Tuesday, March 17, 2015

निर्मल छाया


1-विपत्ति के समय मनुष्य की सबसे बड़ी योग्यता उसका धैर्य है
 
         जो मनुष्य धार्मिक है या धर्मपथ पर है, उसमें क्या-क्या लक्षण होंगे? इस सवाल का जवाब एक संस्कृत श्लोक में आए शब्दों में निहित है। इन शब्दों के अर्थो में ही धर्म की वास्तविक परिभाषा निहित है।

         इस क्रम में पहला शब्द 'धृति' है। इस शब्द के कई अर्थ हैं, लेकिन इसका प्रमुख अर्थ है धैर्य। मनुष्य के लिए किसी भी अवस्था में विचलित होना उचित नहीं है। विपत्ति के समय सबसे बड़ी योग्यता है-धैर्य। इसके बाद-क्षमा। क्षमा क्या है? किसी के प्रति प्रतिशोधमूलक मनोभाव न रखना ही क्षमा है। अगर मैं धार्मिक हूं तो मेरे लिए क्षमा करना ही उचित होगा।

         'दम' शब्द का अर्थ है आत्म-शासन। संस्कृत शब्द 'शम' और 'दम' लगभग समपर्यायवाची हैं। 'दमन' हुआ स्वयं को शासित करना और शमन हुआ दूसरों पर शासन करना। धार्मिक व्यक्ति को अवश्य ही 'दमन' मनोभाव का होना चाहिए। इसके बाद हुआ-अस्तेय। यम-नियम में 'अस्तेय' शब्द शामिल है। अस्तेय शब्द का अर्थ है-चोरी नहीं करना। चोरी दो प्रकार की है-बाहर की चोरी और भीतर की चोरी। भीतर की चोरी से आशय मन ही मन चोरी करने का भाव लाने से है। इसलिए 'अस्तेय' का अर्थ है-किसी प्रकार की चोरी न करना। 'शौचम् का अर्थ है-शुद्ध रहना। असल में शौच का एक आशय है-मन को शुद्ध रखना। मन को स्वच्छ रखने का क्या उपाय है? प्रथम और एकमात्र उपाय सत्कर्मो में मन को व्यस्त करना है। इंद्रियनिग्रह के द्वारा क्या होता है? इंद्रियनिग्रह कर मनुष्य किसी कार्य में पूरे मनोयोग से अपनी ऊर्जा को केंद्रित कर सकता है। 'धी' का अर्थ है मेधा, बुद्धि। किसी ने हजारों-हजार किताबें पढ़ी हैं, परंतु वह सभी को याद नही रख सकेगा। अधिकांश को भूल जाएगा, यह स्वाभाविक है। मनुष्य की स्मृति अधिक दिनों तक कायम नहीं रह सकती है। साधना के द्वारा मनुष्य को इसे जगाना पड़ता है।

         शब्द का वास्तविक अर्थ है धुव्रास्मृति। विद्या यानी जो ज्ञान मनुष्य को परमार्थ की ओर ले जाता है उसे ही विद्या कहते हैं। जो ज्ञान मनुष्य को अकल्याणकारी कार्यो को करने के लिए प्रेरित करता है उसे कहा जाता है-'अविद्या'। 'सत्यम' यानी लोगों के हित की भावना लेकर मनुष्य जो भी सोचेगा या बोलेगा वही सत्य है। इस क्रम में धर्म का अंतिम लक्षण है अक्रोध यानी क्रोध न करना।
 

2-अध्यात्म साधना का प्रवेश द्वार है स्वाध्याय
 
         स्वाध्याय मस्तिष्क के लिए शक्तिवर्धक रसायन के सदृश है। इससे बुद्धि की निर्मलता बढ़ती है। अनुशासन की रक्षा और संशय की निवृत्ति होती है। जिन्हें स्वाध्याय रूपी रत्‍‌न मिल जाता है उनके लिए कुबेर का रत्‍‌नकोष भी आकर्षक नहीं रह जाता।
 
         वाचन से विचारों में नवीनता आती है। श्रेष्ठ कृतियां प्रकाश स्तंभ हैं। स्वाध्याय के समान अन्य तप नहीं है। यह अध्यात्म साधना का प्रवेश द्वार है। भगवान श्रीकृष्ण ने स्वाध्याय को महायज्ञ बताया है। अध्ययन और स्वाध्याय में अंतर है। जब अध्ययन, स्वाध्याय के रूप में परिवर्तित होता है तो अध्ययन जीवन के लिए वरदान बन जाता है। अपने द्वारा अपना अध्ययन स्वाध्याय है।
 
          स्वाध्याय का स्तर पढ़ने मात्र से ऊंचा है। यह सूक्ष्म अध्ययन की उत्कृष्ट विधि है। स्वाध्याय का उद्देश्य सद्साहित्य में वर्णित सच्चरित्रता को अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से धारण करना है। सत्य को जानने-मानने में स्वाध्याय सहायक है। चिंतन इसका अभिन्न अंग है। स्वाध्याय जीवन मंत्र है। यह कृतज्ञता की भावना लाता है। स्वाध्याय मन का संयम और सदाचार बढ़ाता है। यह अवगुणों को दूर कर सद्गुणों का समावेश करता है। साधना से नई ऊर्जा का जन्म होता है। भौतिकता मनुष्य को महान नहीं बनाती है, बल्कि यह हमारी लौकिक आवश्यकताओं की पूर्ति करती है। नैतिक मूल्यों से मानव जाना जाता है, इसलिए यह हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं।
 
         धर्म के सप्तम लक्षण अर्थात् विमल बुद्धि की प्राप्ति का साधन स्वाध्याय है। मनु ने स्वाध्याय को सवरेत्तम तप माना है। स्वाध्याय पंच महायज्ञों में एक यज्ञ है। 'शतपथ ब्राह्मण' में योग के आठ अंगों में स्वाध्याय भी एक उपांग है। श्रेष्ठ पुस्तकों के पास रहने से मित्रों की कमी नहीं खटकती। स्वाध्याय से विनम्रता आती है। पंचकोशों के रहस्य को समझने में यह सहायक है। सच तो यह है कि विवेकपूर्ण जीवन जीने की कला स्वाध्याय से आती है। शांति पाने का एक अच्छा उपाय स्वाध्याय है। स्वाध्याय से विकसित चेतना नई दिशा पाती है। जीवन को जानने वाले बहुत कम हैं, पर उसे नष्ट करने वाले अधिक हैं। स्वाध्याय सार्थक जीवन जीने की प्रेरणा देता है। यह आत्म साक्षात्कार के लिए प्रेरित करता है।
 

3-मनुष्य के मन की शक्ति का कमाल
 
         मन दो प्रकार का होता है। पहला चेतन व दूसरा अवचेतन। चेतन मन के द्वारा मनुष्य जाग्रत अवस्था में सोचता है और बाहरी दुनिया का अनुभव करता है। अवचेतन मन इन्हीं सब बातों को ग्रहण कर सुरक्षित रख लेता है। एक प्रकार से अवचेतन मन को आत्म तत्व के साथ जोड़कर देखा जाता है।

           एक नियत परिस्थिति में अचानक प्रतिक्रिया इसी अवचेतन मन से आती है और इसी को आत्मशक्ति भी कहते हैं। दुनिया के सभी धर्म विश्वास के रूप हैं और विश्वास कई तरीकों से स्पष्ट किए जाते हैं। अपने जीवन और ब्रह्मंड के बारे में जैसा विश्वास होगा, मनुष्य को वैसा ही मिलता है। मनुष्य अगर विश्वास कर सके, तो उसके लिए हर चीज संभव है।

         नेपोलियन को विश्वास था कि दुनिया में असंभव शब्द है ही नहीं और इसी विश्वास के चलते उसने बड़े-बड़े युद्ध जीते। जहां पर सकारात्मक विश्वास मनुष्य को सफलता दिलाता है, वहीं पर नकारात्मक व निराशाजनक सोच मनुष्य को असफलता, संदेह व आत्मविश्वास में कमी की ओर ले जाती है। आज चारों तरफ आपाधापी व स्वार्थपरायणता ने अनेक नौजवानों को नकारात्मक सोच की तरफ अग्रसर कर दिया है। जब यह सोच ज्यादा बढ़ जाती है, तो अवचेतन मन ऐसी स्थिति में उनसे आत्महत्या जैसा अपराध करा देता है। इससे यह सिद्ध होता है कि मनुष्य का अवचेतन मन शक्ति का भंडार है, जिसमें जैसा मनुष्य एकत्र करेगा, उसका कई गुना वह पाएगा। इसीलिए कहा गया है कि मन के हारे हार है और मन के जीते जीत। अमेरिका के डॉ. जोसेफ मर्फी ने शोध से पता लगाया कि यदि चेतन मन को विश्वास हो जाता है कि वह अब ठीक हो सकता है, तो अवचेतन मन उसे पूरा करने के लिए शक्ति पैदा करता है और अवचेतन मन के आदेश पर मस्तिक उसी प्रकार के हार्मोन पैदा करके उस कार्य को पूरा करता है।
 
         ऐसी मान्यता है कि अवचेतन मन केवल वर्तमान जीवन को ही नहीं प्रभावित करते, बल्कि आत्मा के साथ दूसरे शरीर धारण के समय भी साथ रहता है। दूसरे जन्म में इसी अवचेतन मन के कारण व्यक्तित्व निर्माण व संस्कार प्राप्त होते हैं। इसीलिए यदि मनुष्य वर्तमान जीवन और अगले जीवन में आनंद चाहता है, तो उसे अपने चेतन मन व अवचेतन मन को सकारात्मक सोच व विचारों से परिपूर्ण करना होगा।

4-शरीर में प्राणवायु की पहचान कैसे करें
प्राणवायु से ही हमारा शरीर स्वस्थ रहता है, लेकिन मनुष्य जब बीमार पड़ जाता है, तब प्राणवायु का प्रवाह शरीर में कम होने लगता है। इस कारण शरीर कमजोर हो जाता है, उत्साह में कमी आ जाती है, थकान महसूस होने लगती है, आलस्य बढ़ जाता है, जीवन से मोह कम हो जाता है और कुछ भी अच्छा नहीं लगता।
 
