Friday, August 17, 2012

सत्य के आधार पर पृथ्वी टिकी है



 



















1-शरीर और आत्म वेदना -

 

        हम अपने शरीर की तडपन को तो देखते है मगर आत्मा की पीडा को नहीं पहचान पाते हैं ,यदि कोई हमारे शरी में सुई चुभो देता है तो हमारा ध्यान उसी जगह पर केन्द्रित हो जाता है,हमें बडा कष्ट होता है, हमारे शरीर में कोई भी वीमारी लगती है है, हम शीघ्र उसका इलाज करते है,लेकिन आत्म वेदना को आजतक हमने अनुभव ही नहीं किया ।शरीर की वेदना का हम शीध्र इलाज करते हैं ,लेकिन अपने अन्तर्मन के इलाज की ओर हमने ध्यान दिया ही नहीं,उसका दर्द कितना असह्य है ,उसे महशूस ही नहीं किया ।आत्मा में वर्षों से बसी इस दुर्गन्ध को मिटाना वैश्यावृत्ति से मुक्ति के समान होगा । हम अगर दूसरों की सेवा करते हैं तो उसमें ही अपनी वेदना को मिटाते हैं ,निस्वार्थ मन से हम दूसरों की सेवा कर ही नहीं सकते हैं । इसके लिए हमें अपने अंतरंग में उतरकर आत्मा की वेदना की आवाज को पहिचानना होगा,ऎसा लक्ष्य निर्धारित करना होगा जिसमें निस्वार्थ स्वावलम्बन की भावना हो ।।

 

2-समूह में शक्ति होती है-

        हम देखते हैं कि एक तिनका छोटा सा,कमजोर होता है,बलहीन होता है जिसे पानी आसानी से बहा ले जाता है,लेकिन जब ढेर सारे तिनके एकत्रित हो जाते हैं तो छप्पर का रूप धारण कर लेते है । फिर उनके द्वारा भारी वर्षा से भी बचाव किया जा सकता है ।इसी प्रकार जब किसी परिवार या राज्य के लोग अलग-अलग बिखरे होते हैं तो उनकी शक्ति कुछ भी नहीं रहती है,लेकिन जब सभी लोग मिल जाते हैं तो उनका समूह अपने से भी अधिक शक्तिशाली शत्रु को पराजित कर लेता है ।अतः योग्य मनुष्यों को संगठित होकर रहना चाहिए ।जैसे हमारे देश में जब मुगलों का शासन था, जिसमें हिन्दुओं का जीना मुश्किल हो गया था,तो शिवाजी ने दुर्वल हो चुके हिन्दुओं को संगठित किया और मुगल साम्राज्य को समाप्त कर दिन्दू धर्म का पुनुरुत्थान किया । इसी प्रकार जब देश में अंग्रेजों का शासन था और अहिंसा की दुर्वल नीति के कारण देश का सर्वनाश हो रहा था तो उस समय –नेताजी सुभाषचन्द बोस ने भारतीय लोगों को संगठित करके भारतीय स्वतंत्रता सेना (आजाद हिंद फौज ) की स्थापना की और अंग्रेजों से भीषण युद्ध किया ।।

 

3-गुंणवान मनुष्य को समाज से जुडकर रहना चाहिए-

        कहते हैं यदि मूल्यवान हीरा है तो वह सोने में जडे रहने की इच्छा रखता है, क्योंकि-अकेला हीरा तो तिजोरी में बन्द होकर रखा जायेगा ।जबकि सोने में जडने से हीरा मनुष्यों द्वारा धारण किया जायेगा । इसी प्रकार कोई मनुष्य अधिक गुंणवान हो लेकिन वह पूर्णतः अकेला हो तो उसके गुंण भी किसी काम के नहीं हैं, क्योंकि अकेले होने पर वह अपने गुणों का लाभ किसको पहुंचायेगा ?किसी को भी नहीं । वह गुंणवान मनुष्य परिवार या समाज के साथ रहता है तो अपने गुंणों से अन्य लोगों को भी लाभान्वित करेगा ।इसलिए कहते हैं गुंणवान मनुष्य को अकेला नहीं रहना चाहिए, परिवार,समाज से जुडकर रहना चाहिए ।अर्थात प्रत्येक मनुष्य को सामाजिक प्राणी बनना चाहिए और अपने परिवार-समाज से जुडकर रहना चाहिए ।।

 

