Tuesday, February 19, 2013

जीवन की अभिव्यक्ति


1-          जब पानी दो किनारों के बीच में बहे तो उसे नदी कहते हैं। यदि पानी हर जगह फ़ैल जाए तो वह बाढ़ है। इसी तरह जब भावनाएं हर जगह फ़ैल जाती हैं तो मन उथल-पुथल हो जाता है। यदि वह तीव्रता से एक दिशा में बहता है तो उसे भक्ति कहते हैं। और वह सबसे शक्तिशाली है।
 
2-          प्रायः तुम कोई गलती करते हो और फिर उसे उचित सिद्ध करने की चेष्टा करते हो क्योंकि तुम ग्लानि से बचना चाहते हो। और यह उचित होने का प्रयास ग्लानि दूर नहीं करता क्योंकि तुम जानते हो तुम्हारा निर्दोष करण ऊपरी है। तुम और दोषी महसूर करते हो। यह ग्लानि चलती जाती है और भीतर से तुम्हारा व्यवहार विकृत करती रहती है। इसलिए, जब ग्लानि लगे, उसे हटाने की चेष्टा मत करो। उसके साथ 100% रहो और वह दर्द, ग्लानि, वह दुःख ही ध्यान बन जायेगा और तुम्हें मुक्त कर देगा।
 
4-          जब लोग कुछ ऐसा कहते हैं जिससे हममें ईर्ष्या, क्रोध, कुण्ठा या दुःख उत्पन्न होता है, तो हम सोचते हैं कि वे इसके लिए ज़िम्मेदार हैं हम ज़िम्मेदार हैं क्योंकि हमारा मन केन्द्रित नहीं है। हम अविचल शांति कैसे प्राप्त कर सकते हैं? स्वयं प्रसन्न होना पर्याप्त नहीं। हमारी कामना सबकी प्रसन्नता के लिए होनी चाहिए - यह सामूहिक चेतना, इन्द्र, मुझे स्वास्थ्य दे और मुझे अपने आत्म से जोड़े। यह मुझे केन्द्रित और प्रसन्न रखे। इसलिए, प्राचीन समय में सबकी प्रसन्नता की प्रार्थना की जाती थी।
 
5-          हर व्यक्ति अपने आप में एक किताब है - एक उपन्यास। हमें पुस्तकालय में हर तरह की किताबें मिलती हैं। यह विश्व ही एक पुस्तकालय है। इन सभी किताबों का एक ही लेखक है और उसने बाज़ार भर दिया है! केवल कुछ ही, जो जागे हुए हैं, देख पाते हैं कि ये सब कहानियाँ हैं और आनंदित होते हैं। और तुम उन कुछ जनों में से हो। यदि तुम्हें लगता है कि तुम नहीं हो, तो बन जाओ। इस पुस्तकालय में तुम्हारी आजीवन सदस्यता है।
 
6-          तुमने अपनी मुट्ठी ज़ोर से बंद कर रखी है। अपनी मुट्ठी खोलो, तुम पाओगे कि पूरा आकाश तुम्हारे हाथों में है।
 
7-          असंभव का स्वप्न देखो। तुम इस दुनिया में कुछ अनोखा और अद्वितीय करने आए हो; इस अवसर को मत जाने दो। स्वयं को सपना देखने की और बड़ा सोचने की पूरी छूट।
 
8-          जब भावनाएं अनुकूल हों और हम ऊँचे उड़ रहे होते हैं, तो कोई परेशानी नहीं होती। परेशानी होती है जब भावनाएं हमें नीचे गिरा देती हैं। जितना हम ऊपर उठने का प्रयास करते हैं, उतनी वे भावनाएं हमें नीचे धकेल देती हैं। जब भावनाएं नीचे ले जाएं तो बिलकुल नीचे चले जाओ। गहराई में जाओ और देखो बहुत सी संवेदनाएँ उठेंगी, जैसे भय। उनसे सहमत हो जाओ, "ठीक है, होने दो। मैं आज इसमें गोता लगाऊंगा।" तब तुम्हारे भीतर एक अद्भुत घटना होती है। यदि तुम अपनी भावनाओं से लड़ते हो, तो वे स्पष्ट होने में अधिक समय लेती हैं।
 
9-          बिना त्याग के कोई प्रेम, कोई ज्ञान और सच्चा आनंद नहीं हो सकता। त्याग तुम्हें पवित्र बनाता है। पवित्र बनो।
 
10-          लोग यहाँ वहां रोमांच ढूंढते रहते हैं। वे यह नहीं जानते कि सबसे रोमांचकारी आत्म है।
 
11-          तुम थक चुके हो लोगों को मनाते हुए, सफाई देते हुए, आश्वासन देते हुए, उन्हें प्रसन्न करते हुए। यहाँ तक कि तुम सुख भोगते हुए भी थक चुके हो! वास्तव में थकान सुख की परछाई है। सुख की चाह तुम्हें भटकाती है, और प्रेम वापस घर लाता है।

12-          प्र: अहंकार और आत्मविश्वास में क्या अंतर है?
अहंकार किसी और की उपस्थिति में असहज कर देता है। आत्मविश्वास हर जगह सहज रहना है। सहज रहना अहंकार की दवा है और आत्मविश्वास का पूरक। यह आत्मविश्वास से अभिन्न है। जब तुम सहज हो तो विश्वास से भरे हो और जब विश्वास से युक्त हो तो सहज हो।
 
13-          भारत में यह पद्धति रही कि पढ़े लिखे लोग उन्हीं को कहते थे जो अपनी गलती स्वीकार करते थे और फिर खुद सजा लेते थे। यदि कोई भी राजनेता खड़ा हो और कहे "मुझसे गलती हुई, मैं प्रायश्चित करना चाहता हूँ", तो सभी लोग उन्हें सम्मान देने के लिए उठ जायेंगे। गलती को लीपा पोती करके बने रहना, यह नहीं। अपराधियों को टिकट देना बंद करना चाहिए। लोग कहते हैं "गुरूजी आपका काम तो ध्यान सिखाना है, राजनीती की बात क्यों करते हैं?" भई, राजनीति नहीं है, यह राष्ट्रनीति है, मानवनीति है।
 
14-          जब तुम किसी का आदर करते हो तो उससे तुम्हारी ही उदारता प्रकाशित होती है। दुनिया में जितने लोगों का तुम आदर नहीं करते, उतनी तुम्हारी संपत्ति कम है। प्रज्ञावान वह है जो सबका आदर करे।
15-जब तुम बैठ कर सोचते हो, "मुझे ख़ुशी कब मिलेगी?", तो वह तुम्हें नहीं मिलेगी। जब तुम अपनी ख़ुशी दूसरों की ख़ुशी में देखते हो, तब तुम वास्तव में खुश होते हो।
 
16-          यदि शब्दों का हेर फेर करो तो वह असत्य है।
यदि शब्दों से खेलो तो वह मज़ाक है।
यदि शब्दों पर निर्भर रहो तो वह अज्ञान है,
पर यदि शब्दों के परे चले जाओ तो वह ज्ञान है।
 
17-          उत्सव मनाने में ग्लानि तभी होती है यदि वह केवल अपने सुख के लिए हो। यदि उत्सव लोगों के दिलों को जोड़ने के लिए हो, पुराने दर्द से उभरने के लिए, भविष्य के प्रति आशा की ज्योति जलाने के लिए, यदि उत्सव समाज के उत्थान के लिए हो तो ग्लानि कहीं तुम्हारे पास भी नहीं आएगी। इस तरह का उत्सव सेवा है, पवित्र है। अपने उत्सव को सुख की खोज की प्रक्रिया से बदलकर उसे समाज के लिए पवित्र अर्पण बना दो।
 
18-          यह श्रद्धा रखो कि तुम्हारे दोष मिटाने के लिए कोई है। ठीक है, तुम एक, दो, तीन बार चूके। कोई बात नहीं। आगे बढ़ते रहो। लोग गलती न करने की शपथ ले लेते हैं। शपथ टूट जाने पर मन और खराब होता है। समर्पण करना बहतर है।
 
19-          हमने कई प्रकार की शिक्षा ग्रहण की है। हमें एक जटिल कम्प्यूटर चलाना आता है पर उन शक्तियों के बारे में नहीं जानते जिनसे हमारा जीवन चलता है। कोई हमें जीवन जीना नहीं सिखाता। हमें थोड़ा प्रयत्न करना होगा अपने मन और अहम् के बारे में जानने के लिए, हम कौन हैं और यहाँ क्यों हैं। केवल प्रेम के द्वारा ही हमारा ज्ञान, जीवन और विश्व के बारे में हमारी समझ बढ़ सकती है।
 
20-          प्रायः तुम जीवन में किसी जल्दबाज़ी में होते हो। जल्दी में तुम ठीक से चीज़ों को जान नहीं पाते हो। जल्दबाजी जीवन का आनंद छीन लेती है और वर्तमान क्षण की प्रसन्नता और अबद्धता खण्डित कर देती है। प्रायः तुम्हें ज्ञात भी नहीं होता कि जल्दी है किस बात की। बस एक जल्दबाज़ी का क्रम सा चल पड़ता है। जागो और अपने अन्दर की जल्दबाज़ी को देखो।
 
21-          समर्पण अधीनता नहीं है। समर्पण का अर्थ क्या है? यह जानना कि जो कुछ जहां भी है, ईश्वर का ही है। "मैं" नियंत्रण में नहीं हूँ - यह समर्पण है। और इस अनुभूति के साथ एक गहरा विश्राम मिलता है, एक विश्वास की भावना, जैसे हम घर पहुँच गए। समर्पण को ले कर इतना भय क्यों हैं; तुम्हें लगता है तुम कुछ खो दोगे? मैं कहता हूँ कि पृथ्वी और स्वर्ग दोनों में केवल पाओगे ही।
 
22-          यदि तुम अपने आप में निश्चिन्त हो तो सभी तुम्हारे साथ निश्चिन्त होंगे। सहज और सरल रहो। सम्बन्ध स्वाभाविक रूप से विकसित होते हैं। यदि तुम सम्बन्ध बनाने का प्रयत्न करो तो थोड़े बनावटी हो जाते हो। तुम चाहोगे कि कोई तुम्हारे साथ सच्चा, खुला, प्राकृतिक और बिना अहम् के व्यवहार करे। दुसरे भी तुमसे बस वही चाहते हैं।
 
23-          जब मन प्रसन्न होता है तो विस्तृत होता है और समय छोटा लगता है। जब मन अप्रसन्न होता है तो संकुचित हो जाता है और समय अधिक लगने लगता है। जब मन समता में होता है तो समय से परे चला जाता है।
 
24-          जो प्रेम तुम हो, जब वह उदय होता है, तो जीवन ही एक ग्रन्थ बन जाता है। अपना जीवन ही गीता, कुरान या बाइबल बना लो। यह प्राप्त करने की कुंजी है दिव्या प्रेम! ऐसे भक्त बनो जो प्रभु में ही खोया हो, उन्हीं से व्याप्त हो।
 
25-          नए वर्ष का स्वागत एक मुस्कान से करो। हम जैसे कैलेण्डर या तिथिपत्र के पन्ने पलटते हैं, हमें अपने मन को भी पलटते रहना चाहिए। प्रायः हमारी डायरी स्मृतियों से भरी रहती है। भविष्य की तारीखें भूत की घटनाओं से मत भरो। अतीत से सीखो और उसे छोड़कर आगे बढ़ो।
 
26-          बाहरी सुन्दरता के लिए तुम चीज़ें अपने ऊपर थोपते हो; वास्तविक सुन्दरता के लिए तुम्हें सब चीज़ें छोड़नी हैं। बाहरी सुन्दरता के लिए तुम्हें तैयारी करनी होती है; वास्तविक सुन्दरता के लिए केवल यह जानना है कि तुम पहले से तैयार हो।
 
27-          जो लोग शांतिप्रिय हैं वे लड़ना नहीं चाहते और जो लड़ते हैं उनके पास शांति नहीं। आवश्यकता है अन्दर से शांत रहकर लड़ने की। किसी झगड़े को अंत करने की चेष्टा से वह बढ़ता ही जाता है। ईश्वर सभी झगड़ों को युगों से झेल रहे हैं और यदि वे झेल सकते हैं तुम भी झेल सकते हो। जब तुम किसी द्वंद्व के साथ रहने को तैयार हो जाते हो, तो वह द्वंद्व प्रतीत नहीं होता।
 
