Friday, August 17, 2012

जो सामने है वही सच






     

1- ज्ञान का सार है आचार-

        वही ज्ञान उपयोगी होता है जो अहंकार न बढाये, जो बंधन न बने, जिससे स्व की विस्मृति न हो, जो संस्कार का शोधन करे, तथा मानसिक शॉति की ओर ले जाये। ज्ञान की उपयोगिता की चरम कसौटी है कि वह आत्मा की ओर ले जाये ,जो ज्ञान आत्मा से विमुख बनाता है उसे भारतीय मनीषा में अज्ञान कहा जैता है। ज्ञान का सार है आचार ,इसलिए वही ज्ञान उपयोगी है जो अहंकार न बढाये ।



2- ज्ञान का दुरुपयोग विनाश और सदुपयोग विकास है-

        जिस प्रकार गंगा नदी के प्रवाह को,सुखाया नहीं जा सकता,केवल उस प्रवाह के मार्ग को बदला जा सकता है। उसी प्रकार ज्ञान के प्रवाह को सुखाया नहीं जा सकता है,उसे पर हित के लिए उपयोग में लाया जा सकता है ।ज्ञान का दुरुपयोग होना विनाश है और ज्ञान का सदुपयोग करना ही विकास है,सुख है,उन्नति है ।ज्ञान के सदुपयोग के लिए तो जागृति परम आवश्यक है ।

 

 

 3- आदर्श साहित्यकार की पहचान –

        आदर्श साहित्यकार वही है जो समाज की पीडा और सुख का अनुभव कर समाज के लिए रोता और हंसता है ।वह तो एक दिया है,जो जलकर केवल दूकरों को ही प्रकास देता है।जब साहित्यकार की भावना,ज्ञान और कर्म एक साथ मिलती हैं तो युग प्रवर्तक साहित्य का निर्माण होता है।किसी देश का साहित्य वहॉ की जनता की चित्त वृत्ति का द्योतक है।साहित्य तो आनंद देता है ।ज्ञानराशि के संचित कोष का नाम ही साहित्य है, जिसका निर्माण साहित्यकार द्वारा किया जाता है ।

 

 

4- वास्तविक सौन्दर्य ह्दय की पवित्रता में है-

        योग्य मनुष्यों के आचरण का सौन्दर्य ही उसका वास्तविक सौन्दर्य है,शारीरिक सौन्दर्य उसकी सुंदरता में किसी भी प्रकार की अभिवृद्धि नहीं करता।सुन्दर और कल्याणमय के साथ यदि हम ह्दय की समीपता बढाते रहें तो संसार सत्य और पवित्रता की ओर अग्रसर होगा ।अलंकार तो भावों का आवरण है और सुन्दरता को तो अलंकारों की जरूरत है ही नहीं।

 

 

5- शंका जीवन का विश है-

        आदमी के लिए विश्वास ही सबकुछ है,जिसे अपने पर विश्वास नहीं,उसे भगवान पर भी विश्वास नहीं हो सकता। स्वयं को ईश्वर पर छोड देना ही विश्वास है।

 

 

6-अपने मन पर विश्वास न करें-

        हमें हमेशा सजग रहना होगा । अपने मन पर विश्वास न करें ।क्योंकि पाप सूक्ष्म भाव में कभी धर्म का रूप धारण कर,कभी दया के रूप में, कभी मित्र के रूप में तुम्हैं भुलाकर तुम्हैं वश में करने की चेष्ठा करेगा। भुलावे में पडकर परास्त हो जाओगे, समझ भी नहीं सकोगे । और जब समझ में आयेगा,तब शायद लौटना ही असम्भव हो जाय।

 

 

7- मन को वश में करना सबसे कठिन काम है-

        कहा जाता है कि इस संसार में मन को वश में करने जैसा कठिन काम और नहीं है । भगवान रामचन्द्र ने हनुमान से कहा था, कि-चाहे सातों समुद्र कोई तैरकर पार कर सके,वायु को अवशोषित कर ले सके,पहाडों को उठाकर अपना खेल दिखा सके,पर इस चंचल मन को वश में करना,उसकी अपेक्षा अधिक कठिन है। लेकिन इतना होने पर भी भयभीत होने का या निराश होने का कोई कारण नहीं है । वीर साधक तो दृढ संकल्प के साथ भगवान पर निर्भर होकर यदि प्रॉणपण से चेष्ठा तथा साधना करें,तो उनकी कृपा से वह असाध्य साधन कर सकता है।

 

 

8-कर्म ही बन्धन के कारण हैं-

        अगर देखें तो समस्त कर्म ही बन्धन के कारण होते हैं। चाहे सुख हो या दुख,दोनों ही बन्धन हैं ।अगर इन दोनों से पार न गये, तो मुक्ति का लाभ सम्भव नहीं है।कर्म तो केवल उन्हीं के लिए बन्धन का कारण नहीं होता जो निस्वार्थ परहित के लिए कार्य करते हैं। क्योंकि वे किसी फल की आकॉक्षा ही नहीं रखते,और न अपने नाम के यश, यास्वार्थ-साधन के लिए भी काम नहीं करते। उनके ह्दय में तो प्रेम का संचार होता है,वे तो प्रॉणि मात्र में ईश्वर दर्शन करके ,उनकी सेवा समझकर कर्म करते रहते हैं। और मन में नये संस्कार के बीज का सृजन भी नहीं होता। इसलिए वे पुनः जन्म-मरण से मुक्त हो जाते हैं ।

 

 

9-सुख भोग में नहीं त्याग में है-

        जिसने जिन्दगी को जीकर देखा है,अगर उनसे इस सम्बन्ध में पूछे तो उत्तर मिलता है, भोगों में सुख नहीं है बल्कि त्याग में सुख है। जो सद्विवेक से भोग भोगकर उनसे शिक्षा ग्रहण करता है,विषय-भोगों को परिणॉम में दुःखदाई जानकर ,स्वेच्छापूर्वक समस्त त्याग करता है,तो वही परम सुखी है,वही अमृत का अधिकारी होता है।स्वामी विवेकानन्द जी ने तो त्याग को योगों का प्रॉण माना है।

 

 

10-ज्ञानयोग कठिन त्याग है-

        त्यागों में सबसे कठिन त्याग ज्ञानयोग को माना जाता है,क्योंकि इसमें पहले से ही धॉरणॉ करनी होती है कि समस्त संसार और उसके साथ का सम्बन्ध मिथ्या है,माया है ।समस्त जीवन स्वप्न के समान है।इस मार्ग को नेति कहते हैं–मैं यह नहीं वह नहीं,मैं देह-मन-इन्द्रिय कुछ नहीं। मुझे सुख नहीं,दुःख नहीं,मेरा जन्म नहीं,मरण नहीं,वन्धन नहीं,मुक्ति नहीं,मैं तो नित्य चैतन्मयस्वरूप पूर्ण ब्रह्म परमात्मा हगूं। इसलिए वे समस्त वाह्य विषयों को त्याग कर,अपने स्वरूप के ध्यान में ही मग्न रहते हैं।

 

 

11-आत्म विश्वास बढायें-

        हमें आत्मा विश्वास वढाने के प्रति सजग होना होगा,इसके लिए इस बात का विश्वास करना होगा कि मैं आत्मा हूं। मुझे कोई न तलवार से काट सकता है न वरछी से भेद सकता,न आग जला सकती है और न हवा सुखा सकती है।मैं तो सर्वशक्तिमान हू,सर्वज्ञ हूं। हमेशा इन आशाप्रद वाक्यों का उच्चारण करें। ये न कहें कि हम दुर्वल हैं। हम क्या नहीं कर सकते हैं! हमसे सबकुछ हो सकता है! हम सबके भीतर एक ही हिमालय आत्मा है। इसपर हमें विश्वास करना होगा। उपनिषद में उल्लिखित कि मेरी इच्छा है कि तुम लोगों के भीतर इसी श्रद्धा का अभिर्भाव हो,तुममे से हर व्यक्ति खडा होकर संकेत मात्र से संसार को हिला देने वाला प्रतिभासम्पन्न महॉपुरुष हो,ईश्वरीत तुल्य हो।णैं तुम लोगों को ऐसा देखना चाहता हूं । फिर देखना ऐसी ही शक्ति प्राप्त होगी।

 

 

12-स्वयं में शक्ति का संचार करें-

        हमें इस बात को ध्यान में ऱखना होगा कि,हमारे जीवन में उच्च आदर्श और उत्कृष्ठ व्यावहारिकता का सुन्दर सामज्जस्य हो। जीवन का अर्थ प्रेम है,इसलिए प्रेम ही जीवन है,यही जीवन का एकमात्र नियम है। और स्वार्थपरता मृत्यु के समान है। गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है कि -प्रवल कर्मयोग-ह्दय में अमित साहस,और अपरिमित शक्ति के संचार से सब लोग जाग उठेंगे, नहीं तो जिस अन्धकार में हो,उसी में रहोगे ।

 

 

13-सेवा और त्याग की भावना रखे-

        हमें ईश्वर ने जन्म दिया है,इसलिए हमारा दायित्व है कि हम हर एक को ईस्वर के ही समान देखें। हम किसी की सहायता नहीं कर सकते हैं, हमें तो केवल सेवा का अधिकार है। यदि आप भी भाग्यवान हैं तो प्रभु की सेवा करें,यदि किसी की सेवा कर सकते हो तो,तुम धन्य हो जाओगे ।अपने ही को बहुत बडा न समझें। तुम धन्य हो कि तुम्हैं सेवा करने का अधिकार मिला है और दूसरों को नहीं मिला। ईश्वर पूजा के भाव से सेवा करो। दरिद्र व्यक्तियों में हमें भगवान को देखना होगा। अपनी ही मुक्ति के लिए उनके निकट जाकर हमें उनकी पूजा करनी चाहिए। अनेक दुखी और कंगाल प्रॉणी हमारी मुक्ति के माध्य हैं ।

 

 

14-सर्वशक्तिमान बनो-

        तुम्हें सर्वशक्तिमान बनना होगा,इसके लिए अपने अन्दर झॉककर देखो और महशूस करो कि-क्या तुम मनुष्य जाति से प्रेम करते हो ? क्या ये सब गरीव,दुखी,दुर्वल ईश्वर नहीं हैं ? ईश्वर की पूजा पहले क्यों नहीं करते ? गंगा तट पर कुंवा खोदना क्यों जाते हो ? प्रेम की असाध्य शक्ति पर विश्वास करो ! झूठ जगमगाहट वाले नाम-यश की परवाह कौन करते हो ? क्या तुम्हारे पास प्रेम है ? तो फिर तुम सर्व शक्तिमान हो !क्या तुम सम्पूर्ण निस्वार्थ हो ? यदि हो तो फिर तुम्हें कौन रोक सकता है !चरित्र की तो सर्वत्र विजय होती है। ईर्ष्या और अहं भाव को दूर कर दो !संगठित होकर दूसरों के लिए कार्य करना सीखो! हमारे देश में तो सबसे बडी आवश्यकता यही तो है। धीरज रखो और जीवनभर विश्वासपात्र बनो !आपस में लडो नहीं । स्वयं में ईमानदारी,भक्ति और विश्वास का संचार करें तो कभी भी असफल न होंगें। भेदभाव मिटा दो। फिर-चाहे आप रण में हों या वन में,चाहे पर्वत के शिखर पर -तुम्हारे लिए कोई भय नहीं रहेगा। जबतक तुम यह न जान लो कि वह हितकर है,तबतक अपने मन का भेद न खोलो । शत्रु के प्रति भी प्रिय और कल्याणकारी शव्दों का व्यवहार करो ।फिर देखोगे कि आप सर्वशक्तिमान होंगे ।

 

 

15-स्वर्ग का राज्य तुम्हारे भीतर है–

        ईसा मसीह,तथा वेदान्त यही कहते हैं कि स्वर्ग का राज्य तुम्हारे भीतर है ।जिसके पास देखने के लिए आंख है वह देखें,जिसके पास सुनने के लिए कान है वह सुनें । वह पहले से तुम्हारे अन्दर है । वेदान्त यह सिद्ध करता है कि जिस सत्य को अज्ञान के कारण हम सोचते थे कि हमने उसे खो दिया है,वह सदा ही हमारे ह्दय के अन्तस्तल में वर्तमान था । उसे हम वहीं पा सकते हैं ।

 

 

