Saturday, August 11, 2012

तर्क से बुद्धि सत्य को जान लेती है

1- तर्क से बुद्धि सत्य को जान लेती है-


         भावनाओं के स्रोत ह्दय द्वारा अनुभूत होता है न कि तर्क के द्वारा बुद्धि तो सत्य को जान लेती है। इस प्रकार बुद्धि और भावना दोनों एक ही क्षण में आलोकिक हो उठते हैं, ह्दय ग्रन्थि खुल जाती है जिससे सब संशय मिट जाते हैं । प्राचीन काल में ऋषियों के ह्दय में ज्ञान और भाव एक साथ प्रस्फुटित हो उठते थे,तबसर्वोच्च सत्य ने काव्य की भाषा ग्रहण की, फलस्वरूप वेद और अन्य ग्रन्थ रचे गये । उन्हैं पढते समय लगता है कि मानो भाव और ज्ञान की दोनों सामान्तर रेखायें अन्ततः मिलकर एकाकार हो गई हैं और एक दूसरे से अभिन्न हैं ।।

2-भौतिक वस्तुओं के भीछे भागना मृत्यु के पाश में बंधना है-
        मनुष्य बाहरी वस्तुओं के पीछे दौडते फिरते हैं,जिससे व्याप्त मृत्यु के पाश में बंध जाते हैं,लेकिन ज्ञानीपुरुष अमृत्व को जानकर अनित्य वस्तुओं में नित्य वस्तु की खोज नहीं करते ।अनन्त की खोज अनन्त में ही करनी होगी,और हमारी अन्तवर्ती आत्मा की एकमात्र अनन्त वस्तु है । शरीर, मन आदि जो प्रपंच हम देखते हैं अथवा जो हमारी चिन्ताएं या विचार हैं,अनमें से कोई भी अनन्त नहीं हो सकता ।मनुष्य की आत्मा जो सदा जाग्रत है,वही एकमात्र अनन्त है ।जो नाना रूप दिखते है,वे बारम्बार मृत्यु को प्राप्त होते हैं ।

3-अद्भुत विषय के प्रति जिज्ञासा-
        जब लोग किसी अद्भुत विषय के सम्बन्ध में सुनते हैं.तो वे समझने लगते हैं कि वे उसे एकदम प्राप्त कर लेंगे ।क्षणभर में वे विचारते हैं कि उसकी प्राप्ति के लिए उन्हैं उसका रास्ता तय करना पडेगा ।वे कूदकर पहुंच जाना चाहते हैं । यदि वह स्थान उच्च है तब भी पहुंच जाना चाहते हैं। वे यह नहीं सोचते कि हममें उतनी शक्ति है या नहीं । नतीजा यह होता है कि वे कुछ नहीं कर पाते हैं ।हम किसी व्यक्ति को जबर्दस्ती उठाकर ऊपर नहीं धकेल सकते हैं,हम आप कुछ नहीं कर सकते हैं । हम सबको प्रयत्न करने की आवश्यकता होती है । अतः धर्म का यह पहला भक्ति का भाग है, यह उपासना की पहली और निचली सीढी है।

4-ईश्वर को अनुभव करने की सामर्थ्य-
        सामान्यतः आपकी उस सर्वशक्तिमान के सम्बन्ध में क्या कल्पना हुआ करती है ?कुछ भी नहीं । ईश्वर के बारे में आपकी जो कल्पना है उसका अनुभव करना ही धर्म है । और ईश्वर के विषय में,जो आपकी कल्पना है, उसका अनुभव करने में जब आप समर्थ हो जायेंगे,तब हम आपको ईश्वर का उपासक कहेंगे । अभी तो आप शब्द तक के बारे में ही जानकारी रखते हैं । इससे अधिक आप कुछ भी नहीं जानते । उस अवस्था में पहुंचने के लिए, जिसमें ईश्वर का अनुभव कर सकेंगे,साकार माध्यम से ठीक उसी प्रकार जाना होगा जैसे बच्चे प्रथम बार साकार वस्तुओं का अभ्यास करके क्रमशः भाववाचक की ओर जाते हैं ।धीरे-धीरे चलने का तरीका है । यहॉ धर्म के क्षेत्र में सब बच्चे ही हैं, उम्र में चाहे हम बूढे हों,संसार की सारी पुस्तकों का अध्ययन चाहे हमने कर लिया हो, आध्यात्मिक क्षेत्र में तो हम सब बच्चे ही हैं । अनुभव करने की इसशक्ति से ही धर्म बनता है ।

5-अपने को प्रेम से भर लो-
        नफरत से बहुत शक्तिशाली है प्यार की बात,समुद्र की जैसी होती है प्रेम की थाह,समुद्र कितना भी बढ जाय उसकी थाह बढती ही रहती है ।कितनी भी नफरत बढ जाय संसार की, पर प्यार उससे भी ज्यादा बढता रहेगा।आपके अन्दर जो चैतन्य बह रहा है वह प्रेम ही तो है। आज के मानव जीवन के भयानक तौर-तरीकों को समाप्त करने के लिए हमें अपने ह्दयों में प्रेम की शक्ति विकसित करनी होगी, प्रेम की पहचान है वह कभी किसी का अहित करने की नहीं सोच सकता, जो कुछ भी होगा हितकारी ही होगा । अबोधिता प्रेम का स्रोत है । पवित्रता का सम्मान करने पर ही हम प्रेम मय हो सकते हैं,घृणॉ से तो प्रेम को धोया जाता है,हमारा लक्ष्य अपने प्रेम को उन्नत करना होना चाहिए । ध्यान धारण से प्रेम की शक्ति विकसित की जा सकती है । अगर किसी से मार-पीट भी होती है तो प्रेम में,सबकुछकरना धरना प्रेम में हो सकता है,जिसमें जिसका जितना हित हो वही प्रेम है, इसी को तो प्रेममय जीवन कहते हैं।

6-तुम्हारी कमजोरी अगले की ताकत है-
        अपनी कमजोरी कभी भी प्रकट मत करो,एक दिन आपको धोखा मिलेगा। क्योंकि आपकी कमजोरी अगले की ताकत बन जाती है।जैसे कमजोर की बीबी सबकी भाभी होती है और पहलवान की बीवी सबकी बहन ।कमजोर दिलवाला तो हर जगह दुत्कारा जाता है। बस कमर कसो, तुम्हारी फतह होगी ।

7-त्रुटियॉ करना मानवीय स्वभाव है-
        अपनी त्रुटियों के सम्बन्ध में हम अपने आपको स्वयं धोखा देते रहते हैं और अंत में उन्हैं को अपना सद्गुंण समझने लगते हैं। गलतियों की सबसे बडी औषधि तो उनको विस्मृति करना है।वैसे संसार में कुछ भी त्रुटि रहित नहीं है।त्रुटि करना तो मानवीय स्वभाव है, जबकि क्षमा कर देना स्वर्गिक। त्रुटि निकालना सरल है,अच्छा कार्य करना कठिन है। यदि आपको अपने पडोसियों की त्रुटियों के बारे में कहना है तो पहले अपनी त्रुटियों पर दृष्टि डालें। वैसे पुरुषों की त्रुटियों में उसकी स्वार्थपरता निहित होती है,जबकि नारियों की त्रुटियों के मूल में उनकी

8-दुःख जीवन की सबसे बडी पाठशाला है-
        जीवन में दुःख से न घबडायें,दुःख तोसबसे बडी पाठशाला है,यह हमें अपने अन्दर झॉकने का अवसर देता है और कुछ नया करने को मजबूर करता है। दुख के लिए किस्मत या भगवान को कभी न कोसें । होंसला रखें जो काम सामने आये उसे जी जान से करें ।फिर आप महशूस करेंगे कि आपके पास मातम मनाने के लिए भी वक्त नहीं है। दुःख तो सिर्फ तबतक है जब तक आप मातम मनाते हैं ।

9-दुःख से मुक्ति पायें-
        हम अपनी आत्मा से अपरचित होने के कारण स्वयं को दीन-हीन और दुःखी मानते हैं ।यदि अपने आपको दीन-हीन मानते रहें तो जीवनभर रोते रहोगे। ऎसा है कौन जो आपको दुखी कर सके। यदि आप न चाहो तो दुःख की क्या मजाल कि आपको स्पर्श भी कर सकें।जो इस ब्रह्मॉण्ड को संचालित कर रहा है वह चेतन तो आपके भीतर चमक रहा है,इसलिए अपनी आत्म महिमा में जग कर उसकी अनुभूति कर लो,वही तो हमारा-तुम्हारा वास्तविक स्वरूप है ।

10-दुर्भावना एक कलंक है-
        दुर्भावना तो मनुष्य के लिए एक कलंक है।जो कि अपने विश का आधा भाग स्वयं पी लेती है। दूसरों के दुर्भाग्य से दुद्धिमान व्यक्ति यह शिक्षा ग्रहण करते हैं कि उन्हैं किस बात से बचना चाहिए। आदमी की दुर्भावना उसके दुश्मन के बजाय उसे ही अधिक दुख देती है ।दूसरों के दुर्भाग्य सहने के लिए भी हमसब में पर्याप्त सहनशीलता है।यदि सारा दुर्भाग्य एक ही स्थान पर एक ढेर में रख दिए जॉय और उनमें सबको समान भाग लेना पडे तो हममें से धिकॉंश अपना ही भाग लेकर संतुष्ट होकर विदा हो जायेंगे।

11-दुष्ट मनुष्य का साथ न करें-
        दुष्ट मनुष्य के पास न तो किसी को ठहरना चाहिए और न उसके साथ कहीं जाना चाहिए ।दुष्ट व्यक्ति तो दूसरों के कार्य को नष्ट करना ही जानते हैं।सिद्ध करना नहीं। जिस प्रकार वायु वृक्षों को उखाडना ही जानती उन्हैं खडा करना नहीं ।इन्हैं तो महॉन लोगों के कार्य अच्छे नहीं लगते,इसीलिए वे उनसे द्वेष करते हैं। दुष्टों और कॉटों को सही रास्ते पर लाने के केवल दो ही उपाय हैं,या तो जूते से उनका मुंह तोड दिया जाय या उनकी अवहेलना कर दी जाय। दुष्ट यदि विद्वान हो तब भी उसके संग से बचना चाहिए,।दुष्ट बुद्धि के लोग दूसरों के उत्तम गुंणों को जानने की वैसी इच्छा नहीं करते,जैसी इच्छा उनके अवगुंणों को जानने की करते हैं। बिना कारण शत्रुता दिखाने वाले व्यक्ति से कौन नहीं डरता,जिसके मुंह में सॉप के विष जैसे असह्य अपशब्द रहते हैं।

12-दूसरे की विवशता को समझें-
        जब कभी हमसे कोई गलती होती है तो हम कहते हैं कि हमसे भूल हो गई लेकिन जब कोई दूसरा वैसी ही गलती करता है तो हमको इसके पीछे कुछ गलत मंशा दिखने लगती है। हम तो यही सोचते हैं कि उसने जान बूझकर ऐसा किया।जबकि सच बात तो यह है कि हम दूसरे व्यक्तियों को वैसा नहीं देखते जैसे वे हैं अगर हम दूसरे की विवशता को समझें तो हम परेशान नहीं होंगे बल्कि उससे सहानुभूति रखते ।

13द्वेष-भाव हानिकारक है-
        जिसका ह्दय द्वेष या वैर की आग में जलता है, उसे रात में नींद नहीं आती है।यदि आप द्वेष भाव कोमिटाना चाहते हैं तो,प्रेम की शक्ति ही उसे मिटा सकती है।किसी दूसरे की द्वेषयुक्त बुद्धि को हम द्वेष से नहीं मिटा सकते हैं बस द्वेष और कपट को त्याग दो,संगठित होकर दूसरे की सेवा करना सीखो,यही हमारे देश की पहली आवश्यकता है ।

14ध्यान क्या है-
        ध्यान का अर्थ हैं एकाग्रचित्त होना, अर्थात जागृत होकर एकाग्रचित्त में किसी कार्य को करना ध्यान है। चलना,उठना, सुनना,ध्यान हो सकता है पक्षियों की चहचहाहट सुनना ध्यान हो सकता है,य़दि आप एकाग्रचित्त तथा जागृत होकर सुनते हैं या अपने भीतर की आवाजों को सुनना ध्यान हो सकता है।अर्थात सोये न रहें जागृत होकर जो करोगे ध्यान हो सकता है।ध्यान को चार चरणों में विभाजित किसा जा सकता हैः-
पहला चरण- अपने शरीर को पूर्ण जागृत रखकर,एकाग्रचित्त, निर्विचारिता की स्थिति में ले जाना है,
इससे आपके शरीर को अधिक विश्राम और शॉति मिलेगी। आपका शरीर लयबद्ध हो जाता है,महशूस करोगे कि शरीर में एक सूक्ष्म संगीत सा फैलता जा रहा है।
दूसराचरण-अपने लक्ष्य के अनुरूप शरीर में निहित सूक्ष्म विचार के प्रति जागृत होना।फिर धीरे-धीरे महशूस करोगे कि आपके अन्दर उस विचार के प्रति क्या अनुभूति होती है अगर लिख डालते हो तो,स्वयं चकित हो जाओगे।
तीसरा चरण-यदि आप अपने विचारों के प्रति जागृत हैं तो फिर एक कदम और आगे बढना है कि उस विचार के प्रति अधिक गहन जागृत होना है बस ये तीनों आयाम जुडकर एक घटना बन जाती है फिर देखोगे कि क्या अनुभूति होती है।
चौथा चरण–यह तुरीय स्थिति की घटना की अवस्था है, जो जब प्रथम तीन चरणों को साधचुके होते हैं उनके लिए यह पुरुष्कार प्राप्त होता है।जिसमें व्यक्ति बुद्ध हो जाता है

