Monday, November 26, 2012

असली घटना की परख

ब्लॉग की अगली कडी में प्रवेश करें-http://raghubirnegi.blogspot.in/
 
 
1-घटना एक सपने की
 
          एक रात को मैंने एक सपना देखा । वह सपना बडा अद्भुत था । जैसे कि उस ईश्वर ने प्रार्थना सुन ली है । एक बहुत बडा महल है गॉव भर में एक आवाज जैसे आकाशवॉणी हो रही है कि सभी दुखी लोग अपनी-अपनी दुख की पोटली  को लेकर उस महल में चले जॉय । मैने अपने दुख की पोटली को कंधे में रखकर  सबसे पहले भागा-भागा उस महल की ओर दौडा ।सोचा कि और कोई दुखी नहीं है ।गॉव में सब  सुखी हैं । लेकिन मैने देखा कि लोग मुझसे भी तेज भागे चले जा रहे हैं । जिनसे मैने सुबह पूछा था कि कहो कैसे हो ?और उन्होंने कहा था कि अच्छे हैं  ! वे भी बडे-बडे गठ्ठे लेकर भागे जा रहे हैं । मुझे हैरानी हुई कि गॉव में एक भी आदमी नहीं है । सब भागे जा रहे हैं अपनी-अपनी पोटलियों को लेकर । उस महल में सब लोग पहुंच गये हैं । फिर देखा तो हैरान हो गया, उस गॉव का प्रधान भी वहॉ पहुंचा है,पुजारी भी,सन्यासी,महात्मा सभी वहॉ पहुंचे हैं । सबके पास बडी-बडी पोटलियॉ हैं ।
 
 
          तभी आवाज गूंजती है कि सभी लोग अपनी-अपनी पोटलियों को खूटी पर टॉग दें । सबने दौडकर अपनी-अपनी गठरियों को खूटियों पर टॉग दी । फिर कुछ देर बाद आवाज आई कि जिसको जो पोटली पसन्द हो चुन लें । मैं घबडा गया और भागा गठरी की ओर, दूसरे की नहीं, अपनी गठरी की ओर । कोई और न उठा ले । कमसे कम अपने दुख पहचाने तो हैं । अनजान अपरचित लोगों की गठरियॉ मुझसे बडी दिख रही है । मैने दौडकर अपनी पोटली उठा ली कि कोई और न उटा ले जाय । लेकिन देखकर चकित हो गया कि सबने अपनी-अपनी  पोटली उठाई है । सभी को यह डर था कि कोई दूसरा न उठा ले । क्योंकि कल तक केवल अपना ही दुख देखा था,दूसरे की हंसी देखी थी । आज सब झूठ हो गया था ।
 
 
          लगा जैसा सपने में भी सपना है । आदमी इतने दुख में है ! हम एक दूसरे को दुख देने के नये-नये रास्ते खोजते रहते हैं । धर्म के नाम पर,राजनीति के नाम पर खोज लेते हैं । हम किसी भी बहाने से किसी को सताने का रास्ता खेोज लेते हैं । हिन्दू-मुसलमान बनकर रास्ते खोज लेते हैं । गुजराती या मराठी के नाम पर,उत्तरी भारत और दक्षिणी भार,के नाम पर लडने का बहाना तलाशते हैं ।दूसरे को सताने का,टार्चर करने का बहाना चाहिए । ऐसा नहीं है कि बुरे लोग ही सताते हैं दूसरों को,जिन्हैं कि हम अच्छे लोग कहते हैं,वे भी सताने में पीछे नहीं होते हैं । न सही घर में पति-पत्नी ही लड बैठते हैं । बाप-बेटे ही लड जाते हैं । बस लडाई चाहिए ।दुखी की यही तो पहचान है ।
 
       
           हमारे गॉव में एक महात्मा रहते हैं,वे लोगों को समझाते हैं कि उपवास करो?क्योंकि भूखे मरे बिना परमात्मा नहीं मिलता । अच्छा तरीका अपना रखा है महात्मा जी ने,बडी टेक्नीक से वह लोगों को सताने जा रहा है । महात्मा जी लोगों से कहता है कि सिर के बल खडा होने से सिद्धि मिलती है ।
 
 
           परमात्मा ने हमें पैर के बल खडा किया लेकिन महात्मा समझा रहे हैं कि सिर के बल खडा होने से ही मिलेगा । कुछ नासमझ सिर के बल खडे हो जाते हैं, तो महात्मा सुखी होना शुरू हो जाता है । उसने दूसरों को दुख देना शुरू कर दिया । टार्चर करने के रास्ते खोज लिए । जिन्हैं हम अच्छे लोग कहते थे वे भी सताने लग गये ।
 
 
          हिटलर ने भी लोगों को बहुत सताया, लेकिन उससे बचना आसान है । गॉधी से बचना बहुत कठिन है । इसलिए कि हिटलर तो सीधा दुश्मन की तरह सताता है,लेकिन गॉधी तो हमारे हित में सताते हैं । हिटलर हमारी छाती पर छुरा रखता है ,जबकि गॉधी अपनी छाती पर छुरा रखता है ।गॉधी कहते हैं कि अगर मेरी न मानी तो मैं मर जाऊंगा । इसी को अहिसा कहते हैं ।यह बात भी अजीव है कि दूसरे को मारना हिंसा है,लेकिन अपने को मारना अहिंसा कैसे हो जायेगा ? अगर मैं आपकी छाती पर छुरी रख कर कह दूं कि मेरी बात मान ले,तो यह हिंसा हो गई, क्रिमिनल एक्ट है । और मैं अपनी छाती पर छुरा रखकर कह दूं कि मैं मर जाऊंगा,आग लगा कर जल जाऊंगा,तो मैं महात्मा हो जाऊंगा ,यही तो मान्यता है ! जबकि यह भी हिंसा है । क्रिमिनल एक्ट के अन्तर्गत है । लेकिन यह एक अच्छे ढंग की हिंसा है । अगर मैं आपके दरवाजे पर बैठकर कह दूं कि अगर मेरी बात न मानी तो मैं भूखा मर जाऊंगा, तो यह अच्छे ढंग की हिंसा हो गई,यह आपको मजबूर कर देगी, आपको सता डालेगी ।
 
 
          आज देखा जा रहा है कि बुरे आदमी सता रहे हैं,अच्छे आदमी सता रहे हैं । हम सब एक दूसरे को सताने में लगे हैं । और हमने ऐसी तरकीव खोज ली है कि पता लगाना मुश्किल है कि हम कैसे-कैसे सता रहे हैं । अगर आप किसी स्त्री से प्रेम करते हैं तो, आप उसको सताना शुरू कर देते हैं । और यदि एक स्त्री आपसे प्रेम करती है तो बहुत जल्दी पता नहीं चलता कि कब उसने आपको सताना शुरू कर दिया ।हम तो प्रेम की बात करके एक दूसरे की गर्दन को दबा लेते हैं ।
 
 
          छोटी अवस्था में बेटे को बाप सताता है,लेकिन बहुत जल्दी नाव उलट जाती है । बेटे ताकतवर और बाप बूढा हो जायेगा,फिर बच्चे सताना शुरू कर देंगे । सताने के नये-नये रास्ते खोजते रहते हैं ।
 
 
          औरंगजेव ने तो अपने बाप को लाल किले में बन्द कर दिया था,तो बाप ने पॉच-दस दिन में खबर भेजी कि यहॉ मेरा मन नहीं लगता,अगर तुम तीस लडके मुझे दे दो तो मैं उन्हैं पढाने का कार्य शुरू करूं तो मेरा मन लग जायेगा । औरंगजेव ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि मेरे बाप को दूसरों को सताने में मजा आता था । जब उन्हैं तीस लडके दिये गये तो वे उनके बीच डंडा रखकर बादशाह बन जाते  और शिक्षा देने के नाम पर उनको सताना शुरू कर देते  थे ।
 
 
          अब प्रश्न यह उठता है कि मनुष्य दुख से इतना भरा हुआ है कि इसमें फूल कैसे खिल सकते हैं ?इनकी जिन्दगी में आनन्द की झलक कैसे आ सकेगी ?
 
 
          और यह भी जरूरी है कि यदि आनन्द की झलक न आये तो आदमी कैसे जी सकेगा,जीना न जीना बराबर हो जायेगा । जीवन से हमें जो मिल सकता था,वह हम ले नहीं पायेंगे । पौधा लगा जरूर मगर फूल न खिले । दिया तो ले आये घर में, लेकिन उसमें कभी ज्योति न जली ।
 
 
2- चौथा विश्व युद्ध नहीं हो सकेगा -
       
          जी हॉ आज पूरे विश्व में यही तैयारी है,इतने बम बनाये जा चुके हैं कि अगर हिसाब लगॉयें तो अस्सी गुना बम तैयार है ,चार अरब आदमियों को मारने के लिए अस्सी गुना अधिक बन चुके हैं । अर्थात एक आदमी को हमने अस्सी बार मारने का इन्तजाम कर लिया है,कि भूल चूक कोई बच न जॉय । वैसे एक आदमी एक ही बार मरता है,लेकिन शायद बच जाये तो दुबारा हम मार सकें । फिर भी बच जाये तो हमने आस्सी बार मारने का इन्तजाम कर रखा है । इतने अधिक बम हैं कि यह पृथ्वी बहुत छोटी है इन बमों से मिटाने के लिए । नागासाकी और हिरोशिमा में गिराये गये बमों को उस समय लोगों की सोच में इससे अधिक खतरनाक और कोई बम नहीं होगा लेकिन आज से तुलना करें तो वे सिर्फ एक खिलौने के समान रह गये हैं । एक लाख आदमी एक बम से मरे थे, इन बच्चों के खिलौने से। आज के बमों की क्षमता बहुत अधिक है । पूरे इतिहास में आदमी ने यही तो अर्जित किया है । विनाश और मृत्यु की इतनी तीव्र आकॉक्षा बन चुकी है कि लगता है आदमी का मन कही बीमार तो नहीं है ? क्योंकि स्वस्थ मनुष्य जीने की सोचता है और अस्वस्थ मनुष्य मरने की । हमें कही मनोरोग ने तो नहीं पकडा है ?  हम उस जगह पर खडे हैं जहॉ किसी न किसी दिन हम अपने को समाप्त कर सकते हैं ।
 
 
          आइस्टीन को मरने से पहले किसी ने पूछा था कि तीसरे विश्वयुद्ध के सम्बन्ध में आपका क्या खयाल है ? तो आइस्टीन ने कहा था कि तीसरे के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं कह सकूंगा! लेकिन चौथे के सम्बन्ध में जरूर कहूंगा । उस आदमी ने कहा कि क्या बात कर रहे हैं आप तीसरे के सम्बन्ध में नहीं तो चौथे के सम्बन्ध में कैसे कहेंगे ? तो आइस्टीन ने कहा था कि चौथे के सम्बन्ध में यह बात निश्चित कह सकता हूं कि चौथा महॉयुद्ध कभी नहीं होगा । क्योंकि तीसरे के बाद आदमी के बचने की कोई उम्मीद नहीं है । लेकिन तीसरे के बारे में कुछ भी कहना मुश्किल है ।
 
 
3-सबसे अधिक विकास मारने की शक्ति में हुआ-
 
          यह धरती एक बडा बगीचे के समान है, लेकिन फूल एक भी नहीं खिला है, ऐसा ही आज मनुष्य का समाज हो चुका है । मनुष्य तो बहुत हैं,लेकिन सौन्दर्य के,सत्य के,प्रार्थना के कोई फूल नहीं खिलते हैं ।यह पृथ्वी आदमियों से भरती चली जा रही है -दुर्गन्ध से,घृणॉ से,क्रोध से,हिंसा से लेकिन प्रेम और प्रार्थना से नहीं । इतिहास साक्षी है कि कोई तीन हजार वर्षों में आदमियों ने पन्द्रह हजार युद्ध लडे । ऐसा लगता है कि जैसे हमने सिवाय युद्ध लडने के और कोई काम ही नहीं किया ।तीन हजार वर्षों में पन्द्रह हजार युद्ध बहुत होते हैं । प्रति वर्ष पॉच युद्ध । अगर विकास की बात को करें तो यही कहना होगा कि हमने आदमियों को मारने की कला में सबसे अधिक विकास किया है ।


