हमें स्वयं में सभी तरह के रचनात्मकता को विकसित करने के लिए उसके दरवाजे खोलने होंगे ।आज लोगों में अप्रत्याशित ऊर्जा है,लेकिन उन्हैं रचनात्मक कार्यों की की दिशा में मोडने की प्रेरणॉ नहीं दी जा रही है।वह मूल रहित है,किसी आधार के विना,परमात्मा के सम्पर्क के बिना दिशाहीन है, इसलिए वह छितराकर नष्ट होती जा रही है ।रचनात्मकता में यदि उसमें परमात्मा का प्रेम परावर्तित न हो तो वह स्वयं घातक है । वह तो उस वीमार वृक्ष के समान है जो जीवित तो है पर उसमें फल नहीं लगते हैं। चित्रकला का अर्थ केवल रंगों को उतारना ही नहीं है बल्कि उससे अधिक कुछ और भी है,जो कि जीवन का पोषण करता है । इसलिए रचनात्मकता में परमात्मा का प्रेम जीवन का लक्ष्य होना चाहिए ।
2-कलाकार को परमात्मा का आशीर्वाद-
हर मनुष्य कलाकार हैं, और यदि कलाकार आत्मज्ञानी है तो उसकी कला में परमात्मा के प्रेम की सर्वव्यापी शक्ति परावर्तित होती है ।जब कलाकार की कला और कैनवस आपस में एकाकार हो जाते हैं तब अज्ञात चेतना के कार्य का सूत्रपात होता है।उस सहजता में,आत्मा की अभिव्यक्ति स्वयं होती है।तब मनुष्य रूपी यंत्र(कलाकार)में परमात्मा का आशीर्वाद उतर आता है,इस प्रकार की अनुपम कृति एक यादगार बन जाती है ।जो एक अनोखी कलाकृति,आनंद की वस्तु और हमेशा के लिए सौन्दर्य का प्रतीक हो जाती है,प्रेरणॉ और चैतन्य का स्रोत वन जाती है। जैसे सिस्टीन चैपल में माइकेल ऐंजलो की चित्रकारी या मोजार्ट का संगीत,इस प्रकार की कला मनुष्य की आत्मा में हलचल पैदा कर देती है और विकास के लिए ऊपर उठने की सीढियॉ बन जाती हैं ।
3-बेईमान भी ईमानदार साथी चाहता है-
जो लोग बेईमान होते हैं वे प्रत्यक्ष में ईमानदारी का समर्थक और प्रशंसक पाये जाते हैं,बेईमान व्यक्ति भी ईमानदार साथी चाहता है। प्रमाणिक व्यक्तियों की तो सर्वत्र मॉग है वे सिर्फ अपने आत्मीय परिजनों में ही सम्मान नहीं पाते बल्कि शत्रु तक उनकी सच्चाई एवं ईमानदारी की प्रशंसा किए बिना नहीं रहते ।
4-भगवान की अनुभूति
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जबतक हमें भगवान दूर प्रतीत होते हैं तबतक अज्ञान है।लेकिन जब हमें अपने अंदर उसका अनुभव होने लगता है, तब यथार्थ ज्ञान का उदय होने लगता है जो कि हमें अपने ह्दय मंदिर में दिखाई देने लगता है और जगत मंदिर में भी वही दिखाई देता है ।जबतक आदमी समझता है कि भगवान वहॉ है तबतक तो वह अज्ञानी है । परन्तु जब वह अनुभव करता है कि भगवान यहॉ है तभी उसे ज्ञान प्राप्त होता है ।
5-ईश्वर और जीव का सम्बन्ध-
ईश्वर और जीव का सम्बंध वैसा ही है जैसा चुम्बक और लोहे का ।तो फिर ईश्वर जीव को आकर्।त क्यों नहीं करते ? इस लिए कि जिसप्रकार कीचड में लिपटा हुआ लोहा चुंबक चुंबक से आकर्षितनहीं होता,उसी प्रकार अत्यधिक माया में लिप्त जीव ईश्वर के आकर्षण का अनुभव नहीं करता,लेकिन जैसे ही पानी से कीचड धुल जाने पर लोहा चुंबक की ओर आकर्षित होने लगता है उसी प्रकार अनवरत् प्रार्थना तथा पश्चाताप के असुओं द्वारा संसारबंधन में डालने वाली माया का वह कीचड धुल जाता है,तो जीव शीघ्र ही
ईश्वर की ओर आकर्षित होने लगता है ।
6-भीष्म पितामह की आंख अंतिम क्षण में खुली थी-
