Monday, August 13, 2012

पहले आज को सवारें


1-स्वयं में रचनात्मकता को विकसित करें-
         हमें स्वयं में सभी तरह के रचनात्मकता को विकसित करने के लिए उसके दरवाजे खोलने होंगे ।आज लोगों में अप्रत्याशित ऊर्जा है,लेकिन उन्हैं रचनात्मक कार्यों की की दिशा में मोडने की प्रेरणॉ नहीं दी जा रही है।वह मूल रहित है,किसी आधार के विना,परमात्मा के सम्पर्क के बिना दिशाहीन है, इसलिए वह छितराकर नष्ट होती जा रही है ।रचनात्मकता में यदि उसमें परमात्मा का प्रेम परावर्तित न हो तो वह स्वयं घातक है । वह तो उस वीमार वृक्ष के समान है जो जीवित तो है पर उसमें फल नहीं लगते हैं। चित्रकला का अर्थ केवल रंगों को उतारना ही नहीं है बल्कि उससे अधिक कुछ और भी है,जो कि जीवन का पोषण करता है । इसलिए रचनात्मकता में परमात्मा का प्रेम जीवन का लक्ष्य होना चाहिए ।

2-कलाकार को परमात्मा का आशीर्वाद-
        हर मनुष्य कलाकार हैं, और यदि कलाकार आत्मज्ञानी है तो उसकी कला में परमात्मा के प्रेम की सर्वव्यापी शक्ति परावर्तित होती है ।जब कलाकार की कला और कैनवस आपस में एकाकार हो जाते हैं तब अज्ञात चेतना के कार्य का सूत्रपात होता है।उस सहजता में,आत्मा की अभिव्यक्ति स्वयं होती है।तब मनुष्य रूपी यंत्र(कलाकार)में परमात्मा का आशीर्वाद उतर आता है,इस प्रकार की अनुपम कृति एक यादगार बन जाती है ।जो एक अनोखी कलाकृति,आनंद की वस्तु और हमेशा के लिए सौन्दर्य का प्रतीक हो जाती है,प्रेरणॉ और चैतन्य का स्रोत वन जाती है। जैसे सिस्टीन चैपल में माइकेल ऐंजलो की चित्रकारी या मोजार्ट का संगीत,इस प्रकार की कला मनुष्य की आत्मा में हलचल पैदा कर देती है और विकास के लिए ऊपर उठने की सीढियॉ बन जाती हैं ।



3-बेईमान भी ईमानदार साथी चाहता है-
        जो लोग बेईमान होते हैं वे प्रत्यक्ष में ईमानदारी का समर्थक और प्रशंसक पाये जाते हैं,बेईमान व्यक्ति भी ईमानदार साथी चाहता है। प्रमाणिक व्यक्तियों की तो सर्वत्र मॉग है वे सिर्फ अपने आत्मीय परिजनों में ही सम्मान नहीं पाते बल्कि शत्रु तक उनकी सच्चाई एवं ईमानदारी की प्रशंसा किए बिना नहीं रहते ।


 
4-भगवान की अनुभूति -
        जबतक हमें भगवान दूर प्रतीत होते हैं तबतक अज्ञान है।लेकिन जब हमें अपने अंदर उसका अनुभव होने लगता है, तब यथार्थ ज्ञान का उदय होने लगता है जो कि हमें अपने ह्दय मंदिर में दिखाई देने लगता है और जगत मंदिर में भी वही दिखाई देता है ।जबतक आदमी समझता है कि भगवान वहॉ है तबतक तो वह अज्ञानी है । परन्तु जब वह अनुभव करता है कि भगवान यहॉ है तभी उसे ज्ञान प्राप्त होता है ।


 
5-ईश्वर और जीव का सम्बन्ध-
        ईश्वर और जीव का सम्बंध वैसा ही है जैसा चुम्बक और लोहे का ।तो फिर ईश्वर जीव को आकर्।त क्यों नहीं करते ? इस लिए कि जिसप्रकार कीचड में लिपटा हुआ लोहा चुंबक चुंबक से आकर्षितनहीं होता,उसी प्रकार अत्यधिक माया में लिप्त जीव ईश्वर के आकर्षण का अनुभव नहीं करता,लेकिन जैसे ही पानी से कीचड धुल जाने पर लोहा चुंबक की ओर आकर्षित होने लगता है उसी प्रकार अनवरत् प्रार्थना तथा पश्चाताप के असुओं द्वारा संसारबंधन में डालने वाली माया का वह कीचड धुल जाता है,तो जीव शीघ्र ही ईश्वर की ओर आकर्षित होने लगता है ।



6-भीष्म पितामह की आंख अंतिम क्षण में खुली थी-
        जब भीष्म पितामह देहत्याग के समय शरशय्या पर पडे हुये थे, तब एक दिन उनके नेत्र से आंसू निकलते देख अर्जुन ने भगवान श्री कृष्ण से कहा,हे सखे आश्चर्य की बात है कि पितामह जो सत्यवादी, जितेन्द्रिय, ज्ञानी और ष्ट वस्तुओं में से एक हैं,शरीर त्यागते समय माया से रो रहे हैं ।भगवान त्री कृष्ण ने जब यह बात भीष्म पितामह से कही,तो उन्होंनेकहा,भगवन् आप तो अच्छी तरह जानते हैं कि मैं ममता के कारण नहीं रो रहा हूं, मेरे रोने का कारण यह है कि भगवान की लीला को आजतक में नहीं समझ पाया जिनका नाम मात्र जपने से मनुष्य अनेकोंनेक विपदाओं से तर जाता है,और वे ही भगवान पाण्डवों के सारथी और सखा –रूप में विद्यमान हैं।।


 
7-अवतारी पुरुष की पहचान-
        जिस प्रकार एक रेल का एंजन स्वयं भी आगे बढता ङै और कितने ही मालडिब्बों को भी साथ खीचकर लेजाता है उसी प्रकार वतारी पुरुष भी हजारों-लाखों मनुष्यों को ईश्वर के निकट लेजाता है ।।

8-सबके भीतर परमात्मा विराजमान है-
        मनुष्य तो एक के गिलाफ के समान है ।ऊपर से देखने में कोई गिलाफ लाल है तो कोई काला,लेकिन सबके भीतर रुई भरी होत है,उसी प्रकार मनुष्य देखने में कोई सुन्दर है कोई काला है,कोई महात्मा हैतो कोई दुराचारी है,पर सबके भीतर वही परमात्मा विराजमान है ।।


 
9-संसारिक जीवों में धर्म का प्रभव कम पडता है-
        जिस प्रकार एक मगर पर शस्त्र से वार किया जाय,तो उससे मगर का कुच भी नहीं होता है,बल्कि शस्त्र ही छिटककर अलग गिर जाता है ।इसी प्रकार संसारी जीवों के बीच यदि धर्म चर्ची कितनी ही क्यों न कीजाय,उसके ह्दय पर तनिक भी प्रभाव नहीं पडता ।।


 
10-मन तराजू के पलडे के समान है-
        तराजू का जिधर पल्ला भारी होता है,उधर झुक जाता है और जिधर हल्का होता है,उधर का भाग ऊपर को उठ जाता है। मनुष्य का मन भी तराजू की भॉति है।उसके एक ओर संसार है औरnदूसरी ओर भगवान है । जिसके मन में संसार ,मान इत्यादि का भार धिक होता है, उसका मन संसार की ओर से उठकर भगवान की ओर झुक जाता है ।।


 
11-हमारे हाथ आंखों पर हैं-
        विश्व की समस्त शक्तियॉ हमारी हैं,हमने तो अपने हाथ अपने आंखों पर रख लिए हैं और चिल्लाते हैं कि सब ओर अंधेरा है ।जान लो कि हमारे चारों ओर अंधेरा नहीं है, पने हाथ अलग करो,तुम्हें प्रकाश दिखाई देने लगेगा ,जो कि पहले भी था ।अंधेरा कभी नहीं था, कमजोरी कभी नहीं थी।हम सब मूर्ख हैंजो चिल्लाते हैं कि हम कमजोर हैं,अपवित्र हैं ।।


 
12-एक विचार पालो-
        एक विचार लेलो ।उसी एक विचार के अनुसार जीवन को बनाओ,उसी को सोचो,उसी का स्वप्न देखो और उसी पर अवलम्बित रहो ।शरीर के प्रत्येक भाग को उसी विचार से ओत-फ्रोत होने दो और दूसरेसब विचारों को अपने से दूर रखो यही सफलता का रास्ता है ।।


 
13-ईश्वर के कई रूपों में दिखता है-
        एक बार एक मनुष्य जंगल गया य़वहॉ उसने एक वृक्ष पर एक सुन्दर प्राणी देखा ।घर लौटकर उसने अपने मित्र से कहा कि मैने जंगल में एक पेड पर लाल रंग का एक प्राण देखा,मित्र बोला मैने भी देखा लेकिन वह तो हरा है,तीसरे व्यक्ति ने कहा नहीं उसे तो मैने भी देखा वह तो पीला है,उन्य लोगों ने भी कहा किसी ने कहा सफेद रंग का है किसी ने कोई और रंग बताया ।उन्हैं परस्पर झगडा होने लगा अंत में वे उस वृक्ष के पास गये वहॉ पर एक व्यक्ति बैठा था उसने उनके प्रश्नों के उत्तर में कहा,मैं तो इसी वृक्ष के नीचे बैठा रहता हूं और उस जन्तु को खूब अच्छी तरह से जानता हूं।तुम लोग उसके विषय में जो कह रहे हो सब सही है ।कभी वह लाल होता है कभी पीला,कभी सफेद उसके रंग बदलते रहते हैं और कभी विना रंग का दिखता है ।इसी प्रकार जो निरंतर भगवान का चिंतन करता है वह उनके रूपों तथा अवस्थाओं के बारे में जान सकता है। भगवान के अपने गुंण हैं,साथ ही वे निर्गुंण भी हैं।केवल वही व्यक्ति जो वृक्ष के नीचे रहता है,जानता है कि वह कितने रंगों में दिखाई देता है ।दूसरे लोग, जो पूरे सत्य को नहीं जानते ,परस्पर झगडा करते रहते हैं और कष्ट पाते हैं ।।



14-ईश्वर निराकारव साकार से परे है-
        ईश्वर के वारे में भ्रॉतियॉ निराकार और कार के सम्बंध में ।ईश्वर तो निराकार भी है साकार भी है तथा इससे परे भी है।केवल वे ही स्वयं जानते हैं कि वे क्या हैं।जो लोग उनसे प्रेम करते हैं उनके लिए वे नाना प्रकार से नाना रूपों स्वयं को व्यक्त करते हैं ।किन्तु निश्चित ही वे साकार अथवा निराकार की सीमा से बंधे नहीं हैं ।।



15-श्रद्धा और विश्वास में बहुत बडी शक्ति है-
        एक आदमी से विभीषण ने कहा लो इस चीज को अपने पास कपडे के एक छोर से बॉध के रख लो ,इसके बल पर तुम सहज ही समुद्र पार हो जाओगे ,तुम पानी पर चल सकोगे, लेकिन ध्यान रखना इसे देखना नहीं,नहीं तो डूब जाओगे।वह आदमी पानी पर बडी सरलता से चलते हुय़े आगे बढने लगा–विश्वास में ऐसा ही बल होता है ।लेकिन कुछ दूर जाने पर उसके मन में कुतूहल हुआ-कि विभीषण ने मुझे कौन सी वस्तु दी है कि जिसके बल पर मैं पानी के ऊपर ही ऊपर चला जा रहा हूं ? उसने गॉठ खोल ली और देखा तो उसमें केवल एक पत्ता था, जिसपर लिखा था राम नाम। उसने कहा –बस यही,और तत्काल वह डूब गया ।कहते हैं कि हनुमान ने राम के नाम पर विश्वास करके एक छलॉग में समुद्र को लॉघ दिया था लेकिन रामचन्द्र जी को सेतु बॉधना पडा था ।।


 
16-हम माया के अन्दर सुख ढूंडते हैं-
        इस संसार में जीवन और मृत्यु,शुभ और अशुभ,ज्ञान और अज्ञान का यह मिश्रण ही माया या जगत प्रपंच है ।तुम्हें सुख के साथ ब हुत दुख तथा अशुभ भी मिलेगा ।यह कहना कि मैं केवल शुभ लूंगा,अशुभ नहीं लूंगा, लडकपन है-यह असम्भव है ।।


 
17-संयम क्या है-
        जब हम अपने मन को किसी निर्धारित वस्तु की ओर लेजाकर उस वस्तु में कुछ समय तक के लिए धारण कर सकते हैं,और उसके बाद उसके अन्तर्भाग को उसके बाहरी भाग से अलल करके काफी समय तक उसी स्थिति को बनाये रखते हैं, तो यह संयम कहलाता है।उस स्थिति में बाहरी आकार अचानक गायब हो जाता है यह पता ही नहीं चलता । हममें तो केवल इसका अर्थ मात्र भाषित होता है ।।


 
18-संयम में सफल होना ज्ञान का प्रकाश प्राप्त करना है-
        यदि हम इस संयम को साधन के रूप में अपनाने में सफल हो जाते हैं तो सारी शक्तियॉ हमारे हाथ में आ जाती हैं ।यही संयम योगी का प्रधान स्वरूप है।ज्ञान के विषय तो अनन्त हैं ।जैसे स्थूल,स्थूलतम् सूक्ष्म, सूक्ष्मतम् आदि कई विभागों में विभक्त हैं।संयम का प्रयोग पहले स्थूल वस्तु पर करना चाहिए,और जब स्थूल ज्ञान प्राप्त होने लगे,तब थोडा-थोडा करके सूक्ष्मतम् वस्तु पर प्रयोग करना चाहिए ।।


 
19-भूत और भविष्य का ज्ञान-
        जब मन बाहरी भाग को छोडकर उसके आन्तरिक भावों के साथ अपने को एक रूप करने की अवस्था में पहुंचता है,तब दीर्घ अभ्यास के द्वारा मन केवल उसी की धारणॉ करके क्षण भर में उस अवस्था में पहुंच जाने की शक्ति प्राप्त कर लेता है, लेकिन इसके लिए हमें संयम की परिभाषा को नहीं भूलना चाहिए । और इस अवस्था को प्राप्त करके यदि भूत और भविष्य जानने की इच्छा करे,तो उन्हैं संस्कार के परिणॉमों में संयम का प्रयोग करना चाहिए । फिर भूत और भविष्य को जाना जा सकता है ।



20-कुल श्रेष्ठ कौन हैः-
        किसी कुल में उसी को श्रेष्ठ माना जाता है जो संपूंर्ण प्राणिर्यों को शॉत रखने का प्रयत्न करता है, हमेशा सत्य व्यवहार करता है, कोमल स्वभाव होकर सबका सम्मान करता है, सर्वदा शुद्ध भाव से रहता है।।



21-भूल-सुधार मानव स्वभाव है-
        भूल करके आदमी सीखता है ,पर इसका मतलव नहीं कि जीवनभर भूल ही करता जाये और कहे कि हम सीख रहे हैं । भूल होना स्वाभाविक है, पर अवसर आने पर उसको सबके सामने मानने की हिम्मत करना महॉपुरुषों का ही काम है ।यदि हम पुरानी भूल को नईं तरह से केवल दुहराते रहें तो इससे कोई लाभ नहीं है ।।


 
22-भूल-सुधार मानव स्वभाव है-
        भूल करके आदमी सीखता है ,पर इसका मतलव नहीं कि जीवनभर भूल ही करता जाये और कहे कि हम सीख रहे हैं । भूल होना स्वाभाविक है,पर अवसर आने पर उसको सबके सामने मानने की हिम्मत करना महॉपुरुषों का ही काम है ।यदि हम पुरानी भूल को नईं तरह से केवल दुहराते रहें तो इससे कोई लाभ नहीं है।।


 
23-मन की शक्ति-
        मन स्वभावतः बहिर्मुखी होता है,अर्थात बाहरी विषयों पर अधिक ध्यान रहता है। लेकिन मनोविज्ञान या दर्शन शास्त्र के अनुसार मन एक ऐसी शक्ति है,जिससे वह अपने अन्दर जो कुछ भी हो रहा है,उसे देख सकता है। जिसे अन्तः पर्यवेक्षण शक्ति कहते हैं। मैं तुमसे बात-चीत कर रहा हूं,लेकिन साथ ही मैं मानो एक और व्यक्ति बाहर खडा हूं,और जो कुछ कह रहा हूं उसे सुन रहा हूं। अर्थात एक ही समय चिन्तन और काम दोनों हो रहे हैं। तुम्हारे मन का एक अंश मानो बाहर खडे होकर, जो तुम चिन्तन कर रहे हो उसे देख रहा है। मन की समस्त शक्तियों को एकत्र करके मन पर ही उसका प्रयोग किया जा रहा है। जिस प्रकार प्रकाश की किरणों के सामने घने अन्धकार के गुप्त तथ्य भी खुल जाते हैं। उसी प्रकार एकाग्र मन अपने सब अन्तर्मय रहस्य प्रकासित कर देता है। तभी तो हम विश्वास की सच्ची बुनियाद पर पहुंचते हैं। तभी हमको धर्म की प्राप्ति होती है,हम आत्मा हैं या नहीं,संसार में ईश्वर है या नहीं। यह हम स्वयं देख सकते हैं।जितने भी उपदेश दिये जाते हैं,उनका उद्देश्य सबसे पहले मन की एकाग्रता और उसके बाद ज्ञान प्राप्त करना है।।



