Tuesday, March 17, 2015

जीवन ज्योति

1-जीवन का मूल तत्व है हमारा शिष्ठाचार
 
        शिष्टाचार हमारे जीवन का एक अनिवार्य अंग है। विनम्रता, सहजता से वार्तालाप, मुस्कराकर जवाब देने की कला प्रत्येक व्यक्ति को मोहित कर लेती है। जो व्यक्ति शिष्टाचार से पेश आते हैं वे बड़ी-बड़ी डिग्रियां होने पर भी अपने-अपने क्षेत्र में पहचान बना लेते हैं। प्रत्येक व्यक्ति दूसरे शख्स से शिष्टाचार और विनम्रता की आकांक्षा करता है।
 
 
          शिष्टाचार का पालन करने वाला व्यक्ति स्वच्छ, निर्मल और दुर्गुणों से परे होता है। व्यक्ति की कार्यशैली भी उसमें शिष्टाचार के गुणों को उत्पन्न करती है। सामान्यत: शिष्टाचारी व्यक्ति अध्यात्म के मार्ग पर चलने वाला होता है। अध्यात्म के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति का जन्म किसी वजह से हुआ है। हमारे जीवन का उद्देश्य ईश्वर की दिव्य योजना का एक अंग है। ऐसे में शिष्टाचार का गुण व्यक्ति को अभूतपूर्व सफलता और पूर्णता प्रदान करता है।
 
 
          यदि व्यक्ति किसी समस्या या तनाव से ग्रस्त है, लेकिन ऐसे में भी वह शिष्टाचार के साथ पेश आता है तो अनेक लोग उसकी समस्या का हल सुलझाने के लिए उसके साथ खड़े हो जाते हैं। ऐसा व्यक्ति स्वयं भी समस्या के समाधान तक पहुंच जाता है। शिष्टाचार को अपने जीवन का एक अंग मानने वाला व्यक्ति अकसर अहंकार, ईष्र्या, लोभ, क्रोध आदि से मुक्त होता है। ऐसा व्यक्ति हर जगह अपनी छाप छोड़ता है। कार्यस्थल से लेकर परिवार तक हर जगह वह और उससे सभी संतुष्ट रहते हैं। शिष्टाचारी व्यक्ति शारीरिक मानसिक रूप से भी स्वस्थ रहता है, क्योंकि ऐसा व्यक्ति सद्विचारों से पूर्ण सकारात्मक नजरिया रखता है। उसके मन के सद्भाव उसे प्रफुल्लित रखते हैं। चिकित्सा विज्ञान भी अब इस तथ्य को सिद्ध कर चुका है कि अच्छे विचारों का प्रभाव मन पर ही नहीं, बल्कि तन पर भी पड़ता है।
 
 
          मस्तिष्क की कोशिकाएं मन में उठने वाले विचारों के अनुसार कार्य करती हैं। इसके विपरीत नकारात्मक विचारों का मन तन पर नकारात्मक प्रभाव ही पड़ता है। जेम्स एलेन ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि अच्छे विचारों के सकारात्मक स्वास्थ्यप्रद और बुरे विचारों के बुरे, नकारात्मक घातक फल आपको वहन करने ही पड़ेंगे। व्यक्ति जितना अधिक अपने प्रति ईमानदार और शिष्टाचारी होता है वह उतनी ही ज्यादा सच्ची और वास्तविक खुशी को प्राप्त करता है।
 
2-अपने क्रोध को अपने नियंत्रण में रखें
 
          मनुष्य का सबसे बड़ा दुश्मन क्रोध है, जिसका जन्म अहंकार से होता है। क्रोध में की गई गलती का अंत पश्चाताप पर होता है। जब तक व्यक्ति के मन में शांति है, प्रसन्नता है, क्रोध उस पर हावी नहीं होगा। मुस्कराहट के जाते ही क्रोध उस पर हावी हो जाता है। इसीलिए महापुरुष कहते हैं कि क्रोध की पहली चिंगारी जब आपके अंदर उठे और आपको मर्यादा से बाहर ले जाने का प्रयास करे तब उससे पहले ही उस पर नियंत्रण पाने की कोशिश की जानी चाहिए, अन्यथा क्रोध जब पूरी फौज लेकर आएगा तो उसे रोकना बहुत मुश्किल होगा। वस्तुत: क्रोध एक विकृत मनोवेग है। यदि जाए तो इसे बहाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं शेष बचता। मन में क्रोध आते ही भौंहें तन जाती हैं। जो व्यक्ति क्रोधी स्वभाव वाले होते हैं उनका साथ लोग वैसे ही छोड़ देते हैं, जैसे सूखे पेड़ को छोड़कर पक्षी उड़ जाते हैं। भगवान श्रीरामचंद्रजी ने भी जीवन में मर्यादा का पालन करते हुए क्रोध के यदाकदा उपयोग को ही सही माना है।
 