4-अति प्रेम पागलपन है -
 
          अति प्रेम और पागलपन एक दूसरे के पूरक है । जमीन पर इस तरह के पागलपन दो तरह के दिखते हैं -एक जो परमात्मा की दिशा में जाता है,जहॉ हम अपने को खोकर सब पा लेते हैं, मीरा की यही दशा थी । और एक वह जिसमें हम सिर्फ पाने की कोशिश करते हैं,लेकिन मिलता कुछ भी नहीं है, सदा मिलने की आशा में भ्रमित रहते रहते हैं, अन्ततः खाली हाथ रह जाते हैं । अगर पागल ही होना है तो उस परमात्मा के के लिए पागल होना बेहत्तर है,इससे वह चीज मिलती है जो फिर छीनी नहीं जा सकती है ।बुद्धिमान लोग तो उन पागलों से कम नहीं होते, जो परमात्मा के द्वार पर नाचते हुये प्रवेश करते हैं । अच्छा है किसी के प्रेम में पागल न हों, अगर पागल ही होना है तो उस परम सत्ता के प्रेम में पागल होना सीखें जहॉ से आपको वह चीज मिलती है जिसे कोई छीन नहीं सकता है ।
 

Saturday, November 10, 2012

अपने मन से स्वयं को वश में करें

 
 

 
 
 
 
नोट-  1-  क्रमशः अध्ययन करने के लिए अंत में Older Post  पर क्लिक करते जॉय,अथवा दायें ओर  अंकित टॉपिक को खोलकर अध्ययन कर सकते हैं ।
2- इस ब्लॉग की अगली कडी में प्रवेश कर सकते हैं -     

http://raghubirnegi.blogspot.com/ 

3-आगे अध्ययन के लिए आप निम्न ब्लॉग में प्रवेश कर सकते हैं    

http://raghubirnegi.wordpress.com/

--------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
अपने मन से स्वयं को वश में करें
 
 
          अगर आपका मन आपके वश में नहीं है तो दूसरे की इच्छा से प्रेरित होकर अपने मन को संयमित करने की चेष्ठा न करें,इससे उद्देश्य की पूर्ति नहीं होगी । क्योंकि प्रत्येक जीवात्मा का लक्ष्य मुक्ति या स्वाधीनता,या दासत्व से स्वयं को मुक्त करके उसपर प्रभुत्व स्थापित करना होता है,ताकि अपनी वाह्य तथा आन्तरिक प्रकृति पर अधिकार जमा सके। अगर दूसरे व्यक्ति द्वारा प्रयुक्त इच्छाशक्ति का प्रवाह हम स्वयं पर लागू करने का प्रयास करते हैं तो हमारे अन्दर पुराने संस्कारों और धारणॉओं में भ्रॉति की बेडी की एक और कडी जुड जाती है ।
         
          इसलिए सावधान रहें ।अपने ऊपर ऐसी इच्छाशक्ति का संचालन न करने देना होगा ।अथवा दूसरे पर इस प्रकार की इच्छाशक्ति का प्रयोग अनजाने में न करें । यह बात सही है कि कुछ लोग कुछ व्यक्तियों की प्रवृत्ति को मोडकर कुछ दिनों के लिए उनका कल्याण करने में सफल हो जाते हैं, लेकिन वे दूसरों पर सम्मोहन का प्रयोग करके बिना जाने समझे उन्हैं विकृत जडावस्थापन्न कर डालते हैं,जिससे उन लोगों की आत्मा का अस्तित्व मानो लुप्त हो जाता है । इसलिए कोई भी व्यक्ति तुमसे अन्धविश्वास करने को कहता है,या अपनी श्रेष्ठ इच्छाशक्ति के बल से वशीभूत करके अपना अनुशरण करने के लिए बाध्य करता है,तो उपयुक्त नहीं है ।वह मनुष्य जाति के लिए एक अनिष्ठ कार्य माना जाता है ।
         
          हमेशा इस बात को ध्यान में रखना होगा कि अपने मन को संयतित करने के लिए सदा अपने ही मन की सहायता लें । और इस बात को भी आपको समझ लेना होगा कि अगर आप रोगग्रस्त नहीं हैं तो कोई भी बाहरी इच्छाशक्ति आप पर कार्य नहीं कर सकेगी । जो व्यक्ति आपसे अन्धे के समान विश्वास करने के लिए कहता है हमेशा उससे दूर रहना चाहिए , वह चाहे कितना ही बडा आदमी या महात्मा क्यों न हो । इस संसार में कितने ही सम्प्रदाय हैं,जिनके धर्म का प्रधान अंग नाच-गाना,संगीत,नृत्य है । वे जब अपना संगीत नॉत्य और प्रचार प्रारम्भ करते हैं तो उनके भाव मानो संक्रामक रोग की तरह लोगों के अन्दर फैल जाता है । वे भी एक प्रकार के सम्मोहनकारी होते हैं । परिणॉम यह होता है कि सारी जाति अधःपतित हो जाती है ।
 
          इस प्रकार के धर्मोन्मत व्यक्तियों का उद्देश्य भले ही अच्छा हो मगर इन्हैं किसी उत्तरदायित्व का ज्ञान नहीं होता है । इन लोगों से मनुष्य जाति का अनिष्ठ होता है । वे नहीं जानते कि उनकी इस शक्ति के प्रभाव से लोग जड विकृतग्रस्त और शक्तिहीन होकर सहज ही उनके वश में हो जाते हैं,चाहे वह भाव कितना ही बुरा क्यों न हो । उन लोगों में उसका प्रतिरोध करने की जरा भी शक्ति नहीं रह जाती है । और वे सम्मोहन करने वाले लोग सोचने लगते हैं कि उनमें अद्भुत शक्ति है । वे सोचते हैं कि उन्हैं यह उस परमात्मा के द्वारा अद्भुत शक्ति प्रदान की गई है । बस इसी भावना से वे भावी मानसिक अवन्नति की ओर बढने लगते हैं,यही पाप,उन्मत्तता और मृत्यु के बीज हैं ।
 
          मन को संयमित करना बहुत कठिन होता है ।और इसी मन को हमें सबसे पहले संयमित करना होता है,इसके लिए कई प्रकार की विधियों का उल्लेख विद्वानों ने किया है मगर जो हमारे लिए उपयुक्त है उसे हम अपना सकते हैं । हम अपना सकते हैं ।प्रतिदिन प्रणॉयाम करने के बाद हम एक अभ्यास से अपने इस मन को संयमित करने का प्रयास करते हैं -अपने स्थान पर कुछ समय के लिए चुप्पी साधकर बैठ जॉय और मन को अपने अनुसार चलने दें ।मन चंचल होता है एक बन्दर की तरह । हमारा मन उछल-कूद मचायेगा कोई हानि नहीं है ,धीरज रखें ,प्रतीक्षा करें और मन की गति देखते रहें ।यह बात भी सत्य है कि जबतक आप अपने मन पर नजर रखोगे तबतक मन संयमित नही रह सकेगा ।
 
          यह अभ्यास आपको हर दिन करना होगा । आप देखेंगे कि मन में ऐसी भली-बुरी बातें आयेंगी कि आपको आश्चर्य होगा ।प्रारम्भ में हजारों विचार आयेंगे । फिर घटकर सेकडों में होंगे । फिर कम होते जायेंगे फिर कुछ महीने बाद आपके मन में एक भी विचार नहीं आयेगा,आप शॉत चित्त होंगे अब आपका मन अपने वश में आ जायेगा । इससे आपका मन शॉत होगा,विषयों के प्रति समझने शक्ति बढेगी,आपका मिजाज अच्छा होगा.स्वास्थ्य अच्छा रहेगा, इनमें शरीर की स्वस्थता का पहला लक्षण दिखता है ।लेकिन हर दिन हमें धैर्य के साथ अभ्यास करना होगा । हमें यह साबित करना होगा और दिखाना होगा कि वह किसी के अधीन नहीं है । इसके लिए नियमित अभ्यास की आवश्यकता होगी । अकेले रहने का प्रयत्न करना चाहिए ।
 
          विभिन्न प्रकार के लोगों के साथ रहने से चित्त विक्षिप्त हो जाता है ,उनसे अधिक बात-चीत करना उचित नहीं है,इससे मन अधिक चंचल हो जाता है ।अधिक काम करना भी अच्छा नहीं है,क्योंकि इससे मन डॉवाडोल रहता है ।सारे दिन की कडी मेहनत के बाद मन संयत नहीं हो सकता है । इसके लिए योगी का होना आवश्यक है । इस बात को भी ध्यान में रखना होगा कि अभ्यास के समय अपने भोजन को संयमित कर दें ।प्रारम्भ में हल्का भोजन और दूध उपयुक्त होगा । जबतक मन पर पूर्ण अधिकार न हो जाता तबतक अभ्यास करते रहें,और अल्पाहार करते रहें ।लेकिन जब मन एकाग्र हो जाता है तो आपको मस्तिष्क की सूक्ष्म अनुभूतियॉ होना प्रारम्भ हो जायेगा,जैसा कि मस्तिष्क से वज्र पार हो गया हो,सूक्ष्म अनुभूतियॉ होने लगेंगी । यह भ ध्यान रखना होगा कितर्क और चित्त में विक्षेप उत्पन्न करने वाली बातों को यथा शीघ्र दूर कर दें ।आपका संकल्प कैसा है उसी प्रकार से आपको आगे का रास्ता मिलेगा ।

Friday, November 9, 2012

आस्था की प्रकृति

              http://raghubirnegi.wordpress.com/


 
1-कर्म जीवन का अंग है-
 
          इस जगत में कोई भी जीव हो, चाहे उनमें सन्यासी हो यागृहस्थी सबको अपने-अपने क्षेत्र में परिश्रम करना होता है ।कर्म को हमें जीवन की साधना के रूप में स्वीकार कर लेना होता है ।धोखा या चालवाजी से कोई चीज प्राप्त नहीं हो सकती है,इससे तो आदमी स्वयं को गढ्ढे में गिराने के समान है। वैसे कहा जाता है कि भगवान की कृपा सन्यासियों की अपेक्षा गृहस्थियों पर अधिक रहती है । क्योंकि सन्यासी लोग तो भगवान का नाम लेने के लिए ही घर छोडकर आये हैं ,यदि वे भगवान को न पुकारें तो उनके लिए वह महॉ पाप माना जाता है ।लेकिन निष्ठावान गृहस्थी भक्त सिर पर भारी बोझ लादे हुये भी भगवान की कृपा याचना करके उसके दर्शन कर सकते हैं ।
 
          हमारे धार्मिक ग्रन्थों की अवधारणॉ को हमें नहीं भूलना होगा कि जीवन में कोई भी कर्म व्यर्थ नहीं जाता है,और न नष्ट होता है । उसका प्रतिफल या कुफल अवश्य मिलता है । इसीलिए जो भी सत्कर्म हो, जिस अवस्था में हो करना चाहिए । और यदि पूर्व में कोई कुकर्म किया हो तो इस पाप राशि से मुक्ति का उपाय भी यही मूल धर्म के कार्य है ।
 
           कर्मयोग के द्वारा चित्त शुद्धि होती है,आत्म ज्ञान होता है । कर्म तो सभी करते हैं मगर कर्मयोग की साधना सभी नहीं करपाते हैं,क्योंकि कर्मों के बन्धन में उन्हैं दुख का भोग करना होता हैं । भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं कि कर्म करना तुम्हारा अधिकार है,कर्मफल नहीं । कर्मफल की आशा से कर्म करने वाले तो दीन,दुर्वल और निम्न श्रेणी के लोग होते हैं । कर्म करो,किन्तु निस्वार्थ भाव से करो,यही परमानन्द को प्राप्ति का मार्ग है ।
 
