1-अमृत चाहिए तो कर्तव्यों का निष्ठा से पालन करें
कर्म निष्ठा का अर्थ है कि हम जो भी कर्म करें, उसमें तन के साथ-साथ मन का भी पूरा योगदान हो। एक लोककथा के अनुसार एक मंदिर के सामने नर्तकी का घर था। इसलिए मंदिर में नर्तकी के घुंघरुओं और वाद्य-यंत्रों का संगीत सुनाई पड़ता और मंदिर की आरती, घंटा व शंख की गूंज नर्तकी के घर तक पहुंचती। पुजारी का मन हर समय नर्तकी के घर में ही लगा रहता। यहां तक कि भगवान की पूजा, भोग और आरती के समय भी।पुजारी को अपना जीवन व्यर्थ लगता, जबकि नर्तकी लोगों के सामने अपना नृत्य-गान पूरे मनोयोग से करती। हां, जब वह खाली होती तो मंदिर, भगवान और पुजारी के बारे में सोचती। उसे पुजारी का जीवन धन्य लगता और अपना जीवन नारकीय लगता। संयोगवश दोनों की मृत्यु एक समय ही हुई। यमराज ने नर्तकी को स्वर्ग और पुजारी को नर्क ले जाने का आदेश दिया। पुजारी द्वारा इस आदेश का विरोध करने पर यमराज ने कहा कि तुममें अपने कर्म के प्रति निष्ठा नहीं थी। भगवान की पूजा करते समय भी तुम्हारा मन वहां नहीं रहता था, जबकि यह नर्तकी अपना नृत्य-कर्म पूरी निष्ठा और लगन से करती थी, इसीलिए तुम्हें नर्क में भेजा जा रहा है और इसे स्वर्ग में। सचमुच ऐसी पूजा-अर्चना व्यर्थ है, जिसमें मन चारों ओर नाचता फिरे।
शुद्ध मन और ईमानदारी से की गई नौकरी और व्यवसाय के द्वारा ही आत्मा का विकास किया जा सकता है। संत कबीर और रैदास का जीवन भी इस बात के जीवंत उदाहरण हैं। एक जुलाहे के घर में पले कबीर अपने मानवीय व आध्यात्मिक गुणों के कारण एक महान संत बन गए। इसके पीछे अपने व्यवसाय के प्रति कबीर की लगन भी थी। उन्होंने अपने पालित पिता के व्यवसाय को पूरी निष्ठा के साथ अपनाया था। चादर को बुनते समय उनका पूरा ध्यान उसके ताने-बाने पर रहता था। अपने इस कर्म को करते-करते कबीर ने जीवन के गूढ़ रहस्यों को समझा था, तभी तो वह कह सके- 'जस की तस रख दीनी चदरिया।' इसी प्रकार संत रैदास ने मोचीगिरी करते हुए अपनी कठौती के जल से गंगा में खोए हुए एक स्त्री के सोने के कड़े को निकाल कर दे दिया। इस प्रकार 'मन चंगा तो कठौती में गंगा' का संदेश दिया। स्पष्ट है कि पूरी निष्ठाभाव से किया गया कर्म जीवात्मा और परमात्मा के बीच सेतु बन जाता है। इसलिए हमें अपने कर्मो को पूरी निष्ठा से करना चाहिए।
2-जन्म और मृत्यु दोनों सत्य हैं
प्रत्येक जीव यमराज के परोक्ष भाव से परिचित है और प्रत्यक्ष भाव से परिचित होना किसी ने नहीं चाहा है। यही नियम है। हम लोग किसी पर नाराज होने पर कहते हैं-यम के घर जाओ। यम के घर जाने के लिए बोलते तो हैं, किंतु मन से नहीं चाहते कि वह यम के घर जाए।
इस संदर्भ में सवाल उठता है कि यम क्या है? इसका आशय है, जो नियंत्रित करे। ईश्वर एक विशेष शक्ति के द्वारा पृथ्वी का सब कुछ नियंत्रित कर रहे हैं। जो कुछ होता है, उसका मूल स्त्रोत ईश्वर है। उसी स्त्रोत में ऐसे कई प्रावधान निर्धारित किए गए हैं, जो अंत तक उसकी स्थायी सत्ता को बरकरार रखते हैं। लोग विभिन्न प्रकार की योजनाएं बनाते हैं। इतनी फसल होगी, उसे बेचकर इन कामों को निबटाया जाएगा। पर उस फसल को गांव से शहर ले जाने के लिए सड़क की भी आवश्यकता होगी। इसी तरह इस ब्रह्मांड के संचालन में ईश्वर भी अनेक प्रकार की चिंताओं में व्यस्त रहते हैं। ब्रह्मांड की जो गति है, उसका नियंत्रण करने वाला भी कोई होगा। इस नियंत्रण व्यवस्था को ही यम कहा जाता है।
सृष्टि में नियंत्रण की व्यवस्था नहीं रहने से अव्यवस्था फैल जाएगी। यह जो यम या कोई शक्ति क्रियाशील है, उसी एक तत्व से, एक सत्ता से सभी डरते हैं। इसलिए यह श्रृंखला है। नहीं तो सब कुछ विश्रृंखलित हो जाता। हवा भयग्रस्त है, इसलिए सब समय बहती है। वह स्थिर नहीं रहती। सत्ता चाहती है कि हवा हर समय बहती रहे। जिसका जन्म हुआ है, वही यम से भयभीत है।
