1-क्या भगवान हमारी परीक्षा लेते हैं?
मैं जानता हूं कि ‘भगवान आपकी परीक्षा लेता है’- आपने अपनी जिन्दगी में जो भी परीक्षाएं पास की हैं, अगर वही परीक्षाएं भगवान दें, तो वह असफल हो जाएंगे क्योंकि यह एक बिल्कुल अलग क्षेत्र है। जब आप गणित की परीक्षा देने जा रहे होते हैं तो बदकिस्मती से आप शिव को याद करते हैं। शिव तो अपनी उंगलियां भी नहीं गिन सकते।
उन्हें परेशान क्यों करना।
उसी तरह आपके गुरु भी एक अलग मकसद के लिए हैं। आध्यात्म के क्षेत्र में ऐसी परीक्षाओं का कोई मतलब नहीं है। अगर मुझे आपको कोई शारीरिक काम देना होगा, तो मैं आपकी परीक्षा लूंगा और आपके पास होने पर आपकी सराहना भी करूंगा। लेकिन आध्यात्मिक उद्देश्यों के लिए परीक्षा लेने की कोई जरूरत नहीं है। एक गुरु आपके कर्मों के हर बोझ को स्पष्ट रूप से देख सकता है। उसे परीक्षा लेने की कोई जरूरत ही नहीं है।
2--मानसिक रोग के लिए जिम्मेदार कौन ?
कुछ साल पहले एक सत्संग में सुना था कि मानव पीड़ा का सबसे बड़ कारण मानसिक रोग हैं। आखिर एक इंसान के अचानक मानसिक रूप से अस्वस्थ होने की वजह क्या होती है? क्या यह संभव है कि मानसिक रूप से बीमार व्यक्ति पूरी तरह से ठीक हो जाए और उसकी दवाई छूट जाए?
अगर आपने इसे देखा है तो आप समझ सकते हैं कि इससे बड़ी कोई पीड़ा नहीं है।
दरअसल मानव मस्तिष्क में अपार संभावनाए होती हैं। अगर ये संभावनाए आपके अनुकूल काम करती हैं तो आपका जीवन खुशियों से भर उठता है। लेकिन अगर ये आपके खिलाफ काम करने लगीं तो फिर आपको कोई नहीं बचा सकता। दरअसल, इस स्थिति में आपकी पीड़ा का कारण कहीं बाहर से नहीं आ रहा।
अगर आपकी पीड़ा का कारण कहीं बाहर से मसलन आपके पड़ोस, आपकी सास या आपके बॉस की तरफ से आ रहा होता तो आप उससे भाग सकते थे। वे कुछ करते, जिसके बदले में आप एक खास तरह से उस पर प्रतिक्रिया देते। लेकिन आप एक ऐसी जगह या हालात में है, जहां बिना किसी के कुछ किए भी अपने आप तकलीफें आ रही हैं तो यह अपने आप में एक मनोवैज्ञानिक स्थिति होगी।
सवाल है कि कोई व्यक्ति इस स्थिति से बाहर कैसे आ सकता है? यह इस बात पर निर्भर करता है कि इस बीमारी से नुकसान कितना हुआ है। कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो इससे बाहर आ जाते हैं, लेकिन वहीं कुछ लोगों में यह समस्या एक भौतिक रूप ले लेती है और मस्तिष्क का नुकसान कर देती है। इस स्थिति में दवाइयों के जरिए उसकी बाहर से मदद करनी पड़ती है। ऐसी स्थिति में लोग बड़े पैमाने पर सीडेटिव (ऐसी दवाइयां जो मानसिक शांति के लिए दी जाती हैं) का सेवन कर रहे हैं, लेकिन इसमें एक खतरा है कि इनका असर सिर्फ एक हिस्से में न होकर पूरे दिमाग में होता है।
आप जानें कि बहुत से लोग इसी कोशिश में बर्बाद हो गए।
कभी ये लोग हमारी-आपकी तरह बिलकुल सामान्य थे। लेकिन एक दिन सबकुछ खत्म हो गया। एक दिन अचानक कहीं कोई फ्यूज उड़ा ओर वे सड़क पर पर आ गए।
विवेक और अविवेक के बीच बहुत बारीक सा अंतर है। आपमें से बहुत से लोगों को इस रेखा को पार करने में बड़ा मजा आता होगा। मान लीजिए आप किसी पर गुस्से में फट पड़े और उसने आपसे डर कर वह काम कर दिया, जो आप चाहते थे। अब आप कहेंगे कि पता है, ‘मैं गुस्से में पागल होकर उस पर फट पड़ा और उसने डर कर तत्काल वह काम कर दिया, जो मैं चाहता था।’
आप गुस्से में पागल हुए और वापस सामान्य स्थिति में आ गए, आपके कहने से लगता है कि आपने इस स्थिति का आनंद उठाया। मान लीजिए आप गुस्से में पागल हो जाते और वापस सामान्य स्थिति में आ ही ना पाते तो? फिर तो यह अलग स्थिति होती।
आप गुस्से, नफरत, ईर्ष्या, शराब या मादक चीजों की लत के चलते इस रेखा को पार करते रहते हैं। आप समझदारी की रेखा को लांघते रहते हैं, साथ ही आप इस दौरान होने वाले पागलपन का भी मजा लेते रहते हैं और फिर इस स्थति से बाहर आ जाते हैं। मैं चाहता हूं कि आप जानें कि बहुत से लोग इसी कोशिश में बर्बाद हो गए। कभी ये लोग हमारी-आपकी तरह बिलकुल सामान्य थे। लेकिन एक दिन सबकुछ खत्म हो गया। एक दिन अचानक कहीं कोई फ्यूज उड़ा ओर वे सड़कर पर आ गए।
इसी तरह से हमारे शरीर में बीमारी आती है। हो सकता है कि आज आप पूरी तरह से ठीक हों और कल सुबह आपका डॉक्टर आपसे कुछ और कहे। इस तरह की चीजें लोगों के साथ हर रोज हो रही है। यही चीज इंसान के दिमाग के साथ भी हो सकती है। अगर यह चीज आपके शरीर के साथ होती है यानी आप शारीरिक रूप से बीमार पड़ते हैं तो कम से कम आपको अपने आसपास के सब लोगों से हमदर्दी मिलती है, लेकिन अगर यही दिक्कत आपके दिमाग के साथ हो जाए तो आपको हमदर्दी मिलने की संभावना ना के बराबर होती है। तब कोई भी आपके आसपास नहीं रहना चाहता, क्योंकि मानसकि रूप से बीमार व्यक्ति को झेलना बहुत मुश्किल है।
ऐसे में आपको भी पता नहीं होता कि कब वे बीमार हैं और कब वे बीमारी का नाटक कर रहे हैं, आप इसका फैसला नहीं कर पाते।
जब वे बीमारी का नाटक कर रहे होते हैं तो आप उनके प्रति कठोर रुख अपनाते हुए उन पर काबू पाना चाहते हैं, लेकिन जब वे सच में बीमार होते हैं तो आपको उनके प्रति करुणा रखनी चाहिए। यह कोई आसान काम नहीं है, बिल्कुल दो छोरों पर बंधी रस्सी पर चलने जितना मुश्किल है। यह पीड़ित व्यक्ति के लिए कष्टदायक तो है ही, लेकिन उससे ज्यादा कष्टदायक उसके आसपास के लोगों के लिए होता है।
आज हमें ऐसा सामाजिक ढांचा बनाने की जरूरत है, जहां मानसिक रोगों की संभावना बेहद कम हो।
अगर मैं लगातार भारतीय संस्कृति पर जोर देने के पीछे पड़ा रहता हूं तो इसके पीछे वजह है कि आज से 200-300 साल पहले इस देश में नाममात्र के ही मानसिक रोगी हुआ करते थे।
आज ऐसा सामाजिक ढांचा बनाने की जरूरत है, जहां मानसिक रोगों की संभावना बेहद कम हो। अगर मैं लगातार भारतीय संस्कृति पर जोर देने के पीछे पड़ा रहता हूं तो इसके पीछे वजह है कि आज से 200-300 साल पहले इस देश में नाममात्र के ही मानसिक रोगी हुआ करते थे।
इनकी संख्या कम होने की सीधी सी वजह एक खास तरह के सामाजिक ढांचे का होना भी था। लेकिन धीरे-धीरे हम अनजाने में इस ढांचे को खत्म करने में लगे हैं।
आज हालत ये है कि गांवों में भी आपको मनोवैज्ञानिक रूप से पीड़ित लोग मिल जाएंगे, जबकि अतीत में अपने यहां ऐसा नहीं था। अगर अतीत में कहीं कुछ हुआ भी तो उसकी संख्या लगभग ना के बराबर रही। लेकिन अब यह संख्या लगातार बढ़ रही है। आप तथाकथित धनी या समृद्ध समाज में साफ तौर पर देख सकते हैं कि वहां इनकी तादाद अपेक्षाकृत काफी अधिक है। इसकी वजह है कि जब तक इंसान खास चीजों का अतिक्रमण नही करता, वह एक सामाजिक प्राणी के तौर पर रहता है।
या तो हमारी कोशिश करने की होनी चाहिए या फिर हमें एक ऐसे समाज का निर्माण करना चाहिए, जो उसमें रहने वालों पर अत्यधिक बोझ डालने की बजाय एक सहयोगी माहौल मुहैया करा सके। फिलहाल हम जो सामाजिक संरचना बना रहे हैं, वह बहुत ज्यादा अपेक्षा रखने वाली और बोझ डालने वाली है।
आज यह शहरी इलाकों में ज्यादा हो रहा है, लेकिन इससे भी ज्यादा इसको पश्चिमी देशों में देखा जा सकता है।
अगर आप अमेरकिा में रहना चाहें और वहां अगर आप 30 दिन का उपवास भी करते हैं तो भी आपके बिल में 3000 डॉलर जुड़ जाएंगे। दरअसल, वह समाज बना ही इस तरह का है, जहां वह व्यक्ति विशेष से काफी तरह की अपेक्षाएं रहती हैं, वहां व्यक्ति काम से छुट्टी लेकर यूं ही नहीं बैठ सकता। हर व्यक्ति लगातार काम करने की क्षमता नहीं रखता। बहुत से ऐसे लोग हैं, जिन्हें कुछ खास चीजों से दूर हटने की जरूरत होती है।
अगर उनके जीवन में पर्याप्त साधना हो तो आप उन्हें 364 दिन चौबीसों घंटे सक्रिय रख सकते हैं। दरअसल, जीवन बहुत छोटा है और हम में से कोई भी व्यक्ति खाली नहीं बैठना चाहता। लेकिन अगर लोग साधना नहीं कर रहे तोयह बहुत जरूरी है कि लोगों के पास काम के बीच कुछ वक्त और मौका खाली हो।
हमारी मौजूदा शिक्षा व्यवस्था भी बहुत ज्यादा अपेक्षाएं रखने वाली और बोझ डालने वाली है।
हर कोई इसके लायक तैयार नहीं होता।
हमने ऐसे समाज की रचना की है, जहां रहने के लिए लगातार चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, जहां हर वक्त एक प्रतिस्पर्द्धा चलती रहती है। इंसान के शरीर के भीतर ऐसी प्रतिक्रिया होती है जिसे ‘फाइट ओर फ्लाइट’ कहते हैं(इसमें भयानक तनाव या उत्तेजना के प्रति शरीर एक खास तरह के हॉरमोन – एड्रेनैलिन, स्रावित कर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करता है)। हालंकि अनजाने में लोग अकसर कहते मिल जाएंगे कि ‘मुझे एड्रेनैलिन अच्छा लगता है।’
आप समझ नहीं रहे कि एड्रेनैलिन का असर क्या होता है। एंडरलीन हमारे शरीर में एक इमरजेंसी-सिस्टम है। मान लीजिए अचानक आपके सामने एक शेर आ जाता है, जिसे देखकर आपके शरीर में एड्रेनैलिन हॉरमोन स्रावित होने लगता है और आपको वहां से भागने में मदद करता है। लेकिन अगर आपके शरीर में सहज रूप से यूं ही एड्रेनैलिन प्रवाहित होता रहे तो आप सड़क पर चलते-चलते मर जांएगे।
आपको उस स्थिति में हर वक्त नहीं रहना चाहिए। अगर आप मरेंगे नहीं तो बुरी तरह से टूट जाएंगे।
किसी के लिए यह आसान सी बात होती है, जबकि कोई दूसरा एक साधारण से वाक्य को पच्चीस बार पढ़ने के बाद भी कुछ समझ नहीं पाता। लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि वह कुछ और कर पाने में सक्षम नहीं है। लेकिन हम उसे कुछ और करने की इजाजत ही नहीं देते। ‘उसे तो पहले यही करना होगा।’
आज समाज में ऐसे बहुत से ढांचे हैं जिन्हें क्रूर कहा जा सकता है, जो इंसान की भलाई और कल्याण के हिसाब से बिल्कुल उचित नहीं हैं। दरअसल, हम तो बस उन बड़ी मशीनों के पुर्जे बनाने की कोशिश कर रहे है, जो हमने बनाई हैं। हम चाहते हैं कि ये मशीने बनी रहें, सुचारु रूप से चलती रहें, लेकिन इस कोशिश में एक इंसान के साथ क्या हो रहा है, हम इसकी बिल्कुल परवाह नहीं करते। दरअसल यह मशीन एक छलावा है, जो कभी भी भरभरा कर गिर सकती है। अगर आप उस तरह की सामग्री से नहीं बने हैं कि इस बड़ी मशीन का पुर्जा बन सकें तो आप कई तरीके से छिन्न भिन्न हो सकते हैं।
