जीवन दर्शन भाग-3 https://www.youtube.com/c/mankishantikasangam
Saturday, August 18, 2012
सहजयोग की नीव
य़दि आपको आदिशक्ति माता जी के प्रति विश्वास है तो आपको किसी भी प्रकार का भय नहीं होना चाहिए।जो
भी कार्य आपके हित में होगा वही माता जी करेंगी । जो भी आप कर रहे हैं निडरता पूर्वक करें ,देवी की सभी शक्तियॉ आप में अभिव्यक्त होने लगेंगी। इस प्रकार आप आत्म निर्भर होने लगेंगे और इस आत्मविश्वास का विकास होना भी आवश्यक है। जब आप आत्मनिर्भर हो जॉय तो आप न केवल अपनी सहायता कर सकते हैं बल्कि अन्य लोगों की भी सहायता कर सकते हैं। मॉ की एक अन्य शक्ति यह भी है कि वे आपको साक्षी स्थिति प्रदान कर देती है । आप सभी कुछ साक्षी भाव से देखते हैं,आपमें अथाह धैर्य आ जाता है,जो भी होता है ठीक है,क्रोध नामक भयानक अवगुंण से आपको छुटकारा प्राप्त हो जाता है,आपका व्यक्तित्व अत्यन्त शॉतिमय हो जाता है क्योंकि आपकी मॉ आपके साथ होती है,इस दृढ विश्वास के साथ कि मॉ सदा हमारे साथ
हैं,हमारी रक्षा करती हैं ।।
2-निर्विचारिता में ईश्वरीय शक्ति पैदा होती है-
जब आप निर्विचारिता में होते हैं तो आप परमात्मा की श्रृष्ठि का पूरा आनंद लेने लगते हैं,बीच में कोई वाधा
नहीं रहती है ।विचार आना हमारे और सृजनकर्ता के बीच की बाधा है ।हर काम करते वक्त आप निर्विचार हो सकते हैं, और निर्विचार होते ही उस काम की सुन्दरता,उसका सम्पूर्ण ज्ञान और उसका सारा आनंद आपको मिलने लगता ङै ।।
3-चैतन्य लहरियों की अनुभूति करें-
अपने शरीर में चैतन्य लहरियों की अनुभूति करें। यह ह्दय मे प्रकाश की टिमटिमाती लपट है,जो हर समय जलती रहती है। यह परमात्मा का प्रतिबिम्ब है।जब कुण्डलिनी उठती है और ब्रह्मरन्द्र को खोलती है तो सदाशिव के दर्शन होते है,प्रकाश दैदीप्यमान होता है,चैत्य लहरियॉ हमारे अन्दर से बहने लगती हैं,ये चैतन्य लहरियॉ हमारे शरीर में बहने वाली सूक्ष्म ऊर्जा का प्रवाह होना है ।यह तभी होता है जब कुण्डलिनी ब्रह्मरन्द्र का भेदन कर ऊपर सदा शिव से मिलन होता है । ये चैतन्य लहरियॉ हमें पूर्ण सन्तुलन प्रदान करती है,हमारी शारीरिक,मानसिक एवं भावनात्मक समस्याओं का निवारण करती है। ये हमें परमात्मा से पूर्ण आध्यात्मिक एकाकारिता का विवेक प्रदान करती है,तथा परमात्मा से पूर्णतः एकरूप कर देती है ।।
4-महानतम् आध्यात्मिक घटना-
साक्षी
नारगोल का वृक्ष जो आज भी दृढतापूर्वक खडा है,इसी पेड के नीचे 5मई1970 को श्री माता जी ने अन्तिम चक्र खोलने का दिव्य कार्य किया था,यह जान पाना मानव बुद्धि से परे है कि स्वर्ग में किस प्रकार चीजैं कार्यान्वित होती हैं।यह हमारा सौभाग्य और परमात्मा का प्रेम है कि यह आश्चर्यजनक चमत्कार घटित हुआ
है।अगर यह घटना न होती तो आज लोगों को आत्मसाक्षात्कार देने की कोई सम्भावना न होती । इसमें रूसी सहजयोगियों द्वारा बनाई गई वैबसाइट पर चित्रों द्वारा इस घटना को दिखाया गया है।।
5-कुण्डलिनी ज्योतित रस्सी सम है-
सहज योग अत्यन्त सूक्ष्म प्रक्रिया है, एस तथ्य को बहुत थोडे लोग जानते हैं। कुणडलिनी छोटे-छोटे तन्तुओं से बनी ज्योतितसम रस्सी सम है। सुषुम्ना नाडी अत्यन्त पतली नाडी है,पापों और बुराइयों के कारण इतनी संकीर्ण हो जाती है कि कुण्डलिनी के सूक्ष्म तन्तु ही इसमें से गुजर सकते हैं ।यह अत्यन्त सुक्ष्म और गहन प्रक्रिया है,मूलाधार से इस पतले मार्ग में कमसे कम एक सूक्ष्म तन्तु गुजर सकता है, उसी एक तन्तु से ये ब्रह्मरन्द्र का भेदन करती है।आरम्भ में अधिकतर लोगों में यह घटना आसानी से घट जाती है, प्रकाश में देखने पर उन्हैं लगता है कि ये सब चीजों उनके अन्दर निहित हैं आनंदित हो जाते हैं । लेकिन बोझ के दवाव से पुनः नीचे की ओर खिंच जाती है,उन्हैं बहुत बडा झटका लगता है तब वे घबराकर संशयालु बन जाते हैं ।।
6-आत्म साक्षात्कार के बाद की स्थिति-
आत्म साक्षात्कार के बाद आप चक्रों की तरह घूमते हुय़े बहुत से छल्ले देख सकते हैं। आत्मा सभी तत्वों के कारण-कार्य़ सम्बन्धों से लीला करती है।छल्लों के रूप में ये हमारे शरीर के पिछले हिस्से से जुडी है। सभी चक्रों एवं पावन अस्थि में इसका निवास है।ये सात छल्ले बनाती है ।आत्म साक्षात्कार के पश्चात आप चक्रों के इर्द-गिर्द घूमते हुये और एक छल्ले को दूसरे छल्ले में जाते हुये बहुत से छल्लों को देख सकते हैं।कभी-कभीbतो एक छल्ले में बहुत से छल्ले और कभी एक छल्ले में चिंगारियों जैसे अर्धविराम चिन्ह भी आप देख सकते हैं ।ये चेतन्य होता है ।ये मृत आत्मायें होती हैं ।ये हमारे ऊपर ग्री क्षेत्र में प्रतिविम्बित होती है हाल ही में अमेरिका में एक कोषाणु के ग्राही का फोटो लिया गया,ये बिल्कुल वैसा ही दिखाई दिया जैसा आप आत्म साक्षात्कार के बाद देखते हैं । लेकिन व्यक्ति पर कोई अन्य आत्मा बैठती है तो वह कोषाणु पर प्रतिविम्बित होती है।ये आत्मा किसी भी चक्र से या सभी चक्रों से जुड सकती है।जुससे व्यक्ति अचेतन हो जाता है और मादकता, मिर्गी, मस्तिष्क रोग तथा कैंसर आदि रोगों का कारण बनती है।।
7-कुण्डलिनी जागरण गणेश के विना सम्भव नहीं है-
क्योंकि कुण्डलिनी गौरी शक्ति है और गणेश जी हर क्षण उनकी रक्षा करने के लिए वहॉ होते हैं, इतना ही नहीं,बल्कि कुण्डलिनी के चक्र भेदन करने के बाद श्री गणेश उस चक्र को बन्द कर देते हैं,ताकि
कुण्लिनी फिर नीचे न चली जाय ।गणेश मूलाधार चक्र पर विराजमान हैं ।बहुत से लोग गलती करते हैं ,क्योंकि त्रिकोणाकार मूलाधार में तो केवल कुण्डलिनी का निवास है और इससे नीचे मूलाधार चक्र पर श्री गणेश विराजमान हैं.वे इतने पावन अबोध हैं और कुण्डलिनी श्रीगणेश की कुमारी मॉ हैं ।।
8–गलत विचार आने पर गणेश का आह्वान करें-
सहजयोगी हमेशा सोचें और जब-जब भी गलत विचारों का सामना करना पडे,तो उन्हैं नियंत्रित करने के लिए गणेश की शक्तियों की याचना करें प्रार्थना करें क्योंकि उनके कठोर परिश्रम और पावनता के कारण ही मनुष्य इतनी महान ऊंचाइयों को पार कर पाता है जोकि व्यक्ति को वास्तव में स्वप्न जैसा दिखाई देता है। प्रारम्भ में जिन्होंने मूलाधार पर श्री गणेश को देखा है उन्हैं गलतफहमी हुई है और उन्होंने यह स्वीकार कर लिया कि यही मूलाधार है,कुण्डलिनी का निवास। इसी कारण तांत्रिकों ने बहुत सी समस्यायें उत्पन्न कर दी थी ।।
9-मूलाधार चक्र सबसे अधिक शक्तिशाली है-
मूलाधार चक्र सबसे अधिक कोमल और सबसे अधिक शक्तिशाली है इसकी बहुत सी सतहें हैं और बहुत से आयाम। यदि मूलाधार ठीक नहीं है तो आपकी याददास्त खराब हो जायेगी आपका विवेक गडबड हो सकता है।आपमें दिशा विवेक नहीं रहेगा।अमेरिका में 40 वर्ष से कम उम्र में किसी प्रकार का पागलपन रोग आ रहा है,इसका कारण मूलाधार चक्र का खराब होना है ।बहुत से असाध्य रोग दुर्वल मूलाधार
के कारण कारण आते हैं ।90प्रतिशत मानसिक रोगी दुर्वल मूलाधार के कारण होते हैं।यदि व्यक्ति का मूलाधार शक्तिशाली है तो उसे किसी भीप्रकार की तखलीफ नहीं होगी । आप मस्तिष्क को दोष देते हैं
यह मस्तिष्क के कारण नहीं बल्कि मूलाधार के कारण होता है। इसलिए मूलाधार के प्रति विवेकशील रहें ।।
10-अहं और क्षं बीज मंत्र है-
क्षमा प्रार्थना आज्ञाचक्र का मंत्र हैं।हं और क्षं इसके दो पक्ष हैं ।हं अर्थात ‘मैं हूं’ और “क्षं‘अर्थात ‘मैं क्षमा करता हूं ‘।अतः जब आज्ञाचक्र पकडता है है तो आपको कहना पडता है “ मै क्षमा करता हूं“आपके अन्दर यदि प्रति अहं है तो भी आपको कहना होगा “मैं क्षमा करता हूं” ।यदि हमारे अन्दर प्रति अहं है तो हमें कहना चाहिए ‘मैं हूं मै हूं’ तो ‘हं’ और ‘क्षं’ बीज मंत्र हैं।ये प्रार्थना के –क्षमा प्रवचन के बीज हैं।।
11-हमें हम (we)कहकर बात करनी चाहिए-
मैं(I)सम्बोधन से नहीं