          अधिकॉश लोगों की धारणॉ है कि यदि निष्काम होकर कर्म किया जाय तो फिर कर्म के प्रति आकर्षण और प्रेरणॉ कैसे उत्पन्न होगी,किसी भी काम को मन लगाकर कैसे किया जाय,यदि खुद को फायदा न हो तो मैं कर्म करने क्यों जाऊं ? यह भावना सही नहीं है । अगर सुख के लिए ही लोग कर्म करते हैं,तो सुख मिलता कितना है ? पहली बात तो यही है कि अपने स्वार्थ के लिए दूसरों को सुखों से वंचित और उन्हैं दुखी करना होता है । और इससे जो भी सुख मिलता है वह अस्थाई होता है । स्थाई सुख के लिए तो निस्वार्थ कर्म आवश्यक है । हमारे महॉन पुरुषों की यही अवधारणॉ है ।
 
          ईश्वर के दर्शन सबके भाग्य में इसी जन्म में नहीं होता है बल्कि कुछ लोग जन्म जन्मॉतर से उन्हैं पाने के लिए कठोर तपस्या,साधन भजन करते चले आरहे हैं,और पूर्व जन्म के कर्म के अनुसार,और साधना के प्रभाव से इस जन्म की अनुकूल साधना से बचे हुये कार्य को सहज ही पूरा कर देते हैं। और जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त हो जाते हैं ।
 
          सत्कर्मों का फल अक्षय माना जाता है,जितना संचय उसका किया जाय,भविष्य में,इस जन्म में,या अगले जन्म में अवश्य मिलता है । विपत्ति,घात-प्रतिघात,भयप्रलोभन,या अन्धकार या निराशा के समय समय यह फल काम आता है । सत्कर्मों की संचित सम्पति स्थाई मानी जाती है । यह देखा गया है कि सत्कर्मों को पैदा करने में दुख,रक्षा करने में दुख,नष्ट होने में दुख व कष्ट होता है । इसलिए सत्कर्मों के संचय का प्रतिफल हमें सुख के रूप में प्राप्त होता है ।
 
 
 
2- कच्चे मन का स्वभाव
 
          कच्चा मन एक महॉमायावी के समान होता है। यह हमें कब,किस तरह से कुमार्ग में ले जाकर मायावी जाल में फंसा देगा,यह समझ पाना कठिन है । कच्चे मन की पहचान है- देह और इन्द्रियों के सुखों को ढूडते रहना,स्त्री,पुत्र,परिवार को अपना समझकर उसकी माया में मोहग्रस्त होना, धन-जन,यश-प्रतिष्ठा और प्रभुत्व को जीवन की एकमात्र कामयाब वस्तु को समझना । इस स्थिति में वह सुख चाहने की लालसा में उसे पग-पग धक्का खाकर और दुख पाकर भी चैतन्य का लाभ नहीं होता है । चारों ओर लोग मरते हैं लेकिन कच्चे मन वाला मनुष्य यह कभी नहीं सोचता कि मुझे भी कब किस क्षण सबकुछ छोडकर चले जाना पडेगा । बस वह यही सोचता है कि कैसे धोखा देकर,चालाकी से,या किसी भी उपाय से अपना काम बन जाय,चाहे उससे दूसरे को नुकसान पहुंचे या दुख मिले इसकी उसे कोई परवाह नहीं होती है । अपना सुख ही उसका सर्वस्व संसार होता है ।
 
          अगर मन को हम एक फल के रूप में देखें तो उपयुक्त होगा ,कि जब वह कच्चा होता है तो उसमें खट्टापन,कसैला और बेस्वाद होता है और जिसे खाने पर रोग उत्पन्न करता है,लेकिन पक जाने पर अच्छा स्वाद और उपकारी होता है, मन की दशा भी इसी प्रकार की मानी जाती है ।
 
           कच्चे मन से किया गया कार्य चाहे वह देश या जगत के कल्याण के लिए किया जाता हो उनका उद्देश्य महान होते हुये भी उनके द्वारा संसार का हित के बजाय अहित ही देखा गया है । अपने आदर्शों में वे अधिक समय तक अटूट रूप से नहीं टिक पाते हैं । नाम यश प्रतिष्ठा और दूसरों पर प्रभुत्व करने की लालसा उनकी बलवती हो जाती है । शीघ्र उनपर हिंसा,द्वेष,संकीर्णता और स्वार्थपरता का भूत सवार हो जाता है,जिससे उनके सारे कार्य विफल हो जाते हैं । वे अपने भीतर के विष को समाज में फैलाकर जन मानस को कलुषित कर देते हैं । यहॉ तक कि वे धर्म के प्रति अविश्वास और अश्रद्धा के भाव भी पैदा करते हैं ।
 
          अगर देखें तो सभी कुछ मन का खेल है,मन के ऊपर ही सब निर्भर है । मन में बन्धन है,मन ही मुक्ति है । कहते हैं जैसी मति वैसी गति । यदि कठोर तपस्या करके भी कोई अपने अन्तःनिहित वासना के वशीभूत होकर विषयसुख और नाम यज्ञ के प्रति आकृष्ट हो तो उसका सारी तपस्या भस्म हो जाती है ,लेकिन जो लोग ईश्वर के शरणॉगत हो जाते हैं तो वे इस दुख से बच जाते हैं ।

 
 
3-ईश्वर में आस्था का स्वभाव
 
          यह देखा जाता है कि हम बात-बात में भगवान की मर्जी कहकर ईश्वर की दुहाई देते रहते हैं,यह तो सार शून्य है,सिर्फ आवाज मात्र है,जैसे कि छोटे-छोटे बालक बालिका कहते रहते हैं,भगवान कसम,राम दुहाई आदि,जैसे अंग्रेजी में कहते हैं Thank God या My God लेकिन इन शब्दों का प्रयोग वहीं कर सकता है जिसे ईश्वर का पूरा ज्ञान हो,जिसने ईश्वर को आत्मसमर्पण कर दिया हो,जिसे पक्का ज्ञान है । ये शब्द आत्मा की आवाज है जो उसकी आत्मा से निकलकर सत्य की परख के लिए प्रयुक्त होते हैं । लेकिन आज एक परम्परा बन गई है कि ईश्वर के सम्बन्ध में कोई ज्ञान नहीं है,और आत्म समर्पण भी नहीं है लेकिन इन शब्दों का प्रयोग करते हैं, ताकि शीघ्र विश्वास दिलाया जा सकें ।
 
          हमारे वेद कहते हैं कि जो पूर्ण है वह चिरकाल में भी सदा पूर्ण ही रहता है,इसमें क्षय नहीं होता । पूर्ण से पूर्ण का विनिमय करने पर ही हम पूर्णता के प्राप्त कर सकते हैं । वह परमात्मा स्वयं में पूर्ण है, इसे प्राप्त करने के लिए इस शरीर का सम्पूर्ण सामर्थ्य और मन ,प्राण,अन्तःकरण को समर्पित करना होता है तभी हमें पूर्णता की प्राप्ति हो सकती है ।
 
          एस दुनियॉ में उस परमात्मा को प्राप्त करने की सामर्थ्य हर एक में अलग-अलग होती है, उनमें कुछ लोग शरीर से बहुत दुर्वल होते हैं या जिन्दगी भर रोगग्रस्त होते हैं,जोकि उस साधना को सम्पन्न करने में असमर्थ होते हैं । इसका मतलव वे लोग तूफान के समय समुद्र में पडी छोटी नाव के समान पछाड खाते हुये पडे रहेंगे ?क्या वे कीडे मकोडों की तरह पिसते रहेंगे ? नहीं ईश्वर के राजस्व में यह कभी नहीं हो सकता ।,यदि उनके मन मेंअटूट श्रद्धा भक्ति और प्रेम है तो उन लोगों की ह्दय विदारक आवाज उस प्रभू कानों में अवश्य पहुंचती है । चाहे उनके आसपास की परिस्थितियॉ कितनी ही प्रतिकूल क्यों न हो। इस लिए इस जीवन में सिर्फ उस परमात्मा से प्रेम करें,उसकी अपार कृपा तभी प्राप्त हो सकती है ।वे लोग इसी जीवन में शॉति के अधिकारी होते हैं,और अन्त में परम पद का लाभ प्राप्त कर सकते हैं ।



Thursday, November 1, 2012

जीवन के सवाल


                                                   

                    http://raghubirnegi.wordpress.com/

1-जिन्दगी के अहम सवाल-

 
          जिन्दगी में कई प्रश्न हमारे सामने उठते हैं कि-  जो मैने पाया है वह पाया है कि खोया है? जिसे में उपलब्धि समझ रहा हूं यह उपलब्धि है या गंवाना है?जिसे मैं सफलता समझ रहा हूं वह सफलता है या असफलता ? जिसे मैं जीत समझ रहा हूं वह जीत है या हार ?जिसे मैं ज्ञान समझ रहा हूं वह ज्ञान है या सिर्फ अज्ञान को ढक लेना है ?
         
          जिस जिन्दगी में ये सवाल न उठे वह जिन्दगी कभी भी धार्मिक नहीं हो सकती है। और होता यह है कि हम उस धर्म को जिन्दगी का हिस्सा बना लेते हैं,जबकि धर्म दूसरी जिन्दगी है,धर्म तो इस जिन्दगी की राख के ऊपर खिला हुआ दूसरा फूल है । और यह भी  उन्हीं के लिए खिल सकता है जिन्हैं यह आभास हो गया कि हम अभी तक राख बटोरने में लगे हैं या बच्चों की तरह नदी के किनारे पर कंकड-पत्थर बीनने में बिता रहे हैं ।
 
 

2- अनुभव और ज्ञान की कसौटी-

 
          अनुभव से आदमी सीखता नहीं है,अनुभव तो हम सबको होते हैं लेकिन सीखने की भावना पैदा नहीं होती है।अनुभव तो सबके पास है,लेकिन ज्ञान नहीं हो पाता । अनुभव से आदमी सीख लेता है,उसके जीवन में तो ज्ञान का आना शुरू हो जाता है। जो सिर्फ अनुभव को दोहराये चला जाता है। अनुभव से  उसके जीवन में ज्ञान का आना शुरू नहीं होता है। इसलिए इस बात को समझना होगा कि अनुभव स्वयं ज्ञान नहीं है, बल्कि अनुभव से सीख लेने का नाम ज्ञान है। ज्ञान तो अनुभवों का निचोड है। जैसे इत्र फूलों से निचोडा हुआ तत्व है,ऐसे ही समस्त अनुभवों से जो निचोड लिया जाता है  वह ज्ञान है । अनुभव सबके पास है लेकिन ज्ञान बहुत कम लोगों के पास है । क्योंकि अगर अनुभवों से हम सीखते नहीं तो ज्ञान कैसे पैदा होता ।
 
 

3-जन्म लेने का अर्थ पाना नहीं है-

 
          अगर हमने मान लिया कि इस जीवन का जन्म होने से हमें सबकुछ मिल गया तो यह हमारी भूल है,इस भूल को तोडने की जरूरत है। और यदि जीवन में यह भूल टूट जाय़, तो जीवन में इतना आनन्द है कि जिसकी अनुभूति करना असंभव है। और जीवन में जो यह अनुभव करता है,वहीं परमात्मा को भी अनुभव कर पाता है। क्योंकि परमात्मा का अर्थ सिर्फ जीवन की गहराई । जीवन की जितनी गहराई में उतर जाते हैं,उतना हम परमात्मा के निकट हो जाते हैं ।और जीवन से जितने दूर हम खडे रह जाते हैं उतने ही हम परमात्मा से दूर रहते हैं ।
 
 

4-धर्म हमें जीवन से दूर रखते हैं-

         
          अगर देखें तो धर्मों ने हमें जीवन से दूर रखा हुआ है,जिस कारण हम परमात्मा से दूर खडे हैं । ये महात्मा किसी न किसी अर्थ में परमात्मा के दुश्मन सिद्ध हुये हैं। क्योंकि वे कहते हैं कि जीवन को जियो ही मत ।जीवन को जीना गुनाह है। जीवन से बचो। जीवन से भाग जाओ । जहॉ -जहॉ भी जीवन हो वहॉ से भाग जाओ। वहॉ रुकना नहीं। कहीं जीवन बुला न ले,कहीं जीवन आमंत्रण न दे दे। धर्म ने तो हमेशा तोडने का काम किया है,मनुष्यों ने मनुष्यों से नाता तोडा है ,पत्नियों ने पति से,बेटों ने बाप से,धर्म ने जीवन से नाता तोडने का कार्य किया है। जबकि सच्चा धर्म जीवन से जोडने का कार्य करता है तोडने का नहीं। क्योंकि अगर कहीं कोई परमात्मा है तो निश्चित ही वह मृत्यु की शक्ल में नहीं हो सकता, वह जीवन की शक्ल में ही हो सकता है । और यदि कहीं परमात्मा है तो उसे हम जीवन-धारा की गहराई में उतर कर ही पहचान सकते हैं । उसे अपने ही नसों में  अनुभव करते हैं। अपने ही स्वासों में डोलता हुआ अनुभव करते हैं। अपने ही आंखों से उसे देखता हुआ अनुभव करते हैं, और अपने ही हाथों उसे प्रेम करता हुआ जान सकते हैं ।
 
 

5-परमात्मा की खोज नकल से-

 
          जी हॉ परमात्मा की ओर हम नकल करके जाते हैं।पिता को देखकर एक बेटा परमात्मा को खोजने लगता है। पडोस वालों को देखकर परमात्मा को खोजने लगते हैं। बडों को मन्दिर में जाते देख कर छोटे मन्दिर में चले जाते हैं । अब प्रश्न उटता है कि क्या किसी के पीछे चलकर परमात्मा को पा सकते हैं ? असंभव !इसलिए कि हमारे अन्दर यह प्यास अभी जगी नहीं है । यह झूठी प्यास है । झूठी प्यास से आदमी सरोबर तक नहीं पहुंच सकता है। और यदि पहुंच भी जाय तो पानी को पहचान नहीं पायेगा कि यह पानी है ।क्योंकि पानी को पहचानने के लिए अपनी प्यास चाहिए ।प्यास ही पानी की पहचान है!
 