          आचार्य अनिल वत्स ने अपने लेख में लिखा है कि-क्रोध में व्यक्ति का नुकसान ज्यादा होता है। व्यक्ति की आयु क्षीण होती है, वह धीरे-धीरे अनेक बीमारियों का शिकार हो जाता है क्रोध परिवार, समाज कई अवसरों पर राष्ट्र के लिए भी घातक सिद्ध होता है। इसलिए क्रोध की आग उतनी ही जलाएं, जितना काबू में रख सकें। यदि क्रोध को भड़काने वाले कारणों से दूर रहें तो क्रोध पर विजय पाई जा सकती है। यदि किसी समय क्रोध जाए तो उसके परिणाम पर विचार जरूर करें। क्रोध से बचने के लिए प्राणायाम व्यायाम का सहारा लें। गीत-संगीत सुनने के साथ-साथ भक्ति और प्रार्थना करें। खुलकर हंसें। आसपास का वातावरण स्वभावत: सुधरने लगेगा। क्रोध की अवस्था ऊर्जा की एक ऐसी अवस्था है, जिसका शमन रूपांतरण से ही संभव है। क्रोध को बलपूर्वक नहीं दबाया जा सकता। विपरीत परिस्थितियों में भी समन्वय स्थापित करने का प्रयास करें। शांत मनोवृत्ति वाले धीर-वीर समर्थ सत्यपुरुष के सामने क्रोधी का क्रोध अधिक समय तक टिक नहीं सकता। ऐसे स्थान पर गिरा हुआ अंगारा, जहां घास हो, क्या स्वयं ठंडा नहीं हो जाता? क्रोध को क्रोध से नहीं बल्कि शांति से जीता जा सकता है।
 
 
3--अपनी चेतना को परिष्कृत करें
 
          मनुष्य जीवन के दो लक्ष्य हैं। पहला, कुसंस्कारों से छुटकारा पाना और परिष्कृत दृष्टिकोण अपनाना। परिष्कृत जीवन के साथ जुड़ी हुई आनंद भरी उपलब्धियां स्वर्ग कहलाती हैं और दुष्प्रवृत्तियों से छुटकारा पाने को ही मुक्ति कहते हैं।
 
          जीवन का दूसरा लक्ष्य है भगवान के विश्व उद्यान को अधिक सुरम्य, समुन्नत और सुसंस्कृत बनाने में योगदान देना। इन दोनों प्रयोजनों को पूरा करने में जो जितना योगदान देता है वह उतना ही बड़ा भक्त होता है। इस मार्ग पर चलने वाले संत, ऋषि, देवात्मा आदि नामों से पुकारे जाते हैं।
 
 
         उन्हें असीम आत्मसंतोष प्राप्त होता है। वे लोक-सम्मान के पात्र होते हैं। ऐसे लोगों को दूसरों से सहयोग मिलने से अपने उच्चस्तरीय उद्देश्यों की पूर्ति में असाधारण सफलता भी मिलती है। उनके कृत्य ऐतिहासिक होते हैं और उनके प्रभाव से तमाम लोगों को ऊंचा उठने के और आगे बढ़ने के अवसर मिलते हैं। बुद्धिमता इस बात में है कि आत्म-तत्व और शरीर दोनों की आवश्यकताओं का ध्यान रखा जाए। श्रम और बुद्धि का उपयोग दोनों क्षेत्रों के लिए इस प्रकार किया जाए कि शरीर स्वस्थ रहे और आत्मा अपने महान लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल हो जाए, किंतु यह करना आसान नहीं है। जो बुद्धि आए दिन अनेक समस्याओं को सुलझाने में, संपदाओं और उपलब्धियों के उपार्जन में पग-पग पर चमत्कार दिखाती है वह मौलिक नीति निर्धारण, सुख-सुविधाओं के संचय-संवर्धन में लग जाती है। बुद्धि का यह एकपक्षीय असंतुलन ही जीवात्मा का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है। उसी से छुटकारा पाने के लिए ब्रह्मज्ञान, आत्मज्ञान और तत्वज्ञान के विशालकाय कलेवर की संरचना की गई है।
          बुद्धि को आत्मा के स्वरूप और उसके लक्ष्य को समझने का अवसर देना ही उपासना का मूलभूत उद्देश्य है। भौतिक जगत में शरीर के लिए अनेक आवश्यक सुविधा-साधन उपलब्ध हैं। ठीक उसी प्रकार एक चेतन जगत भी है। उसमें भरी हुई संपदा आत्मिक आवश्यकताओं को पूरा करती है। ब्रह्म सर्वत्र विद्यमान है, पर उसकी अभीष्ट अनुभूति करने के लिए भी पुरुषार्थ करना पड़ता है। उपासना-प्रक्रिया को ईश्वर और जीव के बीच विशिष्ट आदान-प्रदान का द्वार खोलना कह सकते हैं। उपासना-प्रक्रिया का तात्विक रहस्य अंतस चेतना को परिष्कृत करना है।
 
 
4-जीवन में कृतज्ञता का महत्व
 
          इसके बिना जीवन का रस फीका हो जाता है। यह जीवन मूल्यों में उच्चकोटि का शाश्वत सद्गुण है। संपूर्ण मनुष्य की कसौटी पर खरा उतरने के लिए कृतज्ञता का भाव आत्मसात कर लेने पर दूसरों को सुधारने की पात्रता आती है। उन्नति करने के लिए कृतज्ञता के गुण की अधिक आवश्यकता है। कृतज्ञता की प्रेरणा नारियल के वृक्ष से मिल सकती है।

 
          यह वृक्ष 50 वर्ष से अधिक समय तक फल और स्वास्थ्यवर्धक पानी प्रदान करता है और बदले में कुछ नहीं चाहता। केवल अपने लिए जीना स्वार्थ है। दूसरों का सहयोगी बनना परार्थ है। सामाजिक ऋण चुकाने की भावना से कार्य करना कृतज्ञता रूपी यज्ञ है। सामाजिक मूल्य बनने वाले गुण, दोष हो जाते हैं। कृतज्ञता से पहचानने की दृष्टि आती है तो कृतघ्नता से व्यक्ति दूसरों की नजरों में गिर जाता है। अपने काम आए लोगों को नकारना कृतघ्नता है। यह स्थिति मूढ़ता के कारण उत्पन्न होती है। कृतज्ञता की अभिव्यक्ति एक बड़ा सद्गुण है। हनुमान के प्रति राम इतने कृतज्ञ होते हैं कि वह चाहते हैं कि कभी हनुमान पर ऐसा कोई कष्ट आए ही नहीं जिसके लिए राम की उन्हें आवश्यकता पड़े, भले ही राम जीवनपर्यन्त कृतज्ञ बने रहें।
 
