Wednesday, August 8, 2012

चरित्र एक ज्योति है

 
 
1-चरित्र निर्मॉण-
        चरित्र तो एक ज्योति है,जो सूर्यास्त हो जाने और सभी के बुझ जाने पर भी आलोकित होती रहती है। चरित्र एक शक्ति है,जिसके द्वारा हम हारते हुये युद्धों को भी जीत में परिणित कर सकते हैं।यह मनुष्य में एक दिव्यता है,जिसके सामने सभी नत मस्तक हो जाते हैं।यह एक उत्प्रेरणॉ है जो कि निर्धनता के बीच भी चमकती रहती है।यह एक सुदृढ है।लुटेरे सबकुछ लूट सकते हैं मगर चरित्र को नहीं ।यदि हमने चरित्र के आलावा सबकुछ खो दिया तो वस्तुतः हमने कुछ भी नहीं खोया। मनुष्य द्वारा निर्मित हर वस्तु को मनुष्य नष्ट कर सकता है,लेकिन चरित्र को नहीं। चरित्र से हम निर्भयतापूर्वक किसी भी प्रकार के वर्तमान और भविष्य का सामना कर विजय प्राप्त कर सकते हैं। इसके अभाव में तो हमारा कोई वर्तमान है और भविष्य।

2-शिक्षा का मुख्य उद्देश्य चरित्र निर्मॉण है-
        चरित्र मिर्णॉण शिक्षा का मुख्य मूलभूत उद्देश्य है ।जो लोग अपने बच्चों को सबकुछ देकर भी चरित्र नहीं दे पाते हैं,वे मानो रोटी की जगह मिट्टी दे रहे हैं। वैसे तो मनुष्य अपना चरित्र स्वयं बना सकता है,लेकिन उसके निर्मॉण के बाद खो भी सकता है। इसलिए इस जीवन के लिए स्वॉस लेने के समान, अपने चरित्र की निरन्तर देखभाल करने की आवश्यकता होती है। किसी भी देश की शक्ति की नींव, उसका चरित्र है।


3-चरित्र हीन एक दरिद्रता का नाम है-
        चरित्रहीन वह दरिद्रता है,जिससे अधिक बुरा कुछ भी नहीं है। एक सामान्य व्यक्ति को संसार के संकटों के निवारण में कठिनाई हो सकती है, मगर यदि उसने अपने चरित्र की देखभाल की है,और इसमें दूसरों की भी सहायता की है तो,अपने कर्तव्यों की पूर्ति पर न्तोष करते हुए अन्य सभी चीजों की चिन्ता छोड सकता है।


4-चरित्र जीवन यापन के लिए आवश्यक है-
        हमें अपने जवन यापन के लिए अच्छे चरित्र की आवश्यकता होती है, क्योंकि हमारे जीवन में व्यक्तिगत, सामाजिक,राष्टीय अन्तर्राष्टीय स्तरों पर विना अच्छे चरित्र के समस्याओं का समाधान हो ही नहीं सकता। यदि हमारे पास अच्छा चरित्र हो,तो हमारी शक्तियों की अपेक्षा दुर्वलताएं ही प्रभावी होंगी, और फिर सौभाग्य की तुलना में दुर्भाग्य अधिक प्रबल होगा। हमारे जीवन में लुख-शॉति की जगह शोक-विषाद अधिक होगा।।


5-चरित्र हीनता से नकारात्मकता सबल होंगे-
        अगर हमारा चरित्र अच्छा नहीं है तो हमारे मित्रों की अपेक्षा शत्रु अधिक सबल होंगे।शॉति की अपेक्षा चुद्ध अधिक होंगे,हमारी रेलगाडियॉ समय से नहीं चलेंगी,कारखाने क्षमता के अनुरूप उत्पादन नहींकरेंगे,खेतों में कम उत्पादन होगा,हमारे मनदिर व्यावसायिक केन्द्र बन जायेंगे,ऐसे कार्यों को हम टालते जायेंगे जो हमें पूर्ण बनाते हैं। हमारे बॉध बाढ को नहीं रोक सकेंगे,हमारे पुल बह जायेंगे,हमारे राजमार्ग जगह-जगह नष्ट हो जायेंगे,हमारे नेता अपने नेत्रृत्व की खरीद-फरोक्त करेंगे,राजनीतिक दलों में फूट होगी,पुरोहित दुकानदारों के समान होंगे और व्यवसायी हर एक का गला काटने में आनन्द का अनुभव करेंगे,अपराध बढेंगे,असुरक्षित स्थानों का बाहुल्य होगा,संस्कृकि कामुकता की पर्याय बन जायेगी,लडाई झगडे बढेंगे। अच्छे चरित्र के अभाव में हम निर्लज्जापूर्वक दूसरों की रोचियों पर पलते रहेंगे,हमारा ज्ञान मनुष्य की बर्वादी के लिए काम करेगा,हमारे चेहरे की चमक,नेकत्रों का तेज,ह्दय की आशा,मन का विश्वास,आत्मा का आनन्द सब चले जायेंगे।


6-चतुर आत्मघाती मनुष्य-
        आज हर मनुष्य चतुर बनने की कोशिष करता है, अलग-अलग छेत्र हैं चतुराई दिखाने के, लेकिन कुछ तो आत्मघाती चतुर हैं। कुदरत के द्वारा मनुष्य को भोजन देने में कोई कमी कसर नहीं की है,मगर कुछ मनुष्य उसे अंधेरे कोने में छिपाकर मनुष्य को ही देने से वंचित कर देते हैं,इसलिए कि वह धन कमाना चाहता है,यह मानवीय आचरण नहीं है। उसे यह पता नहीं है कि एक दिन वह अपनी सारी दौलत को बैंको में छोडकर एक कीट के समान मर जायेगा। ये कुदरत खाद्य पदार्थों में मिलावट नहीं करती है,लेकिन मनुष्य को देखो, स्वयं अपने बच्चों,और अन्य लोगों को खिलाने के लिए पहले भोजन में मिलावट कर लेता है। गाय को ही देखो कितनी उदार दिल की है, हमें शुद्ध दूध देती है,लेकिन मनुष्य है कि किसी को शुद्ध दूध पीने को नहीं देता। कुदरत के बने खनिज तथा रसायन विध्वँशकारी अस्त्रों का निर्मॉण नहीं करता, लेकिन मनुष्य को देखो उसने इनकी परस्पर सॉठ-गॉठ करके विध्वंशकारी अस्त्र बना दिये हैं। इस आसमान ने कभी मनुष्य के सिर पर बम नहीं फेंका, पर मनुष्य को देखो अपनी बुद्धिमता से उस आसमान से अपने ही भाइयों के ऊपर बम फेंकता है,और सोचता है कि मैने विजय प्राप्त कर ली। कुदरत ने पृथ्वी के समस्त मनुष्यों को पृथ्वी पर पर्याप्त भूमि और संसाधन प्रदान किये हैं,लेकिन मनुष्य को देखो, उसने दूसरे मनुष्य को वंचित कर,उसे निर्धन बना दिया है। अगर देखें तो मनुष्य इस धरती पर परमात्मा का एक अभिन्न अंग है,लेकिन अपने एन कृत्यों से वह कितना सीमित हो गया है।


7-चरित्र और आनंद की अनुभूति-
        अच्छा आदमी बनने से सुख की प्राप्ति नहीं हो सकतीहै। चरित्रहीन व्यक्ति कभी भी सही अर्थों में समृद्धिशाली नहींबन सकता है। सदाचार के विना आनंद और प्रशन्नता नहीं मिल सकती है।यह भी सत्य है कि प्रकृति की हरवस्तु में परस्पर ईश्वरीय सम्बन्ध है,इसलिए जबतक आप इस तथ्य को नहीं समझ लेते और इसे स्वीकार नहीं कर लेते, इसे जीवन में मान्यता नहीं देते, तबतक आनंद की खोज में आप सफल नहीं हो सकते


8-चिन्तन ही चरित्र का निर्माण करता है-
        वर्तमान समय में एक मुख्य समस्या है-भ्रष्ट चिंतन और दुष्ट आचरण। इन दो समस्याओं के कारण असंख्य प्रकार के अनर्थ मनुष्य के मस्तिष्क में उपजे हैं, जिससे संकट की स्थितियॉ उत्पन्न हो जाती हैं क्योंकि मन की स्थिति के अनुसार परिस्थितियॉ का जन्म होता है चिन्तन का निर्माण करता है जो फिर व्यवहार में उतरता है चिंतन के द्वारा कुपथगामियों को बदलकर सन्मार्ग गामी बना सकते हैं और मकडी के की तरह फैली समस्याओं को सुलझाया जा सकता है।इसलिए स्वस्थ चिंतन करें।