हर इंसान को फलने फूलने के लिए एक खास तरह के शारीरिक, भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक निजता के साथ-साथ एक खास तरह के माहौल की जरूरत होती है। इंसान के जीवन में शुरू से ही यह माहौल गायब है। यहां तक कि एक नवजात शिशु को भी यह माहौल नहीं मिल पा रहा। एक समय ऐसा था जब मां बच्चे को अपनी छाती से लगाती थी तो फिर उसे वक्त या किसी की भी चिंता नहीं रहती थी।
आज मां बच्चे को दूध पिलाते समय घड़ी देखती रहती है कि बच्चा जल्दी से दूध क्यों नही पी रहा, उसे काम पर भी जाना है। यहां तक कि बच्चे के जन्म के एक हफ्ते बाद ही वह काम पर वापस चली जाती हैं। मैं यह नहीं कह रहा कि महिलाओं को काम नहीं करना चाहिए, बल्कि मैं यह कह रहा हूं कि इंसान को अच्छी तरह से जीना चाहिए। अगर इंसान को अच्छी तरह रहर्ना और जीना है तो उसे कुछ खास तरह की भीतरी सच्चाइयों को भी समझना होगा। हर बच्चे को ‘आगे चलकर मेरा क्या होगा’ जैसी किसी सोच या चिंता के बिना बड़ा होना चाहिए। लेकिन हो यह रहा है कि स्कूल के पहले दिन से ही बच्चे को अपने पड़ोस के बच्चे से दो नंबर कम आने का तनाव होने लग रहा है। यह सब बेकार की बात है।
यह भाव इंसान को खत्म कर देगा। जबकि हम सोचते हैं कि यही इंसान का प्रदर्शन या उपलब्धि, उसका कल्याण और उसकी कुशलता है, जो पूरी तरह से गलत है। अगर आपने इंसान को ही खत्म कर दिया तो फिर आपके द्वारा बनाए गए ढांचे का औचित्य ही क्या बचता है?
एक समय ऐसा था जब मां बच्चे को अपनी छाती से लगाती थी तो फिर उसे वक्त या किसी की भी चिंता नहीं रहती थी।
आज मां बच्चे को दूध पिलाते समय घड़ी देखती रहती है कि बच्चा जल्दी से दूध क्यों नही पी रहा, उसे काम पर भी जाना है।
ऐसे कुछ लोग हैं, जिनमें शारीरिक दिक्कतें आती हैं, जो स्वाभाविक रूप से पैदा हुई हैं। लेकिन इनकी संख्या बहुत कम है। हम लोग तो बाकी बचे हुए लोगों को तोड़ने के लिए जिम्मेदार हैं। सवाल ये है कि जो लोग इस स्थिति में पहुंच चुके हैं, उनका वहां से निकलने का क्या रास्ता है? अगर वह एक खास सीमा पार कर चुके हैं तो उनके लिए दवा जरूरी हो जाती है। अ
गर इस स्थिति में कुछ समय बाद हम दवा के साथ समानांतर रूप से साधना जैसी चीजों का सहारा भी लेते हैं तो इसके नतीजे बेहतर निकल सकते हैं। उस स्थिति में दवाओं के उपर निर्भरता कम होने की संभावना रहती है।
सबसे बड़ी बात यह कि हर व्यक्ति शारीरिक और मानसिक स्तर पर एक जैसा नहीं होता। मानसिक रूस से बीमार लोगों की देखभाल करने का कोई खास तरीका नहीं होता, यह काम अपने आप मे काफी मुश्किल और जटिल है। अगर आप ऐसे लोगों की देखभाल के लिए एक स्वस्थ माहौल तैयार करना चाहते हैं तो इसके लिए बहुत बड़े बुनियादी ढांचे की जरूरत होगी, जिसमें भौतिक ढांचे से लेकर इंसानी ढांचा तक सभी शामिल है।
अफसोस कि मुझे नहीं लगता कि कोई भी व्यक्ति इस दिशा में इतनी सामग्री और इतने इंसानों को लगाने के लिए इच्छुक है।
ऐसे लोगों को इस स्थिति से बाहर लाने के लिए बहुत ज्यादा विशेषज्ञता, देखभाल के साथ एक खास तरह से उसमे लगने की जरूरत होती है। हो सकता है कि इसके बाद भी इन्हें पूरी तरह से बाहर नहीं लाया जा सके। आपको उन्हें अपनी सीमाओं के भीतर ही सहजता और सुविधा का अहसास कराना होगा, ताकि आप उन्हें उनकी पीड़ाओं से कुछ राहत दिला सकें। लेकिन इसके लिए अत्यधिक समर्पित देखभाल के साथ-साथ एक खास तरह की विशेषज्ञता और परानुभूति की जरूरत होती है।
3-जोश और जड़ता का मिश्रण है जीवन
जोश
जोश उन परिंदों का
जिन्हें तलाश है मधुरस की
जोश उस शरारती बच्चे का
जो नहीं गया स्कूल
जोश उस प्रेमी का
जो जल रहा है विरह की अग्नि में।
जीवन है अच्छाई और बुराई से परे
जीने के लिए, जीवन को समझने के लिए
बस उत्साह है
जो जीवन की गहराई को छू सकता है
जो भरा है जीवन के जोश से
है वह मृत्यु की जड़ता से परे
वह अमर है, जिसने जान ली
बेमकसद जोश, जिंदगी का ।
जड़ता
जिनमें तत्परता नहीं है
उनकी जड़ता
जिनमें उत्साह नहीं है
उनकी जड़ता
जो नहीं रखते खयाल किसी का
जो नहीं करते परवाह किसी की
उनकी जड़ता
जो नहीं करते प्रेम किसी से
उनकी जड़ता
खो देगी
उत्साह जीवन का
जीवन तो है सैलाब
सृष्टि के आनंदमय स्रोत का
जड़ता निमंत्रण है मौत को
जड़ता एक प्रक्रिया है
जड़ बन जाने की
जड़ता नजरिये व व्यवहार की
लाती है किस्तों में
मृत्यु की कठोरता
जीवन और मृत्यु दोनों एक ही ऊर्जा हैं, अंतर है तो बस उत्साह और जड़ता का।
जीवन का उत्साह बहुत सी वजहों से बाधित हो सकता है। अपने खुद के कार्यकलाप और चीज़ों को ग्रहण करने का तरीका ही अपने कर्म तैयार करने की बुनियादी वजह है। हर व्यक्ति जोश और जड़ता का एक मिश्रण है अर्थात जीवन और मृत्यु का एक मेल है। हमारे जीवन का हर पहलू – हम क्या खाते हैं से लेकर हम कैसे सांस लेते हैं, कैसे बैठते हैं या कैसे खड़े होते हैं, हर पहलू, या तो हमारी जड़ता बढ़ाएगा या हमारा उत्साह।
4--जिंदगी एक सच होने वाला सपना है
हमारे मन और अस्तित्व के कुछ ऐसे पहलू हैं, जिन्हें हम सपना कहते हैं। आपने लोगों को अकसर यह कहते तो सुना ही होगा-हां, मेरा एक सपना है। इस दुनिया में अपने सपनों को साकार करने का सचेतन तरीका है, कि आप पहले सपना देखते हैं, फिर उस सपने को लगातार इतना मजबूत बनाते हैं कि वो हकीकत में बदल जाए। अपने सपनों को हकीकत में बदलने की काबिलियत अधिकतर लोगों में नहीं होती।
दरअसल, उनके सपनों में कोई एकरूपता नहीं होती। वे हर दिन एक नई चीज का सपना सजाते हैं। दरअसल उनकी चेतना पूरी तरह से अस्त-व्यस्त और बिखरी हुई होती है।
हमारे नब्बे प्रतिशत सपने तो बस मन में इकट्ठी हुई इच्छाओं को रिलीज करने के एक साधन हैं।
अगर ऐसा न हो तो ये हमारे अंदर एक कुंठा पैदा कर देंगी।
सपने को साकार करने का एक पहलू यह है कि आपकी चेतना और जीवन उर्जा एक निश्चित दिशा में हों, जिससे वे आपके लिए हकीकत का रूप ले सकें। एक तरह से हम जो भी सृजन करते हैं, वह हमारे सपनों का ही साकार रूप होता है। पर अब हम ऐसे सपनों के बारे में बात करते हैं जिनके बारे में आपने कभी सोचा नहीं, पर उनको अपने सपनों में देखते हैं।
5-खुद पैदा करें अपनी हंसी-खुशी
खुशी के बारे में आपका कोई विचार नहीं होना चाहिए। आपको बस खुश रहना चाहिए। चार्ल्स डार्विन ने बताया था कि आप बंदर थे। धीरे-धीरे आपकी पूंछ गायब हो गई और आप इंसान बन गए। पूंछ तो गायब हो गई, लेकिन क्या आपकी बंदर वाली आदतें भी खत्म हुई हैं? आपके और चिम्पैंजी के डीएनए में बस 1.23% का ही फर्क है। जाहिर है, बंदरों के गुण अब भी इंसानों में मौजूद हैं।
बहुत पुरानी बात है।
एक आदमी था, जिसका नाम था टोपीवाला। वह टोपी बेचता था। गर्मियों की दोपहर थी। काम करते-करते वह थक गया, और एक पेड़ के नीचे बैठ गया। उसने अपना खाना खोला और खाने लगा। खाना खाकर उसकी आंख लग गई। आंख खुली तो उसने देखा कि उसकी सारी टोपियां गायब हैं।
जब आपको कुछ समझ नही आता कि क्या किया जाए – तो आप क्या करते हैं? ऊपर देखते हैं, ऊपरवाले की याद आती है आपको। खैर, इस टोपीवाले ने भी ऊपर देखा। वह क्या देखता है – कुछ बंदर उसकी टोपियां पहने बैठे हैं। वह उन बंदरों पर चिल्लाया। बंदर भी उस पर चिल्लाए। उसने ईंट के टुकड़े बंदरों पर मारे। बंदरों ने भी इन टुकड़ों को उसकी तरफ वापस फेंका। परेशान होकर टोपीवाले ने अपने टोपी उतारी और जमीन पर फेंक दी। बस फिर क्या था, बंदरों ने भी अपनी-अपनी टोपियां उतारकर जमीन पर फेंक दीं।
दूसरों को देखकर हमें लगता है, कि उनके जैसे काम करके हम खुश हो सकते हैं।
उस घटना के कई सालों बाद ऐसी ही दूसरी घटना घटी। ऐसे ही एक और टोपीवाला टोपियां बेचने जा रहा था। गर्मी से परेशान होकर वह भी पेड़ के नीचे बैठ गया। इस टोपीवाले के साथ भी कुछ वैसा ही हुआ जैसा सालों पहले उस टोपीवाले के साथ हुआ था। इसकी भी टोपियां बंदर आ कर ले गए। उसने अपने पूर्वजों से वह कहानी सुन रखी थी, इसलिए वह उठा और उसने बंदरों को मुंह चिढ़ाना शुरू कर दिया। बंदरों ने भी उसे बदले में मुंह चिढ़ा दिया। टोपीवाले ने उन बंदरों के साथ खूब मजाक किया। अंत में उसने अपनी टोपी उतारी और जमीन पर फेंकदी। इतने में एक बड़ा बंदर नीचे उतरकर आया, टोपी उठाई और टोपीवाले के पास पहुंचा।
टोपीवाले के गाल पर एक जोरदार तमाचा जड़कर बंदर बोला, ‘मूर्ख, तुझे क्या लगता है, कि बस तेरे ही दादा थे।’
दरअसल, हम दूसरों को देखकर अपनी खुशी तय करने लगते हैं। यूं ही किसी राह चलते शख्स को देखकर हमें लगता है, कि यह वाकई खुश है। बस हम उसी की तरह हो जाना चाहते हैं, और फिर नतीजा होता है – निराशा। कुछ समय बाद हमें लगता है, कि साइकल पर चलने वाला शख्स खुश है।
हम साइकल पर चलना शुरू कर देते हैं और कुछ दिन बाद ही निराश होने लगते हैं। फिर हमें लगता है कि जो लोग कार में चल रहे हैं, असल में वे खुश हैं और कार में चलना ही असल मायनों में खुशी है। हो क्या रहा है? दूसरों को देखकर हमें लगता है, कि उनके जैसे काम करके हम खुश हो सकते हैं।
इसमें कोई दो राय नहीं कि खुशी के लिए कुछ बाहरी तत्व प्रेरक का काम करते हैं।
लेकिन सच यही है कि खुशी हमेशा हमारे अंदर से ही आती है। ऐसा नहीं होता कि बाहर कहीं से किसी ने आप पर खुशी की बारिश कर दी। कल्पना कीजिए, 1950 में आपने अपने लिए एक कार खरीदी। कार के साथ आपको दो नौकर भी रखने पड़े, क्योंकि कार धक्का लगाने से स्टार्ट होती थी। आज सब कुछ सेल्फ स्टार्ट होता है। अब आप ही बताइए कि आप अपनी खुशी, अपनी सेहत, शांति और सुख संपन्नता को सेल्फ स्टार्ट करना चाहते हैं, या पुश स्टार्ट?
