Friday, August 17, 2012

जो सामने है वही सच






     

1- ज्ञान का सार है आचार-

        वही ज्ञान उपयोगी होता है जो अहंकार न बढाये, जो बंधन न बने, जिससे स्व की विस्मृति न हो, जो संस्कार का शोधन करे, तथा मानसिक शॉति की ओर ले जाये। ज्ञान की उपयोगिता की चरम कसौटी है कि वह आत्मा की ओर ले जाये ,जो ज्ञान आत्मा से विमुख बनाता है उसे भारतीय मनीषा में अज्ञान कहा जैता है। ज्ञान का सार है आचार ,इसलिए वही ज्ञान उपयोगी है जो अहंकार न बढाये ।



2- ज्ञान का दुरुपयोग विनाश और सदुपयोग विकास है-

        जिस प्रकार गंगा नदी के प्रवाह को,सुखाया नहीं जा सकता,केवल उस प्रवाह के मार्ग को बदला जा सकता है। उसी प्रकार ज्ञान के प्रवाह को सुखाया नहीं जा सकता है,उसे पर हित के लिए उपयोग में लाया जा सकता है ।ज्ञान का दुरुपयोग होना विनाश है और ज्ञान का सदुपयोग करना ही विकास है,सुख है,उन्नति है ।ज्ञान के सदुपयोग के लिए तो जागृति परम आवश्यक है ।

 

 

 3- आदर्श साहित्यकार की पहचान –

        आदर्श साहित्यकार वही है जो समाज की पीडा और सुख का अनुभव कर समाज के लिए रोता और हंसता है ।वह तो एक दिया है,जो जलकर केवल दूकरों को ही प्रकास देता है।जब साहित्यकार की भावना,ज्ञान और कर्म एक साथ मिलती हैं तो युग प्रवर्तक साहित्य का निर्माण होता है।किसी देश का साहित्य वहॉ की जनता की चित्त वृत्ति का द्योतक है।साहित्य तो आनंद देता है ।ज्ञानराशि के संचित कोष का नाम ही साहित्य है, जिसका निर्माण साहित्यकार द्वारा किया जाता है ।

 

 

4- वास्तविक सौन्दर्य ह्दय की पवित्रता में है-

        योग्य मनुष्यों के आचरण का सौन्दर्य ही उसका वास्तविक सौन्दर्य है,शारीरिक सौन्दर्य उसकी सुंदरता में किसी भी प्रकार की अभिवृद्धि नहीं करता।सुन्दर और कल्याणमय के साथ यदि हम ह्दय की समीपता बढाते रहें तो संसार सत्य और पवित्रता की ओर अग्रसर होगा ।अलंकार तो भावों का आवरण है और सुन्दरता को तो अलंकारों की जरूरत है ही नहीं।

 

 

5- शंका जीवन का विश है-

        आदमी के लिए विश्वास ही सबकुछ है,जिसे अपने पर विश्वास नहीं,उसे भगवान पर भी विश्वास नहीं हो सकता। स्वयं को ईश्वर पर छोड देना ही विश्वास है।

 

 

6-अपने मन पर विश्वास न करें-

        हमें हमेशा सजग रहना होगा । अपने मन पर विश्वास न करें ।क्योंकि पाप सूक्ष्म भाव में कभी धर्म का रूप धारण कर,कभी दया के रूप में, कभी मित्र के रूप में तुम्हैं भुलाकर तुम्हैं वश में करने की चेष्ठा करेगा। भुलावे में पडकर परास्त हो जाओगे, समझ भी नहीं सकोगे । और जब समझ में आयेगा,तब शायद लौटना ही असम्भव हो जाय।

 

 