9-जहॉ मौत है वहॉ सुरक्षा कैसे हो सकती है-
        हम जिस चीज की सुरक्षा की योजना बना रहे हैं बह बचने वाली नहीं है।क्या घर को बचाओगे,धन को बचाओगे,इस शरीर को बचाओगे जब तुम नहीं थे तब भी था और जव तुम नहीं होंगे तब भी होगा ।इस घर को हम- तुम से लेना देना नहीं है।किसको बचाओगे, देह बचती हैऔर धन बचता है,सब खो जाते हैं,और मौत तो एक दिन आकर सब मिटा देगी ।हमारे बनाये हुये रेत के घर सब गिरा देगी ।क्या बचाओगे,जहॉ मौत है वहॉ सुरक्षा हो ही नहीं सकती है।


10-आनंद की अनुभूति-
        जिस प्रकार अंधे के लिए पूरा जगत अंधकारमय होता है और अच्छी आंखों वालेके लिए प्रकाशमय रहता है,उसी प्रकार अज्ञानियों के लिये पूरा जगत दुःखों का समूह है, और ज्ञानियों के लिये आनंदमय होता है


11-आपके प्रति कोई क्रूर हो तो उस क्षण प्रतिक्रया करें-
        साक्षी अवस्था में रहने वाले ऎसे सब लोगों में बहुत जल्द परिवर्तन होते हैं ।उनकी स्मरण शक्ति का ह्रास बहुत कम होता है क्योंकि जो भी चीज वे देखते हैं उसकी तस्वीर उनके मस्तिष्क में बन जाती है।वेआपको हर देखी हुई चीज का रंग और उसकी बारीकियॉ बता सकते हैं,सहजयोगी होने के नाते हमें क्या करना चाहिए। हमें तो बिल्कुल प्रतिक्रिया नहीं करनी चाहिए। कोई गलत चीज भी आपको दिखाई देती है तो ठीक है आप बस ध्यान करें ।कोई गलत कार्य होता हुआ आप देखेंतो इस पर चित्त दें,यदि आपके प्रति कोई क्रूर होता हो तो उस क्षण उस पर प्रतिक्रिया करें,जब शॉत हो जॉय तब आप उसे बतायें।शनैःशनैः आप उसे उसकी गलती का अहसास करवायें और उसका ह्दय जीत सकेंगे।किसी भी चीज के प्रति प्रतिक्रिया करना मूर्खता है और आत्मघातक भी


12-जीने की सही दृष्टि प्राप्त करें-
        कैसे जीना चाहिए इसलिए कि हमें तो जीना ही नहीं आता है ।हमारे सामने यह एक विकट समस्या है ।ईश्वर ने तो सबको दो आंखें दी हैं इन आंखों से हमें जो देखना चाहिए था वहदेखते ही नहीं,केवल वाह्य जगत की स्थूल वस्तुओं को ही देखने में हम इनका प्रयोग करते हैं प्रश्न है जीवन जीने की सही दृष्टि प्रप्त करने की। जब तक वह दृष्टि हमें प्राप्त नहीं हो जाती तबतक हमें जीने की राह नहीं मिल सकती


13-ईश्वर से साक्षात्कार-
        जिस प्रकार भौंरा जबतक कमल पर बैठकर उसका मधुपान नहीं कर लेता तबतक गुन-गुन करता रहता है ठीक उसी प्रकार मनुष्य भी तबतक तर्क- वितर्क और वाद- विवाद करता रहता है जबतक कि उसे ईश्वर से साक्षात्कार नहीं हो जाता


14-उत्साह जीवन और अनुत्साह मृत्यु का प्रतीक है-
        उत्साह जीवन का धर्म और अनुत्साह मृत्यु का प्रतीक है।उत्साहवान मनुष्य आशवादी और सजीव कहलाने योग्य होता है। विजय,सफलता और कल्याण तो सदैव उसकी ऑखों में नाचता है। जबकि उत्साह हीन ह्दय को अशॉति ही अशॉति दिखाई देती है। उत्साह बनाये रखें


15-उत्साह बनाये रखें-
        उत्साह सफलता को निमंत्रण देता है।यह तो प्रेम का फल है, जिसमें सच्चा प्रभुप्रेम होता है,वही उसके दर्शन के लिए उत्सुक रहता है उत्साही आदमी तो मान्यशीलता का पैमाना है। इसलिए जीवन में उत्साह को बनाये रखें
 
16-उदार बनकर आनंद की अनुभूति करें-
        जीवन में परिपक्व बनने के लिए उदारता का गुण होना चाहिए इसके लिए भौतिक चीजों से मोहत्यागना होगा, उदारता का आनन्द पाने के लिए तो कुछ देना होता है। यदि एक बार आप उदारता का आनन्द लेने लगेंगे तो आप जान जायेंगे कि प्रेम और करुणॉ आपसे दूसरों तक बहने लगी है, यह प्रेम और करुणॉ सभी लोगों तक फैलनी चाहिए। आत्म निरीक्षण करें ,निसंदेह आप उदार बन सकते हो ।उदार विवेक आपमें तभी आयेगा जब आपअपने जीवन का लक्ष्य जान जान जायेंगे और यह जानेंगे कि आप किस लिए हैं?


17-उदारता का गुंण-
        जीवन में परिपक्व बनने के लिए उदारता गुण होना चाहिए इसके लिए भौतिक चीजों से मोह त्यागना होगा,उदारता का आनन्द पाने के लिए तो कुछ देना होता है।यदि एक बार आप उदारता का आनन्द लेने लगेंगे तो आप जान जायेंगे कि प्रेम और करुणॉ आपसे दूसरों तक बहने लगी है,यह प्रेम और करुणॉ सभी लोगों तक फैलनी चाहिए।आत्म निरीक्षण करें,निसंदेह आप उदार बन सकते हो।उदार विवेक आपमें तभी आयेगा जब आप अपने जीवन का लक्ष्य जान जान जायेंगे और यह जानेंगे कि आप किस लिए हैं ?


18-उदासीनता हमारा दुश्मन है-
        उदासीनता हमारा वह दुश्मन है जिससे हम किसी भी कार्य से जी चुराते हैं अथवा अनमने भाव से उस कार्य को करते हैं उदासीन लोगों की तरक्की के सभी रास्ते बन्द हो जाते हैं आलस्य के कारण बनते- बनते कार्य बिगड जाते हैं, और कभी-कभी उदासीनता के कारण लोग मौत के मुंह में चले जाते हैं।उदासीन लोग भ्रम के बन्धन में जकडे होते हैं, उनका जीवन नीरस रहता है लेकिन उन्हैं कोई परवाह नहीं रहती है।ऎसे लोगअपना नुकसान तो करते ही हैं,मगर उस समाज के लिए भी कष्टकारी होते हैं एक कम्पनी का मालिक अपनी कम्पनी के कर्मचारियों की सुस्ती से परेशान था, कारोबार मन्दा चल तहा थाजब विशेषज्ञों की राय ली गई तो ज्ञात हुआ कि एकमछली पूरे तालाब को गन्दा कर देती है।यदि उस आलसी को बाहर कर दिया जाय तो स्थिति सुधर सकती है। यदि मूर्तिकार विशाल पत्थर को देखकर उदास हो जाय कि इससे मूर्ति कैसे बन पायेगी तो वह मूर्तिकार नहीं कहलायेगा। अगर हम यह सोचते हैं कि छोडो कौन इतनी मेहनत करेगा या देखा जायेगा, तो ऎसे प्रश्नसोचकर हम उदासीनता से जकड जाते हैं, उदासीनता से मुक्ति के लिए हमें अपने जीवन के क्रम को उचित दिशा में नियोजित करना होगा इसके लिए उपयोगी और औचित्यपूर्ण का चुनाव करना होगा, उत्थान और पतन के रास्ते का चयन अपनी इच्छा पर निर्भर है, और ईश्वर ने तो मनुष्य को पूर्ण स्वतंत्रता दी है कि वह अपनी इच्छा शक्ति, ज्ञानशक्ति तथा क्रिया शक्ति का उपयोग किसी भी प्रयोजन में कर सकता है तो फिर यह उदासीनता क्यों।इसलिए हमें इस तथ्य को अपनाना है कि, मैं क्या नहीं कर सकता हूं यह शक्ति या धन कार्य पूर्ण करता है। फिर देखना समय आने पर सब अपने आप ठीक होजायेगा , हमारी उदासीनता तो हमारी जड में निहित होता है ।देखा जायेगा वाली सोच भी हमें आलसी बना देता है, ।सक्रिय बनिये, जिस दिन सक्रियता का अभाव उत्पन्न हो जाता है, बस उसी दिन जिन्दगी में निष्क्रियता का आना प्रारम्भ होता है, सफलता के लिए जिन्दगी में आलस्य को किसी भी स्थिति में आने दें अपने मित्रों से मिले- जुलते रहने की आदत डालें, अकेलापन से भी उदासीनता आती है,पौष्टक भोजन करें,कठोर परिश्रम से आत्म विश्वास बढता है,अधिक दौड लगाने और व्यायाम करने से अधिक मात्रा में आक्सीजन प्राप्त होता है,अवसाद की स्थिति में चिकित्सा का सहारा लें