          कृतज्ञता वह सदगुण है, जिसकी अभिव्यक्ति करना हमारा कर्तव्य है। कहा गया है- नेकी कर दरिया में डाल। कृतज्ञता रूपी प्रसन्नता को दूसरों की कृतघ्नता रूपी अप्रसन्नता के हवाले करना हितकर नहीं होता। छोटी से छोटी सहायता, श्रेष्ठ भावना और मधुर शब्दों का कृतज्ञता से स्मरण कर यथासंभव लौटाना दिव्य संस्कार है। इस संदर्भ में भरत कहते हैं कि यदि मैंने कोई दोष किया गया हो तो ईश्वर मुडो कृतघ्नता का दंड दे। कृतज्ञता के बदले कृतघ्नता करने वालों के लिए प्रायश्चित करने के लिए किसी विकल्प की संभावना नहीं रहती। कृतज्ञता किसी के प्रति सच्ची योग्यता को स्वीकार करने का ही भाव है। कृतज्ञता कथनी और करनी का भेद मिटाकर सत्य की स्थापना करती है। कृतज्ञता किसी के प्रति दिया गया आदर का भाव है। सम्मान देने वाले स्वयं को झुकाकर अपने उच्च संस्कारों का परिचय कराते हैं। वस्तुत: महापुरुष कृतज्ञता में जीते हैं।
 

6-ईश्वर के प्रति समर्पण से जीवन की शक्ति मिलती है
          शरणागत का शाब्दिक अर्थ है शरण में आया हुआ, किंतु इसका निहितार्थ आध्यात्मिक संदर्भ में ईश्वर के प्रति संपूर्ण समर्पण से है। अपनी रक्षा के लिए शरण में वही आता है जिसे कहीं से किसी आपदा का आभास होता है। सभी आपदाओं, विपत्तियों, प्रवृत्तियों समस्याओं के निराकरण के एकमात्र आधार ईश्वर ही हैं।
          किसी एक कष्ट के कारण शरणागत होने पर शांति प्राप्त होती है और सभी कष्टों के निराकरण की अनुभूति होती है। ईश्वर की शरण में जाना साधक को निर्भय बनाता है।
          प्रभु की शरण प्राप्त करने के लिए साधक में श्रद्धा और विश्वास का होना आवश्यक है। इसके अलावा साधक में सहृदयता, सरलता, शांति समदृष्टि का प्रवेश स्वत: हो जाता है। वह ईष्र्या-द्वेष से अलग सर्वदा आनंदातिरेक में निमग्न रहता है। ईश्वर ही सृष्टा हैं। समर्पित भाव से उनकी शरण में पहुंच जाने से अपार शांति संतोष की अनुभूति होती है। जो प्रभु को सर्वस्व अर्पण करने के लिए तैयार है वही सच्चा शरणागत है। वस्तुत: ईश्वर समस्त गुणों के सागर हैं। उनकी शरण में आया हुआ व्यक्ति गुणों से अछूता नहीं रह सकता। शरणागत प्रभु के सान्निध्य में आने पर स्वत: ही गुणों अच्छाइयों को आत्मसात कर लेता है। उसका सांसारिक दोषों-काम-क्रोध, लोभ-मोह अहंकार से दूर-दूर तक का संबंध नहीं रहता। ऐसी स्थिति में प्रभु को समर्पित पुरुष सद्गुणों से संपन्न हो जाता है। उसे सांसारिक उपलब्धियों-धर्म, अर्थ, काम मोक्ष में से किसी की भी कामना नहीं सताती। धर्म का पालन तो वह स्वयं स्वेच्छापूर्वक कर ही रहा है। अर्थ काम का लालच उसके पास तक नहीं फटकता। वह पुरुष समय के अनुसार मोक्ष का अधिकारी बन जाता है। उसकी आत्मा परमात्मा के सानिध्य में पहुंच कर सर्वोच्च आनंद की अनुभूति करती है। शरणागत होने के लिए कोई विशेष प्रयास करना आवश्यक नहीं है। अपने आपको भगवान पर पूर्णत: आश्रित करते हुए करने योग्य कर्मो को फल की इच्छा के बगैर करना चाहिए। शरणागत होने के लिए कुछ नियम बताए गए हैं, जिनका आशय यह है-यह संकल्प कि मैं सदा प्रभु के अनुकूल रहूंगा, प्रतिकूलता का त्याग करूंगा, प्रभु मेरी रक्षा करेंगे, प्रभु मेरे संरक्षक हैं, भगवान के प्रति पूरा विश्वास करते हुए और उनके सामने दीनता के भाव से प्रार्थना करूंगा। इन नियमों पर अमल कर आप चेतना में व्याप्त ईश्वर की शरण में जा सकते हैं।
 