 
          परमात्मा तो हर समय हमारे चारों ओर मौजूद है,लेकिन प्यास न होने से कोई उसे काशी खोजने जायेगा,कोई मक्का और कोई जेरुसलम,और कोई कैलाश में खोजने जायेगा। इसलिए कि हमें प्यास नहीं है । लेकिन यदि प्यास है तो हमारे श्वास-श्वास में,हवा के कण-कण में,,वृक्ष के पत्ते-पत्ते में वह मौजूद है । जहॉ भी देखो वहीं मौजूद रहेगा उसके अतिरिक्त और किसी का कोई अस्तित्व नहीं है ।
 
 

6-परमात्मा का स्वरूप-

 
          अगर हम नानक, कबीर, रैदास या महॉवीर को देखें तो इनकी जिन्दगी में हम दो मौके पायेंगे । वेदना और आनन्द ।लेकिन हम है कि उनमें एक मौके को देखना ही नहीं चाहते,सिर्फ दूसरे मौके को ही देखते हैं। नानक के जीवन में दो मौके पाएंगे, एक वह वक्त है जब वे रोते हैं और एक वक्त है जब वे आनन्द से भर जाते हैं। एक वक्त है जो पीडा और विरह का है और एक वक्त है जो प्रस्फुटित का है । अगर मीरा को देखें तो एक वक्त है जब मीरा रोती है और एक वक्त है जब मीरा नाचती है। लेकिन हम रोने की बात को भूल गये,और नाचने की बात याद रख ली । बुद्ध को देखें तो उनकी जिन्दगी में रोशनी आने की हमें याद है मगर अमावश की काली रात के वक्त की याद हम भूल गये ।हम रोशनी चाहते हैं, अमावश की काली रात कौन चाहेगा । हम परमात्मा के आनन्द में डूबना चाहते हैं मगर असकी पीडा नहीं।
 
 
          हमने गुरु नानक की मुस्कराती तस्वीर को तो खयाल में रख लिया मगर हमने वह तस्वीर छोड दी है जो रोते हुये खयालों में है। यह तो परमात्मा का आधा रूप है, इसे चुना नहीं जा सकता है। परमात्मा को पूरा ही चुनना होता है। फूल का तो कोई भी स्वागत कर सकता है लेकिन फूल के पौधे को बडा करने का भी संकल्प है। कहते हैं कि धर्म आनन्द का द्वार खोल देता है ,लेकिन उसके लिए ही खुलता है जिसके लिए पूरा जगत पीडा और दुख बन जाता है। जिसको अभी पीडा ही नहीं अनुभव हुई ,उसे् आनन्द का कोई अनुभव ही नहीं हो सकता। नानक ने आनन्द के लिए भजन गाये थे। लेकिन हमने बिना पीडा पाये उन भजनों को गाते हैं तो उनका कोई अर्थ नहीं रह जायेगा।
 
 
          अगर देखें तो कोई नर्तकी मीरा से अच्छा नाच सकती है। लेकिन उस नाचने में मीरा का आनन्द नहीं हो सकता है ,क्योंकि उस नाचने के पहले मीरा की पीडा,मीरा की लम्बी दुखद यात्रा नहीं है।
 
 
          परमात्मा के दो पहलू हैं । एक विरह का,दुख का,और आगे आनन्द का द्वार है ।वैसे विरह,दुख और पीडा अन्धकार का रास्ता है ,इस मार्ग पर हम कोई भी नहीं चलना चाहते हैं। हम सभी आनन्द चाहेंगे,हम सभी चाहेंगे कि परमात्मा मिल जाय। इसलिए हम सभी आधे परमात्मा की की खोज पर निकले हैं। हमारा मिलन नहीं हो सकता है।
 
 
          हम सुबह उठते हैं शॉम को सो जाते है ,जन्म लेते हैं और मर जाते हैं। कमाते हैं,गंवाते हैं,पूरी जिन्दगी की कथा बिना अर्थ के,बिना किसी प्रयोजन के-उस तिनके समान है जो लहरों पर डोलता हुआ कभी इस किनारे और कभी उस किनारे के थपेडों से जूझता है,और सोचता है मैं यात्रा कर रहा हूं।ठीक हम भी उसी प्रकार जिन्दगी को जीते हैं ,सोचते हैं कि यात्रा कर रहे हैं। यात्रा तो सिर्फ धार्मिक आदमी के जीवन में होती है। बाकी लोगों की जिन्दगी में तो बस इस किनारे से उस किनारे होना होता है।
 
 

7-खालीपन की पहचान है अधार्मिक होना-

 
          एक  फकीर ने रातभर परमात्मा से प्रार्थना की कि मेरे पडोस में एक आदमी रहता है वह बहुत ही अधार्मिक है,तू उसे इस दुनियॉ से उठा ले। वह एक चोर, बेइमान, और नास्तिक भी है। रात के सपने मे परमात्मा ने उसे कहा कि तू मुझसे ज्यादा समझदार मालूम होता है ! इस आदमी को मैं चालीस साल से स्वॉस दे रहा हूं,भोजन दे रहा हूं,इस आदमी से चालीस साल में मैने कोई शिकायत नहीं की! ,तू मुझसे ज्यादा धार्मिक हो गया मालूम होता है !क्योंकि तुझे यह आदमी अधार्मिक मालूम होने लगा है।
 
 
              दूसरे को अधार्मिक दिखने का खयाल,और दूसरे की चिन्ता करने का खयाल अधर्म है। लेकिन हम दूसरों की चिन्ता में इतने उलझे रहते हैं कि सिर्फ अपने को छोडकर सबके बावत सोचेंगे ।सुबह से शॉम तक दूसरे के बारे में सोचेंगे,सिर्फ अपने सम्बन्ध में नहीं सोचेंगे। जिन्दगी गुजर जाती है एक नहीं बहुत सारी जिन्दगियॉ उसकी गुजर सकती है। जो अपने सम्बन्ध में नहीं सोचेगा  ।वह अपने भीतर खालीपन का अनुभव भी नहीं कर सकेगा । और जिसे अपने भीतर खालीपन का अनुभव नहीं होगा उसकी जिन्दगी में परमात्मा की खोज शुरू नहीं होगी अपने भीतर खालीपन एक पहलू और परमात्मा की खोज उसी सिक्के का दूसरा पहलू है।
 
 
          क्या आपको लगता है कि आपके भीतर कोई कमी है ? लगता है भीतर कोई अभाव है ? लगता है भीतर कोई कुछ खाली-खाली है ? अगर यह अनुभव होता है तो आपकी जिन्दगी में परमात्मा की किरण उतर सकती है। लेकिन इस खालीपन को ठीक से समझना होगा,और समझकर इस खालीपन से भागने और बचने की कोशिश मत करना। क्योंकि बचने के बहुत उपाय हैं। एक आदमी अपने भीतर के खालीपन से बचने के लिए या तो सिनेमा देखता है दूसरा आदमी संगीत सुनता है ,तीसरा आदमी ताश खेल सकता है और अपने भीतर खालीपन को भूल जायेगा। चौथा आदमी कीर्तन-भजन करके खालीपन को भूलने की कोशिश करता है,यह असली भजन नहीं है,यह सिर्फ भुलावा है,यह अपने को भुलाना है,अपने को जानना नहीं है।
 
 
          बस अगर अपने भीतर खालीपन दिखाई पडे तो समझो परमात्मा की खोज का रास्ता खुल जाता है। उस खालीपन में खडे होने से पीडा शुरू हो जाती है,नीचे की जमीन खिसक जाती है ऊपर का आकाश खो जाता है ,एक आह उठेगी जो परमात्मा की खोज बन जाती है।


Tuesday, October 23, 2012

सच और झूठ की पैरवी


        सबसे पहली बात तो यह है कि आदमी के जीवन में आनन्द के क्षण कम हो गये हैं ,जीवन दुख की एक लम्बी कहानी हो गई है । अगर जीवन में इतना दुख हो तो इसका परिणॉम भी दिखता है-और फिर वह दुखी आदमी दूसरे को भी दुख देने के लिए आतुर हो जाता है ।ऐसा ही होता है, जो मेरे पास है वही तो मैं दूसरे को दे सकता हूं । यदि मैं दुखी हूं तो मैं दुख दे सकता हूं । हम सब दुखी हैं, चेहरे पर दिखाई देने वाली मुस्कराहटें झूठी है, सच तो यह है कि हमने मुस्कराहटों का आविष्कार भीतर के दुख को छिपाने के लिए ही किया हुआ है । हम केवल दिखाने के लिए हंसते हैं ।
 
 
        एक बार एक सम्राट बुद्ध से मिलने गया और उसने बुद्ध से पूछा,आप कभी हंसते भी हैं या नहीं ?तो बुद्ध ने कहा कि भीतर दुख ही न रहा तो अब हंसी की भी कोई जरूरत नहीं रही,क्योंकि हंसी दुख को छिपाने के लिए ही थी ।हम हंसते थे ऊपर से ताकि भीतर का दुख भूल जॉय ।
 
 
        एक बार नीत्से से किसी ने पूछा था कि तुम बहुत हंसते हो,बहुत खुश मालूम पडते हो ! नीत्से ने कहा,यह बात ही मत छेडो । मैं तो इसलिए हंसता रहता हूं कि कहीं रोने न लग जाऊं । बस फूर्सत नहीं रहनी चाहिए ।अगर बाकी समय मिल गया तेो बीच में रोना भी आ सकता है ।आंसू न आये,इसलिए हंसने में शक्ति और समय लगता रहता है ।
 
 
        शायद आपको पता हो कि जैसे-जैसे मनुष्य का दुख बढा है,एक अद्भुत चीज भी बढी है,और वह चीज है मनोरंजन के साधन । सुखी आदमी के लिए मनोरंजन नहीं चाहिए ,वह इतने सुख में होता है कि उसे मनोरंजन के साधनों की जरूरत ही नहीं पडती । मनोरंजन चाहिए दुखी आदमी के लिए । साधनों की जरूरत पडती है जब सुखी नहीं रहता ।शराब की जरूरत है, सेक्स के नयें-नयें आविष्कार दिखते हैं ।फिल्में देखनी पडेंगी,टीवी,और रेडियो खोजना होगा,संगीत की खोज जाना होगा ,लेकिन इनसे भी दुख दूर नहीं हो पाता है और सब तरह की हंसी के बाद भी यह दुख मिटता नहीं है तब वह अपनी ही मूल जगह रह जाता है, और जब भीतर बहुत दुख आ जाय तो हम स्वभावतः दूसरे को दुख देने में रस लेने लगते हैं ।
 