19-कटु वचनों के घाव-
        ऎसे कुवचन रूपी बॉण जब मुंह से निकलते हैं तो दूसरा व्यक्ति इतना घायल हो जाता है कि वह रातभर शोकमग्न रहता है ।फरसी से कटा हुआ वन तो अंकुरित हो जाता है मगर कटुवचन रूपी शस्त्र सेकिया हुआ घाव तो कभी भी भरता नहीं है ।जब हम परस्पर बातचीत करते हैं तो बातें एस प्रकार क्रूरतापूर्वक नहीं करनी चाहिए जिससे किसी को नीचा देखना पडे ऎसी बातें जिससे दूसरे को उद्वेग हो बदले की भावना को जन्म देते हैं,और कई पीढियों तक यह धाव बना रहता है


20-कब झूठ बोलने से पाप नहीं लगता-
        महर्षि वेद व्यास जी के अनुसार विवाह काल में,स्त्री प्रसंग के समय, किसी के प्राणों पर संकट आने पर,सर्वत्र लुटते देखकर तथा ब्राह्मणों के हित के लिए आवश्यकता हो तो झूठ बोल देना चाहिए.इन पॉच अवसरों पर झूट बोलने से पाप नहीं लगता है।


21-करुंणामय जीवन-
        जिस व्यक्ति में करुंणा का प्रसार जितना अधिक होता है,उस व्यक्ति का भगवान के साथ उतना ही गहरा सम्बन्ध होता है। करुण से आर्द्र ह्दय वाले व्यक्ति तो अकारण बंधु होते हैं। जीवन में परस्पर सहायता के लिए उत्तेजना तो करुंणॉ से ही उत्पन्न होती है


22-जीवन एक रहस्य है यही जीवन का अर्थ है-
        अगर आप जीवन को समझने की कोशिश करते हैं तो समझ में नहीं आयेगा,जीवन की बात भूल जाओ, जीवन तो एक रहस्य है,यही जीवन का अर्थ है ।बस सिर्फ जिओ,इससे ही सब समझ में जायेगा। जीवन के बारे में समझ में आने से संपूर्णता का वोध होता है, लेकिन इसे शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता है,इसलिए जीवन को रहस्य कहते हैं। बस इतना तो निश्चित है कि जीवन को जिया जा सकता है उसे समझा नहीं जा सकता है


23-जीवन का आदर्श ईमानदारी-
        यदि आपका ह्दय ईमान से भरा है तो एक शत्रु क्या,सारा संसार आपके सम्मुख हथियार डाल देगा। ईमानदार मनुष्य तो ईश्वर की सर्वोत्तम रचना है।और वैसे भी कहा गया है कि जिसका ईमान नहीं वह इंसान नहीं,ईमान बेचो, भले ही सब बेच दो ।जो व्यक्ति छोटे-छोटे कार्यों में ईमानदारी से कार्य करता है, वही बडे कार्यों को भी ईमानदारी से कर सकता है,ईमानदारी तो वैभव का मुंह नहीं देखती, वह तो मेहनत के पालने पर किलकारियॉ मारती है और संतोष पिता की तरह उसे देखकर तृप्त हुआ करती है


24-गुंणों के साथ दुर्गुंण भी होते हैं -
        दीपक की लौ प्रकाश देती है तो उससे कालिख भी पैदा होती है,अर्थात जहॉ गुंण है, वहॉ कुछ कुछ अवगुंण भी जरूर होता है


25-गृहणी ही घर है-
        वास्तव में जिसे हम जानते हैं वह घर नहीं है बल्कि गृहणी को घर कहते हैं। जिस घर में गृहणी हो, वह वन के समान है। अच्छी स्त्री से तो घर की रक्षा होती है। घर तो एक तीर्थ के समान है, क्योंकि गृहस्थाश्रम ही सभी धर्मों का मूल है।आदमी तो अपने घरवालों के लिए ही धन कमाता है अन्य किसी के लिए नहीं अपना पेट तो सूअर भी पालता है।


26-घर का कलह-
        किसी भी स्थिति में कलह से बचें। जिसके घर को बर्बाद करना हो,उसके पीछे कलह लगा दो और आराम से सो जाओ,तुम्हारा काम शत प्रतिशत सफल हजायेगा। जहॉ कलह है बहॉ दुःख है,अशॉति है, क्लेश है,घर के कलह से तो लक्ष्मी भी भाग जाती है।गृह कलह राजा को भी ले डूबता है


27-काल किसी के बस में नहीं होता-
        काल किसी के बस में नहीं होता-काल ऎसा कठोर शक्तिशाली है कि वह राजामहॉराजाओं को महल के भीतर से लेकर चला जाता हैऔर कोई उसे रोक भी नहीं पाता ।यदि किसी आदमी का काल आया हो तो सैकडों बाणों से बिंधने पर भी वह नहीं मरता ,किन्तु यदि उसका काल गया है तो कुशा की नोक से बिंधने से भी वह मर जाता है ।जब मनुष्य मरता है तो काल उसकी आत्मा को अकेले ही परलोक ले जाती है,उसके सब साथी यहीं छूट जाते हैं


28-किसी भी स्थिति में घमण्ड करें-
        मनुष्य को किसी भी कारण,घमणड नहीं करना चाहिए,क्योंकि विद्या,बुद्धि,ज्ञान, और शक्ति सबकुछ भगवान के आश्रित है।आप न्हैं अपने विकास के यंत्र की भॉति प्रयोग करें यदि किसी कारण आपके भीतर अभिमान का संचार होता है तो विद्या भी अविद्या की तरह क्रिया करती है। इसलिए हमें मूल लक्ष्य को नहीं भूलना चाहिए।


29-कुकर्मी का फल राख में दबी अग्नि की भॉति होता है-
        जिस प्रकार ताजा दुआ दूध शीघ्र नहीं विगडता,उसी प्रकार कुकर्मी का फल भी शीघ्र मालूम नहीं होता ।किन्तु वह दबी हुई राख में दबी हुई अग्नि की तरह विद्यमान है। कुकर्म करते समय मीठे और सुखदाई लगते हैं और कर्म फल भोगते समय दुखदायी होता है।