15-ध्यान से प्रेम होता है क्रोध नहीं-
        जब ध्यान की बात आती है तो उस समय निर्विचारिता की स्थिति उत्पन्न होती है,और जहॉ निर्विचारिता होगी वहॉ ईश्वरीय शक्ति उत्पन्न होगी ,प्रेम जिसका प्रतीक है, इसलिए ध्यान करने पर प्रेम स्वतःही उत्पन्न हो जाता है अकबर ने अपनी आत्म कथा में ध्यान के सम्बन्ध मे एक रोचक घटना का उल्लेख किया हैः-कि जब मैं शिकार खेलने जंगल में गया था और साथियों से बिछुड गया, रास्ता भी भूल गया अंधेरा होनो लगा,मैं डरा हुआा था रात को कहॉ रुकूंगा,जंगल में खतरा था, भाग रहा था, तभी उसे सॉझ के वक्त प्रार्थना की याद आई यह तो जरूरी है, अपनी चादर विछाकर नमाज पढने लगा उसी समय अकबर ने देखा कि कोई स्त्री भागती हुई जा रही थी उसकी चादर में पॉव रखकर और उसपर घक्का देकर चली गई।अकबर को बडा क्रोध आया जल्दी-दल्दी नमाज पूरी कर घोडे पर सवार होकर भागा और रास्ते में उस स्त्री को पकड लिया और कहा बदतमीज तुम्हारी यही तमीज हैकि नमाज पढते वक्त तुमने ऎसा व्यवहार किया और फिर में तो एक सम्राट हूं। उस स्त्री ने जवाव में कहा महॉराज मुझे क्षमा करें मुझे पता नहीं था कि आप नमाज पढ रहे हैं,लेकिन महॉराज मुझे आपसे एक बात पूछनी है कि मैंअपने प्रेमी से मिलने जा रही थी तो मुझे कुछ भी नहीं दिखाई दिया कि मेरा प्रेमी राह देख रहा होगा,लेकिन आप तो परमात्मा से प्रार्थना कर रहे थे,मेरा धक्के का आभास आपको कैसे हो गया आपकी यह कैसी प्रार्थना है और ध्यान में तो प्रेम होता है आप तो गुस्से में हैं,इसका मतलव आप ढोंग कर रहे थे ।जो परमात्मा के सामने डा हो ,उसे तो सब भूल जाना चाहिए था,कोई आपकी गर्दन भी तलवार से काट लेता तो भी पता न चलता अकबर के दिल को कठोर चोठ पहुंची और इस घटना को अपनी आत्म कथा में लिखवाई । अकबर को महशूस हुआ कि प्रेम का ही विकास प्रार्थना है ।ध्यान में प्रेम का जागरण होता न कि क्रोध का

16-ध्यान से मन शॉत होता है-
        किसी काम को करने के लिए मन को जितना मना करते हैं मन उतना ही उस काम को करना चाहता है, इसलिए मन को मना न करें,मन जो कर रहा है करने दें। बस ध्यान रहे कि आप शरीर से न करें । उस मन को अपने आप में लगाइये,बाहर न लगने दें,क्योंकि बाहर लगने से दुख होगा,कष्ट होगा ।इस बात को ध्यान में रखें कि ध्यान से मन शॉत होता है, स्थिर होता है। जब मन शॉत होगा तो आत्मा का दर्शन होगा । इसलिए ध्यान करना न भूले।

17–आहार में ईश्वरीय शक्ति का प्रवेश -
        शुद्ध आहार ग्रहण करने से अन्त-करण की शुद्धि होती है। जिस भोजन को हम खाते हैं उससे केवल हमारे शरीर का पोषण ही नहीं होता है, बल्कि उस समय जिन संस्कारों या वातावरण में हम भोजन ग्रहण करते हैं,वे हमारे शरीर में बसते है और मॉस, रक्त, मज्जा,आदि का निर्माण करते हैं।क्योंकि भोजन के साथ हम विचार, भावनायें,मनोभावनाओ को भोजन व जल के साथ ग्रहण करते हैं इसलिए हमारा मन भी वैसा ही बन जाता है ।

18 – भय और वैराग्य-
        भय का मनुष्य से गहरी मित्रता होती है, वह मनुष्य का पीछा नहीं छोडता है, ङसीलिए भोग विलास में मनुष्य को रोग का भय रहता है, बल में बैरी का भय,धन होने पर राजा का भय, मौन में दीनता का भय,रूप में बुढापे का भय,गुणों में दुष्टों का भय,शरीर को मृत्यु का भय,शास्त्र में विवाद का भय, कुल में च्युत होने का भय अर्थात संसार की सभी वस्तुओं..

19 -नयें स्वस्थ विचारों का विकास कैसे किया जाय -
        मारे अन्दर यदि बुरे विचार हैं और उनके स्थान पर हम अच्छे विचारों को विकसित करना चाहते हैं ,तो ङसके लिए हमें उन बुरे विचारों को दबाने के लिए विरोधी शुभ विचार विकसित करने होंगे, जैसे क्रोध को दूर करने के लिए हमें प्रेम और शॉत विचारों का विकास करना होगा, यदि गंदे विचार या वासनाओं को दूर करना है तो उन्हैं दबाने के लिए विरोधी शुभ विचारों को विकसित करना होगा।

20 -स्थान परिवर्तन से विचारों में भी परिवर्तन हो जाता है -
        प्रत्येक विचार या वासना का सम्बन्ध स्थान विशेष से होता है, किसी विशेष स्थान में रहने से मन में विशेष प्रकार के विचार उत्पन्न होते हैं। क्योंकि उस स्थान के ङर्द-गिर्द उस स्थान से सम्बन्धित गुप्त विचारों का वातावरण छाया रहता है। जैसे मन्दिर में जाने पर पवित्र विचारों का प्रवाह स्वतः आने लगता है,और ङसके विपरीत दूषित स्थान में रहने से विचार दूषित हो जाते हैं।

21निर्जीव साधन सजीव हो जाते हैं-
        साधन तो निर्जीव होते हैं,और योग्यता जीवन का लक्षण है। यदि ये निर्जीव साधन किसी योग्य व्यक्ति के हाथ में पहुंचते हैं तो वे सजीव हो उठते हैं। इसलिए योग्यता आवश्यक है,साधन तो योग्य व्यक्ति के चरणों में खुद जा गिरते हैं

22- निर्विचार समाधि ही उत्थान का मार्ग है-
        उत्थान पाने के लिए निर्विचार समाधि में होना आवश्यक है,बिना इसके उत्थान नहीं हो सकता है।इसके बिना चाहे आप कोई भी योजना बना लें,जो चाहें करें,यह कार्यान्वित नहीं होगा।सहज योग में यह सहज ही कार्यान्वित होता है।आप जागृत हो जॉय फिर देखना सहज किस प्रकार आपकी सहायता करता है। निर्विचार समाधि एक सुन्दर स्थिति है जो कि आपको पाना है,इस जीवन को नाटक मानकर लोगों को साक्षी भाव में देखते हुये आनंद की अनुभूति के साथ उत्थान की ओर अग्रसर होना है ।

23- समर्ण का अर्थ है परमात्मा के साम्राज्य में स्थापित हो जाना-
        समर्पण का अर्थ यह नहीं है कि आप अपने बच्चों और घर को त्याग करें वल्कि अहं एवं वन्धनों का त्याग करें ।समर्पण से आपके अन्दर एक ऎसी स्थिति विकसित होती है जिसमें आन्तरिक रूप में आप सन्यासी बन जाते हैं।समर्पण का अर्थ है स्वयं को पूर्णतया शुद्ध करना। यह निर्लिप्सा ही उत्थान का एक मात्र मार्ग है।आपको यह मान लेना चाहिए कि मैं एक सहजयोगी हूँ,सारी शक्तियों को मैं अपने अन्दर आत्मसात कर सकता हूं।उन शक्तियों को अपने अन्दर बनाये रखें, ग्रहण करें और विश्वस्त हो जॉय कि मेरे अन्दर ये शक्तियॉ हैं।आपका सर्वव्यापक शक्ति से सम्बन्ध सच्चा,दृढ और निष्कपट होना चाहिए।तो फिर परमात्मा से एकाकारिता का आभास होना सहज है।आप जितना उन्नत होना चाहेंगे आपकी शक्ति आपको उतनी ही अधिक सामर्थ्य देगी ।आत्म निरीक्षण करें।समर्पण का अर्थ है आप( आदि शक्ति मॉ) सहज योग,सत्य से दृढतापूर्वक जुडे हैं।समर्पण में आपको किसी का कोई भय नहीं है,अपनी हानियों का भी नहीं ।समर्पण से गतिशील बन जाते हैं आप वास्तविक सृजनात्मकता शक्ति बन जाते हैं।

24-जहॉ कोई नहीं होता है वहॉ परमात्मा का निवास होता है-
        यह सत्य है कि जहॉ कोई नहीं है वहॉ परमात्मॉ का निवास होता है, मस्तिष्क को विचारशून्य रखें यही निर्विचारिता है। निर्विचारिता की अवस्था में जो भी घटित होता है वह प्रकाशवान होता है, निर्विचारिता में आपके मन में जो विचार आता है वह एक अन्तः प्रेरणा होती है।निर्विचारिता में आप परमात्मा की शक्ति के साथ एक रूप हो जाते है,अर्थात आप परमात्मा में आकर मिल जाते हैं । परमात्मा की शक्ति आपके अन्दर आ जाती है।कोई भी निर्णय लेने से पहले निर्विचारिता में जाओ, अब जो निर्णय सामने आ जाए, उसी को कीजिए, यही सबसे उपयुक्त निर्णय होगा, क्योंकि उसमें आपका ईगो और सुपर ईगो दोनों काम करते हैं ।आपका संसार आपके पीछे खडा है,आपने जो भी लौकिक कमाया है,वह आपके पीछे खडा होगा लेकिन निर्विचारिता में करोगो तो आलौकिक व चमत्कारिक निर्णय होगा,आप ऎसा निर्णय लेंगे जो बडे-बडे लोगों के बस में नहीं। किसी भी कार्य को निर्वचारिता में करने से जान जाओगे कि कहॉ से कहॉ डाएनैमिक हो गया मामला। निर्विचारिता में रहना सीखें यही आपका स्थान है, आपका धन,आपका बल,शक्ति,आपका स्वरूप, सौन्दर्य तथा यही आपका जीवन है।निर्विचार होते ही बाहर का यन्त्र पूरा आपके हाथ में घूमने लग जाता है। सिर्फ जीवंतता का दर्शन होगा,आपको उस जगह से दिखाई देगा जहॉ से जीवन की धारा बहती है। इसलिए निर्विचारिता समाधि से स्वयं को ज्योतिर्मय बनाइयें यह कार्य कठिन नहीं है, यह स्थिति आपके अन्दर है, क्योंकि विचार या तो इधर से आते हैं या उधर से,ये आपके मस्तिष्क की लहरियॉ नहीं हैं,ये तो आपकी प्रतिक्रियायें हैं। लेकिन ध्यान धारण करने पर आप निर्विचार चेतना में चले जाते हैं, यह स्थिति प्राप्त करना आवश्यक है और तब आपके मस्तिष्क में आने वाले मूर्खतापूर्ण एवं व्यर्थ विचार समाप्त हो जाते है, इन विचारों के समाप्त होने पर ही आपका उत्थान सम्भव है तभी हम आप उन्नत होते हैं।

25-निर्विचारिता में निर्णय लें-
        कोई भी निर्णय लेने से पहले निर्विचारिता मे जाओ, अब जो निर्णय सामने आ जाय,वह करिए,कभी गलत हो ही नहीं सकता है क्योंकि इसमें आपका ईगो और सुपर ईगो दोनों काम करते हैं।हर काम को करते समय हम निर्विचार हो सकते हैं,और निर्विचारिता होते ही उस की सुन्दरता,उसका सम्पूर्ण ज्ञान और सारा आनन्द आपको मिलने लगता है।

सहज योग उत्थान के लिए वरदान है



1-आदिशक्ति माता जी श्री निर्मला देवी का आध्यात्म-
        अपने जीवन में अपने हिन्दू धर्म के अनुसार देवी-देवताओं की उपासना में मैं हमेशा भ्रमित रहता था,ईश्वर को तलासने के लिए कभी इस मंदिर में सभी उस मंदिर में भटकता रहा,लेकिन कुछ वर्षों पूर्व जब माता जी के आध्यात्म के सम्पर्क में आया तो ईश्वर के प्रति विचारधारा ही बदल गई । इस आध्यात्म में सबसे बडी बात यह है कि हमें किसी गुरु के शरण में जाने की आवश्यकता नहीं हैं,हम अपने गुरु स्वयं अपने आप हैं।जबकि सभी उपदेश देने वाले कहते हैं कि बिना गुरु के ईश्वर प्राप्त हो ही नहीं सकता । दूसरी बात माता जी ने कहा कि ईश्वर को रुपये पैसों की भाषा समझ में नहीं आती है आप इस कार्य में कोई खर्चा न करें ।तीसरी बात माता जी ने कहा बाहर जितने भी देवता हैं वे सभी हमारे शरीर में अलग-अलग तत्वों के रूप में विद्यमान हैं, इसलिए हमें बाहर भटकने की आवश्यकता नहीं है,हमें तो इन्हैं अपने शरीर के अन्दर ही प्रशन्न करना है । अपने शरीर के अन्दर सात चक्र हैं, कुण्डलिनी मूलाधार में बैठी होती है, अगर हमारे सातों चक्र जागृत अवस्था में हैं तो कुण्डलिनी हर चक्र से होकर अन्त में सहस्रार का भेदन कर सदा शिव में मिल जाती है, यह परम चैतन्य प्राप्ति की स्थिति है । इस स्थिति में शरीर को अथाह आध्यात्मिक ऊर्जा मिलती है जोकि किसी लक्ष्य की प्राप्ति में सक्षम मानी जाती है ।इस धरती पर जितनी भी शक्तियॉ या देवता हैं उनमें मॉ का स्थान प्रथम है,उसी मॉ की आस्था में मैं विश्वास करता हूं ।यहॉ पर जो लिखा गया है उन्हीं के संरक्षण में लिखा जाता है,यह आपके लिए है।


 
2- सहज योग उत्थान के लिए वरदान है-
        आप जिस ऊंचाई तक पहुंच रहे हैं उसका लाभ आपको होना चाहिए।आपको सारे आशीर्वाद मिल रहे हैं- सौन्दर्य,प्रेम, आनन्द. ज्ञान, मित्र, तथा सुवुधा। आप चालाकी करते हैं तो आपको बाहर फेंक दिया जायेगा ।लेकिन आपकी मॉ की करुंणा इतनी महान है कि वे सदा क्षमा करने और आपको अवसर प्रदान करने के लिए प्रयत्नशील रहती है ।सारे देवताओं को जो आप से रूठ गये थे को शॉत करने का प्रयास करती रहती है, देवता एक सीमा तक मान भी जाते हैं। सहज योग दूसरे धर्मों की तरह नहीं है जहॉ कि आप गलती करते चले जाते हैं,मन मर्जी करते हैं,हत्या करते हैंऔर धोखा देते हैं लेकिन यहॉ तो आपको एक सहजयोगी होना पडेगा ।सहजयोग में आपको यह जानना होगा कि वास्तव में आपको समर्पित और ईमानदार होना पडेगा ।
 