7-अपने जीवन के नैतिक मूल्य
         सदियों से भारत की संस्कृति नैतिक मूल्यों गुणों से परिपूर्ण है। हमारी संस्कृति नैतिक आचार-विचार व्यवहार का पालन करने के लिए सदैव प्रेरित करती है, परंतु अफसोस की बात है कि आज समाज और जीवन के हर एक क्षेत्र में नैतिक मूल्यों का ह्वास तेजी से हो रहा है। कई लोग यह भी प्रश्न करते हैं कि आखिर नैतिकता का अभिप्राय क्या है? लाहिड़ी गुरुजी ने अपने लेख में लिखा है कि नैतिकता का आशय है- नीति के अनुसार। यानी हमारे विचार, कर्म और व्यवहार सद्गुणों से प्रेरित हों और वे धर्म, संस्कृति राष्ट्र के लिए हितकारी हों। आध्यात्मिक तत्वों शक्तियों का संवर्धन करने वाले ऐसे विचारों, व्यवहारों गुणों को नैतिकता कहते हैं। अत्यंत विकट परिस्थितियों में भी आध्यात्मिक गुणों का पालन करते हुए अपने कर्म विशेष के प्रति जो सदाचरण कायम रख सके, वही नैतिक है। ऐसा तभी संभव है, जब मनुष्य अपने भीतर के अहंकार, स्वार्थ स्वनिर्मित आत्मघाती भय से परे उठने की साधना करे। धर्म, राष्ट्र संस्कृति को अपने जीवन की धुरी बनाए। नैतिक मूल्य हमें उचित-अनुचित आचार व्यवहार का ज्ञान कराते हैं। हमारी संस्कृति महान है। हमारे इतिहास में ऐसे अनेक ऋषि-मुनियों, महापुरुषों श्रेष्ठ साधकों के उदाहरण मिलते हैं, जिन्होंने अपना संपूर्ण जीवन नैतिक मूल्यों के रक्षार्थ समर्पित कर दिया और संपूर्ण समाज को जीवन के प्रति एक नई दिशा दी।
          मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम नैतिकतामय जीवन के आदर्श प्रतीक हैं। उन्हीं के पदचिह्नों पर चलते हुए भक्तिपूर्ण भाव से अपने आचरण को नैतिक रखते हुए हनुमानजी ने अमरत्व प्राप्त कर लिया। नैतिकतापूर्ण व्यवहार की अभिव्यक्ति हमें महर्षि वशिष्ठ, महर्षि दधीचि, स्वामी विवेकानंद, सरदार वल्लभ भाई पटेल और डॉ. बाबा साहेब अंबेडकर जैसे महानतम राष्ट्र साधकों के जीवन में दिखती है। नैतिकता के बगैर जीवन में आत्मोन्नति संभव नहीं। नैतिकतापूर्ण जीवन जीकर, दूसरों के समक्ष आदर्श प्रस्तुत करके ही इस जीवन में सफलता के सही मार्ग का चयन कर सकते हैं। वैसे भी दुनिया में शायद ही कोई ऐसा शख्स हो, जो विफलता चाहता हो। नैतिकता से मनुष्य के साथ-साथ समाज और राष्ट्र का भी उत्थान होता है। जो समाज नैतिकता से विमुख हो जाता है, उसकी अवनति तय है। इसलिए सभी लोगों को नैतिकता के मार्ग पर चलना चाहिए।
 
 
8-ऊर्जा का संचरण

          आचार्य सुदर्शन महाराज के एक लेख में पढने को मिला कि ब्रह्मांड जैसी लोकतांत्रिक व्यवस्था अन्यत्र कहीं नहीं मिलती। हम प्रजातांत्रिक देश के निवासी हैं। प्रजातंत्र का अर्थ है, देश का प्रत्येक व्यक्ति महत्वपूर्ण है और समान अधिकार रखता है। राष्ट्रपति देश के सर्वोच्च पदासीन व्यक्ति होते हैं। उनकी सहायता के लिए एक मंत्रिमंडल होता है। राष्ट्रपति के प्रतिनिधि राज्यों में राज्यपाल होते हैं और उनकी सहायता के लिए मुख्यमंत्री का मंत्रिमंडल होता है, जिनकी सहायता के लिए जिलाधिकारी, बीडीओ और पंचायत के मुखिया होते हैं, जो अपने-अपने क्षेत्र के विकास के लिए काम करते हैं। इस व्यवस्था से गांव का अंतिम व्यक्ति देश के महामहिम राष्ट्रपति से जुड़ा रहता है। इसलिए इसे गणतांत्रिक प्रजातंत्र कहा जाता है। इसी तरह हमारे ब्रह्मांड में भी ऐसी ही व्यवस्था है। ब्रह्मांड में दिव्य शक्तियां आच्छादित हैं। उसी दिव्य शक्ति से आकाशगंगा का निर्माण हुआ है। विज्ञान भी कहता है कि ताप ऊर्जा जब अत्यधिक सघन बन जाती है तो उसका द्रवीकरण हो जाता है। उसी द्रव्यमान को आकाशगंगा माना गया है।
          महान वैज्ञानिक आइंस्टीन कहते हैं कि पदार्थ जब अत्यंत घनीभूत हो जाता है तो ऊर्जा बन जाता है और ऊर्जा पदार्थ बन जाती है। यह क्रम चलता रहता है। विज्ञान की दृष्टि से शायद उसी दिव्य प्रकाश ऊर्जा का द्रव्यमान आकाशगंगा है। संभव है, आकाशगंगा को जन्म देने वाली दिव्य शक्ति जिसे आइंस्टीन ने सुपर पावर कहा है, वही ब्रह्मांड का मूल हो। जो प्राण शक्ति बनकर संपूर्ण ब्रह्मांड का नियंत्रण कर रही हो। वही ब्रह्मांड की सर्वोच्च अधिकारी होगी, उसी ने आकाशगंगाओं में अपार ऊर्जा शक्ति भरी होगी, उसी के नियंत्रण में एक अनुमान के अनुसार बीस हजार से अधिक निहारिकाएं बनी होंगी और किसी एक निहारिका के अंदर अनेक सूर्य मंडलों में से हमारा यह सूर्य होगा, जिसके सीधे संपर्क में हमारी पृथ्वी गतिमान है। इस तरह ऊर्जा का मूल स्रोत कोई दिव्य प्रकाश है, जो आकाशगंगा, निहारिका और सूर्य मंडल से होते हुए पृथ्वी तक आता है और पृथ्वी से 84 लाख जीव-जंतुओं में गतिमान होता है। ऐसा लगता है कि हमारा ब्रह्मांड पूर्ण लोकतांत्रिक व्यवस्था के अंदर कार्य करता है। लोकतंत्र में जिस प्रकार शासन सूत्र धीरे-धीरे ऊपर से देश के अंतिम व्यक्ति तक पहुंचते हैं, उसी प्रकार ब्रह्मांड की दिव्य शक्ति भी विभिन्न माध्यमों से होते हुए जीव तक पहुंचती है।
 

