Thursday, March 12, 2015

जीवन शक्ति का संचरण




1-हमारी वास्तविक शक्ति हमारे भीतर निहित इच्छा शक्ति है

     मनुष्य की वास्तविक शक्ति उसके भीतर निहित इच्छाशक्ति है यदि कोई मनुष्य किसी कार्य को संपन्न करने में असफल होता है, तो इसका कारण उसका दुर्भाग्य नहीं है बल्कि उसमें संकल्प की निर्बलता निहित है। दृढ़ संकल्प में एक ऐसी शक्ति छिपी रहती है, जो प्रतिकूल स्थितियों को अनुकूल बना लेती है। संकल्प शक्ति ही मन को एकाग्र कर विचारों को मस्तिष्क की ओर प्रेषित करती है। इसीलिए हमें जैसा बनना हो, वैसे ही विचार पूर्ण आत्मविश्वास के साथ अपने मन में उत्पन्न करने चाहिए। विचारों का असर शरीर के स्वास्थ्य पर भी पड़ता है।विचार ही भूख का अहसास कराते हैं और भोजन करने के बाद उसकी संतुष्टि का भी।

     इसलिए स्पष्ट है कि पूर्ण आत्मविश्वास व दृढ़ संकल्प शक्ति से ही व्यक्ति जीवन में सफल होता है और वही जीवन में चरमोत्कर्ष की प्राप्ति भी करता है। यदि जीवन में सफलता चाहिए, अपने लक्ष्य की प्राप्ति चाहिए तो संकल्पवान ही बनना होगा। स्वामी विवेकानंद कहा करते थे कि मनुष्य को रात्रि में सोने से पूर्व और प्रात:काल उठने के पश्चात चारों दिशाओं की ओर क्रमश: मुंह करके प्रबल संकल्प शक्ति के साथ संपूर्ण विश्व की भलाई और शांति की कामना करनी चाहिए। संकल्प शक्ति से संपन्न मनुष्य कभी भी विषम परिस्थितियों से घबराता नहीं है बल्कि वह कठिनाइयों को झेलते हुए निरंतर आगे बढ़ता रहता है। इससे प्रतिकूलताएं अनुकूल होती हैं। प्रगति संकल्पशक्ति के बल पर ही निर्भर करती है।

     यदि हम विचारों के महत्व को भलीभांति समझ लें और पूर्ण आत्मविश्वास और संकल्पशक्ति के साथ विचारों को कार्यरूप में तब्दील करना शुरू कर दें, तो हमारे जीवन विकास के मार्ग स्वमेव खुल जायेंगे और आनन्द की विचारधारा हमारे हृदय व परिवार में नवउत्साह का सृजन करने लगेगी। फिर कार्य में हमें प्रसन्नता की अनुभूति होगी।

     यह पूर्णतया सिद्ध और सत्य है कि कर्मो के सहयोग से ही जीवन में सफलता मिलती है। जीवन में जब भी हमारी विचारधारा दृढ़ होती है, तो हमारे मुख पर आनंद की ऐसी रेखाएं उभर आती हैं जो हमें दोगुने उत्साह के साथ कार्य में संलग्न कर देती है। विचारों की दृढ़ता आते ही परिस्थितियां भी अनुकूल हो जाती हैं और समस्त कार्य सधने लगते हैं। मनुष्य की वास्तविक शक्ति उसके भीतर निहित इच्छाशक्ति है, जो उसे कार्य करने की प्रेरणा देती है। जब तक मनुष्य के मन में इच्छाशक्ति का अभाव रहेगा, तब तक कोई भी कार्य संपन्न नहीं होता।


2-चिंतन करना विकसित मस्तिष्क की सहज प्रक्रिया है

     चिंतन विकसित मस्तिष्क की सहज प्रक्रिया है। जहां चिंतन है वहीं विचार है, वैचारिक दर्शन है। चिंतन एक प्रकार का मंथन है। यदि चिंतन शुभ और गहन है, तो मंथन अमृतदायी है और यदि सतही है, तो विष उत्पादक है। समुद्र मंथन से भी पहले प्राणाहार विष ही प्राप्त हुआ था, कारण वह सतही मंथन था। जब सुरों-असरों ने गंभीर होकर गहन मंथन किया, तो उन्हें अमरता प्रदान करने वाला अमृत लाभ हुआ। चिंतन वही शुभकारी होता है, जो अमृतदायी हो। अशुभ चिंतन का यहां विष तो बहुत है, पर विषपायी कोई नहीं है। हमें विषपान से बचने के लिए चिंतन को शुभ रखना ही होगा। उदाहरणार्थ सूर्य पूर्व में उगता है, प्रकाश फैलाता है और सायं अस्त हो जाता है और हमें अंधकार के महाकूप में डुबो जाता है। यह बात सच नहींहै बल्कि हमारा दृष्टिभ्रम है। सूर्य न तो उगता है और न अस्त होता है। पृथ्वी ही उसकी परिक्रमा करती है।

     पृथ्वी की यह परिक्रमा और परिभ्रमण ही हमें भ्रमित करता है और यही भ्रम हमारे चिंतन को दूषित भी। यह दूषित चिंतन डूबते सूर्य के सदृश हमें भी अवसादों के अंधकार में डुबोता रहता है। सूर्य और आत्मा, दोनों ही शाश्वत हैं। पृथ्वी और तन दोनों ही क्षरणशील, नश्वर और मायाग्रस्त हैं, लेकिन हमारा गलत या असंतुलित चिंतन इसके उलट सूर्य को गतिशील और पृथ्वी को स्थिर मानता है। तभी तो वह सूर्योदय और सूर्यास्त जैसे भ्रामक शब्द गढ़ता और उन्हें दूसरों को भी स्वीकार कराने का यत्‍‌न करता है। 1सूर्य का उदाहरण सामने रख आत्मा की अक्षरता, अजरता और अमरता का हम निरंतर शुभ चिंतन करें, पृथ्वी की तरह शरीर को स्थिर मानकर स्वयं को भ्रमित न करें। दूसरों को भुलावे में रखकर हम भले ही किसी तथाकल्पित लाभ की बगिया मन में उगा लें, किंतु स्वयं को भुलावे में रखना सजी संवरी बगिया को उजाड़ना ही है। पात्र को आधा रिक्त समझने वाला चिंतन कभी शुभ नहीं होता है। वह तनाव, अवसाद और निराशाओं का जनक होता है। फूलों का मुरझाना, पत्तियों का झड़ना, सूरज का डूबना, खालीपन को महसूस करना आदि अशुभ चिंतन को त्यागकर हमें फूलों का खिलना, पत्तियों का पल्लवित होना, सूरज का निकलना, पूर्णता का आनंद लेना आदि के बारे में शुभ चिंतन करना चाहिए। यह शुभ चिंतन ही श्रेष्ठ और शुभ्र होता है।