 

3-अत्यन्त भाउक होना नाडीतंत्र की कमजोरी का फल है-
        जब नाडी तंत्र कमजोर होती है तो हम किसी भी बात पर भाउक हो जाते हैं। इससे हर्ष और विषाद के बीच एक नाटकीय द्वंद बना रहता है ।इससे वे आलसी, नकारात्मक,तामसी,और अपने आप से पीढित रहते हैं।बायें ओर की यह चन्द्रनाडी मस्तिष्क के दायें भाग पर प्रतिअहंकार के रूप में अधिक दबाव डालती है,तो मनुष्य पागलपन,पाक्षाघात तथा वृद्धावस्था को प्राप्त होता है और जो लोग अत्यधिक भाउक होते हैं वे सन्तुलन खो देते हैं।परिणाम स्वरूप उसका प्रतिअहंकार दाहिने मस्तिष्क के ऊपर फूल जाता है,और जब यह अधिक बढ जाता है तब बायें ओर स्थित अहंकार को दबाता है, ताकि सूर्यनाडी को राहत मिले।इस प्रकार वह असंतुलन की स्थिति में रहता है ।।

 
4-मन की पवित्रता के लिए कुण्डलिनी जागृत करे-
        जब भी आप किसी बुरी आदत में फसने लगते हैं तो आपका अपने पर नियन्त्रण समाप्त होजाता है ,कोई प्रेतात्मा आप में बैठ जाती है और आप समझ नहीं पाते कि उस आदत से कैसे छुटकारा पाया जाय। सहज योग में जब कुण्डलिनी उठती है तो ये मृत आत्मायें आपको छोड देती हैं और आप ठीक हो जाते हैं । मैं तुम्हैं यह कहूंगी कि महॉवीर ने केवल नर्क की बात कही,किजीवन में पाप के दण्डस्वरूप आपको कौन सा नर्क प्राप्त होगा ।अपना हित चाहने वाले मनुष्य के लिए तो नर्क के लिए सोचना कितना भयावह है ।इसलिए कुण्डलिनी जागृत करके नर्क के रास्ते से मुक्ति प्राप्त करें ।


 
5--सहज योग में ध्यान धारण कैसे क्रियान्वित होता है?-
        सहजयोग-(सह+ज=हमारे साथ जन्मा हुआ)जिसमें हमारी आन्तरिक शक्ति अर्थात कुण्डलिनीजागृत होती है, कुण्डलिनी तथा सात ऊर्जा केन्द्र जिन्हैं चक्र कहते हैं,जो कि हमारे अन्दर जन्मसे ही विद्यमान हैं।ये चक्र हमारे शारीरिक,मानसिक,भावनात्मक तथा आध्यात्मक पक्ष को नियन्त्रित करते हैं । इन सभी चक्रों में अपनी-अपनी विशेषताहोती है,सबके कार्य बंटे हुये हैं ।कुण्डलिनी के जागृत होने पर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में फैली हुई ईश्वरीय शक्ति के साथ एकाकारिता को योग कहते हैं । और कुण्डलिनी के सूक्ष्म जागरण तथा अपने अन्तरनिहित खोज को आत्म साक्षात्कार(Self Realization)कहते हैं ।आत्म साक्षात्कार के बाद परिवर्तन स्वतः आ जाता है ।वर्तमान तनावपूर्ण तथा प्रतिस्पर्धात्मक वातावरण में भी सामज्स्य बनाना सरल हो जाता है और सुन्दर स्वास्थ्य,आनंद,शान्तिमय जीवन तथा मधुर सम्बन्ध कायम करने में सक्षम होते हैं ।

 

6--हमारे शरीर में कुण्डलिनी महॉनतम् शक्ति है-
        जिसने कुण्डलिनी का उत्थान कर दिया उस साधक का शरीर तेजोमय हो उठता है।इसके कारण शरीर के दोष एवं अवॉच्छित चर्वी समाप्त हो जाती है।अचानक साधक का शरीर अत्यन्त संतुलित एवं आकर्षक दिखाई देने लगता है।आंखें चमकदार और पुतलियॉ तेजोमय दिखाई देती हैं। संत ज्ञानेश्वर जी ने कहा है कि सुषुम्ना में उठती हुई कुण्डलिनी द्वारा बाहर छिडका गया जल अमृत का रूप धारण करके उस प्राणवायु की रक्षा करताहै जो “उठती हैं,अन्दर तथा बाहर शीतलता का अनुभव प्रदान करती है” ।।


 
7-निर्विचारिता का आनन्द-
        जब आप निर्विचारिता में होते हैं तो आप परमात्मा की श्रृष्ठि का पूरा आनंद लेने लगते हैं,बीच में कोई वाधा नहीं रहती है ।विचार आना हमारे और सृजनकर्ता के बीच की बाधा है ।हर काम करते वक्त आप निर्विचार हो सकते हैं, और निर्विचार होते ही उस काम की सुन्दरता,उसका सम्पूर्ण ज्ञान और उसका सारा आनंद आपको मिलने लगता ङै ।

 
8 -अपनी शक्ति को सन्तुलित करें-
        कुछ लोग सहज योग के लिए खूब प्रचार करते हैं लेकिन अपनी ओर ध्यान नहीं देते,वे बाह्य में तो बहुत काम करते हैं मगर अन्दर की शक्ति की ओर ध्यान नहीं देते, जिससे उत्थान की ओर गति प्राप्त नहीं करते।कुछ लोग अन्दर की शक्ति की ओर ध्यान देते हैं मगर वाह्य की ओर ध्यान नहीं देते,जिससे उनमें संतुलन नहीं आ पाता है वाह्य शक्ति की ओर बढने पर उनकी अन्दर की शक्ति क्षीण हो जाती है जिससे वे अहंकार में डूबने लगते हैं। इन लोगों का दूसरों से सम्बन्ध नहीं हो पाता उनका सम्बन्ध तो इतना होता है कि किस तरह दूसरों पर रौब झाडें,वे अपने ही महत्व तक सोचते हैं,उनके लिए चैतन्य कहता है कि अच्छा तुझे जो करना है कर मिटा ले स्वयं को। वह आपको रोकेगा नहीं । हम तॉ एक विराट शक्ति हैं, अगर हम चाहते हैं कि कमरे में बैठकर म़ाता की पूजा करें दुनिय़ा से हमारा क्या मतलव तो वे लोग भी आगे बढ नहीं सकते। यह तो एसा हो गया कि हाथ की एक अंगुली कह रही हो कि मेरा इस हाथ से कोई सम्बन्धनहीं है। इसलिए हमें आंतरिक और वाह्य दोनों शक्तियों की ओर ध्यान देना होगा तभी हमारे अन्दर पूरी शक्ति का संतुलन होगा ।

 
9 -मध्य संतुलन की स्थिति में रहें-
        स्वयं पर नियंत्रण रखें कोई अति करने की आवश्यकता नहीं है,वैसे अति में जाना मानवीय गुंण है।यदि आप तर्कसंगत हैं तो तर्कसंगत ठहराते चले जाते हैं,मैं एसा नहीं कर सकता,ये ही होता रहा है,मै वैसा नहीं कर सकता आप इतने भावक हो जाते हैं कि भावनात्मक के नाम पर गलत काम करने लगते हैं ।स्वयं पर दृष्टि रखें।मध्य में आने की कोशिस करें,जहॉ पर कि आप पूरी परिधि को देख सकते हैं।यदि आप मध्य से हटकर दायें –बॉयें चले गये तो सारा ही वैलेंस खत्म हो जायेगा। आदमी सोचता है कि वह राइट साइड है तो थोडा अपने को लेफ्ट साइड में ले जाना चाहिए,लेफ्ट साइड यानी आप भाउकता में बढ गये तो आपको चाहिए कि अपने को सन्तुलन में रखें।

 
10 -परमात्मा की बुद्धि मध्य में है उसी में समाकर रहें-
        अति अक्लमंद किसी काम का नहीं है। परमात्मा की बुद्धि तो बीच में है। उसी में समाकर रहना चाहिए।हम अति पर चले जाते हैं, और अपनी आदतें नहीं बदलते,हर बार हम अति पर चले दजाते हैं। हमारा स्वयं पर नियंत्रण नहीं है,जिस तरह हमारा मस्तिष्क बताता है हम वही बात मान लेते हैं,न हमारे अन्दर सन्तुलन है और न हमारी शारीरिक आवश्यकतायें सन्तुलित हैं,किसी भी प्रकार का सन्तुलन नहीं है,जैसा हम ठीक समझते हैं बिना सोचे समझे किये चले जाते हैं। यह हमारी विवेकशीलता नहीं है। सहजयोग में आने से सारे दोष दूर हो जाते हैं। और जब वे दोष समाप्त हो जाते हैं तो समझ लेना चाहिए कि आपने बडी भारी चीज हासिल कर ली है,जब तक आपके अन्दर वे दोष होंगे तब तक आप उन्हीं चीजों में लगे रहेंगे दूसरों से झगडा करना, आदि तो समझलेना चाहिए कि आप मध्य में नहीं हैं।जब आप मध्य में होंगे तो आप किसी एक चीज से लिप्त नहीं होंगे, आप सब में समाये रहेंगे। आपको देखना होगा कि आप अहं या प्रति अहं में तो नहीं हैं यदि प्रति अहं है तो आप बायें ओर की बाधा से ग्रस्त हैं आलसी व्यक्ति को चाहिए कि काम की आदत डालें,मस्तिष्क को भविष्य की योजनाओं को बनाने में लगा दें इस प्रकार बायें ओर से खिंचाव से बचकर धीरे-धीरे स्वयं को संतुलित करें।और यदि दायें ओर अधिक गतिशील हों तो, तामसिकता द्वारा नहीं बल्कि मध्य का इस्तेमाल करें। बायें ओर तमोगुंण है और दॉयी ओर रजोगुंण है । हमेशा मध्य में रहें ।संतुलन में रहें।
 
 

11 -सत्य की खोज-
        प्रचीनकाल में अनेक महान लोग इस पृथ्वी पर सत्य को बताने के लिए अवतरित हुये और अपने-अपने स्तर से मानव को समझाने का जी जान से प्रयास करने लगे कि आध्यात्म क्या है,लेकिन विषमता इतनी अधिक थी कि लोग इस बात को कभी नहीं समझे कि आध्यात्मिकता हमारे लिए अत्यन्त आवश्यक है।हमें परमात्मा से उनके प्रेम की सर्वव्यापी शक्ति से एकाकारिता करनी है।उन्होंने अपने प्रयत्न गलत दिशा की ओर दिये।लेकिन मानव तो बुद्धिमान था उसने खोज प्रारम्भ की, सत्य की नहीं बल्कि अपनी मुक्ति की,अपनी उन्नति की,इस दिशा की ओर वे भूल गये कि सर्व प्रथम तो आध्यात्म की खोज करनी चाहिए थी, क्योंकि आध्यात्म ही महत्वपूर्ण है। उससमय हमारे सामने दो प्रकार की यात्रायें थी एक तो बायें ओर और दूसरी दायें ओर से ।सत्य की खोज में लोग जंगलों में चले गये और संत बन गये लेकिन वे लोग दायीं ओर की तपस्या कर रहे थे अर्थात अपने पंच्चतत्वों पर स्वामित्व प्राप्त करना ।सभी तत्वों की आन्तरिक चेतना के विषय में वे जानते थे इन्हीं कारणों से वे इनकी पूजा करने लगे।पर यह तो दांयें ओर की गतितविधि बनगई।अर्थात कर्म काण्ड में बायी ओर के विना दॉयां पक्ष अत्यन्त भयानक होता है। यदि आप में दॉयॉ पक्ष नहीं है तो भी तो भी भयानक बात है,लेकिन सर्व प्रथम आपको अपने बॉये पक्ष को विकसित करना होगा ।करुणॉ,प्रेम,और सबके लिए सौहार्द ही बॉयॉ पक्ष है।बायें ओर बहुत सी चीजें हैं देवी आपके अन्दर भिन्न रूपों में विराजमान है, इसलिए अपना बॉयॉ पक्ष सबसे पहले मजबूत करें ।जिन लोगों ने दॉयॉ पक्ष अपनाया वे अत्यन्त आक्रामक हो गये और पंच्च तत्वों के सार का स्वामित्व प्राप्त कर लिया । यह तो ठीक है पर वे लोग क्रोधी स्वभाव के हो गये कि लोगों को श्राप देने लगे,कठोर वातें वे कहते थे।जो लोग दायें ओर का मार्ग पकडते हैं,परमात्मा के आशीर्वाद के बिना चलते है,वास्तव में वे राक्षस बन जाते हैं यह मानवता के लिए एक खतरा है।

 
12-महॉमाया की शक्तियॉ-
        सारे संसार में जो चैतन्य बह रहा है वे उसी महॉमाया(आदिशक्ति)की शक्ति है इस महॉमाया की शक्ति से ही सारे कार्य होते हैं,यह शक्ति सब चीजों सोचती हैं,देखती हैं व जानती है। तथा सबको पूरी तरह से ब्यवस्थित रूप से लाती है, और सबसे बडी चीज है कि यह आपसे प्रेम करती है, इस प्रेम में कोई मॉग नहीं है,सिर्फ देने की इच्छा है, आपको पनपाने की इच्छा,आपको बढाने कीइच्छा, आपकी भलाई की इच्छा ।।