9-अपने जीवन में मौलिक शन्नता की नीव रखें
          मनुष्य के चेहरे की मुस्कान इस बात का प्रमाण नहीं है कि वह अंत:करण से भी उतना ही प्रसन्न है जितना बाहर से दिखाई देता है। प्लास्टिक का कोई आकर्षक फूल या पौधा असली होने का भ्रम तो पैदा कर सकता है, लेकिन मौलिक प्रसन्नता या असली खुशबू देने में किसी भी रूप में समर्थ नहीं हो सकता। चेतनता का अहसास वही पौधा कर सकता है, जिसकी जड़ें प्रकृति से ऊर्जा ग्रहण करती हों। ठीक इसी तरह मनुष्य का अंत:करण जब तक पवित्र नहीं हो जाता तब तक उसकी वाणी में माधुर्य सकता है, उसे असली खुशी की अनुभूति ही होगी। वह स्वयं से ही नाटक कर ठगा जाता रहता है। ऐसा मनुष्य देव साक्षात्कार में भी असमर्थ रहता है। स्वेट मार्डेन का कहना है कि वही मनुष्य ईश्वर के दर्शन कर सकता है जिसका अंत:करण स्वच्छ पवित्र है।
          अच्छा निर्मल अंत:करण ही मनुष्य के सच्चे चरित्रवान होने का प्रमाण है। प्रसिद्ध विचारक जेजे रूसो का मानना है कि जैसे वासनाएं देह की वाणी हैं वैसे ही अंत:करण आत्मा की वाणी है। अंत:करण के परामर्श के बगैर मनुष्य जीवन के सत्यों रहस्यों को समझने और वास्तविक रूप में स्थायी तौर पर दूसरों को प्रभावित करने में समर्थ नहीं हो सकता। शेक्सपियर का कहना है कि अंतरात्मा ही हमें परमात्मा और बहिर्जगत से पूर्णत: भिज्ञ होने की शक्ति प्रदान करती हैं। इसी बात की पुष्टि विश्वकवि रवींद्रनाथ टैगोर अपनी इस बात से करते हैं- एक बार अंत:करण की ओर आंख घुमाओ, तुरंत ही सारा अर्थ समझ में जाएगा। वस्तुत: अंत:करण अंतमरुखी रहस्यमय लोक में प्रवेश करने का प्रमुख तोरण द्वार है। अंत:करण के मलिन होने पर संसार से सुख की प्राप्ति होती है और भगवत-प्रेम की ही। स्वामी रामकृष्ण परमहंस का मानना है कि जैसे मैले शीशे पर सूरज की किरणों का प्रतिबिंब नहीं पड़ता उसी प्रकार उन लोगों के हृदय में ईश्वर के प्रकाश का प्रतिबिंब नहीं पड़ सकता, जिनका अंत:करण मलिन और अपवित्र है। इसलिए मनुष्य जितना समय, अपने वाह्य शरीर को सजाने-संवारने में गंवाता है, उसका एक चौथाई भी यदि अंत:करण की पवित्रता में लगा दे तो जीवन संसार स्वयं स्वर्ग की तरह महक उठेगा।
 

10-अगर चिन्ता समाप्त करनी हो तो परमात्मां का चिंतन करें
          जीवन संग्राम में परमात्मा की कृपा का होना नितांत आवश्यक है। आपके अंतर्मन में प्रभु का स्मरण रहेगा तो जीवन यात्रा निर्विघ्न पूरी होगी। संग परमात्मा रहे, सत्य रहे, संग धर्म रहे, मानवता रहे। अगर ये हमारे संग रहे तो चिंता करने की कोई बात नहीं। जैसे अर्जुन के सद्गुणों की रक्षा के लिए भगवान श्रीकृष्ण स्वयं सारथी बनकर आए थे।
 
          तभी तो कहते हैं-जहां धर्म है वहां कृष्ण हैं। जहां कृष्ण हैं वहां विजय सुनिश्चित है। प्रभु संग रहते हैं तो कोई हमारा बाल-बांका नहीं कर सकता, परंतु जीवन में ये सद्गुण तभी कायम रह सकते हैं जब हम सजग सतर्क रहें। अपने हर कर्म को पूजा बना लें। साथ ही, उसका चिंतन करें। उसे अनुभूत करें।
          परमात्मा के चिंतन से चिंता स्वयं समाप्त हो जाती है। दुख-चिंता-मुसीबत, इन सबके बादल प्रभु कृपा से जीवन में छट जाते हैं। हमारे प्रारब्धवश, कर्मवश ये बादल बार-बार आते रहते हैं। कई बार बरसते भी हैं, लेकिन हमारे प्रभु यदि एक छाता हाथ में पकड़ा दें, तो दुख रूपी बरसात से काफी हद तक छुटकारा मिलता है। ध्यान रहे, ये संसार दुखालय है। एक दुख हटता नहीं, दूसरा सिर पर मंडराने लगता है। एक परेशानी दूर होती नहीं कि दूसरी सिर उठा लेती है। यह संसार परिवर्तनशील है। यहां कुछ भी स्थिर नहीं है। प्रभु की कृपा हर पल, हर क्षण हमारे ऊपर बनी रहती है। हम उस कृपा को समडों या समझे। हमारी संस्कृति युद्ध के चिंतन की नहीं है, यह धर्मानुसार जीवन जीने का चिंतन देने वाली संस्कृति है। कुरुक्षेत्र के मैदान में भगवान श्रीकृष्ण ने पांचजन्य का उद्घोष भारतीय संस्कृति और सभ्यता के रक्षार्थ किया था। वह भी युद्ध नहीं चाहते थे, परंतु धर्म के रक्षार्थ उन्हें दुष्टों के दमन के लिए युद्ध में सम्मिलित होना पड़ा।
 
