Thursday, September 27, 2012

महक

 
1-           लगभग सभी सम्बन्ध बहुत ज्यादा स्पष्टीकरण देने के कारण टूट जाते हैं - मैं ऐसा ही हूँ । मुझे गलत मत समझो । मेरा वो अर्थ नहीं था । यदि तुम चुपचाप रहते तो बेहतर होता । मैं तुम्हें बातचीत बंद करने के लिए नहीं कह रहा, केवल इतना कह रहा हूँ कि पुरानी बातों पर चिंतित न होओ, न तो स्पष्टीकरण दो और न मांगो ।



2-           यह जान लो की अपमान तुम्हें शक्तिहीन नहीं शक्तिशाली बनाता है। तुम जितने अहंकारी हो, उतना अपमान अनुभव करोगे । जब तुम शिशु की भांति सुलभ हो, अपनेपन की भावना में हो, तो तुम अपमानित नहीं होते । यदि तुम सृष्टि के, प्रभु के प्रेम में ओत प्रोत हो, तो तुम्हारा अपमान हो ही नहीं सकता ।



3-           प्रेम अधूरा है और उसे अधूरा ही रहना होगा। यदि कुछ पूरा हो जाये तो उसकी सीमाएं बैठा दी गयी हैं, वह कहीं ख़त्म होता है। प्रेम को असीमित रहने के लिए उसे अधूरा ही रहना होगा।



4-            सुन्दरता दिल की भाषा है - जो श्रृंगार करती है, विस्तार करती है और बढ़ा चढ़ा कर कहती है। जब तुम कविता पढ़ते हो, गाना गाते हो या कोई वर्णन देते हो, वह हमेशा दिल से ही होता है। विश्लेषण या स्पष्टीकरण मन से होता है। न्याय या समानता बुद्धि से होती है। विलक्षणता केवल दिल से होती है। दिल सब कुछ विशेष बना देता है।



5-            तुम नहीं जानते कि तुम वास्तव में कौन हो । यदि किसी के रसोईघर में जाओ तो कई बार डब्बे में कुछ होता है और उस पर लगे परचे पर कुछ और लिखा होता है । तुम एकदम ऐसे ही हो । तुम अपने ऊपर परचा या लेबल लगा लेते हो पर भीतर से तुम एकदम अलग हो ।आज की यही दुनियॉ है । अपने सारे लेबल उतार कर फेंक दो ।



6-           स्वयं से पूछो कि तुम्हें अपने सच्चे मित्र से क्या चाहिए । तुम पाओगे कि वह कुछ भी नहीं है । तुम्हें केवल मित्रता चाहिए । मित्रता तुम्हारा स्वभाव है । उसका कोई और उद्देश्य नहीं । यह इतना महत्त्वपूर्ण नहीं कि तुम्हारी मित्रता किससे है।



7-            मुझे तुमसे केवल दो बातें कहनी हैं । एक तो यह कि जीवन में कोई दुःख नहीं है । जागकर देखो, कोई दुःख, कोई शोक नहीं है । अगर इससे बात नहीं बनती तो दूसरी यह कि अपना दुःख मुझे दे दो ।



8-            यह विश्व ऐसा ही है जैसी तुम्हारी दृष्टि है। एक भूखे व्यक्ति को चाँद रसगुल्ले जैसा दीखता है। एक प्रेमी को चाँद में अपने प्रियतम का मुखड़ा नज़र आता है । दैवी प्रेम पा लेने पर प्रेम के सिवा कुछ और दीखता ही नहीं है। पूर्णता को प्राप्त होने पर केवल पूर्णता ही दिखती है।



9-           पूर्णता और कृतज्ञता की स्थिति में तुम्हारे भीतर अर्पण करने का भाव जगता है| "आपने मुझे यह विश्व दिया, मैं इसे वापस आपको ही अर्पित करता हूँ| आपने मुझे यह शरीर दिया, मैं इस शरीर का कण कण आपको अर्पित करता हूँ| मैं आपका ही हूँ|" यह तीव्र भावना विलीन होने की, अपने लिए कुछ न रखते हुए सब कुछ प्रभु को समर्पित कर देने की, स्वयं को ही अर्पित करने की, यह भावना पूजा है|



10-            ऐसा कहा जाता है कि जब तुम उनके लिए गाते हो तो ईश्वर का तुममें उदय होता है । जब तुम गाते हो तो तुम्हें दैवी प्रेम का अनुभव होता है । यह बात निश्चित है । ईश्वर केवल तुम्हारे अपने भीतर और गहराई में जाने की प्रतीक्षा कर रहे हैं, ताकि वे तुम्हें और भी अमृत से भर दें । वे तुम्हें और भी देने की प्रतीक्षा कर रहे हैं । अपने दिल से उन्हें पुकारो, आत्मा से आवाज़ दो ।



11-            प्रेम देने का आनंद इतना रसमय रहता है कि । जब ऐसी अवस्था तुम्हारे भीतर स्थापित हो जाती है, तो तुम सभी को प्रेम बांटने लगते हो - केवल मनुष्यों को ही नहीं, जंतुओं को, वृक्षों को, सितारों को । केवल एक प्रेममयी दृष्टि से भी सबसे दूरवर्ती तारे तक प्रेम पहुँच जाता है, प्रेममय स्पर्श से एक वृक्ष तक पहुँच जाता है । प्रेम संपूर्ण मौन में, बिना शब्द कहे भी व्यक्त हो सकता है ।



12-            जो भी तुम्हारी परेशानी हो, उसे पूरी तरह त्याग दो । यदि तुम आज मुक्त नहीं हो, तो और किसी समय भी मुक्त नहीं हो सकते । मुक्ति तुम्हारे पास आयेगी, ऐसी अपेक्षा मत करो । "आज मैं मुक्त हूँ! जो जैसा होना है, वैसा ही होगा ।



13-            जब तुम प्रेम से भर जाते हो तो उसे बांटने लगते हो। और तब यह आश्चर्य की बात पता चलता है कि जब तुम प्रेम देने लगते हो, तुम प्रेम पाने भी लगते हो - अज्ञात साधनों से, अनजान लोगों से, पेड़ों से, नदियों से, पहाड़ों से, सृष्टि के कोने कोने से तुमपर प्रेम कि वर्षा होने लगती है। जितना तुम देते हो, उतना तुम्हें मिलता है। जीवन प्रेम का नृत्य सा बन जाता है। 15-तुम्हें कैसे पता है कि मुझसे पूछने पर तुम्हें उत्तर मिलेगा, कि वह सही उत्तर होगा । यह श्रद्धा है ।



14-            जब प्रेम चमकता है, वही आनंद है । जब वह बहता है, वही करुणा है । जब वह भड़कता है, वही क्रोध है । जब वह खमीर होता है, वही ईर्ष्या है । जब वह नकारात्मक है, वही घृणा है । जब वह क्रियाशील होता है, वही निपुणता है । जब वह अनुभूति है, वही मैं हूँ ।



15-            प्रेम और आसक्ति में क्या अंतर है? आसक्ति वह है जो तुम्हें पीड़ा दे । प्रेम वह है जिसके बिना तुम जी नहीं सकते । यदि प्रेम आसक्ति बन जाये तो वही प्रेम जो आनंद देता था, पीड़ा देने लगता है । आसक्ति में तुम्हें बदले में कुछ चाहिए । यदि तुम प्रेम करो और बदले में कोई अपेक्षा न रखो तो वह प्रेम आसक्ति में नहीं परिणत होता ।



16-            सामान्यतः शरण लेने में दुर्बलता, असफलता या गुलामी की भावना मानी जाती है । पर शरणागत होने का एक और पहलु है जिसमें स्वतंत्रता है । इसका अर्थ है सीमितता से असीमितता तक बढ़ना, दिव्यता में, सृष्टि के विशाल शक्तिशाली सिन्धु में विलीन हो जाना । शक्तिहीन व्यक्ति शरणागत नहीं हो सकता । जब तुम तनाव, भय, चिंता और संकीर्णता को छोड़ देते हो, तो तुम्हारे भीतर स्वंत्रता, वास्तविक आनंद और सच्चा प्रेम उदित होता है ।



17-            मृत्यु के समय केवल दो ही प्रश्न सामने रह जाते हैं:

१) तुमने कितना प्रेम बांटा और

२) तुमने कितना ज्ञान प्राप्त किया



18-            जब हम जीवन के स्रोत से जुड़ जाते तो सारी चिंताएं और तनाव बिखर जाते हैं; हम गा सकते हैं, नाच सकते हैं, प्रसन्न हो सकते हैं । जीवन अत्यंत आनंदमय हो जाता है ।



19-            अहंकार पर कैसे जीत पाएं? अहंकार तुम्हारे और दूसरों के बीच दीवार जैसा है । पर वास्तव में कोई दीवार नहीं है । तुम मेरे हो और मैं तु म्हारा । तुम जैसे भी हो स्वीकार्य हो । सहजता अहंकार की दवा है । अहंकार सहजता को नहीं झेल सकता । बच्चे कितने सहज होते हैं । बस बच्चे बनकर रहो ।



20-            जब प्रेम तुम्हारे अनुभव में आने लगता है तो तुम सजग होने लगते हो । तुम वही पहचान सकते हो जो तुम जानते हो । जब प्रेम पहली बार तुम्हारे अन्तर्भाग को भर देता है, तो तुम पूर्णतः अभिभूत हो जाते हो । तुम्हारा ह्रदय नृत्य करने लगता है, दिव्य संगीत सुनाई देने लगता है और ऐसी सुगंधें आने लगती है जो पहले कभी महसूस नहीं हुईं ।



