Friday, January 23, 2015

गीता एक संजीवनी है


              गीता का पहला अध्याय ‘विषाद योग’ है। मोह और अज्ञान से उत्पन्न विषाद के कारण अर्जुन कहता है कि न योत्सि (मैं नहीं लड़ूंगा)। वह तरह तरह की दलीलें दे कर उचित ठहराता है तो भगवान उसे जिस तत्वज्ञान का उपदेश देते हैं, उसका समापन अठारहवें अध्याय में होता है। उस अन्तिम अध्याय का नाम ‘मोक्ष संन्यास योग’है। गीता के प्रभाव से विषाद में फंसा साधक मोक्ष संन्यास योग-यानी मोक्ष की कामना से भी परे की स्थिति में पहुंच जाता है।



              महाभारत में कहा गया है-‘सर्व शास्त्रमयी गीता’ (भीष्म कहते हैं); परन्तु इतना ही कहना यथेष्ट नहीं है; क्योंकि सम्पूर्ण शास्त्रों की उत्पत्ति वेदों से हुई, वेदों का प्राकट्य भगवान् ब्रह्माजी के मुख से हुआ और ब्रह्माजी भगवान् के नाभि-कमल से उत्पन्न हुए। इस प्रकार शास्त्रों और भगवान् के मध्य अत्यधिक दूरी हो गई है।



              लेकिन गीता तो स्वयं भगवान् के मुख से निकली है, इसलिए उसे शास्त्रों से बढ़कर माना गया है। इसकी पुष्टि के लिए स्वयं वेदव्यास का कथन द्रष्टव्य है- गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यैः शास्त्रविस्तरैः। या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनिःसृता॥ (महा० भीष्म ) अर्थात्- ‘‘गीता का ही भली प्रकार से श्रवण कीर्तन, पठन-पाठन मनन और धारण करना चाहिए, अन्य शास्त्रों के संग्रह की क्या आवश्यकता है? क्योंकि वह स्वयं पद्मनाभ भगवान् के साक्षात् मुख-कमल से निकली है।’’



              इसके अतिरिक्त भगवान् ने गीता में मुक्तकण्ठ से यह घोषणा की है कि जो कोई मेरी इस गीतारूप आज्ञा का पालन करेगा, वह निःसंदेह ही मुक्त हो जाएगा। जो मनुष्य इसके उपदेशों के अनुसार अपना जीवन बना लेता है और इसका रहस्य भक्तों को धारण कराता है, उसके लिए तो भगवान् कहते हैं कि वह मुझ को अत्यधिक प्रिय है। भगवान् अपने ऐसे भक्तों के अधीन बन जाते हैं।



              सारांश यह है कि गीता भगवान् की वाणी है, हृदय है और भगवान् की वाङ्मयी मूर्ति है। जिसके हृदय में, वाणी में, शरीर में तथा समस्त इन्द्रियों एवं उनकी क्रियाओं में गीताव्याप्त हो गई है, वह पुरुष साक्षात् गीता की मूर्ति है। उसके दर्शन, स्पर्श, भाषण एवं चिन्तन से भी दूसरे मनुष्य परम पवित्र बन जाते हैं।इसलिए गीता को  संजीवनी कहा गया है। 

अन्धकार और दुख हमारे भाव है- प्रकाश में जीना सीखें

             अंधकार एक नकारात्मक भाव है,जब प्रकाश के अभाव की अनुभूति होती है तो यह प्रकाश कई बार परिस्थितियों के कारण भी लुप्त हो जाता है, किन्तु इस प्रकार की स्थिति में परमात्मा ने मनुष्य को इस प्रकार की क्षमता दे रखी है कि वह उनका उपयोग कर प्रकाश के अभाव को दूर कर सकता है। लेकिन अंधकार को देख कर ही जब मनुष्य भयभीत हो जाता है, परेशान और दुखी हो जाता है, तो उसके लिए अंधकार से मुक्त होने का कोई उपाय नहीं है।

 

            इसी प्रकार दुःख भी अंधकार के समान नकारात्मक भाव है। उसका भी कोई अस्तित्व नहीं है। व्यक्ति अपनी भ्रान्तियों, गलतियों और त्रुटियों की तंग कोठरी में बन्द होकर चारों ओर विखरे खिले हुए सुख तथा आनंद से वंचित रहे, तो इसमें परमात्मा का कोई दोष नहीं है।

 

                परमात्मां ने तो सृष्टि में चारों ओर सुख, आनंद तथा प्रफुल्लता का प्रकाश बिखेर रखा है। मनुष्य की अपनी भ्रान्तियों और त्रुटियों की जो दीवार है, अपनी समझ और दर्शन के दरवाजे व खिड़कियों को बंदकर स्वयं ही अंधकार पैदा किया है। प्रायः जो दुःखी, संतप्त, व्यथित और वेदनाकुल दिखाई देते हैं, उनकी पीड़ा के लिए बाहरी कारण नहीं, अपनी संकीर्णता की दीवारें उनके लिए उत्तरदायी हैं।

 

                 परिस्थितिवश कोई समस्या या कठिनाई उत्पन्न हो जाय, तो उसके लिए शोध करने की आवश्यक हीं है। परमात्मा ने अंधकार को दूर भगाने के लिए मनुष्य को उन समस्याओं तथा कठिनाइयों को सुलझाने की क्षमता दे रखी है। वह उस क्षमता का उपयोग कर अपने लिए सुख तथा आनन्द का मार्ग खोज सकता है तथा दुःख रुपी अंधकार को दूर टा सकता है।