          भगवान श्रीराम ने रावण को बहुत समझाया। नहीं माना तो सोने की लंका भी गई। हमारे देश में अवतरित होने वाले हर अवतार के पीछे जन्म लेने वाले महापुरुष के पीछे कोई कोई सोद्देश्य होता है। यह मानव देह परमात्मा की अनंत कृपा के बाद मिली है। हमें इसे माध्यम बनाते हुए अपने व्यक्तित्व को सर्वागीण बनाकर ध्यान-साधना के जरिये ईश्वर की अनुभूति करनी चाहिए।
 
11-महान बनना है तो नारायण के साथ नर की भी सेवा करें
          किसी भी व्यक्ति की महानता का आकलन करने के लिए प्रत्येक समाज या विचारधारा के अलग-अलग पैमाने होते हैं। इन्हीं के आधार पर हम लोगों को महान कहते हैं।
 
 
          वेदों में महानता के पांच लक्षण बताए गए हैं। प्रथम लक्षण है व्यक्ति का कर्मयोगी होते हुए परमेश्वर, समाज और राष्ट्र के लिए जीवन समर्पित करना। दूसरा लक्षण है कि वह मान-अपमान, लाभ-हानि आदि की परवाह करते हुए और सदा आनंदित रहते हुए अपने कर्तव्य पथ पर आगे बढ़ता रहता है। वह दूसरों को भी आनंद प्रदान करता है। व्यक्ति की महानता का तीसरा लक्षण यह है कि वह मननशील, सहनशील और मर्यादा पालक होता है। उसका धर्म मनुष्यता या परोपकार पर आधारित होता है। गीता के अनुसार निष्काम कर्म करने वाला यानी अपने लाभ के लिए कर्म करने वाला व्यक्ति महानता के लक्षण पूरे करता है।
 
 
          चौथा लक्षण यह है कि उसमें छोटापन नहीं होता है। उसका हृदय विशाल होता है और वह प्रत्येक जीव को समान आदर और प्रेम की दृष्टि से देखता है। महानता का पांचवां लक्षण यह है कि ऐसा व्यक्ति स्वयं प्रकाशित होता है और अपने इस प्रकाश से अन्य लोगों को भी प्रकाशित करता है यानी वह ज्ञान और ऊर्जा से परिपूर्ण होता है और अन्य लोगों को भी प्रेरित करता है जिससे वे भी अपना अज्ञान मिटाकर कर्मशील होकर ज्ञानमार्ग पर बढ़ सकते हैं। सदैव दूसरों की सहायता करने वाला, पुरुषार्थयुक्त, उत्तम बल से युक्त, बुद्धिमान और विशेष ज्ञान वाला और बिना किसी स्वार्थ के सेवा में तत्पर रहना आदि गुणों से सुशोभित होना भी महानता के लक्षण हैं। महान व्यक्तियों के कर्मो और स्वभाव को समझकर यदि हम आत्मसात कर सकें तो अपने जीवन में कुछ सुधार ला सकते हैं। आज तक इस धरती पर जितने भी कर्मशील लोग पैदा हुए हैं, सभी ने अपने-अपने तरीके से कुछ रचनात्मक योगदान दिया है। इस सृष्टि को इन विचारकों, मनीषियों और वैज्ञानिकों आदि ने समस्याओं का समाधान करते हुए समृद्ध बनाया है।
 
          अंग्रेजी भाषा में एक कहावत है जिसका आशय है कि कुछ लोग जन्म से महान होते हैं, कुछ महान बन जाते हैं और कुछ पर महानता थोप दी जाती है। हमारी संस्कृति के अनुसार महानता किसी पर थोपी नहीं जा सकती है। सतत साधना करते हुए नर और नारायण की सेवा करके हम महान बन सकते हैं।
 
12-दूसरे में दोषों को न तलाशें बल्कि स्वयं में झांककर देखें
       कई बार हम दूसरों के दोष या ऐब निकालते रहते हैं। कहते हैं कि अमुक व्यक्ति स्वार्थी है, क्रोधी है, लालची या धूर्त है, परंतु गहराई से और न्यायिक दृष्टि से देखें तो यह पाएंगे कि हमारे अंदर ही अनेक दोष हैं। यह छिद्रान्वेषण की प्रवृत्ति किसी अपराध से कम नहीं है। जब हम निरंतर बुरे विचार रखते हैं तो हमारे कर्म भी अशुभ बन जाते हैं। कटुता, दुर्भाव, विभाजन, कलह, द्वेष और असहयोग ही इसके परिणाम हो सकते हैं। पाप-पुण्य की व्याख्या करते हुए महाभारतकार ने कहा है, 'दूसरों के प्रति उपकार करना ही पुण्य है और दूसरों को पीड़ा देना ही पाप है।'
 
