1-विपत्ति के समय मनुष्य की सबसे बड़ी योग्यता उसका धैर्य है
जो मनुष्य धार्मिक है या धर्मपथ पर है, उसमें क्या-क्या लक्षण होंगे? इस सवाल का जवाब एक संस्कृत श्लोक में आए शब्दों में निहित है। इन शब्दों के अर्थो में ही धर्म की वास्तविक परिभाषा निहित है।
इस क्रम में पहला शब्द 'धृति' है। इस शब्द के कई अर्थ हैं, लेकिन इसका प्रमुख अर्थ है धैर्य। मनुष्य के लिए किसी भी अवस्था में विचलित होना उचित नहीं है। विपत्ति के समय सबसे बड़ी योग्यता है-धैर्य। इसके बाद-क्षमा। क्षमा क्या है? किसी के प्रति प्रतिशोधमूलक मनोभाव न रखना ही क्षमा है। अगर मैं धार्मिक हूं तो मेरे लिए क्षमा करना ही उचित होगा।
'दम' शब्द का अर्थ है आत्म-शासन। संस्कृत शब्द 'शम' और 'दम' लगभग समपर्यायवाची हैं। 'दमन' हुआ स्वयं को शासित करना और शमन हुआ दूसरों पर शासन करना। धार्मिक व्यक्ति को अवश्य ही 'दमन' मनोभाव का होना चाहिए। इसके बाद हुआ-अस्तेय। यम-नियम में 'अस्तेय' शब्द शामिल है। अस्तेय शब्द का अर्थ है-चोरी नहीं करना। चोरी दो प्रकार की है-बाहर की चोरी और भीतर की चोरी। भीतर की चोरी से आशय मन ही मन चोरी करने का भाव लाने से है। इसलिए 'अस्तेय' का अर्थ है-किसी प्रकार की चोरी न करना। 'शौचम् का अर्थ है-शुद्ध रहना। असल में शौच का एक आशय है-मन को शुद्ध रखना। मन को स्वच्छ रखने का क्या उपाय है? प्रथम और एकमात्र उपाय सत्कर्मो में मन को व्यस्त करना है। इंद्रियनिग्रह के द्वारा क्या होता है? इंद्रियनिग्रह कर मनुष्य किसी कार्य में पूरे मनोयोग से अपनी ऊर्जा को केंद्रित कर सकता है। 'धी' का अर्थ है मेधा, बुद्धि। किसी ने हजारों-हजार किताबें पढ़ी हैं, परंतु वह सभी को याद नही रख सकेगा। अधिकांश को भूल जाएगा, यह स्वाभाविक है। मनुष्य की स्मृति अधिक दिनों तक कायम नहीं रह सकती है। साधना के द्वारा मनुष्य को इसे जगाना पड़ता है।
शब्द का वास्तविक अर्थ है धुव्रास्मृति। विद्या यानी जो ज्ञान मनुष्य को परमार्थ की ओर ले जाता है उसे ही विद्या कहते हैं। जो ज्ञान मनुष्य को अकल्याणकारी कार्यो को करने के लिए प्रेरित करता है उसे कहा जाता है-'अविद्या'। 'सत्यम' यानी लोगों के हित की भावना लेकर मनुष्य जो भी सोचेगा या बोलेगा वही सत्य है। इस क्रम में धर्म का अंतिम लक्षण है अक्रोध यानी क्रोध न करना।
2-अध्यात्म साधना का प्रवेश द्वार है स्वाध्याय
स्वाध्याय मस्तिष्क के लिए शक्तिवर्धक रसायन के सदृश है। इससे बुद्धि की निर्मलता बढ़ती है। अनुशासन की रक्षा और संशय की निवृत्ति होती है। जिन्हें स्वाध्याय रूपी रत्न मिल जाता है उनके लिए कुबेर का रत्नकोष भी आकर्षक नहीं रह जाता।
वाचन से विचारों में नवीनता आती है। श्रेष्ठ कृतियां प्रकाश स्तंभ हैं। स्वाध्याय के समान अन्य तप नहीं है। यह अध्यात्म साधना का प्रवेश द्वार है। भगवान श्रीकृष्ण ने स्वाध्याय को महायज्ञ बताया है। अध्ययन और स्वाध्याय में अंतर है। जब अध्ययन, स्वाध्याय के रूप में परिवर्तित होता है तो अध्ययन जीवन के लिए वरदान बन जाता है। अपने द्वारा अपना अध्ययन स्वाध्याय है।
