जीवन दर्शन भाग-3 https://www.youtube.com/c/mankishantikasangam
Friday, January 23, 2015
प्रार्थना ऐसी हो जिसकी अनुभूति की जा सके
प्रार्थना में कोई योजना बनाने की कोशिश कर रहे हो तो तुम प्रार्थना से चूक जाते हो।प्रार्थना पर अपनी इच्छा मत लादो,इसीलिए तो धार्मिक स्थल और धर्म संस्कार और कर्मकाण्ड बनकर रह गये हैं। उनकी तो पहले से ही तय की गई प्रार्थना होती है, उसका एक निश्चित रूप है,एक ही स्वीकृत किया गया है। जबकि प्रार्थना तुम्हारे अन्दर से उठती और उमगती है,प्रत्येक क्षण प्रत्येक चित्तवृत्त में उसकी अपनी निजी प्रार्थना होती है।इसे कोई नहीं जान सकता है कि तुम्हारे अन्दर के संसार में कल क्या घटने
कभी तुम परमात्मा से नाराज भी हो सकते हो, यदि तुम कभी परमात्मां से नाराज नहीं हुये तो इसका मतलब तुमने परमात्मां को जाना ही नहीं।अगर कभी तुम उन्माद में होते हो तो तो उस समय उस क्रोध को ही प्रार्थना बन जाने दो।परमात्मा तुम्हारा है,और तुम परमात्मा के हो, इसलिए परमात्मा से लडो! प्रेम में तो सभी प्रकार के संघर्ष बने रह सकते हैं। यदि इसमें लडाई और संघर्ष का अस्तित्व न हो तो वह प्रेम है ही नहीं। इसलिए जब कभी प्रार्थना करना जैसा कुछ भी अनुभव न हो,तो तुम परमात्मा से कह सकते हो कि-सुनो जरा ठहरो, देखो मेरा मूढ ठीक नहीं है, और तुम जिस तरह से यह सबकुछ कर रहे हो, यह तुम्हारी प्रार्थना करने योग्य नहीं है!तुम अपने ह्दय का सहज स्वाभाविक भावोद्वेग बनने
आप अच्छा या बुरा किसे कहेंगे
आप क्या सोचते है,अच्छा आदमी किसी को नुकसान नहीं पहुंचा सकता। दरअसल अच्छा आदमी समाज और दुनिया को सबसे अधिक नुकसान पहुंचाता है। वैसे आप अच्छा या बुरा किसे कहेंगे।अच्छे लोगों के ऐसे ही कर्मों से होता है नुकसान ।
एक ही शादी पर टिका रहने वाला बुरा आदमी-
बुरे आदमी को मैं,शराब पीता हो इसलिए बुरा नहीं कहता। शराब पीने वाले अच्छे लोग भी हो सकते हैं।शराब पीने वाले बुरे लोग भी हो सकते हैं।या बुरा आदमी इसलिए कहता, कि उसने किसी को तलाक देकर दूसरी शादी कर ली हो। दस शादी करने वाला भी अच्छा आदमी हो सकता है। एक ही शादी पर जन्मों तक टिका रहने वाला आदमी भी बुरा हो सकता है।
मैं बुरा आदमी उसको कहता हूं जिकसी मनोग्रंथि हीनता की है, जिसके भीतर इनफीरि यॉरिटी का कोई बहुत गहरा भाव है। ऐसा आदमी खतरनाक है, क्योंकि ऐसा आदमी पद को पकड़ेगा, जोर से पकड़ेगा, किसी भी कोशिश से पकड़ेगा, और किसी भी कीमत, किसी भी साधन का उपयोग करेगा।
अच्छे आदमी कर जाते हैं यह गलती----
हिंदुस्तान में अच्छा आदमी वही है,जो न इनफीरियॉरिटी से पीड़ित है और न सुपीरियॉरिटी से पीड़ित है। अच्छे आदमी की मेरी परिभाषा है,ऐसा आदमी, जो खुद होने से तृप्त है,आनंदित है। जो किसी के आगे खड़े होने के लिए पागल नहीं है,और किसी के पीछे खड़े होने में जिसे अड़चन,कोई तकलीफ नहीं।जहां भी खड़ा हो जाए वहीं आनंदित है। ऐसा अच्छा आदमी राजनीति में जाए तो राजनीति शोषण न होकर सेवा बन जाती है।
लेकिन भारत का अच्छा आदमी हमेशा से देश और समाज को नुकसान पहुंचाता रहा है। क्योंकि हिंदुस्तान के अच्छे आदमी भगोड़े रहे हैं। हिन्दुस्तान ने उनको ही आदर दिया है जो भाग जाए। कोई भी नहीं जानता कि अगर बुद्घ ने राज्य न छोड़ा होता,तो दुनिया का ज्यादा हित होता या छोड़ देने से ज्यादा हित हुआ। गांधी जी ने भी देश को आजाद करवाया और आजदी के बाद खुद राजनीति से हट गए।
यह परंपरा है हमारी कि अच्छा आदमी हट जाए। लेकिन हम कभी नहीं सोचते कि अच्छा आदमी हटेगा तो जगह खाली नहीं रहेगी।खाली जगह को बुरा आदमी भर देता है। यही कारण है
कि भारत की राजनीति में बुरे आदमी तीव्र संलग्नता से उत्सुक रहते हैं।
धार्मिक चिंतन- विज्ञान और प्रामाणिकता के रूप में
इस पृथ्वी पर मनुष्य को सिर्फ वही ज्ञान रहता है जो उसे दिखाई देता है,और जिसे वह अनुभव करता है,शेष इस संसार के सूक्ष्म क्रियाकलापों के प्रति जो कि हर समय होते रहते है के प्रति वह वह जानकारी तो रखता है मगर अप्रामाणिक होते हैं। विज्ञान की परिभाषा यदि सही अर्थों में समझ ली जाय तो धर्म, अध्यात्म को विज्ञान की एक उच्चस्तरीय विधा के रूप में माना जाएगा।
धर्म और विज्ञान को एक दूसरे का विरोधी न मान कर उन्हें एक दूसरे का पूरक समझना चाहिए। धर्म और अध्यात्म का नियंत्रण भावनात्मक क्षेत्र पर हैं उसके आधार पर ही चिंतन का परिष्कार होता है। इसलिए महत्त्व इसी बात पर दिया जाना चाहिए कि विचार पद्धति अध्यात्म के अंकुश तले विनिर्मित हो।
इतना भर जान लेने से वे सारे विरोधाभास मिट जायेंगे जो विज्ञान और अध्यात्म के बीच बताए जाते हैं। बंधनमुक्ति कैसे हो, माया किसे मानें और जो दीख पड़ता है, वह भी सत्य है, यह कैसे जाने? यदि आज की मूढ़ मान्यताओं, अंधविश्वासों, प्रथा-परंपराओं, कुहासे में घिरे धर्म को विज्ञान का पुट देकर स्वच्छ छवि दी जा सके तो जो भी कुछ आज अज्ञान के रूप हमें समक्ष विज्ञान के ढकोसले में दिखाई देता है, वह स्पष्ट समझ में आने लगेगा।
विज्ञान पर यदि अध्यात्म रूपी संवेदना के समुच्चय तत्त्वज्ञान की जब तक नकेल नहीं कसी जाए,चो वह स्वच्छंद हो जाएगा। वैसे यह गलत भी नहीं है। ऐसा होता हुआ हम दैनिक जीवन में प्रति पल देख रहे हैं। सौरमण्डल का ही एक अंग हमारी पृथ्वी है। अनेक सौरमण्डल इस सृष्टि में हैं, उसमें हमारी आकाश गंगा के एक सूर्यमण्डल में क्या इसी ग्रह में सुविकसित सभ्यता है या कहीं और भी है?
उस विराट में ही ईश्वरीय सत्ता ज्वाला के रूप में विद्यमान है एवं आत्मा एक चिनगारी के रूप में उसका एक घटक है। हर जीवात्मा को ब्रह्म से साक्षात्कार करने की अभीप्सा रखते हुए समर्थ सत्ता को खोजने का प्रयत्न करना चाहिए। यहां जो कुछ भी दिखाई दे रहा है, वह व्यवस्थित व नियमबद्ध किस प्रकार है, इसे भली भाँति प्रमाणित करना चाहिए। तथाकथित प्रत्यक्ष पर विश्वास करने वाले विज्ञान की अपूर्णता एवं अस्थिरता को ध्यान में रखकर भी अध्यात्म को समझना चाहिए। अध्यात्म को भी विज्ञान की कसौटी पर सही साबित होना चाहिए।
जिस रास्ते पर चले थे वहीं पहुंचे
हम जिस रास्ते पर चले थे वहीं पहुंचे, हम ऐसा कुछ भी करते हैं जिससे दुख फलित होता है तो हम अपने मित्र नहीं कहे जा सकते। स्वयं के लिए दुख के बीज बोने वाला व्यक्ति तो अपना शत्रु है।
और हम सब स्वयं के लिए दुख के बीज बोते हैं। निश्चित ही, बीज बोने में और फसल काटने में बहुत वक्त लग जाता है। इसलिए हमें याद भी नहीं रहता कि हम अपने ही बीजों के साथ की गई मेहनत की फसल काट रहे हैं।
अक्सर फासला इतना हो जाता है कि हम सोचते हैं, बीज तो हमने बोए थे अमृत के,लेकिन न मालूम कैसा दुर्भाग्य था कि फल जहर का और विष का प्राप्त हुवा हैं! लेकिन इस जगत में जो हम बोते हैं, उसके अतिरिक्त हमें कुछ भी न मिलता है।
हम वही पाते हैं, जो हम अपने को निर्मित करते हैं। हम वही पाते हैं, जिसकी हम तैयारी करते हैं। हम वहीं पहुंचते हैं, जहां की हम यात्रा करते हैं। हम वहां नहीं पहुंच सकते, जहां की हमने यात्रा ही न की हो। यद्यपि हो सकता है, यात्रा करते समय हमने अपने मन में कल्पना की मंजिल कोई और बनाई हो। रास्ते को इससे कोई प्रयोजन नहीं है।
Thursday, May 30, 2013
संजीवनी पथ
1- ज़रा अपनी ओर देखो| कितने दोष हैं तुममें! प्रकृति ने, ईश्वर ने तुम्हें सभी दोषों के साथ भी स्वीकार कर लिया है| उसने तुम्हें अपनी बाहों में ले लिया है| वह कभी नहीं कहती, "तुमने आज बहुत बुरा बर्ताव किया, मुझे बुरा भला कहा, मैं तुममें श्वास नहीं जाने दूँगी| तुम्हारा दिल धड़काना बंद कर दूँगी|" प्रकृति कभी तुम्हें आंककर तुम पर निर्णय नहीं लेती|
2-एक अंकुर फूटकर पुष्प हो जाता है| एक दिल टूटकर दिव्य हो जाता है।
3-कठोर शब्द मत कहो, शब्दों से चोट मत पंहुचाओ क्योंकि ईश्वर हर दिल में बसते हैं।
4- यदि तुम पहचानते हो कि तुममें अहंकार है, उससे छुटकारा पाने की चेष्टा न करो, उसे जेब में रखो। यदि उससे छुटकारा पाने की चेष्टा करोगे तो वह एक बड़े अहंकार का कारण हो सकता है। अहंकार की एकमात्र दवा सहजता है। तुम अहंकार से छुटकारा इसलिए चाहते हो क्योंकि वह दूसरों से अधिक तुम्हें परेशान कर रहा है। तो यदि तुम्हें स्वयं में अहंकार दिखे, उसे रहने दो। वह आता है, तो आने दो।