16-ज्ञान अज्ञान का नाश करता है-

        ज्ञान हमेशा अज्ञान को दूर भगाता है,व्यवहार का नाश नहीं करता है। दैवीय शक्ति हमारे ज्ञान को पुष्ट करती है,जबकि आसुरी शक्ति उसका आच्छादन करती है । इसलिए शुभ कर्मों को छोडना नहीं चाहिए । चित्त का स्वभाव तो चिंतन करना है, और शुभ कर्म छोड देने से चित्त विषय चिंतन करेगा । कर्म तो बुद्धि का विषय है,आत्मा का नहीं । अतः विचारवान पुरुष कर्म करता हुआ उसका साक्षी बना रहता है ।

 

 

17-त्याग का अर्थ है सब जगह ईश्वर दर्शन-

        वेदान्त हमें माया के जगत का त्याग कर काम करने की शिक्षा देता है । त्याग का अर्थ है सब जगह ईश्वर का दर्शन करना । जो व्यक्ति सत्य को न जानकर अबोध की भॉति संसार के भोग विलास में निमग्न हो जाता है, समझलो कि उसे ठीक मार्ग नहीं मिला ,उसका पैर फिसल गया है । दूसरी ओर जो व्यक्ति संसार को कोसता हुआ वन में चला जाता है,अपने शरीर को कष्ट देता रहता है,धीरे-धीरे अपने को सुखाकर अपने को मार डालता है,अपने ह्दय को शुष्क मरुभूमि बना डालता है,अपने सभी भावों को कुचल डालता है और कठोर विभत्स और रूखा हो जाता है,तो समझलो कि वह भी मार्ग भूल गया है। ये दोनों दो छोर की बातें हैं – दोनों ही भ्रम में हैं-एक इस ओर और दूसरा उस ओर । दोनों ही पथभ्रष्ट हैं-दोनों ही लक्ष्यभ्रष्ट हैं ।

 

 

18-हमारे जीवन के पीछे दुख और मृत्यु छाया के रूप में होते हैं-

        हम देखते हैं कि इस संसार में हर व्यक्ति के जीवन में जितने भी सुख हैं उनके पीछे दुख और मृत्यु छाया के रूप में दिखती है । दुख और मृत्यु सदा एक साथ रहते हैं । वे दोनों विरोधी नहीं है बल्कि दोनों एक ही वस्तु के अलग-अलग रूप हैं,जीवन,मृत्यु,सुख-दुख,अच्छे-बुरे सब अलग-अलग रूप हैं। शुभ और अशुभ दोनों अलग-अलग नहीं हैं वे वास्तव में एक ही वस्तु के रूप हैं- कभी अच्छे और कभी बुरे रूप में महशूस होती हैं । एक ही स्नायु प्रणाली अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के प्रवाह ले जाती है ।यदि स्नायु प्रणॉली किसी तरह विगड जाय तो उसमें जो सुख की अनुभूति थी नहीं आयेगी बल्कि दुख की अनुभूति आयेगी,दोनों एक साथ नहीं आयेंगे,कभी सुख तो कभी दुख ।मॉसाहारी को मॉस खाने में सुख मिलता है मगर जिसका मॉस खाया ,उसके लिए भयानक कष्ट है । एक ही वस्तु से किसी को सुख मिलता है तो किसी को दुख, ऐसा कोई विषय नहीं कि जो सबको समान रूप से सुख देता हो ।कुछ लोग सुखी रहते हैं तो कुछ दुखी,यह इसी प्रकार चलता रहेगा ।

 

 

19- संकोच किस प्रकार का हो-

        मर्यादा का पालन करते हुये संकोच उपयुक्त है मगर आवश्यकतानुसार संकोच को त्याग देना चाहिए,स्पष्ट बात करनी चाहिए । भोजन करते समय भरपेट आहार करना चाहिए क्योंकि अधिक संकोच करने से भूखा रहना पड सकता है।लेन-देन करते समय उसकी लिखा-पढी पक्की होनी चाहिए क्योंकि संकोच करने से धन की हानि हो सकती है । जीवन में संकोच की एक सीमा है वरना दुख या हानि हो सकती है ।।

 

 

19-हमारी यादें-

        याद ही केवल ऎसा स्वर्ग है जहॉ से हमको भगाया नहीं जा सकता है ।दुःख की याद तो केवल खुशी को मधुर बना देती है ।यादें हमारे जीवन को हरा-भरा रखने हेतु,हमारे साथ प्रभु का पक्षपात है।यादें तो पंख हैं जो उडने को पुरुषार्थ देती है ।

 

 

20- परमात्मा के द्वारा इस दुनियॉ में हमें केवल एक ही जन्म सिद्ध अधिकार प्राप्त है-

        देने का अधिकार। लेने या मॉगने का अधिकार कदापि प्राप्त नहीं है।इस धिकार से जो कुछ भी हम देते हैं उसी से हम धनी होते है,और सुख-शॉति भी प्राप्त होती है । लोग सुख शॉति को प्राप्त करने के लिए कभी इधर कभी उधर भटकते हैं,लोग इसे मॉग-मॉग कर प्राप्त करना चाहते हैं, इससे अधिक भयंकर भूल और क्या हो सकती है जबकि ये चीजें हमें देने से स्वतः ही प्राप्त हो जाती हैं ।इसलिए कर्म करते जाओ फल की आशा परमात्मा पर छोड दो ।

 

 

21-जीवन की जल धारा रुक नहीं सकती–

        बच्चे थे हम ,बचपन गया,रोक सके ?क्या करते? कैसे रोकते ? जवान हुये हम,जवानी भी गई,रोक सके? बुढापा भी चला गया ।देह थी ,देह भी चली जायेगी।जो भी है सब बह रहा है,यहॉ कुछ रुकेगा नहीं।यहॉ तो कुछ रुकता ही नहीं ।सब जल की धार है,इस जल की धार में अगर हमने रोकना चाहा तो दुखी हो जाओगे बस तुमने जान लिया कि यह जलधार का स्वभाव है कि यहॉ कुछ रुकता ही नहीं है बस उसी क्षण दुःख चला गया । अब दुखी होने का कोई कारण न रहा बस अगर तुमने माना कि रुक सकता है तो फिर दुःख आ जायेगा ।

 

 

22-महान कौन होता है-

        किसी पद से आपकी नहीं बल्कि आप से पद की शोभा होती है ,और यह तभी होगा जब आपके काम महान और अच्छे होंगे । एक वे हैं जो इतिहास में नाम आने से महान कहलाते हैं,दूसरे बे हैं जिनके नाम से इतिहास अमर हो जाता है और वास्तव में वे ही महान होते हैं ।

 

 

23-जो सामने है वही सच है-

        मनुष्य जीवन तो जो आज और अभी है उसे कभी अतीत या भविष्य में न देखें ,जिसने जीवन को अतीत या भविष्य में देखा उसने तो जीवन जाना ही नहीं। ध्यान रखें कि जो सामने है वही सच है इसके बाद जोकुछ भी है वह सिर्फ सम्भावना है ।

 

 

24-जीवन चलने का नाम है-

        जीवन में सोते ही रहना कलयुग है,निद्रा से उठकर बैठना ही द्वापर है,और उठकर खडा हो जाना त्रेता युग है और चल पडना सतयुग है। इसलिए जीवन में चलते रहो-चलते रहो ।

 

 

25-धर्म जीवन की कला है-

        धर्म कोई पूजा-पाठ नहीं है,धर्म का मंदिर और मस्जिद से कोई लेना-देना नहीं है, बस धर्म तो है जीवन की कला है ।जीवन को कलात्मक ढंग से जिया जा सकता है,ऎसे प्रसादपूंर्ण ढंग से कि जीवन में हजार पंखुडियों वाला कमल खिल जाय कि जीवन में समाधि लग जाय, कोयल के समान गीत उठे ,ह्दय में ऎसी भाव –भंगिमाएं जगें जैसे मीरा का नृत्य पैदा हो जाय,चैतन्य के भजन बन जॉय ।

 

 

26-यथार्थ ज्ञान हमारी आत्मा में है –

        ज्ञान किताबों में नहीं होता, बल्कि यथार्थ ज्ञान तो हमारी आत्मा में विद्यमान है,पर कर्म–मैल ने उसे ढक रखा है । धर्मशास्त्र तो इस कर्म मैल को साफ करने में मार्गदर्शन का काम करते हैं सच्चा ज्ञान तो वही है जोआत्मा के सच्चे स्वरूप को जानें । जो ज्ञान चिन्ता को मिटाता है बस वही सुख का कारण है ।

 

 

27–जीवन का स्तित्व-

        हमारे जीवन का स्तित्व होना तो आत्मा की कमजोरी है अपने होने के कारण की खोज करने से ही जीवन की शुरूआत होती है । बस इसके बाद के प्रत्येक क्षण एक नईं खोज प्रारम्भ होती है प्रत्येक क्षण एक नया रहस्य लेकर सामने आयेगा,नई खुशी लेकर आयेगा ।एक नयॉ प्रेम पनपना शुरू होगा ,एक नईं किरण विकसित होगी कि जिनका अनुभव पहले कभी न हुआ होगा ।यहीं से अच्छाई और सौन्दर्य के प्रति नईं संवेदना विकसित होगी ।

 

 

28-बेइमान भी ईमानदार साथी चाहता है-

        जो लोग बेइमान होते हैं वे प्रत्यक्ष में ईमानदारी का समर्थक और प्रशंसक पाये जाते हैं,बेइमान व्यक्ति भी ईमानदार साथी चाहता है। प्रमाणिक व्यक्तियों की तो सर्वत्र मॉग है वे सिर्फ अपने आत्मीय परिजनों में ही सम्मान नहीं पाते बल्कि शत्रु तक उनकी सच्चाई एवं ईमानदारी की प्रशंसा किए बिना नहीं रहते ।

 

 

29–चरित्र और आनंद की अनुभूति –

        अच्छा आदमी बनने से सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती है। अर्थात चरित्रहीन व्यक्ति कभी भी सही अर्थों में समृद्धिशाली नहीं बन सकता है ।सदाचार के विना आनंद और प्रशन्नता नहीं मिल सकती है ।यह भी सत्य है कि प्रकृति की हर वस्तु में परस्पर ईश्वरीय सम्बन्ध है,इसलिए जबतक आप इस तथ्य को नहीं समझ लेते और इसे स्वीकार नहीं कर लेते, इसे जीवन में मान्यता नहीं देते ,तबतक आनंद की खोज में आप सफल नहीं हो सकते ।

 

 

30-आप स्वयं शक्तिमान हो -

        यदि आप अपने जीवन में अतीत की घटनाओं को याद करो तो देखोगे कि आप सदैव व्यर्थ ही दूसरों से सहायता पाने की चेष्ठा करते रहे ,लेकिन कभी पा न सके ,जो कुछ आपने सहायता पाई है वह तो अपने अन्दर से ही थी ।यह कभी न कहें कि मैं नहीं कर सकता,इसलिए कि आप अनन्त स्वरूप हो आपकी जो इच्छा होगी वही कर सकते हो, आप तो शक्तिमान हैं ।

 

 

31-व्यक्ति से नहीं उसके जीवन से घृणा करें-

        जीवन में अनुकूलता और प्रतिकूलता में एक समान जीना ही त्याग है ,व्यक्ति सुन्दर नहीं होता उसका जीवन सुन्दर होता है ।व्यक्ति से घृणा न करते हुये उसके दुष्कर्म से घृणा करो,क्योंकि व्यक्ति मूल रूप से अच्छा ही है। उससे घृणा करके हम खुद दुखी हो जायेंगे।इन्सान ही इन्सान के काम आता है,अगर इन्सान दूसरे इन्सान की मदद नहीं करेगा तो और कौन करेगा ।

 

 

32-शक्ति जीवन और कमजोरी उसकी मृत्यु है -

        यह एक सच्चाई है कि मानव की शक्ति ही उसका जीवन है और उसकी कमजोरी ही उसकी मृत्यु है। शक्ति परम सुख और जीवन अजर- अमर है ।कमजोरी तो कभी न हटने वाला बोझ और यंत्रणा है,और कमजोरी मत्यु है ।

 

 

33-पहले आज को सवारें-

        हमारे जीवन का स्वर्णिम कल आज पर निर्भर है,यदि आपके मन में भविष्य को उज्वल करने की आकॉक्षा है तो पहले आज को संवारना होगा,क्योंकि स्वर्णिम भविष्य के महल की दीवार आज है ।आज को संवारो, आज को मत टालो । बुराई कल पर टालो ।भलाई को आज करने के लिए तत्पर हो जाओ।

 

 

34-हमारे अवगुंण-

        हमारे अऩ्दर गुंण होते हुये भी यदि एक अवगुंण है तो वह सारे गुँणों को ढक देता है। अपने अवगुंण तो अपने को ही तखलीफ देते हैं ।यदि हम दूसरों के अवगुंणों की चर्चा करते हैं,तो हम अपने ही अवगुणों को प्रकट करते है।