21-            जब हमारे जीवन में व्यक्तिगत ज़रूरतें और इच्छाएं नहीं रहतीं, तो एक अद्भुत, रहस्यमयी प्रतिभा जाग उठती है जिससे हम दूसरों को आशीर्वाद दे सकते हैं । जब हमें अपने लिए कुछ नहीं चाहिए तो हममें दूसरों की इच्छाएं पूर्ण करने की शक्ति आ जाती है ।



22-            जब तुम्हें आदर मिलता है, तो प्रायः तुम्हारी स्वतंत्रता कुछ कम हो जाती है । ज्ञान यही है कि स्वतंत्रता को प्राथमिकता देना और आदर कि चिंता न करना । जहां सच्चा प्रेम है, वहां आदर सहज ही होता है ।



23-            यह सारा ब्रह्माण्ड केवल समूहों से बना है - परमाणुओं के, गुणों के, शक्ति के| गण का अर्थ है समूह और समूह अधिपति के बिना नहीं रह सकता| गणेश का जन्म अव्यक्त, अद्वितीय चेतना से हुआ जिसका नाम शिव है| जैसे परमाणुओं के जुड़ने से पदार्थों की उत्पत्ति होती है, उसी तरह हमारी चेतना के सभी पहलू जुड़ने पर दिव्यता सहज ही उत्पन्न होती है और वही शिव से गणेश का जन्म है|



24-            दुर्भाग्यशाली हैं वे जो इच्छाएं करते रहते हैं पर जिनकी इच्छाएं पूरी नहीं होतीं| थोड़े भाग्यवान हैं वे जिनकी इच्छाएं बहुत समय बाद पूरी होती हैं| उनसे भी अधिक भाग्यशाली हैं वे जिनकी इच्छाएं उठते ही पूरी हो जाती हैं| सबसे सौभाग्यशाली हैं वे जिनकी इच्छाएं नहीं बचीं क्योंकि वे उठने से पहले ही पूरी हो जाती हैं|



25-            तुम प्रेम को बुद्धि द्वारा नहीं समझ सकते । उसे अनुभव करना होगा । और अनुभव करने तके लिए संश्लेशण की आवश्यकता है,विश्लेषण की नहीं । उसे जानने के लिए उसके साथ एक होना होगा । तुम जो भी बुद्धि से जानते हो वह थोडी दूरी पर है । ज्ञाता ज्ञेय का भेद हमेशा रहेगा । पर प्रेम ऐसा नहीं है । मिठाई का स्वाद उसे खाने में है,संगीत का रस उसे सुनने में है । उसी तरह,प्रेम अनुभव में है ।
 


26-            जब हम आनंद की चाह में कर्म करते हैं तो वह कर्म निम्न हो जाता है। जैसे तुम प्रसन्नता फैलाना चाहते हो पर यदि तुम जानना चाहो कि वह व्यक्ति प्रसन्न हुआ कि नहीं तो तुम चक्रव्यूह में फंस जाते हो। इस बीच तुम अपना सुख खो बैठते हो। अपने कर्म के फल कि चिंता तुम्हें नीचे खींचती है। पर जब हम कोई कर्म आनंद की अभिव्यक्ति के रूप में करते हैं और फल की चिंता नहीं करते, वह कर्म ही पूर्णता ले आता है।
 


27-            तुम जैसे ही भीतर से कोमल होते हो, कठोरता छूट जाती है, बंधन में होने की भावना चली जाती है, सुख समृद्धि आने लगती है। जब तुम सौम्य और बिना प्रतिरोध के होते हो, तो यश भी आता है। प्रकृति तुम्हें देती है। आध्यात्मिक पथ पर यही सत्य है।
 
 

28-           हम जो कुछ भी हैं अपनी स्मृति के कारण हैं।अनंत को भूल जाना दुःख है । तुच्छ को भूल जाना आनंद है ।


29-            प्रेम और पीड़ा साथ साथ चलती है। जब तुम किसीसे प्रेम करते हो, एक छोटा सा कर्म भी चोट पहुंचा सकता है। और तब तुम बहुत नाज़ुक हो जाते हो। प्रेम और वियोग के एक जैसे ही लक्षण हैं। यदि तुम किसीसे प्रेम नहीं करते, वे तुम्हें पीड़ा नहीं दे सकते। यह समझ लो और स्वीकार कर लो। तब वह पीड़ा घाव में परिणत नहीं होगी। बल्कि वह पीड़ा तुम्हें वैराग्य और ध्यान की गहराईओं में ले जाएगी।


30-            ज़रा अपने मन में शोर को देखो। वह किस विषय में है? धन? यश? सम्मान? तृप्ति? सम्बन्ध? शोर सदा किसी बारे में होता है; मौन शून्य के बारे में होता है। शोर ऊपरी सतह है; मौन आधार है।
 


31-            ज़रा अपने मन में शोर को देखो। वह किस विषय में है? धन? यश? सम्मान? तृप्ति? सम्बन्ध? शोर सदा किसी बारे में होता है; मौन शून्य के बारे में होता है। शोर ऊपरी सतह है; मौन आधार है।
 


32-            तुम जिसका भी सम्मान करते हो, वह तुमसे बड़ा हो जाता है। यदि तुम्हारे सभी सम्बन्ध सम्मान से युक्त हैं, तो तुम्हारी अपनी चेतना का विकास होता है। छोटी चीज़ें भी महत्त्वपूर्ण लगती हैं। हर छोटा प्राणी भी गौरवशाली लगता है। जब तुममें सरे विश्व के लिए सम्मान है, तो तुम ब्रह्माण्ड के साथ लय में हो।
 


33-            तुममें एक कर्ता है और एक साक्षी है। कर्ता स्पष्ट या अनिश्चय में हो सकता है, पर साक्षी केवल देखता और मुस्कुराता है। जितना यह साक्षी तुममें बढ़ेगा, तुम उतने आनंदी और अप्रभावित रहोगे। तब निष्ठा, श्रद्धा, प्रेम और आनंद तुम्हारे भीतर और चारों ओर खिल उठेंगे।
 


34-            जब मैं-पन ख़त्म हो जाता है, कर्ता घुल जाता है, तब केवल शक्ति रह जाती है, केवल आनंद| यह प्रयत्न से नहीं, केवल गहरे विश्राम में ही संभव है। केवल यह भाव रखना "यह शक्ति मुझमें यहीं पर इसी क्षण उपस्थित है" पर्याप्त है।
 


35-            वह आत्मा जो तुम्हारा जीवन चला रही है, पवित्र है। जब तुम अपनी चेतना का सम्मान करते हो, तो तुममें बाकी सभी गुण भी अनायास ही अभिव्यक्त होने लगते हैं।
 


36-            उत्साहपूर्ण रहो, यह जीवन को पूरी तरह जीने का मापदंड है। जीवन उत्साह है, पर उसे खोने की प्रक्रिया को आज हम जीना कहते हैं। अपना उत्साह बनाये रखो। यह तुम्हें दिल से युवा रखेगा।
 


37-            अपने मन में दिव्य ज्योति अनुभव करने की इच्छा रखो। जीवन के उत्कृष्ट लक्ष्य कुछ पलों के ध्यान और अन्तरावलोकन से ही साधे जा सकते हैं। शांति के कुछ पल रचनात्मकता का स्रोत होते हैं। दिन में किसी न किसी समय कुछ क्षणों के लिए अपने ह्रदय की गुफा में बैठो, आँखें बंद करो और दुनिया को गेंद की भांति फेंक दो। पर बाकी समय, अपने काम में १००% आसक्ति रखो। अंत में तुम आसक्त और अनासक्त दोनों रह पाओगे। यही जीवन जीने की कला है।
 


38-            यद्यपि नदी विशाल है, तुम्हारी प्यास एक घूँट से भर जाती है। यद्यपि पृथ्वी पर इतना भोजन है, थोड़ा सा ही तुम्हारा पेट भर देता है। तुम्हें केवल थोड़े थोड़े की ही आवश्यकता है। जीवन में हर चीज़ का छोटा सा अंश स्वीकार करो, उससे तुम्हें संतुष्टि मिलेगी। आज रात सोने तृप्ति की भावना के साथ जाओ, और अपने साथ दिव्यता का एक छोटा सा अंश ले जाओ।
 


39-            जीवन हर घटना में तुम्हें उसे छोड़कर आगे बढ़ना सिखाता है। जब तुम्हें छोड़ देना आ जाता है, तुम आनंद से भर जाते हो, और जब तुम आनंदित होते हो, तो तुम्हें और दिया जाता है।
 


40-            घर क्या होता है? एक ऐसी जगह जहाँ तुम्हें विश्राम मिले। जहाँ तुम अपने स्वभाव में आराम से रहो। मेरे लिए पूरी दुनिया मेरा घर है। मैं जहाँ जाता हूँ, सबसे एक जैसी आत्मीयता महसूस करता हूँ। यह संपूर्ण विश्व मेरा परिवार है, मेरा घर है।
 
 
41-जब तुम सुन्दरता में आनंदित होते हो, तो यह प्रकृति तुम्हारे साथ आनंदित होती है। प्रकृति में इतनी विविधता का उद्देश्य ही है तुम्हें अपने आत्म में लाना - कि तुम सुन्दर हो, तुम सौंदर्य ही हो।
 
42-देवता खेले विविध ज्योति से होली
ज्ञानी खेले विविध तत्त्वों से होली
भक्त खेले विविध भावों से होली
ध्यानी खेले विविध चक्रों से होली
योगी खेले कर्मों से होली
मूर्ख खेले कीचड से होली
असुर खेले राग द्वेष की होली
चलो हम खेलें फूल चन्दन से होली
हर दिन सेवा प्रार्थना की होली
 