5- तुम जिसका भी सम्मान करते हो, वह तुमसे बड़ा हो जाता है| यदि तुम्हारे सभी सम्बन्ध सम्मान से युक्त हैं, तो तुम्हारी अपनी चेतना का विकास होता है| छोटी चीज़ें भी महत्त्वपूर्ण लगती हैं| हर छोटा प्राणी भी गौरवशाली लगता है| जब तुममें सरे विश्व के लिए सम्मान है, तो तुम ब्रह्माण्ड के साथ लय में हो
6- कृतज्ञ हो जाओ अपने अस्तित्व, अपने शरीर, जो कुछ तुम्हें मिला है, जितना प्रेम तुम्हें मिला है उसके लिए। यह कृतज्ञता तुमपर समृद्धि और आनंद की वर्षा कर देगी।
7- एक दूसरे के प्रति भगवान बन जाओ। भगवान को आकाश में मत ढूँढो, भगवान को नयनों के हर जोड़े में, पर्वतों में, वृक्षों में, पशुओं में देखो। कैसे? जब तुम स्वयं में भगवान को देखो। केवल भगवान ही भगवान की पूजा कर सकते हैं।
8- तुम एक आज़ाद पंछी हो, पूरी तरह खुले हुए| उड़ना सीखो| यह तुम्हें अपने भीतर ही अनुभव करना होगा| यदि तुम स्वयं को बाध्य समझते हो, तो तुम बंधन में ही रहोगे| तुम मुक्ति का अनुभव कब करोगे? इसी क्षण मुक्त हो जाओ| बस बैठो और तृप्त हो जाओ| थोड़ा समय ध्यान और सत्संग में बिताओ जिससे तुम्हारा अंतरात्म चुनौतियों से जूझने के लिए दृढ़ हो जाये।
9- अहंकार पूर्णतः बुरा नहीं होता। उसका एक सकारात्मक पहलू भी है। अहंकार तुम्हें कर्म करने के लिए प्रेरित करता है। एक व्यक्ति कोई कर्म या तो दया से करेगा या अहंकार से, और समाज में अधिकतर कर्म अहंकार से होता है। ऐसा होने पर भी, अहंकार भिन्नता और अलगाव की भावना है। वह सिद्ध करने और अधिकार जमाने की इच्छा करता है और कर्तापन की परछाईं है। वह स्वयं में न अच्छा है न बुरा। वह केवल जो है वही है।
1o- जागो और देखो, क्या सच में तुम्हारा नियंत्रण है? किसपर तुम्हारा नियंत्रण है? संभवतः जाग्रत अवस्था के एक छोटे से भाग पर! निद्रा या स्वप्न अवस्था में तुम्हारा नियंत्रण नहीं है। अपने विचारों या भावनाओं पर तुम्हारा नियंत्रण नहीं है। उन्हें प्रकट करने या न करने का निर्णय तुम्हारा है पर वे तुम्हारी अनुमति लेकर नहीं आते। चाहे तुम यह जानो या न जानो, पर जब तुम अपना नियंत्रण छोड़ देते हो, तभी तुम विश्राम कर पाते हो।
11- जब तुम अपना दुःख बांटते हो, तो वह कम नहीं होता, पर जब तुम अपनी प्रसन्नता नहीं बांटते, तो वह कम हो जाती है। अपनी समस्याएं केवल इश्वर के साथ बांटो - किसी और से बांटने से वे केवल बढती ही हैं। अपना आनंद सब के साथ बांटो।
12- जब तुम जीवन में कठिनाई का सामना करते हो, तुम्हारी शांति और स्थिरता तुम्हारी श्रद्धा पर निर्भर करता है। श्रद्धा न होना ही दुखदायी है; श्रद्धा तुरंत सांत्वना देती है। यद्यपि बुद्धि तुम्हें संतुलित रखती है, श्रद्धा के बिना कोई चमत्कार नहीं हो सकता। वह तुम्हें सीमाओं के परे ले जाती है। श्रद्धा से तुम प्रकृति के नियमों को भी पार कर जाते हो, पर वह शुद्ध होनी चाहिए। श्रद्धा है यह जानना कि तुम्हें जो भी आवश्यकता है, तुम्हें मिलेगा। ईश्वर को कुछ करने का अवसर देना श्रद्धा है।
'13- Ra' means Radiance; 'Ma' means myself. 'Rama' means ‘the Light inside me’. Happy Ram Navami!'रा' का अर्थ है 'प्रकाश'। 'म' का अर्थ है 'मैं'। 'राम' का अर्थ है 'मुझमें जो प्रकाश है'। राम नवमी पर सबको आशीर्वाद और शुभकामनायें।
14- अपनी गलती का बोध तुम्हें तब होता है जब तुम निर्दोष होते हो। जो भी गलती हुई, स्वयं को दोषी मत ठहराओ, क्योंकि वर्तमान क्षण में तुम पुनः नवीन, शुद्ध और निर्मल हो। गलतियां भूतकाल की होती हैं। जब यह ज्ञान तुम्हें होता है, तब तुम पुनः पूर्ण हो जाते हो।
Tuesday, April 16, 2013
पूर्णता के तत्व
1-हंसना सच्ची प्रार्थना है-
यदि आपका कभी ईश्वर से मिलना हो तो
जानते है आप उन्हें क्या कहेंगे? ‘‘अरे! मैं तो अपने भीतर आपसे मिल चुका हूं। आपको
मालूम है कि-‘‘ईश्वर आप में नृत्य करते हैं उस दिन जिस दिन आप हंसते और प्रेम में
होते हो। सुबह तो हंसना ही सच्ची प्रार्थना है। दिखाने का हंसना नही बल्कि अंदर की
गहराई से हंसना। हंसना आपके भीतर से आपके हृदय से आती है। सच्ची हंसी ही सच्ची
प्रार्थना है। जब आप हंसते हो तो सारी प्रकृति आपके साथ हंसती है। यही हंसी
प्रतिध्वनि होती है और गूंजती है, यही वास्तविक जीवन है। जब सब कुछ आपके अनुसार हो
रहा हो तो कोई भी हंस सकता है, लेकिन जब आपके विपरीत हो रहा हो और आप हंस सके तो
समझो विकास हो रहा है। आपके जीवन में आपकी हंसी से मूल्यवान और कुछ नही। चाहे जो भी
हो जाये इसे खोना नही है।
घटनाएं तो जिन्दगी में आती हैं और जाती
है। कुछ तो सुखद होगी और कुछ दुखद, लेकिन जो कुछ भी हो आप को वे छु न न सकें। आपके
अस्तित्व के भीतर ऐसा कुछ है जो कि अनछुआ है। उस पर ही रहे जो अपरिवर्तनशील है। तभी
आप हंसने के योग्य होंगे। हंसने में भी भेद है। कभी-कभी आप अपने आप को नही देखने के
लिये या कुछ सोचने से बचने के लिये हंसते हो। लेकिन जब आप हर क्षण यह देखते हो और
अनुभव करते हो कि जीवन हर क्षण है और जीवन का हर क्षण अपराजेय है तो आपको कोई
परेशान नही कर सकता।
आपने एक नवजात हो देखा होगा, छ माह का
या एक वर्ष का। जब वे हंसते हैं तो उनका पूरा शरीर हिलता और कूदता है। उनकी हंसी
उनके मुंह से ही नही आती, उनके शरीर का हर एक कण हंसता है। यह समाधि है। यह हंसी
अबोध है, शुद्ध है, बिना किसी तनाव की है। हंसी हमें खोलती है, हमारे दिल को खोलती
है। और जब हम इस अबोधता को प्राप्त नही हो पाते तो क्या करे? आप पूछे -‘‘मैं उस
मुक्ति को या अबोधता को अनुभव नही कर पा रहा हूं। मैं क्या करुं? ‘‘ आपके अस्तित्व
के कई स्तर हैं। पहला, शरीर- ध्यान रखे कि आपने पूरा विश्राम किया है, सही भोजन
किया है और कुछ व्यायाम किया है। फिर श्वास पर ध्यान दें।
श्वास की अपनी एक लय है। मन की
प्रत्येक स्थिति के लिये श्वास की एक निश्चित लय है। श्वास की उस लय को प्राप्त
करके तन और मन दोनो को ऊपर उठाया जा सकता है। तब आप उन धारणाओं और विचारों को देखें
जो कि आप मन में सदैव बने रहते हैं। अच्छे, बुरे, सही, गलत, ऐसा करना चाहिये, ऐसा
नही करना चाहिये ये सब आपको बांध लेते हैं। हर विचार किसी ना किसी स्पंदन या भावना
से जुड़ा है। स्पंदनों को देखें और शरीर में अनुभव को देखें। भावना की लय को देखें-
यदि आप देखेंगे तो आप कोई गलती नही करेंगे। आप के पास एक ही तरह की भावनाओं का पथ
है, लेकिन आप इन भावनाओं को अलग कारणों से, अलग-अलग वस्तुओं से, अलग अलग लोगों से,
स्थितियों-परिस्थितियों से जोड़ लेते हो।
एक विचार को विचार के रुप में ही देखें,
एक भावना को भावना के रुप में ही देखे तब आप खुल जायेगें, अपने आप में ईश्वरत्व को
देख पाएंगे। देखना इन्हें अलग-अलग परिणाम देता है। जब आप नकारात्मकता को देखते हैं
तो ये तुरंत समाप्त हो जाती है और जब आप सकारात्मकता को देखते हैं तो वे बढ़ने लगती
हैं। जब आप क्रोध को देखेंगे तो यह समाप्त हो जाएगा और जब आप प्रेम को देखेंगे तो
यह बढ़ जायेगा।
यही सर्वोत्तम और एकमात्र उपाय है। आने
वाले हर विचार को देखें और उन्हें जाते हुये देखें। नकारात्मक विचारों के आने का
एकमात्र कारण तनाव है। यदि आप किसी दिन बहुत तनाव में हों तो उसके अगले दिन या उस
से अगले दिन आप में नकारात्मक विचार आने लगेंगे और आप परेशान हो जाएंगे। इन विचारों
से, जिनका कोई अर्थ नही है, पीछा छुड़ाने के स्थान पर आप उन बिंदुओं को, कारणों को
खोजें जिनके कारण ये विचार आ रहे हैं। यदि स्रोत स्वच्छ है तो मात्र सकारात्मक
विचार ही आएंगे। यदि नकारात्मक विचार आते है तो आप ये मान ले, ‘‘तो क्या।‘‘ वे
आयेंगे और तुरंत गायब हो जाएंगें। हमें जो जैसा है उसे वैसा ही देखने की आवश्यकता
है, विषय और पूर्णता के साथ। यह जीवन के लिये सारभूत है। जब आप में ऐसा होने लगे तो
आपके जीवन में सही अर्थों में हंसी जन्म लेती है।
2-शब्दों का उद्देश्य मौन बनाना है शोर
नहीं-
वैशाख माह की पूर्णिमा को बुद्ध को जब
बोध प्राप्त हुआ था तो ऐसा कहा जाता है कि वे एक सप्ताह तक मौन रहे। उन्होनें एक भी
शब्द नहीं बोला। पौराणिक कथायें कहती हैं कि स्वर्ग के सभी देवता चिंता में पड़ गये।
वे जानते थे कि करोड़ों वर्षों में कोई विरला ही बुद्ध के समान ज्ञान प्राप्त कर
पाता है। और वे अब चुप हैं!
