ईश्वर के सम्बन्ध में मनुष्य भ्रमित होता जा रहा है अगर देखें तो जीवन में कुछ न कुछ अनुभव हर एक को होते रहते है. कि जैसे कोई जन्म से ही बीमार पैदा हो तो उसे स्वास्थ्य का कभी कोई पता नहीं चलता। जैसे कोई जन्म से ही अंधा पैदा हो, तो जगत में कहीं प्रकाश भी है, इसका उसे कोई पता नहीं चलता। इसका मतलव हुआ कि वे एक अदभुत अनुभव से जन्म के साथ ही जैसे वंचित हो गए हैं। धीरे-धीरे मनुष्य-जाति को यह खयाल भी भूलता गया है कि वैसा कोई अनुभव है भी। उस अनुभव को इंगित करने वाले सब शब्द झूठे और थोथे मालूम पड़ने लगे हैं। ईश्वर शब्द थोथा दिखाई देने लगा है,मनुष्य के जीवन से परमात्मा का सम्बन्द समाप्त सा दिखाई देने लगा है।
इस दुर्भाग्य के कारण मनुष्य किस भांति जी रहा है, किस चिंता में, दुख में, पीड़ा में, परेशानी में, उसका भी हमें कोई अनुभव नहीं हो रहा है। और जब भी इस तरह की बात उठती है तो क्या ईश्वर से मनुष्य का संबंध क्यों टूटता जा रहा है? पशु-पक्षी ही ज्यादा आनंदित मालूम होते हैं। पौधों पर खिलने वाले फूल भी आदमी की आंखों से ज्यादा प्रफुल्लित मालूम होते हैं। आकाश में उगे हुए चांद तारे भी, समुद्र की लहरें भी, हवाओं के झोंके भी आदमी से ज्यादा आनंदिमत मालूम होते हैं।
आदमी को क्या हो गया है? अकेला आदमी भर इस जगत में रुग्ण, बीमार मालूम पड़ता है। लेकिन अगर हम पूछें कि ऐसा क्यों हो गया है? ईश्वर से संबंध क्यों टूट गया है? तो जिन्हें हम धार्मिक कहते हैं, वे कहेंगे-नास्तिकों के कारण, वैज्ञानिकों के कारण, भौतिकवाद के कारण, पश्चिम की शिक्षा के कारण ईश्वर से मनुष्य का संबंध टूट गया है। ये बातें एकदम ही झूठी हैं।किसी नास्तिक की कोई सामर्थ्य नहीं कि मनुष्य का संबंध परमात्मा से तोड़ सके। यह वैसा ही है-और किसी भौतिकवादी की यह सामर्थ्य नहीं कि मनुष्य के जीवन से अध्यात्म को अलग कर दे। किसी पश्चिम की कोई शक्ति नहीं कि उस दीये को बुझा सके, जिसे हम धर्म कहते हैं। यह वैसा ही है जैसे मेरे घर में अंधेरा हो और आप मुझसे पूछें आकर कि दीये का क्या हुआ?
मैं कहता हूं, दीया तो मैंने जलाया, लेकिन अंधेरा आ गया और उसने दीये को बुझा दिया! तो आप हंसेंगे और कहेंगे, अंधेरे की क्या शक्ति है कि प्रकाश को बुझा दे! अंधेरे ने आज तक कभी किसी प्रकाश को नहीं बुझाया। मिट्टी के एक छोटे से दीये में भी उतनी ताकत है कि सारे जगत का अंधकार मिलकर भी उसे नहीं बुझा सकता।
क्या अंधेरे की ताकत उजाले की ताकत से अधिक है--
हां, दीया बुझ जाता है तो अंधेरा जरूर आ जाता है। अंधेरे के आने से दीया नहीं बुझता; दीया बुझ जाता है, तो अंधेरा आ जाता है। नास्तिकता के कारण धर्म का दीया नहीं बुझाया बल्कि धर्म का दीया बुझ गया इसलिए नास्तिकता आ गई है। भौतिकवाद के कारण अध्यात्म नहीं बुझ गया है; अध्यात्म बुझा है, इसलिए भौतिकवाद है। फिर किसके कारण? क्योंकि जब कोई यह कहता है कि नास्तिकता, भौतिकवाद ये धर्म को मिटा रहे हैं, वह तो पता नहीं है उसे कि वह धर्म को कमजोर और नास्तिकता को मजबूत कह रहा है।
उसे पता नहीं कि वह धर्म के पक्ष में बोल रहा है या धर्म के विपक्ष में बोल रहा है। वह यह स्वीकार कर रहा है कि अंधेरे की ताकत ज्यादा बड़ी हैं, उजाले की ताकतों से। और अगर अंधेरे की ताकत बड़ी है तो वह प्रकाश को बुझा सकती है, तो फिर हमें यह भी समझना होगा कि प्रकाश के जलने की दुनिया में कभी कोई संभावना नहीं है। क्योंकि अंधेरा हमेशा बुझा देगा; आप जलाइए और अंधेरा बुझा देगा।
अगर नास्तिकता धर्म को मिटा सकती है, तो धर्म के जन्म की अब कोई संभावना नहीं है।
आइने का एक सच
एक पागल आदमी था। वह अपने को बहुत ही सुंदर समझता था। जैसा कि सभी पागल समझते हैं, वैसा वह समझता था कि पृथ्वी पर उस जैसा सुंदर और कोई भी नहीं है। यही पागलपन के लक्षण हैं। लेकिन वह आईने के सामने जाने से डरता था। और जब कभी कोई उसके सामने आईना ले आता तो तत्क्षण आईने को फोड़ देता था।
लोग पूछते, क्यों? तो वह कहता कि मैं इतना सुंदर हूं और आईना कुछ ऐसी गड़बड़ करता है कि आईना मुझे कुरूप बना देता है! आईना मुझे कुरूप बनाने की कोशिश करता है! मैं किसी आईने को बरदाश्त नहीं करूंगा, मैं सब आईने तोड़ दूंगा! मैं सुंदर हूं, और आईने मुझे कुरूप करते हैं! वह कभी आईने में न देखता। लोग आईना ले आते तो तत्क्षण तोड़ देता!
मनुष्य भी उस पागल की तरह व्यवहार करता रहा है। नहीं सोचता कि आईना वही दिखाता है? जो मेरी तस्वीर है। आईना वही बताता है? जो मैं हूं।
आईने का कोई प्रयोजन भी नहीं कि मुझे कुरूप करे। आईने को कोई मेरा पता भी नहीं। मैं जैसा हूं, आईना वैसा बता देता है। लेकिन बजाय यह देखने के कि मैं कुरूप हूं, आईने को तोड़ने में लग जाता हूं!
संसार को छोड़कर भाग जाने वाले लोग आईने को तोड़ने वाले लोग हैं। अगर संसार दुखद मालूम पड़ता है? तो स्मरण रखना कि संसार एक दर्पण से ज्यादा नहीं। वही दिखायी पड़ता है? जो हम हैं।
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