जब किसी चीज से अधिक लगाव होता है तो मेरा,तेरा शव्द का प्रयोग होने लगता है,मेरा घर है मेरा शव्द को त्याग देना चाहिए, इसके स्थान पर हम शव्द का प्रयोग करें, हम अर्थात सब एक हैं, आप उस परमात्मा के अंग प्रत्यंग हैं ?क्या हम हम नहीं हैं ? क्या मैं अपनी अंगुली को ह्दय सेअलग कर सकता हूं ?अपना तो इस पृथ्वी पर कुछ भी नहीं है? ये मेरा बच्चा है,मेरी पत्नी है ?निसंदेह आपने अपनी पत्नी ,बच्चों की देख-भाल करनी है क्योंकि यह आपकी जिम्मेदारी है, लेकिन जितना आप अपने बच्चों के लिए करते हैं उससे अधिक अन्य बच्चों के लिए भी करें ,आपको विश्वास करना होगा कि आपका परिवार आपके पिता(परमात्मा)का परिवार है और आपकी मॉ (आदिशक्ति)इसकी देख-भाल कर रही है । यदि आप सोचते हैं कि आप अपने परिवार की देख-भाल स्वयं कर रहे हैं तो-आगे बढकर देखें ?इसलिए अपने परिवार के बारे में अधिक चिंतित नहों । किसी चीज को अपने तक सीमित न रखें, आप तभी करते हैं जब वह करवाता है ।डोर तो उसके हाथ में है ।।
12- सत्यखण्ड का प्रकाश-
यह वैसे गहन अध्यन का विषय है कि मस्तिष्क में जब कुण्डलिनी का प्रकाश आता है तो मस्तिष्क के माध्यम से सत्य को समझा जा सकता है। इसी कारण इसे सत्य खण्ड कहा जाता है, अर्थात मस्तिष्क द्वारा समझे गये सत्य को आप देखने लगते हैं।क्योंकि अभीतक मस्तिष्क द्वारा जो कुछ भी आप देख रहे थे वह सत्य नहीं था,वह सिर्फ वाह्य पक्ष था। अपने मस्तिष्क द्वारा आप दिव्यता के विषय में कुछ नहीं जान पाते हैं,जब तक कुण्डलिनी इस भाग में नहीं पहुंच जाती किसी व्यक्ति को दिव्यता के बारे में जान पाना कठिन है,कोई व्यक्ति सच्चा है या नहीं यह जान पाना कठिन है, जबतक आत्मा का प्रकाश मस्तिष्क में चमकने न लग जाय।वैसे आत्मा की अभिव्यक्ति ह्दय में होती है अर्थात आत्मा का केन्द्र ह्दय में होता है ,लेकिन वास्तव में आत्मा की पीठ ऊपर है,श्री माता जी अपना दॉयॉ हाथ अपने सिरके ऊपर रखकर कहती हैं कि यही आत्मा है। जिसे हम सर्व शक्तिमान परमात्मा कहते हैं,सदा शिव,परवर्दिगार कहते हैं, जिस नाम से भी भगवान को बुलाया जाता है,बुलाते हैं। जोकि प्रकाश के रूप में चमकने लगता है।।
13-हमें स्वप्न कुण्डलिनी से आते हैं-
होता क्या है कि कुण्डलिनी मध्य भाग में जुडी हुई नहीं है लेकिन इसके अन्दर बीते हुये समय का पूरा लेखा-जोखा टेप होता है, जब आप बहुत गहन सुषुप्त अवस्था में चले जाते हैं, तब नीचे से प्रतीक उभरते हैं और नीली लाइन से होते हुये आपके मस्तिष्क से गुजरते हैं,जिससे आप स्वप्न देखने लगते हैं लेकिन सारे स्वप्न विकृत हो जाते हैं।उसमें अजीबोगरीव प्रतीकात्मकता आ जाती है ।कभी- कभी तो आपके समझ में ही नहीं आता कि क्या हो रहा है,एक प्रकार की मिली-जुली अभिव्यक्ति बन जाती है। इसलिए सपनों पर
14-परमात्मा से कोई लेना देना नहीं है-
14-परमात्मा से कोई लेना देना नहीं है-
कौन कहता है
जो लोग यह सोचते हैं कि मैं बेहत्तर हूं परमात्मा से मेरा कोई लेना-देना नहीं है,ऐसे लोगो को बायें ओर के एकादश की समस्या हो जाती है,जोकि बहुत खतरनाक होता है इन लोगों को दायें ओर के ह्दयघात की समस्या हो जाती है। कुण्डलिनी के सहस्रार में प्रवेश करने में एकादश रुद्र सबसे बडी समस्या है ।यह समस्या भवसागर से आती है,इस प्रकार यह तालू क्षेत्र में भी प्रवेश करती है ,गलत गुरुओं के पास गये हैं और बाद में सही निष्कर्ष पर न पहुंचने से सहजयोग के प्रति समर्पित हुये हैं अपनी गलतियॉ स्वीकार कर कहते हैं कि मैं स्वयं का गुरु हूं तो वे ठीक हो सकते हैंऔर जो लोग कहते हैं मैं सबसे ऊपर हूं मैं परमात्मा में विश्वास नहीं करता परमात्मा कौन है, उसके अन्दर की समस्या का निवारण भी हो सकता है कि वह नम्र होकर सहजयोग की परम चेतना में प्रवेश करने का एक मात्र मार्ग स्वीकार कर लें।।
15-शव्द बोलते हैं-
हर शव्द का अपना महत्व है,और
मंत्र इन्हीं शव्दों से बनें होते हैं,जैसे हमारे शरीर के अन्दर तीन देवियॉ विराजमान हैं महॉ काली, महॉलक्ष्मी, और सरस्वती तो इन्हैं ऐं,हीं, क्लीं कहते हैं ।इसी प्रकार ‘री’ र..र..शव्द शक्ति का शव्द है। र जैसे राधा रा अर्थात शक्ति और धा धारण करने वाली जैसे राधा-राम-और कृष्ण शव्द की उत्पत्ति कृषि शव्द से हुई कृ का उच्चारण करते ही विशुद्धि चक्र कार्यान्वित होने लगता है,इसलिए कृष्ण शव्द का उच्चारण करना चाहिए, क्योंकि कृष्ण शव्द सीधा विशुद्धि चक्र से जुडा है, अतःकृष्ण नाम केवल उसी का हो सकता है।क्षं शब्द का अर्थ है क्षमा करना। सहजयोग प्रेम का पथ है,प्रेम में अधिक विश्लेषण करने की आवश्यकता नहीं है।छोटे से शव्द प्रेम को संमझ लेने मात्र से ही व्यक्ति पंडित हो जाता है।वैसे अधिक पढ-पढकर पंडित भी मूर्ख बन जाता है ।।
16-कुण्डलिनी जब उठती है तो स्वर उत्पन्न होते हैं-
कुण्डलिनी जब उठती है तो स्वर उत्पन्न करती है, सभी स्वरों के अलग-अलग अर्थ होते हैं ।और चक्रो पर जो स्वर सुनाई देते हैं उनका उच्चारण इस प्रकार है-मूलाधार पर चार पंखुडियॉ हैं-निम्न स्वर हैं-व,श,ष,स-।स्वादिष्ठान पर छः पंखुडियॉ हैं तो छः स्वर निकलते हैं-ब,भ,म,य,र,ल -मणिपुर पर दस पंखुडियॉ हैं दस स्वर उत्पन्न होते हैं –ड, ढ,ण,त,थ,द,ध,न,प,फ-अनाहत चक्र पर बारह पंखुडियॉ हैं-स्वर –क,ख,ग,घ,ड.च,छ,ज,झ,ञ,ट,ठ –।विशुद्धि चक्र-सोलह पंखुडियॉ- सोलह स्वर अ,आ, इ,ई,उ, ऊ,श्र,रू, लृ,ए,ऐ,ओ,,अं,अः आज्ञा चक्र में के स्वर-ह,क्ष -। सहस्रार पर पहुंचने पर साधक निवर्विचार हो जाता है
और कोई स्वर नहीं निकलता है शुद्ध स्पंदन ह्दय में होता है-लप-टप-लप- टप ।ये सारे स्वर एकत्रित होकर इस समन्वय से उत्पन्न होने वाला स्वर ओं …होता है।सूर्य के सातों रंग अंततः सफेद किरणें बन जाती हैं या स्वर्णिम रंग की किरणें ।।
17-ह्दय मस्तिष्क के चंगुल में कैसे फंस जाता है-
ह्दय सात चक्रों के सात परिमलों से घिरा हुआ है और इसके अन्दर आत्मा निवास करती है ।आपके सिर के शिखर पर सर्व शक्तिमान सदाशिव निवास करते हैं ।कुण्डलिनी जब इस विन्दु को छूती है तो आपकी आत्मा प्रसारित होने लगती है,और आपके मध्य नाडी तन्त्र पर कार्य करने लगती है क्योंकि स्वतःचैतन्य
लहरियॉ आपके मस्तिष्क में प्रवाहित होने लगती है ,और आपकी नाडियों को ज्योतिर्मय करती है।परन्तु अभी भी ह्दय में पहचान नहीं आई कि आप शीतल लहरियॉ महशूस करने लगते हैं,आप उस स्थिति
में दूसरों की कुंण्डलिनी उठा सकते हैं,लोगों को रोग मुक्त कर सकते हैं तथा और भी बहुत से कार्य कर सकते हैं ।परन्तु अभी भी यह पहचान नहीं है क्योंकि पहचान तॉ आपके ह्दय की मानसिक गतिविधि है ।यदि आप हिन्दू हैं तो श्री राम की फोटो देखते ही आपका ह्दय पहचान लेता हैं।लेकिन एक ऐसे व्यक्ति को पहचानना बहुत कठिन है जो आपके साथ रह रहा है ।ह्दय की गहनता में जाने के लिए क्या किया जाना चाहिए? ह्दय के माध्यम से दिमाग के कार्य को किस प्रकार किया जा सकता है। आपको याद रखना होगा कि ह्दय पूरी तरह से मस्तिष्क से जुडा हुआ है, ह्दय जब रुक जाता है तो मस्तिष्क भी रुक जाता है।सारा शरीर बेकार हो जाता है।कोई खतरा दिखने लगता है कि ह्दय धडकने लगता है। आपके ह्दय में इसकी रचना करने के लिए आपको क्या अनुभव होना चाहिए । ये आपके अपने दिव्यत्व और आध्यात्मिकता का अनुभव है।एक बार जब आपमें यह अनुभव विकसित होने लगता है तब आप जान पाते हैं कि आप दिव्य व्यक्ति हैं ।और जब तक आप पूर्ण रूपेण विश्वस्त नहीं होते कि आप दिव्य व्यक्ति हैं तो चाहे जितनी क्षद्धा आपमें हो यह पहचान अधूरी है,क्योंकि मुझे पहचानने वाला व्यक्ति अन्धा व्यक्ति है ।।
18-श्री गणेश यदि हमें बुद्धि प्रदान करते हैं तो हनुमान सद्विवेक-
हम जब भी और जहॉ भी विद्युत चुम्बकीय शक्ति को कार्य करते हुये देखते हैं तो यह हनुमान के आशीर्वाद से होता है ।वे ही विध्युत चुम्बकीय शक्तियों का सृजन करते हैं ।अतः हम देख सकते हैं कि श्री गणेश जी के अन्दर चुम्बकीय शक्तियॉ हैं वे चुम्बक हैं उनमें चुम्बकीय शक्ति है पदार्थ की अवस्था में वे मस्तिष्क तक जाते हैं ।मस्तिष्क के विभिन्न पक्षों में सहसम्बंधों का सृजन करते हैं।अतः गणेश जी हमें बुद्धि प्रदान करते हैं तो श्री हनुमान हमें सद्विवेक प्रदान करते हैं ।।
19-आत्मा जब आपके मस्तिष्क में पहुंचती है तो आप पच्च आयामी हो जाते हैं-