हर रोज विचार करें तो प्रगति की ओर बढते जाओगे


            जो लोग आत्मसमीक्षा नहीं करते वे लोग कभी प्रगति नहीं कर सकते, क्योंकि दोष दुर्गुण आत्मसमीक्षा से ही पकड़े जाते हैं। आत्मसमीक्षा के बाद ही समाधान के बारे में सोचने का काम है। इसे बड़ी सावधानी से करने योग्य कार्य है। इसके लिए क्या करना चाहिए–
 
1-            दिन व्यतीत हो जाने पर रात्रि को जब बिस्तर पर जाएं तो दिन भर की मानसिक चिन्तन प्रणाली और शारीरिक गतिविधियों की निष्पक्ष समीक्षा करनी चाहिए। यदि असाधारण उत्कृष्ट कर्तव्य का परिचय दिया गया हो वहां अपने आत्मबल पर गर्व और संतोष अनुभव करना चाहिए और जहां चूक हुई तो उसके लिए पश्चाताप प्रायश्चित करते हुए अगले दिन वैसा करने की अपने आपको कड़ी चेतावनी देनी चाहिए।
 
2-            जिस प्रकार व्यापारी अपने बही खाते से यह अनुमान लगाते रहते हैं कि कारोबार नफे में चल रहा है या नुकसान में, ठीक इसी तरह अपनी भावना और क्रिया के जीवन व्यापार की गतिविधियों की समीक्षा करते हुये इस निष्कर्ष पर पहुंचना चाहिए कि हम ऊपर उठ रहे हैं या नीचे गिर रहे हैं।
 
3-            यदि उठ रहे हों तो उस उत्कर्ष की गति और भी तीव्र करने का उत्साह पैदा करना चाहिए और यदि पतन बढ़ रहा हो तो उसे
रोकने के लिए रुद्र रूप धारण करना चाहिए। गीता में भगवान ने आलंकारिक रूप से जिन कौरवों से लड़ने के लिए कहा था, वस्तुतः वे मनोविकार ही हैं। यह महाभारत हर व्यक्ति के जीवन में लड़ा जाना चाहिए। अपने दोष दुर्गुणों को निरस्त करने के लिए हर व्यक्ति को धनुष बाण संभालकर रखना चाहिए।
 
4-            भूलों के लिए पश्चाताप प्रार्थना भर पर्याप्त नहीं वरन् उसके लिए प्रायश्चित भी किया जाना चाहिए। छोटी भूलों के लिए छोटे शारीरिक दण्ड दिये जा सकते हैं, भोजन में कटौती, कान पकड़कर बैठक लगाना, कुछ समय खड़े रहना, देर तक जागना, चपत लगाना आदि दण्ड हो सकते हैं।
 
5-            यदि दूसरों को क्षति पहुँचाई गई है तो उसकी क्षति पूर्ति समाज की भलाई का कोई काम करके करना चाहिए। संसार में जो अंधेर, अविवेक और अनाचार चल रहा है, उसके प्रति आकर्षण नहीं, घृणा होनी चाहिए। उसे अपनाने के लिए नहीं, प्रतिरोध के लिए ही अपनी चेष्टा होनी चाहिए। व्यक्तित्व का निर्माण इसी प्रकार होगा।

 
 
 

प्रार्थना ऐसी हो जिसकी अनुभूति की जा सके

 

 

1-प्रार्थना करने की कोई विधि नहीं है-

              जी हॉ कुछ लोग प्रार्थना की विधियों का उल्लेख करते हैं, मगर प्रार्थना की कोई भी विधि नहीं हो सकती है। क्योंकि यह न कोई संस्कार है और न कोई औपचारिकता बस प्रार्थना ह्दय से निकलने वाला सहज स्वाभाविक उमडता हुआ एक भाव है। लेकिन इसमें पूछने वाली बात नहीं है कि कैसे?क्योंकि? यहॉ कैसे, जैसा कुछ भी नहीं है, कैसे जैसा कुछ भी हो सकता है। उस क्षण जो भी घटता है, वही ठीक है। अगर आंसू निकलते हैं तो अच्छा है,कोई गीत गाने लगता है तो भी ठीक है,अगर अन्दर से कुछ भी नहीं निकलता है तो शॉत खडे रहते हो,यह भी ठीक है।क्योंकि प्रार्थना कोई अभिव्यक्ति नहीं है,या किसी आवरण में भी वन्द नहीं है। प्रार्थना तो कभी मौन है,तो कभी गीत गाना प्रार्थना बन जाती है। यह तो सबकुछ तुम और तुम्हारे ह्दय पर निर्भर करता है।इसलिए अगर मैं तुमसे गीत गाने के लिए कहता हूं तो तुम गीत इसलिए गाते हो कि ऐसा करने के लिए मैंने तुमसे कहा,इसलिए यह प्रार्थना झूठी है।इसलिए प्रार्थना में अपने ह्दय की सुनो,और उस क्षण को महसूस करो और उसे होने दो। फिर जो कुछ भी होता है वह ठीक ही होता है।