स्वाध्याय का स्तर पढ़ने मात्र से ऊंचा है। यह सूक्ष्म अध्ययन की उत्कृष्ट विधि है। स्वाध्याय का उद्देश्य सद्साहित्य में वर्णित सच्चरित्रता को अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से धारण करना है। सत्य को जानने-मानने में स्वाध्याय सहायक है। चिंतन इसका अभिन्न अंग है। स्वाध्याय जीवन मंत्र है। यह कृतज्ञता की भावना लाता है। स्वाध्याय मन का संयम और सदाचार बढ़ाता है। यह अवगुणों को दूर कर सद्गुणों का समावेश करता है। साधना से नई ऊर्जा का जन्म होता है। भौतिकता मनुष्य को महान नहीं बनाती है, बल्कि यह हमारी लौकिक आवश्यकताओं की पूर्ति करती है। नैतिक मूल्यों से मानव जाना जाता है, इसलिए यह हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं।
धर्म के सप्तम लक्षण अर्थात् विमल बुद्धि की प्राप्ति का साधन स्वाध्याय है। मनु ने स्वाध्याय को सवरेत्तम तप माना है। स्वाध्याय पंच महायज्ञों में एक यज्ञ है। 'शतपथ ब्राह्मण' में योग के आठ अंगों में स्वाध्याय भी एक उपांग है। श्रेष्ठ पुस्तकों के पास रहने से मित्रों की कमी नहीं खटकती। स्वाध्याय से विनम्रता आती है। पंचकोशों के रहस्य को समझने में यह सहायक है। सच तो यह है कि विवेकपूर्ण जीवन जीने की कला स्वाध्याय से आती है। शांति पाने का एक अच्छा उपाय स्वाध्याय है। स्वाध्याय से विकसित चेतना नई दिशा पाती है। जीवन को जानने वाले बहुत कम हैं, पर उसे नष्ट करने वाले अधिक हैं। स्वाध्याय सार्थक जीवन जीने की प्रेरणा देता है। यह आत्म साक्षात्कार के लिए प्रेरित करता है।
3-मनुष्य के मन की शक्ति का कमाल
मन दो प्रकार का होता है। पहला चेतन व दूसरा अवचेतन। चेतन मन के द्वारा मनुष्य जाग्रत अवस्था में सोचता है और बाहरी दुनिया का अनुभव करता है। अवचेतन मन इन्हीं सब बातों को ग्रहण कर सुरक्षित रख लेता है। एक प्रकार से अवचेतन मन को आत्म तत्व के साथ जोड़कर देखा जाता है।
एक नियत परिस्थिति में अचानक प्रतिक्रिया इसी अवचेतन मन से आती है और इसी को आत्मशक्ति भी कहते हैं। दुनिया के सभी धर्म विश्वास के रूप हैं और विश्वास कई तरीकों से स्पष्ट किए जाते हैं। अपने जीवन और ब्रह्मंड के बारे में जैसा विश्वास होगा, मनुष्य को वैसा ही मिलता है। मनुष्य अगर विश्वास कर सके, तो उसके लिए हर चीज संभव है।
नेपोलियन को विश्वास था कि दुनिया में असंभव शब्द है ही नहीं और इसी विश्वास के चलते उसने बड़े-बड़े युद्ध जीते। जहां पर सकारात्मक विश्वास मनुष्य को सफलता दिलाता है, वहीं पर नकारात्मक व निराशाजनक सोच मनुष्य को असफलता, संदेह व आत्मविश्वास में कमी की ओर ले जाती है। आज चारों तरफ आपाधापी व स्वार्थपरायणता ने अनेक नौजवानों को नकारात्मक सोच की तरफ अग्रसर कर दिया है। जब यह सोच ज्यादा बढ़ जाती है, तो अवचेतन मन ऐसी स्थिति में उनसे आत्महत्या जैसा अपराध करा देता है। इससे यह सिद्ध होता है कि मनुष्य का अवचेतन मन शक्ति का भंडार है, जिसमें जैसा मनुष्य एकत्र करेगा, उसका कई गुना वह पाएगा। इसीलिए कहा गया है कि मन के हारे हार है और मन के जीते जीत। अमेरिका के डॉ. जोसेफ मर्फी ने शोध से पता लगाया कि यदि चेतन मन को विश्वास हो जाता है कि वह अब ठीक हो सकता है, तो अवचेतन मन उसे पूरा करने के लिए शक्ति पैदा करता है और अवचेतन मन के आदेश पर मस्तिक उसी प्रकार के हार्मोन पैदा करके उस कार्य को पूरा करता है।
ऐसी मान्यता है कि अवचेतन मन केवल वर्तमान जीवन को ही नहीं प्रभावित करते, बल्कि आत्मा के साथ दूसरे शरीर धारण के समय भी साथ रहता है। दूसरे जन्म में इसी अवचेतन मन के कारण व्यक्तित्व निर्माण व संस्कार प्राप्त होते हैं। इसीलिए यदि मनुष्य वर्तमान जीवन और अगले जीवन में आनंद चाहता है, तो उसे अपने चेतन मन व अवचेतन मन को सकारात्मक सोच व विचारों से परिपूर्ण करना होगा।