4-शिक्षा उसी को दी जाय जो उसके योग्य हो-

        शिक्षा केवल उसी को दी जानी चाहिए जो उसे ग्रहण करने योग्य हो अर्थात जो उस शिक्षा को मनोयोगपूर्वक ग्रहण करे और उस शिक्षा का मर्म समक्षकर उसके अनुरूप आचरण करे। यदि दी जा रही शिक्षा से वह चिडचिडाने लगे और आपसे रुष्ट होने लगे तो इस प्रकार की शिक्षा देने से कोई लाभ नहीं है ।इसी प्रकार पतिता स्त्री को अपने साथ रखने से समाज में आपको अपयश ही प्राप्त होगा ।इसी प्रकार सदैव दुखी बने रहने वाले मनुष्यों साथ व्यवहार बनाने से भी आपका उत्साह नष्ट हो जायेगा और आपकी एकाग्रता भंग हो जायेगी जिससे आप सदैव उदास रहेंगे । एक बार तेज वारिष हो रही थी एक पक्षी उस समय पेड पर अपने घोंसले में सुरक्षित बैठी थी। तभी एक बन्दर भीगता हुआ पेड पर पहुंच गया सामने पक्षी ने बन्दर को शिक्षा देकर कहा हे बन्दर अगर तुम भी मेरी तरह पहले ही से कोई घर बना लेते तो तुम्हें वारिष में इस तरह नहीं भीगना पडता ।भीगा हुआ बन्दर पहले ही खिसियाया हुआ था,उसे गुस्सा आया और उसने उस पक्षी का घोंसला तोड दिया–इससे पक्षी भी वारिष में भीगने लगी ।इसी घटना पर एक दोहा है कि-सीख बाको दीजिए,जाको सीख सुहाय।सीख न दीजो वानरा,जो घर पक्षी का जाय।।

5-मृत्यु स्वरूप बातें-

        अगर पत्नी कडवी बोलती है और दुश्चरित्र है तो उसका पति एक तो अपमान और लज्जा के बोझ से वैसे ही दुर्दशा को प्राप्त होता है ,ऊपर से उसे यह भी भय बना रहता है कि कहीं वह स्त्री अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिए उसे विष न दे दे । इस प्रकार उसका जीवन सदैव आशंकाओं से घिरा रहता है ।ठीक इसी प्रकार स्वार्थी मित्र भी हानिप्रद होता है क्योंकि ऐसे मित्र केवल नाम मात्र के लिए ही मित्र होता है और केवल अपने स्वार्थों की पूर्ति और अपने हितों की रक्षा के लिए ही मित्रता करता है ।यदि आपके कुछ भी बोलने पर शीघ्र प्रत्युत्तर देने वाला नौकर आदि कोई भी हो आपको हानि पहुंचा सकता है,जरा सी बात पर चिढकर आपको नुकसान पहुंचाने का प्रयास कर सकता है, अगर घर में सर्प रखा जाता है तो उस घर में भी मृत्यु का भय रहता है ।इसलिए इन परिस्थितियों में मनुष्य को सावधान रहना चाहिए ।तभी वह अपने जीवन की रक्षा करने में पूर्णतःसमर्थ हो सकेगा ।।

 

6-आचरण के विना ज्ञान व्यर्थ,अज्ञान से मनुष्य नष्ट हो जाता है-

        जब कोई व्यक्ति ज्ञान प्राप्त करता है और उसका व्यवहार में आचरण नहीं करता है तो वह ज्ञान व्यर्थ है जैसे किसी घर में बहुत सारे चूहे हो गये थे जो कि उनके सामान को कुतरकर हानि पहुंचाते थे चूहों के इस उत्पात से बचने के लिए उस घर का स्वामी एक किताव लाया ,जिसमें चूहे मारने के उपाय लिखे थे उसने पुस्तक को अच्छी तरह से पढा और रख लिया लेकिन अगले दिन उसने देखा कि चूहों ने उस पुस्तक को ही कुतर कर नष्ट कर दिया अर्थात केवल पुस्तक में चूहे मारने के उपाय पढने से (ज्ञान प्राप्तिकरने) से कोई लाभ नहीं हुआ बल्कि उन उपायों पर अमल करना भी आवश्यक है। इसी प्रकार जो मनुष्य किसी भी प्रकार का ज्ञान प्राप्त नहीं करता है तो उस अज्ञानता के कारण वह कोई भी कार्य सही प्रकार से नहीं कर पाता है जिससे वह बार-बार हानि उठाता है-इस प्रकार से वह मनुष्य पूर्णतः नष्ट हो जाता है ।।

 

7-प्रसंग के अनुसार बात,सामर्थ्य से साहस,शक्ति से क्रोध करें-

        जो मनुष्य प्रसंग के अनुसार बात करना जानता है तो वह सभी परिस्थितियों में अपने अनुकूल वातावरण का निर्माण कर लेता है और वह अपने हितों को पूरा कर लेता है ।और जो मनुष्य अपने सामर्थ्य के अनुसार साहस करना जानता है वह तो परिस्थितियों पर विजय प्राप्त करके उन्नति करता है और उसके लाभों तथा सम्पत्ति में भी वृद्धि होती है । इसी प्रकार जो मनुष्य अपनी शक्ति के अनुसार क्रोध करना जानता है, वह तो अयोग्य लोगों को दण्ड का भय दिखाकर अपने कार्यों को सिद्ध कर लेता है और वह सम्मान प्राप्त कर लेता है ।।

 

8-सज्जन मनुष्यों के लक्षण-

        सज्जन और परोपकारी मनुष्यों के उपयुक्त लक्षण निम्न हैं-अपने मन को साफ रखना उसमें कोई भी विकार न रखना, मीठा तथा उचित बोलना,इन्द्रियों पर संयम रखना, भोग-विलास से बचना, सभी के प्रति दया-भाव रखना, उन तरीकों से धन का अर्जन करना जिससे समाज और देश को हानि न हो, और कमाये गये धन का उचित ढंग से समायोजन करना ताकि उससे देश का हित हो सके ।।