शिव आत्मा का प्रतिनिधित्व करते हैंऔर आत्मा का निवास आपके ह्दय में है सदा शिवका स्थान आपके सिर के शिखर पर है परन्तु आपके ह्दय में प्रतिविम्बित होते हैं आपका मस्तिष्क विठ्ठल है आत्मा को आपके मस्तिष्क में लाने का अर्थ आपके मस्तिष्क का ज्योतिर्मय होना है।अर्थात परमात्मा का साक्षात्कार करने की आपके मस्तिष्क की सीमित क्षमता का असीमित बनना आत्मा मस्तिष्क में आती है तो आप जीवन्त चीजों का सृजन करते हैं।मृत भी जीवित की तरह से व्यवहार करने लगता है ।।
Friday, August 17, 2012
विचार
1–अच्छा आदमी बनो –
दिल एक पवित्र मंदिर होता है, एक बार इसमें जिस देवता की मूर्ति स्थापित कर ली जाती है, पुजारी हर स्थिति में उसकी पूजा करता है।
2–मित्र-
मित्र धनी हो या गरीब,सुखी हो या दुखी , निर्दोष हो सदोष,वह हमारे लिए सबसे बडा सहायक होता है।
3–दुष्ट व्यक्ति-
दुष्ट व्यक्ति उन ओलों के समान होता है, जो फसल को नषट करके स्वयं भी नष्ट हे जाता है।
4–विचार-
निशेधात्मक निचार व्यक्ति की शक्ति को क्षीण करते हैं,सकारात्मक विचार शक्ति को बढाते हैं।
5-जीवन-
साधारण लोग सोचते है कि जीवन जन्म और मृत्यु के बीच जो है उसी का नाम जीवन है,,बल्कि जीवन उसका नाम है जिसके मध्य में जन्म और मृत्यु बार-बार घटते हैं, और बहुत बार घटते हैं, और घटते रहेंगे तबतक घटते रहेंगे जबतक तुम जीवन को पहचान न लो,जिसदिन तुमने जीवन को पहचान लिया उस दिन तुम्हारे भीतर दीप जलेगा ,अपने से मुलाकात हुई,फिर न लौटना होगा,न कहीं आना या जाना होगा ।
6-सत्य बोलो-
घर के बाहर झूठ बोलते हो तो चल सकता है किसी तरह ,लेकिन घर में झूठ बोलते हो तो नहीं चलेगा, ध्यान रखें अपने घर में परिवार के किसी भी सदस्य से झूठ न बोलें ।
7–भारत माता -
विश्व में एक ही देश है जिसे माता का दर्जा प्राप्त है, भारत माता,यह भारत भूमि हमारी मॉ है तो भारत में जन्म लेने वाले हम सब भाई -बहिन हो गये सब एक परिवार की तरह रहें और अपनी मॉ का सम्मान कर उसका नाम ऊंचा रखें ।
8-भगवान का प्यारा होना-
जब कोई व्यक्ति मरता है तो कहते हैं कि भगवान का प्यारा हो गया, बात तब है जब जीते जी भगवान का प्यारा हो जाय ।
9-आनन्द की अनुभूति-
परमानन्द आध्यात्मिक चेतना की जागृति से सम्भव है, भौतिक सुख से स्थाई आनन्द की अनुभूति नहीं होती,सिर्फ आध्यात्मिक आनन्द स्थाई होता है जिसे बनाये रखने का प्रयास करें ।अगर यह आनन्द चाहिए तो उन सन्तों से प्राप्त करें जिन्होंने कठिन तपस्या की है और उन्हैं लम्बे प्रयासों का अनुभव है ।
10-बात –
जो बात सिद्धान्त से गलत है,वह ब्यवहार में कभी उचित नहीं हो सकती ।
11-आदर्श-
प्रेम सबसे करो, विश्वास कुछ पर करो,बुरा किसी का मत करो ।
12-मॉ का सम्मान करें -
जिस घर में मॉ तथा बहू-बेटियों का सम्मान नहीं होता है वहॉ नारायण की कृपा नहीं होती,वहॉ लक्ष्मी आ ही नहीं सकती , मॉ पृथ्वी पर प्रथम पूज्यनीय होती है, बिना माता-पिता के आशीश से मानव आगे बढ ही नहीं सकता है ।
13-अच्छा कार्य करो -
रात के अन्धेरे में कोई ऐसा कार्य न करो कि दिन के उजाले में चेहरा छिपाना पडे ।
14-बीडी-सिगरेट तथा नशीले पदार्थों का प्रयोग न करें -
हमारे महॉपुरुष कहते हैं कि बीडी सिगरेट पीने वाले अपने पुण्य तो खत्म कर देते हैं लेकिन उनकी 21 पीढियों का पुण्य भी धुंआ बनकर उड जाता है ।
15–जीवन-
जीवन एक गंगा है, कभी ङधर मुडती है,कभी उधर मुडती है, लेकिन फिर भी पवित्र है ।
16-मीठा बोलिए -
आदमी खाना मीठा पसन्द करता है मगर बोलता कडुवा है ,बूढे स्वयं तो अधिक बोलते हैं दूसरे को भी अधिक बुलवाते हैं ।जरूरत से ज्यादा मत बोलो,चाय में मीठा डालना भूल जाओ कोई बात नहीं मगर वॉणी में माधुर्य होना मत भूलना । मन कुछ बोलता है जीभ कुछ और बोलती है । मन क्या बोलता है यह महत्वपूर्ऩ है,शब्द जीवन में महत्वपूर्ण होते हैं शब्दों से जीवन में अद्भुत परिवर्तन होता है ।
17-महॉप्रसाद -
धन की शुद्धि दान से, तन की शुद्धि स्नान से, मन की शुद्धि ध्यान से होती है लेकिन दान महॉप्रसाद बन जाता है । 18-चुनौती- चुनौती को स्वीकार कर आगे बढना सीखो वही सफल होता है।
18-विद्या-
विद्या वह है जो विनम्रता लाती है, विद्या ग्रहण करने पर विनम्रता का गुंण पहला लक्षण है।
19-यादों के दीपक-
अपनी यादों के दीपक हमारे साथ रहने दो, न जाने जिन्दगी की किस गली में शाम हो जाय।।
20-हमें किसी जीव से घृणा करने का अधिकार नहीं है-
परमात्मा की रची हुई इस दुनिया में हमें किसी भी भी जीव से घृणॉ करने का अधिकार नहीं है। हम तो केवल सेवा कर सकते है।प्रत्येक जीव को ब्रह्म के स्वरूप का विकास समझकर ही सेवा कर सकते है ।लेकिन यह सौभाग्य भी उन्हीं को मिलता है जिनको यह शक्ति प्राप्त करने का गौरव प्राप्त हो, जिससे कि सेवा करने की योग्यता प्राप्त होती है ।
21-हर्ष और शोक के वशीभूत न हों-
मनुष्य जन्म के बाद मृत्यु,उत्थान के बाद पतन,संयोग के बाद वियोग संचय के बाद क्षय तो निश्चित है,यह समझकर ज्ञानी हर्ष और शोक के वशीभूत नहीं होते हैं।पूर्ण हर्ष में तो आंनंद की अपेक्षा गहनता अधिक होती है।अधिक हर्ष तो शॉत होता है और जिह्वा की अपेक्षा ह्दय में वास करता है। हर्ष तो सर्व प्रथम स्वास्थ्य में होता है ।
जो सामने है वही सच
1- ज्ञान का सार है आचार-
वही ज्ञान उपयोगी होता है जो अहंकार न बढाये, जो बंधन न बने, जिससे स्व की विस्मृति न हो, जो संस्कार का शोधन करे, तथा मानसिक शॉति की ओर ले जाये। ज्ञान की उपयोगिता की चरम कसौटी है कि वह आत्मा की ओर ले जाये ,जो ज्ञान आत्मा से विमुख बनाता है उसे भारतीय मनीषा में अज्ञान कहा जैता है। ज्ञान का सार है आचार ,इसलिए वही ज्ञान उपयोगी है जो अहंकार न बढाये ।
2- ज्ञान का दुरुपयोग विनाश और सदुपयोग विकास है-
जिस प्रकार गंगा नदी के प्रवाह को,सुखाया नहीं जा सकता,केवल उस प्रवाह के मार्ग को बदला जा सकता है। उसी प्रकार ज्ञान के प्रवाह को सुखाया नहीं जा सकता है,उसे पर हित के लिए उपयोग में लाया जा सकता है ।ज्ञान का दुरुपयोग होना विनाश है और ज्ञान का सदुपयोग करना ही विकास है,सुख है,उन्नति है ।ज्ञान के सदुपयोग के लिए तो जागृति परम आवश्यक है ।
3- आदर्श साहित्यकार की पहचान –
आदर्श साहित्यकार वही है जो समाज की पीडा और सुख का अनुभव कर समाज के लिए रोता और हंसता है ।वह तो एक दिया है,जो जलकर केवल दूकरों को ही प्रकास देता है।जब साहित्यकार की भावना,ज्ञान और कर्म एक साथ मिलती हैं तो युग प्रवर्तक साहित्य का निर्माण होता है।किसी देश का साहित्य वहॉ की जनता की चित्त वृत्ति का द्योतक है।साहित्य तो आनंद देता है ।ज्ञानराशि के संचित कोष का नाम ही साहित्य है, जिसका निर्माण साहित्यकार द्वारा किया जाता है ।
4- वास्तविक सौन्दर्य ह्दय की पवित्रता में है-
योग्य मनुष्यों के आचरण का सौन्दर्य ही उसका वास्तविक सौन्दर्य है,शारीरिक सौन्दर्य उसकी सुंदरता में किसी भी प्रकार की अभिवृद्धि नहीं करता।सुन्दर और कल्याणमय के साथ यदि हम ह्दय की समीपता बढाते रहें तो संसार सत्य और पवित्रता की ओर अग्रसर होगा ।अलंकार तो भावों का आवरण है और सुन्दरता को तो अलंकारों की जरूरत है ही नहीं।
5- शंका जीवन का विश है-
आदमी के लिए विश्वास ही सबकुछ है,जिसे अपने पर विश्वास नहीं,उसे भगवान पर भी विश्वास नहीं हो सकता। स्वयं को ईश्वर पर छोड देना ही विश्वास है।
6-अपने मन पर विश्वास न करें-
हमें हमेशा सजग रहना होगा । अपने मन पर विश्वास न करें ।क्योंकि पाप सूक्ष्म भाव में कभी धर्म का रूप धारण कर,कभी दया के रूप में, कभी मित्र के रूप में तुम्हैं भुलाकर तुम्हैं वश में करने की चेष्ठा करेगा। भुलावे में पडकर परास्त हो जाओगे, समझ भी नहीं सकोगे । और जब समझ में आयेगा,तब शायद लौटना ही असम्भव हो जाय।
7- मन को वश में करना सबसे कठिन काम है-
कहा जाता है कि इस संसार में मन को वश में करने जैसा कठिन काम और नहीं है । भगवान रामचन्द्र ने हनुमान से कहा था, कि-चाहे सातों समुद्र कोई तैरकर पार कर सके,वायु को अवशोषित कर ले सके,पहाडों को उठाकर अपना खेल दिखा सके,पर इस चंचल मन को वश में करना,उसकी अपेक्षा अधिक कठिन है। लेकिन इतना होने पर भी भयभीत होने का या निराश होने का कोई कारण नहीं है । वीर साधक तो दृढ संकल्प के साथ भगवान पर निर्भर होकर यदि प्रॉणपण से चेष्ठा तथा साधना करें,तो उनकी कृपा से वह असाध्य साधन कर सकता है।