30-कुदरत के नियमों से सामज्जस्य-
        कुदरत के नियमों से सामज्जस्य-आज के युग में जबकि विज्ञान ने बहुत तरक्की कर ली है, वैज्ञानिक आविष्कारों से यह सम्भव हो गया है कि कुदरत की दी हुई चीजों का उपयोग हम अपने आवश्यकताओं के हिसाब से कर लेते हैं। अगर धूप में चलना पड रहा है तो छाता बनाया गया है,वर्षा नही होती है तो कृत्रिम वर्षा सम्भव है, बॉध बन गये हैं,आदमी को ईश्वर ने दो पॉव चलने के लिए दिये हैं, लेकिन मानव ने चलने के लिए कितने साधन बना दिये है! ओजोन की परत को रिपेयर किया जाने लगा है। लेकिन यह भी सत्य है कि,कुदरत पर नियंत्रण की भी एक सीमा है,वरना विनाशकारी परिणॉम भुगतने होते हैं। प्रकृति पर नियंत्रण की कोशिष में अगर हिमालय का वर्फ पिघल जाता है तो परिणॉम सभी जानते हैं क्या होगा। प्रलय की जो बात कही गई है,यह भी सत्य है, कि कुदरत पर नियंत्रण की सीमॉ बहुत अधिक बढ चुकी होगी। हॉ यह बात भी सही है कि कुदरत को कोई बना नहीं सकता है,और उसे नष्ट कर सकता है,इसके नियम स्वयं उसने बनाये हैं। मानव द्वारा उसको अपने सुविधा के अनुसार उपयोग में लाने का प्रयास किया जाता रहा है। यदि गंगा नदी को नहर द्वारा उसकी दिशा बदल दी गई है,मगर उसे रोक नहीं सकते हैं। बॉध बनाने से उस जल को एक सीमा तक ही रोका जा सकता है। कुदरत ने बच्चे को नंगा जन्म दिया, कपडे तो हमने ही पहनाये! लेकिन वे भी लोग हैं -जैन मुनि, जोकि कुदरत की दी हुई चीज में छेड खानी नहीं करते हैं। जिस तरह से किसी व्यवस्था को चलाने के लिए नियम बने होते हैं उसी प्रकार इस कुदरत के भी अपने नियम है,उसी ढंग से उसके कार्यों का संचालन होता है।दिन-रात होते हैं,अलग-अलग ऋतुएं आती हैं,कभी गर्मी तो कभी ठंड।आलीशान मकान या मंहगी गाडी भी हमने बनाये हैं,इस प्रकृति में छेडखानी करके।इनके उपयोग की भी एक सीमा है। हमें भी इस कुदरत ने बनाया है, और कुदरत के नियमानुसार हमें इस शरीर की मेहनत से अपना जीविकोपार्जन करना है।लेकिन अगर हम इस शरीर के लिए सुविधा सम्पन्न आलीशान स्थान उपलव्ध कराते हैं,जिसमें इस शरीर को जरा भी कष्ट हो, इसमें हमें देखना होगा कहीं यह कुदरत की मर्जी के विरुद्ध तो नहीं है, अन्यथा हम अपंग हो जायेंगे,हमारा शरीर विकृत हो सकता है,हम कम उम्र में बुड्ढे हो सकते हैं,रोग ग्रस्त हो सकते हैं।मैं अपनी बात जानता हूं, प्रतिदिन 3की.मी.पैदल उतराई से चलकर अपनी ड्यूटी पर जाता हूं,रास्ते में जंगल और गॉव पडता है,रास्ते में ही आंवले और आम के पेड हैं, जिनसे स्वतः पके हुये फल गिरे हुये मिलते हैं,उठाकर बैग में रख देता हूं,गॉव के कई लोगों से मुलाकात हो जाती है,जाते-जाते पसीना जाता है,फिर सभी लोगों को बैग के फलों को बॉट लेता हूं,सबलोग खुश हो जाते हैं,मुझे इस बात का अहसास होता है कि यह कार्य प्रकृति केनियमों के अनुकूल है।लेकिन वापस घर लोटते समय गेट से ही गाडी से जाता हूं,क्योंकि चढाई में अधिक कठिनाई, समय की वर्वादी से बचाव, और फिर आने- जाने के साधन भी तो बने हैं। आधुनिक अर्थव्यवस्था और समाज के हिसाव से भी तो चलना है। अर्थातसाधन और कुदरत के नियमों में सामज्जस्य स्थापित करके चलने से अच्छा जीवन यापन हो सकता है।


31-कुल श्रेष्ठ कौन है-
        कुल श्रेष्ठ कौन है-किसी कुल में उसी को श्रेष्ठ माना जाता है जो संपूंर्ण प्राणिर्यों को शॉत रखने का प्रयत्न करता है, हमेशा सत्य व्यवहार करता है,कोमल स्वभाव होकर सबका सम्मान करता है, सर्वदा शुद्ध भाव से रहता है।


32-क्रोध क्षणिक पागलपन है-
        क्रोध क्षणिक पागलपन है-क्रोध तो एक पागलपन है,जिससे मनुष्य का विनाश होता है इसीलिए क्रोध को यमराज कहा जाता है।जो मनुष्य अपने क्रोध को अपने ऊपर झेलता है, ही दूसरों के क्रोध से बच सकता है और अपने जीवन को सुखी बना सकता है मनुष्य क्रोध को प्रेम से ,पाप को सदाचार से,लोभ को दान से, और मिथ्या-भाव को,सत्य से जीत सकेगा। जो मनुष्य क्रोधी पर क्रोध नहीं बल्कि क्षमा करता है वह अपनी और क्रोध करने वाले को महॉं संकट से रक्षा करता है इस लिए क्रोध की भावना से पहले दस बार सोच लें


33-गतिशील रहने से अनुभव बढता है-
        गतिशील रहने से अनुभव बढते हैं-जिस प्रकार समय के बदलने से रात-दिन, गर्मी-सर्दी के मध्य रिरवर्तन का एक लय बना होता है और यह लयबद्धता हमेशा बरकरार रहती है,इसमें कभी कोई रुकावट नहीं आती,हमेशा गतिशील है। उसी प्रकार आप भी गतिशील रहिए।आपके जीवन में जितनी अधिक गति रहेगी, उतना ही अधिक जीवन में अनुभव प्राप्त होगा।प्रयास करें कि सदैव गतिवान रहें परिवर्तनशील रहें,सतत् यात्रा ही जीवन का उद्देश्य है।


34-गलती छिपाना विष कण के समान है-
        गलती छिपाना विष कण के समान है-यदि कोई मनुष्य अपनी गलती को छिपाता है तो वह गलती विष कण के समान अपना प्रभाव बढाती ही जायेगी। इसलिए मनुष्य को अपनी गलती निसंकोच स्वीकार कर लेनी चाहिए,हठ पकडकर और छल करके उसे छिपाना नहीं चाहिए। अपनी गलती को स्वीकार करना कोई अपमान नहीं है वैसे गलती करने के पश्यात भय पैदा होता है,यही अपराधी का दण्ड है।बस हमें तो दूसरों की गलती पर अपसोस करना चाहिए नकि गुस्सा।


35-कर्तव्यों का पालन-
        हमारी बुद्धि और ह्दय को जो सत्य लगे वही हमारा कर्तव्य है।उस कर्तव्य का पालन करना चाहिए जो हमारे निकट है। कर्तव्य तो कभी आग और पानी की परवाह नहीं करता,बस कर्तव्य पालन ही चित्त की शॉति का मूल मंत्र है।लेकिन हमारा पहला कर्तव्य है मनुष्य की सेवा करना

36-कला आत्मा का सौन्दर्य है-
        जो कला आत्मा को आत्मदर्शन की शिक्षा नहीं देती,वह कला नहीं है।कला का अंतिम और सर्वोच्च ध्येय सौन्दर्य है।इस ब्रह्मॉड में ईश्वर से बढकर कोई दूसरा कलाकार नहीं है।जब औरत अपनी कलाकारी दिखाती है तो बडे-बडे तीसमारखॉ चित्त होजाते हैं।कला का सत्य तो जीवन की परिधि में सौंदर्य के माध्यम सेव्यक्त अखण्ड सत्य है कला अति सूक्ष्म और कोमल है,अतः अपनी गति के साथ वह मस्तिष्क को भी केमल और सूक्ष्म बना देती है।सच्चा कलाकार तो हमेशा लिप्सा रहित होता है

37-कल्पना आत्मा का नेत्र है-
        चित्त जिस रूप में कल्पना करता है,वैसा ही हो जाता है, आज जैसा वह है, वैसी ही उसने कल्पना की थी।कल्पना तो ज्ञान से भी अधिक महत्वपूर्ण है।कल्पना तो विश्व में शासन करती है। कल्पना का वह सुन्दर जगत कितना मधुर होता है, छाया में सुखस्वप्नों का समूह पुलकित होकर जागता-सोता रहता है ।और अपवित्र कल्पना भी उतना ही बुरी होती है, जितना बुरा अपवित्र कर्म होता है।

38-कल्याण होता है त्याग से-
        कल्याण होता है त्याग से-जब दान-पुण्य करते हैं तो लोग यही समझते हैं कि रुपयों से कल्याण होता है,वास्तव में रुपयों से कल्याण नहीं होता है बल्कि रुपयों में जो मोह है उसके त्याग से कल्याण होता है ।यदि रुपयों के त्याग से कल्याण होता तो धनीआदमी अपना कल्याण कर लेते और गरीबों का का कल्याण होता ही नही उस परमात्मा को रुपयों की भाषा समझ में नहीं आती , उसका रुपयों से कोई लेना-देना नहीं होता ,बस उन रुपयों के मोह का त्याग करने से ही परमात्मा के दर्शन होते हैं