         दूसरी ओर शरीर में अगर प्राणवायु की विपुलता है तो चेहरा लावण्यपूर्ण हो जाता है, मन प्रसन्न रहता है, उत्साह बना रहता है। किसी भी काम को करने में मन लगता है। वह गीत गाता है, किसी से प्रेम करता है, मुस्कराता है, खेलता है और नाचने लगता है। इसका अर्थ है, उसके शरीर में प्राणवायु का निरंतर प्रवाह चल रहा है। इसी से प्राणवायु की पहचान होती है।
 
         अब विज्ञान के आईने में इस प्राणवायु या प्राणशक्ति के संबंध में चर्चा की जाए। पहली बात तो यह है कि विज्ञान के पास प्राण को पहचानने का कोई यंत्र नहीं है। विज्ञान केवल पदार्थ का अध्ययन करता है। पदार्थ के अतिरिक्त वह कहीं झांक भी नहीं सकता। इसलिए विज्ञान के शिखर पुरुष आइंस्टीन को कहना पड़ा था कि धर्म के बिना विज्ञान लंगड़ा है और विज्ञान के बिना धर्म अंधा है, लेकिन मेरा मानना है कि विज्ञान जब धर्म को समझने में पूरी तरह असमर्थ है तो उसके बिना धर्म लंगड़ा कैसे हो सकता है। विज्ञान तो संभावना में जी रहा है। वह जो आज कह रहा है, कल उसकी बात कट जाएगी।
 
         मशहूर विचारक ऑसपेन्सकी कहते हैं कि साधारण गणित के अनुसार दो और दो चार होता है। चार में से अगर चार घटा दिया जाए, तो शून्य बचता है, लेकिन एक महागणित भी होता है जिसमें पूर्ण से पूर्ण को घटा दिया जाए, तब भी पूर्ण ही बचता है। यह गणित विज्ञान को समझ में नहीं आता। प्राण को अगर समझना हो तो केवल अध्यात्म से ही समझा जा सकता है, क्योंकि उसके पास अनुभव है। विज्ञान के आंकड़ों से प्राण को नहीं समझा जा सकता। यह केवल अनुभव से समझा जा सकता है। सच पूछा जाए तो प्राण ऊर्जा को समझने की शक्ति विज्ञान में नहीं है। इसलिए जो प्राण को समझना चाहते हैं, उन्हें इसका उत्तर अध्यात्म से ही मिलेगा। प्राण ब्रह्मंाड का स्पंदन है। यह ब्रह्मांड ग्रहों व नक्षत्रों के माध्यम से सांस लेता है और मनुष्य भी अपनी सांसों के माध्यम से इस ब्रह्मंाड से जुड़ा है। प्राण के कारण ही जीव को प्राणी कहा जाता है।
 

5--अंधेरे से उजाले की ओर
 
         स्वयं को जानकर और समझकर ही मनुष्य ऊंचाई की मंजिलों की तरफ बढ़ सकता है। ऐसा इसलिए, क्योंकि हम एक परमपिता परमेश्वर की संतान हैं, उसके अंश हैं, परंतु आज हर व्यक्ति भाग रहा है, एक जगह से दूसरे जगह की ओर। व्यक्ति शायद स्वयं को खोज रहा है, क्योंकि उसने स्वयं को खो दिया है।

         स्वयं के साथ संबंधों को तोड़ लिया है और अब उसे ही खोज रहा है। यदि आप अपने आस-पास के हर व्यक्ति की तरफ ध्यान देंगे, तो सबमें यही बात नजर आएगी। हर व्यक्ति स्वयं को भूलकर एक व्यर्थ की दौड़ में भागता जा रहा है। वह स्वयं को भूल गया है कि आखिर वह है कौन? क्या खोज रहा है, कहां खोज रहा है? उसे स्वयं पता नहीं, परंतु फिर भी हरेक से पूछ रहा है, हरेक के बारे में पूछ रहा है।

         आज आवश्यकता इस झंझावात से निकलने और स्वयं के अस्तित्व को समझने की है। यात्रा हो, परंतु शून्य से महाशून्य की ओर, परिधि से केंद्र की, अज्ञान से ज्ञान की ओर, अंधकार से प्रकाश की ओर, असत्य से सत्य की ओर। स्वयं के अस्तित्व को तलाश कर ही हम जीवन के सही मूल्यों को समझ सकेंगे।

         हम प्राय: ही अपना जीवन कंकड़-पत्थर बटोरने में गंवा देते हैं। सत्ता, संपत्ति, सत्कार आदि सब कुछ पाकर भी अंतत: शून्य ही हाथ लगता है। तो हम क्यों न आज ही जाग जाएं, उठ खड़े हों। स्वयं की खोज करके अपनी अंतरात्मा को प्रकाशित करें। हम बहिमरुखी हैं, अंतमरुखी नहीं। बस, यही हम सबको समझना है। स्वयं को समझकर ही हम उस एक परमात्म तत्व में विलीन हो सकते हैं। परमपिता परमेश्वर के प्रति हम कृतज्ञता तक ज्ञापित नहीं करते, जिसने अपनी परम कृपा से हमें अपना ही अंश बनाकर इस धरा पर मनुष्य रूप में भेजा है।

         यदि हम स्वयं के प्रति थोड़ा-सा सचेत हो जाएं, तो बात बनते देर नहीं लगेगी। आइंस्टीन जैसा महान वैज्ञानिक ही नहीं, बल्कि तमाम ऐसे लोग जिन्होंने जीवन में कुछ गौरवशाली कार्य किए हैं, वे सभी स्वयं के अंदर निहित अथाह सागर को समझने और मापने की बात करते हैं। जो कृत्रिमता से कोसों दूर हो, जहां हो एक गहन शांति। शांति मिलती है, कामनाओं को शांत करने से। जीवन मात्र चलते रहने का नाम नहीं है, बल्कि जीवन में कुछ अच्छा कर गुजरने का नाम जिंदगी है। इसे जानकर ही आगे बढ़ना सही अर्थो में जीवन की सार्थकता है।
 

6-क्षमाशीलता व्यक्ति का उत्तम आभूषण है
         क्षमा एक ऐसा आभूषण है, जो किसी के व्यक्तित्व में चार चांद लगा देता है। क्षमा करना बहुत मुश्किल कार्य है, खास तौर पर उस समय, जब आप शक्तिशाली हों और किसी का नुकसान करने में सक्षम हों। एक दीन-हीन व्यक्ति को समय-समय पर अपमानजनक स्थितियों से गुजरना पड़ता है।

         अपमान को नजर अंदाज करना कमजोर व्यक्ति की मजबूरी होती है , परंतु क्रोध का शमन कर लेना शक्तिशाली व्यक्ति की क्षमाशीलता की पहचान है। महात्मा गांधी का जीवन इसका जीवंत उदाहरण है। प्रतिशोध की भावना मानव स्वभाव का अंग है। क्षमाशीलता से ही इसका नियंत्रण संभव है।

         अच्छे संस्कार क्षमाशीलता को पुष्पित और पल्लवित करते हैं परंतु यदा-कदा कड़ी परीक्षा में सब कुछ धरा रह जाता है । संस्कारों की शीतलता भी प्रतिशोध की आग को नियंत्रित नहीं कर पाती। ऐसे में प्रभु की शरण में जाना ही बेहतर होता है और विश्व की विराटता में अपने क्षुद्र अस्तित्व को देखना होता है, मृत्यु की अनिवार्यता पर विचार करना और समय की गतिशीलता के बारे में भी सोचना होता है। क्षमाशीलता का अभ्यास करते रहना चाहिए। अभ्यास करते रहने से परीक्षा की घड़ी में हम अपना आपा नहीं खोते हैं। समय बीतने के साथ-साथ उस क्षण का आवेश ठंडा हो जाता है और हम असहज स्थितियों से बच जाते हैं। इसलिए आवश्यक है कि हम अपने मन को नियंत्रण में रखने की कोशिश करें और आवेश को खुद पर हावी न होने दें।

         जो क्रोध के प्रभाव में आ जाता है उसका अहित होना निश्चित है। कभी-कभी जिसे क्षमा किया जाता है, वह ऐसा आभास देता लगता है कि उसने तो होशियारी से क्षमा प्राप्त कर ली। अपना उल्लू सीधा करने के लिए उसने हमें बेवकूफ बना दिया। ऐसी मन: स्थिति में नेकी कर कुएं में डाल वाली कहावत पर घ्यान देना चाहिए। यह सोचना चाहिए कि चलो हमने तो अपना काम सही किया। हमें किन्हीं अपेक्षाओं के बगैर क्षमा के गुण का विकास करना चाहिए। क्षमाशील दिखने और होने में बहुत फर्क है। क्षमाशील होने में जो परमानंद है, वह अकल्पनीय है। यह वही जानता है, जो वास्तविक रूप में क्षमाशील है। सात खून माफ नहीं किए जाते हैं और जो करने की ताकत रखता है, वही क्षमावान और प्रभु के बहुत नजदीक है।  
 

7-सृजन और संहार प्रकृति के नियम हैं

         विकार अपने आप में बुरे नहीं हैं। सवाल है उनसे जुड़ने का। देव से जु़ड़कर वे सद्गुण बन जाते हैं और दानव से जुड़कर दुर्गूण। यह वैसे ही होता है जैसे जल नाली में गिरने से गंदा और गंगा में मिलने से निर्मल हो जाता है। ब्रह्म को सृष्टिकर्ता कहा जाता है।

         भगवान कृष्ण स्वयं गीता में कहते हैं 'मैं इच्छाओं में काम हूं।' यही उदात्तकाम परमात्मा से जुड़कर भक्ति बन जाता है, परंतु जब यही काम वासना के कीचड़ में फंसता है तो अनर्थकारी व्यभिचार का रूप ले लेता है। जहां राम का काम लोकमंगल का कारण बनता है वहीं रावण का काम सर्वनाश का कारण।

         विष्णु से जुड़ते ही लोभ सकल ब्रह्मांड का पालक बन जाता है। मितव्ययी समाज के लिए कुछ कर गुजरता है और र्दुव्यसनी स्वयं मिट जाता है। कंजूस का गड़ा हुआ धन किस काम का? धन परमात्मा की विभूति है। इसलिए इसे लोकसंग्रह के क्षेत्र में निरंतर बहते रहना चाहिए। हम धन के मालिक न होकर उसके 'ट्रस्टी' हैं। व्यक्ति केंद्रित धन शोषण को बढ़ावा देता है। इसे असुरों के हाथ में नहीं होना चाहिए। कुबेर का खजाना देवताओं के अभ्युदय के लिए था। जब वह रावण के हाथ में चला गया तो संतों का उत्पीड़क बन गया।

