलेगी। यह आध्यात्मिक परिणाम है। हर एक को ऐसी प्रेरणा मिलेगी ही, ऐसा नहीं कह सकते। लेकिन तन्मय होकर कोई यह काम करेगा, तो उसे ध्यान-योग सध सकता है।
 
          काम करते समय ध्यान होना ही चाहिए। तस्मात य इह मनुष्याणां महत्तां प्राप्नुवंति, ध्यानापादांशा इवैव ते भवंति। जो लोग दुनिया में कोई भी महत्ता प्राप्त करते हैं, वह उनको ध्यान के कारण प्राप्त होती है। कबीर ने वर्णन किया है- माला तो कर में फिरे यानी हाथ में माला घूम रही है, मुख में जबान घूम रही है और चित्त दुनिया में घूम रहा है। ध्यान के लिए आलंबन चाहिए। हमारा काम ही ध्यान के लिए आलंबन है।
 
 
12-बद्रीनाथ विष्णु की निवास भूमि है
 
          क्या आप बद्रीनाथ की कहानी जानते हैं? यह वो जगह है, जहां शिव और पार्वती रहते थे। यह उनका घर था। एक दिन नारायण यानी विष्णु के पास नारद गए और बोले, ‘आप मानवता के लिए एक खराब मिसाल हैं। आप हर समय शेषनाग के ऊपर लेटे रहते हैं। आपकी पत्नी लक्ष्मी हमेशा आपकी सेवा में लगी रहती हैं, और आपको लाड़ करती रहती हैं। इस ग्रह के अन्य प्राणियों के लिए आप अच्छी मिसाल नहीं बन पा रहे हैं। आपको सृष्टि के सभी जीवों के लिए कुछ अर्थपूर्ण कार्य करना चाहिए।’
 
         इस आलोचना से बचने और साथ ही अपने उत्थान के लिए (भगवान को भी ऐसा करना पड़ता है) विष्णु तप और साधना करने के लिए सही स्थान की तलाश में नीचे हिमालय तक आए। वहां उन्हें मिला बद्रीनाथ, एक अच्छा-सा, छोटा-सा घर, जहां सब कुछ वैसा ही था जैसा उन्होंने सोचा था। साधना के लिए सबसे आदर्श जगह लगी उन्हें यह। वह उस घर के अंदर गए। घुसते ही उन्हें पता चल गया कि यह तो शिव का निवास है और वह तो बड़े खतरनाक व्यक्ति हैं।
 
          अगर उन्हें गुस्सा आ गया तो वह आपका ही नहीं, खुद का भी गला काट सकते हैं। ऐसे में नारायण ने खुद को एक छोटे-से बच्चे के रूप में बदल लिया और घर के सामने बैठ गए। उस वक्त शिव और पार्वती बाहर कहीं टहलने गए थे। जब वे घर वापस लौटे तो उन्होंने देखा कि एक छोटा सा बच्चा जोर-जोर से रो रहा है। पार्वती को दया आ गई। उन्होंने बच्चे को उठाने की कोशिश की। शिव ने पार्वती को रोकते हुए कहा, ‘इस बच्चे को मत छूना।’
 
           पार्वती ने कहा, ‘कितने क्रूर हैं आप ! कैसी नासमझी की बात कर रहे हैं? मैं तो इस बच्चे को उठाने जा रही हूं। देखिए तो कैसे रो रहा है।’ शिव बोले, ‘जो तुम देख रही हो, उस पर भरोसा मत करो। मैं कह रहा हूं न, इस बच्चे को मत उठाओ।’ बच्चे के लिए पार्वती की स्त्रीसुलभ मनोभावना ने उन्हें शिव की बातों को नहीं मानने दिया। उन्होंने कहा, ‘आप कुछ भी कहें, मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता। मेरे अंदर की मां बच्चे को इस तरह रोते नहीं देख सकती। मैं तो इस बच्चे को जरूर उठाऊंगी।’ और यह कहकर उन्होंने बच्चे को उठाकर अपनी गोद में ले लिया। बच्चा पार्वती की गोद में आराम से था और शिव की तरफ बहुत ही खुश होकर देख रहा था।
 