जब भीष्म पितामह देहत्याग के समय शरशय्या पर पडे हुये थे, तब एक दिन उनके नेत्र से आंसू निकलते देख अर्जुन ने भगवान श्री कृष्ण से कहा,हे सखे आश्चर्य की बात है कि पितामह जो सत्यवादी, जितेन्द्रिय, ज्ञानी और ष्ट वस्तुओं में से एक हैं,शरीर त्यागते समय माया से रो रहे हैं ।भगवान त्री कृष्ण ने जब यह बात भीष्म पितामह से कही,तो उन्होंनेकहा,भगवन् आप तो अच्छी तरह जानते हैं कि मैं ममता के कारण नहीं रो रहा हूं, मेरे रोने का कारण यह है कि भगवान की लीला को आजतक में नहीं समझ पाया जिनका नाम मात्र जपने से मनुष्य अनेकोंनेक विपदाओं से तर जाता है,और वे ही भगवान पाण्डवों के सारथी और सखा –रूप में विद्यमान हैं।।
7-अवतारी पुरुष की पहचान-
जिस प्रकार एक रेल का एंजन स्वयं भी आगे बढता ङै और कितने ही मालडिब्बों को भी साथ खीचकर लेजाता है उसी प्रकार वतारी पुरुष भी हजारों-लाखों मनुष्यों को ईश्वर के निकट लेजाता है ।।
8-सबके भीतर परमात्मा विराजमान है-
मनुष्य तो एक के गिलाफ के समान है ।ऊपर से देखने में कोई गिलाफ लाल है तो कोई काला,लेकिन सबके भीतर रुई भरी होत है,उसी प्रकार मनुष्य देखने में कोई सुन्दर है कोई काला है,कोई महात्मा हैतो कोई दुराचारी है,पर सबके भीतर वही परमात्मा विराजमान है ।।
9-संसारिक जीवों में धर्म का प्रभव कम पडता है-
जिस प्रकार एक मगर पर शस्त्र से वार किया जाय,तो उससे मगर का कुच भी नहीं होता है,बल्कि शस्त्र ही छिटककर अलग गिर जाता है ।इसी प्रकार संसारी जीवों के बीच यदि धर्म चर्ची कितनी ही क्यों न कीजाय,उसके ह्दय पर तनिक भी प्रभाव नहीं पडता ।।
10-मन तराजू के पलडे के समान है-
तराजू का जिधर पल्ला भारी होता है,उधर झुक जाता है और जिधर हल्का होता है,उधर का भाग ऊपर को उठ जाता है। मनुष्य का मन भी तराजू की भॉति है।उसके एक ओर संसार है औरnदूसरी ओर भगवान है । जिसके मन में संसार ,मान इत्यादि का भार धिक होता है, उसका मन संसार की ओर से उठकर भगवान की ओर झुक जाता है ।।
11-हमारे हाथ आंखों पर हैं-
विश्व की समस्त शक्तियॉ हमारी हैं,हमने तो अपने हाथ अपने आंखों पर रख लिए हैं और चिल्लाते हैं कि
सब ओर अंधेरा है ।जान लो कि हमारे चारों ओर अंधेरा नहीं है, पने हाथ अलग करो,तुम्हें प्रकाश दिखाई देने लगेगा ,जो कि पहले भी था ।अंधेरा कभी नहीं था, कमजोरी कभी नहीं थी।हम सब मूर्ख हैंजो चिल्लाते हैं कि हम कमजोर हैं,अपवित्र हैं ।।
12-एक विचार पालो-
एक विचार लेलो ।उसी एक विचार के अनुसार जीवन को बनाओ,उसी को सोचो,उसी का स्वप्न देखो और उसी पर अवलम्बित रहो ।शरीर के प्रत्येक भाग को उसी विचार से ओत-फ्रोत होने दो और दूसरेसब विचारों को अपने से दूर रखो यही सफलता का रास्ता है ।।
13-ईश्वर के कई रूपों में दिखता है-
एक बार एक मनुष्य जंगल गया य़वहॉ उसने एक वृक्ष पर एक सुन्दर प्राणी देखा ।घर लौटकर उसने अपने मित्र से कहा कि मैने जंगल में एक पेड पर लाल रंग का एक प्राण देखा,मित्र बोला मैने भी देखा लेकिन वह तो हरा है,तीसरे व्यक्ति ने कहा नहीं उसे तो मैने भी देखा वह तो पीला है,उन्य लोगों ने भी कहा किसी ने कहा सफेद रंग का है किसी ने कोई और रंग बताया ।उन्हैं परस्पर झगडा होने लगा अंत में वे उस वृक्ष के पास गये वहॉ पर एक व्यक्ति बैठा था उसने उनके प्रश्नों के उत्तर में कहा,मैं तो इसी वृक्ष के नीचे बैठा रहता हूं और उस जन्तु को खूब अच्छी तरह से जानता हूं।तुम लोग उसके विषय में जो कह रहे हो सब सही है ।कभी वह लाल होता है कभी पीला,कभी सफेद उसके रंग बदलते रहते हैं और कभी विना रंग का दिखता है ।इसी प्रकार जो निरंतर भगवान का चिंतन करता है वह उनके रूपों तथा अवस्थाओं के बारे में जान सकता है। भगवान के अपने गुंण हैं,साथ ही वे निर्गुंण भी हैं।केवल वही व्यक्ति जो वृक्ष के नीचे रहता है,जानता है कि वह कितने रंगों में दिखाई देता है ।दूसरे लोग, जो पूरे सत्य को नहीं जानते ,परस्पर झगडा करते रहते हैं और कष्ट पाते हैं ।।