अगर आपकी खुशी अपने इर्द-गिर्द मौजूद लोगों के हाथों में है तो इस बात की संभावना बेहद कम है कि आप खुश रह सकें।
अगर यह सेल्फ स्टार्ट है तो आप यह नहीं पूछेंगे कि खुशी क्या है, क्योंकि आप जानते हैं कि आपके भीतर खुश रहने की क्षमता है। वैसे मेरे काम का एक महत्वपूर्ण हिस्सा यही है – हर किसी को सेल्फ स्टार्ट पर रखना। इसका अर्थ है लोगों के लिए खुश होने की तकनीक को बेहतर बनाते जाना। क्या आपको कोई ऐसा शख्स मिला है जिसके बारे में आप कह सकें कि वह बिल्कुल वैसा ही है जैसा आप चाहते हैं? आपमें से कई छात्र इतने रोमांटिक होंगे कि सोचते होंगे, कि किसी न किसी दिन उन्हें कोई न कोई ऐसा अवश्य मिलेगा, जो सौ फीसदी बिल्कुल ऐसा होगा जैसा कि वे चाहते हैं।
अगर वह 51 फीसदी भी आपके मुताबिक है, तो यह बहुत बढ़िया है। लेकिन कई लोग महज 10 फीसदी ही होंगे। ऐसे में संघर्ष करना होगा। दरअसल, दुनिया में ऐसा कोई भी शख्स नहीं है, जो बिल्कुल आपके मुताबिक चले। तो अगर आपकी खुशी अपने इर्द-गिर्द मौजूद लोगों के हाथों में है तो इस बात की संभावना बेहद कम है कि आप खुश रह सकें।
एक बार मैं प्रिंसटन यूनिवर्सिटी में बोल रहा था।
यूनिवर्सिटी एक ऐसी जगह होती है जहां लोगों के चेहरे बेहद गंभीर होते हैं। हो सकता है, यह उनके ज्ञान का बोझ हो, जो उनके चेहरों को बोझिल बना देता है। वहां हर कोई बड़ी गंभीरता के साथ बैठा था। इन लोगों के बीच दो युवा चेहरे ऐसे भी थे, जिनके चेहरे पर मुस्कराहट थी। मैंने कहा, ’30 साल से ज्यादा उम्र के इन लोगों को क्या हुआ।’ एक महिला खड़ी हुई और बोली, ‘ये सभी शादी शुदा हैं।’
ज्यादातर लोगों के साथ ऐसा ही होता है। जैसे-जैसे उनकी उम्र बढ़ती जाती है, उनके चेहरे से रौनक गायब होने लगती है। किसी सड़क के किनारे खड़े हो जाइए, और वहां से निकलने वाले लोगों को गौर से देखिए और ढूंढिए कि आपको कितने चेहरों पर आनंद दिखाई देता है। अगर आपको कोई आनंदित चेहरा दिखेगा भी तो आमतौर पर वह युवा होगा। वैसे आजकल युवा भी गंभीर और तनाव से भरे दिखाई देते हैं।
जैसे-जैसे उनकी उम्र बढ़ती जाती है, वे और गंभीर होते जाते हैं। ऐसा लगता है जैसे कब्र की तैयारी करने की उन्हें बड़ी जल्दी है। कब्र की तैयारी किसी और को करनी चाहिए, आपको नहीं। अभी मुझसे किसी ने पूछा, ‘सद्गुरु आप कैसे हैं?’ मैंने कहा, ‘मैंने तय किया है कि – या तो मैं बिल्कुल ठीक ठाक रहूंगा या फिर नहीं रहूंगा।’
हर इंसान ऐसा कर पाने में सक्षम है, बशर्ते उसने अपने अंदर सेल्फ स्टार्ट बटन का पता लगा लिया हो।
खुशी कोई ऐसी चीज नहीं है, जो किसी खास काम को करने से पैदा होती हो। इसे देखने के तमाम तरीके हैं। सबसे आसान तरीका है रासायनिक प्रक्रिया यानी केमिस्ट्री को समझना। इंसान के हर अनुभव के पीछे एक रासायनिक आधार होता है। अगर आप शांति चाहते हैं तो एक निश्चित रासायनिक प्रक्रिया होती है।
अगर आप आनंदित रहना चाहते हैं तो एक अलग तरह की रासायनिक प्रक्रिया होगी। यह पूरा मामला विज्ञान और तकनीक का है, जिसे आप अंदरूनी तकनीक भी कह सकते हैं। इसी तकनीक की मदद से आप अपने भीतर सही रासायनिक प्रक्रिया पैदा कर सकते हैं। परम आनंद की रासायनिक प्रक्रिया आपके जीवन के हर पल को परम आनंद से भर देगी।
अच्छी बात यह है कि हर इंसान ऐसा कर पाने में सक्षम है, बशर्ते उसने अपने अंदर सेल्फ स्टार्ट बटन का पता लगा लिया हो। अगर ऐसा नहीं है तो हर वक्त किसी न किसी को आपको धक्का मार कर स्टार्ट करते रहना पड़ेगा। जीवन में चीजें इस तरह नहीं चलतीं कि, वे हमेशा आपके लिए लाभकारी ही हों। अगर आप चाहते हैं कि जीवन हमेशा आपके अनुसार चलता रहे तो यह तभी हो सकता है जब आप दुनिया में कुछ भी न करें।
अगर आप चुनौतीपूर्ण स्थितियों का सामना कर रहे हैं, तो ऐसी तमाम चीजें होंगी जो आप नहीं चाहते। और अगर ये परिस्थितियां आपको कष्टों में डाल रही हैं, तो जाहिर है – धीरे धीरे आप अपने जीवन के दिन कम कर रहे हैं। कष्टों के डर ने पूरी मानवता को जकड़ लिया है। अब वक्त आ गया है कि इंसान अपने भीतर एक ऐसी रासायनिक प्रक्रिया पैदा करे या एक ऐसा सॉफ्टवेयर प्रोग्राम तैयार करे कि कष्टों के प्रति उसका डर खत्म हो जाए। कष्टों का डर ख़त्म होने से आनंद में जीना ही उसका स्वभाव बन जाएगा और तभी इंसान अपनी पूर्ण क्षमता को जानने के लिए स्वयं को दांव पर लगा सकेगा।
6-विभूति: कैसे और कहां लगायें?
विभूति क्या है, उसे क्यों और कैसे इस्तेमाल करना चाहिए और हमें उससे क्या -क्या फायदे हैं।
विभूति या पवित्र भस्म के इस्तेमाल के कई पहलू हैं। पहली बात, वह ऊर्जा को किसी को देने या किसी तक पहुंचाने का एक बढ़िया माध्यम है। इसमें ‘ऊर्जा-शरीर’ को निर्देशित और नियंत्रित करने की क्षमता है।
इसके अलावा, शरीर पर उसे लगाने का एक सांकेतिक महत्व भी है। वह लगातार हमें जीवन के नश्वरता की याद दिलाता रहता है, मानो आप हर समय अपने शरीर पर नश्वरता ओढ़े हुए हों।
आम तौर पर योगी श्मशान भूमि से उठाई गई राख का इस्तेमाल करते हैं। अगर इस भस्म का इस्तेमाल नहीं हो सकता, तो अगला विकल्प गाय का गोबर होता है।
इसमें कुछ दूसरे पदार्थ भी इस्तेमाल किए जाते हैं लेकिन मूल सामग्री गाय का गोबर होती है। अगर यह भस्म भी इस्तेमाल नहीं की जा सकती, तो चावल की भूसी से भस्म तैयार की जाती है। यह इस बात का संकेत है कि शरीर मूल पदार्थ नहीं है, यह बस भूसी या बाहरी परत है।
पवित्र भस्म का इस्तेमाल क्यों करते हैं?