इस लोक में जन्म होने का मतलब है कि मृत्यु भी होगी। इस प्रकार सभी व्यक्ति यम के नियंत्रण में आ जाते हैं। यम के इस भय से बचने का जो एकमात्र उपाय है वह है ईश्वर की शरण में आना। ऐसा इसलिए, क्योंकि यम ईश्वर से भयग्रस्त रहते हैं इस कारण ईश्वर की उपासना करने वाले व्यक्ति से यम भी डरते हैं। यह भी जानने की जरूरत है आखिर भय क्या है? भय वास्तव में हमारे मन की कमजोरी है। इसलिए जो साधक हैं, वे किसी से भी भयभीत नहीं होते। यदि कभी उनके मन के किसी कोने में भय महसूस होता है, तब वे ईश्वर का स्मरण करेंगे और कहेंगे, 'हे ईश्वर मैं तुमसे प्रेम करता हूं। इसलिए मैं किसी अन्य व्यक्ति से भयभीत नहीं हूं।' इस तरह उनका भय खत्म हो जाएगा।
3-मानव का सबसे बडा शत्रु क्रेाध है
अक्सर दूसरे व्यक्ति के व्यवहार व क्रियाकलापों के कारण ही क्रोध उत्पन्न होता है। व्यक्ति को अधिकांशत: क्रोध तब उत्पन्न होता है जब सामने वाला गलती करता है। क्रोध हमारे शरीर का सहज रूप से उत्पन्न होने वाला लक्षण नहीं है। व्यक्ति के सम्मुख जब दूसरा गलती करता है, अपशब्द बकता है, कहना नहीं मानता, अवज्ञा करता है तब यह विकार क्रोध उत्पन्न करता है। जैविक, शारीरिक दोष, दृष्टिकोण और परिवेशजन्य बदले हुए संस्कारों से भी क्रोध उत्पन्न हो सकता है।
क्रोध की अभिव्यक्ति हमारे अंदर की कुंठा, हिंसा व द्वेष के कारण भी हो सकती है। वर्तमान काल में अपराधों के बढ़ने का एक प्रमुख कारण भीषण क्रोध ही है। क्रोध से उत्पन्न हुए अपराधों के औचित्य को सिद्ध करने के लिए क्रोधी व्यक्ति कुतर्क कर दूसरे को ही दोषी सिद्ध करता है। एक दोष को दूर करने के लिए अनेक कुतर्क पेश करता है। क्रोध में व्यक्ति आपा खो देता है। क्रोध में अंतत: बुद्धि निस्तेज हो जाती है और विवेक नष्ट हो जाता है। क्रोध का विकराल रूप जुनून है। आदमी पर जुनून सवार होने पर वह जघन्य से जघन्य अपराध कर बैठता है। जुनून की हालत में उसे मानवीय गुणों का न बोध रह पाता है और न ही ज्ञान।
क्रोध मानव का सबसे बड़ा शत्रु है, बहुत बड़ा अभिशाप है। शारीरिक रूप से क्रोध से व्यक्ति व्यथित हो उठता है। स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, पाचन शक्ति क्षीण हो जाती है, रोग प्रतिरोधात्मक शक्ति कमजोर होने से शरीर रोगी हो जाता है। क्रोध से मोह उत्पन्न होता है, मोह से स्मृति विभ्रमित होती है और स्मृति के विभ्रम से बुद्धि नष्ट हो जाती है। इसलिए व्यक्ति को क्रोध उत्पन्न नहीं होने देना चाहिए।
यह सही है कि दूसरे के क्रियाकलापों से क्रोध उत्पन्न होता है, लेकिन क्रोध के आवेग को रोकने का तो हम प्रयत्न कर ही सकते हैं। कहते हैं कि क्रोध आने पर एक गिलास ठंडा पानी पीने से क्रोध की अग्नि शांत हो जाती है। दूसरे उपाय के अनुसार उल्टी गिनती गिनने से मस्तिष्क को अधिक व्यस्त रखने के कारण भी क्रोध शांत होता जाता है। इसके साथ ही एकांत में जाकर ध्यान के माध्यम से क्रोध के विकारों को नष्ट करने का प्रयास करें तो ऋणात्मक ऊर्जा को मोड़कर हम सकारात्मक ऊर्जा से विवेक सम्मत निर्णय लेने में सक्षम हो सकते हैं।
4-गीता रहस्य तप क्या है
तप का अर्थ है-पीड़ा सहना, घोर कड़ी साधना करना और मन का संयम रखना आदि। महर्षि दयानंद के अनुसार 'जिस प्रकार सोने को अग्नि में डालकर इसके मैल को दूर किया जाता है, उसी प्रकार सद्गुणों और उत्तम आचरणों से अपने हृदय, मन और आत्मा के मैल को दूर किया जाना तप है।