          जो अपने प्रतिकूल हो वैसा व्यवहार दूसरों के साथ कदापि नहीं करना चाहिए। यही सनातन मर्यादा है, यही समस्त धर्मो का सार है। इसके अतिरिक्त दूसरे कर्मो का आधार तो केवल स्वार्थ है। आपने देखा होगा कि स्वभावत: मनुष्यों की इच्छाओं में बहुत कुछ समानता होती है। दूसरों से प्रेम, स्नेह, आत्मीयता, सहयोग और सहानुभूति की अपेक्षा सभी रखते हैं, परंतु जब हम व्यावहारिक रूप में दूसरों के साथ ऐसा बर्ताव नहीं करते तो इसे बुरा विचार या अशालीन माना जाता है। अपने अहंकार को ही श्रेष्ठ मानना और अपनी इच्छाओं को उचित-अनुचित किसी भी तरह पूरी करने को दोषपूर्ण माना गया है। परोपकार पुण्य है, क्योंकि इसका आधार सद्भावना होता है और अपकार पाप माना गया है। विचारों के अनुसार ही चेष्टाएं जाग्रत होती हैं। सत्कर्मो के विस्तार से आत्मा विकसित होती है। आत्मविकास से स्वर्गीय सुख की रसानुभूति होती है। अध्यात्म की पहली शिक्षा है कि हम मंगलमय कामनाएं करें और सदाचारी बनें। यह तभी संभव है जब सत्प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन मिले। मानव जीवन की सार्थकता के लिए विचारों की पवित्रता अनिवार्य है। केवल ज्ञान, भक्ति और पूजा से हमारा विकास और उत्थान नहीं हो सकता। परमात्मा के सामने जब हम सब एक समान हैं, तब कोई ऊंच-नीच, छोटा-बड़ा नहीं है। जब हम ऐसा सोच कर दूसरों के साथ सदैव सात्विक भावनाएं रखेंगे, तभी हम सच्चे अध्यात्मवादी बन सकेंगे। एक धर्मग्रंथ के वाक्य का आशय है, 'ईश्वर से हमारी याचना हो कि हमारा मन शुभ संकल्प वाला हो। हम दूसरों का मंगल करें और मंगलपूर्ण सोचें।'
 
 
13-दूसरे प्रति श्रद्धा रखने का फल मीठा मिलेगा
          पूजा हमारी श्रद्धा का प्रतिफल है। किसी में श्रद्धा होती है तो उसे पूजने का मन होता है। सगुण उपासक को पूजा के लिए एक 'स्वरूप' की आवश्यकता होती है। निगरुण उपासना के लिए उपासक की श्रद्धा एक परम शक्ति में होती है, जिसे हम परमात्मा कहते हैं। इस धरा पर पूजा कैसे शुरू हुई, इस पर धर्म गुरुओं के अपने-अपने मत हो सकते हैं, परंतु एक तटस्थ शोधकर्ता के लिए यह शोध का एक महत्वपूर्ण विषय हो सकता है। कुछ लोग रोज पूजा करते हैं और कुछ लोग कभी-कभी। कुछ लोगों के लिए कर्म ही पूजा है तो कुछ 'व्यक्ति विशेष' की पूजा में ही मगन रहते हैं। आम आदमी से लेकर विशेष आदमी तक, सभी लोग पूजा फल के लिए ही करते हैं।
          गीता जैसे ग्रंथ 'निष्काम' पूजा की वकालत करते हैं। अपने कर्मो को बिना फल की इच्छा किए बगैर ही प्रभु को समर्पित कर देना ही श्रेयस्कर है। भारतीय अध्यात्म कर्म करने को कहता है, पर फल की इच्छा से बंधे कर्म को उचित नहीं ठहराता। कर्म बंधन से मुक्त रहकर कर्म करना ही 'निष्काम-कर्म' दर्शन का आधार है। रिश्तों में बंधे अर्जुन महाभारत युद्ध के आरंभ में कृष्ण के गीता-उपदेश के अठारहवें अध्याय तक पहुंचते-पहुंचते निष्काम युद्ध के लिए तैयार हो जाते हैं। जीवन के महाभारत में निष्काम होकर लड़ना ही शायद सच्ची पूजा है।
          माला फेरने से प्रभु को प्रसन्न करना अच्छी बात है, परंतु जीवन संघर्ष से भागकर केवल माला फेरना, संकीर्तन करना, आरती करना, पाठ करना या हवन करना प्रभु को भी नहीं भाता होगा। प्रभु की कृपा उन्हीं पर होती है, जो अपने निहित कर्मो का कुशलतापूर्वक संपादन करते हैं और साथ में निष्काम भाव से प्रभु की पूजा करते हैं। ऐसा भक्त अपनी कुशल-क्षेम प्रभु के हाथों में सौंपकर परमानंद में जीता है। श्रद्धा से ही मन में सकारात्मक विचारों का आगमन होता है जिसकी मदद से व्यक्ति बड़े से बड़ा काम भी कर डालता है। श्रद्धा हमें जीवन की नई राह दिखाती है। यह किसी के प्रति हो सकती है, लेकिन यह आवश्यक है कि हम श्रद्धा के नाम पर अंधविश्वास की ओर आगे बढ़ें। हमें उचित-अनुचित का विचार अपने मन-मस्तिष्क से कभी भी ओझल नहीं होने देना चाहिए।
 