3--परमार्थ व्यक्ति का सबसे बड़ा दायित्व है

     मनुष्य और समाज, शरीर और उसके अंगों के सदृश हैं। दोनों परस्पर पूरक हैं। एक के बिना दूसरे का स्थायित्व संभव ही नहीं है। दोनों में आपसी सहयोग परमावश्यक है। मनुष्य की समाज के प्रति एक नैतिक जिम्मेदारी होती है, जिसके बिना समाज सुव्यवस्थित नहीं रह सकता। इसे हम मानव शरीर के उदाहरण द्वारा उचित तरीके से समझ सकते हैं।

     शरीर के विभिन्न अंग यदि अपना काम करना छोड़ दें तो वह शिथिल और जर्जर हो जाएगा। शरीर को स्वस्थ व सुदृढ़ बनाने के लिए प्रत्येक अंग का कार्यरत और क्रियाशील होना जरूरी है। ठीक यही स्थिति समाज के लिए आवश्यक है। समाज को समुचित स्थिति में रखने के लिए प्रत्येक मनुष्य में अपने उत्तरदायित्व को निभाने के लिए क्रियाशीलता अपेक्षित होती है। विभिन्न अंगों के पृथक ढंग से कार्य करने पर असहयोग की स्थिति उत्पन्न होगी। उस समय शरीर की दशा अत्यंत शोचनीय हो जाएगी। शरीर एक मशीन की भांति है, एक भी पुर्जा गड़बड़ हुआ तो सारी मशीन बिगड़ जाती है। व्यक्ति का स्वार्थमय जीवन भी समाज के लिए अत्यंत दुखदायी है। इस स्थिति में समाज का सदस्य सुखी नहीं रह सकता।

     समाज में शक्ति संपन्नता और उसका विकास पूर्णतया असंभव है। यदि किसी मनुष्य ने अपनी उन्नति या विकास कर लिया, किंतु उससे समाज को कोई लाभ न मिला तो उसकी समस्त उपलब्धियां व्यर्थ हैं। स्वार्थी और संकुचित व्यक्ति समाज का शोषण और अहित करते हैं। इस तरह के व्यक्ति समाज के शत्रु होते हैं, जो निरंतर असहयोग की दुर्भावना फैलाते रहते हैं और समस्याएं खड़ी करते हैं। ऐसे व्यक्ति समाज को पतन के गर्त में ले जाते हैं। ऐसे लोग अविश्वसनीय, संदेहास्पद, झगड़ालू प्रवृत्ति के होते हैं।

     सुखी-संपन्न समाज तभी निर्मित हो सकता है जब मनुष्य व्यक्तिवादी विचारधारा को छोड़कर समष्टिवादी बने। इसी में समाज का कल्याण और मानव का हित है। व्यक्तिवादी विचारधारा को छोड़कर समष्टिवादी बनें। इसी में समाज का कल्याण और मानव का हित है। समाज में पारस्परिक सहानुभूति प्रेमभावना, उदारता सेवा और संगठन की भावनाएं अत्यंत आवश्यक हैं। इन्हीं से समाज का विकास और समृद्धि संभव है। समाज में व्यक्ति का सबसे बड़ा दायित्व है 'परमार्थ'। समाज के जरूरतमन्द और निराश्रित व्यक्तियों की सेवा-सुश्रषा करना एक महान कर्तव्य और दायित्व होना चाहिए।


4-ब्रह्मचर्य में त्याग का गृहस्थ में अनुराग व संन्यास वैराग्य का प्रतीक है

     ब्रह्मचर्य त्याग का गृहस्थ अनुराग का व संन्यास वैराग्य का प्रतीक है इस रागमय संसार में अनुरागमय जीवन जी लेना एक गृहस्थ की विशिष्टता है। गृहस्थ आश्रम सभी आश्रमों से श्रेष्ठ माना गया है। इस आश्रम में ब्रह्मचर्य पालन का लाभ मिलता है और वानप्रस्थ और संन्यास का सुफल भी प्राप्त होता है।

     जैसे भरे घट को ही रिक्तता की अनुभूति होती है। बूंद-बूंद कर भरने से पूर्व की रिक्तता और बूंद-बूंद कर पुन: रिक्त होने की स्थिति की भिन्नता का आस्वाद एक भरा हुआ घट ही बता सकता है, न कि सर्वदा रिक्त रहने वाला या सर्वदा भरा रहने वाला घट। गृहस्थ आश्रम ही वह भरा घट है जिसके सापेक्ष रिक्तता का दर्शन विस्तार पाता है।

     गृहस्थ आश्रम ही वानप्रस्थ की भूमिका लिखता है और संन्यास का पथ निर्मित करता है। ब्रह्मचर्य त्याग का प्रतीक है तो गृहस्थ अनुराग का और संन्यास वैराग्य का। त्याग और वैराग्य में ही यह सूक्ष्म भेद है। त्याग इच्छाओं का दमन है, वैराग्य इंद्रियों का संयम है। त्याग में मोहासक्त होने की संभावना बनी रहती है, किंतु वैराग्य में मोहमुक्त होने की भावना प्रबल होती है। मोह से मुक्ति ही वैराग्य का आंतरिक सौंदर्य है। जहां मोह है, वहां वैराग्य नहीं और जहां वैराग्य है वहां मोह नहीं। वस्तुत: निर्मोही व्यक्ति ही वैरागी हो सकता है, विमोही कदापि नहीं। मोह ही वैराग्य की सबसे बड़ी बाधा होती है। इस बाधा को पार करके ही कोई पथिक वैरागी बन सकता है। वैरागी बनने की यह क्रिया कठोरतम साधनाओं में से एक है।

     वैराग्य वह आचरण है, जो सदेह को विदेह बनाकर अनुकरणीय बनाता है। वैराग्य की भाषा सरल है, पर समझना कठिन, व्यवहार में लाना कठिनतर और तद्नुसार ढल जाना कठिनतम है। मोहमुक्त होना ही केवल वैराग्य नहीं है। परमार्थ युक्त चिंतन के बगैर वैराग्य अधूरा है। परमार्थ चिंतन ही वैराग्य का कांतिमय आभूषण है। वैरागी को निष्कामी तो होना चाहिए, निष्कर्मी नहीं। परहित चिंतन, पर-दुख निवारण और पर-उपकार ही उसका गुण होता है।