24-मन और शरीर का सम्बन्ध-
        मन और शरीर के सम्बन्ध को देखें तो, हमारा मन एक सूक्ष्म अवस्था में है। लेकिन वह इस शरीर पर कार्य करता है। और हमें यह भी स्वीकार करना होगा कि शरीर भी मन पर कार्य करता है। यदि शरीर अस्वस्थ होता है तो मन भी अस्वस्थ हो जाता है,और शरीर के स्वस्थ होने पर मन भी स्वस्थ और तेजस्वी होता है। यदि किसी व्यक्ति को क्रोध आता है तो उसका मन अस्थिर हो जाता है,और मन अस्थिर होने से उसका पूरा शरीर अस्थिर हो जाता है। कुछ लोगों का मन शरीर के अधीन होता है। उनकी संयम शक्ति पशुओं से विशेष अधिक नहीं होती है। इस प्रका के मन पर अधिकार पाने के लिए कुछ वाह्य दैहिक साधनाओं की आवश्यकता होती है,जिसके द्वारा मन को वश में किया जाता है। जब बहुत कुछ मन वश में हो जाय तब हम इच्छानुसार उससे काम ले सकते हैं।


 
25-भोजन के सम्बन्ध में सावधानी-
        हमें भोजन इस प्रकार करना चाहिए,जिससे हमारा मन पवित्र रहे। क्योंकि भोजन के साथ जीव का घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। यदि हम किसी आजायबघर में जाकर देखते हैं तो यह सम्बन्ध स्पष्ट दिखता है। हाथी को देखते हैं,बडा भारी प्रॉणी है,लेकिन उसकी प्रकृति शॉत होती है। और यदि सिंह या बाघ के पिंजडे की ओर जाते है तो देखोगे कि वे बडे चंचल हैं। इससे समझ में आ जायेगा कि आहार का सम्बन्ध कितना भयानक परिवर्त कर देता है। हमारे शरीर में जितनी शक्तियॉ कार्यरत हैं,वे आहार से पैदा हुई हैं,इसे हम प्रति दिन प्रत्यक्ष देखते हैं। यदि हम उपवास करना आरम्भ करें तो हमारा शरीर दुबला हो जायेगा,दैहिक ह्रास होगा,और कुछ दिन बाद मानसिक शक्तियों का भी ह्रास होने लगेगा। पहले स्मृति शक्ति जायेगी,फिर धीरे-धीरे सोचने की सामर्थ्य भी जाती रहेगी। इसलिए साधना की पहली अवस्था में,भोजन के सम्बन्ध में विशेष ध्यान रखना होता है।।



26- हमारा शरीर परिवर्तनशील अणुओं से बना है-
        इस जगत असुर प्रकृति के लोगों की संख्या अधिक है,लेकिन ऐसा भी नहीं है कि देवता प्रकृति के लोग नहीं हैं, यदि कोई कहे कि आओ तुम लोगों को मैं ऐसी विद्या सिखाऊंगा,जिससे तुम्हैं इन्द्रिय सुखों में वृद्धि हो जाय,तो अनगिनत लोग दौडे चले आयेंगे। लेकिन अगर कोई कहे कि आओ में तुम्हैं परमात्मा का विषय सिखाऊंगा तो शायद ही उनकी बातों का कोई परवाह भा करेगा। अर्थात ऊंचे तत्व की धारणॉ करने की शक्ति बहुत कम लोगों में दिखने को मिलती है, और संसार में ऐसे भी महॉपुरुष भी हैं,जिनकी यह धारणॉ है कि चाहे शरीर हजार वर्ष रहे या लाख वर्ष, अन्त में परिणॉम एक ही होगा।जिन शक्तियों के बल से देह कायम है,उनके चले जाने से देह नहीं रहेगी। कोई भी व्यक्ति पल भर के लिए भी शरीर का परिवर्तन रोकने में समर्थ नहीं हो सकता है। क्योंकि यह शरीर कुछ परिवर्तनशील परमाणुओं से बना है। नदी का उदाहर देखो,पल भर में वह चली गई,और उसकी जगह एक एक नईं जल राशि आ गई। जो जल राशि आई वह सम्पूर्ण नहीं है,लेकिन देखने में पहले जलराशि की तरह ही है। हमारा यह शरीर भी ठीक उसी तरह सदैव परिवर्तनशील है। परन्तु इस तरह परिवर्तनशील होने पर भी उसे उसे स्वस्थ और बलिष्ठ रखना आवश्यक है। क्योंकि शरीर की सहायता से ही हमें ज्ञान की प्राप्ति करनी होती है । यही शरीर तो हमारे पास एक सर्वोत्तम साधन है ।।


 
27-अज्ञान और दुःख पर्यायवाची हैं-
        अज्ञानता के कारण ही दुख आता है, ऎसा नहीं कि दुःख तो है लेकिन मैं ज्ञानी हूं। मैं अज्ञानी हूं,इसलिए दुख है।मेरा अज्ञान ही मेरा दुःख है। जिस दिन मैं जान लूंगा,उस दिन दुःख दूर भाग जायेगा।और ऎसा भी नहीं कि यह जानने के बाद ज्ञान की नौका बनाकर दुःख के भवसागर को पार करूंगा। दुःख का तो कोई भवसागर ही नहीं है,बस मेरा अज्ञान ही मेरा दुःख है,मेरी पीडाओं का जन्म दाता है,मेरे अज्ञानता के कारण ही मैं उलझ गया हूं, मैं अपने पैरों पर कुल्हाडी मारने चला था। अपने अज्ञानता के कारण ही मैं अपने को जहर से भरकर अमृत से वंचित हो जाता हूं,यह तो मेरी ही भूल है सिर्फ भूल ।।



28-स्वयं अपने ही विचारों में भिन्नता क्यों होती है-
        लेख लिखते समय या विचार व्यक्त करने में यह महशूस किया कि, किसी तथ्य के विश्लेषण में अलग-अलग समय में,एक ही तथ्य के विश्लेषण में भिन्नता पाई जाती है,ऐसा क्यों ? किसी तथ्य के सम्बन्ध में लेख लिखा,फिर दूसरे समय में उसी को पूरा करना है तो विचार बदल गया और पुनः लिखना होता है, फिर यही संसय कि इसमें परिवर्तन की संभावना तो नहीं होगी । पहले से ही अपने लिए तो यह एक शोध का विषय बना रहा। और इस निश्कर्ष पर पहुंचा कि,हमारी मनोवृत्ति दो प्रकार की होती है-एक आंतरिक और दूसरी वाह्य। हर आदमी के तीन चक्षु होते हैं दो सामने दिखने वाले वाह्य चक्षु, और तीसरा ज्ञान चक्षु अंतरिक ।महशूस किया कि जब हमें बाहरी दुनियॉ सेअधिक लगाव होता है अर्थात वाह्य चक्षुओं से माया को देखकर विचार व्यक्त करते हैं तो, उसका सार कुछ और ही होता है,जबकि वह स्थिति जब हम बाहरी दुनियॉ से हटकर परमचैतन्य की ऊर्जा में उसी तथ्य की विवेचना करते हैं तो परिणाम पहले से भिन्न होते है,और इसमें किसी भी प्रकार के सुधार की आवश्यकता महसूस नहीं होती है।जीवन में अलग-अलग परिस्थितियों में,संवेगों में भिन्नता के कारण मनोवृत्ति भी बदल जातीं हैं। जिसका सीधा प्रभाव हमारे विचारों ,लेखों पर पडता है। इस असंतुलन को संतुलित करने का कार्य ज्ञान चक्षु का है,जिसका कि दुहरा रौल है,बस उसे स्मरण दिलाना होता है। इसलिए लेख लिखना हो या किसी विवेचना में भाग लेना हो तो,स्वयं की जॉच कर ले,लेकिन इस बात का ध्यान हर पल रखें,कि आप सिर्फ आप हैं।।


 
29-आपकी मनोदशा ही आपकी सफलता है-
        आपका मनोवृत्ति ही आपके जीवन की सफलता असफलता को निर्धारित करती है ।इसलिए अपनी जिन्दगी को सुखमय बनाने के लिए आज ही और अभी से रुचि और प्रशन्नता को अपनी जिन्दगी में धारण कीजिए।किसी के प्रति अरुचि प्रदर्शित न करें।सबको प्रकृति द्वारा प्रदत्त उपहार समझकर मुस्कराहट के साथ उसका स्वागत कीजिएगा,फिर देखना जिन्दगी खुशी से खिल उठेगी।मन आंनंद से भर उठेगा ।सभी कष्ट,सभी परेशानियॉ पल भर में छू मंतर हो जायेंगे,लगेगा जैसे कभी कोई दुःख था ही नहीं।मन की ज्योति प्रज्वलित हो उठेगी।सभी ओर प्रकाश ही प्रकाश होगा ।सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती नजर आएंगी।हरतरफ आनंदही आनंद होगा ।।

 
30-सफलता की कसौटी-
        सफलता का मार्ग कॉटों से भरा होता है जीवन में सफला प्राप्ति का मार्ग आसान नहीं है,उसके पग-पग में कॉटे विछे होते हैं। शहद पाने के लिएजहरीले मधुमक्खियों के डंक सहन करने होते हैं।मोती पाना हो तो गहरे समुद्र में मगरमच्छों के बीच से गहरे समुद्र में जाना होता है ।अगर संतान को सुख देना है तो माता-पिता को कष्ट सहन करना होता है । हर उन्नति की के मार्ग में कठिनाइयों का व्यवधान तो होता ही है ।ऐसी एक भी सफलता नहीं है कि कठिनाइयों से संघर्षकिये विना ही प्राप्त हो जाती है ।मनुष्य जाति का यह सबसे बडा दुर्भाग्य होता जब सरलता से सफलता प्राप्त हो जाती, तब वह नीरस हो जाती ।क्योंकि जो भी वस्तु जितनी कठिनता से प्राप्त होती है वह उतनी ही आनंद दायक होती है ।जो वस्तुएं दुर्लभ हैं,सर्व साधारण को वे आसानी से प्राप्त नहीं होती हैं ,और उन्ही को पाने को सफलता कहते हैं।अगर महत्वपूर्ण वस्तु को पाने के लिए कठिनाई न होती तो वे महत्वपूर्ण ही न होते,और उनमें कोई रस न होता ।कोई रस और विशेषता न रहने पर यह संसार बडा ही नीरस एवं कुरूप हो जाता,लोगों को जीवन एक भार की भॉति अप्रिय प्रतीत होने लगता ।।



31-आत्म विश्वास-
        सफलता की कुंजी है फ्रॉस एक बहुत बडा देश था, जिसने छोटे से देश हालैण्ड पर आक्रमण किया,और कई बार किया बहुत प्रयत्न करने के बाद भी हालैण्ड पर विजय प्राप्त न कर सका।फ्रॉस के शासक ने अपने सेनापति को बुलाकर पूछा कि क्या कारण है कि, हम लोग इतने साधन सम्पन्न होने पर भी एक छोटे से देश को पराजित नहीं कर सके ।सेनापति ने नम्रता पूर्वक कहा कि लडाइयॉ मात्र साधनों के बल पर ही नहीं जीती जा सकती हैं ,बल्कि उस देश का आत्म विश्वास और सहयोग भी इसमें अपेक्षित होता है ।इस दृष्टि से हालैण्ड के नागरिक हमसे आगे हैं और वे सहज रूप से पराजय कभी स्वीकार नहीं करते ।प्रास के सेनापति का यह कथन सत्य है, ही है,क्योंकि जब आपका स्वयं पर भी विश्वास नहीं होगा,तो फिर सफलता कैसी।सफलता तभी है,जब आपका स्वयं पर विश्वास है ।।
 
 
 
32-अति महत्वाकॉक्षी न बनें -
        अपनी जिन्दगी में महत्वाकॉक्षी होना चाहिए अच्छी बात है,लेकिन अति महत्वाकॉक्षी होना उससे भी बुरी बात है ।अतः आप भी सावधान हो जाइयेगा।कहीं आपकी भी अति महत्वाकॉक्षी तो नहीं हैं। कहीं आपकी निराशा का प्रमुख कारण यह अति महत्वाकॉक्षा तो नहीं है अगर ऐसा है, तो आपकी यह निष्क्रियता, निस्तेजता, उदासीनता,निराशा आदि की असली जड यही अति महत्वाकॉक्षा है।,इसे समाप्त कर दीजिए ।जिन्दगी के वास्तविक लक्ष्य को हमेशा ध्यान रखिए, इसी बीच अगर कुछ अवॉछनीय आकॉक्षाएं जन्म लेती हैं,तो मन द्वारा उन्हैं हटा दीजिए।प्रयत्न कीजिए सफलता अवश्य मिलेगी ।ध्यान रखें कि एक बडी आकॉक्षा को साकार रूप देने की अपेक्षा छोटी-छोटी आकॉक्षाओं की पूर्ति में शक्ति नष्ट कर देने से बडी आकॉक्षा अधूरी रह जाती है और यही असफलता निराशा का प्रमुख कारण होती है। अतः आपको व्यर्थ की आकॉक्षाओं को मन से विस्मृत कर देना ही उपयुक्त है ।।



33-एक ही माता पिता की संतानें एक समान नहीं होती हैं-
        एक ही माता-पिता और एक ही नक्षत्र जन्में हुये बालक गुंण-कर्म-स्वभाव में समान नहीं होते हैं,जैसे कि बेर और उसके कॉटे एक ही पेड पर उगते हैं लेकिन फिर भी उनका–स्वरूप,गुंण-धर्म उपयोगिता आदि भिन्न-भिन्न होते हैं।यदि बच्चे जुडवा हैं तब भी उनके गुंण -दोष अलग-अलग होते हैं ।अर्थात प्रत्येक बच्चे के गुंण-दोष,प्रवृत्ति, रुचि,क्षमतायें आदि अलग-अलग होती हैं ।इस, लिए सभी बच्चों को उनकी क्षमता के उनुसार ही सम्बंधित क्षेत्रों में भेजना चाहिए ।।


 
34--जब विनाश का समय आता है,मनुष्य की बुद्धि विपरीत हो जाती है-
        जब भगवान श्री राम के बारे में आपने सुना है कि वे चौदह वर्ष के लिए वनवास गये थे तो एक दिन मारीच नामक राक्षस ने स्वर्ण-मृग का रूप धारण किया और कुटी के बाहर विचरण करने लगा। और उसे देखकर सीता माता ने श्री राम को उस मृग को पकडने के लिए कहा,श्री राम उस मृग को पकडने के लिए गये और इधर रावण सीता का हरण करके ले गया ।यहॉ पर सोचने वाली बात यह है कि ऐसा स्वर्ण मृग न पहले किसी ने देखा न किसी ने बनाया और ऐसे मृग के बारे में न पहले कभी सुना गया था, तो फिर ऐसी स्थिति में स्वर्ण मृग का दिखाई देना एक अजीव सी घटना थी और किसी सम्भावित अनहोनी घटना की पूर्व सूचना थी ।फिर भी भगवान श्री राम ने उसकी पडताल नहीं की और मृग को पकडने चल दिय़े ।इसका अर्थ हुआ कि जब किसी मनुष्य पर कोई विपत्ति आने वाली होती है तो फिर उसकी बुद्धि भी उसे विपरीत मार्ग पर पर ही अग्रसर करती है ।अर्थात मनुष्य को कोई भी कार्य करना हो,पहले भली भॉति धैर्यपूर्वक सोच विचारकर लेना चाहिए और यदि आप किसी विषय पर सोचने में सक्षम न हों तो किसी योग्य व्यक्ति से सलाह ले लेनी चाहिए।इससे किसी भी सम्भावित हानि को रोका जा सकता है,या उसका प्रभाव कम किया जा सकता है।विना सोच-विचार किये ही कोई कार्य करने से बहुत अधिक हानि उठानी पड सकती है ।।