28-          हम अनंत का अनुभव कैसे कर सकते हैं? यह केवल प्रेम से ही संभव है। केवल प्रेम ही ऐसी वस्तु है जिसके बारे में तुम सोच नहीं सकते। यदि उसके बारे में सोचते हो, तो वह प्रेम नहीं रहता। प्रेमी आपस में बेतुकी बातें करते हैं; वे सोचते नहीं हैं। वही बातें बार बार करते रहते हैं। तुम तर्क बुद्धि से परे चले जाते हो। हम किसी से भी प्रेम में पड़ें, वास्तव में स्वयं से प्रेम में पड़ रहे हैं।
 
29-          उदासी तब छाती है जब लड़ने का जोश न रहे। आक्रामकता उदासी दूर करने की दवा है। उदासी शक्ति का अभाव है; क्रोध और आक्रामकता शक्ति के वज्रपात हैं। यदि तुम उदास हो तो प्रोजैक की गोली मत लो - किसी सिद्धांत के लिए लड़ो। कृष्ण ने अर्जुन को इसी तरह लड़ने के लिए प्रेरित किया। पर यदि आक्रामकता एक सीमा पार कर ले तो फिर उदासी की ओर ले जाती है। कलिंग युद्ध के बाद अशोक के साथ यही हुआ। उन्हें बुद्ध की शरण लेनी पड़ी। ज्ञानी वे हैं जो आक्रामकता और उदासी दोनों में नहीं पड़ते।
 
30-          सरल और भोली अवस्था में रहो। यह जीवन बड़ा सुन्दर रहस्य है। बस इसे जियो! जब हम जीवन के इस सुन्दर रहस्य को पूर्णता से जीते हैं तब आनंद का उदय होता है।
 
31-          तुम क्रिसमस के वृक्ष के समान हो। उसपर उपहार और बत्तियां सजी होती हैं, अपने लिए नहीं, सबके लिए। तुम्हें जो भेंट अपने जीवन में मिली है, वह दूसरों के लिए है।
 
32-          दूसरों को सुख दो, तब तुम्हें पता चलेगा कि तुम्हारे सुख का ध्यान सृष्टि स्वयं रखेगी।
 
33-          जब सभी द्वार बंद हो जाएं और कोई जाने का स्थान न हो, तब भीतर जाओ। हर संकट एक अवसर है और तुम ही शुरुआत हो।
 
34-          प्रिय गुरुदेव, मैं कब और कैसे परमानंद को प्राप्त कर सकता हूँ?
श्री श्री: कोई सम्भावना ही नहीं है। भूल जाओ। क्या तुम भूलने के लिए तैयार हो? तो तुम इसी क्षण पा जाओगे।
 
35-          तुम एक आज़ाद पंछी हो, पूरी तरह खुले हुए| उड़ना सीखो| यह तुम्हें अपने भीतर ही अनुभव करना होगा| यदि तुम स्वयं को बाध्य समझते हो, तो तुम बंधन में ही रहोगे| तुम मुक्ति का अनुभव कब करोगे? इसी क्षण मुक्त हो जाओ| बस बैठो और तृप्त हो जाओ| थोड़ा समय ध्यान और सत्संग में बिताओ जिससे तुम्हारा अंतरात्म चुनौतियों से जूझने के लिए दृढ़ हो जाये|
 
36-           भक्ति एक हीरे के सामान है। मिट्टी से बनी वस्तुओं के लिए उसका सौदा मत करो।
37-सभी तरह की शिकायतों को मन से निकाल दो - चाहे वो किसी व्यक्ति के बारे में हों या वस्तु। तब तुम इस विश्व के लिए उपयोगी बन जाते हो।
 
38-          जब हमारा जन्म हुआ तो हम निर्भर थे। जब हम वृद्ध होंगे तब भी निर्भर होंगे। यह बीच के कुछ वर्षों में हमें लगता है कि हम आत्मनिर्भर हैं। यह भ्रम है। दूसरी ओर, हमारी चेतना सदा से ही आत्मनिर्भर है। यह बहुत सूक्ष्म बात है। हम निर्भरता और आत्मनिर्भरता - शरीर और चेतना, दोनों का मिश्रण हैं।
 
39-          सबसे पहला नियम है स्वयं को दोषी ठहराना बंद करो। अध्यात्म क्या है? गहराई में जाकर अपने साथ जुड़ना। यदि खुद को दोषी मानते रहोगे तो अपने निकट कैसे जाओगे? जो तुम्हें दोष देता रहे तुम उनके साथ रहना पसंद नहीं करोगे। ऐसा करते रहने से तुम कभी शांत नहीं हो सकते, अपनी गहराई में नहीं जा सकते। कभी स्वयं को दोषी मत ठहराओ।
 
40-          सामान्यतः यदि कोई बहुत बुरा है तो तुम उनसे दूर हट जाते हो। पर यदि तुम उनसे घृणा करने लगते हो तो इसका अर्थ है कि कोई गहरा सम्बन्ध है जिससे तुम दूर नहीं हट पा रहे हो। तुम उनके साथ रहना चाहते हो, उन्हें अपने मन में रखना चाहते हो और इसलिए उन्हें नापसंद करते हो। जो मन के भंवर में फंस गया हो वह करुणा का पात्र है, क्रोध का नहीं।
 
41-          बहादुर हैं वे जो केवल दोस्ती के लिए दोस्ती करते हैं। ऐसी दोस्ती कभी ख़त्म नहीं होगी।
 
42-          सफलता का अर्थ है किसी सीमा के पार जाना| सीमा पार करने के लिए तुम्हें पहले मानना होगा कि तुम्हार कोई सीमा है| सीमा मान लेने का अर्थ है तुम स्वयं को कम आंकते हो| यदि तुम्हारी सीमा ही नहीं है तो तुम्हारी सफलता कहाँ है? जब कोई दावा करता है कि वह सफल है तो वह केवल अपनी सीमा प्रकट कर रहा है| जब तुम अपनी असीमितता को जान लेते हो, तो कोई भी कार्य उपलब्धि नहीं रहता|
 
43-          इश्वर सदैव युवा हैं| मेरे लिए, इश्वर बहुत नटखट हैं| उन्हें खेल पसंद है|
 
44-          जब तुम मन में अस्पष्ट होते हो, तो तुम्हारे शब्द प्रभावशाली नहीं होते| मन जितना स्पष्ट होता है शब्द उतने शक्तिशाली हो जाते हैं| जो तृप्त हैं, उनके शब्दों में महान शक्ति होती है|
 
45-          विचार और कर्म में क्या सम्बन्ध है?
श्री श्री: कभी तुम बिना विचार के कर्म करते हो और कभी बिना कर्म किये केवल विचार ही करते हो| विचार और कर्म दोनों के स्रोत तुम ही हो| स्वयं को जानने से तुम्हारे विचार सरल और कर्म सिद्ध होते हैं|
 
46-          जल की तरह बनो| जब जल के पथ पर पत्थर होते हैं, तो वह क्या करता है? वह पत्थरों से ऊपर उभर कर बहता है| जीवन में विघ्न भी इसी तरह हैं| उनसे ऊपर उठकर उन्हें लाँघ जाओ| धैर्य रखो और उनके ऊपर से बहते चलो|
 
47-           एक सपना अपने लिए देखो और एक सपना जगत के लिए| और अगर दोनों एक ही हो तो वह सबसे उत्तम है! पर अगर ऐसा नहीं है तो भी कोई बात नहीं| बस इतना ध्यान रखो की दोनों में प्रतिरोध न हो।
 
48-          जब मैं-पन ख़त्म हो जाता है, कर्ता घुल जाता है, तब केवल शक्ति रह जाती है, केवल आनंद| यह प्रयत्न से नहीं, केवल गहरे विश्राम में ही संभव है| केवल यह भाव रखना "यह शक्ति मुझमें यहीं पर इसी क्षण उपस्थित है" पर्याप्त है|
 
49-          वह आत्मा जो तुम्हारा जीवन चला रही है, पवित्र है| जब तुम अपनी चेतना का सम्मान करते हो, तो तुममें बाकी सभी गुण भी अनायास ही अभिव्यक्त होने लगते हैं|
 
50-          अपने मन में उठ रहे शोर को देखो| वह किस बारे में है? धन? यश? सम्मान? तृप्ति? सम्बन्ध? शोर किसी विषय को लेकर होता है, मौन का कोई विषय नहीं है| शोर ऊपरी सतह है, मौन आधार है।
 
51-          उत्साहपूर्ण रहो, यह जीवन को पूरी तरह जीने का मापदंड है| जीवन उत्साह है, पर उसे खोने की प्रक्रिया को आज हम जीना कहते हैं| अपना उत्साह बनाये रखो| यह तुम्हें दिल से युवा रखेगा|
 
52-          अपने मन में दिव्य ज्योति अनुभव करने की इच्छा रखो| जीवन के उत्कृष्ट लक्ष्य कुछ पलों के ध्यान और अन्तरावलोकन से ही साधे जा सकते हैं| शांति के कुछ पल रचनात्मकता का स्रोत होते हैं| दिन में किसी न किसी समय कुछ क्षणों के लिए अपने ह्रदय की गुफा में बैठो, आँखें बंद करो और दुनिया को गेंद की भांति फेंक दो| पर बाकी समय, अपने काम में १००% आसक्ति रखो| अंत में तुम आसक्त और अनासक्त दोनों रह पाओगे| यही जीवन जीने की कला है|
 
53-          यद्यपि नदी विशाल है, तुम्हारी प्यास एक घूँट से भर जाती है| यद्यपि पृथ्वी पर इतना भोजन है, थोड़ा सा ही तुम्हारा पेट भर देता है| तुम्हें केवल थोड़े थोड़े की ही आवश्यकता है| जीवन में हर चीज़ का छोटा सा अंश स्वीकार करो, उससे तुम्हें संतुष्टि मिलेगी| आज रात सोने तृप्ति की भावना के साथ जाओ, और अपने साथ दिव्यता का एक छोटा सा अंश ले जाओ|
 
54-           जीवन हर घटना में तुम्हें उसे छोड़कर आगे बढ़ना सिखाता है| जब तुम्हें छोड़ देना आ जाता है, तुम आनंद से भर जाते हो, और जब तुम आनंदित होते हो, तो तुम्हें और दिया जाता है।
 
55-          घर क्या होता है? एक ऐसी जगह जहाँ तुम्हें विश्राम मिले| जहाँ तुम अपने स्वभाव में आराम से रहो| मेरे लिए पूरी दुनिया मेरा घर है| मैं जहाँ जाता हूँ, सबसे एक जैसी आत्मीयता महसूस करता हूँ| यह संपूर्ण विश्व मेरा परिवार है, मेरा घर है|
 
56-          तुममें एक कर्ता है और एक साक्षी है| कर्ता स्पष्ट या अनिश्चय में हो सकता है, पर साक्षी केवल देखता और मुस्कुराता है| जितना यह साक्षी तुममें बढ़ेगा, तुम उतने आनंदी और अप्रभावित रहोगे| तब निष्ठा, श्रद्धा, प्रेम और आनंद तुम्हारे भीतर और चारों ओर खिल उठेंगे|
 
57-          तुम जिसका भी सम्मान करते हो, वह तुमसे बड़ा हो जाता है| यदि तुम्हारे सभी सम्बन्ध सम्मान से युक्त हैं, तो तुम्हारी अपनी चेतना का विकास होता है| छोटी चीज़ें भी महत्त्वपूर्ण लगती हैं| हर छोटा प्राणी भी गौरवशाली लगता है| जब तुममें सरे विश्व के लिए सम्मान है, तो तुम ब्रह्माण्ड के साथ लय में हो|
 
58-          ज़रा अपने मन में शोर को देखो| वह किस विषय में है? धन? यश? सम्मान? तृप्ति? सम्बन्ध? शोर सदा किसी बारे में होता है; मौन शून्य के बारे में होता है| शोर ऊपरी सतह है; मौन आधार है|
 
59-          प्र: मौन क्या है?
श्री श्री: साँस में प्रार्थना मौन है|
अनंत में प्रेम मौन है|
बिना शब्द का ज्ञान मौन है|
बिना उद्देश्य की करुणा मौन है|
बिना कर्ता के कर्म मौन है|
समष्टि के साथ मुस्कुराना मौन ।
 
61-          दुनिया के अरबों लोगों में कुछ हज़ार ही हैं जो आतंकवाद फैलाते हैं और उसका प्रभाव पूरी दुनिया पर पड़ता है| तुम्हें नहीं लगता कि इसी सिद्धांत से विपरीत भी सच हो? हम जैसे कुछ हज़ार जो सच में शांत हैं, पूरी पृथ्वी के लिए प्रेम रखने वाले, उसका ध्यान रखने वाले - क्या हम एक बदलाव नहीं ला सकते?
 