         शंकर को क्रोध का देवता माना जाता है। नवसृजन के लिए ध्वंस जरूरी है। सृजन और संहार, दोनों सृष्टि के विधान के अंतर्गत हैं। असंयमित काम को अनुशासित करने के लिए शिव को तीसरा नेत्र खोलना पड़ा था। राजा बलि के दंभ को मिटाने के लिए भगवान को वामन का रूप धारण करना पड़ा था। काम और लोभ पर विजय हासिल करने वाले परशुराम के क्रोध के शमन के लिए भगवान राम को झुकना पड़ा था। काम, लोभ और क्रोध की वृत्तियां जब वासनाजन्य इच्छाओं को तृप्त करने में लग जाती हैं तब समाज के चारों ओर अनर्थ घटने लगता है। काम और लोभ क्रियाएं हैं और क्रोध इनकी तीखी प्रतिक्रिया है। यानी काम और लोभ की अतृप्त वृत्तियां क्रोध को जन्म देती हैं। नारद में कामजन्य क्रोध है तो कैकेयी में लोभजन्य क्रोध। नारद भगवान को बुरा-भला कहते हैं। चूंकि देवर्षि नारद भगवान के भक्त हैं इसलिए वह अपनी करुणा से उन्हें काम की जकड़ से मुक्त कर देते हैं। राम ने भरत को सन्निपात का सबसे बड़ा वैद्य माना। भरत ने राज्य न लेकर लोभ को जीता, मंथरा को क्षमा करके क्रोध को जीता और नंदी ग्राम में तपस्या करके काम को जीता।
 

8-धर्म नित्य पवित्र होने का संकल्प है
 
         मनुष्य में अपने भावों को पहचानने की अपूर्व क्षमता है। अपने आचरण में वह संस्कार जन्य है, विकासमान है। उसमें ग्रहण करने और त्याग करने की योग्यता है। मनुष्य प्रकृतिबद्ध नहीं है। वह प्रकृति को अपने अनुकूल बनाता है। पशु-पक्षी प्रकृति के अनुकूल होकर रहते हैं। वे केवल अपने को देखते हैं। अपने स्वार्थ के लिए कुछ भी कर सकते हैं। प्रभुत्व की स्थापना का लोभ मनुष्य को पशु-तुल्य बना देता है, जहां वह अपने गुणों से विमुख हो जाता है। यह उसका विकार है, रोग है।

         धर्म नित्य-नव्य होने की प्रेरणा है। अपने गुण में प्रतिष्ठित होने का पवित्र संकल्प है। विगत और वर्तमान में समस्त बाधाओं को छोड़कर ही नव्य में प्रवेश संभव है। प्रत्येक जीव, वस्तु और पदार्थ हर क्षण बीत रहा है, नया आ रहा है, यही विद्यमानता है। इस आने-जाने और रहने के स्वभाव के साथ तन्मय होकर जीना ही धर्म को जीना है।

         धर्म बतलाता है कि हमें इस तरह जीने की आदत डालनी चाहिए जिससे हमारे अंत:करण में अशांति, क्षोभ, असंतोष जैसी कोई चीज पैदा न हो, क्योंकि ये सब चीजें जीवन-रस को नष्ट करने वाली हैं। जीवन-रस आत्मा की खुराक बनकर उसे पोषण देता है। भौतिक विज्ञान पदार्थो को देखता है। प्रकृति का दोहन कर सुविधाओं का विस्तार करते जाना ही उसकी उपलब्धि है।

         धर्म यथार्थ को देखता है, मूलभूत शाश्वत मूल्यों की आधार-शिला पर प्रकृति को देखना, समझना और तदनुकूल आचरण करना ही धर्म का लक्षण है। धर्म जीवन का गुण है, स्वभाव है जो सदैव विद्यमान रहता है। गुण में अपना ज्ञान, समझ और प्राण नहीं है, वह गुण अपने लक्षणों में प्रकट होता है। कोई भी वस्तु अपने लक्षण से अलग नहीं हो सकती। गुण पर आवरण आ सकते हैं, दबे भी रह सकते हैं, पर समाप्त नहीं होते। अपनी कामनाओं को कायम रखते हुए जीवन के यथार्थ को समझा नहीं जा सकता। धर्म दीपक में ज्योति की तरह है। च्योति की रक्षा करनी होती है, वैसे ही सत्य की रक्षा करनी होती है। कुछ अनीश्वरवादी लोगों ने धर्म को अफीम करार दिया है, लेकिन धर्म कभी मूच्र्छा नहीं देता। सूर्य प्रकाश में प्रगट होता है, धर्म भी अपने गुणों में प्रगट होता है। धर्म झरने की तरह गतिशील है, इसी कारण नित्य-नूतन है।
 

9-जिंदगी के मायने क्या हैं?
 
         आप अपनी जिंदगी किस तरह जीना चाहते हैं? यह तय करना जरूरी है। आखिरकार जिंदगी है आपकी। यकीनन, आप जवाब देंगे-जिंदगी को अच्छी तरह जीने की तमन्ना है।

         यह भाव, ऐसी इच्छा इस तरह का जवाब बताता है कि आपका मन सकारात्मकता से परिपूर्ण है, लेकिन यहां एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठता है-जिंदगी क्या है, इसके मायने क्या हैं? इसका यही निष्कर्ष सामने आया है कि दूसरों के भले के लिए जो सांसें हमने जी हैं वही जिंदगी है, पर कोई जीवन अर्थवान कब और कैसे हो पाता है, यह जानना बेहद आवश्यक है।

         दरअसल, जीवन एक व्यवस्था है। ऐसी व्यवस्था, जो जड़ नहीं चेतन है। स्थिर नहीं, गतिमान है। इसमें लगातार बदलाव भी होने हैं। जिंदगी की अपनी एक फिलासफी है, यानी जीवन-दर्शन। सनातन सत्य के कुछ सूत्र, जो बताते हैं कि जीवन की अर्थवत्ता किन बातों में है। ये सूत्र हमारी जड़ों में हैं। जीवन के मंत्र ऋचाओं से लेकर संगीत के नाद तक समाहित हैं। हम इन्हें कई बार समझ लेते हैं, ग्रहण कर पाते हैं तो कहीं-कहीं भटक जाते हैं और जब-जब ऐसा होता है, जिंदगी की खूबसूरती गुमशुदा हो जाती है। हम केवल घर को ही देखते रहेंगे तो बहुत पिछड़ जाएंगे और केवल बाहर को देखते रहेंगे तो टूट जाएंगे। मकान की नींव देखे बगैर मंजिलें बना लेना खतरनाक है, पर अगर नींव मजबूत है और फिर मंजिल नहीं बनाते तो अकर्मण्यता है। केवल अपना उपकार ही नहीं परोपकार भी करना है। अपने लिए नहीं दूसरों के लिए भी जीना है। यह हमारा दायित्व भी है और ऋण भी, जो हमें समाज और अपनी मातृभूमि को चुकाना है।

         परशुराम ने यही बात भगवान कृष्ण को सुदर्शन चक्र देते हुए कही थी कि वासुदेव कृष्ण, तुम बहुत माखन खा चुके, बहुत लीलाएं कर चुके, बहुत बांसुरी बजा चुके, अब वह करो जिसके लिए तुम धरती पर आए हो। परशुराम के ये शब्द जीवन की अपेक्षा को न केवल उद्घाटित करते हैं, बल्कि जीवन की सच्चाइयों को परत-दर-परत खोलकर रख देते हैं। हम चिंतन के हर मोड़ पर कई भ्रम पाल लेते हैं। प्रतिक्षण और हर अवसर का महत्व जिसने भी नजरअंदाज किया, उसने उपलब्धि को दूर कर दिया। नियति एक बार एक ही क्षण देती है और दूसरा क्षण देने से पहले उसे वापस ले लेती है। याद रखें, वर्तमान भविष्य से नहीं अतीत से बनता है।
 

10-हमारा मन हमारे शरीर का राजा है
 
         मन हमारी इंद्रियों का राजा है। उसी के आदेश को इंद्रियां मानती हैं। आंखें रूप-अरूप को देखती हैं। वे मन को बताती हैं और हम उसी के अनुसार आचरण करने लगते हैं। आशय यह है कि हम मन के दास हैं। गलत काम करने को मन करता है और हम उसे करने लगते हैं। गलत काम कराते समय मन हम पर हावी हो जाता है। काम कराकर वह भाग जाता है और जब हमें होश आता है, तब लगता है कि ऐसा गलत काम कैसे कर लिया। यही पछताने वाली हमारी आत्मा है और गलत काम कराने वाला हमारा मन है।

         संत व महापुरुष मन को वश में करने का प्रयास करते हैं, ताकि वे मन के पार जा सकें, क्योंकि जब तक मनुष्य मन के प्रभाव में दबा रहेगा, तब तक वह आत्म तत्व में अवगाहन नहीं कर सकेगा। परमात्मा तक पहुंचने के लिए आत्मा का ही मार्ग है। ऐसा इसलिए क्योंकि आत्मा और परमात्मा एक ही हैं। आत्मा परमात्मा का लघु रूप है और परमात्मा आत्मा का विस्तार है। इसलिए दोनों दृश्य नहीं हैं, सूक्ष्म हैं। जो भी भावरूप होता है, वह सूक्ष्म होता है, अनुभवगम्य होता है जैसे प्रेम, करुणा, दया, वात्सल्य आदि भाव। मन को केवल अनुभव किया जा सकता है। आप अनुभव कर सकते हैं कि आप प्रेम करना चाहते हैं या घृणा चाहते हैं। आश्चर्य की बात है कि मन अधिकतर मामलों में हमेशा नीच कर्म की ओर ही प्रेरित करता है, क्याेंकि वह इंद्रियों का राजा है।