 

9-सच्चे महात्मा की पहचान-

        जो लोग सबका हित चाहने वाले होते हैं,उनका स्वभाव और आचरण अत्यन्त विचित्र होता है। वे लोग अपनी सम्पदा का संचय करना नहीं चाहते हैं लेकिन यदि किसी प्रकार से उनको सम्पदा प्राप्त हो जाय तो उसको पूरे समाज के हित के लिए ही व्यय करने लगते हैं ।अर्थात सच्चा महात्मा वही है जो कि अपनी सम्पदा का प्रयोग केवल अपने लाभ में प्रयुक्त नहीं करते बल्कि पूरे समाज के हित में प्रयुक्त करते हैं ।।

 

10-आदिशक्ति माता जी श्री निर्मला देवी का आध्यात्म-

        अपने जीवन में अपने हिन्दू धर्म के अनुसार देवी-देवताओं की उपासना में मैं हमेशा भ्रमित रहता था, ईश्वर को तलासने के लिए कभी इस मंदिर में सभी उस मंदिर में भटकता रहा,लेकिन कुछ वर्षों पूर्व जब माता जी के आध्यात्म के सम्पर्क में आया तो ईश्वर के प्रति विचारधारा ही बदल गई । इस आध्यात्म में सबसे बडी बात यह है कि हमें किसी गुरु के शरण में जाने की आवश्यकता नहीं हैं,हम अपने गुरु स्वयं अपने आप हैं।जबकि सभी उपदेश देने वाले कहते हैं कि बिना गुरु के ईश्वर प्राप्त हो ही नहीं सकता । दूसरी बात माता जी ने कहा कि ईश्वर को रुपये पैसों की भाषा समझ में नहीं आती है आप इस कार्य में कोई खर्चा न करें ।तीसरी बात माता जी ने कहा बाहर जितने भी देवता हैं वे सभी हमारे शरीर में अलग-अलग तत्वों के रूप में विद्यमान हैं,इसलिए हमें बाहर भटकने की आवश्यकता नहीं है,हमें तो इन्हैं अपने शरीर के अन्दर ही प्रशन्न करना है । अपने शरीर के अन्दर सात चक्र हैं, कुण्डलिनी मूलाधार में बैठी होती है,अगर हमारे सातों चक्र जागृत अवस्था में हैं तो कुण्डलिनी हर चक्र से होकर अन्त में सहस्रार का भेदन कर सदा शिव में मिल जाती है, यह परम चैतन्य प्राप्ति की स्थिति है । इस स्थिति में शरीर को अथाह आध्यात्मिक ऊर्जा मिलती है जोकि किसी लक्ष्य की प्राप्ति में सक्षम मानी जाती है ।इस धरती पर जितनी भी शक्तियॉ या देवता हैं उनमें मॉ का स्थान प्रथम है,उसी मॉ की आस्था में मैं विश्वास करता हूं ।यहॉ पर जो लिखा गया है उन्हीं के संरक्षण में लिखा जाता है,यह आपके लिए है ।।

 

11-शिक्षा कैसे ग्रहण करें-

        यदि मनुष्य सीखना चाहें तो उसकी हर भूल उसे कुछ शिक्षा दे सकती है। ज्ञानी लोग अपने विवेक से सीखते हैं, साधारण मनुष्य अपने अनुभव से और मूर्ख तो अपनी आवश्यकता से सीख सकते हैं। और कभी-कभी उन लोगों से भी शिक्षा मिलती है जिन्हैं हम अभिमानवशःअज्ञानी कहते हैं।चाहें तो आप गधे से भी तीन शिक्षाएं ग्रहण कर सकते हैं- अत्यन्त थक जाने पर भी अपने संरक्षक की आज्ञा का पालन करना, सर्दी-गर्मी की परवाह न करना,और सदा संतुष्ट रहकर विचरना।जिन्होंने मनुष्य पर शासन करने की कला का अध्यय न किया है,उन्हैं यह विश्वास होता है कि युवकों की शिक्षा पर ही राज्य का भाग्य आधारित है। मनुष्य में जो संपूर्णता है,उसे प्रत्यक्ष करना ही शिक्षा का कार्यहै।मिट्टी,पानी और प्रकाश के साथ पूरा-पूरा सम्बन्ध रहेबिना शरीर की शिक्षा तो संपूर्ण नहीं होती ।।

 

12-शुभ कर्मों को न छोडें-

        ज्ञान के द्वारा अज्ञानता का नाश तो होता है मगर व्यवहार का नाश नहीं होता है । इसलिए हमें शुभ कर्मों को नहीं छोडना चाहिए ,क्योंकि चित्त का स्वभाव है चिन्तन करना यदि शुभ कर्म छोड देते हैं तो चित्त विषय वासना के प्रति चिन्तन करेगा। और कर्म तो बुद्धि का विषय है , अतः fववेकशील मनुष्य तो कर्म करते हुये उसके साक्षी बन जाते हैं ।।