4-शरीर में प्राणवायु की पहचान कैसे करें
प्राणवायु से ही हमारा शरीर स्वस्थ रहता है, लेकिन मनुष्य जब बीमार पड़ जाता है, तब प्राणवायु का प्रवाह शरीर में कम होने लगता है। इस कारण शरीर कमजोर हो जाता है, उत्साह में कमी आ जाती है, थकान महसूस होने लगती है, आलस्य बढ़ जाता है, जीवन से मोह कम हो जाता है और कुछ भी अच्छा नहीं लगता।
दूसरी ओर शरीर में अगर प्राणवायु की विपुलता है तो चेहरा लावण्यपूर्ण हो जाता है, मन प्रसन्न रहता है, उत्साह बना रहता है। किसी भी काम को करने में मन लगता है। वह गीत गाता है, किसी से प्रेम करता है, मुस्कराता है, खेलता है और नाचने लगता है। इसका अर्थ है, उसके शरीर में प्राणवायु का निरंतर प्रवाह चल रहा है। इसी से प्राणवायु की पहचान होती है।
अब विज्ञान के आईने में इस प्राणवायु या प्राणशक्ति के संबंध में चर्चा की जाए। पहली बात तो यह है कि विज्ञान के पास प्राण को पहचानने का कोई यंत्र नहीं है। विज्ञान केवल पदार्थ का अध्ययन करता है। पदार्थ के अतिरिक्त वह कहीं झांक भी नहीं सकता। इसलिए विज्ञान के शिखर पुरुष आइंस्टीन को कहना पड़ा था कि धर्म के बिना विज्ञान लंगड़ा है और विज्ञान के बिना धर्म अंधा है, लेकिन मेरा मानना है कि विज्ञान जब धर्म को समझने में पूरी तरह असमर्थ है तो उसके बिना धर्म लंगड़ा कैसे हो सकता है। विज्ञान तो संभावना में जी रहा है। वह जो आज कह रहा है, कल उसकी बात कट जाएगी।
मशहूर विचारक ऑसपेन्सकी कहते हैं कि साधारण गणित के अनुसार दो और दो चार होता है। चार में से अगर चार घटा दिया जाए, तो शून्य बचता है, लेकिन एक महागणित भी होता है जिसमें पूर्ण से पूर्ण को घटा दिया जाए, तब भी पूर्ण ही बचता है। यह गणित विज्ञान को समझ में नहीं आता। प्राण को अगर समझना हो तो केवल अध्यात्म से ही समझा जा सकता है, क्योंकि उसके पास अनुभव है। विज्ञान के आंकड़ों से प्राण को नहीं समझा जा सकता। यह केवल अनुभव से समझा जा सकता है। सच पूछा जाए तो प्राण ऊर्जा को समझने की शक्ति विज्ञान में नहीं है। इसलिए जो प्राण को समझना चाहते हैं, उन्हें इसका उत्तर अध्यात्म से ही मिलेगा। प्राण ब्रह्मंाड का स्पंदन है। यह ब्रह्मांड ग्रहों व नक्षत्रों के माध्यम से सांस लेता है और मनुष्य भी अपनी सांसों के माध्यम से इस ब्रह्मंाड से जुड़ा है। प्राण के कारण ही जीव को प्राणी कहा जाता है।
5--अंधेरे से उजाले की ओर
स्वयं को जानकर और समझकर ही मनुष्य ऊंचाई की मंजिलों की तरफ बढ़ सकता है। ऐसा इसलिए, क्योंकि हम एक परमपिता परमेश्वर की संतान हैं, उसके अंश हैं, परंतु आज हर व्यक्ति भाग रहा है, एक जगह से दूसरे जगह की ओर। व्यक्ति शायद स्वयं को खोज रहा है, क्योंकि उसने स्वयं को खो दिया है।
स्वयं के साथ संबंधों को तोड़ लिया है और अब उसे ही खोज रहा है। यदि आप अपने आस-पास के हर व्यक्ति की तरफ ध्यान देंगे, तो सबमें यही बात नजर आएगी। हर व्यक्ति स्वयं को भूलकर एक व्यर्थ की दौड़ में भागता जा रहा है। वह स्वयं को भूल गया है कि आखिर वह है कौन? क्या खोज रहा है, कहां खोज रहा है? उसे स्वयं पता नहीं, परंतु फिर भी हरेक से पूछ रहा है, हरेक के बारे में पूछ रहा है।
आज आवश्यकता इस झंझावात से निकलने और स्वयं के अस्तित्व को समझने की है। यात्रा हो, परंतु शून्य से महाशून्य की ओर, परिधि से केंद्र की, अज्ञान से ज्ञान की ओर, अंधकार से प्रकाश की ओर, असत्य से सत्य की ओर। स्वयं के अस्तित्व को तलाश कर ही हम जीवन के सही मूल्यों को समझ सकेंगे।