14-ईश्वर निराकारव साकार से परे है-
ईश्वर के वारे में भ्रॉतियॉ निराकार और कार के सम्बंध में ।ईश्वर तो निराकार भी है साकार भी है तथा इससे परे भी है।केवल वे ही स्वयं जानते हैं कि वे क्या हैं।जो लोग उनसे प्रेम करते हैं उनके लिए वे नाना प्रकार से नाना रूपों स्वयं को व्यक्त करते हैं ।किन्तु निश्चित ही वे साकार अथवा निराकार की सीमा से बंधे नहीं हैं ।।
15-श्रद्धा और विश्वास में बहुत बडी शक्ति है-
एक आदमी से विभीषण ने कहा लो इस चीज को अपने पास कपडे के एक छोर से बॉध के रख लो ,इसके बल पर तुम सहज ही समुद्र पार हो जाओगे ,तुम पानी पर चल सकोगे, लेकिन ध्यान रखना इसे देखना नहीं,नहीं तो डूब जाओगे।वह आदमी पानी पर बडी सरलता से चलते हुय़े आगे बढने लगा–विश्वास में ऐसा ही बल होता है ।लेकिन कुछ दूर जाने पर उसके मन में कुतूहल हुआ-कि विभीषण ने मुझे कौन सी वस्तु दी है कि जिसके बल पर मैं पानी के ऊपर ही ऊपर चला जा रहा हूं ? उसने गॉठ खोल ली और देखा तो उसमें केवल एक पत्ता था, जिसपर लिखा था राम नाम। उसने कहा –बस यही,और तत्काल वह डूब गया ।कहते हैं कि हनुमान ने राम के नाम पर विश्वास करके एक छलॉग में समुद्र को लॉघ दिया था लेकिन रामचन्द्र जी को सेतु बॉधना पडा था ।।
16-हम माया के अन्दर सुख ढूंडते हैं-
इस संसार में जीवन और मृत्यु,शुभ और अशुभ,ज्ञान और अज्ञान का यह मिश्रण ही माया या जगत प्रपंच है ।तुम्हें सुख के साथ ब हुत दुख तथा अशुभ भी मिलेगा ।यह कहना कि मैं केवल शुभ लूंगा,अशुभ नहीं लूंगा, लडकपन है-यह असम्भव है ।।
17-संयम क्या है-
जब हम अपने मन को किसी निर्धारित वस्तु की ओर लेजाकर उस वस्तु में कुछ समय तक के लिए धारण कर सकते हैं,और उसके बाद उसके अन्तर्भाग को उसके बाहरी भाग से अलल करके काफी समय तक उसी स्थिति को बनाये रखते हैं, तो यह संयम कहलाता है।उस स्थिति में बाहरी आकार अचानक गायब हो जाता है यह पता ही नहीं चलता । हममें तो केवल इसका अर्थ मात्र भाषित होता है ।।
18-संयम में सफल होना ज्ञान का प्रकाश प्राप्त करना है-
यदि हम इस संयम को साधन के रूप में अपनाने में सफल हो जाते हैं तो सारी शक्तियॉ हमारे हाथ में आ जाती हैं ।यही संयम योगी का प्रधान स्वरूप है।ज्ञान के विषय तो अनन्त हैं ।जैसे स्थूल,स्थूलतम् सूक्ष्म, सूक्ष्मतम् आदि कई विभागों में विभक्त हैं।संयम का प्रयोग पहले स्थूल वस्तु पर करना चाहिए,और जब स्थूल ज्ञान प्राप्त होने लगे,तब थोडा-थोडा करके सूक्ष्मतम् वस्तु पर प्रयोग करना चाहिए ।।
19-भूत और भविष्य का ज्ञान-
जब मन बाहरी भाग को छोडकर उसके आन्तरिक भावों के साथ अपने को एक रूप करने की अवस्था में पहुंचता है,तब दीर्घ अभ्यास के द्वारा मन केवल उसी की धारणॉ करके क्षण भर में उस अवस्था में पहुंच जाने की शक्ति प्राप्त कर लेता है, लेकिन इसके लिए हमें संयम की परिभाषा को नहीं भूलना चाहिए । और इस अवस्था को प्राप्त करके यदि भूत और भविष्य जानने की इच्छा करे,तो उन्हैं संस्कार के परिणॉमों में संयम का प्रयोग करना चाहिए । फिर भूत और भविष्य को जाना जा सकता है ।
20-कुल श्रेष्ठ कौन हैः-
किसी कुल में उसी को श्रेष्ठ माना जाता है जो संपूंर्ण प्राणिर्यों को शॉत रखने का प्रयत्न करता है, हमेशा
सत्य व्यवहार करता है, कोमल स्वभाव होकर सबका सम्मान करता है, सर्वदा शुद्ध भाव से रहता है।।
21-भूल-सुधार मानव स्वभाव है-
भूल करके आदमी सीखता है ,पर इसका मतलव नहीं कि जीवनभर भूल ही करता जाये और कहे कि हम सीख रहे हैं । भूल होना स्वाभाविक है, पर अवसर आने पर उसको सबके सामने मानने की हिम्मत करना महॉपुरुषों का ही काम है ।यदि हम पुरानी भूल को नईं तरह से केवल दुहराते रहें तो इससे कोई लाभ नहीं है ।।