62-          प्रेम की मधुर मिठाई बांटो,
राग द्वेष के पटाखे फोड़ो,
ज्ञान के दिए जलाओ,
नूतन पुरातन की अनमोल घड़ी है,
एक नयी क्रांति की प्रतीक्षा में धरती खड़ी है,
सब मिल के दीवाली मनाओ,
जीवन को उत्सव बनाओ।
 
63-          प्रेम और पीड़ा साथ साथ चलती है| जब तुम किसीसे प्रेम करते हो, एक छोटा सा कर्म भी चोट पहुंचा सकता है| और तब तुम बहुत नाज़ुक हो जाते हो| प्रेम और वियोग के एक जैसे ही लक्षण हैं| यदि तुम किसीसे प्रेम नहीं करते, वे तुम्हें पीड़ा नहीं दे सकते| यह समझ लो और स्वीकार कर लो| तब वह पीड़ा घाव में परिणत नहीं होगी| बल्कि वह पीड़ा तुम्हें वैराग्य और ध्यान की गहराईओं में ले जाएगी|
 
64-          जब हम आनंद की चाह में कर्म करते हैं तो वह कर्म निम्न हो जाता है| जैसे तुम प्रसन्नता फैलाना चाहते हो पर यदि तुम जानना चाहो कि वह व्यक्ति प्रसन्न हुआ कि नहीं तो तुम चक्रव्यूह में फंस जाते हो| इस बीच तुम अपना सुख खो बैठते हो| अपने कर्म के फल कि चिंता तुम्हें नीचे खींचती है| पर जब हम कोई कर्म आनंद की अभिव्यक्ति के रूप में करते हैं और फल की चिंता नहीं करते, वह कर्म ही पूर्णता ले आता है|
 
65-          तुम जैसे ही भीतर से कोमल होते हो, कठोरता छूट जाती है, बंधन में होने की भावना चली जाती है, सुख समृद्धि आने लगती है| जब तुम सौम्य और बिना प्रतिरोध के होते हो, तो यश भी आता है| प्रकृति तुम्हें देती है| आध्यात्मिक पथ पर यही सत्य है|
 
66-          तुम जो कुछ भी हो अपनी स्मृति के कारण हो| अनंत को भूल जाना दुःख है| तुच्छ को भूल जाना आनंद है।
 
67-          प्रेम अनुभव करना दिल का काम है और संदेह करना दिमाग का| दोनों का अपना अपना स्थान है| तुम्हें दोनों की आवश्यकता है| तुम कितना संदेह कर सकते हो? करते रहो और जब सारे संदेह ख़त्म हो जायें और नए उत्पन्न न हों, तब वहां से श्रद्धा का आरम्भ होता है|
 
68-          पहला कदम है विश्राम करना और आखरी कदम भी विश्राम करना ही है! सबसे आरामदेह और सुखदाई स्थान तुम्हारे भीतर ही है| अपने आत्म की शांत निर्मल गहराई में विश्राम करो - यह अति अमूल्य है| संपूर्ण ब्रह्माण्ड के इस अति सुन्दर, अति सुखदाई घर में स्वयं को दर्ज कर लो|
 
69-          सबसे बड़ी आहुति तुम स्वयं हो| आखिरकार, तुम दुखी क्यों होते हो? मुख्य रूप से तभी जब तुम जीवन में कुछ पा न सको| ऐसे समय में सब कुछ सर्वज्ञ ईश्वर को समर्पित कर दो| ईश्वर को समर्पण करने में सबसे बड़ी शक्ति है| जैसे एक बूँद समुद्र में घुल कर उसे अपना लेती है, यदि वह अलग रहती है तो मिट जाएगी| पर जब वह समुद्र बन जाती है तो अमर हो जाती है

Monday, November 26, 2012

असली घटना की परख

ब्लॉग की अगली कडी में प्रवेश करें-http://raghubirnegi.blogspot.in/
 
 
1-घटना एक सपने की
 
          एक रात को मैंने एक सपना देखा । वह सपना बडा अद्भुत था । जैसे कि उस ईश्वर ने प्रार्थना सुन ली है । एक बहुत बडा महल है गॉव भर में एक आवाज जैसे आकाशवॉणी हो रही है कि सभी दुखी लोग अपनी-अपनी दुख की पोटली  को लेकर उस महल में चले जॉय । मैने अपने दुख की पोटली को कंधे में रखकर  सबसे पहले भागा-भागा उस महल की ओर दौडा ।सोचा कि और कोई दुखी नहीं है ।गॉव में सब  सुखी हैं । लेकिन मैने देखा कि लोग मुझसे भी तेज भागे चले जा रहे हैं । जिनसे मैने सुबह पूछा था कि कहो कैसे हो ?और उन्होंने कहा था कि अच्छे हैं  ! वे भी बडे-बडे गठ्ठे लेकर भागे जा रहे हैं । मुझे हैरानी हुई कि गॉव में एक भी आदमी नहीं है । सब भागे जा रहे हैं अपनी-अपनी पोटलियों को लेकर । उस महल में सब लोग पहुंच गये हैं । फिर देखा तो हैरान हो गया, उस गॉव का प्रधान भी वहॉ पहुंचा है,पुजारी भी,सन्यासी,महात्मा सभी वहॉ पहुंचे हैं । सबके पास बडी-बडी पोटलियॉ हैं ।
 
 
          तभी आवाज गूंजती है कि सभी लोग अपनी-अपनी पोटलियों को खूटी पर टॉग दें । सबने दौडकर अपनी-अपनी गठरियों को खूटियों पर टॉग दी । फिर कुछ देर बाद आवाज आई कि जिसको जो पोटली पसन्द हो चुन लें । मैं घबडा गया और भागा गठरी की ओर, दूसरे की नहीं, अपनी गठरी की ओर । कोई और न उठा ले । कमसे कम अपने दुख पहचाने तो हैं । अनजान अपरचित लोगों की गठरियॉ मुझसे बडी दिख रही है । मैने दौडकर अपनी पोटली उठा ली कि कोई और न उटा ले जाय । लेकिन देखकर चकित हो गया कि सबने अपनी-अपनी  पोटली उठाई है । सभी को यह डर था कि कोई दूसरा न उठा ले । क्योंकि कल तक केवल अपना ही दुख देखा था,दूसरे की हंसी देखी थी । आज सब झूठ हो गया था ।
 
 
          लगा जैसा सपने में भी सपना है । आदमी इतने दुख में है ! हम एक दूसरे को दुख देने के नये-नये रास्ते खोजते रहते हैं । धर्म के नाम पर,राजनीति के नाम पर खोज लेते हैं । हम किसी भी बहाने से किसी को सताने का रास्ता खेोज लेते हैं । हिन्दू-मुसलमान बनकर रास्ते खोज लेते हैं । गुजराती या मराठी के नाम पर,उत्तरी भारत और दक्षिणी भार,के नाम पर लडने का बहाना तलाशते हैं ।दूसरे को सताने का,टार्चर करने का बहाना चाहिए । ऐसा नहीं है कि बुरे लोग ही सताते हैं दूसरों को,जिन्हैं कि हम अच्छे लोग कहते हैं,वे भी सताने में पीछे नहीं होते हैं । न सही घर में पति-पत्नी ही लड बैठते हैं । बाप-बेटे ही लड जाते हैं । बस लडाई चाहिए ।दुखी की यही तो पहचान है ।
 
       
           हमारे गॉव में एक महात्मा रहते हैं,वे लोगों को समझाते हैं कि उपवास करो?क्योंकि भूखे मरे बिना परमात्मा नहीं मिलता । अच्छा तरीका अपना रखा है महात्मा जी ने,बडी टेक्नीक से वह लोगों को सताने जा रहा है । महात्मा जी लोगों से कहता है कि सिर के बल खडा होने से सिद्धि मिलती है ।
 
 
           परमात्मा ने हमें पैर के बल खडा किया लेकिन महात्मा समझा रहे हैं कि सिर के बल खडा होने से ही मिलेगा । कुछ नासमझ सिर के बल खडे हो जाते हैं, तो महात्मा सुखी होना शुरू हो जाता है । उसने दूसरों को दुख देना शुरू कर दिया । टार्चर करने के रास्ते खोज लिए । जिन्हैं हम अच्छे लोग कहते थे वे भी सताने लग गये ।
 
 
          हिटलर ने भी लोगों को बहुत सताया, लेकिन उससे बचना आसान है । गॉधी से बचना बहुत कठिन है । इसलिए कि हिटलर तो सीधा दुश्मन की तरह सताता है,लेकिन गॉधी तो हमारे हित में सताते हैं । हिटलर हमारी छाती पर छुरा रखता है ,जबकि गॉधी अपनी छाती पर छुरा रखता है ।गॉधी कहते हैं कि अगर मेरी न मानी तो मैं मर जाऊंगा । इसी को अहिसा कहते हैं ।यह बात भी अजीव है कि दूसरे को मारना हिंसा है,लेकिन अपने को मारना अहिंसा कैसे हो जायेगा ? अगर मैं आपकी छाती पर छुरी रख कर कह दूं कि मेरी बात मान ले,तो यह हिंसा हो गई, क्रिमिनल एक्ट है । और मैं अपनी छाती पर छुरा रखकर कह दूं कि मैं मर जाऊंगा,आग लगा कर जल जाऊंगा,तो मैं महात्मा हो जाऊंगा ,यही तो मान्यता है ! जबकि यह भी हिंसा है । क्रिमिनल एक्ट के अन्तर्गत है । लेकिन यह एक अच्छे ढंग की हिंसा है । अगर मैं आपके दरवाजे पर बैठकर कह दूं कि अगर मेरी बात न मानी तो मैं भूखा मर जाऊंगा, तो यह अच्छे ढंग की हिंसा हो गई,यह आपको मजबूर कर देगी, आपको सता डालेगी ।
 
 
          आज देखा जा रहा है कि बुरे आदमी सता रहे हैं,अच्छे आदमी सता रहे हैं । हम सब एक दूसरे को सताने में लगे हैं । और हमने ऐसी तरकीव खोज ली है कि पता लगाना मुश्किल है कि हम कैसे-कैसे सता रहे हैं । अगर आप किसी स्त्री से प्रेम करते हैं तो, आप उसको सताना शुरू कर देते हैं । और यदि एक स्त्री आपसे प्रेम करती है तो बहुत जल्दी पता नहीं चलता कि कब उसने आपको सताना शुरू कर दिया ।हम तो प्रेम की बात करके एक दूसरे की गर्दन को दबा लेते हैं ।
 
 
          छोटी अवस्था में बेटे को बाप सताता है,लेकिन बहुत जल्दी नाव उलट जाती है । बेटे ताकतवर और बाप बूढा हो जायेगा,फिर बच्चे सताना शुरू कर देंगे । सताने के नये-नये रास्ते खोजते रहते हैं ।
 
 
          औरंगजेव ने तो अपने बाप को लाल किले में बन्द कर दिया था,तो बाप ने पॉच-दस दिन में खबर भेजी कि यहॉ मेरा मन नहीं लगता,अगर तुम तीस लडके मुझे दे दो तो मैं उन्हैं पढाने का कार्य शुरू करूं तो मेरा मन लग जायेगा । औरंगजेव ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि मेरे बाप को दूसरों को सताने में मजा आता था । जब उन्हैं तीस लडके दिये गये तो वे उनके बीच डंडा रखकर बादशाह बन जाते  और शिक्षा देने के नाम पर उनको सताना शुरू कर देते  थे ।
 
 
          अब प्रश्न यह उठता है कि मनुष्य दुख से इतना भरा हुआ है कि इसमें फूल कैसे खिल सकते हैं ?इनकी जिन्दगी में आनन्द की झलक कैसे आ सकेगी ?
 