8-कर्म ही बन्धन के कारण हैं-
अगर देखें तो समस्त कर्म ही बन्धन के कारण होते हैं। चाहे सुख हो या दुख,दोनों ही बन्धन हैं ।अगर इन दोनों से पार न गये, तो मुक्ति का लाभ सम्भव नहीं है।कर्म तो केवल उन्हीं के लिए बन्धन का कारण नहीं होता जो निस्वार्थ परहित के लिए कार्य करते हैं। क्योंकि वे किसी फल की आकॉक्षा ही नहीं रखते,और न अपने नाम के यश, यास्वार्थ-साधन के लिए भी काम नहीं करते। उनके ह्दय में तो प्रेम का संचार होता है,वे तो प्रॉणि मात्र में ईश्वर दर्शन करके ,उनकी सेवा समझकर कर्म करते रहते हैं। और मन में नये संस्कार के बीज का सृजन भी नहीं होता। इसलिए वे पुनः जन्म-मरण से मुक्त हो जाते हैं ।
9-सुख भोग में नहीं त्याग में है-
जिसने जिन्दगी को जीकर देखा है,अगर उनसे इस सम्बन्ध में पूछे तो उत्तर मिलता है, भोगों में सुख नहीं है बल्कि त्याग में सुख है। जो सद्विवेक से भोग भोगकर उनसे शिक्षा ग्रहण करता है,विषय-भोगों को परिणॉम में दुःखदाई जानकर ,स्वेच्छापूर्वक समस्त त्याग करता है,तो वही परम सुखी है,वही अमृत का अधिकारी होता है।स्वामी विवेकानन्द जी ने तो त्याग को योगों का प्रॉण माना है।
10-ज्ञानयोग कठिन त्याग है-
त्यागों में सबसे कठिन त्याग ज्ञानयोग को माना जाता है,क्योंकि इसमें पहले से ही धॉरणॉ करनी होती है कि समस्त संसार और उसके साथ का सम्बन्ध मिथ्या है,माया है ।समस्त जीवन स्वप्न के समान है।इस मार्ग को नेति कहते हैं–मैं यह नहीं वह नहीं,मैं देह-मन-इन्द्रिय कुछ नहीं। मुझे सुख नहीं,दुःख नहीं,मेरा जन्म नहीं,मरण नहीं,वन्धन नहीं,मुक्ति नहीं,मैं तो नित्य चैतन्मयस्वरूप पूर्ण ब्रह्म परमात्मा हगूं। इसलिए वे समस्त वाह्य विषयों को त्याग कर,अपने स्वरूप के ध्यान में ही मग्न रहते हैं।
11-आत्म विश्वास बढायें-
हमें आत्मा विश्वास वढाने के प्रति सजग होना होगा,इसके लिए इस बात का विश्वास करना होगा कि मैं आत्मा हूं। मुझे कोई न तलवार से काट सकता है न वरछी से भेद सकता,न आग जला सकती है और न हवा सुखा सकती है।मैं तो सर्वशक्तिमान हू,सर्वज्ञ हूं। हमेशा इन आशाप्रद वाक्यों का उच्चारण करें। ये न कहें कि हम दुर्वल हैं। हम क्या नहीं कर सकते हैं! हमसे सबकुछ हो सकता है! हम सबके भीतर एक ही हिमालय आत्मा है। इसपर हमें विश्वास करना होगा। उपनिषद में उल्लिखित कि मेरी इच्छा है कि तुम लोगों के भीतर इसी श्रद्धा का अभिर्भाव हो,तुममे से हर व्यक्ति खडा होकर संकेत मात्र से संसार को हिला देने वाला प्रतिभासम्पन्न महॉपुरुष हो,ईश्वरीत तुल्य हो।णैं तुम लोगों को ऐसा देखना चाहता हूं । फिर देखना ऐसी ही शक्ति प्राप्त होगी।
12-स्वयं में शक्ति का संचार करें-
हमें इस बात को ध्यान में ऱखना होगा कि,हमारे जीवन में उच्च आदर्श और उत्कृष्ठ व्यावहारिकता का सुन्दर सामज्जस्य हो। जीवन का अर्थ प्रेम है,इसलिए प्रेम ही जीवन है,यही जीवन का एकमात्र नियम है। और स्वार्थपरता मृत्यु के समान है। गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है कि -प्रवल कर्मयोग-ह्दय में अमित साहस,और अपरिमित शक्ति के संचार से सब लोग जाग उठेंगे, नहीं तो जिस अन्धकार में हो,उसी में रहोगे ।
13-सेवा और त्याग की भावना रखे-
हमें ईश्वर ने जन्म दिया है,इसलिए हमारा दायित्व है कि हम हर एक को ईस्वर के ही समान देखें। हम किसी की सहायता नहीं कर सकते हैं, हमें तो केवल सेवा का अधिकार है। यदि आप भी भाग्यवान हैं तो प्रभु की सेवा करें,यदि किसी की सेवा कर सकते हो तो,तुम धन्य हो जाओगे ।अपने ही को बहुत बडा न समझें। तुम धन्य हो कि तुम्हैं सेवा करने का अधिकार मिला है और दूसरों को नहीं मिला। ईश्वर पूजा के भाव से सेवा करो। दरिद्र व्यक्तियों में हमें भगवान को देखना होगा। अपनी ही मुक्ति के लिए उनके निकट जाकर हमें उनकी पूजा करनी चाहिए। अनेक दुखी और कंगाल प्रॉणी हमारी मुक्ति के माध्य हैं ।
14-सर्वशक्तिमान बनो-
तुम्हें सर्वशक्तिमान बनना होगा,इसके लिए अपने अन्दर झॉककर देखो और महशूस करो कि-क्या तुम मनुष्य जाति से प्रेम करते हो ? क्या ये सब गरीव,दुखी,दुर्वल ईश्वर नहीं हैं ? ईश्वर की पूजा पहले क्यों नहीं करते ? गंगा तट पर कुंवा खोदना क्यों जाते हो ? प्रेम की असाध्य शक्ति पर विश्वास करो ! झूठ जगमगाहट वाले नाम-यश की परवाह कौन करते हो ? क्या तुम्हारे पास प्रेम है ? तो फिर तुम सर्व शक्तिमान हो !क्या तुम सम्पूर्ण निस्वार्थ हो ? यदि हो तो फिर तुम्हें कौन रोक सकता है !चरित्र की तो सर्वत्र विजय होती है। ईर्ष्या और अहं भाव को दूर कर दो !संगठित होकर दूसरों के लिए कार्य करना सीखो! हमारे देश में तो सबसे बडी आवश्यकता यही तो है। धीरज रखो और जीवनभर विश्वासपात्र बनो !आपस में लडो नहीं । स्वयं में ईमानदारी,भक्ति और विश्वास का संचार करें तो कभी भी असफल न होंगें। भेदभाव मिटा दो। फिर-चाहे आप रण में हों या वन में,चाहे पर्वत के शिखर पर -तुम्हारे लिए कोई भय नहीं रहेगा। जबतक तुम यह न जान लो कि वह हितकर है,तबतक अपने मन का भेद न खोलो । शत्रु के प्रति भी प्रिय और कल्याणकारी शव्दों का व्यवहार करो ।फिर देखोगे कि आप सर्वशक्तिमान होंगे ।
15-स्वर्ग का राज्य तुम्हारे भीतर है–
ईसा मसीह,तथा वेदान्त यही कहते हैं कि स्वर्ग का राज्य तुम्हारे भीतर है ।जिसके पास देखने के लिए आंख है वह देखें,जिसके पास सुनने के लिए कान है वह सुनें । वह पहले से तुम्हारे अन्दर है । वेदान्त यह सिद्ध करता है कि जिस सत्य को अज्ञान के कारण हम सोचते थे कि हमने उसे खो दिया है,वह सदा ही हमारे ह्दय के अन्तस्तल में वर्तमान था । उसे हम वहीं पा सकते हैं ।
16-ज्ञान अज्ञान का नाश करता है-
ज्ञान हमेशा अज्ञान को दूर भगाता है,व्यवहार का नाश नहीं करता है। दैवीय शक्ति हमारे ज्ञान को पुष्ट करती है,जबकि आसुरी शक्ति उसका आच्छादन करती है । इसलिए शुभ कर्मों को छोडना नहीं चाहिए । चित्त का स्वभाव तो चिंतन करना है, और शुभ कर्म छोड देने से चित्त विषय चिंतन करेगा । कर्म तो बुद्धि का विषय है,आत्मा का नहीं । अतः विचारवान पुरुष कर्म करता हुआ उसका साक्षी बना रहता है ।
17-त्याग का अर्थ है सब जगह ईश्वर दर्शन-
वेदान्त हमें माया के जगत का त्याग कर काम करने की शिक्षा देता है । त्याग का अर्थ है सब जगह ईश्वर का दर्शन करना । जो व्यक्ति सत्य को न जानकर अबोध की भॉति संसार के भोग विलास में निमग्न हो जाता है, समझलो कि उसे ठीक मार्ग नहीं मिला ,उसका पैर फिसल गया है । दूसरी ओर जो व्यक्ति संसार को कोसता हुआ वन में चला जाता है,अपने शरीर को कष्ट देता रहता है,धीरे-धीरे अपने को सुखाकर अपने को मार डालता है,अपने ह्दय को शुष्क मरुभूमि बना डालता है,अपने सभी भावों को कुचल डालता है और कठोर विभत्स और रूखा हो जाता है,तो समझलो कि वह भी मार्ग भूल गया है। ये दोनों दो छोर की बातें हैं – दोनों ही भ्रम में हैं-एक इस ओर और दूसरा उस ओर । दोनों ही पथभ्रष्ट हैं-दोनों ही लक्ष्यभ्रष्ट हैं ।
18-हमारे जीवन के पीछे दुख और मृत्यु छाया के रूप में होते हैं-
हम देखते हैं कि इस संसार में हर व्यक्ति के जीवन में जितने भी सुख हैं उनके पीछे दुख और मृत्यु छाया के रूप में दिखती है । दुख और मृत्यु सदा एक साथ रहते हैं । वे दोनों विरोधी नहीं है बल्कि दोनों एक ही वस्तु के अलग-अलग रूप हैं,जीवन,मृत्यु,सुख-दुख,अच्छे-बुरे सब अलग-अलग रूप हैं। शुभ और अशुभ दोनों अलग-अलग नहीं हैं वे वास्तव में एक ही वस्तु के रूप हैं- कभी अच्छे और कभी बुरे रूप में महशूस होती हैं । एक ही स्नायु प्रणाली अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के प्रवाह ले जाती है ।यदि स्नायु प्रणॉली किसी तरह विगड जाय तो उसमें जो सुख की अनुभूति थी नहीं आयेगी बल्कि दुख की अनुभूति आयेगी,दोनों एक साथ नहीं आयेंगे,कभी सुख तो कभी दुख ।मॉसाहारी को मॉस खाने में सुख मिलता है मगर जिसका मॉस खाया ,उसके लिए भयानक कष्ट है । एक ही वस्तु से किसी को सुख मिलता है तो किसी को दुख, ऐसा कोई विषय नहीं कि जो सबको समान रूप से सुख देता हो ।कुछ लोग सुखी रहते हैं तो कुछ दुखी,यह इसी प्रकार चलता रहेगा ।