7- मन को वश में करना सबसे कठिन काम है-

        कहा जाता है कि इस संसार में मन को वश में करने जैसा कठिन काम और नहीं है । भगवान रामचन्द्र ने हनुमान से कहा था, कि-चाहे सातों समुद्र कोई तैरकर पार कर सके,वायु को अवशोषित कर ले सके,पहाडों को उठाकर अपना खेल दिखा सके,पर इस चंचल मन को वश में करना,उसकी अपेक्षा अधिक कठिन है। लेकिन इतना होने पर भी भयभीत होने का या निराश होने का कोई कारण नहीं है । वीर साधक तो दृढ संकल्प के साथ भगवान पर निर्भर होकर यदि प्रॉणपण से चेष्ठा तथा साधना करें,तो उनकी कृपा से वह असाध्य साधन कर सकता है।

 

 

8-कर्म ही बन्धन के कारण हैं-

        अगर देखें तो समस्त कर्म ही बन्धन के कारण होते हैं। चाहे सुख हो या दुख,दोनों ही बन्धन हैं ।अगर इन दोनों से पार न गये, तो मुक्ति का लाभ सम्भव नहीं है।कर्म तो केवल उन्हीं के लिए बन्धन का कारण नहीं होता जो निस्वार्थ परहित के लिए कार्य करते हैं। क्योंकि वे किसी फल की आकॉक्षा ही नहीं रखते,और न अपने नाम के यश, यास्वार्थ-साधन के लिए भी काम नहीं करते। उनके ह्दय में तो प्रेम का संचार होता है,वे तो प्रॉणि मात्र में ईश्वर दर्शन करके ,उनकी सेवा समझकर कर्म करते रहते हैं। और मन में नये संस्कार के बीज का सृजन भी नहीं होता। इसलिए वे पुनः जन्म-मरण से मुक्त हो जाते हैं ।

 

 

9-सुख भोग में नहीं त्याग में है-

        जिसने जिन्दगी को जीकर देखा है,अगर उनसे इस सम्बन्ध में पूछे तो उत्तर मिलता है, भोगों में सुख नहीं है बल्कि त्याग में सुख है। जो सद्विवेक से भोग भोगकर उनसे शिक्षा ग्रहण करता है,विषय-भोगों को परिणॉम में दुःखदाई जानकर ,स्वेच्छापूर्वक समस्त त्याग करता है,तो वही परम सुखी है,वही अमृत का अधिकारी होता है।स्वामी विवेकानन्द जी ने तो त्याग को योगों का प्रॉण माना है।

 

 

10-ज्ञानयोग कठिन त्याग है-

        त्यागों में सबसे कठिन त्याग ज्ञानयोग को माना जाता है,क्योंकि इसमें पहले से ही धॉरणॉ करनी होती है कि समस्त संसार और उसके साथ का सम्बन्ध मिथ्या है,माया है ।समस्त जीवन स्वप्न के समान है।इस मार्ग को नेति कहते हैं–मैं यह नहीं वह नहीं,मैं देह-मन-इन्द्रिय कुछ नहीं। मुझे सुख नहीं,दुःख नहीं,मेरा जन्म नहीं,मरण नहीं,वन्धन नहीं,मुक्ति नहीं,मैं तो नित्य चैतन्मयस्वरूप पूर्ण ब्रह्म परमात्मा हगूं। इसलिए वे समस्त वाह्य विषयों को त्याग कर,अपने स्वरूप के ध्यान में ही मग्न रहते हैं।

 

 