         इंद्रिया अपने राजा मन से भोग मांगती हैं। आंख को सुंदर रूप देखने का मौका मिले, जीभ को स्वाद मिले, हाथ को स्पर्श सुख चाहिए। सभी इंद्रिया अपना भोग-विलास मन से मांगती हैं। मन को इनकी मांगें पूरी करनी पड़ती हैं। इसलिए यह चंचल रहता है, चारों ओर भागता रहता है। इस स्थिति में मन को स्थिर करना कठिन हो जाता है। इसी चंचलता के कारण मन विवेक को त्याग देता है। मन महास्वार्थी है, उसे भोग चाहिए। अगर वह विवेकशील बन जाए, तो इंद्रियों की जो अनैतिक मांगें हैं, उन्हें कैसे पूरा कर सकता है? विवेक उसे गलत काम नहीं करने देगा इसलिए मन के साथ विवेक कभी नहीं रहता। मन और विवेक का बैर है। मनुष्य ज्यों ही विवेकी बन जाता है, वह मन के पार चला जाता है। इसी को संयम कहते हैं।
 

11-मनुष्य के विवेक की उपयोगिता
 
         भारतीय संस्कृति का मूलाधार अनुभूतियां हैं। इस संस्कृति ने सिद्धांत का निरूपण किया, परंतु सिर्फ इतने तक ही अपने को सीमित नहीं रखा। ज्ञान को अनुभूत किया यानी सिद्धांत को व्यावहारिक जीवन में उतारा। यही कारण है कि भारतीय संस्कृति आज तक जीवंत है। जिसकी कथनी और करनी में अंतर नहीं होता, वही समाज में आदर के योग्य बनता है।

         इसलिए कहा गया है कि गुणवान की हमेशा पूजा होती है। इन दिनों मानवीय मूल्यों का ह्रास हो रहा है। नैतिकता चरमरा रही है और इंसानियत की नींव कमजोर पड़ती जा रही है। चारों ओर भौतिकतावादी मूल्य छा गए हैं। यही वजह है कि विविध प्रकार की विकृतियों से मानव, समाज और राष्ट्र आक्त्रांत हो गया है।

         भारतीय संस्कृति में एकता, सत्य, उदारता, अन्याय के खिलाफ संघर्ष, साहस, सच्चरित्रता, निस्पृहता, सहानुभूति, संवेदना और समन्वयवादी दृष्टिकोण निहित हैं। इन्हीं सद्गुणों के आधार पर मनुष्य, मनुष्य बना रह सकता है और राष्ट्र विश्व के समक्ष आदर्श उपस्थित कर सकता है।

         कोई भी आदमी फरिश्ता नहीं होता। विशेषताओं के साथ कमियों की संभावनाओं को नकारा नहीं जा सकता। आचार्य श्रीमहाप्रज्ञ ने कहा है कि जब व्यक्ति अपने आपको नहीं देख पाता, तब हजारों-हजार समस्याएं पैदा होती चली जाती हैं। इनका कहीं अंत नहीं होता। गरीबी की समस्या हो, मकान और कपड़े की समस्या हो या अन्याय व उत्पीड़न, ये सब गौण समस्याएं हैं। ये पत्तों की समस्याएं हैं, जड़ की नहीं। पतझड़ आता है, सारे पत्ते झड़ जाते हैं। वसंत आता है और सारे पत्ते आ जाते हैं, वृक्ष हरा-भरा हो जाता है। यह मूल समस्या नहीं है। मूल समस्या यह है कि व्यक्ति अपने आपको नहीं देख पा रहा है। उसके पीछे ये पांच कारण काम कर रहे हैं- मिथ्या दृष्टिकोण, असंयम, प्रमाद, कषाय और चंचलता। जैन दर्शन के अनुसार यही पांच मूल समस्याएं हैं। यही वास्तव में दुखों का कारण हैं और दुखों का चक्र भी। जब तक दुख के इस चक्र को नहीं तोड़ा जाएगा, तब तक जो सामाजिक, मानसिक और आर्थिक समस्याएं हैं, उनका सही समाधान नहीं हो पाएगा। समय-सापेक्ष जीवन मूल्यों को आचरण में लाने के लिए हमें दायित्व और कर्तव्य की सीमाओं को समझना होगा। इसके लिए हमें विवेक जाग्रत करना होगा।
 
 
12-बुद्धिबल और शरीर बल में बडा कौन
 
         नीतिशास्त्र का एक कथन है कि जिसमें बुद्धि है, उसमें बल है। निरबुद्धि में बल कहां से आ सकता है? जो जितना बुद्धिमान है, वह उतना ही बलवान है। इसी बुद्धि के कारण मनुष्य-मनुष्य के बीच अंतर दिखाई देता है। जिसमें जितना अधिक बुद्धि-तत्व है, वह उतना ही सफल व्यक्ति बन जाता है।

         एक कहावत है कि अक्ल बड़ी या भैंस? निश्चय ही शारीरिक बल से बुद्धिबल बड़ा होता है। हर व्यक्ति विद्या व बुद्धि की शक्ति से संपन्न नहीं होता, किन्हीं बिरलों को ही यह ज्ञान-संपदा मिलती है। ऐसे लोग जिन्हें विशिष्ट बुद्धिबल प्राप्त है, वे दूरदर्शी हुआ करते हैं। जिन्होंने विस्तृत अध्ययन किया हुआ है।

         वही असाधारण कार्य करने की क्षमता रखते हैं। इसके विपरीत जिन्हें कम बुद्धिबल प्राप्त है, वे छोटी-छोटी अड़चनों से ही घबरा जाते हैं और कभी-कभी अपने प्राण तक गंवा बैठते हैं। आए दिन तरह तरह के दुख भोगा करते हैं। अगर एक विशेष पहलू से देखें, तो मनुष्य अन्य जीव-जंतुओं की तुलना में पिछड़ा हुआ है। जैसे पक्षियों की तरह वह आकाश में उड़ नहीं सकता, कछुओं और मछलियों की तरह जल में किल्लोल नहीं कर सकता। हिरन और घोड़े की तरह दौड़ नहीं सकता, हाथी के बराबर बोझ नहीं ले जा सकता, सिंह जैसा बलवान नहीं है, उल्लू व चमगादड़ की तरह रात्रि में देख नहीं सकता।

         इतना निर्बल व पिछड़ा होते हुए भी वह अन्य समस्त जीव-जंतुओं से अधिक ताकतवर है। वह सृष्टिकर्ता विधाता की अनुपम रचना है।

         बुद्धि बल से आज का इन्सान नई-नई खोज करके मानव सभ्यता को श्रेष्ठतम ऊंचाइयों पर पहुंचाने की कोशिश में लगा है। उसका बुद्धि बल ही उसे साधारण मानव से महान बना रहा है। इसी बुद्धिबल से हम सब निकलकर समाज में व्याप्त बुराइयों को सरलता से दूर कर सकते हैं। हर इंसान का उद्देश्य अज्ञान के अंधकार में डूबे लोगों को आलोक प्रदान करना होना चाहिए। दीन-दुखियों की पीड़ा को समझकर उनका निवारण करना चाहिए। इन्हीं महान उद्देश्यों की पूर्ति के लिए अनकानेक धर्मो और धर्मग्रंथों की रचना की गई है। ये धर्मग्रंथ ही श्रेष्ठ पथ पर अग्रसर करने में हमारा मार्गदर्शन करते रहे हैं। सभी श्रेष्ठ कर्म बुद्धि बल के द्वारा ही संभव हैं।

जीवन ज्योति

1-जीवन का मूल तत्व है हमारा शिष्ठाचार
 
        शिष्टाचार हमारे जीवन का एक अनिवार्य अंग है। विनम्रता, सहजता से वार्तालाप, मुस्कराकर जवाब देने की कला प्रत्येक व्यक्ति को मोहित कर लेती है। जो व्यक्ति शिष्टाचार से पेश आते हैं वे बड़ी-बड़ी डिग्रियां होने पर भी अपने-अपने क्षेत्र में पहचान बना लेते हैं। प्रत्येक व्यक्ति दूसरे शख्स से शिष्टाचार और विनम्रता की आकांक्षा करता है।
 
 
          शिष्टाचार का पालन करने वाला व्यक्ति स्वच्छ, निर्मल और दुर्गुणों से परे होता है। व्यक्ति की कार्यशैली भी उसमें शिष्टाचार के गुणों को उत्पन्न करती है। सामान्यत: शिष्टाचारी व्यक्ति अध्यात्म के मार्ग पर चलने वाला होता है। अध्यात्म के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति का जन्म किसी वजह से हुआ है। हमारे जीवन का उद्देश्य ईश्वर की दिव्य योजना का एक अंग है। ऐसे में शिष्टाचार का गुण व्यक्ति को अभूतपूर्व सफलता और पूर्णता प्रदान करता है।
 
 
          यदि व्यक्ति किसी समस्या या तनाव से ग्रस्त है, लेकिन ऐसे में भी वह शिष्टाचार के साथ पेश आता है तो अनेक लोग उसकी समस्या का हल सुलझाने के लिए उसके साथ खड़े हो जाते हैं। ऐसा व्यक्ति स्वयं भी समस्या के समाधान तक पहुंच जाता है। शिष्टाचार को अपने जीवन का एक अंग मानने वाला व्यक्ति अकसर अहंकार, ईष्र्या, लोभ, क्रोध आदि से मुक्त होता है। ऐसा व्यक्ति हर जगह अपनी छाप छोड़ता है। कार्यस्थल से लेकर परिवार तक हर जगह वह और उससे सभी संतुष्ट रहते हैं। शिष्टाचारी व्यक्ति शारीरिक मानसिक रूप से भी स्वस्थ रहता है, क्योंकि ऐसा व्यक्ति सद्विचारों से पूर्ण सकारात्मक नजरिया रखता है। उसके मन के सद्भाव उसे प्रफुल्लित रखते हैं। चिकित्सा विज्ञान भी अब इस तथ्य को सिद्ध कर चुका है कि अच्छे विचारों का प्रभाव मन पर ही नहीं, बल्कि तन पर भी पड़ता है।
 
 
          मस्तिष्क की कोशिकाएं मन में उठने वाले विचारों के अनुसार कार्य करती हैं। इसके विपरीत नकारात्मक विचारों का मन तन पर नकारात्मक प्रभाव ही पड़ता है। जेम्स एलेन ने अपनी पुस्तक में लिखा है कि अच्छे विचारों के सकारात्मक स्वास्थ्यप्रद और बुरे विचारों के बुरे, नकारात्मक घातक फल आपको वहन करने ही पड़ेंगे। व्यक्ति जितना अधिक अपने प्रति ईमानदार और शिष्टाचारी होता है वह उतनी ही ज्यादा सच्ची और वास्तविक खुशी को प्राप्त करता है।
 