22-भूल-सुधार मानव स्वभाव है-
भूल करके आदमी सीखता है ,पर इसका मतलव नहीं कि जीवनभर भूल ही करता जाये और कहे कि हम सीख रहे हैं । भूल होना स्वाभाविक है,पर अवसर आने पर उसको सबके सामने मानने की हिम्मत करना महॉपुरुषों का ही काम है ।यदि हम पुरानी भूल को नईं तरह से केवल दुहराते रहें तो इससे कोई लाभ नहीं है।।
23-मन की शक्ति-
मन स्वभावतः बहिर्मुखी होता है,अर्थात बाहरी विषयों पर अधिक ध्यान रहता है। लेकिन मनोविज्ञान या दर्शन शास्त्र के अनुसार मन एक ऐसी शक्ति है,जिससे वह अपने अन्दर जो कुछ भी हो रहा है,उसे देख सकता है। जिसे अन्तः पर्यवेक्षण शक्ति कहते हैं। मैं तुमसे बात-चीत कर रहा हूं,लेकिन साथ ही मैं मानो एक और व्यक्ति बाहर खडा हूं,और जो कुछ कह रहा हूं उसे सुन रहा हूं। अर्थात एक ही समय चिन्तन और काम दोनों हो रहे हैं। तुम्हारे मन का एक अंश मानो बाहर खडे होकर, जो तुम चिन्तन कर रहे हो उसे देख रहा है। मन की समस्त शक्तियों को एकत्र करके मन पर ही उसका प्रयोग किया जा रहा है। जिस प्रकार प्रकाश की किरणों के सामने घने अन्धकार के गुप्त तथ्य भी खुल जाते हैं। उसी प्रकार एकाग्र मन अपने सब अन्तर्मय रहस्य प्रकासित कर देता है। तभी तो हम विश्वास की सच्ची बुनियाद पर पहुंचते हैं। तभी हमको धर्म की प्राप्ति होती है,हम आत्मा हैं या नहीं,संसार में ईश्वर है या नहीं। यह हम स्वयं देख सकते हैं।जितने भी उपदेश दिये जाते हैं,उनका उद्देश्य सबसे पहले मन की एकाग्रता और उसके बाद ज्ञान प्राप्त करना है।।
24-मन और शरीर का सम्बन्ध-
मन और शरीर के सम्बन्ध को देखें तो, हमारा मन एक सूक्ष्म अवस्था में है। लेकिन वह इस शरीर पर कार्य करता है। और हमें यह भी स्वीकार करना होगा कि शरीर भी मन पर कार्य करता है। यदि शरीर अस्वस्थ होता है तो मन भी अस्वस्थ हो जाता है,और शरीर के स्वस्थ होने पर मन भी स्वस्थ और तेजस्वी होता है। यदि किसी व्यक्ति को क्रोध आता है तो उसका मन अस्थिर हो जाता है,और मन अस्थिर होने से उसका पूरा शरीर अस्थिर हो जाता है। कुछ लोगों का मन शरीर के अधीन होता है। उनकी संयम शक्ति पशुओं से विशेष अधिक नहीं होती है। इस प्रका के मन पर अधिकार पाने के लिए कुछ वाह्य दैहिक साधनाओं की आवश्यकता होती है,जिसके द्वारा मन को वश में किया जाता है। जब बहुत कुछ मन वश में हो जाय तब हम इच्छानुसार उससे काम ले सकते हैं।
25-भोजन के सम्बन्ध में सावधानी-
हमें भोजन इस प्रकार करना चाहिए,जिससे हमारा मन पवित्र रहे। क्योंकि भोजन के साथ जीव का घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। यदि हम किसी आजायबघर में जाकर देखते हैं तो यह सम्बन्ध स्पष्ट दिखता है। हाथी को देखते हैं,बडा भारी प्रॉणी है,लेकिन उसकी प्रकृति शॉत होती है। और यदि सिंह या बाघ के पिंजडे की ओर जाते है तो देखोगे कि वे बडे चंचल हैं। इससे समझ में आ जायेगा कि आहार का सम्बन्ध कितना भयानक परिवर्त कर देता है। हमारे शरीर में जितनी शक्तियॉ कार्यरत हैं,वे आहार से पैदा हुई हैं,इसे हम प्रति दिन प्रत्यक्ष देखते हैं। यदि हम उपवास करना आरम्भ करें तो हमारा शरीर दुबला हो जायेगा,दैहिक ह्रास होगा,और कुछ दिन बाद मानसिक शक्तियों का भी ह्रास होने लगेगा। पहले स्मृति शक्ति जायेगी,फिर धीरे-धीरे सोचने की सामर्थ्य भी जाती रहेगी। इसलिए साधना की पहली अवस्था में,भोजन के सम्बन्ध में विशेष ध्यान रखना होता है।।
26- हमारा शरीर परिवर्तनशील अणुओं से बना है-
