Thursday, March 12, 2015

जीवन की रौनक जीने की कला से

1-मौन मन की आदर्श अवस्था है
 

        जरूरत से ज्यादा बोलने पर शिष्टता-शालीनता की मर्यादाओं का उल्लंघन होता है।इससे हमारे व्यक्तित्व पर ग्रहण लगता है। मानसिक शक्तियां कमजोर और दुर्बल होती हैं, स्नायुतंत्र पर विपरीत असर पड़ता है। यदि लंबे समय तक ऐसी स्थिति बनी रहे तो कई प्रकार की मानसिक विकृतियां और शारीरिक रोगों का पनपना प्रारंभ हो जाता है।
 
         वाचाल व्यक्ति का व्यक्तित्व उथला माना जाता है। कोई भी उस पर विश्वास नहीं करता। अविश्वास एक ऐसी सजा है कि जिसे झेल पाना अत्यंत कठिन है। मौन मन की आदर्श अवस्था है। मौन का अर्थ है-मन का निस्पंद होना। मन की चंचलता समाप्त होते ही मौन की दिव्य अनुभूति होने लगती है। मौन मन का अलंकार है, जो इसके स्थिर होते ही सहजता से प्राप्त किया जा सकता है। मौन से मानसिक ऊर्जा का क्षरण रोककर इसे मानसिक शक्तियों के विकास में नियोजित किया जाना संभव है। मौन में मन शांत, सहज व उर्वर होता है और सृजनशील विचारों को ग्रहण कर पाता है।
 
         इसलिए मौन चुप रहने की अवस्था नहीं है। मौन से वाणी पर अंकुश लगाया जा सकता है। मौन का अभ्यास करके निर्थक और बेलगाम प्रलाप से निजात पाई जा सकती है। इससे मन स्थिर और प्रशांत होता है। प्रशांत मन समस्त मानसिक शक्तियों का द्वार होता है।
 
         मौन चुप या शांत रहना नहीं है बल्कि अनावश्यक विचारों की उधेड़बुन से मुक्ति पाना है। चुप रहने को यदि मौन की संज्ञा दी जाए तो समझना चाहिए कि इस के मर्म और तथ्य से हम बहुत दूर हैं। सामान्यत: व्यक्ति बोलकर जितनी मानसिक ऊर्जा बर्बाद करता है, उससे कहीं ज्यादा विवशतावश चुप रहकर करता है। ऐसी अवस्था में विचारों की आड़ी टेढ़ी लकीरें मन में आपस में टकराने लगती हैं और अपने को अभिव्यक्त करने के लिए मन का संधान करती है। चुप रहते हैं और मन की इस व्यथा को भी सहते हैं। बोलना चाहते हैं और बोलते भी नहीं।
 
         इस कशमकश से तो अच्छा है कि बोलकर अपने को हल्का कर लिया जाए। इसके अभाव में मानसिक शक्तियां कुंठित हो जाती हैं। उनमें गांठें पड़ जाती हैं और अंतत: ये गांठें हमारे अचेतन मन को जख्मों से छलनी कर देती हैं। ऐसा मौन संघातक होता है। मौन की शक्ति असीमित और अनंत है। मौन मनुष्य की ही नहीं संपूर्ण प्रकृति की अमोघशक्ति है।
 
 
2-ध्यान का उद्देश्य है सुशुप्त शक्तियों को जाग्रत करना
 
         ध्यान का प्रयोजन है कि व्यक्ति में आत्मविश्वास पैदा हो जाए। व्यक्ति में आत्मविश्वास उत्पन्न होना जरूरी है। आत्मविश्वास का सूत्र है- मेरी समस्याओं का समाधान कहीं बाहर नहीं, भीतर ही है। इस समाधान का सशक्त माध्यम है ध्यान। समस्याओं से मुक्ति का जो मार्ग मुझे चाहिए वह है ध्यान, जो मेरे भीतर है। यदि यह भावना प्रबल बने तो मानना चाहिए-ध्यान का प्रयोजन सफल हुआ है। ध्यान का अर्थ यही है कि हमारे शरीर के भीतर जो शक्तियां सुषुप्त हैं, वे जाग्रत हो जाएं। ध्यान से व्यक्ति में यह चेतना जगनी चाहिए कि मुझमें शक्ति है और उसे जगाया जा सकता है और उसका सही दिशा में प्रयोग किया जा सकता है।
 
         शक्ति का बोध, जागरण की साधना और उसका सम्यक दिशा में नियोजन, इतना विवेक जग गया तो समझो कि सफलता का स्त्रोत खुल गया और समस्याओं से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त हो गया।
 
         हमारे भीतर ऐसी शक्तियां हैं, जो हमें बचा सकती हैं। संकल्प की शक्ति बहुत बड़ी शक्ति है। अनावश्यक कल्पना मानसिक बल को नष्ट करती है। लोग अनावश्यक कल्पना बहुत करते हैं। यदि उस कल्पना को संकल्प में बदल दिया जाए, तो वह एक महान शक्ति बन सकती है। एक विषय पर दृढ़ निश्चय कर लेने का अर्थ है- कल्पना को संकल्प में बदल देना। इस संकल्प का प्रयोग करें, तो वह बहुत सफल होगा। संकल्प एक आध्यात्मिक ताकत है। संकल्पवान व्यक्ति अंधकार को चीरता हुआ स्वयं प्रकाश बन जाता है। चंचलता की अवस्था में संकल्प का प्रयोग उतना सफल नहीं होता जितना वह एकाग्रता की अवस्था में होता है।
 
         हर व्यक्ति रात्रि के समय सोने से पहले एक संकल्प करे और उसे पांच-दस मिनट तक दोहराए कि मैं यह करना या होना चाहता हूं। इस भावना से स्वयं को भावित करे, एक निश्चित भाषा बनाए, जिसे वह कई बार मन में दोहराए। ऐसा करने से संकल्प लेने में शीघ्र सफलता मिलती है और इसमें ध्यान का चमत्कारिक प्रभाव है। ध्यान आध्यात्मिक दृष्टि से नहीं, स्वास्थ्य की दृष्टि से भी बहुत उपयोगी है। ध्यान से निषेधात्मक भाव कम होते हैं, विधायक भाव जाग्रत होते हैं। ध्यान एक ऐसी विधा है, जो हमें भीड़ से हटाकर स्वयं की श्रेष्ठताओं से पहचान कराती है। हममें स्वयं पुरुषार्थ करने का जज्बा जगाती है।
 
 
3-जीवन में वास्तविक आनंद
 
         जीवन में सच्चा आनन्द क्या है इस पर ललित गर्ग जी ने सुन्दर प्रस्तिति दी है कि एक संत के विषय में यह प्रसिद्धि थी कि जो उनकेपास जाता है, आनंदित होकर लौटता है। वह सहजता के साथ आनंदित, सुखी और संतुलित जीवन के सूत्र बता देते। उनकी प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैली हुई थी। एक धनी व्यक्ति एकाएक सुखी और आनंदित होने की चाह लेकर उनके पास गया और उतावला होकर आनंदित रहने की विधि पूछने लगा। संत उसकी बात अनसुनी करते हुए एक पेड़ के नीचे बैठे चिड़ियों को दाना चुगाते रहे। चिड़ियों की प्रसन्नता के साथ संत अपने को जोड़कर आनंदविभोर हो रहे थे। संत की इसी स्थिति को देखकर धनी व्यक्ति अपना धैर्य कायम नहीं रख पा रहा था और उसने अधिक उतावलेपन से संत से सुखी बनने का सूत्र बताने का आग्रह किया। संत अपने काम में आनंदित हो रहे थे।
 
         अमीर आदमी उतावला हो रहा था, उसने पुन: संत से आनंदित रहने का रहस्य पूछा। अधिक आग्रह करने पर संत ने अलमस्ती से कहा, ''दुनिया में प्रसन्न होने का एक ही तरीका है-दूसरे को देना। देने में जो आनंद है, जो सुख है वह और किसी चीज में नहीं है। तुम चाहो तो अपनी अमीरी जरूरतमंदों को लुटाकर स्वयं आनंदित रहने वालों में अग्रणी हो सकते हो।'' इसलिए सेवा के नाम पर भूखों को भोजन कराएं, यही बड़ा धार्मिक कार्य हो सकता है, लेकिन इस पुनीत कार्य का भी अब प्रदर्शन हो रहा है।
 
         यह देखा जाता है कि लोग धर्म के नाम पर कई प्रकार के कर्म-कांडों और संस्कारों का पालन करते हैं। हममें से तमाम लोग प्राय: दूसरों का ध्यान आकर्षित करने के लिए अपने धार्मिक कार्यो का प्रदर्शन करते हैं, जबकि सच यह है कि मानव की सेवा ही पुण्य का काम है, किसी की आंख के आंसू पोंछना वास्तविक धर्म है और सच्ची संवेदनशीलता है। सभी धर्म हमें यही शिक्षा देते हैं। पुण्य तभी प्राप्त होंगे, जब हम हृदय से पवित्र होंगे, जरूरतमंदों की सहायता करेंगे। कुछ लोग गरीबों को भोजन कराते हैं, लेकिन कितने लोग हैं, जो इनकी गरीबी दूर करने के लिए आगे आते हैं। अगर हम संतों-महात्माओं के जीवन का अध्ययन करें, तो पाएंगे कि उन सबने गरीबों और जरूरतमंदों की सेवा की। उन्होंने हमें इसी बात की शिक्षा प्रदान की। लेकिन हमने उन महात्माओं के नाम पर संप्रदाय बना लिए और सेवा धर्म भूल गए। हम जीवन में पुण्य प्राप्त करने के लिए न जाने कहां-कहां भटकते हैं।
 