हम प्राय: ही अपना जीवन कंकड़-पत्थर बटोरने में गंवा देते हैं। सत्ता, संपत्ति, सत्कार आदि सब कुछ पाकर भी अंतत: शून्य ही हाथ लगता है। तो हम क्यों न आज ही जाग जाएं, उठ खड़े हों। स्वयं की खोज करके अपनी अंतरात्मा को प्रकाशित करें। हम बहिमरुखी हैं, अंतमरुखी नहीं। बस, यही हम सबको समझना है। स्वयं को समझकर ही हम उस एक परमात्म तत्व में विलीन हो सकते हैं। परमपिता परमेश्वर के प्रति हम कृतज्ञता तक ज्ञापित नहीं करते, जिसने अपनी परम कृपा से हमें अपना ही अंश बनाकर इस धरा पर मनुष्य रूप में भेजा है।
यदि हम स्वयं के प्रति थोड़ा-सा सचेत हो जाएं, तो बात बनते देर नहीं लगेगी। आइंस्टीन जैसा महान वैज्ञानिक ही नहीं, बल्कि तमाम ऐसे लोग जिन्होंने जीवन में कुछ गौरवशाली कार्य किए हैं, वे सभी स्वयं के अंदर निहित अथाह सागर को समझने और मापने की बात करते हैं। जो कृत्रिमता से कोसों दूर हो, जहां हो एक गहन शांति। शांति मिलती है, कामनाओं को शांत करने से। जीवन मात्र चलते रहने का नाम नहीं है, बल्कि जीवन में कुछ अच्छा कर गुजरने का नाम जिंदगी है। इसे जानकर ही आगे बढ़ना सही अर्थो में जीवन की सार्थकता है।
6-क्षमाशीलता व्यक्ति का उत्तम आभूषण है
क्षमा एक ऐसा आभूषण है, जो किसी के व्यक्तित्व में चार चांद लगा देता है। क्षमा करना बहुत मुश्किल कार्य है, खास तौर पर उस समय, जब आप शक्तिशाली हों और किसी का नुकसान करने में सक्षम हों। एक दीन-हीन व्यक्ति को समय-समय पर अपमानजनक स्थितियों से गुजरना पड़ता है।
अपमान को नजर अंदाज करना कमजोर व्यक्ति की मजबूरी होती है , परंतु क्रोध का शमन कर लेना शक्तिशाली व्यक्ति की क्षमाशीलता की पहचान है। महात्मा गांधी का जीवन इसका जीवंत उदाहरण है। प्रतिशोध की भावना मानव स्वभाव का अंग है। क्षमाशीलता से ही इसका नियंत्रण संभव है।
अच्छे संस्कार क्षमाशीलता को पुष्पित और पल्लवित करते हैं परंतु यदा-कदा कड़ी परीक्षा में सब कुछ धरा रह जाता है । संस्कारों की शीतलता भी प्रतिशोध की आग को नियंत्रित नहीं कर पाती। ऐसे में प्रभु की शरण में जाना ही बेहतर होता है और विश्व की विराटता में अपने क्षुद्र अस्तित्व को देखना होता है, मृत्यु की अनिवार्यता पर विचार करना और समय की गतिशीलता के बारे में भी सोचना होता है। क्षमाशीलता का अभ्यास करते रहना चाहिए। अभ्यास करते रहने से परीक्षा की घड़ी में हम अपना आपा नहीं खोते हैं। समय बीतने के साथ-साथ उस क्षण का आवेश ठंडा हो जाता है और हम असहज स्थितियों से बच जाते हैं। इसलिए आवश्यक है कि हम अपने मन को नियंत्रण में रखने की कोशिश करें और आवेश को खुद पर हावी न होने दें।
जो क्रोध के प्रभाव में आ जाता है उसका अहित होना निश्चित है। कभी-कभी जिसे क्षमा किया जाता है, वह ऐसा आभास देता लगता है कि उसने तो होशियारी से क्षमा प्राप्त कर ली। अपना उल्लू सीधा करने के लिए उसने हमें बेवकूफ बना दिया। ऐसी मन: स्थिति में नेकी कर कुएं में डाल वाली कहावत पर घ्यान देना चाहिए। यह सोचना चाहिए कि चलो हमने तो अपना काम सही किया। हमें किन्हीं अपेक्षाओं के बगैर क्षमा के गुण का विकास करना चाहिए। क्षमाशील दिखने और होने में बहुत फर्क है। क्षमाशील होने में जो परमानंद है, वह अकल्पनीय है। यह वही जानता है, जो वास्तविक रूप में क्षमाशील है। सात खून माफ नहीं किए जाते हैं और जो करने की ताकत रखता है, वही क्षमावान और प्रभु के बहुत नजदीक है।