35-सफलता हेतु अपनी योजनाओं के बारे में प्रचार न करें-
        यदि आपको अपने कार्यों में सफलता प्राप्त करनी है तो योजनाओं के बारे में प्रचार न करें बल्कि मौन रहकर ही उल योजनाओं के क्रियान्वित करने का प्रयास करें ।जो लोग अपनी योजनाओं के बारे में गाते फिरते हैं उनका तो समय और ऊर्जा इसी कार्य में समाप्त हो जाती है –फिर वे उन कार्यों को सम्पन्न ही नहीं कर पाते हैंजिससे समाज में उनका उपहास होता है।कभी-कभी जब उनके विरोधियों को उनकी योजनाओं के बारे में ज्ञात हो जाता है तो वे उनका लाभ उठा लेते हैं । अत- मनुष्य को शॉत रहकर ही अपनी योजनाओं को क्रियान्वित रना चाहिए ।हिन्दू लोगों में यही तो अवगुंण है, कि वह किसी बात को गुप्त नहीं रख पाते हैं।यह अवगुंण पुराने समय से हैं और आज भी है।स्वयं नेता सुभाष चन्द्र बोस तो इसी बात से परेशान थे ।वे यही कहते थे कि भारतीय लोगों को कोई भी बात गुप्त रखनी नहीं आती ।अपनी प्रशंसा के लिए गुप्त बातों को उजागर कर लेते हैं ।।



36-मन विश्व का असीम पुस्तकालय है-
        कोई भी ज्ञान बाहर से नहीं आता,सब अन्दर ही है। हम जो कहते हैं मनुष्य जानता है,मनोवैज्ञानिक भाषा में कहा जाय तो वह आविष्कार करता या प्रकट करता है ।मनुष्य जो कुछ सीखता है,वह वास्तव में आविष्कार करना ही है ।आविष्कार का अर्थ है-मनुष्य का अपनी अनन्त ज्ञानस्वरूप आत्मा के ऊपर से आवरण को हटा लेना । अगर हम कहते हैं कि न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण का आविष्कार किया,तो क्या यह आविष्कार कहीं एक कोने में बैठा हुआ न्यूटन की प्रतीक्षा कर रहा था ?वह तो उसके मन में ही था।समय माया और उसने उसे ढूंड निकाला । संसार ने जो कुछ ज्ञान लाभ किया है,वह मन से ही निकला है।विश्व का असीम पुस्तकालय तुम्हारे मन में ही विद्यमान है ।।



37-भगवान को बाहर प्राप्त करना असंम्भव-
        हम बाहर ईश्वर की तलाश करते हैं । अपने से बाहर भगवान को प्राप्त करना असंभव है,क्योंकि बाहर जो ईश्वर-तत्व की उपलव्धि होती है,वह हमारी आत्मा का ही प्रकाश मात्र है । हम ही भगवान के सर्वश्रेष्ठ मंदिर हैं । बाहर जो कुछ उपलब्धि होती है,वह हमारे अभ्यॉतरिक ज्ञान का ही प्रतिबिम्ब है । हमारे मन की शक्तियों की एकाग्रता ही हमारे लिए ईश्वर दर्शन का एकमात्र साधन है । यदि तुम एक परमात्मा को जान सको तो तुम भूत,भविष्यत्,वर्तमान सभी आत्माओं को जान सकोगे । एकाग्र मन मानो दीप है, जिसके द्वारा आत्मा का स्वरूप स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है ।।



38-गाली देने वाले का भी कृतज्ञ बनो-
        अगर कोई तुम्हें गाली देता है तो उसके प्रति कृतज्ञ प्रकट करना चाहिए। क्योंकि गाली क्या है,यही देखने के लिए उसने मानो तुम्हारे सामने एक दर्पण रखा है ,और वह तुम्हारे लिए आत्मसंयम का अभ्यास करने के लिए अवसर दे रहा है ।से आशीर्वाद दो और सुखी बनो। अभ्यास करने का अवसर मिले विना व्यक्ति का विकास नहीं हो सकता है, और दर्पण सामने रखे विना हम अपना मुख नहीं देख सकते ।।



39-श्री शिव-
        शिव जी एक सन्यासी हैं।वे अतुलनीय हैं,उनका वर्णन शब्दों से नहीं किया जा सकता। शिव सर्वदा पवित्र एवं निष्कलंक हैं ।प्रेम के सिवाय शिव कुछ भी नहीं हैं।प्रेम सुधारता है,पोषण करता है और आपके हित की कामवना करता है ।शिव आपके हितों को ध्यान में रखते हैं ।प्रेम से जब आप दूसरों के हितों का ध्यान रखते हैं तो जीवन का सारा ढॉचा ही बदल जाता है,आप वास्तव में जीवन का आंनंद उठाते हैं । श्री महॉदेव सभी कलाओं ,संगीत तथा ताल के स्वामी हैं ।लयबद्ध जीवन जो हमें प्राप्त है,उसका अभी हमें ज्ञान नहीं है । भिन्न प्रकार के पुष्प जो अपने-अपने समय पर खिलते हैं ।प्रकृति में विभिन्न ऋतुएं आती हैं,इन सारी चीजों को कौन लयबद्ध करता है ?शिव जी स्वयं लय हैं और प्रकृति तथा अन्य सभी चीजों में उसी लय को बनाये रखते है,हर चीज में एक लय है। लयबद्ध व्यक्ति वही है जिसका ह्दय बहुत विशाल है ।किसी भी क्रूर तथा बुरे व्यक्ति को देखते ही यह लय विगड जाता है।एक शॉत सुन्दर झील में तरंगों नहीं होती ,केवल प्रेम होता है और जब यह लय ह्दय की शॉति टूट जाती है तो श्री शिव स्थिति को अपने हाथ में ले लेते हैं ।।


 
40-मनुष्य खाली हाथ आता है और खाली हाथ जाता है अनुचित है-
        यह एक आम धारणा है कि मनुष्य खाली हाथ इस पृथ्वी पर जन्म लेता है और मृत्यु के बाद खाली हाथ जाता है।लेकिन यह सही नहीं है। जब मनुष्य का जन्म होता है उस समय वह सॉसों की पूंजी लेकर आता है जिससे उसका जीवित होना या जन्म लेना कहते हैं,और वह इस पृथ्वी से खाली हाथ नहीं जाता बल्कि अच्छाई की पूंजी और बुराई का बोझ लेकर जाता है जो कि हमारे जीवन भर के कर्मों पर निर्भर करता है। ध्यान रहे हम अपने जीवन में अपनी सॉसों की पूंजी को अज्ञानता के कारण व्यर्थ न गवायें,यह अज्ञानता सत्संग से ही दूर हो सकती है ।
 


जीवन का संचार-सहजयोग


1-मन की पवित्रता के लिए कुण्डलिनी जागृत करें-
        जब भी आप किसी बुरी आदत में फसने लगते हैं तो आपका अपने पर नियन्त्रण समाप्त होजाता है ,कोई प्रेतात्मा आप में बैठ जाती है और आप समझ नहीं पाते कि उस आदत से कैसे छुटकारा पाया जाय। सहज योग में जब कुण्डलिनी उठती है तो ये मृत आत्मायें आपको छोड देती हैं और आप ठीक हो जाते हैं । मैं तुम्हैं यह कहूंगी कि महॉवीर ने केवल नर्क की बात कही,किजीवन में पाप के दण्डस्वरूप आपको कौन सा नर्क प्राप्त होगा ।अपना हित चाहने वाले मनुष्य के लिए तो नर्क के लिए सोचना कितना भयावह है ।इसलिए कुण्डलिनी जागृत करके नर्क के रास्ते से मुक्ति प्राप्त करें ।


 
2-प्रेम से ह्दयचक्र का पोषण होता है–
        एक सशक्त ह्ददय-चक्र स्वस्थ व्यक्तित्व का आधार है।प्रेम से पोषण पाकर ह्दयचक्र सुख प्रदान करता है। जैसे एक डाक्टर की आत्मीयता और प्रेम उसके इलाज की क्षमता में वृद्धि करता है । आत्मीय और प्रिय होना भी मर्ज का इलाज है । ऐसे व्यक्तित्व की चैतन्य लहरें दूसरे व्यक्तियों को उसी प्रकार आकर्षित करती है,जैसे मधुमक्खी फूलों में स्थित मधु की ओर आकर्षित होती है । प्रेम से ही करुणॉ का जन्म होता है,जिससे हम पिघल जाते हैं ।और विना सोचे-विचारे मानवता की सहायता के लिए निकल पडते हैं । उस समय नैतिक विवशता या मानसिक निर्णय नहीं अपितु एक सहज कार्य होता है ।ह्दय दूसरों के दुखों को देखकर पसीज जाता है,क्योंकि वह दूसरों की परछाई है ।श्री माता जी अक्सर कहती हैं कि दूसरा व्यक्ति है ही कौन,जब मन की सीमित क्षमता परमेश्वर को जानने के लिए असीम हो जाती है ? यदि आप सुर्य और उसका प्रकाश है,यदि आप चन्द्रमा और उसका प्रकाश हैं,तो फिर एक से दो भेद ही कहॉ ? केवल जहॉ अलगाव है वहॉ अलगाव के कारण लगाव महसूस करते हैं । इसलिए आप उससे चिपक जाते हैं। जब मन अपने स्तित्व को भूल जाता है,तब वह सीमित मन असीम आत्मा में बदल जाता है। श्री माता जी के जीवन में तो ऐसी घटनाएं घटती हैं कि दूसरों की पीडा उनके शरीर में महसूस होती है ।और माता जी का शरीर इतना करुणॉमय है कि वह दूसरों के दुखों को अपने में खीच लेती हैं ।और वीमार व्यक्ति स्वस्थ हो जाता है ।।

3-मन की सफाई के लिए ध्यान आवश्यक है-
        यदि मन को साफ करना होता है तो ध्यान करना आवश्यक है ।जिस प्रकार गन्दे पानी में जब हल चल होती हैतो हम अपना प्रतिबिम्ब नहीं देख पाते हैं, उसी प्रकार मन में भी हल-चल होती है तो हम अपने स्वरूप को नहीं देख पाते हैं । इसलिए ध्यान करना आवश्यक होता है। दूसरों की सेवा करें,सेवा से मन शॉत होता है।और जब सेवा करते हो तो उसके बदले में कुछ भी न लें अन्यथा वह सेवा नहीं बल्कि व्यापार हो जायेगा ।

4-ध्यान में आध्यात्मिकता की शक्ति का केन्द्र बनो-
        सत्य से सभी कल्याण होते हैं, सत्य कभी पक्षपात नहीं करता । स्थिरभाव और शान्त चित्त से उसका ध्यान करो,अपने मन को उसके ऊपर एकाग्र करो,इस आत्मा के साथ अपने को एकभावापत्र कर डालो।तब शव्दों का कोई प्रयोजन नहीं रहेगा,तुम्हारा मौन ही सत्य का संचार करेगा । बोलने में शक्ति का ह्रास मत करो,शान्त होकर ध्यान करो ।वाह्य जगत की गतिविधिधियों से अपने को विचलित न होने दें । जब तुम्हारा मन सर्वोच्च अवस्था में पहुंचता है,तब उसकी चेतना तुम्हैं नहीं रहती । शान्त रहकर संचय करो और आध्यात्मिकता के शक्ति का केन्द्र बन जाओ ।।
 

5-एकाग्रता से ज्ञान की प्राप्ति-
        अगर ज्ञान प्राप्त करना है तो एकमात्र उपाय है एकाग्रशक्ति का प्रयोग करना। एक वैज्ञानिक प्रयोगशाला में जाकर अपने मन की समस्त शक्तियों को केन्द्रित कर, वस्तुओं का विश्लेषण करता है,उनपर प्रयोग करता, और फिर उनका रहस्य जान लेता है। खगोलशास्त्री अपने मन की समस्त शक्तियों को एकत्र कर दूरवीन के भीतर से आकाश में प्रयोग करता है,और फिर सूर्य व तारों के रहस्यों का पता लगता है। हम किसी वस्तु में मन का जितना निवेश करते हैं उतना ही हम उस विशय में अदिक जान सकते हैं । यदि प्रकृति के द्वार को खटखटाने और उसपर आघात करने का ज्ञान प्राप्त हो जाय तो प्रकृति अपना रहस्य स्वतः खोल देती है। उस आघात की शक्ति और तीव्रता, एकाग्रता से ही आती है। मानव मन की शक्ति की कोई सीमा नहीं है,वह जितना एकाग्र होता है, उतनी ही उसकी शक्ति एक लक्ष्य पर केन्द्रित होती है, यही एक रहस्य है ।


 
6-योगाभ्यास से विवेकशक्ति में वृद्धि होती है-
        योगाभ्यास से विवेक शक्ति बढने से हमें शुद्धता प्राप्त होती है। हमारे आंखों के सामने का आवरण हट जाता है,तब हम जान लेते हैं कि प्रकृति एक यौगिक पदार्थ है, और उसके सारे दृश्य केवल साक्षी स्वरूप हैं। फिर हमें इस बात का भी ज्ञान होता है कि प्रकृति ईश्वर नहीं है। इस प्रकृति के सारे नियम, सारे संयोग ह्दय के राजा आत्मा को दिखाने के लिए हैं ।दीर्घकाल तक अभ्यास के फलस्वरूप विवेक का जन्म होता है,फलस्वरूप हमारा भय चला जाता है,और मोक्ष की प्राप्ति होती है













7-योगियों का कर्म योग-
        विभिन्न व्यक्तियों में हम जो विभिन्न प्रकार के मन देखते हैं, उनमें वही मन सबसे ऊंचा होता है,जिसे समाधि अवस्था प्राप्त हुई है। औषधि,तपस्या या मंत्रो के वल से शक्ति प्राप्त कर लेते हैं अनकी वासनाएं तो बनी रहती हैं,पर जो व्यक्ति योग के द्वारा समाधि प्राप्त कर लेता है,केवल वही वासनाओं से मुक्त होता है। इस प्रकार का योगी पूर्णता प्राप्त कर लेता है,फिरवासना उनको स्पर्श नहीं कर सकती। वे केवल कर्म किये जाते हैं,दूसरों के हित के लिए,लेकिन उसके फल की चाह नहीं रखते। लेकिन साधारण मनुष्यों के लिए जिन्हैं यह अवस्था प्राप्त नहीं हुई है,उनके कर्म पाप-पुण्य से मिश्रित होते हैं।

 
8-महॉ शक्ति की अभिव्यक्ति-
        इस प्रकृति में महॉशक्ति देखी जाती है,लेकिन स्वप्रकाश नहीं है,वह अपने स्वभाव से चैतन्यरूप नहीं है,केवल आत्मा ही स्वप्रकाश है,उसके प्रकाश से ही प्रत्येक वस्तु प्रकाशित होती है। यदि चित्त का स्वप्रकाश होता तो वह एक साथ ही अपना तथा अपने विषय का अनुभव कर पाता। लेकिन ऐसा नहीं होता। चित्त जब किसी विषय वस्तु में तल्लीन रहता है,तो यह अपने सम्बन्ध में कोई भी चिन्तन नहीं कर सकता। इसलिए मन प्रकाश नहीं है, केवल आत्मा ही स्वप्रकाश है।


9-मॉ होने का मतलब सम्पूर्ण संरक्षण-
        आप अच्छी तरह से जान लें कि मैं आपकी मॉ हूं ।मॉ होने का मतलव होता है कि सम्पूर्ण सिक्योरिटी (संरक्षण)है। मैं आदि मॉ हूं। आदिशक्ति हूं। मॉ बच्चे को जानती है कि उसमें क्या दोष है उसे कैसे ठीक किया जा सकता है कभी ढॉटना पडता है,कभी दुलार से समझाना पडता है ये सिर्फ मॉ का काम है।और कोई कर भी नहीं सकता है आप चाहे मुझसे हजारों मील दूर हों, आपके सॉसारिक नाम चाहे मुझे पता नहो अपने अंग प्रत्यंग के रूप में मैं सबको जानती हूं मैं आप सबके विषय में जानती हूं ।मैने देखा कि जितने भी अवतरण हुये वे बहुत जल्दी चले गये । मगर मॉ की स्थिति भिन्न है। वह तो अपने बच्चे के लिए लडती रहेगी,संघर्ष करती रहेगी,अंतिम झण तक संघर्ष करती रहेगी किउसके बच्चे को सभी आशीर्वाद मिल जाये । एक सच्ची मॉ की यही पहचान है। अपने बच्चे के लिए वहकिसी भी सीमॉ तक जा सकती है ।इस कलयुग में आपकी सहायता करने तथा प्रेम पूर्वक आपको हर बात बताने के लिए आपकी मॉ अवतरित हुई है ।