देवताओं नें उनसे बोलने की विनती की।
महात्मा बुद्ध ने कहा, ''जो जानते हैं, वे मेरे कहने के बिना भी जानते हैं और जो
नहीं जानते है, वे मेरे कहने पर भी नहीं जानेंगे। एक अंधे आदमी को प्रकाश का वर्णन
करना बेकार है। जिन्होनें जीवन का अमृत ही नहीं चखा है उनसे बात करना व्यर्थ है,
इसलिए मैनें मौन धारण किया है। जो बहुत ही आत्मीय और व्यक्तिगत हो उसे कैसे व्यक्त
किया जा सकता है? शब्द उसे व्यक्त नहीं कर सकते। शास्त्रों में कहा गया है कि,
"जहाँ शब्दों का अंत होता है वहाँ सत्य की शुरुआत होती है''।
देवताओं ने उनसे कहा, ''जो आप कह रहे
हैं वह सत्य है परन्तु उनके बारे में सोचें जो सीमारेखा पर हैं, जिनको पूरी तरह से
बोध भी नहीं हुआ है और पूरी तरह से अज्ञानी भी नहीं हैं। उनके लिए आपके थोड़े से
शब्द भी प्रेरणादायक होंगे, उनके लाभार्थ आप कुछ बोलें और आपके द्वारा बोला गया हर
एक शब्द मौन का सृजन करेगा''।
शब्दों का उद्देश्य मौन बनाना है। यदि
शब्दों के द्वारा और शोर होने लगे तो समझना चाहिए, वे अपने उद्देश्य को पूरा नहीं
कर पा रहे हैं। बुद्ध के शब्द निश्चित ही मौन का सृजन करेंगे, क्योंकि बुद्ध मौन की
प्रतिमूर्ति हैं। मौन जीवन का स्त्रोत है और रोगों का उपचार है। जब लोग क्रोधित
होते हैं तो वे मौन धारण करते है। पहले वे चिल्लाते हैं और फिर मौन उदय होता है। जब
कोई दुखी होता है, तब वह अकेला रहना चाहता है और मौन की शरण में चला जाता है। उसी
तरह जब कोई शर्मिंदा होता है तो भी वह मौन का आश्रय लेता है। जब कोई ज्ञानी होता
है, तो वहाँ पर भी मौन होता है।
अपने मन के शोर को देखें। वह किसके लिए
है? धन? यश? पहचान? तृप्ति? सम्बन्धों के लिये? शोर किसी चीज़ के लिए होता है; और
मौन किसी भी चीज़ के लिए नहीं होता है। मौन मूल है; जबकि शोर सतह है।
Thursday, April 4, 2013
साधना का पथ
1-जीवन का संचालन सहयोग से न कि संघर्ष से-
मानव जीवन के आधार के सम्बन्ध में कई विद्वानों ने अपने-अपने सिद्धान्त प्रस्तुत किये, जैसे चार्ल्स
डार्विन का सिद्धान्त,या फ्रिंस क्रोपाटकिन का मनोविश्लेषण जिनमें जीवन के संघर्षों के आधार की विवेचना है, मगर हमारा मानना है कि इस जीवन में कोई भी संघर्ष नहीं है बल्कि जीवन का संचालन होता है एक सहयोग से,परस्पर सहयोग से। जिस चीज का प्रयोग हम करते हैं वह हमें हमारे कार्य में सहयोग देती है,जैसे हम पेड से सेव निकालते हैं और उसे खाते हैं तो वह सेव सेव हमें सहयोग देता है।जब हम उसे खाते हैं तो हमारे शरीर के निर्मॉण में कार्य करता है। उसी प्रकार एक शेर किसी पशु का शिकार कर उसे अपने आहार में प्रयोग करता है,और फिर शेर सन्तुष्ट होता है। अगर जीवन संघर्ष होता जैसे कि डार्विन कहते हैं, शेर द्वारा इस शिकार को खाने पर शेर के पेट में यह शिकार मुशीवत खडी कर देता। यह शिकार उस शेर को अपने मॉश को हजम करने की अनुमति नहीं देता। या सेव खाने से विकार उत्पन्न हो जाता।डार्विन का कहना है कि अगर दो मित्रों में घनिष्ठ दोस्ती है,वे दोनों एक दूसरे के लिए मर मिटने को तैयार रहते हैं तो यह सिर्फ एक बहाना है। अपनी गहराई में यह एक संघर्ष,युद्ध,प्रतियोगिता और ईर्ष्या है। यह धारणॉ उपयुक्त प्रतीत नहीं होती है,हो सकता है यह घटना उनके साथ घटी हो।
डार्विन का सिद्धान्त,या फ्रिंस क्रोपाटकिन का मनोविश्लेषण जिनमें जीवन के संघर्षों के आधार की विवेचना है, मगर हमारा मानना है कि इस जीवन में कोई भी संघर्ष नहीं है बल्कि जीवन का संचालन होता है एक सहयोग से,परस्पर सहयोग से। जिस चीज का प्रयोग हम करते हैं वह हमें हमारे कार्य में सहयोग देती है,जैसे हम पेड से सेव निकालते हैं और उसे खाते हैं तो वह सेव सेव हमें सहयोग देता है।जब हम उसे खाते हैं तो हमारे शरीर के निर्मॉण में कार्य करता है। उसी प्रकार एक शेर किसी पशु का शिकार कर उसे अपने आहार में प्रयोग करता है,और फिर शेर सन्तुष्ट होता है। अगर जीवन संघर्ष होता जैसे कि डार्विन कहते हैं, शेर द्वारा इस शिकार को खाने पर शेर के पेट में यह शिकार मुशीवत खडी कर देता। यह शिकार उस शेर को अपने मॉश को हजम करने की अनुमति नहीं देता। या सेव खाने से विकार उत्पन्न हो जाता।डार्विन का कहना है कि अगर दो मित्रों में घनिष्ठ दोस्ती है,वे दोनों एक दूसरे के लिए मर मिटने को तैयार रहते हैं तो यह सिर्फ एक बहाना है। अपनी गहराई में यह एक संघर्ष,युद्ध,प्रतियोगिता और ईर्ष्या है। यह धारणॉ उपयुक्त प्रतीत नहीं होती है,हो सकता है यह घटना उनके साथ घटी हो।
2-बच्चे का पोषण-
अगर दर्शनशास्त्र का अध्ययन करें तो पायेंगे कि एक दार्शनिक द्वारा जो कुछ भी लिखा जाता है वह उसके अनुभवों पर आधारित होता है- कि यदि बच्चा अपनी मॉ के गहरे प्रेम में रहा है और मॉ ने भी उसपर अपना प्रेम बरसाया है तो इसी से भविष्य के लिए विश्वास का प्रारम्भ हो सकेगा।फिर यह बच्चा स्त्रियों के साथ प्रेमपूर्ण सम्बन्ध बनायेगा,अपने मित्रों के साथ प्रेमपूर्ण होगा,और एकदिन सद्गुरु को समर्पण करने में सफल रहेगा- और अंतिम रूप से उस परमात्मा में घुलमिलकर एक हो जाने में सफल हो सकेगा।लेकिन यदि बालक के मूल सम्बन्ध ही से चूक हो गयी तो बुनियाद ही खोखली हो जायेगी। फिर कठोर प्रयास करना होग। जिससे जीवन अधिक से अधिक कठिन होता जाता है।
3-श्रद्धा के पालन से जीवन का पोषण होता है-
हमारे जीवन को सुगम बनाने के लिए श्रद्धा आवश्यक है,इसलिए कि श्रद्धा से जीवन का पोषण होता है,सूक्ष्म पोषक तत्व। यदि तुम श्रद्धा नहीं कर सकते हैं तो इसका मतलव हुआ कि तुम जीवन्त नहीं हो।तुम सदा भयग्रस्त रहते हो,तुम चारों ओर मृत्यु से घिरे रहते हो। लेकिन अगर तुम्हारे अन्दर गहरा विश्वास है तो फिर पूरा दृष्य ही बदल सकता है। इस स्थिति में कोई संघर्ष ही नहीं रहता,फिर तुम साश्वत अपने घर में रहते हो,यह संसार तुम्हारा ही तो है,तुम्हारे होने से यह संसार प्रशन्न है,यह संसार तो तुम्हारी रक्षा कर रहा है,और गहरी सुरक्षा का अहसास तुम्हैं देता है और तुम्हैं अनजाने रास्ते पर चलने के लिए प्रेरित करता है।इसलिए श्रद्धा को जीवन का आधार स्वीकार करना होगा,यह सफल जीवन का मूल मंत्र है। पहले दो फिर मिलेगा।जीवन में हर व्यक्ति को श्रद्धा की जरूरत होती है,जो व्यक्ति श्रद्धा नहीं करता है,उसके लिए तो इसकी नितान्त आवश्यकता है। और जो व्यक्ति श्रद्धा कर सकता है वह इसकी जरूरत के प्रति सजग नहीं रहता है। इसकी जरूरत तभी होती है जब तुम भूखे होते हो।
4-बचपन के प्रेम से आपमें विश्वास बढता है-
अगर बचपन में आपके ऊपर प्रेम की वर्षा अधिक हुई है तो आप स्वयं अपने बारे में सुन्दर छवि बना लेते हैं।यदि आपके माता-पिता एक दूसरे से गहरा प्रेम करते हैं,तुम्हैं पाकर बहुत खुश रहते हैं, क्योंकि तुम उनके प्रेम की चरम सीमा हो। आप उनके संगीत की धुन और गीत हो। इसका साक्षी सिर्फ आप हैं कि उन दोनों में कितना प्रेम रहा होगा। आप जैसे भी रहे हों,वे आपको देखकर प्रशन्नता का अनुभव करते हैं।वे प्रेमपूर्ण तरीके से आपकी सहायता करते हैं। यदि कभी वे किसी काम को करने के लिए मना करते हैं तो आपका ह्दय न तो दुखता है और न आप अपमान का अनुभव करते हैं। यही अनुभव तो आपको होता है कि आपके बारे में परवाह की जा रही है। लेकिन अगर आप उनका प्रेम नहीं पाते हैं और फिर कहते हैं इस काम को करो तो धीरे-धीरे बच्चा यह करना सीखता है। लेकिन उस समय आप जिस रूप में है उस रूप में स्वीकार नही किया जाते। और जब आप कुछ विशिष्ठ काम करते हैं, तभी आपको प्रेम किया जाता है।अगर आप विशिष्ठ कार्य नहीं करते हैं तो आपको प्रेम नहीं मिलता है। और यदि आप उनके मन के अनुसार कार्य नहीं करते हैं तो आपसे घृणॉ की जाती है। आपको सशर्त प्रेम मिलता है,इसलिए कि श्रद्धा खो गई है।उस स्थिति में आप कभी भी अपनी छवि बनाने में समर्थ नहीं हो सकोगे। क्योंकि वे मॉ की आंखें हैं,जिनमें पहली बार आप प्रतिबिम्बित होते हैं,प्रशन्नता,अनुग्रह,भावना और परमानन्द के रूप में इसलिए कि आप उसके लिए मूल्यवान हो,और स्वाभाविक रूप से उसकी दृष्टि तुम्हारा कुछ मूल्य है।फिर श्रद्धा और समर्पण होना आसान हो जाता है।
5-झुकना श्रेष्ठता का प्रतीक है-
कुछ लोग होते हैं जो आलोचना पसन्द नहीं करते हैं वे, यह नहीं चाहते हैं कि कोई उनसे कहे कि इस काम को करो। वे लोग किसी के सामने समर्पण नहीं कर सकते,इसलिए कि वे स्वयं को शक्तिशाली समझते हैं। इस प्रकार के लोग मानसिक रोगी होते हैं। जबकि समर्पण केवल शक्तिशाली स्त्री,पुरुष ही कर सकते हैं,दुर्वल व्यक्ति कभी भी समर्पण नहीं कर सकता है। क्योंकि वे सोचते हैं कि समर्पण करने से उनकी दुर्वलता सारे संसार में प्रकट हो जायेगी,वे दुर्वल हैं,जिसे वे भलीभॉति जानते हैं,जिस कारण वे झुक नहीं सकते हैं,ऐसा करना उनके लिए कठिन कार्य है। झुकने का अर्थ यह स्वीकार करना होगा कि वे हीन हैं। केवल श्रेष्ठ व्यक्ति ही झुक सकता है। ऐसे लोक किसी दूसरे का सम्मान भी नहीं कर सकते हैं,क्योंकि वे तो स्वयं का सम्मान नहीं करते हैं। वे तो यह भी नहीं जानते कि सम्मान होता क्या है। वे तो सम्मान से हमेशा भयभीत रहते हैं,वे सोचते हैं कि-समर्पण का अर्थ है उनमें दुर्वलता का होना।
हमें इस बात को ध्यान में रखना होगा कि समर्पण तभी हो सकता है जब तुम अत्यधिक शक्तिशाली हो,इस सम्बन्ध में तुम्हैं कोई चिन्ता नहीं है इसलिए कि तुम समर्पण कर सकते हो,फिर तुम दुर्वल नहीं हो सकते। वे अपनी संकल्पशक्ति नहीं खोते,समर्पण के द्वारा तुम यह दिखला रहे हो कि तुम्हारे पास महान संकल्पशक्ति है।
6-स्वयं में सुधार के लिए अतीत की गहराई में पहुंचें-