 
        जब कोई आदमी आनंदित होता है,तो वह दूसरे को सुख देने लगता है ।आनंदित आदमी की एक कसौटी है कि अगर आप दूसरे के सुख में सुखी होते हैं तो आप आनंदित आदमी हैं । और यदि आप दूसरे को सुखी करने में सुखी हो सकें तो भी आप आनंदित आदमी हैं । और अगर आप दूसरे को दुख में देखकर रस पाते हैं और दूसरे को सुख में देखकर दुख पाते हों तो आप दुखी आदमी हैं ।
 
 
        आदमी की मनोदशा अद्भुत है । जब वह दूसरे को दुख में देखता है तो बहुत सहानुभूति प्रकट करता है और उसे ऐसा भ्रम होता है कि दूसरे के दुख में वह दुखी हो रहा है । लेकिन कभी आपने खयाल किया होगा कि जब कोई आदमी किसी को प्रति सहानुभूति प्रकट करता है तो उसकी आंखों में एक रस भी दिखाई देता है कि वह बहुत आनंद भी ले रहा है ।असल में दूसरे के प्रति सहानुभूति दिखाने में एक बडा मजा है। क्योंकि जिसके प्रति हम सहानुभूति दिखाते हैं वह नीचा हो जाता है,और हम ऊपर हो जाते हैं । लोग तो इसी तलाश में रहते हैं कि कब आपको सहानुभूति दिखलाने का मौका मिले ।
 
 
        अगर आपकी मकान में आग लग जाती है तो लोग सहानुभूति दिखाने आ जायेंगे। लेकिन ये वे लोग हैं कि अगर आपने बडा मकान बना दिया होता तो ईर्ष्या से भर गये होते । अजीव गणित है ये । जो लोग मकान के बडे होने से ईर्ष्या से मरते थे,वे मकान को जल जाने से दुखी नहीं हो सकते ! वे तो दुख दिखाते हैं,दुख प्रकट करते हैं,लेकिन भीतर उनके दुख नहीं हो सकता ।क्योंकि जब वे किसी के मकान को बडा होते देखकर खुश नही हुय़े थे,तो छोटा होते देख कर दुखी कैसे हो सकते हैं ?
 
 
        अपने जीवन का अनुभव है कि मैं अपने एक मित्र के घर में ठहरा हुआ था । उस मित्र का बहुत बडा मकान बनाया हुआ था । उनसे बात होती थी तो कुछ भी बात पर मकान शब्द बीच में आ जाता,कभी स्वीमिंग पूल तो कभी बाथरूम बीच में आ जाता । मैं दो दिन वहॉ रहा तो मुझे लगा कि इससे पहले भी इन्होंने मुझे मकान के सम्बन्ध में बात करने के लिए बुलाया था तब भी मकान की ही बात चली थी । अब भी मकान के ही सम्बन्ध में कह रहे हैं तो इसका मतलब यही हुआ कि शायद इनका मकान अधिक महत्वपूर्ण है ,जबकि वे मकान मालिक है,मकान मालिक का महत्व कम है मकान की तुलनां में ।क्योंकि इन्होंने अपने सम्बन्ध में कोई बात ही नहीं की,मकान की ही बात की ।
 
 
        तीसरी बार उन्होंने मुझे अपने घर बुलाया मेहमान के रूप में, इस बार उन्होंने मकान की बात नहीं उठाई । मैं डरा हुआ था कि मकान की बात अभी आती है मगर मकान की बात नहीं आयी ,सॉझ हो गई ,रात होने लगी,तो मैने उससे पूछा कि मकान के सम्बन्ध में बात कब होगी । तो उन्होंने कहा छोडिये जाने दीजिएगा?मैने सोचा कि बात क्या है,पता चला कि पडोस में एक दुर्घटना हो गई थी, पडोस में एक बडा मकान बन गया था ।दूसरे दिन सुबह जब मैं उठा तो मैने देखा कि कारण क्या है । मैने उनसे मकान की बात की -तो कहने लगे आप मकान की बात मत करिये । जब से पडोस में ये मकान बना है तब से मन उदास हो गया है ,दुखी जैसा हूं । लेकिन कोई बात नहीं वर्ष दो वर्ष में इससे भी बडा मकान खडा कर लेंगे। तब तक मकान की बात करनी ठीक नहीं है ।
 
 
       कुछ देर बात पडोस के मित्र आकर मुझे अपने घर ले गये, और अपने मकान की बात करने लगे । कहने का मतलव कि अगर पडोस में कोई बडा मकान बन जाय तो मुश्किल हो जायेगी ।
 
 
        हम दूसरों के सुख में जरा भी सुखी नहीं हो पाते हैं । इसलिए दूसरे के दुख में जब हम दुख दिखलाते हैं तो वह झूठा होता है।
 
 
        हम हंसते हैं,यह सिर्फ दिखावे की हंसी है यह हमारा असली चेहरा नहीं है,बनाया हुआ चेहरा है,शायद जिसको हम भी नहीं पहचानते हैं ।
 
 
        एक मनोवैज्ञानिक का कहना है कि अगर एक कमरे में दो आदमी मिलते हैं तो दो आदमी नहीं मिलते हैं बल्कि कमसे कम छह आदमी मिलते हैं । अगर मैं आपसे किसी कमरे में मिल रहा हूं तो एक तो मैं हूं,और एक वह रहेगा जो मैं आपको दिखला रहा हूं,और एक वह रहेगा जिसे आप मुझे समझ रहे हैं ।आप भी तीन और मैं भी तीन छह आदमियों की बातचीत चलेगी । और असली आदमी तो बहुत पीछे छूट जायेगा,नकली आदमी आगे आकर बात करते रहेंगे । न मालूम कितनी शक्लें बदलनी पडेगी । क्योंकि अपना दुख छिपाना पडता है । उसे उसे बताने का कोई अर्थ भी नहीं है । उसे किसी से कहने से कोई प्रयोजन भी नहीं होता ।
 
 
         एक यहूदी फकीर की लिखी कहानी है कि -मैं सारे लोगों को देखता हूं । रास्ते भर जो भी दिखता है हंसता हुआ दिखाई दोता है ,जो भी मिलता है मौज में दिखता है ,किसी से मैं पूछता हूं कि कहिए  क्या हाल है ?वह कहता है सब ठीक है,बडा आनन्द है ।और मैं उनके भीतर झॉक कर देखता हूं तो दुख के सिवाय और कुछ नहीं है । फिर एक दिन मैंने भगवान से प्रार्थना की कि मुझसे नाराजी क्या है ?सारे लोग खुश हैं ,जिससे पूछो कहता है सब ठीक है। एक मैं ही हूं जो जो परेशान हूं । ईश्वर तुझसे यही प्रार्थना है कि किसी भी अनजान आदमी का दुख मुझे दे दे और मेरा दुख उसे दे दे मैं तैयार हूं । इस गॉव में किसी भी आदमी का दुख लेने को मैं तैयार हूं । मेरा दुख बदल ले ।
 
        इसलिए हमें देखना होगा कि यह जिन्दगी जीने के लिए है,और सही ढंग से जीने के लिए सत्य को आधार माने, सत्य को पहचाने अन्दर और बाहर की दुनियॉ में भेद न रखें । 


Sunday, October 21, 2012

ईश्वर की अनुभूति

 
1-           जिस प्रकार पतंगा प्रकाश को देखकर अपने आप ही अग्नि में गिरता है,उसी प्रकार भक्त भी भगवान के निमित्त अपना सर्वस्व त्याग देता है ।
 
 
2-           जिस प्रकार दाद को जितना ही अधिक खुजलाते जाते हैं वह उतना ही अच्छा लगता है, उसी प्रकार भक्त भी भगवान के नाम लेने और स्तुति करने से तृप्त नहीं होते
 
 
3-           एक मनुष्य दूसरे को प्यार करता है,परन्तु वह दूसरा उस प्रथम मनुष्य को प्यार नहीं करता है,इसप्रकार एक ओर के प्रेम को एकॉगी प्रेम, भक्ति कहते हैं । जैसे पतंगा तो दीप को चाहता है मगर दीप पतंग को नहीं चाहता है ।
 
 
4-           रात्रि के ,समय आकाश में असंख्य तारे दिखते हैं, लेकिन सूर्योदय होने पर वे दृष्टिगोचर नहीं होते हैं ,क्या इससे कोई कह सकता है कि आकाश में तारे नहीं हैं ? इसी प्रकार अविद्या रहते यदि ईश्वर के दर्शन न हों तो क्या कोई कह सकता है कि ईश्वर है ही नहीं ?
 
 
5-           जिस प्रकार छत के ऊपर जाने तके लिए सीढी,बॉस,रस्सी,इत्यादि अनेक साधन हैं, वैसे ही उस ईश्वर के पास जाने के लिए बहुत से मार्ग हैं,पर प्रत्येक मार्ग अंत में एक होकर ईश्वर को मिलता है ।
 
 
6-           जिस प्रकार अग्नि का कोई रूप नहीं है परन्तु प्रज्वलित अंगारों से उसका एक प्रकार का रूप दिखाई देता है, अर्थात उस समय अग्नि रूप धारण कर लेती है ।उसी प्रकार परमेश्वर का कोई रूप नहीं है,पर वे कभी-कभी विशेष आकार धारण कर लेते हैं ।
 
 
7-           समुद्र में एक बार डुबकी मारने से यदि रत्न न मिले तो उस समुद्र को रत्न हीन न कहो।बार-बार डुबकी लगाते-लगाते रत्न अवश्य मिलेगा । थोडी सी साधना करके ईश्वर को न पाकर यह मत बोलो कि ईश्वर नहीं मिला और न ही निराश होना, धीरज रखकर साधन करते रहें फल मिलने का समय अवश्य आयेगा ।
 
 
8-           जिस प्रकार मेघ से सूर्य ढक जाता है,वैसे ही माया से ईश्वर ढंके हुये हैं । फिर जैसे मेघ के हटने पर सूर्य दिखाई देता है,वैसे ही माया के हटने पर ईश्वर पर दृष्टि पडेगी ।
 
 
9-           भॉग-भॉग कहकर चिल्लाने से क्या भॉग का नशा चढेगा ? कदापि नहीं । हॉ, यदि भॉग पीसकर पियो तो नशा होगा । उसी प्रकार खाली ईश्वर -ईश्वर कहकर चिल्लाने से क्या मिलेगा ? नियम बॉधकर साधन करो तो परमात्मा प्राप्त होगा ।
 
 
10-           अमृत के तालाब में चाहे जैसा गिरो,अमर हो जाओगे,वैसे ही भगवान का नाम चाहे जैसे लो, उसका फल अवश्य मिलेगा ।
 
 
11-           दीपक का कार्य तो प्रकाश देना है । अब उसका प्रयोग भात पकाने में करे या जालसाजी के लिए करें,या गीता को पढने में करे, इससे दीपक का कोई दोष नहीं है । इसी प्रकार अगर कोई भगवान का नाम को लेकर मुक्ति चाहता है या चोरी ठगी करता है तो उसमें भगवान का क्या होष है ?
 