43-जब तुम्हें कुछ करना है तो अपने बल पर ध्यान दो। तुम्हारी कमजोरी यह है कि तुम दूसरों के बल पर ध्यान देते हो! जब तुम दौड़ में भागते हो तो नीचे ट्रैक पर देखोगे न कि साथ वाले को। घोड़े की तरह जिसकी आँखों पर पट्टी लगी हो, केवल अपना मार्ग देखो और बाकी सब को जो भी वे करना चाहें, करने दो।
 
44-सुन्दरता दिल की भाषा है - वह सजाती है, विस्तार करती है और बढ़ा चढ़ा कर कहती है। जब तुम कविता पढ़ते हो, गीत गाते हो या किसी का वर्णन करते हो, वह हमेशा दिल से होता है। विश्लेषण और स्पष्टीकरण मन के हैं। न्याय और समानता बुद्धि के विषय हैं। अद्वितीयता केवल ह्रदय से होती है और ह्रदय सब कुछ विशेष बना देता है।
 
45-अपमान तुम्हें निर्बल नहीं बनाता, तुम्हें प्रबल बनाता है। तुम जितने अहंकारी हो, उतना अपमान महसूस करोगे। जब तुम बच्चों की तरह सहज रहते हो और आत्मीयता रखते हो, तब अपमान नहीं महसूस करते। जब तुम इस सृष्टि के, ईश्वर के प्रेम में ओत प्रोत हो, तुम्हारा कोई अपमान नहीं हो सकता।
 
46-जीवन में पांच इन्द्रियों के पांच आयाम हैं। एक और आयाम है - सान्निध्य महसूस करने का। प्रकाश सुना नहीं जा सकता,वह आँखों से देखा जाता है। वाणी देखी नहीं जाती, कानों से सुनी जाती है। उसी तरह, सान्निध्य को दिल में महसूस किया जाता है। मानवीय जीवन तभी निखरता है जब हम यह छठी इन्द्रिय जीवन में उतारते हैं।
 
47-दुखी होने का केवल इतना अर्थ है कि विवेक ढक गया है। विवेक का अर्थ है यह जानना कि सब परिवर्तनशील है। तुम्हारा शरीर, तुम्हारी भावनाएं, आस पास के लोग, यह पूरा जगत - सब बदल रहा है। तुम्हें पुनः पुनः इस सत्य के प्रति जागृत होना है। प्रायः तुम परिवर्तन से भयभीत होते हो। जीवन सुधारने के लिए परिवर्तन की आवश्यकता होती है, पर तुम अपनी पुरानी प्रवृत्ति में सुरक्षित महसूस करते हो। इसलिए अपनी बुद्धि का उपयोग करो और जब भी आवश्यकता हो, तब परिवर्तन लाने का साहस रखो।
 
48-पहले, स्वयं को जानो। फिर प्रेम प्रसाद के रूप में प्राप्त होगा। वह परलोक की ओर से प्रसाद है। वह तुमपर पुष्पों की वर्षा की भांति बरसता है और तुम्हारे अस्तित्व को पूर्ण कर देता है। और साथ ही उसे बांटने की तीव्र आकांक्षा लाता है।
 
49-एक है ईमानदार होना और एक है अपनी ईमानदारी जताना। जब तुम कहते हो, "मैं ईमानदार हूँ", वह प्रायः क्रोध से होता है। सबके प्रति सहज रहो, किसी धुन में मत रहो। अपनी ईमानदारी की घोषणा करने की आवश्यकता नहीं है। ईमानदार का अर्थ रूखा होना नहीं है। ईमानदार रहो पर कुशलता से।
 
50-अपने शरीर का सम्मान करो। जब भी भोजन करो तो याद रखो कि तुम अपने शरीर में प्रतिष्ठित ईश्वर को भेंट चढ़ा रहे हो। जब लोग व्यथित होते हैं, तो अधिक खाते हैं। अपना भोजन जल्दबाजी में नहीं, हिंसा से नहीं, अर्पण की भावना से करो। यह भी पूजा है।
 
51-सभी सफल होना चाहते हैं। कभी सोचा है सफलता क्या है? केवल अपने सामर्थ्य के बारे में अज्ञानता है। तुमने स्वयं पर एक सीमा लगा दी है और जब तुम वह सीमा लांघते हो, तुम सफल होने का दावा करते हो। सफलता अपनी आत्मशक्ति का अज्ञान है क्योंकि तुम मान लेते हो कि तुम उतना ही कर सकते हो।
 
52-मुक्ति क्या है? जीवन को एक गहराई से जीना, किसी भी परिस्थिति में तनावपूर्ण न होना, परिस्थितियों से प्रभावित होने की बजाय उन्हें प्रभावित करना। यदि तुम दिल की गहराईओं से मुस्कुरा सको, कहीं भीतर से... मुक्ति तुम्हारा स्वभाव है। मनुष्यता और दिव्यता दो नहीं हैं। तनाव सबसे बाहर का आवरण है, सेब पर लगे प्लास्टिक की तरह। मनुष्यता उसकी बाहरी त्वचा है और दिव्यता उसके भीतर का गूदा है।

Thursday, September 20, 2012

शॉति की खोज


1-     तुम्हें इस सृष्टि में हर तरफ प्रेम ही प्रेम दिखेगा यदि उसे देखने वाली दृष्टि हो ।
 
2-     मुझे पता है कि जीवन एक खेल है । तुम्हें पता है कि जीवन एक खेल है । चलो खेलें!
 
3-     जीवन अत्यंत सरल भी है और अत्यंत जटिल भी । रंग जीवन की जटिलता हैं और श्वेत जीवन की सरलता है । यदि तुम्हारा दिल साफ़ है तो जीवन रंगीन हो जाता है ।
 
4-     क्या तुम थक गए हो? अगर नहीं तो थक जाओ । थके बिना तुम घर नहीं पंहुच पाओगे । इस दुनिया की हर वस्तु तुम्हें थकाएगी सिवाए एक के - प्रेम । वही अंत है; वही तुम्हारा घर है । थकान भोग की छाया है । सुख भोगने की लालसा तुम्हें रास्ते पर चलाती है । प्रेम की चाह तुम्हें वापस घर लाती है ।
 
5-     ऐसा कहा जाता है कि जब तुम उनके लिए गाते हो तो इश्वर का तुममें उदय होता है । जब तुम गाते हो तो तुम्हें दैवी प्रेम का अनुभव होता है । यह बात निश्चित है! इश्वर केवल तुम्हारे अपने भीतर और गहराई में जाने की प्रतीक्षा कर रहे हैं, ताकि वे तुम्हें और भी अमृत से भर दें । वे तुम्हें और भी देने की प्रतीक्षा कर रहे हैं । अपने दिल से उन्हें पुकारो, आत्मा से आवाज़ दो ।
 
6-     वस्तुओं का महत्त्व तुम्हारे कारण होना चाहिए| सोफा इस कारण मूल्यवान हो कि तुमने उसका उपयोग किया न कि तुम्हारा मान अच्छा सोफा होने से बढ़े| यह सफल जीवन का चिन्ह है ।
 
7-     स्पष्टीकरण मांगने से भावनाओं का बवंडर उमड़ पड़ता है । वे कुछ उत्तर देते हैं, तुम कुछ कहते हो, या तो वे ग्लानी में चले जाते हैं या और स्पष्टीकरण देते हैं । दोनों स्थितियों से तुम्हारा कोई लाभ नहीं है । काफी बार "मुझसे गलती हुई" कह देना ही उचित है । पर वह भी बहुत बार दोहराने की आवश्यकता नहीं । प्रेम और स्वीकृति की भावना - "मैं तुम्हारे लिए क्या कर सकता या सकती हूँ?" ही पर्याप्त है ।
 
8-     प्रेम के गुंण--स्वयं के साथ और दूसरों के साथ भी । जब तुम भीतर से खुल जाते हो, तो सबको प्रेम के अतिरिक्त कुछ दे ही नहीं सकते और वे भी तुमसे प्रेम किये बिना रह नहीं सकते । न तुम्हारे पास कोई विकल्प है न उनके पास । तुमने यह शिशु रहते हुए किया है । तब तुम सभी के साथ भोले भले, सहज और मासूम थे । और सभी तुमसे प्रेम करते थे!
 
9-     मानव शारीर बना है पृथ्वी पर स्वर्ग लाने के लिए, दुनिया में मिठास फैलाने के लिए, विष घोलने के लिए नहीं । किसी को नीचे धकेलना आसान है, पर उन्हें ऊपर उठाने के लिए, उनमें दैवी गुण जगाने के लिए साहस और बुद्धि दोनों की आवश्यकता है । दूसरों में दैवी गुण जागृत करने से तुम्हें अपने भीतर की दिव्यता दिखने लगेगी ।
 
10-     ऐसा मत सोचो कि जो लोग तुम्हारी कष्ट की बात सुनकर सहमत हो जाते हैं कि तुम कष्ट में हो, वे तुम्हारे मित्र हैं ।जो लोग तुम्हारी नकारात्मक भावनाओं या निराशाओं को बढ़ावा देते हैं वे मित्र प्रतीत होते हैं पर वे बुरी संगत हैं । सुसंगति या अच्छे मित्र तुम्हें यह अनुभव कराते हैं कि समस्या कुछ भी नहीं है - "यह तो सरल सी बात है, चिंता मत करो ।" वे तुममें उत्साह भर देते हैं ।
 
11-     यदि उन्हें मुझमें इश्वर दीखते हैं तो यह उनपर निर्भर है । मुझे भी उनमें भगवान दीखते हैं । जहाँ से भी शुरुआत हो, रुको मत - सबकी पूजा करो, हर वस्तु को सम्मान दो। आज विश्व में हिंसा है तो इसलिए कि हमने लोगों को एक दूसरे का सम्मान करना नहीं सिखाया । जीवन का सम्मान करो, वह चाहे कहीं भी हो - गाय में, गधे में या श्वान में । समाज को प्रेम में संवरने की आवश्यकता है, और प्रेम में पूजा निश्चित है ।
 