इस जगत असुर प्रकृति के लोगों की संख्या अधिक है,लेकिन ऐसा भी नहीं है कि देवता प्रकृति के लोग नहीं हैं, यदि कोई कहे कि आओ तुम लोगों को मैं ऐसी विद्या सिखाऊंगा,जिससे तुम्हैं इन्द्रिय सुखों में वृद्धि हो जाय,तो अनगिनत लोग दौडे चले आयेंगे। लेकिन अगर कोई कहे कि आओ में तुम्हैं परमात्मा का विषय सिखाऊंगा तो शायद ही उनकी बातों का कोई परवाह भा करेगा। अर्थात ऊंचे तत्व की धारणॉ करने की शक्ति बहुत कम लोगों में दिखने को मिलती है, और संसार में ऐसे भी महॉपुरुष भी हैं,जिनकी यह धारणॉ है कि चाहे शरीर हजार वर्ष रहे या लाख वर्ष, अन्त में परिणॉम एक ही होगा।जिन शक्तियों के बल से देह कायम है,उनके चले जाने से देह नहीं रहेगी। कोई भी व्यक्ति पल भर के लिए भी शरीर का परिवर्तन रोकने में समर्थ नहीं हो सकता है। क्योंकि यह शरीर कुछ परिवर्तनशील परमाणुओं से बना है। नदी का उदाहर देखो,पल भर में वह चली गई,और उसकी जगह एक एक नईं जल राशि आ गई। जो जल राशि आई वह सम्पूर्ण नहीं है,लेकिन देखने में पहले जलराशि की तरह ही है। हमारा यह शरीर भी ठीक उसी तरह सदैव परिवर्तनशील है। परन्तु इस तरह परिवर्तनशील होने पर भी उसे उसे स्वस्थ और बलिष्ठ रखना आवश्यक है। क्योंकि शरीर की सहायता से ही हमें ज्ञान की प्राप्ति करनी होती है । यही शरीर तो हमारे पास एक सर्वोत्तम साधन है ।।
27-अज्ञान और दुःख पर्यायवाची हैं-
अज्ञानता के कारण ही दुख आता है, ऎसा नहीं कि दुःख तो है लेकिन मैं ज्ञानी हूं। मैं अज्ञानी हूं,इसलिए दुख है।मेरा अज्ञान ही मेरा दुःख है। जिस दिन मैं जान लूंगा,उस दिन दुःख दूर भाग जायेगा।और ऎसा भी नहीं कि यह जानने के बाद ज्ञान की नौका बनाकर दुःख के भवसागर को पार करूंगा। दुःख का तो कोई भवसागर ही नहीं है,बस मेरा अज्ञान ही मेरा दुःख है,मेरी पीडाओं का जन्म दाता है,मेरे अज्ञानता के कारण ही मैं उलझ गया हूं, मैं अपने पैरों पर कुल्हाडी मारने चला था। अपने अज्ञानता के कारण ही मैं अपने को जहर से भरकर अमृत से वंचित हो जाता हूं,यह तो मेरी ही भूल है सिर्फ भूल ।।
28-स्वयं अपने ही विचारों में भिन्नता क्यों होती है-
लेख लिखते समय या विचार व्यक्त करने में यह महशूस किया कि, किसी तथ्य के विश्लेषण में अलग-अलग समय में,एक ही तथ्य के विश्लेषण में भिन्नता पाई जाती है,ऐसा क्यों ? किसी तथ्य के सम्बन्ध में लेख लिखा,फिर दूसरे समय में उसी को पूरा करना है तो विचार बदल गया और पुनः लिखना होता है, फिर यही संसय कि इसमें परिवर्तन की संभावना तो नहीं होगी । पहले से ही अपने लिए तो यह एक शोध का विषय बना रहा। और इस निश्कर्ष पर पहुंचा कि,हमारी मनोवृत्ति दो प्रकार की होती है-एक आंतरिक और दूसरी वाह्य। हर आदमी के तीन चक्षु होते हैं दो सामने दिखने वाले वाह्य चक्षु, और तीसरा ज्ञान चक्षु अंतरिक ।महशूस किया कि जब हमें बाहरी दुनियॉ सेअधिक लगाव होता है अर्थात वाह्य चक्षुओं से माया को देखकर विचार व्यक्त करते हैं तो, उसका सार कुछ और ही होता है,जबकि वह स्थिति जब हम बाहरी दुनियॉ से हटकर परमचैतन्य की ऊर्जा में उसी तथ्य की विवेचना करते हैं तो परिणाम पहले से भिन्न होते है,और इसमें किसी भी प्रकार के सुधार की आवश्यकता महसूस नहीं होती है।जीवन में अलग-अलग परिस्थितियों में,संवेगों में भिन्नता के कारण मनोवृत्ति भी बदल जातीं हैं। जिसका सीधा प्रभाव हमारे विचारों ,लेखों पर पडता है। इस असंतुलन को संतुलित करने का कार्य ज्ञान चक्षु का है,जिसका कि दुहरा रौल है,बस उसे स्मरण दिलाना होता है। इसलिए लेख लिखना हो या किसी विवेचना में भाग लेना हो तो,स्वयं की जॉच कर ले,लेकिन इस बात का ध्यान हर पल रखें,कि आप सिर्फ आप हैं।।