19- संकोच किस प्रकार का हो-
मर्यादा का पालन करते हुये संकोच उपयुक्त है मगर आवश्यकतानुसार संकोच को त्याग देना चाहिए,स्पष्ट बात करनी चाहिए । भोजन करते समय भरपेट आहार करना चाहिए क्योंकि अधिक संकोच करने से भूखा रहना पड सकता है।लेन-देन करते समय उसकी लिखा-पढी पक्की होनी चाहिए क्योंकि संकोच करने से धन की हानि हो सकती है । जीवन में संकोच की एक सीमा है वरना दुख या हानि हो सकती है ।।
19-हमारी यादें-
याद ही केवल ऎसा स्वर्ग है जहॉ से हमको भगाया नहीं जा सकता है ।दुःख की याद तो केवल खुशी को मधुर बना देती है ।यादें हमारे जीवन को हरा-भरा रखने हेतु,हमारे साथ प्रभु का पक्षपात है।यादें तो पंख हैं जो उडने को पुरुषार्थ देती है ।
20- परमात्मा के द्वारा इस दुनियॉ में हमें केवल एक ही जन्म सिद्ध अधिकार प्राप्त है-
देने का अधिकार। लेने या मॉगने का अधिकार कदापि प्राप्त नहीं है।इस धिकार से जो कुछ भी हम देते हैं उसी से हम धनी होते है,और सुख-शॉति भी प्राप्त होती है । लोग सुख शॉति को प्राप्त करने के लिए कभी इधर कभी उधर भटकते हैं,लोग इसे मॉग-मॉग कर प्राप्त करना चाहते हैं, इससे अधिक भयंकर भूल और क्या हो सकती है जबकि ये चीजें हमें देने से स्वतः ही प्राप्त हो जाती हैं ।इसलिए कर्म करते जाओ फल की आशा परमात्मा पर छोड दो ।
21-जीवन की जल धारा रुक नहीं सकती–
बच्चे थे हम ,बचपन गया,रोक सके ?क्या करते? कैसे रोकते ? जवान हुये हम,जवानी भी गई,रोक सके? बुढापा भी चला गया ।देह थी ,देह भी चली जायेगी।जो भी है सब बह रहा है,यहॉ कुछ रुकेगा नहीं।यहॉ तो कुछ रुकता ही नहीं ।सब जल की धार है,इस जल की धार में अगर हमने रोकना चाहा तो दुखी हो जाओगे बस तुमने जान लिया कि यह जलधार का स्वभाव है कि यहॉ कुछ रुकता ही नहीं है बस उसी क्षण दुःख चला गया । अब दुखी होने का कोई कारण न रहा बस अगर तुमने माना कि रुक सकता है तो फिर दुःख आ जायेगा ।
22-महान कौन होता है-
किसी पद से आपकी नहीं बल्कि आप से पद की शोभा होती है ,और यह तभी होगा जब आपके काम महान और अच्छे होंगे । एक वे हैं जो इतिहास में नाम आने से महान कहलाते हैं,दूसरे बे हैं जिनके नाम से इतिहास अमर हो जाता है और वास्तव में वे ही महान होते हैं ।
23-जो सामने है वही सच है-
मनुष्य जीवन तो जो आज और अभी है उसे कभी अतीत या भविष्य में न देखें ,जिसने जीवन को अतीत या भविष्य में देखा उसने तो जीवन जाना ही नहीं। ध्यान रखें कि जो सामने है वही सच है इसके बाद जोकुछ भी है वह सिर्फ सम्भावना है ।
24-जीवन चलने का नाम है-
जीवन में सोते ही रहना कलयुग है,निद्रा से उठकर बैठना ही द्वापर है,और उठकर खडा हो जाना त्रेता युग है और चल पडना सतयुग है। इसलिए जीवन में चलते रहो-चलते रहो ।
25-धर्म जीवन की कला है-
धर्म कोई पूजा-पाठ नहीं है,धर्म का मंदिर और मस्जिद से कोई लेना-देना नहीं है, बस धर्म तो है जीवन की कला है ।जीवन को कलात्मक ढंग से जिया जा सकता है,ऎसे प्रसादपूंर्ण ढंग से कि जीवन में हजार पंखुडियों वाला कमल खिल जाय कि जीवन में समाधि लग जाय, कोयल के समान गीत उठे ,ह्दय में ऎसी भाव –भंगिमाएं जगें जैसे मीरा का नृत्य पैदा हो जाय,चैतन्य के भजन बन जॉय ।
26-यथार्थ ज्ञान हमारी आत्मा में है –
ज्ञान किताबों में नहीं होता, बल्कि यथार्थ ज्ञान तो हमारी आत्मा में विद्यमान है,पर कर्म–मैल ने उसे ढक रखा है । धर्मशास्त्र तो इस कर्म मैल को साफ करने में मार्गदर्शन का काम करते हैं सच्चा ज्ञान तो वही है जोआत्मा के सच्चे स्वरूप को जानें । जो ज्ञान चिन्ता को मिटाता है बस वही सुख का कारण है ।
27–जीवन का स्तित्व-
हमारे जीवन का स्तित्व होना तो आत्मा की कमजोरी है अपने होने के कारण की खोज करने से ही जीवन की शुरूआत होती है । बस इसके बाद के प्रत्येक क्षण एक नईं खोज प्रारम्भ होती है प्रत्येक क्षण एक नया रहस्य लेकर सामने आयेगा,नई खुशी लेकर आयेगा ।एक नयॉ प्रेम पनपना शुरू होगा ,एक नईं किरण विकसित होगी कि जिनका अनुभव पहले कभी न हुआ होगा ।यहीं से अच्छाई और सौन्दर्य के प्रति नईं संवेदना विकसित होगी ।
28-बेइमान भी ईमानदार साथी चाहता है-
जो लोग बेइमान होते हैं वे प्रत्यक्ष में ईमानदारी का समर्थक और प्रशंसक पाये जाते हैं,बेइमान व्यक्ति भी ईमानदार साथी चाहता है। प्रमाणिक व्यक्तियों की तो सर्वत्र मॉग है वे सिर्फ अपने आत्मीय परिजनों में ही सम्मान नहीं पाते बल्कि शत्रु तक उनकी सच्चाई एवं ईमानदारी की प्रशंसा किए बिना नहीं रहते ।
29–चरित्र और आनंद की अनुभूति –
अच्छा आदमी बनने से सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती है। अर्थात चरित्रहीन व्यक्ति कभी भी सही अर्थों में समृद्धिशाली नहीं बन सकता है ।सदाचार के विना आनंद और प्रशन्नता नहीं मिल सकती है ।यह भी सत्य है कि प्रकृति की हर वस्तु में परस्पर ईश्वरीय सम्बन्ध है,इसलिए जबतक आप इस तथ्य को नहीं समझ लेते और इसे स्वीकार नहीं कर लेते, इसे जीवन में मान्यता नहीं देते ,तबतक आनंद की खोज में आप सफल नहीं हो सकते ।
30-आप स्वयं शक्तिमान हो -
यदि आप अपने जीवन में अतीत की घटनाओं को याद करो तो देखोगे कि आप सदैव व्यर्थ ही दूसरों से सहायता पाने की चेष्ठा करते रहे ,लेकिन कभी पा न सके ,जो कुछ आपने सहायता पाई है वह तो अपने अन्दर से ही थी ।यह कभी न कहें कि मैं नहीं कर सकता,इसलिए कि आप अनन्त स्वरूप हो आपकी जो इच्छा होगी वही कर सकते हो, आप तो शक्तिमान हैं ।
31-व्यक्ति से नहीं उसके जीवन से घृणा करें-
जीवन में अनुकूलता और प्रतिकूलता में एक समान जीना ही त्याग है ,व्यक्ति सुन्दर नहीं होता उसका जीवन सुन्दर होता है ।व्यक्ति से घृणा न करते हुये उसके दुष्कर्म से घृणा करो,क्योंकि व्यक्ति मूल रूप से अच्छा ही है। उससे घृणा करके हम खुद दुखी हो जायेंगे।इन्सान ही इन्सान के काम आता है,अगर इन्सान दूसरे इन्सान की मदद नहीं करेगा तो और कौन करेगा ।
32-शक्ति जीवन और कमजोरी उसकी मृत्यु है -
यह एक सच्चाई है कि मानव की शक्ति ही उसका जीवन है और उसकी कमजोरी ही उसकी मृत्यु है। शक्ति परम सुख और जीवन अजर- अमर है ।कमजोरी तो कभी न हटने वाला बोझ और यंत्रणा है,और कमजोरी मत्यु है ।
33-पहले आज को सवारें-
हमारे जीवन का स्वर्णिम कल आज पर निर्भर है,यदि आपके मन में भविष्य को उज्वल करने की आकॉक्षा है तो पहले आज को संवारना होगा,क्योंकि स्वर्णिम भविष्य के महल की दीवार आज है ।आज को संवारो, आज को मत टालो । बुराई कल पर टालो ।भलाई को आज करने के लिए तत्पर हो जाओ।
34-हमारे अवगुंण-
हमारे अऩ्दर गुंण होते हुये भी यदि एक अवगुंण है तो वह सारे गुँणों को ढक देता है। अपने अवगुंण तो अपने को ही तखलीफ देते हैं ।यदि हम दूसरों के अवगुंणों की चर्चा करते हैं,तो हम अपने ही अवगुणों को प्रकट करते है।
35-पाप क्या है-
पाप एक दुर्भाव है,जिसके कारण हमारे आन्तरिक मन तथा अन्तरात्मा पर ग्लानि का भाव आता है ।जब हम कभी गन्दा कार्य करते हैं तो ह्दय में एक गुप-चुप पीडा का अनुभव होता रहता है,हारे मन का दिव्य भाग हमें प्रताडित करता रहता है,बुरा-बुरा कहता रहता है ।इसी आत्मभर्त्सना से मनुष्य पश्चाताप करने की बात सोचता है ।यह पाप पानी की तरह होता है,यह हमें नीचे की ओर खींचता है ।आप चाहे कितने ही प्रयत्न करें,आन्तरिक पाप से कलुषित मन स्पस्ट प्रकट हो जाता है।अवगुंण से तो मनुष्य की उच्च सृजनात्मक शक्तियॉ पंगु हो जाती हैं,बुद्धि और प्रतिभा कुण्ठित हो जाती है ।किसी भी स्थिति में पाप और द्वेष की प्रवृत्ति बुरी और त्यागने योग्य है ।।
36-गुनाह या पाप वह अग्नि है जो सुलगती रहती है-