गीता में तप तीन प्रकार के बताए गए हैं-शारीरिक, जो शरीर से किया जाए। वाचिक, जो वाणी से किया जाए और मानसिक, जो मन से किया जाए। देवताओं, गुरुओं और विद्वानों की पूजा और इन लोगों की यथायोग्य सेवा-सुश्रषा करना, ब्रह्मचर्य और अहिंसा शारीरिक तप हैं। ब्रह्मचर्य का अर्थ है- शरीर के बीजभूत तत्व की रक्षा करना और ब्रह्म में विचरना या अपने को सदा परमात्मा की गोद में महसूस करना। किसी को मन, वाणी और शरीर से हानि न पहुंचाना अहिंसा है। हिंसा और अहिंसा केवल शारीरिक ही नहीं, बल्कि वाचिक और मानसिक भी होती हैं।
वाणी के तप से अभिप्राय है ऐसी वाणी बोलना जिससे किसी को हानि न पहुंचे। सत्य, प्रिय और हितकारक वाणी का प्रयोग करना चाहिए। वाणी के तप के साथ ही स्वाध्याय की बात भी कही गयी है। वेद, उपनिषद आदि सद्ग्रंथों का नित्य पाठ करना और अपने द्वारा किए जा रहे नित्य कर्मो पर भी विचार करना स्वाध्याय है। मन को प्रसन्न रखना, सौम्यता, मौन, आत्मसंयम और चित्त की शुद्ध भावना ये सब मन के तप हैं।
गुणवत्ता के आधार पर तप तीन प्रकार के होते हैं-सात्विक तप यानी जो परम श्रद्धा से किया जाता है, जिसमें फल के भोग की आकांक्षा नहीं होती है और सबके हित के लिए किया जाता है। अपना सत्कार चारों ओर बढ़ाने की इच्छा से किया जाने वाला तप राजस तप कहलाता है। तामस तप का अर्थ है पंचाग्नियों के बीच शरीर को कष्ट देना। शरीर के किसी अंग को वर्षो निष्क्रिय करके रखना आदि कर्म जिनसे करने वालों और देखने वालों दोनों को कष्ट हो और किसी का भी कोई हित न हो उन्हें तामस तप कहा जाता है। मनु कहते हैं कि तप से मन का मैल दूर होता है और पाप का नाश होता है। शास्त्र कहते हैं कि अपने व्यक्तित्व को ऊपर उठाना है, तो तपस्वी बनें।
5-शोध से विज्ञान का विकास हुआ
विज्ञान प्रयोगों और शोध-अध्ययनों पर आधारित है। विज्ञान कई प्रौद्योगिकी का जनक है, लेकिन प्रौद्योगिकी हो या इससे भी उच्च या उच्चतर तकनीक हो, सभी को स्थूल धरातल पर ज्ञान की सीढि़यां भर कहा जा सकता है। जो लोग वैज्ञानिक सोच को सतही जानकारी तक सीमित समझते हैं, वे सच को आत्मिक विकास से संबद्ध नहीं कर पाते। इसे एक बड़ी भूल माना जाएगा। विज्ञान की दिशा है ज्ञान।
वस्तुत: ज्ञान के बाद कोई विज्ञान नहीं रह जाता। विज्ञान का चरमोत्कर्ष ज्ञान है। इस ज्ञान को पाने के लिए वैज्ञानिक भी प्रयासरत हैं, जैसे कि प्राचीन काल में ऋषि-मुनि करते थे। यद्यपि उनकी तुलना अप्रासंगिक है। फिर भी उद्देश्य में भिन्नता होते हुए दिशा एक ही है। प्रश्न यह है कि आज विज्ञान कहां तक पहुंचा है, उसका सच क्या है। मानें या न मानें, लेकिन आधिभौतिक लब्धियां विज्ञान का सच नहीं है।
आत्मिक ज्ञान का प्रतिफल यानी आात्म तत्व ही विज्ञान का सच है। विज्ञान सही दिशा में बढ़ना चाहता है, गलत मार्ग उसका उद्देश्य नहीं है। प्राय: यह कहा जाता है कि विज्ञान भगवान को नहीं मानता। यह बात बिल्कुल सच नहीं है। विज्ञान भगवान की खोज में लगा है। अनुसंधान व अन्वेषण करते-करते उसे एक ही ठिकाने पर पहुंचना है। यह ठिकाना भगवान के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। तो फिर ज्ञान और विज्ञान का लक्ष्य एक ही है। वस्तुत: विज्ञान तो ज्ञान का भौतिक पक्ष है। इस भौतिक पक्ष की स्थिरता आध्यात्मिक पक्ष के संबल से हो सकती है। यह निश्चित नियम है। आत्मा से शरीर चलता है, लेकिन शरीर से आत्मा (प्राणतत्व) संचालित नहीं होता। इसीलिए तो ज्ञान की देन है विज्ञान। यह भलीभांति समझना होगा कि विज्ञान केवल ज्ञान का रूपक है। विज्ञान का सच तो ज्ञान में ही निहित है। जब कोई अबोध बालक ज्ञान की ओर बढ़ता है तो विज्ञान उसके मार्ग में अनायास मिलता है। यह एक क्त्रम है, इसमें उलटफेर तो सांसारिक बाधा है।
जिस प्रकार अक्षर ज्ञान, मात्र ज्ञान नहीं होता, उसी तरह विज्ञान मात्र भी ज्ञान नहीं होता। ये सब ज्ञान के मार्ग हैं, बस। हमें विज्ञान के सकारात्मक पक्षों की ओर ध्यान देना चाहिए, क्योंकि इसी से हम ज्ञान की ओर बढ़ते हैं और अपने जीवन स्तर को ऊपर उठाने में सफल होते हैं।