2-प्रार्थना में अपने पर किसी की इच्छा मत लादो-

              प्रार्थना में कोई योजना बनाने की कोशिश कर रहे हो तो तुम प्रार्थना से चूक जाते हो।प्रार्थना पर अपनी इच्छा मत लादो,इसीलिए तो धार्मिक स्थल और धर्म संस्कार और कर्मकाण्ड बनकर रह गये हैं। उनकी तो पहले से ही तय की गई प्रार्थना होती है, उसका एक निश्चित रूप है,एक ही स्वीकृत किया गया है। जबकि प्रार्थना तुम्हारे अन्दर से उठती और उमगती है,प्रत्येक क्षण प्रत्येक चित्तवृत्त में उसकी अपनी निजी प्रार्थना होती है।इसे कोई नहीं जान सकता है कि तुम्हारे अन्दर के संसार में कल क्या घटने
वाला है।

3-परमात्मा की अनुभूति-

              वैसे प्रार्थना में प्रशन्नता की अनुभूति होती है लेकिन हमेशा प्रशन्न रहना भी जरूरी नहीं है कभी तुम उदासी अनुभव कर सकते हो,यह उदासी दिव्य होती है,यही तुम्हारी प्रार्थना होगी। उस स्थिति में तुम अपने ह्दय को रोने और विलखने दो,आंखों में आंसू वरसने दो।तब उस उदासी को ही परमात्मॉ को अर्पित कर दो।जो कुछ भी तुम्हारे ह्दय में है उस परमात्मां के चरणों में अर्पित कर दो-प्रशन्नता है या उदासी और कभी-कभी क्रोध या आक्रोश भी हो सकता है।

4-परमात्मा से नाराजी प्रेम का प्रतीक है-

              कभी तुम परमात्मा से नाराज भी हो सकते हो, यदि तुम कभी परमात्मां से नाराज नहीं हुये तो इसका मतलब तुमने परमात्मां को जाना ही नहीं।अगर कभी तुम उन्माद में होते हो तो तो उस समय उस क्रोध को ही प्रार्थना बन जाने दो।परमात्मा तुम्हारा है,और तुम परमात्मा के हो, इसलिए परमात्मा से लडो! प्रेम में तो सभी प्रकार के संघर्ष बने रह सकते हैं। यदि इसमें लडाई और संघर्ष का अस्तित्व न हो तो वह प्रेम है ही नहीं। इसलिए जब कभी प्रार्थना करना जैसा कुछ भी अनुभव न हो,तो तुम परमात्मा से कह सकते हो कि-सुनो जरा ठहरो, देखो मेरा मूढ ठीक नहीं है, और तुम जिस तरह से यह सबकुछ कर रहे हो, यह तुम्हारी प्रार्थना करने योग्य नहीं है!तुम अपने ह्दय का सहज स्वाभाविक भावोद्वेग बनने
दो।

5-परमात्मा के साथ अप्रमाणिक बनकर मत रहो-

              परमात्मा के साथ अप्रमाणिक बनकर रहना उचित नहीं है क्योंकि अस्तित्व में बने रहने के लिए ईमानदार या प्रमाणिकता का होना जरूरी है,तभी हम परमात्मा के साथ स्तित्व में बने रह सकते हैं।तभी परमात्मा हमारी शिकायत की ओर देखेगा, नकि प्रार्थना की ओर। अप्रमाणिकता झूठ है, हम किसे धोखा देने की कोशिश कर रहे हैं? हमारे चेहरे की मुस्कान परमात्मा को धोखा नहीं दे सकती,वास्तविक सत्य वह जान ही लेता है। केवल वही तो हमारे सत्य को जान सकता है,उसके सामने तो झूठ ठहर ही नहीं सकता है। इसलिए सत्य को बने रहने देना चाहिए। परमात्मा को केवल अपना सत्य ही भेंट करें और कह सकते हो कि- आज में तुमसे नाराज हूं, मैं तुमसे घृणॉ करता हूं, और तुम्हारी प्रार्थना भी नहीं कर सकता, इसलिए आज तुम्हैं मेरी प्रार्थना के विना ही रहना होगा। मैं आज तक बहुत सह चुका हूं,अब तुम सहो। परमात्मा से वैसी बात कर सकते हो जैसे तुम अपने प्रेमी या मित्र या मां के साथ बातचीत करते हो। उससे ऐसे बात करो जैसे किसी छोटे बच्चे के साथ बात करते हैं।

6-सभी धर्मों में परमात्मा को परम् पिता कहा गया है-

              परमात्मा के सामने तो हर मनुष्य एक बच्चे की भॉति है। इसलिए कि हम परमात्मा को परमपिता कहते हैं।लेकिन हम इस बात को भूल जाते हैं कि परमात्मा परमपिता है। हमें यह भूल जाना है कि वह तुम्हारा पिता है या नहीं है,बस तुम्हें उसके सामने एक बच्चे की भॉ़ति ही जाना होगा-सहज,सच्चे,स्वाभाविक और प्रामाणिक। किसी सी पूछो ही नहीं कि प्रार्थना कैसे की जाय? उस क्षण सत्य ही तुम्हारी प्रार्थना होनी चाहिए। उस क्षण का सत्य चाह् जैसा भी हो, बिना सर्त तुम्हारी प्रार्थना बन जानी चाहिए। और एक बार उस क्षण का सत्य तुम्हारी सम्पत्ति बन जाती है।तुम विकसित होना शुरू हो जाते हो।