 
10-यह कहना पाप है कि मैं दुर्वल र्हूं -
        यह न सोचें कि हमारी आत्मा दुर्वल है,ऎसा कहना ही नास्तिकता है,यदि पाप नाम की कोई वस्तु है तो यह कहना ही एकमात्र पाप है कि मैं दुर्वल हूं।आप जो सोचेंगे वही हो जाता है,यहद आप अपने को दुर्वलसमझोगे तो आप दुर्वल हो जायेंगे और यदि बलवान समझोगे तो बलवान बन जाओगे ।

11-सहज योग तथा परमात्मा की खोज-
        हर व्यक्ति के मन में परमात्मा के दर्शन की लालसा होती है,उसकी जिन्दगी में ऐसा क्षण आता है कि वह अपने अहं और संस्कारों को भुलाकर अपनी खोज का विश्लेषण करता है,और फिर दोबारा सत्य की खोज में निकलता है, इसी सत्य का साक्षात्कार तथा अपनी आत्मा की उपस्थिति की अनुभूति ही सहजयोग का संदेश है ।आत्मा प्रेरित करती है और सरस्वती की कृपा से शव्द जुडते जाते हैं ।श्री माता निर्मला देवी ही वे मॉ हैं जिन्होंने इस युग में सत्य को पाने की एक सरल युक्ति सहजयोग का वरदान मानव जाति को दिया है। परमात्मा द्वारा हमारे शरीर में जिस आत्मा को जन्म दिया है उसका अनुभव करने की शक्ति हमें जन्म से ही प्राप्त है,लेकिन इसके प्रकटीकरण करने के लिए हमारे भीतर तीव्र इच्छा तथा सही मार्गदर्शन की आवश्यकता होती है, जब हमारे अन्दर इस शक्ति को जानने तथा पाने की तीव्र इच्छा होती है,तब श्री माता जी स्वयं मार्ग दर्शन करती हैं और हमें स्वयं ही अपनी आत्मा का अनुभव होने लगता है्, और सहज स्थिति में उस आत्मा का परमात्मा से योग हो जाता है। वैसे इच्छाओ की तृप्ति में मनुष्य कभी सन्तुष्ट नहीं होता मगर जब उसे उस परमात्मा का प्रेम और परम चैतन्य की अनुभूति होती है तो,वह तृप्त हो जाता है।जिसमें सत्य के साथ रहने तथा सत्य के लिए अपने आप से प्रश्न करने की हिम्मत हो, परमात्मा की कृपा से उसकी इच्छाऐं पूर्ण होती हैं ।

 
12-सहज योग में ध्यान धारण कैसे क्रियान्वित होता है-
        सहज योग में ध्यान धारण कैसे क्रियान्वित होता है?-सहजयोग-(सह+ज=हमारे साथ जन्मा हुआ)जिसमें हमारी आन्तरिक शक्ति अर्थात कुण्डलिनी जागृत होती है, कुण्डलिनी तथा सात ऊर्जा केन्द्र जिन्हैं चक्र कहते हैं,जो कि हमारे अन्दर जन्म से ही विद्यमान हैं। ये चक्र हमारे शारीरिक,मानसिक,भावनात्मक तथा आध्यात्मक पक्ष को नियन्त्रित करते हैं । इन सभी चक्रों में अपनी-अपनी विशेषता होती है,सबके कार्य बंटे हुये हैं ।कुण्डलिनी के जागृत होने पर सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में फैली हुई ईश्वरीय शक्ति के साथ एकाकारिता को योग कहते हैं ।और कुण्डलिनी के सूक्ष्म जागरण तथा अपनेअन्तरनिहित खोज को आत्म साक्षात्कार(Self Realization) कहते हैं।आत्म साक्षात्कार के बाद परिवर्तन स्वतः आ जाता है ।वर्तमान तनावपूर्ण तथा प्रतिस्पर्धात्मक वातावरण में भी सामज्स्य बनाना सरल हो जाता है और सुन्दर स्वास्थ्य,आनंद,शान्तिमय जीवन तथा मधुर सम्बन्ध कायम करने में सक्षम होते हैं ।
विद्यार्थियों को ध्यान धारण से लाभ-
1-शॉत एवं एकाग्र चित्त – (Silent and Concentrated Attention) (स्वाधिष्ठा चक्र से)
2-स्मरण शक्ति तथा सृजनशीलता में वृद्धि- (Increased Memory and Creativity) (स्वाधिष्ठान तथा मूलाधार चक्र द्वारा )
3-बडों के प्रति आदर तथा सम्मान- (Respect towards Elders) (स्वतः जागृति, नाभि चक्र द्वारा)
4-स्व अनुशासन,परिपक्व और जिम्मेदारी पूर्ण आचरण – (Self Discipline) (आज्ञा चक्र द्वारा)
5-आई क्यू के स्तर में वृद्धि- (Increased IQ, ) (सहस्रार चक्र द्वारा)
6-जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोंण- (Positive Attitude) ( बॉयॉ पक्ष, इडा नाडी)
7-आत्म विश्वास में वृद्धि- (Self Confidence) (ह्दय चक्र) शिक्षकों तथा जन सामान्य को लाभः-
1- सबके प्रति प्रेम एवं करुंणॉमय आचरण (उदार ह्दयचक्र के कारण प्रेम एवं आनंद का भाव)
2-सहन शीलता और धैर्य में वृद्धि (प्रकाशित आज्ञाचक्र – क्षमा शक्ति का उदय)
3-अध्यापकों में विद्यार्थियों के उत्थान के लिए रुचि रखना(सबके प्रति संतुलित एवं समान व्यवहार)


13-कुण्डलिनी शक्ति-
        हमारे शरीर में कुण्डलिनी महॉनतम् शक्ति है जिसने कुण्डलिनी का उत्थान कर दिया उस साधक का शरीर तेजोमय हो उठता है।इसके कारण शरीर के दोष एवं अवॉच्छित चर्वी समाप्त हो जाती है।अचानक साधक का शरीर अत्यन्त संतुलित एवं आकर्षक दिखाई देने लगता है।आंखें चमकदार और पुतलियॉ तेजोमय दिखाई देती हैं। संत ज्ञानेश्वर जी ने कहा है कि शुषुम्ना नाडी में उठती हुई कुण्डलिनी द्वारा बाहर छिडका गया जल अमृत का रूप धारण करके उस प्राणवायु की रक्षा करताहै जो“उठती हैं,अन्दर तथा बाहर शीतलता का अनुभव प्रदान करती है” ।।

14-निर्विचारिता की शक्ति-
        जब आप निर्विचारिता में होते हैं तो आप परमात्मा की श्रृष्ठि का पूरा आनंद लेने लगते हैं,बीच में कोई वाधा नहीं रहती है ।विचार आना हमारे और सृजनकर्ता के बीच की बाधा है ।हर काम करते वक्त आप निर्विचार हो सकते हैं, और निर्विचार होते ही उस काम की सुन्दरता,उसका सम्पूर्ण ज्ञान और उसका सारा आनंद आपको मिलने लगता ङै ।।


15-सहजयोग जीवन का आधार है-
        जीवन में परिपक्व बनने के लिए उदारता गुण होना चाहिए। इसके लिए भौतिक चीजों से मोह त्यागना होगा, उदारता का आनन्द पाने के लिए तो कुछ देना होता है।यदि एक बार आप उदारता का आनन्द लेने लगेंगे तो आप जान जायेंगे कि प्रेम और करुणॉ आपसे दूसरों तक बहने लगी है,यह प्रेम और करुणॉ सभी लोगों तक फैलनी चाहिए। आत्म निरीक्षण करें ,निसंदेह आप उदार बन सकते हो। उदार विवेक आपमें तभी आयेगा जब आप अपने जीवन का लक्ष्य जान जान जायेंगे और यह जानेंगे कि आप किसलिए हैं।

 
16-हमें साक्षी भाव विकसित करना है-
        आदिशक्ति माता जीः- साक्षी स्वरूप का मतलव है कि जब आप चीजों को देखते हैं तो लगता है कि आप नाटक    देख रहे हैं और उस समय आपको लगेगा कि आप नाटक कर रहे हैं।तो हमें स्वयं में साक्षी भाव विकसित करना है। प्रतिक्रिया करने की आदत हमें पड गई हैऔर ऎसा करना हम अपना अधिकारमान बैठे हैं।आपका यह अधिकार आत्मघातक है ।प्रतिक्रिया करना गलत है। साक्षी रूप में आप सभी कुछ देखिए ।एक बार जब आप साक्षी रूप मे देखने लगेंगेतो आप हैरान होंगे किआप माया का खेल देखने लगे हैंऔर इसमें अपना स्थान भी आप देख पायेंगे ।वास्तवमें हम प्रतिक्रिया तब करते हैं जब हमारी निर्णय शक्ति पूर्णतः नष्ट हो जाती है।अपनी इस शक्ति को अन्तर्मुखी बना लीजिए और सेवयं की आलोचना कीजिए ।आप देखेंगे कि आपका अहंकार धीरे-धीरे खत्म होते जा रहा है।


17-क्षमा शक्ति विकसित करें-
        स्वयं में क्षमा शक्ति विकसित करें,आपvमें क्षमा शक्ति जितनी अधिक होगी उतने ही आप शक्तिशाली होंगे। सबको क्षमा कर दें।इस कलियुग में क्षमा के सिवाय और कोई बडा साधन नहीं है । इसके बिना उन्नति सम्भव नहीं है,यदि कोई गलत कहे भी तो उसे सद्बुद्धि से जानें,उसको बकवास करने दो।हमारा ख्याल तो इस तरफ होना चाहिए कि इस गलत बात को सुनकर हमारे अन्दर कोई गलत बात तो नहीं जा रही है। ईसा मसीह ने भी एक ही चीज बताई थी कि सबको क्षमा कर दो ।क्षमा करना जरूरी है। उन्होंने प्रेम पूर्वक उन लोगों के लिए क्षमा की प्रार्थना की थी जिन्होंने उन्हैं क्रूसारोपित किया था ।इसके लिए एक बहुत बडा मंत्र है-तीन बार कहें-(क्षम-क्षम-क्षम) ।


18-क्षमा से भार मुक्त हो जाते हैं—
        क्षमा भूतकाल को भूल जाने से आती है। जो हो गया जो बीत गया उसे भूल जाओ,वर्तमान में तुम खडे हो।सहजयोग में योग्यता पाने के लिए आपको अपने भूतकाल से मुक्त होना पडेगा ।अपराध स्वीकार करने की आवश्यकता नहीं है-क्षमा होनी चाहिए,यदि आपने क्षमा कर दिया तो आप भार मुक्त हो जायेंगे। और जो क्षमा नहीं कर सकता वह सहजयोगी नहीं हो सकता ।यदि क्षमा करना नहीं सीखोगे तो क्षमाशील नहीं आयेगी,जिससे एक दिन हमारे अन्दर ज्यादा नष्ट करने की शक्ति आयेगी और हम ही अपने लोगों को नष्ट करेंगे ।
 
 
19-क्षमा करने से आज्ञा चक्र ठीक हो जाता है-
        आपको यह बात समझनी होगी कि आप अन्य लोगों से ऊपर उठ चुके हो,क्षमा वही कर सकता है जो बडा होता है,छोटा आदमी क्या क्षमा करेगा ,बडी तबियत के लोग क्षमा करते हैं,उनकी क्षमाशीलता बहुत जवर्दस्त होती है।यदि किसी ने गलती कर दी तो उसे माफ कर दीजिए,यदि कल हम गलती करते हैं तो कौन हमको सजा देगा,किसी की गलती पर हमें तो उसे सजा देने का अधिकार ही नहीं है,बस आप क्षमा कर दें सबको। आपका आक्षा चक्र ठीक हो जायेगा।

 
20-अहं (मूर्खतापूर्ण बातें) से मुक्ति पायें-
        अहं का अर्थ है स्वयं अपने से प्रेम करना अर्थात झूठी महानता ।छोटी-छोटी बातों के लिए नाराज हो जाते हैं। आप स्वयं को महान मान बैठते हैं। आपको देखना होगा कि किस प्रकार उसमें अहं कार्यरत है यही तो पतन का कारण है।इसके लिए आपको यह करना है कि जब आप स्वयं में अहं देखने लगते हैं तो इस पर हंसें और सोचें कि मुझमें क्या कमी है ।अहं एक बन्धन नहीं है क्योंकि बन्धन तो बाहर से आता है जबकि अहं आन्तरिक है, किसी भी चीज से यह आ सकता है। अहं को ठीक करने के लिए हमें उसका साक्षी होना है कि सिर्फ इस स्थिति को नाटक के रूप में महशूस करें । साक्षी अवस्था में यह देखना है कि किस प्रकार ये हमें अच्छे मार्ग चलने से रोकता है ।जब अहं भाव बढने लगे तो स्वयं से कहें कि श्रीमान जी आप यह कार्य नहीं कर रहे हैं ,ये कार्य आप नहीं कर रहे हैं, यह बात आप स्वयं सुझाते रहेंगे तो आपमें अहं नहीं बैठेगा ।


21-अहंकार एक दीर्घकाय समस्या है-
        अहंकार जीवन भर चलने वाली समस्या है ।और परमात्मा ने खासकर मनुष्य को अहंकार का वरदान दिया है,इसलिए ये अहंकार मारने से नहीं मरता बल्कि सहजयोग में ये तो स्वयं अपने आप छूट जाता है। इसका समाधान दूसरों को क्षमा करना है,आपको क्षमा करना सीखना है,प्रातःकाल से संध्या तक क्षमा प्रार्थी बनें रहें,अपने दोनों कानों को खींचकर कहें कि हे परमात्मा हमें क्षमा करें,प्रातः काल से सायं-काल तक असका स्मरण करते रहें ।अहं को जीतने के लिए भाषा शैली में परिवर्तन करना होगा ।


22-कर्म-काण्डों से अहंकार बढता हैं-
        उपवास रखने, जप,तपकरने,हवन करने आदि से अहंकार बडता है,क्योंकि अग्नि दायें ओर है।हम जो भी कर्म काण्ड करते हैं उससे अहंकार बढता है इसका इलाज ईसा मसीह ने बताया कि आप सबसे प्रेम करें,अपने दुश्मनों से भी प्रेम करें प्यार के अलावा और कोई इलाज नहीं है-यह परम चैतन्य का प्यार है। यह अहंकार तो हमारा शत्रु है,जिसका सृजन स्वयं हमने किया है,पहला कार्य जो अहं करता है कि वह दूसरे को मूर्ख बनाना चाहता है।अनियंत्रित अहंकार परमात्मा को चुनौती देना है।ये अहं उस स्थान पर है जिसे पार करके आपको सहस्रार में जाना है,आपमें तो एक हजार शक्तियॉ हैं परन्तु अहंकार के कारण आप उनका प्रयोग नहीं कर पाते हैं ।इस अहं में तो कोई विवेक नहीं होता यह तो सिर्फ हमारे मार्ग की बाधा है। माता जी कहती हैं कि अहं के कारण आप विघटित हो जाते हैं ।आप अकेले पड जायेंगे ।अपने अहं की कार्य शैली को देखते रहें।अहं से लडाई नहीं करनी है,बल्कि समर्पण करोयहीं एक मात्र उपाय है अहं को दूर करने का ।


23–धर्म तत्व से मनुष्य की पहचान –
        धर्म ही एक ऎसा तत्व है जो मनुष्य को पशु से अधिक विलक्षण सिद्ध करता है यदि मनुष्य में ईश्वर और धर्म की भावना न रहे तो मनुष्य पशु ही है,वह जडत्व में अपने खाने-पीने तथा शान से जीने को ही जीवन को मानकर अपना मानव जीवन निरर्थक कर देता है । बस धर्म की भावना ही उसे जीवन में अपने भगवान के दर्शन की प्रेरणा देकर उनके हित और सेवा में लगने की ओर प्रवृत्त करती है।


24- सहजयोग कर्मकाण्डों के विरुद्ध है-
        “अहं करोति साहंकारः” अर्थात अगर हम अपने अहंकार को कम करने की कोशिश करते हैं तो अहंकार बढेगा क्योंकि हम अहंकार से ही कोशिश करते हैं।जो लोग सोचते हैं कि हम अपने अहंकार को दबा लेंगे,हर तरह के प्रयोग करते हैं,लेकिन इससे अहंकार नष्ट नहीं होता है बल्कि बढता है क्योंकि अग्नि दायें तरफ है।जो भी कर्मकाण्ड हम करते हैं,उससे अहंकार बढता है,हवन से भी अहंकार बढता हैक्योंकि अग्नि दायें तरफ है।जो भी कर्मकाण्ड हम करते हैं उससे अहंकार बढता है,और हम सोचते हैं कि हम ठीक हैं।हजारों वर्षों से कर्म काण्ड होते आये हैं,लेकिन सहजयोग कर्मकाण्ड का विरोधी है,कर्मकाण्ड की आवश्यकता नहीं है ।