39-कविता आत्मा का संगीत है-
        कविता आत्मा का संगीत है-कविता भावनाओं में रंगी हुई बुद्धि है। कवि जिस समय कविता कहता है, वह औलौकिक मानव बन जाता है ।है। कवि का काम है प्रकृति के विकास को खूब ध्यान से देखना। मेरे लिए तो मनुष्य ही एक सजीव कविता है,कवि की कृति तो उस सजीव कविता का शब्द मात्र हैं ।प्रणय के समय प्रत्येक व्यक्ति कवि बन जाता है। कवि केवल देखते ही नहीं बल्कि प्रकाश भी करते हैं ।कवि का सबसे बडा गुंण नईं-नईं बातों को सूझना है


समाज में जुडकर रहना सीखें

 


1-समूह में शक्ति होती है-
       हम देखते हैं कि एक तिनका छोटा सा,कमजोर होता है,बलहीन होता है जिसे पानी आसानी से बहा ले जाता है, लेकिन जब ढेर सारे तिनके एकत्रित हो जाते हैं तो छप्पर का रूप धारण कर लेते है । फिर उनके द्वारा भारी वर्षा से भी बचाव किया जा सकता है । इसी प्रकार जब किसी परिवार या राज्य के लोग अलग-अलग बिखरे होते हैं तोउनकी शक्ति कुछ भी नहीं रहती है,लेकिन जब सभी लोग मिल जाते हैं तो उनका समूह अपने से भी अधिक शक्तिशाली शत्रु को पराजित कर लेता है । अतः योग्य मनुष्यों को संगठित होकर रहना चाहिए ।जैसे हमारे देश में जब मुगलों का शासन था, जिसमें हिन्दुओं का जीना मुश्किल हो गया था,तो शिवाजी ने दुर्वल हो चुके हिन्दुओं को संगठित किया और मुगलसाम्राज्य को समाप्त कर दिन्दू धर्म का पुनुरुत्थान किया । इसी प्रकार जब देश में अंग्रेजों का शासन था और अहिंसा की दुर्वल नीति के कारण देश का सर्वनाश हो रहा था तो उस समय –नेताजी सुभाषचन्द बोस ने भारतीय लोगों को संगठित करके भारतीय स्वतंत्रता सेना (आजाद हिंद फौज ) की स्थापना की और अंग्रेजों से भीषण युद्ध किया ।।


2-गुंणवान मनुष्य को समाज से जुडकर रहना चाहिए-
        कहते हैं यदि मूल्यवान हीरा है तो वह सोने में जडेरहने की इच्छा रखता है, क्योंकि-अकेला हीरा तो तिजोरी में बन्द होकर रखा जायेगा ।जबकि सोने में जडने से हीरा मनुष्यों द्वारा धारण किया जायेगा । इसी प्रकार कोई मनुष्य अधिक गुंणवान हो लेकिन वह पूर्णतः अकेला हो तो उसके गुंण भी किसी काम के नहीं हैं, क्योंकि अकेले होने पर वह अपने गुणों का लाभ किसको पहुंचायेगा ?किसी को भी नहीं ।वह गुंणवान मनुष्य परिवार या समाज के साथ रहता है तो अपने गुंणों से अन्य लोगों को भी लाभान्वित करेगा ।इसलिए कहते हैं गुंणवान मनुष्य को अकेला नहीं रहना चाहिए,परिवार,समाज से जुडकर रहना चाहिए ।अर्थात प्रत्येक मनुष्य को सामाजिक प्राणी बनना चाहिए और अपने परिवार-समाज से जुडकर रहना चाहिए ।।

3-शिक्षा उसी को दी जाय जो उसके योग्य हो-
        शिक्षा केवल उसी को दी जानी चाहिए जो उसे ग्रहण करने योग्य हो अर्थात जो उस शिक्षा को मनोयोग पूर्वक ग्रहण करे और उस शिक्षा का मर्म समक्षकर उसके अनुरूप आचरण करे।यदि दी जा रही शिक्षा से वह चिडचिडाने लगे और आपसे रुष्ट होने लगे तो इस प्रकार की शिक्षा देने से कोई लाभ नहीं है ।इसी प्रकार पतिता स्त्री को अपने साथ रखने से समाज में आपको अपयश ही प्राप्त होगा ।इसी प्रकार सदैव दुखी बने रहने वाले मनुष्यों साथ व्यवहार बनाने से भी आपका उत्साह नष्ट हो जायेगा और आपकी एकाग्रता भंग हो जायेगी जिससे आप सदैव उदास रहेंगे । एक बार तेज वारिष हो रही थी एक पक्षी उस समय पेड पर अपने घोंसले में सुरक्षित बैठी थी।तभी एक बन्दर भीगता हुआ पेड पर पहुंच गया सामने पक्षी ने बन्दर को शिक्षा देकर कहा हे बन्दर अगर तुम भी मेरी तरह पहले ही से कोई घर बना लेते तो तुम्हें वारिष में इस तरह नहीं भीगना पडता ।भीगा हुआ बन्दर पहले ही खिसियाया हुआ था,उसे गुस्सा आया और उसने उस पक्षी का घोंसला तोड दिया –इससे पक्षी भी वारिष में भीगने लगी ।इसी घटना पर एक दोहा है कि-सीख बाको दीजिए,जाको सीख सुहाय।सीख न दीजो वानरा,जो घर पक्षी का जाय।।


4-मृत्यु स्वरूप बातें-
        अगर पत्नी कडवी बोलती है और दुश्चरित्र है तो उसका पति एक तो अपमान और लज्जा के बोझ से वैसे ही दुर्दशा को प्राप्त होता है ,ऊपर से उसे यह भी भय बना रहता है कि कहीं वह स्त्री अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिए उसे विष न दे दे । इस प्रकार उसका जीवन सदैव आशंकाओं से घिरा रहता है ।ठीक इसी प्रकार स्वार्थी मित्र भी हानिप्रद होता है क्योंकि ऐसे मित्र केवल नाम मात्र के लिए ही मित्र होता है और केवल अपने स्वार्थों की पूर्ति और अपने हितों की रक्षा के लिए ही मित्रता करता है ।यदि आपके कुछ भी बोलने पर शीघ्र प्रत्युत्तर देने वाला नौकर आदि कोई भी हो आपको हानि पहुंचा सकता है,जरा सी बात पर चिढकर आपको नुकसान पहुंचाने का प्रयास कर सकता है, ।अगर घर में सर्प रखा जाता है तो उस घर में भी मृत्यु का भय रहता है । इसलिए इन परिस्थितियों में मनुष्य को सावधान रहना चाहिए ।तभी वह अपने जीवन की रक्षा करने में पूर्णतःसमर्थ हो सकेगा ।।


5- संकोच किस प्रकार का हो-
        मर्यादा का पालन करते हुये संकोच उपयुक्त है मगर आवश्यकतानुसार संकोच को त्याग देनाचाहिए,स्पष्ट बात करनी चाहिए । अगर भोजन करते समय भरपेट आहार करना चाहिए क्योंकि अधिक संकोच करने से भूखा रहना पड सकता है।लेन- देन करते समय उसकी लिखा-पढी पक्की होनी चाहिए क्योंकि संकोच करने से धन की हानि हो सकती है । जीवन में संकोच की एक सीमा है वरना दुख या हानि हो सकती है ।


6-आचरण के विना ज्ञान व्यर्थ,अज्ञान से मनुष्य नष्ट हो जाता है-
        जब कोई व्यक्ति ज्ञान प्राप्त करता है और उसका व्यवहार में आचरण नहीं करता है तो वह ज्ञान व्यर्थ है जैसे किसी घर में बहुत सारे चूहे हो गये थे जो कि उनके सामान को कुतरकर हानि पहुंचाते थे चूहों के इस उत्पात से बचने के लिए उस घर का स्वामी एक किताव लाया ,जिसमें चूहे मारने के उपाय लिखे थे उसने पुस्तक को अच्छी तरह से पढा और रख लिया लेकिन अगले दिन उसने देखा कि चूहों ने उस पुस्तक को ही कुतर कर नष्ट कर दिया अर्थात केवल पुस्तक में चूहे मारने के उपाय पढने से (ज्ञान प्राप्ति करने) से कोई लाभ नहीं हुआ बल्कि उन उपायों पर अमल करना भी आवश्यक है। इसी प्रकार जो मनुष्य किसी भी प्रकार का ज्ञान प्राप्त नहीं करता है तो उस अज्ञानता के कारण वह कोई भी कार्य सही प्रकार से नहीं कर पाता है जिससे वह बार-बार हानि उठाता है- इस प्रकार से वह मनुष्य पूर्णतः नष्ट हो जाता है ।