 

 

35-पाप क्या है-

        पाप एक दुर्भाव है,जिसके कारण हमारे आन्तरिक मन तथा अन्तरात्मा पर ग्लानि का भाव आता है ।जब हम कभी गन्दा कार्य करते हैं तो ह्दय में एक गुप-चुप पीडा का अनुभव होता रहता है,हारे मन का दिव्य भाग हमें प्रताडित करता रहता है,बुरा-बुरा कहता रहता है ।इसी आत्मभर्त्सना से मनुष्य पश्चाताप करने की बात सोचता है ।यह पाप पानी की तरह होता है,यह हमें नीचे की ओर खींचता है ।आप चाहे कितने ही प्रयत्न करें,आन्तरिक पाप से कलुषित मन स्पस्ट प्रकट हो जाता है।अवगुंण से तो मनुष्य की उच्च सृजनात्मक शक्तियॉ पंगु हो जाती हैं,बुद्धि और प्रतिभा कुण्ठित हो जाती है ।किसी भी स्थिति में पाप और द्वेष की प्रवृत्ति बुरी और त्यागने योग्य है ।।

 

 

36-गुनाह या पाप वह अग्नि है जो सुलगती रहती है-

        हम जो पाप या गुनाह करते हैं वे जलते हुये वे वस्त्र हैं जिन्हैं यदि छिपाकर रखा जाता है तो वह अग्नि अन्दर ही अन्दर सुलगती रहती है, और धीरे-धीरे समीप के वस्त्रों तथा अन्य वस्तुओं को भी जला डालती है ।सम्भवतः उस अग्नि का धुआं उस समय न दिखाई दे,लेकिन अदृश्य रूप में वह वातावरण में सदा मौजूद रहता है ।पाप या गुनाह की अग्नि ऐसी अग्नि है,जो अन्दर ही अन्दर मनुष्य में विकार उत्पन्न करती है,इस आन्तरिक पाप की काली छाया अपराधी के मुख,हाव-भाव,नेत्र,चाल-ढाल इत्यादि द्वारा अभिव्यक्त होती रहती है ।अपराधी या पापी चाहे कुछ भी समझता रहे वह अपराध को छिपाना चाहता है,परन्तु वास्तव में पाप छिपता नहीं है।मनुष्य का अपराधी मन उसे सदा व्यग्र,अशॉत और चिंतित रखता है ।।

 

 

37-पाप में प्रवृत्त मनुष्य के अंग-

        प्रायः मनुष्य के तीन अंग पाप में प्रवृत्त होते हैं ।शरीर,वॉणी,और मन ,इनके द्वारा किये गये पाप-कर्मों के नाना रूप होते हैं,इनसे बचे रहें।अर्थात शरीर वॉणी और मन का उपभोग करते हुये सचेत रहें ।कहीं ऐसा न हो कि आत्मसंयम में शिथिलता आ जाय और पाप पथ पग बढ जाय ।कभी-कभी हमें विदित नहीं होता कि हम कब गलत रास्ते पर चले जा रहे हैं । गुप-चुप पाप हमें बहा ले जाता है और हमें अपनी सोचनीय अवस्था का ज्ञान तब होता है जब हम पतित हो जाते हैं ।

 

 

38- पाप कर्म मनुष्य जीवन के लिए अभिशाप है -

        अपने शरीर के द्वारा अनुचित कार्य करना शारीरिक पाप है।इसमेंवे समस्त कुकृत्य हैं,जिन्हैं करने से ईश्वर के मंदिर रूपी इस मानव शरीर का क्षय होता है ।परिणॉम स्वरूप इस काया में नाना प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं, जिससे जीवित अवस्था में ही मनुष्य को कुत्सित कर्म की यन्त्रणॉयें भोगनीं होती हैं ।शरीर के पाप में हिंसा पहला पाप है ।इसमें इस शरीर का अनुचित प्रयोग किया जाता है ।उसे उचित अनुचित का विवेक नहीं रहता है,उसकी मुख मुद्रा में दानव जैसे क्रोध,घृणॉ और द्वैष की अग्नि निकलती है । इस प्रकार के लोगों में मानवोचित्त गुंण क्षय होकर राक्षसी प्रवृत्तियॉ उत्तेजित हो उठती हैं, मरणोंपरान्त भी उसकी आत्मा अशॉत रहती है ।

 

 

39- पाप कर्म कई रूपों में मनुष्य पर आक्रमण करता है-

        पाप कर्म ऐसी घृणित दुष्प्रवृत्ति है जो कई रूपों में और अवस्थाओं में मनुष्य पर आक्रमण किया करती है,इसलिए इससे सावधान रहने की आवश्यकता है ।कहते हैं मनुष्य के मन के एक अज्ञात कोने में शैतान का निवास होता है,मनुष्य उस पाप की ओर अज्ञानतावशः खिचता जाता है क्षणिक वासना या थोडे लाभ के अन्धकार में उसे उचित-अनुचित का विवेक नहीं रहता है ,वह अपना स्थाई लाभ नहीं देख पाता है और किसी न किसी पतन के ढालू मार्ग पर आरूढ हो जाता है ।।





जीवन संचार




    







1-सत्य के आधार पर पृथ्वी टिकी है-

        जब सत्य है तभी इस पृथ्वी पर जीवन है, सूर्य का तेज स्थिर रहता है,वायु का संचरण होता है यह पूरा ब्रह्माण्ड सत्य के कारण ही स्थित है ।सत्य का अर्थ है परमेश्वर, अर्थात परमेश्वर ही इस सम्पूर्ण सृष्ठि का संचालन कर्ता है।जो मनुष्य जीवन में सत्य बोलते हैं, सत्य आचरण करते हैं, उन्हैं परमेश्वर की कृपा अवश्य प्राप्त होती है ।लेकिन क्या मनुष्य को सदैव ही सत्य बोलना चाहिए ?जिन तथ्यों से देश-धर्म की रक्षा तथा उन्नति हो सके और सज्जन लोगों का हित हो सके उन्हीं का अनुपालन करना ही सत्य है,इसके अतिरिक्त सभी असत्य है ।

2-ईश्वर हमको देखकर दो बार हंसता है-

        एक बार जब भाई-भाई रस्सी लेकर जमीन के हिस्से करते हैं और कहते हैं,इधर मेरा और उधर तेरा,और दूसरी बार उस समय हंसता है जब किसी की कठिन बीमारी में उसे बन्धु तथा कुटुम्बी लोगों को रोते देख वैद्य कहता है,तुम लोग डरो मत,मैं इसे अच्छा कर दूंगा। वैद्य यह नहीं सोचता कि यदि ईश्वर किसी को मारे,तो किसकी शक्ति है जो उसकी रक्षा करे ।

 

 

3-विषयी पुरुष गोवर के कीडे के समान होते हैं-

        कहते हैं गोवर का कीडा हमेशा गोवर में रहना पसन्द करता है।यदि गोवर छोडकर उसे कुछ भी दिया जाय, तो उसे पसन्द नहीं आता ।और यदि उसे गोवर की जगह कमल में रख दिया जाय तो वह छटपटाया करता है । विषयी पुरुषों का मन भी इसी प्रकार विषय वासना की बातों के सिवाय अन्य किसी प्रकार की वार्ता में नहीं लगता । यदि ईश्वर सम्बन्धी बातें उन्हैं बतलाई जाय,तो वे उस स्थान को त्यागकर जहॉ विषय की बातें होती हैं वहीं चले जाते हैं ।

 

 

4-जीवात्मा और परमात्मा के वीच में माया का परदा है-

        जीवात्मा और परमात्मा के वीच माया का परदा होने से जीवात्मा की भेंट परमात्मा से नहीं हो पाती है।जैसे आगे राम बीच में सीता और पीछे लक्ष्मण जा रहे हैं ।यहॉ पर राम परमात्मा हैं और लक्ष्मण जीवात्मा ,बीच में सीता माया रूपी परदा है ।जबतक सीता बीच में है,तबतक लक्ष्मण रामचन्द्र जी को नहीं देख सकते हैं ।यदि सीता थोडी हट जाय तो लक्ष्मण को राम के दर्शन हो जायेंगे ।भगवान के दर्शन के लिए माया रूपी परदा का हटना आवश्यक है ।।

 

 

5-आप कैसे व्यक्ति है-

        जो व्यक्ति ऊंचे पद पर आसीन होता है वह अवश्य ही लोभी होता है धन का या पदोन्नति का ।जो व्यक्ति ऋंगारप्रिय होता है-उसमें निश्चित ही काम-वासना की अधिकता होती है ।और जो मनुष्य चतुर नहीं होता है वह समयानुकूल बोल नहीं पाता है । और इस प्रकार से मधुर वॉणी में बात नहीं कर पाता है । और जो मनुष्य स्पष्ट बात करने वाला होता है-वह किसी को धोखा नहीं दे पाता है कि उसके द्वारा कोई बात छिपाकर रखी ही नहीं जा सकती है

 

 

6-सत्य से आंख मूंदना आत्मघात है-

        अगर आपसे कोई भूल होती है और आपको अपनी यह भूल दिखाई नहीं देती है तो फिर आप अंधे हैं।अगर आप समझते हैं कि हमसे भूल होती ही नहीं है तो फिर आप मूर्ख हैं ।चूंकि अंधा और मूर्ख दोनों कठोर शब्द हैं चोट पहुंचाने वाले हैं लेकिन सत्य से आंख मूंदना आत्मघात व कडुवा होता है परन्तु सत्य का परिणाम हमेशा निस्वार्थ होता है ।

 

 

7-सदाचारी बनो -

        जिस समाज में सदाचारी नहीं,वहसमाज शीघ्र नष्ट हो जाता है।सदाचारी तो परमात्मा का प्रतिनिधि होता है, इसलिए उसकी पूजा की जानी चाहिए।वैसे सदाचार मानव धर्म है।जब सदाचारी जगता है तो सबेरा हो जाता है ।

 

 

8-सदैव स्वयं को दोशमुक्त होने की अनुभूति करें-

        आपने कोई बुराई नहीं की यह भाव आपमें होना चाहिए। स्वयं को दोषी न समझें।क्योंकि आप एक मानव हैं आप परमात्मा तो नहीं हैं,आप त्रुटियॉ कर सकते हैं। इसलिए स्वयं को दोषी समझने की जरूरत नहीं है बल्कि उसका सामना करें, और उसे दूर करें ।क्योंकि यदि आप स्वयं को दोषी समझते है तो आप उसे अपने बॉयें भाग में लिए फिरते है परिणाम स्वरूप आप ह्दय शूल के शिकार हो जाते हैं ।हम एक सहजयोगी हैं।हम आत्मा हैं । आत्मा कभी अपराध नहीं करती।अपनी गलतियों का सामना करें और उसी समय मुक्त हो जायें । कभी भी अपने को दोषी न समझें ।

 

 

9-सफलता का आनन्द और चैतन्यमय जीवन के लिए कष्ट तथा कठिनाइयॉ आवश्यक है-

        कठिनाइयों के न रहने पर मनुष्य की क्रियाशीलता, कार्यकुशलता और चैतन्यता प्रायःनष्ट हो जाती है।क्योंकि ठोकर खा- खा कर कठिनाइयॉ झेलकर अनुभव करत्रित किया जाता है।कठिनाइयों एवं कष्टों की चोट सहकर मनुष्य दृढ बलवान और साहसी बन जाता है। कठिनाइयों एवं मुसीबतों की अग्नि में तपाये जाने पर मनुष्य की बहुत सी कमजोरियॉ जलकर नष्ट हो जाती है और मनुष्य खरे स्वर्ण की तरह चमकने लगता है। हथियार की धार पत्थर पर रघडने से तेज होती है। खराद पर चढाने से हीरे में चमक आती है।बिना चोट लगे गेंद उछलती नहीं है।विना थपकी लगे ढोल नहीं बजता है।बिना एड लगाये घोडे की चाल में तीव्रता नहीं आती है। और मनुष्य भी तो इन्हीं तत्वों से बना है यदि मनुष्य के सामने कठिनाइयॉ न हों तो उसकी सुप्त शक्तियॉ जाग्रत न हो सकेंगी और वह जहॉ का तहॉ पडा दिन काटता रहेगा । सफलता का आनन्द बनाये रखने के लिए और चैतन्य होकर विकास मार्ग पर आगे बढने के लिए कष्ट और कठिनाइयों का रहना आवश्यक है,इतिहास में जिन महॉपुरुषों का उल्लेख किया जाता है,उनमें से प्रत्येक के जीवन के पीछे कष्टों और कठिनाइयों का अम्बार रहा है, उन्होंने इनका डटकर मुकाबला किया और महान कहलाये।इसलिए कष्ट आने पर घबडाइयें नहीं बल्कि उसका मुकाबला करें,फिर जो परिणाम सामने आयेगा उससे आनन्द की अनुभूति होगी ।