सुबह घर से निकलने से पहले, आप कुछ खास जगहों पर विभूति लगाते हैं ताकि आप अपने आस-पास मौजूद ईश्वरीय तत्व को ग्रहण कर सकें, शैतानी तत्व को नहीं।
बदकिस्मती से कई जगहों पर यह एक शर्मनाक कारोबार बन गया है, जहां विभूति के नाम पर सफेद पत्थर का पाउडर दे दिया जाता है।
लेकिन अगर विभूति को सही तरीके से तैयार किया जाए और आपको पता हो कि उसे कहां और कैसे लगाना है – तो विभूति आपको और ग्रहणशील बनाती है। आप उसे अपने शरीर पर जहां भी लगाते हैं, वह अंग अधिक संवेदनशील हो जाता है और परम प्रकृति की ओर अग्रसर होता है। इसलिए, सुबह घर से निकलने से पहले, आप कुछ खास जगहों पर विभूति लगाते हैं ताकि आप अपने आस-पास मौजूद ईश्वरीय तत्व को ग्रहण कर सकें, शैतानी तत्व को नहीं।
उस समय आपका जो भी पहलू ग्रहणशील होगा, उसके आधार पर आप अलग-अलग रूपों में और अपने विभिन्न आयामों से जीवन को ग्रहण कर सकते हैं। आपने ध्यान दिया होगा – कभी आप किसी चीज को देखकर एक खास तरीके से उसका अनुभव करते हैं, फिर किसी और समय आप उसी चीज का अनुभव बिल्कुल अलग रूप में करते हैं। महत्वपूर्ण यह है कि आप जीवन को किस रूप में ग्रहण करते हैं।
आप चाहते हैं कि आपके उच्च पहलू ग्रहणशील हों, न कि निम्न पहलू।
आपके शरीर में, सात मूल केंद्र हैं जो जीवन का अनुभव करने के सात आयामों को दर्शाते हैं। इन केंद्रों को चक्र कहा जाता है। चक्र, ऊर्जा प्रणाली के भीतर एक खास मिलन बिंदु होते हैं। इन चक्रों की प्रकृति भौतिक नहीं, बल्कि सूक्ष्म होती है।
आप इन चक्रों को अनुभव से जान सकते हैं, लेकिन अगर आप शरीर को काटकर देखें, तो आपको कोई चक्र नहीं दिखेगा। जब आप तीव्रता के उच्च स्तरों की ओर जाते हैं, तो स्वाभाविक रूप से ऊर्जा एक चक्र से दूसरे चक्र की ओर बढ़ती है। अगर आप नीचे स्थित चक्रों से जीवन को ग्रहण करते हैं तो जो आपका अनुभव होगा उसकी तुलना में तब आपके अनुभव और आपकी स्थिति बिल्कुल अलग होगी जब आप शरीर में ऊपर की ओर स्थित चक्रों से जीवन को ग्रहण करेंगे ।
विभूति का इस्तेमाल कैसे करें?
पारंपरिक रूप से विभूति को अंगूठे और अनामिका के बीच लेकर – ढेर सारी विभूति उठाने की जरूरत नहीं है, बस ज़रा सा लगाना है – भौंहों के बीच, जिसे आज्ञा चक्र कहा जाता है, गले के गड्ढे में, जिसे विशुद्धि चक्र कहा जाता है और छाती के मध्य में, जिसे अनाहत चक्र के नाम से जाना जाता है, में लगाया जाता है।
भारत में आम तौर पर माना जाता है कि आपको इन बिंदुओं पर विभूति जरूर लगानी चाहिए। इन खास बिंदुओं का जिक्र इसलिए किया गया है क्योंकि विभूति उन्हें अधिक संवेदनशील बनाती है।
विभूति आम तौर पर अनाहत चक्र पर इसलिए लगाई जाती है ताकि आप जीवन को प्रेम के रूप में ग्रहण कर सकें।उसे विशुद्धि चक्र पर इसलिए लगाया जाता है ताकि आप जीवन को शक्ति के रूप में ग्रहण करें, शक्ति का मतलब सिर्फ शारीरिक या मानसिक शक्ति नहीं है, इंसान बहुत से रूपों में शक्तिशाली हो सकता है।
इसका मकसद जीवन ऊर्जा को बहुत मजबूत और शक्तिशाली बनाना है ताकि सिर्फ आपकी मौजूदगी ही आपके आस-पास के जीवन पर असर डालने के लिए काफी हो, आपको बोलने या कुछ करने की जरूरत नहीं है, बस बैठने से ही आप अपने आस-पास की स्थिति को प्रभावित कर सकते हैं। एक इंसान के भीतर इस तरह की शक्ति विकसित की जा सकती है।
विभूति को आज्ञा चक्र पर इसलिए लगाया जाता है, ताकि आप जीवन को ज्ञान के रूप में ग्रहण कर सकें।
यह बहुत गहरा विज्ञान है लेकिन आज उसके पीछे के विज्ञान को समझे बिना हम बस उसे एक लकीर की तरह माथे पर लगा लेते हैं। यह मूर्खता है कि एक तरह की लकीरों वाला व्यक्ति दूसरी तरह की लकीरों वाले व्यक्ति से खुद को अलग समझता है। विभूति शिव या किसी और भगवान की दी हुई चीज नहीं है।
यह विश्वास का प्रश्न नहीं है। भारतीय संस्कृति में, उसे गहराई से किसी व्यक्ति के विकास के उपकरण के रूप में देखा गया है। सही तरीके से तैयार विभूति की एक अलग गूंज होती है। इसके पीछे के विज्ञान को पुनर्जीवित करने और उसका लाभ उठाने की जरूरत है।
7--अभिमान का कहर
अभिमान का कहर
क्या है सबसे बड़ी मूर्खता
क्रोध, घृणा, लोभ या अभिमान?
बेशक क्रोध जलाता है तुम्हें और
बनता है कारण दूसरों की पीड़ा व मौत का।
घृणा प्रतिनिधि है क्रोध का
अधिक प्रत्यक्ष व विनाशक
किन्तु है संतान क्रोध की।
ऐसा प्रतीत होता है
कि नहीं लेना देना कुछ
लोभ का इन दोनों से
पर यही उपजाता है क्रोध व घृणा
उन सबके प्रति
जो आड़े आते हैं,
लोभ की उस ज्वाला के
जो नहीं होती तृप्त कभी
क्योंकि है नहीं कुछ ऐसा
जो लोभ के उदर को भर सके।
अभिमान यद्यपि दिखता है दिलकश
और बनाता है इंसान को ढीठ, पर
अहम भूमिका निभाता है नष्ट करने में
मानवता की सभी संभावनाओं को।
यह अभिमान ही है
जो चढ़ा देता है इंसान को
उस मंच पर, जहां
छली जाती है हकीकत
जो बना देता है
झूठ को भी यथार्थ
असत्य को भी सत्य।
क्रोध, घृणा व लोभ को
चाहिए अभिमान का एक रंगमंच
जहां खेल सकें ये अपना नाटक।
अभिमान है कांटों का एक ताज
जिसको पहनकर पीड़ा भी लगती है सुखद
अभिमान माया है, जीवन का भ्रम है
अज्ञान का शुद्धिकरण
नहीं ले जाता आत्मज्ञान की शरण में
8-क्या, आप बच्चे को आध्यात्मिक बनाना चाहते हैं?
हम में से कई लोग चाहते हैं कि हमारे बच्चे आध्यात्मिकता को अपनाएं। हम कैसे अपने बच्चों का आध्यात्मिकता से परिचय करा सकते हैं? क्या यह किसी शिक्षा या निर्देश के माध्यम से संभव है? या फिर हमें कुछ ऐसा करना चाहिए, कि आध्यात्मिकता अनजाने में ही बच्चों के जीवन का एक हिस्सा बनती चली जाए। सद्गुरु आज हमें बता रहे हैं कि कैसे बच्चों के जीवन में आध्यात्मिकता को लाया जा सकता है… इंसान में जानने की इच्छा का होना बड़ा स्वाभाविक है।
8-क्या, आप बच्चे को आध्यात्मिक बनाना चाहते हैं?
हम में से कई लोग चाहते हैं कि हमारे बच्चे आध्यात्मिकता को अपनाएं। हम कैसे अपने बच्चों का आध्यात्मिकता से परिचय करा सकते हैं? क्या यह किसी शिक्षा या निर्देश के माध्यम से संभव है? या फिर हमें कुछ ऐसा करना चाहिए, कि आध्यात्मिकता अनजाने में ही बच्चों के जीवन का एक हिस्सा बनती चली जाए। सद्गुरु आज हमें बता रहे हैं कि कैसे बच्चों के जीवन में आध्यात्मिकता को लाया जा सकता है… इंसान में जानने की इच्छा का होना बड़ा स्वाभाविक है।
इसी वजह से वह जीवन को जानना चाहता है। फिर उसके अंदर यह जानने की इच्छा होना कि जीवन के बाद क्या है, उतना ही स्वाभाविक है। ऐसे में आप आध्यात्मिकता से बच ही नहीं सकते। आप लंबे समय तक आध्यात्मिकता से इसलिए दूर रहे, क्योंकि आपने ऐसी चीजों के जरिए अपनी पहचान बना ली, जो वास्तव में आप हैं ही नहीं। जब मैं उन चीजों की बात करता हूं जो आप नहीं है, तो इसमें आपका तन और मन भी शामिल है।
जब आपकी पहचान किसी ऐसी चीज से होने लगती है जो आप नहीं हैं, तो आपकी बुद्धि में विकृति आ जाती है। फिर यह कोई भी चीज सही ढंग से नहीं देख पाती, क्योंकि फिर यह उस पहचान के साथ ही काम करती है। मान लीजिए आप कहते हैं, मैं एक औरत हूं। तो आप जो भी करते हैं, जो भी सोचते हैं, वह एक महिला की तरह ही करने लगते हैं।
शरीर के कुछ अंगों से आपकी पहचान बन गई। अगर आप यह कहते हैं कि मैं हिंदू हूं या मैं भारतीय हूं, तो आप उससे आगे सोच ही नहीं सकते।
तो कहने का मतलब यह है कि जिस पल आप किसी चीज के साथ आपनी पहचान बना लेते हैं आपकी बुद्धि में विकृति आ जाती है। अगर लोगों में विकृति नहीं आती तो आध्यात्मिकता एक स्वाभाविक चीज होती। फिर यह कोई ऐसी चीज नहीं रहती, जिसे आपको कोई याद दिलाता और सिखाता। यह महसूस करना बड़ा स्वाभाविक है कि जीवन में भौतिकता से भी परे कुछ है और इसे जानना बेहद आसान है।
यह बड़ी अजीब सी बात लगती है कि लोगों की एक बड़ी तादाद इस बात को नोटिस ही नहीं कर पाती है। अगर आप दो मिनट के लिए अपनी आंखें बंद कर लें, तो आप महसूस करेंगे कि आप महज एक शरीर ही नहीं हैं, उससे कुछ ज्यादा हैं।
यह सच है कि हर कोई इसे महसूस कर सकता है, लेकिन दुनिया में बहुत कम लोग ही ऐसा कर पाते हैं।
इसकी वजह यह है कि बचपन से ही आपके इर्द – गिर्द मौजूद हर शख्स के अपने कुछ निहित स्वार्थ रहे हैं। हर कोई आपको इस बात के लिए प्रेरित कर रहा है कि आपकी पहचान उनके स्वार्थों के साथ हो। आपके माता – पिता, आपके शिक्षक, सब यही चाहते हैं कि आप उनके द्वारा तय किए गए लक्ष्य की ओर चलें और उनकी दी गई शिक्षा को अपनाएं।
आपके नेता और दूसरे तमाम लोग आपकी पहचान देश, जाति जैसी दूसरी चीजों के साथ बनाना चाहते हैं, क्योंकि हर किसी का अपना एजेंडा है। मेरे कहने का यह मतलब कतई नहीं है कि इस तरह के जो भी काम किए जा रहे हैं, उनका कोई महत्व या मूल्य नहीं है। उसका महत्व है, लेकिन सिर्फ इसलिए कि वह काम उपयोगी है।आपको उसके साथ पहचान स्थापित करने की जरूरत नहीं है, भले ही वह कितना भी उपयोगी क्यों न हो। जैसे ही आप उस काम के साथ अपनी पहचान बना लेते हैं, आपके भीतर एक तरह की विकृति आने लगती है।
जिस इंसान के अंदर विकृति आ गई, वह दूसरों के लिए उपयोगी साबित हो ही नहीं सकता।
जैसे ही आपकी किसी चीज के साथ पहचान बन जाती है, आप दुनिया को लाखों हिस्सों में खंडित करके देखने लगते हैं।चीज़ों को विचार के आधार पर विभाजित करने के बाद, आपका हर काम इस दरार को बढ़ाता है।