हम जो पाप या गुनाह करते हैं वे जलते हुये वे वस्त्र हैं जिन्हैं यदि छिपाकर रखा जाता है तो वह अग्नि अन्दर ही अन्दर सुलगती रहती है, और धीरे-धीरे समीप के वस्त्रों तथा अन्य वस्तुओं को भी जला डालती है ।सम्भवतः उस अग्नि का धुआं उस समय न दिखाई दे,लेकिन अदृश्य रूप में वह वातावरण में सदा मौजूद रहता है ।पाप या गुनाह की अग्नि ऐसी अग्नि है,जो अन्दर ही अन्दर मनुष्य में विकार उत्पन्न करती है,इस आन्तरिक पाप की काली छाया अपराधी के मुख,हाव-भाव,नेत्र,चाल-ढाल इत्यादि द्वारा अभिव्यक्त होती रहती है ।अपराधी या पापी चाहे कुछ भी समझता रहे वह अपराध को छिपाना चाहता है,परन्तु वास्तव में पाप छिपता नहीं है।मनुष्य का अपराधी मन उसे सदा व्यग्र,अशॉत और चिंतित रखता है ।।
37-पाप में प्रवृत्त मनुष्य के अंग-
प्रायः मनुष्य के तीन अंग पाप में प्रवृत्त होते हैं ।शरीर,वॉणी,और मन ,इनके द्वारा किये गये पाप-कर्मों के नाना रूप होते हैं,इनसे बचे रहें।अर्थात शरीर वॉणी और मन का उपभोग करते हुये सचेत रहें ।कहीं ऐसा न हो कि आत्मसंयम में शिथिलता आ जाय और पाप पथ पग बढ जाय ।कभी-कभी हमें विदित नहीं होता कि हम कब गलत रास्ते पर चले जा रहे हैं । गुप-चुप पाप हमें बहा ले जाता है और हमें अपनी सोचनीय अवस्था का ज्ञान तब होता है जब हम पतित हो जाते हैं ।
38- पाप कर्म मनुष्य जीवन के लिए अभिशाप है -
अपने शरीर के द्वारा अनुचित कार्य करना शारीरिक पाप है।इसमेंवे समस्त कुकृत्य हैं,जिन्हैं करने से ईश्वर के मंदिर रूपी इस मानव शरीर का क्षय होता है ।परिणॉम स्वरूप इस काया में नाना प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं, जिससे जीवित अवस्था में ही मनुष्य को कुत्सित कर्म की यन्त्रणॉयें भोगनीं होती हैं ।शरीर के पाप में हिंसा पहला पाप है ।इसमें इस शरीर का अनुचित प्रयोग किया जाता है ।उसे उचित अनुचित का विवेक नहीं रहता है,उसकी मुख मुद्रा में दानव जैसे क्रोध,घृणॉ और द्वैष की अग्नि निकलती है । इस प्रकार के लोगों में मानवोचित्त गुंण क्षय होकर राक्षसी प्रवृत्तियॉ उत्तेजित हो उठती हैं, मरणोंपरान्त भी उसकी आत्मा अशॉत रहती है ।
39- पाप कर्म कई रूपों में मनुष्य पर आक्रमण करता है-
पाप कर्म ऐसी घृणित दुष्प्रवृत्ति है जो कई रूपों में और अवस्थाओं में मनुष्य पर आक्रमण किया करती है,इसलिए इससे सावधान रहने की आवश्यकता है ।कहते हैं मनुष्य के मन के एक अज्ञात कोने में शैतान का निवास होता है,मनुष्य उस पाप की ओर अज्ञानतावशः खिचता जाता है क्षणिक वासना या थोडे लाभ के अन्धकार में उसे उचित-अनुचित का विवेक नहीं रहता है ,वह अपना स्थाई लाभ नहीं देख पाता है और किसी न किसी पतन के ढालू मार्ग पर आरूढ हो जाता है ।।
जीवन संचार
1-सत्य के आधार पर पृथ्वी टिकी है-
जब सत्य है तभी इस पृथ्वी पर जीवन है, सूर्य का तेज स्थिर रहता है,वायु का संचरण होता है यह पूरा ब्रह्माण्ड सत्य के कारण ही स्थित है ।सत्य का अर्थ है परमेश्वर, अर्थात परमेश्वर ही इस सम्पूर्ण सृष्ठि का संचालन कर्ता है।जो मनुष्य जीवन में सत्य बोलते हैं, सत्य आचरण करते हैं, उन्हैं परमेश्वर की कृपा अवश्य प्राप्त होती है ।लेकिन क्या मनुष्य को सदैव ही सत्य बोलना चाहिए ?जिन तथ्यों से देश-धर्म की रक्षा तथा उन्नति हो सके और सज्जन लोगों का हित हो सके उन्हीं का अनुपालन करना ही सत्य है,इसके अतिरिक्त सभी असत्य है ।
2-ईश्वर हमको देखकर दो बार हंसता है-
एक बार जब भाई-भाई रस्सी लेकर जमीन के हिस्से करते हैं और कहते हैं,इधर मेरा और उधर तेरा,और दूसरी बार उस समय हंसता है जब किसी की कठिन बीमारी में उसे बन्धु तथा कुटुम्बी लोगों को रोते देख वैद्य कहता है,तुम लोग डरो मत,मैं इसे अच्छा कर दूंगा। वैद्य यह नहीं सोचता कि यदि ईश्वर किसी को मारे,तो किसकी शक्ति है जो उसकी रक्षा करे ।
3-विषयी पुरुष गोवर के कीडे के समान होते हैं-
कहते हैं गोवर का कीडा हमेशा गोवर में रहना पसन्द करता है।यदि गोवर छोडकर उसे कुछ भी दिया जाय, तो उसे पसन्द नहीं आता ।और यदि उसे गोवर की जगह कमल में रख दिया जाय तो वह छटपटाया करता है । विषयी पुरुषों का मन भी इसी प्रकार विषय वासना की बातों के सिवाय अन्य किसी प्रकार की वार्ता में नहीं लगता । यदि ईश्वर सम्बन्धी बातें उन्हैं बतलाई जाय,तो वे उस स्थान को त्यागकर जहॉ विषय की बातें होती हैं वहीं चले जाते हैं ।
4-जीवात्मा और परमात्मा के वीच में माया का परदा है-
जीवात्मा और परमात्मा के वीच माया का परदा होने से जीवात्मा की भेंट परमात्मा से नहीं हो पाती है।जैसे आगे राम बीच में सीता और पीछे लक्ष्मण जा रहे हैं ।यहॉ पर राम परमात्मा हैं और लक्ष्मण जीवात्मा ,बीच में सीता माया रूपी परदा है ।जबतक सीता बीच में है,तबतक लक्ष्मण रामचन्द्र जी को नहीं देख सकते हैं ।यदि सीता थोडी हट जाय तो लक्ष्मण को राम के दर्शन हो जायेंगे ।भगवान के दर्शन के लिए माया रूपी परदा का हटना आवश्यक है ।।
5-आप कैसे व्यक्ति है-
जो व्यक्ति ऊंचे पद पर आसीन होता है वह अवश्य ही लोभी होता है धन का या पदोन्नति का ।जो व्यक्ति ऋंगारप्रिय होता है-उसमें निश्चित ही काम-वासना की अधिकता होती है ।और जो मनुष्य चतुर नहीं होता है वह समयानुकूल बोल नहीं पाता है । और इस प्रकार से मधुर वॉणी में बात नहीं कर पाता है । और जो मनुष्य स्पष्ट बात करने वाला होता है-वह किसी को धोखा नहीं दे पाता है कि उसके द्वारा कोई बात छिपाकर रखी ही नहीं जा सकती है
6-सत्य से आंख मूंदना आत्मघात है-
अगर आपसे कोई भूल होती है और आपको अपनी यह भूल दिखाई नहीं देती है तो फिर आप अंधे हैं।अगर आप समझते हैं कि हमसे भूल होती ही नहीं है तो फिर आप मूर्ख हैं ।चूंकि अंधा और मूर्ख दोनों कठोर शब्द हैं चोट पहुंचाने वाले हैं लेकिन सत्य से आंख मूंदना आत्मघात व कडुवा होता है परन्तु सत्य का परिणाम हमेशा निस्वार्थ होता है ।
7-सदाचारी बनो -
जिस समाज में सदाचारी नहीं,वहसमाज शीघ्र नष्ट हो जाता है।सदाचारी तो परमात्मा का प्रतिनिधि होता है, इसलिए उसकी पूजा की जानी चाहिए।वैसे सदाचार मानव धर्म है।जब सदाचारी जगता है तो सबेरा हो जाता है ।
8-सदैव स्वयं को दोशमुक्त होने की अनुभूति करें-
आपने कोई बुराई नहीं की यह भाव आपमें होना चाहिए। स्वयं को दोषी न समझें।क्योंकि आप एक मानव हैं आप परमात्मा तो नहीं हैं,आप त्रुटियॉ कर सकते हैं। इसलिए स्वयं को दोषी समझने की जरूरत नहीं है बल्कि उसका सामना करें, और उसे दूर करें ।क्योंकि यदि आप स्वयं को दोषी समझते है तो आप उसे अपने बॉयें भाग में लिए फिरते है परिणाम स्वरूप आप ह्दय शूल के शिकार हो जाते हैं ।हम एक सहजयोगी हैं।हम आत्मा हैं । आत्मा कभी अपराध नहीं करती।अपनी गलतियों का सामना करें और उसी समय मुक्त हो जायें । कभी भी अपने को दोषी न समझें ।
9-सफलता का आनन्द और चैतन्यमय जीवन के लिए कष्ट तथा कठिनाइयॉ आवश्यक है-
कठिनाइयों के न रहने पर मनुष्य की क्रियाशीलता, कार्यकुशलता और चैतन्यता प्रायःनष्ट हो जाती है।क्योंकि ठोकर खा- खा कर कठिनाइयॉ झेलकर अनुभव करत्रित किया जाता है।कठिनाइयों एवं कष्टों की चोट सहकर मनुष्य दृढ बलवान और साहसी बन जाता है। कठिनाइयों एवं मुसीबतों की अग्नि में तपाये जाने पर मनुष्य की बहुत सी कमजोरियॉ जलकर नष्ट हो जाती है और मनुष्य खरे स्वर्ण की तरह चमकने लगता है। हथियार की धार पत्थर पर रघडने से तेज होती है। खराद पर चढाने से हीरे में चमक आती है।बिना चोट लगे गेंद उछलती नहीं है।विना थपकी लगे ढोल नहीं बजता है।बिना एड लगाये घोडे की चाल में तीव्रता नहीं आती है। और मनुष्य भी तो इन्हीं तत्वों से बना है यदि मनुष्य के सामने कठिनाइयॉ न हों तो उसकी सुप्त शक्तियॉ जाग्रत न हो सकेंगी और वह जहॉ का तहॉ पडा दिन काटता रहेगा । सफलता का आनन्द बनाये रखने के लिए और चैतन्य होकर विकास मार्ग पर आगे बढने के लिए कष्ट और कठिनाइयों का रहना आवश्यक है,इतिहास में जिन महॉपुरुषों का उल्लेख किया जाता है,उनमें से प्रत्येक के जीवन के पीछे कष्टों और कठिनाइयों का अम्बार रहा है, उन्होंने इनका डटकर मुकाबला किया और महान कहलाये।इसलिए कष्ट आने पर घबडाइयें नहीं बल्कि उसका मुकाबला करें,फिर जो परिणाम सामने आयेगा उससे आनन्द की अनुभूति होगी ।
10-सफलता की कसौटी अनुभवों के द्वार-