 
          और यह भी जरूरी है कि यदि आनन्द की झलक न आये तो आदमी कैसे जी सकेगा,जीना न जीना बराबर हो जायेगा । जीवन से हमें जो मिल सकता था,वह हम ले नहीं पायेंगे । पौधा लगा जरूर मगर फूल न खिले । दिया तो ले आये घर में, लेकिन उसमें कभी ज्योति न जली ।
 
 
2- चौथा विश्व युद्ध नहीं हो सकेगा -
       
          जी हॉ आज पूरे विश्व में यही तैयारी है,इतने बम बनाये जा चुके हैं कि अगर हिसाब लगॉयें तो अस्सी गुना बम तैयार है ,चार अरब आदमियों को मारने के लिए अस्सी गुना अधिक बन चुके हैं । अर्थात एक आदमी को हमने अस्सी बार मारने का इन्तजाम कर लिया है,कि भूल चूक कोई बच न जॉय । वैसे एक आदमी एक ही बार मरता है,लेकिन शायद बच जाये तो दुबारा हम मार सकें । फिर भी बच जाये तो हमने आस्सी बार मारने का इन्तजाम कर रखा है । इतने अधिक बम हैं कि यह पृथ्वी बहुत छोटी है इन बमों से मिटाने के लिए । नागासाकी और हिरोशिमा में गिराये गये बमों को उस समय लोगों की सोच में इससे अधिक खतरनाक और कोई बम नहीं होगा लेकिन आज से तुलना करें तो वे सिर्फ एक खिलौने के समान रह गये हैं । एक लाख आदमी एक बम से मरे थे, इन बच्चों के खिलौने से। आज के बमों की क्षमता बहुत अधिक है । पूरे इतिहास में आदमी ने यही तो अर्जित किया है । विनाश और मृत्यु की इतनी तीव्र आकॉक्षा बन चुकी है कि लगता है आदमी का मन कही बीमार तो नहीं है ? क्योंकि स्वस्थ मनुष्य जीने की सोचता है और अस्वस्थ मनुष्य मरने की । हमें कही मनोरोग ने तो नहीं पकडा है ?  हम उस जगह पर खडे हैं जहॉ किसी न किसी दिन हम अपने को समाप्त कर सकते हैं ।
 
 
          आइस्टीन को मरने से पहले किसी ने पूछा था कि तीसरे विश्वयुद्ध के सम्बन्ध में आपका क्या खयाल है ? तो आइस्टीन ने कहा था कि तीसरे के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं कह सकूंगा! लेकिन चौथे के सम्बन्ध में जरूर कहूंगा । उस आदमी ने कहा कि क्या बात कर रहे हैं आप तीसरे के सम्बन्ध में नहीं तो चौथे के सम्बन्ध में कैसे कहेंगे ? तो आइस्टीन ने कहा था कि चौथे के सम्बन्ध में यह बात निश्चित कह सकता हूं कि चौथा महॉयुद्ध कभी नहीं होगा । क्योंकि तीसरे के बाद आदमी के बचने की कोई उम्मीद नहीं है । लेकिन तीसरे के बारे में कुछ भी कहना मुश्किल है ।
 
 
3-सबसे अधिक विकास मारने की शक्ति में हुआ-
 
          यह धरती एक बडा बगीचे के समान है, लेकिन फूल एक भी नहीं खिला है, ऐसा ही आज मनुष्य का समाज हो चुका है । मनुष्य तो बहुत हैं,लेकिन सौन्दर्य के,सत्य के,प्रार्थना के कोई फूल नहीं खिलते हैं ।यह पृथ्वी आदमियों से भरती चली जा रही है -दुर्गन्ध से,घृणॉ से,क्रोध से,हिंसा से लेकिन प्रेम और प्रार्थना से नहीं । इतिहास साक्षी है कि कोई तीन हजार वर्षों में आदमियों ने पन्द्रह हजार युद्ध लडे । ऐसा लगता है कि जैसे हमने सिवाय युद्ध लडने के और कोई काम ही नहीं किया ।तीन हजार वर्षों में पन्द्रह हजार युद्ध बहुत होते हैं । प्रति वर्ष पॉच युद्ध । अगर विकास की बात को करें तो यही कहना होगा कि हमने आदमियों को मारने की कला में सबसे अधिक विकास किया है ।


4-अति प्रेम पागलपन है -
 
          अति प्रेम और पागलपन एक दूसरे के पूरक है । जमीन पर इस तरह के पागलपन दो तरह के दिखते हैं -एक जो परमात्मा की दिशा में जाता है,जहॉ हम अपने को खोकर सब पा लेते हैं, मीरा की यही दशा थी । और एक वह जिसमें हम सिर्फ पाने की कोशिश करते हैं,लेकिन मिलता कुछ भी नहीं है, सदा मिलने की आशा में भ्रमित रहते रहते हैं, अन्ततः खाली हाथ रह जाते हैं । अगर पागल ही होना है तो उस परमात्मा के के लिए पागल होना बेहत्तर है,इससे वह चीज मिलती है जो फिर छीनी नहीं जा सकती है ।बुद्धिमान लोग तो उन पागलों से कम नहीं होते, जो परमात्मा के द्वार पर नाचते हुये प्रवेश करते हैं । अच्छा है किसी के प्रेम में पागल न हों, अगर पागल ही होना है तो उस परम सत्ता के प्रेम में पागल होना सीखें जहॉ से आपको वह चीज मिलती है जिसे कोई छीन नहीं सकता है ।
 

Saturday, November 10, 2012

अपने मन से स्वयं को वश में करें

 
 

 
 
 
 
नोट-  1-  क्रमशः अध्ययन करने के लिए अंत में Older Post  पर क्लिक करते जॉय,अथवा दायें ओर  अंकित टॉपिक को खोलकर अध्ययन कर सकते हैं ।
2- इस ब्लॉग की अगली कडी में प्रवेश कर सकते हैं -     

http://raghubirnegi.blogspot.com/ 

3-आगे अध्ययन के लिए आप निम्न ब्लॉग में प्रवेश कर सकते हैं    

http://raghubirnegi.wordpress.com/

--------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------
अपने मन से स्वयं को वश में करें
 
 
          अगर आपका मन आपके वश में नहीं है तो दूसरे की इच्छा से प्रेरित होकर अपने मन को संयमित करने की चेष्ठा न करें,इससे उद्देश्य की पूर्ति नहीं होगी । क्योंकि प्रत्येक जीवात्मा का लक्ष्य मुक्ति या स्वाधीनता,या दासत्व से स्वयं को मुक्त करके उसपर प्रभुत्व स्थापित करना होता है,ताकि अपनी वाह्य तथा आन्तरिक प्रकृति पर अधिकार जमा सके। अगर दूसरे व्यक्ति द्वारा प्रयुक्त इच्छाशक्ति का प्रवाह हम स्वयं पर लागू करने का प्रयास करते हैं तो हमारे अन्दर पुराने संस्कारों और धारणॉओं में भ्रॉति की बेडी की एक और कडी जुड जाती है ।
         
          इसलिए सावधान रहें ।अपने ऊपर ऐसी इच्छाशक्ति का संचालन न करने देना होगा ।अथवा दूसरे पर इस प्रकार की इच्छाशक्ति का प्रयोग अनजाने में न करें । यह बात सही है कि कुछ लोग कुछ व्यक्तियों की प्रवृत्ति को मोडकर कुछ दिनों के लिए उनका कल्याण करने में सफल हो जाते हैं, लेकिन वे दूसरों पर सम्मोहन का प्रयोग करके बिना जाने समझे उन्हैं विकृत जडावस्थापन्न कर डालते हैं,जिससे उन लोगों की आत्मा का अस्तित्व मानो लुप्त हो जाता है । इसलिए कोई भी व्यक्ति तुमसे अन्धविश्वास करने को कहता है,या अपनी श्रेष्ठ इच्छाशक्ति के बल से वशीभूत करके अपना अनुशरण करने के लिए बाध्य करता है,तो उपयुक्त नहीं है ।वह मनुष्य जाति के लिए एक अनिष्ठ कार्य माना जाता है ।
         
          हमेशा इस बात को ध्यान में रखना होगा कि अपने मन को संयतित करने के लिए सदा अपने ही मन की सहायता लें । और इस बात को भी आपको समझ लेना होगा कि अगर आप रोगग्रस्त नहीं हैं तो कोई भी बाहरी इच्छाशक्ति आप पर कार्य नहीं कर सकेगी । जो व्यक्ति आपसे अन्धे के समान विश्वास करने के लिए कहता है हमेशा उससे दूर रहना चाहिए , वह चाहे कितना ही बडा आदमी या महात्मा क्यों न हो । इस संसार में कितने ही सम्प्रदाय हैं,जिनके धर्म का प्रधान अंग नाच-गाना,संगीत,नृत्य है । वे जब अपना संगीत नॉत्य और प्रचार प्रारम्भ करते हैं तो उनके भाव मानो संक्रामक रोग की तरह लोगों के अन्दर फैल जाता है । वे भी एक प्रकार के सम्मोहनकारी होते हैं । परिणॉम यह होता है कि सारी जाति अधःपतित हो जाती है ।
 
          इस प्रकार के धर्मोन्मत व्यक्तियों का उद्देश्य भले ही अच्छा हो मगर इन्हैं किसी उत्तरदायित्व का ज्ञान नहीं होता है । इन लोगों से मनुष्य जाति का अनिष्ठ होता है । वे नहीं जानते कि उनकी इस शक्ति के प्रभाव से लोग जड विकृतग्रस्त और शक्तिहीन होकर सहज ही उनके वश में हो जाते हैं,चाहे वह भाव कितना ही बुरा क्यों न हो । उन लोगों में उसका प्रतिरोध करने की जरा भी शक्ति नहीं रह जाती है । और वे सम्मोहन करने वाले लोग सोचने लगते हैं कि उनमें अद्भुत शक्ति है । वे सोचते हैं कि उन्हैं यह उस परमात्मा के द्वारा अद्भुत शक्ति प्रदान की गई है । बस इसी भावना से वे भावी मानसिक अवन्नति की ओर बढने लगते हैं,यही पाप,उन्मत्तता और मृत्यु के बीज हैं ।
 
          मन को संयमित करना बहुत कठिन होता है ।और इसी मन को हमें सबसे पहले संयमित करना होता है,इसके लिए कई प्रकार की विधियों का उल्लेख विद्वानों ने किया है मगर जो हमारे लिए उपयुक्त है उसे हम अपना सकते हैं । हम अपना सकते हैं ।प्रतिदिन प्रणॉयाम करने के बाद हम एक अभ्यास से अपने इस मन को संयमित करने का प्रयास करते हैं -अपने स्थान पर कुछ समय के लिए चुप्पी साधकर बैठ जॉय और मन को अपने अनुसार चलने दें ।मन चंचल होता है एक बन्दर की तरह । हमारा मन उछल-कूद मचायेगा कोई हानि नहीं है ,धीरज रखें ,प्रतीक्षा करें और मन की गति देखते रहें ।यह बात भी सत्य है कि जबतक आप अपने मन पर नजर रखोगे तबतक मन संयमित नही रह सकेगा ।
 
          यह अभ्यास आपको हर दिन करना होगा । आप देखेंगे कि मन में ऐसी भली-बुरी बातें आयेंगी कि आपको आश्चर्य होगा ।प्रारम्भ में हजारों विचार आयेंगे । फिर घटकर सेकडों में होंगे । फिर कम होते जायेंगे फिर कुछ महीने बाद आपके मन में एक भी विचार नहीं आयेगा,आप शॉत चित्त होंगे अब आपका मन अपने वश में आ जायेगा । इससे आपका मन शॉत होगा,विषयों के प्रति समझने शक्ति बढेगी,आपका मिजाज अच्छा होगा.स्वास्थ्य अच्छा रहेगा, इनमें शरीर की स्वस्थता का पहला लक्षण दिखता है ।लेकिन हर दिन हमें धैर्य के साथ अभ्यास करना होगा । हमें यह साबित करना होगा और दिखाना होगा कि वह किसी के अधीन नहीं है । इसके लिए नियमित अभ्यास की आवश्यकता होगी । अकेले रहने का प्रयत्न करना चाहिए ।
 