12--     जो तुम बन्दूक से नहीं जीत सकते वह तुम प्रेम से जीत सकते हो । दुनिया की सबसे बड़ी शक्ति प्रेम है । प्रेम से हम लोगों के दिल जीत सकते हैं । जो जीत अहम् की भावना से मिले उसका कोई मोल नहीं । अहंकार में जीत भी हार है । प्रेम में हार भी जीत है ।
 
13-     यदि बाहर वर्षा हो रही है तो वह नियति है; तुम्हारा मौसम पर कोई वश नहीं है । परन्तु भीग जाना या सूखे रहना तुम्हारे संकल्प पर निर्भर है ।

14-     भूत को नियति मानो, भविष्य के लिए संकल्प करो और वर्तमान में प्रसन्न रहो । मूढ़ व्यक्ति भूत को अपना संकल्प मानकर खेद करता है, भविष्य को नियति पर छोड़ देता है और वर्तमान में दुखी रहता है ।
 
15--     तुम्हें तभी तक चलना है जब तक तुम समुद्र तक न पंहुच जाओ। समुद्र में तुम्हें चलने की आवश्यकता नहीं है, अब केवल बहना और तैरना है । उसी तरह, एक बार गुरु के पास पंहुचने पर खोज का अंत होता है और खिलना आरम्भ होता है ।
 
16-     इस पृथ्वी पर हल्केपन के साथ चलो, पर ऐसे पदचिन्ह छोड़ो जो हज़ारों साल तक न मिटें ।
 
17-     गुरु एक द्वार है । जब तुम सड़क पर धूप में तप रहे हो या वर्षा में भीग रहे हो, तो तुम्हें किसी आश्रय की आवश्यकता महसूस होती है । द्वार में प्रवेश करने पर यह जगत बहुत सुन्दर दीखता है - प्रेम, आनंद, सहयोग, दया, सभी गुणों से भरा हुआ । द्वार से बाहर देखने पर कोई भय नहीं होता । अपने घर के भीतर से तुम बाहर तूफ़ान को देख सकते हो और विश्राम भी कर सकते हो । एक सुरक्षा की भावना, पूर्णता और आनंद का उदय होता है । गुरु के होने का यही उद्देश्य है ।
 
18-     यदि तुम सृष्टि के उपकरण बनकर उसे अपने द्वारा कार्य करने दो, तो जीवन एक अलौकिक स्तर को प्राप्त हो जाता है ।
 
19-     ज़रा अपनी ओर देखो ? कितने दोष हैं तुममें ! पर प्रकृति ने, इश्वर ने तुम्हें सभी दोषों के साथ भी स्वीकार कर लिया है । उसने तुम्हें अपनी बाहों में ले लिया है । वह कभी नहीं कहती, "तुमने आज बहुत बुरा बर्ताव किया, मुझे बुरा भला कहा, मैं तुममें श्वास नहीं जाने दूँगी । तुम्हारा दिल धड़काना बंद कर दूँगी ।" प्रकृति कभी तुम्हें आंककर तुम पर निर्णय नहीं लेती ।
 
20-     प्रेम ज्ञान से सुरक्षित रहता है, मांगने से नष्ट होता है, संदेह से परखा जाता है और आकांक्षा से विकसित होता है । यह श्रद्धा से खिलता है और कृतज्ञता से बढ़ता है । प्रेम संपूर्ण ब्रह्माण्ड का सार है । प्रेम से किया कर्म सेवा है । और तुम ही प्रेम हो ।
 
21-     हमेशा यह याद रखो: प्रकृति तुम्हें ऐसी कोई समस्या नहीं देगी जिसका तुम हल न खोज सको । उत्तर पहले ही तुम्हारे पास है, तभी प्रश्न तुम्हारे सामने लाया गया है ।
 
23-     दो प्रकार के लोग होते हैं: एक वे जिनका मूल्य उनकी वस्तुओं के होने से बढ़ता है और दुसरे वे जिनके कारण वस्तुएं मूल्यवान होती हैं । इनमें दूसरे प्रकार के लोग हैं जो अपना जीवन वास्तव में जीते हैं ।
 
24-     देखें तो जरा ये शव्द क्या कहते हैं -
ध्वनि में लय संगीत है ।
गति में लय नृत्य है ।
मन में लय ध्यान है ।
जीवन में लय उत्सव है ।
 
25-     यदि तुम प्रेममय हो, तो दुनिया में हर जगह तुम्हारा स्वागत होगा । यदि तुम कहीं भी लोगों के साथ एक हो सकते हो, घुल मिल सकते हो, तो लोग तुम्हारे लिए कुछ भी करने को तैयार हो जाते हैं ।
 
26-     जब नींद न आती हो तो यह ऐसा पूछने जैसा है कि "सोना इतनी कठिन क्यों है?" एक पुराना दोहा है "प्रेम गली अति सांकरी, ता में दो न समाय । जब मैं था तब हरी नहीं, अब हरी है मैं नाहीं ।" या तो प्रेम है या तुम हो । प्रेम का अर्थ है भूल जाना कि "मेरा क्या होगा?" और पिघल जाना । ऊपर आकाश में देखो: इतने सारे तारे, चन्द्रमा, सूर्य, पर यदि रेत का एक कण आँख में पड़ जाए तो सब छुप जाता है । वैसे ही, छोटा "मैं, मैं" तुम्हारे असीमित रूप को छुपा देता है, वह विघ्नरहित प्रेम जो तुम हो ।
 
27-     अपनी मंशा पर ध्यान दो जिसके कारन तुम कर्म करते हो । प्रायः तुम वस्तुओं के पीछे इस वजह से नहीं भागते कि वे तुम्हें चाहियें । तुम वस्तुओं के पीछे इसलिए भागते हो क्योंकि वे दूसरों को चाहियें । और तुम्हें जो चाहिए उसके बारे में तुम स्पष्ट नहीं हो क्योंकि तुमने भीतर झांक कर कभी देखा नहीं ।
इसे अंतर्ग्रहण करो: स्वाधीनता का अर्थ है स्वयं के अधीन रहना । जब तुम्हें अपने आराम के लिए दूसरों से कुछ चाहिए तो तुम दुखी हो जाते हो । 'मैं आत्मनिर्भर हूँ' का अर्थ है 'मैं आत्म पर निर्भर हूँ' । मुझे किसीसे कुछ नहीं चाहिए ।
 
28-     कुछ काम करने के लिए तुम्हें कुछ योग्यता चाहिए । 100 किलो भार उठाने के लिए तुम्हें उतना बल चाहिए । तो यदि प्रेम बल या योग्यता का प्रश्न है तो हर व्यक्ति प्रेम नहीं कर सकता । पर प्रेम सभी योग्यताओं से परे है । चाहे मूर्ख हो या बुद्धिमान, निर्धन या धनी, रोगी या स्वस्थ, बलवान या निर्बल, कोई भी प्रेम कर सकता है ।
 
29--     जब तुम चन्द्रमा को देखते हो या कोई सुन्दर दृश्य देखते हो, तो कहते हो, "ओह, कितना सुन्दर!" उस सुन्दरता का अनुभव अलग है । पर जब तुम कुछ ऐसा देखते हो जिस पर अधिकार पाना चाहो या नियंत्रण रखना चाहो - बायफ्रेंड या गर्लफ्रेंड या कोई चित्र, तो मन कहता है, "यह मुझे चाहिए ।" उस सुन्दरता में ज्वरता है; तब वह अधिक देर नहीं टिकती । सुन्दरता की लहर उठती है पर एक छोटी तरंग रहकर ख़त्म हो जाती है । सुन्दरता की पवित्रता मासूमियत में है ।
 
30--     दुर्भाग्यशाली हैं वे जो इच्छाएं करते रहते हैं, पर जिनकी इच्छाएं पूरी नहीं होतीं । थोड़े भाग्यवान हैं वे जिनकी इच्छाएं बहुत समय बाद पूरी होती हैं । उनसे भी अधिक भाग्यशाली हैं वे जिनकी इच्छाएं उठते ही पूरी हो जाती हैं । सबसे सौभाग्यशाली हैं वे जिनकी इच्छाएं नहीं बचीं, क्योंकि वे उठने से पहले ही पूरी हो जाती हैं ।
 
31-'     यदि वह कर सकता है तो मैं क्यों नहीं कर सकता?' यह विचार तुम्हें लोगों से अलग कर देता है और व्याकुलता उत्पन्न करता है; उलझन हो जाती है; ईर्ष्या आ जाती है । तुम दिखावा करने लगते हो और अपनी सहजता खो बैठते हो । सारी उलझनें छोड़ दो, दिखावा मत करो । तृप्ति अति सुन्दर है । जो इच्छा उठने से पहले ही तृप्त हो और यह जान ले की उसकी सभी ज़रूरतें पूरी हो जाएँगी, शांति और आनंद उसे दिया जायेगा ।

शक्ति का श्रोत





 

उपहार का मूल्य



 
 




1-आगे बढते जॉय-

क-           हम अपने जीवन की प्रगति के लिए जो उद्देश्य निर्धारित कर लेते हैं ,उसमें हमारे प्रयत्नों से हमें सफलता प्राप्त हो जाती है,लेकिन विगत समय की भूलें कभी-कभी अत्यधिक प्रयासों से भी विफलता को नहीं रोक सकते ! कभी-कभी हम अपने आप को किसी कार्य में पूर्ण समझते हैं यह हमारी भूल है,,क्योंकि भूलें तो मानवीय स्वभाव है । यदि हमने भूल मानकर मन से स्वीकार कर लिया तो सदा के लिए भूल का अंत हो जाना चाहिए ! हॉ यदि आप उसकी पुनरावृत्ति न करने का निश्चय कर लें और भविष्य में सावधान रहें ! पिछली भूलों पर पछताना स्थिति में सुधार नहीं करता, बल्कि अनावश्यक ही शक्ति का क्षय और समय का नाश कर कर देता है । आप अपनी पुरानी भूलों के लिए स्वयं को क्षमा कर दें,और अपराध बोध को न बढाएं । अपराधबोध तो तभी बना रहता है जब आप स्वयं ही सोच में पडे रहते हैं । अतीत का तो आपके साथ कोई यथार्थ सम्बन्ध नहीं होता है,भले ही आप मनमें उसके साथ चिपके रहें ।अतीत को फूंक के साथ उडा दें उसे विलुप्त मानकर अस्वीकार कर लों ।