 
12-           प्र-क्या सब मनुष्य ईश्वर दर्शन कर पायेंगे ?
उ-हॉ जैसा कोई मनुष्य कभी भूखा नहीं रहता है,कोई नौ बजे,कोई दो बजे और कोई सॉझ को भोजन पाता है,उसी प्रकार किसी न किसी जन्म में कभी न कभी सभी ईश्वर का दर्शन पायेंगे ।
 
 
13-           जिस प्रकार मछली चाहे कितनी ही दूर क्यों न हो पर चारा देखकर वह झट से पास चली आती है, उसी प्रकार भगवान भी विश्वासी भक्त के मन में शीघ्र आकर उपस्थित होते हैं ।
 
 
14-           जब तक ईश्वर नहीं दिखाई देता है तब तक कामनारूप पवन से हिलोरे लेती रहती है तबतक ईश्वर नहीं दिखाई देता है, लेकिन जब ईश्वर की ज्योति झलकती है,तब उसकी झॉकी पाने वाले का ह्दय सुस्थिर हो जाता है ।
 
 
15-           मन में भगवान के आगमन की पहचान है -जैसे सूर्योदय के पूर्व गगन में ललाई छा जाती है उसी प्रकार भगवान भी विश्वासी भक्त के मन में शीघ्र आकार उपस्थित होते हैं ।
 
 
16-           जिस प्रकार दूध में जल डालने पर दूध और जल दोनों मिलकर एक हो जाते हैं ,लेकिन जब दूध का मक्खन बन जाता है वह जल में नहीं घुलता है,इसी प्रकार ईश्वर की प्राप्ति होने पर भक्त जन किसी दशा में भवबन्धन में नहीं पडते ।।
 
 
17-           सभी जल में नारायण है मगर सब जल को पिया नहीं जाता । इसी प्रकार नारायण सर्वत्र है,पर हमें सभी स्थानों पर नहीं जाना चाहिए ।जैसे एक जल से पॉव धोते हैं,एक से नहाते हैं,एक को पीते हैं और एक को छूते भी नहीं हैं । ऐसे ही भिन्न-भिन्न प्रकार के स्थान भी हैं । किसी स्थान में हम जा सकते हैं,और किसी को दूर से ही प्रणॉम करके जाना होता है ।।
 
 
18-           जैसे कमल के पत्ते जल में लगे रहते हैं पर जल से अलग रहते हैं और मछली कीचड में रहती है लेकिन उसकी देह में कीचड नहीं लगता है । इसी प्रकार भक्त कहीं भी रहे उसकी आस्था उसी ईश्वर में होती है ।
 
 
19-           पूजा तबतक करनी चाहिए जबतक हरिनाम में प्रेम के आंसू न बहे । कान में भगवान का नाम सुनते ही जिसकी आंखों में आंसू निकल आता है,उस मनुष्य को फिर पूजा करने की आवश्यकता नहीं है ।
 
 
20-           जो व्यक्ति अपने में ईश्वर को पहचान सके वह अन्य में भी ईश्वर देख सकता है ।
 
 
21-           एक के आगे लगातार शून्य लगाते जाने से संख्या बढती है ,परन्तु एक को मिटा देने से फिर कुछ भी शेष नहीं रहता है ,उसी प्रकार जब एक ईश्वर है तभी तक जीवों का स्तिचत्व है ,उस ईश्वर को छोड देने से सर्वस्व मिथ्या हो जाता है ।
 
 
22-          अपना दिल सुरक्षित स्थान पर रखो; वह बहुत कोमल है । घटनाएँ और छोटी छोटी बातें उसपर बड़ा प्रभाव छोड़ जाती हैं । अपने दिल को सुरक्षित और मन को स्वस्थ रखने का ईश्वर से श्रेष्ठ स्थान कोई नहीं है ।
 
 
23-          दुनिया के सभी लोग एक ही भाषा में मुस्कुराते हैं ।
 
 
24-          जब तक तुम असंतुष्टता से कृतज्ञता तक नहीं जाते, जब तक स्वयं को भाग्यशाली नहीं मानने लगते, तब तक दुर्भाग्य के बीज उपस्थित रहेंगे । "धन में मेरा भाग्य ठीक नहीं है| संबंधों में मेरा भाग्य ख़राब है । काम में किस्मत साथ नहीं देती ।" यह सब अपने मन से निकाल दो ।
 
 
25-          भगवती देवी जो शुद्ध चेतना हैं, सभी नामों और रूपों में व्याप्त हैं । उस एक दिव्यता को पहचानना नवरात्री का अभिप्राय है ।
 
 
26-          कोई और तुम्हारे लिए फूल लाए, इसकी प्रतीक्षा न करो । अपना बागीचा खुद लगाओ और अपनी आत्मा का श्रृंगार करो ।
 
 
27-          उलझन का अर्थ है कि तुमने एक रास्ता चुना पर दूसरे रास्ते पर अधिक आनंद दीखता है । तुम कोई भी चुनो, लगता है दूसरा अधिक आनंदमय होगा । आनंद किसी और से अधिक नहीं होगा । तुम स्वयं ही आनंद के स्रोत हो ।
 
 
28-          शांति तुम्हारा स्वभाव है, फिर भी तुम अशांत हो । मुक्ति तुम्हारा स्वभाव है फिर भी तुम बंधन में हो । प्रसन्नता तुम्हारा स्वभाव है फिर भी तुम किसी न किसी कारण दुखी हो जाते हो । संतोष तुम्हारा स्वभाव है फिर भी तुम कामनाओं से घिरे हो । उपकार तुम्हारा स्वभाव है फिर भी तुम दूसरों के प्रति कदम नहीं बढ़ाते ।
 
 
29-          साधना का अर्थ है अपने स्वभाव की ओर जाना, अपने स्वरूप में आना ।
 
 
30-          जब शब्द बुद्धि को छूते हैं तो ऐसा आभास होता है जैसे हमें सब पता है । तुम भले एक ही वाक्य जानते हो, यदि बुद्धि से जानते हो, तो दस वाक्य कहोगे । पर जब शब्द दिल को छूते हैं तो एक विस्मय होता है, कुछ प्रस्फुटित होता है, एक लहर या फव्वारा उठता है, और तब शब्दों की आवश्यकता नहीं रहती ।
 
 
31-          सच्चा प्रेम पाने की क्षमता प्रेम देने की क्षमता के साथ ही आती है । प्रेम कोई भावना नहीं है । प्रेम तो तुम्हारा अस्तित्व है ।
 
 
32-          सामान्यतः विजय दशमी अच्छाई की बुराई पर जीत जानकार मनाई जाती है, पर वास्तव में युद्ध अच्छाई और बुराई के बीच नहीं है । वेदांत की दृष्टि से जीत वास्तविक अद्वैत की मिथ्या द्वैत पर होती है । हालाँकि जीव जगत ब्रह्माण्ड का ही भाग है, पर उसमें भिन्नता की कल्पना इस द्वंद्व का कारण है । एक ज्ञानी के लिए संपूर्ण सृष्टि सजीव हो उठती है और वह बच्चों की भांति सब कुछ जीवित देखता है ।
 
 
33-          सबसे बड़ी आहुति तुम स्वयं हो । आखिरकार, तुम दुखी क्यों होते हो? मुख्य रूप से तभी जब तुम जीवन में कुछ पा न सको । ऐसे समय में सब कुछ सर्वज्ञ ईश्वर को समर्पित कर दो । ईश्वर को समर्पण करने में सबसे बड़ी शक्ति है । जैसे एक बूँद समुद्र में घुल कर उसे अपना लेती है, यदि वह अलग रहती है तो मिट जाएगी| पर जब वह समुद्र बन जाती है तो अमर हो जाती है ।
 
 
34-          असंभव का स्वप्न देखो, असंभव कल्पना करो| यह जान लो कि तुम इस दुनिया में कुछ अद्भुत और अद्वितीय करने आये हो । खुद को बड़ा सोचने की और बड़े सपने देखने की मुक्ति दो ।
 
 
35-          प्रेम अनुभव करना दिल का काम है और संदेह करना दिमाग का । दोनों का अपना अपना स्थान है । तुम्हें दोनों की आवश्यकता है । तुम कितना संदेह कर सकते हो? करते रहो और जब सारे संदेह ख़त्म हो जायें और नए उत्पन्न न हों, तब वहां से श्रद्धा का आरम्भ होता है ।
 
 
36-          पहला कदम है विश्राम करना और आखरी कदम भी विश्राम करना ही है! सबसे आरामदेह और सुखदाई स्थान तुम्हारे भीतर ही है| अपने आत्म की शांत निर्मल गहराई में विश्राम करो - यह अति अमूल्य है । । संपूर्ण ब्रह्माण्ड के इस अति सुन्दर, अति सुखदाई घर में स्वयं को दर्ज कर लो ।
 
 
37-          प्र: मुझे नास्तिक होना चाहिए या आस्तिक?
तुम स्वयं का वर्गीकरण क्यों करना चाहते हो? एक दिन नास्तिक हो जाओ, किसी और दिन आस्तिक हो जाओ । तुम कुछ भी रहो, अन्दर से सच्चे रहो ।
 
 
38-          ज़रा उन लोगों की ओर देखो जो वह सब करते हैं जिससे तुम्हें द्वेष है । एक क्षण के लिए, वे जैसे भी हैं उनके प्रति दया भाव रखो । तुम्हारे भीतर एक परिवर्तन होता है; तुम विशाल हो जाते हो; तुम्हारे आत्म का विस्तार होता है ।

Wednesday, October 17, 2012

परिवर्तन की नीव

http://raghubirnegi.wordpress.com/
 
1-अन्धविश्वास त्याग कर सबल बनें
 
          जीवन में अगर सबल बनना है तो पहले अन्धविश्वास को त्यागना होगा । हमारी शारीरिक दुर्वलता  और एक तिहाई दुखों का कारण अन्धविश्वास ही है, यही हमारी असली स्थिति हैं। हम आपस में मिलजुलकर नहीं रहते हैं,एक दूसरे से प्रेम नहीं करते हैं,हम स्वार्थी हो गये हैं ।यदि तीन व्यक्ति एकठ्ठा होते हैं तो एक दूसरे की घृणॉ करते हैं,आपस में ईर्ष्या करते हैं।हम सेकडों शताव्दियों से इन्हीं बातों पर वाद-विवाद करते आ रहे हैं ।अगर देखें तो वाद-विवाद का असली कारण पंडित भी है । ऐसे पंडितों से हम क्या आशा कर सकते हैं जो यह बताते हैं कि तिलक इस तरह धारण करना चाहिए ताकि अमुक व्यक्ति की नजर न  लगे। या हमारा भोजन दूषित न हो । इस तरह के अनावश्यक प्रश्नों की मीमॉसा जो कि दोषपूर्ण है, ऐसे दर्शन लिख डालने वाले पंडितों से क्या आशा कर सकते हैं ? अन्धविश्वास से मन की शक्ति नष्ट हो जाती है,उसकी क्रियाशीलता और चिन्तनशक्ति जाती रहती है,जिससे उसकी मौलिकता नष्ट हो जाती है ,फिर वह छोटे-छोटे दायरे के भीतर चक्कर लगाता रहता है । अन्धविश्वासी होने की अपेक्षा घोर नास्तिक होना ठीक है, क्योंकि नास्तिक कमसे कम जीवन्त तो है, उसे तो किसी भी प्रकार से बदला जा सकता है,लेकिन यदि उसमें अन्धविश्वास घुस जाय तो,नास्तिक बिगड जायेगा,दुर्वल हो जायेगा और विनाश की ओर अग्रसर होने लगेगा । इसलिए इन संकटों से बचना जरूरी है ।
 
 
          और खासकर अपने युवा मित्रों से अपेक्षा है कि कहा जाता है कि पहले आत्मा फिर परमात्मा इसलिए गीता पाठ की जगह फुटबाल खेलने में आपकी प्रथमिकता पहले हो, स्वर्ग तुम्हारे निकट होगा । क्योंकि बलवान शरीर से गीता को कहीं अधिक समझा जा सकता है । ताजा रक्त होने से कृष्ण की प्रतिभा को अधिक अच्छी तरह समझा जा सकेगा । जिस समय तुम्हारा शरीर तुम्हारे पैरों के बल दृढ भाव से खडा होगा,जब तुम स्वयं को मनुष्य समझोगे तभी तुम भलीभॉति उपनिषद और आत्मा की महिमा को समझ सकोगे । इसलिए सब प्रकार के रहस्यों से बचें । हर बात में रहस्यता और अन्धविश्वास दुर्वलता के ही लक्षण हैं । ये तो अवनति और मृत्यु के ही चिन्ह हैं । उनसे सदैव बचकर रहें ।बलवान बनो और अपने पैरों पर खडे होने  का संकल्प दुहराओ ।