 

 

10-सफलता की कसौटी अनुभवों के द्वार-

        मेरे पास एक दीपक है,जो मुझे राह दिखाता है और वह सिर्फ मेरा अनुभव है। हमें क्या करना चाहिए,यह बताना तो बुद्धि का काम है,लेकिन किस तरह किया जाय यह तब,जब अनुभव बतायेगा। बुद्धि तो धन है, मगर अनुभव नकद रुपया है।और काफी समय तक ध्यानपूर्वक तथा एकाग्रचित्त होकर कार्य किये बगैर अनुभव प्राप्त नहीं होता ।बिना अनुभव के तो कोरा शाब्दिक ज्ञान अंधा है। कष्ट सहने पर ही अनुभव होता है। दुख तो अनुभवों का विद्यालय है,अपनी पीडा तो पशु-पक्षी भी महशूस करते हैं लेकिन मनुष्य वह है जो दूसरों की वेदना को अनुभव करते हैं। हमें अपने बुरे अनुभव भी नहीं छिपाने चाहिए, उनसे भी लोग लाभ उठा सकते हैं। अगर हम सही अनुभव नहीं करते तो यह निश्चित है कि हम गलत निर्णय लेंगे।अनुभव तो अमूल्य कसौटी है। अगुभव से तो हमें केवल ज्ञान ही प्राप्त नहीं होता बल्कि वासनाओं से भी मुक्ति मिल जाती है।जो अनुभव के स्रोत का जल पीने की उपेक्षा करता है वह संभवतः अज्ञान रूपी मरुस्थल में प्यासा ही मर जायेगा। वैसे भी कहते हैं कि दूध का जला छॉछ को फूंक-फूंक कर पीता है। बस दसरों के अनुभव से लाभ उठाने वाला ही बुद्धिमान है ।

 

 

11-सबसे अधिक दुखी कौन है-

        हमारे महॉपुरुष भी इस बात से सहमत हैं कि संसार में सबसे दुखी व्यक्ति वह है जो गरीब है।और उससे अधिक दुखी वह है जिसने किसी का कर्ज देना है। और इन दोनों से भी अधिक दुखी वह है जो सदा रोगी रहता है ।और सबसे अधिक दुखी तो वह है जिसकी पत्नी दुष्ट है।इसलिए बहिनें ध्यान रखें कि आपके पति कितने सुखी हैं या दुखी हैं

 

 

12-सबसे उत्तम बदला क्षमा है-

        क्षमा तेजस्वियों का तेज है, तपस्वियों का ब्रह्म है,सत्यवादियों का का सत्य है।क्षमा यश है,धर्म है क्षमा ही चराचर जगत स्थित है।क्षमा से बढकर और किसी बात में पाप को पुण्य बनाने की शक्ति नहीं है। क्षमा करना दुश्मन पर विजय प्राप्त कर लेना है। तपस्वी और त्यागी की शोभा उसके क्षमाशील होने में है।जिस प्रकार दुष्टों का बल हिंसा,राजाओं का बल है सेवा उसी प्रकार गुंणवानों का बल है क्षमा करना ।

 

 

13-सबसे नजदीकी मित्र अपना मन है-

        अपने जीवन का सबसे नजदीकी मित्र अपना मन होता है। वहीं अपने उत्थान और पतन में साझीदार होता है,सबसे पहले किसी भी कार्य के लिए मन से पूछ लेना चाहिए ।इसलिए ध्यान रखना चाहिए कि मन को बदला और सुधारा जाय ताकि वह उपयुक्त सलाह दे सके ।

 

 

14-मृत्यु में जीवन का निवास संतुलन है-

        यदि आप देखें तो मृत्यु में जीवन का निवास है,यदि मृत्यु न होती तो आदिकाल के लोग आज जीवित होते, और आज जीना दूभर हो जाता तो, हम भी न होते। पशुओं की मृत्यु हुई तो मानव रूप में जन्म हुआ । मरें तो फिर अन्य लोग जन्म लेंगे, पृथ्वी पर आने के लिए व्यक्ति को कुछ समय आराम करना होता है,यह मृत्यु मात्र जीवन परिवर्तन है ।मृत्यु के विना जीवन का कोई अस्तित्व नहीं हो सकता है। दोनों के बीच यह एक सन्तुलन है।इसलिए सहज योगी को कभी मृत्यु से नहीं डरना चाहिए।यदि उसकी मृत्यु होगी तो दूसरे को जीवन मिलेगा ।प्रकृति में यह संतुलन है । हर चीज संतुलन में है सूर्य और चॉद की दूरी संतुलन में है पृथ्वी की गति संतुलन में है,यदि ये संतुलन समाप्त हो जायें तो हम कहीं के नहीं रहेंगे ।और यह कार्य गणेश का है, वे ही सारे भौतिक पदार्थों तथा सृजित वस्तुओं की देखभाल करते हैं।मंगलमयता केवल संतुलन के माध्य से आती है ।

 

 

15-मेरी मॉ-

        मानव की जुबॉ से बोले जाने वाला सबसे सुन्दर शब्द मॉ है,सबसे सुन्दर बुलावा मेरी मॉ का है।ये शब्द आशा और प्रेम से परिपूर्ण है, मधुरता एवं करुणॉ से परिपूर्ण है,मधुरता और करुंणा से परिपूर्ण शव्द जो गहराइयों से निकलता है। मॉ सभी कुछ है –दुःख में वे हमार ढाढस है, तखलीफ के समय वे हमारी आशा हैं, और कमजोरी में हमारी ताकत,वे प्रेम,करुणॉ,हमदर्दी एवं क्षमा का श्रोत है । जो व्यक्ति अपनी मॉ खो दोता है वह निरन्तर आशीष देने वाली एवं रक्षा करने वाली पावन आत्मा को खो देता है ।प्रकृति की हर चीज मॉ की ओर संकेत करती है। सूर्य पृथ्वी की मॉ है और अपनी गर्मी से इसे पोषण प्रदान करता है।

 

 

16-अपने अन्दर पूर्ण मिठास महसूस करें-

        हे परमात्मा मेरे जीवन के लवालव भरे प्याले से आप कौन –सा दिव्य पेय लेंगे, मेरे कवि,क्या मेरी आंखों के माध्यम से अपनी सृष्टि देखना और मेरे कानों के द्वार पर खडे होकर अपने शाश्वत सामंजस्य गीत कोसुनने में ही आपको खुशी है । आपका विश्व मेरे मस्तिष्क में शव्द बुन रहा है । आपका आनंद इन शब्दों को संगीत प्रदान कर रहा है । प्रेम के क्षणों में आप स्वयं मुझे समर्पित कर देते हैं और फिर मेरे अंदर अपने पूर्ण मिठास को महसूस करते हैं ।

 

 

17-शक्ति के बिना उसका कोई अस्तित्व नहीं-

        पुरुष अवतरण गतिज पक्ष है ,सम्भाभ्य ऊर्जा मादा शक्ति है।इसी कारण कंस का वध करने के लिए श्री कृष्ण को श्री राधा की सहायता मॉगनी पडी शक्ति के विना तो कोई अस्तित्व नहीं,वैसे ही जैसे प्रकास के विना दीपक का अस्तित्व नहीं ।ये अवतरण हैं इनके पीछे शक्तियॉ हैं जिन्होंने सारे कार्यों को अन्जाम दिया । इसी प्रकार शिव क्रोधित हकर राक्षशों का वध करते हैं क्योंकि वह शक्ति उनमें प्रवेश करती है।अपने उन्दर कोई नर शक्ति लेकर कभी कोई अवतरित नहीं हुई,जिन राक्षसों का वध उन्होंने(देवी) किया उन्हीं के मुंडों की माला उन्होंने पहन ली ताकि अन्य राक्षस भयभीत हों कि मैं तुम्हारा भी वध कर दूंगी,और तुम्हारे सिर की भी माला बनाकर पहन लूंगी । केवल उन्हैं डराने के लिए।

 

 

18- पुरुष फूल है तो महिला सुगन्ध है-

        पुरुष के विना महिला स्वयं को अभिव्यक्त नहीं कर सकती है,पुरुष के विना आप जीवित नहीं रह सकती,माना पृथ्वी मॉ सभी प्रकार की सुगन्ध है लेकिन जब फूल नहीं हैं तो आप किस प्रकार जानेंगे कि पृथ्वी मॉ में सुगन्ध है।इसलिए पुरुष अत्यन्त महत्वपूर्ण है,अन्यथा उनकी पूरी शक्ति नष्ट हो जायेगी । अतः यदि महिलायें पृथ्वी मॉ का रूप हैं तो आप (पुरुष)पुष्प हैं।

 

 

19-सुख के साधन ही कभी-कभी दुख के कारण बन जाते है-

        सुःख-दुख बहुत कुछ हमारी सोच पर निर्भर करता है और कई बार सुख के साधन ही हमारे दुःख का कारण बन जाते हैं ।एक आदमी अपनी पत्नी के साथ एक झोपडी में रहता था,दिनभर मेहनत करके जो कमाता उससे मजे से अपना जीवन यापन करता था दोनों सुखी थे,उन्हैं न कोई लोभ या लालच था न कोई कामना थी,वह एकसीधा-सच्चा श्रमिक था।उसी के पडोस में एक सेठ रहताथा,वह हमेशा परेशानी व चिन्ता में डूबा रहता था आनन्द की अनुभूति उसने कभी नहीं की,एक दिन एक साधु ने उसे दुखी देखकर उसे समझाया कि तुम्हारी यह धन दौलत ही तुम्हारी सारी परेशानी और चिन्ता की जड है।इसने तुम्हारे स्तित्व पर अपना कव्जा जमा रखा है,तुम्हारा चित्त हरसमय एक चीज से दूसरी चीज की तरफ भटकता रहता है,जिससे तुम वेचैन रहते हो।संत ने पडोस के उस श्रमिक की ओर इशारा करते हुये कहा कि इसे देखो इसके पास कुछ भी नहीं है ,लेकिन देखो उसका मुख मणडल कैसा आनन्द से खिला है,उसका शरीर कितना सुन्दर व सुडौल है तुम्हारे भाग्य में ऎसा सुख और आनन्द कहॉ है ।उस धनी ने विचार किया साधु के कथनों की परीक्षा ली जाय। दूसरे दिन साधु के परामर्श पर धनी ने उस निर्धन के यहॉ निन्यानब्बे रुपयेकी एक थैली फेंक दिये तो शॉम को देखा कि उस निर्धन मजदूर के यहॉ चूल्हा तक नहीं जला,जबकि आज तक हमेशा ठीक समय पर खाना बना करता था.दूसरे दिन सुबह ही साधु ने सेठ को अपने साथ लेकर श्रमिक के घर पहुंचा और उस श्रमिक से रात को चूल्हा न जलने का कारण पूछा,उस निर्धन श्रमिक ने संत से झूठ बोलना उचित न समझा और कहा कि कल से पहले मैं प्रतिदिन मैं जो पैसा कमाता था उससे आटा ,दाल, शब्जी, तेल,मशाला खरीदलाता था,मगर कल हमने इसलिए चूल्हा नहीं जलाया कि मेरे घर कल एक छोटी सी थैली गिरी मिली उसमें पूरे निन्यानव्बे रुपये थे ,तो चोचा कि एक ही रुपये की कमी है,कि यदि एक रुपया हो जाता तो पूरे सौ रुपये हो जायेंगे ,बस उसी एक रुपये की कमी को पूरा करने के लिए हमने यह निश्चय किया कि हम एक दिन छोडकर खाना खायेंगे इसी कारण हमें कल भूखा रहना पडा । सुख दुख से समझौता करें।

 

 

20- – ईश्वर के एक ही रूप में विश्वास करें -

        चम्पा तेरे पास रूप,रंग व सुगन्ध तीनों गुण होने पर भी भौंरा तुम्हारे पास क्यों नहीं आता है, यह पूछने पर चम्पा का कहना था कि भौंरा जगह-जगह के फूलों का रस लेता है मुझे यह पसन्द नहीं है इसलिए मैं भौरे को अपने पास नहीं आने देती हूं मानव को भी ईश्वर के एक ही रूप में विस्वास करना चाहिए जगह-जगह ध्यान से परमात्मा प्राप्त नहीं हो सकता है ।

 

 

21 – अहंकार -

        जिस व्यक्ति में अहंकार की भावना होती है,उसका वह अहंकार अपनी उपस्थिति प्रगाढ कर दिखाना चाहता है । अहंकार से अपने भी पराये हो जाते हैं ,ध्यान रहे अहंकार से बचें ।