इससे मानवता की भलाई नहीं होगी।
तो अगर आप किसी बच्चे के लिए ऐसा माहौल बना पाएं – जिसमें वह किसी चीज के साथ खुद की पहचान स्थापित न करे – तो वह खुद ही आध्यात्मिक हो जाएगा। फिर उसे आध्यात्मिकता सिखाने की जरुरत नहीं होगी। यह ठीक ऐसे ही है, जैसे हमें किसी पौधे को यह सिखाने की जरूरत नहीं होती कि उसे फूल देने हैं।
अगर पानी, सूर्य का प्रकाश और दूसरी तरह के पोषण न भी हों तो भी हमें पौधे को फूल देने की शिक्षा देने की जरूरत नहीं है। कुछ मालियों को ऐसा लगता है कि अगर उनके बगीचे के पौधे फूल दे रहे हैं, तो इसका श्रेय उन्हें जाता है, लेकिन वास्तव में यह सच नहीं है।
फूल देना तो पौधे का स्वभाव है। किसी जंगल में जाकर देखिए, वहां सब कुछ पूरी तरह खिला-खिला होता है। जाहिर है, बच्चों को आध्यात्मिकता सिखाने की जरूरत नहीं है। बस उन्हें फालतू की तमाम बातों से बचाइए। उन्हें प्रपंचों से दूर रखिए और फिर आप देखेंगे कि वे खुद ही आध्यात्मिक हो गए हैं।
जैसे एक मां अपने बच्चे को ब्रश करना सिखाती है, हम चाहते हैं कि आध्यात्मिक प्रक्रिया भी ठीक वैसे ही बन जाए।एक ऐसी प्रक्रिया जिसे बिना किसी कोशिश के अनजाने में ही बच्चों को सिखा दिया जाए।
हमारी संस्कृति में अब से एक या दो पीढ़ी पहले तक ऐसा था। आज भी भारत में धार्मिक शिक्षा किसी एक संस्था के द्वारा नहीं दी जाती है। इस देश का धर्म प्रमुख कोई एक व्यक्ति नहीं है। दुनिया के दूसरे हिस्सों की तरह हमारे यहां धर्म के मामले में लोगों का मार्गदर्शन करने की भूमिका कोई एक शख्स नहीं निभाता। यह हर किसी की जिंदगी का एक हिस्सा है और जो जितना जानता है, वह अपने हिसाब से इसकी शिक्षा देता है।
आध्यात्मिक प्रक्रिया को जीवन का इतना महत्वपूर्ण हिस्सा तो बनाया गया, लेकिन इसे बेलगाम छोड़ दिया गया। इसकी वजह यह रही कि यह प्रक्रिया कभी धर्म की सुनियोजित प्रक्रिया नहीं बन सकी। बस इसे इंसान के विकसित होने के तरीके के तौर पर ही देखा गया। पूरी धरती पर यही एक देश है जो देवरहित है, क्योंकि इस देश में ईश्वर को लेकर कोई एक ठोस विचार नहीं है। जिसकी जैसी मर्जी, वह उस तरह से पूजा कर सकता है। लोग तमाम तरह की चीजों की पूजा कर रहे हैं।
भारत में धर्मभ्रष्ट जैसी कोई बात नहीं होती क्योंकि हर इंसान का किसी न किसी के प्रति प्रेम और श्रद्धा है। कोई अपनी मां से प्रेम करता है, कोई अपने देवता से प्यार करता है, किसी को पैसा प्यारा है और किसी को अपना काम। कोई अपने कुत्ते को प्रेम करता है, तो कोई अपनी गाय को। इस तरह आध्यात्मिक राह पर तो हर कोई चल रहा है, बस सवाल इस बात का है कि यह आध्यात्मिक राह कितनी कमजोर या शक्तिशाली है।
ऐसा कोई इंसान नहीं है जो इस राह पर नहीं चल रहा है। डगमगाते हुए ही सही, लेकिन हर कोई अपने तरीके से इस रास्ते पर कदम बढ़ा रहा है। अगर आप अपने बच्चे को आध्यात्मिकता के बारे में बताना चाहते हैं तो घर पर उसे इसकी शिक्षा देनी शुरू मत कीजिए। अगर आपने बच्चे को ‘आध्यात्मिक बनो’, ‘ईश्वर को प्रेम करो’, जैसी शिक्षाएं देनी शुरू कर दीं तो आपके बच्चे आपसे नफरत करने लगेंगे।
फिर क्या करें? बस अपने जीवन के हर पहलू में जागरूकता लाइए। सौम्यता, शिष्टता, प्रेम और परवाह जैसी बातों को अपनी जिंदगी का हिस्सा बनाइए। वे भी इसका एक हिस्सा बन जाएंगे, क्योंकि ऐसा कोई इंसान नहीं है, जो इनसब चीजों को न चाहता हो। हर कोई चाहता है कि उसके इर्द गिर्द सुखद अहसास बना रहे। आपके बच्चे भी यही चाहते हैं। बस आप ऐसा माहौल पैदा कीजिए, आपके बच्चे इसे आत्मसात कर लेंगे।
9-क्या प्रेम ही अंतिम सत्य है
प्रेम मानव जीवन के सुखद अनुभवों में से एक है। पश्चिमी समाज में प्रेम को बहुत ज्यादा महत्व दिया जाता है और इसे परम सत्य से जोड़कर देखा जाता है। यहां तक की प्रेम को ही अंतिम सत्य माना जाता है। क्या प्रेम ही सत्य है? या फिर सत्य की स्थिति प्रेम से भी परे है? आज के ब्लॉग में सद्गुरु सत्य और प्रेम पर प्रकाश डाल रहे हैं… शेखर कपूरः सद्गुरु, एक और सवाल है।
पश्चिमी देशों में प्रेम और सत्य की बातें होती हैं। कहा जाता है कि प्रेम ही अंतिम सत्य है। यह भी कहा जाता है कि हमारे भीतर प्रेम नहीं है, बल्कि हम ही प्रेम हैं और इस तरह हम अपनी अंतरात्मा तक पहुंचने के मकसद से जुड़ते हैं। क्या आप इस बात से सहमत हैं? सद्गुरु: देखिये, अगर किसी समाज के लोग भूखे हैं, तो उस समाज में खाने की अहमियत सबसे ज्यादा होगी।
अगर आप बीमार हैं तो आपके लिए सबसे ज्यादा अहमियत होगी स्वास्थ्य की। अगर आप गरीब हैं तो धन आपके लिए सबसे महत्वपूर्ण होगा। इसी तरह अगर आपको प्रेम नहीं मिला है तो प्रेम की आपकी निगाह में सबसे ज्यादा अहमियत होगी और खुशी नहीं मिली है तो खुशी की। कुल मिलाकर कह सकते हैं कि आप जिस पल जिस चीज से वंचित हैं, उस पल आपको उसी की अहमियत सबसे ज्यादा महसूस होगी।
जब लोगों में किसी चीज़ की कमी की भावना होती है, तो लोगों को उसका महत्व बहुत ज्यादा लगता है।लेकिन वह चीज़ मिल जाने के बाद वो बात नहीं रहती। आज के संदर्भ में बात करें तो आज पश्चिम के देश औद्योगिक क्रांति के दौर से गुजर रहे हैं। महिलाएं अपने घरों से बाहर निकल रही हैं और पुरुष भी उन्हें सहयोग कर रहे हैं।
चीजें धीरे-धीरे बेहतर हो रही हैं, लेकिन अचानक जब इस तरह का बदलाव उस समाज में आया, तो बच्चों की एक पूरी पीढ़ी उस प्रेम से वंचित होने लगी, जिसकी वह हकदार थी। सामाजिक बदलाव निरंतर होने वाला एक ऐसा बदलाव है, जिससे निपटने के तरीकों को लेकर लोग आज भी जूझ रहे हैं। दरअसल, व्यवस्था कुछ ऐसी रही है कि घर की महिलाएं बच्चों के पास रहेंगी और उन्हें भरपूर प्रेम देंगी, लेकिन चीजें एकदम बदल गईं और नई व्यवस्था के साथ हम तालमेल ही नहीं बैठा पा रहे। लोगों की एक से दो पीढ़ियां ऐसी निकल गईं, जो उस प्रेम और देखभाल से वंचित रह गईं जो उन्हें मिलना चाहिए था।
आज भी तमाम नई चीजें हो रही हैं। मसलन अब मातृत्व अवकाश होता है, पितृत्व अवकाश होता हैं। पुरुष कुछ दिनों के लिए घर पर रुकते हैं और बच्चों की देखभाल करते हैं। पूरा नजरिया ही बदल चुका है। दुनिया में बहुत सी चीजें बदल चुकी हैं और तमाम चीजों के प्रति नजरिए में भी बदलाव आ चुका है। इसके अलावा, समाज में तमाम तरह की सुविधाएं भी आ चुकी हैं, जो दिनोंदिन आ रहे इन बदलावों से पैदा होने वाली स्थितियों में उपयोगी साबित होती हैं। यही वजहें हैं, जिनके चलते पश्चिमी देशों में प्रेम की इतनी ज्यादा बात होती है।
मैं प्रेम को हल्का करके पेश करने की कोशिश नहीं कर रहा हूं। प्रेम तो हमारी जिंदगी का एक बेहद जरूरी हिस्सा है। चीजों को जरा दूसरे नजरिए से देखिए। आप अपने जीवन में सुख की तलाश करते हैं। सुख का मतलब क्या है? अगर हमारा शरीर सुखी हो जाए तो आमतौर पर हम इसे स्वास्थ्य कहते हैं। अगर यह ज्यादा सुखद हो जाए तो इसे हम मजा कहते हैं। अगर आपका दिमाग सुखी हो जाए तो इसे हम शांति कह देते हैं और दिमाग में बहुत ज्यादा खुशनुमा अहसास होने लगे तो हम इसे खुशी कहते हैं। अगर आपकी भावनाएं सुखद हो जाएं तो इसे हम प्रेम कहते हैं।
अगर यह बहुत ज्यादा सुखद होने लगे तो इसे करुणा कहते हैं। अगर आपकी जीवन ऊर्जाएं सुखद हों तो हम इसे आनंद कहते हैं और अगर यह बेहद सुखद हो जाएं, इसे परमानंद कहते हैं। अगर आपकी बाहरी परिस्थितियां सुखद हो जाएं तो इसे हम सफलता कहते हैं। यही चीजें हैं, जिनकी तलाश इंसान कर रहा है। अगर भावनात्मक तौर पर वह सुखद स्थिति में है, जिसे हम प्रेम कह सकते हैं, तो इसका मतलब है कि ये मानवीय भावनाएं हैं जो सुखद हो रही हैं। या तो किसी व्यक्ति या चीज के प्रति ऐसा होता है या बस यूं ही अपने आप। ऐसा किसी भी तरीके से हो सकता है।
अब सवाल यह है कि क्या महज आपके भावों का सुखद हो जाना ही आपके लिए पर्याप्त है? क्या आपको स्वास्थ्य की जरूरत नहीं? क्या आपको सुख नहीं चाहिए? क्या आपको भोजन नहीं चाहिए? क्या आपको तमाम दूसरी क्षमताएं नहीं चाहिए? सोचिए अगर आपके पास बहुत सारा प्यार हो और आप दीन-हीन हों, जैसा कि दुर्भाग्य से बहुत सारे लोगों के साथ होता भी है, तो मुझे नहीं लगता कि आप खुश रह पाएंगे। जो लोग यह कहते हैं कि इस दुनिया का मूल प्रेम है, वे कहीं न कहीं अपने अंदर इससे वंचित रहे हैं।
हम जैसे लोग, जो भारत के परंपरागत परिवारों में पले बढ़े हैं, प्रेम के बारे में नहीं सोचते, क्योंकि हमें ऐसा करने की जरूरत ही नहीं पड़ती। हमें किसी ने नहीं बताया कि वह हमें प्रेम करता है। मेरी मां ने मुझसे कभी नहीं कहा कि वह मुझे प्रेम करती है और न ही मेरे मन में ऐसा कोई प्रश्न उठा कि वह प्रेम करती है या नहीं। मुझे कभी इस बात का अहसास ही नहीं हुआ कि मुझे प्रेम की आवश्यकता है। पूरा का पूरा वातावरण ही ऐसा होता था कि ऐसे सवाल कभी मन में ही नहीं आते थे।
यह बिल्कुल वैसा ही है, जैसे अगर किसी घर में खाने की कमी हो, लोगों के भूखे रहने की नौबत आ गई हो तो उस घर के लोग खाने और उसे हासिल करने के बारे में ही ज्यादा सोचेंगे। जब आपको रोज आराम से खाना मिलता है तो आप उसके बारे में सोचते ही नहीं। ठीक इसी तरह जब प्रेम आपके इर्द गिर्द होता है तो आपको यह सोचने की जरूरत नहीं होती कि प्रेम को कहीं से लाना है या हासिल करना है।