          विभिन्न प्रकार के लोगों के साथ रहने से चित्त विक्षिप्त हो जाता है ,उनसे अधिक बात-चीत करना उचित नहीं है,इससे मन अधिक चंचल हो जाता है ।अधिक काम करना भी अच्छा नहीं है,क्योंकि इससे मन डॉवाडोल रहता है ।सारे दिन की कडी मेहनत के बाद मन संयत नहीं हो सकता है । इसके लिए योगी का होना आवश्यक है । इस बात को भी ध्यान में रखना होगा कि अभ्यास के समय अपने भोजन को संयमित कर दें ।प्रारम्भ में हल्का भोजन और दूध उपयुक्त होगा । जबतक मन पर पूर्ण अधिकार न हो जाता तबतक अभ्यास करते रहें,और अल्पाहार करते रहें ।लेकिन जब मन एकाग्र हो जाता है तो आपको मस्तिष्क की सूक्ष्म अनुभूतियॉ होना प्रारम्भ हो जायेगा,जैसा कि मस्तिष्क से वज्र पार हो गया हो,सूक्ष्म अनुभूतियॉ होने लगेंगी । यह भ ध्यान रखना होगा कितर्क और चित्त में विक्षेप उत्पन्न करने वाली बातों को यथा शीघ्र दूर कर दें ।आपका संकल्प कैसा है उसी प्रकार से आपको आगे का रास्ता मिलेगा ।

Friday, November 9, 2012

आस्था की प्रकृति

              http://raghubirnegi.wordpress.com/


 
1-कर्म जीवन का अंग है-
 
          इस जगत में कोई भी जीव हो, चाहे उनमें सन्यासी हो यागृहस्थी सबको अपने-अपने क्षेत्र में परिश्रम करना होता है ।कर्म को हमें जीवन की साधना के रूप में स्वीकार कर लेना होता है ।धोखा या चालवाजी से कोई चीज प्राप्त नहीं हो सकती है,इससे तो आदमी स्वयं को गढ्ढे में गिराने के समान है। वैसे कहा जाता है कि भगवान की कृपा सन्यासियों की अपेक्षा गृहस्थियों पर अधिक रहती है । क्योंकि सन्यासी लोग तो भगवान का नाम लेने के लिए ही घर छोडकर आये हैं ,यदि वे भगवान को न पुकारें तो उनके लिए वह महॉ पाप माना जाता है ।लेकिन निष्ठावान गृहस्थी भक्त सिर पर भारी बोझ लादे हुये भी भगवान की कृपा याचना करके उसके दर्शन कर सकते हैं ।
 
          हमारे धार्मिक ग्रन्थों की अवधारणॉ को हमें नहीं भूलना होगा कि जीवन में कोई भी कर्म व्यर्थ नहीं जाता है,और न नष्ट होता है । उसका प्रतिफल या कुफल अवश्य मिलता है । इसीलिए जो भी सत्कर्म हो, जिस अवस्था में हो करना चाहिए । और यदि पूर्व में कोई कुकर्म किया हो तो इस पाप राशि से मुक्ति का उपाय भी यही मूल धर्म के कार्य है ।
 
           कर्मयोग के द्वारा चित्त शुद्धि होती है,आत्म ज्ञान होता है । कर्म तो सभी करते हैं मगर कर्मयोग की साधना सभी नहीं करपाते हैं,क्योंकि कर्मों के बन्धन में उन्हैं दुख का भोग करना होता हैं । भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं कि कर्म करना तुम्हारा अधिकार है,कर्मफल नहीं । कर्मफल की आशा से कर्म करने वाले तो दीन,दुर्वल और निम्न श्रेणी के लोग होते हैं । कर्म करो,किन्तु निस्वार्थ भाव से करो,यही परमानन्द को प्राप्ति का मार्ग है ।
 
          अधिकॉश लोगों की धारणॉ है कि यदि निष्काम होकर कर्म किया जाय तो फिर कर्म के प्रति आकर्षण और प्रेरणॉ कैसे उत्पन्न होगी,किसी भी काम को मन लगाकर कैसे किया जाय,यदि खुद को फायदा न हो तो मैं कर्म करने क्यों जाऊं ? यह भावना सही नहीं है । अगर सुख के लिए ही लोग कर्म करते हैं,तो सुख मिलता कितना है ? पहली बात तो यही है कि अपने स्वार्थ के लिए दूसरों को सुखों से वंचित और उन्हैं दुखी करना होता है । और इससे जो भी सुख मिलता है वह अस्थाई होता है । स्थाई सुख के लिए तो निस्वार्थ कर्म आवश्यक है । हमारे महॉन पुरुषों की यही अवधारणॉ है ।
 
          ईश्वर के दर्शन सबके भाग्य में इसी जन्म में नहीं होता है बल्कि कुछ लोग जन्म जन्मॉतर से उन्हैं पाने के लिए कठोर तपस्या,साधन भजन करते चले आरहे हैं,और पूर्व जन्म के कर्म के अनुसार,और साधना के प्रभाव से इस जन्म की अनुकूल साधना से बचे हुये कार्य को सहज ही पूरा कर देते हैं। और जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त हो जाते हैं ।
 
          सत्कर्मों का फल अक्षय माना जाता है,जितना संचय उसका किया जाय,भविष्य में,इस जन्म में,या अगले जन्म में अवश्य मिलता है । विपत्ति,घात-प्रतिघात,भयप्रलोभन,या अन्धकार या निराशा के समय समय यह फल काम आता है । सत्कर्मों की संचित सम्पति स्थाई मानी जाती है । यह देखा गया है कि सत्कर्मों को पैदा करने में दुख,रक्षा करने में दुख,नष्ट होने में दुख व कष्ट होता है । इसलिए सत्कर्मों के संचय का प्रतिफल हमें सुख के रूप में प्राप्त होता है ।
 
 
 
2- कच्चे मन का स्वभाव
 
          कच्चा मन एक महॉमायावी के समान होता है। यह हमें कब,किस तरह से कुमार्ग में ले जाकर मायावी जाल में फंसा देगा,यह समझ पाना कठिन है । कच्चे मन की पहचान है- देह और इन्द्रियों के सुखों को ढूडते रहना,स्त्री,पुत्र,परिवार को अपना समझकर उसकी माया में मोहग्रस्त होना, धन-जन,यश-प्रतिष्ठा और प्रभुत्व को जीवन की एकमात्र कामयाब वस्तु को समझना । इस स्थिति में वह सुख चाहने की लालसा में उसे पग-पग धक्का खाकर और दुख पाकर भी चैतन्य का लाभ नहीं होता है । चारों ओर लोग मरते हैं लेकिन कच्चे मन वाला मनुष्य यह कभी नहीं सोचता कि मुझे भी कब किस क्षण सबकुछ छोडकर चले जाना पडेगा । बस वह यही सोचता है कि कैसे धोखा देकर,चालाकी से,या किसी भी उपाय से अपना काम बन जाय,चाहे उससे दूसरे को नुकसान पहुंचे या दुख मिले इसकी उसे कोई परवाह नहीं होती है । अपना सुख ही उसका सर्वस्व संसार होता है ।
 
          अगर मन को हम एक फल के रूप में देखें तो उपयुक्त होगा ,कि जब वह कच्चा होता है तो उसमें खट्टापन,कसैला और बेस्वाद होता है और जिसे खाने पर रोग उत्पन्न करता है,लेकिन पक जाने पर अच्छा स्वाद और उपकारी होता है, मन की दशा भी इसी प्रकार की मानी जाती है ।
 
           कच्चे मन से किया गया कार्य चाहे वह देश या जगत के कल्याण के लिए किया जाता हो उनका उद्देश्य महान होते हुये भी उनके द्वारा संसार का हित के बजाय अहित ही देखा गया है । अपने आदर्शों में वे अधिक समय तक अटूट रूप से नहीं टिक पाते हैं । नाम यश प्रतिष्ठा और दूसरों पर प्रभुत्व करने की लालसा उनकी बलवती हो जाती है । शीघ्र उनपर हिंसा,द्वेष,संकीर्णता और स्वार्थपरता का भूत सवार हो जाता है,जिससे उनके सारे कार्य विफल हो जाते हैं । वे अपने भीतर के विष को समाज में फैलाकर जन मानस को कलुषित कर देते हैं । यहॉ तक कि वे धर्म के प्रति अविश्वास और अश्रद्धा के भाव भी पैदा करते हैं ।
 
          अगर देखें तो सभी कुछ मन का खेल है,मन के ऊपर ही सब निर्भर है । मन में बन्धन है,मन ही मुक्ति है । कहते हैं जैसी मति वैसी गति । यदि कठोर तपस्या करके भी कोई अपने अन्तःनिहित वासना के वशीभूत होकर विषयसुख और नाम यज्ञ के प्रति आकृष्ट हो तो उसका सारी तपस्या भस्म हो जाती है ,लेकिन जो लोग ईश्वर के शरणॉगत हो जाते हैं तो वे इस दुख से बच जाते हैं ।

 
 
3-ईश्वर में आस्था का स्वभाव
 
          यह देखा जाता है कि हम बात-बात में भगवान की मर्जी कहकर ईश्वर की दुहाई देते रहते हैं,यह तो सार शून्य है,सिर्फ आवाज मात्र है,जैसे कि छोटे-छोटे बालक बालिका कहते रहते हैं,भगवान कसम,राम दुहाई आदि,जैसे अंग्रेजी में कहते हैं Thank God या My God लेकिन इन शब्दों का प्रयोग वहीं कर सकता है जिसे ईश्वर का पूरा ज्ञान हो,जिसने ईश्वर को आत्मसमर्पण कर दिया हो,जिसे पक्का ज्ञान है । ये शब्द आत्मा की आवाज है जो उसकी आत्मा से निकलकर सत्य की परख के लिए प्रयुक्त होते हैं । लेकिन आज एक परम्परा बन गई है कि ईश्वर के सम्बन्ध में कोई ज्ञान नहीं है,और आत्म समर्पण भी नहीं है लेकिन इन शब्दों का प्रयोग करते हैं, ताकि शीघ्र विश्वास दिलाया जा सकें ।
 
          हमारे वेद कहते हैं कि जो पूर्ण है वह चिरकाल में भी सदा पूर्ण ही रहता है,इसमें क्षय नहीं होता । पूर्ण से पूर्ण का विनिमय करने पर ही हम पूर्णता के प्राप्त कर सकते हैं । वह परमात्मा स्वयं में पूर्ण है, इसे प्राप्त करने के लिए इस शरीर का सम्पूर्ण सामर्थ्य और मन ,प्राण,अन्तःकरण को समर्पित करना होता है तभी हमें पूर्णता की प्राप्ति हो सकती है ।
 
          एस दुनियॉ में उस परमात्मा को प्राप्त करने की सामर्थ्य हर एक में अलग-अलग होती है, उनमें कुछ लोग शरीर से बहुत दुर्वल होते हैं या जिन्दगी भर रोगग्रस्त होते हैं,जोकि उस साधना को सम्पन्न करने में असमर्थ होते हैं । इसका मतलव वे लोग तूफान के समय समुद्र में पडी छोटी नाव के समान पछाड खाते हुये पडे रहेंगे ?क्या वे कीडे मकोडों की तरह पिसते रहेंगे ? नहीं ईश्वर के राजस्व में यह कभी नहीं हो सकता ।,यदि उनके मन मेंअटूट श्रद्धा भक्ति और प्रेम है तो उन लोगों की ह्दय विदारक आवाज उस प्रभू कानों में अवश्य पहुंचती है । चाहे उनके आसपास की परिस्थितियॉ कितनी ही प्रतिकूल क्यों न हो। इस लिए इस जीवन में सिर्फ उस परमात्मा से प्रेम करें,उसकी अपार कृपा तभी प्राप्त हो सकती है ।वे लोग इसी जीवन में शॉति के अधिकारी होते हैं,और अन्त में परम पद का लाभ प्राप्त कर सकते हैं ।



Thursday, November 1, 2012

जीवन के सवाल


                                                   

                    http://raghubirnegi.wordpress.com/

1-जिन्दगी के अहम सवाल-

 
          जिन्दगी में कई प्रश्न हमारे सामने उठते हैं कि-  जो मैने पाया है वह पाया है कि खोया है? जिसे में उपलब्धि समझ रहा हूं यह उपलब्धि है या गंवाना है?जिसे मैं सफलता समझ रहा हूं वह सफलता है या असफलता ? जिसे मैं जीत समझ रहा हूं वह जीत है या हार ?जिसे मैं ज्ञान समझ रहा हूं वह ज्ञान है या सिर्फ अज्ञान को ढक लेना है ?
         