7-प्रसंग के अनुसार बात,सामर्थ्य से साहस,शक्ति से क्रोध करें-
        जो मनुष्य प्रसंग के अनुसार बात करना जानता है तो वह सभी परिस्थितियों में अपने अनुकूल वातावरण का निर्माण कर लेता है और वह अपने हितों को पूरा कर लेता है ।और जो मनुष्य अपने सामर्थ्य के णनुसार साहस करना जानता है वह तो परिस्थितियों पर विजय प्राप्त करके उन्नति करता है और उसके लाभों तथा सम्पत्ति में भी वृद्धि होती है । इसी प्रकार जो मनुष्य अपनी शक्ति के अनुसार क्रोध करना जानता है,वह तो अयोग्य लोगों को दण्ड का भय दिखाकर अपने कार्यों को सिद्ध कर लेता है और वह सम्मान प्राप्त कर लेता है ।


8-सज्जन मनुष्यों के लक्षण-
        सज्जन और परोपकारी मनुष्यों के लक्षण -अपने मन को साफ रखना उसमें कोई भी विकार न रखना, मीठा तथा उचित बोलना,इन्द्रियों पर संयम रखना, भोग-विलास से बचना, सभी के प्रति दया-भाव रखना, उन तरीकों से धन का अर्जन करना जिससे समाज और देश को हानि न हो, और कमाये गये धन का उचित ढंग से समायोजन करना ताकि उससे देश का हित हो सके ।।


9-सच्चे महात्मा की पहचान-
        जो लोग सबका हित चाहने वाले होते हैं,उनका स्वभाव और आचरण अत्यन्त विचित्र होता है। वे लोग अपनी सम्पदा का संचय करना नहीं चाहते हैं लेकिन यदि किसी प्रकार से उनको सम्पदा प्रप्त हो जाय तो उसको पूरे समाज के हित के लिए ही व्यय करने लगते हैं। अर्थात सच्चा महात्मा वही है जो कि अपनी सम्पदा का प्रयोग केवल अपने लाभ के लिए नहीं करता है बल्कि सर्व हित में करता है ।
 

कर्तव्यों का पालन ही स्वर्ग है

 

1–चरित्र जितना ही अधिक परिस्कृत होगा उतना ही अधिक भगवान का प्यार मिलेगा -
        परमात्मा तक पहुचने के लिए जीवन का शोधन करना होगा,पाप और पतन सरल है, घर में आग लगा दीजिए और दस हजार रुपये जला दीजिए यह हो सरल है, लेकिन मकान बनाना और दस हजार रुपये कमाना कठिन है। आत्मा को परमात्मा तक पहुंचाने के लिए रास्ता सरल नहीं है,संयमी- सदाचारी और ईमानदार बनिए कीमत को चुकाङये ।


2–कर्तव्यों का पालन ही स्वर्ग है -
         कर्तव्यों का पालन करना स्वर्ग की अनुभूति है, कर्तव्य पालन से आंखों में एक नईं ज्योति आती है, यह आत्म बल से उत्पन्न हुई शॉति होती है, कर्तव्य करते हुये यदि हम असफल हो भी जाते हैं तो कोई बात नहीं गॉधी, सुकरात,या ईसामसीह भी असफल हो गये थे, मगर यह असफलता सफलता से सौ गुनी अच्छी है ।


3–स्मरण शक्ति का विकास करें-
         आध्यात्म में विस्मरण का निवारण ध्यान योग है, ध्यान योग का उद्देश्य मूलभूत स्थिति के बारे में,सोच विचार कर सकने योग्य स्मृति को वापिस लौटाना है,जीव का ब्रह्म के साथ मिलन से स्मृति ताजा हो जाती है, ध्यान योग हमें ङसी लक्ष्य की पूर्ति में सहायता करता है, ङससे आत्म बोध होता है, जो कि जीवन में सबसे बडी उपलब्धि है ।यही रास्ता हमें ईश्वर तक ले जाता है ।


4–मानसिक असंतुलन से मुक्ति के उपाय-
         मानसिक असंतुलन को सन्तुलन में बदलने के लिए ध्यान साधना से बढकर और कोई उपयुक्प उपाय नहीं है,ङसका सीधा लाभ आत्मिक और भौतिक दोनों रूपों में मिलता है, कई बार मन क्रोध, शोक, प्रतिशोध, कामुकता, विक्षोभ जैसे उद्वेगों में उलझ जाता है, ङससे कुछ भी अनर्थ हो सकता है, मस्तिष्क को ङन विक्षोभों से कैसे उबारा जाय ङसका समाधान ध्यान साधना से सम्भव है ।


5–मुसीबत अपने साथ विपत्तियों का नया परिवार समेटकर लाती है –
         जिन्दगी में कभी-कभी ऐसे क्षण आते हैं कि एक मुसीबत के साथ कई मुसीबतें आ जाती हैं, ङसका कारण जब व्यक्ति आवेश में आता है तो संतुलन खो बैठता है, फिर न सोचने योग्य बातें सोचने लगता है,न कहने योग्य कहता है, न करने योग्य करता है, उनके दुष्परिणाम निश्चित रूप से होते हैं। जिन कारणों से मानसिक संतुलन बिगडा था, उससे तो हानि के क्रम बनते चले जाते हैं ।


6–देवता कभी बूढे नहीं होते हैं -
         आपने राम,कृष्ण या किसी देवी माता की शक्ल को बूढी नहीं देखी होगी।बूढे तो वे होते हैं जिनके अन्दर उत्साह उमंग नहीं रहता है ।श्रीकृष्ण भगवान 108 वर्ष मे मरे थे, उनके बाल सफेद हो गये थे दॉत उखड गये थे लेकिन उनको बूढा नहीं कहा गया,क्योंकि जिनके अन्दर उमंग ,उत्साह है और जो निराश नहीं होते हैं हर पल उत्साहित रहते हैं उन्हैं जवान कहते हैं ।


7–ईश्वर भक्ति का नशा -
         जिस प्रकार शराबी को शराब का नशा होता है, उसी प्रकार भक्त को भक्ति का नशा होता है,हनुमान ने सारा जीवन भगवान के काम लगाया, सुग्रीव ने भी यही किया,बुद्ध ने अपने सारे सुखों का त्याग कर दिया था,स्वामी विवेकानन्द तथा गॉधी जी ने अपना जीवन भगवान के सुपुर्द कर दिया था, विभीषण तथा शिवाजी की भक्ति को देखिए सारा जीवन भगवान कोसमर्पित कर दिया था ।


8-आध्यात्म जीवन के लिए आवश्यक है -
           आध्यात्म से शारीरिक,मानसिक,आर्थिक समस्याओं का समाधान हो जाता है।आध्यात्म का जीवन में आने से परिवारों में राम-कृष्ण, भीम-अर्जुन, हनुमान जैसी सन्तानें पैदा होंगी ,व्यक्ति,परिवार,समाज एवं राष्ट का कल्याण होगा जिस प्रकार रामलीला के लिए पहले रिहर्सल करते हैं उसी प्रकार आध्यात्म को जीवन में अपनाने के लिए हमें प्रेक्टकल करना होता है,ठीक उसी प्रकार जैसे डाक्टर बनने के लिए डाक्टर अभ्यास करता है ।


9–श्रेष्ठ परम्पराओं को बढाना ही वंश परम्परा है -
        वंश परम्परा का मतलव औलाद से नहीं है बल्कि श्रेष्ठ परम्पराओं को आगे बढाना है हमारे पूर्वजों द्वारा आाध्यात्म की जो नीव रखी है उसे हमें संजोकर तथा परिष्कृत करके रखना है, ताकि अगली पीढी को ङसमें सन्देह न हो ,महान श्रृषि गुफा में ही नहीं बैठते थे बल्कि लोगों को अपना ज्ञान बॉटते थे, ईसा मसीह, मुहम्मद साहब,गॉधी जी ने सारा जीवन दुनियॉ की सेवा में अर्पित किया ।