11-आत्म विश्वास बढायें-

        हमें आत्मा विश्वास वढाने के प्रति सजग होना होगा,इसके लिए इस बात का विश्वास करना होगा कि मैं आत्मा हूं। मुझे कोई न तलवार से काट सकता है न वरछी से भेद सकता,न आग जला सकती है और न हवा सुखा सकती है।मैं तो सर्वशक्तिमान हू,सर्वज्ञ हूं। हमेशा इन आशाप्रद वाक्यों का उच्चारण करें। ये न कहें कि हम दुर्वल हैं। हम क्या नहीं कर सकते हैं! हमसे सबकुछ हो सकता है! हम सबके भीतर एक ही हिमालय आत्मा है। इसपर हमें विश्वास करना होगा। उपनिषद में उल्लिखित कि मेरी इच्छा है कि तुम लोगों के भीतर इसी श्रद्धा का अभिर्भाव हो,तुममे से हर व्यक्ति खडा होकर संकेत मात्र से संसार को हिला देने वाला प्रतिभासम्पन्न महॉपुरुष हो,ईश्वरीत तुल्य हो।णैं तुम लोगों को ऐसा देखना चाहता हूं । फिर देखना ऐसी ही शक्ति प्राप्त होगी।

 

 

12-स्वयं में शक्ति का संचार करें-

        हमें इस बात को ध्यान में ऱखना होगा कि,हमारे जीवन में उच्च आदर्श और उत्कृष्ठ व्यावहारिकता का सुन्दर सामज्जस्य हो। जीवन का अर्थ प्रेम है,इसलिए प्रेम ही जीवन है,यही जीवन का एकमात्र नियम है। और स्वार्थपरता मृत्यु के समान है। गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है कि -प्रवल कर्मयोग-ह्दय में अमित साहस,और अपरिमित शक्ति के संचार से सब लोग जाग उठेंगे, नहीं तो जिस अन्धकार में हो,उसी में रहोगे ।

 

 

13-सेवा और त्याग की भावना रखे-

        हमें ईश्वर ने जन्म दिया है,इसलिए हमारा दायित्व है कि हम हर एक को ईस्वर के ही समान देखें। हम किसी की सहायता नहीं कर सकते हैं, हमें तो केवल सेवा का अधिकार है। यदि आप भी भाग्यवान हैं तो प्रभु की सेवा करें,यदि किसी की सेवा कर सकते हो तो,तुम धन्य हो जाओगे ।अपने ही को बहुत बडा न समझें। तुम धन्य हो कि तुम्हैं सेवा करने का अधिकार मिला है और दूसरों को नहीं मिला। ईश्वर पूजा के भाव से सेवा करो। दरिद्र व्यक्तियों में हमें भगवान को देखना होगा। अपनी ही मुक्ति के लिए उनके निकट जाकर हमें उनकी पूजा करनी चाहिए। अनेक दुखी और कंगाल प्रॉणी हमारी मुक्ति के माध्य हैं ।

 

 

14-सर्वशक्तिमान बनो-

        तुम्हें सर्वशक्तिमान बनना होगा,इसके लिए अपने अन्दर झॉककर देखो और महशूस करो कि-क्या तुम मनुष्य जाति से प्रेम करते हो ? क्या ये सब गरीव,दुखी,दुर्वल ईश्वर नहीं हैं ? ईश्वर की पूजा पहले क्यों नहीं करते ? गंगा तट पर कुंवा खोदना क्यों जाते हो ? प्रेम की असाध्य शक्ति पर विश्वास करो ! झूठ जगमगाहट वाले नाम-यश की परवाह कौन करते हो ? क्या तुम्हारे पास प्रेम है ? तो फिर तुम सर्व शक्तिमान हो !क्या तुम सम्पूर्ण निस्वार्थ हो ? यदि हो तो फिर तुम्हें कौन रोक सकता है !चरित्र की तो सर्वत्र विजय होती है। ईर्ष्या और अहं भाव को दूर कर दो !संगठित होकर दूसरों के लिए कार्य करना सीखो! हमारे देश में तो सबसे बडी आवश्यकता यही तो है। धीरज रखो और जीवनभर विश्वासपात्र बनो !आपस में लडो नहीं । स्वयं में ईमानदारी,भक्ति और विश्वास का संचार करें तो कभी भी असफल न होंगें। भेदभाव मिटा दो। फिर-चाहे आप रण में हों या वन में,चाहे पर्वत के शिखर पर -तुम्हारे लिए कोई भय नहीं रहेगा। जबतक तुम यह न जान लो कि वह हितकर है,तबतक अपने मन का भेद न खोलो । शत्रु के प्रति भी प्रिय और कल्याणकारी शव्दों का व्यवहार करो ।फिर देखोगे कि आप सर्वशक्तिमान होंगे ।