     वैरागी को सरोवर के कीचड़ से दूर रहकर कमल की भांति करुणा, दया, क्षमा और सेवा आदि की सुगंध से संसार को महकाते रहने का सदैव उपक्त्रम करते रहना चाहिए। परमार्थ के साथ-साथ वैरागी को परमात्म चिंतन भी करते रहना चाहिए। परमात्म चिंतन ही परमात्म दर्शन का मार्ग प्रशस्त करता है। परमात्म दर्शन ही वैराग्य का अभीष्ट होता है। याद रखें, सांसारिकता का त्याग ही वैराग्य नहीं है, केवल प्रभु के प्रति अनुराग ही सच्चा वैराग्य है।


5-पहले जीवन में उद्देश्य को तय कर फिर प्रयास प्रारंभ करें

     जीवन में यशस्वी वही बनता है जो किसी क्षेत्र में कीर्तिमान स्थापित करता है। सामान्य लोगों को कोई नहीं जानता। जीवन का उद्देश्य ही यही है कि परमात्मा पर पूर्ण आस्था रखते हुए उनके आशीर्वाद से इस संसार में नैतिक जीवन जिएं और अपने कर्मो की सुगंध से समाज को सुगंधित करते रहें। जो व्यक्ति जीवन के इस रहस्य को जान लेता है उसका जीवन रागमय, प्रेममय, करुणामय बन जाता है और वह समाज में यश प्राप्त करता है। विशेषकर बच्चों के जीवन का निर्माण करना महत्वपूर्ण होता है।

     विदेशों में ऐसा चलन है कि बच्चों की जांच प्राइमरी क्लास से ही होती रहती है और उसी के आधार पर देखा जाता है कि बच्चों का रुझान विज्ञान, साहित्य, संगीत या खेल की ओर है या किसी और नई दिशा की खोज में बच्चा निकलना चाहता है। ऐसा इसलिए, क्योंकि संसार में जीवन का कोई ऐसा मार्ग नहीं है, जो सफलता के शिखर तक नहीं जाता हो। सिर्फ पढ़ाई ही जीवन में सफलता पाने का पैमाना नहीं है। खेल, संगीत, चित्रकारी, मूर्तिकारी में भी अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त की जा सकती है। केवल उस क्षेत्र में विशिष्ट बनने की आवश्यकता है।
 
     अगर हम अपने संकल्प के प्रति पूर्ण आश्वस्त हैं तो सफलता निश्चय ही मिलती है। फुटबॉल के मैदान में कोई दौड़ता रहे तो वह गोल नहीं कर पाता, उसे गोल की ओर दौड़ना पड़ता है। इसलिए हमारे जीवन में केवल पढ़ना ही महत्वपूर्ण नहीं है, क्या और किस दिशा में, किस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए पढ़ाई हो रही है, यह महत्वपूर्ण है। इसलिए पहले जीवन के उद्देश्य को तय करें और फिर प्रयास प्रारंभ करें। अपने उद्देश्य को बार-बार बदलने वाले मंजिल प्राप्त नहीं कर पाते। पुरानी कहावत है कि शिष्य और पुत्र से क्रमश: गुरु और पिता जब हारते हैं तब खुशी होती है।

     मनुष्य किसी से हारे तो वह दुखी हो जाता है लेकिन पिता अगर पुत्र से हारता है, गुरु अगर शिष्य से हारता है तो उसे हर्ष होता है। भारत का एक सपूत इंग्लैड पढ़ने गया। वहां पर वह एक विश्वविद्यालय में शैक्षिक क्षेत्र में विश्वरिकार्ड कायम कर भारत लौट आया और दिल्ली में ऊंचे ओहदे पर पदस्थापित हुआ। एक अर्से बाद उनका बेटा भी वहीं पढ़ने गया। उसने अपने पिता के रिकार्ड को तोड़ दिया। यह सूचना दिल्ली में उन्हें दी गई। उन्होंने सगर्व उत्तर दिया कि कोई बात नहीं, वह मेरा पुत्र है। पुत्र से हारने पर पिता को दुख नहीं होता, खुशी होती है।


6-जन्म पा लेना ही काफी नहीं बल्कि जीवन को जीना भी आना चाहिए

     माया-मोह जनित अज्ञानता की पट्टी आंखों पर बांधे हुए मनुष्य का लक्ष्य से विमुख होना कोई आश्चर्य की बात नहीं। आज मनुष्य की जिंदगी एक अंधी दौड़ बनकर रह गई है। जीवन के पथ पर वह इधर-उधर भटक रहा है। इस लक्ष्यहीन भटकाव से जूझते मानव का जीवन एक ऐसी रिक्ति, एक ऐसा खालीपन का ढेर बन गया है, जहां घोर पछतावा,आत्मग्लानि और उत्पीड़न का अंतहीन सिलसिला जारी रहता है। फलस्वरूप उसका जीवन घड़ी के पेंडुलम की तरह कभी यहां तो कभी वहां डोलता रहता है।

     उसके जीवन में कभी दुख के दायरे से बाहर निकलकर चैन की सांस लेने की नौबत नहीं आती। क्या आप जानते हैं कि यह सब क्यों होता है? शायद नहीं। ज्यादातर लोगों के साथ यह सब इसलिए होता है क्योंकि वे धर्म मार्ग पर नहीं चलते। धर्म नीति के अनुरूप चलने वाले किसी भी व्यक्ति को इस प्रकार का कष्ट नहीं भोगना पड़ता। लेकिन अफसोस कि ज्यादातर लोग ऐसा नहीं करते। हर कोई यह चाहता है कि किसी प्रकार मैं दुख के दायरे से बाहर निकलकर स्वाभाविक रूप से जीवन का आनंद ग्रहण करूं, किंतु अज्ञानतावश वह सही दिशा में नहीं बढ़ पाता और जहां शांति न हो, वहां पर आनंद नहीं प्राप्त हो सकता। इस प्रकार वह दुख के दलदल से बाहर नहीं निकल पाता। उसका जीवन दुख-दर्द की एक लंबी दास्तान बनकर रह जाता है। इस दुनिया में जन्म लेना एक बात है और इस जीवन को सही तरीके से जीना दूसरी बात। संसार में बहुत से लोग जन्म लेते हैं और बिना सही तरीके से जिए ही मर जाते हैं। जन्म पा लेना ही काफी नहीं, जीवन को जीना भी आना चाहिए।