6-आत्मां का स्वरूप
देव-दुर्लभ मानव शरीर पाकर भी हम प्रेम, एकता, परोपकार और सेवा आदि गुणों को धर्म के अनुसार नहीं कर रहे हैं। यह एक शाश्वत सत्य है कि जो आया है उसे एक दिन जाना है, लेकिन मनुष्य अज्ञानता व सत्संग के अभाव में 'जाना' भूल जाता है और तरह-तरह के सांसारिक लोभ-मोह के मायाजाल में फंसा रहता है।
आत्मा तो अजर-अमर है। उसका विनाश नहीं होता। भक्ति मार्ग पर चलने वाला मनुष्य कभी मरता नहीं, सत्संग करने वालों और उसी के अनुसार अपने जीवन को ढालने वालों को कोई नहीं मार सकता। भक्ति मार्ग पर चलने वाला कुछ ऐसा कर जाता है कि वह कभी नहीं मरता। धर्मग्रंथों के अनुसार भाग्यहीन है वह व्यक्ति, जो मरते समय कुछ साथ नहीं ले जाता है।
ईश्वर की भक्ति में लगे भक्त को इस तरह की चिंता नहीं रहती। वैसे भी गुरु-मत, संत-मत और शास्त्र-मत के अनुसार जीवन को सुव्यवस्थित रूप से ढालने वाला ही अपने साथ कुछ ले जाता है। अधिकांश लोग इस गूढ़ ज्ञान को न जानने के कारण अपनी जीवन वृथा ही गुजार देते हैं। ऐसा व्यक्ति अपने साथ परोपकार ले जाता है। मानव की पहचान प्यार, सद्भाव, परोपकार, शांति और वंचितों की मदद करने आदि गुणों से होती है।
अपनी इसी पहचान को खोने वाला मानव पशु तुल्य है। संतों, महापुरुषों, गुरुजनों की सच्ची व सबसे बड़ी सेवा यह नहीं कि धन, पुष्पहार अर्पित कर उनकी आरती उतारें, बल्कि उनकी सच्ची व सबसे बड़ी सेवा तो उनके उपदेशों को अपने जीवन में उतारने की है और उनके बताए रास्ते पर चलने की है।
गुरुजनों, संतों और महापुरुषों को पहनाए जाने वाले हार का एक आध्यात्मिक अर्थ है। उसमें हार पहनाने वाला सुमन यानी अच्छा मन अर्पित करता है और कहता है-हे गुरुदेव! (सुमन) अच्छा मन तो है नहीं, मन प्रदूषित है, इस पुष्पहार के माध्यम से अपना मन-जीवन अर्पित कर रहा हूं। आप ही कृपा करके इसे सुंदर व पावन बना दें। आज के वैज्ञानिक तो तरह-तरह के प्रदूषणों के बारे में चिंतित हैं, लेकिन हमारे संत, महापुरुष और प्रबुद्ध जन युगों पूर्व से वैचारिक व सांस्कृतिक प्रदूषण को लेकर चिंतित रहे हैं। इतना ही नहीं उन्होंने इनसे मुक्ति का मार्ग भी बताया और दिखाया है।
7-लक्ष्य बनाओं तो चेतना जाग्रत होगी
मानव जीवन की सबसे बड़ी जरूरत है लक्ष्य का चयन। इसके लिए परम आवश्यक है लक्ष्य की खोज। लक्ष्य की खोज निर्धारित करते समय अपनी क्षमता, परिस्थिति और जीवन मूल्यों की पड़ताल करना आवश्यक है।
ऐसा इसलिए, क्योंकि इसी से मिलने वाले तथ्यों का विवेचन-विश्लेषण करके हम समुचित जीवन-लक्ष्य का निर्धारण कर सकते हैं। लक्ष्य के चयन में हमारी प्रतिभा और क्षमता की समुचित पहचान होती है। हमें अपनी उन समस्त विशेषताओं को जानना-तलाशना चाहिए, जो बाहर अभिव्यक्त होने के लिए छटपटा रही हैं। हमें इन तमाम विशेषताओं की सूची बनानी चाहिए और इन्हें उभारने व उपयोग में लाने के लिए अपनी क्षमता का आकलन करना चाहिए। सबसे पहले यह देख लेना आवश्यक है कि हम अपनी किस विशेषता को प्रयोग में लाने के लिए सक्षम और समर्थ हैं।
जब एक बार लक्ष्य निर्धारित हो जाता है, तब अपनी योग्यता व प्रतिभा का उपयोग करना चाहिए। लक्ष्य पथ पर चलते हुए प्रतिभा का समुचित-सुनियोजित प्रयोग हमें सफलता की ओर ले जाता है। लक्ष्य जीवन-मूल्यों के समकक्ष और उससे बड़ा होना चाहिए। जीवन मूल्य हमारी सांसों में रचे-बसे होते हैं। ये मूल्य हमारे श्रेष्ठ विचार व कर्तव्यों के रूप में झलकते रहते हैं। ये हमारे अस्तित्व के साथ जुड़े रहते हैं।