7-प्रार्थना एक प्रेमी की भक्ति का मार्ग है-

              एक प्रेमी प्रेम के बन्धन में प्रेम करता है,किसी भी प्रकार से वह उससे बाहर नहीं आना चाहता है। उसकी केवल यही प्रार्थना रहती है कि उसे इस योग्य समझा जाना चाहिए कि परमात्मा उसे निरन्तर अपनी लीला में स्थान देता रहे।यह बहुत सुन्दर खेल है वह इससे मुक्त नहीं होना चाहता है।

8-ध्यान मार्ग बुद्धत्व से सम्बन्ध रखता है-

              ध्यान के मार्ग पर चलने वाले व्यक्ति के लिए प्रार्थना तो एक बन्धन है। अगर देखें तो महॉवीर ने कभी प्रार्थना नहीं की। बुद्ध ने भी कभी प्रार्थना नहीं की। बुद्ध के लिए तो प्रार्थना अर्थहीन थी। इसलिए यदि तुम बुद्ध बनना चाहते हो तो प्रार्थना करना ही नहीं,क्योंकि प्रार्थना एक बन्धन को निर्मित करता है। लेकिन यह बन्धन शुद्ध प्रेम का रूप है।यदि तुम उस मार्ग का चयन करते हैं तो ठीक है मगर इसके लिए बुद्धत्व का प्रयोग सही नहीं होगा।

9-सहायता लेना बन्धन है-

              एक बार एक लडका अपनी मॉ से मछली मारने के लिए जाने हेतु पूछता है,मॉ का कहना था कि,यदि तुम जाना ही चाहते हो तो पूछते क्यों? हो जाओ! क्योंकि पूछने से सहायता नहीं मिल सकती है बल्कि बन्धन मिलेगा तुम बँध जाओगे। इसलिए बुद्धत्व को उपलव्ध होना है तो तुम्हें बिल्कुल अकेले रहना होगा। तो फिर वहॉ कोई भी परमात्मॉ नहीं होगा। कोई भी ऐसा नहीं कि जो तुम्हारी सहायता कर सके। क्योंकि अगर तुम किसी की सहायता चाहते हो तो वह बन्धन बन जायेगा। अर्थात यदि मैं तुम्हें मुक्त होने में सहायता करता हूं तो तुम मुझपर आश्रित होने लग जाओगे, तब बिना मेरे मुक्त किये तुम समर्थ हो सकोगे।और ध्यान के मार्ग पर सहायता करना सम्भव नहीं होगा। केवल संकेत मिल सकते हैं। बुद्ध तो केवल मार्ग दिखाता है,बुद्ध की विधि में तो कोई सहायता नहीं कर सकता है। तुम्हें स्वयं अपने पथ पर आगे बढना होगा।अपना प्रकाश स्वयं बनना होगा

आप अच्छा या बुरा किसे कहेंगे

 
            आप क्या सोचते है,अच्छा आदमी किसी को नुकसान नहीं पहुंचा सकता। दरअसल अच्छा आदमी समाज और दुनिया को सबसे अधिक नुकसान पहुंचाता है। वैसे आप अच्छा या बुरा किसे कहेंगे।अच्छे लोगों के ऐसे ही कर्मों से होता है नुकसान ।


एक ही शादी पर टिका रहने वाला बुरा आदमी-




        बुरे आदमी को मैं,शराब पीता हो इसलिए बुरा नहीं कहता। शराब पीने वाले अच्छे लोग भी हो सकते हैं।शराब पीने वाले बुरे लोग भी हो सकते हैं।या बुरा आदमी इसलिए कहता, कि उसने किसी को तलाक देकर दूसरी शादी कर ली हो। दस शादी करने वाला भी अच्छा आदमी हो सकता है। एक ही शादी पर जन्मों तक टिका रहने वाला आदमी भी बुरा हो सकता है।

 

        मैं बुरा आदमी उसको कहता हूं जिकसी मनोग्रंथि हीनता की है, जिसके भीतर इनफीरि यॉरिटी का कोई बहुत गहरा भाव है। ऐसा आदमी खतरनाक है, क्योंकि ऐसा आदमी पद को पकड़ेगा, जोर से पकड़ेगा, किसी भी कोशिश से पकड़ेगा, और किसी भी कीमत, किसी भी साधन का उपयोग करेगा।
 

 

अच्छे आदमी कर जाते हैं यह गलती----


 
        हिंदुस्तान में अच्छा आदमी वही है,जो न इनफीरियॉरिटी से पीड़ित है और न सुपीरियॉरिटी से पीड़ित है। अच्छे आदमी की मेरी परिभाषा है,ऐसा आदमी, जो खुद होने से तृप्त है,आनंदित है। जो किसी के आगे खड़े होने के लिए पागल नहीं है,और किसी के पीछे खड़े होने में जिसे अड़चन,कोई तकलीफ नहीं।जहां भी खड़ा हो जाए वहीं आनंदित है। ऐसा अच्छा आदमी राजनीति में जाए तो राजनीति शोषण न होकर सेवा बन जाती है।



        लेकिन भारत का अच्छा आदमी हमेशा से देश और समाज को नुकसान पहुंचाता रहा है। क्योंकि हिंदुस्तान के अच्छे आदमी भगोड़े रहे हैं। हिन्दुस्तान ने उनको ही आदर दिया है जो भाग जाए। कोई भी नहीं जानता कि अगर बुद्घ ने राज्य न छोड़ा होता,तो दुनिया का ज्यादा हित होता या छोड़ देने से ज्यादा हित हुआ। गांधी जी ने भी देश को आजाद करवाया और आजदी के बाद खुद राजनीति से हट गए।



