Wednesday, August 8, 2012

आध्यात्मिक तत्वों के भाव

 

        कुछ तथ्यों का प्रयोग हम अपने दैनिक जीवन में करते हैं,जिनके प्रति हमें सदा भ्रॉति रहती है। अगर शास्त्रों का अध्ययन करें तो उनके भावों का विश्लेषण व्यापक है, मगर उनके भाव को संक्षिप्त रूप में हम आपके सामने रखने का प्रयास करेंगे -

1-स्वर्ग-
    यह मन की उच्च अवस्था है।उच्च भोग।

2-नरक-
दुःख,संताप,ग्लानि। यह मन की निम्न अवस्था है।

3-स्वर्ग प्राप्ति का साधन-
        सद्कर्म ही स्वर्ग प्राप्ति का साधन है।कर्मों की गति स्वर्ग से आगे नहीं होती है।

4-लोक-
        यह समष्टि मन के परत का नाम है। लोकों को सात बताया गया है-1-भू लोक,-(भौतिक जगत)2- भुवर्लोक-(स्थूल मानस जगत)3- स्वर्लोक-(सूक्ष्म मनस अवस्था)4-महर्लोक-(अति मानस जगत)5-जनर्लोक-(अति उन्नत मनसातीत जगत)6-मह जन तप लोक-(मन कारण अवस्था में तथा शरीर सूक्ष्म रूप में) 7-सत्य लोक-(शरीर कारण अवस्था में) ।लोकों की रचना सूक्ष्म से स्थूल की ओर होती है। सबसे सूक्ष्म लोक सत्य लोक है।जिसे ब्रह्मलोक भी कहते हैं तथा सबसे स्थूल भूलोक है।

5-स्वर्गलोक से आगे जीवन मुक्त लोक-
        इस लोक में कुछ सिद्ध महात्मा ही जा सकते हैं। जीवन्मुक्त पुरुष ही इसमें प्रवेश करते हैं।


6- तरंगें क्या हैं?-
        इस ब्रह्मॉड में तीन तरह की तरंगों का समन्वय होता है-भौतिक,मानसिक औरक आध्यात्मिक। होती हैं


7-तन्मात्रा क्या है?-
        तरंगों में भौतिक तरंग ही तन्मात्रा है,जोकि हमारी ज्ञानेंद्रियों द्वारा ग्रहण किया जाता है।


8- पच्च महॉभूत-
        हमारे समष्टि चित्त के ऊपर तमोगुण के प्रभाव के कारण आकाश का निर्मॉण हुआ ।इसी प्रभाव से वायु का निर्मॉण हुआ। और वायु के घर्षण से अग्नि,अग्नि से जल तथा जल से पृथ्वीकी उत्पत्ति हुई जोकि सबसे अधिक ठोस स्वरूप हैष इन्हीं पॉचों मूल घटकों को पमच महॉभूत कहा जाता है।


9-भूत-
        जो सृजित हो गया अर्थात अस्तित्व में गया। ये भूत भी पॉच मानेगये हैं-आकाश,वायु,अग्नि,जल और पृथ्वी और इनके मूल घटक को पंचमहाभूत कहते हैं।

10- अहम और अहंकार में अन्तर-
        इस सृष्टि में सभी कर्म प्रकृति के गुणों के अनुसार होता है,लेकिन मैं कर्ता हूं ऐसा मानना ही अहंकार है,जोकि सिर्फ अज्ञान मात्र है।

11-संचरण प्रति संचरण-
        एक से अनेक की ओर जाने की प्रवृत्ति को संचरण,इसमें रूपों का निर्मॉण होता है। और अनेक से एक की ओर चलने की धारा प्रतिसंचरण कहलाती है।

12- मन की गतिशीलता-
मन की गतिशीलता तीन बातों पर निर्भर है-भौतिक संघर्ष,मानसिक संघर्ष, और अभिलाषा।