2-अपने क्रोध को अपने नियंत्रण में रखें
 
          मनुष्य का सबसे बड़ा दुश्मन क्रोध है, जिसका जन्म अहंकार से होता है। क्रोध में की गई गलती का अंत पश्चाताप पर होता है। जब तक व्यक्ति के मन में शांति है, प्रसन्नता है, क्रोध उस पर हावी नहीं होगा। मुस्कराहट के जाते ही क्रोध उस पर हावी हो जाता है। इसीलिए महापुरुष कहते हैं कि क्रोध की पहली चिंगारी जब आपके अंदर उठे और आपको मर्यादा से बाहर ले जाने का प्रयास करे तब उससे पहले ही उस पर नियंत्रण पाने की कोशिश की जानी चाहिए, अन्यथा क्रोध जब पूरी फौज लेकर आएगा तो उसे रोकना बहुत मुश्किल होगा। वस्तुत: क्रोध एक विकृत मनोवेग है। यदि जाए तो इसे बहाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं शेष बचता। मन में क्रोध आते ही भौंहें तन जाती हैं। जो व्यक्ति क्रोधी स्वभाव वाले होते हैं उनका साथ लोग वैसे ही छोड़ देते हैं, जैसे सूखे पेड़ को छोड़कर पक्षी उड़ जाते हैं। भगवान श्रीरामचंद्रजी ने भी जीवन में मर्यादा का पालन करते हुए क्रोध के यदाकदा उपयोग को ही सही माना है।
 
          आचार्य अनिल वत्स ने अपने लेख में लिखा है कि-क्रोध में व्यक्ति का नुकसान ज्यादा होता है। व्यक्ति की आयु क्षीण होती है, वह धीरे-धीरे अनेक बीमारियों का शिकार हो जाता है क्रोध परिवार, समाज कई अवसरों पर राष्ट्र के लिए भी घातक सिद्ध होता है। इसलिए क्रोध की आग उतनी ही जलाएं, जितना काबू में रख सकें। यदि क्रोध को भड़काने वाले कारणों से दूर रहें तो क्रोध पर विजय पाई जा सकती है। यदि किसी समय क्रोध जाए तो उसके परिणाम पर विचार जरूर करें। क्रोध से बचने के लिए प्राणायाम व्यायाम का सहारा लें। गीत-संगीत सुनने के साथ-साथ भक्ति और प्रार्थना करें। खुलकर हंसें। आसपास का वातावरण स्वभावत: सुधरने लगेगा। क्रोध की अवस्था ऊर्जा की एक ऐसी अवस्था है, जिसका शमन रूपांतरण से ही संभव है। क्रोध को बलपूर्वक नहीं दबाया जा सकता। विपरीत परिस्थितियों में भी समन्वय स्थापित करने का प्रयास करें। शांत मनोवृत्ति वाले धीर-वीर समर्थ सत्यपुरुष के सामने क्रोधी का क्रोध अधिक समय तक टिक नहीं सकता। ऐसे स्थान पर गिरा हुआ अंगारा, जहां घास हो, क्या स्वयं ठंडा नहीं हो जाता? क्रोध को क्रोध से नहीं बल्कि शांति से जीता जा सकता है।
 
 
3--अपनी चेतना को परिष्कृत करें
 
          मनुष्य जीवन के दो लक्ष्य हैं। पहला, कुसंस्कारों से छुटकारा पाना और परिष्कृत दृष्टिकोण अपनाना। परिष्कृत जीवन के साथ जुड़ी हुई आनंद भरी उपलब्धियां स्वर्ग कहलाती हैं और दुष्प्रवृत्तियों से छुटकारा पाने को ही मुक्ति कहते हैं।
 
          जीवन का दूसरा लक्ष्य है भगवान के विश्व उद्यान को अधिक सुरम्य, समुन्नत और सुसंस्कृत बनाने में योगदान देना। इन दोनों प्रयोजनों को पूरा करने में जो जितना योगदान देता है वह उतना ही बड़ा भक्त होता है। इस मार्ग पर चलने वाले संत, ऋषि, देवात्मा आदि नामों से पुकारे जाते हैं।
 
 
         उन्हें असीम आत्मसंतोष प्राप्त होता है। वे लोक-सम्मान के पात्र होते हैं। ऐसे लोगों को दूसरों से सहयोग मिलने से अपने उच्चस्तरीय उद्देश्यों की पूर्ति में असाधारण सफलता भी मिलती है। उनके कृत्य ऐतिहासिक होते हैं और उनके प्रभाव से तमाम लोगों को ऊंचा उठने के और आगे बढ़ने के अवसर मिलते हैं। बुद्धिमता इस बात में है कि आत्म-तत्व और शरीर दोनों की आवश्यकताओं का ध्यान रखा जाए। श्रम और बुद्धि का उपयोग दोनों क्षेत्रों के लिए इस प्रकार किया जाए कि शरीर स्वस्थ रहे और आत्मा अपने महान लक्ष्य को प्राप्त करने में सफल हो जाए, किंतु यह करना आसान नहीं है। जो बुद्धि आए दिन अनेक समस्याओं को सुलझाने में, संपदाओं और उपलब्धियों के उपार्जन में पग-पग पर चमत्कार दिखाती है वह मौलिक नीति निर्धारण, सुख-सुविधाओं के संचय-संवर्धन में लग जाती है। बुद्धि का यह एकपक्षीय असंतुलन ही जीवात्मा का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है। उसी से छुटकारा पाने के लिए ब्रह्मज्ञान, आत्मज्ञान और तत्वज्ञान के विशालकाय कलेवर की संरचना की गई है।
          बुद्धि को आत्मा के स्वरूप और उसके लक्ष्य को समझने का अवसर देना ही उपासना का मूलभूत उद्देश्य है। भौतिक जगत में शरीर के लिए अनेक आवश्यक सुविधा-साधन उपलब्ध हैं। ठीक उसी प्रकार एक चेतन जगत भी है। उसमें भरी हुई संपदा आत्मिक आवश्यकताओं को पूरा करती है। ब्रह्म सर्वत्र विद्यमान है, पर उसकी अभीष्ट अनुभूति करने के लिए भी पुरुषार्थ करना पड़ता है। उपासना-प्रक्रिया को ईश्वर और जीव के बीच विशिष्ट आदान-प्रदान का द्वार खोलना कह सकते हैं। उपासना-प्रक्रिया का तात्विक रहस्य अंतस चेतना को परिष्कृत करना है।
 
 
4-जीवन में कृतज्ञता का महत्व
 
          इसके बिना जीवन का रस फीका हो जाता है। यह जीवन मूल्यों में उच्चकोटि का शाश्वत सद्गुण है। संपूर्ण मनुष्य की कसौटी पर खरा उतरने के लिए कृतज्ञता का भाव आत्मसात कर लेने पर दूसरों को सुधारने की पात्रता आती है। उन्नति करने के लिए कृतज्ञता के गुण की अधिक आवश्यकता है। कृतज्ञता की प्रेरणा नारियल के वृक्ष से मिल सकती है।

 
          यह वृक्ष 50 वर्ष से अधिक समय तक फल और स्वास्थ्यवर्धक पानी प्रदान करता है और बदले में कुछ नहीं चाहता। केवल अपने लिए जीना स्वार्थ है। दूसरों का सहयोगी बनना परार्थ है। सामाजिक ऋण चुकाने की भावना से कार्य करना कृतज्ञता रूपी यज्ञ है। सामाजिक मूल्य बनने वाले गुण, दोष हो जाते हैं। कृतज्ञता से पहचानने की दृष्टि आती है तो कृतघ्नता से व्यक्ति दूसरों की नजरों में गिर जाता है। अपने काम आए लोगों को नकारना कृतघ्नता है। यह स्थिति मूढ़ता के कारण उत्पन्न होती है। कृतज्ञता की अभिव्यक्ति एक बड़ा सद्गुण है। हनुमान के प्रति राम इतने कृतज्ञ होते हैं कि वह चाहते हैं कि कभी हनुमान पर ऐसा कोई कष्ट आए ही नहीं जिसके लिए राम की उन्हें आवश्यकता पड़े, भले ही राम जीवनपर्यन्त कृतज्ञ बने रहें।
 
          कृतज्ञता वह सदगुण है, जिसकी अभिव्यक्ति करना हमारा कर्तव्य है। कहा गया है- नेकी कर दरिया में डाल। कृतज्ञता रूपी प्रसन्नता को दूसरों की कृतघ्नता रूपी अप्रसन्नता के हवाले करना हितकर नहीं होता। छोटी से छोटी सहायता, श्रेष्ठ भावना और मधुर शब्दों का कृतज्ञता से स्मरण कर यथासंभव लौटाना दिव्य संस्कार है। इस संदर्भ में भरत कहते हैं कि यदि मैंने कोई दोष किया गया हो तो ईश्वर मुडो कृतघ्नता का दंड दे। कृतज्ञता के बदले कृतघ्नता करने वालों के लिए प्रायश्चित करने के लिए किसी विकल्प की संभावना नहीं रहती। कृतज्ञता किसी के प्रति सच्ची योग्यता को स्वीकार करने का ही भाव है। कृतज्ञता कथनी और करनी का भेद मिटाकर सत्य की स्थापना करती है। कृतज्ञता किसी के प्रति दिया गया आदर का भाव है। सम्मान देने वाले स्वयं को झुकाकर अपने उच्च संस्कारों का परिचय कराते हैं। वस्तुत: महापुरुष कृतज्ञता में जीते हैं।
 