ख-            जीवन में आगे बढने के लिए हमारे सामने जो ज्वार आता है उससे हम अपने जीवन प्रवाह को और आगे की और बढा देते हैं ।अतीत नष्ट होता रहता है और वर्तमान ऊपर उभरकर आता रहता है । वैसे भी अगर देखें तो वर्तमान ही सत्य है जबकि अतीत मृतक है भविष्य तो उत्पन्न होता है और वर्तमान भविष्य में मिल जाता है ,जब वर्तमान आगे की ओर बढता है तो फिर वर्तमान का ही अस्तित्व रहता है ।

ग-            हमें अपनी आशा और विश्वास को इस प्रकार जगाना है कि - भविष्य में जो सुखद भण्डार भरे पडे हैं, उन्हैं देखकर हमारी आशाएं जीवित रह सकें ।और होता भी यही है कि हम हमेशा आशाओं को लेकर चलते हैं । यदि हमारा लक्ष्य स्पष्ट है तो संदेहों और आशंकाओं के लिए कोई जगह नहीं रहेगी । हमारे प्रयत्नानुसार पुरुष्कार देर सबेर मिलते रहते हैं ।यदि हमारे मन में साधन आदि की अपर्याप्तता का भाव है तो उस पर विजय प्राप्त करें,और बिना भ्रमित हुये,बिना डगमगाये,बिना संकोच एक गौरवमय प्रभात की ओर बढें । अपनी बुद्धि से अतीत को पूरी तरह समझ लेने और भविष्य की एक स्पष्ट संकल्पना करने में तथा आगे की ओर बढते रहने में निहित है ।

 

2-हमारी भूलें और पछतावा-

          देखने वाली बात यह है कि हम कर्म करते हैं तो भूल भी हो जाती है,अगर कर्म न करते तो भूल भी कहॉ से होनी थी ।भूल करना और पछतावा करना भी मानवीय स्वभाव है । लेकिन यह भी सही है कि भूल को स्वीकार करना ही भूल का अंत होता है । बुद्धिमान लोग विगत भूलों पर कोई सोच-विचार करते हैं । जो लोग अत्यधिक पछतावा करते हैं वे तो मूर्ख होते हैं । अगर देखें तो प्रत्येक मनुष्य वर्तमान में ही जीवित रहता है। क्योंकि अतीत से सम्बन्ध बनाये रखना समझदारी नहीं है,क्योंकि अतीत का कोई स्तित्व भी नहीं है । अतीत तो अतीत है वर्तमान में अतीत के कष्टों की अत्यधिक भावनात्मक प्रतिक्रिया नहीं होनी चाहिए, क्योंकि वह वर्तमान को दूषित कर देगा । अतीत की छाया तो लम्बी और गहरी होती है लेकिन वह केवल छाया ही होती है। इसे अमान्य भी नहीं किया जा सकता है ।लेकिन इसे देर तक मस्तिष्क में रखें तो वह नकारात्मक अवरोधात्मक और विध्वंसात्मक हो जाता है । हॉ विगत भूलों से शिक्षा ली जा सकती हैऔर भविष्य में त्रृटिपूर्ण पगों को वापस ले सकते है । काल तो ऐसा मनुष्य होता है कि जिसके सिर के पीछे का भाग गंजा होता है,और जिसे सामने से पकडा जा सकता है ।

 

3-पूर्णतावादी बनकर क्षमा को अपनाएं-

क-          यदि आप शान्त और सुखी रहना चाहते हैं,तो पूर्णतावादी बनना होगा । यह पूर्णता कहीं दिखती नहीं है,और कोई मानव पूर्ण भी नहीं हो सकता,केवल परमात्मा ही पूर्ण हो सकता है । यदि मानव में पूर्णता की खोज करना है तो निराश ही होंगे । बस प्रयत्नवादी होना है,पूर्ण बनने का प्रयत्न करें तथा पूर्ण होने के लिए सच्चा प्रयत्न और पूर्णता की ओर बढते रहने से ही संतोष प्राप्त कर सकते हैं ।

ख-          हमारे जीवन में क्षमा प्रेम के साथ अविच्छेद है,विना क्षमाशील हुये प्रेमपूर्ण नहीं हो सकते हैं दूसरों को उनकी त्रुटियों के लिए क्षमा करें । क्षमा करना कठिन है लेकिन उससे लाभ बहुत अधिक हैं ।कोई भी मनुष्य क्षमाशील हुये विना शॉत और सुखी नहीं हो सकता है ।तुच्छ वृत्ति वाले लोग तुच्छ बातों पर क्षुब्ध और रुष्ट हो जाते हैं ,जबकि महॉपुरुष स्वभाव से ही क्षमाशील होते हैं । क्षमा करने में भी विवेकशील की आवश्यकता होती है ।

4-प्रकृति के अनुकूल चलें-

          अनुकूलीकरण प्रकृति का नियम है, अर्थात स्वयं को परिवर्तित होने वाली परिस्थितियों के अनुरूप बना लेना । ताकि वह जीवित रह सके और फल फूल सके ।जीने की कला इस बात में निहित है कि व्यक्ति बुद्धिमत्तापूर्वक ढंग से स्वयं का समायोजन कर लेता है । यदि हम ऐसे लोगों के मध्य रहते हैं जिन्हैं कि बदला नहीं जा सकता है और न उन्हैं छोड सकते हैं तो जरूरी है कि हमें समायोजन के लिए समझौता करके अपना अनुकूलीकरण कर लेना चाहिए ताकि आप जीवित रह सकें । यदि कोई ऐसा है जिसपर आपका कोई नियंत्रण नहीं है तो आपको व्यथित नहीं होना चाहिए,उस स्थिति को प्रशन्नता पूर्वक स्वीकार कर लें और स्थिति का लाभ उठाते रहें । अस्तित्व के लिए भाग जाना या लडना नहीं है बल्कि अनुकूलीकरण भी है । इसका अर्थ किसी के सामने आत्मसमर्पण करना नहीं है बल्कि अपने अस्तित्व को किसी उत्तम आदर्श के लिए और उन उच्च आकॉक्षाओं की पूर्ति के लिए जो कि गहन सुख दे सकें,सुरक्षित रखना है ।

 

5-अपनी समस्याओं का समाधान करना सीखें -

          समस्याएं तो जीवन में आती रहती हैं,आप उनका समाधान भली प्रकार कर सकते हैं। आप अपनी भावनाओं को कुछ तो तटस्थ होकर और कुछ उन समस्याओं से ऊपर उठकर समाधान कर सकते हैं । भावात्मक रूप से अन्तर्ग्रस्त न हों,इससे समस्याएं जटिल हो सकती हैं । इन परिस्थितियों में निर्णय लेने में यथा सम्भव निष्पक्ष,न्यायसंगत और सकारात्मक रहना चाहिए । जटिल समस्याओं का समाधान करने में स्वयं को अत्यधिक व्यथित करने के बजाय अपने भीतर अन्तरात्मा की ध्वनि से परामर्श लें । परेशानियॉ तो उस व्यक्ति से परेशान हो जाती हैं जो उनसे परेशान नहीं होता है और हंसकर उसका सामना करने के लिए डटा रहता है ।जहॉ कायर भाग खडे होते हैं,वीर पुरुष वहॉ विजय प्राप्त कर लेते हैं ।

 

6- दुख भोग की सामर्थ्य-

          अगर देखें तो दुःख-सुख जीवन में परस्पर रात-दिन के समान आते हैं ,और इनमें दुःख का प्रभाव सुख से अधिक होता है । दुख मनुष्य को घेरकर उसे असंख्य प्रकार से यातनाएं दे सकता है,यह मनुष्य को अनजाने ही जकड लेता है । कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं है,जिससे मनुष्य असहाय और दयनीय हो जाता है । लेकिन संकट की घडी परीक्षा का घडी भी होती है । वीर पुरुष हमेशा साहस से चुनौती को स्वीकार करते हैं,और विपत्ति का सामना करने के लिए अपना सुअवसर मानते हैं ।इस कठिन समस्या का सामना बिना घबडाये कर लेता है । जबकि एक कायर मनुष्य मिट्टी की दीवार की भॉति नीचे गिर पडता है और आत्मदया में बह जाने से स्वयं को उपहसनीय बना लेने से घोर संकट को आमंत्रित कर लेता हैं । इसके लिए इच्छाशक्ति होना आवश्यक है,हार और जीत उसी पर निर्भर करेगा ।साहसी और दृढ होकर बुद्धिमत्ता से जीवन यापन करने के लिए सुख-दुख के इस जीवन और जगत को अधिक उत्तम प्रकार से योग्य बनाया जा सकता है और मन को परिष्कृत कर मनुष्य को सत्य के अधिक समीप लाया जा सकता है ।

 