 
13-आदिशक्ति क्या है-
        यह शक्ति सर्वशक्तिमान परमात्मा श्री सदाशिव की शुद्ध इच्छा है,आदिशक्ति परमात्मा के प्रेम की प्रतिभूति है,परमात्मा का विशुद्ध प्रेम है। अपने प्रेम में उनहोंने इच्छा की कि ऐसे मानव का सृजन हो जो आज्ञाकारी हो,उत्कृष्ट हो,देवदूतों की तरह हो और इसी विचार से उन्होंने सृजन किया,ये आदिशक्ति प्रेम की शक्ति है,आदिशक्ति का प्रेम इतना सूक्ष्म है कि कभी आप इसे समझ ही नहीं सकते हैं।सारे ब्रह्माण्ड का सृजन करने वाली .ही शक्ति है।यह ब्रह्म चैतन्य है।परम सत्य तो यह है कि सृष्टि ब्रह्म चैतन्य के सहारे चल रही है।यह सारा चैतन्य परमात्माकी की ही इच्छा है और इस परम चैतन्य की इच्छा से ही आज हम मनुष्य स्थिति में पहुंचे हैं ।।

 
14-शब्द की शक्ति-
        आदिशक्ति माता का नाम लिर्मला है, जिसमें नि- पहला अक्षर है, जिसका अर्थ है नहीं।अर्थात कोई वस्तु जिसका कोई अस्तित्व नहीं है,लेकिन जिसका अस्तित्व प्रतीत होता है उसे तो महॉमाया (भ्रम) कहते हैं।सम्पूर्ण विश्व इसी प्रकार का है ।यह दिखता तो है मगर वास्तव में है नहीं।यदि हम इसमें तल्लीन हो जाते हैंतो प्रतीत होता है कि यह सबकुछ है ।तब हमें लगता है कि हमारी आर्थिक अवस्था अच्छी नहीं है,सामाजिक व पारिवारिक परिस्थितियॉ असंतोषजन है,हमारे चारों ओर जो कुछ भी है सब खराब है।हम किसी चीज से संतुष्ट नहीं हैं ।

 
15-सहजयोगी अपने पैर न छुआने दें-
        समान्य व्यक्ति के लिए हर सहजयोगी गुरु हो सकता है,इस स्थिति में आप किसी से अपने पैर न छुआने दें,जैसै कि भारत में अपने से बडों के पैर छूने की परम्परा है,उस स्थिति मे तो कोई बात नहीं है, मगर गुरु के नाते यदि आप अपने छूने देते हैं तो यह आपके लिए हानिकारक हो सकता है,आप यहजयोग से बाहर चले जाते हैं। आपको भी किसी अवतरण के अतिरिक्त किसी अन्य के सम्मुख समर्पित नहीं होना चाहिए ।अपने गुरु के पैर अवश्य छू लें मगर इससे पहले आपको चाहिए कि अपने कान पकड लें।

 
16-चैतन्य लहरियों से स्वयं को सत्यापित करें-
        यदि आप चैतन्यलहरियों के द्वारा स्वयं को सत्यापित करते हैं तो वह आपका ज्ञान बन जाता है,और धीरे-धीरे यही ज्ञान आपको बताया जाता है।पृथ्वी की उत्पत्ति के विषय में बताने वाली पुस्तकों में न उलझें, इससे आपका मस्तिष्क दूसरी दिशा में चला जायेगा।आप ऐसे ज्ञान की ओर चले जायेंगे जो सम्भवतः ज्ञान है ही नहीं।फिर आप सोचने लगोगे कि यह तो मुझे पता ही नहीं था मैं जानता ही नहीं था,आपको तो जानना यह है कि आप क्या हैं।आप तो आत्मा हैं और सामर्थ्य के अनुसार आत्मा का जो प्रकास आप लेकर चल रहे हैं वह साधारण प्रकास से अलग है,जो प्रकास दिखता है वह न सोचता है न समझता है,और जो प्रकास आप लेकर चल रहे हैं वह सोचता भी है और समझता भी है,प्रभु आपको उतना ही प्रकास देता है जितनी आपकी सामर्थ्य है,यह प्रकास न तो चकाचौध करता है और न ही मध्यम पडता है,एकदम उतना ही जितना आप समझ सकते हैं।लेकिन यदि आप इन्हैं आप आत्मसात नहीं करते हैं तो आदिशक्ति को बहुत कष्ट होता है इसलिए व्यक्ति को चाहिए कि इधर- उधर का ज्ञान महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण तो यह है कि आप कहॉ पहुंचे और सहजयोग में आपने कितनी परिपक्वता प्राप्त की ।

 
17-जीवन साथी चयन के लिए ध्यान केन्द्रों को अपवित्र न करें-
        हमें उन मर्यादाओं के बारे में बात करनी है जिनका पालन सहजयोगी को करन हा ।इसके लिए सहजयोगी को आपने मूलाधार के महत्व को समझना होगा,इसके विना उत्क्रॉति प्राप्ति नहीं हो सकती है ।सहजयोगी जीवन साथी चयन के लिए आश्रमों, ध्यानकेन्द्रों का उपयोग करते हैं उन्हैं अपवित्र न करें ।इस बात का सम्मान करें आपको विवाह करना है तो सहजयोगी से बाहर जीवनसाथी ढूंड सकते हैं,क्योंकि कई लोग सहजयोग से बाहर सम्बन्ध बनाना अपनी शान के खिलाफ समझते हैं। कई उदाहरण मिलेंगेकि लोगों ने सहजयोग से बाहर शादी करके अच्छे लोंगों को सहजयोग में लाये हैं।सहजयोग में तो यह प्रयत्न सम्भव नहीं है,इससे आपका हित नहीं होगा ,ध्यान रखे यदि आप ऐसा करते हैं तो आपका मूलाधार कभी भी स्थापित नहीं हॉ पायेगा।आपकी उन्नति के लिए यब भयानक झटका होगा एक ही नगर में इसप्रकार का सम्बन्ध बनाना अत्यन्त गलत होगा, इससे गलत परम्परा बनती हो छेडना,अच्छी जोडी है या तुम अच्छे लगते हो या इस प्रकार की बातें कहने से मूलाधार विकृत होता है,ब्रह्मचर्य का जीवन ही आपके हित में है।किसी भी स्थिति में सहजयोग के नियमों का पालन किया जाना चाहिए ।

 
18-बॉईं ओर के लोगों नमक अधिक खाना चाहिए-
        दॉईं ओर के लोगों को चीनी का परामर्श दिया गया है और बॉईं ओर के लोगों को नमक का।नमकसे वे बहुत सी समस्याओं का समाधान कर सकते हैं,क्योंकि नमक उन्हैं व्यक्तित्व प्रदान करता है।,आत्मविश्वास दे सकता है,जिससे वे गरिमामय ढंग से ,अपनी अभिव्यक्ति कर सकेते हैं।

 
19-सहस्रार पकडना गम्भीर बात है-
        सहजयोगी का अगर सहस्रार पकडता है तो यह गम्भीर बात है क्योंकि सहस्रार तो आदिशक्ति का स्थान है,उसे आदिशक्ति को पहचानना होगा,ऐसे लोग सहजयोग के प्रति द्वंद में रहते हैं।उन्हैं यह बात समझानी चाहिए कि आपको आत्मसाक्षात्कार माता जी ने दिया है किसी और ने नहीं। जबतक आप इस बात को नहीं समझते कि राम कृष्ण,शिव,विष्णु आपसे नाराज हो जायेंगे।

 
20- नकारात्मकता शक्ति से स्वयं को खतरा है-
        आप एक बहुत बडे तपस्वी बन सकते हैं जो दूसरों को श्राप दे सकें, उन्हैं कष्टों में डाल सकें, और आप यहीं सोचते हैं कि यह बहुत बडी शक्ति है।बल्कि यह बहुत बडी शक्ति नहीं है,आपकी अपनी शक्ति ही आपका जीवन ले लेगी। इसलिए आप जब अपनी कुण्डलिनी उठाते हैं तो आपको भक्ति मार्ग पर चलना होगा अपने अन्दर अवलोकन करें कि मुझमें क्या कमी है,यह खोजने का प्रयत्न करें कि आपका क्या आदर्श है। आपको अपने बॉये पक्ष पर स्वामित्व पाना होगा। आपमें कुंण्डलिनी जागृत हो गई, परमात्मा से एकाकारिता हो गई, तब आप दांईं ओर गतिशील हों ।

 
21- मूलाधार जागृत करें तो पवित्र बन जाओगे-
        आपका मूलाधार जागृत होता है तो आप अत्यन्त पवित्र हो जाते हैं ।आपमें वासना समाप्त हो जाती है,आपका छिछलापन समाप्त हो जाता है जब तक यह नहीं होगा आप सहजयोग में नहीं रह सकते हो । आप अपने अन्दर पवित्र विवेक विकसित करें उसका सम्मान करें और उसका आनंद लें और यह तभी घटित होगा जब आपका मूलाधार जागृत होगा। क्योंकि बॉयें मूलाधार में गणेश जी विद्यमान हैं जिससे हम अपने दॉये ओर के दोषों को दूर करते हैं ।
22- स्वादिष्ठान जागृत करें तो यश मिलेगा-
        स्वादिष्ठान ऊंचा उठाने के कारण सृजन करने की क्षमता जाग उठती है ।इतिहास गवाह है कि पूरे विश्व में प्राचीन काल से यश और धन कमाने की होड रही है यह शक्ति स्वादिष्ठन से ही प्राप्त होती है ।यहॉ से हमें सभी प्रकार की अटपटी और गन्दी चीजों का सृजन करने की आक्रामकता पैदा होती है। वे लोग जो यश कमाना चाहते हैं या पद हासिल करना चाहते हैं दॉयें स्वादिष्ठान से प्राप्त होते हैं । मध्य स्वाधिष्ठन पर जब हम होते हैं तो हमारे अन्दर सृजनात्मकता पैदा होती है सुन्दर गहनता पूर्ण आध्यात्मिक कला का सृजन होता है। लेकिन इस उन्नत्ति के साथ सभी प्रकार की गन्दगी भी आ जाती है।लेकिन हमें जीवन के उत्थान की बात सोचकर चलना है ।

 
23- इतिहास के पन्नों की दृष्टि-
        विश्व इतिहास में वक्त ऐसा आया कि लोग धन कमाने के पीछे पड गये यह नाभि चक्र का कमाल है। विश्व में बॉये ओर (भारत क्षेत्र)के लोग धन कमा रहे थे, जबकि दायें ओर(पश्चिमी देश) के लोग धन के कारण आक्रामक हो गये थे उन्होंने सोचा कि वे विश्व के शिखर पर हैं हम से श्रोष्ठ कोई नहीं हैं। उनकी इस सोच ने उन्हैं समाप्त कर दिया और उन्हैं उस विन्दु तक ले गई कि उन्हैं सोचने का मौका मिला कि धन विनाश के लिए नहीं है।धन तो निर्माण के लिए होता है,देश का निर्माण के लिए,मानव शॉति,प्रेम,सहयोग तथा सभी प्रकार के अच्छे गुणों के निर्माण के लिए। ह्दय चक्र में यही लोग मातायें भी भयानक थीं अपने बच्चों तथा अन्य लोगों पर रौब जमाने का प्रयत्न किया । अपने बच्चों के लिए वे कोई बलिदान न कर सकीं, वे अपने बच्चों व पति के प्रति आक्रामक थीं पितृत्व भाव समाप्त हो गया था। विशुद्धि चक्र में इन लोगों ने पूरे विश्व पर अपना कब्जा करना चाहा, ताकि वे सम्राट बन सकें । उन्होंने साम्राज्य बनाये और इस प्रकार से अमानवीय व्यवहार किये जिसे करना मानव के लिए शर्मनाक है। वास्तव में वे लोग राक्षश थे,ये राक्षशी गुंण आज भी बने हुये हैं। इन लोगों के कारण ही विश्व दो भागों में बंटा है। कुछ लोग तो आक्रामक हैं और दूसरों को कष्ट देते हैं।परन्तु दूसरे वे लोग भी हैं जो सूझ -बूझ वाले हैं उनके द्वारा अच्छी संस्थायें स्थापित की गईं हैं लेकिन लक्ष्य प्राप्ति में वे अधिक सफल नहीं हो पाये हैं,क्योंकि उनके उच्च पदों के लोग ही पूरा नियंत्रित कर रहे हैं। जबकि वे स्वयं को नियंत्रित नहीं कर पाते हैं उनके आचरण ने इस चक्र के सारे कार्य विगाड दिया है।

 
24- विश्व शॉति के लिए आध्यात्म को गतिशील होना होगा-
        आज पूरे विश्व में अशॉति का माहौल बना हुआ है सर्वत्र युद्ध चल रहे हैं। मार-काट और विनाश की स्थिति बनी हुई है। यह क्यों ?लगता है आध्यात्मिक लोग अत्यन्त मौन हो गये हैं, और वे स्वयं अपने आध्यात्मिक जीवन का भरपूर आंनंद ले रहे हैं।विश्व में आध्यात्मिक लोगों की कमी नहीं है। बस उन्हैं गतिशील होना होगा,विश्व शॉति के लिए कुछ न कुछ करना होगा।हम अपनी आध्यात्मिक उन्नति से सन्तुष्ट हैं,हमें यह देखना होगा कि हमने अन्य लोगों की आध्यात्मिक उन्नत्ति में कितना योगदान दिया।और वे कहॉ तक पहुंचे हैं। क्या हम उन्हैं परिवर्तित कर सकते हैं? आपने क्या किया ? आज विश्व में सबसे बडी विपत्ति यही है कि जो लोग आध्यात्मिक हैं,जिन्होंने कि महान बुलंदियॉ प्राप्त कर ली हैं, उन्हैं तनिक भी चिन्ता नहीं है कि क्या किया जानाचाहिए।अपनी आध्यात्मिकता का आनंद लेने के लिए वे पूजाओं में जाते हैं, अधिक से अधिक आध्यात्मिकता प्राप्त करते हैं, परन्तु अन्य लोगों को परिवर्तित करने के लिए उन्होंने कोई सामूहिक कार्य नहीं किया। अपना अन्तर्वलोकन करके देखें और अधिक से अधिक लोगों को सहज योग में लाने का प्रयास करें।
 