6-ईश्वर के प्रति समर्पण से जीवन की शक्ति मिलती है
          शरणागत का शाब्दिक अर्थ है शरण में आया हुआ, किंतु इसका निहितार्थ आध्यात्मिक संदर्भ में ईश्वर के प्रति संपूर्ण समर्पण से है। अपनी रक्षा के लिए शरण में वही आता है जिसे कहीं से किसी आपदा का आभास होता है। सभी आपदाओं, विपत्तियों, प्रवृत्तियों समस्याओं के निराकरण के एकमात्र आधार ईश्वर ही हैं।
          किसी एक कष्ट के कारण शरणागत होने पर शांति प्राप्त होती है और सभी कष्टों के निराकरण की अनुभूति होती है। ईश्वर की शरण में जाना साधक को निर्भय बनाता है।
          प्रभु की शरण प्राप्त करने के लिए साधक में श्रद्धा और विश्वास का होना आवश्यक है। इसके अलावा साधक में सहृदयता, सरलता, शांति समदृष्टि का प्रवेश स्वत: हो जाता है। वह ईष्र्या-द्वेष से अलग सर्वदा आनंदातिरेक में निमग्न रहता है। ईश्वर ही सृष्टा हैं। समर्पित भाव से उनकी शरण में पहुंच जाने से अपार शांति संतोष की अनुभूति होती है। जो प्रभु को सर्वस्व अर्पण करने के लिए तैयार है वही सच्चा शरणागत है। वस्तुत: ईश्वर समस्त गुणों के सागर हैं। उनकी शरण में आया हुआ व्यक्ति गुणों से अछूता नहीं रह सकता। शरणागत प्रभु के सान्निध्य में आने पर स्वत: ही गुणों अच्छाइयों को आत्मसात कर लेता है। उसका सांसारिक दोषों-काम-क्रोध, लोभ-मोह अहंकार से दूर-दूर तक का संबंध नहीं रहता। ऐसी स्थिति में प्रभु को समर्पित पुरुष सद्गुणों से संपन्न हो जाता है। उसे सांसारिक उपलब्धियों-धर्म, अर्थ, काम मोक्ष में से किसी की भी कामना नहीं सताती। धर्म का पालन तो वह स्वयं स्वेच्छापूर्वक कर ही रहा है। अर्थ काम का लालच उसके पास तक नहीं फटकता। वह पुरुष समय के अनुसार मोक्ष का अधिकारी बन जाता है। उसकी आत्मा परमात्मा के सानिध्य में पहुंच कर सर्वोच्च आनंद की अनुभूति करती है। शरणागत होने के लिए कोई विशेष प्रयास करना आवश्यक नहीं है। अपने आपको भगवान पर पूर्णत: आश्रित करते हुए करने योग्य कर्मो को फल की इच्छा के बगैर करना चाहिए। शरणागत होने के लिए कुछ नियम बताए गए हैं, जिनका आशय यह है-यह संकल्प कि मैं सदा प्रभु के अनुकूल रहूंगा, प्रतिकूलता का त्याग करूंगा, प्रभु मेरी रक्षा करेंगे, प्रभु मेरे संरक्षक हैं, भगवान के प्रति पूरा विश्वास करते हुए और उनके सामने दीनता के भाव से प्रार्थना करूंगा। इन नियमों पर अमल कर आप चेतना में व्याप्त ईश्वर की शरण में जा सकते हैं।
 

7-अपने जीवन के नैतिक मूल्य
         सदियों से भारत की संस्कृति नैतिक मूल्यों गुणों से परिपूर्ण है। हमारी संस्कृति नैतिक आचार-विचार व्यवहार का पालन करने के लिए सदैव प्रेरित करती है, परंतु अफसोस की बात है कि आज समाज और जीवन के हर एक क्षेत्र में नैतिक मूल्यों का ह्वास तेजी से हो रहा है। कई लोग यह भी प्रश्न करते हैं कि आखिर नैतिकता का अभिप्राय क्या है? लाहिड़ी गुरुजी ने अपने लेख में लिखा है कि नैतिकता का आशय है- नीति के अनुसार। यानी हमारे विचार, कर्म और व्यवहार सद्गुणों से प्रेरित हों और वे धर्म, संस्कृति राष्ट्र के लिए हितकारी हों। आध्यात्मिक तत्वों शक्तियों का संवर्धन करने वाले ऐसे विचारों, व्यवहारों गुणों को नैतिकता कहते हैं। अत्यंत विकट परिस्थितियों में भी आध्यात्मिक गुणों का पालन करते हुए अपने कर्म विशेष के प्रति जो सदाचरण कायम रख सके, वही नैतिक है। ऐसा तभी संभव है, जब मनुष्य अपने भीतर के अहंकार, स्वार्थ स्वनिर्मित आत्मघाती भय से परे उठने की साधना करे। धर्म, राष्ट्र संस्कृति को अपने जीवन की धुरी बनाए। नैतिक मूल्य हमें उचित-अनुचित आचार व्यवहार का ज्ञान कराते हैं। हमारी संस्कृति महान है। हमारे इतिहास में ऐसे अनेक ऋषि-मुनियों, महापुरुषों श्रेष्ठ साधकों के उदाहरण मिलते हैं, जिन्होंने अपना संपूर्ण जीवन नैतिक मूल्यों के रक्षार्थ समर्पित कर दिया और संपूर्ण समाज को जीवन के प्रति एक नई दिशा दी।
          मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम नैतिकतामय जीवन के आदर्श प्रतीक हैं। उन्हीं के पदचिह्नों पर चलते हुए भक्तिपूर्ण भाव से अपने आचरण को नैतिक रखते हुए हनुमानजी ने अमरत्व प्राप्त कर लिया। नैतिकतापूर्ण व्यवहार की अभिव्यक्ति हमें महर्षि वशिष्ठ, महर्षि दधीचि, स्वामी विवेकानंद, सरदार वल्लभ भाई पटेल और डॉ. बाबा साहेब अंबेडकर जैसे महानतम राष्ट्र साधकों के जीवन में दिखती है। नैतिकता के बगैर जीवन में आत्मोन्नति संभव नहीं। नैतिकतापूर्ण जीवन जीकर, दूसरों के समक्ष आदर्श प्रस्तुत करके ही इस जीवन में सफलता के सही मार्ग का चयन कर सकते हैं। वैसे भी दुनिया में शायद ही कोई ऐसा शख्स हो, जो विफलता चाहता हो। नैतिकता से मनुष्य के साथ-साथ समाज और राष्ट्र का भी उत्थान होता है। जो समाज नैतिकता से विमुख हो जाता है, उसकी अवनति तय है। इसलिए सभी लोगों को नैतिकता के मार्ग पर चलना चाहिए।
 
 
8-ऊर्जा का संचरण

          आचार्य सुदर्शन महाराज के एक लेख में पढने को मिला कि ब्रह्मांड जैसी लोकतांत्रिक व्यवस्था अन्यत्र कहीं नहीं मिलती। हम प्रजातांत्रिक देश के निवासी हैं। प्रजातंत्र का अर्थ है, देश का प्रत्येक व्यक्ति महत्वपूर्ण है और समान अधिकार रखता है। राष्ट्रपति देश के सर्वोच्च पदासीन व्यक्ति होते हैं। उनकी सहायता के लिए एक मंत्रिमंडल होता है। राष्ट्रपति के प्रतिनिधि राज्यों में राज्यपाल होते हैं और उनकी सहायता के लिए मुख्यमंत्री का मंत्रिमंडल होता है, जिनकी सहायता के लिए जिलाधिकारी, बीडीओ और पंचायत के मुखिया होते हैं, जो अपने-अपने क्षेत्र के विकास के लिए काम करते हैं। इस व्यवस्था से गांव का अंतिम व्यक्ति देश के महामहिम राष्ट्रपति से जुड़ा रहता है। इसलिए इसे गणतांत्रिक प्रजातंत्र कहा जाता है। इसी तरह हमारे ब्रह्मांड में भी ऐसी ही व्यवस्था है। ब्रह्मांड में दिव्य शक्तियां आच्छादित हैं। उसी दिव्य शक्ति से आकाशगंगा का निर्माण हुआ है। विज्ञान भी कहता है कि ताप ऊर्जा जब अत्यधिक सघन बन जाती है तो उसका द्रवीकरण हो जाता है। उसी द्रव्यमान को आकाशगंगा माना गया है।
          महान वैज्ञानिक आइंस्टीन कहते हैं कि पदार्थ जब अत्यंत घनीभूत हो जाता है तो ऊर्जा बन जाता है और ऊर्जा पदार्थ बन जाती है। यह क्रम चलता रहता है। विज्ञान की दृष्टि से शायद उसी दिव्य प्रकाश ऊर्जा का द्रव्यमान आकाशगंगा है। संभव है, आकाशगंगा को जन्म देने वाली दिव्य शक्ति जिसे आइंस्टीन ने सुपर पावर कहा है, वही ब्रह्मांड का मूल हो। जो प्राण शक्ति बनकर संपूर्ण ब्रह्मांड का नियंत्रण कर रही हो। वही ब्रह्मांड की सर्वोच्च अधिकारी होगी, उसी ने आकाशगंगाओं में अपार ऊर्जा शक्ति भरी होगी, उसी के नियंत्रण में एक अनुमान के अनुसार बीस हजार से अधिक निहारिकाएं बनी होंगी और किसी एक निहारिका के अंदर अनेक सूर्य मंडलों में से हमारा यह सूर्य होगा, जिसके सीधे संपर्क में हमारी पृथ्वी गतिमान है। इस तरह ऊर्जा का मूल स्रोत कोई दिव्य प्रकाश है, जो आकाशगंगा, निहारिका और सूर्य मंडल से होते हुए पृथ्वी तक आता है और पृथ्वी से 84 लाख जीव-जंतुओं में गतिमान होता है। ऐसा लगता है कि हमारा ब्रह्मांड पूर्ण लोकतांत्रिक व्यवस्था के अंदर कार्य करता है। लोकतंत्र में जिस प्रकार शासन सूत्र धीरे-धीरे ऊपर से देश के अंतिम व्यक्ति तक पहुंचते हैं, उसी प्रकार ब्रह्मांड की दिव्य शक्ति भी विभिन्न माध्यमों से होते हुए जीव तक पहुंचती है।
 