29-आपकी मनोदशा ही आपकी सफलता है-
आपका मनोवृत्ति ही आपके जीवन की सफलता असफलता को निर्धारित करती है ।इसलिए अपनी जिन्दगी को सुखमय बनाने के लिए आज ही और अभी से रुचि और प्रशन्नता को अपनी जिन्दगी में धारण कीजिए।किसी के प्रति अरुचि प्रदर्शित न करें।सबको प्रकृति द्वारा प्रदत्त उपहार समझकर मुस्कराहट के साथ उसका स्वागत कीजिएगा,फिर देखना जिन्दगी खुशी से खिल उठेगी।मन आंनंद से भर उठेगा ।सभी कष्ट,सभी परेशानियॉ पल भर में छू मंतर हो जायेंगे,लगेगा जैसे कभी कोई दुःख था ही नहीं।मन की ज्योति प्रज्वलित हो उठेगी।सभी ओर प्रकाश ही प्रकाश होगा ।सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती नजर आएंगी।हरतरफ आनंदही आनंद होगा ।।
30-सफलता की कसौटी-
सफलता का मार्ग कॉटों से भरा होता है
जीवन में सफला प्राप्ति का मार्ग आसान नहीं है,उसके पग-पग में कॉटे विछे होते हैं। शहद पाने के लिएजहरीले मधुमक्खियों के डंक सहन करने होते हैं।मोती पाना हो तो गहरे समुद्र में मगरमच्छों के बीच से गहरे समुद्र में जाना होता है ।अगर संतान को सुख देना है तो माता-पिता को कष्ट सहन करना होता है । हर उन्नति की के मार्ग में कठिनाइयों का व्यवधान तो होता ही है ।ऐसी एक भी सफलता नहीं है कि कठिनाइयों से संघर्षकिये विना ही प्राप्त हो जाती है ।मनुष्य जाति का यह सबसे बडा दुर्भाग्य होता जब सरलता से सफलता प्राप्त हो जाती, तब वह नीरस हो जाती ।क्योंकि जो भी वस्तु जितनी कठिनता से प्राप्त होती है वह उतनी ही आनंद दायक होती है ।जो वस्तुएं दुर्लभ हैं,सर्व साधारण को वे आसानी से प्राप्त नहीं होती हैं ,और उन्ही को पाने को सफलता कहते हैं।अगर महत्वपूर्ण वस्तु को पाने के लिए कठिनाई न होती तो वे महत्वपूर्ण ही न होते,और उनमें कोई रस न होता ।कोई रस और विशेषता न रहने पर यह संसार बडा ही नीरस एवं कुरूप हो जाता,लोगों को जीवन एक भार की भॉति अप्रिय प्रतीत होने लगता ।।
31-आत्म विश्वास-
सफलता की कुंजी है
फ्रॉस एक बहुत बडा देश था, जिसने छोटे से देश हालैण्ड पर आक्रमण किया,और कई बार किया बहुत प्रयत्न करने के बाद भी हालैण्ड पर विजय प्राप्त न कर सका।फ्रॉस के शासक ने अपने सेनापति को बुलाकर पूछा कि क्या कारण है कि, हम लोग इतने साधन सम्पन्न होने पर भी एक छोटे से देश को पराजित नहीं कर सके ।सेनापति ने नम्रता पूर्वक कहा कि लडाइयॉ मात्र साधनों के बल पर ही नहीं जीती जा सकती हैं ,बल्कि उस देश का आत्म विश्वास और सहयोग भी इसमें अपेक्षित होता है ।इस दृष्टि से हालैण्ड के नागरिक हमसे आगे हैं और वे सहज रूप से पराजय कभी स्वीकार नहीं करते ।प्रास के सेनापति का यह कथन सत्य है, ही है,क्योंकि जब आपका स्वयं पर भी विश्वास नहीं होगा,तो फिर सफलता कैसी।सफलता तभी है,जब आपका स्वयं पर विश्वास है ।।
32-अति महत्वाकॉक्षी न बनें -
अपनी जिन्दगी में महत्वाकॉक्षी होना चाहिए अच्छी बात है,लेकिन अति महत्वाकॉक्षी होना उससे भी बुरी बात है ।अतः आप भी सावधान हो जाइयेगा।कहीं आपकी भी अति महत्वाकॉक्षी तो नहीं हैं। कहीं आपकी निराशा का प्रमुख कारण यह अति महत्वाकॉक्षा तो नहीं है अगर ऐसा है, तो आपकी यह निष्क्रियता, निस्तेजता, उदासीनता,निराशा आदि की असली जड यही अति महत्वाकॉक्षा है।,इसे समाप्त कर दीजिए ।जिन्दगी के वास्तविक लक्ष्य को हमेशा ध्यान रखिए, इसी बीच अगर कुछ अवॉछनीय आकॉक्षाएं जन्म लेती हैं,तो मन द्वारा उन्हैं हटा दीजिए।प्रयत्न कीजिए सफलता अवश्य मिलेगी ।ध्यान रखें कि एक बडी आकॉक्षा को साकार रूप देने की अपेक्षा छोटी-छोटी आकॉक्षाओं की पूर्ति में शक्ति नष्ट कर देने से बडी आकॉक्षा अधूरी रह जाती है और यही असफलता निराशा का प्रमुख कारण होती है। अतः आपको व्यर्थ की आकॉक्षाओं को मन से