 

 

15-स्वर्ग का राज्य तुम्हारे भीतर है–

        ईसा मसीह,तथा वेदान्त यही कहते हैं कि स्वर्ग का राज्य तुम्हारे भीतर है ।जिसके पास देखने के लिए आंख है वह देखें,जिसके पास सुनने के लिए कान है वह सुनें । वह पहले से तुम्हारे अन्दर है । वेदान्त यह सिद्ध करता है कि जिस सत्य को अज्ञान के कारण हम सोचते थे कि हमने उसे खो दिया है,वह सदा ही हमारे ह्दय के अन्तस्तल में वर्तमान था । उसे हम वहीं पा सकते हैं ।

 

 

16-ज्ञान अज्ञान का नाश करता है-

        ज्ञान हमेशा अज्ञान को दूर भगाता है,व्यवहार का नाश नहीं करता है। दैवीय शक्ति हमारे ज्ञान को पुष्ट करती है,जबकि आसुरी शक्ति उसका आच्छादन करती है । इसलिए शुभ कर्मों को छोडना नहीं चाहिए । चित्त का स्वभाव तो चिंतन करना है, और शुभ कर्म छोड देने से चित्त विषय चिंतन करेगा । कर्म तो बुद्धि का विषय है,आत्मा का नहीं । अतः विचारवान पुरुष कर्म करता हुआ उसका साक्षी बना रहता है ।

 

 

17-त्याग का अर्थ है सब जगह ईश्वर दर्शन-

        वेदान्त हमें माया के जगत का त्याग कर काम करने की शिक्षा देता है । त्याग का अर्थ है सब जगह ईश्वर का दर्शन करना । जो व्यक्ति सत्य को न जानकर अबोध की भॉति संसार के भोग विलास में निमग्न हो जाता है, समझलो कि उसे ठीक मार्ग नहीं मिला ,उसका पैर फिसल गया है । दूसरी ओर जो व्यक्ति संसार को कोसता हुआ वन में चला जाता है,अपने शरीर को कष्ट देता रहता है,धीरे-धीरे अपने को सुखाकर अपने को मार डालता है,अपने ह्दय को शुष्क मरुभूमि बना डालता है,अपने सभी भावों को कुचल डालता है और कठोर विभत्स और रूखा हो जाता है,तो समझलो कि वह भी मार्ग भूल गया है। ये दोनों दो छोर की बातें हैं – दोनों ही भ्रम में हैं-एक इस ओर और दूसरा उस ओर । दोनों ही पथभ्रष्ट हैं-दोनों ही लक्ष्यभ्रष्ट हैं ।

 

 

18-हमारे जीवन के पीछे दुख और मृत्यु छाया के रूप में होते हैं-

        हम देखते हैं कि इस संसार में हर व्यक्ति के जीवन में जितने भी सुख हैं उनके पीछे दुख और मृत्यु छाया के रूप में दिखती है । दुख और मृत्यु सदा एक साथ रहते हैं । वे दोनों विरोधी नहीं है बल्कि दोनों एक ही वस्तु के अलग-अलग रूप हैं,जीवन,मृत्यु,सुख-दुख,अच्छे-बुरे सब अलग-अलग रूप हैं। शुभ और अशुभ दोनों अलग-अलग नहीं हैं वे वास्तव में एक ही वस्तु के रूप हैं- कभी अच्छे और कभी बुरे रूप में महशूस होती हैं । एक ही स्नायु प्रणाली अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के प्रवाह ले जाती है ।यदि स्नायु प्रणॉली किसी तरह विगड जाय तो उसमें जो सुख की अनुभूति थी नहीं आयेगी बल्कि दुख की अनुभूति आयेगी,दोनों एक साथ नहीं आयेंगे,कभी सुख तो कभी दुख ।मॉसाहारी को मॉस खाने में सुख मिलता है मगर जिसका मॉस खाया ,उसके लिए भयानक कष्ट है । एक ही वस्तु से किसी को सुख मिलता है तो किसी को दुख, ऐसा कोई विषय नहीं कि जो सबको समान रूप से सुख देता हो ।कुछ लोग सुखी रहते हैं तो कुछ दुखी,यह इसी प्रकार चलता रहेगा ।