4-आस्था के आयाम
 
         जीवन के बारे में गहराई से सोचने के लिए मनुष्य में आस्था-भाव अवश्य होना चाहिए।विकेश कुमार बडोला जी ने अपने लेोख में लिखा कि- मानव जीवन हमेशा सामान्य रूप से नहीं चल सकता। कठिनाइयों के समय धैर्य व साहस के साथ जीवन निर्वाह के बारे में सोचना पड़ता है। भौतिक रूप से खाली होने पर मनुष्य किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है। संघर्ष के ऐसे वक्त में उसे ईश्वर का ध्यान तो आता है, पर वह अपने कल्याण के लिए उसमें पूरी आस्था नहीं रख पाता। उसका ईश्वरीय संस्मरण मात्र डर व शंका के कारण ही होता है, जबकि उस सर्वशक्तिमान के सान्निध्य-प्रसाद को उस पर गहन आस्था रखने से ही प्राप्त किया जा सकता है।
 
         आस्था का भाव-विचार संशयग्रस्त नहीं होना चाहिए। आस्था के लिए सोचने-विचारने का कार्यक्रम आस्थावान रहकर ही संपन्न हो सकता है। धर्म-कर्म व ईश-मर्म में रुचि भी तब ही बनी रह सकती है। ईश्वरीय उपासना के दौरान गूढ़, रहस्यात्मक विचार हमें निराकार शक्ति की ऊर्जा के निकट ले जाते हैं। इस ऊर्जा प्रवाह से हममें सच्ची धार्मिक स्थिरता आती है। ईश्वर से साक्षात्कार इसी प्रकार होता है। भगवान में आस्था की बात को इसी उच्चकोटि के धर्मानुभव के आधार पर समझी जा सकती है। आस्था कोई पौराणिक व पारंपरिक विधान या नियम नहीं है, जिसका अनुसरण करके ही व्यक्ति आस्था में विश्वास करे।
 
          आस्था एक विशुद्ध व्यक्तिगत मान्यता है। धर्म को सम्मान देते हुए ध्यान का विस्तार करना और धर्म-भक्ति के सुर, संगीत और संप्रवाह के माध्यम से उसमें गहरे उतरना आस्था से ही संभव है। आस्था कठिन जीवन परिस्थितियों में एक विश्वास-पुंज के समान होती है। आस्थावान होकर हम जीवन को व्यर्थ व विकार के रूप में देखना बंद कर देते हैं। इसके उपरांत हममें भगवत चेतना का अंकुर फूट पड़ता है। आस्था एक प्रकार का मानसिक व्यायाम है। इसमें ज्ञानेंद्रियां एक सकारात्मक विचार-बिंदु पर स्थिर हो जाती हैं और तत्पश्चात हमारे द्वारा किए जाने वाले प्रत्येक कार्य व कामना में एक शुभभाव आ जाता है। व्यक्ति में ऐसा परिवर्तन उसे नई दिशा प्रदान करता है। आस्था के बलबूते जिंदगी फलती-फूलती है। सच्ची आस्था से ईश्वर का साक्षात्कार या उनकी अनुभूति किसी न किसी रूप में अवश्य होती है।
 

5-आत्म तत्व क्या है
 
         मनुष्य तन अत्यंत दुर्लभ है और पूर्व जन्मों के पुण्यों के फलस्वरूप यह प्राप्त होता है। हम प्राय: अपने इस शरीर को ही सब कुछ समझ लेते हैं। इसीलिए संसार में रहकर हम शरीर-सुख के लिए प्रतिपल प्रयासरत रहते हैं, जबकि प्राणी का शरीर नाशवान है, क्षणभंगुर और मूल्यहीन है। शारीरिक सुख क्षणिक हैं, अनित्य हैं। इसलिए ज्ञानी जन शरीर के प्रति ध्यान न देकर, अंतरात्मा के प्रति सचेत रहने की बात करते हैं। अंतरात्मा के प्रति ध्यान देने से प्राणी का जीवन सार्थक होता है। शरीर नाशवान है और आत्मा अजर-अमर। गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं कि मृत्यु के पश्चात हमारा शरीर केवल वस्त्र बदलता है।
 
         डॉ. विश्राम ने सुन्दर लिखा है कि आत्मा तो अपने अस्तित्व के साथ सर्वदा वर्तमान है, क्योंकि उसका अवसान नहीं होता। इतना सब कुछ जानने के बाद भी हम शरीर को पहचानते हैं, उसका गर्व करते हैं और आत्मा के महत्व को हम गौण मानते हैं। यह हमारी अज्ञानता ही तो है। शरीर से हम कर्म भले ही करते हों, किंतु प्रेरक शक्ति आत्मा ही है। जिस प्रकार दीपक का महत्व ज्योति से है, उसी प्रकार शरीर का महत्व आत्मा से है, किंतु हम शरीर को ही सत्य मानकर उसका मोह करते रहते हैं। यह हमारी भयंकर भूल है। यह अज्ञान है। यह तो सभी जानते हैं कि मोह का चिरंतन मूल्य नहीं होता। एक न एक दिन व्यक्ति के मन से मोह दूर हो जाता है। उसे शरीर का रूप, गर्व, अहंकार आदि सभी महत्वहीन लगते हैं।
 
         महलों में रहने वाले संपन्न लोगों और जंगलों में तपलीन संन्यासियों-ऋषियों में शरीर के प्रति अलग-अलग अवधारणाएं होती हैं। संपन्न व्यक्ति अपने शरीर को सत्य मानकर सदैव भौतिक सुखों के पीछे भागते रहते हैं। वहीं संन्यासी शरीर को नाशवान और गौण मानकर आत्मा की आराधना में लीन रहकर भजन में व्यस्त रहते हैं। ऋषि को शरीर के चोला बदलने का सत्य ज्ञात हो चुका है। इसीलिए वह मस्त है और संपन्न व्यक्ति सदैव चिंताओं से ग्रस्त और भौतिक सुविधाओं के लिए व्यस्त रहता है। दोनों में यही मौलिक अंतर है। आत्मा के सत्य को समझ लेने के बाद शरीर का महत्व कम हो जाता है। शरीर और आत्मा के बीच संतुलन बनाकर रहने वाला व्यक्ति मोहग्रस्त नहीं होता। ज्ञान का उदय होते ही अज्ञान स्वत: समाप्त हो जाता है। शरीर केवल माध्यम है और आत्मा उसका संचालन करती है।
 

6-कलयुग के प्यार की पहचान 
 
         एक युवती थी। एक दुर्घटना में उसकी आंखें चली गई थीं। वह हर समय हताश-निराश रहती। उसे अपनी जिंदगी बोझ लगने लगी। उसके मन में हर समय यही उलझन रहती कि आंखें न होने के कारण उसे कोई प्यार नहीं करता। अपने जीवन से गिलेशिकवों के बीच ही उसे एक युवक मिला। वह युवक उस युवती का बड़ा ही ख्याल रखता। उस युवक के जिंदगी में आने से युवती के अंदर जीने की इच्छा पैदा हुई। उसे युवक की आवाज, उसकी बातें बहुत अच्छी लगतीं। युवक ने उस लड़की से कहा-कुछ भी हो जाए, मैं तुम्हारी आंखें वापस लाकर रहूंगा। मेरा वादा है कि तुम दुनिया को अपनी आंखों से देख सकोगी। युवक ने उस युवती की आंखों का ऑपरेशन किसी नामी सर्जन से करवाया। युवती की आंखों पर पट्टी बांध दी गई। युवती ने इच्छा जताई कि जब पट्टी खुलेगी तो मैं सबसे पहले युवक को ही देखना चाहूंगी।
 
         जिस दिन युवती की आंखों की पट्टी खुली, उसने सबसे पहले युवक को देखा और वह आश्चर्यचकित रह गई, क्योंकि युवक नेत्रहीन था। उसके सारे सपने धरे रह गए। उसने कहा- मैं एक नेत्रहीन से शादी नहीं कर सकती। युवक ने इस पर कोई दुख या निराशा व्यक्त नहीं की। उसने कहा - अब तुम दुनिया को देख सकती हो, उसे भरपूर जी सकती हो। मेरा उद्देश्य पूरा हुआ, मैं चलता हूं। हां, मेरी आंखों का ख्याल रखना।
 