          हम अपने जीवन में वेकार की बातें करते रहते हैं,हमारे अन्दर सदियों से अन्धविश्वास का जो कूडा करकट भरा पडा है ।हजारों वषों से हम आहार की शुद्धि-अशुद्धि के झगडे में अपनी शक्ति को नष्ट करते रहे हैं । युगों से हाथ में किताब लिय़े घूम रहे हैं । हम आज भी यूरोपियनों के मन से निकली बातों को लेकर बिना सोचे समझे दुहरा रहे हैं । एक दूसरे की गुलामी करते है,भिखारियों की तरह हाथ फैलाते हैं,कभी नौकरी के लिए, कभी मुशीगिरी के लिए,तो कभी मजदूरी के लिए ।इसलिए हमें इस संकरे अन्धकूप से बाहर निकलकर चारों ओर दृष्टि डालनी होगी । हमने इतनी अधिक विद्या सीखी है और भिखारियों की भॉति नौकरी दो- नौकरी दो कहकर चिल्ला रहे हैं । ठोकरें खाते हुये गुलामी करते हैं, क्या यही मनुष्य का स्वभाव है । ऐसी सुजला सुफला भूमि में जन्म लेकर भी हमारा यह स्वभाव बना हुआ है । हम अपने आंखों पर पट्टी बॉधकर कह रहे हैं कि मैं अन्धा हूं, देख नहीं सकता हूं ।थोडा आंखों से पट्टी तो हटा दो तो देखोगे कि सूर्य की किरणों से जगत आलोकिक हो रहा है ।
 
 
 
2-शिक्षा पद्धति की नीव कैसी हो -
 
          पहली बात तो यह है कि विस्तार ही जीवन हैऔर संकोच मृत्यु ,अथवा प्रेम ही जीवन है और द्वैष ही मृत्यु हैं । कहते हैं कि हमारी मृत्यु उस दिन से शुरू हो गई थी जिसदिन से हम अन्य जातियों से घृणां करने लगे थे । इस मृत्यु का एक मात्र उपाय है, मानव जीवन के मूल स्वरूप को अपनाना । पृथ्वी की सभी जातियों से हमें मिलकर रहना होगा । शिक्षा ग्रहण करते समय हमें सावधान रहना होगा पाश्चात्य शिक्षा के उदाहरणों में अधिकॉश असफल देखे गये हैं । पाश्चात्य से तो हम सिर्फ भोग के बारे में कुछ सीख सकते हैं । अपने देश में इस समय दो रुकावटें दिख रही हैं -एक ओर हमारा प्रचीन हिन्दू समाज और दूसरी ओर वर्तमान पाश्चात्य सभ्यता । इनमें से हमें कोई एक को चुनना है, अगर आप मुझसे पूंछें तो मैं प्राचीन हिन्दू समाज ही पसन्द करूंगा । क्योंकि अपरिपक्व होने पर भी हिन्दुओं के ह्दय में एक विश्वास है,एक बल है जिससे वह अपने पैरों पर खडो हो सकता है । लेकिन विदेशी रंग में रंगा व्यक्ति तो मेरुदण्ड विहीन है,वह इधर-उधर के विभिन्न श्रोतों से वैसे ही एकत्र किये हुये अपरिपक्व वेमेल भावों की असंतुलित राशि मात्र है । वह तो अपने पैरों पर खडा नहीं हो सकता है,उसका सिर हमेशा चक्कर खाया करता है,ये लोग निश्चित व्यक्तित्व ग्रहण नहीं कर सकते हैं । ये लोग न स्त्री हैं और न पुरुष या पशु । जबकि अपनी प्राचीन संस्कृति के लोग कट्टर तो थे लेकिन मनुष्य थे,उनमें दृढता थी ।इसलिए अपनी शिक्षा का आदर्श समग्र आध्यात्मिक तथा लौकिक नींव पर आधारित होना चाहिए । आज की आवश्यकता है कि हम सबको एक ही मन का बनना होगा,एक ही विचारों का होना होगा,क्योंकि प्राचीन काल में एक मन होने के कारण ही देवतागण यज्ञ का फल पाने में समर्थ हुये थे ।एक चित्त हो जाने में ही नये समाज का गठन का रहस्य है ।
 
         
           जिन लोगों के देश का कोई इतिहास नहीं है, उनका अपना कोई स्तित्व ही नहीं है ।लेकिन हमें तो गर्व होना चाहिए कि हम इतने बडे वंश की सन्तानें हैं । उस संस्कृति में हम क्या बुरे हो सकते हैं । यही विश्वास हमें लगाम की तरह इस प्रकार खींचे रखेगा कि हम मरते दम तक कोई बुरा कार्य नहीं कर सकेंगे,और हमें कभी नींचा होने नहीं देगा । ऐसा ही तो हमारे देश का इतिहास है !जिसके पास आंखें हैं ,इसी ज्वलंत इतिहास के बल पर आज भी सजीव है । इससे मुझे अपने प्राचीन पूर्वजों के गौरव का बोध होता है । हमने अपने अतीत का जितना भी अध्ययन किया है ,और जितनी ही भूतकाल की ओर दृष्टि डाली है,उतना ही अधिक गर्व हमें होता है । और इसी विश्वास से प्राप्त दृढता और साहस ने हमें इस धरती की धूल से ऊपर उठाया है । हमें यही सोचना है कि मुझमें अनन्त शक्ति,अपार ज्ञान,अदम्य साहस,और उत्साह विद्यमान है, अपने भीतर की उस शक्ति को जगा सको तो महान बन सकते हो । चालाकी से कोई महान कार्य नहीं हो सकता है प्रेम,,सत्यानुराग तथा महॉशक्ति की सहायता से ही सभी कार्य सम्पन्न होते हैं ।
 
 
 
3-शरीर और मन का संयोग-
          शरीर और मन दोनों का विकास आवश्यक है शरीर फौलादी हो लेकिन उसमें तीक्ष्ण बुद्धि भी हो तो यह संसार आपके सामने नतमस्तक हो जायेगा । जीवन के लिए लोहे की नशें,और फौलादी स्नायु जिसके भीतर ऐसा मन निवास करता हो,जो वज्र के समान पदार्थ का बना हो ।बल,पुरुषार्थ,क्षात्रवीर्य और ब्रह्मतेज परिलक्षित हो । अपने मस्तिष्क को ऊंचे-ऊंचे आदर्शों से भर लो और उन्हैं दिन रात अपने सामने जाग्रत रखो,तो फिर उसी से महान कार्य होंगे । अपवित्रता के बारे में कुछ भी मत कहना और सोचना । अपने मन से कहते रहो कि-हम शुद्ध और पवित्रता स्वरूप हैं ।इन विचारों से अपना पोषण करते रहो , तो फिर देखोगे आपमें कैसी ज्यौति उत्पन्न होती है ।
 






Monday, October 15, 2012

धर्म की खोज

         
          धर्म के सम्बन्ध में हमारी धारणॉएं आज भी अस्पष्ट हैं,हमें उसे सही ढंग से समझना होगा । इस दुनियॉ में अलग-अलग विधाएं हैं जिन्हैं हम एक दूसरे से सीख सकते हैं, लेकिन धर्म एक ऐसी विधा है जिसे दूसरे से सीखने से बचना चाहिए । अन्यथा मुश्किल पैदा होगी । सच तो यह है कि धर्म किसी दूसरे को स्वीकार ही नहीं करता । अकेली विधा है धर्म, जिसे स्वयं ही सीखा जाता है । दूसरे से सीखने की कोई गुंजाइस नहीं है । इसका कारण यही है कि यह सत्य परिवर्तनीय नहीं है,यह एक हाथ से दूसरे हाथ में नहीं दिया जा सकता । और यदि दिया जाय तो, उधार हो जायेगा । और उधार होते ही यह अज्ञान से भी बदतर हो जाता है ।  और यह उधार ज्ञान उसके लिए एक खतरा हो सकता है,यह अहंकार से भर जाता है ।जो ज्ञान भीतर से पैदा होता है उससे अहंकार ऐसा भाग जाता है कि मानो सुबह के सूरज उगने पर अंधेरा विदा हो जाता है । खुद के ज्ञान के पैदा होने पर अहंकार नहीं आता है,लेकिन दूसरे से लिया हुआ ज्ञान अहंकार को मजबूत करता है । और यही अहंकार परमात्मा से मिलने में बाधा बन जाता है ।
 
 
          हमें इस बात को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि धर्म कभी भी दूसरे से उपलब्ध नहीं होता है । इसका अर्थ यह नहीं कि दूसरा बिलकुल बेकार है । अगर बुद्ध हमारे बीच से गुजर जाये तो बुद्ध हमें ज्ञान नहीं दे सकता है या नानक गीत गाता हुआ हमारे पास आता है तो नानक हमें ज्ञान नहीं दे सकता है । लेकिन अगर बुद्ध या नानक के जाने के बाद हमारी प्यास जग सकती है । उन्हैं देख कर हमें इस बात का समरण आ सकता है कि जो उन्हैं प्राप्त होने में सम्भव हुआ वह मुझे भी सम्भव हो सकता है ।
 
 
          अगर देखें तो धर्म की दुनियॉ में ज्ञानी ज्ञान देने वाले नहीं होते हैं बल्कि प्यास जगाने वाले होते हैं । प्यास जगने के बाद कुंआं तो अपने ही भीतर खोदना होता है । पानी तो अपने ही भीतर खोजना पडता है । अगर यह ज्ञान कोई दूसरा देने वाला होता तो एक ही ज्ञानी ने सारी दुनियॉ को ज्ञान दे दिया होता । क्योंकि ज्ञानी में इतनी करुंणॉ होती है कि वह रुकता ही नहीं है,सबको वह बॉट देता । लेकिन यह दिया ही नहीं जा सकता है । इसीलिए सब ज्ञानी तडफते हुये मर जाते हैं, अपने लिए नहीं दूसरों के लिए ,क्योंकि जो उन्हैं मिल गया वे उसे देना चाहते हैं,लेकिन वह दिया नहीं जा सकता । अगर देते हैं तो शव्द ही उनके पास जा पाते हैं अनुभूति तो अपने ही अन्दर रह जाती है ।
 
 
          अगर गीता को देखें तो उसमें एक हजार टीकाएं हैं । क्या कृष्ण ने गीता के एक हजार अर्थ बताये !कृष्ण जैसे आदमी का मतलव तो एक होता है। गीता के ये अर्थ कृष्ण के नहीं हैं ।फिर ये अर्थ कहॉ से आये,ये एक हजार टीका करने वालों के अर्थ हैं । जब हम गीता पढते हैं तो वह कृष्ण की गीता नहीं होती है,हम उसमें अपना अर्थ डाल कर पढते हैं । हम ही उसमें होते हैं । इसलिए शास्त्र को भूलकर भी नहीं पकडना, क्योंकि शास्त्र में हम खुद को ही पढते हैं । अगर शास्त्र को दो आदमी पढते हैं तो दो अर्थ निकलते हैं ।
 
 
          इसी सम्बन्ध में एक प्रसंग कि एक रात को बुद्ध ने प्रवचन दिया और प्रवचन के बाद रोज अपने भिक्षुकों को कहते थे कि जाओ अब रात के आखिरी काम में लग जाओ । उस दिन एक चोर भी आया हुआ था,प्रवचन देने के बाद बुद्ध ने आज भी वैसा ही कहा । चोर उठा और कहने लगा आज तो बडी देर हो गई । एक वैश्या भी आई थी,उसने भी कहा मैने कितना समय विता दिया,ग्राहक वापस लौट गये होंगे । इसके बाद भिक्षु उठकर ध्यान करने चले गये, क्योंकि भिक्षुओं को रात का आखिरी काम था, वे ध्यान करने चले गये ,उसके बाद सोना था । भिक्षु ध्यान करने लगे,चोर अपने काम पर चले गये,वैश्या अपनी दुकान चलाने चली गई । बुद्ध ने एक ही शव्द कहा था आओ रात के काम पर लग जाओ ।
 
 
          प्रश्न यह उठता है कि सत्य कौन देगा ?जबकि अर्थ हम देते हैं, शास्त्र को पढकर सत्य मिलने वाला नहीं है । सत्य तो स्वयं को खोने से मिलेगा । शास्त्र तो स्वयं का ही दर्पण है,इसलिए हम तो अपने को ही पढ लेते हैं । इसलिए कुरान को मुसलमान पढता है तो उसका और ही अर्थ निकाल लेता है ।यदि वेद को पढते हैं तो अपना अलग ही अर्थ निकाल लेते हैं । ये अर्थ  तो हमारे हैं । अगर हमारे मतलव सत्य होते तो वेद तक जाने की क्या जरूरत है ?हम तो सत्य हैं ही ।
 