          जिस जिन्दगी में ये सवाल न उठे वह जिन्दगी कभी भी धार्मिक नहीं हो सकती है। और होता यह है कि हम उस धर्म को जिन्दगी का हिस्सा बना लेते हैं,जबकि धर्म दूसरी जिन्दगी है,धर्म तो इस जिन्दगी की राख के ऊपर खिला हुआ दूसरा फूल है । और यह भी  उन्हीं के लिए खिल सकता है जिन्हैं यह आभास हो गया कि हम अभी तक राख बटोरने में लगे हैं या बच्चों की तरह नदी के किनारे पर कंकड-पत्थर बीनने में बिता रहे हैं ।
 
 

2- अनुभव और ज्ञान की कसौटी-

 
          अनुभव से आदमी सीखता नहीं है,अनुभव तो हम सबको होते हैं लेकिन सीखने की भावना पैदा नहीं होती है।अनुभव तो सबके पास है,लेकिन ज्ञान नहीं हो पाता । अनुभव से आदमी सीख लेता है,उसके जीवन में तो ज्ञान का आना शुरू हो जाता है। जो सिर्फ अनुभव को दोहराये चला जाता है। अनुभव से  उसके जीवन में ज्ञान का आना शुरू नहीं होता है। इसलिए इस बात को समझना होगा कि अनुभव स्वयं ज्ञान नहीं है, बल्कि अनुभव से सीख लेने का नाम ज्ञान है। ज्ञान तो अनुभवों का निचोड है। जैसे इत्र फूलों से निचोडा हुआ तत्व है,ऐसे ही समस्त अनुभवों से जो निचोड लिया जाता है  वह ज्ञान है । अनुभव सबके पास है लेकिन ज्ञान बहुत कम लोगों के पास है । क्योंकि अगर अनुभवों से हम सीखते नहीं तो ज्ञान कैसे पैदा होता ।
 
 

3-जन्म लेने का अर्थ पाना नहीं है-

 
          अगर हमने मान लिया कि इस जीवन का जन्म होने से हमें सबकुछ मिल गया तो यह हमारी भूल है,इस भूल को तोडने की जरूरत है। और यदि जीवन में यह भूल टूट जाय़, तो जीवन में इतना आनन्द है कि जिसकी अनुभूति करना असंभव है। और जीवन में जो यह अनुभव करता है,वहीं परमात्मा को भी अनुभव कर पाता है। क्योंकि परमात्मा का अर्थ सिर्फ जीवन की गहराई । जीवन की जितनी गहराई में उतर जाते हैं,उतना हम परमात्मा के निकट हो जाते हैं ।और जीवन से जितने दूर हम खडे रह जाते हैं उतने ही हम परमात्मा से दूर रहते हैं ।
 
 

4-धर्म हमें जीवन से दूर रखते हैं-

         
          अगर देखें तो धर्मों ने हमें जीवन से दूर रखा हुआ है,जिस कारण हम परमात्मा से दूर खडे हैं । ये महात्मा किसी न किसी अर्थ में परमात्मा के दुश्मन सिद्ध हुये हैं। क्योंकि वे कहते हैं कि जीवन को जियो ही मत ।जीवन को जीना गुनाह है। जीवन से बचो। जीवन से भाग जाओ । जहॉ -जहॉ भी जीवन हो वहॉ से भाग जाओ। वहॉ रुकना नहीं। कहीं जीवन बुला न ले,कहीं जीवन आमंत्रण न दे दे। धर्म ने तो हमेशा तोडने का काम किया है,मनुष्यों ने मनुष्यों से नाता तोडा है ,पत्नियों ने पति से,बेटों ने बाप से,धर्म ने जीवन से नाता तोडने का कार्य किया है। जबकि सच्चा धर्म जीवन से जोडने का कार्य करता है तोडने का नहीं। क्योंकि अगर कहीं कोई परमात्मा है तो निश्चित ही वह मृत्यु की शक्ल में नहीं हो सकता, वह जीवन की शक्ल में ही हो सकता है । और यदि कहीं परमात्मा है तो उसे हम जीवन-धारा की गहराई में उतर कर ही पहचान सकते हैं । उसे अपने ही नसों में  अनुभव करते हैं। अपने ही स्वासों में डोलता हुआ अनुभव करते हैं। अपने ही आंखों से उसे देखता हुआ अनुभव करते हैं, और अपने ही हाथों उसे प्रेम करता हुआ जान सकते हैं ।
 
 

5-परमात्मा की खोज नकल से-

 
          जी हॉ परमात्मा की ओर हम नकल करके जाते हैं।पिता को देखकर एक बेटा परमात्मा को खोजने लगता है। पडोस वालों को देखकर परमात्मा को खोजने लगते हैं। बडों को मन्दिर में जाते देख कर छोटे मन्दिर में चले जाते हैं । अब प्रश्न उटता है कि क्या किसी के पीछे चलकर परमात्मा को पा सकते हैं ? असंभव !इसलिए कि हमारे अन्दर यह प्यास अभी जगी नहीं है । यह झूठी प्यास है । झूठी प्यास से आदमी सरोबर तक नहीं पहुंच सकता है। और यदि पहुंच भी जाय तो पानी को पहचान नहीं पायेगा कि यह पानी है ।क्योंकि पानी को पहचानने के लिए अपनी प्यास चाहिए ।प्यास ही पानी की पहचान है!
 
 
          परमात्मा तो हर समय हमारे चारों ओर मौजूद है,लेकिन प्यास न होने से कोई उसे काशी खोजने जायेगा,कोई मक्का और कोई जेरुसलम,और कोई कैलाश में खोजने जायेगा। इसलिए कि हमें प्यास नहीं है । लेकिन यदि प्यास है तो हमारे श्वास-श्वास में,हवा के कण-कण में,,वृक्ष के पत्ते-पत्ते में वह मौजूद है । जहॉ भी देखो वहीं मौजूद रहेगा उसके अतिरिक्त और किसी का कोई अस्तित्व नहीं है ।
 
 

6-परमात्मा का स्वरूप-

 
          अगर हम नानक, कबीर, रैदास या महॉवीर को देखें तो इनकी जिन्दगी में हम दो मौके पायेंगे । वेदना और आनन्द ।लेकिन हम है कि उनमें एक मौके को देखना ही नहीं चाहते,सिर्फ दूसरे मौके को ही देखते हैं। नानक के जीवन में दो मौके पाएंगे, एक वह वक्त है जब वे रोते हैं और एक वक्त है जब वे आनन्द से भर जाते हैं। एक वक्त है जो पीडा और विरह का है और एक वक्त है जो प्रस्फुटित का है । अगर मीरा को देखें तो एक वक्त है जब मीरा रोती है और एक वक्त है जब मीरा नाचती है। लेकिन हम रोने की बात को भूल गये,और नाचने की बात याद रख ली । बुद्ध को देखें तो उनकी जिन्दगी में रोशनी आने की हमें याद है मगर अमावश की काली रात के वक्त की याद हम भूल गये ।हम रोशनी चाहते हैं, अमावश की काली रात कौन चाहेगा । हम परमात्मा के आनन्द में डूबना चाहते हैं मगर असकी पीडा नहीं।
 
 
          हमने गुरु नानक की मुस्कराती तस्वीर को तो खयाल में रख लिया मगर हमने वह तस्वीर छोड दी है जो रोते हुये खयालों में है। यह तो परमात्मा का आधा रूप है, इसे चुना नहीं जा सकता है। परमात्मा को पूरा ही चुनना होता है। फूल का तो कोई भी स्वागत कर सकता है लेकिन फूल के पौधे को बडा करने का भी संकल्प है। कहते हैं कि धर्म आनन्द का द्वार खोल देता है ,लेकिन उसके लिए ही खुलता है जिसके लिए पूरा जगत पीडा और दुख बन जाता है। जिसको अभी पीडा ही नहीं अनुभव हुई ,उसे् आनन्द का कोई अनुभव ही नहीं हो सकता। नानक ने आनन्द के लिए भजन गाये थे। लेकिन हमने बिना पीडा पाये उन भजनों को गाते हैं तो उनका कोई अर्थ नहीं रह जायेगा।
 
 
          अगर देखें तो कोई नर्तकी मीरा से अच्छा नाच सकती है। लेकिन उस नाचने में मीरा का आनन्द नहीं हो सकता है ,क्योंकि उस नाचने के पहले मीरा की पीडा,मीरा की लम्बी दुखद यात्रा नहीं है।
 
 
          परमात्मा के दो पहलू हैं । एक विरह का,दुख का,और आगे आनन्द का द्वार है ।वैसे विरह,दुख और पीडा अन्धकार का रास्ता है ,इस मार्ग पर हम कोई भी नहीं चलना चाहते हैं। हम सभी आनन्द चाहेंगे,हम सभी चाहेंगे कि परमात्मा मिल जाय। इसलिए हम सभी आधे परमात्मा की की खोज पर निकले हैं। हमारा मिलन नहीं हो सकता है।
 
 
          हम सुबह उठते हैं शॉम को सो जाते है ,जन्म लेते हैं और मर जाते हैं। कमाते हैं,गंवाते हैं,पूरी जिन्दगी की कथा बिना अर्थ के,बिना किसी प्रयोजन के-उस तिनके समान है जो लहरों पर डोलता हुआ कभी इस किनारे और कभी उस किनारे के थपेडों से जूझता है,और सोचता है मैं यात्रा कर रहा हूं।ठीक हम भी उसी प्रकार जिन्दगी को जीते हैं ,सोचते हैं कि यात्रा कर रहे हैं। यात्रा तो सिर्फ धार्मिक आदमी के जीवन में होती है। बाकी लोगों की जिन्दगी में तो बस इस किनारे से उस किनारे होना होता है।
 
 

7-खालीपन की पहचान है अधार्मिक होना-

 
          एक  फकीर ने रातभर परमात्मा से प्रार्थना की कि मेरे पडोस में एक आदमी रहता है वह बहुत ही अधार्मिक है,तू उसे इस दुनियॉ से उठा ले। वह एक चोर, बेइमान, और नास्तिक भी है। रात के सपने मे परमात्मा ने उसे कहा कि तू मुझसे ज्यादा समझदार मालूम होता है ! इस आदमी को मैं चालीस साल से स्वॉस दे रहा हूं,भोजन दे रहा हूं,इस आदमी से चालीस साल में मैने कोई शिकायत नहीं की! ,तू मुझसे ज्यादा धार्मिक हो गया मालूम होता है !क्योंकि तुझे यह आदमी अधार्मिक मालूम होने लगा है।
 
 
              दूसरे को अधार्मिक दिखने का खयाल,और दूसरे की चिन्ता करने का खयाल अधर्म है। लेकिन हम दूसरों की चिन्ता में इतने उलझे रहते हैं कि सिर्फ अपने को छोडकर सबके बावत सोचेंगे ।सुबह से शॉम तक दूसरे के बारे में सोचेंगे,सिर्फ अपने सम्बन्ध में नहीं सोचेंगे। जिन्दगी गुजर जाती है एक नहीं बहुत सारी जिन्दगियॉ उसकी गुजर सकती है। जो अपने सम्बन्ध में नहीं सोचेगा  ।वह अपने भीतर खालीपन का अनुभव भी नहीं कर सकेगा । और जिसे अपने भीतर खालीपन का अनुभव नहीं होगा उसकी जिन्दगी में परमात्मा की खोज शुरू नहीं होगी अपने भीतर खालीपन एक पहलू और परमात्मा की खोज उसी सिक्के का दूसरा पहलू है।
 