अगर तुम यह अनुभव करते हो कि श्रद्धा करना कठिन है,तो इसके लिए तुम्हैं अपनी स्मृतियों की गहरी गोद में जाना होगा,अपने अतीत में लौटना होगा।अपने मन से अतीत के प्रभावों को साफ करना होगा।तुम्हारे पास अतीत के कूडे कर्कट का जो एक बडा ढेर है,तुम्हैं उस भार से मुक्त होना होगा। इसके लिए तुम्हें लौटकर वापस अपने उस जीवन में आना होगा,केवल स्मृतियों में नहीं बल्कि फिर वही जीवन जी सको। इस बात को अपना एक ध्यान बना लो।प्रति दिन सोने से पहले,एक घंटे अतीत में वापस लोट जाओ। वह सभी खोजने का प्रयास करो,जो तुम्हारे बचपन में घटा था,जितने गहरे में जा सको उतना ही अच्छा है-क्योंकि तुम उन बहुत सी चीजों को छिपा रहे हो,जो कभी घटी थीँ,तुम उन्हैं चेतना तल तक ऊपर आने की अनुमति नहीं देते हो। बस उन्हैं सतह तक आने की अनुमति दे दो।प्रति दिन वापस लौटते हुये गहराई में जाने का अनुभव करो। पहले तुम्हें कुछ वहॉ की घटनाएं याद आयेंगी,कि जब तुम चार पॉच वर्ष के थे तो उसपार जाने जाने में असमर्थ थे,जैसा कि चीन की दीवार जैसा अवरोध सामने आगया,इसका तुम्हें सामना करना होगा। फिर धीमे-धीमे और गहराई में जाने पर तुम देखोगे कि तुम तो दो या तीन वर्ष के हो,लेकिन लोग तो उस बिन्दु तक पहुंच जाते हैं जब उनका जन्म हुआ था। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो गर्भ की स्मृतियों तक पहुंचे हैं। और कुछ लोग तो अपने पूर्व जन्म में जब उनकी मृत्यु हुई थी,तक भी पहुंचे हैं।
अगर तुम अपनी गहराई में पहुंच गये हो तो फिर तुम्हें वापस लौट आना होगा। हर शाम वहॉ जाओ और लौट आओ। कम से कम तीन से नौ माह तक का समय लगेगा,प्रत्येक दिन भार मुक्त होने का अनुभव होगा,तुम अधिक से अधिक हल्के होते जाओगे,साथ ही विश्वास का भी जन्म होगा। बस एक बार अतीत स्पष्ट हो जाय और तुम वह सब कुछ देख लो,जो पूर्व में तुम्हारे साथ घटा था,तो तुम उससे मुक्त हो जाओगे। फिर तुम अपनी स्मृति में किसी घटना के प्रति सजग हो जाते हो तो तुम उससे मुक्त हो जाओगे। यही सजगता तुम्हें मुक्त कराती है,तभी विश्वास करना सम्भव हो सकेगा।
7-प्रेम हमारा भोजन है-
मनोविज्ञान में प्रेम को एक भोजन माना गया है।जिस प्रकार बच्चे को भोजन दिया जाता है,वह उस बच्चे का पोषण करता है,और यदि उस प्रेम न दिया जाय तो उस स्थिति में उसकी आत्मॉ विकसित नहीं होगी उसकी आत्मॉ अपरिपक्व और अविकसित रह जाती है। है।मनो वैज्ञानिकों द्वारा कई विधियों का प्रयोग किया है जिनसे ज्ञात किया जा सकता है कि एक बच्चे के पोषण के लिए प्रेम दिया गया या नहीं,उसे प्रेम की ऊष्णता दी गई या नहीं,जिसकी कि उसे जरूरत थी। इसलिए बच्चे को पालन-पोषण में उसकी हर जरूरत को पूरा करें।
एक उस बच्चे के पालन का प्रयोग है- जिसमें अस्पताल में डाक्टर द्वारा उसकी देखभाल कराएं,उस समय उसकी मॉ से उस बच्चे को दूर रखना चाहिए।बच्चे को दूध,दवा,देखभाल सभी कुछ दो,लेकिन उस समय उसे न तो आलिंगन में लें और न उसे चूमो और न स्पर्श ही करो, उस दशा में बच्चा धीमे-धीमें अपने आप सिकुडने लगता है,वह रूग्ण हो जाता है,अधिकतर की मृत्यु हो जाती है। जिसका कि कोई कारण नहीं दिखता है। और यदि बच भी गया तो निम्नतम् धरातल पर जीवित रहता है,वह अल्पमति या मूढ बनकर रह जाता है वह जीवित रहेगा,लेकिन एक किनारे पर।वह तो जीवित तो रहेगा मगर जीवन की गहराइयों में नहीं पहुंच सकेगा,उसके पास ऊर्जा होगी ही नहीं। इसलिए उस बच्चे को अपने ह्दय से लगा लेना,उसे अपने शरीर की गर्मी देना,वही उसका सूक्ष्म भोजन होगा।
8-श्रद्धा जीवन में उच्च स्तर का भोजन है-
प्रेम हमारा भोजन तो है,लेकिन उससे भी उच्च स्तर का भोजन श्रद्धा है,प्रार्थना जैसी। लेकिन .ह भोजन सूक्ष्म है,इसे अनुभव कर सकते हो।यदि तुम्हारे पास श्रद्धा है तो इसका मतलब तुम एक महान साहसिक अभियान पर चल पडे हो।जिससे तुम्हारे जीवन में एक परिवर्तन होना शुरू हो जायेगा। और यदि तुम्हारे पास श्रद्धा नहीं है तो तुम वहीं खडे रहोगे।कितना ही बोलें,कोई फर्क नहीं पडेगा,तुम जड होकर खडे ही रहोगे,इस तरह हर समय तुमसे ऐसी चूक होती जायेगी। इसलिए अपने में श्रद्धा को जन्म दो यही श्रद्धा तुममें और मुझमें एक सेतु बन जायेगा। तुम दीप्तिवान बन जाओगे,तुम्हारा पुनर्जन्म हो जायेगा।
अब प्रश्न उठता है कि आपको श्रद्धा की सख्त जरूरत तो है मगर वह तुम्हारे पास है ही नहीं,तुम स्वयं में बहुत पीढित हो,इसलिए कि तुममें इतना साहस नहीं है,जिससे मरने वाले पर भी श्रद्धा किया जा सके। इसके लिए तुम्हारे लिए एक ही रास्ता है कि तुम्हें किसी खास तरह से मरना होगा,जिससे तुम्हारा पुनर्जन्म हो सके।अतीत से तुम्हें पूरी तरह कट जाना होगा,तुम्हारी जीवन कथा नष्ट करनी होगी,तभी तो तुम्हारा पुनर्जन्म हो सकेगा!
9-विश्वास करने वाले को सहारा चाहिए-
जो लोग विश्वास करते हैं,उनमें भय होता है,इसलिए वे लोग किसी के साथ बंधना चाहते हैं,सहारे के लिए किसी का हाथ का सहारा चाहते हैं।वे लोग आकाश की ओर देखकर अभय का अनुभव करने के लिए परमात्मा की प्रार्थना करते हैं। आपने उस वक्त को देखा होगा जब रात के वक्त अंधेरी सुनसान सडक से गुजरते वक्त अनायास मुंह से सीटी बजाना शिरू कर लेते हो,अथवा गाना शुरू कर लेते हो-इसलिए नहीं कि उससे तुम्हें कोई सहायता मिल जायेगी,बल्कि इसलिए कि आप ऊष्णता का अनुभव करते हो,जिससे भय का दमन हो जाता है।सीटी बजाने से तुम्हें अच्छा लगता है,तुम यह भूल जाते हो कि तुम अंधेरे में हो और यह खतरनाक है। लेकिन इससे यथार्थ में कोई वास्तविक परिवर्तन नहीं होता है,क्योंकि तुम्हारे अन्दर जो भय और खतरा है वह अभी भी वहॉ है।पहले से कही अधिक है,इसलिए कि सिटी बजाने से अपने चारों ओर एक भ्रम खडा कर रहे हो। गाने में व्यस्त होने से अधिक आसानी से लूटा जा सकता है। अगर यहॉ पर ईश्वर के प्रति साहारे के लिए तुम्हारी श्रद्धा भय से उत्पन्न हुई है तो इससे यही अच्छा है कि तुम वह श्रद्धा करो ही मत,इसलिए कि वह श्रद्धा नकली है,भय के कारण उत्पन्न हुई है। श्रद्धा तो प्रेम से उत्पन्न होती है।इसके लिए तुम्हें कठोर परिश्रम करना होगा।तुम्हारे अतीत में कूडे कर्कट का ढेर है,तुम्हें उसे साफ करना होगा,भार रहित बनाना होगा।
10-विश्वास करना एक झूठी श्रद्धा है-
जी हॉ विश्वास करना एक बहाना है,किसी भी चीज में विश्वास करने से तुम्हें असहाय का अहसास कराती है,यह खतरनाक है।अगर तुमने दिव्यता जैसी किसी चीज का अनुभव नहीं किया है,तो फिर श्रद्धा करने की कोई जरूरत नहीं है,वहॉ परमात्मॉ पर भी विश्वास करने की कोई जरूरत नहीं है। जैसे मैं विशावास करता हूं कि वहॉ परमात्मॉ है तो इसका मतलव हुआ कि वहॉ कोई शक्ति जरूर होनी चाहिए, जो कि पूरे ब्रह्मॉण्ड को एक साथ संभाले हुये है।यह एक तर्क का प्रश्न है,लेकिन परमात्मॉ को एक तार्किक व्याम बनाना उपयुक्त नहीं है।ब्रह्मॉण्ड या अस्तित्व सभी चीजें एक साथ गतिशील हैं,प्रत्येक वस्तु बहुत सुन्दरता के साथ चली जा रही है लेकिन मन का तर्क है कि वहॉ कोई ऐसा जरूर होना चाहिए जो सभी को एक साथ संभाले हुये है।
11-तर्क से परमात्मॉ तक नहीं पहुंच सकते हो-
जहॉ पर परमात्मॉ तक पहुंचने के लिए तर्क होता है वहॉ फिर परमात्मॉ तक पहुंचना सम्भव नहीं है।केवल प्रेम के द्वारा ही परमात्मॉ तक पहुंचा जा सकता है।क्योंकि परमात्मॉ कोई तर्क के पार का निष्कर्ष नहीं है। इसीलिए वैज्ञानिक परमात्मॉ तक कभी नहीं पहुंचते। वास्तविक विचारक तो परमात्मॉ के स्तित्व को इंकार करते रहे हैं।यदि तुम इस बात पर चिंतन कर रहे हो तो परमात्मॉ पर विश्वाष नहीं कर सकते हो।उन्हैं परमात्मॉ निरर्थक और असम्भव प्रतीत होता है,उन्हैं यह सच नहीं लगता है।
Sunday, March 17, 2013
जीवन के तथ्य
साधारणतया मन कहता है, ‘कुछ भी ठीक नहीं है,इसलिए मन खोजता ही रहता है शिकायतें- ‘यह गलत है, वह गलत है। मन के लिए ‘हां’ कहना बड़ा कठिन है, क्योंकि जब तुम ‘हां’ कहते हो, तो मन ठहर जाता है;स्थिर हो जाता है। फिर मन की कोई जरुरत नहीं होती।
क्या तुमने ध्यान दिया है इस बात पर? जब तुम ‘नहीं’ कहते हो, तो मन और आगे सोचता है; क्योंकि ‘नहीं’ पर अंत नहीं होता। क्योंकि नहीं के आगे कोई पूर्ण-विराम नहीं है; वह तो एक शुरुआत है। हॉ जब हां कहते हो, तो एक पूर्ण विराम आ जाता है; अब मन के पास सोचने के लिए कुछ नहीं रहता, खीझने के लिए, शिकायत करने के लिए कुछ भी नहीं रहता। जब तुम हां कहते हो, तो मन ठहर जाता है; और मन का वह ठहरना ही संतोष है।
संतोष कोई सांत्वना नहीं है-मैंने बहुत से लोग देखे हैं जो सोचते हैं कि वे संतुष्ट हैं, क्योंकि वे स्वयं को तसल्ली देते हैं। सांत्वना तो एक खोटा सिक्का है। क्योंकि जब तुम सांत्वना देते हो स्वयं को, तो तुम संतुष्ट नहीं होते हो।
भीतर बहुत गहरा असंतोष होता है। लेकिन यह समझ कर कि असंतोष चिंता निर्मित करता है, यह समझ कर कि असंतोष परेशानी खड़ी करता है, यह समझ कर कि असंतोष से कुछ हल तो होता नहीं-बौद्धिक रूप से तुमने समझा-बुझा लिया होता है अपने को कि ‘यह कोई ढंग नहीं है।’ तो एक झूठा संतोष ओढ़ लिया होता है स्वयं पर; तुम कहते रहते हो, ‘मैं संतुष्ट हूं। मैं सिंहासनों के पीछे नहीं भागता; मैं धन के लिए नहीं लालायित होता; मैं किसी बात की आकांक्षा नहीं करता।’
तुमने सुनी होगी एक बहुत सुंदर कहानी। एक लोमड़ी एक बगीचे में जाती है। वह ऊपर देखती हैः अंगूरों के सुंदर गुच्छे लटक रहे हैं। वह कूदती है, लेकिन उसकी छलांग पर्याप्त नहीं है। वह पहुंच नहीं पाती। वह बहुत कोशिश करती है, लेकिन वह पहुंच नहीं पाती। फिर वह चारों ओर देखती है कि किसी ने उसकी हार देखी तो नहीं। फिर वह अकड़ कर चल पड़ती है। एक नन्हा खरगोश जो झाड़ी में छिपा हुआ था बाहर आता है और पूछता है, ‘मौसी, क्या हुआ?’ उसने देख लिया कि लोमड़ी हार गई, वह पहुंच नहीं पाई। लेकिन लोमड़ी कहती है, कुछ नहीं अंगूर खट्टे हैं।