Thursday, August 9, 2012

तत्व ज्ञान के तथ्य

1-संस्कार – 
        पूर्वजन्मों की प्रतिक्रिया जो पुनः उदय की सम्भावना के रूप में होती है,संस्कार कहते हैं।ये तीन तरह के दिखते हैं-एक तो जन्मजात होते हैं- पूर्वजन्मों के संस्कार जो वसीयत में मिल जाते हैं। दूसरा अर्जित संस्कार-इस जन्म में प्रत्यक्ष कर्मों द्वारा अर्जित होने वाले। तीसरा-आरोपित संस्कार समाज, वातावरण, समुदाय, शिक्षा, शास्त्र या राष्ट के परिवेश द्वारा जो व्यक्ति पर आरोपित या थोपे गये होते हैं। इन संस्कारों में परिवर्तन हो सकता है। हमारे शास्त्रों में इनसे मुक्ति के लिए निर्विकल्प समाधि आवश्यक है,जिसमें इस चित्त पर उन संस्कारों को नष्ट करने की प्रक्रिया अपनाई जाती है। अगर स्वयं में बुरे संस्कारों को नष्ट करने के लिए यदि उपाय अपनाना हो तो निर्विकल्प समाधि को अपनाकर प्रयास कर लेना चाहिए। 

 2-मन और मस्तिष्क- 
        अगर देखें तो मन सूक्ष्म है,मस्तिष्क स्थूल है। मन तो पंच घटकों से भी सूक्ष्म है, मस्तिष्क तो इनका संयोजन है। मन मस्तिष्क पर नियंत्रण रखता है,जबकि मस्तिष्क इन्द्रियों पर नियंत्रण रखता है। मन से मस्तिष्क का संचालन होता है,जबकि मस्तिष्क उसका यंत्र है। मन सचेतकर्ता होता है, मस्तिष्क तो एक विषय है। फिर यदि आगे देखें तो मृत्यु के बाद मन नष्ट नहीं होता है,जबकि मस्तिष्क नष्ट हो जाता है। 

 3-शरीर क्या है- 
        शरीर के निर्माण के सम्बन्ध में गूढ चिंतन के तथ्य है। अगर हम आध्यात्म के रूप में देखें तो हमारे वैदों में इस शरीर की रचना के सम्बन्ध में यह बताया गया है कि-यह शरीर चौबीस मुख्य घटकों से बना होता है। मूल प्रकृति,बुद्धि,अहंकार और पॉच तन्मात्राएं ये आठ प्रकार की तो प्रकृति है तथा पॉच महॉभूत,पॉच ज्ञानेद्रियॉ, पॉच कर्मेंद्रियॉ और सोलहवॉ मन। इनमें पच्चीसवॉ तत्व आत्मा अर्थात पुरुष है।अगर इस शरीर के तीन प्रकार हैं- स्थूल, सूक्ष्म तथा कारण शरीर। स्थूल शरीर के मुख्य घटकों में-पॉच भूत गिनाये गये हैं(पृथ्वी,जल,अग्नि,वायुआकाश)मन और मन तथा आत्मा इसके मुख्य घटक वताये गये हैं। सूक्ष्म शरीर पॉच भूतों का एक समुदाय है-जिसमें पॉच ज्ञानेद्रियॉ,पॉच कर्मेंद्रियॉ,पॉच प्रॉण,मन और बुद्धि इस सत्रह कलाओं का समुदाय है। कारण शरीर-इसमें स्थूल और सूक्ष्म शरीर का कारण (बीज रूप) है यही बीज विकसित होकर सूक्ष्म और स्थूल शरीर की रचना करता है। 

 4-इन्द्रियॉ क्या हैं- 
        इन्द्रियॉ मन का वाहन कहलाती हैं.इन्द्रियों के माध्ययम से ही मन कार्य करता है,तनमात्राओं को ग्रहण कर अपने को अभिव्यक्त भी करता है।इन इन्द्रियों का वास्तविक स्थान मन ही है, इन्द्रियॉ तो केवल द्वार हैं। ये इनद्रियॉ दस हैं-पॉच ज्ञानेद्रियॉ और पॉच कर्मेंद्रियॉ। ज्ञानेन्द्रियों में- कान,त्वचा,नेत्र,जिह्वा और नासिका । इन ज्ञानेनद्रियों का कार्य है- इस सृष्ठि की रचना के जो पॉच भूत- आकाश,वायु,अग्नि,जल और पृथ्वी जिनके कि पॉच गुंण है- शव्द,स्पर्श,रूप,रस,और गन्ध। तो इन्हीं गुणों के ज्ञान के लिए इन ज्ञानेंद्रियों का विकास हुआ है। जैसे शव्द ज्ञान के लिए कान,स्पर्श ज्ञान के लिए त्वचा,रूप ज्ञान के लिए नेत्र,रस के ज्ञान के लिए जिह्वा, तथा गन्ध के ज्ञान के लिए नासिका का विकास हुआ है। इनके विना तो सृष्टि का ज्ञान असम्भव है। इसी प्रकार कर्मेंन्द्रियों के कार्य को देखें तो- कर्मेंद्रियॉ पॉच है-वाक,हस्त,पॉव,गुदा और उपस्थ अर्थात लिंग। रजोगुणी शक्ति से इनका विकास होता है।और इन्हीं के माध्यम से मन सभी प्रकार के कर्म करता है।ज्ञानेद्रियों द्वारा जो ज्ञान प्राप्त होता है,उसे ये क्रियान्वित करते हैं। जैसे बोलने का कार्य वॉणी करती है,ग्रहण करने का कार्य हाथ करते हैं,चलने का कार्य पॉव करते हैं,मल विसर्जन का कार्य गुदा करती है। और आनन्द की अनुभूति भी इसी से होती है। 

 5-वृत्तियॉ क्या हैं- 
        हमारे चित्त में कुछ स्थाई भाव होते हैं,जिन्हैं वृत्तियॉ कहा जाता है। और इनका सम्बन्ध संस्कारों से होता है,जिनका कि बीज मन होता है,लेकिन इनका प्रकाश उपकेन्द्रों में होता है। ये वृत्तियॉ पचास बताई गई हैं-मूलाधार चक्र में-4 स्वाधिष्ठान चक्र में-6 मणिपुर चक्र में-10 अनाहत चक्र में-14 विशुद्धि चक्र में-16 तथा आज्ञा चक्र में-2 वृत्तियॉ होती हैं,जिन्हैं कि योग शास्त्र में कमलदल कहा जाता है।परा और अपरा वृत्तियॉ आज्ञा चक्र में रहती हैं। 

 6-शरीर के कोष- 
        इस शरीर में पॉच कोष बताये गये हैं,यह शरीर पॉच कोषों से बना है।अन्नमय,प्रॉणमय, मनोमय, विज्ञानमय,और आनन्दमय। इन कोषों के अलग-अलग कार्य हैं और ये सभी कोष मिलकर शरीर की गतिविधियों का संचालन करते हैं। यह मन में एक व्यष्टि परत है। अगर इनके कार्य को देखें तो-अन्नमय कोष एक स्थूल शरीर है जो अन्न के रसों से उत्पन्न होकर उसी अन्न से बढता है और उसी में समाप्त हो जाता है। दूसरा प्रॉणमय कोष-इसकी शक्ति से शरीर का संचालन होता है।यह पॉच कर्मेंद्रियों का संचालन करता है।यह प्रॉणशक्ति ही क्रियाशक्ति है।तीसरा-मनोमय कोष-जो सोचने,विचारने,चिंतन करने, योजना वनाने तथा निर्मॉण करने का कर्य करता है।यह पॉच ज्ञानेन्द्रियों का भी संचालन करता है जिनसे कि हमें विषयों का ज्ञान होता है।ज्ञानशक्ति का विकास भी होता है।यह मन भी आत्मा का एक उपकरण है जो आत्मशक्ति से कार्य करता है। चौथा-विज्ञानमय कोष-जो कि बुद्धि का कोष है।सही व गलत,उचित और अनुचित, का निर्मॉण करता है। और पॉचवॉ-आनन्दमय कोष-इस कोष के कारण मनुष्य को सुख और आनन्द की अनुभूति होती है।यह अति सूक्ष्म है और आत्मा के सबसे निकट है,जो प्रकृत्ति तत्वों से निर्मित है। यह तो प्रिय,मोद,प्रमोद वृत्ति वाला है। अगर देखें तो अन्नमय कोष को आसन और आहार से सबल बनाया जा सकता है।प्राणॉयाम से प्रॉणकोष सबल बनता है।प्रत्याहार से मनोमय और धारणॉ से विज्ञानमय, ध्यान से आनन्दमय कोष सबल बनाया जा सकता है। 

 7- चेतनाशक्ति-
        अगर देखें तो चेतनशक्ति की चार अवस्थाएं हैं-जाग्रत,स्वप्न,सुषुप्ति,एवं तुरीय। इनमें जाग्रत अवस्था-जब स्थूल इन्द्रियॉ स्थूल विषयों का ज्ञान करती हैं तो इसे चेरन अवस्था कहते हैं।इस संसार का अनुभव इसी अवस्था में होता है। स्वप्नावस्था-जाग्रत अवस्था में जो कुछ देखा और सुना गया है ुसकी सूक्ष्म वासना से निद्राकाल में जो जगत दिखाई देता है,वही स्वपअनावस्था है।इसमें मन सक्रिय रहकर विभिन्न विषयों का अनुभव मात्र है। सुषुप्ति अवस्था –गहन निद्रा में जो सुख की अनुभूति होती है वही सुषुप्तावस्था है।इसमें जाग्रत अवस्था में ज्ञान इन्द्रियों के माध्यम से होता है। स्वप्नावस्था में यह ज्ञान मन से उसकी वासना वासनानुसार होता है जबकि सुषुप्तावस्था में मन भी सुप्त हो जाता है। जिसमें चेतन का ही अनुभव होता है। इसमें चेतना को अपने कारण शरीर का अभिमान रहता है।इसमें ज्ञान का कारण स्वयं आत्मा होती है। 

 8-तुरीय अवस्था क्या है-
        यह ध्यान योग की अन्तिम अवस्था है, जिसमें कि आत्मा स्वयं प्रकाशित हो जाती है।इस अवस्था में आत्मा का ही अनुभव तथा आत्मा और ब्रह्म की एकता का बोध होता है।यही अद्वैत अवस्था कहलाती है। द्वैत भाव से अहंकार दिखता है जिसमें हम स्वयं को ईश्वर से भिन्न समझते हैं। और जब यह अहंकार गिर जाता है, तब अद्वैत की स्थिति बनती है। तो तुरीय स्थिति यही अद्वैत अवस्था होती है।  

9-ईश्वर के दर्शन-
        ईश्वर के दर्शन तो सविकल्प समाधि में होता है, निर्विकल्प समाधि में तो उसका रूप ही विलीन हो जाता है।अर्जुन को सविकल्प समाधि में ही विराट रूप का दर्शन हुआ था। अर्थात ईश्वर को क्रिया योग से प्राप्त किया जा सकता है।यह क्रिया योग पुरुषार्थ से सिद्ध होता है,लेकिन ब्रह्म की अनुभूति कर्म से नहीं अकर्म से होती है।ईश्वर का कार्य –माया रूप होने से अपने रजोगुंण रूप से जन्म देता है, जिसे-ब्रह्मां कहा जाता है। लेकिन तत्व रूप में वह पालन कर्ता है, जिसे विष्णु कहते हैं, और तमःप्रधान रूप में वह प्रलयकर्ता है,जिसे मगेश कहा जाता है। इसलिए ईश्वर जगत् की उत्पत्ति,स्थिति तथा प्रलय का कारण है। लेकिन कार्य तो प्रकृति का ही है। 

 10-जन्म-मृत्यु के तथ्य-
        हमारे धर्म शास्त्रों के अनुसार मनुष्य को कोई भी ज्ञान और अनुभव प्राप्त होता है तो वह नष्ट नहीं होता है,बल्कि संस्कार के रूप में चित्त में विद्यमान रहता है,जो कि अगले नये जन्म में प्रेरणॉ का कार्य करता है। किसी व्यक्ति की किसी विशेष कार्य में रुचि इन्हीं संस्कारों के कारण होती है। जब हमारे सामने यह प्रश्न आता है कि क्या मनुष्य हर बार नए रूप में जन्म ले्ता है ? इस सम्बन्ध में हमारे शास्त्र कहते हैं कि वह पुराने रूप का नयॉ संस्करण है,जो अपने पूर्व जन्मों की सभी इच्छाओं, वासनाओं, आशाओं, आकॉक्षाओं आदि को लेकर जन्म लेता है,केवल शरीर नयॉ होता है। और यदि प्रश्न उठता है कि क्या मृत्यु पर विजय पाना सम्भव है? तो यही उल्लेख है कि-मृत्यु केवल शरीर की होती है,चेतन आत्मा की नहीं। जो निर्मित है वह नष्ट तो होगा ही इसलिए शरीर की कोई मृत्यु नहीं होती। वह तो फिर निर्मित हो जायेगा। जब प्रश्न होता है कि-मृत्यु के बाद क्या होता है? तो उत्तर होगा-मृत्यु के बाद भौतिक शरीर तो नष्ट हो जाता है,लेकिन मन अपने संस्कारों के साथ जीवित रहकर विस्तृत आकाश में विद्यमान रहता है और उपयुक्त नईं देह की प्रतीक्षा करता है।लेकिन आध्यात्मिक मृत्यु में संस्कार शेष नहीं रहते, इसलिए वह समष्टि मन में समाहित हो जाता है।मन की रजोगुणी शक्ति ही उसे नईं देह धारण करने को बाध्य करती है। 

 11-सच्चिदानन्द क्या है?-
        सद्, चित, आनन्द। ईश्वर सत् है, जो सदा से है, वह सदा रहेगा। उसका रूप परिवर्तन नहीं होता। सदा एक ही रूप में रहता है।साथ ही वह चैतन्यस्वरूप और आनंदस्वरूप भी है । इसलिए उसे सच्चिदानन्द कहा गया है। यदि सच्चिदानन्द सत् है तो फिर असत् क्या है? यह सम्पूर्ण प्रकृति असत् है जिसका कि रूप निरन्तर परिवर्तन होता रहता है। यह सम्पूर्ण जगत प्रकृति निर्मित होने के कारण असत् ही है।शंकराचार्य ने इस जगत को मिथ्या कहा है-इसलिए कि यह है तो असत्, लेकिन सत् जैसा भासित होता है। इसलिए इसे मिथ्या कहा गया है। अज्ञानता के काऱण हम असत् को सत् मान लेते हैं। हम उस समय ईश्वरीय चेतना का अनुभव करते हैं जब हम मौन स्थिति में होते हैं।मन का चिन्तन समाप्त होने पर ईश्वर का अनुभव होता है. 