 

 

22– विश्वास-

        ब्यक्ति को स्वयं पर विश्वास होना चाहिए,वरन् राम भरोशा काम नहीं आता, विश्वास उस बच्चे के समान होना चाहिए जो अपनी मॉ के हाथों ऊपर उछाला जा रहा है लेकिन बच्चा ऊपर हवा में हंसते हुये तैरने की कोशिस कर रहा है उसे गिरने का कोई डर नहीं है,ङसलिए कि उसे विश्वास है कि ऊपर उछालने वाला और नहीं बल्कि सिर्फ पालनहारी मॉ है ।

 

 

23 – वासना और प्रार्थना -

        यदि वासना अधूरी है तो आदमी क्रोधी बन जाता है,और यदि वासना पूर्ण हो जाती है तो घृणा,वैराग्य उत्पन्न होता है जबकि प्रार्थना पूरी न हो तो लालसा रहती है और प्रार्थना पूर्ण होती है तो परमात्मा प्राप्त होता है ।प्रार्थना ईश्वर प्राप्ति का सरल मार्ग है।

 

 

24 – अहम् का विचार न आये -

        मन में अहम का विचार नहीं आना चाहिए,एक बार रामकृष्ण परमहंस अपने आश्रम में देवी के मन्दिर की सीढी को अपनी जटा से साफ कर रहे थे शिष्यों ने पूछा गुरु जी तुम ऐेसा क्यों कर रहे हो, रामकृष्ण का कहना था ङसलिए कि ताकि ङस खोपडी को अहम का अहसास न हो ।

 

 

25 – सुख दुख से समझौता -

        हमें सबसे अधिक दुख किससे मिलता है जिससे सबसे अधिक सुख की अपेक्षा होती है, ङसलिए उससे सुख से लिप्त नहीं होना चाहिए अपने ही बेटी- बेटों द्वारा बचपन में जो सुख मिलता है बडा होने पर उतना ही दुख निलता है और अगर हम यह मानें कि यह होना ही है तो ङससे काम नहींचलेगा ङसलिए हमें सुख-दुख से समझौता करना होता है।

 

 

26 – क्षमा करने का गुंण होना चाहिए-

        गलती करने वाला अवश्य गलती करेगा,यह श्रंखला चलती रहेगी इसलिए मनुष्य में क्षमा करने का गुंण होना चाहिए ।क्षमा करना सीखें।

 

 

27 – सत्य सभी को पसन्द है -

        सभी लोग सत्य सुनना चाहते हैं, और सभी को सत्य की तलाश है, लेकिन फिर भी सत्य से दूर रहते हैं विषमता हर व्यक्ति के चारों ओर डेरा डाले है ।

 

 

28 – आत्म बल-

        जब हम अकर्मण्यता के आंचल में अपना मुंह छिपाते हैं तो हमारे सामने निराशा की एकमोटी दीवार खडी हो जाती है तब,आत्मबल से ही हम उसे पार कर सकते हैं ।

 

 

29-सौभाग्यशाली होने का अवसर प्राप्त करें-

        जीवन में हमें कई प्रकार के कार्यों को करने के अवसर मिलते हैंलेकिन सेवा का अवसर मिलने पर उसे अनदेखा और अनसुना करना बहुत बडे दुर्भाग्य की बात है ।हमें धन मिल जाय,अच्छे मित्र मिल जायें,इनसे तो हम सुखी हो सकते हैं लेकिन सौभाग्यशाली नहीं हो सकते ।यदि हमें किसी गरीब दीन दुखी की सेवा का अवसर मिलता है तो तभी हम सौभाग्यशाली हो सकते हैं । इसके सामने तो संसारके सारे सुख छोटे पडजाते हैं ।

 

 

30-क्रोध करना बुरा है की अनुभूति कब होती है-

        यदि आप कहते हैं कि मैं यह जानता हूं कि क्रोध करना बुरा है,हानि कारक है,लेकिन इस बात को आप तभी जानते हैं जब कोई दूसरा क्रोध कर रहा होता है या आप यह तभी जानते हैं जब आपका क्रोध आकर जा चुका होता है,लेकिन जब आप क्रोध में होते हैं तो आपका रोआं-रोआं कहता है कि क्रोध ही उचित है ।

 

 

31-स्वयं को पहचानने में विवाद न करें-

        जो लोग धर्म के बारे में विवाद करते हैं,वे तो स्वयं को पहचानने में विवाद करते हैं।वे स्वयं ईश्वर रूप होते हुये भी अपने ईश्वर पद को अस्वीकार करते हैं।वे पागलों की भॉति अपने को ही नहीं पहचानते हैं ।वे लोग अपनी गंदगी और अनुत्तरदायित्वपूर्ण कार्य से जगत को कुरूप बना देते हैं । इनका उपचार करना,इन्हैं समझा-बुझाकर इनके रोग को मिटाना आवश्यक हैं। नईं शिक्षा के द्वारा इन्हैं शिक्षित किया जाना चाहिए ।

 

 

32-शुभ कार्य स्वयं में शुभ मुहूर्त है-

        कोई भी शुभ कार्य करने में उसे कल पर नहीं छोडना चाहिए,और न हीं शुभ कार्य के लिए मुहूर्त की आवश्यकता होती है,इसलिए कि शुभ कार्य स्वयं में शुभ मुहूर्त है ।अशुभ को करने में जल्दवाजी नहीं करनी चाहिए ।शुभ,पुण्य कार्य को आज ही कर लो,अभी कर डालो,इसी वक्त कर डालो पता नहीं अगले क्षण तुम रहो या न रहो ।

 

 

33--श्रद्धा और विश्वास-

        विश्वास तो कई जगह किया जा सकता है, जैसे मित्र,नौकर,अपना सम्बन्धी,और यहॉ तक कि ताले पर भी ।लेकिन श्रद्धा तो केवल एक ही स्थान पर होती है और वह है इष्ट या सद्गुरु।श्रद्धा के आने से अभय का भाव आता है । लेकिन अभय का तात्पर्य यह नहीं कि तुम किसी से डरते नहीं, बल्कि इस भाव का अर्थ तब पूर्ण होगा जब तुमसे भी कोई न डरे ।

 

 

34-दुखों से मुक्ति पाने का साधन श्रेष्ठ बुद्धि है-

        ईश्वर ने जिस महान उद्देश्य के लिए हमें यह शरीर प्रदान किया है,इसके लिए श्रेष्ठ बुद्धि की आवश्यकता है। इस संसार के समस्त दुखों से मुक्ति पाने के लिए महत्वपूर्ण साधन यह श्रेष्ठ बुद्धि ही है,जिसकी सहायता से संसार का प्रत्येक प्राणी भव सागर के भंवर में उलझी हुई अपने इस तन रूपी नौका को भी पार उतार सकता है लेकिन यह तभी संभव है जब बुद्धि श्रेष्ठ हो ।

 

 

35-जब बुद्धि मलिन हो तो समझो विपत्ति आनी वाली है-

        जैसा कि कहा गया है कि विनाश काले विपरीत बुद्धि। जब बुद्धि मलिन होने लगे और विचार अपवित्र हों तो समझ लेना चाहिए कि कोई विपत्ति आनी वाली है। उस समय योग द्वारा अपने विचारों और संकल्प को शुद्ध और पवित्र बना लेना चाहिए,तो फिर दुर्भाग्य भयभीत नहीं कर सकेगा । जिससे संकट हल्का हो जाता है । सत्य संकल्प के द्वारा कठिन आपत्ति को भी टाला जा सकता है ।दृढ संकल्प और शुद्ध विचार वाले व्यक्ति पर यदि अचानक विपत्ति आ भी जाय तो प्रकृति और आस-पास के लोग एवं वहॉ का वातावरण उसके बोझ को बॉट लेंगे । इसलिए संकल्प शक्ति इस संसार में सर्वोपरि शक्ति है ।

 

 

36-मन हंसता है तो होंठ कभी नहीं रोते-

        जिसका मन रोगी नहीं ,विकार युक्त नहीं , उसका शरीर कभी रोगी नहीं हो सकता है।जिसका मन हंसता है उसके होंठ कभी नहीं रोते ।अस्वस्थ तन में स्वस्थ मन तो रह सकता है,परन्तु अस्वस्थ मन कभी तन को स्वस्थ रहने नहीं देता ।

 

 

37--स्वस्थ चिंतन से समाज को गति मिलती है -

        स्वस्थ शरीरमें स्वस्थ विचार होते हैं स्वस्थ चिन्तन से एकाग्रता-सजगता-अन्तर्दृष्टि जागृत होती है।तब आत्मध्यान की गहराई से प्राप्त अमृत ही जीवन को शक्ति व शॉन्ति देता है।इस प्रकार के स्वस्थ चिन्तन व शॉत मानव द्वारा ही विश्व सुन्दर वनता है,उस समाज को उत्थान की ओर बढने की गति मिलती है ।बीमार व्यक्ति का चिन्तन एवं आचरण भी रुग्ण होगा। मूढ व्यक्ति तो अपना ही उपकार नहीं कर सकता ।अशॉत व्यक्ति तो दुनियॉ को कुरूप बना देता है ।

 

 

38-ईश्वर अनुभूति का विषय है -

        जिसे पाने का कोई उपाय नहीं उसका नाम है संसार, और जिसे खोने का कोई उपाय नहीं है उसका नाम है परमात्मा।लेकिन इस संसार को पाने के लिए और परमात्मा को खोने के लिए इंसान सारा जोखिम दॉव पर लगा देता है । ईश्वर तो मान्यता का नहीं अनुभूति का विषय है ।

 

 

39--सबसे बडा वशीकरण मंत्र स्वयं को वश में करना है-

        सच्चा संत कभी वशीकरण मंत्र का प्रयोग नहीं करता बल्कि संत तो स्वयं अपने आपको वश में कर देता है । और फिर पूरी दुनियॉ संत के वश में हो जाती है।स्वयं अपने को वस में करना दुनियॉ का सबसे बडा वशीकरण मंत्र है ।

 

 

40-सत्य को गंवाकर कुबेर की सम्पदा पाना घाटे का सौदा होगा-

        सत्य और न्याय के पीछे चलने में हमें सबकुछ छोडना पडता है तो इसके लिए हमें स्वयं को तैयार करना चाहिए ।क्योंकि सत्य ही परमेश्वर है, इससे बढकर इस संसार में कुछ भी नहीं है । यदि सत्य अपने हाथ रहा और उसके बदले सबकुछ चला गया तो कोई हर्ज नहीं ।लेकिन यदि सत्य को गंवाकर कुवेर की सम्पदा और इन्द्र का सिंहासन भी मिल जाता तो समझना चाहिए कि यह बहुत महंगा और बहुत घाटे का शौदा रहा है ।



 


सत्य के आधार पर पृथ्वी टिकी है



 



















1-शरीर और आत्म वेदना -

 

        हम अपने शरीर की तडपन को तो देखते है मगर आत्मा की पीडा को नहीं पहचान पाते हैं ,यदि कोई हमारे शरी में सुई चुभो देता है तो हमारा ध्यान उसी जगह पर केन्द्रित हो जाता है,हमें बडा कष्ट होता है, हमारे शरीर में कोई भी वीमारी लगती है है, हम शीघ्र उसका इलाज करते है,लेकिन आत्म वेदना को आजतक हमने अनुभव ही नहीं किया ।शरीर की वेदना का हम शीध्र इलाज करते हैं ,लेकिन अपने अन्तर्मन के इलाज की ओर हमने ध्यान दिया ही नहीं,उसका दर्द कितना असह्य है ,उसे महशूस ही नहीं किया ।आत्मा में वर्षों से बसी इस दुर्गन्ध को मिटाना वैश्यावृत्ति से मुक्ति के समान होगा । हम अगर दूसरों की सेवा करते हैं तो उसमें ही अपनी वेदना को मिटाते हैं ,निस्वार्थ मन से हम दूसरों की सेवा कर ही नहीं सकते हैं । इसके लिए हमें अपने अंतरंग में उतरकर आत्मा की वेदना की आवाज को पहिचानना होगा,ऎसा लक्ष्य निर्धारित करना होगा जिसमें निस्वार्थ स्वावलम्बन की भावना हो ।।

 