7-कर्म आत्म संतोष के लिए हो-

          हमारा हर कर्म आत्मसंतोष के लिए होना चाहिए । हमें हर एक की बात को ध्यान पूर्वक सुनना चाहिए लेकिन स्वयं अपने भीतर सावधान होकर सुनें । आपको दूसरों की प्रशन्नता के लिए कर्म नहीं करना है बल्कि अपनी आत्म संतुष्टि के लिए कर्म करना है । जो व्यक्ति सबको प्रशन्न करना चाहता है , वह किसी कोभी प्रशन्न नहीं कर सकता और कोई भी ठोस उपलव्धि नहीं कर पाता । आपको उन परिस्थितियों की भी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए जिसमें आप कार्य कर रहे हैं और न अपने भीतर की अन्तरआत्मा का निरादर करना चाहिए । अन्तःकरण की अदालत के निर्णय स्ष्ट होते हैं यदि कोई उन्हैं जानना चाहे , और उचित प्रकार से उनका अनुसरण किया जाय तो मनुष्य अपने भीतर स्वयं को स्थिर और दृढ बना सकता है ।

 

8-किसी पर दोषारोपण न करें-

          कुछ व्यक्तियों की आदत होती है दूसरों पर दोष मंढने की,वे अपनी विफलता का सारा दोष दूसरों पर मढ देते हैं । इस प्रवृत्ति में सुधार करना होगा । दूसरों पर तथा परिस्थितियों में दोष देने से उनका हित नहीं हो सकता ।उन्हैं असफलता को कारणों का निष्पक्ष विश्लेषण कर और निश्चय करना चाहिए कि कहॉ पर त्रुटि हुई है। विफलता हमारे उत्साह को कम कर देता है और हमें निराशा के दल-दल में धकेल देता है । विफलता ऐसी हो जिससे हमें अधिक दृढता से प्रयत्न करने और कुछ अधिक उत्तम करने के लिए प्रेरित कर दे । हमें विफलता से ऊपर उठना होगा,इसके लिए उस श्रेष्ठ आदर्श का अनुशरण करते रहना चाहिए जो जीवन को भव्यता,गौरव और अर्थ प्रदान कर दे । अगर आप उच्च आदर्शों के लिए संघर्ष करते हैं तो आपकी पराजय नहीं हो सकती है और सच्चे अर्थ में वे ही जीवित हैं जो किसी उत्तम आदर्श के लिए जीवित हैं । उच्च आदर्शों के लिए जीवित रहकर मृत्यु का आलिंगन करने वाले महॉपुरुष तो अमर होते हैं और आगे आने वाली पीढियों के लिए प्रेरणॉ के स्रोत बन जाते हैं ।

 

9-स्वार्थी न बनें-

          आपको इस बात का खयाल रखना होगा कि कही आप अपने ही तक तो सीमित नहीं हैं ?/यदि दूसरों पर विचार न करके अपने व्यक्तिगत हितों का ही चिंतन करते हैं तो आपका दम घुट जायेगा । आप अपने लिए दुख और क्लेश के मार्ग का निर्मॉण कर रहे हैं । यदि आप यथा सम्भव दूसरों के लिए कुछ विचार नहीं कर सकते तो आप अलग पड सकते हैं । आपका स्वभाव चिडचिडापन और निरानंद भी हो सकता हैं । इससे आपकी शॉति समाप्त हो सकती है। इस स्थिति से बचने के लिए आपको यथा सम्भव उदारचित्त बनना होगा । यदि आप स्वस्थ और सुखी रहना चाहते हैं तो प्रेम उदारता और त्याग के पाठ का प्रारम्भ अपने परिवार औप पडोस से कीजिए ,आप जितना स्वयं को विस्तृत करेंगे,उतना ही सुखमय हो जाएंगे तथा जीवन के उद्देश्य और अर्थ को समझ सकोगे ।

10-जीवन अर्थवान है-

          प्रकृति ने हमें समय,गुंण और शक्ति का प्रसाद दिया है,हर क्षण एक अनमोल वरदान होता है । हमारा जीवन अर्थवान है हम अपने परिवार के लिए धनोपार्जन करने और उसके हितों की देख-भाल करने में व्यतीूत होता है,यह कोई आदर्श नहीं हुआ । हम अपने परिवार से बाहर जन हित के कार्य और अपने चारों ओर स्थित दीन-दुखियों की सेवा नहीं करते हैं,समाज की उपेक्षा करके स्वयं को परिवार की परिधि तक सीमित रखते है ।श्रेष्ठ पुरुष तो वह है जो उत्तम कार्यों के प्रकाश को अपने चारों ओर प्रसारित करता है ,वह जीवन के उद्देश्य को पूरा कर लेता है । हम सुखी तभी हो सकते हैं जब हम अपना सम्पूर्ण जीवन की एकता को स्वीकार कर लेते हैं, समय के अनुसार अपने गुणों और अपनी शक्ति द्वारा जीवन को समृद्ध एवं उन्नत बनाते हैं । इसीलिए प्रकृति ने मनुष्य को समय गुंण और शक्ति का प्रसाद दिया है । इस जीवन के मूळ्यों का मापन कृत्यों से ही होता है ।



 




Saturday, September 8, 2012

अपना मूल्यॉकन

 

 


1- हमारे व्यक्तित्व का मूल्यॉकन-

          हमें यह देखना होगा कि यदि आपके चारों ओर लोग आपको पाकर उल्लासित होते हैं तो आप भी उल्लासित होते हैं । इसी प्रकार यदि आप अपनी समस्याओं का समाधान बिना तनाव और भय से कर सकते हैं तो इसका मतलव हुआ कि आपका व्यक्तित्व सकारात्मक दिशा में विकसित हो रहा है । व्यक्तित्व का विकास तो जैसे स्वतंत्र इकाई के रूप में हमेशा विकसित होते रहना चाहिए । स्वस्थ व्यक्तित्व गतिहीन नहीं हो सकता है । व्यक्तित्व तो विचारों के विकास के अनुरूप विकसित होता रहता है । वह परिवर्तित होता रहता है । और परिस्थितियों के अनुरूप विना भय के सिद्धान्तों और उत्तम आकॉक्षाओं के साथ विना समझौते के समायोजन करता रहता है । आपको यह भी देखना होगा कि कभी-कभी क्या लोग आपसे मिलकर आतंकित या तनावग्रस्त तो नहीं होते हैं ? अथवा आपको देखकर वे स्फूर्त और कुछ ऊपर उठे हुये महशूष करते हैं ? इसके लिए आपको अपना मूल्यॉकन करना होगा ! . यदि आप जीवन का पूरा लाभ उठाना चाहते हैं तो यह जरूरी भी है ।


2- अपनी बुद्धि का मूल्यॉकन करें -

अगर आप अपनी बुद्धि के मूल्यॉकन की बात करें तो इसमें यह देखना होगा कि आप किस प्रकार एक व्यक्तिगत जीवन दर्शन या विचार पद्धति को विकसित करते हैं ,जो कि आपके स्वभाव तथा गुणों के अनुरूप हो । ये किस तरह से आपको जीवन के संघर्षों के मध्य प्रशन्न रख सकें और जीवन के उच्चत्तर स्तर तक उठने में सहायक हो सकते हैं ।आपको यह देखना होगा कि आपकी टोपी आपकी ही टोपी है,किसी अन्य की टोपी भले ही कितनी ही आकर्षक क्यों न हो,वह आपके लिए उपयुक्त नहीं हो सकती है । और यह भी हमें ध्यान रखना होता है कि हमारी टोपी कब कहॉ टेढी हो गई या अपना जूता कहॉ चुभता है । इसलिए बदलती हुई परिस्थितियों के साथ बुद्धिमत्तापूर्वक बिना शिथिल रहते हुये स्वयं को समायोजित करना चाहिए ।हम अपने विचारों को स्वयं ही नियंत्रित एवं व्यवस्थित कर सकते हैं । बुद्धि का उचित उपयोग हमें आलौकिक आनन्द की प्राप्ति के लिए अपने भीतर स्थित दिव्यता की ओर अग्रसर करता है ।

 

3-हमारी आवश्यकताएं और हम--

क-          हमें इस बात को भी स्वीकार करना होगा कि अपनी सॉसारिक इच्छाओं को यथासम्भव कम कर देना चाहिए,क्योंकि इच्छाएं तो बढती रहती हैं,अनेक गुना हो जाती हैं ,इच्छाओं का तो अन्त होना सम्भव नहीं है ।इच्छाएं तो एक जाल है । और इसीलिए बुद्धिमान लोग अपनी स्वार्थपूर्ण लालसाओं को समाप्त कर देते हैं । अपनी व्यक्तिगत आवश्यकताओं को कम कर देते हैं । ऐश्वर्य और वैभवपूर्ण जीवन की इच्छाओं का परित्याग कर उच्चत्तर उद्देश्यों की ओर अग्रसर होते हैं । सत्ता और धन मानव स्तित्व का लक्ष्य नहीं हो सकता है,जो कि आज दिख रहा है ।

 

ख-          हम अपनेजीवन में सन्तोष और सादगी तभी ला सकते हैं जब हम अपनी इच्छाओं पर अंकुश लगाएं और अपनी व्यक्तिगत आवश्यकताओं की छँटनी करना सीखें । अनियंत्रित आवश्यकताएं तो भावनात्मक विक्षोभ या तनाव ,असंतोष उत्पन्न करते हैं । क्योंकि वे मन को विश्राम करने नहीं देते ।वे आध्यात्मिक मूल्यों के महत्व को क्षीण कर देते हैं जिससे हम स्वयं दयनीय बन जाते हैं । द्वैष बढ जाने से इच्छा विकृत एवं नकारात्मक रूप ले लेती है । उसका उग्र विस्फोट हो सकता है । और विनाश की ओर बढ सकता है ।

 