विस्मृत कर देना ही उपयुक्त है ।।
33-एक ही माता पिता की संतानें एक समान नहीं होती हैं-
एक ही माता-पिता और एक ही नक्षत्र जन्में हुये बालक गुंण-कर्म-स्वभाव में समान नहीं होते हैं,जैसे कि बेर
और उसके कॉटे एक ही पेड पर उगते हैं लेकिन फिर भी उनका–स्वरूप,गुंण-धर्म उपयोगिता आदि भिन्न-भिन्न होते हैं।यदि बच्चे जुडवा हैं तब भी उनके गुंण -दोष अलग-अलग होते हैं ।अर्थात प्रत्येक बच्चे के गुंण-दोष,प्रवृत्ति, रुचि,क्षमतायें आदि अलग-अलग होती हैं ।इस, लिए सभी बच्चों को उनकी क्षमता के उनुसार ही सम्बंधित क्षेत्रों में भेजना चाहिए ।।
34--जब विनाश का समय आता है,मनुष्य की बुद्धि विपरीत हो जाती है-
जब भगवान श्री राम के बारे में आपने सुना है कि वे चौदह वर्ष के लिए वनवास गये थे तो एक दिन मारीच नामक राक्षस ने स्वर्ण-मृग का रूप धारण किया और कुटी के बाहर विचरण करने लगा। और उसे देखकर सीता माता ने श्री राम को उस मृग को पकडने के लिए कहा,श्री राम उस मृग को पकडने के लिए गये और इधर रावण सीता का हरण करके ले गया ।यहॉ पर सोचने वाली बात यह है कि ऐसा स्वर्ण मृग न पहले किसी ने देखा न किसी ने बनाया और ऐसे मृग के बारे में न पहले कभी सुना गया था, तो फिर ऐसी स्थिति में स्वर्ण मृग का दिखाई देना एक अजीव सी घटना थी और किसी सम्भावित अनहोनी घटना की पूर्व सूचना थी ।फिर भी भगवान श्री राम ने उसकी पडताल नहीं की और मृग को पकडने चल दिय़े ।इसका अर्थ हुआ कि जब किसी मनुष्य पर कोई विपत्ति आने वाली होती है तो फिर उसकी बुद्धि भी उसे विपरीत मार्ग पर पर ही अग्रसर करती है ।अर्थात मनुष्य को कोई भी कार्य करना हो,पहले भली भॉति धैर्यपूर्वक सोच विचारकर लेना चाहिए और यदि आप किसी विषय पर सोचने में सक्षम न हों तो किसी योग्य व्यक्ति से सलाह ले लेनी चाहिए।इससे किसी भी सम्भावित हानि को रोका जा सकता है,या उसका प्रभाव कम किया जा सकता है।विना सोच-विचार किये ही कोई कार्य करने से बहुत अधिक हानि उठानी पड सकती है ।।
35-सफलता हेतु अपनी योजनाओं के बारे में प्रचार न करें-
यदि आपको अपने कार्यों में सफलता प्राप्त करनी है तो योजनाओं के बारे में प्रचार न करें बल्कि मौन रहकर ही उल योजनाओं के क्रियान्वित करने का प्रयास करें ।जो लोग अपनी योजनाओं के बारे में गाते फिरते हैं उनका तो समय और ऊर्जा इसी कार्य में समाप्त हो जाती है –फिर वे उन कार्यों को सम्पन्न ही नहीं कर पाते हैंजिससे समाज में उनका उपहास होता है।कभी-कभी जब उनके विरोधियों को उनकी योजनाओं के बारे में ज्ञात हो जाता है तो वे उनका लाभ उठा लेते हैं । अत- मनुष्य को शॉत रहकर ही अपनी योजनाओं को क्रियान्वित रना चाहिए ।हिन्दू लोगों में यही तो अवगुंण है, कि वह किसी बात को गुप्त नहीं रख पाते हैं।यह अवगुंण पुराने समय से हैं और आज भी है।स्वयं नेता सुभाष चन्द्र बोस तो इसी बात से परेशान थे ।वे यही कहते थे कि भारतीय लोगों को कोई भी बात गुप्त रखनी नहीं आती ।अपनी प्रशंसा के लिए गुप्त बातों को उजागर कर लेते हैं ।।
36-मन विश्व का असीम पुस्तकालय है-
कोई भी ज्ञान बाहर से नहीं आता,सब अन्दर ही है। हम जो कहते हैं मनुष्य जानता है,मनोवैज्ञानिक भाषा में