2-समूह में शक्ति होती है-

        हम देखते हैं कि एक तिनका छोटा सा,कमजोर होता है,बलहीन होता है जिसे पानी आसानी से बहा ले जाता है,लेकिन जब ढेर सारे तिनके एकत्रित हो जाते हैं तो छप्पर का रूप धारण कर लेते है । फिर उनके द्वारा भारी वर्षा से भी बचाव किया जा सकता है ।इसी प्रकार जब किसी परिवार या राज्य के लोग अलग-अलग बिखरे होते हैं तो उनकी शक्ति कुछ भी नहीं रहती है,लेकिन जब सभी लोग मिल जाते हैं तो उनका समूह अपने से भी अधिक शक्तिशाली शत्रु को पराजित कर लेता है ।अतः योग्य मनुष्यों को संगठित होकर रहना चाहिए ।जैसे हमारे देश में जब मुगलों का शासन था, जिसमें हिन्दुओं का जीना मुश्किल हो गया था,तो शिवाजी ने दुर्वल हो चुके हिन्दुओं को संगठित किया और मुगल साम्राज्य को समाप्त कर दिन्दू धर्म का पुनुरुत्थान किया । इसी प्रकार जब देश में अंग्रेजों का शासन था और अहिंसा की दुर्वल नीति के कारण देश का सर्वनाश हो रहा था तो उस समय –नेताजी सुभाषचन्द बोस ने भारतीय लोगों को संगठित करके भारतीय स्वतंत्रता सेना (आजाद हिंद फौज ) की स्थापना की और अंग्रेजों से भीषण युद्ध किया ।।

 

3-गुंणवान मनुष्य को समाज से जुडकर रहना चाहिए-

        कहते हैं यदि मूल्यवान हीरा है तो वह सोने में जडे रहने की इच्छा रखता है, क्योंकि-अकेला हीरा तो तिजोरी में बन्द होकर रखा जायेगा ।जबकि सोने में जडने से हीरा मनुष्यों द्वारा धारण किया जायेगा । इसी प्रकार कोई मनुष्य अधिक गुंणवान हो लेकिन वह पूर्णतः अकेला हो तो उसके गुंण भी किसी काम के नहीं हैं, क्योंकि अकेले होने पर वह अपने गुणों का लाभ किसको पहुंचायेगा ?किसी को भी नहीं । वह गुंणवान मनुष्य परिवार या समाज के साथ रहता है तो अपने गुंणों से अन्य लोगों को भी लाभान्वित करेगा ।इसलिए कहते हैं गुंणवान मनुष्य को अकेला नहीं रहना चाहिए, परिवार,समाज से जुडकर रहना चाहिए ।अर्थात प्रत्येक मनुष्य को सामाजिक प्राणी बनना चाहिए और अपने परिवार-समाज से जुडकर रहना चाहिए ।।

 

4-शिक्षा उसी को दी जाय जो उसके योग्य हो-

        शिक्षा केवल उसी को दी जानी चाहिए जो उसे ग्रहण करने योग्य हो अर्थात जो उस शिक्षा को मनोयोगपूर्वक ग्रहण करे और उस शिक्षा का मर्म समक्षकर उसके अनुरूप आचरण करे। यदि दी जा रही शिक्षा से वह चिडचिडाने लगे और आपसे रुष्ट होने लगे तो इस प्रकार की शिक्षा देने से कोई लाभ नहीं है ।इसी प्रकार पतिता स्त्री को अपने साथ रखने से समाज में आपको अपयश ही प्राप्त होगा ।इसी प्रकार सदैव दुखी बने रहने वाले मनुष्यों साथ व्यवहार बनाने से भी आपका उत्साह नष्ट हो जायेगा और आपकी एकाग्रता भंग हो जायेगी जिससे आप सदैव उदास रहेंगे । एक बार तेज वारिष हो रही थी एक पक्षी उस समय पेड पर अपने घोंसले में सुरक्षित बैठी थी। तभी एक बन्दर भीगता हुआ पेड पर पहुंच गया सामने पक्षी ने बन्दर को शिक्षा देकर कहा हे बन्दर अगर तुम भी मेरी तरह पहले ही से कोई घर बना लेते तो तुम्हें वारिष में इस तरह नहीं भीगना पडता ।भीगा हुआ बन्दर पहले ही खिसियाया हुआ था,उसे गुस्सा आया और उसने उस पक्षी का घोंसला तोड दिया–इससे पक्षी भी वारिष में भीगने लगी ।इसी घटना पर एक दोहा है कि-सीख बाको दीजिए,जाको सीख सुहाय।सीख न दीजो वानरा,जो घर पक्षी का जाय।।

5-मृत्यु स्वरूप बातें-

        अगर पत्नी कडवी बोलती है और दुश्चरित्र है तो उसका पति एक तो अपमान और लज्जा के बोझ से वैसे ही दुर्दशा को प्राप्त होता है ,ऊपर से उसे यह भी भय बना रहता है कि कहीं वह स्त्री अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिए उसे विष न दे दे । इस प्रकार उसका जीवन सदैव आशंकाओं से घिरा रहता है ।ठीक इसी प्रकार स्वार्थी मित्र भी हानिप्रद होता है क्योंकि ऐसे मित्र केवल नाम मात्र के लिए ही मित्र होता है और केवल अपने स्वार्थों की पूर्ति और अपने हितों की रक्षा के लिए ही मित्रता करता है ।यदि आपके कुछ भी बोलने पर शीघ्र प्रत्युत्तर देने वाला नौकर आदि कोई भी हो आपको हानि पहुंचा सकता है,जरा सी बात पर चिढकर आपको नुकसान पहुंचाने का प्रयास कर सकता है, अगर घर में सर्प रखा जाता है तो उस घर में भी मृत्यु का भय रहता है ।इसलिए इन परिस्थितियों में मनुष्य को सावधान रहना चाहिए ।तभी वह अपने जीवन की रक्षा करने में पूर्णतःसमर्थ हो सकेगा ।।

 

6-आचरण के विना ज्ञान व्यर्थ,अज्ञान से मनुष्य नष्ट हो जाता है-

        जब कोई व्यक्ति ज्ञान प्राप्त करता है और उसका व्यवहार में आचरण नहीं करता है तो वह ज्ञान व्यर्थ है जैसे किसी घर में बहुत सारे चूहे हो गये थे जो कि उनके सामान को कुतरकर हानि पहुंचाते थे चूहों के इस उत्पात से बचने के लिए उस घर का स्वामी एक किताव लाया ,जिसमें चूहे मारने के उपाय लिखे थे उसने पुस्तक को अच्छी तरह से पढा और रख लिया लेकिन अगले दिन उसने देखा कि चूहों ने उस पुस्तक को ही कुतर कर नष्ट कर दिया अर्थात केवल पुस्तक में चूहे मारने के उपाय पढने से (ज्ञान प्राप्तिकरने) से कोई लाभ नहीं हुआ बल्कि उन उपायों पर अमल करना भी आवश्यक है। इसी प्रकार जो मनुष्य किसी भी प्रकार का ज्ञान प्राप्त नहीं करता है तो उस अज्ञानता के कारण वह कोई भी कार्य सही प्रकार से नहीं कर पाता है जिससे वह बार-बार हानि उठाता है-इस प्रकार से वह मनुष्य पूर्णतः नष्ट हो जाता है ।।

 

7-प्रसंग के अनुसार बात,सामर्थ्य से साहस,शक्ति से क्रोध करें-

        जो मनुष्य प्रसंग के अनुसार बात करना जानता है तो वह सभी परिस्थितियों में अपने अनुकूल वातावरण का निर्माण कर लेता है और वह अपने हितों को पूरा कर लेता है ।और जो मनुष्य अपने सामर्थ्य के अनुसार साहस करना जानता है वह तो परिस्थितियों पर विजय प्राप्त करके उन्नति करता है और उसके लाभों तथा सम्पत्ति में भी वृद्धि होती है । इसी प्रकार जो मनुष्य अपनी शक्ति के अनुसार क्रोध करना जानता है, वह तो अयोग्य लोगों को दण्ड का भय दिखाकर अपने कार्यों को सिद्ध कर लेता है और वह सम्मान प्राप्त कर लेता है ।।

 

8-सज्जन मनुष्यों के लक्षण-

        सज्जन और परोपकारी मनुष्यों के उपयुक्त लक्षण निम्न हैं-अपने मन को साफ रखना उसमें कोई भी विकार न रखना, मीठा तथा उचित बोलना,इन्द्रियों पर संयम रखना, भोग-विलास से बचना, सभी के प्रति दया-भाव रखना, उन तरीकों से धन का अर्जन करना जिससे समाज और देश को हानि न हो, और कमाये गये धन का उचित ढंग से समायोजन करना ताकि उससे देश का हित हो सके ।।

 

9-सच्चे महात्मा की पहचान-

        जो लोग सबका हित चाहने वाले होते हैं,उनका स्वभाव और आचरण अत्यन्त विचित्र होता है। वे लोग अपनी सम्पदा का संचय करना नहीं चाहते हैं लेकिन यदि किसी प्रकार से उनको सम्पदा प्राप्त हो जाय तो उसको पूरे समाज के हित के लिए ही व्यय करने लगते हैं ।अर्थात सच्चा महात्मा वही है जो कि अपनी सम्पदा का प्रयोग केवल अपने लाभ में प्रयुक्त नहीं करते बल्कि पूरे समाज के हित में प्रयुक्त करते हैं ।।

 

10-आदिशक्ति माता जी श्री निर्मला देवी का आध्यात्म-

        अपने जीवन में अपने हिन्दू धर्म के अनुसार देवी-देवताओं की उपासना में मैं हमेशा भ्रमित रहता था, ईश्वर को तलासने के लिए कभी इस मंदिर में सभी उस मंदिर में भटकता रहा,लेकिन कुछ वर्षों पूर्व जब माता जी के आध्यात्म के सम्पर्क में आया तो ईश्वर के प्रति विचारधारा ही बदल गई । इस आध्यात्म में सबसे बडी बात यह है कि हमें किसी गुरु के शरण में जाने की आवश्यकता नहीं हैं,हम अपने गुरु स्वयं अपने आप हैं।जबकि सभी उपदेश देने वाले कहते हैं कि बिना गुरु के ईश्वर प्राप्त हो ही नहीं सकता । दूसरी बात माता जी ने कहा कि ईश्वर को रुपये पैसों की भाषा समझ में नहीं आती है आप इस कार्य में कोई खर्चा न करें ।तीसरी बात माता जी ने कहा बाहर जितने भी देवता हैं वे सभी हमारे शरीर में अलग-अलग तत्वों के रूप में विद्यमान हैं,इसलिए हमें बाहर भटकने की आवश्यकता नहीं है,हमें तो इन्हैं अपने शरीर के अन्दर ही प्रशन्न करना है । अपने शरीर के अन्दर सात चक्र हैं, कुण्डलिनी मूलाधार में बैठी होती है,अगर हमारे सातों चक्र जागृत अवस्था में हैं तो कुण्डलिनी हर चक्र से होकर अन्त में सहस्रार का भेदन कर सदा शिव में मिल जाती है, यह परम चैतन्य प्राप्ति की स्थिति है । इस स्थिति में शरीर को अथाह आध्यात्मिक ऊर्जा मिलती है जोकि किसी लक्ष्य की प्राप्ति में सक्षम मानी जाती है ।इस धरती पर जितनी भी शक्तियॉ या देवता हैं उनमें मॉ का स्थान प्रथम है,उसी मॉ की आस्था में मैं विश्वास करता हूं ।यहॉ पर जो लिखा गया है उन्हीं के संरक्षण में लिखा जाता है,यह आपके लिए है ।।

 

11-शिक्षा कैसे ग्रहण करें-

        यदि मनुष्य सीखना चाहें तो उसकी हर भूल उसे कुछ शिक्षा दे सकती है। ज्ञानी लोग अपने विवेक से सीखते हैं, साधारण मनुष्य अपने अनुभव से और मूर्ख तो अपनी आवश्यकता से सीख सकते हैं। और कभी-कभी उन लोगों से भी शिक्षा मिलती है जिन्हैं हम अभिमानवशःअज्ञानी कहते हैं।चाहें तो आप गधे से भी तीन शिक्षाएं ग्रहण कर सकते हैं- अत्यन्त थक जाने पर भी अपने संरक्षक की आज्ञा का पालन करना, सर्दी-गर्मी की परवाह न करना,और सदा संतुष्ट रहकर विचरना।जिन्होंने मनुष्य पर शासन करने की कला का अध्यय न किया है,उन्हैं यह विश्वास होता है कि युवकों की शिक्षा पर ही राज्य का भाग्य आधारित है। मनुष्य में जो संपूर्णता है,उसे प्रत्यक्ष करना ही शिक्षा का कार्यहै।मिट्टी,पानी और प्रकाश के साथ पूरा-पूरा सम्बन्ध रहेबिना शरीर की शिक्षा तो संपूर्ण नहीं होती ।।

 