 
          क्या आपको लगता है कि आपके भीतर कोई कमी है ? लगता है भीतर कोई अभाव है ? लगता है भीतर कोई कुछ खाली-खाली है ? अगर यह अनुभव होता है तो आपकी जिन्दगी में परमात्मा की किरण उतर सकती है। लेकिन इस खालीपन को ठीक से समझना होगा,और समझकर इस खालीपन से भागने और बचने की कोशिश मत करना। क्योंकि बचने के बहुत उपाय हैं। एक आदमी अपने भीतर के खालीपन से बचने के लिए या तो सिनेमा देखता है दूसरा आदमी संगीत सुनता है ,तीसरा आदमी ताश खेल सकता है और अपने भीतर खालीपन को भूल जायेगा। चौथा आदमी कीर्तन-भजन करके खालीपन को भूलने की कोशिश करता है,यह असली भजन नहीं है,यह सिर्फ भुलावा है,यह अपने को भुलाना है,अपने को जानना नहीं है।
 
 
          बस अगर अपने भीतर खालीपन दिखाई पडे तो समझो परमात्मा की खोज का रास्ता खुल जाता है। उस खालीपन में खडे होने से पीडा शुरू हो जाती है,नीचे की जमीन खिसक जाती है ऊपर का आकाश खो जाता है ,एक आह उठेगी जो परमात्मा की खोज बन जाती है।


Tuesday, October 23, 2012

सच और झूठ की पैरवी


        सबसे पहली बात तो यह है कि आदमी के जीवन में आनन्द के क्षण कम हो गये हैं ,जीवन दुख की एक लम्बी कहानी हो गई है । अगर जीवन में इतना दुख हो तो इसका परिणॉम भी दिखता है-और फिर वह दुखी आदमी दूसरे को भी दुख देने के लिए आतुर हो जाता है ।ऐसा ही होता है, जो मेरे पास है वही तो मैं दूसरे को दे सकता हूं । यदि मैं दुखी हूं तो मैं दुख दे सकता हूं । हम सब दुखी हैं, चेहरे पर दिखाई देने वाली मुस्कराहटें झूठी है, सच तो यह है कि हमने मुस्कराहटों का आविष्कार भीतर के दुख को छिपाने के लिए ही किया हुआ है । हम केवल दिखाने के लिए हंसते हैं ।
 
 
        एक बार एक सम्राट बुद्ध से मिलने गया और उसने बुद्ध से पूछा,आप कभी हंसते भी हैं या नहीं ?तो बुद्ध ने कहा कि भीतर दुख ही न रहा तो अब हंसी की भी कोई जरूरत नहीं रही,क्योंकि हंसी दुख को छिपाने के लिए ही थी ।हम हंसते थे ऊपर से ताकि भीतर का दुख भूल जॉय ।
 
 
        एक बार नीत्से से किसी ने पूछा था कि तुम बहुत हंसते हो,बहुत खुश मालूम पडते हो ! नीत्से ने कहा,यह बात ही मत छेडो । मैं तो इसलिए हंसता रहता हूं कि कहीं रोने न लग जाऊं । बस फूर्सत नहीं रहनी चाहिए ।अगर बाकी समय मिल गया तेो बीच में रोना भी आ सकता है ।आंसू न आये,इसलिए हंसने में शक्ति और समय लगता रहता है ।
 
 
        शायद आपको पता हो कि जैसे-जैसे मनुष्य का दुख बढा है,एक अद्भुत चीज भी बढी है,और वह चीज है मनोरंजन के साधन । सुखी आदमी के लिए मनोरंजन नहीं चाहिए ,वह इतने सुख में होता है कि उसे मनोरंजन के साधनों की जरूरत ही नहीं पडती । मनोरंजन चाहिए दुखी आदमी के लिए । साधनों की जरूरत पडती है जब सुखी नहीं रहता ।शराब की जरूरत है, सेक्स के नयें-नयें आविष्कार दिखते हैं ।फिल्में देखनी पडेंगी,टीवी,और रेडियो खोजना होगा,संगीत की खोज जाना होगा ,लेकिन इनसे भी दुख दूर नहीं हो पाता है और सब तरह की हंसी के बाद भी यह दुख मिटता नहीं है तब वह अपनी ही मूल जगह रह जाता है, और जब भीतर बहुत दुख आ जाय तो हम स्वभावतः दूसरे को दुख देने में रस लेने लगते हैं ।
 
 
        जब कोई आदमी आनंदित होता है,तो वह दूसरे को सुख देने लगता है ।आनंदित आदमी की एक कसौटी है कि अगर आप दूसरे के सुख में सुखी होते हैं तो आप आनंदित आदमी हैं । और यदि आप दूसरे को सुखी करने में सुखी हो सकें तो भी आप आनंदित आदमी हैं । और अगर आप दूसरे को दुख में देखकर रस पाते हैं और दूसरे को सुख में देखकर दुख पाते हों तो आप दुखी आदमी हैं ।
 
 
        आदमी की मनोदशा अद्भुत है । जब वह दूसरे को दुख में देखता है तो बहुत सहानुभूति प्रकट करता है और उसे ऐसा भ्रम होता है कि दूसरे के दुख में वह दुखी हो रहा है । लेकिन कभी आपने खयाल किया होगा कि जब कोई आदमी किसी को प्रति सहानुभूति प्रकट करता है तो उसकी आंखों में एक रस भी दिखाई देता है कि वह बहुत आनंद भी ले रहा है ।असल में दूसरे के प्रति सहानुभूति दिखाने में एक बडा मजा है। क्योंकि जिसके प्रति हम सहानुभूति दिखाते हैं वह नीचा हो जाता है,और हम ऊपर हो जाते हैं । लोग तो इसी तलाश में रहते हैं कि कब आपको सहानुभूति दिखलाने का मौका मिले ।
 
 
        अगर आपकी मकान में आग लग जाती है तो लोग सहानुभूति दिखाने आ जायेंगे। लेकिन ये वे लोग हैं कि अगर आपने बडा मकान बना दिया होता तो ईर्ष्या से भर गये होते । अजीव गणित है ये । जो लोग मकान के बडे होने से ईर्ष्या से मरते थे,वे मकान को जल जाने से दुखी नहीं हो सकते ! वे तो दुख दिखाते हैं,दुख प्रकट करते हैं,लेकिन भीतर उनके दुख नहीं हो सकता ।क्योंकि जब वे किसी के मकान को बडा होते देखकर खुश नही हुय़े थे,तो छोटा होते देख कर दुखी कैसे हो सकते हैं ?
 
 
        अपने जीवन का अनुभव है कि मैं अपने एक मित्र के घर में ठहरा हुआ था । उस मित्र का बहुत बडा मकान बनाया हुआ था । उनसे बात होती थी तो कुछ भी बात पर मकान शब्द बीच में आ जाता,कभी स्वीमिंग पूल तो कभी बाथरूम बीच में आ जाता । मैं दो दिन वहॉ रहा तो मुझे लगा कि इससे पहले भी इन्होंने मुझे मकान के सम्बन्ध में बात करने के लिए बुलाया था तब भी मकान की ही बात चली थी । अब भी मकान के ही सम्बन्ध में कह रहे हैं तो इसका मतलब यही हुआ कि शायद इनका मकान अधिक महत्वपूर्ण है ,जबकि वे मकान मालिक है,मकान मालिक का महत्व कम है मकान की तुलनां में ।क्योंकि इन्होंने अपने सम्बन्ध में कोई बात ही नहीं की,मकान की ही बात की ।
 
 
        तीसरी बार उन्होंने मुझे अपने घर बुलाया मेहमान के रूप में, इस बार उन्होंने मकान की बात नहीं उठाई । मैं डरा हुआ था कि मकान की बात अभी आती है मगर मकान की बात नहीं आयी ,सॉझ हो गई ,रात होने लगी,तो मैने उससे पूछा कि मकान के सम्बन्ध में बात कब होगी । तो उन्होंने कहा छोडिये जाने दीजिएगा?मैने सोचा कि बात क्या है,पता चला कि पडोस में एक दुर्घटना हो गई थी, पडोस में एक बडा मकान बन गया था ।दूसरे दिन सुबह जब मैं उठा तो मैने देखा कि कारण क्या है । मैने उनसे मकान की बात की -तो कहने लगे आप मकान की बात मत करिये । जब से पडोस में ये मकान बना है तब से मन उदास हो गया है ,दुखी जैसा हूं । लेकिन कोई बात नहीं वर्ष दो वर्ष में इससे भी बडा मकान खडा कर लेंगे। तब तक मकान की बात करनी ठीक नहीं है ।
 
 
       कुछ देर बात पडोस के मित्र आकर मुझे अपने घर ले गये, और अपने मकान की बात करने लगे । कहने का मतलव कि अगर पडोस में कोई बडा मकान बन जाय तो मुश्किल हो जायेगी ।
 
 
        हम दूसरों के सुख में जरा भी सुखी नहीं हो पाते हैं । इसलिए दूसरे के दुख में जब हम दुख दिखलाते हैं तो वह झूठा होता है।
 
 
        हम हंसते हैं,यह सिर्फ दिखावे की हंसी है यह हमारा असली चेहरा नहीं है,बनाया हुआ चेहरा है,शायद जिसको हम भी नहीं पहचानते हैं ।
 
 
        एक मनोवैज्ञानिक का कहना है कि अगर एक कमरे में दो आदमी मिलते हैं तो दो आदमी नहीं मिलते हैं बल्कि कमसे कम छह आदमी मिलते हैं । अगर मैं आपसे किसी कमरे में मिल रहा हूं तो एक तो मैं हूं,और एक वह रहेगा जो मैं आपको दिखला रहा हूं,और एक वह रहेगा जिसे आप मुझे समझ रहे हैं ।आप भी तीन और मैं भी तीन छह आदमियों की बातचीत चलेगी । और असली आदमी तो बहुत पीछे छूट जायेगा,नकली आदमी आगे आकर बात करते रहेंगे । न मालूम कितनी शक्लें बदलनी पडेगी । क्योंकि अपना दुख छिपाना पडता है । उसे उसे बताने का कोई अर्थ भी नहीं है । उसे किसी से कहने से कोई प्रयोजन भी नहीं होता ।
 
 
         एक यहूदी फकीर की लिखी कहानी है कि -मैं सारे लोगों को देखता हूं । रास्ते भर जो भी दिखता है हंसता हुआ दिखाई दोता है ,जो भी मिलता है मौज में दिखता है ,किसी से मैं पूछता हूं कि कहिए  क्या हाल है ?वह कहता है सब ठीक है,बडा आनन्द है ।और मैं उनके भीतर झॉक कर देखता हूं तो दुख के सिवाय और कुछ नहीं है । फिर एक दिन मैंने भगवान से प्रार्थना की कि मुझसे नाराजी क्या है ?सारे लोग खुश हैं ,जिससे पूछो कहता है सब ठीक है। एक मैं ही हूं जो जो परेशान हूं । ईश्वर तुझसे यही प्रार्थना है कि किसी भी अनजान आदमी का दुख मुझे दे दे और मेरा दुख उसे दे दे मैं तैयार हूं । इस गॉव में किसी भी आदमी का दुख लेने को मैं तैयार हूं । मेरा दुख बदल ले ।
 
        इसलिए हमें देखना होगा कि यह जिन्दगी जीने के लिए है,और सही ढंग से जीने के लिए सत्य को आधार माने, सत्य को पहचाने अन्दर और बाहर की दुनियॉ में भेद न रखें । 


Sunday, October 21, 2012

ईश्वर की अनुभूति

 
1-           जिस प्रकार पतंगा प्रकाश को देखकर अपने आप ही अग्नि में गिरता है,उसी प्रकार भक्त भी भगवान के निमित्त अपना सर्वस्व त्याग देता है ।
 
 
2-           जिस प्रकार दाद को जितना ही अधिक खुजलाते जाते हैं वह उतना ही अच्छा लगता है, उसी प्रकार भक्त भी भगवान के नाम लेने और स्तुति करने से तृप्त नहीं होते
 
 
3-           एक मनुष्य दूसरे को प्यार करता है,परन्तु वह दूसरा उस प्रथम मनुष्य को प्यार नहीं करता है,इसप्रकार एक ओर के प्रेम को एकॉगी प्रेम, भक्ति कहते हैं । जैसे पतंगा तो दीप को चाहता है मगर दीप पतंग को नहीं चाहता है ।
 
 
4-           रात्रि के ,समय आकाश में असंख्य तारे दिखते हैं, लेकिन सूर्योदय होने पर वे दृष्टिगोचर नहीं होते हैं ,क्या इससे कोई कह सकता है कि आकाश में तारे नहीं हैं ? इसी प्रकार अविद्या रहते यदि ईश्वर के दर्शन न हों तो क्या कोई कह सकता है कि ईश्वर है ही नहीं ?
 