          शिव इसका नतीजा जानते थे, लेकिन करें तो क्या करें? इसलिए उन्होंने कहा, ‘ठीक है, चलो देखते हैं क्या होता है।’ पार्वती ने बच्चे को खिला-पिला कर चुप किया और वहीं घर पर छोडक़र खुद शिव के साथ गर्म पानी से स्नान के लिए बाहर चली गईं। वहां पर गर्म पानी के कुंड हैं, उसी कुंड पर स्नान के लिए शिव-पार्वती चले गए। लौटकर आए तो देखा कि घर अंदर से बंद था।
 
         शिव तो जानते ही थे कि अब खेल शुरू हो गया है। पार्वती हैरान थीं कि आखिर दरवाजा किसने बंद किया? शिव बोले, ‘मैंने कहा था न, इस बच्चे को मत उठाना। तुम बच्चे को घर के अंदर लाईं और अब उसने अंदर से दरवाजा बंद कर लिया है।’ पार्वती ने कहा, ‘अब हम क्या करें?’ शिव के पास दो विकल्प थे। एक, जो भी उनके सामने है, उसे जलाकर भस्म कर दें और दूसरा, वे वहां से चले जाएं और कोई और रास्ता ढूंढ लें। उन्होंने कहा, ‘चलो, कहीं और चलते हैं क्योंकि यह तो तुम्हारा प्यारा बच्चा है इसलिए मैं इसे छू भी नहीं सकता। मैं अब कुछ नहीं कर सकता। चलो, कहीं और चलते हैं।’
 
          इस तरह शिव और पार्वती को अवैध तरीके से वहां से निष्कासित कर दिया गया। वे दूसरी जगह तलाश करने के लिए पैदल ही निकल पड़े। दरअसल, बद्रीनाथ और केदारनाथ के बीच, एक चोटी से दूसरी चोटी के बीच, सिर्फ दस किलोमीटर की दूरी है। आखिर में वह केदार में बस गए और इस तरह शिव ने अपना खुद का घर खो दिया। आप पूछ सकते हैं कि क्या वह इस बात को जानते थे।
 
          आप कई बातों को जानते हैं, लेकिन फिर भी आप उन बातों को अनदेखा कर उन्हें होने देते हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से भी बद्रीनाथ का खास महत्व है क्योंकि यहां के मंदिर को आदि शंकराचार्य ने प्रतिष्ठित किया था। यह अद्भुत जगह सचमुच दर्शनीय है।
 
 
13--हमें हीनता से बाहर कैसे निकलना है
 
          एक बड़े मनोविज्ञानी अल्फ्रेड एडलर ने पाया कि मनुष्य के जीवन की सारी उलझनों का मूल स्नोत हीनता की ग्रंथि में होता है। हीनता की ग्रंथि का अर्थ है कि जीवन में आप कहीं भी रहें, कैसे भी रहें, सदा मन में यह पीड़ा बनी रहती है कि कोई आपसे आगे है, कोई आपसे ज्यादा है, कोई आपसे ऊपर है। इसकी चोट भीतर के प्राणों में घाव बना देती है। फिर आप जीवन के आनंद को भोग नहीं सकते। हीनता की ग्रंथि (इनफीरियॉरिटी कॉम्प्लेक्स) अगर एक ही होती, तब भी ठीक था। तब शायद कोई उपाय किया जा सकता था।
 
          अल्फ्रेड एडलर ने तो हीनता की ग्रंथि शब्द का प्रयोग किया है, पर मैं तो 'हीनताओं की ग्रंथियां' कहना पसंद करूंगा। क्योंकि कोई हमसे ज्यादा सुंदर है। किसी का स्वर कोयल जैसा है और हमारा नहीं। कोई हमसे ज्यादा लंबा है, कोई हमसे ज्यादा स्वस्थ है। किसी के पास ज्यादा धन है, किसी के पास ज्यादा ज्ञान है, किसी के पास ज्यादा त्याग है। कोई संगीतज्ञ है, कोई चित्रकार है, कोई मूर्तिकार है।
 