12-शुभ कर्मों को न छोडें-

        ज्ञान के द्वारा अज्ञानता का नाश तो होता है मगर व्यवहार का नाश नहीं होता है । इसलिए हमें शुभ कर्मों को नहीं छोडना चाहिए ,क्योंकि चित्त का स्वभाव है चिन्तन करना यदि शुभ कर्म छोड देते हैं तो चित्त विषय वासना के प्रति चिन्तन करेगा। और कर्म तो बुद्धि का विषय है , अतः fववेकशील मनुष्य तो कर्म करते हुये उसके साक्षी बन जाते हैं ।।

 

13-शोक धैर्य का नाश करता है-

        शोक धैर्य का नाश तो करता ही है लेकिन वह शास्त्र के ज्ञान को भीसमाप्त कर देता है। शोक तो सब कुछ नष्ट कर देता है, शोक के बराबर तो कोई दूसरा शत्रु नहीं है। कम शोक तो कथनीय है मगर अधिक शोक तो गूंगा होता है। कोई भी ऎसा शोक नहीं जिसे समय की गति कम और हल्का न कर दे। शोक मुक्ति की सर्वोत्तम औषधि कार्य में संलग्न रहना है ।।

 

14-श्रेष्ठ पुरुष-

        सर्वश्रेष्ठ मनुष्य वही है,जिसने मन रूपी राक्षस को अपने वश में कर लिया है। वास्तव में वे लोग श्रेष्ठ हैं जिनके ह्दय में हमेशा दया और धर्म बसता है, जो अमृत वॉणी बोलते हैं तथा जिनके नेत्र नम्रता से झुके रहते हैं,और अपनी इन्दियों को मन द्वारा नियंत्रित करके राग रहित होकर कर्मेंद्रियों द्वारा कर्म योग का आरम्भ करता है।श्रेष्ठ पुरुष में तो समुद्र सी गहराई और गम्भीरता होती है।।

 

15-मनुष्य अच्छे गुणों से ही श्रेष्ठता को प्राप्त होता है -

        यदि कोई कौआ किसी ऊंचे भवन पर जाकर बैठ जाय तो वह गरुड के समान तेज नहीं बन जाता ?इसी प्रकार कोई मनुष्य कितने भी ऊंचे आसन पर क्यों न बैठ जाय उस आसन के कारण उसे श्रेष्ठ नहीं कहा जा सकता ।अर्थात किसी भी व्यक्ति को समाज में सम्मान उसके गुणों के आधार मिलता है ।इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को अपने गुणों का विकास करना चाहिए । गुणों से तात्पर्य- विद्या,सदाचार,मीठा व्यवहार, उत्तम चरित्र, परिश्रमशीलता,ईमानदारी,अक्रोध आदि ।जो व्यक्ति जितना अधिक गुंणवान होगा-उसे समाज में उतना ही अधिक सम्मान प्राप्त होता है ।।

 

16-श्रेष्ठ मनुष्यों की संगति से पोषण होता है-

        जिसप्रकार मछली के न हाथ होते हैं न पॉव वह अपने बच्चों का पालन –पोषण उसे देखकर, उनपर नजर रखकर करती है । मादा पक्षी अपने बच्चों को अपनीं चोंच और पंखों से पालन-पोषण करती है ।ठीक इसी प्रकार विद्वान और योग्य मनुष्यों की संगति से साधारण मनुष्यों का पालन-पोषण होता है ।अर्थात योग्य लोगों के साथ में रहने से अपनी योग्यता में वृद्धि होती है ,जिससे आपका जीवन कहीं अधिक सुखी हो जाता है।।

 

17-बलशाली शरीर के साथ अच्छी वुद्धि जरूरी है-

        केवल बलशाली शरीर होना पर्याप्त नहीं है बल्कि उसके साथ –साथ तेज दिमाग होना भी आवश्यक है- उस कहानी की भॉति जिसमें एक जंगल में एक शेर हर दिन एक पशु का शिकार करता था ,जिसपर जंगल के सभी जानवर एकत्रित हुये और मिलकर उस शेर से बोले कि इस तरह से एक दिन सारे जानवर खत्म हो जायेंगे और आपके लिए भी खाने के लिए कोई जानवर शेष नही रहेगा ।हम आपके भोजन के लिए प्रतिदिन एक पशु भेज दिया करेंगे।यह बात सुनकर शेर मान गया ।इस प्रकार प्रतिदिन शेर के पास एक पशु जाता और शेर उसे खा जाता ।एक दिन एक खरगोश की जब बारी आई तो वह धीरे-धीरे चलकर शेर को सबक सिखाने की युक्ति सोचने लगा ।मार्ग में एक जल से भरे कुआं दिखाई दिया खरगोश ने योजना बनाई और शेर के पास पहुंचा,शेर ने देर से आने का कारण पूछा तो खरगोश बोला महंराज –इस जंगलमें एक और भी शेर रहता है और वह स्वयं वह जंगल का राजा कहता है,उसी ने मुझे रास्ते में रोका,मैं तो किसी तरह बचकर निकल आया हूं ।यह सुनकर शेर गुस्से में बोला कहॉ है वह मुझे वहॉ तक पहुंचा दो। यह सुनकर खरगोश उस शेर को अपने साथ उस कुंएं पर ले गया और बोला महॉराज वह इसी कुएं में छिपा है।शेर ने कुएं में झॉका तो उसे पानी में अपनी परछाई दिखाई दी,उसने दूसरा शेर समझकर उससे लडने के लिए कुएं में कूद मारी और डूबकर मर गया । इस प्रकार खरगोश ने अपनी बुद्धि से अपना तथा जंगल के अन्य पशुओं की रक्षा की ।इसलिए बलशाली शरीर के लिए तेज बुद्धि का होना भी आवश्यक है ।शारीरिक बल की अपेक्षा बुद्धिबल को श्रेष्ठ माना जाता है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को अपनी बुद्धि का विकास करना चाहिए और विपरीत परिस्थितियों में भी विचलित हुये विना सोच विचारकर ही कार्य करना चाहिए ।।

 

18--अन्याय से कमाया हुआ धन अधिक नहीं ठहरता-

        आज हर आदमी धन कमाने की होड में चला है।ध्यान रखें बेइमानी के माध्यम से कमाया हुआ धन और जो सम्पत्ति एकत्रित की जाती है-उसका आनंद केवल कुछ समय तक ही ले पाना सम्भव होता है ।फिर धीरे-धीरे वह समस्त धन सम्पत्ति व्याज सहित पूर्णतः नष्ट होने लगते हैं ।अर्थात अन्याय से एकत्रित धन-सम्पत्ति स्थिर नहीं रहती है वह अवश्य ही नष्ट हो जाती है,और इन लोगों का बहुत बुरा होता है। इसलिए प्रत्येक मनुष्य को ईमानदारी और परिश्रम से ही धन-सम्पत्ति का उपार्जन करना चाहिए क्योंकि –तभी वह स्थिर रह पायेगी और उसका लम्बे समय तक उपभोग कर पाना सम्भव होगा ।।

 

19-मीठा बोलें तो संसार तुम्हारे वश में हो जायेगी-

        यदि पूरे संसार को अपने वश में करना हो या सभी लोगों का प्यारा-दुलारा बनना हो या जीवन में यश और सफलता प्राप्त करनी हो तो एक ही कार्य द्वारा आप सफलता प्राप्त करते है –मीठा बोलना । जो मनुष्य सबसे मीठा बोलता है और सम्मानजनक भाषा में बात करता है,उस मनुष्य को सभी लोग सन्द करते हैं।दूसरों की निन्दा मत करो और सबसे मीठी वॉणी में बात करो ।।

 

20-संगीत आत्मशॉति का साधन है-

        संगीत पैगाम्बरों की कला है, जिससे आत्मा की अशॉतियों को शॉत करती है। संगीत ऎसा होना चाहिए कि दिल पर असर पडे, जिस संगीत से मन में भक्ति, वैराग्य,प्रेम,और आनंद की तरंगें न उठे वह संगीत नहीं है ।।

 

21-संयम क्या है-

        जब हम अपने मन को किसी निर्धारित वस्तु की ओर लेजाकर उस वस्तु में कुछ समय तक के लिए धारण कर सकते हैं,और उसके बाद उसके अन्तर्भाग को उसके बाहरी भाग से अलल करके काफी समय तक उसी स्थिति को बनाये रखते हैं, तो यह संयम कहलाता है।उस स्थिति में बाहरी आकार अचानक गायब हो जाता है यह पता ही नहीं चलता । हममें तो केवल इसका अर्थ मात्र भाषित होता है ।।

 

22-संयम में सफल होना ज्ञान का प्रकाश प्राप्त करना है-

        यदि हम इस संयम को साधन के रूप में अपनाने में सफल हो जाते हैं तो सारी शक्तियॉ हमारे हाथ में आ जाती हैं ।यही संयम योगी का प्रधान स्वरूप है।ज्ञान के विषय तो अनन्त हैं।जैसे स्थूल,स्थूलतम्,सूक्ष्मतम् आदि कई विभागों में विभक्त हैं।संयम का प्रयोग पहले स्थूल वस्तु पर करना चाहिए,और जब स्थूल ज्ञान प्राप्त होने लगे,तब थोडा-थोडा करके सूक्ष्मतम् वस्तु पर प्रयोग करना चाहिए ।।

 

23-भूत और भविष्य का ज्ञान-

        जब मन बाहरी भाग को छोडकर उसके आन्तरिक भावों के साथ अपने को एक रूप करने की अवस्था में पहुंचता है,तब दीर्घ अभ्यास के द्वारा मन केवल उसी की धारणॉ करके क्षण भर में उस अवस्था में पहुंच जाने कीशक्ति प्राप्त कर लेता है, लेकिन इसके लिए हमें संयम की परिभाषा को नहीं भूलना चाहिए । और इस अवस्था को प्राप्त करके यदि भूत और भविष्य जानने की इच्छा करे,तो उन्हैं संस्कार के परिणॉमों में संयम का प्रयोग करना चाहिए । फिर भूत और भविष्य को जाना जा सकता है ।।

 

24-शब्द से उस विषय का बोध होता है-

        जब किसी के मुंह से शव्द निकलता है तो पहले उसे सुना । यहॉ पर पहले बाहर एक कम्पन हुआ,उसके बाद मन ने प्रतिक्रिया की,और उस शव्द को जान सका यह स्थिति तीन पदार्थों से बना होता है-कम्पन,संवेदना और प्रतिक्रिया,इन्हैं अलग नहीं किया जा सकता है । शव्द से विषय का बोध होता है,जो मन की किसी वृत्ति को जागृत कर देता है । इसका अर्थ कहने से आन्तरिक स्पन्दन समझना चाहिए जो इन्द्रिय मार्ग से मस्तिष्क में पहुंचता है और वाह्य संवेदना को मन में पहुंचा देता है ।लेकिन कोई योगी अभ्यास के द्वारा इन्हैं अलग कर सकता है,और जब कोई इन्हैं अलग करने की शक्ति पैदा करता है तो वह संयम के प्रयोग से उसके अर्थ को समझ सकता है,चाहे वह शव्द मनुष्य द्वारा किया गया हो या अन्य किसी प्रॉणी द्वारा ।।

 

25-स्मृति क्या है-

        जीवन में जो कुछ भी अनुभव करते हैं,वह समस्त हमारे चित्त में तरंगों के रूप में आया करता है।फिर धीरे-धीरे हमारे चित्त के सरोवर की तली में चला जाता है,जोकि सूक्ष्म अवस्था में हो जाता है,लेकिन नष्ट नहीं होता है ।यदि उस तरंग को फिर से ऊपर लाया जा सके तो वही स्मृति कहलाती है । एक योगी मन के इन पूर्व संस्कारों में संयम का प्रयोग कर सकें तो वो पुनर्जन्म की बातें स्मरण करना आरम्भ कर सकते हैं ।।

 

26-व्यक्ति की पहचान-

        प्रत्येक व्यक्ति की पहचान उसके शरीर के किसी चिन्ह से की जाती है,जिसके द्वारा उसे दूसरे व्यक्तियों से पृथक करके पहचाना जाता है । एक योगी किसी मनुष्य के किसी विशेष चिन्ह द्वारा उस व्यक्ति के मन के स्वभाव को तो जान सकता है, लेकिन इस चिन्ह से उस व्यक्ति के मन में उस समय क्या चल रहा है,का ज्ञान नहीं हो सकता है । इसके लिए दो वार संयम करने की आवश्यकता होगी,पहले तो शरीर के लक्षणों में, और उसके वाद मन में । तभी योगी उस व्यक्ति के मन के समस्त भाव जान सकेगा ।संयम का अर्थ है किसी वस्तु को कुछ समय तक धारण कर,कुछ समय तक वाहर और भीतर के स्वरूप को पृथक कर उसके आन्तरिक भाग को धारण में बनाये रखना ।।