 
7-बुद्धि का करें सदुपयोग
 
         दिन्दू धर्म में गणेश जी बुद्धि के देवता हैं। कोई भी कार्य प्रारंभ करने से पहले उनका नाम लेने का अर्थ है कि यदि हम बुद्धि का सदुपयोग करेंगे तो कार्य अवश्य सफल होगा। गणेश जी का रूप हमारे जीवन को एक सार्थक दिशा देता है। डॉ. प्रमिला दुबे का आलेख..बुद्धि के देवता कहे जाने वाले गणेश जी सभी को प्रिय हैं। वे अकेले ऐसे देवता हैं, जिन्हें कलाकार तरह-तरह की आकृतियों में बनाते हैं। चित्रकारों को उनमें सृजनात्मकता की तमाम संभावनाएं दिखती हैं। वे जितना बच्चों को पसंद हैं, उतना ही बड़ों को। गणपति शुभारंभ के प्रतीक बन गए हैं। किसी भी काम की शुरुआत को ही श्रीगणेश कहा जाता है। मतलब स्पष्ट है कि बिना बुद्धि के कोई काम करेंगे, तो वह सफल कैसे होगा। यानी काम में बुद्धि-विवेक को प्राथमिकता दें।
 
         दरअसल, गणेश चतुर्थी यानी भाद्रपद शुक्ल चतुर्थी गणेश जी का जन्मदिवस है। उनके जन्मदिवस पर आइए जानें गणेश जी की मनमोहक आकृति और उनके बुद्धि और विवेक वाले गुणों के अतिरिक्त वे अन्य कौन से गुण हैं, जो हमारे जीवन को बेहतर बना सकते हैं -भालचंद्र है उनका नाम-गणेश जी के मस्तक (भाल) पर द्वितीया का चंद्रमा सुशोभित रहता है, इसलिए उन्हें भालचंद्र भी कहते हैं। चंद्रमा शीतलता का प्रतीक है। इसका अर्थ हम यह ग्रहण करें कि जिसके मन-मस्तिष्क में शीतलता और शांति होगी, वही बड़ी से बड़ी समस्याओं का समाधान सरलता से कर सकता है। आखिर वे बुद्धि के देवता हैं। बुद्धि तभी काम करती है, जब हमारा दिमाग ठंडा हो।
 
         वे गजानन हैं--यानी उनका मुख (आनन) हाथी का है। हाथी का मुख होने की पौराणिक कहानी तो सभी ने पढ़ी होगी, लेकिन हमें जो ग्रहण करना है, वह यह है कि बुद्धि के स्वामी को हाथी की तरह धीर-गंभीर और बुद्धिमान तो होना ही चाहिए। हाथी स्वयं ही विशाल मस्तिष्क और विपुल बुद्धि का प्रतीक है। बड़े कान का अर्थ है बात को गहराई से सुना जाए। उनके कान सूप की तरह हैं और सूप का स्वभाव है कि वह सार-सार को ग्रहण कर लेता है और थोथा यानी कूड़ा-कर्कट को उड़ा देता है। इसी प्रकार मानव स्वभाव भी होना चाहिए। उसे अच्छी बातें ग्रहण करनी चाहिए और बेकार की बातों पर गौर नहीं करना चाहिए। लंबी सूंड तीव्र घ्राणशक्ति की महत्ता को प्रतिपादित करता है। जो विवेकी व्यक्ति है, वह अपने आसपास के माहौल को पहले ही सूंघ सकता है, संकटों की आहट सुन सकता है और वह अपने दिमाग का इस्तेमाल करके उनसे पार पाने का रास्ता भी तलाश सकता है।
 
         एकदंत हैं गणेश--गणेश जी का एक ही दांत है, दूसरा दांत खंडित है। यह गणेश जी की कार्यक्षमता और दक्षता का बोधक है। एकदंत होते हुए भी वे पूर्ण हैं। यह इस बात का सूचक है कि हमें अपनी कमी का रोना न रोते हुए, जो भी हमारे पास संसाधन उपलब्ध हैं, उसी में हमें दक्षता के साथ कार्य संपन्न करना चाहिए।
 
         वक्त्रतुंड महाकाय--गणेश जी का उदर यानी पेट काफी बड़ा है, इसलिए उन्हें लंबोदर भी कहा जाता है। आमतौर पर देखा जाता है, जो लोग गोल-मटोल होते हैं, वे हमेशा प्रसन्नचित्त रहते हैं। वे चाहे गणेशजी हों, लाफिंग बुद्धा हों या फिर सेंटा क्लाज हों। संभवत: उनके लंबोदर स्वरूप से हमें यह ग्रहण करना चाहिए कि बुद्धि के द्वारा हम समृद्धि प्राप्त कर सकते हैं और सबसे बड़ी समृद्धि प्रसन्नता है।
 
         पाश और अंकुशधारी--गणेश जी के हाथ में अंकुश और पाश हैं। प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में अंकुश और पाश की आवश्यकता पड़ती है। अपने चंचल मन पर अंकुश लगाने की अत्यंत आवश्यकता है। अपने भीतर की बुराइयों को पाश में फंसाकर आप उन पर अंकुश लगा सकते हैं।
 
         विघ्नेश्वर और विघ्नविनाशक-- गणेश जी को विघ्नेश्वर कहा जाता हैं। यानी वे विघ्नों के ईश्वर हैं। वहीं वे विघ्नों के विनाशक भी हैं। वे दो विपरीत गुणों के स्वामी हैं। यदि जीवन में सुख ही सुख हो, तो वह सुख भी दुख की तरह ही हो जाता है। दुखों के कारण ही हमें सुख की अनुभूति होती है। इसी प्रकार से हमें जीवन के हर पक्ष को स्वीकार करना चाहिए। विघ्न न आएं, तो हमें अच्छे-बुरे का ज्ञान नहीं हो पाता। जीवन से विघ्नों को हम अपनी ही बुद्धि से दूर भी कर सकते हैं।
 
 
8-सफल व्यावहारिक जीवन कैसा हो

         गुरु ग्रंथ साहिब एक ऐसा ग्रंथ है, जिसकी दार्शनिक अवधारणाएं आज के समय के लिए अत्यंत व्यावहारिक हैं और सफल जीवन की ओर ले जाती हैं..डॉ. राजेंद्र साहिल ने सुन्दर लेख में व्यक्त किया है कि गुरु ग्रंथ साहिब भारतीय दर्शन एवं विचार परंपरा का चिंतन है। पांचवें गुरु श्री अर्जुन देव जी द्वारा संपादित और बाद में दसवें गुरु गोविंद सिंह जी द्वारा पुनर्संपादित इस अद्भुत ग्रंथ में सिख गुरुओं, भक्त कवियों, दार्शनिकों की वाणी दर्ज है। इसमें विभिन्न दार्शनिक सिद्धांत एवं उनका निचोड़ मिलता है, परंतु यहां सामाजिक-आर्थिक पक्ष की भी अलग और विशिष्ट स्थापनाएं मिलती हैं। ये स्थापनाएं सहज, स्वाभाविक एवं खुशहाल जीवन जीने की युक्ति सुझाती हैं।
 
संसार के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण-
 
         अधिकांश दार्शनिक अवधारणाओं में संसार अथवा सृष्टि को नश्वर, मिथ्या और क्षणभंगुर माना गया है, परंतु 'गुरु ग्रंथ साहिब' में संसार को नश्वर, कूड़ (मिथ्या) एवं क्षणभंगुर मानने के बावजूद भी 'सचे तेरे खंड, सचे ब्रहमंड। सचे तेरे लोअ सचे आकार।' कहकर सृष्टि अथवा संसार को सत्य भी माना गया है। गुरु नानक देव जी संसार को ईश्वर का घर मानते हैं और उस 'अकाल पुरख' (ईश्वर) को इसमें निवास करने वाला बताते हैं।
 
आर्थिक उन्नति आवश्यक-
 
        संसार में रहते हुए अपनी भौतिक जरूरतें पूरी करने के लिए अर्थ-उपार्जन को गुरुग्रंथ साहिब में उचित व श्रेष्ठ बताया गया है। इसीलिए कार्य करके जीविका कमाने को सर्वश्रेष्ठ प्राप्ति माना गया है। गुरु अर्जुन देव तो गुरु ग्रंथ में स्पष्ट कहते हैं कि खाते-पीते, खेलते-पहनते हुए भी मुक्ति या 'मोक्ष' प्राप्त किया जा सकता है। इसमें मनुष्य की आर्थिक उन्नति को सामाजिक उन्नति का आधार माना गया है।
 
स्तरीय जीवन जीने का अधिकार--
 
         गुरु ग्रंथ साहिब में स्तरीय और खुशहाल जीवन गुजारने को मनुष्य का बुनियादी हक माना गया है। इसीलिए गुरुग्रंथ साहिब में 'देग तेग फतहि' का सिद्धांत स्थापित हुआ है। 'देग' (भोजन वाला बर्तन) मनुष्य की आर्थिक एवं भौतिक जरूरतों का प्रतीक है, जिसे 'फतहि' (जीतने यानी प्राप्त) करने की कामना की गई है।
 
गृहस्थ जीवन की श्रेष्ठता--
 
         गुरुग्रंथ साहिब में गृहस्थ जीवन को सर्वोतम धर्म कहा गया है। आर्थिक उन्नति एवं स्तरीय जीवन जीने जैसे लक्ष्य गृहस्थ जीवन में रहकर ही प्राप्त किए जा सकते हैं। गुरु नानक देव जी स्पष्ट कहते हैं कि सबसे उत्तम गृहस्थी है।
 
मानवीय अधिकारों की बात--
 
         इस ग्रंथ में समस्त मानवीय अधिकारों को मनुष्य के लिए अनिवार्य मानने की व्यापक चर्चा की गई है। गुरु नानक देव जी मानवीय अधिकारों के हनन को सबसे बड़ा पाप मानते हैं।
 
स्त्री-पुरुष समानता--
 
         गुरु ग्रंथ साहिब में स्त्री और पुरुष के अधिकार समान माने गए हैं। गुरु नानक देव जी का कथन है कि जीवन के समस्त कार्य-व्यवहार का आधार है नारी, अत: नारी बुरी कैसे हो सकती है। इस प्रकार 'गुरु ग्रंथ साहिब' मात्र दार्शनिक चिंतन का संग्रह ही नहीं, बल्कि सहज और खुशहाल जीवन जीने की युक्ति भी है।
 

9-आत्मविश्वास घातक भी हो सकता है
 
         सद्गुरु ईशा हिंदी ब्लॉग के कुछ अंशों का सार यहां पर संकलित किया गया है,जो आत्मविश्वास के सम्बन्ध में है।
 
प्रश्‍न: सद्‌गुरु, अगर हम अपने आत्मविश्वास और योग्यता को बढ़ाना चाहते हैं तो हमें अपने व्यवसाय या कार्यक्षेत्र में कुछ खास लक्ष्य हासिल करने की जरुरत होती है, जो कि हमें बहुत व्यस्त कर देता है। ऐसे में आत्मज्ञान या आत्मबोध के लिए वक्त कैसे निकाला जाए?