कहने का मतलब यही है कि ये चीजें एक खास तरह के अभाव की वजह से पैदा हो रही हैं। किसी इंसान के लिए प्रेम एक खूबसूरत अहसास और जीने का एक शानदार तरीका हो सकता है। लेकिन यह भी उतना ही सच है, कि इसे इसकी सीमाओं से ज्यादा बढ़ा चढ़ाकर देखने की आवश्यकता नहीं है। यहां पूछे गए सवाल में प्रेम के साथ-साथ सत्य की भी बात की गई है। मुझे नहीं पता कि आप कौन से सत्य की बात कर रहे हैं। अगर आप परम सत्य की बात कर रहे हैं तो वह तो सर्वव्यापक है, वह परम मिलन है।
प्रेम में आप एक दूसरे के नजदीक आने की कोशिश करते हैं, कुछ पल होते हैं मिलन के और फिर आप अलग अलग हो जाते हैं। कहीं भी ऐसा देखने को नहीं मिलता कि प्रेम करने वाले लगातार मिलन के पलों में रह सकें। मिलन के कुछ पल और फिर दूर हो जाना, फिर वही अहसास और फिर दूरी। बस, इसी तरह से बात आगे बढ़ती रहती है। परम सत्य का मतलब है परम मिलन की स्थिति, जिसे प्रेम नहीं कह सकते।
प्रेम तो उस दिशा में की गई एक कोशिश भर है। ऐसे ही आनंद और शांति भी उस दिशा की ओर बढ़ाए गए कदमों की तरह हैं। जब आपके भीतर शांति होती है तो आपका हर चीज के साथ एकाकार हो जाता है। जब आप आनंद में होते हैं तो भी ऐसा ही होता है। जरा सोचिए जब आप बैठकर एक दूसरे के साथ हंसी मजाक करते हैं तो कहीं न कहीं आपको एक दूसरे के साथ मेल महसूस होता है।
10-आओ चलें, रचें अपना भविष्य
हम में से कई लोग ऐसे हैं जो अपने भविष्य को जानने के लिए बहुत उत्सुक रहते हैं और कई तरह की भविष्यवाणियां या अपना राशिफल पढ़ते रहते हैं। क्या भविष्य पहले से’ ही तय होता है, जिसे कि राशिफल पढ़ कर जाना जा सकता है, या फिर भविष्य की रचना हम खुद कर सकते हैं? एक बार एक स्कूली छात्र ने सद्गुरु से भविष्यवाणियों के बारे में जानना चाहा। आइए हम भी जानते हैं इन भविष्यवाणियों का भविष्य – इस धरती पर दो तरह के इंसान हैं।
पहली श्रेणी उन लोगों की है जिनके पास समझदारी से योजना बनाने और उस पर अमल करने की क्षमता नहीं है। ऐसे लोग अपनी जिंदगी के साथ-साथ समाज और दुनिया की दिशा और दशा को तय करने के लिए भविष्यवाणियों पर यकीन करते हैं। दूसरी श्रेणी उन लोगों की है जिनके पास हर चीज के लिए एक योजना होती है। वे अपनी योजना के मुताबिक खुद तय करते हैं कि अपनी जिंदगी और इस संसार को वे किस दिशा में ले जाना चाहते हैं।
अब सवाल यह है कि आप क्या चाहते हैं? आप भविष्यवाणी चाहते हैं या फिर आपको कोई समझदारीपूर्ण योजना चाहिए? अगर किसी क्रिकेट मैच से पहले ही कोई शख्स यह बता देता है, कि मैच निश्चित तौर पर भारत ही जीतेगा, तो फिर वह केवल मैच फ़िक्सर ही हो सकता है।
हम जीतना चाहते हैं, यह बात अपनी जगह ठीक है; लेकिन हम मैच के परिणाम के बारे में नहीं जानते, इसीलिए यह खेल दिलचस्प है। चूंकि हमें इसका परिणाम नहीं पता, इसलिए हम इसमें जी जान लगाने को तैयार रहते हैं, जो कि बड़ी अच्छी बात है। अब जरा सोचिए – आपको मैच का परिणाम पहले से ही पता है। ऐसे में क्या खेल खेलने का कोई मतलब है? भविष्यवाणी एक तरह की मैच फिक्सिंग ही है, जिसमें हमें पहले ही पता है कि परिणाम क्या होगा।
हां, कुछ चीजें तय हैं। अगर आप इन चीजों को गहराई से देखेंगे तो आप जान सकते हैं, कि चीजें किस दिशा में चलेंगी। अगर मैं आपको आम का और नारियल का बीज दूं, तो जाहिर सी बात है कि आम के बीज में आम का पेड़ बनने की सम्भावना है, लेकिन आम का बीज आम का पेड़ बन ही जाएगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है। यह गाय का चारा भी बन सकता है, या फिर किसी के घर का फर्नीचर भी। तो एक चीज है संभावना और दूसरी चीज है वास्तविकता और दोनों के बीच हमेशा ही एक दूरी होती है। क्या आपके अंदर इस दूरी को तय करने का साहस और इच्छा शक्ति है? बस इसी से इंसानी जीवन का निर्माण होता है।
कल आप इस दुनिया को किस दिशा में ले जाना चाहते हैं ? कष्टों की राह पर या सुख संपन्नता के रास्ते पर? अगर हम सभी तय कर लें कि हम दुनिया को सुख और संपन्नता की ओर ले जाना चाहते हैं, तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा कि दुनिया के बारे में कैसी – कैसी भविष्यवाणियां की गई हैं। कभी किसी की भविष्यवाणी को मत सुनिए, चाहे वह भविष्यवाणी आपके जीवन के बारे में की गई हो या दुनिया के बारे में।
कभी भी अपने राशिफल को पढ़ने की चेष्टा ना करें, क्योंकि अगर आपकी जिंदगी में पहले से ही सब कुछ तय हो गया तो वाकई में यह जिंदगी हॉरर यानी डरावनी हो जाएगी। फिर यह जीने लायक नहीं बचेगी। जीने का मजा ही खत्म हो जाएगा।
जीवन एक संभावना है, और इस संभावना को वास्तविकता में बदलने के लिए एक खास तरह के साहस और अक्ल की आवश्यकता होती है। यही तो जीवन है।
11-बाप रे प्रदूषण से कैसे करें नुकसान की भरपाई
पिछले कुछ वर्षों में पृथ्वी के कई सारे हिस्सों में मौसमों में बदलाव आ रहा है। वैज्ञानिक इन बदलावों का मुख्य कारण कार्बन डाई ऑक्साइड की बढ़ती मात्रा को बता रहे हैं, और इसका समाधान हर व्यक्ति के कार्बन फुटप्रिंट को कम करना बता रहे हैं। क्या है यह कार्बन फुटप्रिंट और इसे कैसे कम करें? किसी एक व्यक्ति का हमारे पर्यावरण पर क्या असर होता है, इसे नापने के लिए वैज्ञानिकों ने कार्बन फुटप्रिंट नाम का सिद्धांत दिया है।
करीब-करीब वे सारे काम जो हम रोजाना करते हैं, या हम जिन भी साधनों का इस्तेमाल करते हैं, उन सब से कार्बन डाई ऑक्साइड (CO2) निकलता है। औद्योगिक क्रांति से पहले मनुष्यों द्वारा पैदा किया गया जितना भी कार्बन डाई ऑक्साइड वातावरण में आता था, वह आसपास के जंगलों और पेड़ – पौधों द्वारा सोख लिया जाता था। जंगल व पेड़ – पौधे कार्बन डाई ऑक्साइड को सोख कर ऑक्सीजन को वापस हवा में छोड़ देते हैं। और वे कार्बन को अपने भीतर जमा कर लेते हैं। औद्योगिक युग के शुरुआत के साथ ही ईधन का प्रयोग बड़े पैमाने पर होने लगा जिससे कार्बन डाई ऑक्साइड भारी मात्रा में निकलने लगी ।
साथ ही, बढ़ती आबादी का पेट भरने के लिए खेती के लिए बड़े पैमाने पर जंगल काटे गए, जो कार्बन सोखने का काम करते थे। आज स्थिति यह है कि जितना कार्बन डाई ऑक्साइड वातावरण में पैदा होती है, उसे सोखने के लिए पर्याप्त मात्रा में पेड़ ही नहीं बचे हैं। कार्बन डाइऑक्साइड क्या करती है? कार्बन डाइऑक्साइड वातावरण में ’ग्रीन हाउस गैस’ के रूप में काम करती है।
इस का मतलब है कि वह सूर्य की गर्मी को रोक लेती है। आज धरती के तापमान को बढ़ाने में ’ग्रीन हाउस गैस’ ही मुख्य रूप से जिम्मेदार हैं। इसकी वजह से मौसम में बदलाव आए हैं – गर्मी के मौसम में गरमी बढ़ी है, बेमौसम बरसात होने लगी है, सूखे और बाढ़ का प्रकोप भी बढ़ा है, सर्दी के मौसम में ठंड बढ़ी है। इन बदलावों का असर मनुष्य सहित पेड़ पौधों व पृथ्वी पर मौजूद सभी जीवों पर भी हो रहा है।
बातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड के बढ़ने के कारण: हमारे द्वारा चलाए जाने वाले वाहनों से होने वाले प्रदूषण के अलावा और भी ऐसे कई कारण हैं: बिजली/इलेक्ट्रिसिटीः हम जिस बिजली का इस्तेमाल करते हैं, वह ज्यादातर जीवाश्म ईंधन (जैसे कोयला, प्राकृतिक गैस और तेल जैसी प्राकृतिक चीजों) से बनती है। इंधनों के जलने से कार्बन डाइऑक्साइड निकलता है।
हम जितनी ज्यादा बिजली का इस्तेमाल करेंगे, बिजली के उत्पादन के लिए उतने ही ज्यादा ईंधन की खपत होगी और उससे उतना ही ज्यादा कार्बन डाइऑक्साइड बढे़गा। अन्नः जो अन्न हम खाते हैं वह भी हमारे कार्बन फुटप्रिंट में महत्वपूर्ण योगदान देता है। खासकर तब जब हम तैयार खाद्य पदार्थ खाते हैं, या फिर हम ऐसे पदार्थ खाते हैं जिनका उत्पादन स्थानीय तौर पर नहीं हुआ हो।
वनों का संहारः खेती योग्य जमीन, इमारतों के निर्माण, लकड़ी और खनिज को पाने के लिए हमने जंगलों और पेड़ो का विनाश किया है। औद्योगिक उत्पादन: ज्यादातर हम जिन चीजों का उपयोग करते हैं, वे कारखानों में बनती हैं। ये चीजें फिर से न पैदा होने वाले खनिजों व धरती से निकलने वाले ईंधन के इस्तेमाल से बनती हैं। जिन्हें दूर दराज के इलाकों तक मालगाड़ियों से भेजा जाता है।
क्या आप जानते हैं कि औसतन एक शहरी साल में चार टन कार्बन डाइऑक्साइड वातावरण में छोड़ता है? पर्यावरण की रक्षा हम सभी की ज़िम्मेदारी है। हम क्या कर सकते हैं? इंसान के पास अपने कार्बन फुटप्रिंट कम करने के कई तरीके हैं।
एक तरीका तो यह है कि आपके द्वारा कम से कम कार्बन डाइऑक्साइड वातावरण में बढ़े। इसका मतलब है कि आप सोच समझ कर चीजों का इस्तेमाल करें, रीसाइकिलिंग करें, सार्वजनिक यातायात का इस्तेमाल करें। जहां तक हो सके ज्यादा से ज्यादा पैदल चलें, स्थानीय और रिसाइकिल्ड उत्पादों का प्रयोग करें, स्थानीय चीजों का सेवन करें। कार्बन डाइऑक्साइड को कम करने का दूसरा तरीका इसको सोखना है।
वृक्षारोपण इसका सबसे आसान और प्रभावशाली तरीका है। एक पेड़ अपने जीवन काल में एक टन कार्बन डाइऑक्साइड को कार्बन और ऑक्सीजन में बदलता है। आप ‘कार्बन-न्यूट्रल’ बन सकते हैं, इसका मतलब है कि आप अपने कार्बन फुटप्रिंट को पूरी तरह से मिटाने के लिए उतने पेड़ लगाइए, और उनकी देखभाल कीजिए, जो आप द्वारा उत्सर्जित होने वाले पूरे कार्बन डाइऑक्साइड को सोख ले। तो चलें अभी से वृक्षरोपण में जुट जाएं !