 

 

19- संकोच किस प्रकार का हो-

        मर्यादा का पालन करते हुये संकोच उपयुक्त है मगर आवश्यकतानुसार संकोच को त्याग देना चाहिए,स्पष्ट बात करनी चाहिए । भोजन करते समय भरपेट आहार करना चाहिए क्योंकि अधिक संकोच करने से भूखा रहना पड सकता है।लेन-देन करते समय उसकी लिखा-पढी पक्की होनी चाहिए क्योंकि संकोच करने से धन की हानि हो सकती है । जीवन में संकोच की एक सीमा है वरना दुख या हानि हो सकती है ।।

 

 

19-हमारी यादें-

        याद ही केवल ऎसा स्वर्ग है जहॉ से हमको भगाया नहीं जा सकता है ।दुःख की याद तो केवल खुशी को मधुर बना देती है ।यादें हमारे जीवन को हरा-भरा रखने हेतु,हमारे साथ प्रभु का पक्षपात है।यादें तो पंख हैं जो उडने को पुरुषार्थ देती है ।

 

 

20- परमात्मा के द्वारा इस दुनियॉ में हमें केवल एक ही जन्म सिद्ध अधिकार प्राप्त है-

        देने का अधिकार। लेने या मॉगने का अधिकार कदापि प्राप्त नहीं है।इस धिकार से जो कुछ भी हम देते हैं उसी से हम धनी होते है,और सुख-शॉति भी प्राप्त होती है । लोग सुख शॉति को प्राप्त करने के लिए कभी इधर कभी उधर भटकते हैं,लोग इसे मॉग-मॉग कर प्राप्त करना चाहते हैं, इससे अधिक भयंकर भूल और क्या हो सकती है जबकि ये चीजें हमें देने से स्वतः ही प्राप्त हो जाती हैं ।इसलिए कर्म करते जाओ फल की आशा परमात्मा पर छोड दो ।

 

 

21-जीवन की जल धारा रुक नहीं सकती–

        बच्चे थे हम ,बचपन गया,रोक सके ?क्या करते? कैसे रोकते ? जवान हुये हम,जवानी भी गई,रोक सके? बुढापा भी चला गया ।देह थी ,देह भी चली जायेगी।जो भी है सब बह रहा है,यहॉ कुछ रुकेगा नहीं।यहॉ तो कुछ रुकता ही नहीं ।सब जल की धार है,इस जल की धार में अगर हमने रोकना चाहा तो दुखी हो जाओगे बस तुमने जान लिया कि यह जलधार का स्वभाव है कि यहॉ कुछ रुकता ही नहीं है बस उसी क्षण दुःख चला गया । अब दुखी होने का कोई कारण न रहा बस अगर तुमने माना कि रुक सकता है तो फिर दुःख आ जायेगा ।

 

 

22-महान कौन होता है-

        किसी पद से आपकी नहीं बल्कि आप से पद की शोभा होती है ,और यह तभी होगा जब आपके काम महान और अच्छे होंगे । एक वे हैं जो इतिहास में नाम आने से महान कहलाते हैं,दूसरे बे हैं जिनके नाम से इतिहास अमर हो जाता है और वास्तव में वे ही महान होते हैं ।

 

 