 

13-शोक धैर्य का नाश करता है-

        शोक धैर्य का नाश तो करता ही है लेकिन वह शास्त्र के ज्ञान को भीसमाप्त कर देता है। शोक तो सब कुछ नष्ट कर देता है, शोक के बराबर तो कोई दूसरा शत्रु नहीं है। कम शोक तो कथनीय है मगर अधिक शोक तो गूंगा होता है। कोई भी ऎसा शोक नहीं जिसे समय की गति कम और हल्का न कर दे। शोक मुक्ति की सर्वोत्तम औषधि कार्य में संलग्न रहना है ।।

 

14-श्रेष्ठ पुरुष-

        सर्वश्रेष्ठ मनुष्य वही है,जिसने मन रूपी राक्षस को अपने वश में कर लिया है। वास्तव में वे लोग श्रेष्ठ हैं जिनके ह्दय में हमेशा दया और धर्म बसता है, जो अमृत वॉणी बोलते हैं तथा जिनके नेत्र नम्रता से झुके रहते हैं,और अपनी इन्दियों को मन द्वारा नियंत्रित करके राग रहित होकर कर्मेंद्रियों द्वारा कर्म योग का आरम्भ करता है।श्रेष्ठ पुरुष में तो समुद्र सी गहराई और गम्भीरता होती है।।

 

15-मनुष्य अच्छे गुणों से ही श्रेष्ठता को प्राप्त होता है -

        यदि कोई कौआ किसी ऊंचे भवन पर जाकर बैठ जाय तो वह गरुड के समान तेज नहीं बन जाता ?इसी प्रकार कोई मनुष्य कितने भी ऊंचे आसन पर क्यों न बैठ जाय उस आसन के कारण उसे श्रेष्ठ नहीं कहा जा सकता ।अर्थात किसी भी व्यक्ति को समाज में सम्मान उसके गुणों के आधार मिलता है ।इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को अपने गुणों का विकास करना चाहिए । गुणों से तात्पर्य- विद्या,सदाचार,मीठा व्यवहार, उत्तम चरित्र, परिश्रमशीलता,ईमानदारी,अक्रोध आदि ।जो व्यक्ति जितना अधिक गुंणवान होगा-उसे समाज में उतना ही अधिक सम्मान प्राप्त होता है ।।

 

16-श्रेष्ठ मनुष्यों की संगति से पोषण होता है-

        जिसप्रकार मछली के न हाथ होते हैं न पॉव वह अपने बच्चों का पालन –पोषण उसे देखकर, उनपर नजर रखकर करती है । मादा पक्षी अपने बच्चों को अपनीं चोंच और पंखों से पालन-पोषण करती है ।ठीक इसी प्रकार विद्वान और योग्य मनुष्यों की संगति से साधारण मनुष्यों का पालन-पोषण होता है ।अर्थात योग्य लोगों के साथ में रहने से अपनी योग्यता में वृद्धि होती है ,जिससे आपका जीवन कहीं अधिक सुखी हो जाता है।।

 

17-बलशाली शरीर के साथ अच्छी वुद्धि जरूरी है-

        केवल बलशाली शरीर होना पर्याप्त नहीं है बल्कि उसके साथ –साथ तेज दिमाग होना भी आवश्यक है- उस कहानी की भॉति जिसमें एक जंगल में एक शेर हर दिन एक पशु का शिकार करता था ,जिसपर जंगल के सभी जानवर एकत्रित हुये और मिलकर उस शेर से बोले कि इस तरह से एक दिन सारे जानवर खत्म हो जायेंगे और आपके लिए भी खाने के लिए कोई जानवर शेष नही रहेगा ।हम आपके भोजन के लिए प्रतिदिन एक पशु भेज दिया करेंगे।यह बात सुनकर शेर मान गया ।इस प्रकार प्रतिदिन शेर के पास एक पशु जाता और शेर उसे खा जाता ।एक दिन एक खरगोश की जब बारी आई तो वह धीरे-धीरे चलकर शेर को सबक सिखाने की युक्ति सोचने लगा ।मार्ग में एक जल से भरे कुआं दिखाई दिया खरगोश ने योजना बनाई और शेर के पास पहुंचा,शेर ने देर से आने का कारण पूछा तो खरगोश बोला महंराज –इस जंगलमें एक और भी शेर रहता है और वह स्वयं वह जंगल का राजा कहता है,उसी ने मुझे रास्ते में रोका,मैं तो किसी तरह बचकर निकल आया हूं ।यह सुनकर शेर गुस्से में बोला कहॉ है वह मुझे वहॉ तक पहुंचा दो। यह सुनकर खरगोश उस शेर को अपने साथ उस कुंएं पर ले गया और बोला महॉराज वह इसी कुएं में छिपा है।शेर ने कुएं में झॉका तो उसे पानी में अपनी परछाई दिखाई दी,उसने दूसरा शेर समझकर उससे लडने के लिए कुएं में कूद मारी और डूबकर मर गया । इस प्रकार खरगोश ने अपनी बुद्धि से अपना तथा जंगल के अन्य पशुओं की रक्षा की ।इसलिए बलशाली शरीर के लिए तेज बुद्धि का होना भी आवश्यक है ।शारीरिक बल की अपेक्षा बुद्धिबल को श्रेष्ठ माना जाता है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को अपनी बुद्धि का विकास करना चाहिए और विपरीत परिस्थितियों में भी विचलित हुये विना सोच विचारकर ही कार्य करना चाहिए ।।