     आज हर प्राणी सुख की खोज कर रहा है। इसके लिए वह भौतिक सुखों की ओर भागता है, लेकिन असली सुख उधर नहीं, इधर है। आप यह जानने की कोशिश करें कि आपका हृदय क्या चाहता है? आपका अंतर्मन क्या खोज रहा है? आपकी तलाश क्या है? सच्चई यह है कि आप सब आनंद की खोज कर रहे हैं। यदि ऐसा है, तो आप इस बात पर गौर कीजिए कि आपको धर्म नीति पर चलना होगा। यहां धर्म का अर्थ किसी धर्म या पंथ विशेष के कहे अनुसार नहीं, बल्कि शाश्वत आनंद की खोज के पथ पर चलने से है। 1 3अशोक भाईजी


7-मत भेद और मन भेद की गुत्थी

     मतभेद बुरा नहीं है, मनभेद गलत है। मनभेद की कोख से धर्माधता जन्म लेती है, जो सारे अनर्थो की जड़ है। परस्पर संवाद से सत्य का बोध होता है। जैसे विभिन्न नदियां विविध स्त्रोतों से निकलकर अंतत: समुद्र में समा जाती हैं, वैसे ही भिन्न-भिन्न रुचि वाले मतावलंबी अंत में शिव या परम सत्ता में मिल जाते हैं।

     रुचिभेद के कारण एक ही सत्य तक पहुंचाने के लिए विभिन्न धार्मिक मार्गो का होना लाजमी है। जरूरत है इष्ट निष्ठा की। स्वामी विवेकानंद का विचार है कि संसार के लिए वह दिन बुरा होगा, जब सभी मनुष्यों का धार्मिक मत एक हो जाएगा। तब उस स्थिति में मनुष्य की चिंतन धारा ठहर जाएगी और ज्ञान का संवर्धन रुक जाएगा। जो अनुष्ठान तुम्हें ईश्वर की ओर ले जा रहा है, उसे बेहिचक ग्रहण करो। चाहे राम कहो या रहीम कहो, मतलब तो खुदा की चाह से है। जैसे लिफाफा चिट्ठी नहीं है, वैसे ही मंदिर या मस्जिद परमात्मा नहीं है, बल्कि चित्त शुद्धि के साधन हैं। सत्य एक है, लेकिन विविध पंथ उसके रंग-बिरंगे फूल हैं। दुनिया का कोई भी धर्म छोटा या बड़ा नहीं होता।

    सभी धर्मो में नैतिकता की शिक्षा दी गई है और मानव कल्याण को सर्वोपरि मूल्य बताया गया है। इसलिए देवालयों के विवाद में उलझना न तो तार्किक है और न ही मानव कल्याण के हित में। हमारे शास्त्रों में कहा गया है कि सांप्रदायिकता से घृणा करो, संप्रदायों से नहीं। संप्रदायों को बने रहना चाहिए इसमें कोई बुराई नहीं। ऐसा इसलिए, क्योंकि इनसे चिंतन की कई धाराएं बह निकली हैं। जो सबको अपने आप में देखता है, वही धर्म के वास्तविक मर्म को जानता है और ईश्वर के उद्देश्यों को पूरा करता है।

    जैसे बादल बिना भेदभाव के सभी खेतों में बरसता है, वैसे ही प्रभु की कृपा सब पर समान रूप से होती है। जागरूक कृषक की तरह सभी धर्मनिष्ठ जीवन में उसका लाभ उठाते हैं। ईश्वर को जानना नहीं है, बल्कि जीवन में इसे जीना है। तोते की तरह राम का नाम जपने से काम नहीं चलेगा। राम को भीतर से जीना होगा। धर्म की पहचान निश्छल प्रेम में होती है, बाहरी कर्मकांड में नहीं। अशुद्ध मन से मंदिर जाना पाप है। जहां संत बसते हैं, वहीं तीर्थ बन जाता है। केवल शिवलिंग में ही शिव को नहीं देखना है, अपितु सर्वत्र शिव का दीदार करना है। कोरा ज्ञान पांडित्य प्रदर्शन है। यदि खबरों का संग्रह विद्वता का प्रमाण है, तो पुस्तकालय श्रेष्ठ मुनि है।


8--सत्य और असत्य परख

    जैसे ज्ञान है वैसे ही अज्ञान है। ज्ञान दृष्टि से मनुष्य ज्ञान जगत अथवा दृश्य जगत से संबंधित बातों को जान सकता है। इसी तरह मनुष्य अज्ञान दृष्टि से अज्ञान के विविध पहलुओं को जान सकता है।

जिन दो आंखों से हम परिचित हैं, जिन दो आंखों से हम देखते हैं, जिन दो चक्षुओं को हम जानते हैं, वह अज्ञानता के चक्षु हैं। अज्ञान की स्थिति में ये दो आंखें काम करती हैं और ज्ञान की दृष्टि बंद रहती है और यह भी सत्य है कि जब ज्ञान दृष्टि खुल जाती है तब अज्ञान दृष्टि बंद हो जाती है। जिस तरह अज्ञान दृष्टि बाहर की ओर काम करती है, उसी प्रकार ज्ञान दृष्टि भीतर की ओर काम करती है। दोनों में क्रिया एक ही तरह है। दोनों में अंतर यह है कि एक जहां हमें वाह्य जगत का बोध कराती है और तमाम तरह के भौतिक अथवा सांसारिक अनुभव देती है वही दूसरी दृष्टि या कहें ज्ञान की दृष्टि हमें आंतरिक अथवा पारलौकिक जगत का बोध कराती है।

    हमारा जीवन इन दोनों का ही मिलन बिंदु है। इसलिए जरूरी है कि हम अपने दोनों ही ज्ञान चक्षुओं से अपने वास्तविक जीवन का अहसास करें और जीवन की पूर्णता हासिल करें। यह सच है कि ज्ञान और विज्ञान के बारे में आंखों से हम सीमित जानकारी हासिल कर सकते हैं, लेकिन इन आंखों से परे एक अदृश्य आंख भी है।