           करोड़ों लोग हैं हमारे चारों तरफ और हर आदमी में कुछ न कुछ खूबी है। जिसके भीतर हीनता की ग्रंथि है, उसकी नजर सीधे दूसरों की खूबी पर जाती है, क्योंकि जाने-अनजाने वह हमेशा तौल रहा है कि मैं कहीं किसी से पीछे तो नहीं हूं। उसकी नजर झट से पकड़ लेती है कि कौन-सी बात है, जिसमें मैं पीछे हूं।
 
          जितने लोग हैं, उतनी ही हीनताओं का बोझ हमारे ऊपर पड़ जाता है। हीनताओं की एक भीड़ हमें चारों तरफ से दबा लेती है, हम उसी के भीतर तड़पते रहते हैं और बाहर निकलने का उपाय नहीं सूझता। एक बार एक आदमी ने मुझसे कहा, 'बड़ी मुश्किल में पड़ा हूं। दो साल पहले अपनी प्रेयसी के साथ समुद्र तट पर बैठा था। एक आदमी आया, उसने पैर से रेत मेरे चेहरे पर उछाल दी और मेरी प्रेयसी से हंसी-मजाक करने लगा।' मैंने पूछा, 'तुमने कुछ किया?' उसने कहा, 'क्या कर सकता था? मेरा वजन सौ पौंड का, उसका डेढ़ सौ पौंड।''फिर भी, तुमने कुछ तो किया होगा?' उसने कहा, 'मैंने स्त्रियों के बारे में सोचना ही छोड़ दिया, हनुमान अखाड़े में भर्ती हो गया। दंड-बैठक लगाने से दो साल में मेरा भी वजन डेढ़ सौ पौंड हो गया। फिर मैंने एक स्त्री खोजी। समुद्र तट पर गया। वहां बैठा भी नहीं था कि एक आदमी आया, उसने फिर लात मारी रेत में, मेरी आंखों में धूल भर दी और मेरी प्रेयसी से हंसी-मजाक करने लगा।' मैंने कहा, 'अब तो तुम कुछ कर सकते थे।'उसने कहा, 'क्या कर सकते थे? मैं डेढ़ सौ पौंड का, वह दो सौ पौंड का।' 'तो अब क्या करते हो?' उसने कहा, 'अब फिर हनुमान अखाड़े में व्यायाम करता हूं।
 
          लेकिन अब आशा छूट गई। क्योंकि दो सौ पौंड का हो जाऊंगा तो क्या भरोसा कि ढाई सौ पौंड का आदमी नहीं आएगा।' इस सोच से हम कभी भी हीनता के बराबर नहीं हो सकते। कितने लोग हैं, कितने विभिन्न रूप हैं, कितनी विभिन्न कुशलताएं हैं, योग्यताएं हैं, आप उनमें दब मरेंगे। यही वजह है कि अल्फ्रेड एडलर ने मनुष्य की सारी पीड़ाओं और चिंताओं का आधार दूसरे के साथ अपने को तौलने में पाया है। एडलर जैसे-जैसे गहराई में गया, उसे समझ में आया कि आदमी क्यों खुद को दूसरे से तौलता है? क्या जरूरत है? तुम तुम जैसे हो, दूसरा दूसरे जैसा है। यह अड़चन तुम उठाते क्यों हो? पौधे तो तुलना नहींकरते।
 
          छोटी-सी झाड़ी बड़े से बड़े वृक्ष के नीचे निश्चित बनी रहती है, कभी यह नहीं सोचती कि यह वृक्ष इतना बड़ा है। छोटा-सा पक्षी गीत गाता रहता है। बड़े से बड़ा पक्षी बैठा रहे, इससे गीत में बाधा नहीं आती। प्रकृति में तुलना है ही नहीं, सिर्फ मनुष्य के मन में तुलना है। तुलना क्यों है? एडलर ने कहा कि तुलना इसलिए है कि हम सभी यानी पूरी मनुष्यता एक गहन दौड़ से भरी है। उस दौड़ को एडलर कहता है: द विल टु पावर (शक्ति की आकांक्षा)। कैसे मैं ज्यादा शक्तिवान हो जाऊं, फिर चाहे वह धन हो, पद हो, प्रतिष्ठा हो, यश हो, कुशलता हो, कुछ भी हो, हर मामले में मैं शक्तिशाली हो जाऊं।
 