13-ब्रह्म क्या है?-
        इस, सम्पूर्ण जड-चेतनात्मक जगत का मूल तत्व है। शिव और शक्ति या पुरुष और प्रकृति के मिश्रित भाव को ब्रह्म कहते हैं।शिव को चैतन्य,या चित्ति शक्ति या मूल शक्ति भी कहते हैं। और इसी को ईश्वर और माया कहते हैं।


14-जड और चेतन शक्ति-
        ये दोनों एक ही ब्रह्म की दो परिस्थितियॉ हैं। अनमें भिन्नता अज्ञानताके कारण दिखाई देता है।

15-ईश्वर क्या है?-
        माया की उपाधि से युक्त उस चैतन्य तत्व को ही ईश्वर या भगवान कहते हैं।

16-ब्रह्म और ईश्वर में अन्तर-
        ब्रह्म निर्गुण अवस्था में रहता है जबकि ईश्वर उसी का सगुण रूप है।

17-क्या ईश्वर भी बन्धन में होता है?-
        माया शक्ति के आवृत होने से ईश्वर भी बन्धन में है।जिस प्रकार एक सिपाही किसी कैदी को बॉधता है तो वह भी उस कैदी से बंध जाता है।इसी प्रकार ईश्वर भी माया शक्ति से बंध जाता है।इसीलिए उसे ईश्वर कहा गया,वरना वह तो ब्रह्म है।

18-पुरुष तत्व क्या है?-
        प्रत्येक सत्ता में निहित साक्षी भाव को पुरुष कहते हैं। ईश्वर का अंश होने से वह पुरुष तत्व(आत्मा) भी चतैतन्य है,जो कि इस प्रकृति और विकृति से परे है।

19-पुरुष और चैतन्य में अन्तर-
        पुरुष चैतन्य और प्रकृति जड है।प्रकृति तो उस पुरुष की शक्ति है।

20- क्या ब्रह्म को देख सकते हैं-
        यह ब्रह्म कोई व्यक्ति जैसा नहीं है कि जिसे देख सकते हैं,उसकी तो अनुभूति होती है।

21-ब्रह्म ऋष्टि रूप में क्यों है?-
        ब्रह्म की दो प्रकृतियॉ हैं-जड और चेतन ।जड से सृष्टि का विस्तार और चेतन से चेतन से-जीव सृष्टि का विस्तार होता है। उपनिषदों में तो इनहीं को परा और अपरा प्रकृति कहा गया है।

22-भगवद् कृपा कब होती है?-
        पुरुषार्थ की एक सीमा है, जिससे पात्रता आती है।इसके बाद भगवतद् कृपा ही ईश्वर प्राप्ति का मुख्य कारण है।

23-अज्ञान से मुक्ति-
        प्रत्यक्ष दर्शन से।

24-चेतनाशक्ति में वृधि-
        ज्ञान में वृधि चेतनाशक्ति में वृधि का गुण है।

25-आदि और अनादि-
        आदि का अर्थ है उससे पहले भी कुछ था,जिससे उसका आरम्भ हुआ। और अनादि का अर्थ है जिसके पहले कुछ नहीं था।बस वही एक मात्र था।

26-अन्त और अनन्त-
       अवन्त का अर्थ है,उसके बाद भी कुछ है। और अनन्त का अर्थ है जिसका कोई अन्त नहीं है।सभी पदार्थ आदि और अन्त वाले हैं,जबकि यह अस्तित्व अनादि और अनन्त है,इसी का नाम तो ब्रह्म है।उसी को माया कहते हैं।लेकिन माया सीमित है ब्रह्म असीमित।

27-प्रकृति क्या है?-
        प्रकृति अर्थात शक्ति,यह तो पुरुष का विशेष धर्म है।प्रकृति भिन्नता का सृजन करती है। प्रकृति तो विरोधी संघर्षशील शक्तियॉ हैं।

28-प्रॉणशक्ति-
        यह जैव ऊर्जा(वायो एलेक्टिसिटी) है, जिससे पदार्थ में हल-चल गति पैदा होती है। पदार्थ में जीवन का यही मुख्य कारण है।