भगतसिंह ने अपने जीवन-मूल्यों को राष्ट्रप्रेम से जोड़ रखा था। उनका जीवन अपने लिए नहीं, बल्कि देश के लिए था। आज की परिस्थिति में भी हम अपने श्रेष्ठ मूल्यों की रक्षा कर सकते हैं, परंतु लक्ष्य को स्वार्थपूर्ति और अहंकार के पोषण के लिए सीमित नहीं करना चाहिए। ऐसा करने से नैतिक मूल्यों का पतन हो रहा है। इसलिए आज हमारी अनमोल जिंदगी सस्ती हो गई है। हम छोटे से छोटे स्वार्थ के लिए बड़ी से बड़ी कुर्बानी देने के लिए तैयार और तत्पर रहते हैं। आजकल तमाम लोगों का जीवन लक्ष्य पद, प्रतिष्ठा और पैसा प्राप्त करना हो चुका है। आज उसे लक्ष्य के रूप में वरण किया जाता है, जो लोगों की नजरों में सम्मानित और प्रतिष्ठित है।
आर्थिक या ऊंचे पदों पर आसीन होने का लक्ष्य सुनिश्चित करना बुरी बात नहीं है। किसी के कहने से या किसी को दिखाने के लिए अपना लक्ष्य बनाना कुएं और खाई में गिरने जैसा है। लक्ष्य हमारी आंतरिक शक्तियों को जाग्रत करता है।
8-दरिद्रता तो अपनी सोच है
दरिद्रता का आशय केवल धनाभाव व सुख-सुविधाओं से वंचित होना ही नहीं है। वस्तुत: दरिद्रता मनुष्य के भीतर पनपने वाला एक ऐसा हीनभाव है, जो औरों की तुलना में स्वयं को गुणों, सामर्थ्य, सत्ता और योग्यता में कमतर समझता है। यह आवश्यक नहीं कि वही व्यक्ति संसार में दरिद्र है, जिसके पास खाने के लिए भोजन नहीं है; रहने के लिए घर नहीं है; पहनने के लिए वस्त्र नहीं हैं या जीवन निर्वाह के लिए भरपूर संसाधन, आर्थिक मजबूती या ठोस जीवनाधार नहीं है। सच तो यह है कि अतुल संपदा वाला व्यक्ति भी किन्हीं अर्थो में या फिर वैचारिक रूप से दरिद्र हो सकता है।
इस संबंध में प्रमुख विचारक एडविन पग का कहना है कि उस मनुष्य से अधिक दरिद्र कोई नहीं है, जिसके पास सिर्फ पैसा है और कोई गुण नहीं स्पष्ट है, संपन्न होने पर भी दरिद्रता साथ नहीं छोड़ती है। असली दरिद्रता तब दृष्टिगत होती है, जब प्रचुर संसाधनों के होते हुए भी व्यक्ति स्वयं को दरिद्र, विपन्न, असमर्थ, असहाय व शक्तिहीन मानने के लिए विवश होता है। गरीब का गरीबी से दुखी होना जितना स्वाभाविक है, अमीर का स्वयं को दरिद्र समझना उतना ही आश्चर्यजनक भी। प्रसिद्ध चिंतक इमर्सन मानते हैं कि दरिद्र वे लोग हैं, जो अपने को दरिद्र मानते हैं, दरिद्रता स्वयं को दरिद्र समझने में ही होती है।
जीवन के किसी क्षेत्र में अपनी उपलब्धियों के प्रति असंतोष का भाव भी दूसरे अर्थो में दरिद्रता है। दरिद्रता वह भाव है, जिसे पाने की ललक में आदमी गलत काम करने पर आमादा हो जाता है और कोई भी गलत कार्य कर समाज में वैमनस्यता के बीज बो सकता है। दरिद्रता वस्तुगत हो या भावगत दोनों ही सुख, समृद्धि, खुशहाली और शांति के भवन को तहस-नहस करने वाली होती है। यदि दरिद्रता भावगत व सकारात्मक है, तो वह सृजन, नवोन्मेष या कल्याण का पर्याय बनकर दूसरों के लिए प्रेरणा का विषय बन सकती है, लेकिन यदि वह वस्तुगत या नकारात्मक है तो सब कुछ नष्ट करने में सक्षम होती है।
स्वेट मॉर्डेन मानते हैं कि दरिद्रता का भाव रखते ही हम समृद्धि को अपने मानस क्षेत्र की ओर कैसे आकृष्ट कर सकते हैं? सब कुछ होने पर भी कुछ और पाने की अकर्मण्य तमन्ना, आशा, ललक, आकांक्षा या भाव भी एक प्रकार की दरिद्रता है।
9-पर हित सबसे बडा परोपकार है
मानवीय व्यक्तित्व का निर्माण मनुष्य की अपनी सूझ-बूझ, एकाग्रता, परिश्रम और पराक्रम का प्रतिफल है। ऐसा प्रतिफल, जो जगत के अन्य उपार्जनों की तुलना में कहीं अधिक महत्वपूर्ण और कहीं अधिक प्रयत्न-साध्य है। इस प्रतिफल की प्राप्ति में संकल्प शक्ति, साहसिकता और दूरदर्शिता का परिचय देना पड़ता है।