 

18--अन्याय से कमाया हुआ धन अधिक नहीं ठहरता-

        आज हर आदमी धन कमाने की होड में चला है।ध्यान रखें बेइमानी के माध्यम से कमाया हुआ धन और जो सम्पत्ति एकत्रित की जाती है-उसका आनंद केवल कुछ समय तक ही ले पाना सम्भव होता है ।फिर धीरे-धीरे वह समस्त धन सम्पत्ति व्याज सहित पूर्णतः नष्ट होने लगते हैं ।अर्थात अन्याय से एकत्रित धन-सम्पत्ति स्थिर नहीं रहती है वह अवश्य ही नष्ट हो जाती है,और इन लोगों का बहुत बुरा होता है। इसलिए प्रत्येक मनुष्य को ईमानदारी और परिश्रम से ही धन-सम्पत्ति का उपार्जन करना चाहिए क्योंकि –तभी वह स्थिर रह पायेगी और उसका लम्बे समय तक उपभोग कर पाना सम्भव होगा ।।

 

19-मीठा बोलें तो संसार तुम्हारे वश में हो जायेगी-

        यदि पूरे संसार को अपने वश में करना हो या सभी लोगों का प्यारा-दुलारा बनना हो या जीवन में यश और सफलता प्राप्त करनी हो तो एक ही कार्य द्वारा आप सफलता प्राप्त करते है –मीठा बोलना । जो मनुष्य सबसे मीठा बोलता है और सम्मानजनक भाषा में बात करता है,उस मनुष्य को सभी लोग सन्द करते हैं।दूसरों की निन्दा मत करो और सबसे मीठी वॉणी में बात करो ।।

 

20-संगीत आत्मशॉति का साधन है-

        संगीत पैगाम्बरों की कला है, जिससे आत्मा की अशॉतियों को शॉत करती है। संगीत ऎसा होना चाहिए कि दिल पर असर पडे, जिस संगीत से मन में भक्ति, वैराग्य,प्रेम,और आनंद की तरंगें न उठे वह संगीत नहीं है ।।

 

21-संयम क्या है-

        जब हम अपने मन को किसी निर्धारित वस्तु की ओर लेजाकर उस वस्तु में कुछ समय तक के लिए धारण कर सकते हैं,और उसके बाद उसके अन्तर्भाग को उसके बाहरी भाग से अलल करके काफी समय तक उसी स्थिति को बनाये रखते हैं, तो यह संयम कहलाता है।उस स्थिति में बाहरी आकार अचानक गायब हो जाता है यह पता ही नहीं चलता । हममें तो केवल इसका अर्थ मात्र भाषित होता है ।।

 

22-संयम में सफल होना ज्ञान का प्रकाश प्राप्त करना है-

        यदि हम इस संयम को साधन के रूप में अपनाने में सफल हो जाते हैं तो सारी शक्तियॉ हमारे हाथ में आ जाती हैं ।यही संयम योगी का प्रधान स्वरूप है।ज्ञान के विषय तो अनन्त हैं।जैसे स्थूल,स्थूलतम्,सूक्ष्मतम् आदि कई विभागों में विभक्त हैं।संयम का प्रयोग पहले स्थूल वस्तु पर करना चाहिए,और जब स्थूल ज्ञान प्राप्त होने लगे,तब थोडा-थोडा करके सूक्ष्मतम् वस्तु पर प्रयोग करना चाहिए ।।

 

23-भूत और भविष्य का ज्ञान-

        जब मन बाहरी भाग को छोडकर उसके आन्तरिक भावों के साथ अपने को एक रूप करने की अवस्था में पहुंचता है,तब दीर्घ अभ्यास के द्वारा मन केवल उसी की धारणॉ करके क्षण भर में उस अवस्था में पहुंच जाने कीशक्ति प्राप्त कर लेता है, लेकिन इसके लिए हमें संयम की परिभाषा को नहीं भूलना चाहिए । और इस अवस्था को प्राप्त करके यदि भूत और भविष्य जानने की इच्छा करे,तो उन्हैं संस्कार के परिणॉमों में संयम का प्रयोग करना चाहिए । फिर भूत और भविष्य को जाना जा सकता है ।।

 