10–सम्पत्ति जमा करने से अहंकार बढता है-
        जहॉ सम्पत्ति होती है वहॉ कलह होता है प्रशन्नता नहीं होगी । जब शरीर मोटा होता है तो वह कुछ भी काम नहीं कर सकता है, उसी प्रकार बडा आदमी बनने से कोई फायदा नहीं,अहंकार बढता है, जो कि जीवात्मा को पसन्द नहीं है। महात्मॉ गॉधी जी ने जब आंतरिक महानता को स्वीकार किया तो पूरे विश्व में अपनी छाप छोड गये । बडप्पन से महानता बडी है।


11–सुख और शॉन्ति का जीवन-
        ङस शरीर को सुख चाहिए जबकि आत्मा के लिए शॉन्ति । सुख का सम्बन्ध भौतिक सम्पदा से है जैसे बीबी बच्चे,मकान, मोटर गाडी,रुपये पैसे अगर हैं तो कहते हैं सुखी है, लेकिन आत्मॉ के लिए ये चीजें व्यर्थ हैं ङन चीजों से शॉन्ति नहीं मिल सकती है,सुखों को बॉटने से शॉन्ति मिलती है,रावण हो या कंस या सिकन्दर सभी सुखी थे, मगर शॉन्ति नहीं थी अच्छा भोजन करने से सुख मिल सकता है शॉति नहीं


ईश्वर और जीवों का सम्बंध



 

1-ईश्वर और जीव का सम्बन्ध -
        ईश्वर और जीव का सम्बंध वैसा ही है जैसा चुम्बक और लोहे का ।तो फिर ईश्वर जीव को आकर्षित क्यों नहीं करते ? इस लिए कि जिसप्रकार कीचड में लिपटा हुआ लोहा चुंबक चुंबक से आकर्षित नहींहोता,उसी प्रकार अत्यधिक माया में लिप्त जीव ईश्वर के आकर्षण का अनुभव नहीं करता,लेकिन जैसे ही पानी से कीचड धुल जाने पर लोहा चुंबक की ओर आकर्षित होने लगता है उसी प्रकार अनवरत् प्रार्थना तथा पश्चाताप के असुओं द्वारा संसारबंधन में डालने वाली माया का वह कीचड धुल जाता है,तो जीव शीघ्र ही ईश्वर की ओर आकर्षित होने लगता है ।


2-भीष्म पितामह की आंख अंतिम क्षण में खुली थी-
        जब भीष्म पितामह देहत्याग के समय शरशय्या पर पडे हुये थे,तब एक दिन उनके नेत्र से आंसू निकलते देख अर्जुन ने भगवान श्री कृष्ण से कहा,हे सखे आश्चर्य की बात है कि पितामह जो सत्यवादी, जितेन्द्रिय ,ज्ञानी और अष्ट वस्तुओं में से एक हैं,शरीर त्यागते समय माया से रो रहे हैं ।भगवान त्री कृष्ण ने जब यह बात भीष्म पितामह से कही,तो उन्होंने कहा, भगवन् आप तो अच्छी तरह जानते हैं कि मैं ममता के कारण नहीं रो रहा हूं,मेरे रोने का कारण यह है कि भगवान की लीला को आजतक में नहीं समझ पाया जिनका नाम मात्र जपने से मनुष्य अनेकोंनेक विपदाओं से तर जाता है, और वे ही भगवान पाण्डवों के सारथी और सखा –रूप में विद्यमान हैं।


3-अवतारी पुरुष की पहचान-
        जिस प्रकार एक रेल का एंजन स्वयं भी आगे बढता ङै और कितने ही मालडिब्बों को भी साथ खीचकर लेजाता है उसी प्रका अवतारी पुरुष भी हजारों-लाखों मनुष्यों को ईश्वर के निकट लेजाता है ।।


4-सबके भीतर परमात्मा विराजमान है-
        मनुष्य तो एक के गिलाफ के समान है ।ऊपर से देखने में कोई गिलाफ लाल है तो कोई काला,लेकिन सबके भीतर रुई भरी होती है,उसी प्रकार मनुष्य देखने में कोई सुन्दर है कोई काला है,कोई महात्मा हैतो कोई दुराचारी है,पर सबके भीतर वही परमात्मा विराजमान है ।।


5-संसारिक जीवों में धर्म का प्रभव कम पडता है-
        जिस प्रकार एक मगर पर शस्त्र से वार किया जाय,तो उससे मगर का कुच भी नहीं होता है,बल्कि शस्त्र ही छिटककर अलग गिर जाता है ।इसी प्रकार संसारी जीवों के बीच यदि धर्म चर्ची कितनी ही क्यों न की जाय,उसके ह्दय पर तनिक भी प्रभाव नहीं पडता ।।


6-मन तराजू के पलडे के समान है-
        तराजू का जिधर पल्ला भारी होता है,उधर झुक जाता है और जिधर हल्का होता है,उधर का भाग ऊपर को उठ जाता है।मनुष्य का मन भी तराजू की भॉति है।उसके एक ओर संसार है और दूसरी ओर भगवान है ।जिसके मन में संसार ,मान इत्यादि का भार अधिक होता है, उसका मन संसार की ओर से उठकर भगवान की ओर झुक जाता है ।।

7-हमारे हाथ आंखों पर हैं-
        विश्व की समस्त शक्तियॉ हमारी हैं,हमने तो अपने हाथ अपनेवआंखों पर रख लिए हैं और चिल्लाते हैं कि सब ओर अंधेरा है ।जान लो कि हमारे चारों ओर अंधेरा नहीं है,अपने हाथ अलग करो,तुम्हें प्रकाश दिखाई देने लगेगा ,जो कि पहले भी था।अंधेरा कभी नहीं था, कमजोरी कभी नहीं थी।हम सब मूर्ख हैं जो चिल्लाते हैं कि हम कमजोर हैं,अपवित्र हैं ।।


8-एक विचार पालो-
        एक विचार लेलो ।उसी एक विचार के अनुसार जीवन को बनाओ,उसी को सोचो,उसी का स्वप्न देखो और उसी पर अवलम्बित रहो ।शरीर के प्रत्येक भाग को उसी विचार से ओत-फ्रोत होने दो और दूसरे सब विचारों को अपने से दूर रखो यही सफलता का रास्ता है ।।


9-ईश्वर के कई रूपों में दिखता है
        एक बार एक मनुष्य जंगल गया य़वहॉ उसने एक वृक्ष पर एक सुन्दर प्राणी देखा ।घर लौटकर उसने अपने मित्र से कहा कि मैने जंगल में एक पेड पर लाल रंग का एक प्राण देखा,मित्र बोला मैने भी देखा लेकिन वह तो हरा है,तीसरे व्यक्ति ने कहा नहीं उसे तो मैने भी देखा वह तो पीला है,उन्य लोगों ने भी कहा किसी ने कहा सफेद रंग का है किसी ने कोई और रंग बताया ।उन्हैं परस्पर झगडा होने लगा अंत में वे उस वृक्ष के पास गये वहॉ पर एक व्यक्ति बैठा था उसने उनके प्रश्नों के उत्तर में कहा,मैं तो इसी वृक्ष के नीचे बैठा रहता हूं और उस जन्तु को खूब अच्छी तरह से जानता हूं।तुम लोग उसके विषय में जो कह रहे हो सब सही है ।कभी वह लाल होता है कभी पीला,कभी सफेद उसके रंग बदलते रहते हैं और कभी विना रंग कादिखता है ।इसी प्रकार जो निरंतर भगवान का चिंतन कता है वह उनके रूपों तथा अवस्थाओं के बारे में जान सकता है।भगवान के अपने गुंण हैं,साथ ही वे निर्गुंण भी हैं।केवल वही व्यक्ति जो वृक्ष के नीचे रहता है, जानता है कि वह कितने रंगों में दिखाई देता है ।दूसरे लोग, जो पूरे सत्य को नहीं जानते ,परस्पर झगडा करते रहते हैं और कष्ट पाते हैं ।।


10-ईश्वर निराकारव साकार से परे है-
        ईश्वर के वारे में भ्रॉतियॉ निराकार और कार के सम्बंध में । ईश्वर तो निराकार भी है साकार भी है तथा इससे परे भी है।केवल वे ही स्वयं जानते हैं कि वे क्या हैं।जो लोग उनसे प्रेम करते हैं उनके लिए वे नाना प्रकार से नाना रूपों स्वयं को व्यक्त करते हैं ।किन्तु निश्चित ही वे साकार अथवा निराकार की सीमा से बंधे नहीं हैं ।।