23-जो सामने है वही सच है-

        मनुष्य जीवन तो जो आज और अभी है उसे कभी अतीत या भविष्य में न देखें ,जिसने जीवन को अतीत या भविष्य में देखा उसने तो जीवन जाना ही नहीं। ध्यान रखें कि जो सामने है वही सच है इसके बाद जोकुछ भी है वह सिर्फ सम्भावना है ।

 

 

24-जीवन चलने का नाम है-

        जीवन में सोते ही रहना कलयुग है,निद्रा से उठकर बैठना ही द्वापर है,और उठकर खडा हो जाना त्रेता युग है और चल पडना सतयुग है। इसलिए जीवन में चलते रहो-चलते रहो ।

 

 

25-धर्म जीवन की कला है-

        धर्म कोई पूजा-पाठ नहीं है,धर्म का मंदिर और मस्जिद से कोई लेना-देना नहीं है, बस धर्म तो है जीवन की कला है ।जीवन को कलात्मक ढंग से जिया जा सकता है,ऎसे प्रसादपूंर्ण ढंग से कि जीवन में हजार पंखुडियों वाला कमल खिल जाय कि जीवन में समाधि लग जाय, कोयल के समान गीत उठे ,ह्दय में ऎसी भाव –भंगिमाएं जगें जैसे मीरा का नृत्य पैदा हो जाय,चैतन्य के भजन बन जॉय ।

 

 

26-यथार्थ ज्ञान हमारी आत्मा में है –

        ज्ञान किताबों में नहीं होता, बल्कि यथार्थ ज्ञान तो हमारी आत्मा में विद्यमान है,पर कर्म–मैल ने उसे ढक रखा है । धर्मशास्त्र तो इस कर्म मैल को साफ करने में मार्गदर्शन का काम करते हैं सच्चा ज्ञान तो वही है जोआत्मा के सच्चे स्वरूप को जानें । जो ज्ञान चिन्ता को मिटाता है बस वही सुख का कारण है ।

 

 

27–जीवन का स्तित्व-

        हमारे जीवन का स्तित्व होना तो आत्मा की कमजोरी है अपने होने के कारण की खोज करने से ही जीवन की शुरूआत होती है । बस इसके बाद के प्रत्येक क्षण एक नईं खोज प्रारम्भ होती है प्रत्येक क्षण एक नया रहस्य लेकर सामने आयेगा,नई खुशी लेकर आयेगा ।एक नयॉ प्रेम पनपना शुरू होगा ,एक नईं किरण विकसित होगी कि जिनका अनुभव पहले कभी न हुआ होगा ।यहीं से अच्छाई और सौन्दर्य के प्रति नईं संवेदना विकसित होगी ।

 

 

28-बेइमान भी ईमानदार साथी चाहता है-

        जो लोग बेइमान होते हैं वे प्रत्यक्ष में ईमानदारी का समर्थक और प्रशंसक पाये जाते हैं,बेइमान व्यक्ति भी ईमानदार साथी चाहता है। प्रमाणिक व्यक्तियों की तो सर्वत्र मॉग है वे सिर्फ अपने आत्मीय परिजनों में ही सम्मान नहीं पाते बल्कि शत्रु तक उनकी सच्चाई एवं ईमानदारी की प्रशंसा किए बिना नहीं रहते ।

 

 

29–चरित्र और आनंद की अनुभूति –

        अच्छा आदमी बनने से सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती है। अर्थात चरित्रहीन व्यक्ति कभी भी सही अर्थों में समृद्धिशाली नहीं बन सकता है ।सदाचार के विना आनंद और प्रशन्नता नहीं मिल सकती है ।यह भी सत्य है कि प्रकृति की हर वस्तु में परस्पर ईश्वरीय सम्बन्ध है,इसलिए जबतक आप इस तथ्य को नहीं समझ लेते और इसे स्वीकार नहीं कर लेते, इसे जीवन में मान्यता नहीं देते ,तबतक आनंद की खोज में आप सफल नहीं हो सकते ।