7-सृजन और संहार प्रकृति के नियम हैं
विकार अपने आप में बुरे नहीं हैं। सवाल है उनसे जुड़ने का। देव से जु़ड़कर वे सद्गुण बन जाते हैं और दानव से जुड़कर दुर्गूण। यह वैसे ही होता है जैसे जल नाली में गिरने से गंदा और गंगा में मिलने से निर्मल हो जाता है। ब्रह्म को सृष्टिकर्ता कहा जाता है।
भगवान कृष्ण स्वयं गीता में कहते हैं 'मैं इच्छाओं में काम हूं।' यही उदात्तकाम परमात्मा से जुड़कर भक्ति बन जाता है, परंतु जब यही काम वासना के कीचड़ में फंसता है तो अनर्थकारी व्यभिचार का रूप ले लेता है। जहां राम का काम लोकमंगल का कारण बनता है वहीं रावण का काम सर्वनाश का कारण।
विष्णु से जुड़ते ही लोभ सकल ब्रह्मांड का पालक बन जाता है। मितव्ययी समाज के लिए कुछ कर गुजरता है और र्दुव्यसनी स्वयं मिट जाता है। कंजूस का गड़ा हुआ धन किस काम का? धन परमात्मा की विभूति है। इसलिए इसे लोकसंग्रह के क्षेत्र में निरंतर बहते रहना चाहिए। हम धन के मालिक न होकर उसके 'ट्रस्टी' हैं। व्यक्ति केंद्रित धन शोषण को बढ़ावा देता है। इसे असुरों के हाथ में नहीं होना चाहिए। कुबेर का खजाना देवताओं के अभ्युदय के लिए था। जब वह रावण के हाथ में चला गया तो संतों का उत्पीड़क बन गया।
शंकर को क्रोध का देवता माना जाता है। नवसृजन के लिए ध्वंस जरूरी है। सृजन और संहार, दोनों सृष्टि के विधान के अंतर्गत हैं। असंयमित काम को अनुशासित करने के लिए शिव को तीसरा नेत्र खोलना पड़ा था। राजा बलि के दंभ को मिटाने के लिए भगवान को वामन का रूप धारण करना पड़ा था। काम और लोभ पर विजय हासिल करने वाले परशुराम के क्रोध के शमन के लिए भगवान राम को झुकना पड़ा था। काम, लोभ और क्रोध की वृत्तियां जब वासनाजन्य इच्छाओं को तृप्त करने में लग जाती हैं तब समाज के चारों ओर अनर्थ घटने लगता है। काम और लोभ क्रियाएं हैं और क्रोध इनकी तीखी प्रतिक्रिया है। यानी काम और लोभ की अतृप्त वृत्तियां क्रोध को जन्म देती हैं। नारद में कामजन्य क्रोध है तो कैकेयी में लोभजन्य क्रोध। नारद भगवान को बुरा-भला कहते हैं। चूंकि देवर्षि नारद भगवान के भक्त हैं इसलिए वह अपनी करुणा से उन्हें काम की जकड़ से मुक्त कर देते हैं। राम ने भरत को सन्निपात का सबसे बड़ा वैद्य माना। भरत ने राज्य न लेकर लोभ को जीता, मंथरा को क्षमा करके क्रोध को जीता और नंदी ग्राम में तपस्या करके काम को जीता।
8-धर्म नित्य पवित्र होने का संकल्प है
मनुष्य में अपने भावों को पहचानने की अपूर्व क्षमता है। अपने आचरण में वह संस्कार जन्य है, विकासमान है। उसमें ग्रहण करने और त्याग करने की योग्यता है। मनुष्य प्रकृतिबद्ध नहीं है। वह प्रकृति को अपने अनुकूल बनाता है। पशु-पक्षी प्रकृति के अनुकूल होकर रहते हैं। वे केवल अपने को देखते हैं। अपने स्वार्थ के लिए कुछ भी कर सकते हैं। प्रभुत्व की स्थापना का लोभ मनुष्य को पशु-तुल्य बना देता है, जहां वह अपने गुणों से विमुख हो जाता है। यह उसका विकार है, रोग है।
धर्म नित्य-नव्य होने की प्रेरणा है। अपने गुण में प्रतिष्ठित होने का पवित्र संकल्प है। विगत और वर्तमान में समस्त बाधाओं को छोड़कर ही नव्य में प्रवेश संभव है। प्रत्येक जीव, वस्तु और पदार्थ हर क्षण बीत रहा है, नया आ रहा है, यही विद्यमानता है। इस आने-जाने और रहने के स्वभाव के साथ तन्मय होकर जीना ही धर्म को जीना है।