भारत में धर्मभ्रष्ट जैसी कोई बात नहीं होती क्योंकि हर इंसान का किसी न किसी के प्रति प्रेम और श्रद्धा है। कोई अपनी मां से प्रेम करता है, कोई अपने देवता से प्यार करता है, किसी को पैसा प्यारा है और किसी को अपना काम। कोई अपने कुत्ते को प्रेम करता है, तो कोई अपनी गाय को। इस तरह आध्यात्मिक राह पर तो हर कोई चल रहा है, बस सवाल इस बात का है कि यह आध्यात्मिक राह कितनी कमजोर या शक्तिशाली है।
ऐसा कोई इंसान नहीं है जो इस राह पर नहीं चल रहा है। डगमगाते हुए ही सही, लेकिन हर कोई अपने तरीके से इस रास्ते पर कदम बढ़ा रहा है। अगर आप अपने बच्चे को आध्यात्मिकता के बारे में बताना चाहते हैं तो घर पर उसे इसकी शिक्षा देनी शुरू मत कीजिए। अगर आपने बच्चे को ‘आध्यात्मिक बनो’, ‘ईश्वर को प्रेम करो’, जैसी शिक्षाएं देनी शुरू कर दीं तो आपके बच्चे आपसे नफरत करने लगेंगे।
फिर क्या करें? बस अपने जीवन के हर पहलू में जागरूकता लाइए। सौम्यता, शिष्टता, प्रेम और परवाह जैसी बातों को अपनी जिंदगी का हिस्सा बनाइए। वे भी इसका एक हिस्सा बन जाएंगे, क्योंकि ऐसा कोई इंसान नहीं है, जो इनसब चीजों को न चाहता हो। हर कोई चाहता है कि उसके इर्द गिर्द सुखद अहसास बना रहे। आपके बच्चे भी यही चाहते हैं। बस आप ऐसा माहौल पैदा कीजिए, आपके बच्चे इसे आत्मसात कर लेंगे।
9-क्या प्रेम ही अंतिम सत्य है
प्रेम मानव जीवन के सुखद अनुभवों में से एक है। पश्चिमी समाज में प्रेम को बहुत ज्यादा महत्व दिया जाता है और इसे परम सत्य से जोड़कर देखा जाता है। यहां तक की प्रेम को ही अंतिम सत्य माना जाता है। क्या प्रेम ही सत्य है? या फिर सत्य की स्थिति प्रेम से भी परे है? आज के ब्लॉग में सद्गुरु सत्य और प्रेम पर प्रकाश डाल रहे हैं… शेखर कपूरः सद्गुरु, एक और सवाल है।
पश्चिमी देशों में प्रेम और सत्य की बातें होती हैं। कहा जाता है कि प्रेम ही अंतिम सत्य है। यह भी कहा जाता है कि हमारे भीतर प्रेम नहीं है, बल्कि हम ही प्रेम हैं और इस तरह हम अपनी अंतरात्मा तक पहुंचने के मकसद से जुड़ते हैं। क्या आप इस बात से सहमत हैं? सद्गुरु: देखिये, अगर किसी समाज के लोग भूखे हैं, तो उस समाज में खाने की अहमियत सबसे ज्यादा होगी।
अगर आप बीमार हैं तो आपके लिए सबसे ज्यादा अहमियत होगी स्वास्थ्य की। अगर आप गरीब हैं तो धन आपके लिए सबसे महत्वपूर्ण होगा। इसी तरह अगर आपको प्रेम नहीं मिला है तो प्रेम की आपकी निगाह में सबसे ज्यादा अहमियत होगी और खुशी नहीं मिली है तो खुशी की। कुल मिलाकर कह सकते हैं कि आप जिस पल जिस चीज से वंचित हैं, उस पल आपको उसी की अहमियत सबसे ज्यादा महसूस होगी।
जब लोगों में किसी चीज़ की कमी की भावना होती है, तो लोगों को उसका महत्व बहुत ज्यादा लगता है।लेकिन वह चीज़ मिल जाने के बाद वो बात नहीं रहती। आज के संदर्भ में बात करें तो आज पश्चिम के देश औद्योगिक क्रांति के दौर से गुजर रहे हैं। महिलाएं अपने घरों से बाहर निकल रही हैं और पुरुष भी उन्हें सहयोग कर रहे हैं।
चीजें धीरे-धीरे बेहतर हो रही हैं, लेकिन अचानक जब इस तरह का बदलाव उस समाज में आया, तो बच्चों की एक पूरी पीढ़ी उस प्रेम से वंचित होने लगी, जिसकी वह हकदार थी। सामाजिक बदलाव निरंतर होने वाला एक ऐसा बदलाव है, जिससे निपटने के तरीकों को लेकर लोग आज भी जूझ रहे हैं। दरअसल, व्यवस्था कुछ ऐसी रही है कि घर की महिलाएं बच्चों के पास रहेंगी और उन्हें भरपूर प्रेम देंगी, लेकिन चीजें एकदम बदल गईं और नई व्यवस्था के साथ हम तालमेल ही नहीं बैठा पा रहे। लोगों की एक से दो पीढ़ियां ऐसी निकल गईं, जो उस प्रेम और देखभाल से वंचित रह गईं जो उन्हें मिलना चाहिए था।
आज भी तमाम नई चीजें हो रही हैं। मसलन अब मातृत्व अवकाश होता है, पितृत्व अवकाश होता हैं। पुरुष कुछ दिनों के लिए घर पर रुकते हैं और बच्चों की देखभाल करते हैं। पूरा नजरिया ही बदल चुका है। दुनिया में बहुत सी चीजें बदल चुकी हैं और तमाम चीजों के प्रति नजरिए में भी बदलाव आ चुका है। इसके अलावा, समाज में तमाम तरह की सुविधाएं भी आ चुकी हैं, जो दिनोंदिन आ रहे इन बदलावों से पैदा होने वाली स्थितियों में उपयोगी साबित होती हैं। यही वजहें हैं, जिनके चलते पश्चिमी देशों में प्रेम की इतनी ज्यादा बात होती है।
मैं प्रेम को हल्का करके पेश करने की कोशिश नहीं कर रहा हूं। प्रेम तो हमारी जिंदगी का एक बेहद जरूरी हिस्सा है। चीजों को जरा दूसरे नजरिए से देखिए। आप अपने जीवन में सुख की तलाश करते हैं। सुख का मतलब क्या है? अगर हमारा शरीर सुखी हो जाए तो आमतौर पर हम इसे स्वास्थ्य कहते हैं। अगर यह ज्यादा सुखद हो जाए तो इसे हम मजा कहते हैं। अगर आपका दिमाग सुखी हो जाए तो इसे हम शांति कह देते हैं और दिमाग में बहुत ज्यादा खुशनुमा अहसास होने लगे तो हम इसे खुशी कहते हैं। अगर आपकी भावनाएं सुखद हो जाएं तो इसे हम प्रेम कहते हैं।
अगर यह बहुत ज्यादा सुखद होने लगे तो इसे करुणा कहते हैं। अगर आपकी जीवन ऊर्जाएं सुखद हों तो हम इसे आनंद कहते हैं और अगर यह बेहद सुखद हो जाएं, इसे परमानंद कहते हैं। अगर आपकी बाहरी परिस्थितियां सुखद हो जाएं तो इसे हम सफलता कहते हैं। यही चीजें हैं, जिनकी तलाश इंसान कर रहा है। अगर भावनात्मक तौर पर वह सुखद स्थिति में है, जिसे हम प्रेम कह सकते हैं, तो इसका मतलब है कि ये मानवीय भावनाएं हैं जो सुखद हो रही हैं। या तो किसी व्यक्ति या चीज के प्रति ऐसा होता है या बस यूं ही अपने आप। ऐसा किसी भी तरीके से हो सकता है।
अब सवाल यह है कि क्या महज आपके भावों का सुखद हो जाना ही आपके लिए पर्याप्त है? क्या आपको स्वास्थ्य की जरूरत नहीं? क्या आपको सुख नहीं चाहिए? क्या आपको भोजन नहीं चाहिए? क्या आपको तमाम दूसरी क्षमताएं नहीं चाहिए? सोचिए अगर आपके पास बहुत सारा प्यार हो और आप दीन-हीन हों, जैसा कि दुर्भाग्य से बहुत सारे लोगों के साथ होता भी है, तो मुझे नहीं लगता कि आप खुश रह पाएंगे। जो लोग यह कहते हैं कि इस दुनिया का मूल प्रेम है, वे कहीं न कहीं अपने अंदर इससे वंचित रहे हैं।
हम जैसे लोग, जो भारत के परंपरागत परिवारों में पले बढ़े हैं, प्रेम के बारे में नहीं सोचते, क्योंकि हमें ऐसा करने की जरूरत ही नहीं पड़ती। हमें किसी ने नहीं बताया कि वह हमें प्रेम करता है। मेरी मां ने मुझसे कभी नहीं कहा कि वह मुझे प्रेम करती है और न ही मेरे मन में ऐसा कोई प्रश्न उठा कि वह प्रेम करती है या नहीं। मुझे कभी इस बात का अहसास ही नहीं हुआ कि मुझे प्रेम की आवश्यकता है। पूरा का पूरा वातावरण ही ऐसा होता था कि ऐसे सवाल कभी मन में ही नहीं आते थे।
यह बिल्कुल वैसा ही है, जैसे अगर किसी घर में खाने की कमी हो, लोगों के भूखे रहने की नौबत आ गई हो तो उस घर के लोग खाने और उसे हासिल करने के बारे में ही ज्यादा सोचेंगे। जब आपको रोज आराम से खाना मिलता है तो आप उसके बारे में सोचते ही नहीं। ठीक इसी तरह जब प्रेम आपके इर्द गिर्द होता है तो आपको यह सोचने की जरूरत नहीं होती कि प्रेम को कहीं से लाना है या हासिल करना है।
कहने का मतलब यही है कि ये चीजें एक खास तरह के अभाव की वजह से पैदा हो रही हैं। किसी इंसान के लिए प्रेम एक खूबसूरत अहसास और जीने का एक शानदार तरीका हो सकता है। लेकिन यह भी उतना ही सच है, कि इसे इसकी सीमाओं से ज्यादा बढ़ा चढ़ाकर देखने की आवश्यकता नहीं है। यहां पूछे गए सवाल में प्रेम के साथ-साथ सत्य की भी बात की गई है। मुझे नहीं पता कि आप कौन से सत्य की बात कर रहे हैं। अगर आप परम सत्य की बात कर रहे हैं तो वह तो सर्वव्यापक है, वह परम मिलन है।
प्रेम में आप एक दूसरे के नजदीक आने की कोशिश करते हैं, कुछ पल होते हैं मिलन के और फिर आप अलग अलग हो जाते हैं। कहीं भी ऐसा देखने को नहीं मिलता कि प्रेम करने वाले लगातार मिलन के पलों में रह सकें। मिलन के कुछ पल और फिर दूर हो जाना, फिर वही अहसास और फिर दूरी। बस, इसी तरह से बात आगे बढ़ती रहती है। परम सत्य का मतलब है परम मिलन की स्थिति, जिसे प्रेम नहीं कह सकते।