 
5-           जिस प्रकार छत के ऊपर जाने तके लिए सीढी,बॉस,रस्सी,इत्यादि अनेक साधन हैं, वैसे ही उस ईश्वर के पास जाने के लिए बहुत से मार्ग हैं,पर प्रत्येक मार्ग अंत में एक होकर ईश्वर को मिलता है ।
 
 
6-           जिस प्रकार अग्नि का कोई रूप नहीं है परन्तु प्रज्वलित अंगारों से उसका एक प्रकार का रूप दिखाई देता है, अर्थात उस समय अग्नि रूप धारण कर लेती है ।उसी प्रकार परमेश्वर का कोई रूप नहीं है,पर वे कभी-कभी विशेष आकार धारण कर लेते हैं ।
 
 
7-           समुद्र में एक बार डुबकी मारने से यदि रत्न न मिले तो उस समुद्र को रत्न हीन न कहो।बार-बार डुबकी लगाते-लगाते रत्न अवश्य मिलेगा । थोडी सी साधना करके ईश्वर को न पाकर यह मत बोलो कि ईश्वर नहीं मिला और न ही निराश होना, धीरज रखकर साधन करते रहें फल मिलने का समय अवश्य आयेगा ।
 
 
8-           जिस प्रकार मेघ से सूर्य ढक जाता है,वैसे ही माया से ईश्वर ढंके हुये हैं । फिर जैसे मेघ के हटने पर सूर्य दिखाई देता है,वैसे ही माया के हटने पर ईश्वर पर दृष्टि पडेगी ।
 
 
9-           भॉग-भॉग कहकर चिल्लाने से क्या भॉग का नशा चढेगा ? कदापि नहीं । हॉ, यदि भॉग पीसकर पियो तो नशा होगा । उसी प्रकार खाली ईश्वर -ईश्वर कहकर चिल्लाने से क्या मिलेगा ? नियम बॉधकर साधन करो तो परमात्मा प्राप्त होगा ।
 
 
10-           अमृत के तालाब में चाहे जैसा गिरो,अमर हो जाओगे,वैसे ही भगवान का नाम चाहे जैसे लो, उसका फल अवश्य मिलेगा ।
 
 
11-           दीपक का कार्य तो प्रकाश देना है । अब उसका प्रयोग भात पकाने में करे या जालसाजी के लिए करें,या गीता को पढने में करे, इससे दीपक का कोई दोष नहीं है । इसी प्रकार अगर कोई भगवान का नाम को लेकर मुक्ति चाहता है या चोरी ठगी करता है तो उसमें भगवान का क्या होष है ?
 
 
12-           प्र-क्या सब मनुष्य ईश्वर दर्शन कर पायेंगे ?
उ-हॉ जैसा कोई मनुष्य कभी भूखा नहीं रहता है,कोई नौ बजे,कोई दो बजे और कोई सॉझ को भोजन पाता है,उसी प्रकार किसी न किसी जन्म में कभी न कभी सभी ईश्वर का दर्शन पायेंगे ।
 
 
13-           जिस प्रकार मछली चाहे कितनी ही दूर क्यों न हो पर चारा देखकर वह झट से पास चली आती है, उसी प्रकार भगवान भी विश्वासी भक्त के मन में शीघ्र आकर उपस्थित होते हैं ।
 
 
14-           जब तक ईश्वर नहीं दिखाई देता है तब तक कामनारूप पवन से हिलोरे लेती रहती है तबतक ईश्वर नहीं दिखाई देता है, लेकिन जब ईश्वर की ज्योति झलकती है,तब उसकी झॉकी पाने वाले का ह्दय सुस्थिर हो जाता है ।
 
 
15-           मन में भगवान के आगमन की पहचान है -जैसे सूर्योदय के पूर्व गगन में ललाई छा जाती है उसी प्रकार भगवान भी विश्वासी भक्त के मन में शीघ्र आकार उपस्थित होते हैं ।
 
 
16-           जिस प्रकार दूध में जल डालने पर दूध और जल दोनों मिलकर एक हो जाते हैं ,लेकिन जब दूध का मक्खन बन जाता है वह जल में नहीं घुलता है,इसी प्रकार ईश्वर की प्राप्ति होने पर भक्त जन किसी दशा में भवबन्धन में नहीं पडते ।।
 
 
17-           सभी जल में नारायण है मगर सब जल को पिया नहीं जाता । इसी प्रकार नारायण सर्वत्र है,पर हमें सभी स्थानों पर नहीं जाना चाहिए ।जैसे एक जल से पॉव धोते हैं,एक से नहाते हैं,एक को पीते हैं और एक को छूते भी नहीं हैं । ऐसे ही भिन्न-भिन्न प्रकार के स्थान भी हैं । किसी स्थान में हम जा सकते हैं,और किसी को दूर से ही प्रणॉम करके जाना होता है ।।
 
 
18-           जैसे कमल के पत्ते जल में लगे रहते हैं पर जल से अलग रहते हैं और मछली कीचड में रहती है लेकिन उसकी देह में कीचड नहीं लगता है । इसी प्रकार भक्त कहीं भी रहे उसकी आस्था उसी ईश्वर में होती है ।
 
 
19-           पूजा तबतक करनी चाहिए जबतक हरिनाम में प्रेम के आंसू न बहे । कान में भगवान का नाम सुनते ही जिसकी आंखों में आंसू निकल आता है,उस मनुष्य को फिर पूजा करने की आवश्यकता नहीं है ।
 
 
20-           जो व्यक्ति अपने में ईश्वर को पहचान सके वह अन्य में भी ईश्वर देख सकता है ।
 
 
21-           एक के आगे लगातार शून्य लगाते जाने से संख्या बढती है ,परन्तु एक को मिटा देने से फिर कुछ भी शेष नहीं रहता है ,उसी प्रकार जब एक ईश्वर है तभी तक जीवों का स्तिचत्व है ,उस ईश्वर को छोड देने से सर्वस्व मिथ्या हो जाता है ।
 
 
22-          अपना दिल सुरक्षित स्थान पर रखो; वह बहुत कोमल है । घटनाएँ और छोटी छोटी बातें उसपर बड़ा प्रभाव छोड़ जाती हैं । अपने दिल को सुरक्षित और मन को स्वस्थ रखने का ईश्वर से श्रेष्ठ स्थान कोई नहीं है ।
 
 
23-          दुनिया के सभी लोग एक ही भाषा में मुस्कुराते हैं ।
 
 
24-          जब तक तुम असंतुष्टता से कृतज्ञता तक नहीं जाते, जब तक स्वयं को भाग्यशाली नहीं मानने लगते, तब तक दुर्भाग्य के बीज उपस्थित रहेंगे । "धन में मेरा भाग्य ठीक नहीं है| संबंधों में मेरा भाग्य ख़राब है । काम में किस्मत साथ नहीं देती ।" यह सब अपने मन से निकाल दो ।
 
 
25-          भगवती देवी जो शुद्ध चेतना हैं, सभी नामों और रूपों में व्याप्त हैं । उस एक दिव्यता को पहचानना नवरात्री का अभिप्राय है ।
 
 
26-          कोई और तुम्हारे लिए फूल लाए, इसकी प्रतीक्षा न करो । अपना बागीचा खुद लगाओ और अपनी आत्मा का श्रृंगार करो ।
 
 
27-          उलझन का अर्थ है कि तुमने एक रास्ता चुना पर दूसरे रास्ते पर अधिक आनंद दीखता है । तुम कोई भी चुनो, लगता है दूसरा अधिक आनंदमय होगा । आनंद किसी और से अधिक नहीं होगा । तुम स्वयं ही आनंद के स्रोत हो ।
 
 
28-          शांति तुम्हारा स्वभाव है, फिर भी तुम अशांत हो । मुक्ति तुम्हारा स्वभाव है फिर भी तुम बंधन में हो । प्रसन्नता तुम्हारा स्वभाव है फिर भी तुम किसी न किसी कारण दुखी हो जाते हो । संतोष तुम्हारा स्वभाव है फिर भी तुम कामनाओं से घिरे हो । उपकार तुम्हारा स्वभाव है फिर भी तुम दूसरों के प्रति कदम नहीं बढ़ाते ।
 
 
29-          साधना का अर्थ है अपने स्वभाव की ओर जाना, अपने स्वरूप में आना ।
 
 
30-          जब शब्द बुद्धि को छूते हैं तो ऐसा आभास होता है जैसे हमें सब पता है । तुम भले एक ही वाक्य जानते हो, यदि बुद्धि से जानते हो, तो दस वाक्य कहोगे । पर जब शब्द दिल को छूते हैं तो एक विस्मय होता है, कुछ प्रस्फुटित होता है, एक लहर या फव्वारा उठता है, और तब शब्दों की आवश्यकता नहीं रहती ।
 
 
31-          सच्चा प्रेम पाने की क्षमता प्रेम देने की क्षमता के साथ ही आती है । प्रेम कोई भावना नहीं है । प्रेम तो तुम्हारा अस्तित्व है ।
 
 
32-          सामान्यतः विजय दशमी अच्छाई की बुराई पर जीत जानकार मनाई जाती है, पर वास्तव में युद्ध अच्छाई और बुराई के बीच नहीं है । वेदांत की दृष्टि से जीत वास्तविक अद्वैत की मिथ्या द्वैत पर होती है । हालाँकि जीव जगत ब्रह्माण्ड का ही भाग है, पर उसमें भिन्नता की कल्पना इस द्वंद्व का कारण है । एक ज्ञानी के लिए संपूर्ण सृष्टि सजीव हो उठती है और वह बच्चों की भांति सब कुछ जीवित देखता है ।
 
 
33-          सबसे बड़ी आहुति तुम स्वयं हो । आखिरकार, तुम दुखी क्यों होते हो? मुख्य रूप से तभी जब तुम जीवन में कुछ पा न सको । ऐसे समय में सब कुछ सर्वज्ञ ईश्वर को समर्पित कर दो । ईश्वर को समर्पण करने में सबसे बड़ी शक्ति है । जैसे एक बूँद समुद्र में घुल कर उसे अपना लेती है, यदि वह अलग रहती है तो मिट जाएगी| पर जब वह समुद्र बन जाती है तो अमर हो जाती है ।
 
 
34-          असंभव का स्वप्न देखो, असंभव कल्पना करो| यह जान लो कि तुम इस दुनिया में कुछ अद्भुत और अद्वितीय करने आये हो । खुद को बड़ा सोचने की और बड़े सपने देखने की मुक्ति दो ।
 
 
35-          प्रेम अनुभव करना दिल का काम है और संदेह करना दिमाग का । दोनों का अपना अपना स्थान है । तुम्हें दोनों की आवश्यकता है । तुम कितना संदेह कर सकते हो? करते रहो और जब सारे संदेह ख़त्म हो जायें और नए उत्पन्न न हों, तब वहां से श्रद्धा का आरम्भ होता है ।
 
 
36-          पहला कदम है विश्राम करना और आखरी कदम भी विश्राम करना ही है! सबसे आरामदेह और सुखदाई स्थान तुम्हारे भीतर ही है| अपने आत्म की शांत निर्मल गहराई में विश्राम करो - यह अति अमूल्य है । । संपूर्ण ब्रह्माण्ड के इस अति सुन्दर, अति सुखदाई घर में स्वयं को दर्ज कर लो ।
 
 
37-          प्र: मुझे नास्तिक होना चाहिए या आस्तिक?
तुम स्वयं का वर्गीकरण क्यों करना चाहते हो? एक दिन नास्तिक हो जाओ, किसी और दिन आस्तिक हो जाओ । तुम कुछ भी रहो, अन्दर से सच्चे रहो ।
 
 
38-          ज़रा उन लोगों की ओर देखो जो वह सब करते हैं जिससे तुम्हें द्वेष है । एक क्षण के लिए, वे जैसे भी हैं उनके प्रति दया भाव रखो । तुम्हारे भीतर एक परिवर्तन होता है; तुम विशाल हो जाते हो; तुम्हारे आत्म का विस्तार होता है ।