24-शब्द से उस विषय का बोध होता है-

        जब किसी के मुंह से शव्द निकलता है तो पहले उसे सुना । यहॉ पर पहले बाहर एक कम्पन हुआ,उसके बाद मन ने प्रतिक्रिया की,और उस शव्द को जान सका यह स्थिति तीन पदार्थों से बना होता है-कम्पन,संवेदना और प्रतिक्रिया,इन्हैं अलग नहीं किया जा सकता है । शव्द से विषय का बोध होता है,जो मन की किसी वृत्ति को जागृत कर देता है । इसका अर्थ कहने से आन्तरिक स्पन्दन समझना चाहिए जो इन्द्रिय मार्ग से मस्तिष्क में पहुंचता है और वाह्य संवेदना को मन में पहुंचा देता है ।लेकिन कोई योगी अभ्यास के द्वारा इन्हैं अलग कर सकता है,और जब कोई इन्हैं अलग करने की शक्ति पैदा करता है तो वह संयम के प्रयोग से उसके अर्थ को समझ सकता है,चाहे वह शव्द मनुष्य द्वारा किया गया हो या अन्य किसी प्रॉणी द्वारा ।।

 

25-स्मृति क्या है-

        जीवन में जो कुछ भी अनुभव करते हैं,वह समस्त हमारे चित्त में तरंगों के रूप में आया करता है।फिर धीरे-धीरे हमारे चित्त के सरोवर की तली में चला जाता है,जोकि सूक्ष्म अवस्था में हो जाता है,लेकिन नष्ट नहीं होता है ।यदि उस तरंग को फिर से ऊपर लाया जा सके तो वही स्मृति कहलाती है । एक योगी मन के इन पूर्व संस्कारों में संयम का प्रयोग कर सकें तो वो पुनर्जन्म की बातें स्मरण करना आरम्भ कर सकते हैं ।।

 

26-व्यक्ति की पहचान-

        प्रत्येक व्यक्ति की पहचान उसके शरीर के किसी चिन्ह से की जाती है,जिसके द्वारा उसे दूसरे व्यक्तियों से पृथक करके पहचाना जाता है । एक योगी किसी मनुष्य के किसी विशेष चिन्ह द्वारा उस व्यक्ति के मन के स्वभाव को तो जान सकता है, लेकिन इस चिन्ह से उस व्यक्ति के मन में उस समय क्या चल रहा है,का ज्ञान नहीं हो सकता है । इसके लिए दो वार संयम करने की आवश्यकता होगी,पहले तो शरीर के लक्षणों में, और उसके वाद मन में । तभी योगी उस व्यक्ति के मन के समस्त भाव जान सकेगा ।संयम का अर्थ है किसी वस्तु को कुछ समय तक धारण कर,कुछ समय तक वाहर और भीतर के स्वरूप को पृथक कर उसके आन्तरिक भाग को धारण में बनाये रखना ।।

 

27-अन्तर्धान की शक्ति-

        कोई योगी अन्तर्धान हो सकता है ।यदि योगी कमरे में खडा है,वह सबके सामने अन्तर्धान हो सकता है,यह तो सामान्य वात है लेकिन बात तब है जब कोई उन्हैं न देख सके । इसके लिए योगी शरीर का रूप और शरीर दोनों को अलग-अलग कर डालते हैं । वे ऐसी एकाग्रशक्ति प्राप्त कर लेते हैं कि वे वस्तु के रूप और उस वस्तु को एक दूसरे से अलग कर देते हैं,तभी उन्हैं इस प्रकार की अन्तर्धान शक्ति प्राप्त होती है ।हमें तो रूप और उस वस्तु के परस्पर संयुक्त होने पर ही उस वस्तु का ज्ञान होता है। जबकि योगी अपनी अन्तर्धान शक्ति के आधार पर दोनों को अलग-अलग कर सकता है ।।

 

28-संयम के प्रयोग से बल में वृद्धि होती है-

        एक योगी जब संयम –शक्ति प्राप्त कर लेता है,और वह बल की एच्छा करता है तो हाथी के बल में संयम का प्रयोग करके वह हाथी के समान बल प्राप्त कर सकता है।क्योंकि मनुष्य में अनन्त शक्ति निहित है,यदि वह उपाय जानता है तो,वह इच्छानुसार शक्ति का प्रयोग कर सकता है ।योगियों ने ही तो उसे प्राप्त करने की विद्या खोज निकाली है ।।

 

29-संयम से दूरवर्ती वस्तुओं का ज्ञान-

        हमारे ह्दय में जो महॉज्योति है,उसमें संयम करके योगी अत्यन्त दूरवर्ती वस्तु को देख सकता है ।यदि कोई वस्तु पहाड में है,तो उसे वह देख सकता है,और अत्यन्त सूक्ष्म वस्तुओं का भी उन्हैं ज्ञान हो जाता है ।।

 

30-कर्म फल-

        यदि योगी अपने कर्म में अर्थात अपने मन के उन संस्कारों में,जिनका कि कार्य प्रारम्भ हो चुका है, और जिनका कार्य अभी प्रारम्भ नहीं हुआ-में संयम का प्रयोग करें तो, उन संस्कारों जिनका कार्य अभी प्रारम्भ नहीं हुआ, के बारे में जान लेते हैं ।यह भी कि उनकी मृत्यु कब होगी,किस समय होगी,किस दिन,कितने बजे और यहॉ तक कि कितने मिनट पर होगी-यह सब उन्हैं ज्ञात हो जाता है ।और हिन्दू धर्म में तो मृत्यु की इस निकटता को जान लेना आवश्यक समझते हैं ।।