        यह परंपरा है हमारी कि अच्छा आदमी हट जाए। लेकिन हम कभी नहीं सोचते कि अच्छा आदमी हटेगा तो जगह खाली नहीं रहेगी।खाली जगह को बुरा आदमी भर देता है। यही कारण है
कि भारत की राजनीति में बुरे आदमी तीव्र संलग्नता से उत्सुक रहते हैं।

धार्मिक चिंतन- विज्ञान और प्रामाणिकता के रूप में

              इस पृथ्वी पर मनुष्य को सिर्फ वही ज्ञान रहता है जो उसे दिखाई देता है,और जिसे वह अनुभव करता है,शेष इस संसार के सूक्ष्म क्रियाकलापों के प्रति जो कि हर समय होते रहते है के प्रति वह वह जानकारी तो रखता है मगर अप्रामाणिक होते हैं। विज्ञान की परिभाषा यदि सही अर्थों में समझ ली जाय तो धर्म, अध्यात्म को विज्ञान की एक उच्चस्तरीय विधा के रूप में माना जाएगा।
 
                   धर्म और विज्ञान को एक दूसरे का विरोधी न मान कर उन्हें एक दूसरे का पूरक समझना चाहिए। धर्म और अध्यात्म का नियंत्रण भावनात्मक क्षेत्र पर हैं उसके आधार पर ही चिंतन का परिष्कार होता है। इसलिए महत्त्व इसी बात पर दिया जाना चाहिए कि विचार पद्धति अध्यात्म के अंकुश तले विनिर्मित हो।
 
                  इतना भर जान लेने से वे सारे विरोधाभास मिट जायेंगे जो विज्ञान और अध्यात्म के बीच बताए जाते हैं। बंधनमुक्ति कैसे हो, माया किसे मानें और जो दीख पड़ता है, वह भी सत्य है, यह कैसे जाने? यदि आज की मूढ़ मान्यताओं, अंधविश्वासों, प्रथा-परंपराओं, कुहासे में घिरे धर्म को विज्ञान का पुट देकर स्वच्छ छवि दी जा सके तो जो भी कुछ आज अज्ञान के रूप हमें समक्ष विज्ञान के ढकोसले में दिखाई देता है, वह स्पष्ट समझ में आने लगेगा।
 
                  विज्ञान पर यदि अध्यात्म रूपी संवेदना के समुच्चय तत्त्वज्ञान की जब तक नकेल नहीं कसी जाए,चो वह स्वच्छंद हो जाएगा। वैसे यह गलत भी नहीं है। ऐसा होता हुआ हम दैनिक जीवन में प्रति पल देख रहे हैं। सौरमण्डल का ही एक अंग हमारी पृथ्वी है। अनेक सौरमण्डल इस सृष्टि में हैं, उसमें हमारी आकाश गंगा के एक सूर्यमण्डल में क्या इसी ग्रह में सुविकसित सभ्यता है या कहीं और भी है?
 
                 उस विराट में ही ईश्वरीय सत्ता ज्वाला के रूप में विद्यमान है एवं आत्मा एक चिनगारी के रूप में उसका एक घटक है। हर जीवात्मा को ब्रह्म से साक्षात्कार करने की अभीप्सा रखते हुए समर्थ सत्ता को खोजने का प्रयत्न करना चाहिए। यहां जो कुछ भी दिखाई दे रहा है, वह व्यवस्थित व नियमबद्ध किस प्रकार है, इसे भली भाँति प्रमाणित करना चाहिए। तथाकथित प्रत्यक्ष पर विश्वास करने वाले विज्ञान की अपूर्णता एवं अस्थिरता को ध्यान में रखकर भी अध्यात्म को समझना चाहिए। अध्यात्म को भी विज्ञान की कसौटी पर सही साबित होना चाहिए।


 

जिस रास्ते पर चले थे वहीं पहुंचे



                  हम जिस रास्ते पर चले थे वहीं पहुंचे,  हम ऐसा कुछ भी करते हैं जिससे दुख फलित होता है तो हम अपने मित्र नहीं कहे जा सकते। स्वयं के लिए दुख के बीज बोने वाला व्यक्ति तो अपना शत्रु है।
 
                और हम सब स्वयं के लिए दुख के बीज बोते हैं। निश्चित ही, बीज बोने में और फसल काटने में बहुत वक्त लग जाता है। इसलिए हमें याद भी नहीं रहता कि हम अपने ही बीजों के साथ की गई मेहनत की फसल काट रहे हैं।
 
                अक्सर फासला इतना हो जाता है कि हम सोचते हैं, बीज तो हमने बोए थे अमृत के,लेकिन न मालूम कैसा दुर्भाग्य था कि फल जहर का और विष का प्राप्त हुवा हैं! लेकिन इस जगत में जो हम बोते हैं, उसके अतिरिक्त हमें कुछ भी न मिलता है।
 