 

 

30-आप स्वयं शक्तिमान हो -

        यदि आप अपने जीवन में अतीत की घटनाओं को याद करो तो देखोगे कि आप सदैव व्यर्थ ही दूसरों से सहायता पाने की चेष्ठा करते रहे ,लेकिन कभी पा न सके ,जो कुछ आपने सहायता पाई है वह तो अपने अन्दर से ही थी ।यह कभी न कहें कि मैं नहीं कर सकता,इसलिए कि आप अनन्त स्वरूप हो आपकी जो इच्छा होगी वही कर सकते हो, आप तो शक्तिमान हैं ।

 

 

31-व्यक्ति से नहीं उसके जीवन से घृणा करें-

        जीवन में अनुकूलता और प्रतिकूलता में एक समान जीना ही त्याग है ,व्यक्ति सुन्दर नहीं होता उसका जीवन सुन्दर होता है ।व्यक्ति से घृणा न करते हुये उसके दुष्कर्म से घृणा करो,क्योंकि व्यक्ति मूल रूप से अच्छा ही है। उससे घृणा करके हम खुद दुखी हो जायेंगे।इन्सान ही इन्सान के काम आता है,अगर इन्सान दूसरे इन्सान की मदद नहीं करेगा तो और कौन करेगा ।

 

 

32-शक्ति जीवन और कमजोरी उसकी मृत्यु है -

        यह एक सच्चाई है कि मानव की शक्ति ही उसका जीवन है और उसकी कमजोरी ही उसकी मृत्यु है। शक्ति परम सुख और जीवन अजर- अमर है ।कमजोरी तो कभी न हटने वाला बोझ और यंत्रणा है,और कमजोरी मत्यु है ।

 

 

33-पहले आज को सवारें-

        हमारे जीवन का स्वर्णिम कल आज पर निर्भर है,यदि आपके मन में भविष्य को उज्वल करने की आकॉक्षा है तो पहले आज को संवारना होगा,क्योंकि स्वर्णिम भविष्य के महल की दीवार आज है ।आज को संवारो, आज को मत टालो । बुराई कल पर टालो ।भलाई को आज करने के लिए तत्पर हो जाओ।

 

 

34-हमारे अवगुंण-

        हमारे अऩ्दर गुंण होते हुये भी यदि एक अवगुंण है तो वह सारे गुँणों को ढक देता है। अपने अवगुंण तो अपने को ही तखलीफ देते हैं ।यदि हम दूसरों के अवगुंणों की चर्चा करते हैं,तो हम अपने ही अवगुणों को प्रकट करते है।

 

 

35-पाप क्या है-

        पाप एक दुर्भाव है,जिसके कारण हमारे आन्तरिक मन तथा अन्तरात्मा पर ग्लानि का भाव आता है ।जब हम कभी गन्दा कार्य करते हैं तो ह्दय में एक गुप-चुप पीडा का अनुभव होता रहता है,हारे मन का दिव्य भाग हमें प्रताडित करता रहता है,बुरा-बुरा कहता रहता है ।इसी आत्मभर्त्सना से मनुष्य पश्चाताप करने की बात सोचता है ।यह पाप पानी की तरह होता है,यह हमें नीचे की ओर खींचता है ।आप चाहे कितने ही प्रयत्न करें,आन्तरिक पाप से कलुषित मन स्पस्ट प्रकट हो जाता है।अवगुंण से तो मनुष्य की उच्च सृजनात्मक शक्तियॉ पंगु हो जाती हैं,बुद्धि और प्रतिभा कुण्ठित हो जाती है ।किसी भी स्थिति में पाप और द्वेष की प्रवृत्ति बुरी और त्यागने योग्य है ।।

 

 