29-आत्मा-
        जीव में परमात्मा का जो प्रतिबिम्ब हैउसे आत्मा कहा गया है।

30-आत्मा और परमात्मा में अन्तर-
        दोनों एक ही सत्ता अलग-अलग नाम हैं।शरीर चेतना का नाम आत्मा है तथा समष्टि चेतना का नाम परमात्मा है।

31-जीवन-
        मानसिक और भौतिक तरंग की सामान्तरता ही जीवन है।

32-मृत्यु-
        भौतिक और मानसिक तरंग की सामान्तरता का नष्ट होना मृत्यु है।

33-मृत्यु के कारण-
        तीन कारण हैं-1-भौतिक कारण2-मानसिक कारण3-आध्यात्मिक कारण।

34-क्षर क्या है?-
        जिसका क्षरण होता है।प्रकृति।जिसका रूप बदलता रहता है।

35-जीवात्मा को अक्षर क्यों कहते हैं?-
        जिसका क्षरण नहीं होता है, वही जीवात्मा अक्षर है।

36-ईश्वर और जीव मे भेद-
        जिस प्रकार माया के कारण ब्रह्म और ईश्वर में भेद दिखता है,उसी प्रकार अविद्या रूपी उपाधि के कारण जीव और ईश्वर में भी भेद होता है।

37-जीवन का भौतिक कारण क्या है?-
        सहवास के समय जब सुक्रॉणु और अण्डे का मिलन होता है तो भौतिक संरचना-शरीर का निर्मॉण होता है।

38-पदार्थ में जीवन का विकास कैसे?-
        जब पॉच घटक आवश्यक अनुपात में और अनुकूल वातावरण हो तो पदार्थ में जीवन का विकास होता है।

39-प्रकृति क्या है?-
        प्रकृति का अर्थ उसका ऐसा स्वभाव जैसे अग्नि का स्वभाव गर्म है या वर्फ का स्वभाव शीतल है इसी प्रकार प्रकृति का स्वभाव ब्रह्म का स्वभाव है।

40-प्रकृति के तीनों गुणों के कार्य-
        1-सतोगुंण के कारण मैं का बोध होता है। इसी से उसे अपने स्तित्व का बोध होता है।2- रजोगुंण क्रिया शक्ति है।वह मैं भाव को कर्तापन में परिवर्तित करता है।3-तमोगुँण जडता प्रदान करने वाली शक्ति है। इससे मैने किया का भाव उत्पन्न होता है।

41-सृष्टि का निर्मॉण-
        प्रकृति और पुरुष के संयोग से ही सृष्टि निर्मॉण का निर्मॉण होता है। कोई भी ईश्वर स्वयं सृष्टि की रचना निर्मॉण नहीं करता बल्कि उसकी योजना के अनुसार इसका क्रमिक विकास होता है। जब पुरुष पर सतोगुंण का प्रभाव पडता है तो उस पुरुष में मैं पन का बोध होता है।बस यही उसके विकास का प्रथम चरण है जिसे महत् भी कहा जाता है।

42-अहम तत्व-
        जब महत् पर रजोगुंण का प्रभाव पडता है तो महत् का कुछ अंश रूपॉतरित होकर अहम् तत्व बन जाता है जिसमें कि कर्तापन का भाव पैदा होता है जो कि अहम तत्व है।

43-पुरुष और प्रकृति के संयोग का कारण-
        ये संयोग तो अनादि हैं। दोनों अलग-अलग रह ही नहीं सकते हैं।प्रकृति में पुरुष हमेशा विद्यमान रहता है और पुरुष में प्रकृति विद्यमान रहती है।दोनों साथ-साथ मित्रभाव से रहते हैं।जिस प्रकार गुंण को गुंणी से अलग नहीं किया जा सकता है,उसी प्रकार प्रकृति को पुरुष से अलग नहीं किया जा सकता है।जैसे चन्द्रमॉ से चॉदनी चीनी से मिठास।
 

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