ग-          महान होने के लिए अपने जीवन में सादगी और सन्तोष के सिद्धान्त को अपनाना आवश्यक होता है। अपने विचार और कर्म सादे रहें,ईमानदारी और कठिन परिश्रम से जो भी प्राप्त हो जाय उसी में सन्तुष्ट रहना चाहिए । तुच्छ बातों में छोटे बच्चों की भॉति शिकायत न करें। सादगी और सन्तोष के धारण में लज्जा का अनुभव न करें क्योंकि ये सत्पुरुष के गुंण हैं । वे गुंण मनुष्य को शॉतिपूर्ण रहने में बहुत सहायक होते हैं ।ये गुंण जीवन को तनावरहित और सुखी जीवन यापन करने में सक्षम हैं ।

 

घ-          पहली बात तो यह है कि आपको अपनी दृष्टि में नेक होना चाहिए,भले ही आपके विषय में लोग कुछ भी सोचते हों या कहते हों ,यदि आप वास्तव में भले और नेक हैं तो आपको लोग वैसा ही कहेंगे ।यदि आप शॉति चाहते हैं तो अपने विचारों और कर्म में अपने प्रति ईमानदार रहें ।

 

ड.-          अपने जीवन में एक और बात को हमें ध्यान में रखना होगा कि हम जो नहीं हैं वह मिथ्या है,यह हमें कभी संकट में डाल सकता है,हमारे सामने विपत्ति और कष्ट उत्पन्न हो सकता है । सत्य का पता लगते ही यह सब दिखने लगेगा । इस लिए आप जो भी हैं वही रहें हमेशा अपने सहज रूप में रहें । पाखण्ड का अंत दुःख में होता है ।

4-भलाई और प्रेम-

 

क-          भलाई एक सुगन्धित पुष्प के समान है । जब भलाई की बात आती है तो कई गुणों की झलक दिखने लगती है -त्याग,सहायता,और उदारता की भावना । भला आदमी घृणॉ से दूर रहता है ।झमाशील तो वह स्वभाव से होता है । लेकिन इसकी सार्थकता तभी है जब मनुष्य भला होने में सुख का अनुभव करे । वह किसी दूसरे को प्रभावित करने या एहसास करने का कोई उद्देश्य नहीं रखता । भलाई से तो आत्म सन्तोष, शॉति और आन्तरिक उल्लास प्राप्त होता है ,अन्यथा वह कष्टप्रद होता है । जब भलाई की बात आती है तो भले आदमी का मन भर जाता है,अभद्र विचारों के लिए तो कोई स्थान ही नहीं है । भलाई मन को परिष्कृत,उन्नत और प्रबुद्ध कर देती है,तथा धीरे-धीरे उसका दिव्यीकरण कर देती है,जब भलाई एक आदत बन जाती है तो वह इस बाहरी जगत में किसी पुरुष्कार का आशा नहीं करता है ,परमात्मा जो सबका कल्याणकर्ता है,वह एक यंत्र के रूप में बनकर कर्म करता है ।

 

ख-          प्रेम का अर्थ है दूसरे की भावना में सहभागी होकर दूसरों के कष्ट निवारण के प्रति निस्वार्थ त्याग और समर्पण का भाव होना । प्रेम तो एक बहुत बडा बल है जोकि मानव के जीवन में पूर्ण रूपान्तरण कर सकता है । यह मन को परिष्कृत और पवित्र कर मनुष्य के जीवन को उच्चस्तर पर ले जा सकता है । प्रेम का अनुभव तो एक सुखद जादू के समान है, जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता है ।

 

ग-          अगर भलाई और प्रेम को देखें तो दोनों परस्पर गुंथे हुये हैं । प्रेम मन को उन्नत अवस्था तक ले जाने की क्षमता रखता है,और अन्ततः प्रकाश प्रदान कर सकता है । निश्चित तौर पर प्रेम दिव्य होता है जो कि मन को पूर्ण दिव्यीकरण कर सकता है । घ-हम स्वयं के लिए प्रेम,आदर,और अपनी विशेष पहचान प्राप्त करना चाहते हैं, लेकिन हम जीवन के एक उस नियम को भूल जाते हैं जिसमें हमें प्रतिध्वनि की भॉति वही मिलता है जिसे हम देते है । समुद्र आकाश को खारे जल से वाष्प भेजता है जो कि सुखद वर्षा के रूप में बदल जाता है । यदि आप अन्य को प्रेम और आदर देते हैं तो आपको भी वही मिलेगा ,बल्कि निवेष की तुलना में कहीं अधिक प्रतिफल मिलेगा । हम अपने विचारों और कर्मों से सूक्ष्म तरंगें उत्पन्न करते हैं जो कि दूर तक फैल जाती हैं तथा दूसरों को प्रभावित करती हैं । प्रकृति के नियम तो निर्दोष हैं, उन्हीं नियमों से मनुष्य जो बोता है उसी को काटता है ।

 

5-सहिष्णुता और हम-

क-          सहिष्णुता एक मानसिक परिपक्वता का लक्षण है जो कि मनुष्य को अपना मन शॉत और स्थिर रखने में सहायता करता है,जबकि नासमझ लोग तुच्छ बातों से भडक जाते हैं और एक दूसरे पर क्रोध में झपटने लगते हैं ,जिससे पाश्विक दृश्य दिखने लगता है । जबकि समझदार लोग सहिष्णुता और क्षमा प्रदर्शित करते हैं ,मेल मिलाप से सामंजस्य और शॉति स्थापित करने का प्रयास करते हैं ।

 

ख-          सहिष्णुता का अर्थ है उदारतापूर्वक,विवेकपूर्म ढंग से समायोजन करना । सहिष्णुता हमें अनावश्यक झगडों और तनावों से ही नहीं बचाती बल्कि हमारी शक्ति को क्षय होने से भी बचाती है । जिसे हम सद्कार्यों में प्रयुक्त कर सकते हैं । सहिष्णुता के गुणों का संवर्धन तो हमारे घर में भोजन करते समय से ही प्रारम्भ होते हैं ,भोजन करते समय उत्तेजित न हों,क्रोधित न हों। आपको भोजन का स्वाद तभी मिल सकता है जब आप उस भोजन को ,जो भी परोसा जाय,प्रभु का प्रसाद मानकर प्रशन्नतापूर्वक ग्रहम करें ।

 

ग-          आवश्यक है हम विनम्र बनें यह गुंण महानता का लक्षण भी है । विनम्रता तो दूसरों के प्रति सम्मान और परमात्मा के प्रति कृतज्ञता को प्रदर्शित करता है । जब एक मनुष्य जीवन के उच्च स्तर तक उठ जाता है तो फलदार वृक्ष की भॉति झुक जाता है ,वह विनम्र हो जाता है । स्वच्छ और सरल मन की निर्भीकता से उत्पन्न विनम्रता का एक अपना ही आकर्षण होता है,जबकि कुटिल मनुष्य की कृत्रिम विनम्रता एक घृणॉत्मक स्वॉग होता है । विनम्रता मनुष्य की दृढता को भ्रमित नहीं करता बल्कि उसका सहायक है ।हमें अपने प्रयत्नों के सफल होने पर विनम्र होना चाहिए और पराजय को परमात्मा का विधान मानकर सहर्ष स्वीकार कर लेना चाहिए ।

6-विनोदी स्वभाव तथा वॉणीं-

क-          हास परिहास या विनोद हमारे जीवन का एक अनोखा सुख है। विनोदी स्वभाव होने के लिए एक विशाल ह्दय की आवश्यकता होती है । जो लोग तुच्छ होते हैं वे न तो विनोद कर सकते हैं और न विनोद को समझ सकते हैं । वे छोटी सी हंसी की बात पर भी नाराज हो जाते हैं । तथा अपमानजनक रूप में प्रत्युत्तर देते हैं । जो लोग तुच्छ बातों पर चिढ जाते हैं,हमें उनके साथ सहिष्णु होना चाहिए । लेकिन छल या परिहास को अवश्य निन्दित किया जाना चाहिए ।

 

ख-          हमारी वॉणी हमें चिंतन और तर्कशक्ति की भॉति एक मानवीय उपहार या परमाधिकार के रूप में प्राप्त है । अपने विचार-संप्रेषण का सशक्त माध्यम वॉणी ही है । उत्कृष्ट वॉणीं इस बात में सन्निहित है कि हम अपने विचारों को वाक्यों के धागों में पिरोकर उपयुक्त शब्दों से ऐसे जडित हों कि मानों कण्ठहार में मोती हों ।

 

ग-          बुद्धिमान लोग तो थोडे शव्दों में बहुत कुछ कह देते हैं जबकि बुद्धिहीन लोग थोडा सा कहने के लिए बहुत शव्दों का प्रयोग करते हैं । वॉणी मित्र भी बना लोती है और शत्रु भी । विवेकशील मनुष्य जानता है कि क्या कहना चाहिए और कैसे कहना चाहिए तथा कब तक कहते रहना है । और कब विराम कर देना है ।

 

घ-          उत्तम वॉणी सौम्य और सारयुक्त होती है । कठोर शव्द कटुता उत्पन्न कर देते हैं,भले ही उद्देश्य उत्तम हो । डॉट फटकार भी यथा सम्भव शालीन शव्दों में ही की जानी चाहिए ।मुस्कराकर बात को कहें ।मुस्कान संक्रामक होती है और उसका चमत्कारी प्रभाव होता है । शव्द उपयुक्त हों तथा उनका उच्चारण स्पष्ट होना चाहिए । वॉणी का उद्देश्य न केवल भाव संप्रेषण हो बल्कि प्रेम ,सामंज्जस्य और शॉति का पोषण करना भी होना चाहिए । आत्म संयम,मधुरता,तर्क तथा सत्य और न्याय पर बल उत्तम एवं प्रभावी संभाषण की विशेषता है ।