 

31-संयम के अन्य प्रभाव-

        अगर नाभिचक्र में संयम करें तो शऱीर की वनावट का ज्ञान,और भूखे मनुष्य द्वारा कण्टनली में चित्त का संयम करता है तो उसकी भूख शॉत हो जाती है ।संयम से शरीर चंचल नहीं होता है ।जब योगी अपने सिर के ऊपरी भाग में मन का संयम करते हैं तो सिद्ध पुरुषों के दर्शन होते है ।।

 

32-प्रतिभाशक्ति उत्पन्न की स्थिति-

        जब योगी में उच्च प्रतिभाशक्ति उत्पन्न हो जाती है तो विना किसी संयम के ही उसे समस्त ज्ञान प्राप्त हो सकता है,तब उसे महान आलोक की प्राप्ति हो जाती है। उसके उस ज्ञान से वह स्वयं प्रकाशित हो जाता है ।।

 

33-संस्कृति का पता कैसे लगाएं-

        कोई पुरुष या स्त्री की संस्कृति का पता इस बात से लग जाता है कि जब उनका किसी के साथ झगडा होता है तो उस समय वे कैसा व्यवहार करते है ।।

 

34-सच्चे मित्र -

        मित्रता करने में धैर्य से काम लो,किंतु यदि मित्रता ही ली तो अचल और दृढ होकर निभाओ सच्चा मित्र वह है जो दर्पण की भॉति आपके दोषों को आपको बताये ।सच्चे मित्रों की परख तो विपदा में ही होती है। सच्चे मित्र तो हीरों की तरह कीमती और दुर्लभ हैं,झूठे मित्र पतझड की पत्तियों की तरह सर्वत्र मिलते रहते हैं, मित्रों के विना कोई भी जीना पसन्द नहीं करेगा, चाहे उसके पास अच्छी से अच्छी वस्तुयें क्यों नहो। लेकिन अंतःकरण की ऎक्यता न होने पर मित्रता विस्फोटक होती है।।

 

35-महॉमाया दर्पण की तरह हैं-

        हम महॉमाया को दर्पण के समान देखें,दर्पण की कोई जिम्मेदारी नहीं है,आप अपनी असलियत को उसमें देख सकते हैं ।यदि आप बन्दर की तरह हैं तो शीशे में बन्दर की तरह लगेंगे । यदि आप राजा की तरह हैं तो राजा जैसे लगेंगे । आपको गलत विचार या झूठा दिखावा देने की न तो दर्पण में शक्ति है और न ही ऐसी भावना को दर्शायेगा । अतः यह कहना कि महॉमाया भ्रमित करती है,एक प्रकार से अनुचित है इसके विपरीत शीशे में आपको अपनी वास्तविकता दिखाई पडती है। मान लो कि आप क्रूर व्यक्ति हैं तो,शीशे में आपका चेहरा क्रूर ही दिखाई देगा। परन्तु मुंह घुमा लेते हैं-न तो आप देखना चाहते हैं न जानना चाहते हैं ।दर्पण में जब आपको कुछ भयंकर दिखाई पडता है है तो मुंह घुमाकर आप सत्य को नकारते हैं । मैं ऐसा किस प्रकार हो सकता हूं?मैं बहुत अच्छा हूं,मुझमें कमी भी नहीं,मैं पूर्णतया ठीक हूं ।महॉमाया में आप इसकी ओर आकर्षित होते हैं और फिर दर्पण को देखते हैं ।शीशे में आप पूरे विश्व को देखते हैं,परिणामतः आप सोचने लगते हैं कि मैं क्या कर रहा हूं?मैं कौन हूं? यह संसार क्या है? मैं कहॉ जन्मा हूं ?बस आपकी खोज की यह सुरुआत है पर इससे आपको संतुष्टि नहीं होती है । यह महॉमाया की महॉन सहायता है । सत्य के आधार पर पृथ्वी टिकी है।।

 

36-अपने हर अंग का सदुपयोग करें-

        हमारे शरीर में कई अंग हैं प्रत्येक अंग का सदुपयोग करना चाहिए । अपने हाथों से योग्य पात्र को दान करना चाहिए,कॉनों से शास्त्रों का श्रवण करना चाहिए,नेत्रों से विद्वानों का दर्शन करना चाहिए,अपने पॉवों से तीर्थों पर गमन करना चाहिए,पेट भरने के लिए सदैव परिश्रम और ईमानदारी से धन कमाना चाहिए,कभी भई अभिमान नहीं करना चाहिए।लेकिन जो मनुष्य इनमें से एक भी कार्य करने में असमर्थ रहता है,उसका जावन ही व्यर्थ है । अर्थात प्रत्येक मनुष्य को उपरोक्त वर्णित गुणों को अवश्य ही अपनाना चाहिए ताकि यह जीवन सार्थक बन सके ।।

 