14जीवन में नैतिक आचरण क्या है
          भारतीय संस्कृति में नैतिकता की अवधारणा में अनेक गुणों को शामिल किया गया है। मानवीय एकता, सत्य पर विश्वास, उदारता, अन्याय के प्रति संघर्ष, साहस, सच्चरित्रता, निस्पृहता, सहानुभूति, संवेदना और समन्वयवादी दृष्टिकोण आदि को नैतिकता की अवधारणा में ही शामिल किया जाता है। इन्हीं सदगुणों के आधार पर मनुष्य मनुष्य बना रह सकता है और विश्व के समक्ष आदर्श उपस्थित कर सकता है। मेरी दृष्टि में कोई भी आदमी फरिश्ता नहीं होता, विशेषताओं के साथ कमियों की संभावनाओं को भी नकारा नहीं जा सकता। बावजूद इसके हर इंसान का मन इस बात के लिए जागरूक बने कि मैं बुराइयों को मिटाने का तो दावा नहीं कर सकता, लेकिन अपने स्वयं के जीवन में बुराइयों के आने के दरवाजों को अवश्य बंद रखूंगा। इसी संकल्प से एक अच्छे इन्सान की तलाश का काम पूरा हो सकता है। आचार्य श्री महाप्रज्ञ ने इस संदर्भ में कहा है कि जब व्यक्ति अपने आपको नहीं देख पाता, तब हजारों-हजारों समस्याएं पैदा होती चली जाती हैं। इनका कहीं अंत नहीं होता। गरीबी की समस्या हो, मकान और कपड़े की समस्या हो ये सारी की सारी गौण समस्याएं हैं, मूल समस्याएं नहीं हैं। ये पत्तों की समस्याएं हैं, जड़ों की नहीं हैं। पत्तों का क्या? पतझड़ आता है, सारे पत्ते झड़ जाते हैं। वसंत आता है और सारे पत्ते जाते हैं, वृक्ष हरा-भरा हो जाता है। यह मूल समस्या नहीं है।
          मूल समस्या यह है कि व्यक्ति अपने आपको नहीं देख पा रहा है। उसके पीछे ये पांच कारण या समस्याएं काम कर रही हैं। पहला, मिथ्या दृष्टिकोण, दूसरा असंयम, तीसरा प्रमाद, चौथा कषाय, पांचवां चंचलता। जैन-दर्शन के अनुसार ये पांच मूल समस्याएं हैं। यही वास्तव में दुख हैं। यही दुख का चक्र हैं। जब तक दुख के इस चक्र को नहीं तोड़ा जाएगा, तब तक जो सामाजिक, मानसिक और आर्थिक समस्याएं हैं, उनका सही समाधान नहीं हो सकेगा। समय-सापेक्ष जीवन मूल्यों को आचरण में लाने के लिए हमें दायित्व और कर्तव्य की सीमाओं को समझना होगा। आंखों के सामने जो कुछ हो रहा है उसे सिर्फ देखना ही नहीं, अच्छे-बुरे का विवेक जगाना होगा।
15-जीवन जीने का क्या अर्थ है
          जीवन परमात्मा का प्रसाद होता है। इसे यों भी कह सकते हैं कि जीवन पूर्ण परमात्मा की आंशिक अभिव्यक्ति है। इसलिए हम मानते हैं कि हमारे अंतर्मन में परमात्मा निवास करता है। परमात्मा प्राणरूप में हमारे सूक्ष्म और स्थूल शरीर का संचालन करता है। इसलिए जीवात्मा को परमात्मा भी कहते हैं। हमारी आत्मा का कोई स्वरूप नहीं होता, यह अतिसूक्ष्म है, शक्तिरूप है। लेकिन जब कभी बाहर का प्रभाव अंतर्मन पर पड़ने लगता है, तो आत्मा की दिव्यता कम होने लगती है। इसीलिए हमारे साधक साधना करते हैं ताकि बाहर की विकृति अंतर्मन को दूषित कर सके। सच कहा जाए, तो हमारा जीवन एक महोत्सव है। यह आनंदस्वरूप है, केवल ध्यान रखने की आवश्यकता है कि हमारे आनंद के सागर में विकारों की लहरें उठें। इसलिए पतंजलि संयम, नियम, आसन, 0प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा और समाधि के अभ्यास की बात कहते हैं। ऐसा इसलिए, क्योंकि अगर जीवन को रसपूर्ण बनाना है, तो साधना की अग्नि में उसे तपाना पड़ेगा तभी जीवन को दिव्य बनाया जा सकता है। सामान्यत: लोग अपने ही विकारों से जीवन की दिव्यता को धूमिल बना लेते हैं क्योंकि सारे विकार स्वअर्जित होते हैं। अगर थोड़ी सी सतर्कता बरती जाए, तो हमारा जीवन आनंदपूर्ण बन सकता है।
          अनेक लोग अकारण निराशावादी बन जाते हैं, कई लोग तनावग्रस्त और चिंतित रहने लगते हैं। अगर इनके कारणों पर विचार किया जाए तो इनके तनाव और चिंता का कोई प्रबल कारण नहीं दिखता। अकारण चिंतित होकर कई लोग अपने जीवन के आनंद से वंचित रह जाते हैं। इसलिए प्रसन्न रहने का अभ्यास किया जाना चाहिए। संसार में केवल दुख है और सुख ही सुख है। हमारा दृष्टिकोण जैसा होता है, संसार उसी तरह दिखने लगता है। आशावादी व्यक्ति को चारों ओर प्रकृति की मुस्कान दिखती है और निराशावादी व्यक्ति को इस संसार में केवल कांटे ही दिखते हैं। हमें जीने का नजरिया बदलना होगा, हमें जीवन जीने की विधि सीखनी होगी, तभी हम जीवन का सार्थक उपयोग कर सकते हैं। जीवन का एक-एक पल कीमती है, आनंदपूर्ण है।

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