सद्‌गुरु:
         सबसे पहले तो आत्मबोध के बारे में आपका या किसी और का जो विचार है उसे स्पष्ट कर लें। क्या आपके पास टेलीविजन है? क्या आप कैमरे का इस्तेमाल करते हैं? आपके पास जीवन में जो भी उपकरण हैं, जितना आप उनके बारे में जानते हैं, आपको उन्हें इस्तेमाल करने में उतनी ही आसानी होती है। अगर आप एक ऐसे इंसान को कैमरा दे दीजिए, जो इसके इस्तेमाल के बारे में कुछ नहीं जानता हो, तो वह शायद इसे ऑन भी नहीं कर पाएगा। लेकिन अगर यही कैमरा आप किसी ऐसे व्यक्ति को देते हैं, जो उसके बारे में अच्छी तरह जानता है, तो वह उसी कैमरे से एक जादुई संसार रच देगा। एक ऐसा संसार कि लोग उसे देखने के लिए घंटों अंधेरे में बैठना पसंद करेंगे।

         आत्मबोध या आत्मानुभूति का मतलब महज ‘अपने आप’ को जानना है। ऐसे में यह आपके व्यवसाय या आपके कामकाज का विरोधी कैसे हो सकता है? कल अगर आप मेरे साथ ड्राइव पर चलें, तो मैं आपको दिखा सकता हूं कि हम कार के साथ क्या-क्या कर सकते हैं। किसी चीज के बारे में आप जितना ज्यादा जानते हैं, उसका इस्तेमाल आप उतना ही बेहतर तरीके से कर सकते हैं। यह बात जीवन में हमारे द्वारा किए जाने वाले हर काम के साथ अगर लागू होती है, तो क्या यह खुद हमारे साथ लागू नहीं होगी? आप खुद के बारे में भी जितना ज्यादा जानेंगे, उतना ही बेहतर आप अपना इस्तेमाल कर पाएंगे। इसलिए ऐसा बिल्कुल मत सोचिए कि आत्मबोध सिर्फ हिमालय की कंदराओं में होता है। यह वहां भी होता है, लेकिन मैं चाहता हूं कि आत्मबोध को आप अपने संदर्भ में देखें।
 
         आत्मबोध या आत्मानुभूति का मतलब महज ‘अपने आप’ को जानना है। ऐसे में यह आपके व्यवसाय या आपके कामकाज का विरोधी कैसे हो सकता है? आप अपने जीवन में जो भी करना चाहते हैं, यह उसके खिलाफ कैसे हो सकता है? मैं आपसे पूछता हूं कि आप अपने बारे में जाने बिना एक प्रभावशाली जीवन कैसे जी सकते हैं? आज लोग एक दूसरे को समझा रहे हैं कि आत्मविश्वास कैसे पाया जाए, वो भी जीवन की प्रक्रिया को समझे बिना। लेकिन स्पष्टता के बिना आत्मविश्वास बेहद घातक है। पिछले दिनों पूरी दुनिया आर्थिकमंदी के दौर से गुजरी है, जिसकी शुरुआत अमेरिका से हुई। इसकी शुरुआत के पीछे अमेरिकी लोगों का बिना स्पष्टता के अति-आत्मविश्वास ही असली वजह था।
 

जीवन में आत्मविश्वास नहीं स्पष्टता की जरूरत है
 
         अफसोस की बात है कि हम सोचते हैं कि आत्मविश्वास, स्पष्टता का विकल्प है। मान लीजिए हम आपकी आंखों पर पट्टी बांध कर आपसे चलने के लिए कहते हैं। अगर आप समझदार हैं तो आप अपना रास्ता महसूस करने की कोशिश करेंगे, दीवारों को छूते हुए आसपास की चीजों का हाथ व पैरों से स्पर्श करते हुए चलेंगे। लेकिन आप अगर आत्मविश्वास से भरे हैं और बिना देखे चलते हैं, उस स्थिति में रास्ते का पत्थर आप पर किसी तरह की करुणा नहीं दिखाने वाला। इसी तरह जिंदगी भी कभी आपके प्रति दयालु नहीं होगी अगर आप स्पष्टता के बिना आत्मविश्वास से भरे हैं। दुनिया में आप जो भी काम कर रहे हैं, उसमें सफलता पाने के लिए या फिर जीवन में चीजों को बेहतर ढंग से करने के लिए इंसान को आत्मविश्वास की नहीं, बल्कि स्पष्टता की जरूरत होती है।


10-हमारी इच्छाओं का राज
 
        मनुष्य जीवनभर इच्छाओं-कामनाओं के पीछे भागता रहता है। श्री अशोक वाजपेयी जी वह लेख मुझे पसन्द आया जिसमें उन्होंने लिखा कि-जीवन में कुछ इच्छाओं की पूर्ति तो हो जाती है, पर ज्यादातर इच्छाओं की पूर्ति नहीं हो पाती। मनुष्य की जब इच्छाओं की पूर्ति हो जाती है, तो वह फूला नहीं समाता और अहंकारयुक्त हो जाता है। उस कार्य की पूर्ति का सारा श्रेय स्वयं को देता है। वहीं जब इच्छा की पूर्ति नहीं हो पाती तब वह ईश्वर को दोष देने लगता है और अपने भाग्य को दोष देने लगता है। मनुष्य की इच्छाएं अनंत होती हैं। वे धारावाहिक रूप से एक के बाद एक कर आती चली जाती हैं। जीवनपर्यन्त यही क्रम चलता रहता है। वर्तमान के इस भौतिक युग में लोग इच्छाओं से भी बड़ी महत्वाकांक्षाओं को मन में पालने लगे हैं। ऐसी-ऐसी महत्वाकांक्षाएं करते हैं, जिनके बारे में स्वयं जानते हैं कि वे शायद ही कभी पूरी हो सकें।
 
         इस क्षणभंगुर संसार में सांसारिक सुख की प्राप्ति करने के लिए मनुष्य सदा प्रयत्‍‌नशील रहता है। इसके लिए वह सदैव कामना करता रहता है। वह नहीं जानता कि सुखस्वरूप तो वह स्वयं ही है। गुणों के अधीन यह सांसारिक सुख तो क्षणभंगुर हैं। यह समाप्त होने वाला है, तब फिर इन संसारी सुख की इच्छाओं के पीछे क्यों भागते रहा जाए? भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है कि रजोगुण से उत्पन्न यह कामना बहुत खाने वाली है अथवा हमें परेशान करने वाली है। ऐसी मनोकामना की पूर्ति कभी नहीं होती। इसका पेट कभी नहीं भरता। भगवान कहते हैं कि मन में उठने वाली कामना यदि पूरी हो जाती है तो राग उत्पन्न हो जाता है और इसकी पूर्ति न होने पर मन में क्त्रोध जन्म ले लेता है। कहने का मतलब यही है कि दोनों ही स्थितियों में मनुष्य की हानि है अथवा उसे नुकसान उठाना पड़ता है।
 
         हमें यह समझना होगा कि किसी भी व्यक्ति के जीवन में उसकी संपूर्ण इच्छाओं की पूर्ति कभी नहीं हो पाती, जबकि इन इच्छाओं की पूर्ति करने में मनुष्य अपना सारा श्रम लगा देता है। मनुष्य को चाहिए कि इन इच्छाओं का दामन छोड़कर अपने नियमित कर्र्मों को आसक्ति से रहित होकर करते हुए सारे जगत के रचयिता परमात्मा को अपना सर्वस्व न्योछावर करे और इस जगत में निर्लिप्त होकर रहे। इससे वह शाश्वत सुख व शांति प्राप्त कर सकेगा और फिर वह इच्छाओं के जाल में नहीं फंसेगा।
 