11-श्रद्धा और विश्वास में बहुत बडी शक्ति है-
        एक आदमी से विभीषण ने कहा लो इस चीज को अपने पास कपडे के एक छोर से बॉध के रख लो ,इसके बल पर तुम सहज ही समुद्र पार हो जाओगे, तुम पानी पर चल सकोगे,लेकिन ध्यान रखना इसे देखना नहीं,नहीं तो डूब जाओगे।वह आदमी पानी पर बडी सरलता से चलते हुय़े आगे बढने लगा –विश्वास में ऐसा ही बल होता है ।लेकिन कुछ दूर जाने पर उसके मन में कुतूहल हुआ-कि विभीषण ने मुझे कौन सी वस्तु दी है कि जिसके बल पर मैं पानी के ऊपर ही ऊपर चला जा रहा हूं ? उसने गॉठ खोल ली और देखा तो उसमें केवल एक पत्ता था, जिसपर लिखा था राम नाम। उसने कहा –बस यही, और तत्काल वह डूब गया ।कहते हैं कि हनुमान ने राम के नाम पर विश्वास करके एक छलॉग में समुद्र को लॉघ दिया था लेकिन रामचन्द्र जी को सेतु बॉधना पडा था ।।


12-हम माया के अन्दर सुख ढूंडते हैं-
        इस संसार में जीवन और मृत्यु,शुभ और अशुभ,ज्ञान और अज्ञान का यह मिश्रण ही माया या जगत प्रपंच है ।तुम्हें सुख के साथ बहुत दुख तथा अशुभ भी मिलेगा ।यह कहना कि मैं केवल शुभ लूंगा,अशुभ नहीं लूंगा ,लडकपन है-यह असम्भव है।



आराम सत्य की कसौटी नहीं है

 
 
 
 
 
 
 
 
 
1-आराम सत्य की कसौटी नहीं है-
        अगर आप आराम चाहते हैं तो,सत्य से दूरी बढती जायेगी। यदि आप सचमुच सत्य की खोज चाहते हैं तो,आराम के प्रति आसक्त न हों। सत्य की प्राप्ति के लिए त्याग की आवश्यकता होती है। कामनाओं को मारना होगा,तभी आपके अन्तःकरण में उच्चत्तर सत्य प्रकाशित हो सकेगा। बलिदान आवश्यक है, आत्मत्याग का बलिदान ।सभी धर्मों में आत्मत्याग को एक अंग के रूप में स्वीकार किया गया है। ईश्वर के प्रति की जानी वाली सभी आहुतियॉ, आत्मत्याग ही तो है,जिसका कि कुछ मूल्य होता है।इस आत्मसमर्पण से ही तो हम यतार्थ आत्मसाक्षात्कार कर सकते हैं।एक सच्चे ज्ञानी को तो इस शरीर धारण के प्रति कोई चेष्ठा नहीं करनी चाहिए,और न इच्छा करनी चाहिए। चाहे ये संसार गिर पडे, मगर द्ढ होकर परम सत्य का अनुशरण करना चाहिए। वैसे बहुत कम लोग हैं जो अपने भीतर ईश्वर का साक्षात्कार करने का साहस करते हैं,क्योंकि इसे सिद्ध करने के लिए द्ढ इच्छा शक्ति की आवश्यकता होती है। हर मनुष्य स्वयं में पूर्ण है। हमें बोध होना चाहिए कि मैं विश्व हूं,मैं ब्रह्म हूं।और जब हम वास्तव में स्वयं उस आत्मा के साथ योग कर लेते है,तो फिर हमारे लिए सबकुछ सम्भव हो जाता है। सभी पदार्थ हमारे सेवक हो सकते हैं। जैसे मक्खन को पानी में रखने पर वह पानी से नहीं मिल सकता है। उसी प्रकार जब मनुष्य आत्मा का साक्षात्कार कर लेता है तो वह फिर इस संसार द्वारा दूषित नहीं हो सकता है।
 
2-भक्ति योग से धर्मांधता का जन्म होता है-
        भक्तियोग का सबसे बडा लाभ है कि हम ईश्वर की प्राप्त के चरम लक्ष्य तक पहुंच जाते हैं। लेकिन जब भक्ति परिपक्व होकर उस अवस्था को प्राप्त हो जाती है,जिसे परा भी कहते हैं,उस स्थिति में भयानक कट्टरता,मतान्धता की आशंका बन जाती है।क्योंकि व्यक्ति उस ईश्वर के एकदम करीव पहुंच जाता है। इससे व्यक्ति मतान्ध और कट्टर बन जाता है। हिन्दू,इस्लाम या ईसाई धर्म में जहॉ इस प्रकार के दल है,वहॉ निम्न श्रेणी के भक्तों द्वारा गठित विचारों से ये दल बन बन जाते हैं,जो कि सम्प्रदाय से बाहर के लोगों के प्रति बुरा से बुरा कार्य करने में भी नहीं हिचकेगा। जोकि किसी देश,समाज के लिए उपयुक्त नहीं है। इसलिए भक्ति मार्ग के साथ व्यापक दृष्टिकोंण अपनाया जाना चाहिए। भक्य बने लेकिन उच्च श्रेणी का।
 
3-ध्यान-योग की शक्ति-
        हर महॉपुरुष ने ध्यान शक्ति को जीवन में अपनाकर महॉनता के लक्ष्य को प्राप्त किया है। अगर हम स्वामी विवेकानन्द के बारे में जानने का प्रयास करते हैं तो,पायेंगे कि, उन्होंने जो कुछ पूरे विश्व को दिया,वह उन्हैं ध्यान शक्ति से ही प्राप्त हुआ था। क्योंकि ध्यान से उस परम शक्ति के योग से वह चीज मिल जाती है,जिसे हम चाहते हैं।
        श्री रामकृष्ण ने भविष्यवॉणी की थी कि जब नरेन्द्र(स्वामी विवेकानन्द) अपना कार्य पूर्ण कर लेने के पश्चात यह जान लेगा कि वह कौन और क्या है! तो वह निर्विकल्प समाधि में लीन हो जायेगा। हमारे ग्रन्थों में लिखा है कि जब हमें इस बात का ज्ञान हो जाता है कि मैं कौन हूं, तो फिर और कुछ जानना शेष नहीं रह जाता। और यह ज्ञान ध्यान -योग शक्ति से ही प्राप्त होता है।
        एक दिन मठ में किसी ने स्वामी जी से पूछा कि स्वामी जी,क्या आप जानते हैं कि आप कौन हैं? इस प्रश्न के उत्तर में चुप रहे, फिर मुंह से निकला “हॉ अब मैं जानता हूं।“ फिर उन्होंने अपने जीवन लीला को समाप्त करने का शुभ दिन चुना।
         4 जुलाई सन् 1902 का दिन। प्रातः 3 घण्टे का ध्यान किया,अपराह्न में युवा सन्यासियों को संस्कृत, व्याकरण,तथा वेदान्त दर्शन पढाया फिर अपने गुरु भाई के साथ लम्बी सैर की, सायं काल के समय सैर से लौटने पर सायंकालीन घण्टी बज रही थी, वे अपने कमरे में गये और गंगा की ओर मुंह करके ध्यान में बैठ गये,यह उनका अन्तिम ध्यान था।

        भले ही इससे पहले कई बार इसी तरह के ध्यान में बैठे,लेकिन इस बार लक्ष्य सामने था। बस उस ध्यान के पंखों पर बैठकर इतनी उच्च अवस्था में चले गये कि,जहॉ से पुनः प्रत्यावर्तन नहीं हो सकता था। और इस शरीर को तह लगाई पोषाक की तरह इस भूमि पर छोड दिया था।

       स्वामी विवेकानन्द के ध्यान की विशेषता यह थी कि,वे कहीं भी जाते थे,उनका ध्यान धारण शक्ति कुप्रभावित नहीं होती थी। हर जगह एक ही लय में ध्यान धारण की शक्ति प्राप्त होती थी। इसलिए हम-आप सभी लोग अपने सुखमय जीवन के लिए,प्रतिदिन सुबह ध्यान धारण का अभ्यास करें,इससे वह ऊर्जा,शक्ति मिलता हैं,जिससे हम अपने जीवन को आनन्दित बना सकते हैं।
 
4-अपनी भूलें-

        अपनी भूल अपने ही हाथों से सुधर जाए,यह उससे कहीं अच्छा है कि कोई दूसरा उसे सुधारें।भूल करने में पाप तो है ही मगर उसे छिपाने में उससे भी बडा पाप है।जो जान गया कि उसने भूल की है और उसे ठीक भी नहीं करता,वह एक और भूल करता है ।