 
25-आध्यात्मिकता-
        यदि हम धर्म या सम्प्रदाय के झगडे की बात करते हैं तो यही प्रकट होता है कि यह आध्यात्मिकता नहीं है।धार्मिक बातें तो हमेशा धोखली बातों के लिए होती हैं। अगर पवित्रता न हो तो आध्यात्मिकता नष्ट हो जाती है। फलस्वरूप आत्मा नीरस हो जाती है, जिससे झगडे शुरू होने लगते हैं। सिद्धान्त,मत,सम्प्रदाय,चर्च,मन्दिर ये तो आध्यात्मिकता की तुलना में नगण्य हैं, इनकी तो आध्यात्मिकता से तुलना नहीं करनी चाहिए,जिस मनुष्य में आध्यात्मिकता जितनी अधिक उन्नत होगी, वह व्यक्ति अच्छाई की दृष्टि से उतना ही उधिक ऊंचा होगा। इसलिए सबसे पहले आध्यात्मिकता अर्जित करना होगा।इसे न भूलें ।धर्म का अर्थ शव्दों,नामों,सम्प्रदायों से नहीं, बल्कि यह एक आध्यात्मिक अनुभूति है।

 
26-आत्म साक्षात्कार का मूल्य समझें-
        आप एक सहजयोगी हैं तो आपको आत्म साक्षात्कार का मूल्य मालूम है,आप अपनी रक्षा स्वयं करते हैं। और आपकी पूरी तरह से रक्षा की जाती है,यह रक्षा आदि शक्ति करती है। लेकिन विश्व में एक विध्वंसक शक्ति भी कार्यरत है, यह आसुरी शक्ति नहीं बल्कि शिव की दिव्य विनाशात्मक शक्ति है। जब कार्य ठीक चलता है तो प्रशन्न होते हैं।परन्तु वे दूर बैठकर हर व्यक्ति को देख रहे हैं,यदि उन्हैं गडबड लगता है तो वे नियन्त्रित करते है, वे नष्ट करना प्रारम्भ करते है। प्राकृतिक विपत्तियॉ,जैसे भूचाल, भूकम्प,या तूफान आदि इसमें फिर आपकी कोई मदद नहीं यदि आप आत्म साक्षात्कारी हैं और आप लोगों को आत्म साक्षात्कार दें तो इन्हैं टाला जा सकता है।
 

27-शक्ति का अन्तिम निर्णय-
        अभी तक हम यह नहीं जानते कि मानव के इतिहास में यह अत्यन्त महत्वपूर्ण तथा भयानकसमय है।अन्तिम निर्णय प्रारम्भ हो चुका है।आज हम अन्तिम निर्णय का सामना कर रहे हैं ।हमें इस बात का ज्ञान नहीं कि सभी शैतानी शक्तियॉ भेड की खाल पहने भेडिये आपको भ्रमित करने के लिए अवतरित हो गये हैं। आपको चाहिए कि बैठकर सच्चाई को पहचॉनें।परमात्मा तो करुंणॉमय है,दयालू है,उन्होंने हमें स्वयं को ज्ञान प्राप्त करने के लिए स्वतंत्रता दी है,परमात्मा ने तो हमें अमीबा से इस मानव तक विकसित किया है । चारों ओर इतने सुन्दर विश्व का सृजन किया है। लेकिन उनके निर्णय का हमें सामना करना होगा। परमात्मा निर्णय वैसा नहीं कि जैसा वह एक नायायाधीश की तरह बैठा हो और बारी-बारी से आपको बुलाये बल्कि परमात्मा ने आपकेअन्दर निर्णायक शक्तियॉ स्थापित कर दी हैं। आपका अकलन करने के लिए परमात्मा ने न्यायाधीशों का एक समूह दण्डाधिकारियों के रूप में आपके अन्दर बैठा दिया है। ये आपके मेरुरज्जु तथा आपके मस्तिष्क में बनाये गये चक्रों में ये विद्यमान हैं।

Sunday, August 12, 2012

मनुष्यत्व जीवन

1-मनुष्यत्व का स्वभाव -
        सामान्यतः जीवन में सुख-दुख का अनुभव तो होता है लेकिन जव मनुष्य अपने सुख से सुखी और अपने दुख से दुखी होता है तो यह पशुता है। मनुष्यता तो तब है जब वह दूसरों के सुख से सुखी और दूसरों के दुख से दुखी होता है । और जबतक वह दूसरों के सुख से सुखी तथा दूसरों के दुख से दुखी होने का अपना स्वभाव नहीं बना देता तब तक वह मनुष्य कहलाने लायक नहीं ।


2-मरने से ही परमात्मा से मिलन सम्भव है-
        जीनन के लिए आपको मरना होगा,बचने की न सोचें। ध्यान से मरना हो तो ध्यान से मरो,प्रेम से मरना हो तो प्रेम से मरें,लेकिन मरें जरूर। आपका होना ही अडचन।मृत्यु से ही परमात्मा से मिलन होगा ।ऎसा न सोचें कि सत्य की खोज धन की खोज की तरह हो जायेगी कि आप गये और धन को खोजकर ले आये और तिजोरियॉ भर ली,सत्य की खोज का ढंग दूसरा है ।आप गये और कभी न लौटेंगे लेकिन सत्य अवश्य लौटेगा ऎसा नहीं कि आप उसे मुठ्ठी में बन्द करके ले गये या सत्य को तिजोरी में रख लोगे ऎसा नहीं होगा,आप सत्य के मालिक नहीं बन सकोगे।जबतक आपको मालिक होने का नशा है तबतक आपको सत्य नहीं मिल सकेगा बस जिस दिन आप चरणों में गिर जाओगे और कहोगे कि मैं नहीं हूं,उसी क्षण सत्य होगा ।सत्य को खोजा नहीं जा सकता खोजने पर मिलेगा नहीं ,बस आप मिटेंगे तो सत्य मिल जायेगा ।बस इसे ध्यान कहें या प्रेंम जिसमें आपको समर्पण करना होगा तभी सत्य के दर्शन होंगे ।

 

3-निर्विचारिता से स्वयं को ज्योतिर्मय कैसे करें-
        निर्विचारिता एक औलौकिक स्थिति है जहॉ से परमात्मा के दर्शन होते हैं, मस्तिष्क को विचारशून्य रखें यही निर्विचारिता है। निर्विचारिता की अवस्था में जो भी घटित होता है वह प्रकाशवान होता है, निर्विचारिता मेंआपके मन में जो विचार आता है वह एक अन्तःप्रेरणा होती है।निर्विचारिता में आप परमात्मा की शक्ति के साथ एक रूप हो जाते है,अर्थात आप परमात्मा में आकर मिल जाते हैं। परमात्मा की शक्ति आपके अन्दर आ जाती है। कोई भी निर्णय लेने से पहले निर्विचारिता में जाओ, अब जो निर्णय सामने आ जाए, उसी को कीजिए, यही सबसे उपयुक्त निर्णय होगा, क्योंकि उसमें आपका ईगो और सुपर ईगो दोनों काम करते हैं। आपका संसार आपके पीछे खडा है, आपने जो भी लौकिक कमाया है,वह आपके पीछे खडा होगा लेकिन निर्विचारिता में करोगो तो आलौकिक व चमत्कारिक निर्णय होगा,आप ऎसा निर्णय लेंगे जो बडे-बडे लोगों के बस में नहीं। किसी भी कार्य को निर्वचारिता में करने से जान जाओगे कि कहॉ से कहॉ डाएनैमिक हो गया मामला। निर्विचारिता में रहना सीखें यही आपका स्थान है,आपका धन, आपका बल, शक्ति, आपका स्वरूप, सौन्दर्य तथा यही आपका जीवन है। निर्विचार होते ही बाहर का यन्त्र पूरा आपके हाथ में घूमने लग जाता है। सिर्फ जीवंतता का दर्शन होगा,आपको उस जगह से दिखाई देगा जहॉ से जीवन की धारा बहती है। इसलिए निर्विचारिता समाधि से स्वयं कोज्योतिर्मय बनाइये यह कार्य कठिन नहीं है । यह स्थिति आपके अन्दर है, क्योंकि विचार या तो इधर से आते हैं या उधर से,ये आपके मस्तिष्क की लहरियॉ नहीं हैं, ये तो आपकी प्रतिक्रियायें हैं लेकिन ध्यान धारण करने पर आप निर्विचार चेतना में चले जाते हैं,यह स्थिति प्राप्त करना आवश्यक हैऔर तब आपके मस्तिष्क में आने वाले मूर्खता पूर्ण एवं व्यर्थ विचार समाप्त हो जाते है, इन विचारोंके समाप्त होने पर ही आपका उत्थान सम्भव है तभी हम आप आप उन्नत होते हैं।


 
4-पत्नी का स्वभाव-
        जहॉ पत्नी का मान-सम्मान होता है,वहॉ देवता निवास करते हैं। पत्नी स्वयं आत्म-त्याग, वफा और पवित्रता की मूर्ति है,जो अपनी मेजवानी से अपने को बिल्कुल मिटाकर पति की आत्मा का अंग बन जाती है। पत्नी या तो प्यार करती है या घृणा ।इसके अलावा उसे बीच का रास्ता नहीं आता ।लेकिन सुकरात का कहना है कि कि स्त्री के सहारे पर चलने वाला पुरुष औंधे मुंह गिरता है।और ऎसा भी कहा जाता है कि आकाश के ओर-छोर का पता चल सकता है पर स्त्री का नहीं।स्त्री की कलाई जितनी नाजुक होती है उतनी ही फौलादी भी होती है। स्त्री जब अपनी कलाकारी दिखाती है तो बडे-बडे तीस मारखॉ चित्त हो जाते हैं। लेकिन मॉ का कलेजा संतान के लिए कभी पत्थर का नहीं हो सकता है।


 
5-परमात्मा का स्वरूप-
        कुछ लोग परमात्मा को साकार तथा कुछ लोग निराकार रूप में देखते हैं,लेकिन परमात्मा तो इन दोनों अवस्थाओं से परे है,केवल वही जानते है जो उस परमात्मा से प्रेम करते है, कि उसका स्वरूप क्या है।परमात्मा से प्रेम करने वाले लोगों को प्रभु अनेक रूपों में दर्शन देते हैं। इसलिए परमात्मा साकार या निराकार तक ही सीमित नहीं है ।


 
6-परेशानियों से मुक्ति में धैर्य सबसे बडा साथी होता है-
        जीवन में विभिन्न प्रकार की आवश्यकताओं तथा कर्तव्यों से हमारी शारीरिक तथा मानसिक शक्तियों पर प्रभाव पडता है जिससे हम व्याकुल तथा तनाव युक्त हो जाते हैं , जबकि परमात्मा का मत है कि आप इस प्रकार अपना स्वभाव बनाइये कि कठोर परिश्रम वाले कार्यों में भी आप सदैव विश्राम का अनुभव करते रहें, यह धैर्य से ही सम्भव है, धैर्य चरित्र का उज्वल अलंकार है । प्रत्येक मनुष्य का यह धर्म है कि वह यह जानें कि जीवन की अत्यन्त महत्वपूर्ण समस्याओं और अपने से मतभेद रखने वाले लोगों के साथ किस प्रकार शॉतिपूर्वक रहा जा सकता है,झगडा-फसाद तो विकृति पैदा करता है। धैर्यवान व्यक्ति अपने विपक्षियों के समक्ष भी विजयी रहता है। धैर्य धारण करने के लिए अपने कार्यों को सम्पन्न करते समय एक दो मिनट का समय निकालकर यह ध्यान कीजिए कि परमात्मा शक्तिमानहै उसी का अंश मेरी आत्मा है,यह शरीर तो साक्षी मात्र है मुझे कार्य के फल की चिन्ता नहीं करनी चाहिए, इस तरह चिंतन करते- करतेआंखें बन्द कीजिए, अपने शरीर कोशिथिल छोडकर देह को पूरा विश्राम लेने दीजिए,विचारों का बोझ मस्तिष्क से निकाल फेंकिए चिंता का बोझ उतारने में आपको जितनी सफलता मिलती है, उतना ही आप स्वयं को समर्थवान व शक्तिवान महशूष करेंगे। चिंता मुक्ति के लिए निम्न बातों को ध्यान में रखें ः-
1-परेशानियों का मुकाबला करने के लिए धैर्य का सहारा लीजिए ।
2-स्वयं में धैर्य का गुंण विकसित करने के लिए उतावलेपन को त्यागना होगा ।
3-अपने विचारों में से असम्भव शब्द को को हटा दें ।
4-किसी परेशानी पर शॉत चित्त से चिंतन करें ।
5-चिंतन सार्थक होना चाहिए ।
6- विना पूर्ण रूप से सोचे विचारे किसी कार्य को प्रारम्भ न करें ।
7-मन में यदि चिंता होती है तो अपने शुभ चिंतकों से इसकी चर्चा करें ।
8-परेशानी की स्थिति में अपने इषट मित्रों त था परिवार वालों तथा पडोसियों से सहायता लें ।
9-किसी अनजान के सामने अपनी समस्या न रखें ।
10-किसी भी कार्य को क्रमवद्ध , स्पष्टतया तथा तसल्ली से करने पर स्वयं में धैर्य का गुंण विकसित होता है


7-परमात्मा दयालू है-
        यदि हमसे कभी कोई भूल होती है तो परमात्मा हमसे बदला नही चाहता है, बल्कि हमको बदलना चाहता है। वह एक न्यायाधीश है,दयालु और क्षमाशील भी है।यदि हम पाश्चाताप करें और उसके जल से स्वयं को निर्मल करें और पवित्र मन से उन गलतियों को न दोहराने का संकल्प करते हैंतो,तब परमात्मा के दर्शन दयालु और क्षमाशील के रूप में होते हैं।


 
8-पवित्र मन एक तीर्थ के समान है-
        हमारे मन के भाव जितने पवित्र होंगे, हम उतने ही ऊचे उठते जायेंगे । इसीलिए निर्मल मन किसी भी तीर्थ से कम नहीं होता है । सिससे हमारा धर्म- ध्यान भी उतना ही परिपक्व होगा । क्योंकि धर्म जीवन का आधार है ।धर्म तो मानव को संसार से पार ले जाने वाली नौका के समान है, जो कि हमें आपस में प्रेम भाव और सुख शॉति की प्रेरणा देता है ।धर्म के अभाव में तो मनुष्य का जीना दूभर हो जाय।


 
9-पहले आज को सवारें-
        हमारे जीवन का स्वर्णिम कल आज पर ही निर्भर है यदि भविष्य को उज्जवलमय करने की आकॉक्षा आपके मन में है तो सबसे पहले आज को सवारना होगा क्योंकि कल के स्वर्णिम भविष्य के महल की दीवार तो आज है। पहले आज को संवारो।बुराई को कल पर टाल दो, और भलाई को आज करने को तत्पर हो जाओ ।


 
10-पहले स्वयं में झॉककर देखें-
        कुछ लोग संसार की चिंता में मरे जा रहे होते हैं । वे अपनी हालत नहीं देखते कि हमारे भीतर क्या हो रहा है, उन्हैं पहले अपने को जान लेना चाहिए,अपने भीतर झाडू लगा लेना चाहिए,फिर दूसरे के घर की चिंता करनी चाहिए ।वे पहले अपने अन्तः जगत की देख भाल कर लें कि अन्दर कितनी गन्दगी भरी है, भीतर कितना कीचड जमा है,कितने विकार,वासनायें इकठ्ठी कर रखी हैं ।ऎसी स्थिति में दूसरों को भी हानि पहुंचायेंगे । अभी तो वे जहर से भरे हैं तो जहर ही फैलायेंगे । पहले स्वयं को अमृत से भर लें फिर संसार की चिंता करना ।


 
11-पाप क्या है-
        पाप एक दुर्भाव है,जिसके कारण हमारेआन्तरिक मन तथा अन्तरात्मा पर ग्लानि का भाव आता है ।जब हम कभी गन्दा कार्य करते हैं तो ह्दय में एक गुप-चुप पीडा का अनुभव होता रहता है,हारे मन का दिव्य भाग हमें प्रताडित करता रहता है,बुरा-बुरा कहता रहता है ।इसी आत्मभर्त्सना से मनुष्य पश्चाताप करने की बात सोचता है ।यह पाप पानी की तरह होता है,यह हमें नीचे की ओर खींचता है ।आप चाहे कितने ही प्रयत्न करें,आन्तरिक पाप से कलुषित मन स्पस्ट प्रकट हो जाता है।अवगुंण से तो मनुष्य की उच्च सृजनात्मक शक्तियॉ पंगु हो जाती हैं,बुद्धि और प्रतिभा कुण्ठित हो जाती है ।किसी भी स्थिति में पाप और द्वेष की प्रवृत्ति बुरी और त्यागने योग्य है ।।