11--धर्म के स्वरूप की विवेचना
 
         आज मनुष्य अनेक प्रकार की समस्याओं से घिरा है। कभी वह बीमारी की समस्या से जूझता है तो कभी उसे वृद्धावस्था सताती है, कभी वह मौत से घबराता है तो कभी व्यवसाय की असफलता का भय उसे बेचैन करता है। कभी अपयश का भय उसे तनावग्रस्त कर देता है ..और भी न जाने कितने प्रकार हैं भय के। मनुष्य इन सब समस्याओं से निजात चाहता है। इस सम्बन्ध में ललित गर्ग का लेख पसन्द आया कि हर इंसान की कामना रहती है कि उसके समग्र परिवेश को ऐसा सुरक्षा कवच मिले, जिससे वह निश्चित होकर जी सके, समस्यामुक्त होकर जी सके। जीवन एक संघर्ष है। इसे जीतने के लिए धर्मरूपी शस्त्र जरूरी है।
 
         महाभारत में लिखा है-'धर्मो रक्षति रक्षित:।' मनुष्य धर्म की रक्षा करे तो धर्म भी उसकी रक्षा करता है। यह विनियम का सिद्धांत है। संसार में ऐसा व्यवहार चलता है। भौतिक सुख की चाह में लोग धर्म की ओर प्रवृत्त होते हैं। कुछ देने की मनौतियां- वायदे होते हैं, स्वार्थो का सौदा चलता है। पाप को छिपाने के लिए पुण्य का प्रदर्शन किया जाता है। यदि ऐसा होता है, तो धर्म से जुड़ी हर परंपरा, प्रयत्न और परिणाम गलत हैं, जो हमें साध्य तक नहीं पहुंचने देते।
 
         आचार्य तुलसी ने इसीलिए ऐसे धर्म को आडंबर माना। 'धर्मो रक्षति रक्षित:'-यह एक बोधवाक्य है, जीवन का वास्तविक दर्शन है। मनुष्य की धार्मिक वृत्ति उसकी सुरक्षा करती है, यह व्याख्या सार्थक है। ऐसा इसलिए क्योंकि वास्तव में धर्म का न कोई नाम होता है और न कोई रूप। व्यक्ति के आचरण, व्यवहार या वृत्ति के आधार पर ही उसे धार्मिक या अधार्मिक होने का प्रमाणपत्र दिया जा सकता है।
 
         धार्मिक व्यक्ति के जीवन में किसी प्रकार का कष्ट नहीं आता, उसे बुढ़ापा, बीमारी या आपदा का सामना नहीं करना पड़ता, ऐसी बात नहीं है। धार्मिक व्यक्ति के जीवन में भी बुढ़ापा का समय आता है, लेकिन उसे यह सताता नहीं है। बीमारी आती है, पर उसे व्यथित नहीं कर पाती। आपदा आती है, पर उससे उसका धैर्य विचलित नहीं होता। इस कथन का सारांश यह है कि धार्मिक व्यक्ति दुख को सुख में बदलना जानता है। इस बात को यों भी कहा जा सकता है कि धार्मिक वही होता है, जो दुख को सुख में बदलने की कला से परिचित रहता है। यही है धर्म की वास्तविक उपयोगिता।
 

12-मनोबल की शक्ति
 
         एक राजा के पास एक बड़ा ही पराक्रमी हाथी था। युद्धों में उस पर ही बैठकर राजा ने तमाम राज्यों पर विजय पाई थी। उसे इस तरह प्रशिक्षण दिया गया था कि युद्ध में शत्रु पक्ष के सैनिकों को देखते ही वह उन पर टूट पड़ता और शत्रु अवाक रह जाते और पीछे हट जाते। ऐसा भी समय आया, जब हाथी बूढ़ा हो गया। राजा ने युद्ध के लिए नए युवा हाथियों को प्रशिक्षण देकर तैयार कर लिया। वह उपेक्षित होकर रह गया। अब उस पर पहले की तरह ध्यान नहीं दिया जा रहा था। उसकी भूख भी कम हो गई थी और उसके पौष्टिक भोजन में भी कमी कर दी गई। वह अशक्त और दुर्बल दिखने लगा था।
 
         एक बार हाथी पानी पीने तालाब में गया। वहां की दलदल में उसका पैर धंस गया। उसने निकलने की कोशिश की, तो उसके शरीर ने साथ नहीं दिया। वह गरदन तक कीचड़ में समा गया। इतने बड़े हाथी को आखिर निकाला कैसे जाए? हाथी के बच जाने की संभावना किसी को नहीं थी। राजा को जब घटना की बात पता चली, तो वे दुखी हो गए।
 
         उन्होंने एक चतुर सेनापति से सलाह मांगी, तो उसने कहा कि महाराज, इस हाथी को निकालने का एक ही तरीका है कि इसके पास युद्ध का माहौल तैयार किया जाए।
 
         युद्ध के वाद्य मंगवाए गए, नगाड़े बजवाये गए और ऐसा माहौल बनाया गया कि शत्रुओं के सैनिक राज्य की ओर बढ़ रहे हैं। यह देखकर हाथी में अचानक फुर्ती और साहस आ गया। उसने जोर से चिंघाड़ लगाई और सैनिकों की ओर दौड़ने की कोशिश करने लगा। इसी प्रयास में वह बाहर आ गया।
 
 
13--भविष्यवेत्ता  को दी सीख
 
         यह यूनान की प्राचीन बोध-कथा है। एक राज-ज्योतिषी था। वह रात-दिन भविष्य-वाणी करने के लिए ग्रहों (सितारों) का अध्ययन करता रहता था। एक दिन वह रात के अंधेरे में तारों को देखता हुआ जा रहा था। उसे पता नहीं चला कि आगे एक गहरा गढ्डा है। वह उसमें गिर गया।उसके गिरने और चिल्लाने की आवाज सुनकर पास ही एक झोपड़ी में रहने वाली वृद्धा उसकी मदद करने के लिए वहां पहुंच गई। उसने उसे रस्सी डालकर कुएं से निकाला। राज-ज्योतिषी बहुत खुश हुआ। वह खुश होकर वृद्धा का कुछ भला करना चाहता था, लेकिन उसमें राज ज्योतिषी वाली अकड़ थी। उसने कहा, 'इस निर्जन स्थान पर तुम नहीं आतीं तो मैं कुएं में ही दम तोड़ देता। मैं राज-ज्योतिषी हूं। राजाओं को उनका भविष्य बताता हूं, लेकिन मैं मुफ्त में तुम्हारा भविष्य बताऊंगा।'
 
         यह सुनकर बुढि़या बहुत हंसी और बोली, 'यह सब रहने दो! तुम्हें अपने दो कदम आगे का तो कुछ पता नहीं है, मेरा भविष्य तुम क्या बताओगे?
 
 
14-दुख कैसे दूर हुआ
 
         हिमालय पर एक संत कुटिया में रहते थे। उनकी प्रसिद्धि इतनी थी कि उनके दर्शनों के लिए लोग नदियां-घाटियां पार कर चले आते। लोगों का मानना था कि वे हर दुख-तकलीफ से उन्हें मुक्ति दिला सकते हैं। जबकि संत नहीं चाहते थे कि उनकी एकांत साधना भंग हो।
 
         एक बार तीन दिनों तक संत अपनी कुटिया से बाहर नहीं निकले। तीन दिनों में दुखों से मुक्ति पाने वालों की भारी भीड़ लग गई। जब वहां किसी और के आने की जगह नहीं बची, तब संत बाहर निकले। उन्होंने लोगों को संबोधित करते हुए कहा - मुझे पता है आप लोग अपने कष्टों, समस्याओं को दूर कराने मेरे पास आए हैं। आज आखिरी बार मैं आप लोगों के कष्ट दूर करने का उपाय बता रहा हूं, इसके बाद नहीं बताऊंगा। अब मुझे एक-एक करके अपनी समस्याएं बताएं।
 
         सभी एक साथ बोलने लगे, क्योंकि सभी जानते थे कि संत से संवाद का यह अंतिम अवसर था। शोरगुल होने लगा। महात्मा चिल्ला कर बोले- आप लोग शांत हो जाइए। सभी अपने-अपने कष्ट एक पर्चे पर लिखकर मेरे सामने रख दीजिए।
 
         सभी ने एक-एक पर्चे पर अपनी समस्या लिख दी। संत ने एक टोकरी में सारे पर्चो को डालकर उन्हें मिला दिया और कहा- हर व्यक्ति इसमें से एक पर्चा उठाए, उसे पढ़े और किसी दूसरे का दुख अपने दुख की जगह ले ले।
 
         सारे व्यक्तियों ने टोकरी से पर्चे उठाकर पढ़े और चिंता में पड़ गए। क्योंकि सबके दुख एक से बढ़कर एक थे। आखिरकार, वे इस नतीजे पर पहुंचे कि बेशक उनके पास दुख हैं, पर बहुत से लोगों के पास तो उससे भी ज्यादा दुख-तकलीफें हैं। आखिरकार सभी ने अपने-अपने दुख को ही स्वीकार किया, लेकिन अब उन्हें दुख का प्रभाव कम लग रहा था।
 
         कथा-मर्म: दुख से दुखी होने की बजाय उनको देखें जो आपसे कहीं ज्यादा दुख में डूबे होने पर भी उम्मीद का दामन नहीं छोड़ते।
 
 
 