7-लक्ष्य के प्रति भयभीत न हों-

क-           आपको आश्वस्त होना चाहिए कि आपका उद्देश्य और उसकी प्राप्ति का पथ न्यायसंगत है तो आपको वाह्य जगत से प्रोत्साहन की आवश्यकता नहीं है तथा आपको अपने मार्ग का अनुशरण दृढतापूर्वक करना चाहिेए । आप अपने आत्मा को तभी सन्तुष्ट कर सकते हैं जब आप अपने मन से स्पष्ट हों कि आप कुछ कर रहे हैं,और जो कुछ कर रहे हैं वह सही है ।जो लक्ष्य के प्रति संदेहशील हैं, स्पष्ट नहीं हैं वे तो सफलता के लिए व्यर्थ ही प्रयत्न करते हैं ।

 

ख-           मनुष्य को अपनी सीमॉओं को जानना चाहिए,उनका उलंघन नहीं करना चाहिए ।मर्यादा से परे जाना अथवा अपनी सामर्थ्य की सीमा को पार करना तो अपने प्रति हिंसा करना है । यदि आप लक्ष्य प्राप्ति के प्रति सच्चे हैं तो आपको उसकी ओर स्थिर गति से इच्छाशक्ति,धैर्य और दृढता के साथ आगे बढते रहना चाहिए ।

 

ग-           यदि आप जो उचित है उसे करना सीखें तो आप निर्भय हो सकते हैं । जो व्यक्ति न्यायसंगत उचित मार्ग का अनुशरण कर रहा है वह अनुचित प्रभावों और दबावों का प्रतिरोध भी कर सकता है । जिसे वह अनुचित समझता है, यदि उस कृत्य को करने या समर्थन देता है तो वह स्वयं को दुर्वल करता है,चाहे उससे कितने ही भौतिक लाभ क्यों न कर सकता हो । एक बुद्धिमान पुरुष सॉसारिक प्रलोभनों के सामने झुक जाने से अपने मन को दूषित नहीं करता, वह तो जीवन के सीधे सच्चे मार्गों का अनुशरण ही करता है ,जो कि सत्य,प्रेम, करुणॉ,न्याय और नैतिकता के आधार है, जो कि सार्व भौमिक हैं। प्रेम और उदारता को अपनाकर जीवन को संरक्षित किया जा सकता है ।

 

घ-           न्याय संगत कर्म करने वाले लोगों की रक्षा तो वह परम सत्ता रहस्यमय तरीके से करती है । न्यायसंगत कर्म शक्ति और शॉति के पथ पर अग्रसर होता है ।औचित्य का अर्थ है जो कुछ आप सोचते हैं अथवा करते हैं वह सब उचित है , स्वार्थ से ऊपर उठकर करना चाहिए ।

 

ड-           कभी-कभी किसी परिस्थिति पर गंभीर सोच-विचार का समय न हो और शीघ्र निर्णय लेना आवश्यक हो सकता है । लेकिन शीघ्रता का अर्थ उतावलापन नहीं है ।जल्द बाजी मनुष्य को कठिनाई में डाल सकती है । जो कि खतरे से कम नहीं है । यदि आपके पास सोचने का समय है तो उन पगों के पक्ष और विपक्ष में विचार करें,जिन्हैं आप कर रहे हैं । करने से पहले सोच लेना चाहिए,देख लेना चाहिए । और जो अपने चिंतन शक्ति का उपयोग नहीं करता वह कुण्ठित रहता है ,फिर मानव देह होते हुये भी पशु श्रेणी में आ जाता है । विचारहीन लोग अधिक उतावले होते हैं वे जल्दी में हिंसा कर बैठते हैं विवेकहीन होकर हिंसा का आश्रय लेना बुद्धि की पराजय तथा नैतिक भावना की पूर्ण उपेक्षा होती है,जिसपर कि बाद में पछताना पड सकता है ।

8- शिकायतें और संवाद-

क-          आपका प्रमुख लक्ष्य मन के समस्त तनावों को शॉत कर देना होना चाहिए ,तभी तो आप जीवन में कठिन परिस्थितियों का सामना कर सकते हैं,और अपनी योजनाओं और आकॉक्षाओं को पूर्ण कर सकते हैं ।यदि आपके मन में कोई शिकायत है या नाराजगी है तो आप उसे उचित व्यक्ति से बुद्धिमतापूर्ण व्यक्त कर सकते हैं ,उसे दबाना नहीं चाहिए,इससे दम घुंटता है ।

 

ख-          यदि आप तनाव को देर तक पालते हैं तो यह भयानक रूप धारण कर लेते है, समस्याओं के समाधान के लिए साहस के अभाव में उनसे बचने और स्थगित किये जाने से परिस्थितियॉ और भी विषम हो जातीहैं,जिससे विकट परिस्थितियों का सामना करना पड सकता है ।शॉति न खोंये । सामना करना सीखें । शॉत चित्त व्यक्ति समस्याओं का समाधान सरलता से कर लेता है जबकि उग्र चित्त वाला व्यक्ति अपने उत्ते्जनात्मक अक्खडपन से परिस्थिति को और अधिक विषम बना देता है ।

 

ग-          यदि आपको अपने विरोधियों पर विजय प्राप्त करनी है तो इससे बढकर और कोई नहीं नहीं हो सकता है कि आप प्रत्येक परिस्थिति में शान्त और संयमित रहें। प्रत्येक परिस्थिति में शान्त और मुस्कान युक्त रहने की आदत डाल सकते हैं । विवेकशील व्यक्ति कभी मन से उदास नहीं होता है । बाधाओं को साहस और प्रशन्नता से पार कर लेता है ।चुनौतियॉ तो मनुष्य के द्वार पर आकर अपने पराक्रम की परीक्षा करने आती हैं ।

 

घ-          जिस व्यक्ति से आप अपनी स्थिति समझाना चाहते हैं, और अपना भ्रम दूर करना चाहते हैं ,उस व्यक्ति से प्रयत्नपूर्वक संवाद करना उपयोगी होता है । संवाद खुले मन से तथा सकारात्मक दृष्टिकोण को समझने का प्रयत्न करना चाहिए ।अपना दृष्टिकोण स्पष्ट और सौहार्दपूर्ण होना चाहिए । एक दूसरे की बात समझकर ही उचित समन्वय हो सकता है । मतभेद और विवाद के विन्दु पर सहमति बना सकते हैं । मिलने और विदा होते समय सौजन्यपूर्ण व्यवहार करना उत्तम होता है । लेकिन ध्यान रखना होगा कि दुराग्रही और कट्टर लोगों से लम्बा विचार विनिमय करने से बचना चाहिए ।क्योंकि वे सत्य का अनुशरण नहीं करना चाहते हैं । दोहरी बात करने और कलाबाजी करने में निपुंण लोगों के साथ भी तर्क सावधानी पूर्वक करना चाहिए ।

9-पिछली बातें-

क-          जो बात बीत जाती है उनपर चिपटें नहीं ,वे बातें तो प्रेतवत् और स्तित्वहीन हैं । भूतकाल से चिपटे नहीं । जिस मनुष्य ने जीवन का पूर्ण लाभ उठाने का प्रयास किया है, वह अपने समय और शक्ति को भूतकाल की क्षतियों और शोकों पर विलाप करने में नष्ट नहीं करता है। अतीत पर सोचते रहने से अतीत को नहीं मिटा सकते है और न उसे रोक सकते है क्योंकि वह घटित हो चुका है ।

 

ख-          काल अप्रत्यक्ष में गतिमान रहता है तथा कोई भी मनुष्य घडी की सुई को पीछे नहीं कर सकता है या किसी बात को नहीं बदल सकता है । उस बात को तो अतीत में दफना दिया गया है ,इसका यथार्थ जगत में स्तित्व ही नहीं है । मनुष्य अतीत को ठीक प्रकार समझकर उसे शिक्षा तो ले सकता है लेकिन उसे पुनः जीवित नहीं सकता है । अतीत से हमारा सम्बन्ध ही नहीं होता , हॉ इसके द्वारा हम वर्तमान में भविष्य के निर्मॉण के लिए प्रयत्न कर सकते हैं । जो लोग पुराने हिसाब को चुकता करने के लिए प्रतिशोध करते हैं,वे तो अतीत की त्रुटियों को ठीक कर ही नहीं सकते हैं । प्रतिशोध तो पाश्विक न्याय होता है । इसलिए हमें सकारात्मक होना चाहिए,अतीत की चुभनों और वेदनाओं पर विजय पा लेनी चाहिए ,जिससे कि आप शॉत और सन्तुलित रह सकें और जीवन में नयें अध्यायों का सूत्रपात कर सकें । पुराने सडते घावों को कुरेदने से तो नयें संकट उत्पन्न हो जायेंगे ,जिससे नकारात्मक पग विपरीत प्रभाव उत्पन्न कर सकते हैं ।केवल सकारात्मक प्रयत्न ही सकारात्मक प्रतिक्रिया उत्पन्न कर सकते हैं जिससेजीवन में शॉति और उन्नति का मार्ग प्रशस्त हो सकता है ।

 

10-आत्म सम्मान को न भूलें-

         आपके आत्म सम्मान की भावना इस वात में निहित है कि आप इस प्रकार आचरण कर रहे हैं कि आपको लज्जित न होना पडे । आत्म सम्मान करने वाला व्यक्ति कुछ ऐसे मूल्यों और सिद्धान्तों का पालन करते है कि वह नैतिक रूप से उसे समुचित समझता है । और व्यवहार में सीधा-सच्चा रहने का प्रयत्न करता है । यदि कोई व्यक्ति तुच्छ सी बात को प्रतिष्ठा या आत्म सम्मान का विन्दु बनाता है तो वह अहंकारवादी है ।जीवन में सिद्धान्तों का पालन करते हुये भी उदार होना चाहिए, तथा दूसरों के आचरण की अपेक्षा स्वयं के आचरण पर अधिक ध्यान देना चाहिए ।उदार चित्त जीवन में लाभदायक है ।