    इस आंख को तीसरी आंख या त्रिनेत्र कहते हैं जिसे ज्ञानमय दृष्टि कहा जाता है। अज्ञानमय दृष्टि की तरह तीसरी आंख भी मनुष्य में विद्यमान है। यह तीसरी आंख दृश्य जगत का अदृश्य जगत के साथ संबंध स्थापित करती है। तीसरा नेत्र भौतिक-अज्ञानमय जगत के तत्वों से अलग हटकर सूक्ष्म जगत की सूक्ष्म गतिविधियों का अनुभव कराता है। यही आंख दिव्य भाव में आत्मलीन कर परम सत्ता का साक्षात्कार कराती है। तीसरी आंख के खुलने के बाद ज्ञान शक्ति और अज्ञान शक्ति दोनों ही उस मनुष्य के अधिकार में होती है। इस स्थिति को प्राप्त करने के बाद व्यक्ति संसार की वास्तविकताओं को जान लेता है, समझ लेता है।

    सत्य और असत्य क्या है, इन सबके बारे में वह सब कुछ जान लेता है। त्रिनेत्र को जाग्रत करने वाला व्यक्ति जो भी कार्य-व्यवहार करता है, वह नैतिक व आध्यात्मिक मूल्यों की कसौटी के पूर्णत: अनुकूल होता है।


6-ज्ञान का संबंध आंतरिक परिवर्तन से है

     यह दुर्भाग्य की बात है कि आजकल अक्षरज्ञान और भाषाज्ञान को ही लोग सच्चा ज्ञान मानने लगे हैं, जबकि इस प्रकार का ज्ञान मनुष्य का बाहरी आवरण है। सच्चा ज्ञान हमारे आंतरिक गुणों, प्रेम, करुणा और दया की भांति मौलिकता से पूर्ण है, न कि रंग-बिरंगे परिधानों की भांति, जो केवल बाहरी आडंबर को बढ़ाने में सहायक हैं। किसी व्यक्ति के अंदर जब इन सभी मौलिक गुणों का विकास होने लगे, तब हमें मान लेना चाहिए कि उसे सच्चा ज्ञान मिल गया। इस संदर्भ में ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि सच्चे ज्ञान के माध्यम से हममें आचार-विचार, लोक-मर्यादा और सकारात्मक चिंतन पद्धति का विकास होता है।

    यह व्यवहार में दिखाई पड़े कि अमुक व्यक्ति बड़ों का आदर-सम्मान करता है। पारिवारिक मर्यादाओं को समझता है। समाज या राष्ट्र के प्रति अपने उत्तरदायित्वों और कर्तव्य का ध्यान रखता है, तो समझना चाहिए कि वह व्यक्ति शिक्षित हो गया। उस व्यक्ति को सच्चे ज्ञान की प्राप्ति हो गई।

    स्पष्ट है ज्ञान का सीधा संबंध आंतरिक परिवर्तन से है। सच्चा ज्ञान वह है जो काबिलियत पैदा कर सके, जीव को प्रकृति के समीप ला सके और इसे रागात्मक बना सके। हमें ऐसे ज्ञान की आवश्यकता है, जो ठूंठ वृक्ष की तरह रसहीन और सौंदर्यविहीन न हो, बल्कि फलदार और सघन हो। जो प्रेम, दया, करुणा और आकर्षण पैदा कर सके। हमें उस ज्ञान की प्राप्ति करनी चाहिए जो हमारे मौलिक गुणों में परिवर्तन लाए। उन्हें संस्कारित करे। यह तभी संभव है, जब आपकी शिक्षा को मात्र पुस्तकीय ज्ञान से नहीं, बल्कि जीवन से भी जोड़ा जाए। ज्ञान का अर्थ केवल अक्षर ज्ञान प्राप्त कर लेना ही न हो। इसके बजाय हमारे भीतर के अविवेक, अज्ञानता और मूढ़ता या जड़ता को समूल मिटा देने का प्रयास किया जाना चाहिए।

    इसके लिए हमारे शिक्षाविदों, धर्मगुरुओं, संत-महात्माओं को आगे आना चाहिए। वे लोगों को कुछ ऐसा मार्ग बताएं जिसके सहारे आम व खास लोग अपने आप में सुधार ला सकें। उनके जीवन से अंधकार मिटे। यहां अंधकार का तात्पर्य उस अंधकार से है जो हमारे अंतर्मन में फैला है।

    हमारे अंदर जो रूढि़यां, वासनाएं, विकार हैं, वे ही हमारे भीतर के अंधकार हैं। हमारे अंतर्मन में जो शक्तियां हैं, हम उन्हें कैसे जाग्रत करें, कैसे प्रस्फुटित करें और कैसे आगे बढ़ाएं, सच्चे ज्ञान का मूल उद्देश्य यही होना चाहिए।


9-बुद्ध को बैसाखी के दिन मिला था ज्ञान

    अप्रैल, 1875 में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को स्वामी दयानंद सरस्वती ने आर्य समाज की स्थापना की और मूर्ति पूजा के बजाय वेदों को अपना मार्गदर्शक माना। संयोगवश तब यह दिन बैसाखी के शुभ अवसर पर ही था।

    बौद्ध धर्म के कुछ अनुयायी मानते हैं कि महात्मा बुद्ध को इसी दिन दिव्य ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। अत: यह दिन उनके लिए भी विशेष महत्व रखता है।
कृषि से जुड़े इस पर्व को असम में 'बिहू', केरल में 'विशु' तथा तमिलनाडु में 'पुथांदू' कहा जाता है।

    जहां लोग इस पर्व को पारंपरिक श्रद्धा एवं हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं, वहीं वे जलियांवाला बाग कांड में शहीद हुए लोगों के प्रति श्रद्धा व्यक्त करना भी नहीं भूलते। बैसाखी के दिन 13 अप्रैल, 1919 को अमृतसर में स्वर्ण मंदिर के समीप हजारों लोग जलियांवाला बाग में अंग्रेजी शासन के रोलेट एक्ट के विरोध में एकत्र हुए थे। यहां जनरल डायर ने निहत्थी भीड़ पर गोलियां चलवाईं, जिसमें करीब 1000 लोग मारे गए और 2000 से अधिक घायल हुए थे।

    फसलों के जरिये खुशहाली और समृद्धि लाने वाले पर्व बैसाखी के ही दिन खालसा पंथ की भी स्थापना हुई थी। बैसाखी पर्व पर विशेष..घर में खुशहाली और समृद्धि आए, तो किसका मन नाचने-गाने को, उत्सव मनाने को नहीं करेगा। बैसाखी ऐसा ही पर्व है। यह फसल के तैयार होने की प्रसन्नता और उल्लास में मनाया जाता है। गेहूं, दलहन, तिलहन और गन्ने की रबी फसल किसानों को प्राप्त होती है। फसल ही किसानों के जीवन में समृद्धि लाती है, इसलिए किसान अपनी उमंग और उत्साह को रोक नहीं पाते और नाचने-गाने और उत्सव मनाने लगते हैं।