15-वास्तविक सुख आत्म-तत्व का साक्षात्कार करना है
 
         संसार का नियम है कि लोग सफलता के साथ चलते हैं और कष्ट के समय साथ छोड़ देते हैं। उनका सारा अपनत्व और ममत्व लुप्त हो जाता है। अधिकतर मामलों में ऐसा देखा गया है कि समाज उन्हीं का साथ देता है जिनके पास पद और प्रतिष्ठा है। वर्तमान समय में पश्चिमी मूल्यों के प्रचलन में आने के फलस्वरूप पवित्र भारत भूमि पर आत्म-साक्षात्कार, साधना और आर्थिक शुचिता आदि गुणों का निरंतर अभाव होता जा रहा है।
 
         स्वार्थी मनुष्य अपने भोग्य पदार्थो और अवसरों की खोज में लगा रहता है। कभी-कभी तो महत्वपूर्ण पदों पर आसीन प्रतिष्ठित व्यक्ति सीमित स्वार्थो की पूर्ति के लिए इंसाफ की राह से भटक जाते हैं। आगे बढ़ने की चाहत में वे मानवीय मूल्यों को भुला बैठते हैं, जिससे धन-संपत्ति, पद, प्रतिष्ठा तो प्राप्त हो जाती है, पर उन्होंने क्या खो दिया, उसका आभास उन्हें नहीं होता।
 
         वास्तव में इस संसार में धन, संपत्ति,पद-प्रतिष्ठा, रिश्ते-नाते अल्पकालिक, अस्थिर और मिथ्या हैं। व्यक्ति जिस धन, कीर्ति व मान को सच्चा सुख मान बैठता है, वे सदैव नहीं रहते। ऐसा इसलिए, क्योंकि वास्तविक सुख तो आत्म-तत्व का साक्षात्कार करना है। हमारी भारतीय संस्कृति सदैव आत्म उन्नति का ही सम्मान करती आई है।
 
         मानव जिसके लिए प्रपंच करता है, वे सब यहीं रह जाते हैं। इस संसार में प्रत्येक व्यक्ति अकेला ही आया है और अकेला ही जाता है। आज हम जिस पद पर आसीन हैं, वहां कल कोई और था और आने वाले समय में कोई और होगा। सभी पदों के साथ भूतपूर्व लग जाया करता है, इसलिए हमारा मूल उद्देश्य मात्र सांसारिक पद पा लेना नहीं होना चाहिए। ईश्वर ने हमें जिस पद पर आसीन किया है, कृतज्ञ भाव से नीतिपूर्ण कार्य करते हुए उसकी गरिमा को बढ़ाना चाहिए, क्योंकि बड़े भाग्य से यह मानव शरीर प्राप्त हुआ है। यह सत्य है कि सच्चाई की राह आसान नहीं होती। व्यक्ति को पग-पग पर मुश्किलों का सामना करना पड़ता है, पर जो भगवान के चरणों में प्रीति रखता है, उसे ही ध्रुव जैसा प्रतिष्ठित पद प्राप्त होता है। एक फकीर जिसे किसी भी वस्तु की कामना नहीं होती, उसका जीवन अत्यंत मस्त और निश्चिंत होता है ।
 
 
16-कर्मफल का परिणाम भोगना ही पड़ता है
 
         यदि कर्म का फल तुरंत नहीं मिलता है तो इससे यह नहीं समझ लेना चाहिए कि उसके भले-बुरे परिणाम से हम सदा के लिए बच गए। कर्मफल एक ऐसा अमिट तथ्य है कि जो आज नहीं तो कल भोगना पड़ेगा। कभी-कभी इन परिणामों में देर इसलिए होती है कि ईश्वर मानवीय बुद्धि की परीक्षा करना चाहता है कि व्यक्ति अपने कर्तव्य धर्म को समझ सकने और निष्ठापूर्वक पालन करने लायक विवेक बुद्धि संचित कर सका या नहीं।
 
         भगवान ने मनुष्य को भला या बुरा करने की स्वतंत्रता इसलिए प्रदान की है कि वह अपने विवेक को विकसित करके भले-बुरे का अंतर करना सीखे और दुष्परिणामों के शोक-संतापों से बचने और सत्परिणामों का आनन्द लेने के लिए स्वत: अपना पथ निर्माण कर सकने में समर्थ हो। ईश्वर चाहता है कि व्यक्ति अपनी स्वतंत्र चेतना का विकास करे और विकास के क्रम से आगे बढ़ता हुआ लक्ष्य प्राप्त करने की सफलता प्राप्त करे। प्रत्येक व्यक्ति को ईश्वर ने स्वतंत्र इच्छा शक्ति प्रदान की है।
 
         मनुष्य अच्छा या बुरा करने के लिए स्वतंत्र है। ईश्वर ने यह सीख दी है कि अच्छे का फल अच्छा और बुरे का फल बुरा होता है। यह मानव पर निर्भर है कि वह अच्छे और बुरे कर्मो का निर्धारण किस तरह करता है? वैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो कोई भी क्रिया के समतुल्य उतने ही पैमाने पर विपरीत प्रतिक्रिया होती है। स्पष्ट है कि अगर हम अच्छे कर्म करेंगे, तो आज न सही कालांतर में उसका परिणाम किसी न किसी रूप में अच्छा होगा। यदि ईश्वर को यह प्रतीत होता कि बुद्धिमान बनाया गया मनुष्य पशुओं जितना मूर्ख ही बना रहेगा तो शायद उसने दंड के बल पर चलाने की व्यवस्था उसके लिए भी सोची होती। तब झूठ बोलते ही जीभ पर छाले पड़ने, चोरी करते ही हाथ में फोड़ा उठ पड़ने, कुविचार आते ही सिरदर्द होने जैसे दंड मिलने की व्यवस्था बनी होती। तब कोई मनुष्य दुष्कर्म करने की हिम्मत नहीं करता, लेकिन ऐसी स्थिति में मनुष्य की स्वतंत्र चेतना, विवेक, बुद्धि और आंतरिक महानता के विकसित होने का अवसर ही नहीं आता और आत्मविकास के बिना पूर्णता के लक्ष्य को प्राप्त कर सकने की दिशा में प्रगति ही नहीं होती।
 
 
17--विवेकानंद ने सनातन धर्म को नयी दिशा दी थी
 
         विश्व में भारतीय अध्यात्म का परचम लहराने वाले और भारत की गौरवशाली परंपरा एवं संस्कृति के सच्चे संवाहक ने चार जुलाई 1902 को बेलूरमठ में महाप्रयाण लिया था। उन्होंने अपने अनुयायियों को संकेत दे दिया था कि उनकी आयु 40 वर्ष की है। उनका यह कथन सच निकला। 39 वर्ष पांच माह और 24 दिन की उम्र में वह दुनिया से विदा हो गए।
 
         जानकार बताते हैं कि चार जुलाई 1902 को स्वामीजी एकदम सहज थे। अंतिम दिन उनकी दिनचर्या ऐसी गुजरी कि किसी को ऐसी घटना का अंदाजा नहीं था। स्वामीजी का जन्म 12 जनवरी 1863 में पश्चिम बंगाल स्थित कोलकाता में हुआ था। युवा संन्यासी के रूप में भारतीय संस्कृति की सुगंध विदेश में बिखरने वाले विवेकानंद साहित्य, दर्शन और इतिहास के प्रकांड विद्वान थे। उनका मूल नाम नरेंद्रनाथ दत्त था। उनके पिता विश्वनाथ दत्त कलकत्ता उच्च न्यायालय में वकालत करते थे। मां भुवनेश्वरी देवी धर्मपरायण महिला थीं। नरेंद्रनाथ आगे चलकर के नाम से प्रसिद्ध हुए।
 
         श्रीरामकृष्ण आश्रम के स्वामी विश्वरूप महाराज ने बताया कि विवेकानंद युगांतकारी आध्यात्मिक संत थे। उन्होंने सनातन धर्म को गतिशील तथा व्यावहारिक बनाया। सुदृढ़ सभ्यता के निर्माण के लिए विज्ञान व भौतिकवाद को भारत की आध्यात्मिक संस्कृति से जोड़ने का आग्रह किया। भारत में स्वामीजी की जयंती राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनायी जाती है। विवेकानंद का उद्घोष था- उठो, जागो और तब तक मत रुको जबतक लक्ष्य को न प्राप्त कर लो। नरेंद्रनाथ कैसे श्रीरामकृष्ण की दिव्य शक्ति से बने यह पूरी दुनिया जानती है। जेब में एक फूटी कौड़ी नहीं होने के बावजूद स्वामीजी ने पैदल कश्मीर से कन्याकुमारी तक की यात्रा की। इस दौरान उन्होंने भारत की आत्मा को पहचान लिया।
 
 
18-बुद्धि ज्ञान को प्रकाशित करती है
 
         बुद्धि का विकास आवश्यक है। बुद्धि के विकास से ही ज्ञान का प्रकाश पुंज फैलता है। समस्त जानकारी हमें बुद्धि के द्वारा ही प्राप्त होती है। बुद्धि ही ज्ञान को प्रकाशित करती है। हम बुद्धि का विकास किस ओर करते हैं, यह बात विचारणीय है। बुद्धि का विकास हम दो दिशा में कर सकते हैं। प्रथम, हम बुद्धि को सही दिशा देकर उसे ज्ञान की उच्चतम अवस्था की उपलब्धि करा सकते हैं।
 