                 हम वही पाते हैं, जो हम अपने को निर्मित करते हैं। हम वही पाते हैं, जिसकी हम तैयारी करते हैं। हम वहीं पहुंचते हैं, जहां की हम यात्रा करते हैं। हम वहां नहीं पहुंच सकते, जहां की हमने यात्रा ही न की हो। यद्यपि हो सकता है, यात्रा करते समय हमने अपने मन में कल्पना की मंजिल कोई और बनाई हो। रास्ते को इससे कोई प्रयोजन नहीं है।

Thursday, May 30, 2013

संजीवनी पथ

                 http://raghubirnegi.wordpress.com/author/raghubirnegi/
                                                            http://bookdotwordpressdotcom.wordpress.com/
1- ज़रा अपनी ओर देखो| कितने दोष हैं तुममें! प्रकृति ने, ईश्वर ने तुम्हें सभी दोषों के साथ भी स्वीकार कर लिया है| उसने तुम्हें अपनी बाहों में ले लिया है| वह कभी नहीं कहती, "तुमने आज बहुत बुरा बर्ताव किया, मुझे बुरा भला कहा, मैं तुममें श्वास नहीं जाने दूँगी| तुम्हारा दिल धड़काना बंद कर दूँगी|" प्रकृति कभी तुम्हें आंककर तुम पर निर्णय नहीं लेती|
 

2-एक अंकुर फूटकर पुष्प हो जाता है| एक दिल टूटकर दिव्य हो जाता है।
 

3-कठोर शब्द मत कहो, शब्दों से चोट मत पंहुचाओ क्योंकि ईश्वर हर दिल में बसते हैं।
 

4- यदि तुम पहचानते हो कि तुममें अहंकार है, उससे छुटकारा पाने की चेष्टा न करो, उसे जेब में रखो। यदि उससे छुटकारा पाने की चेष्टा करोगे तो वह एक बड़े अहंकार का कारण हो सकता है। अहंकार की एकमात्र दवा सहजता है। तुम अहंकार से छुटकारा इसलिए चाहते हो क्योंकि वह दूसरों से अधिक तुम्हें परेशान कर रहा है। तो यदि तुम्हें स्वयं में अहंकार दिखे, उसे रहने दो। वह आता है, तो आने दो।

 
5- तुम जिसका भी सम्मान करते हो, वह तुमसे बड़ा हो जाता है| यदि तुम्हारे सभी सम्बन्ध सम्मान से युक्त हैं, तो तुम्हारी अपनी चेतना का विकास होता है| छोटी चीज़ें भी महत्त्वपूर्ण लगती हैं| हर छोटा प्राणी भी गौरवशाली लगता है| जब तुममें सरे विश्व के लिए सम्मान है, तो तुम ब्रह्माण्ड के साथ लय में हो


6- कृतज्ञ हो जाओ अपने अस्तित्व, अपने शरीर, जो कुछ तुम्हें मिला है, जितना प्रेम तुम्हें मिला है उसके लिए। यह कृतज्ञता तुमपर समृद्धि और आनंद की वर्षा कर देगी।
 

7- एक दूसरे के प्रति भगवान बन जाओ। भगवान को आकाश में मत ढूँढो, भगवान को नयनों के हर जोड़े में, पर्वतों में, वृक्षों में, पशुओं में देखो। कैसे? जब तुम स्वयं में भगवान को देखो। केवल भगवान ही भगवान की पूजा कर सकते हैं।

 
8- तुम एक आज़ाद पंछी हो, पूरी तरह खुले हुए| उड़ना सीखो| यह तुम्हें अपने भीतर ही अनुभव करना होगा| यदि तुम स्वयं को बाध्य समझते हो, तो तुम बंधन में ही रहोगे| तुम मुक्ति का अनुभव कब करोगे? इसी क्षण मुक्त हो जाओ| बस बैठो और तृप्त हो जाओ| थोड़ा समय ध्यान और सत्संग में बिताओ जिससे तुम्हारा अंतरात्म चुनौतियों से जूझने के लिए दृढ़ हो जाये।
 

9- अहंकार पूर्णतः बुरा नहीं होता। उसका एक सकारात्मक पहलू भी है। अहंकार तुम्हें कर्म करने के लिए प्रेरित करता है। एक व्यक्ति कोई कर्म या तो दया से करेगा या अहंकार से, और समाज में अधिकतर कर्म अहंकार से होता है। ऐसा होने पर भी, अहंकार भिन्नता और अलगाव की भावना है। वह सिद्ध करने और अधिकार जमाने की इच्छा करता है और कर्तापन की परछाईं है। वह स्वयं में न अच्छा है न बुरा। वह केवल जो है वही है।
 

1o- जागो और देखो, क्या सच में तुम्हारा नियंत्रण है? किसपर तुम्हारा नियंत्रण है? संभवतः जाग्रत अवस्था के एक छोटे से भाग पर! निद्रा या स्वप्न अवस्था में तुम्हारा नियंत्रण नहीं है। अपने विचारों या भावनाओं पर तुम्हारा नियंत्रण नहीं है। उन्हें प्रकट करने या न करने का निर्णय तुम्हारा है पर वे तुम्हारी अनुमति लेकर नहीं आते। चाहे तुम यह जानो या न जानो, पर जब तुम अपना नियंत्रण छोड़ देते हो, तभी तुम विश्राम कर पाते हो।
 

11- जब तुम अपना दुःख बांटते हो, तो वह कम नहीं होता, पर जब तुम अपनी प्रसन्नता नहीं बांटते, तो वह कम हो जाती है। अपनी समस्याएं केवल इश्वर के साथ बांटो - किसी और से बांटने से वे केवल बढती ही हैं। अपना आनंद सब के साथ बांटो।