36-गुनाह या पाप वह अग्नि है जो सुलगती रहती है-

        हम जो पाप या गुनाह करते हैं वे जलते हुये वे वस्त्र हैं जिन्हैं यदि छिपाकर रखा जाता है तो वह अग्नि अन्दर ही अन्दर सुलगती रहती है, और धीरे-धीरे समीप के वस्त्रों तथा अन्य वस्तुओं को भी जला डालती है ।सम्भवतः उस अग्नि का धुआं उस समय न दिखाई दे,लेकिन अदृश्य रूप में वह वातावरण में सदा मौजूद रहता है ।पाप या गुनाह की अग्नि ऐसी अग्नि है,जो अन्दर ही अन्दर मनुष्य में विकार उत्पन्न करती है,इस आन्तरिक पाप की काली छाया अपराधी के मुख,हाव-भाव,नेत्र,चाल-ढाल इत्यादि द्वारा अभिव्यक्त होती रहती है ।अपराधी या पापी चाहे कुछ भी समझता रहे वह अपराध को छिपाना चाहता है,परन्तु वास्तव में पाप छिपता नहीं है।मनुष्य का अपराधी मन उसे सदा व्यग्र,अशॉत और चिंतित रखता है ।।

 

 

37-पाप में प्रवृत्त मनुष्य के अंग-

        प्रायः मनुष्य के तीन अंग पाप में प्रवृत्त होते हैं ।शरीर,वॉणी,और मन ,इनके द्वारा किये गये पाप-कर्मों के नाना रूप होते हैं,इनसे बचे रहें।अर्थात शरीर वॉणी और मन का उपभोग करते हुये सचेत रहें ।कहीं ऐसा न हो कि आत्मसंयम में शिथिलता आ जाय और पाप पथ पग बढ जाय ।कभी-कभी हमें विदित नहीं होता कि हम कब गलत रास्ते पर चले जा रहे हैं । गुप-चुप पाप हमें बहा ले जाता है और हमें अपनी सोचनीय अवस्था का ज्ञान तब होता है जब हम पतित हो जाते हैं ।

 

 

38- पाप कर्म मनुष्य जीवन के लिए अभिशाप है -

        अपने शरीर के द्वारा अनुचित कार्य करना शारीरिक पाप है।इसमेंवे समस्त कुकृत्य हैं,जिन्हैं करने से ईश्वर के मंदिर रूपी इस मानव शरीर का क्षय होता है ।परिणॉम स्वरूप इस काया में नाना प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं, जिससे जीवित अवस्था में ही मनुष्य को कुत्सित कर्म की यन्त्रणॉयें भोगनीं होती हैं ।शरीर के पाप में हिंसा पहला पाप है ।इसमें इस शरीर का अनुचित प्रयोग किया जाता है ।उसे उचित अनुचित का विवेक नहीं रहता है,उसकी मुख मुद्रा में दानव जैसे क्रोध,घृणॉ और द्वैष की अग्नि निकलती है । इस प्रकार के लोगों में मानवोचित्त गुंण क्षय होकर राक्षसी प्रवृत्तियॉ उत्तेजित हो उठती हैं, मरणोंपरान्त भी उसकी आत्मा अशॉत रहती है ।

 

 

39- पाप कर्म कई रूपों में मनुष्य पर आक्रमण करता है-

        पाप कर्म ऐसी घृणित दुष्प्रवृत्ति है जो कई रूपों में और अवस्थाओं में मनुष्य पर आक्रमण किया करती है,इसलिए इससे सावधान रहने की आवश्यकता है ।कहते हैं मनुष्य के मन के एक अज्ञात कोने में शैतान का निवास होता है,मनुष्य उस पाप की ओर अज्ञानतावशः खिचता जाता है क्षणिक वासना या थोडे लाभ के अन्धकार में उसे उचित-अनुचित का विवेक नहीं रहता है ,वह अपना स्थाई लाभ नहीं देख पाता है और किसी न किसी पतन के ढालू मार्ग पर आरूढ हो जाता है ।।





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