 12-प्रॉणशक्ति का संचय-
        पंच घटकों पर दबाव पडने से अन्तर्गामी और बहिर्गामी शक्तियॉ प्रकट होती है।इन्हीं शक्तियों को प्राण कहते हैं। अन्तर्गामी शक्ति से प्रॉण का सृजन होता है और बहिर्गामी शक्ति के प्रबल होने पर जड-स्फोट होता है जिसमें पदार्थ छिन्न-भिन्न होकर अपने से सम्बन्धित घटकों में लीन हो जाता है,यह स्फोट तत्कालिक और क्रमिक होता है। 

 13-प्रलय की संकल्पना-
        किसी विशेष ग्रह या उपग्रह में यह हो सकता है।जड स्फोट से किस,भी ग्रह उपग्रह का ताप किसी अन्य ग्रह या उपग्रह या जीवन्त वस्तु में संचालित हो सकता है।यदि सूर्य का ताप नष्ट हो जाय तो उस सौरमण्डल में प्रलय सम्भव है।चूकि हर पिंड में ऊर्जा की मात्रा भिन्न होती है जिनका क्षरण भिन्न-भिन्न अवधि में होता है,और एक के क्षरण से दूसरे को ऊर्जा मिलती है,इसलिए निर्मॉण और विध्वंश की क्रिया निरन्तर जारी रहती है,लेकिन एक साथ सम्पूर्ण ब्रह्मॉड में प्रलय सम्भव नहीं है। 

 14- प्रॉण वायु-
        प्रॉणवायु दो प्रकार की होती है वाह्य और आंतरिक। वाह्य प्रॉण वायु को पॉच भागों में बॉटा गया है-नाग,कूर्म,कृंकर,देवदत्त,और धनंजय। 1-नाग वायु का कार्य विस्तार करना है।2- कूर्म वायु का कार्य-संकोच करना।3- कृंकर वायु का कार्य जम्हाई लेना।4- देवदत्त वायु का कार्य भूख और प्यास लगाना।5-और धनंजय वायु का कार्य है-निद्रा लाना और ऊंघना। आन्तरिक प्रॉण वायु पॉच प्रकार की मानी गई है उदान, प्रॉण,समान,अपान,और व्यान।-1-उदान वायु कण्ठ में,जिसका कार्य वॉणीं है।2-प्राण वायु कण्ठ व नाभि के मध्य में,कार्य स्वॉस लेना व छोडना है। 3-अपान वायु-नाभि केन्द्र में जिसका कार्य मलमूत्र विसर्जन करना।4-समान वायु-नाभि केन्द्र में,जिसका कार्य प्रॉण और अपान के मध्य सन्तुलन रखना है।5-व्यानु वायु-सम्पूर्ण देह में व्याप्त,जिसका कार्य रक्त संचालन करना है।

ज्ञान ही ज्ञान को जगाता है

1- अन्धकार में हम कहॉ से कहॉ पहुंच जाते हैं-

        मानसिक पापों का परित्याग करें, मन में जमी हुई यह वासना ही हमसे दुष्कर्म कराती है। पाप का प्रधान कारण आत्मज्ञान का अभाव है।हम प्रायः मोह और आलस्य की निद्रा में पडे रहते हैं।आलस्य में रहकर हमें सुख मिलता दिखाई देता है,लेकिन उसका फल हमेशा दुःख होता है।हमें अपनी कमजोरियों का ज्ञान नहीं होता है।जो आदमी गलती करता है उसे यह ज्ञात नहीं होता है कि वह गलत राह पर है,अन्धकार ही अन्धकार में वह कहॉ से कहॉ पहुंच जाता है।अन्त में किसी भावशिला पर टकराकर उसे अपनी गलती का आभास होता है,उसके ज्ञान चक्षु एकाएक खुल जाते हैं बस वहीं से वास्तविक आत्मिक उन्नति का सुप्रभात प्रारम्भ होता है।। 

 2-ज्ञान के नेत्र हमें दुर्वलता से परिचित कराते हैं-
        ज्ञान के नेत्र तो हमें अपनी दुर्वलता से परिचित कराने आते हैं,जब ज्ञान के नेत्र खुलते हैं तो हमें को अपनी दुर्वलता के दर्शन होते हैं। जब तक इन इन्द्रियों से सुख दिखता है,तबतक आंखों पर परदा पडा हुआ मानना चाहिए।और जो अपनी दुर्वलता से परिचित हो जाता है,उसके लिए वह अपना सच्चा पश्चाताप कर उसे दूर करने की इच्छा और सतत् उद्योग प्रारम्भ कर देता है, उसकी उन्नति का आधा काम तो बन गया मानना चाहिए।दुर्वलता तो पाप का मूल है,इसका कारण अज्ञानता है। 

 3-ज्ञान के नेत्र-
         भक्त मीराबाई के ज्ञान के नेत्र इतनी जल्दी खुल गये थे कि उन्हैं अपने विवाह तथा दाम्पात्य जीवन के प्रति कुछ भी मोह नहीं हुआ।उनके सम्मुख नाना प्रकार के प्रलोभन और भयंकर यातनायें आयीं,किन्तु वे सभी को ज्ञान के नेत्रों से से निरखती रही। सॉसारिकता के असत्य व्यवहार को त्यागकर उन्होंने भक्ति का वह मार्ग अपनाया जो मुक्ति देने वाला था। उन्हैं ज्ञान के नेत्रों से यह दिखाई दिया कि कुविचार और कुकर्म ही दुख और अतृप्त का मूल है। 

 4-तिरस्कार से ज्ञान के नेत्र खुल गये -
        गोस्वामी तुलसीदास अपनी पत्नी से अत्यधिक प्रेम करते थे वासना और इन्द्रियों के मायाजाल ने उन्हैं बॉध रखा था,जितना ही वे इन्द्रिय सुख के मार्ग पर बढते गये,उतना ही उन्हैं उसकी आवश्यकता अधिकाधिक प्रतीत होती गई ।एक दिन नारी के ज्ञान ने उनके ज्ञान के नेत्र खोल दिये।उसकी पत्नी ने कहा -मेरे इस हाड -मॉस के नश्वर शरीर के प्रति जो मोह आपको है,यदि वही कहीं ईश्वर के प्रति होता तो आपकी मुक्ति हो जाती ।तुलसीदास जी इन कथनों को सोचते रहे ।चिंतन करते रहे।वे अंत में इस परिणाम पर पहुचे कि वास्तव में नारी का कथन सत्य है।आसक्ति से बढकर इस संसार में कोई दूसरा दुःख नहीं है।इन्द्रियों के विषयों में फंसे रहने से मनुष्य दुखी रहता है ।उनके ज्ञान के नेत्र खुल गये और अब दूसरा ही दृश्य था ।उन्होंने देखा कि वासना मनुष्य को पागल बना रही है।संसार भोगों की ओर तीव्रता से दौड रहा है।मनुष्य तो मन से ही संसार से बंधता है । 

5 -आंखें खोलकर देखो सबमें अपनी ही छवि है-
        सचमुच आंखें खोलकर देखोगे तो समस्त छवियों में तुम्हें अपनी ही छवि दिखाई देगी और यदि कान खोलकर सुनोगे तो समस्त ध्वनियों में तुम्हें अपनी ही ध्वनि सुनाई देगी।केवल एक वार यह हुआ जब मैं निर्वाक हो गया। वह तब जब एक व्यक्ति ने मुझसे पूछा कि तुम कौन हो।  

6-ज्ञान वह है जो वर्तमान को ठीक ढंग से पढ-समझ सकें-
        ज्ञान जब इतना घमंडी बन जाय कि वह रो न सके, इतना गंभीर बन जाये कि हंस न सके और इतना आत्मकेन्द्रित बन जाए कि अपने सिवाय और किसी की चिन्ता न करे वह ज्ञान अज्ञान से भी ज्यादा खतरनाक होता है। इस ज्ञान की प्राप्ति करने की अपेक्षा अज्ञानता में विचरना श्रेयस्कर है।जो ज्ञान मन को शुद्ध करता है,वही ज्ञान है शेष सब अज्ञान है।ज्ञानी तो वह है जो वर्तमान को ठीक पढ सके और परिस्थिति के अनुसार चल सके।

 7-श्रेष्ठ पुरुषों का धन उसका मान है-
        जो लोग निम्न श्रेणी के होते हैं वे तो सिर्फ धन की कामना करते हैं,मध्यम श्रेणी के मनुष्य धन और मान दोनों की कामना करते हैं।लेकिन श्रेष्ठ पुरुष तो केवल मान की ही कामना करते हैं।मान ही श्रेष्ठ पुरुषों का धन है । 

 8-दुर्जन का विश्वास न करें-
        दुर्जन मीठा बोलें तब भी उस पर विश्वास न करें क्योंकि उसकी जबान पर शहद रहता है मगर दिल में जहर।इन दुर्जनों को अगर अच्छी शिक्षा भी दी जाय,तब भी वह साधु नहीं बन सकते है,ठीक उसी प्रकार जैसे नीम के पेड को यदि घी और दूध से सींचा जाय तब भी वह मधुर नहीं होता।ये दुर्जन अगर सौ बार भी तीर्थ स्नान भी करें फिर भी वे शुद्ध नही होते । 

 9-आध्यात्मिकता-
        यदि हम धर्म या सम्प्रदाय के झगडे की बात करते हैं तो यही प्रकट होता है कि यह आध्यात्मिकता नहीं है।धार्मिक बातें तो हमेशा धोखली बातों के लिए होती हैं। अगर पवित्रता न हो तो आध्यात्मिकता नष्ट हो जाती है। फलस्वरूप आत्मा नीरस हो जाती है, जिससे झगडे शुरू होने लगते हैं। सिद्धान्त,मत,सम्प्रदाय,चर्च,मन्दिर ये तो आध्यात्मिकता की तुलना में नगण्य हैं, इनकी तो आध्यात्मिकता से तुलना नहीं करनी चाहिए,जिस मनुष्य में आध्यात्मिकता जितनी अधिक उन्नत होगी, वह व्यक्ति अच्छाई की दृष्टि से उतना ही उधिक ऊंचा होगा। इसलिए सबसे पहले आध्यात्मिकता अर्जित करना होगा।इसे न भूलें ।धर्म का अर्थ शव्दों,नामों,सम्प्रदायों से नहीं, बल्कि यह एक आध्यात्मिक अनुभूति है। 

 10-आत्मविश्वास-
          आत्मविश्वास एक ऐसा आदर्श है जो कि हमारी सबसे अधिक सहायता कर सकता है। इस जगत में अगर देखें तो जितने भी दुःख और अशुभ हैं,आत्मविश्वास से अधिकॉश गायब हो सकते हैं। मानव जाति के इतिहास में देखें तो कोई भी महॉन प्रेरणॉ अगर सशक्त रही है तो वह आत्मविश्वास ही है। यह इस ज्ञान के साथ पैदा हुआ कि वे महॉन बनेंगे। फलस्वरूप वे महान भी बने। हमारे पूर्वजों में इसी दृढ आत्मविश्वास के कारण, वे सभ्यता की उच्च सीढी तक पहुंचे,लेकिन जिसदिन से हमारे पूर्वजों ने अपना आत्मविश्वास गंवाया, (आत्मविश्वास गवाने का मतलव ईश्वर में अविश्वास)तो उसी दिन से अवन्नति शुरू हो गई। इसलिए उठो! जागो तथा लक्ष्य प्राप्ति होने तक रुको मत।। 

 11-आत्मा के जीवन में ही आनन्द है-
        अगर आत्मा के जीवन में मुझे आनन्द नहीं मिलता है तो,क्या इन्द्रियों के जीवन में मै आनन्द पा सकूंगा? कभी नहीं !यदि मुझे अमृत नहीं मिलता है तो में गढ्ढे के पानी से प्यास बुझाऊं? सुख आदमी के सामने दुख का मुकुट पहनकर आता है,और जो उसका सामना करता है, उसे फिर दुख का भी सामना करना चाहिए !सुख और दुख तो दोनों एक दूसरे के पूरक हैं।। 

 12-ज्ञान कॉण्ड-
        अगर ज्ञानकाण्ड के बारे में जानने की कोशिश करते हैं तो,ज्ञान ही हमें मुक्ति दे सकता है।मुक्ति हेतु पात्रता के लिए ज्ञानी होना चाहिए।स्वयं अपने को जानना पहला लक्ष्य है। जितना अच्छा दर्पण होता है,वह उतनी ही अच्छी प्रतिछाया प्रदान करता है। और मनुष्य सर्वोत्तम दर्पण है। वह जितना निर्मल होगा,उतनी ही स्वच्छता से ईश्वर को प्रतिबिम्बित कर सकेगा। मनुष्य तो देह से अपने को अभिन्न मानने की भूल करता है,और यह भूल माया से होती है। लेकिन जब मनुष्य पर्याप्त ठोकरें खा चुका होता है, तब वह मुक्ति प्राप्ति की इच्छा के प्रति जागृत होता है,और पार्थिव अस्तित्व से चक्र से बचने के साधनों को खोजता है यही खोज ज्ञान है। इससे वह जान लेता है कि वस्तुतः क्या है. फिर मुक्ति की प्राप्ति होती है। उसके बाद वह इस संसार को एक विशाल यंत्र के रूप में देखता है। उसके चक्रों के प्रति सावधानी रखता है। जिसमें कि वह मुक्त रहता है।मुक्त प्राणी को तो कौन शक्ति विवश कर सकती है ?वह हमेशा शुभ करता है,क्योंकि यह उसका स्वभाव बन चुका है। यह मुक्ति तो उसी के लिए है जो अपने अहं से ऊंचा उठ चुका होता है, यह ज्ञान से ही सम्भव है। 