 
12-गुनाह या पाप वह अग्नि है जो सुलगती रहती है-
        हम जो पाप या गुनाह करते हैं वे जलते हुये वे वस्त्र हैं जिन्हैं यदि छिपाकर रखा जाता है तो वह अग्नि अन्दर ही अन्दर सुलगती रहती है, और धीरे-धीरे समीप के वस्त्रों तथा अन्य वस्तुओं को भी जला डालती है।सम्भवतः उस अग्नि का धुआं उस समय न दिखाई दे,लेकिन अदृश्य रूप में वह वातावरण में सदा मौजूद रहता है ।पाप या गुनाह की अग्नि ऐसी अग्नि है,जो अन्दर ही अन्दर मनुष्य में विकार उत्पन्न करती है,इस आन्तरिक पाप की काली छाया अपराधी के मुख,हाव-भाव, नेत्र,चाल-ढाल इत्यादि द्वारा अभिव्यक्त होती रहती है ।अपराधी या पापी चाहे कुछ भी समझता रहे वह अपराध को छिपाना चाहता है,परन्तु वास्तव में पाप छिपता नहीं है।मनुष्य का अपराधी मन उसे सदा व्यग्र,अशॉत और चिंतित रखता है ।।


 
13-पाप में प्रवृत्त मनुष्य के अंग-
        प्रायः मनुष्य के तीन अंग पाप में प्रवृत्त होते हैं । शरीर,वॉणी,और मन ,इनके द्वारा किये गये पाप-कर्मों के नाना रूप होते हैं,इनसे बचे रहें।अर्थात शरीर वॉणी और मन का उपभोग करते हुये सचेत रहें ।कहीं ऐसा न हो कि आत्मसंयम में शिथिलता आ जाय और पाप पथ पग बढ जाय ।कभी-कभी हमें विदित नहीं होता कि हम कब गलत रास्ते पर चलेजा रहे हैं । गुप-चुप पाप हमें बहा ले जाता है और हमें अपनी सोचनीय अवस्था का ज्ञान तब होता है जब हम पतित हो जाते हैं ।


14-पाप कर्म मनुष्य जीवन के लिए अभिशाप है-
        अपने शरीर के द्वारा अनुचित कार्य करना शारीरिक पाप है।इसमेंवे समस्त कुकृत्य हैं,जिन्हैं करने से ईश्वर के मंदिर रूपी इस मानव शरीर का क्षय होता है ।परिणॉम स्वरूप इस काया में नाना प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं, जिससे जीवित अवस्था में ही मनुष्य को कुत्सित कर्म की यन्त्रणॉयें भोगनीं होती हैं ।शरीर के पाप में हिंसा पहला पाप है ।इसमें इस शरीर का अनुचित प्रयोग किया जाता है ।उसे उचित अनुचित का विवेक नहीं रहता है,उसकी मुख मुद्रा में दानव जैसे क्रोध,घृणॉ और द्वैष की अग्नि निकलती है । इस प्रकार के लोगों में मानवोचित्त गुंण क्षय  होकर राक्षसी प्रवृत्तियॉ उत्तेजित हो उठती हैं, मरणोंपरान्त भी उसकी आत्मा अशॉत रहती है ।


15- पाप कर्म कई रूपों में मनुष्य पर आक्रमण करता है-
        पाप कर्म ऐसी घृणित दुष्प्रवृत्ति है जो कई रूपों में और वस्थाओं में मनुष्य पर आक्रमण किया करती है,इसलिए इससे सावधान रहने की आवश्यकता है ।कहते हैं मनुष्य के मन के एक अज्ञात कोने में शैतान का निवास होता है,मनुष्य उस पाप की ओर अज्ञानतावशः खिचता जाता है क्षणिक वासना या थोडे लाभ के अन्धकार में उसे उचित-अनुचित का विवेक नहीं रहता है ,वह अपना स्थाई लाभ नहीं देख पाता है और किसी न किसी पतन के ढालू मार्ग पर आरूढ हो जाता है ।।


16-पूर्णता हमारा स्वभाव व अधिकार है-
        जिस प्रकार किसान को अपने खेतों में पानी की सिंचाई के लिए कहीं से पानी लाने की आवश्यकता नहीं होती है, बल्कि खेत के किनारे ही तालाबब या नहर में पानी है, बीच में एक बॉध होने के कारण खेत में पानी नहीं आ पा रहा है। बस किसान उस बॉध को खोल भर देता है, फिर पानी गुरुत्व बल के नियमानुसार अपने आप खेत में आ जाता है। ठीक उसी प्रकार सभी व्यक्तियों में सभी प्रकार की उन्नति और शक्ति पहले ही से निहित है। पूर्णता ही मनुष्य का स्वभाव है, लेकिन उसके द्वार अभी बन्द हैं। उसे यथार्थ रास्ता नहीं मिल पा रहा है,बीच में एक बाधा है, कोई अगर उस बाधा को दूर कर दे तो वह विद्यमान पहले की शक्तियों को प्राप्त कर लेता है, और जिन्हैं पापी कहते हैं वे भी साधु में बदल जाते हैं, यह प्रकृति तो हमें पूर्णता की ओर ले जाती है, धार्मिक होने के लिए साधनाएं और प्रयत्न हैं बस वे ही तो इस बाधा को दूर करते हैं, जिससे पूर्णता के द्वार खुल जाते हैं। जो कि हमारा जन्मसिद्ध  अधिकार और हमारा स्वभाव भी है ।


 
17-कर्मवाद और आत्मा-
        कर्मवाद में हमें उपने-अपने भले-बुरे कर्मों का फल भोगना होता है। लेकिन देखने वाली बात यह है कि क्या शुभ-अशुभ कर्म आत्मा पर प्रभाव डाल सकते हैं अगर डालते हैं तो आत्मा का स्वरूप क्या है जो इस तरह प्रभावित हो जाती है। वास्तव में अशुभ कर्म मनुष्य के अपने स्वरूप की अभिव्यक्ति में बाधा डालते हैं, और शुभ कर्म उन बाधाओं को दूर करते हैं। स्वयं मनुष्य में कोई परिवर्तन नहीं होता । तुम चाहे जो करो। तुम्हारे अपने स्वरूप को कोई भी नष्ट नहीं कर सकता। आपका असली स्वरूप आपकी आत्मा है।कोई भी वस्तु उस आत्मा पर प्रभाव नहीं डाल सकती।उससे सिर्फ आत्मा पर एक आवरण जैस,पड जाता है,जिससे आत्मा पूर्णतः ढक जाती है।


 
18-जीवन का रहस्य -
        अगर आप जीवन को समझने की कोशिस करते हैं तो समझ में नहीं आयेगा, समझने की बात भूल जाओ, जीवन तो एक रहस्य है,यही जीवन का अर्थ है ।बस सिर्फ जिओ इससे ही सब समझ में आ जायेगा।जीवन के बारे में समझ में आने से संपूर्णता का वोध होता है, लेकिन इसे शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता है, इसलिए जीवन को रहस्य कहते हैं। बस इतना तो निश्चित है कि जीवन को जिया जा सकता है ।उसे समझा नहीं जा सकता


19-प्रकृति द्वारा विपत्ति की क्षति पूर्ति-
        प्रकृति के नियमों में एक विचित्र अद्भुत रहस्य है कि हर विपत्ति के बाद उसकी विरोधी सुविधा उपलब्ध हो जाती है, मृत्यु के बाद जन्म होता है रोग,घाटा,शोक आदि विपत्तियॉ स्थाई नहीं हैं वे तो आंधी की तरह आती हैं और तूफान की तरह चली जाती हैं।उनके जाने के बाद एक दैवीय प्रतिक्रिया होती है जिसके द्वारा उस क्षति पूर्ति के लिए कोई इस प्रकार का विचित्र मार्ग निकल आता है,जिससे बडी तेजी से उस क्षति पूर्ति की किसी न किसी प्रकार पूर्ति हो जाती है, जो आपत्ति के कारण हुई थी ।


20--व्रत की परम्परा मनुष्य ही नहीं पशुओं में भी है-
       सभी धर्मों में व्रत का महत्व है,इससे जीवन अनुशासित होता है।जीवन में आये अनेक संघर्ष स्वतःनष्ट हो जाते हैं।सहिष्णुता में वृद्धि होती है।हमारा जीवन शॉतिप्रिय तथा प्रशन्नचित्त रहता है। व्रत का पालन करने में चित्त की एकाग्रता एवं संकल्प आवश्यक है। व्रत से आत्मा गलत कार्यों के लिए नहीं उकसाती । पशु-पक्षियॉ भी व्रत केनियमों का पालन करते हैं ।जानवर भूखे पेट शिकार करते हैं भरे पेट नहीं करते हैं ।रात्रि के समय भी पशु-पक्षी भोजन नहीं करते तथा सूर्यास्त के बाद अपने गुफाओं व घोंसलों में चलेजाते हैं ।जबकि मनुष्य जीवन में रात-दिन लिप्त सॉसारिक मायामोह से व्रत के नियमों की अवहेलना करता है।जिससे समाज, परिवार, पास-पडोस में कलह व अशॉति बढती जा रही है। धर्म के शाश्वत मूल्य तो व्रत में निहित हैं जिससे जीवन में मानव को सुख- शॉति मिलती है ।


 
21-नेक कमाई के उपभोग से सात्विकता आती है-
        व्यक्ति को अर्थ सुचिता का ध्यान रखना चाहिए। क्योंकि इससे अनेक संयम स्वतः आ जाते हैं ।नेक कमाई से खरीदे अन्न में पवित्रता औ सात्विकता होती है ,क्योंकि पवित्र आहार से पवित्र विचार और पवित्र विचार से आचार व्यवहार पवित्र होता है ।जिन विचारों से आपका अन्तःकरण शुद्ध ,बुद्धि और आपका ह्रदय पूर्ण समर्थन देता हुआ आनन्दित होता है उन विचारों से आपका मन जुड जाता है ।


 
22-प्रभु से एकता ही स्वर्ग है-
        स्वर्ग और पृथ्वी सब हमारे अंदर है, पर अपने अंदर के स्वर्ग से सभी परिचित नहीं हैं । सम्पूर्ण स्वर्ग आपके भीतर है। सारे सुखों का श्रोत आपके भीतर है, ऎसी दशा में अन्यत्र आनंद को ढूंडना कितना अनुचित और असंगत है।


 
23-प्रयत्न ही सफलता की कुंजी है-
        असफलताऔं से न घबडाकर लगातार प्रयत्न करने वालों की गोद में सफलता खुद आकर बैठ जाती है। आदर्श को पकडने के लिए सेकडों बार आगे बढो और यदि सेकडों बार असफल हो जाओ फिर भी एक बार नया प्रयास अवश्य करों । महान ध्येय के प्रयत्न में ही आंनंद है, खुशी है, और एक हद तक प्राप्ति की मात्रा भी प्रयत्न तो एक देवदा है ,इसलिए प्रयत्नदेव की उपासना करना ही श्रेयस्कर है।


 
24-प्रशन्नचित्त होकर जीना सीखें-
        मनुष्य जीवन परमात्मा का एक अनुपम उपहार है, प्रत्येक मानव को यह जीवन गुजारना ही पडता है चाहे रोकर गुजारे या हंसकर गुजारें यह जीवन तो गिने-चुने दिनों का होता है इसे क्यों न प्रशन्नचित्त होकर गुजारें।जीवन में उतार-चढाव होते रहते हैं, इनका सामना करने के लिए स्वयं को प्रशन्नचित रखें, मानसिक द्वंद से बचने के लिए तो हंसना-ही एक मात्र उपाय है ।कठिन से कठिन समस्याओं का हल हंसने मुस्कराने से आसान हो जाता है। यदि जीवन के हर क्षण उलझनों में ही उलझाये रखेंगे तो विक्षिप्त हो जाओगे। प्रशन्नचित्त रहने वाला व्यक्ति बडी-बडी समस्याओं को आसानी से सुलझा देता है।महॉपुरुषों का जीवन देखें तों संघर्षमय जीवन में सफलता पाने का रहस्य उनकी प्रशन्नता का होना रहा है।कवि रविन्द्रनाथ ने कहा है कि जब में अपने आप हंसता हूं तो मेरा बोझ हलका हो जाता है । हंसी यौवन का आनन्द है, सौन्दर्य है, श्रंगार है, जो व्यक्ति इन्हैं धारण नहीं करता उसका यौवन नहीं ठहर सकता। खिलखिलाकर हंसना, हास्य व्यंग और विनोदपूर्ण मुस्कराहटह क्रोधित मनुष्य को भी हंसा देती है प्रशन्नचित्त रहने सो शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य पर चमत्कारी प्रभाव पडते है, तो फिर आप कोशिश करें कि किन कार्यों को करने से खुशी मिलेगी,अपनी खुशी आपस में बॉटकर लुफ्त उठायें,हमेशा तरोताजा तथा जवान रहने के लिए प्रशन्नचित्त रहें खूब हंसें ठहाका लगाकर हंसें यह हंसी परमात्मा की देन है इसलिए जितना चाहें हंसिए फिर देखना जिन्दगी किस तरह खिल उठती है। प्रशन्नचित्त रहकर हंसते समय निम्न बातों को ध्यान में रखें ः- कभी भी हंसने का अवसर न गवायें,सबअच्छा ही होगा को ध्यान में रखें,बच्चों के साथ बच्चा बन जाइये,विपरीत समय में भी प्रशन्नचित्त रहें,छोटी मोटी बातों को हंसकर नजरंदाज कर दें,अपने बचपन की शरारतों को ध्यान में रखें,मूढ ठीक करने के लिए अपने प्रिय गीत को गुनगुनाते रहें,जीवन में व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनायें,उन कार्यों को करें जिनसे आपको सन्तुष्टि होती हो,वर्तमाटन समय में आप जितना खुश रह सकते हों रहें,कल की चिंता भूलकर आज भरपूर भोग करें,क्रोध आने पर किसी व्यंगपूर्ण विषय पर चर्चा न करें, जब अधिक कार्य में व्यस्त होते हो तब साथियों के साथ व्यंग विनोद करते रहें, असामान्य स्थिति में गुस्से पर नियनत्रण रखें , बस आओ इस बात को न भूलें कि– हर वक्त गुल बनकर मुस्कराना ही जिन्दगी है,मुस्कराकरगम भुलाना ही जिन्दगी है। सफलता पर खुश हुये तो क्या , हारकर खुश रहना ही जिन्दगी है ।


25-प्रशन्नचित्त होने की स्थिति -
        प्रशन्नचित्त,हर्ष और शोक से परे की स्थिति है, उसमें न हर्ष होता है और न शोक होता है।प्रशनन्ता तो हमारे चित्त की निर्मलता की स्थिति है ।जब आकाश प्रशन्न होता है तो वर्षा,बादल,धुंध आदि से मुक्त होता है,और केवल प्रकाश,केवल उज्वलता,केवल निर्मलता दिखाई देता है ।प्रशन्नता के साथ अभयता भी साथी के रूप में सदैव सामने रहता है। दोनों साथ-साथ रहते हैं ऎसा नहीं हो सकता कि प्रशन्नता है और अभय न हो और जैसे ही भय सामने आता है वैसे ही प्रशन्नता चली जाती है ।तथा प्रशन्नता के आने पर भय चला जाता है तथा प्रशन्नता के साथ अभय उपस्थित हो जाता है ।


26-अपने प्रति वफादार रहो-
        सेक्सपियर ने कहा था कि अपने प्रकि वफादार बनो । जब कोई परमात्मा के प्रति निष्ठावान होता है तब उसके अन्दर के सद्गुण चमकते हैं ।सत् ही पवित्र है,और उसकी पवित्रता ही सबसे बडी शक्ति है ।वह गुरुत्वाकर्षण है जो अपनी ओर लोगों को आकर्षित करती है। यह वही बल है जो लोगों को अपनी ओर आकर्षित करता है।यह वही बल है,जो समान गुणयुक्त,कल्याणकारी और ईमानदार व्यक्तियों को आकर्षित करता है । इस संसार में ईमानदारी से व्यवहार करने से ही आनंद और संतोष प्राप्त होता है ।
 