37-जैसा राजा वैसी प्रजा-

        जिस देश मं राजा जैसा होता है वहॉ की प्रजा भी उसी प्रकार की होती है ।यदि देश में शसन चलाने वाले योग्य,ईमानदार,न्यायप्रिय,बलवान,बुद्धिमान,सजग होते हैं तो उनके अधीनस्थ लोग भी अपने कर्तव्यों का पालन सही ढंग से करेंगे । और प्रजा में भी वैसे ही गुंण विकसित हो जायेंगे-पूरा राष्ट भली भॉति उन्नति करने लगेगा ।यदि देश का शासक अयोग्य, बेइमान, अन्यायी, दुर्बल, बुद्धिहीन, भ्रष्टाचारी, लापरवाही, आलसी, आदि दुर्गुणों से युक्त होगा तो उसके अधीन कार्य करने वाले लोग सही प्रकार से अपने कर्तव्यों का पालन नहीं करेंगे और प्रजा को लूटने लग जायेंगे,तब विवश होकर उसकी प्रजा में भी वैसे ही गुंण विकसित हो जायेंगे –इस प्रकार पूरा राष्ट ही अवनति (विनाश) की ओर अग्रसर होने लगेगा।इसलिए जो राजा अपने देश की उन्नति चाहता है,उसे पहले स्वयं के गुणों का विकास करना चाहिए । अपने देश में भ्रष्टाचार की जड यहॉ का शासक वर्ग है,जबतक इस बर्ग में आदर्श गुणों का विकास नहीं होता है तबतक देश में व्याप्त भ्रष्टाचा समाप्त नहीं हो सकता है चाहे किसी भी प्रकार का कानून क्यों न बना लें ।।

 

38-प्रतिभा का पलायन रोका जाना चाहिए-

        यह देखा गया है कि अपने देश में अनेक वैज्ञानिक है वे विज्ञान के क्षेत्र में नये-नये आविष्कार करना चाहते हैं लेकिन देश की सरकार उन्हैं पर्याप्त अवसर और संसाधन उपलव्ध नहीं करती है जिससे दुखी होकर वे लोग विदेशों में चले जाते हैं ।इसे विदेशों में अपनी प्रतिभाओं का पलायन कहा जाता है ।फिर जब वे वैज्ञानि विदेशों में जाकर कोई नयॉ आविष्कार कर लेते हैं तो भारत सरकार शोर मचाने लगती है कि-वह वैज्ञानिक तो भारतीय मूल का है और उसके आविष्कारों का श्रेय हमें मिलना चाहिए । यहॉ पर सोचनी वाली बात है कि जब वैज्ञानिक को सहयोग की आवश्यकता थी,तो तुमने सहयोग नहीं किया,फिर अब उसकी सफलता में हिस्सा क्यों बॉटना चाहते हो? भारत सरकार की इस प्रकार की गलत नीतियों के कारण महत्वपूर्ण प्रतिभायें खो रही हैं ।इसलिए सरकार को अपनी नीतियों में सुधार करना चाहिए ताकि प्रतिभा का पलायन रोका जा सके ।।

 

39-देवता कौन है-

        देवता का अर्थ है जिसकी हम पूजा करते हैं और जिससे संरक्षण प्राप्त कर जीवन यापन करें ।अलग-अलग मनुष्यों के अलग-अलग देवता होते हैं जैसे द्विजों के लिए यज्ञ,अध्ययन, अध्यापन आदि कार्य देवता के समान है इसलिए उनको इन्ही कार्यों में समय लगाना चाहिए ।मुनियों को अपने ह्दय में ईश्वर को देखना चाहिए अर्थात स्वयं को ईश्वर का सेवक मानकर समाज सेवा में समय व्यतीत करना चाहिए ।अल्पबुद्धि मनुष्यों को प्रतिमा अर्थात राजा से संरक्षण प्राप्त करना चाहिए ।समदर्शी लोगों के लिए तो सभी स्थानों में देवता होते हैं अर्थात किसी के प्रति मोह नहीं रखना चाहिए और सबको समान मानकर ही आचरण करना चाहिए ।।

 

40-परमात्मा जन्म के साथ भोजन की व्यवस्था करता है-

        जब कोई जीव इस संसार में जन्म लेता है तो उसके लिए परमात्मा जन्म के साथ भोजन की व्यवस्था कर देता है ।जैसे- स्त्री,गाय,भैंस,बकरी,हथिनी आदि स्तनधारी प्राणियों के जब बच्चे होते हैं तो माता के स्तनों में दूध बनने लगता है ।तो फिर पूरे जीवन के लिए सभी व्यवस्थायें भी वही करेगा ।बस आपको उसे नहीं भूलना चाहिए।इसलिए कितने भी संकट आये-घबराने की आवश्यकता नहीं है,और चिन्ता करने की आवश्यकता भी नहीं है। ऐसी स्थिति में उसे घबडाना नहीं चाहिए। अपने मन में ईश्वर के प्रति श्रद्धा और विश्वास रखें और ईमानदारी- परिश्रम से कर्म करते रहें- आपके संकट अवश्य दूर हो जायेंगे ।



 

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