 13-सत्य वह है जो शक्ति दे-
        जो कुछ भी हमें मानसिक,दैहिक और आध्यात्मिक दृष्टि से दुर्वल बनाये, उसे जहर के समान त्याग देना चाहिए,उसमें कभी सत्य नहीं हो सकता। सत्य तो शक्तिप्रद है,उसमें पवित्रता है,वह ज्ञान स्वरूप है। सत्य तो वह है जो शक्ति दे, अन्दर के अंधेरे को दूर कर दे,ह्दय में स्फूर्ति भर दे।कोई भी उपदेश जो दुर्वलता की शिक्षा देता है,आपत्तिजनक है। जो भी आध्यात्मिक शिक्षा पाते हैं,उन्हैं यह अनुभव करना चाहिए कि- क्या उन्हैं इससे बल मिलता है,क्योंकि एकमात्र सत्य ही सबल करता है।एकमात्र सत्य ही प्रॉणप्रद है। बिना सत्य के हम अन्य किसी उपाय से शक्तिमान नहीं बन सकते हैं।इसलिए जो भी शिक्षा-प्रणाली मन तथा मस्तिष्क को दुर्वल करे, और मनुष्य को अन्धविश्वास से भरे,जिससे वह अन्धकार में टटोलता रहे, अन्धविश्वासपूर्ण बातों की खाक छानता रहे,वह प्रणॉली उपयुक्त नहीं है,निरर्थक है।इनसे उपकार नहीं हो सकता है। 

 14-रुचि के अनुरूप शिक्षा-
        हम देखते हैं कि मनुष्य का स्वभाव जन्म से भिन्न-भिन्न होता है, और यह स्वभाव उसके साथ हमेशा बना रहेगा। इसलिए मनुष्य को अपनी प्रकृत्ति का अनुशरण करना चाहिए। यदि मनुष्य को ऐसे गुरु मिल जॉय जो उसको उसी के भावों के अनुरूप मार्ग पर अग्रसर करने में सहायक हो तो फिर वह शिष्य उन्नति की ओर बढता है। इसी प्रकार आवश्यकता के अनुरूप उपदेशों में भी विविधता होनी चाहिए। और शिष्य की प्रवृत्ति के अनुसार उसे उपदेश भी दिया जाना चाहिए। ज्ञान की शिक्षा देने के लिए ज्ञानी होना पडेगा,और शिष्य की अवस्था के अनुरूप मन ही मन ठीक वहीं पहुंचना होगा। और दे्खना होगा कि-जैसे पौधे के लिए जल, मिट्टी, वायु आदि पदार्थों को जुटा देने पर,पौधा अपनी प्रकृति के नियमानुसार स्वयं ही आवश्यक पदार्थों को ग्रहण कर लेता है और विकसित होता जाता है,उसी प्रकार दूसरों की उन्नति के साधन एकत्र करके उनका हित करना चाहिए। अगर आप दूसरों की बातों से कुछ शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं,तो समक्झ लो कि पूर्वजन्म में तुम्हैं उस विषय की अनुभूति हुई थी, क्योंकि अनुभूति ही हमारा एकमात्र शिक्षक है। 

 15-विचारों में अद्भुत शक्ति पैदा करना सीखो-
        विचारों की शक्ति को कुछ ही लोग समझ पाते हैं।यदि कोई व्यक्ति किसी गुफा में जाकर,बन्द होकर उस निर्जन स्थान में एकाग्रचित्त किसी विषय पर गहन चिन्तन मनन करता है,और उसी का आजन्म मनन करता हुआ अपने शरीर को भी त्याग देता है,तो उसके विचार की तरंगें गुफा की दीवारों को भेदकर चारों ओर के परिवेश में फैल जाती है। और अन्त में वे तरंगें सारी मनुष्य जाति में प्रवेश कर जाती हैं।अर्थात विचारों में एक अद्भुत शक्ति होती है,इसलिए अपने विचारों को दूसरों में प्रचार करने के लिए जल्दवाजी नहीं करनी चाहिए। हमारे पास कुछ होना चाहिए जिसे हम दूसरों को दे सके। दूसरे मनुष्य में ज्ञान का प्रसार तो केवल वही कर सकता है,जिसके पास देने के लिए कुछ हो। क्योंकि शिक्षा देना केवल व्याख्यान देना नहीं है,इसका अर्थ है सम्प्रेषण -आदान-प्रदान। इसलिए सबसे पहले अपना चरित्र गठन करें। स्वयं में सत्य का ज्ञान होना चाहिए। फिर तुम औरों को सिखा सकते हो। कमल खिलता है तो मधुमक्खियॉ स्वयं ही उसके पास मधु लेने जाती हैं। तुम्हारे पास जब कमल रूपी कमल खिल जायेगा, तो सेकडों लोग तुम्हारे पास शिक्षा लेने आयेंगे। यही तो जीवन की महॉन शिक्षा है। 

 16-ज्ञान ही ज्ञान को जगाता है-
        अगर देखें तो हमारे भीतर सारा ज्ञान निहित है,लेकिन उसे दूसरे ज्ञान से जगाना होता है। भले ही जानने की शक्ति हमारे भीतर विद्यमान है।एक ज्ञान की शक्ति से दूसरे ज्ञान का विकास होता है। हमारे अन्दर जो ज्ञान है,उसे जगाने के लिए ज्ञानी पुरुषों का हमारे साथ रहना आवश्यक है,इसीलिए तो गुरुओं की आवश्यकता होती है।यह संसार कभी भी आचार्यों से रहित नहीं हुआ है।दार्शनिकों का भी यही कथन है कि, सारा ज्ञान मनुष्य के भीतर विद्यमान है,उसपर ज्ञान के विकास के लिए कुछ अनुकूल परिस्थितियों की आवश्यकता होती है। गुरु के विना हम कोई ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकते हैं । 

 17-जैसा विचार वैसा लाभ-
        इसमें संदेह नहीं कि जैसा विचार करोगे वैसा ही बनोगे।यदि आप अपने को दीन-हीन या अयोग्य समझते हो तो फिर आप कुछ भी नहीं कर सकते है।और यदि आप कहते हैं कि मेरे अन्दर शक्ति है,मैं सबकुछ कर सकता हूं तो आपके अन्दर शक्ति जाग उठेगी,और फिर आप सबकुछ करने में समर्थ हो जायेंगे। आपको सदैव स्मरण रखना चाहिए कि हम सब उस परम पिता की संतानें हैंउसी अनंत ब्रह्मां की चिंगारियॉ हैं,इसलिए हम कुछ भी नहीं कैसे हो सकता है। हम सबकुछ कर सकते हैं। 

 18-शिक्षा कैसी हो-
        प्राचीन काल से शिक्षा के सम्बन्ध में अलग-अलग प्रकार के मत सामने आये हैं, लेकिन महत्वपूर्ण तथ्य तो यह है कि शिक्षा ऐसी हो जिससे जीवन की समस्या का हल हो सके। होता क्या है कि हम दूसरों की बातों को रटकर,मस्तिष्क में भरकर परीक्षा पास करके कहते हैं कि हम शिक्षित हो गये! इसी को हम शिक्षा कहते हैं। हमारी शिक्षा का उद्देश्य है एक क्लर्क बनना,वकील बनना, और अधिक हुआ तो डिप्टी मजिस्टेट की नौकरी! अच्छी बात है। लेकिन इससे तुम्हैं और देश को क्या लाभ हुआ? एक बार हमें आंख खोलकर देखना होगा-कि सोना पैदा करने वाली इस भारत भूमि में आज अनाज के लिए हाहाकार मचा हुआ है। क्या इस शिक्षा से उस अनाज की पूर्ति हो सकेगी कभी नहीं। शिक्षा तो वह है जो हमें उस अनाज को पैदा करने काढंग सिखाये, आधुनिक तकनीको से उत्पादन करना सिखाये, जो हमारे लिए महत्वपूर्ण है,जो हमारी और देश की पहली मॉग है। भागवत की कथा सुनाने कार्य तो उसके बाद है। 

 19-फूल की तरह सदा खिले रहें-
        अपने कर्म इस प्रकार करेंवकि जैसे आपको सौ वर्ष जीवित रहना हो, शुक्रिया इस प्रकार अदा करें कि कि जैसे आप कल मर जायेंगे ।रहस्य के प्रकट हो जाने पर दुखी मत होओ,बल्कि फूल की तरह सदा खिले रहो । इस बहुरूपी संसार में पद और प्रतिष्ठा,मान और मर्यादा सभी कुछ नष्ट होने वाले है।   \

20-धर्म के सम्बन्ध में विवाद न करें-
        धर्म को लेकर कभी विवाद न करें,धर्म सम्वन्धी विवाद और सारे झगडे केवल यही दर्शाते हैं कि वहॉ आध्यात्मिकता का अभाव है।धर्म ससम्बन्धी झगडे तो सदैव खोखली और अन्धविश्वास की बातों पर होते हैं।स्वयं पर विश्वास करें इस संसार में तो वही महान और शक्तिशाली बने हैं जिन्हैं अपने आप पर विश्वास था ।दर्शन के अभाव में तो धर्म केवल अंधविश्वास मात्र बनकर रह जाता है और धर्म का बहिष्कार करने पर दर्शन केवल शुष्क नास्तिकतावाद बना रहता है। 

 21-समझें कि दुनियॉ में आप विदेशी हैं-
          इस दुनायॉ में रहकर कार्य इस ढंग से करो कि कि मानो आप इस संसार में विदेशी हो,एक यात्री हों।सतत काम करो,लेकिन अपने को वन्धन में न जकडो,क्योंकि बंधन बडा भयानक है।सिद्धि चमत्कार के पीछे मत पडो।दूसरों की मुक्ति के लिए तुम्हैं नरक में भी जाना पडे तो सहर्ष जाओ, बदले में कुछ मत मॉगो,कुछ मत चाहो ,तुम्हैं जो देना हो दे दो वह तुम्हारे पास लौटकर आयेगा पर अभी उसकी बात मत सोचो । 

 22- डरो नही स्वयं को पहचानो-
        यदि तुम डरते हैं तो किससे? यदि तुम ईश्वर से डरते हैं तो तुम मूर्ख हो,यदि तुम मनुष्य से डरते हो तो तुम कायर हो।यदि तुम क्षिति,जल,पावक,गगन, समीर नामक पंच्चभूतों से डरते हो तो उनका सामना करो।यदि तुम अपने आप से डरते हो तो अपने को पहचानो और कहो कि मैं ही ब्रह्म हूं। डरें नहीं त्याग करें त्याग के सिवा इस संसार में कोई शक्ति नहीं है ।सबकुछ तुम्हारे भीतर है, अपने भीतर स्वर्ग के साम्राज्य का ताला खोलने के लिए ऊं की चाबी को काम में लाना चाहिए ।

 23-विघ्न पडने पर भी कार्य न छोडें-
        जो लोग तुच्छ प्रकृति के होते हैं वे भय के मारे कोई कार्य प्रारम्भ ही नहीं करते ,मध्यम श्रेणी के लोग कार्य को प्रारम्भ करके विघ्न पडने पर बीच में ही छोड देते हैं।किन्तु उत्तम लोग बार-बार विघ्न पडने पर भी आरम्भ किये हुये कार्य को बीच में ही नहीं छोडते हैं।बल्कि उसे पूरा करते हैं। 

 24-अपनी प्रशंसा सुनना अच्छा लगता है-
        अपनी प्रशंसा सुनकर हम इतने मतवाले हॉ जाते हैं कि हममें विवेक की शक्ति लुप्त हो जाती है।बडे से बडा महात्मा भी अपनी प्रशंसा सुनकर खुश हो जाते हैं।अगर आप देखें कि अपनी प्रशंसा से कोई यक्ति किस तरह प्रभावित होता है, तो आप उस व्यक्ति का चरित्र बता सकते हैं। 

 25-वैरागी मनुष्य सबको एक दृष्टि से देखता है-
        बैराग्य के बिना तो कोई भी व्यक्ति सम्पूर्ण रूप से अंतःकरण को परोपकार में नहीं लगा सकता ,वैरागी ही सबको समान रूप से देखता है और सबकी सेवा में अपने को लगा सकता है।मनुष्य की यह स्थिति वेदांत की शिक्षा ग्रहण करने पर प्राप्त होती है,जिसमें कि मनुष्य शोक,भय और चिन्ता से विमुक्त हो जाता है। समस्त विश्व ईश्वर से परिपूर्ण है,अपने नेत्र खोलो और उसे देखो ।सत्य के लिए तो सबकुछ त्यागा जा सकता है।

ज्ञान का सार है आचार

1-ज्ञान का सार है आचार ज्ञान का सार है आचार-


        वही ज्ञान उपयोगी होता है जो अहंकार न बढाये,जो बंधन न बने,जिससे स्व की विस्मृति न हो,जो संस्कार का शोधन करे, तथा मानसिक शॉति की ओर ले जाये। ज्ञान की उपयोगिता की चरम कसौटी है कि वह आत्मा की ओर ले जाये ,जो ज्ञान आत्मा से विमुख बनाता है उसे भारतीय मनीषा में अज्ञान कहा जैता है। ज्ञान का सार है आचार ,इसलिए वही ज्ञान उपयोगी है जो अहंकार न बढाये । 


 2- ज्ञान का दुरुपयोग विनाश और सदुपयोग विकास है-
        जिस प्रकार गंगा नदी के प्रवाह को, सुखाया नहीं जा सकता , केवल उस प्रवाह के मार्ग को बदला जा सकता है। उसी प्रकार ज्ञान के प्रवाह को सुखाया नहीं जा सकता है,उसे पर हित के लिए उपयोग में लाया जा सकता है ।ज्ञान का दुरुपयोग होना विनाश है और ज्ञान का सदुपयोग करना ही विकास है,सुख है, उन्नति है।ज्ञान के सदुपयोग के लिए तो जागृति परम आवश्यक है । 


 3- आदर्श साहित्यकार की पहचान –
        आदर्श साहित्यकार वही है जो समाज की पीडा और सुख का अनुभव कर समाज के लिए रोता और हंसता है ।वह तो एक दिया है,जो जलकर केवल दूकरों को ही प्रकास देता है।जब साहित्यकार की भावना,ज्ञान और कर्म एक साथ मिलती हैं तो युग प्रवर्तक साहित्य का निर्माण होता है। किसी देश का साहित्य वहॉ की जनता की चित्त वृत्ति का द्योतक है। साहित्य तो आनंद देता है। ज्ञानराशि के संचित कोष का नाम ही साहित्य है, जिसका निर्माण साहित्यकार द्वारा किया जाता है । 


 4-वास्तविक सौन्दर्य ह्दय की पवित्रता में है-
        योग्य मनुष्यों के आचरण का सौन्दर्य ही उसका वास्तविक सौन्दर्य है,शारीरिक सौन्दर्य उसकी सुंदरता में किसी भी प्रकार की अभिवृद्धि नहीं करता। सुन्दर और कल्याणमय  के साथ यदि हम ह्दय की समीपता बढाते रहें तो संसार सत्य और पवित्रता की ओर अग्रसर होगा।अलंकार तो भावों का आवरण है और सुन्दरता को तो अलंकारों की जरूरत है ही नहीं। 