प्रेममय जीवन की कसौटी

1-        आज की जिन्दगी में व्यक्ति जब एक-दूसरे को पीछे धकेलते हुए आगे बढ़ने की होड़ में संवेदनाओं को खोता चला जा रहा है, रिश्तों और एहसासों से दूर, संपन्नता में क्षणिक सुख खोजने के प्रयास में लगा रहता है, ऐसी स्थिति में जहां प्यार बैंक-बैलेंस और स्थायित्व देखकर किया जाता है, वहां सच्ची मोहब्बत, पहली नजर का प्यार और प्यार में पागलपन जैसी बातें बेमानी लगती हैं परंतु प्रेम शाश्वत है।
2-        प्रेम सोच-समझकर की जाने वाली चीज नहीं है। कोई कितना भी सोचे, यदि उसे सच्चा प्रेम हो गया तो उसके लिए दुनिया की हर चीज गौण हो जाती है। प्रेम की अनुभूति विलक्षण है। प्यार कब हो जाता है, पता ही नहीं चलता। इसका एहसास तो तब होता है, जब मन सदैव किसी का सामीप्य चाहने लगता है। उसकी मुस्कुराहट पर खिल उठता है। उसके दर्द से तड़पने लगता है। उस पर सर्वस्व समर्पित करना चाहता है, बिना किसी प्रतिदान की आशा के।

3-        जयशंकर प्रसाद ने कहा है कि चतुर मनुष्यों के लिए नहीं है। वह तो शिशु-से सरल हृदय की वस्तु है।’ सच्चा प्रेम प्रतिदान नहीं चाहता, बल्कि उसकी खुशियों के लिए बलिदान करता है। प्रिय की निष्ठुरता भी उसे कम नहीं कर सकती। वास्तव में प्रेम के पथ में प्रेमी और प्रिय दो नहीं, एक हुआ करते हैं। एक की खुशी दूसरे की आँखों में छलकती है और किसी के दुःख से किसी की आँख भर आती है।

4-        आचार्य रामचंद्र शुक्ल कहते हैं कि ‘प्रेम एक संजीवनी शक्ति है। संसार के हर दुर्लभ कार्य को करने के लिए यह प्यार संबल प्रदान करता है। आत्मविश्वास बढ़ाता है। यह असीम होता है। इसका केंद्र तो होता है लेकिन परिधि नहीं होती।’ प्रेम एक तपस्या है, जिसमें मिलने की खुशी, बिछड़ने का दुःख, प्रेम का उन्माद, विरह का ताप सबकुछ सहना होता है। प्रेम की पराकाष्ठा का एहसास तो तब होता है, जब वह किसी से दूर हो जाता है।

5-        खलील जिब्रान के अनुसार- ‘प्रेम अपनी गहराई को वियोग की घड़ियां आ पहुँचने तक स्वयं नहीं जानता।’ प्रेम विरह की पीड़ा को वही अनुभव कर सकता है, जिसने इसे भोगा है। इस पीड़ा का एहसास भी सुखद होता है। दूरी का दर्द मीठा होता है। वो कसक उठती है मन में कि बयान नहीं किया जा सकता। दूरी प्रेम को बढ़ाती है और पुनर्मिलन का वह सुख देती है, जो अद्वितीय होता है।


6-        प्यार के इस भाव को इस रूप को केवल महसूस किया जा सकता है। इसकी अभिव्यक्ति कर पाना संभव नहीं है। बिछोह का दुःख मिलने न मिलने की आशा-आशंका में जो समय व्यतीत होता है, वह जीवन का अमूल्य अंश होता है। उस तड़प का अपना एक आनंद है।

7-        प्यार और दर्द में गहरा रिश्ता है। जिस दिल में दर्द ना हो, वहाँ प्यार का एहसास भी नहीं होता। किसी के दूर जाने पर जो खालीपन लगता है, जो टीस दिल में उठती है, वही तो प्यार का दर्द है। इसी दर्द के कारणप्रेमी हृदय कितनी ही कृतियों की रचना करता है।
8-प्रेम को लेकर जो साहित्य रचा गया है, उसमें देखा जा सकता है कि जहाँ विरह का उल्लेख होता है, वह साहित्य मन को छू लेता है। उसकी भाषा स्वतः ही मीठी हो जाती है, काव्यात्मक हो जाती है। मर्मस्पर्शी होकर सीधे दिल पर लगती है।


9-        प्रेम में नकारात्मक सोच के लिए कोई जगह नहीं होती। जो लोग प्यार में असफल होकर अपने प्रिय को नुकसान पहुंचाने का कार्य करते हैं, वे सच्चा प्यार नहीं करते। प्रेम सकारण भी नहीं होता। प्रेम तो हो जाने वाली चीज है।
10-प्रेम की पहचान-
        प्रेम की बात सब जगह सुनाई देती है,हर कोई कहता है,प्रेम हो गया ,ईश्वर से प्रेम करो । लेकिन मनुष्यों को पता नहीं कि प्रेम है क्या ।यदि वे जानते तो इसके सम्बंध में ऐसी खोखली बातें नहीं करते ।प्रेम करने वाले के बारे में शीघ्र पता चल जाता है कि उसके स्वभाव में प्रेम है कि नहीं।एक स्त्री प्रेम की बात करती है लेकिन तीन मिनट में पता चल जाता है कि वह प्रेम नहीं कर सकती है।इस संसार में प्रेम की बातें तो भरी पडीं हैं ,लेकिन प्रेम करना कठिन है।प्रेम कहॉ है?और प्रेम है, यह तुम कैसे जानते हो ?प्रेम का पहला लक्षण तो यह है कि इसमें व्यापार या शौदागरी नहीं होती है।तब तक तुम किसी मनुष्य से कुछ पाने की इच्छा से प्रेम करते हो तो,जान लो बह प्रेम नहीं है। वहॉ कोई प्रेम नहीं रहता ।जब कोई मनुष्य ईश्वर से प्रार्थना करता है,मुझे यह दो, मुझे वह दो,तो वह प्रेम नहीं है।वह प्रेम कैसे हो सकता है?मैं तुम्हें एक प्रार्थना सुनाता हूं और तुम मुझे उसके बदले कुछ दो, यह तो वही दुकानदारी की बात हो गई ।प्रेम का पहला लक्षण है वह शौदा करना नहीं जानता,वह तो सदा देता है।प्रेम सदा देने वाला होता है,लेने वाला कभी नहीं ।भगवान से प्रेम करने वाला कहता है कि ,यदि भगवान चाहे तो मैं अपना सर्वस्व उन्हैं दे दूं,पर मुझे उनसे कोई चीज नहीं चाहिए ।मुझे इस दुनियॉ में किसी चीज की चाह नहीं है।मैं उनसे प्रेम करता हूं,बदले में मैं कुछ नहीं मॉगता। मुझे न उनकी शक्ति चाहिए ,न उनकी शक्ति का प्रदर्शन । वे तो प्रेम स्वरूप भगवान हैं।

11-प्रेम में कोई भय नहीं रहता है-
        जब प्रेम होता है तो भय नहीं रहता ।क्या कभी बकरी शेर पर,चूहा बिल्ली पर या गुलाम अपने मालिक पर प्रेम करता है?गुलाम लोग कभी-कभी प्रेम दिखाया करते हैं,पर क्या वह प्रेम है? क्या डर में तुमने प्रेम देखा है? ऐसा प्रेम तो सदा बनावटी होता है।जबतक मनुष्य की ऐसी भावना है कि ईश्वर आकाश में बादलों के ऊपर बैठा है,एक हाथ में पुरुष्कार और दूसरे हाथ में दण्ड,तब तक प्रेम नहीं हो सकता ।प्रेम के साथ भय या किसी भयदायक वस्तु का विचार नहीं आता ।मान लो ,एक युवती माता सडक से जा रही है और एक कुत्ता उसकी ओर भौंकने लगा,तो वह पास वाली मकान में जायेगी ।और दूसरे दिन उसके साथ उसका बच्चा भी है और एक सिंह उस बच्चे पर झपटता है,तब वह माता कहॉ जायेगी? तब तो वह अपने बालक की रक्षा करके सिंह के मुख में प्रवेश कर जायेगी।प्रेम तो सारे भय को जीत लेता है।उसी प्रकार ईश्वर का प्रेम है वह चाहे दण्डदाता है या वर दाता है इसकी किसे परवाह है ?जिन्होंने ईश्वर के प्रेम का स्वाद कभी नहीं लिया,वे ही उससे डरते हैं और जीवन भर उसके सामने भय से कॉपते हैं।अतः डर को दूर करें ।

12-प्रेम तो एक सर्वोच्च आदर्श है-
        प्रेम करने वाला जब सौदागरी छोड देता है और समस्त भय दूर भगा देता है , तब वह ऐसा अनुभव करने लगता है कि प्रेम ही सर्वोच्च आदर्श है।कितनी ही बार एक रूपवती स्त्री कुरूप पुरुष से प्यार करते देखी गई है ।कितनी बार एक सुन्दर पुरुष किसी कुरूप स्त्री से प्रेम करते देखा गया है ,ऐसे प्रसंगों में आकर्षक वस्तु कौनसी है? बाहर से देखने वालों को तो कुरूप पुरुष या कुरूप स्त्री ही दिख पडती है,लेकिन वह प्रेम तो नहीं देखता।प्रेमी की दृष्टि में उससे बढकर सुन्दरता और कहीं नहीं दिखाई देती ।ऐसे कैसे होता है ?जो स्त्री कुरूप पुरुष को प्यार करती है,उसका अपने मन में जो सौंदर्य का आदर्श है,उसे लेकर उस कुरूप पुरुष पर आरोपित करती है,वह जो अपासना या प्यार करती है ,वह उस पुरुष को नहीं बल्कि अपने आदर्श को डालकर उसे आच्छादित कर देती है। यही वात सभी प्रेम पर लागू होती है।जैसे भाई या बहिन साधारण रूप के हैं तो भाई या बहिन होने का भाव ही उन्हैं हमारे लिए सुन्दर बना देता है ।

13-प्रेममय हो जाना ही जीवन है-
        प्रभु ने हमें अपार प्रेंम दिया है तो फिर घुट-घुट कर क्यों जीते हो। प्रेम अनुभव की चीज नहीं है, वह तो स्वयं आप में है,यदि किसी से मिलते हो तो मिलते ही खूब हंसने लग जाते हो,खुश हो जाते हो,इसके लिए आपने कोईप्रयत्न तो नहीं किया यह तो अपने आप हुआ। प्रेम तो मॉगने से कम हो जाता है देने से बढता है,क्योंकि हर व्यक्ति प्रेम चाहता है। और प्रेम चाहने से नहीं होता बल्कि प्रेम देने से होता है। देखने,मिलने से प्रेम होता है। प्रेम से प्यार हो जाता है और प्यार से त्याग हो जाता है तथा यह त्याग ज्ञान में बदल जाता है। जिससे हम प्रेम करते है उसकी हर बात बहुत ध्यान से सुनते हैं। उसका हर काम हर बात बहुत ही अच्छी लगती है,सुन्दर लगती है,इसलिए सबसे प्रेम करों, उस प्रभु से प्रेम करो सब सुन्दर लगेंगे ।

14-प्रेममय जीवन-
        स्वयं पर विजय प्राप्त करें तो तत्वज्ञानी बन सकते हो जिस मनुष्य ने स्वयं के ऊपर अधिकार प्राप्त कर लिया,उसके ऊपर संसार की कोई भी चीज अपना प्रभाव नहीं डाल सकती,उसके लिए तो किसी भी प्रकार का बन्धन शेष नहीं रह जाता ।उसका मन स्वतंत्र हो जाता है ।और वही पुरुष संसार में रहने योगय है।सामान्यतः देखा जाता है कि संसार के सम्बंध में दो प्रकार की धारणॉएं होती हैं।कुछ लोग निराशावादी होते हैं ।वे कहते हैं-संसार कैसा भयानक है,कैसे दुष्ट है।और करछ लोग आशावादी होते हैं और कहते हैं-अहा संसार कितना सुंदर है,कितना आंनंद है । जिन लोगों ने अपने पर विजय प्राप्त नहीं की है,उनके लिए यह संसार या तो बुराइयों से भरा है,या अधिक से अधिक,अच्छाइयोंऔर बुराइयों का एक मिश्रण है ।और यदि हम अपने मन पर विजय प्राप्त कर लेंते हैं,तो यही संसार सुखमय हो जाता है ।फिर हमारे ऊपर किसी बात के अच्छे या बुरे भाव का असर न होगा।इसके लिए अभ्यास जरूरी है।पहले श्रवण करें,फिर मनन करें,फिर अमल करें।प्रत्येकयोग के लिए यही बात सत्य है ।सब बातों को एकदम समक्ष लेना बडा कठिन है।इसमें हमें स्वयं को सिखाना होता है। बाहर के गुरु तो केवल उद्दीपन कारण मात्र हैं, जो कि हमारे अंदर के गुरु कोसब विषयों का मर्म समझने के लिए प्रेरित करते हैं, बहुत सी बातें स्वयं की विचारशक्ति से स्पष्ट हो जाती है और उनका अनुभव हम अपनी ही आत्मा में करने लगते हैं,और यह अनुभूति ही अपनी प्रवल इच्छा में परिवर्तित हो जाती है। पहले भाव फिर इच्छाशक्ति ।इससे कर्म करने की जबरदस्त इच्छा शक्ति पैदा होती है,जो हमारे प्रत्येक नस,प्रत्येक शिरा और प्रत्येक पेशी में कार्यकरती है,जबतक कि हमारा समस्त शरीर इस निष्काम कर्मयोग का एक यंत्र ही नहीं बन जाता,तबतक निरंतर अभ्यास जरूरी है ।फिर सुकदेव जैसे योगी बन सकते हो ।


15-प्रेम में इन्द्रियों व देह का सम्बन्ध नहीं होता-
        ज्ञानी लोग प्रेम से मुक्त होते हैं। वे किसी को व्यक्तिगत रूप से प्रेम नहीं करते, और न वे दूसरों कोव्यक्तिगत रूप से अपने प्रति प्रेम करना, और अपने में आसक्त होना देना चाहते हैं। इसीलिए वे किसी के प्रति माया-मोह में नहीं फंसने देना चाहते हैं। वे तो अपनी आत्मा और भगवान को सभी में देखते हैं,अतः सभी जीवों परउनका प्यार और स्नेह समान होता है। उनके प्रेम में, देह और इन्द्रियों का कोई सम्बन्ध नहीं होता। कामान्ध नहीं। ज्ञानी तो प्रकृत प्रेमी होता है और प्रकृत प्रेमी ही ज्ञानी होता है ।

16-प्रेम और ध्यान एक दूसरे के पूरक हैं -
बिना ध्यान के प्रेम संभव नहीं है और बिना प्रेम का ध्यान सम्भव नहीं है ।प्रेम ध्यान का एक ढंग है। लेकिन आपने तो प्रेम का अपना अलग ही अर्थ बना दिया , अगर आपके प्रेम से सत्य मिलता तो पहले ही मिल गया होता । उस प्रेम को तो आप कर ही रहे हो पत्नी से प्रेम ,बच्चे से प्रेम,पिता से प्रेम,मित्रों से प्रेम ऎसा प्रेम तो आपने जन्म से किया है । आप तो प्रेम को देह की भाषा में अनुवाद करते हैं, मेरे लिए तो प्रेम का वही अर्थ है जो प्रार्थना का है । प्रेम का अर्थ है अभिन्नता का बोध, हमें और किसी दूसरे के बीच एकता का अनुभव होना ,प्रेम प्रार्थना है । जहॉ प्रेम है वहॉं ध्यान है ,और जहॉ ध्यान है वहॉ प्रेम है ।


17-प्रेम में पडना वास्तविक पतन है-
        प्रेम में पडना महॉकाली की माया फैलती है और आप आसक्त हो जाते हैं।आपके अहं को बढावा मिलता है ।ऐसे मामलों में दो चीजें हो सकती हैं,अपनी पत्नी या पति,प्रेमी या प्रेमिका जिसके आप भक्त हैं,जिसकी प्रशंसा करते हैं ,उसी के कारण आप पूर्णतः खो जाते हैं,समाप्त हो जाते हैं आपका व्यक्तित्व समाप्त हो जाता है,आप हमेशा के लिए टूट जाते हैं,और फिर एक दुसरे से घृणा करने लगते हैं।इसीलिए कहा जाता है कि –“प्रेम और घृणा सम्बन्ध’ प्रेम किस प्रकार घृणा हो सकता है,परन्तु देवी के इस गुण के कारण ऐसा हो जाता है। एक ओर तो अति प्रेममय, अति करुणांमय और अति कोमल है।परन्तु उसके बाद आपको दूसरी ओर धकेल देती है, इसी कारण जो लोग प्रेम में पडते हैं वे सभी मर्यादायें लॉघ जाते हैं।प्रेम में पडकर वे ऐसे व्यक्ति से विवाह कर लेते हैं कि जो पहले ही विवाहित है,एक वृद्ध महिला युवा व्यक्ति से विवाह करती है।वृद्ध पुरुष युवा लडकी से विवाह कर लेता है,उनमें मर्यादा बिल्कुल नहीं होती है। अतः सावधानी रहें कहीं खो न जायें।