9-अपने जीवन में मौलिक शन्नता की नीव रखें
          मनुष्य के चेहरे की मुस्कान इस बात का प्रमाण नहीं है कि वह अंत:करण से भी उतना ही प्रसन्न है जितना बाहर से दिखाई देता है। प्लास्टिक का कोई आकर्षक फूल या पौधा असली होने का भ्रम तो पैदा कर सकता है, लेकिन मौलिक प्रसन्नता या असली खुशबू देने में किसी भी रूप में समर्थ नहीं हो सकता। चेतनता का अहसास वही पौधा कर सकता है, जिसकी जड़ें प्रकृति से ऊर्जा ग्रहण करती हों। ठीक इसी तरह मनुष्य का अंत:करण जब तक पवित्र नहीं हो जाता तब तक उसकी वाणी में माधुर्य सकता है, उसे असली खुशी की अनुभूति ही होगी। वह स्वयं से ही नाटक कर ठगा जाता रहता है। ऐसा मनुष्य देव साक्षात्कार में भी असमर्थ रहता है। स्वेट मार्डेन का कहना है कि वही मनुष्य ईश्वर के दर्शन कर सकता है जिसका अंत:करण स्वच्छ पवित्र है।
          अच्छा निर्मल अंत:करण ही मनुष्य के सच्चे चरित्रवान होने का प्रमाण है। प्रसिद्ध विचारक जेजे रूसो का मानना है कि जैसे वासनाएं देह की वाणी हैं वैसे ही अंत:करण आत्मा की वाणी है। अंत:करण के परामर्श के बगैर मनुष्य जीवन के सत्यों रहस्यों को समझने और वास्तविक रूप में स्थायी तौर पर दूसरों को प्रभावित करने में समर्थ नहीं हो सकता। शेक्सपियर का कहना है कि अंतरात्मा ही हमें परमात्मा और बहिर्जगत से पूर्णत: भिज्ञ होने की शक्ति प्रदान करती हैं। इसी बात की पुष्टि विश्वकवि रवींद्रनाथ टैगोर अपनी इस बात से करते हैं- एक बार अंत:करण की ओर आंख घुमाओ, तुरंत ही सारा अर्थ समझ में जाएगा। वस्तुत: अंत:करण अंतमरुखी रहस्यमय लोक में प्रवेश करने का प्रमुख तोरण द्वार है। अंत:करण के मलिन होने पर संसार से सुख की प्राप्ति होती है और भगवत-प्रेम की ही। स्वामी रामकृष्ण परमहंस का मानना है कि जैसे मैले शीशे पर सूरज की किरणों का प्रतिबिंब नहीं पड़ता उसी प्रकार उन लोगों के हृदय में ईश्वर के प्रकाश का प्रतिबिंब नहीं पड़ सकता, जिनका अंत:करण मलिन और अपवित्र है। इसलिए मनुष्य जितना समय, अपने वाह्य शरीर को सजाने-संवारने में गंवाता है, उसका एक चौथाई भी यदि अंत:करण की पवित्रता में लगा दे तो जीवन संसार स्वयं स्वर्ग की तरह महक उठेगा।
 

10-अगर चिन्ता समाप्त करनी हो तो परमात्मां का चिंतन करें
          जीवन संग्राम में परमात्मा की कृपा का होना नितांत आवश्यक है। आपके अंतर्मन में प्रभु का स्मरण रहेगा तो जीवन यात्रा निर्विघ्न पूरी होगी। संग परमात्मा रहे, सत्य रहे, संग धर्म रहे, मानवता रहे। अगर ये हमारे संग रहे तो चिंता करने की कोई बात नहीं। जैसे अर्जुन के सद्गुणों की रक्षा के लिए भगवान श्रीकृष्ण स्वयं सारथी बनकर आए थे।
 
          तभी तो कहते हैं-जहां धर्म है वहां कृष्ण हैं। जहां कृष्ण हैं वहां विजय सुनिश्चित है। प्रभु संग रहते हैं तो कोई हमारा बाल-बांका नहीं कर सकता, परंतु जीवन में ये सद्गुण तभी कायम रह सकते हैं जब हम सजग सतर्क रहें। अपने हर कर्म को पूजा बना लें। साथ ही, उसका चिंतन करें। उसे अनुभूत करें।
          परमात्मा के चिंतन से चिंता स्वयं समाप्त हो जाती है। दुख-चिंता-मुसीबत, इन सबके बादल प्रभु कृपा से जीवन में छट जाते हैं। हमारे प्रारब्धवश, कर्मवश ये बादल बार-बार आते रहते हैं। कई बार बरसते भी हैं, लेकिन हमारे प्रभु यदि एक छाता हाथ में पकड़ा दें, तो दुख रूपी बरसात से काफी हद तक छुटकारा मिलता है। ध्यान रहे, ये संसार दुखालय है। एक दुख हटता नहीं, दूसरा सिर पर मंडराने लगता है। एक परेशानी दूर होती नहीं कि दूसरी सिर उठा लेती है। यह संसार परिवर्तनशील है। यहां कुछ भी स्थिर नहीं है। प्रभु की कृपा हर पल, हर क्षण हमारे ऊपर बनी रहती है। हम उस कृपा को समडों या समझे। हमारी संस्कृति युद्ध के चिंतन की नहीं है, यह धर्मानुसार जीवन जीने का चिंतन देने वाली संस्कृति है। कुरुक्षेत्र के मैदान में भगवान श्रीकृष्ण ने पांचजन्य का उद्घोष भारतीय संस्कृति और सभ्यता के रक्षार्थ किया था। वह भी युद्ध नहीं चाहते थे, परंतु धर्म के रक्षार्थ उन्हें दुष्टों के दमन के लिए युद्ध में सम्मिलित होना पड़ा।
 
          भगवान श्रीराम ने रावण को बहुत समझाया। नहीं माना तो सोने की लंका भी गई। हमारे देश में अवतरित होने वाले हर अवतार के पीछे जन्म लेने वाले महापुरुष के पीछे कोई कोई सोद्देश्य होता है। यह मानव देह परमात्मा की अनंत कृपा के बाद मिली है। हमें इसे माध्यम बनाते हुए अपने व्यक्तित्व को सर्वागीण बनाकर ध्यान-साधना के जरिये ईश्वर की अनुभूति करनी चाहिए।
 
11-महान बनना है तो नारायण के साथ नर की भी सेवा करें
          किसी भी व्यक्ति की महानता का आकलन करने के लिए प्रत्येक समाज या विचारधारा के अलग-अलग पैमाने होते हैं। इन्हीं के आधार पर हम लोगों को महान कहते हैं।
 
 
          वेदों में महानता के पांच लक्षण बताए गए हैं। प्रथम लक्षण है व्यक्ति का कर्मयोगी होते हुए परमेश्वर, समाज और राष्ट्र के लिए जीवन समर्पित करना। दूसरा लक्षण है कि वह मान-अपमान, लाभ-हानि आदि की परवाह करते हुए और सदा आनंदित रहते हुए अपने कर्तव्य पथ पर आगे बढ़ता रहता है। वह दूसरों को भी आनंद प्रदान करता है। व्यक्ति की महानता का तीसरा लक्षण यह है कि वह मननशील, सहनशील और मर्यादा पालक होता है। उसका धर्म मनुष्यता या परोपकार पर आधारित होता है। गीता के अनुसार निष्काम कर्म करने वाला यानी अपने लाभ के लिए कर्म करने वाला व्यक्ति महानता के लक्षण पूरे करता है।
 
 
          चौथा लक्षण यह है कि उसमें छोटापन नहीं होता है। उसका हृदय विशाल होता है और वह प्रत्येक जीव को समान आदर और प्रेम की दृष्टि से देखता है। महानता का पांचवां लक्षण यह है कि ऐसा व्यक्ति स्वयं प्रकाशित होता है और अपने इस प्रकाश से अन्य लोगों को भी प्रकाशित करता है यानी वह ज्ञान और ऊर्जा से परिपूर्ण होता है और अन्य लोगों को भी प्रेरित करता है जिससे वे भी अपना अज्ञान मिटाकर कर्मशील होकर ज्ञानमार्ग पर बढ़ सकते हैं। सदैव दूसरों की सहायता करने वाला, पुरुषार्थयुक्त, उत्तम बल से युक्त, बुद्धिमान और विशेष ज्ञान वाला और बिना किसी स्वार्थ के सेवा में तत्पर रहना आदि गुणों से सुशोभित होना भी महानता के लक्षण हैं। महान व्यक्तियों के कर्मो और स्वभाव को समझकर यदि हम आत्मसात कर सकें तो अपने जीवन में कुछ सुधार ला सकते हैं। आज तक इस धरती पर जितने भी कर्मशील लोग पैदा हुए हैं, सभी ने अपने-अपने तरीके से कुछ रचनात्मक योगदान दिया है। इस सृष्टि को इन विचारकों, मनीषियों और वैज्ञानिकों आदि ने समस्याओं का समाधान करते हुए समृद्ध बनाया है।
 
          अंग्रेजी भाषा में एक कहावत है जिसका आशय है कि कुछ लोग जन्म से महान होते हैं, कुछ महान बन जाते हैं और कुछ पर महानता थोप दी जाती है। हमारी संस्कृति के अनुसार महानता किसी पर थोपी नहीं जा सकती है। सतत साधना करते हुए नर और नारायण की सेवा करके हम महान बन सकते हैं।
 
12-दूसरे में दोषों को न तलाशें बल्कि स्वयं में झांककर देखें
       कई बार हम दूसरों के दोष या ऐब निकालते रहते हैं। कहते हैं कि अमुक व्यक्ति स्वार्थी है, क्रोधी है, लालची या धूर्त है, परंतु गहराई से और न्यायिक दृष्टि से देखें तो यह पाएंगे कि हमारे अंदर ही अनेक दोष हैं। यह छिद्रान्वेषण की प्रवृत्ति किसी अपराध से कम नहीं है। जब हम निरंतर बुरे विचार रखते हैं तो हमारे कर्म भी अशुभ बन जाते हैं। कटुता, दुर्भाव, विभाजन, कलह, द्वेष और असहयोग ही इसके परिणाम हो सकते हैं। पाप-पुण्य की व्याख्या करते हुए महाभारतकार ने कहा है, 'दूसरों के प्रति उपकार करना ही पुण्य है और दूसरों को पीड़ा देना ही पाप है।'
 