         कहने का आशय यह कि हम बुद्धि को वाह्य जगत से मोड़कर अपने अंतर्मन की ओर अग्रसारित करा सकते हैं, जिससे वह अपनी आत्मा के आलोक को प्राप्त कर ले और यही मनुष्य जन्म प्राप्त करने का सच्चा व यथार्थ उद्देश्य है। देश में इसी दिशा की ओर सभी महापुरुष चले हैं। उनके द्वारा वह उन्नति प्राप्त की गई है जिसके कारण उन्होंने समाज व संसार को सही रास्ता दिखलाया। बुद्धि भावना से जुड़कर आत्मिक उन्नति को प्राप्त कर पाती है। इसके विपरीत बुद्धि जब भावना का परित्याग करते हुए मात्र बुद्धिवादी बनकर आगे बढ़ती है, तब वह इंद्रियों के सुखों की पोषक होती है। वह इस ओर लग जाती है कि किस प्रकार से शरीर के सुख के लिए अधिक से अधिक योगदान किया जा सके।
 
         शरीर सुख ही मुख्य उद्देश्य रह जाता है। आज समाज बिखर रहा है। क्यों? इसलिए कि लोग केवल बुद्धिवादी होकर रह गए हैं। भावना का परित्याग कर दिया गया है। बुद्धि की बाजीगरी चल रही है। लोग कैसे-कैसे, झूठ, फरेब, छल, कपट को ओढ़ते चले जा रहे हैं। हर तरफ बिखराव की स्थिति दिखाई पड़ती है। सब एक दूसरे को दोष देते रहते हैं। मगर वे क्यों नहीं समझ पाते कि भाव का परित्याग कर केवल बुद्धिवादी बनकर वैतरणी नहीं पार की जा सकती।
 
         आज बुद्धि की समस्त चेष्टाएं संसार की ओर अग्रसर हो चुकी हैं। ठगी का बाजार गर्म है। वे इस बात को भूल गए हैं कि हम किस देश के रहने वाले हैं, जहां बुद्धि का विकास अपने चरमोत्कर्ष पर रहा है। बुद्धि को संसार में उतना ही प्रयुक्त किया जाता रहा है जिससे सही जीवनयापन हो सके। अब पुन: बाहर की दौड़ पर लगाम लगाकर अपने यथार्थ सुख की प्राप्ति की ओर बुद्धि को ले जाना होगा। तभी समाज और पूरे विश्व को शांति व आनंद की राह पर लाया जा सकता है।
 
 
19-सोच का सफलता के साथ है गहरा संबंध
 
         किसी बात को सोचते हुए अक्सर परेशानी इसलिए महसूस होती है, क्योंकि लोग नकारात्मक बातों को लगातार सोचते रहते हैं। सकारात्मक बातों को भी सोचा जा सकता है, लेकिन वे इस ओर सोच ही नहीं पाते। सोच का सफलता के साथ गहरा संबंध है। लेखक डेविड जे. श्वा‌र्ट्ज कहते हैं कि किसी भी क्षेत्र में सफलता के लिए सबसे पहली जरूरत होती है सोच।
 
         सोच का सफलता से गहरा संबंध है। आपकी जितनी बड़ी सोच होगी। आपको उतनी बड़ी सफलता मिलेगी। व्यक्ति की सोच में परमाणु बम जैसी ताकत होती है। यदि सोच सकारात्मक होगी तो व्यक्ति में ऊर्जा भर देगी। नकारात्मक सोच व्यक्ति को लाचार बना देती है और वह तनाव का शिकार हो जाता है। नकारात्मक सोच व्यक्ति को गलत कार्य करने के लिए प्रेरित करती है।
 
         व्यक्ति कई बार गलत कार्यो के चलते अपने जीवन को बर्बाद कर लेता है। ऐसा सोच के कारण ही होता है। सकारात्मक सोच असफलता के पहाड़ को ब्लास्ट कर सफलता की नई राह दिखा सकती है। सही सोच के द्वारा हर उस चीज को हासिल किया जा सकता है, जिसे व्यक्ति पाना चाहता है। दार्शनिक अरस्तू कहते हैं कि यदि आप चाहते हैं कि सब कुछ वैसा ही हो, जैसा आप चाहते हैं तो अपनी सोच को बदल दीजिए। सब कुछ बदल जाएगा। हेनरी फोर्ड ने आठ सिलेंडर वाला इंजन बनाने की सोची और उसे बनाने में जुट गए। सोच के कारण ही वह शक्तिशाली इंजन बना सके। तब हेनरी फोर्ड निर्धन थे, उनके पास कोई बड़ी डिग्री भी नहीं थी, केवल एक क्रांतिकारी सोच थी। उसी सोच ने उन्हें सफलता के शीर्ष पर पहुंचा दिया। सकारात्मक सोच व्यक्ति को आध्यात्मिक और शारीरिक रूप से भी मजबूत बनाती है।
 
          सही दिशा में सोचने वाला व्यक्ति आध्यात्मिक आनंद में डूबा रहता है। वह बीमारी, तनाव और चिंता का शिकार कम होता है। असफलता उसे हरा नहीं पाती, क्योंकि सकारात्मक सोच से वह अपनी असफलता को सफलता में परिवर्तित कर लेता है। व्यक्ति की सोच वहां तक पहुंच जाती है जहां तक सूरज की रोशनी भी नहीं पहुंच पाती। सोच से व्यक्ति हार को भी जीत में बदल सकता है। मनुष्य की कल्पना और सफलता देखने की क्षमता ही जीत हासिल करवाती है। जब आपकी सोच और आत्मशक्ति एक दिशा में सोचते हैं तो अध्यात्म का मिश्रण इसे परम शक्तिशाली बना देता है।
 
 
20-संकल्प ऊर्जाधारा को एक दिशा देता
 
         ऊर्जा के महाप्रवाह में से स्वयं द्वारा वांछित विचार-प्रवाह का चयन करना संकल्प का आशय है। संकल्प ऊर्जाधारा को एक दिशा देता है। संकल्प एक ऐसा बीज है, जो पड़ते ही अंकुरण आरंभ कर देता है और समस्त परिस्थितियों को अपने अनुरूप परिवर्तित कर देता है।
 
         संकल्पबल के पीछे सभी बरबस चलने लगते हैं। जीवन में हमें करना क्या है? पाना क्या है? जाना कहां है? इन तमाम चीजों के लिए लक्ष्य निर्धारित किया जाता है, पर उस लक्ष्य की प्राप्ति संकल्प के बिना संभव नहीं है। संकल्प ही जीवन-ऊर्जा को निर्दिष्ट लक्ष्य तक पहुंचाता है, अन्यथा जीवन-ऊर्जा हाथ की मुट्ठी में बंद रेत के समान सरक जाती है। धार्मिक कृत्यों के पूर्व संकल्प का विधान होता है। संकल्प होता क्या है? किया क्यों जाता है? अनेक लोगों ने इसे महज एक खानापूर्ति का माध्यम बना लिया है, परंतु गहराई से विश्लेषण किया जाए, तो इसकी दार्शनिकता और वैज्ञानिकता बड़ी अनोखी है। किसी भी धार्मिक संकल्प के साथ कई तथ्य जुड़े होते हैं। चूंकि संकल्प से व्यष्टि को समष्टि से, लघु को विभु से, सीमित को विराट से जोड़ा जाता है।
 
         इसलिए इसका संबंध सृष्टि के आरंभ से वर्तमान तक और वर्तमान में व्यक्ति की अभीष्ट कामना में समाहित होता है। संकल्प एक गहन वैज्ञानिक प्रक्त्रिया है। संकल्प सहजता से स्फुरित होता है। इसमें ऊर्जा को दिशा देने की अनंत साम‌र्थ्य होती है। संकल्प का बीज जब मन में डाला जाता है, तब शरीर अनायास उस दिशा में चलने-बढ़ने लगता है। शरीर शिथिल हो जाए, तो भी मन में पड़ा संकल्प का बीज अंकुरित होने से रुकता नहीं है, किंतु अब ऐसी स्थिति भी दिखाई देती है कि संकल्प सदा विकल्प की तलाश में जुटा रहता है। संकल्प के सामने विकल्पों का सघन वातायन खुलने लगता है और सच तो यह है कि हम विकल्पों के साथ संकल्प की अवधारणा करते हैं। वस्तुत: संकल्प, विकल्पों के पार होता है। संकल्प का मतलब है-'यह' या 'कुछ नहीं।' यह भी और वह भी, विकल्प का संकेत है। साम‌र्थ्य के अनुरूप संकल्प हो और संकल्प छोटे से बड़े की ओर चले, तो संकल्प का निर्वाह किया जा सकता है। संकल्प, विकल्प की आंधियों में न समाए और अपने अभीष्ट को प्राप्त करे। छोटे-छोटे संकल्पों को पूरा करने का अभ्यास डाला जाए।
 
 
21--अध्यात्म एक वृहद विषय है
 
         अध्यात्म एक वृहद विषय है। यह भारतवर्ष की सदियों से चली आ रही अक्षुण्ण संपदा है। जो भी इसका अनुभव कर लेता है, उसे संसार की अन्य संपदाएं फीकी लगने लगती हैं। अलग-अलग ग्रंथों, अलग-अलग पंथों और अलग-अलग उपासना पद्धतियों के बावजूद इस देश का आध्यात्मिक वैभव सदैव समृद्ध रहा है।
 