    बैसाखी समृद्धि का उत्सव है। इस दिन किसान पकी हुई फसल को अग्नि को अर्पित करने के बाद इसका कुछ भाग प्रसाद के रूप में लोगों में बांट देते हैं। पंजाब में कृषि प्रमुखता से होती है इसलिए बैसाखी पर्व पंजाब के लिए बड़ा ही महत्वपूर्ण त्योहार है। इस अवसर पर पंजाब के लोग लोकसंगीत, लोकगीत, लोकनाट्य प्रस्तुत कर इसे और मोहक बना देते हैं।

    खालसा का स्थापना पर्व : 13 अप्रैल, 1699 को सिखों के दसवें गुरु गोविंद राय जी ने आनंदपुर साहिब के श्रीकेसगढ़ साहिब में खालसा पंथ की स्थापना की थी। 'खालसा' का अर्थ है 'खालिस' (शुद्ध) और इस पंथ के माध्यम से गुरु जी ने जात-पात से ऊपर उठ कर समानता, एकता, राष्ट्रीयता, बलिदान एवं त्याग का उपदेश दिया। श्रीआनंदपुर साहिब में बैसाखी के दिन गुरबाणी का पाठ हो रहा था। तभी गुरु गोविंद राय ने उठकर सिखों से धर्म और मानवता की रक्षा के लिए पांच शीश मांगे -'कौन मुझे अपना सिर भेंट करने के लिए तैयार है?' कुछ लोग वहां से खिसकने का मौका तलाशने लगे, लेकिन उनमें से दया राम, धरम दास, मोहकम चंद, हिम्मत राय और साहिब चंद सिर देने को प्रस्तुत हो गए।

    गुरु जी ने पांचों को सुंदर पोशाकें व कृपाण धारण करवा कर उन्हें 'पंज प्यारे' नाम दे दिया। तब गुरु जी ने 'पंच ककार' (केस, कंघा, कड़ा, कच्छ एवं कृपाण) धारण करने का विधान बनाया। पंज प्यारों को 'सिंह' उपनाम दिया गया। दसवें गुरु इसके बाद गोविंद राय से गोविंद सिंह बन गए। इतिहासकारों के अनुसार, उस दिन हजारों लोग ऊंच-नीच, जाति-पाति व भेदभाव त्यागकर 'खालसा' अर्थात शुद्ध बन गए। गुरु गोविंद सिंह जी ने दबे-कुचले लोगों को एकत्र कर 'खालसा' का सृजन कर ऐसी शक्तिशाली सेना तैयार की, जिसने अपने समय की सबसे बड़ी सैन्य शक्तियों को परास्त किया।

    नव सौर वर्ष भी है बैसाखी : बैसाखी के दिन मेष संक्रांति के कारण स्नान-दान का तो विशेष महत्व रहता ही है, साथ ही इस दिन सूर्य के मेष राशि में प्रवेश करने के कारण इसे नए सौर वर्ष की शुरुआत भी माना जाता है।


10--स्वयं की खोज से अपनी अंतरात्मा को प्रकाशित करें

    स्वयं को जानकर व समझकर ही मनुष्य सफलता की तरफ अग्रसर हो सकता है। ऐसा इसलिए,क्योंकि हम सभी मनुष्य उस एक परमपिता परमेश्वर की संतान हैं, उसके अंश हैं। आज हर व्यक्ति भाग रहा है, एक जगह से दूसरे जगह की ओर, एक तत्व से दूसरे तत्व की ओर। व्यक्ति शायद स्वयं को खोज रहा है, क्योंकि उसने स्वयं को खो दिया है।

    स्वयं के साथ संबंधों को तोड़ लिया है और अब उसे ही खोज रहा है। यदि आप अपने आसपास के हर व्यक्ति की तरफ ध्यान देंगे, तो तकरीबन सबमें यही बात नजर आएगी। हर एक व्यक्ति स्वयं को भूलकर एक व्यर्थ की दौड़ में भागता चला जा रहा है। वह स्वयं को भूल गया है कि आखिर वह है कौन? क्या खोज रहा है, कहां खोज रहा है? उसे स्वयं पता नहीं, परंतु फिर भी हरेक से पूछ रहा है, हरेक के बारे में पूछ रहा है।

    आज आवश्यकता है, इस झंझावात से निकलने की, स्वयं के अस्तित्व को समझने की। परिवर्तन की इस सतत प्रक्रिया में स्थिर होने की। यात्रा हो परंतु शून्य से महाशून्य की, परिधि से केंद्र की, अज्ञान से ज्ञान की, अंधकार से प्रकाश की, असत्य से सत्य की। स्वयं के अस्तित्व को तलाश कर ही हम जीवन के सही मूल्यों को समझ सकेंगे।

    हम प्राय: अपना जीवन कंकड़-पत्थर बटोरने में व्यर्थ गंवा देते हैं। सत्ता, संपत्ति, सत्कार और बहुत कुछ पाकर भी अंतत: शून्य ही हाथ लगता है। तो हम क्यों न आज ही जग जाएं। स्वयं की खोज करके अपनी अंतरात्मा को प्रकाशित करें। हमारा ध्यान दुनिया में है, परंतु स्वयं के अंदर छिपी विराटता में नहीं। स्वयं को समझकर ही हम उस एक परमात्म तत्व में विलीन हो सकते हैं। अपने परमेश्वर के प्रति हम कृतज्ञता तक ज्ञापित नहीं करते, जिसने अपनी परम कृपा से हमें अपना अंश बनाकर इस धरा पर मनुष्य रूप में भेजा है। यदि हम स्वयं के प्रति सचेत हो जाएं, तो बात बनते देर नहीं लगेगी। तमाम ऐसे लोग जिन्होंने जीवन में कुछ गौरवशाली कार्य किया, वे सभी स्वयं के अंदर छिपे अथाह सागर को समझने की बात करते हैं। जो कृत्रिमता से कोसों दूर हो, जहां हो एक गहन शांति। शांति मिलती है, कामनाओं को शांत करने से। कामनाएं भी उसी की शांत होती हैं, जो जीवन का सही मूल्य समझ सके। जीवन मात्र चलते रहने का नाम नहीं है, बल्कि जीवन में रहते हुए कुछ अच्छा कर गुजरने का नाम है। इसे जानकर व समझकर ही आगे बढ़ना सही अथरें में जीवन की सार्थकता है।