18-प्रेम ज्ञान और मोह अज्ञान है -
        प्रेम और मोह के सम्बन्ध में अगर अन्तर देखें तो , अन्तर के लिए पहला तथ्य स्वयं के सम्बन्ध में सामने आता है कि – मैं अपने आप को जानता हूं अथवा नहीं जानता हूं -इस वाक्य के उत्तर में – मैं कौन हूं- इसको न जानने से जो प्रीति पैदा होती है यह मोह है। और मैं कौन हूं -इसको जानने से तो वास्तविक प्रेम आता है । अतः प्रेम ज्ञान है और मोह अज्ञान है । प्रेम समस्त के प्रति है,वह स्वयं में है , वह किसी से होता नहीं है, बुद्ध उसे करुणॉ कहते हैं , महॉवीर उसे अहिंसा कहते हैं,वह अकारण है, नित्य है, इसलिए प्रेम निर्पेक्ष है । जबकि मोह सापेक्ष है क्योंकि मोह तो नित्य नहीं है, यह किसी कारण से होता है ,यह एक के प्रति होता है इसलिए दुख का मूल है । प्रेम तो तब आता है जब मोह जाता है । मोह की मुक्ति से ही प्रेम होता है और इसे पा लेना सब कुछ पा लेना है।प्रेम तो मुक्ति प्राप्त कर लेना है ।


19-प्रेम ज्ञान और मोह अज्ञान है-
        प्रेम और मोह में तुलना करने के लिए पहला प्रश्न है कि - मैं अपने आप को जानता हूं अथवा नहीं जानता हूं-इस वाक्य के उत्तर में-मैं कौन हूं-इसको न जानने से जो प्रीति पैदा होती है यह मोह है। और मैं कौन हूं-इसको जानने से तो वास्तविक प्रेम आता है। अतःप्रेम ज्ञान है और मोह प्रेम और मोह के सम्बन्ध में अगर अन्तरदेखें तो,अन्तर के लिए पहला तथ्य स्वयं के सम्बन्ध में सामने अज्ञान है।प्रेम समस्त के प्रति है,वह स्वयं में है,वह किसी से होता नहीं है, बुद्ध उसे करुणॉ कहते हैं,महॉवीर उसे अहिंसा कहते हैं,वह अकारण है,नित्य है, इसलिए प्रेम निर्पेक्ष है। जबकि मोह सापेक्ष है क्योंकि मोह तो नित्य नहीं है,यह किसी कारण से होता है,यह एक के प्रति होता है,इसलिए दुख का मूल है।प्रेम तो तब आता है जब मोह जाता है। मोह की मुक्ति से ही प्रेम होता है और इसे पा लेना सबकुछ पा लेना है। प्रेम तो मुक्ति प्राप्त कर लेना है ।

20प्रेम में हमें वहीं दिखाई देता है जो हम हैं –
        प्रेम एक दर्पण हैं इसलिए हमें प्रेम में वहीं दिखाई देता है जो हम हैं।यदि हम दुखी हैं तो हमें दुख ही दुख दिखाई देता है।अगर हम आनन्दित हैं तो हमें आनन्द ही आनन्द दिखाई देता है । और यदि हमें परमात्मा का अनुभव हुआ है तो हमें हर- प्रेम पात्र में परमात्मा दिखाई देगा , और निश्चित रूप से जब प्रेम प्रगाढ होता है तो हमारा परमात्मा तक पहुंचने का सेतु बन जाता है

21-प्रेम से ह्दयचक्र का पोषण होता है-
        प्रत्येक धर्म में प्रार्थनाएं हैं । पर एक बात ध्यान में रखनी होगी कि आरोग्य या धन कमाने के लिए प्रार्थना करना भक्ति नहीं है, यह तो कर्म है ।किसी भौतिक लाभ के लिए प्रार्थना करना कर्म है,जैसे स्वर्ग प्राप्त करने के लिए या किसी अन्य कार्य के लिए जिसमें ईश्वर से प्रेम करना होता है,वह भक्त होना चाहता है,उसे ऐसी प्रार्थना छोड देनी चाहिए।प्रार्थना तो दुकानदारी हो गई,क्रय-विक्रय ।इस दुकानदारी की गठरी बॉधकर अलग रख देनी चाहिए, फिर उस प्रदेश के द्वार में प्रवेश करना चाहिए। जिस वस्तु के लिए प्रार्थना करनी थी विना प्रार्थऩा के पा सकते हो, तुम प्रत्येक वस्तु को पा सकते हो। लेकिन यह तो भिखारियों का धर्म हो गया ।मूर्ख ही कहा जायेगा उन लोगों को जो गंगा के किनारे बैठकर कुंवॉ खोदते हैं, या हीरों की खान में कॉच के टुकडों की खोज करते हैं।आश्चर्य है ईश्वरके पास मॉगा भी तो आरोग्य,भोजन, या कपडे काटुकडा। इस शरीर ने कभी न कभी मरना ही है तो फिर इसकी आरोग्यता के लिए बार-बार प्रार्थना करने से क्या लाभ ?आरोग्य और धन में रखा ही क्या है,मनुष्य अपने जीवन में थोडे से ही अंश का उपभोग कर सकेगा ।हम संसार की सभी चीजें प्राप्त नहीं कर सकते तो क्यों हम उनकी चिंता करें?जब कोई चीज आती है तो अच्छी बात,और जब कोई चीज जाती है तो भी अच्छी बात ।हम तो ईश्वर से साक्षात्कार करने जा रहे हैं, भिखारी के वेष में हम वहॉ प्रवेश नहीं कर पायेंगे,बाइविल में लिखा है कि ईशा मसीह ने खरीदने और बेचने वालों को वहॉ से भगा दिया था,लेकिन फिर भी लोग प्रार्थना करते हैं कि हे ईश्वर मेरी तुच्छ विनती कि मुझे इसके बदले एक नईं पोषाक दे दे ,मेरा सिर दर्द मिटा दे या मैं कल दो घण्टे प्रार्थना अधिक करूंगा। इस मानसिक प्रवॉत्ति से ऊपर उठना होगा यदि मनुष्य ऐसी चीजों के लिए प्रार्थना करे तो फिर मनुष्य और पशु में अन्तर है ही क्या रह गया ।।

22-सच्चा प्रेम आत्मा से उत्पन्न होता है न कि मन से-
        मूलतः अगर हम देखें तो सच्चा प्रेम एक गुंण है, जो कि आत्मा से उत्पन्न होता है,न कि इन्द्रियों या मन से । इसलिए जब कोई किसी से प्रेम की बात करता है तो यह जानना चाहिए कि उसका प्रेम शरीर से है या आत्मा से।शरीरका आकर्षण भौतिक या स्थूल होता है ।यह सेक्स की भावना,आकर्षक राजकुमार के स्वप्न, मनुष्य की कुशलता या बुद्धि की प्रशंसा,कलाकार की कला का प्रदर्शन से आ सकती है।शारीरिक आकर्षण सच्चा प्रेम नहीं है,क्योंकि वह मन से उत्पन्न होता है । मन प्रेम नहीं करता है,वह केवल इच्छा करता है ।लेकिन सामान्यतः सच्चे प्रेम की भावना को भ्रम से सेक्स और व्यक्तिगत स्वार्थ समझ लिया जाता है,जबकि शुद्ध प्रेम निर्लिप्त होता है,वह आत्मा से उत्न्न होता है ।

23-प्रेम क्या है-
        प्रेम कभी मॉगता नहीं है, वह तो हमेशा देता है।प्रेम हमेशा कष्ट सहता है, न कभी झुंझलाता है,और न बदला लेता है। बस मानव जीवन का उद्देश्य तो आत्म दर्शन करना है,और उसकी सिद्धि का मुख्य एवं एक मात्र पाय पारमार्थिक भाव से जीव मात्र की सेवा करना है। मेरे पास मेरी आदिशक्ति माता जी के सिवा और कोई ताकत नहीं है। वही मेरा आसरा है। 24-प्रेम खास खुदा का घर है- आप मंदिर को तोड दो या मस्जिद को या गिरजाघर को तोड दो मगर प्यार की इमारत को मत तोडना, क्योंकि यह परमात्मा का घर है।

24– प्रेम भाव-
       
प्रेम भाव प्राय क्रियाओं द्वारा व्यक्त किया जाता है वॉणी के द्वारा नहीं,वॉणी के द्वारा किया गया प्रेम अपनी गरिमा से च्युत हो जाता है।


25-प्रेम से आत्म विश्वास पैदा होता है-
        प्रेमजीवन के लिए आवश्यक है,क्योंकि प्रेम से आत्मविश्वास पैदा होता है और आत्मविश्वास से स्वाभाविक रूप से व्यक्ति की सुरक्षाव्यवस्था मजबूत होती है,इससे ह्दय चक्र मजबूत होता है,जिससे बाहर की अनिष्ठकारी शक्तियों से रक्षा होती है भय से हमारे भीतर विध्यमान,रोगों से मुक्त रहने की प्राकृतिक शक्ति कमजोर हो जाती है,और हम आसानी से एलर्जी तथा अन्. रोगों के लिए संवेदनशील हो जाते हैं और जब ह्दयचक्र शक्तिशाली होता है,तब मनुष्य के व्यक्तित्व का विकास होता है और उसमें निखार आता है ऐसा व्यक्ति जीवन में विजयी होता है इसके विपरीत अगर प्रेम विहीन स्थिति में व्यक्ति का व्यक्तित्व सूखकर कॉटा हो जाता है,वह भय के गहरे तथा अंत होने वाली स्थ्ति से घिर जाता है,तब बहुत सी शारीरिक बीमारियॉ,जैसे ह्दय की धडकन का बडना,सीने में उत्पन्न होने वाली समस्यायें,असुरक्षा की भावना पैदा होती है
26-प्रेम में पडना वास्तविक पतन है-
        प्रेम में पडना महॉकाली की माया फैलती है और आप आसक्त हो जाते हैं।आपके अहं को बढावा मिलता है ।ऐसे मामलों में दो चीजें हो सकती हैं,अपनी पत्नी या पति,प्रेमी या प्रेमिका जिसके आप भक्त हैं,जिसकी प्रशंसा करते हैं ,उसी के कारण आप पूर्णतः खो जाते हैं,समाप्त हो जाते हैं आपका व्यक्तित्व समाप्त हो जाता है,आप हमेशा के लिए टूट जाते हैं,और फिर एक दुसरे से घृणा करने लगते हैं।इसीलिए कहा जाता है कि –"प्रेम और घृणा सम्बन्धप्रेम किस प्रकार घृणा हो सकता है,परन्तु देवी के इस गुण के कारण ऐसा हो जाता है। एक ओर तो अति प्रेममय, अति करुणांमय और अति कोमल है।परन्तु उसके बाद आपको दूसरी ओर धकेल देती है, इसी कारण जो लोग प्रेम में पडते हैं वे सभी मर्यादायें लॉघ जाते हैं।प्रेम में पडकर वे ऐसे व्यक्ति से विवाह कर लेते हैं कि जो पहले ही विवाहित है,एक वृद्ध महिला युवा व्यक्ति से विवाह करती है।वृद्ध पुरुष युवा लडकी से विवाह कर लेता है,उनमें मर्यादा बिल्कुल नहीं होती है। अतः सावधानी रहें कहीं खो जायें।

27-सत्य का दिया प्रेम रूपी तेल से जलता है-
       
प्रेम वह शक्ति है जो आपके हाथों से बह रही है, वही चैतन्य है जो आपके अन्दर बह रहा है जिसे हम वाइब्रेशन कहते हैं वह तो सिर्फ प्रेम है,जिसदिन आपके प्रेम की धारा टूट जाती है,वाइब्रेशन आना बन्द हो जाता है इसलिए प्रेम का पल्ला छोडें,प्रेम के वाइब्रेशन परमात्मा का ही प्रेम है, जो बहता जा रहा है,आपके अन्दर शुद्ध प्रेम ही बह सकता है,जो कि साक्षात चैतन्य है ,वही सत्य है,वही सौन्दर्य भी है प्रेम का मतलब अहंकार रहित, बिना किसी उपेक्षा के,बिना किसी आशा के प्रेम का साम्राज्य फैलाना सत्य और प्रेम दोनों एक ही चीज है,अगर आप चाहे कि प्रेम को हटा दें तो सत्य बुझ जायेगा, सत्य रह नहीं सकता क्योंकि सत्य का दिया प्रेम के तेल से ही प्रज्वलित होता है ।।

28-प्रेम का मतलव किसी से प्यार करना नहीं है-
अ        गर आप प्रेम के अर्थ को किसी लडकी या लडके, भाई-बहिन, माता-पिता से प्रेम करने से लगाते हैं तो यह उपयुक्त नहीं है,प्रेम तो अलिप्त होता है,फिर आप कहेंगे कि यदि मॉ प्रेम निर्लेप हो जाये तो फिर समस्या पैदा हो जायेगी, मगर ऐसा नहीं है ।एक पेड को देखियेउसके प्रेम की धारा, उसका रस सारे पेड में चढता है,हर जगह उसके मूल में जाता है,पत्तों में जाता है,उसकी शाखाओं में जाता है,लेकिन रुकता नहीं है,वह किसी जगह रुकता नहीं है,यदि उसे एक फल पसन्द गया तो समझो पेड ही मर जायेगा,बाकी फल-फूल भी मर जायेंगे। इसलिए जिसको जो देना हो देना चाहिए अपने घर में,गृहस्थी में,समाज में,अपने देश में और सारे विश्व में जिसको जो देना है वो दीजिए लेकिन उसमें लिपट जाइये उससे लिपटना एक तरह चिपकना है उससे प्रेम की शक्ति क्षीण हो जाती है,बढेगी नहीं सारी धरा ही उसका कुटुम्ब है-ये प्रेम की महिमा है-यदि इस प्रेम की महिमा को आपने जान लिया तो आपको आश्चर्य होगा कि आत्मा के दर्शन से ये घटित होता है ।।

29-श्री महॉवीर के सिद्धान्तों को अति की अवस्था तक ले जाया गया-
       
श्री महॉवीर के अनुयाय़ियों ने जैन मत चलाया था । श्री महॉवीर के नियम कठोर थे,जिन्हैं अति की अवस्था तक ले जाया गया एक दिन ध्यानावस्था में उनकी धोती किसी झाडी में उलझ गई थी जिससे उन्हैं धोती फाडनी पडी और आधी ही धोती पहनकर चलना पडा भिखारी के वेष में श्री कृष्ण उनकी परीक्षा लेने के लिए जब वहॉ पहुंच,और महॉवीर से एक कपडा मॉगने लगे तो श्री महॉवीर ने उस आधी धोती को उस भिखारी को दे दिया तथा स्वयं पत्तों से अपने शरीर को ढककर वस्त्र पहनने के लिए अपने घर वापिस चले गये परन्तु आज उनके अनुयायी इसी वृतॉत की आड में निर्वस्त्र होकर घूमते फिरते हैं ।हमें ऐसा नहीं करना है ,हमें निम्नावस्था तक जाकर आत्मानुशाशासन सीखना है इसके बिना पूर्ण ज्ञान,प्रेम तथा आनंद की गहनता तक नहीं पहुंच सकते सहजयोग में महॉवीर जी को भैरवनाथ का अवतरण माना जाता है। आपको महॉवीर की सीमा तक जाने की आवश्यकता नहीं है,क्योंकि सौभाग्यवश आपको सहजयोग में आत्मसाक्षात्कार प्रदान किया है ।।

30-प्रेम मानव का अन्तर्जात गुंण है-
       
प्रेम आपकी अन्तर्जात सम्पदा है,यह तो आपमें निहित गुंण है,देवी की यह शक्ति प्रेम की शुद्ध इच्छा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। आदि शक्ति का तो पूर्ण शरीर,उनकी पूरा व्यक्तित्व ही करुणॉ एवं प्रेम से बना है,उनके सभी कार्य उनकी करुणॉ एवं प्रेम के माध्यम से होते हैं प्रेम की यह शक्ति जिस प्रकार गणेश को दी गई थी कि एक बार आप इसे धारण कर लेंगे तो व्यक्तिगत रूप से या सामूहिक रूप से आप इसे सम्पादित कर सकेंगे ।किसी व्यक्ति को यदि जीतना चाहें तो अपने ह्दय में आप कहें देवी मॉ कृपा करके इस व्यक्ति पर कार्य करें ,मेरा पवित्र प्रेम इस व्यक्ति पर कार्य करें ,और आप हैरान होंगे कि आप किस प्रकार उस व्यक्ति के ह्दय को जीत लेते हैं।इतना ही नहीं यह पवित्र प्रेम उन सभीनकारात्मक शक्तियों को नष्ट करता है जो आपको हानि पहुंचाने का प्रयत्न कर रही हैं