जनसाधारण द्वारा अपनाई गई रीति-नीति से ठीक उल्टी दिशा में चलना उस मछली के पराक्रम जैसा है जो जल के प्रचंड प्रवाह को चीरकर प्रवाह के विपरीत तैरती चलती है। आम तौर पर ज्यादातर लोगों को किसी भी कीमत पर संपन्नता और वाहवाही चाहिए। इसके विपरीत अपने व्यक्तित्व का निर्माण करने वाले लोगों को जहां सादा जीवन और उच्च विचार की नीति पर अमल कर संतोषी व अपरिग्रही बनना पड़ता है वहीं कभी-कभी उन्हें अपने साथियों के उपहास, असहयोग और विरोध का भी सामना करना पड़ता है।
जिस किसी ने भी इस आत्म-निर्माण या व्यक्तित्व विकास के मोर्चे को फतेह कर लिया वह सस्ती तारीफ से वंचित हो सकता है, पर लोक-श्रद्धा उसके चरणों पर अपनी पुष्पांजलियां अनगिनत काल तक चढ़ाती रहती है। ऐसे लोग अपने गुणों के कारण महानता को उपलब्ध होते हैं।
आत्म-विजेता को विश्व विजेता की उपमा अकारण ही नहीं दी गई है। दूसरों को उबारने और उन्हें दिशा देने की क्षमता मात्र ऐसे ही लोगों में होती है। आत्म-निर्माण या दूसरे शब्दों में कहें तो व्यक्तित्व का परिष्कार कर लेने वाले व्यक्ति एक दूसरा कदम और उठाते हैं। वह है दूसरों का कल्याण करना। ऐसे लोग पुण्य कमाने के लिए ऐसा नहीं करते, बल्कि आत्म-संतोष के लिए ही वे परोपकार करते हैं। प्रत्येक महामानव लोक मंगल के कार्यो में अपने जीत-जी संलग्न रहता है। शाश्वत सुख-संतोष रूपी सौभाग्य मात्र ऐसे ही लोगों को प्राप्त होता है। इतिहास इस बात का साक्षी है कि जिस शख्स ने दूसरों के दुखों को दूर करने का प्रयास किया है या जिसके मन में परोपकार करने का जज्बा रहा है, वह समय की शिला पर अपनी अमिट छाप छोड़ गया है। परोपकार सबसे बड़ा धर्म है। जीवन के सभी गुणों में इस गुण का सर्वाधिक महत्व इसीलिए है, क्योंकि यह हमें मानव होने का अहसास कराता है।
10-आत्म चेतना जाग्रत से जीवन का उद्धार होता है
'गीता' में भगवान श्रीकृष्ण ने यह स्पष्ट कर दिया है कि मानव आदि से अब तक पुन:-पुन: जन्म ले रहा है। उसे अपनी अवस्था का आभास होता है। इसलिए वह मुक्ति का अभिलाषी हो जाता है। स्वयं को ऊपर उठाकर वह संसार सागर से तरने का प्रयत्न करता है।
संसार सागर से पार उतरने के लिए व्यसन तो छोड़ने ही होंगे। यजुर्वेद में भी लिखा है कि जो अमंगल है, जो अशिव है, उन्हें छोड़ देना चाहिए। कहने का आशय यह है कि र्दुव्यवसनों को छोड़े बगैर शिव की यानी कल्याण की प्राप्ति नहीं हो सकती। शिव की प्राप्ति अशिव के त्यागने के बगैर नहीं मिल सकती। अशिव यानी जो बात कल्याणकारी न हो। अशिव को त्यागकर यानी दुगुर्णे को त्यागकर जब हम संसार रूपी सागर को पार करने का प्रयास करते हैं, साथ ही इंद्रियों को वश में करने का दुष्कर प्रयास भी करते हैं तो इस स्थिति में मानव स्वयं का मित्र बन जाता है।
मानव देह जो दुर्लभ है उसे पाकर वह स्वयं का उद्धार कर सकता है। स्वयं को गिराकर वह किसी भी तरह अपना भला नहीं कर सकता। कुपथ पर जाकर वह स्वयं का शत्रु बन जाता है। स्वयं के उद्धार के लिए इंद्रियों को अपने अधीन रखने की नितांत आवश्यकता है। परिजन, समाज और राष्ट्र के प्रति हमारे कर्तव्य हैं तो हमारे कर्तव्य स्वयं के प्रति भी हैं। कुविचारों को हटाने का दृढ़ता से प्रयास करें, तभी आपका व्यक्तित्व सशक्त बन सकता है।
ईश्वर की भक्ति से विघ्नों का नाश होता है। मनु महाराज ने सच ही कहा है कि तप से पापों का नाश होता है, पाप छूटने से प्रभु से प्रीति होती है और आत्म कल्याण भी। अंतर्मन की आवाज को अनसुना कर कुमार्ग पर चलकर हम समाज व राष्ट्र का अहित तो करते ही हैं और स्वयं का भी अहित करते हैं। इसलिए हमें आत्म-उद्धार करना होगा। आत्म-उद्धार में उन सभी सकारात्मक गुणों या बातों का समावेश है, जिनसे आपका व्यक्तित्व व मनोबल सशक्त होता है। आत्म-विश्वास व आत्म-सम्मान के साथ जीते हुए उस अदृश्य शक्ति पर अटूट विश्वास रखें जो इस ब्रह्मंड का संचालन कर रही है। तभी आप आत्म-उद्धार कर सकेंगे। आत्म-उद्धार के माध्यम से ही हम दूसरों के जीवन में भी खुशियां ला सकते हैं।