 
12- जब तुम जीवन में कठिनाई का सामना करते हो, तुम्हारी शांति और स्थिरता तुम्हारी श्रद्धा पर निर्भर करता है। श्रद्धा न होना ही दुखदायी है; श्रद्धा तुरंत सांत्वना देती है। यद्यपि बुद्धि तुम्हें संतुलित रखती है, श्रद्धा के बिना कोई चमत्कार नहीं हो सकता। वह तुम्हें सीमाओं के परे ले जाती है। श्रद्धा से तुम प्रकृति के नियमों को भी पार कर जाते हो, पर वह शुद्ध होनी चाहिए। श्रद्धा है यह जानना कि तुम्हें जो भी आवश्यकता है, तुम्हें मिलेगा। ईश्वर को कुछ करने का अवसर देना श्रद्धा है।

 
'13- Ra' means Radiance; 'Ma' means myself. 'Rama' means ‘the Light inside me’. Happy Ram Navami!'रा' का अर्थ है 'प्रकाश'। 'म' का अर्थ है 'मैं'। 'राम' का अर्थ है 'मुझमें जो प्रकाश है'। राम नवमी पर सबको आशीर्वाद और शुभकामनायें।


14- अपनी गलती का बोध तुम्हें तब होता है जब तुम निर्दोष होते हो। जो भी गलती हुई, स्वयं को दोषी मत ठहराओ, क्योंकि वर्तमान क्षण में तुम पुनः नवीन, शुद्ध और निर्मल हो। गलतियां भूतकाल की होती हैं। जब यह ज्ञान तुम्हें होता है, तब तुम पुनः पूर्ण हो जाते हो।
 

Tuesday, April 16, 2013

पूर्णता के तत्व

1-हंसना सच्ची प्रार्थना है-
           यदि आपका कभी ईश्वर से मिलना हो तो जानते है आप उन्हें क्या कहेंगे? ‘‘अरे! मैं तो अपने भीतर आपसे मिल चुका हूं। आपको मालूम है कि-‘‘ईश्वर आप में नृत्य करते हैं उस दिन जिस दिन आप हंसते और प्रेम में होते हो। सुबह तो हंसना ही सच्ची प्रार्थना है। दिखाने का हंसना नही बल्कि अंदर की गहराई से हंसना। हंसना आपके भीतर से आपके हृदय से आती है। सच्ची हंसी ही सच्ची प्रार्थना है। जब आप हंसते हो तो सारी प्रकृति आपके साथ हंसती है। यही हंसी प्रतिध्वनि होती है और गूंजती है, यही वास्तविक जीवन है। जब सब कुछ आपके अनुसार हो रहा हो तो कोई भी हंस सकता है, लेकिन जब आपके विपरीत हो रहा हो और आप हंस सके तो समझो विकास हो रहा है। आपके जीवन में आपकी हंसी से मूल्यवान और कुछ नही। चाहे जो भी हो जाये इसे खोना नही है।

           घटनाएं तो जिन्दगी में आती हैं और जाती है। कुछ तो सुखद होगी और कुछ दुखद, लेकिन जो कुछ भी हो आप को वे छु न न सकें। आपके अस्तित्व के भीतर ऐसा कुछ है जो कि अनछुआ है। उस पर ही रहे जो अपरिवर्तनशील है। तभी आप हंसने के योग्य होंगे। हंसने में भी भेद है। कभी-कभी आप अपने आप को नही देखने के लिये या कुछ सोचने से बचने के लिये हंसते हो। लेकिन जब आप हर क्षण यह देखते हो और अनुभव करते हो कि जीवन हर क्षण है और जीवन का हर क्षण अपराजेय है तो आपको कोई परेशान नही कर सकता।

           आपने एक नवजात हो देखा होगा, छ माह का या एक वर्ष का। जब वे हंसते हैं तो उनका पूरा शरीर हिलता और कूदता है। उनकी हंसी उनके मुंह से ही नही आती, उनके शरीर का हर एक कण हंसता है। यह समाधि है। यह हंसी अबोध है, शुद्ध है, बिना किसी तनाव की है। हंसी हमें खोलती है, हमारे दिल को खोलती है। और जब हम इस अबोधता को प्राप्त नही हो पाते तो क्या करे? आप पूछे -‘‘मैं उस मुक्ति को या अबोधता को अनुभव नही कर पा रहा हूं। मैं क्या करुं? ‘‘ आपके अस्तित्व के कई स्तर हैं। पहला, शरीर- ध्यान रखे कि आपने पूरा विश्राम किया है, सही भोजन किया है और कुछ व्यायाम किया है। फिर श्वास पर ध्यान दें।

         श्वास की अपनी एक लय है। मन की प्रत्येक स्थिति के लिये श्वास की एक निश्चित लय है। श्वास की उस लय को प्राप्त करके तन और मन दोनो को ऊपर उठाया जा सकता है। तब आप उन धारणाओं और विचारों को देखें जो कि आप मन में सदैव बने रहते हैं। अच्छे, बुरे, सही, गलत, ऐसा करना चाहिये, ऐसा नही करना चाहिये ये सब आपको बांध लेते हैं। हर विचार किसी ना किसी स्पंदन या भावना से जुड़ा है। स्पंदनों को देखें और शरीर में अनुभव को देखें। भावना की लय को देखें- यदि आप देखेंगे तो आप कोई गलती नही करेंगे। आप के पास एक ही तरह की भावनाओं का पथ है, लेकिन आप इन भावनाओं को अलग कारणों से, अलग-अलग वस्तुओं से, अलग अलग लोगों से, स्थितियों-परिस्थितियों से जोड़ लेते हो।