धर्म बतलाता है कि हमें इस तरह जीने की आदत डालनी चाहिए जिससे हमारे अंत:करण में अशांति, क्षोभ, असंतोष जैसी कोई चीज पैदा न हो, क्योंकि ये सब चीजें जीवन-रस को नष्ट करने वाली हैं। जीवन-रस आत्मा की खुराक बनकर उसे पोषण देता है। भौतिक विज्ञान पदार्थो को देखता है। प्रकृति का दोहन कर सुविधाओं का विस्तार करते जाना ही उसकी उपलब्धि है।
धर्म यथार्थ को देखता है, मूलभूत शाश्वत मूल्यों की आधार-शिला पर प्रकृति को देखना, समझना और तदनुकूल आचरण करना ही धर्म का लक्षण है। धर्म जीवन का गुण है, स्वभाव है जो सदैव विद्यमान रहता है। गुण में अपना ज्ञान, समझ और प्राण नहीं है, वह गुण अपने लक्षणों में प्रकट होता है। कोई भी वस्तु अपने लक्षण से अलग नहीं हो सकती। गुण पर आवरण आ सकते हैं, दबे भी रह सकते हैं, पर समाप्त नहीं होते। अपनी कामनाओं को कायम रखते हुए जीवन के यथार्थ को समझा नहीं जा सकता। धर्म दीपक में ज्योति की तरह है। च्योति की रक्षा करनी होती है, वैसे ही सत्य की रक्षा करनी होती है। कुछ अनीश्वरवादी लोगों ने धर्म को अफीम करार दिया है, लेकिन धर्म कभी मूच्र्छा नहीं देता। सूर्य प्रकाश में प्रगट होता है, धर्म भी अपने गुणों में प्रगट होता है। धर्म झरने की तरह गतिशील है, इसी कारण नित्य-नूतन है।
9-जिंदगी के मायने क्या हैं?
आप अपनी जिंदगी किस तरह जीना चाहते हैं? यह तय करना जरूरी है। आखिरकार जिंदगी है आपकी। यकीनन, आप जवाब देंगे-जिंदगी को अच्छी तरह जीने की तमन्ना है।
यह भाव, ऐसी इच्छा इस तरह का जवाब बताता है कि आपका मन सकारात्मकता से परिपूर्ण है, लेकिन यहां एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठता है-जिंदगी क्या है, इसके मायने क्या हैं? इसका यही निष्कर्ष सामने आया है कि दूसरों के भले के लिए जो सांसें हमने जी हैं वही जिंदगी है, पर कोई जीवन अर्थवान कब और कैसे हो पाता है, यह जानना बेहद आवश्यक है।
दरअसल, जीवन एक व्यवस्था है। ऐसी व्यवस्था, जो जड़ नहीं चेतन है। स्थिर नहीं, गतिमान है। इसमें लगातार बदलाव भी होने हैं। जिंदगी की अपनी एक फिलासफी है, यानी जीवन-दर्शन। सनातन सत्य के कुछ सूत्र, जो बताते हैं कि जीवन की अर्थवत्ता किन बातों में है। ये सूत्र हमारी जड़ों में हैं। जीवन के मंत्र ऋचाओं से लेकर संगीत के नाद तक समाहित हैं। हम इन्हें कई बार समझ लेते हैं, ग्रहण कर पाते हैं तो कहीं-कहीं भटक जाते हैं और जब-जब ऐसा होता है, जिंदगी की खूबसूरती गुमशुदा हो जाती है। हम केवल घर को ही देखते रहेंगे तो बहुत पिछड़ जाएंगे और केवल बाहर को देखते रहेंगे तो टूट जाएंगे। मकान की नींव देखे बगैर मंजिलें बना लेना खतरनाक है, पर अगर नींव मजबूत है और फिर मंजिल नहीं बनाते तो अकर्मण्यता है। केवल अपना उपकार ही नहीं परोपकार भी करना है। अपने लिए नहीं दूसरों के लिए भी जीना है। यह हमारा दायित्व भी है और ऋण भी, जो हमें समाज और अपनी मातृभूमि को चुकाना है।
परशुराम ने यही बात भगवान कृष्ण को सुदर्शन चक्र देते हुए कही थी कि वासुदेव कृष्ण, तुम बहुत माखन खा चुके, बहुत लीलाएं कर चुके, बहुत बांसुरी बजा चुके, अब वह करो जिसके लिए तुम धरती पर आए हो। परशुराम के ये शब्द जीवन की अपेक्षा को न केवल उद्घाटित करते हैं, बल्कि जीवन की सच्चाइयों को परत-दर-परत खोलकर रख देते हैं। हम चिंतन के हर मोड़ पर कई भ्रम पाल लेते हैं। प्रतिक्षण और हर अवसर का महत्व जिसने भी नजरअंदाज किया, उसने उपलब्धि को दूर कर दिया। नियति एक बार एक ही क्षण देती है और दूसरा क्षण देने से पहले उसे वापस ले लेती है। याद रखें, वर्तमान भविष्य से नहीं अतीत से बनता है।