2-ध्यान का अर्थ मन का मौन होना है-
यह इतना स्पष्ट और इतना सरल है कि इसे किसी व्याख्या की आवश्यकता नहीं। इसे मात्र वर्णन करने की आवश्यकता है। ध्यान कुछ और नहीं बस मौन अवस्था में तुम्हारा मन है। जैसे कि कोई झील शांत हो, उसमें कोई लहर न हो,विचार की लहरें हैं। ध्यान है विश्रांत मन,मन का कुछ न करने की अवस्था में, बस विश्रामपूर्ण होना ध्यान है। जिस क्षण तुम मौन और विश्रांत होते हो, उन चीजों के लिए, जिन्हें तुम पहले कभी न समझे थे, एक बड़ी गहन अंतर्दृष्टि और समझ तुममें आती है।
कोई तुम्हें समझा नहीं रहा। बस तुम्हारी दृष्टि की निर्मलता ही चीजों को स्पष्ट कर देती है। गुलाब होता है, पर अब तुम इसके सौंदर्य को बहुआयामी ढंग में जानते हो। तुमने इसे कई बार देखा था-यह बस एक साधारण गुलाब था। पर आज यह साधारण नहीं रहा; आज यह असाधारण हो गया क्योंकि दृष्टि में एक स्पष्टता और निर्मलता है। तुम्हारी अंतर्दृष्टि पर से धूल हट गई है और गुलाब के पास एक आभामंडल है जिसके बारे में तुम पहले सजग न थे।
तुम्हारे चारों ओर, तुम्हारे भीतर, और बाहर की हर चीज स्फटिक सदृश्य स्पष्ट हो जाती है। और जैसे-जैसे समझ अपने अन्तिम बिंदु पर पहुंचती है,तो प्रकाश का एक विस्फोट हो जाता है। स्पष्ट रूप से, अपनी चरम सीमा पर, प्रकाश का एक विस्फोट हो जाती है जिसे हम ‘संबोधि’ कह कर पुकारते हैं। यह बस उस स्पष्टता की प्रखरता ही है कि अंधकार विलीन हो जाता है। यह इसलिए है कि तुम इतना स्पष्ट देख सकते हो कि वहां अंधकार होता ही नहीं।
कई ऐसे पशु हैं जो अंधेरे में भी देख सकते हैं; उनकी आंखें अधिक स्वच्छ, अधिक पैनी होती हैं। तुम्हारी अंतर्दृष्टि इतनी पैनी हो जाती है कि सब अंधकार विलीन हो जाता है। दूसरे शब्दों में, तुम्हारे ऊपर प्रकाश का एक विस्फोट हो जाता है। इसे संबोधि कहो, मुक्ति कहो या अनुभूति कहो। पर फिर भी तुम तो इसके बाहर ही होते हो: यह तुम्हारा अनुभव है और तुम अनुभव कर सकते हो।
यह एक वस्तुगत अनुभव है; और फिर तुम तो एक आत्मचेतना हो। तुम जानते हो कि यह सब घट रहा है; उसे चोटी पर, उसे एवरेस्ट पर...केवल साक्षीभाव, बस शुद्ध साक्षीत्व; किसी चीज के प्रति सजग नहीं, किसी चीज के प्रति साक्षी नहीं-बस एक शुद्ध दर्पण, किसी चीज को प्रतिबिंबित करता हुआ नहीं। ये सब सजीव रूप से संबंधित हैं। एक-एक कदम चलो; दूसरा कदम फिर स्वतः ही आएगा।
3-चल माया और अचल असली है-
संत कबीरजी ने बहुत पते की बात कही थी-
चलती चक्की देखके दिया कबीरा रोय। दो पाटन के बीच में साबित बचा ना कोय॥
चक्की चले तो चालन दे तू काहे को रोय। लगा रहे जो कील से तो बाल न बाँका होय॥
चक्की में गेहूँ डालो या बाजरा डालो तो वह पीस देती है लेकिन वह दाना पिसने से बच जाता है जो कील के साथ सटा रह जाता है। यह बदलने वाला जो चल रहा है, वह अचल के सहारे चल रहा है। जैसे बीच में कील होती है उसके आधार पर चक्की घूमती है, साइकिल या मोटर साइकिल का पहिया एक्सल पर घूमता है। एक्सल ज्यों-का-त्यों रहता है।
पहिया जिस पर घूमता है, वह घूमने की क्रिया से रहित है। न घूमनेवाले पर ही घूमनेवाला घूमता है। ऐसे ही अचल पर ही चल चल रहा है, जैसे - अचल आत्मा के बल से बचपन बदल गया, दुःख बदल गया, सुख बदल गया, मन बदल गया, बुद्धि बदल गयी, अहं भी बदलता रहता है - कभी छोटा होता है, कभी बढ़ता है ।
जो अचल है वह असली है, और जो चल है वह माया है। कोई दुःख आये तो समझ लेना यह चल है, सुख आये तो समझ लेना यह चल है, चिंता आये तो समझ लेना चल है, खुशी आये तो समझ लेना चल है। जो आया है वह सब चल है। तो दो तत्त्व हैं - प्रकृति ‘चल’ है और परमेश्वर आत्मा ‘अचल’ है। अचल में जो सुख है, ज्ञान है, सामर्थ्य है उसी से चल चल रहा है।
जो दिखता है वह चल है, अचल तो दिखता नहीं है। जैसे मन दिखता है बुद्धि से, बुद्धि दिखती है विवेक से और विवेक दिखता है अचल आत्मा से। मेरा विवेक विकसित है कि अविकसित है यह भी दिखता है अचल आत्मा से। अचल से ही सब चल दिखेगा, और सारे चल मिलकर अचल को नहीं देख सकते हैं। अचल को बोलते हैं: 1ओंकार, सतिनाम, करता, कर्ता-धर्ता वही है अचल। वह अजन्मा और स्वयंभू है। चल योनि (जन्म) में आता है, अचल नहीं आता। तो मिले कैसे? बोले: गुरुकृपा से मिलता है। चल के आदि में जो था, चल के समय में भी है, चल मर जाय लेकिन फिर भी जो रहता है युगों से वह अचल है।
आप हरि ओ... म्... इस प्रकार लम्बा उच्चारण करके थोड़ी देर शांत होते हैं, तो आपका मन उतनी देर अचल में रहता है। थोड़े ही समय में लगता है कि तनावमुक्त हो गये, चिंतारहित हो गये - यह ध्यान का तरीका है। ज्ञान का तरीका है कि चल कितना बदल गया अचल में। सुख-दुःख को जाननेवाला भी अचल है। अगर इस अचल में प्रीति हो जाय, अगर अचल का ज्ञान पाने में लग जायें अथवा ‘मैं कौन हूँ?’ यह खोजने में लग जायें तो यह अचल परमात्मा दिख जायेगा अथवा ‘परमात्मा कैसे मिलें?’ इसमें लगोगे तो अपने ‘मैं’ का पता चल जायेगा।
क्योंकि जो मैं हूँ वही आत्मा है और जो आत्मा है वही अचल परमात्मा है। जो बुलबुला है वही पानी है और पानी ही सागर के रूप में लहरा रहा है। ‘‘बुलबुला सागर कैसे हो सकता है ?’’ बुलबुला सागर नहीं है लेकिन पानी सागर है। ऐसे ही जो अचल आत्मा है वह परमात्मा का अविभाज्य अंग है। घड़े का जो आकाश है, थोड़ा दिखता है लेकिन है यह महाकाश ही।
जो अचल है उसमें आ जाओ तो चल का प्रभाव दुःख नहीं देगा। नहीं तो चल कितना भी ठीक करो, शरीर को कभी कुछ-कभी कुछ होता ही रहता है। ‘यह होता है तो शरीर को होता है, मुझे नहीं होता’ - ऐसा समझकर शरीर का इलाज करो लेकिन शरीर की पीड़ा अपने में मत मिलाओ, मन की गड़बड़ी अपने अचल आत्मा में मत मिलाओ तो जल्दी मंगल होगा।
4-तनाव पूर्व जन्म का संस्कार है-
समय ने एक समस्या अत्पन्न की है तनाव। व्यस्त जिंदगी, ऊंचे ख्वाबों को हकीकत में बदलने की आतुरता और भागमभाग में चारों दिशाओं से मिलने वाली चुनौतियां इस समस्या को जन्म देती है। मोटे तौर पर हमारे मन की तीन अवस्थाएं हैं। प्रथम, चेतन मन जिसमें सारे अनुभव हमारी स्मृति में रहते हैं और हमें उनका ज्ञान रहता है। द्वितीय अवचेतन मन इसमें हमारे वे अनुभव होते हैं जो बिना ध्यान के ही रिकॉर्ड हो जाते हैं। अवचेतन मन स्वतः अपना कार्य करता रहता।
तृतीय,अचेतन मन इसमें पुराने दबे हुए संस्कार रहते हैं। समझा जाता है कि अचेतन मन में पूर्व जन्म के संस्कार भी संचित रहते हैं। समय या सभ्यता के प्रभाव से तनाव जीवन का अंग सा बन गया है तो इसके प्रभाव से मुक्त रहने के बारे में सोचना चाहिए। योगशास्त्र के अनुसार तनाव से मुक्ति का सरल सा उपाय है- योग निद्रा।
इसके लक्षण गहरी नींद की तरह होते हैं परन्तु वास्तव में यह नींद नहीं होती। इसमें हमारी चेतना मन की आन्तरिक परतों को खोलती हुई अचेतन अवस्था तक पहुंचने का प्रयास करती है। हमारे मस्तिष्क के प्रत्येक भाग में हमारे जीवन से संबंधित लाखों, करोड़ों प्रकार के अनुभव, सिद्धान्त, आदर्श और संस्कार आदि जमा रहते हैं। इसी प्रकार हमारे पूर्व जन्मों के भी लाखों, करोड़ों संस्कार बीज रूप में मौजूद रहते हैं। इन्हीं सब संस्कारों के कारण हमारा मन समय-समय पर तनाव से प्रभावित होने लगता है। योग निद्रा के बार-बार और लगातार लंबे समय तक अभ्यास करते रहने से व्यक्ति उस अचेतन मन में पड़े संस्कारों तक पहुँचकर उनसे मुक्ति प्राप्त करने में सफल हो सकता है।
Monday, March 11, 2013
जीवन जीने का पवित्र मार्ग
प्रेम शक्ति भी है और आसक्ति भी। जब व्यक्ति का प्रेम कामना रहित होता है तो यह शक्ति होती है और जब प्रेम में किसी चीज को पाने का लोभ रहता है तो यह आसक्ति बन जाती है। सच्चा प्रेम वह होता है जो प्रेम में किसी प्रकार का लोभ और किसी चीज को पाने की कामना नहीं रखता है। ऐसा व्यक्ति प्रेम में ऐसा कमाल कर जाता है कि, बड़े से बड़े बलवान और धनवान उसके आगे घुटने टेक देते हैं।
प्रह्लाह का आग के शोलों में भी मुस्कुराते हुए रहना और तुलसीदास का उफनती नदी को पार कर जाना यह प्रेम की शक्ति का उदाहरण है। संतजन कहते हैं कि जिसके हृदय में सच्चा प्रेम होता है वही व्यक्ति ईश्वर का भक्त हो सकता है। जरूरत है बस प्रेम की चाहे वह पैसे से हो, किसी स्त्री से, बच्चे से या अन्य सांसारिक वस्तुओं से।
अगर हृदय में प्रेम होगा ही नहीं तो ईश्वर क्या संसार में किसी चीज से लगाव हो ही नहीं सकता। भगवान से प्रेम करना वास्तव में उसी प्रकार है जैसा एक दिशाहीन गाड़ी को सही दिशा देना। संत श्री गोकुलनाथ जी ने कहा है कि जिसके हृदय में प्रेम का अंकुर होता है उस व्यक्ति को भक्ति की ओर प्रेरित किया जा सकता है, क्योंकि प्रेम का वृक्ष तभी उग सकता है जब प्रेम का बीज, प्रेम का अंकुर हृदय में मौजूद हो। बिना बीज के खेती भला कैसे हो सकती है।
इस संदर्भ में एक कथा है कि एक बार संत श्रीगोसाईं गोकुलनाथ जी के यहां एक धनवान व्यक्ति बहुत सारा धन लेकर शिष्य बनने की कामना से आया। गोसाईं जी ने उस व्यक्ति से पूछा कि क्या तुम्हारा कहीं किसी वस्तु पर ऐसा स्नेह है, जिसके बिना तुम्हारा मन व्याकुल हो जाता हो। उस व्यक्ति ने उत्तर दिया मेरा कहीं किसी वस्तु में तनिक भी स्नेह नहीं है।
उत्तर सुनकर गोसाईं जी ने कहा कि फिर तो हम तुम्हें दीक्षा कदापि नहीं दे सकते। तुम किसी और गुरू को ढूंढ लो। भक्तिमार्ग में प्रेम ही प्रधान है। व्यक्ति का जो प्रेम संसार से होता है, दीक्षा शिक्षा से उसी को पलटकर भगवान में लगा दिया जाता है। जब तुम्हारे हृदय में कहीं प्रेम है ही नहीं तो भगवान के प्रेम से भला कैसे सराबोर हो सकते है।