मेरे पास एक दीपक है,जो मुझे राह दिखाता है और वह सिर्फ मेरा अनुभव है। हमें क्या करना चाहिए,यह बताना तो बुद्धि का काम है,लेकिन किस तरह किया जाय यह तब,जब अनुभव बतायेगा। बुद्धि तो धन है, मगर अनुभव नकद रुपया है।और काफी समय तक ध्यानपूर्वक तथा एकाग्रचित्त होकर कार्य किये बगैर अनुभव प्राप्त नहीं होता ।बिना अनुभव के तो कोरा शाब्दिक ज्ञान अंधा है। कष्ट सहने पर ही अनुभव होता है। दुख तो अनुभवों का विद्यालय है,अपनी पीडा तो पशु-पक्षी भी महशूस करते हैं लेकिन मनुष्य वह है जो दूसरों की वेदना को अनुभव करते हैं। हमें अपने बुरे अनुभव भी नहीं छिपाने चाहिए, उनसे भी लोग लाभ उठा सकते हैं। अगर हम सही अनुभव नहीं करते तो यह निश्चित है कि हम गलत निर्णय लेंगे।अनुभव तो अमूल्य कसौटी है। अगुभव से तो हमें केवल ज्ञान ही प्राप्त नहीं होता बल्कि वासनाओं से भी मुक्ति मिल जाती है।जो अनुभव के स्रोत का जल पीने की उपेक्षा करता है वह संभवतः अज्ञान रूपी मरुस्थल में प्यासा ही मर जायेगा। वैसे भी कहते हैं कि दूध का जला छॉछ को फूंक-फूंक कर पीता है। बस दसरों के अनुभव से लाभ उठाने वाला ही बुद्धिमान है ।
11-सबसे अधिक दुखी कौन है-
हमारे महॉपुरुष भी इस बात से सहमत हैं कि संसार में सबसे दुखी व्यक्ति वह है जो गरीब है।और उससे अधिक दुखी वह है जिसने किसी का कर्ज देना है। और इन दोनों से भी अधिक दुखी वह है जो सदा रोगी रहता है ।और सबसे अधिक दुखी तो वह है जिसकी पत्नी दुष्ट है।इसलिए बहिनें ध्यान रखें कि आपके पति कितने सुखी हैं या दुखी हैं
12-सबसे उत्तम बदला क्षमा है-
क्षमा तेजस्वियों का तेज है, तपस्वियों का ब्रह्म है,सत्यवादियों का का सत्य है।क्षमा यश है,धर्म है क्षमा ही चराचर जगत स्थित है।क्षमा से बढकर और किसी बात में पाप को पुण्य बनाने की शक्ति नहीं है। क्षमा करना दुश्मन पर विजय प्राप्त कर लेना है। तपस्वी और त्यागी की शोभा उसके क्षमाशील होने में है।जिस प्रकार दुष्टों का बल हिंसा,राजाओं का बल है सेवा उसी प्रकार गुंणवानों का बल है क्षमा करना ।
13-सबसे नजदीकी मित्र अपना मन है-
अपने जीवन का सबसे नजदीकी मित्र अपना मन होता है। वहीं अपने उत्थान और पतन में साझीदार होता है,सबसे पहले किसी भी कार्य के लिए मन से पूछ लेना चाहिए ।इसलिए ध्यान रखना चाहिए कि मन को बदला और सुधारा जाय ताकि वह उपयुक्त सलाह दे सके ।
14-मृत्यु में जीवन का निवास संतुलन है-
यदि आप देखें तो मृत्यु में जीवन का निवास है,यदि मृत्यु न होती तो आदिकाल के लोग आज जीवित होते, और आज जीना दूभर हो जाता तो, हम भी न होते। पशुओं की मृत्यु हुई तो मानव रूप में जन्म हुआ । मरें तो फिर अन्य लोग जन्म लेंगे, पृथ्वी पर आने के लिए व्यक्ति को कुछ समय आराम करना होता है,यह मृत्यु मात्र जीवन परिवर्तन है ।मृत्यु के विना जीवन का कोई अस्तित्व नहीं हो सकता है। दोनों के बीच यह एक सन्तुलन है।इसलिए सहज योगी को कभी मृत्यु से नहीं डरना चाहिए।यदि उसकी मृत्यु होगी तो दूसरे को जीवन मिलेगा ।प्रकृति में यह संतुलन है । हर चीज संतुलन में है सूर्य और चॉद की दूरी संतुलन में है पृथ्वी की गति संतुलन में है,यदि ये संतुलन समाप्त हो जायें तो हम कहीं के नहीं रहेंगे ।और यह कार्य गणेश का है, वे ही सारे भौतिक पदार्थों तथा सृजित वस्तुओं की देखभाल करते हैं।मंगलमयता केवल संतुलन के माध्य से आती है ।
15-मेरी मॉ-
मानव की जुबॉ से बोले जाने वाला सबसे सुन्दर शब्द मॉ है,सबसे सुन्दर बुलावा मेरी मॉ का है।ये शब्द आशा और प्रेम से परिपूर्ण है, मधुरता एवं करुणॉ से परिपूर्ण है,मधुरता और करुंणा से परिपूर्ण शव्द जो गहराइयों से निकलता है। मॉ सभी कुछ है –दुःख में वे हमार ढाढस है, तखलीफ के समय वे हमारी आशा हैं, और कमजोरी में हमारी ताकत,वे प्रेम,करुणॉ,हमदर्दी एवं क्षमा का श्रोत है । जो व्यक्ति अपनी मॉ खो दोता है वह निरन्तर आशीष देने वाली एवं रक्षा करने वाली पावन आत्मा को खो देता है ।प्रकृति की हर चीज मॉ की ओर संकेत करती है। सूर्य पृथ्वी की मॉ है और अपनी गर्मी से इसे पोषण प्रदान करता है।
16-अपने अन्दर पूर्ण मिठास महसूस करें-
हे परमात्मा मेरे जीवन के लवालव भरे प्याले से आप कौन –सा दिव्य पेय लेंगे, मेरे कवि,क्या मेरी आंखों के माध्यम से अपनी सृष्टि देखना और मेरे कानों के द्वार पर खडे होकर अपने शाश्वत सामंजस्य गीत कोसुनने में ही आपको खुशी है । आपका विश्व मेरे मस्तिष्क में शव्द बुन रहा है । आपका आनंद इन शब्दों को संगीत प्रदान कर रहा है । प्रेम के क्षणों में आप स्वयं मुझे समर्पित कर देते हैं और फिर मेरे अंदर अपने पूर्ण मिठास को महसूस करते हैं ।
17-शक्ति के बिना उसका कोई अस्तित्व नहीं-
पुरुष अवतरण गतिज पक्ष है ,सम्भाभ्य ऊर्जा मादा शक्ति है।इसी कारण कंस का वध करने के लिए श्री कृष्ण को श्री राधा की सहायता मॉगनी पडी शक्ति के विना तो कोई अस्तित्व नहीं,वैसे ही जैसे प्रकास के विना दीपक का अस्तित्व नहीं ।ये अवतरण हैं इनके पीछे शक्तियॉ हैं जिन्होंने सारे कार्यों को अन्जाम दिया । इसी प्रकार शिव क्रोधित हकर राक्षशों का वध करते हैं क्योंकि वह शक्ति उनमें प्रवेश करती है।अपने उन्दर कोई नर शक्ति लेकर कभी कोई अवतरित नहीं हुई,जिन राक्षसों का वध उन्होंने(देवी) किया उन्हीं के मुंडों की माला उन्होंने पहन ली ताकि अन्य राक्षस भयभीत हों कि मैं तुम्हारा भी वध कर दूंगी,और तुम्हारे सिर की भी माला बनाकर पहन लूंगी । केवल उन्हैं डराने के लिए।
18- पुरुष फूल है तो महिला सुगन्ध है-
पुरुष के विना महिला स्वयं को अभिव्यक्त नहीं कर सकती है,पुरुष के विना आप जीवित नहीं रह सकती,माना पृथ्वी मॉ सभी प्रकार की सुगन्ध है लेकिन जब फूल नहीं हैं तो आप किस प्रकार जानेंगे कि पृथ्वी मॉ में सुगन्ध है।इसलिए पुरुष अत्यन्त महत्वपूर्ण है,अन्यथा उनकी पूरी शक्ति नष्ट हो जायेगी । अतः यदि महिलायें पृथ्वी मॉ का रूप हैं तो आप (पुरुष)पुष्प हैं।
19-सुख के साधन ही कभी-कभी दुख के कारण बन जाते है-
सुःख-दुख बहुत कुछ हमारी सोच पर निर्भर करता है और कई बार सुख के साधन ही हमारे दुःख का कारण बन जाते हैं ।एक आदमी अपनी पत्नी के साथ एक झोपडी में रहता था,दिनभर मेहनत करके जो कमाता उससे मजे से अपना जीवन यापन करता था दोनों सुखी थे,उन्हैं न कोई लोभ या लालच था न कोई कामना थी,वह एकसीधा-सच्चा श्रमिक था।उसी के पडोस में एक सेठ रहताथा,वह हमेशा परेशानी व चिन्ता में डूबा रहता था आनन्द की अनुभूति उसने कभी नहीं की,एक दिन एक साधु ने उसे दुखी देखकर उसे समझाया कि तुम्हारी यह धन दौलत ही तुम्हारी सारी परेशानी और चिन्ता की जड है।इसने तुम्हारे स्तित्व पर अपना कव्जा जमा रखा है,तुम्हारा चित्त हरसमय एक चीज से दूसरी चीज की तरफ भटकता रहता है,जिससे तुम वेचैन रहते हो।संत ने पडोस के उस श्रमिक की ओर इशारा करते हुये कहा कि इसे देखो इसके पास कुछ भी नहीं है ,लेकिन देखो उसका मुख मणडल कैसा आनन्द से खिला है,उसका शरीर कितना सुन्दर व सुडौल है तुम्हारे भाग्य में ऎसा सुख और आनन्द कहॉ है ।उस धनी ने विचार किया साधु के कथनों की परीक्षा ली जाय। दूसरे दिन साधु के परामर्श पर धनी ने उस निर्धन के यहॉ निन्यानब्बे रुपयेकी एक थैली फेंक दिये तो शॉम को देखा कि उस निर्धन मजदूर के यहॉ चूल्हा तक नहीं जला,जबकि आज तक हमेशा ठीक समय पर खाना बना करता था.दूसरे दिन सुबह ही साधु ने सेठ को अपने साथ लेकर श्रमिक के घर पहुंचा और उस श्रमिक से रात को चूल्हा न जलने का कारण पूछा,उस निर्धन श्रमिक ने संत से झूठ बोलना उचित न समझा और कहा कि कल से पहले मैं प्रतिदिन मैं जो पैसा कमाता था उससे आटा ,दाल, शब्जी, तेल,मशाला खरीदलाता था,मगर कल हमने इसलिए चूल्हा नहीं जलाया कि मेरे घर कल एक छोटी सी थैली गिरी मिली उसमें पूरे निन्यानव्बे रुपये थे ,तो चोचा कि एक ही रुपये की कमी है,कि यदि एक रुपया हो जाता तो पूरे सौ रुपये हो जायेंगे ,बस उसी एक रुपये की कमी को पूरा करने के लिए हमने यह निश्चय किया कि हम एक दिन छोडकर खाना खायेंगे इसी कारण हमें कल भूखा रहना पडा । सुख दुख से समझौता करें।
20- – ईश्वर के एक ही रूप में विश्वास करें -