10-हमारा मन हमारे शरीर का राजा है
मन हमारी इंद्रियों का राजा है। उसी के आदेश को इंद्रियां मानती हैं। आंखें रूप-अरूप को देखती हैं। वे मन को बताती हैं और हम उसी के अनुसार आचरण करने लगते हैं। आशय यह है कि हम मन के दास हैं। गलत काम करने को मन करता है और हम उसे करने लगते हैं। गलत काम कराते समय मन हम पर हावी हो जाता है। काम कराकर वह भाग जाता है और जब हमें होश आता है, तब लगता है कि ऐसा गलत काम कैसे कर लिया। यही पछताने वाली हमारी आत्मा है और गलत काम कराने वाला हमारा मन है।
संत व महापुरुष मन को वश में करने का प्रयास करते हैं, ताकि वे मन के पार जा सकें, क्योंकि जब तक मनुष्य मन के प्रभाव में दबा रहेगा, तब तक वह आत्म तत्व में अवगाहन नहीं कर सकेगा। परमात्मा तक पहुंचने के लिए आत्मा का ही मार्ग है। ऐसा इसलिए क्योंकि आत्मा और परमात्मा एक ही हैं। आत्मा परमात्मा का लघु रूप है और परमात्मा आत्मा का विस्तार है। इसलिए दोनों दृश्य नहीं हैं, सूक्ष्म हैं। जो भी भावरूप होता है, वह सूक्ष्म होता है, अनुभवगम्य होता है जैसे प्रेम, करुणा, दया, वात्सल्य आदि भाव। मन को केवल अनुभव किया जा सकता है। आप अनुभव कर सकते हैं कि आप प्रेम करना चाहते हैं या घृणा चाहते हैं। आश्चर्य की बात है कि मन अधिकतर मामलों में हमेशा नीच कर्म की ओर ही प्रेरित करता है, क्याेंकि वह इंद्रियों का राजा है।
इंद्रिया अपने राजा मन से भोग मांगती हैं। आंख को सुंदर रूप देखने का मौका मिले, जीभ को स्वाद मिले, हाथ को स्पर्श सुख चाहिए। सभी इंद्रिया अपना भोग-विलास मन से मांगती हैं। मन को इनकी मांगें पूरी करनी पड़ती हैं। इसलिए यह चंचल रहता है, चारों ओर भागता रहता है। इस स्थिति में मन को स्थिर करना कठिन हो जाता है। इसी चंचलता के कारण मन विवेक को त्याग देता है। मन महास्वार्थी है, उसे भोग चाहिए। अगर वह विवेकशील बन जाए, तो इंद्रियों की जो अनैतिक मांगें हैं, उन्हें कैसे पूरा कर सकता है? विवेक उसे गलत काम नहीं करने देगा इसलिए मन के साथ विवेक कभी नहीं रहता। मन और विवेक का बैर है। मनुष्य ज्यों ही विवेकी बन जाता है, वह मन के पार चला जाता है। इसी को संयम कहते हैं।
11-मनुष्य के विवेक की उपयोगिता
भारतीय संस्कृति का मूलाधार अनुभूतियां हैं। इस संस्कृति ने सिद्धांत का निरूपण किया, परंतु सिर्फ इतने तक ही अपने को सीमित नहीं रखा। ज्ञान को अनुभूत किया यानी सिद्धांत को व्यावहारिक जीवन में उतारा। यही कारण है कि भारतीय संस्कृति आज तक जीवंत है। जिसकी कथनी और करनी में अंतर नहीं होता, वही समाज में आदर के योग्य बनता है।
इसलिए कहा गया है कि गुणवान की हमेशा पूजा होती है। इन दिनों मानवीय मूल्यों का ह्रास हो रहा है। नैतिकता चरमरा रही है और इंसानियत की नींव कमजोर पड़ती जा रही है। चारों ओर भौतिकतावादी मूल्य छा गए हैं। यही वजह है कि विविध प्रकार की विकृतियों से मानव, समाज और राष्ट्र आक्त्रांत हो गया है।
भारतीय संस्कृति में एकता, सत्य, उदारता, अन्याय के खिलाफ संघर्ष, साहस, सच्चरित्रता, निस्पृहता, सहानुभूति, संवेदना और समन्वयवादी दृष्टिकोण निहित हैं। इन्हीं सद्गुणों के आधार पर मनुष्य, मनुष्य बना रह सकता है और राष्ट्र विश्व के समक्ष आदर्श उपस्थित कर सकता है।