          जो अपने प्रतिकूल हो वैसा व्यवहार दूसरों के साथ कदापि नहीं करना चाहिए। यही सनातन मर्यादा है, यही समस्त धर्मो का सार है। इसके अतिरिक्त दूसरे कर्मो का आधार तो केवल स्वार्थ है। आपने देखा होगा कि स्वभावत: मनुष्यों की इच्छाओं में बहुत कुछ समानता होती है। दूसरों से प्रेम, स्नेह, आत्मीयता, सहयोग और सहानुभूति की अपेक्षा सभी रखते हैं, परंतु जब हम व्यावहारिक रूप में दूसरों के साथ ऐसा बर्ताव नहीं करते तो इसे बुरा विचार या अशालीन माना जाता है। अपने अहंकार को ही श्रेष्ठ मानना और अपनी इच्छाओं को उचित-अनुचित किसी भी तरह पूरी करने को दोषपूर्ण माना गया है। परोपकार पुण्य है, क्योंकि इसका आधार सद्भावना होता है और अपकार पाप माना गया है। विचारों के अनुसार ही चेष्टाएं जाग्रत होती हैं। सत्कर्मो के विस्तार से आत्मा विकसित होती है। आत्मविकास से स्वर्गीय सुख की रसानुभूति होती है। अध्यात्म की पहली शिक्षा है कि हम मंगलमय कामनाएं करें और सदाचारी बनें। यह तभी संभव है जब सत्प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन मिले। मानव जीवन की सार्थकता के लिए विचारों की पवित्रता अनिवार्य है। केवल ज्ञान, भक्ति और पूजा से हमारा विकास और उत्थान नहीं हो सकता। परमात्मा के सामने जब हम सब एक समान हैं, तब कोई ऊंच-नीच, छोटा-बड़ा नहीं है। जब हम ऐसा सोच कर दूसरों के साथ सदैव सात्विक भावनाएं रखेंगे, तभी हम सच्चे अध्यात्मवादी बन सकेंगे। एक धर्मग्रंथ के वाक्य का आशय है, 'ईश्वर से हमारी याचना हो कि हमारा मन शुभ संकल्प वाला हो। हम दूसरों का मंगल करें और मंगलपूर्ण सोचें।'
 
 
13-दूसरे प्रति श्रद्धा रखने का फल मीठा मिलेगा
          पूजा हमारी श्रद्धा का प्रतिफल है। किसी में श्रद्धा होती है तो उसे पूजने का मन होता है। सगुण उपासक को पूजा के लिए एक 'स्वरूप' की आवश्यकता होती है। निगरुण उपासना के लिए उपासक की श्रद्धा एक परम शक्ति में होती है, जिसे हम परमात्मा कहते हैं। इस धरा पर पूजा कैसे शुरू हुई, इस पर धर्म गुरुओं के अपने-अपने मत हो सकते हैं, परंतु एक तटस्थ शोधकर्ता के लिए यह शोध का एक महत्वपूर्ण विषय हो सकता है। कुछ लोग रोज पूजा करते हैं और कुछ लोग कभी-कभी। कुछ लोगों के लिए कर्म ही पूजा है तो कुछ 'व्यक्ति विशेष' की पूजा में ही मगन रहते हैं। आम आदमी से लेकर विशेष आदमी तक, सभी लोग पूजा फल के लिए ही करते हैं।
          गीता जैसे ग्रंथ 'निष्काम' पूजा की वकालत करते हैं। अपने कर्मो को बिना फल की इच्छा किए बगैर ही प्रभु को समर्पित कर देना ही श्रेयस्कर है। भारतीय अध्यात्म कर्म करने को कहता है, पर फल की इच्छा से बंधे कर्म को उचित नहीं ठहराता। कर्म बंधन से मुक्त रहकर कर्म करना ही 'निष्काम-कर्म' दर्शन का आधार है। रिश्तों में बंधे अर्जुन महाभारत युद्ध के आरंभ में कृष्ण के गीता-उपदेश के अठारहवें अध्याय तक पहुंचते-पहुंचते निष्काम युद्ध के लिए तैयार हो जाते हैं। जीवन के महाभारत में निष्काम होकर लड़ना ही शायद सच्ची पूजा है।
          माला फेरने से प्रभु को प्रसन्न करना अच्छी बात है, परंतु जीवन संघर्ष से भागकर केवल माला फेरना, संकीर्तन करना, आरती करना, पाठ करना या हवन करना प्रभु को भी नहीं भाता होगा। प्रभु की कृपा उन्हीं पर होती है, जो अपने निहित कर्मो का कुशलतापूर्वक संपादन करते हैं और साथ में निष्काम भाव से प्रभु की पूजा करते हैं। ऐसा भक्त अपनी कुशल-क्षेम प्रभु के हाथों में सौंपकर परमानंद में जीता है। श्रद्धा से ही मन में सकारात्मक विचारों का आगमन होता है जिसकी मदद से व्यक्ति बड़े से बड़ा काम भी कर डालता है। श्रद्धा हमें जीवन की नई राह दिखाती है। यह किसी के प्रति हो सकती है, लेकिन यह आवश्यक है कि हम श्रद्धा के नाम पर अंधविश्वास की ओर आगे बढ़ें। हमें उचित-अनुचित का विचार अपने मन-मस्तिष्क से कभी भी ओझल नहीं होने देना चाहिए।
 

14जीवन में नैतिक आचरण क्या है
          भारतीय संस्कृति में नैतिकता की अवधारणा में अनेक गुणों को शामिल किया गया है। मानवीय एकता, सत्य पर विश्वास, उदारता, अन्याय के प्रति संघर्ष, साहस, सच्चरित्रता, निस्पृहता, सहानुभूति, संवेदना और समन्वयवादी दृष्टिकोण आदि को नैतिकता की अवधारणा में ही शामिल किया जाता है। इन्हीं सदगुणों के आधार पर मनुष्य मनुष्य बना रह सकता है और विश्व के समक्ष आदर्श उपस्थित कर सकता है। मेरी दृष्टि में कोई भी आदमी फरिश्ता नहीं होता, विशेषताओं के साथ कमियों की संभावनाओं को भी नकारा नहीं जा सकता। बावजूद इसके हर इंसान का मन इस बात के लिए जागरूक बने कि मैं बुराइयों को मिटाने का तो दावा नहीं कर सकता, लेकिन अपने स्वयं के जीवन में बुराइयों के आने के दरवाजों को अवश्य बंद रखूंगा। इसी संकल्प से एक अच्छे इन्सान की तलाश का काम पूरा हो सकता है। आचार्य श्री महाप्रज्ञ ने इस संदर्भ में कहा है कि जब व्यक्ति अपने आपको नहीं देख पाता, तब हजारों-हजारों समस्याएं पैदा होती चली जाती हैं। इनका कहीं अंत नहीं होता। गरीबी की समस्या हो, मकान और कपड़े की समस्या हो ये सारी की सारी गौण समस्याएं हैं, मूल समस्याएं नहीं हैं। ये पत्तों की समस्याएं हैं, जड़ों की नहीं हैं। पत्तों का क्या? पतझड़ आता है, सारे पत्ते झड़ जाते हैं। वसंत आता है और सारे पत्ते जाते हैं, वृक्ष हरा-भरा हो जाता है। यह मूल समस्या नहीं है।
          मूल समस्या यह है कि व्यक्ति अपने आपको नहीं देख पा रहा है। उसके पीछे ये पांच कारण या समस्याएं काम कर रही हैं। पहला, मिथ्या दृष्टिकोण, दूसरा असंयम, तीसरा प्रमाद, चौथा कषाय, पांचवां चंचलता। जैन-दर्शन के अनुसार ये पांच मूल समस्याएं हैं। यही वास्तव में दुख हैं। यही दुख का चक्र हैं। जब तक दुख के इस चक्र को नहीं तोड़ा जाएगा, तब तक जो सामाजिक, मानसिक और आर्थिक समस्याएं हैं, उनका सही समाधान नहीं हो सकेगा। समय-सापेक्ष जीवन मूल्यों को आचरण में लाने के लिए हमें दायित्व और कर्तव्य की सीमाओं को समझना होगा। आंखों के सामने जो कुछ हो रहा है उसे सिर्फ देखना ही नहीं, अच्छे-बुरे का विवेक जगाना होगा।
15-जीवन जीने का क्या अर्थ है
          जीवन परमात्मा का प्रसाद होता है। इसे यों भी कह सकते हैं कि जीवन पूर्ण परमात्मा की आंशिक अभिव्यक्ति है। इसलिए हम मानते हैं कि हमारे अंतर्मन में परमात्मा निवास करता है। परमात्मा प्राणरूप में हमारे सूक्ष्म और स्थूल शरीर का संचालन करता है। इसलिए जीवात्मा को परमात्मा भी कहते हैं। हमारी आत्मा का कोई स्वरूप नहीं होता, यह अतिसूक्ष्म है, शक्तिरूप है। लेकिन जब कभी बाहर का प्रभाव अंतर्मन पर पड़ने लगता है, तो आत्मा की दिव्यता कम होने लगती है। इसीलिए हमारे साधक साधना करते हैं ताकि बाहर की विकृति अंतर्मन को दूषित कर सके। सच कहा जाए, तो हमारा जीवन एक महोत्सव है। यह आनंदस्वरूप है, केवल ध्यान रखने की आवश्यकता है कि हमारे आनंद के सागर में विकारों की लहरें उठें। इसलिए पतंजलि संयम, नियम, आसन, 0प्राणायाम, प्रत्याहार, ध्यान, धारणा और समाधि के अभ्यास की बात कहते हैं। ऐसा इसलिए, क्योंकि अगर जीवन को रसपूर्ण बनाना है, तो साधना की अग्नि में उसे तपाना पड़ेगा तभी जीवन को दिव्य बनाया जा सकता है। सामान्यत: लोग अपने ही विकारों से जीवन की दिव्यता को धूमिल बना लेते हैं क्योंकि सारे विकार स्वअर्जित होते हैं। अगर थोड़ी सी सतर्कता बरती जाए, तो हमारा जीवन आनंदपूर्ण बन सकता है।
          अनेक लोग अकारण निराशावादी बन जाते हैं, कई लोग तनावग्रस्त और चिंतित रहने लगते हैं। अगर इनके कारणों पर विचार किया जाए तो इनके तनाव और चिंता का कोई प्रबल कारण नहीं दिखता। अकारण चिंतित होकर कई लोग अपने जीवन के आनंद से वंचित रह जाते हैं। इसलिए प्रसन्न रहने का अभ्यास किया जाना चाहिए। संसार में केवल दुख है और सुख ही सुख है। हमारा दृष्टिकोण जैसा होता है, संसार उसी तरह दिखने लगता है। आशावादी व्यक्ति को चारों ओर प्रकृति की मुस्कान दिखती है और निराशावादी व्यक्ति को इस संसार में केवल कांटे ही दिखते हैं। हमें जीने का नजरिया बदलना होगा, हमें जीवन जीने की विधि सीखनी होगी, तभी हम जीवन का सार्थक उपयोग कर सकते हैं। जीवन का एक-एक पल कीमती है, आनंदपूर्ण है।