11--जीवन के क्षेत्र में अनुशासन की आवश्यकता

    देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने कहा था, 'अनुशासन राष्ट्र का जीवन-रक्त है।' सच पूछा जाए तो अनुशासन ही मानव सभ्यता के विकास की पहली सीढ़ी है, जिसके सहारे हमारा क्रमिक विकास संभव हुआ है। प्रकृति के समस्त कार्य-व्यापार किसी न किसी नियम से बंधे होते हैं।

    पृथ्वी नित्य नियम से अपनी धुरी पर घूमती है, जाड़ा, गरमी और बरसात सदैव समय पर आया करते हैं। अनुशासन दो शब्दों से मिलकर बना है- अनु और शासन। अनु उपसर्ग है जो शासन से जुड़ा है और जिससे अनुशासन शब्द निर्मित हुआ है। जिसका अर्थ है- किसी नियम के अधीन रहना या नियमों के शासन में रहना।

    जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अनुशासन आवश्यक है। पारिवारिक और सामाजिक जीवन में तो कहीं ज्यादा अनुशासन की आवश्यकता होती है। यदि अनुशासन का पालन नहीं किया जाए, तो जीवन उच्छृंखल बन जाएगा। हम इतिहास व पुराण उठाकर देखें, तो हमें इसके अनेक उदाहरण मिल जाएंगे, जहां अनुशासन से महत्वपूर्ण सफलताएं और उपलब्धियां हासिल हुई हैं। ये उपलब्धियां हमारे लिए प्रेरणा का प्रबल स्तंभ बनीं। आज जीवन की आपाधापी बढ़ गई है, लोग कम समय में अधिक से अधिक सफलताएं प्राप्त कर लेना चाहते हैं। वह येन-केन-प्रकारेण ढंग से लक्ष्य प्राप्ति के लिए दौड़ते रहते हैं। वे अनुशासन का पालन करना जरूरी नहीं समझते, लेकिन इसके विपरीत सच्चाई यह है कि जहां जितना अच्छा अनुशासन है, वहां उतनी ही शांति व सुख है। यह एक कटु सच्चाई है कि अनुशासन के बिना सफलता नहीं हासिल की जा सकती। जिस देश के लोग अनुशासित हैं, जहां की सेना अनुशासित है, वह देश निरंतर प्रगति के पथ पर अग्रसर होता रहेगा, वह सभी क्षेत्रों में आगे बढ़ता रहेगा।

    अनुशासन का पहला पाठ हम घर से सीखते हैं। घर ही वह प्रथम पाठशाला है, जहां हमें भली-भांति अनुशासन की शिक्षा मिलती है। यह शिक्षा केवल पुस्तक के पन्नों को उलटने से नहीं मिलती, बल्कि वयस्कों के या स्वयं के अनुशासन से बच्चों को मिलती है। बड़ों के आचरण का प्रभाव छोटों पर पड़ता है, इसलिए हमें अनुशासनबद्ध रहकर जीवनयापन करना चाहिए। अनुशासन का पाठ हमें जीवन में निरंतर आगे बढ़ाता है।


12-सात्विक जीवन की शक्ति
 
    मन को जितना अधिक स्वच्छ और सुंदर रखा जाए वह उतना ही अधिक स्वस्थ और स्फूर्तिवान होता है। जिस प्रकार बगीचे की स्वच्छता, सुंदरता और हरियाली मन को तरोताजा और उत्साहित कर देती है उसी प्रकार सकारात्मक भावनाओं के साथ निर्मल मन व्यक्ति के व्यक्तित्व को जीवंत कर देता है, उसे खूबसूरत, परोपकारी और करुणामय बना देता है।

    मन के सात्विक भावों के माध्यम से व्यक्ति शारीरिक बीमारियों पर भी काबू कर सकता है। कहते हैं कि पहले इंसान का मन बीमार होता है और फिर शरीर। मन उस समय बीमार होता है जब उसमें आध्यात्मिकता का लोप हो जाता है। लोग ईष्र्यालु, झगड़ालु, लोभ और क्त्रोध सरीखी नकारात्मक प्रवृत्तियों के कारण मानसिक रूप से बीमार होते हैं और फिर मन की ये कुत्सित प्रवृत्तियां शरीर पर नजर आने लगती हैं। इस कारण व्यक्ति बीमार हो जाता है। हालांकि जीवाणु और विषाणु (वाइरस) से पैदा होने वाली बीमारियां और अन्य संक्रामक रोगों के चलते भी व्यक्ति बीमार पड़ता है, लेकिन व्यक्ति के बीमार पड़ने का एक कारण नकारात्मक मानसिक प्रवृत्तियां भी हैं। अध्यात्म के साथ शुद्ध व सात्विक प्रवृत्तियों वाला मन भी व्यक्ति के जीवन को सफल बनाता है।

    मन मस्तिष्क और पूरे शरीर को नियंत्रण में रखता है। जोस सिल्वा अपनी पुस्तक 'यू द हीलर' में लिखते हैं कि 'मन, मस्तिष्क को संचालित करता है और मस्तिष्क शरीर को और इस तरह शरीर आदेश का पालन करता है। मस्तिष्क उपचार के लिए एक इंद्रिय है।

    मस्तिष्क की न्यूरॉन कोशिकाएं मन में उठने वाले विचारों के अनुसार कार्य करती हैं। यदि विचार और कार्य सकारात्मक होते हैं तो कोशिकाएं प्रफुल्लित होकर कार्य को अंजाम देती हैं। इसके विपरीत मन में उठने वाले दूषित विचारों से कोशिकाएं मंद और सुस्त पड़ जाती हैं। व्यक्ति को रोगों से घबराए बिना अपने मन को कमजोर नहीं पड़ने देना चाहिए। मन के माध्यम से हमेशा स्वस्थ और प्रेरक विचारों से रोगों का सामना करना चाहिए। जब मन आध्यात्मिक रूप से सद्वृत्तियों के साथ आचरण करता है तो वह व्यक्ति के कार्य और लक्ष्य को भी ऊंचाई और सफलता के शीर्ष पर स्थापित कर देता है। सात्विक मन अत्यंत शक्तिशाली होता है। वह बड़ी से बड़ी परेशानी पर विजय पाने की क्षमता रखता है।