 5- शंका जीवन का विश है-
        आदमी के लिए विश्वास ही सबकुछ है,जिसे अपने पर विश्वास नहीं, उसे भगवान पर भी विश्वास नहीं हो सकता । स्वयं को ईश्वर पर छोड देना ही विश्वास है। 


 6-आत्म साक्षात्कार का मूल्य समझें -
        आप एक सहजयोगी हैं तो आपको आत्म साक्षात्कार का मूल्य मालूम है,आप अपनी रक्षा स्वयं करते हैं। और आपकी पूरी तरह से रक्षा की जाती है,यह रक्षा आदि शक्ति करती है। लेकिन विश्व में एक विध्वंसक शक्ति भी कार्यरत है, यह आसुरी शक्ति नहीं बल्कि शिव की दिव्य विनाशात्मक शक्ति है।जब कार्य ठीक चलता है तो प्रशन्न होते हैं।परन्तु वे दूर बैठकर हर व्यक्ति को देख रहे हैं,यदि उन्हैं गडबड लगता है तो वे नियन्त्रित करते है, वे नष्ट करना प्रारम्भ करते है।प्राकृतिक विपत्तियॉ,जैसे भूचाल, भूकम्प,या तूफान आदि इसमें फिर आपकी कोई मदद नहीं यदि आप आत्म साक्षात्कारी हैं और आप लोगों को आत्म साक्षात्कार दें तो इन्हैं टाला जा सकता है। 

 7-शक्ति का अन्तिम निर्णय-
        अभी तक हम यह नहीं जानते कि मानव के इतिहास में यह अत्यन्त महत्वपूर्ण तथा भयानकसमय है।अन्तिम निर्णय प्रारम्भ हो चुका है।आज हम अन्तिम निर्णय का सामना कर रहे हैं ।हमें इस बात का ज्ञान नहीं कि सभी शैतानी शक्तियॉ भेड की खाल पहने भेडिये आपको भ्रमित करने के लिए अवतरित हो गये हैं। आपको चाहिए कि बैठकर सच्चाई को पहचॉनें।परमात्मा तो करुंणॉमय है,दयालू है,उन्होंने हमें स्वयं को ज्ञान प्राप्त करने के लिए स्वतंत्रता दी है,परमात्मा ने तो हमें अमीबा से इस मानव तक विकसित किया है । चारों ओर इतने सुन्दर विश्व का सृजन किया है। लेकिन उनके निर्णय का हमें सामना करना होगा। परमात्मा निर्णय वैसा नहीं कि जैसा वह एक नायायाधीश की तरह बैठा हो और बारी-बारी से आपको बुलाये बल्कि परमात्मा ने आपकेअन्दर निर्णायक शक्तियॉ स्थापित कर दी हैं। आपका अकलन करने के लिए परमात्मा ने न्यायाधीशों का एक समूह दण्डाधिकारियों के रूप में आपके अन्दर बैठा दिया है। ये आपके मेरुरज्जु तथा आपके मस्तिष्क में बनाये गये चक्रों में ये विद्यमान हैं। 


 8-परमात्मा द्वारा आपका आंकलन-
         आपकी कुंण्डलिनी जागृति से किया जाता है।आपने कितनी गहनता प्राप्त की है,आपकी आध्यात्मिक प्रगति कितनी है,यही आंकलन का आधार है। जिस प्रकार एक बीज के दाने में अंकुरण होता है तो आप जान लेते हैं कि बीज अच्छा है या बुरा। उसी प्रकार जब आपका अंकुरण होता है तो आपको आगे का आध्यात्मिक भविष्य दिखाई देने लगता है। आप आत्म साक्षात्कार प्राप्त करते है,और आप उसे आगे कैसे बनाये रखते हैं, आप इसका सम्मान किस प्रकार करते हैं,उसी से आपका आंकलन किया जाता है, आपको जॉचने का यही तरीका है।आपका आंकलन आपके कपडों,आपका घर,आपको मिले पुरुष्कार से नहीं किया जायेगा या आपने कितना दान दिया या लोक हित के कार्य किये इससे आपका आंकलन नहीं होगा।बस कुंण्डिलिनी जागरण से ही आपको जॉचा जायेगा ।इसलिए इसे सत्यनिष्ठा से कार्यान्वित करना होगा।अपने मस्तिष्क पर इसे इस प्रकार छा जाने दें कि मस्तिष्क पूर्णतःआच्छादित हो जाय, इस शाश्वत आशीर्वाद को अपने अन्दर आने दें ।


 9- सहज योग उत्थान के लिए वरदान है-
        आप जिस ऊंचाई तक पहुंच रहे हैं उसकावलाभ आपको होना चाहिए।आपको सारे आशीर्वाद मिल रहे हैं- सौन्दर्य,प्रेम, आनन्द. ज्ञान, मित्र, तथा सुवुधा। आप चालाकी करते हैं तो आपको बाहर फेंक दिया जायेगा ।लेकिन आपकी मॉ की करुंणा इतनी महान है कि वे सदा क्षमा करने और आपको अवसर प्रदान करने के लिए प्रयत्नशील रहती है ।सारे देवताओं को जो आप से रूठ गये थे को शॉत करने का प्रयास करती रहती है, देवता एक सीमा तक मान भी जाते हैं। सहज योग दूसरे धर्मों की तरह नहीं है जहॉ कि आप गलती करते चले जाते हैं,मन मर्जी करते हैं,हत्या करते हैंऔर धोखा देते हैं लेकिन यहॉ तो आपको एक सहजयोगी होना पडेगा ।सहजयोग में आपको यह जानना होगा कि वास्तव में आपको समर्पित और ईमानदार होना पडेगा ।

चैतन्यमय जीवन

1-जीवन चैतन्यमय अवस्था का नाम है-


        सामान्यतः मनुष्य जीवन सुख या दुख भोग की अवस्था का नाम है ।यह सुख-दुख के आवरण से ढका हुआ है,लेकिन यह जीवन उसके परे चैतन्य अवस्था भी है।अतः चित्त और आनन्द या ज्ञान और भक्ति जीवन की साधारण सम्पत्ति है,इसके लिए खोज करने की आवश्यकता नहीं है बल्कि सुख-दुख के आवरण को भेदकर उससे ऊपर पहुंचकर प्राप्त किया जा सकता है। और फिर स्वयं यह चैतन्यमय स्वरूप स्वतः ही परिलक्षित होता है ।जिससे प्राप्त ज्ञान की अनुभूति से मनुष्य कृतार्थ होता है। 

2-जीवन का उद्धार-
        अगर आप देवी देवताओं में विश्वास करते हैं, और देवी देवताओं की पूजा से,आप पर प्रशन्न होकर दुनियॉ के लाखों देवी-देवता आपके उद्धार के लिए इकठ्ठाहो जॉय,लेकिन आपका उद्धार नहीं हो सकता है, जबतक कि आप अपने अज्ञानता को दूर करने के लिए कटिबद्ध नहीं हो जाते। इसलिए दूसरे पर भरोसा न करें, ईश्वर तो उन्हीं की रक्षा करता है जो स्वयं की रक्षा करता है । 


 
 3-जीवन का पहला पाठ-
        जीवन का पहला पाठ- मनुष्य जीवन के पहले पाठ में यदि आप यह संकल्प कर लेते हैं कि आप किसी दूसरे को दोष नहीं दोगे और न कभी किसी को कोसोगे विश्वास के साथ जागृत स्थिति में स्वयं अपने आप को ही दोष दोगे तो एक अच्छे मनुष्य बन जाओगे। अपनी ओर ध्यान केन्द्रित करें। यह जीवन के पहले पाठ का सार है । 


 4-जीवन में दानी स्वभाव बनाइये-
        अपनी जिन्दगी को दानी बनायें । जो आपके पास उपयोगी है उसे दान कर दें। धन का नहीं ज्ञान का।दुख का नहीं सुख का। अशॉति का नहीं शॉति का। उदासी का नही प्रेम का दान करें आपको कुछ नहीं करना पडेगा। परमात्मा ने आपको बहुत प्रेम दिया है जितनां बॉटोगे उसके दस गुना मिलेगा। जो ज्ञान तथा प्रेम के रास्ते पर चलता है वह आनन्द,प्रेम और खुशी पाता है । 


 
 5-जीवन में दोस्त की उपयोगिता-
        दोस्त की एक ही राह है,खुद किसी का दोस्त बन जॉय। जिसने अपने दोस्त का काम करने का बीडा उठाया है, बह देर नहीं किया करता। दोस्ती धीरे-धीरे पैदा करो, परन्तु जब कर लो तो उसमें दृढ रहो।सच्चे दोस्त तो वे हैं जिनकी देह दो और आत्मा एक होती है।दोस्ती खुशी को दूना करके और दुख को बॉटकर खुशी बढाती है तथा मुसीबत कम करती है। 


 
 6-ज्ञानी तथा विद्वानों में भेद-
        ज्ञानी वह है जो अपने को जानता हो ।और विद्वान वह है जो दूसरों को जानता हो। इस संसार में विद्वानों की संख्या बढती जा रही है, जो कि खु बात है मगर खेद की बात है कि ज्ञानियों की संख्या कम होती जा रही है,क्योंकि आज देखा जाता है कि अपने सम्बन्ध में बढता हुआ अनाडीपन मनुष्य को जटिल उलझनों में तथा समाज को कठिन समस्याओं में जकडता हुआ चला जा रहा है। और जिस समाज में ज्ञानी पुरुषों की संख्या जितनी अधिक होती है वह समाज उतना ही अधिक आदर्श माना जाता है 


 
 7-झूठ बोलने वाले लोग सत्य का पाठ अधिक पढाते है -
        आपने आदर्शों में यही सुना होगा कि,सत्य बोलना चाहिए लेकिन कुछ लोग बेइमानी की सफलता के लिए सत्य बोलते हैं वे भी दूसरों को समझाते रहते हैं कि सत्य बोलना चाहिए झूठ बोलना पाप है वे लोग यह जानते हैं कि वे दूसरों के लिए ठीक हैं क्योंकि अगर सारी दुनियॉ झूठ बोलने लगेगी तोझूठ बिल्कुल व्यर्थ हो जायेगा।और मैं केसे झूठ बोल सकूंगा,क्योंकि बेइमानी की सफलता के लिए ईमानदारों का होना भी आवश्यक है।अगर यहॉ बैठे सब लोग जेब कतरे हैं तो जेब नहीं कट सकती जेब तो तभी कट सकती है जब कोईजेबकट यहॉ न बैठा हो और यहॉ पर जेबकतरा भी यही समझाता है कि जेब काटना बुरा है।ऎसे लोगों से सावधान रहें ये लोग समाज के दुश्मन हैं । 


 8-जीवन में श्रद्धा भाव-
        श्रद्धा का अर्थ है आत्मविश्वास और और आत्मविश्वास का अर्थ है ईश्वर पर विश्वास। बुद्धि में सद्विचार रखना श्रद्धा है।श्रद्धा तो मनुष्य को शॉति देता है और जीवन को सार्थक बनाती है। श्रद्धा तो हमारे आदर्श की बाहरी रेखा है। सबकी श्रद्धा अपने स्वभाव का अनुशरण करती है।मनुष्य में तो कुछ न कुछ श्रद्धा होती है। जिसकी जैसी श्रद्धा होती है वह वैसा ही होता है। 


 
 9-जो सामने है वही सच है-
        मनुष्य जीवन तो जो आज और अभी है उसे कभी अतीत या भविष्य में न देखें, जिसने जीवन को अतीत या भविष्य में देखा उसने तो जीवन जाना ही नहीं। ध्यान रखें कि जो सामने है वही सच है इसके बाद जोकुछ भी है वह सिर्फ सम्भावना है । ज्ञान और अज्ञानता की अनुभूति करें- इस संसार में आप जबतक ईश्वर की प्राप्ति के लिेए इधर-उधर भटकते रहेंगे और आप यह महशूस करते रहेंगे कि ईश्वर हम से दूर है, तो समझना चाहिए कि आप अज्ञानी हैं ।आपके ऊपर अज्ञानता रूपी अंधेरे की काली छाया है। लेकिन जब आप अपने अन्दर ईश्वर की अनुभूति करते हैं तोसमझो आपके अन्दर यथार्थ ज्ञान का उदय हो चुका है। और यदि आप उस ईश्वर को अपने ह्दय रूपी मन्दिर में देखते है तो फिर आपको पूरे जगत मन्दिर में ईश्वर दिखने लगेगा। 


 10-ज्ञान की महिमा-
        ज्ञान सबकी व्यक्तिगत चेतना है, जिससे वह सत्य को देख सकता हैं,अज्ञानी नहीं। अपनी अज्ञानता का आभास जब होने लगता है तो ज्ञान का प्रथम चरण प्रारम्भ हो जाता है। ईश्वर का भय ही ज्ञान का प्रथम चरण है। ज्ञानी स्वयं को जानता है जबकि विद्वान दूसरों को जानता है। ज्ञान सच्चाई में ही पाया जाता है ।उडने की अपेक्षा झुकने का ज्ञान हमारे ज्यादा नजदीक होता है। ज्ञानी तो जगत का यथार्थ रूप जान सकता है। जो ज्ञानियों के साथ चलता है वह अवश्य ज्ञानी हो जाता है।ज्ञानी तो हर वात की अपने से आशा रखता है, जबकि मूर्ख दूसरों की ओर ताकता है। ज्ञानी वर्तमान को ठीक पढ सकता हैऔर परिस्थिति के अनुसार चल सकता है । ज्ञान से तो ही मुक्ति होती है।ज्ञान की बातें सुनकर जो उनपर अमल करता है, उसी के ह्दय में ज्ञान की ज्योति प्रकट होती है। ज्ञान का अन्तिम लक्ष्य चरित्र निर्माण करना होना चाहिए। ज्ञान से मन को शुद्ध होता है।क्रिया के बिना तो ज्ञान एक भार है । ज्ञान से मुक्ति होती है,यथार्थ मुक्ति का कारण भी यथार्थ ज्ञान ही है । कोई भी ज्ञानी पाप नहीं कर सकता।