कहा जाय तो वह आविष्कार करता या प्रकट करता है ।मनुष्य जो कुछ सीखता है,वह वास्तव में आविष्कार करना ही है ।आविष्कार का अर्थ है-मनुष्य का अपनी अनन्त ज्ञानस्वरूप आत्मा के ऊपर से आवरण को हटा लेना । अगर हम कहते हैं कि न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण का आविष्कार किया,तो क्या यह आविष्कार कहीं एक कोने में बैठा हुआ न्यूटन की प्रतीक्षा कर रहा था ?वह तो उसके मन में ही था।समय माया और उसने उसे ढूंड निकाला । संसार ने जो कुछ ज्ञान लाभ किया है,वह मन से ही निकला है।विश्व का असीम पुस्तकालय तुम्हारे मन में ही विद्यमान है ।।
37-भगवान को बाहर प्राप्त करना असंम्भव-
हम बाहर ईश्वर की तलाश करते हैं । अपने से बाहर भगवान को प्राप्त करना असंभव है,क्योंकि बाहर जो ईश्वर-तत्व की उपलव्धि होती है,वह हमारी आत्मा का ही प्रकाश मात्र है । हम ही भगवान के सर्वश्रेष्ठ मंदिर हैं । बाहर जो कुछ उपलब्धि होती है,वह हमारे अभ्यॉतरिक ज्ञान का ही प्रतिबिम्ब है । हमारे मन की शक्तियों की एकाग्रता ही हमारे लिए ईश्वर दर्शन का एकमात्र साधन है । यदि तुम एक परमात्मा को जान सको तो तुम भूत,भविष्यत्,वर्तमान सभी आत्माओं को जान सकोगे । एकाग्र मन मानो दीप है, जिसके द्वारा आत्मा का स्वरूप स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है ।।
38-गाली देने वाले का भी कृतज्ञ बनो-
अगर कोई तुम्हें गाली देता है तो उसके प्रति कृतज्ञ प्रकट करना चाहिए। क्योंकि गाली क्या है,यही देखने के लिए उसने मानो तुम्हारे सामने एक दर्पण रखा है ,और वह तुम्हारे लिए आत्मसंयम का अभ्यास करने के लिए अवसर दे रहा है ।से आशीर्वाद दो और सुखी बनो। अभ्यास करने का अवसर मिले विना व्यक्ति का विकास नहीं हो सकता है, और दर्पण सामने रखे विना हम अपना मुख नहीं देख सकते ।।
39-श्री शिव-
शिव जी एक सन्यासी हैं।वे अतुलनीय हैं,उनका वर्णन शब्दों से नहीं किया जा सकता। शिव सर्वदा पवित्र एवं निष्कलंक हैं ।प्रेम के सिवाय शिव कुछ भी नहीं हैं।प्रेम सुधारता है,पोषण करता है और आपके हित की कामवना करता है ।शिव आपके हितों को ध्यान में रखते हैं ।प्रेम से जब आप दूसरों के हितों का ध्यान रखते हैं तो जीवन का सारा ढॉचा ही बदल जाता है,आप वास्तव में जीवन का आंनंद उठाते हैं । श्री महॉदेव सभी कलाओं ,संगीत तथा ताल के स्वामी हैं ।लयबद्ध जीवन जो हमें प्राप्त है,उसका अभी हमें ज्ञान नहीं है । भिन्न प्रकार के पुष्प जो अपने-अपने समय पर खिलते हैं ।प्रकृति में विभिन्न ऋतुएं आती हैं,इन सारी चीजों को कौन लयबद्ध करता है ?शिव जी स्वयं लय हैं और प्रकृति तथा अन्य सभी चीजों में उसी लय को बनाये रखते है,हर चीज में एक लय है। लयबद्ध व्यक्ति वही है जिसका ह्दय बहुत विशाल है ।किसी भी क्रूर तथा बुरे व्यक्ति को देखते ही यह लय विगड जाता है।एक शॉत सुन्दर झील में तरंगों नहीं होती ,केवल प्रेम होता है और जब यह लय ह्दय की शॉति टूट जाती है तो श्री शिव स्थिति को अपने हाथ में ले लेते हैं ।।
40-मनुष्य खाली हाथ आता है और खाली हाथ जाता है अनुचित है-
यह एक आम धारणा है कि मनुष्य खाली हाथ इस पृथ्वी पर जन्म लेता है और मृत्यु के बाद खाली हाथ जाता है।लेकिन यह सही नहीं है। जब मनुष्य का जन्म होता है उस समय वह सॉसों की पूंजी लेकर आता है जिससे उसका जीवित होना या जन्म लेना कहते हैं,और वह इस पृथ्वी से खाली हाथ नहीं जाता बल्कि अच्छाई की पूंजी और बुराई का बोझ लेकर जाता है जो कि हमारे जीवन भर के कर्मों पर निर्भर करता है। ध्यान रहे हम अपने जीवन में अपनी सॉसों की पूंजी को अज्ञानता के कारण व्यर्थ न गवायें,यह अज्ञानता सत्संग से ही दूर हो सकती है ।