 
          यह भी देखना है कि अगर आप शास्त्र जानते हैं तो आपका अहंकार और मजबूत हो जाता है, पंडितों का अहंकार कम नहीं होता है । जानने का अहंकार इस दुनियॉ में सबसे गहरा अहंकार है । इसीलिए पंडित निरंतर लोगों को लडाई में ले जाते हैं । जो भी लडाइयॉ हुईं है वे ज्ञानियों के कारण ही तो हुईं हैं, अज्ञानियों के कारण नहीं ! इसका कारण झूठा ज्ञानी होना है ।अज्ञानी तो बेचारे उस ज्ञानी के चक्कर में पडकर लडते रहते हैं । झूठा ज्ञान अहंकार भरा होता है, इसलिए सारी लडाई झूठे ज्ञानियों के कारण होती है ।
 
 
          इस बात को भी हमें देखना है कि धर्म एक ऐसी विद्या नहीं है जो हमें शास्त्र को पढने से मिल जाय, बल्कि धर्म ऐसी विद्या है जो स्वयं को खोने से मिल जाती है । आज तक कोई ऐसा शास्त्र नहीं बना जिनको जानकर आप धर्म जान लेंगे,हॉ अगर आपने धर्म को जान लिया तो आप शास्त्रों को भी जान लेंगे । धर्म को जान लेंगे तो सभी शास्त्रों का राज खुल जायेगा । अगर धर्म को जान लेंगे तो शास्त्र समझ में आ जायेंगे ।लेकिन शास्त्र को समझकर धर्म समझ में नहीं आ सकेगा ।

Saturday, October 13, 2012

विश्वास की परख


 

1- धर्म में विश्वास करने वाले आदमी धार्मिक नहीं होते हैं-


      
        धर्म में विश्वास का मतलव है जो हम नहीं जानते हैं और उसे हमने मान लिया । यह जैसे अन्धापन है । यह तो अपने को अन्धा बनाने का रास्ता है ।

      
        अबतक हमें यह समझाया जाता रहा है कि अगर भगवान को पाना है तो विश्वास करो ? और बहुत सारे लोगों ने विश्वास किया है, लेकिन भगवान को कम लोगों ने  पाया । 

        विश्वास तो सभी करते हैं, लेकिन भगवान अधिक लोगों को क्यों नहीं उपलव्ध हो पाता ? पृथ्वी पर लोग हजारों सालों से विश्वास कर रहे हैं,लेकिन लोगों के जीवन में परमात्मा की झलक नहीं उतर पाती । कितने मन्दिर है,कितने मस्जिद हैं,कितने गुरुद्वारे है !कितना पूजा-पाठ, कितनी प्रार्थना है,कितना विश्वास है !लेकिन फिर भी लोग धार्मिक क्यों नहीं हैं ? लोगों का जीवन तो अधार्मिक है । क्या हो गया ?कारण क्या है ?
    
        इसका कारण एक ही है कि यह जीवन चलता है ज्ञान से विश्वास से नहीं । विश्वास सत्य नहीं बन पाते हैं । और विश्वासों को सत्य बनाया भी नहीं जा सकता है । अगर सत्य को जानना है तो विश्वास छोडना होता है ।

       
        ऐसा भी नहीं कि विश्वास करना छोड दो, क्योंकि अविश्वास भी उलटा विश्वास है ।जो आदमी न विश्वास और न अविश्वास के बीच में खडे होने को राजी है, उसी के जीवन में ज्ञान की किरण उतरती है । जो व्यक्ति न तो विश्वास की खूंटी से अपनी नाव को बॉधता है और न अविश्वास की खूंटी से बॉधता है ,न हिन्दू,न मुसलमान,न जैन, न ईसाई, और न सिक्ख किसी की भी खूंटी से अपने आपको बॉधता है और कहता है कि हम तो अनंत के सागर में अपनी नाव को छोडेंगे,किसी की खूंटी से बॉधेंगे नहीं -वही आदमी परमात्मा तक पहुंचने में सफल हो पाता है ।
 
 
        देखने वाली बात तो यह है कि हिन्दू,मुस्लिम,सिक्ख,ईसाई,जैन सभी जिनका गुणगान करते है, वे ही लोग है जो बिना किसी की खूंटी से बंधे ही परमात्मा तक पहुंचे हैं । सभी नौका को छोडकर सागर में जाने वाले लोग हैं । लेकिन हम हैं कि उनके नाम पर खूंटियॉ भॉधकर किनारे पर बैठ जाते हैं ।

 कवीर ने ठीक ही तो कहा है कि-

जिन खोजा तिन पाइयॉ,गहरे पानी पैठ।
मैं बौरी खोजन गई,रही किनारे बैठ।।

उन्होंने पाया जो गहरे डूबे और मैं पागल किनारे पर बैठ कर रह गई , इसलिए कि डूबने से डर गईं ।
 

       अर्थात जो भी डूबने से डरेगा वह खूटियॉ पकड लेगा, उसका सहारा पकड लेगा ।और जो डूबने से डरेगा वह परमात्मा तक नहीं पहुंच सकता है। क्योंकि जो डूबता है वही उबरता है,जो डूबता है वही पहुंचता है ,वही पाता है ।अगर बचना है तो डूबना होगा । अगर धर्म से बचना है तो ,किनारे पर खूंटियॉ पकडकर बैठजाना ही उपयोगी है ।
 

       ये खूटियॉ पुरानी हो सकती हैं या नईं हो, बस इनका काम बॉधने का होता है । और वैसे धर्म कोई खूंटी नहीं होती है ,धर्म तो स्वतंत्रता है । इसलिए धार्मिक आदमी न तो हिन्दू होता है न मुसलमान,न ईसाई होता है न सिक्ख । धार्मिक आदमी तो बस आदमी होता है ।
 

      एक बार में हेमकुण्ड-जोशीमठ गुरुद्वारे में देखने गया तो एक मित्र ने कहा यहॉ ईसाई,हिन्दू,मुसलमान,सबके लिए जगह खुली है । मैने कहा ऐसा मत बोलो भई ?क्योंकि ऐसा कहने में ही ईसाई,सिक्ख मुसलमान की स्वीकृति हो जाती है कि ये अलग-अलग हैं । इतना ही कहें कि यहॉ हर आदमी के लिए जगह खुली है ।
 

       कभी वह समय आयेगा जब इस पृथ्वी पर ऐसे मंदिर बनेंगे जिसमें सिर्फ आदमी होना काफी होगा,जिनमें कोई पहचान नहीं होगी । आज तक नहीं बना पाये ,हजारों बार केशिश होती रही है,कभी बुद्ध,कभी महॉवीर,कभी कृष्ण,कभी क्राइस्ट,नानक ने ऐसा मन्दिर बनाने का प्रयास किया है और महॉन लोग आगे करते रहेंगे । लेकिन हम भी ऐसे पागल हैं कि हम उन मन्दिरों में अपनी खूंटियॉ गाढ लेते हैं । हम उन मन्दिरों पर भी कब्जा कर लेते हैं । हम उस मन्दिर को भी किसी का बना लेते हैं । और जो मन्दिर किसी का बन जाता है, वह मन्दिर परमात्मा का नहीं रह जाता है । परमात्मा का होने के लिए उसका किसी का होना अयोग्यता है । वह किसी का भी न हो ,तभी वह सभी का हो सकता है ।
 

       एक बार मैं दिल्ली में अपने मित्र के यहॉ गया था । हमारे पडोस में कुछ हरिजन मित्र बन गये । उन्होंने हमसे कहा कि गॉधी जी तो ऐसे थे कि हरिजनों के घर ठहरते थे । आप हम हरिजनों के यहॉ क्यों नहीं ठहरते
? मैंने उससे कहा कि मैं तुम्हारे घर ठहर सकता हूं,लेकिन  हरिजन के घर नहीं ठहर सकता । क्योंकि तुम हरिजन हो । यह अन्याय है,अधर्म है,गलती है, कोई आदमी कहता है कि तुम हरिजन हो, वह भी तुम्हैं हरिजन मानता है । मैं तुम्हारे घर में ठहर सकता हूं मगर हरिजन के रूप में नहीं । आदमी के रूप में ।
 

       सामान्यतः यह कहा जाता है कि हिन्दू मुस्लिम देोनों भाई-भाई है फिर भी दो रहते हैं कोई कहता है हिन्दी मुश्लिम दोनों दुश्मन हैं, तो भी दो होते हैं । देखने वाली बात है कि भाई-भाई कहने वाला भी एक नहीं मानता,और लडाने वाला भी एक नहीं मानता है । एक तो वही मान सकता है जो कहे कि तुम हिन्दू कैसे? तुम मुसलमान कैसे ? तुम कोई भी नहीं हो । आदमी होना सत्य है,बाकी यह सब खूंटी पर बॉधने वालों की सिखाई बात है, जिसे हम ऊपर से थोप देते हैं ।धार्मिक आदमी का पैदा होना मुश्किल हो गया है ।
 

 

2-मनुष्य अपने अनुभव से नहीं सीखता है -

 
        सचमुच यह एक आश्चर्य की बात है कि मनुष्य अपने अनुभव से कुछ भी नहीं सीखता है
,यही तो उसकी अज्ञानता का आधार है । इसी तथ्य को एक कहानी के रूप में देखें तो- एक बार एक आदमी के घर में रात के अंधेरे में चोर घुस गया,उसकी पत्नी की नींद खुली और उसने अपने पति को कहा मालूम होता है घर में कोई चोर घुस गया । उसके पति ने विस्तर में पडे-पडे कहा कौन है ? चोर ने कहा कोई भी नहीं । उसका पति सो गया । रात को चोरी हो गई । सुबह उसकी पत्नी ने कहा चोरी हो गई ! मैने आपको कहा था ! तो पति ने कहा मैने कहा था ,कौन है ?लेकिन आवाज आई कि कोई भी नहीं, इसलिए मैं वापस सो गया ।
 
        ऐसे घर में फिर चोरी होनी है ।स्वाभाविक है । जिस घर में चोर की कही गई बात कि कोई नहीं है -मान ली गई हो,उस घर में दुवारा चोरी होना निश्चित ही है । कुछ दिन बाद चोर फिर घर में चोरी करने के लिए घुस गया ।पत्नी को मालूम हो गया कि घर में चोर घुस गया है । पत्नी ने सोचा अब पूछने की जरूरत नहीं है,सीधे चोर को पकडो। पत्नी ने चोर को पकड लिया और अपने पति के हवाले कर दिया ।पति ने चोर को पुलिस थाने की तरफ ले चला । आधे रास्ते तक पहुंचने पर चोर ने कहा माफ कीजिए,मैं अपने जूते आपके घर भूल आया हूं । उस आदमी ने कहा कि बडे नासमझ हो अब मैं वापस इतनी दूर लौटकर नहीं जाऊंगा । ठीक है मैं यहीं रुकता हूं तुम वापस चले जाओ और अपने जूते लेकर आओ । वह आदमी वहीं पर रुक गया,चोर वापस चला गया, चोर का वापस लौटने का तो सवाल ही नहीं था,और लौटा भी नहीं ।
 
        एक माह बाद फिर वह चोर उसी आदमी के घर में चोरी करने के लिए फिर घुस गया । अब की बार उस आदमी ने उसे पकड लिया और कहा कि मैं थाने में चलता हूं,और इस बार कोई चीज मत भूल जाना । आधे रास्ते में जाने के बाद चोर ने कहा माफ कीजिए एक गलती हो गई, मैं अपना कंबल आपके घर भूल आया । उस आदमी ने कहा, तुम ना समझ मालूम पडते हो अब मैं पुरानी भूल नहीं कर सकता । अब तुम यहॉ रुको और मैं तुम्हारा कम्बल लेने जाता हूं ।
 
        इस आदमी पर हंसी आती है,लेकिन सारे आदमी इसी भॉति के आदमी हैं । इसलिए जीवन में पहली शिक्षा जरूरी है कि अपने अनुभवों से सीखें ।