           एक विचार को विचार के रुप में ही देखें, एक भावना को भावना के रुप में ही देखे तब आप खुल जायेगें, अपने आप में ईश्वरत्व को देख पाएंगे। देखना इन्हें अलग-अलग परिणाम देता है। जब आप नकारात्मकता को देखते हैं तो ये तुरंत समाप्त हो जाती है और जब आप सकारात्मकता को देखते हैं तो वे बढ़ने लगती हैं। जब आप क्रोध को देखेंगे तो यह समाप्त हो जाएगा और जब आप प्रेम को देखेंगे तो यह बढ़ जायेगा।

           यही सर्वोत्तम और एकमात्र उपाय है। आने वाले हर विचार को देखें और उन्हें जाते हुये देखें। नकारात्मक विचारों के आने का एकमात्र कारण तनाव है। यदि आप किसी दिन बहुत तनाव में हों तो उसके अगले दिन या उस से अगले दिन आप में नकारात्मक विचार आने लगेंगे और आप परेशान हो जाएंगे। इन विचारों से, जिनका कोई अर्थ नही है, पीछा छुड़ाने के स्थान पर आप उन बिंदुओं को, कारणों को खोजें जिनके कारण ये विचार आ रहे हैं। यदि स्रोत स्वच्छ है तो मात्र सकारात्मक विचार ही आएंगे। यदि नकारात्मक विचार आते है तो आप ये मान ले, ‘‘तो क्या।‘‘ वे आयेंगे और तुरंत गायब हो जाएंगें। हमें जो जैसा है उसे वैसा ही देखने की आवश्यकता है, विषय और पूर्णता के साथ। यह जीवन के लिये सारभूत है। जब आप में ऐसा होने लगे तो आपके जीवन में सही अर्थों में हंसी जन्म लेती है।

2-शब्दों का उद्देश्य मौन बनाना है शोर नहीं-
           वैशाख माह की पूर्णिमा को बुद्ध को जब बोध प्राप्त हुआ था तो ऐसा कहा जाता है कि वे एक सप्ताह तक मौन रहे। उन्होनें एक भी शब्द नहीं बोला। पौराणिक कथायें कहती हैं कि स्वर्ग के सभी देवता चिंता में पड़ गये। वे जानते थे कि करोड़ों वर्षों में कोई विरला ही बुद्ध के समान ज्ञान प्राप्त कर पाता है। और वे अब चुप हैं!

           देवताओं नें उनसे बोलने की विनती की। महात्मा बुद्ध ने कहा, ''जो जानते हैं, वे मेरे कहने के बिना भी जानते हैं और जो नहीं जानते है, वे मेरे कहने पर भी नहीं जानेंगे। एक अंधे आदमी को प्रकाश का वर्णन करना बेकार है। जिन्होनें जीवन का अमृत ही नहीं चखा है उनसे बात करना व्यर्थ है, इसलिए मैनें मौन धारण किया है। जो बहुत ही आत्मीय और व्यक्तिगत हो उसे कैसे व्यक्त किया जा सकता है? शब्द उसे व्यक्त नहीं कर सकते। शास्त्रों में कहा गया है कि, "जहाँ शब्दों का अंत होता है वहाँ सत्य की शुरुआत होती है''।

           देवताओं ने उनसे कहा, ''जो आप कह रहे हैं वह सत्य है परन्तु उनके बारे में सोचें जो सीमारेखा पर हैं, जिनको पूरी तरह से बोध भी नहीं हुआ है और पूरी तरह से अज्ञानी भी नहीं हैं। उनके लिए आपके थोड़े से शब्द भी प्रेरणादायक होंगे, उनके लाभार्थ आप कुछ बोलें और आपके द्वारा बोला गया हर एक शब्द मौन का सृजन करेगा''।

           शब्दों का उद्देश्य मौन बनाना है। यदि शब्दों के द्वारा और शोर होने लगे तो समझना चाहिए, वे अपने उद्देश्य को पूरा नहीं कर पा रहे हैं। बुद्ध के शब्द निश्चित ही मौन का सृजन करेंगे, क्योंकि बुद्ध मौन की प्रतिमूर्ति हैं। मौन जीवन का स्त्रोत है और रोगों का उपचार है। जब लोग क्रोधित होते हैं तो वे मौन धारण करते है। पहले वे चिल्लाते हैं और फिर मौन उदय होता है। जब कोई दुखी होता है, तब वह अकेला रहना चाहता है और मौन की शरण में चला जाता है। उसी तरह जब कोई शर्मिंदा होता है तो भी वह मौन का आश्रय लेता है। जब कोई ज्ञानी होता है, तो वहाँ पर भी मौन होता है।

           अपने मन के शोर को देखें। वह किसके लिए है? धन? यश? पहचान? तृप्ति? सम्बन्धों के लिये? शोर किसी चीज़ के लिए होता है; और मौन किसी भी चीज़ के लिए नहीं होता है। मौन मूल है; जबकि शोर सतह है।