चम्पा तेरे पास रूप,रंग व सुगन्ध तीनों गुण होने पर भी भौंरा तुम्हारे पास क्यों नहीं आता है, यह पूछने पर चम्पा का कहना था कि भौंरा जगह-जगह के फूलों का रस लेता है मुझे यह पसन्द नहीं है इसलिए मैं भौरे को अपने पास नहीं आने देती हूं मानव को भी ईश्वर के एक ही रूप में विस्वास करना चाहिए जगह-जगह ध्यान से परमात्मा प्राप्त नहीं हो सकता है ।
21 – अहंकार -
जिस व्यक्ति में अहंकार की भावना होती है,उसका वह अहंकार अपनी उपस्थिति प्रगाढ कर दिखाना चाहता है । अहंकार से अपने भी पराये हो जाते हैं ,ध्यान रहे अहंकार से बचें ।
22– विश्वास-
ब्यक्ति को स्वयं पर विश्वास होना चाहिए,वरन् राम भरोशा काम नहीं आता, विश्वास उस बच्चे के समान होना चाहिए जो अपनी मॉ के हाथों ऊपर उछाला जा रहा है लेकिन बच्चा ऊपर हवा में हंसते हुये तैरने की कोशिस कर रहा है उसे गिरने का कोई डर नहीं है,ङसलिए कि उसे विश्वास है कि ऊपर उछालने वाला और नहीं बल्कि सिर्फ पालनहारी मॉ है ।
23 – वासना और प्रार्थना -
यदि वासना अधूरी है तो आदमी क्रोधी बन जाता है,और यदि वासना पूर्ण हो जाती है तो घृणा,वैराग्य उत्पन्न होता है जबकि प्रार्थना पूरी न हो तो लालसा रहती है और प्रार्थना पूर्ण होती है तो परमात्मा प्राप्त होता है ।प्रार्थना ईश्वर प्राप्ति का सरल मार्ग है।
24 – अहम् का विचार न आये -
मन में अहम का विचार नहीं आना चाहिए,एक बार रामकृष्ण परमहंस अपने आश्रम में देवी के मन्दिर की सीढी को अपनी जटा से साफ कर रहे थे शिष्यों ने पूछा गुरु जी तुम ऐेसा क्यों कर रहे हो, रामकृष्ण का कहना था ङसलिए कि ताकि ङस खोपडी को अहम का अहसास न हो ।
25 – सुख दुख से समझौता -
हमें सबसे अधिक दुख किससे मिलता है जिससे सबसे अधिक सुख की अपेक्षा होती है, ङसलिए उससे सुख से लिप्त नहीं होना चाहिए अपने ही बेटी- बेटों द्वारा बचपन में जो सुख मिलता है बडा होने पर उतना ही दुख निलता है और अगर हम यह मानें कि यह होना ही है तो ङससे काम नहींचलेगा ङसलिए हमें सुख-दुख से समझौता करना होता है।
26 – क्षमा करने का गुंण होना चाहिए-
गलती करने वाला अवश्य गलती करेगा,यह श्रंखला चलती रहेगी इसलिए मनुष्य में क्षमा करने का गुंण होना चाहिए ।क्षमा करना सीखें।
27 – सत्य सभी को पसन्द है -
सभी लोग सत्य सुनना चाहते हैं, और सभी को सत्य की तलाश है, लेकिन फिर भी सत्य से दूर रहते हैं विषमता हर व्यक्ति के चारों ओर डेरा डाले है ।
28 – आत्म बल-
जब हम अकर्मण्यता के आंचल में अपना मुंह छिपाते हैं तो हमारे सामने निराशा की एकमोटी दीवार खडी हो जाती है तब,आत्मबल से ही हम उसे पार कर सकते हैं ।
29-सौभाग्यशाली होने का अवसर प्राप्त करें-
जीवन में हमें कई प्रकार के कार्यों को करने के अवसर मिलते हैंलेकिन सेवा का अवसर मिलने पर उसे अनदेखा और अनसुना करना बहुत बडे दुर्भाग्य की बात है ।हमें धन मिल जाय,अच्छे मित्र मिल जायें,इनसे तो हम सुखी हो सकते हैं लेकिन सौभाग्यशाली नहीं हो सकते ।यदि हमें किसी गरीब दीन दुखी की सेवा का अवसर मिलता है तो तभी हम सौभाग्यशाली हो सकते हैं । इसके सामने तो संसारके सारे सुख छोटे पडजाते हैं ।
30-क्रोध करना बुरा है की अनुभूति कब होती है-
यदि आप कहते हैं कि मैं यह जानता हूं कि क्रोध करना बुरा है,हानि कारक है,लेकिन इस बात को आप तभी जानते हैं जब कोई दूसरा क्रोध कर रहा होता है या आप यह तभी जानते हैं जब आपका क्रोध आकर जा चुका होता है,लेकिन जब आप क्रोध में होते हैं तो आपका रोआं-रोआं कहता है कि क्रोध ही उचित है ।
31-स्वयं को पहचानने में विवाद न करें-
जो लोग धर्म के बारे में विवाद करते हैं,वे तो स्वयं को पहचानने में विवाद करते हैं।वे स्वयं ईश्वर रूप होते हुये भी अपने ईश्वर पद को अस्वीकार करते हैं।वे पागलों की भॉति अपने को ही नहीं पहचानते हैं ।वे लोग अपनी गंदगी और अनुत्तरदायित्वपूर्ण कार्य से जगत को कुरूप बना देते हैं । इनका उपचार करना,इन्हैं समझा-बुझाकर इनके रोग को मिटाना आवश्यक हैं। नईं शिक्षा के द्वारा इन्हैं शिक्षित किया जाना चाहिए ।
32-शुभ कार्य स्वयं में शुभ मुहूर्त है-
कोई भी शुभ कार्य करने में उसे कल पर नहीं छोडना चाहिए,और न हीं शुभ कार्य के लिए मुहूर्त की आवश्यकता होती है,इसलिए कि शुभ कार्य स्वयं में शुभ मुहूर्त है ।अशुभ को करने में जल्दवाजी नहीं करनी चाहिए ।शुभ,पुण्य कार्य को आज ही कर लो,अभी कर डालो,इसी वक्त कर डालो पता नहीं अगले क्षण तुम रहो या न रहो ।
33--श्रद्धा और विश्वास-
विश्वास तो कई जगह किया जा सकता है, जैसे मित्र,नौकर,अपना सम्बन्धी,और यहॉ तक कि ताले पर भी ।लेकिन श्रद्धा तो केवल एक ही स्थान पर होती है और वह है इष्ट या सद्गुरु।श्रद्धा के आने से अभय का भाव आता है । लेकिन अभय का तात्पर्य यह नहीं कि तुम किसी से डरते नहीं, बल्कि इस भाव का अर्थ तब पूर्ण होगा जब तुमसे भी कोई न डरे ।
34-दुखों से मुक्ति पाने का साधन श्रेष्ठ बुद्धि है-
ईश्वर ने जिस महान उद्देश्य के लिए हमें यह शरीर प्रदान किया है,इसके लिए श्रेष्ठ बुद्धि की आवश्यकता है। इस संसार के समस्त दुखों से मुक्ति पाने के लिए महत्वपूर्ण साधन यह श्रेष्ठ बुद्धि ही है,जिसकी सहायता से संसार का प्रत्येक प्राणी भव सागर के भंवर में उलझी हुई अपने इस तन रूपी नौका को भी पार उतार सकता है लेकिन यह तभी संभव है जब बुद्धि श्रेष्ठ हो ।
35-जब बुद्धि मलिन हो तो समझो विपत्ति आनी वाली है-
जैसा कि कहा गया है कि विनाश काले विपरीत बुद्धि। जब बुद्धि मलिन होने लगे और विचार अपवित्र हों तो समझ लेना चाहिए कि कोई विपत्ति आनी वाली है। उस समय योग द्वारा अपने विचारों और संकल्प को शुद्ध और पवित्र बना लेना चाहिए,तो फिर दुर्भाग्य भयभीत नहीं कर सकेगा । जिससे संकट हल्का हो जाता है । सत्य संकल्प के द्वारा कठिन आपत्ति को भी टाला जा सकता है ।दृढ संकल्प और शुद्ध विचार वाले व्यक्ति पर यदि अचानक विपत्ति आ भी जाय तो प्रकृति और आस-पास के लोग एवं वहॉ का वातावरण उसके बोझ को बॉट लेंगे । इसलिए संकल्प शक्ति इस संसार में सर्वोपरि शक्ति है ।
36-मन हंसता है तो होंठ कभी नहीं रोते-
जिसका मन रोगी नहीं ,विकार युक्त नहीं , उसका शरीर कभी रोगी नहीं हो सकता है।जिसका मन हंसता है उसके होंठ कभी नहीं रोते ।अस्वस्थ तन में स्वस्थ मन तो रह सकता है,परन्तु अस्वस्थ मन कभी तन को स्वस्थ रहने नहीं देता ।
37--स्वस्थ चिंतन से समाज को गति मिलती है -
स्वस्थ शरीरमें स्वस्थ विचार होते हैं स्वस्थ चिन्तन से एकाग्रता-सजगता-अन्तर्दृष्टि जागृत होती है।तब आत्मध्यान की गहराई से प्राप्त अमृत ही जीवन को शक्ति व शॉन्ति देता है।इस प्रकार के स्वस्थ चिन्तन व शॉत मानव द्वारा ही विश्व सुन्दर वनता है,उस समाज को उत्थान की ओर बढने की गति मिलती है ।बीमार व्यक्ति का चिन्तन एवं आचरण भी रुग्ण होगा। मूढ व्यक्ति तो अपना ही उपकार नहीं कर सकता ।अशॉत व्यक्ति तो दुनियॉ को कुरूप बना देता है ।
38-ईश्वर अनुभूति का विषय है -
जिसे पाने का कोई उपाय नहीं उसका नाम है संसार, और जिसे खोने का कोई उपाय नहीं है उसका नाम है परमात्मा।लेकिन इस संसार को पाने के लिए और परमात्मा को खोने के लिए इंसान सारा जोखिम दॉव पर लगा देता है । ईश्वर तो मान्यता का नहीं अनुभूति का विषय है ।
39--सबसे बडा वशीकरण मंत्र स्वयं को वश में करना है-
सच्चा संत कभी वशीकरण मंत्र का प्रयोग नहीं करता बल्कि संत तो स्वयं अपने आपको वश में कर देता है । और फिर पूरी दुनियॉ संत के वश में हो जाती है।स्वयं अपने को वस में करना दुनियॉ का सबसे बडा वशीकरण मंत्र है ।
40-सत्य को गंवाकर कुबेर की सम्पदा पाना घाटे का सौदा होगा-
सत्य और न्याय के पीछे चलने में हमें सबकुछ छोडना पडता है तो इसके लिए हमें स्वयं को तैयार करना चाहिए ।क्योंकि सत्य ही परमेश्वर है, इससे बढकर इस संसार में कुछ भी नहीं है । यदि सत्य अपने हाथ रहा और उसके बदले सबकुछ चला गया तो कोई हर्ज नहीं ।लेकिन यदि सत्य को गंवाकर कुवेर की सम्पदा और इन्द्र का सिंहासन भी मिल जाता तो समझना चाहिए कि यह बहुत महंगा और बहुत घाटे का शौदा रहा है ।
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