 

27-अन्तर्धान की शक्ति-

        कोई योगी अन्तर्धान हो सकता है ।यदि योगी कमरे में खडा है,वह सबके सामने अन्तर्धान हो सकता है,यह तो सामान्य वात है लेकिन बात तब है जब कोई उन्हैं न देख सके । इसके लिए योगी शरीर का रूप और शरीर दोनों को अलग-अलग कर डालते हैं । वे ऐसी एकाग्रशक्ति प्राप्त कर लेते हैं कि वे वस्तु के रूप और उस वस्तु को एक दूसरे से अलग कर देते हैं,तभी उन्हैं इस प्रकार की अन्तर्धान शक्ति प्राप्त होती है ।हमें तो रूप और उस वस्तु के परस्पर संयुक्त होने पर ही उस वस्तु का ज्ञान होता है। जबकि योगी अपनी अन्तर्धान शक्ति के आधार पर दोनों को अलग-अलग कर सकता है ।।

 

28-संयम के प्रयोग से बल में वृद्धि होती है-

        एक योगी जब संयम –शक्ति प्राप्त कर लेता है,और वह बल की एच्छा करता है तो हाथी के बल में संयम का प्रयोग करके वह हाथी के समान बल प्राप्त कर सकता है।क्योंकि मनुष्य में अनन्त शक्ति निहित है,यदि वह उपाय जानता है तो,वह इच्छानुसार शक्ति का प्रयोग कर सकता है ।योगियों ने ही तो उसे प्राप्त करने की विद्या खोज निकाली है ।।

 

29-संयम से दूरवर्ती वस्तुओं का ज्ञान-

        हमारे ह्दय में जो महॉज्योति है,उसमें संयम करके योगी अत्यन्त दूरवर्ती वस्तु को देख सकता है ।यदि कोई वस्तु पहाड में है,तो उसे वह देख सकता है,और अत्यन्त सूक्ष्म वस्तुओं का भी उन्हैं ज्ञान हो जाता है ।।

 

30-कर्म फल-

        यदि योगी अपने कर्म में अर्थात अपने मन के उन संस्कारों में,जिनका कि कार्य प्रारम्भ हो चुका है, और जिनका कार्य अभी प्रारम्भ नहीं हुआ-में संयम का प्रयोग करें तो, उन संस्कारों जिनका कार्य अभी प्रारम्भ नहीं हुआ, के बारे में जान लेते हैं ।यह भी कि उनकी मृत्यु कब होगी,किस समय होगी,किस दिन,कितने बजे और यहॉ तक कि कितने मिनट पर होगी-यह सब उन्हैं ज्ञात हो जाता है ।और हिन्दू धर्म में तो मृत्यु की इस निकटता को जान लेना आवश्यक समझते हैं ।।

 

31-संयम के अन्य प्रभाव-

        अगर नाभिचक्र में संयम करें तो शऱीर की वनावट का ज्ञान,और भूखे मनुष्य द्वारा कण्टनली में चित्त का संयम करता है तो उसकी भूख शॉत हो जाती है ।संयम से शरीर चंचल नहीं होता है ।जब योगी अपने सिर के ऊपरी भाग में मन का संयम करते हैं तो सिद्ध पुरुषों के दर्शन होते है ।।

 

32-प्रतिभाशक्ति उत्पन्न की स्थिति-

        जब योगी में उच्च प्रतिभाशक्ति उत्पन्न हो जाती है तो विना किसी संयम के ही उसे समस्त ज्ञान प्राप्त हो सकता है,तब उसे महान आलोक की प्राप्ति हो जाती है। उसके उस ज्ञान से वह स्वयं प्रकाशित हो जाता है ।।

 

33-संस्कृति का पता कैसे लगाएं-

        कोई पुरुष या स्त्री की संस्कृति का पता इस बात से लग जाता है कि जब उनका किसी के साथ झगडा होता है तो उस समय वे कैसा व्यवहार करते है ।।

 

34-सच्चे मित्र -

        मित्रता करने में धैर्य से काम लो,किंतु यदि मित्रता ही ली तो अचल और दृढ होकर निभाओ सच्चा मित्र वह है जो दर्पण की भॉति आपके दोषों को आपको बताये ।सच्चे मित्रों की परख तो विपदा में ही होती है। सच्चे मित्र तो हीरों की तरह कीमती और दुर्लभ हैं,झूठे मित्र पतझड की पत्तियों की तरह सर्वत्र मिलते रहते हैं, मित्रों के विना कोई भी जीना पसन्द नहीं करेगा, चाहे उसके पास अच्छी से अच्छी वस्तुयें क्यों नहो। लेकिन अंतःकरण की ऎक्यता न होने पर मित्रता विस्फोटक होती है।।

 

35-महॉमाया दर्पण की तरह हैं-

        हम महॉमाया को दर्पण के समान देखें,दर्पण की कोई जिम्मेदारी नहीं है,आप अपनी असलियत को उसमें देख सकते हैं ।यदि आप बन्दर की तरह हैं तो शीशे में बन्दर की तरह लगेंगे । यदि आप राजा की तरह हैं तो राजा जैसे लगेंगे । आपको गलत विचार या झूठा दिखावा देने की न तो दर्पण में शक्ति है और न ही ऐसी भावना को दर्शायेगा । अतः यह कहना कि महॉमाया भ्रमित करती है,एक प्रकार से अनुचित है इसके विपरीत शीशे में आपको अपनी वास्तविकता दिखाई पडती है। मान लो कि आप क्रूर व्यक्ति हैं तो,शीशे में आपका चेहरा क्रूर ही दिखाई देगा। परन्तु मुंह घुमा लेते हैं-न तो आप देखना चाहते हैं न जानना चाहते हैं ।दर्पण में जब आपको कुछ भयंकर दिखाई पडता है है तो मुंह घुमाकर आप सत्य को नकारते हैं । मैं ऐसा किस प्रकार हो सकता हूं?मैं बहुत अच्छा हूं,मुझमें कमी भी नहीं,मैं पूर्णतया ठीक हूं ।महॉमाया में आप इसकी ओर आकर्षित होते हैं और फिर दर्पण को देखते हैं ।शीशे में आप पूरे विश्व को देखते हैं,परिणामतः आप सोचने लगते हैं कि मैं क्या कर रहा हूं?मैं कौन हूं? यह संसार क्या है? मैं कहॉ जन्मा हूं ?बस आपकी खोज की यह सुरुआत है पर इससे आपको संतुष्टि नहीं होती है । यह महॉमाया की महॉन सहायता है । सत्य के आधार पर पृथ्वी टिकी है।।

 

36-अपने हर अंग का सदुपयोग करें-

        हमारे शरीर में कई अंग हैं प्रत्येक अंग का सदुपयोग करना चाहिए । अपने हाथों से योग्य पात्र को दान करना चाहिए,कॉनों से शास्त्रों का श्रवण करना चाहिए,नेत्रों से विद्वानों का दर्शन करना चाहिए,अपने पॉवों से तीर्थों पर गमन करना चाहिए,पेट भरने के लिए सदैव परिश्रम और ईमानदारी से धन कमाना चाहिए,कभी भई अभिमान नहीं करना चाहिए।लेकिन जो मनुष्य इनमें से एक भी कार्य करने में असमर्थ रहता है,उसका जावन ही व्यर्थ है । अर्थात प्रत्येक मनुष्य को उपरोक्त वर्णित गुणों को अवश्य ही अपनाना चाहिए ताकि यह जीवन सार्थक बन सके ।।

 

37-जैसा राजा वैसी प्रजा-

        जिस देश मं राजा जैसा होता है वहॉ की प्रजा भी उसी प्रकार की होती है ।यदि देश में शसन चलाने वाले योग्य,ईमानदार,न्यायप्रिय,बलवान,बुद्धिमान,सजग होते हैं तो उनके अधीनस्थ लोग भी अपने कर्तव्यों का पालन सही ढंग से करेंगे । और प्रजा में भी वैसे ही गुंण विकसित हो जायेंगे-पूरा राष्ट भली भॉति उन्नति करने लगेगा ।यदि देश का शासक अयोग्य, बेइमान, अन्यायी, दुर्बल, बुद्धिहीन, भ्रष्टाचारी, लापरवाही, आलसी, आदि दुर्गुणों से युक्त होगा तो उसके अधीन कार्य करने वाले लोग सही प्रकार से अपने कर्तव्यों का पालन नहीं करेंगे और प्रजा को लूटने लग जायेंगे,तब विवश होकर उसकी प्रजा में भी वैसे ही गुंण विकसित हो जायेंगे –इस प्रकार पूरा राष्ट ही अवनति (विनाश) की ओर अग्रसर होने लगेगा।इसलिए जो राजा अपने देश की उन्नति चाहता है,उसे पहले स्वयं के गुणों का विकास करना चाहिए । अपने देश में भ्रष्टाचार की जड यहॉ का शासक वर्ग है,जबतक इस बर्ग में आदर्श गुणों का विकास नहीं होता है तबतक देश में व्याप्त भ्रष्टाचा समाप्त नहीं हो सकता है चाहे किसी भी प्रकार का कानून क्यों न बना लें ।।

 

38-प्रतिभा का पलायन रोका जाना चाहिए-

        यह देखा गया है कि अपने देश में अनेक वैज्ञानिक है वे विज्ञान के क्षेत्र में नये-नये आविष्कार करना चाहते हैं लेकिन देश की सरकार उन्हैं पर्याप्त अवसर और संसाधन उपलव्ध नहीं करती है जिससे दुखी होकर वे लोग विदेशों में चले जाते हैं ।इसे विदेशों में अपनी प्रतिभाओं का पलायन कहा जाता है ।फिर जब वे वैज्ञानि विदेशों में जाकर कोई नयॉ आविष्कार कर लेते हैं तो भारत सरकार शोर मचाने लगती है कि-वह वैज्ञानिक तो भारतीय मूल का है और उसके आविष्कारों का श्रेय हमें मिलना चाहिए । यहॉ पर सोचनी वाली बात है कि जब वैज्ञानिक को सहयोग की आवश्यकता थी,तो तुमने सहयोग नहीं किया,फिर अब उसकी सफलता में हिस्सा क्यों बॉटना चाहते हो? भारत सरकार की इस प्रकार की गलत नीतियों के कारण महत्वपूर्ण प्रतिभायें खो रही हैं ।इसलिए सरकार को अपनी नीतियों में सुधार करना चाहिए ताकि प्रतिभा का पलायन रोका जा सके ।।

 

39-देवता कौन है-

        देवता का अर्थ है जिसकी हम पूजा करते हैं और जिससे संरक्षण प्राप्त कर जीवन यापन करें ।अलग-अलग मनुष्यों के अलग-अलग देवता होते हैं जैसे द्विजों के लिए यज्ञ,अध्ययन, अध्यापन आदि कार्य देवता के समान है इसलिए उनको इन्ही कार्यों में समय लगाना चाहिए ।मुनियों को अपने ह्दय में ईश्वर को देखना चाहिए अर्थात स्वयं को ईश्वर का सेवक मानकर समाज सेवा में समय व्यतीत करना चाहिए ।अल्पबुद्धि मनुष्यों को प्रतिमा अर्थात राजा से संरक्षण प्राप्त करना चाहिए ।समदर्शी लोगों के लिए तो सभी स्थानों में देवता होते हैं अर्थात किसी के प्रति मोह नहीं रखना चाहिए और सबको समान मानकर ही आचरण करना चाहिए ।।

 

40-परमात्मा जन्म के साथ भोजन की व्यवस्था करता है-

        जब कोई जीव इस संसार में जन्म लेता है तो उसके लिए परमात्मा जन्म के साथ भोजन की व्यवस्था कर देता है ।जैसे- स्त्री,गाय,भैंस,बकरी,हथिनी आदि स्तनधारी प्राणियों के जब बच्चे होते हैं तो माता के स्तनों में दूध बनने लगता है ।तो फिर पूरे जीवन के लिए सभी व्यवस्थायें भी वही करेगा ।बस आपको उसे नहीं भूलना चाहिए।इसलिए कितने भी संकट आये-घबराने की आवश्यकता नहीं है,और चिन्ता करने की आवश्यकता भी नहीं है। ऐसी स्थिति में उसे घबडाना नहीं चाहिए। अपने मन में ईश्वर के प्रति श्रद्धा और विश्वास रखें और ईमानदारी- परिश्रम से कर्म करते रहें- आपके संकट अवश्य दूर हो जायेंगे ।