11-जीवन में सबसे बडा धन सन्तोष है
क्षण-क्षण में क्षीण होने वाले संसार का प्रत्येक पदार्थ नाशवान है। इसके साथ ही सभी पदार्थ क्षणिक सुख देने वाले और अस्थायी हैं। व्यक्ति की समृद्धि का आकलन प्राय: उसकी आर्थिक संपन्नता और भौतिक सुख-साधनों की उपलब्धता से ही किया जाता है, जबकि किसी व्यक्ति, समाज या राष्ट्र की समृद्धि के आकलन का आधार धन-संपदा की प्रचुरता या उसकी गरीबी या अभावग्रस्तता को नहीं बनाया जाना चाहिए।
सर्वाधिक महत्वपूर्ण व्यक्ति की संतुष्टि ही है। एक व्यक्ति धन-संपदा अधिक होते हुए भी कमी की सोच के कारण अधिक से अधिक प्राप्त न होने से दुखी होता है। वहीं दूसरा व्यक्ति अभावग्रस्त और निर्धन होते हुए भी संतुष्ट रहता है। वास्तव में संतुष्ट न होने वाला व्यक्ति ही अपनी मानसिक दुर्बलता और हीन सोच के कारण निर्धन व्यक्ति की श्रेणी में आ जाता है, जबकि संतुष्ट रहने वाला व्यक्ति सदैव सुखी रहता है। संतुष्टि के लिए शास्त्रकारों का कहना है कि संतोष ही सबसे बड़ा धन है, जिसे प्राप्त कर लेने के बाद सभी धन 'धूल के समान' हो जाते हैं।
संतुष्टि प्राप्त करने वाला व्यक्ति धन और भौतिक सुख-सुविधाओं का अभाव होने पर भी हर हाल में सुखी ही रहता है। हमारे धर्मशास्त्रों और मनीषियों ने संतुष्टि के आधार पर समृद्धि प्राप्त करने के कुछ महत्वपूर्ण तत्व बताए हैं। इन तत्वों पर अमल कर व्यक्ति अपनी समृद्धि को स्थिर बनाए रख सकता है। प्रभु ने अकारण करुणा करके व्यक्ति को देव-दुर्लभ, मानव-देह प्रदानकर अत्यंत उपकार किया है। यदि व्यक्ति के अंग-प्रत्यंग निरोगी हैंतो स्वस्थ शरीर से वह आध्यात्मिक उन्नति के मार्ग पर चलकर संतुष्टि प्राप्त कर सकता है। व्यक्ति अपने संस्कारों के द्वारा अपने नैतिक गुणों और सकारात्मक चिंतन के आधार पर संतुष्टि प्राप्त कर अपनी संपन्नता को जाहिर कर सकता है। यही नहीं, व्यक्ति जिस परिवेश में रहता है वह उस व्यक्ति की समृद्धि या दरिद्रता के लिए उत्तरदायी होता है।
सद्संगति, ऋषि-महर्षियों, संत-विद्वानों और महान व्यक्तियों की संगति, आदर्शे और विचारों से व्यक्ति अभावों के बीच रहते हुए मानसिक दरिद्रता के प्रभाव से बचकर संतुष्टि प्राप्त कर सकता है। प्रत्येक व्यक्ति के मन में सद्विचार और दुर्विचार आते रहते हैं। सद्विचारों से ही व्यक्ति को संतोष मिलता है और संतुष्टि ही समृद्धि का आधार होती है।
12-विश्व का जन्म शून्य से हुआ
सूक्ष्म से सूक्ष्म कण कहीं अन्यत्र बिखरे रहते हैं, लेकिन वे ब्रह्मंड को संचालित करने वाली परम सत्ता से जुड़े रहते हैं। ब्रह्मंड के कण, द्रव और वाष्प दिखने में भिन्न-भिन्न दिखते हैं, लेकिन वे भिन्न नहीं हैं। एक ही स्वरूप के प्रतिबिंब हैं। मनुष्य, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, चर-अचर, द्रव और वाष्प के तात्विक विश्लेषण में कोई भेद नहीं है।
प्रत्येक ठोस, द्रव और वाष्प है और प्रत्येक वाष्प ऊर्जा है। ऊर्जा भी पदार्थ की अंतिम इकाई नहीं है। ऊर्जा ताप, विद्युत और प्रकाश का योग है। ताप विद्युत और प्रकाश की उत्पत्ति शून्य से होती है। कोई भी शून्य न पदार्थ है, न तरल है और न वाष्प है। वह केवल शून्य है।
संसार शून्य से पैदा हुआ है, यह केवल दृष्टिभेद है, भ्रम है। अपदार्थ से पदार्थ पैदा नहीं हो सकता। शून्य से शून्य ही पैदा होता है। संसार की वस्तुओं को हम देखते हैं, लेकिन इसे देखने पर भरोसा करने वाला भ्रम में पड़ जाता है। यह संपूर्ण संसार भ्रमपूर्ण है, क्योंकि महानतम वैज्ञानिक आइंस्टीन ने पदार्थ को झुठलाते हुए कह दिया था कि जो पदार्थ आप देखते हैं, जो संसार आप देखते हैं वह ऊर्जा है। आपसे देखने में भूल हो रही है।