2-अपने लिये कर्ज को अवश्य चुकाएं-
लोग सुख-सुविधा में वृद्धि के लिए हर उपाय करते हैं, किसी से कर्ज लेना पड़े तो इसमें हिचकते नहीं हैं। लेकिन जब कर्ज चुकाने का समय आता है तो दस तरह के बहाने बनाने शुरू कर देते हैं। जब कर्ज देने वाला व्यक्ति पीछे पड़ जाता है तब उससे कन्नी काटते फिरते हैं कि, कहीं आमना-सामना न हो जाएं। मन में यह भी विचार आता रहता है कि किसी तरह कर्ज देने वाला व्यक्ति मर जाए ताकि कर्ज चुकाने के झंझट से मुक्ति मिल जाए। ऐसी स्थिति तब होती है जब कर्ज चुकाने की भावना नहीं रहती है। लेकिन आप चाहें न चाहें बिना कर्ज चुकाये मुक्ति नहीं मिल सकती।
आप वर्तमान रूप में चुकाएं अथवा किसी अन्य रूप में कर्ज हर हाल में चुकाना पड़ता है। जिसने आपको कर्ज दिया है वह आपसे हर हाल में कर्ज वसूल कर रहेगा। इस नियम से भगवन भी वंचित नहीं है। तिरूपति बालाजी के विषय में मान्यता है कि इन्होंने विवाह के लिए कुबेर से सोना ऋण लिया था। जब तक बालाजी कुबेर का ऋण नहीं चुका देते तब तक इन्हें पृथ्वी लोक में रहना होगा। इसी मान्यता के कारण तिरूपति मंदिर में सोना चढ़ाया जाता है।
ग्रामीण इलाकों में किसी की अल्पायु में मृत्यु होने पर लोग आज भी कहते हैं कि मरने वाला व्यक्ति किसी कर्ज की वसूली के लिए आया था। शास्त्रों में कहा गया है कि मृत्यु के समय किसी भी प्रकार का बंधन नहीं होना चाहिए। कर्ज भी एक प्रकार का बंधन बताया गया है जो जीवात्मा को बार-बार जीवन मृत्यु के चक्र में भटकाता है इसलिए जिससे कर्ज लिया है उसका कर्ज समय रहते चुका देना चाहिए।
3-पाप की पूंजी जमां न करें-
आपने कभी किसी के ऊपर हो रहे अत्याचार के विरूद्ध आवाज उठायी है। किसी कमज़ोर और लाचार को पिटता देखकर मदद के लिए आगे आएं हैं। अगर आपने ऐसा नहीं किया है तो समझ लीजिए आपने अपने खाते में पाप की पूंजी जमा कर ली है। शास्त्रों में जिस प्रकार से पाप और पुण्य को परिभाषित किया गया है उसके अनुसार जो व्यक्ति किसी को कष्ट में देखकर उसकी मदद नहीं करता है। किसी के भय से अथवा अपने स्वार्थ के कारण झूठ बोलता है और शरण में आये व्यक्ति की रक्षा नहीं करता है वह पापी है।
इस संदर्भ में एक कथा का उल्लेख पुराणों में मिलता है। एक थे राजा शिवि। इनके धार्मिक स्वभाव और दयालुता एवं परोपकार के गुण की ख्याति स्वर्ग में भी पहुंच गयी। इन्द्र और अग्नि देव ने योजना बनायी कि राशि शिवि के गुणों को परखा जाए। एक दिन अग्नि देव कबूतर बने और इन्द्र बाज। कबूतर उड़ता हुआ राजा शिवि की गोद में आकर बैठ गया और अपनी रक्षा के लिए प्रार्थना करने लगा। इसी बीज बड़ा सा बाज राजा शिवि के पास पहुंचा और कबूतर को वापस करने के मांग करने लगा। बाज ने कहा कि, कबूतर मेरा आहार है अगर आप मुझे वापस नहीं करेंगे तो आपको मुझे भूखा रखने का पाप लगेगा।
बाज की बातों को सुनकर राजा शिवि ने कहा कि कबूतर मैं तुम्हें नहीं दूंगा अगर कोई अन्य उपाय है तो बताओ। बाज ने कहा कि कबूतर के मांस के बराबर मुझे मांस दे दीजिए इससे मेरा काम हो जाएगा। राजा ने विचार किया कि एक जीव को बचाने के लिए दूसरे जीव का कष्ट देना पाप होगा। यही सोच कर राजा ने कबूतर को तराजू के एक पलडे में डाल दिया और अपने शरीर से मांस काटकर दूसरे पलड़े में रखने लगे। लेकिन काफी मांस रखने के बाद भी पलड़ा हिला तक नहीं। अंत में राजा शिव स्वयं दूसरे पलड़े पर बैठ गये और बाज से कहा कि तुम मुझे खाकर अपनी भूख शांत कर लो।
राजा के इस दयालुता और शरण में आये हुए कि मदद करने की भावना को देखकर कबूतर अग्नि देव और बाज देवराज इन्द्र के रूप में प्रकट हुए। आसमान से फूलों की वर्षा होने लगी। देवराज इन्द्र ने कहा कि तुम ने धर्म की लाज रखी है। जो शरण में आये की रक्षा नहीं करता वह पापी है। कमज़ोर की सहायता न करने वाला भी अधर्मी है। दोनों देवताओं ने राजा शिवि को आशीर्वाद दिया और स्वर्ग चले गये।
4-भगवान की नजर में सब एक समान हैं-
इतिहास के पन्नों को उलट करके देखेंगे तो पाएंगे कि आज जितना ऊंच-नीच एवं अमीर-गरीब का भेद-भाव है वह वैदिक काल के आरंभ में नहीं था। उस समय सामाजिक व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए कर्म के अनुसार वर्ग विभेद किया गया। लेकिन बाद में व्यवस्थाओं में जटिलता आती गयी और भेद-भाव बढ़ता गया। लेकिन यह भेद-भाव ऊपरी स्तर पर है। मूल में कहीं भेद-भाव नहीं है। मूल ईश्वर है और ऊपरी दुनिया वह है जहां हम मनुष्य और जीव-जन्तु विचरण करते हैं।
भगवान की नज़र में सभी एक समान हैं। ईश्वर की दृष्टि में न तो जात-पात है और न लिंग भेद। श्री रामानंदाचार्य ने कहा है 'जात-पात पूछे न कोई। हरि को भजे सो हरि का होई।।' भगवान कभी किसी के साथ किसी आधार पर भेद-भाव नहीं करते हैं। केवट ने भगवान से प्रेम किया तो भगवान� बिना किसी भेद-भाव के केवट की नैया में बैठे और केवट की जीवन नैया को पार लगा दिया। श्री राम के चरण रज को पीकर केवट परम पद पाने में सफल हुआ।
भगवान की दृष्टि में सभी बराबर हैं इसका उदाहरण भक्त सबरी के जीवन की एक घटना है। सबरी भील जाति की एक महिला थी। राम की भक्ति इनके मन में ऐसी बसी की राम में ही खुद को अर्पित कर दिया। एक बार सबरी मार्ग में झाड़ू लगा रही थी उस समय साधुओं का एक समूह मार्ग से गुजरा। अनजाने में सबरी का स्पर्श साधुओं से हो गया।
साधु इससे नाराज हुए कि एक भीलनी उससे स्पर्श कर गयी। भगवान को यह बात अच्छी नहीं लगी। साधुओं को जात-पात के भेद-भाव की नासमझी को दूर करने के लिए भगवान ने एक लीला की। साधुगण जिस सरोवर में स्नान करते थे। उस सरोवर में जैसे ही साधुओं ने प्रवेश किया सरोवर का जल दूषित हो गया। सरोवर के जल से बदबू आने लगी।
साधुओं ने सरोवर के जल को शुद्घ करने के लिए कई हवन और यज्ञ किया लेकिन कोई परिणाम नहीं निकला। एक दिन सीता की खोज करते हुए भगवान राम जब सबरी की कुटिया में पधारे तब साधुओं को अपने ऊपर काफी ग्लानि हुई। उन्हें समझ में आ गया कि सबरी की भक्ति उनकी भक्ति भावना से बढ़कर है। सभी साधु सबरी की कुटिया में पधारे।
भगवान राम के दर्शनों के पश्चात साधुओं ने राम से प्रार्थना की, कि सरोबर के जल को निर्मल करने का उपाय बताएं। भगवान राम ने साधुओं से कहा कि आप सबरी के पैरों को धोएं और उस जल को ले जाकर सरोबर में मिलाएं। इस उपाय को करने से सरोबर का जल निर्मल हो जाएगा। साधुओं ने ऐसा ही किया और सरोवर का जल सुगंधित और स्वच्छ हो गया>
5-श्री कृष्ण और शंकर में छिड गया था युद्ध-
भगवान श्री कृष्ण विष्णु के अवतार माने जाते हैं। भगवान विष्णु और शिव एक दूसरे के भक्त भी हैं। पुराणों में जो कथाएं मिलती हैं उनके अनुसार शिव को नहीं मानने वाला व्यक्ति विष्णु का प्रिय नहीं हो सकता। इसी प्रकार विष्णु का शत्रु शिव की कृपा का भागी नहीं हो सकता है। लेकिन एक घटना ऐसी हुई जिससे भगवान शिव और विष्णु के अवतार श्री कृष्ण युद्ध में आमने सामने आ गये, और छिड़ गया महासंग्राम।
पुराणों में शिव और श्री कृष्ण के बीच हुए युद्ध की जो कथा मिलती है उसके अनुसार। राजा बलि के पुत्र वाणासुर ने भगवान शिव की तपस्या करके उनसे सहस्र भुजाओं का वरदान प्राप्त कर लिया। वाणासुर के बल से भयभीत होकर सभी उससे युद्ध करने से डरते थे। इससे वाणासुर को बल का अभिमान हो गया।
वाणासुर की पुत्री उषा ने एक रात स्वप्न में श्री कृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध को देखा। उषा स्वप्न में ही अनिरुद्ध को देखकर उस पर मोहित हो गयी। उषा ने अपने मन की बात सखी को बतायी। सखी ने अपनी मायावी विद्या से अनिरुद्ध को उसके पलंग सहित महल से चुरा कर उषा के शयन कक्ष में पहुंचा दिया। अनिरुद्ध की नींद खुली तो उसकी नज़र उषा पर गयी, अनिरुद्ध भी उषा के सौन्दर्य पर मोहित हो गया।
जब वाणासुर को पता चला कि उसकी पुत्री के शयन कक्ष में कोई पुरूष है तो सैनिकों को लेकर उषा के शयन कक्ष में पहुंचा। वहां पर वाणासुर ने अनिरुद्ध को देखा। वाणासुर के क्रोध की सीमा न रही और उसने अनिरुद्ध को युद्ध के ललकारा। वाणासुर और अनिरुद्ध के बीच युद्ध होने लगा। वाणासुर के सभी अस्त्र विफल हो गये तब उसने नागपाश में अनिरुद्ध को बांध कर बंदी बना लिया।
इस पूरी घटना की जानकारी जब श्री कृष्ण को मिली तो वह अपनी सेना के साथ वाणासुर की राजधानी में पहुंच गये। श्री कृष्ण और वाणासुर के बीच युद्ध होने लगा। युद्ध में अपनी हार होता हुआ देखकर वाणासुर को शिव की याद आयी जिसने वाणासुर को संकट के समय रक्षा करने का वरदान दिया था।
वाणासुर ने शिव का ध्यान किया तो शिव जी युद्ध भूमि में प्रकट हो गये। वाणासुर की रक्षा के लिए शिव ने श्री कृष्ण से कहा कि युद्ध भूमि से लौट जाएं अन्यथा मेरे साथ युद्ध करें। श्री कृष्ण ने शिव से युद्ध करना स्वीकार किया और छिड़ गया शिव एवं श्री कृष्ण के बीच महासंग्राम। श्री कृष्ण ने देखा कि शिव के रहते हुए वह वाणासुर को परास्त नहीं कर सकते तो उन्होंने शिव से कहा कि मेरे हाथों से वाणासुर का पराजित होना विधि का विधान है।
आपके रहते मैं विधि के इस नियम का पालन नहीं कर पाऊंगा श्री कृष्ण कि इन बातों को सुनकर भगवान शिव युद्ध भूमि से चले गये। इसके बाद श्री कृष्ण ने वाणासुर चार बाजुओं को छोड़कर सभी को सुदर्शन चक्र से काट दिया। वाणासुर का अभिमान चूर हुआ और उसने श्री कृष्ण से क्षमा मांगकर अनिरुद्ध का विवाह उषा से करवा दिया।
6-जीसस क्राइस्ट कृष्ण के अवतार थे-