प्रेम तो उस दिशा में की गई एक कोशिश भर है। ऐसे ही आनंद और शांति भी उस दिशा की ओर बढ़ाए गए कदमों की तरह हैं। जब आपके भीतर शांति होती है तो आपका हर चीज के साथ एकाकार हो जाता है। जब आप आनंद में होते हैं तो भी ऐसा ही होता है। जरा सोचिए जब आप बैठकर एक दूसरे के साथ हंसी मजाक करते हैं तो कहीं न कहीं आपको एक दूसरे के साथ मेल महसूस होता है।
10-आओ चलें, रचें अपना भविष्य
हम में से कई लोग ऐसे हैं जो अपने भविष्य को जानने के लिए बहुत उत्सुक रहते हैं और कई तरह की भविष्यवाणियां या अपना राशिफल पढ़ते रहते हैं। क्या भविष्य पहले से’ ही तय होता है, जिसे कि राशिफल पढ़ कर जाना जा सकता है, या फिर भविष्य की रचना हम खुद कर सकते हैं? एक बार एक स्कूली छात्र ने सद्गुरु से भविष्यवाणियों के बारे में जानना चाहा। आइए हम भी जानते हैं इन भविष्यवाणियों का भविष्य – इस धरती पर दो तरह के इंसान हैं।
पहली श्रेणी उन लोगों की है जिनके पास समझदारी से योजना बनाने और उस पर अमल करने की क्षमता नहीं है। ऐसे लोग अपनी जिंदगी के साथ-साथ समाज और दुनिया की दिशा और दशा को तय करने के लिए भविष्यवाणियों पर यकीन करते हैं। दूसरी श्रेणी उन लोगों की है जिनके पास हर चीज के लिए एक योजना होती है। वे अपनी योजना के मुताबिक खुद तय करते हैं कि अपनी जिंदगी और इस संसार को वे किस दिशा में ले जाना चाहते हैं।
अब सवाल यह है कि आप क्या चाहते हैं? आप भविष्यवाणी चाहते हैं या फिर आपको कोई समझदारीपूर्ण योजना चाहिए? अगर किसी क्रिकेट मैच से पहले ही कोई शख्स यह बता देता है, कि मैच निश्चित तौर पर भारत ही जीतेगा, तो फिर वह केवल मैच फ़िक्सर ही हो सकता है।
हम जीतना चाहते हैं, यह बात अपनी जगह ठीक है; लेकिन हम मैच के परिणाम के बारे में नहीं जानते, इसीलिए यह खेल दिलचस्प है। चूंकि हमें इसका परिणाम नहीं पता, इसलिए हम इसमें जी जान लगाने को तैयार रहते हैं, जो कि बड़ी अच्छी बात है। अब जरा सोचिए – आपको मैच का परिणाम पहले से ही पता है। ऐसे में क्या खेल खेलने का कोई मतलब है? भविष्यवाणी एक तरह की मैच फिक्सिंग ही है, जिसमें हमें पहले ही पता है कि परिणाम क्या होगा।
हां, कुछ चीजें तय हैं। अगर आप इन चीजों को गहराई से देखेंगे तो आप जान सकते हैं, कि चीजें किस दिशा में चलेंगी। अगर मैं आपको आम का और नारियल का बीज दूं, तो जाहिर सी बात है कि आम के बीज में आम का पेड़ बनने की सम्भावना है, लेकिन आम का बीज आम का पेड़ बन ही जाएगा, इसकी कोई गारंटी नहीं है। यह गाय का चारा भी बन सकता है, या फिर किसी के घर का फर्नीचर भी। तो एक चीज है संभावना और दूसरी चीज है वास्तविकता और दोनों के बीच हमेशा ही एक दूरी होती है। क्या आपके अंदर इस दूरी को तय करने का साहस और इच्छा शक्ति है? बस इसी से इंसानी जीवन का निर्माण होता है।
कल आप इस दुनिया को किस दिशा में ले जाना चाहते हैं ? कष्टों की राह पर या सुख संपन्नता के रास्ते पर? अगर हम सभी तय कर लें कि हम दुनिया को सुख और संपन्नता की ओर ले जाना चाहते हैं, तो इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा कि दुनिया के बारे में कैसी – कैसी भविष्यवाणियां की गई हैं। कभी किसी की भविष्यवाणी को मत सुनिए, चाहे वह भविष्यवाणी आपके जीवन के बारे में की गई हो या दुनिया के बारे में।
कभी भी अपने राशिफल को पढ़ने की चेष्टा ना करें, क्योंकि अगर आपकी जिंदगी में पहले से ही सब कुछ तय हो गया तो वाकई में यह जिंदगी हॉरर यानी डरावनी हो जाएगी। फिर यह जीने लायक नहीं बचेगी। जीने का मजा ही खत्म हो जाएगा।
जीवन एक संभावना है, और इस संभावना को वास्तविकता में बदलने के लिए एक खास तरह के साहस और अक्ल की आवश्यकता होती है। यही तो जीवन है।
11-बाप रे प्रदूषण से कैसे करें नुकसान की भरपाई
पिछले कुछ वर्षों में पृथ्वी के कई सारे हिस्सों में मौसमों में बदलाव आ रहा है। वैज्ञानिक इन बदलावों का मुख्य कारण कार्बन डाई ऑक्साइड की बढ़ती मात्रा को बता रहे हैं, और इसका समाधान हर व्यक्ति के कार्बन फुटप्रिंट को कम करना बता रहे हैं। क्या है यह कार्बन फुटप्रिंट और इसे कैसे कम करें? किसी एक व्यक्ति का हमारे पर्यावरण पर क्या असर होता है, इसे नापने के लिए वैज्ञानिकों ने कार्बन फुटप्रिंट नाम का सिद्धांत दिया है।
करीब-करीब वे सारे काम जो हम रोजाना करते हैं, या हम जिन भी साधनों का इस्तेमाल करते हैं, उन सब से कार्बन डाई ऑक्साइड (CO2) निकलता है। औद्योगिक क्रांति से पहले मनुष्यों द्वारा पैदा किया गया जितना भी कार्बन डाई ऑक्साइड वातावरण में आता था, वह आसपास के जंगलों और पेड़ – पौधों द्वारा सोख लिया जाता था। जंगल व पेड़ – पौधे कार्बन डाई ऑक्साइड को सोख कर ऑक्सीजन को वापस हवा में छोड़ देते हैं। और वे कार्बन को अपने भीतर जमा कर लेते हैं। औद्योगिक युग के शुरुआत के साथ ही ईधन का प्रयोग बड़े पैमाने पर होने लगा जिससे कार्बन डाई ऑक्साइड भारी मात्रा में निकलने लगी ।
साथ ही, बढ़ती आबादी का पेट भरने के लिए खेती के लिए बड़े पैमाने पर जंगल काटे गए, जो कार्बन सोखने का काम करते थे। आज स्थिति यह है कि जितना कार्बन डाई ऑक्साइड वातावरण में पैदा होती है, उसे सोखने के लिए पर्याप्त मात्रा में पेड़ ही नहीं बचे हैं। कार्बन डाइऑक्साइड क्या करती है? कार्बन डाइऑक्साइड वातावरण में ’ग्रीन हाउस गैस’ के रूप में काम करती है।
इस का मतलब है कि वह सूर्य की गर्मी को रोक लेती है। आज धरती के तापमान को बढ़ाने में ’ग्रीन हाउस गैस’ ही मुख्य रूप से जिम्मेदार हैं। इसकी वजह से मौसम में बदलाव आए हैं – गर्मी के मौसम में गरमी बढ़ी है, बेमौसम बरसात होने लगी है, सूखे और बाढ़ का प्रकोप भी बढ़ा है, सर्दी के मौसम में ठंड बढ़ी है। इन बदलावों का असर मनुष्य सहित पेड़ पौधों व पृथ्वी पर मौजूद सभी जीवों पर भी हो रहा है।
बातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड के बढ़ने के कारण: हमारे द्वारा चलाए जाने वाले वाहनों से होने वाले प्रदूषण के अलावा और भी ऐसे कई कारण हैं: बिजली/इलेक्ट्रिसिटीः हम जिस बिजली का इस्तेमाल करते हैं, वह ज्यादातर जीवाश्म ईंधन (जैसे कोयला, प्राकृतिक गैस और तेल जैसी प्राकृतिक चीजों) से बनती है। इंधनों के जलने से कार्बन डाइऑक्साइड निकलता है।
हम जितनी ज्यादा बिजली का इस्तेमाल करेंगे, बिजली के उत्पादन के लिए उतने ही ज्यादा ईंधन की खपत होगी और उससे उतना ही ज्यादा कार्बन डाइऑक्साइड बढे़गा। अन्नः जो अन्न हम खाते हैं वह भी हमारे कार्बन फुटप्रिंट में महत्वपूर्ण योगदान देता है। खासकर तब जब हम तैयार खाद्य पदार्थ खाते हैं, या फिर हम ऐसे पदार्थ खाते हैं जिनका उत्पादन स्थानीय तौर पर नहीं हुआ हो।
वनों का संहारः खेती योग्य जमीन, इमारतों के निर्माण, लकड़ी और खनिज को पाने के लिए हमने जंगलों और पेड़ो का विनाश किया है। औद्योगिक उत्पादन: ज्यादातर हम जिन चीजों का उपयोग करते हैं, वे कारखानों में बनती हैं। ये चीजें फिर से न पैदा होने वाले खनिजों व धरती से निकलने वाले ईंधन के इस्तेमाल से बनती हैं। जिन्हें दूर दराज के इलाकों तक मालगाड़ियों से भेजा जाता है।
क्या आप जानते हैं कि औसतन एक शहरी साल में चार टन कार्बन डाइऑक्साइड वातावरण में छोड़ता है? पर्यावरण की रक्षा हम सभी की ज़िम्मेदारी है। हम क्या कर सकते हैं? इंसान के पास अपने कार्बन फुटप्रिंट कम करने के कई तरीके हैं।
एक तरीका तो यह है कि आपके द्वारा कम से कम कार्बन डाइऑक्साइड वातावरण में बढ़े। इसका मतलब है कि आप सोच समझ कर चीजों का इस्तेमाल करें, रीसाइकिलिंग करें, सार्वजनिक यातायात का इस्तेमाल करें। जहां तक हो सके ज्यादा से ज्यादा पैदल चलें, स्थानीय और रिसाइकिल्ड उत्पादों का प्रयोग करें, स्थानीय चीजों का सेवन करें। कार्बन डाइऑक्साइड को कम करने का दूसरा तरीका इसको सोखना है।
वृक्षारोपण इसका सबसे आसान और प्रभावशाली तरीका है। एक पेड़ अपने जीवन काल में एक टन कार्बन डाइऑक्साइड को कार्बन और ऑक्सीजन में बदलता है। आप ‘कार्बन-न्यूट्रल’ बन सकते हैं, इसका मतलब है कि आप अपने कार्बन फुटप्रिंट को पूरी तरह से मिटाने के लिए उतने पेड़ लगाइए, और उनकी देखभाल कीजिए, जो आप द्वारा उत्सर्जित होने वाले पूरे कार्बन डाइऑक्साइड को सोख ले। तो चलें अभी से वृक्षरोपण में जुट जाएं !
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