दरअसल, पदार्थ है ही नहीं, केवल ऊर्जा है। ऐसा विज्ञान मानता है। विज्ञान और अध्यात्म, दोनों इस बिंदु पर सहमत हैं कि संसार है ही नहीं। जिसे हम संसार कहते हैं, पेड़-पौधे, पहाड़, जीव सबका सूक्ष्म रूप ऊर्जा है। जिसे हम पहाड़ कहते हैं, वह तो ऊर्जा का घनीभूत रूप है। इस संसार की वस्तुओं को हमने नाम दिया है, पहाड़ को चाहे जो भी नाम दीजिए। नाम तो आप द्वारा दिया गया है। जब आप स्वयं प्रामाणिक नहीं हैं तो आपका दिया गया नाम प्रामाणिक कैसे हो सकता है। विज्ञान भी कहता है कि हमारी आंखें जो देखती हैं वही निर्णय करती हैं कि यह द्रव है कि ठोस। आश्चर्य है कि आंखें स्वयं झूठी रिपोर्ट संग्रह करती हैं। पानी भरे गिलास में लकड़ी टेढ़ी दिखती है।
मरुभूमि में जल दिखता है। खुरदुरे चेहरे में सौंदर्य दिखता है। हड्डियों के ढांचे में प्रेयसी दिखती है। यह सब इसलिए दिखता है, क्योंकि आपने मान लिया है कि यह सौंदर्य है। आपका मानना कितना प्रामाणिक है, उसे आपसे अधिक कौन जान सकता है। जब आप अपने नौकर को लखपतिया और करोड़ीमल कह सकते हैं, तो आपकी बात कितनी प्रामाणिक है, इसकी व्याख्या आप स्वयं करें।
13-ध्यान सोच को निर्मल तथा हृदय को शुद्ध करता है
वैसे अगर देखें तो ध्यान का संबंध आत्मा, ईश्वर आदि अतींद्रिय तत्वों के साथ जोड़ा जाता है, किंतु लौकिक जीवन में भी उसकी उतनी ही उपयोगिता है जितनी आध्यात्मिक जीवन में। हम स्वास्थ्यकर खान-पान और व्यायाम द्वारा शारीरिक शक्ति प्राप्त करते हैं, उसे अच्छे या बुरे किसी भी कार्य में लगाया जा सकता है। वैज्ञानिक अपने चिंतन का उपयोग नवीन अन्वेषण में करता है। उसने ऐसी दवाओं का पता लगाया जिनसे करोड़ों व्यक्तियों के प्राण बच गए। दूसरी तरफ उसने ही परमाणु अस्त्रों की भी खोज की, जिनसे समस्त मानवता खतरे में पड़ गई। व्यापारी अपना दिमाग व्यवसाय की वृद्धि में लगाता है और औद्योगिक विकास के साथ-साथ शोषण के तरीके भी सोचता है।
राजनीतिज्ञ एक ओर प्रजा-पालन की बात सोचते हैं तो दूसरी ओर अपने विरोधियों के नाश के बारे में भी। इस प्रकार, दिमाग का उपयोग दोनों दिशाओं में होता आया है। इसीलिए हमारे ऋषियों ने ध्यान को अध्यात्म के साथ जोड़ा। मानव शरीर में कुछ ऐसे केन्द्र हैं जो चेतना के विभिन्न स्तरों को प्रगट करते हैं।
जब मन नीचे के केंद्रों पर अधिष्ठित होता है तो क्रोध, भय, ईष्र्या आदि विचार घेर लेते हैं। शरीर अस्वस्थ रहने लगता है और मन अशांत, पर जब उन केंद्रों को छोड़कर ऊपर के केंद्रों पर पहुंचता है तब जीवन के शक्तिशाली तत्वों के साथ संबंध जुड़ जाता है। सौंदर्य, प्रेम आदि सात्विक गुणों की अभिव्यक्ति होने लगती है। विचार व व्यवहार में एकसूत्रता आ जाती है। पवित्रता, नम्रता, सहानुभूति आदि दैवीय गुणों का विकास होने पर सच्ची शक्ति प्राप्त होने लगती है। साधक को दृढ़ निष्ठा और एकाग्रता से ध्यान द्वारा जो प्रकाश मिलता है उससे वह अपनी प्रत्येक इच्छा पूर्ण कर लेता है। व्रत, नियम, उपवास आदि सकारात्मक सोच को उत्पन्न करने के माध्यम हैं, पर हम उस मूल तत्व को भुला बैठे हैं। हम देखें कि हमने अपने में से कितने विकारों को दूर किया। आत्मा में कितने गुणों का प्रादुर्भाव हुआ। क्या हम ध्यान करने की सही विधि को प्राप्त कर सके।
वस्तुत: ऐसा कोई लक्ष्य नहीं, जिसे ध्यान के द्वारा प्राप्त न किया जा सके। ऐसा कोई रोग नहीं, जिसे ध्यान के द्वारा दूर न किया जा सके। विधिपूर्वक किया गया ध्यान हृदय को शुद्ध करता है और सोच को निर्मल बनाता है। ध्यान ऊंचे लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए पंख प्रदान करता है और भौतिक जगत की संकुचित परिधियों से ऊपर उठने की सामर्थ्य देता है।
No comments:
Post a Comment