लुईस जेकोलियत ने 1869 ई. में अपनी एक पुस्तक 'द बाईबिल इन इंडिया' में लिखा है कि जीसस क्राइस्ट और भगवान श्री कृष्ण एक थे। लुईस जेकोलियत फ्रांस के एक साहित्यकार और वकील थे। इन्होंने अपनी पुस्तक में कृष्ण और क्राईस्ट का तुलना प्रस्तुत की है। इन्होंने अपनी पुस्तक में यह भी कहा है कि क्राईस्ट शब्द कृष्ण का ही रूपांतरण है। क्राइस्ट के अनुयायी क्रिश्चियन कहलाये।
जीसस शब्द के विषय में लुईस ने कहा है कि क्राईस्ट को 'जीसस' नाम भी उनके अनुयायियों ने दिया है इसका संस्कृति में अर्थ होता है 'मूल तत्व'। भगवान श्री कृष्ण को गीता एवं धार्मिक ग्रंथों में इस रूप में ही व्यक्त किया गया है। जीसस क्राइस्ट के विषय में यह भी उल्लेख मिलता है कि इन्होंने अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा भारत में बिताया।
निकोलस नातोविच नामक एक रूसी युद्घ संवाददाता ने अपनी पुस्तक 'द अननोन लाईफ ऑफ जीसस क्राइस्ट' में लिखा है कि जीसस ने अपने जीवन का 18 वर्ष भारत में बिताया। जीसस प्राचीन व्यापारिक मार्ग सिल्क रूट से भारत आये थे। इन्होंने तिब्बत और कश्मीर के मोनेस्ट्री में काफी समय बिताया और बौद्घ एवं भारतीय धर्म ग्रंथों एवं आध्यात्मिक विषयों का अध्ययन किया। अपनी भारत यात्रा के दौरान जीसस ने उड़ीसा के जगन्नाथ मंदिर की भी यात्रा की थी एवं यहां रहकर इन्होंने अध्ययन किया था।
माना जाता है कि भारत में जब बौद्घ धर्म एवं ब्राह्मणों के बीच संघर्ष छिड़ा तब जीसस भारत छोड़कर वापस चले गये। भारत से वापसी के समय जीसस पर्सिया यानी वर्तमान ईरान गये। यहां इन्होंने जरथुस्ट्र के अनुयायियों को उपदेश दिया। जीसस के विषय में यह भी मान्यता है कि जीसस जीवन के अंतिम समय में पुनः भारत आये थे।
सादिक ने अपनी ऐतिहासिक कृति 'इकमाल-उद्-दीन' में उल्लेख किया है कि जीसस ने अपनी पहली यात्रा में तांत्रिक साधना एवं योग का अभ्यास किया। इसी के बल पर सूली पर लटकाये जाने के बावजूद जीसस जीवित हो गये। इसके बाद ईसा फिर कभी यहूदी राज्य में नज़र नहीं आये। यह अपने योग बल से भारत आ गये और 'युज-आशफ' नाम से कश्मीर में रहे। यहीं पर ईसा ने देह का त्याग किया ।
Thursday, March 7, 2013
जीवन की परिधि
1- सौन्दर्य का स्वरूप
1- इस ग्रह पर जन्मा हरेक बच्चा सुंदर है, जैसे-जैसे वो बड़ा होने लगता है, बच्चे की सुंदरता, मासूमियत खो जाती है। निर्दोषता तुम्हें सुंदर बनाती है। दिखने में तुम चाहे जितने भी सुंदर क्यूं न हों, अगर तुम्हारा मन तनावग्रस्त है, अगर तुम्हारी चेतना क्रोध, निराशा और नकारात्मक विचारों से भरी है, तो यह तुम्हारे चेहरे पर साफ़ दिखाई देता है।
2- असली सौन्दर्य आनंद है, और आनंद भीतर से आता है, जागो और देखो कि तुम एक बालक जैसे निर्दोष हो, एक बार जब हम मान लेते हैं कि हम स्वयं के, जीवन के बारे में बहुत कम जानते हैं, तब हम निर्दोषता की ओर वापस जाते हैं, ज्ञान का उद्देश्य तुम्हें उस अज्ञानमय "मैं कुछ नहीं जानता से एक सुन्दर "मैं कुछ नहीं जानता" तक ले के जाना है। जब ये परिवर्तन भीतर से घटित होता है। तब तुम सबसे सुन्दर व्यक्ति बन जाते हो।
3- निराशा, क्रोध हमेशा अतीत को लेकर होते हैं और व्यग्रता हमेशा भविष्य के लिए होती है। जीवन में तुम्हें चिंता और पश्चाताप के बहुत से उदहारण मिले होंगे। अगर तुम भूतकाल से छुटकारा पा लो और वर्तमान में आ जाओ तो तुम आत्मा की निर्दोषता पर वापस आ सकते हो।
4- भरोसा भी तुम्हारी सुन्दरता को बढ़ाता है। तुम लोगों की अच्छाई पर शक करते हो लेकिन लोगों के बुरे गुणों पर कभी शक नहीं करते। शक के स्वभाव को समझो। तुम इस संसार में भरोसे के गुणों को ले कर आए हो। एक बच्चे के रूप में हम इस ग्रह पर भरोसे के साथ आए हैं। इसीलिए बच्चा इतना सुंदर है। बालक उसके आनंद, मासूमियत और भरोसे की वजह से सुंदर है।
5- बालक का दूसरा गुण है वर्तमान में जीना। ये गुण तुम्हारी सुन्दरता को बढ़ाता है। ज़रा आइने में अपने चेहरे पर निगाह डालो और देखो इस शरीर के भीतर क्या है। क्या भरोसा है। अगर नहीं, तो ऐसा कब होगा। अब ये होना चाहिए। जिस क्षण तुम उस पर ध्यान लगाओगे। तुम पाओगे कि भरोसा निरंतर बढ़ रहा है।
6- किसी ऐसे व्यक्ति की तरफ देखो जो किसी चीज़ के लिए तरस रहा है और किसी ऐसे व्यक्ति की तरफ देखो जो संतुष्ट और तृप्त है। जो संतुष्ट है वह ज़्यादा सुन्दर लगता है। हम जितने ज़्यादा संतुष्ट होंगे उतनी ज़्यादा उन्नति कर सकेंगे।
7- जब तुम अपना जीवन किसी उद्देश्यपूर्ण, उपयोगी सेवा में लगा देते हो, तुम्हारी सुन्दरता बढ़ती है, यदि तुम हमेशा अपने बारे में सोचते रहते हो, तो यह तुम्हें बदसूरत बनाने के लिए काफी है। अगर तुम अपना जीवन किसी के लिए बाँट सकते हो, तब भीतर से जो सुन्दरता उगती है, वो अद्वितीय है, असली सुन्दरता तुम्हारे भीतर जो गुण हैं उन्हें प्रदर्शित करने में है।
8- बस, महसूस करो कि तुम इस दैवत्व का हिस्सा हो। यह ब्रह्माण्ड प्राणशक्ति का अखंड प्रवाह है। बस इस सत्य पर तुम्हारा ध्यान तुम्हारे भीतर की सुन्दरता को जागृत करता है। तुम्हारे पास जो भी है जैसे तुम्हारी ऑंखें, कानए पैर, आदि कुछ चीज़ों के लिए कृतज्ञता महसूस करो। हर रोज़ सुबह, जीवन में तुम्हें जो भी मिला है उसके बारे में सोचो। फिर तुम्हारा सारा दिन ज़्यादा कृतज्ञता और आभार में व्यतीत होगा।
9- कृतज्ञता तुम्हें और भी सुंदर बनाती है। लगभग सभी सभ्यताओं में माँ अपने बच्चों को सोने से पहले प्रार्थना करना सीखाती है। इस प्राचीन अभ्यास का महत्त्व ये है कि जब तुम अपने हृदय में इतनी कृतज्ञता ले कर सोते हो, तुम्हारा मन शांत और स्थिर हो जाता है, रोज़ सोने से पहले तुम्हें जितने वरदान मिले हैं उनकी गिनती करना, ये तुम्हारे भीतर की सुन्दरता का आह्वान करेगी और तुम दुसरे दिन तरोताज़ा, तनावमुक्त और पुनर्जीवित हो कर जागोगे।
2-छोटा सुख बडे सुख में कैसे बदलें
अ- छोटी सी बात हमें याद रखनी होगी कि कभी-कभी ऐसा होता है कि आज हमें लगता है कि इसमें खूब सुख है और हमें यह भी दिखायी पड़ता है कि अगर हम इसका त्याग कर दें तो कल अनंतगुना सुख हो सकता हैं। लेकिन वह कल तो होगा, लेकिन हम आज के ही सुख को पकड़ लेते हैं। कल के अनंत गुने को छोड़ देते है। इसलिए हम दीन रह जाते हैं, दरिद्र रह जाते हैं। माना तुम्हारे पास मुट्ठी भर अन्न है, हम उसे आज खा लेते हैं, तो थोड़ा सा सुख मिलेगा। लेकिन अगर तुम इसे बो देते हैं तो शायद दो-चार महीने प्रतीक्षा करनी पड़ेगी,लेकिन बड़ी फसल पैदा होगी। शायद साल भर के लायक भोजन पैदा हो जाए।
ब- हमात्मॉ बुद्ध ने कहा है कि बुद्धिमान वह है, जो अल्प को छोड़कर विराट को उपलब्ध करने में लगा रहता है। जो जीवन में सदा ध्यान रखता है कि जो मैं कर रहा हूं, इसका अंतिम फल क्या होगा? आज का ही सवाल नहीं है, इसका अन्तिम परिणाम क्या होगा?
स- गंगा बूंद-बूंद पैदा होती है। गोमुख से गिरती है गंगोत्री,उस समय तुम उस जल को अपनी मुट्ठी में ले सकते हो। फिर बड़ी होती जाती है, और बड़ी होती जाती है। जब गंगा सागर में गिरती है तब तुम विश्वास भी न कर सकोगे कि यह वही गंगा है जो गोमुख से गिरती है। जो गंगोत्री में बूंद-बूंद टपकती है, जिसको तुम मुट्ठी में बांध ले सकते थे, यह वही गंगा है? पहचान नहीं आती।
द- बीज के बाद छोटा, वृक्ष फिर बहुत बड़ा हो जाता है। बुद्धिमान व्यक्ति अल्पसुख को महासुख के लिए छोड देता है। छोटे को न पकड़े, क्षुद्र को न पकड़े, विराट पर ध्यान रखे। ‘दूसरे को दुख देकर जो अपने लिए सुख चाहता है, वह वैर चक्र में फंसा हुआ व्यक्ति कभी वैर से मुक्त नहीं होता।’ और बुद्ध ने कहा है कि - सुख तो सभी चाहते हैं, मगर सुख की चाह में एक बात खयाल रखना-पहला सूत्र- अल्पसुख को छोड़ देना महासुख के लिए। दूसरा सूत्र कहा-यह खयाल रखना कि- सुख तो चाहना, लेकिन दूसरे के दुख पर तुम्हारा सुख निर्भर न हो। दूसरे के दुख पर आधारित सुख तुम्हें अंततः दुख में ही ले जाएगा, महादुख में ले जाएगा।
3-सुख चाहिए तो पहले दुख को जानना सीखो
अ- यदि तुम्हैं दुख को मिटाना हो, तो सुख की कल्पना छोड़ देनी पड़ेगी और पहले दु:ख को ही जानना पड़ेगा। और देखने वाली बात होगी कि जो दुख को जानता है, उसका दु:ख स्वतः मिट जाता है,और जो सुख को मानता है, उसका दुख छिप जाता है; मिटता नहीं, भीतर चला जाता है। इसी प्रकार अगर अज्ञान को मिटाना है, तो ज्ञान की कल्पना नहीं करनी है-अज्ञान को ही जानना है। अज्ञान को जो जानता है, उसे ज्ञान उपलब्ध हो जाता है। लेकिन जो ज्ञान को, झूठे ज्ञान को, कल्पित ज्ञान को पकड़ लेता है, उसका अज्ञान छिप जाता है, अज्ञान मिटता नहीं, जिससे ज्ञान उसे मिलता नहीं है, क्योंकि कल्पित ज्ञान का कोई भी अर्थ नहीं है।
ब- जैसे एक प्रश्न है कि- क्या हम सुखी हैं? क्या हमने कभी भी सुख जाना है? अगर कोई बहुत निष्पक्ष रूप से अपने जीवन पर लौट कर देखेगा, तो पाएगा, सुख-सुख तो कभी नहीं जाना, दुख ही जाना है। लेकिन दुख को हम भुलाते हैं। और जिस सुख को नहीं जाना, उसको कल्पित करते हैं, उसको थोपते हैं। हां, एक आशा है मन में कि कभी जानेंगे। और आशा उसी की होती है, जिसने न जाना हो। सुख को जाना नहीं है, इसलिए निरंतर सोचते हैं- आने वाले कल, भविष्य में सुख मिलेगा। जो और भी ज्यादा काल्पनिक हैं,फिर वे सोचते हैं, अगले जन्म में। जो और भी ज्यादा काल्पनिक हैं, वे सोचते हैं, किसी स्वर्ग में,या मोक्ष में सुख मिलेगा।