13-प्रकृति में प्राण ऊर्जा की मात्रा अनन्त है

    प्रकृति में प्राण ऊर्जा अनंत मात्र में उपलब्ध है। जब कभी इस फैले हुए विशाल ब्रह्मंाड से ऊर्जा का संग्रह किया जाता है और किसी एक स्थान पर उसे केंद्रित कर दिया जाता है तो वह स्थान दिव्य बन जाता है। इन्हीं दिव्य स्थानों पर दिव्य आत्माओं का अवतरण होता है। इसलिए ऐसे स्थानों को दिव्यभूमि या तीर्थस्थान कहा जाता है।

    संसार में जहां कहीं भी पवित्र स्थान माने गए हैं उन स्थानों पर दिव्य आत्माओं का आविर्भाव वहां होता है। संसार के प्रत्येक धर्म में ऐसे अनेक अवतारी पुरुष हुए हैं, जिसके कारण उनके स्थान को तीर्थस्थान, पवित्र स्थान आदि कहा गया है। यह बात सभी धर्मो पर लागू होती है। जब कोई दिव्य महापुरुष किसी स्थान पर अवतरित होता है तो उसकी आभा से जो ऊर्जा निकलती है, उस ऊर्जा से वहां की जमीन, जंगल, पेड़-पौधे, नदी-झरना, तालाब, कुएं, वृक्ष आदि पवित्र हो जाते हैं। ऐसा इसलिए, क्योंकि इन सामान्य स्थानों, पेड़-पौधों आदि में उस दिव्य आत्मा की ऊर्जा प्रवेश कर जाती है। प्राण प्रकृति द्वारा प्रदत्त जीवनी शक्ति है।

    कोई भी महापुरुष अपनी साधना से अनंत परमात्म शक्ति प्राप्त कर लेता है। वह संसार में व्याप्त दिव्य शक्तियों को संचित कर अपने शरीर में केंद्रित कर लेता है और फिर वह अपनी शक्ति को निकटवर्ती वातावरण में छोड़ने लगता है। इसीलिए हमारे देश में जहां कहीं भी तीर्थस्थान हैं, वहां का वातावरण वृक्ष आदि सब कुछ ऊर्जावान बन जाता है और उसमें दिव्यता का बोध होने लगता है, जैसे भगवान बुद्ध की साधना से गया का बोधि वृक्ष आदि। देश में कई महत्वपूर्ण स्थान हैं जो किसी दिव्य पुरुष की दिव्यता से आज भी अनुप्राणित हो रहे हैं। जिस स्थान पर भगवान बुद्ध, महावीर, साईंबाबा सरीखी महान विभूतियों ने कभी साधना की थी, आज भी वे स्थान 'अहिंसा क्षेत्र' के रूप में जाने जाते हैं। कहा जाता है कि उस स्थान के कारण वहां के हिंसक जीव भी अहिंसक बन गए थे।

    उसी प्रकार संत पुरुषों और गुरुजनों के संपर्क में जाते ही विकार ग्रस्त मन भी पवित्र हो जाता है। मन के अंदर के विकार ही हमारे व्यक्तित्व को कमजोर बनाते हैं और इनके कारण व्यक्ति समाज में अपना स्थान नहीं बना पाता। इन विकारों को दूर करने का एक तरीका अच्छे लोगों के बीच ज्यादा से ज्यादा रहना है।


14-मानव जीवन में नियमों के पालन की आवश्यकता

    एक व्यवस्थित जीवन जीने के लिए जीवन में नियमों का पालन अपरिहार्य है। नियमरहित जीवन एक अवस्था के बाद भार में परिवर्तित हो जाता है और हमें अपना ही शरीर भारवत प्रतीत होने लगता है। भारतीय ज्ञान-परंपरा में हम जब भी जीवन के संदर्भ में चर्चा करते हैं, तब योग की प्राथमिकता से हम अवगत होते हैं।

    अष्टांग योग का द्वितीय सोपान नियम है। नियम के बगैर इस संसार में कुछ भी चलायमान नहीं है। सूर्य नित्य बिना किसी आलस्य और व्यर्थ की प्रतिस्पर्धा के बगैर निरंतर हर दिन उगता है और चंद्रमा भी स्थितप्रज्ञ के समान अपने हिस्से की चांदनी बिना किसी रोक-टोक के बिखेरता है। प्रकृति का सब कुछ नियमबद्ध है और जब यह नियमबद्धता टूटती है, तब प्रकृति का सुंदर हरा-भरा कलेवर भी हमें रास नहीं आता।

    जब प्रकृति नियमों पर इतनी अडिग है तो भला वह मनुष्य को उच्छृंखल होने के लिए कैसे छोड़ सकती है? प्रकृति जब अपने नियम से हटती है तब विकराल घटनाएं घटती हैं और विध्वंस होता है। प्रकृति के समान ही जीवन में भी नियमबद्धता आवश्यक है। किसी भी प्रकार का सृजन नियम के बगैर नहीं हो सकता। शैव दर्शन के अनुसार जब भी नियंता सृष्टि की रचना करते हैं, तब सृष्टि को वे नियमबद्ध करते हैं। उसकी सीमाओं का निर्धारण करते हैं। ठीक उसी प्रकार जब भी हम कोई चित्र बनाते हैं या कोई व्यंजन बनाते हैं तब हम समस्त सामग्री को एक रूप प्रदान करते हैं, उसे विशेष रूप में नियमित करते हैं। वह अपने उस रूप के अतिरिक्त किसी अन्य रूप में नहीं हो सकती।


    यह भी नियम का एक रूप है। इसलिए नियमबद्धता का गहन अनुसरण अपरिहार्य है। तभी जीवन सुचारु रूप से संचालित होगा, अन्यथा वर्षा ऋतु में उफनती नदी के समान जीवन व्यर्थ ही प्रवाहित होता रहेगा। आधुनिक विज्ञान भी इस तथ्य को स्वीकार कर चुका है कि पृथ्वी ही नहीं बल्कि ग्रह, नक्षत्रों और आकाश गंगाओं या फिर दूसरे शब्दों में कहें तो समूचा ब्रह्मंड नियमों से ही संचालित हो रहा है।

    ग्रह-नक्षत्र एक सुनिश्चित नियम के अनुसार ही अपनी-अपनी कक्षाओं में परिभ्रमण कर रहे हैं। तभी तो महानतम वैज्ञानिक अॅल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा है कि ब्रह्मंड में जो नियबद्धता व्याप्त है वह विलक्षण है। इस विलक्षणता को देखकर मानो ऐसा प्रतीत होता है कि कोई अदृश्य शक्ति शायद इस ब्रह्मांड को संचालित कर रही है।
 

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