         शायद इसकी परिकल्पना पश्चिमी देश आज भी नहीं कर सकते हैं। खुसरो और कबीर के इस देश में नानक और फरीद एक साथ बैठकर सत्संग करते थे। यह वही देश है, जिसने विचार भेद को स्वस्थ शास्त्रर्थ की बहस के रूप में परिवर्तित किया। जब दुनिया के अधिकतर देश सभ्यता का पाठ पढ़ रहे थे, तब हमारे देश की माताएं अपने बच्चों को धर्मवीर, कर्मवीर और शूरवीर बनाने के लिए लोरियां सुनाया करती थीं।
 
         आज ऐसी अनेक चर्चाएं सुनने को मिलती हैं, जिनमें लोग आध्यात्मिक संपदा को भौतिक संपदा के सामने तुच्छ साबित करने का प्रयास करते हैं, परंतु यह समझना आवश्यक है कि अध्यात्म विज्ञान की कसौटी पर भी उतना ही खरा है, जितना कि उसे होना चाहिए। बस आवश्यकता है, तो हर विषय पर गहन अध्ययन, चिंतन और मनन की। जो अनुसंधान आज विज्ञान कर रहा है, उनमें से कई शोधों से पता चलता है कि देश के ऋषि-मुनि उन पर अनेक शताब्दियों पहले ही शोध कार्य कर चुके थे।
 
         आचार्य पतंजलि ने योगसूत्र के रूप में और कणाद जैसे ऋषियों ने परमाणु दर्शन का सिद्धांत प्रस्तुत किया। आज हम आणविक युग में जी रहे हैं। हमारे वैदिक धर्मग्रंथों में अध्यात्म के माध्यम से जो संपदा हमें मिली है, यह अमूल्य है। आवश्यकता है, तो उसे सही तरीके से जानने और समझने की। विज्ञान भौतिक पदार्र्थो तक सीमित है, लेकिन अध्यात्म इससे काफी आगे का विषय है। मन, बुद्धि और विवेक इसके आयाम हैं। यदि हम अपने धर्मग्रंथों का गहन अध्ययन करें, तो स्वभावत: कई अनसुलडो प्रश्नों का सहज ही समाधान प्राप्त हो जाता है, परंतु अफसोस है कि आध्यात्मिक व नैतिक मूल्यों की कमी के कारण आज की युवा पीढ़ी दिग्भ्रमित है। वह एक ऐसे दोराहे पर खड़ी है, जहां से उसे दिशा का बोध नहीं होता। आज की शिक्षा संस्कार विहीन होती जा रही है। यदि हमें एक उन्नत राष्ट्र की परिकल्पना पुन: करनी है, तो अध्यात्म और विज्ञान का समन्वय स्थापित करना होगा।
 
 
22--हमारा जीवन परमात्मा का मंदिर है
 
         हमारा जीवन परमात्मा का मंदिर है। शास्त्रों में कहा गया है कि जो हमारे शरीर में है, वही ब्रह्मांड में है। मतलब यह है कि जब ब्रह्मांड परमात्मा की अभिव्यक्ति है, तो हमारा शरीर भी परमात्मा का अंश है। परमात्मा का अर्थ है-परम आत्मा, जो पूर्ण पवित्र हो और जिसमें कोई विकार न हो।
 
         ईश्वर का अंश होने के कारण प्रत्येक जीव पवित्र है, निर्विकार और स्वस्थ है। स्वस्थ्य का अर्थ है- जो स्वयं में स्थित हो, जो अपने स्वभाव में हो। हमारा स्वभाव है स्वस्थ रहना, बीमार और दुखी रहना हमारा स्वभाव नहीं है। मनुष्य जब स्वयं बुरी आदतों का शिकार बन जाता है, तो वह विकारग्रस्त हो जाता है। बचपन से किसी भी व्यक्ति को बुरी आदत नहीं होती, लेकिन बाद में वह संसार से बुराई को खरीदकर ले आता है और बुरा आदमी बन जाता है।
 
         जैसे बचपन से कोई नशा नहीं करता, लेकिन बड़ा होते ही वह बाजार से मादक पदार्थ खरीदकर लाता है और उस बुराई में फंसकर जीवन भर पछताने लगता है।
 
         वस्तुत: जो व्यक्ति अपने नाखूनों से अपने शरीर में स्वयं घाव लगा ले, तो उसके लिए जिम्मेवार वह स्वयं होता है। कोई भी बुराई स्वयं आपके पास नहीं आती, आप स्वयं दौड़ते हुए बुराई के पास जाते हैं। एक बार अगर बुराई की चपेट में आप आ गए, तो वह ऐसी जोंक है जो जीवन भर आपका रक्त चूसती रहती है। आज भी बहुत लोग कहते हैं कि मैं सिगरेट आदि अमुक लतों को छोड़ना चाहता हूं, लेकिन छूटती नहीं। सच बात यह है कि ऐसी आदतें बड़ी मुश्किल से छूटतीं हैं। आज तक लाखों लोग इन बुरी आदतों के जाल में फंसकर अपनी जवानी, धन, मान-मर्यादा और प्रतिष्ठा सब कुछ गंवा चुके हैं। विकार छह प्रकार के होते हैं- काम, क्रोध, लोभ, मद, मोह और ईष्र्या। इसी को षड्विकार कहते हैं। जो व्यक्ति इन बुराइयों के चंगुल में एक बार फंस जाता है, वह लाख कोशिश करके भी उसके लौहपाश से नहीं निकल पाता, लेकिन जो लोग विवेकशील होते हैं, वे इनके निकट नहीं जाते।
 
         सच पूछा जाए तो मूलरूप से हमारा शरीर बहुत ही पवित्र है, लेकिन जब हम स्वयं बुरी आदतों से शरीर की पवित्रता नष्ट कर देते हैं, तो शरीर गंदा हो जाता है।
 
 
23--साधना, संकल्प व प्रतिभा जरूर रंग लाती
 
         संघर्ष जीवन का अर्क है। संघर्षपूर्ण जीवन में केवल दो ही संभावनाएं रहती हैं। प्रथम संघर्षो से तिल-तिल टूटकर, छितराकर समाप्त हो जाना। दूसरी संभावना यह कि जितना कटु व प्रखर जीवन जीना पड़े, वह श्रेष्ठ बनने की दिशा में एक वरदान सिद्ध हो जाए।
 
         जीवन में कभी-कभी संघर्ष के क्षण, विपदा और विडंबनाओं के क्षण एक ऐसे बवंडर की तरह आते हैं कि आस्था और अस्तित्व के वट वृक्ष की जड़ें उखड़ने लगती हैं। अटूट आत्मबल और अडिग आस्था के अभाव में जीवन रूपी वट वृक्ष अंदर से खोखला हो जाता है। परिणामस्वरूप बवंडर उसे उखाड़ ले जाता है। अपनी आस्था और अपने अस्तित्व को सक्षम बनाने का संकल्प लेने के लिए इतना परिश्रम करना पड़ता है कि भीषण से भीषण बवंडर भी उसे उखाड़ नहीं पाते। यदि वह उखड़े भी तो ऐसे उखड़े कि बवंडर भी थरथरा जाए। किसी संकल्पजीवी और संघर्षजीवी से पाला पड़ने पर यही होता है। हमें एक दूसरे की आस्था को अपराजेय बनाने में योगदान करना चाहिए। महान बनने का संकल्प कठिन जीवन संघर्षो के कंकरीले-पथरीले दुर्गम मार्गो पर होते हुए आगे बढ़ने पर ही पूर्ण होता है, किसी की शरण में जाने पर नहीं। आत्मीयता और संकल्प जीवन को दिशादृष्टि देते हैं।
 
         साधना, संकल्प और प्रतिभा कभी न कभी रंग लाती है। संकट और परीक्षाएं यदि जीवन में बार-बार न आएं, तो इनकी पहचान और अस्तित्व ही न बचे। संघर्ष में तपकर महानता के तत्व मिलते हैं। प्रतिकूलताएं विष की तरह है। इन्हें अमृत बनाकर पान करने वाले महादेव बनते हैं। परिस्थितियों की प्रतिकूलताओं के बीच मनुष्य जब भी अंतिम रूप से निराश होता है, तो अपने आचरण विहीनता के कारण होता है। चुनौती से गुजरे बिना कोई अपने आंतरिक स्वरूप का साक्षात्कार नहीं कर पाता। मानवीय संवेदना  जितनी भीतर शेष रह जाए, वही वास्तविक पूंजी है। जिसे जितने अधिक कष्ट मिलते हैं, वह उतना ही बड़ा हो जाता है। जो सुंदर और मूल्यवान है, उसकी खोज रखने का प्रयत्न अद्भूत है। दुखों और कष्टों को धिक्कारने के बजाय इन्हें अमूल्यनिधि आत्मा की पूंजी मानकर अपने भीतर एकत्र करना पड़ता है। अस्तित्व को नकार देने वाली सारी स्थितियों का सामना करने वाले प्रतिदिन नहीं जन्म लेते। जीवन की कुरूपता में छिपे सुंदर कणों को सामने लाना अनूठा संघर्ष है।


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