कोई भी आदमी फरिश्ता नहीं होता। विशेषताओं के साथ कमियों की संभावनाओं को नकारा नहीं जा सकता। आचार्य श्रीमहाप्रज्ञ ने कहा है कि जब व्यक्ति अपने आपको नहीं देख पाता, तब हजारों-हजार समस्याएं पैदा होती चली जाती हैं। इनका कहीं अंत नहीं होता। गरीबी की समस्या हो, मकान और कपड़े की समस्या हो या अन्याय व उत्पीड़न, ये सब गौण समस्याएं हैं। ये पत्तों की समस्याएं हैं, जड़ की नहीं। पतझड़ आता है, सारे पत्ते झड़ जाते हैं। वसंत आता है और सारे पत्ते आ जाते हैं, वृक्ष हरा-भरा हो जाता है। यह मूल समस्या नहीं है। मूल समस्या यह है कि व्यक्ति अपने आपको नहीं देख पा रहा है। उसके पीछे ये पांच कारण काम कर रहे हैं- मिथ्या दृष्टिकोण, असंयम, प्रमाद, कषाय और चंचलता। जैन दर्शन के अनुसार यही पांच मूल समस्याएं हैं। यही वास्तव में दुखों का कारण हैं और दुखों का चक्र भी। जब तक दुख के इस चक्र को नहीं तोड़ा जाएगा, तब तक जो सामाजिक, मानसिक और आर्थिक समस्याएं हैं, उनका सही समाधान नहीं हो पाएगा। समय-सापेक्ष जीवन मूल्यों को आचरण में लाने के लिए हमें दायित्व और कर्तव्य की सीमाओं को समझना होगा। इसके लिए हमें विवेक जाग्रत करना होगा।
12-बुद्धिबल और शरीर बल में बडा कौन
नीतिशास्त्र का एक कथन है कि जिसमें बुद्धि है, उसमें बल है। निरबुद्धि में बल कहां से आ सकता है? जो जितना बुद्धिमान है, वह उतना ही बलवान है। इसी बुद्धि के कारण मनुष्य-मनुष्य के बीच अंतर दिखाई देता है। जिसमें जितना अधिक बुद्धि-तत्व है, वह उतना ही सफल व्यक्ति बन जाता है।
एक कहावत है कि अक्ल बड़ी या भैंस? निश्चय ही शारीरिक बल से बुद्धिबल बड़ा होता है। हर व्यक्ति विद्या व बुद्धि की शक्ति से संपन्न नहीं होता, किन्हीं बिरलों को ही यह ज्ञान-संपदा मिलती है। ऐसे लोग जिन्हें विशिष्ट बुद्धिबल प्राप्त है, वे दूरदर्शी हुआ करते हैं। जिन्होंने विस्तृत अध्ययन किया हुआ है।
वही असाधारण कार्य करने की क्षमता रखते हैं। इसके विपरीत जिन्हें कम बुद्धिबल प्राप्त है, वे छोटी-छोटी अड़चनों से ही घबरा जाते हैं और कभी-कभी अपने प्राण तक गंवा बैठते हैं। आए दिन तरह तरह के दुख भोगा करते हैं। अगर एक विशेष पहलू से देखें, तो मनुष्य अन्य जीव-जंतुओं की तुलना में पिछड़ा हुआ है। जैसे पक्षियों की तरह वह आकाश में उड़ नहीं सकता, कछुओं और मछलियों की तरह जल में किल्लोल नहीं कर सकता। हिरन और घोड़े की तरह दौड़ नहीं सकता, हाथी के बराबर बोझ नहीं ले जा सकता, सिंह जैसा बलवान नहीं है, उल्लू व चमगादड़ की तरह रात्रि में देख नहीं सकता।
इतना निर्बल व पिछड़ा होते हुए भी वह अन्य समस्त जीव-जंतुओं से अधिक ताकतवर है। वह सृष्टिकर्ता विधाता की अनुपम रचना है।
बुद्धि बल से आज का इन्सान नई-नई खोज करके मानव सभ्यता को श्रेष्ठतम ऊंचाइयों पर पहुंचाने की कोशिश में लगा है। उसका बुद्धि बल ही उसे साधारण मानव से महान बना रहा है। इसी बुद्धिबल से हम सब निकलकर समाज में व्याप्त बुराइयों को सरलता से दूर कर सकते हैं। हर इंसान का उद्देश्य अज्ञान के अंधकार में डूबे लोगों को आलोक प्रदान करना होना चाहिए। दीन-दुखियों की पीड़ा को समझकर उनका निवारण करना चाहिए। इन्हीं महान उद्देश्यों की पूर्ति के लिए अनकानेक धर्मो और धर्मग्रंथों की रचना की गई है। ये धर्मग्रंथ ही श्रेष्ठ पथ पर अग्रसर करने में हमारा मार्गदर्शन करते रहे हैं। सभी श्रेष्ठ कर्म बुद्धि बल के द्वारा ही संभव हैं।
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