स- अगर आदमी ने सुख जाना होता, तो स्वर्ग की कल्पना कभी न करता। स्वर्ग की कल्पना उन लोगों ने की है, जिन्होंने सुख कभी भी नहीं जाना । जो नहीं जाना है, उसको स्वर्ग में निर्मित करने की आशा बांधे बैठे हुए हैं! सुख हमने जाना है कभी? कोई ऐसा क्षण है जीवन का जब हम कह सकें कि मैंने जाना सुख? और यह भी ध्यान रखने वाली बात है कि बहुत जल्दी में ऐसा मत कह देना; क्योंकि जिसने एक बार सुख जान लिया, वह दुख जानने में असमर्थ हो जाता है। जिसने सुख जान लिया, वह दुख जानने में असमर्थ हो जाता है। फिर वह दुख जानता ही नहीं। फिर वह दुख जान ही नहीं सकता। क्योंकि जो सुख जानता है, उसे यह भी पता चल जाता है कि मैं सुखी हूं। और चूंकि हम दुख जानते ही चले जाते हैं, यह इस बात का सबूत है कि सुख हमने कभी जाना नहीं। आशा है, कल्पना है। और कभी-कभी सुख को थोप भी लेते हैं।
द- एक मित्र आया है, गले लग गया है और हम कहते हैं, बहुत सुख मिल रहा है। गले मिल कर कितना सुख मिला है, उसके आलिंगन में कितना रस मिला है; लेकिन कभी आपने सोचा है कि जो मित्र आकर गले मिल गया है, दस मिनट, पंद्रह मिनट, बीस मिनट और गला छोड़े ही नहीं, तब क्या होगा जानते हो? ऐसी तबीयत होगी कि कोई पुलिस वाला आकर छुडा लेता, किसी तरह इससे छुटकारा दिलाए, यह क्या कर रहा है? और अगर घंटे दो घंटे वह गले को न छोड़े तो फांसी मालूम पड़ेगी।
य- अगर सुख था तो और बढ़ जाता? जो एक क्षण में सुख मिला था तो दस क्षण में और दस गुना हो जाता? लेकिन एक क्षण में सुख लगा था और दस क्षण में फांसी मालूम होने लगी! सुख नहीं था, कल्पित था; एक क्षण में खो गया। जो कल्पित है, वही क्षण भर टिकता है; जो सत्य है, वह सदा है। जो कल्पित है, वही क्षणभंगुर है। जो क्षणभंगुर है, उसे कल्पित जानना। क्योंकि जो है, वह शाश्वत है, वह सदा है। वह क्षण में नहीं है, वह नित्य है, वह कभी मिटता नहीं। वह है, और है, और है। था, और होगा, और होगा। कभी ऐसा क्षण नहीं आएगा, जब वह न हो जाए। जो सुख दु:ख में बदल जाता है, उसे कल्पित जानना। वह सुख था ही नहीं। और सब सुख जो हम जानते हैं, दु:ख में बदलने में समर्थ हैं।
4- हमारे पास मन के सिवा और कुछ नहीं होता है
अ-इस सम्बन्ध में हम सन्यासी के अर्थ को जानते हैं कि-संन्यास का अर्थ यही है कि मैं निर्णय लेता हूं कि अब से मेरे जीवन का केंद्र बिन्दु ध्यान होगा। धन नहीं होगा, यश नहीं होगा, संसार नहीं होगा। जीवन का केंन्द्र ध्यान होगा, धर्म होगा, परमात्मा होगा-ऐसा निरणय लेना ही संन्यास है। जीवन के केंद्र को बदलने की प्रक्रिया संन्यास है। वह जो जीवन के मंदिर में हमने प्रतिष्ठा कर रखी है--इंद्रियों की, वासनाओं की, इच्छाओं की, उनकी जगह मुक्ति की, मोक्ष की, निर्वाण की, प्रभु-मिलन की, मूर्ति की प्रतिष्ठा ध्यान है।
ब- जो व्यक्ति ध्यान को जीवन में अन्य कामों में एक काम की तरह करता है, घंटे भर ध्यान भी कर लेता है या चौबीस घण्टे ध्यान करता है-निश्चित ही उस व्यक्ति को बजाय जो व्यक्ति अपने चौबीस घंटे के जीवन को ध्यान में समर्पित करता है, चाहे दुकान पर बैठेगा तो ध्यानपूर्वक, चाहे भोजन करेगा तो ध्यानपूर्वक, चाहे बात करेगा किसी के साथ तो ध्यानपूर्वक, रास्ते पर चलेगा तो ध्यानपूर्वक, रात सोने जाएगा तो ध्यानपूर्वक, सुबह में बिस्तर से उठेगा तो ध्यानपूर्वक-ऐसे व्यक्ति का अर्थ है संन्यासी, जो ध्यान को अपने चैबीस घंटों पर फैलाने की आकांक्षा से भर गया है।
स- निश्चित ही संन्यास ध्यान के लिए गति देगा। और मनुष्य के मन का नियम है कि निर्णय लेते ही मन बदलना शुरू हो जाता है। आपने भीतर एक निर्णय किया कि आपके मन में परिवर्तन होना शुरू हो जाता है। वह निर्णय ही परिवर्तन के लिए क्रिस्टलाइजेशन बन जाता है।
द- कभी बैठे-बैठे इतना ही सोचें, चोरी करनी है, तो तत्काल आप दूसरे आदमी हो जाते हैं-तत्काल! चोरी करनी है इसका निर्णय आपने लिया कि चोरी के लिए जो मदद रूप है, वह मन आपको देना शुरु कर देता है सुझाव कि क्या करें, क्या न करें, कैसे कानून से बचें, क्या होगा, क्या नहीं होगा! एक निर्णय मन में बना कि मन उसके पीछे काम करना शुरु कर देता है। मन आपका गुलाम है। आप जो निर्णय ले लेते हैं, मन उसके लिए सुविधा शुरू कर देता है कि जब चोरी करनी ही है तो कब करें, किस प्रकार करें कि, फंस न जाएं, मन इसका इंतजाम जुटा देता है।
य- जैसे ही किसी ने निर्णय लिया कि मैं संन्यास लेता हूं कि, मन संन्यास के लिए भी सहायता पहुंचाना शुरू कर देता है। असल में निर्णय न लेने वाला आदमी ही मन के चक्कर में पड़ता है। जो आदमी निर्णय लेने की कला सीख जाता है, मन उसका गुलाम हो जाता है। वह जो अनिर्णयात्मक स्थिति है वही मन है। वह जो निर्णय है, संकल्प है,मन उनके बीच में खड़ा हो जाता है, मन उसके पीछे चलेगा। लेकिन जिसके पास कोई निर्णय नहीं है, संकल्प नहीं है, उसके पास सिर्फ मन होता है। और उस मन से बहुत पीड़ित और परेशान होते हैं। संन्यास का निर्णय लेते ही जीवन का रूपांतरण शुरू हो जाता है।
र- आदमी बहुत अनूठा है। उसका अनूठापन ऐसा है कि कोई अगर आपसे कहे कि दो हजार, या दो करोड़ या अरब तारे हैं, तो आप बिल्कुल मान लेते हैं। लेकिन अगर किसी दीवार पर नया पेंट किया गया हो और लिखा हो कि ताजा पेंट है, छूना मत, तो छूकर देखते ही हैं कि है भी ताजा कि नहीं! जब किया गया हो और लिखा हो कि ताजा पेंट है, छूना मत, तो छूकर देखते ही हैं कि है भी ताजा कि नहीं! जब तक अंगुली खराब न हो जाए तब तक मन नहीं मानता।
ल- सूरज को बिना सोचे मान लेते हैं और दीवार पर पेंट नया हो तो छूकर देखने का मन होता है। जितनी दूर की बात हो उतनी बिना दिक्कत के आदमी मान लेता है। जितनी निकट की बात हो उतनी दिक्कत खड़ी होती है। संन्यास आपके सर्वाधिक निकट की बात है। उससे निकट की और कोई बात नहीं है। अगर जो विवाह करेंगे तो वह भी दूर की बात है। क्योंकि उसमें दूसरा सम्मिलित है, आप अकेले नहीं है। संन्यास अकेली घटना है जिसमें आप अकेले ही हैं, कोई दूसरा सम्मिलित नहीं है। बहुत निकट की बात है। उसमें आप बड़ी परेशानी में हैं। उस निर्णय को लेकर मन को बड़ी कठिनाई होती है।
5-असुरक्षा में जीना सीखें
अ- पूर्ण असुरक्षा और उसमें जीने की क्षमता तो बुद्धि का ही प्रयोग है। जो व्यक्ति अल्पबुद्धि युक्त है,वह तो असुरक्षा में नहीं रह सकता और जो पूर्ण असुरक्षा में नहीं रह सकता वह संबुद्ध नहीं हो सकता। ये दो बातें नहीं है, ये एक ही बात को कहने के दो ढंग हैं। तो तुम असुरक्षा में रहने की तब तक प्रतीक्षा न करो जब तक तुम संबुद्ध न हो जाओ। क्योंकि फिर तो तुम कभी संबुद्ध न हो पाओगे।
ब- असुरक्षा में जीना शुरू करों, यही बुद्धत्व का मार्ग है।इसके लिए तुम्हैं पूर्ण असुरक्षा के बारे में नहीं सोचना है। जहां तुम हो वहीं से शुरू करो। जैसे तुम हो वैसे तो किसी चीज में समग्र नहीं हो सकते, लेकिन कहीं से तो शुरू करना ही होता है। शुरू में इससे संताप होगा, शुरू में इससे दुख होगा। लेकिन बस शुरू में ही। यदि तुम शुरूआत पार कर सको, तो दुख मिट जाएगा, संताप मिट जाएगा।
स- इस प्रक्रिया को समझना पड़ेगा। जब तुम असुरक्षित अनुभव करते हो तो परेशान क्यों होते हो? यह असुरक्षा का कारण नहीं है बल्कि सुरक्षा की मांग के कारण हैं। जब तुम असुरक्षित अनुभव करते हो तो परेशानी होने लगती है, संताप पैदा होता है। वह असुरक्षा के कारण पैदा नहीं हो रहा बल्कि जीवन को एक सुरक्षा प्रदान करने की मांग से पैदा हो रहा है। यदि तुम असुरक्षा में रहने लगो और सुरक्षा की मांग न करो तो जब मांग चली जाएगी तो संताप भी चला जाएगा। वह मांग ही संताप पैदा कर रही है।
द- असुरक्षा तो जीवन का स्वभाव है। बुद्ध के लिए संसार असुरक्षित है; जीसस के लिए भी असुरक्षित है। लेकिन वे संतप्त नहीं है, क्योंकि उन्होनें इस तथ्य को स्वीकार कर लिया है। वे इस वास्तविकता की स्वीकृति के लिए प्रौढ़ हो गये हैं। उस व्यक्ति को मैं अपरिपक्व कहता हूं, जो कल्पनाओं और सपनों के लिए वास्तविकता से लड़ता रहता है। वह व्यक्ति अपरिपक्व है। प्रौढ़ता का अर्थ है वास्तविकता का साक्षात्कार करना, सपनों को एक ओर फेंक देना और वास्तविकता जैसी है वैसी स्वीकार कर लेना। बुद्ध प्रौढ़ है। वह स्वीकार कर लेते है कि यह ऐसा ही है।
य- उदाहरण के लिए, भले ही मृत्यु सुनिश्चित है, पर अपरिपक्व व्यक्ति सोचे चला जाता है कि बाकी सब चाहें मर जाए लेकिन वह नहीं मरना चाहता। अपरिपक्व व्यक्ति सोचता है कि उसके मरने के समय तक कुछ खोज लिया जाएगा, कोई दवा खोज ली जाएगी, जिससे वह नहीं मरेगा। अपरिपक्व व्यक्ति सोचता है कि मरना कोई नियम नहीं है। निश्चित ही, बहुत से लोग मरे हैं, लेकिन हर चीज में अपवाद होते हैं और वह सोचता है कि वह अपवाद है।
र- जब भी कोई मरता है तो तुम सहानुभूति अनुभव करते हो, तुम्हें लगता है, बेचारा मर गया। लेकिन तुम्हारे मन में यह कभी नहीं आता कि उसकी मृत्यु तुम्हारी भी मृत्यु है। नहीं, तुम उससे बचकर निकल जाते हो। इतनी सूक्ष्म बातों को तो तुम छूते ही नहीं। तुम सोचते रहते हो कि कुछ न कुछ तुम्हें बचा लेगा-कोई मंत्र, कोई चमत्कारी गुरु। कुछ हो जाएगा और तुम बच जाओगे। तुम कहानियों में, बच्चों की कहानियों में जी रहे हो।
ल- प्रौढ़ व्यक्ति वह है जो इस तथ्य की ओर देखता है और स्वीकार कर लेता है कि जीवन और मृत्यु साथ-साथ हैं। मृत्यु जीवन का अंत नहीं है, वह तो जीवन का शिखर है। वह जीवन के साथ घटी कोई दुर्घटना नहीं है, वह तो जीवन के हृदय में विकसित होती है और एक शिखर पर पहुंचती हैं। प्रौढ़ व्यक्ति मृत्यु को स्वीकार कर लेता है और उसे मृत्यु का कोई भय नहीं रहता। वह समझ लेता है कि सुरक्षा असंभव है।
व- तुम चाहे एक चारदीवारी बना सकते हो, बैंक बैलेंस रख लो, स्वर्ग में सुरक्षा पाने के लिए धन दान दे दो, तुम सब कर लो, लेकिन गहरे में तुम जानते हो कि असल में कुछ भी सुरक्षित नहीं है। बैंक तुम्हें धोखा दे सकता है। और पुरोहित धोखेबाज हो सकता है, वह सबसे बड़ा धोखेबाज हो सकता है, कोई नहीं जानता।
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