          यही मनुष्य की सारी दौड़ का आधार है। लेकिन जब हम शक्तिशाली होना चाहते हैं, तो पाते हैं कि हम शक्तिहीन हैं। क्योंकि हम तुलना करते हैं। जगह-जगह हमारी शक्ति की सीमा आ जाएगी। सिकंदर और नेपोलियन और हिटलर भी चुक जाते हैं। उनकी भी शक्ति की सीमा आ जाती है। एडलर ने प्रश्न तो खड़ा कर दिया, उलझन भी साफ कर दी, लेकिन मार्ग एडलर को भी नहीं सूझता कि इसके बाहर कैसे हुआ जाए। अभी पश्चिम का मनोविज्ञान समस्या को समझने में ही उलझा है, उसके बाहर जाने की तो बात ही बहुत दूर है। कैसे कोई बाहर जाए? एडलर का तो सुझाव इतना ही है कि तुम्हे अतिशय की आकांक्षा नहीं करनी चाहिए। जो उपलब्ध हो सकता है, उसका प्रयास करना चाहिए।
 
          लेकिन इससे कुछ हल न होगा। क्योंकि कहां अतिशय की सीमा है? कौन सी चीज सामान्य है? जो तुम्हारे लिए सामान्य है वह मेरे लिए सामान्य नहीं। जो मेरे लिए सामान्य है, तुम्हारे लिए अतिशय हो सकती है। एक आदमी एक घंटे में पंद्रह मील दौड़ सकता है; वह उसके लिए सामान्य है। तुम एक घंटे में पांच मील भी दौड़ गए तो मुसीबतमें पड़ोगे। कहां तय होगी यह बात कि क्या सामान्य है? औसत क्या है? लाओत्से के अनुसार, इसका एक ही रास्ता है। और वह रास्ता है घाटी के राज को जान लेना।
 
          जब वर्षा होती है पहाड़ खाली रह जाते हैं, लेकिन घाटियां लबालब भर जाती हैं। राज यह है कि घाटी पहले से ही खाली है। जो खाली है वह भर जाता है। पहाड़ पहले से ही भरे हैं, इसलिए वे खाली रह जाते हैं। तुम जब तक दूसरे से अपने को तौलोगे और दूसरे से आगे होना चाहोगे, तब तक तुम पाओगे कि तुम सदा पीछे हो। लाओत्से कहता है, जो जीवन की इस व्यर्थ दौड़ को देखकर समझ गया और जिसने कहा कि हम आगे होने के लिए दौड़ते नहीं, तो एक अनूठा चमत्कार घटित होता है। तब जो आगे होने की दौड़ में होते हैं, तुम्हारे बजाय वे हीन हो जाते हैं। जैसे ही तुम्हारी हीनता मिट जाती है, तुम श्रेष्ठ हो जाते हो।
 
          किसी से तौलोगे तो पीछे हो सकते हो। तौलते ही नहीं, तो हीनता का कैसे बोध होगा? हीनता का घाव भर जाएगा और श्रेष्ठता के फूल उस घाव की जगह प्रकट होना शुरू हो जाएंगे। यह कैसे हुआ कि महान नदी और समुद्र खड्डों के, घाटियों के स्वामी बन गए? झुकने और नीचे रहने में कुशल होने के कारण। वे झुकना जानते हैं। वस्तुत: जहां जितनी झुकने की क्षमता होगी, उतना ही वहां जीवन होगा। लाओत्से को बहुत प्रिय है झुकने की कला। वह कहता है, जब तुम झुके होगे तो कोई तुम्हें कैसे झुका सकता है।

No comments: