Monday, August 6, 2012

जीवन के रहस्य



1-हम जीवित क्यों हैं-
        हमारे सामने बार-बार एक प्रश्न सामवने आता है कि आखिर हम जी क्यों रहे हैं? एक प्रश्नवाचक मार्क हमारे सामने लग जाता है । आप क्यों जी रहे हैं ? इस जिन्दगी को आप खीच क्यों रहे हैं ? कल इससे कुछ नहीं मिला,!आज भी नहीं मिला! फिर कल क्या मिल जायेगा ?हम चाहते  क्या हैं ?हम चाहते हैं आनंद ! तो मिला ? कभी भी नहीं मिलता ! हम चाहते हैं शॉति !,कभी मिला ? नहीं ! बल्कि जितनी शॉति चाहते हैं उतनी ही अशॉति सघन होती जाती है। और जितना आनंद खोजते हैं जिन्दगी में उतना ही तनाव,उतनी ही चिन्ता बढती चली जाती है।पूरी जिन्दगी दुख का एक ढेर हो जाता है।और हम उस दुख के ढेर पर ढेर बढाते चले जाते हैं । खोजते हैं आनन्द ! मिलता है दुःख । इसका अर्थ हुआ हमारी खोज में कोई बुनियादी भूल हो रही है। असाधारण भूल कह सकते हैं हम। जाते हैं आकाश की तरफ और पहुंच जाते हैं पाताल ।हम जाते हैं स्वर्ग की ओर, लेकिन पहुंच जाते हैं नरक । जलाते हैं दीये लेकिन जलता है अन्धेरा। यह हमारी पूरी जिन्दगी है । आदमी जो खोजता है वह नहीं मिलता है । सिकन्दर बहुत दुखी रहा होगा क्योंकि उस जमाने में वह पूरी दुनियॉ को जीतने को निकला था ,क्योंकि जो दुखी नहीं है वह किसी को जीतने ही नहीं निकलेगा । जो आनन्दित है वह जीत गया,उसने अपने को जीत लिया । अब किसी और को उसे जीतने की जरूरत नहीं रही। और जो अपने ही को नहीं जीत सका वह इस कमी को पूरा करने के लिए दूसरों को जीतने के लिए निकल पडता है । वे दूसरों को दबाकर अपनी हीनता को पूरा करने निकल पडते हैं । और बडे मजे की बात तो यह है कि यह देखा गया है कि-जो बहुत दीन होते हैं वे धन खोजने निकलते हैं।जो लोग हारे हुये होते हैं वे जीतने निकलते हैं । जिनके पास कुछ भी नहीं होता है वे सब मॉगने निकल पडते हैं । इसी लिए स्वभाव से सिकन्दर भी दुखी आदमी रहा होगा जो सारी दुनियॉ को जीतने निकला था । ।










2-मौत को झुठला नहीं सकते-
        जी हॉ हर आदमी की मौत निश्चित है, इसका मतलव यह नहीं कि कोई तिथि निश्चित है, बल्कि यह कि इसे कोई टाल नहीं सकता है । लेकिन हम देखते हैं कि हर आदमी उसको आशीर्वाद देते जा रहा है कि तुम जुग-जुग जीओ ।मॉ का आशीर्वाद बाप आशीर्वाद कि तुम जुगह-जुग जियो गुरु भी यही आशीर्वाद देता है। जबकि कोई जुग-जुग जी नहीं सकता है। ये सब झूठी बातें बोली जाती है। और लगता भी ऐसा ही है कि जुग-जुग जी लेंगे। मृत्यु तो निश्चित है ,मृत्यु की अनिवार्यता को कोई झुठला नहीं सकता है । कोई भी आजतक जुग-जुग नहीं जिया । किसी का आशीर्वाद भी पूरा नहीं हुआ,और होगा भी नहीं। मौत को हम जितना झुठलाते हैं अमृत की खोज उतनी अधिक मुश्किल होती जायेगी। हमारी जिन्दगी तो बिल्कुल असुरक्षित है हम यहॉ हैं,घर तक पहुंचेंगे,यह पक्का नहीं है । मैं यहॉ हूं ,दूसरा शव्द भी बोल सकूंगा आगे यह भी पक्का नहीं है । अनिश्चित है । लेकिन मन कहता है कि सब निश्चित है। बैंक बैलेंस निश्चित है,बीमा कम्पनी कहती है सब निश्चित है। सब तरफ निश्चय का धोखा खडा किया जा रहा है। जबकि सब अनिश्चित है,कुछ भी तो निश्चित नहीं है । और यदि इस अनिश्चितता का पता चल जाय तो उसे महशूस होगा कि जो वह खोज रहा है वह गलती कर रहा है ।


3-असली घर की तलाश -
        हम जिसे अपना घर समझते हैं,क्या सचमुच वह हमारा घर है?नहीं !वह तो एक सराय है,धर्मशाला है, यही तो हमारी भूल है। एक बार एक बादशाह इब्राहिम की छत पर सोया था,आधी रात्रि को उसकी नींद खुली तो देखा कि कोई छत पर चल रहा है, बादशाह ने चिल्लाकर पूछा कि तुम कौन हो !तो उसने हंसकर कहा कि सोये रहो ,परेशान मत होओ । मेरा ऊंट खो गया है, उसे खोज रहा हूं । इब्राहिम ने कहा पागल,कहीं मकानों की छतों पर कभी ऊंट खोये सुना है क्या ? वह जोर से हंसा और कहा कि तुमने मुझे पागल कहा,लेकिन जहॉ तू जिन्दगी खोज रहा है, वहॉ कभी किसी को जिन्दगी खोजते हुये पाया है ?जहॉ मृत्यु है वहॉ आदमी अमृत को खोजता है और जहॉ अनिश्चय है वहॉ निश्चय को खोजता है। जहॉ असत्य है वहॉ सत्य को खोजता है । इस तरह के लोग पागल नहीं तो मुझे पागल कहने का क्या कारण है? शीघ्र इब्राहिम ने उठकर सिपाहियों से उस आदमी को पकडकर लाने के लिए कहा कि लगता है यह आदमी मतलव की बात कर रहा है । लेकिन वह आदमी पकडा नहीं जा सका ।

        सारे दिन इब्राहिम चिन्तित दरवार में बैठा है। आदमियों ने सारी राजधानी खोज डाली मगर पता नहीं चला कि वह आदमी कौन था । जो रातभर छत पर ऊंट को खोज रहा था । सबने कहा कि वह पागल था, लेकिन बादशाह ने कहा आप क्यों पागल हो रहे हो यह तो मैने भी उसे कहा था लेकिन जो जबाव उसने मुझे दिया है उससे मैं पागल हो गया हूं । और वह पागल नहीं रहा । बस उसकी खोज करो । बहुत खोज के बाद भी पता नहीं चला। लेकिन कुछ देर बाद दरवाजे पर झगडा होने लगा । कोई आदमी दरवान से कह रहा था कि मुझे इस सराय में ठहर जाने दो । और वह दरवान कह रहा था कि यह सराय नहीं है महॉशय यह राजा का महल है। वह आदमी कह रहा था कि झूठ मत बोलो,मैं जानता हूं कि यह सराय है धर्मशाला है, मुझे ठहर जाने दो। बात इतनी बढी कि उस दरवान ने कहा कि आप पागल तो नहीं हैं ?
        राजा भागकर बाहर आया और उस आदमी को अन्दर लाकर पूछा कि क्या बात है ? उस आदमी ने फिर कहा कि मैं इस सराय में ठहरना चाहता हू,आपको कोई एतराज है ? राजा ने कहा कि पागल तो नहीं हो ?यह सराय नहीं है मेरा महल है ?उस आदमी ने कहा कि मैं इससे पहले भी आया था,तब कोई दूसरा आदमी इस सिंहासन पर बैठा था । वह भी कहता था कि यह मेरा निवास है । राने कहा वे मेरे पिता थे । और उससे पहले जब तुम आये तो वे उनके भी पिता थे । थो उस फकीर आदमी ने कहा कि जब मैं दुबारा आऊंगा,तुम ही मिलोगे, क्या यह पक्का है ? इब्राहिम ने कहा कि यह तो मुश्किल है, कि फिर मैं रहूं या न रहूं ।          उस आदमी ने कहा कि तो फिर यह सराय है । तुम भी ठहरे हो,मुझे भी ठहर जाने दो । इसमें तो बहुत लोग ठहर चुके हैं,मैं भी ठहर जाता हूं । इब्राहिम खडा होकर कहने लगा मिल गया वह आदमी जो रात में छत पर ऊंट को खोज रहा था । लगता है तुम वही आदमी हो । अब तुम ठहरो और मैं जाता हूं । उस फकीर आदमी ने कहा कहॉ जाते हो? राजा ने कहा ,अब घर खोजने जाता हूं । क्योंकि अबतक इस सराय को घर समझ बैठा था ।        अर्थात जिसे हम जिन्दगी समझ रहे हैं, और जिसे हम सुरक्षित समझ रहे थे मौत नहीं, समझ रहे थे यह सिर्फ धोखा है । और इस धोखे को टूटने में देर नहीं लगती है। यह धोखा किसी दिन टूट जाता है। करने का समय बचा है कुछ किया जदा सकता है । जहॉ जहॉ आपको दिखाई देता है जरा गौर से देखना,,जैसा दिखाई दे रहा है ठीक उसका उल्टा दिखाई पडेगा। और जहॉ दिखाई पडता है,पैरों के नीचे चट्टानें व गढ्ढे के सिवाय कुछ भी नहीं है । वहॉ जिन्दगी सुरक्षित दिखती है,मगर वहॉ तो मौत सुरक्षित है,और कुछ भी सुरक्षित नहीं है ।
        
काश यदि हमें जिन्दगी की असली तस्वीर दिखाई देती तो फिर हम सराय को छोडकर घर की खोज में नहीं निकलते ? लेकिन निकलना ही पडेगा । कोई उपाय भी तो नहीं है । और वही खोज परमात्मा की खोज बन जाती है । क्योंकि परमात्मा के अतिरिक्त और कोई घर नहीं है । वाकी सब सराय हैं । घर तो वह है जिसमें पहुंचकर वापस लौटना न हो । जिसमें पहुंचकर कहीं और पहुंचने की कोई जगह शोष न बचे वही घर है ।


4- परमात्मा की खोज में पागल होना सीखें-
        अच्छा है परमात्मा के लिए पागल हो जाओ । रवीन्द्रनाथ ने लिखा है कि जब मैं परमात्मा को खोजता था तो कभी दूर तारे पर उसकी झलक दिखाई पडती,लेकिन जब मैं उस तारे के पास पहुंचता तो वह और आगे निकल चुका था । किसी दूर किसी ग्रह पर उसकी चमक का अनुभव हुआ, लेकिन जबतक मैने वहॉ की यात्रा की,उसके कदम कहीं और जा चुके थे । इस तरह मैं जन्म जन्मों तक खोजता रहा,लेकिन वह नहीं मिला। 
         एक दिन अनायास ही मैं उस जगह पर पहुंच गया जहॉ उसका भवन था । द्वार पर ही लिखा था कि परमात्मा यहीं रहते हैं ।खुशी से भर आया । मन,जिसे जन्म जन्मों से खोज रहा था वह मिल गया अब । लेकिन जैसे ही उसकी सीढी पर पैर रखा कि खयाल आया -सुना है कि अगर उससे मिलना है तो मिटना पडता है । और उसी समय मनमें एक भय समा गया कि कि सीढी चढूं या न चढूं ?क्योंकि यदि सामने गया तो मिट जाऊंगा । अब क्या करें? अपने को बचाएं या उसको पा लूं ? पिर हिम्मत बॉधकर सीढियॉ चढकर द्वार तक पहुंच गया, उसके द्वार की सॉगल हाथ में ले ली । फिर मन डरने लगा कि अगर द्वार खोल दिया तो फिर क्या होगा ?मैं तो मिट जाऊंगा । मिटने के खयाल से प्रॉण इतने घबडा गये संगल धीरे-धीरे छोड दी कि कहीं भूल से आवाज न हो जाय, कहीं वह द्वार न खोल दे,पैर की जूतियॉ हाथ में ले ली कि कहीं सीढियों पर आवाज न हो जॉय। वहॉ से वापस भाग कर आ गया उसके बाद लौटकर नहीं देखा ।
        अब भली भॉति पता है मुझे कि उसका मकान कहॉ है। फिर भी उसे खोजता फिरता हूं। और भली भॉति पता है मुझे कि उसका मकान कहॉ है। लेकिन फिर भी खोजता हूं। लेकिन उसके मकान के पास जाकर ढरता हूं इसलिए कि मिटने की हिम्मत अभी तक नहीं जुटा पाया । भगवान को तो पाना चाहता हूं,लेकिन खुद मिटना नहीं चाहता हूं ।
        
जब ध्यान में प्रवेश करता हूं ,फिर हमें उसका द्वार दिखाई देगा,उसके द्वार पर जैसे ही हम खडे होंगे,फिर वही सवाल खडा हो जायेगा -लगेगा जैसे अपने मिटने का वक्त आ गया। दिल कहता है कि भय से पीछे मत लौटना ,अन्यथा जन्म-जन्मों तक खोजते रहेंगे । फिर मिलन न हो सकेगा ।
        
इस सम्बन्ध में सेकडों प्रयोग हुये हैं, गहराई से प्रयोग किये गये हैं। हमारे एक मित्र ने इस सम्बन्ध में कहा कि मुझे लगा कि जैसे मैं पागल न हो जाऊं। उसे भी वही डर कि कहीं मैं मिट न जाऊं। इस डर से उन्होंने अपने को सम्भाल लिया, दरवाजे की तरफ आये ,स्वासें छोड दी,जूते पैर से उठा लिए कि कहीं आवाज न आ जाय। कहीं पागल तो न हो जाऊं ! क्योंकि अगर प्रेम में पागल होने का ख्याल आये तो प्रेम मर जाता है । लेकिन परमात्मा के द्वार पर यह डर ! फिर खयाल आया कि परमात्मा के लिए अगर पागल नहीं हो सकते हैं तो फिर और किस चीज के लिए पागल होंगे ? अगर धन के पीछे पागल होने से,यश के परीछे पागल होने से,पद के पीछे पागल होने से या उन सब चीजों के पीछे पागल होंगे तो कुछ भी नहीं मिलेगा, खाली हाथ रह जायेंगे । उस परमात्मा के लिए पागल होना बेहत्तर है । क्योंकि उसके लिए पागल होते ही वह सब मिल जाता है जो फिर कभी छीना नहीं जा सकता है । और मजे की बात तो यह है कि जो बिद्धिमान बन बैठे हैं,वे तो इन पागलों के मुकाबले कम नहीं हैं,जो कि उनके द्वार पर नाचते हुये प्रवेश करते हैं ।

5-ईश्वर के मरने की स्थिति-
        गॉड इज डेड,ईस्वर मर गया है । नीत्से ने कहा था ,लेकिन जिसकी जिन्दगी में ईश्वर मर गया हो,उसकी जिन्दगी में पागलपन के सिवाय और कुछ भी बच नहीं सकता है । इसीलिए नीत्से पागल होकर मरा था । लेकिन डर है कि कहीं पूरी मनुष्यता पागल होकर न मरे । क्योंकि जो नीत्से ने कहा था आज उसे करोणों लोग कहते हैं । रूस में बीस करोण लोग कहते हैं कि गॉड इस डेड,ईश्वर मर चुका है । चीन में अस्सी करोण लोग, यूरोप और अमेरिका और भारत की नईं पीढियॉ स्वीकार करते हैं कि ईश्वर मर गया है । उस समय नीत्से पागल होकर मरा था कहीं ऐसा न हो कि पूरी मनुष्यता को पागल होकर न मरना पडे । क्योंकि ईश्वर के बिना न तो नीत्से जिन्दा रह सकता है और न कोई जिन्दा रह सकता है । सच तो यह है कि ईश्वर के मरने का मतलव कि हमारे भीतर जो भी श्रेष्ठ है,जो भी सुन्दर है,जो भी शुभ है,जो भी सत्य है,उसकी खोज मर चुकी है।ईश्वर के मरने का मतलव यही होता है कि जिन्दगी में रोशनी और प्रकाश की खोज मर गई है । ईश्वर के मरने का मतलव होता है हमने अपनी आत्मा की खोज बन्द कर दी है । हमने प्रॉणों की खोज बंद कर दी है ।वे मन्दिर खडे हैं,वहॉ घण्टियॉ बज रही हैं चर्च में परमात्मा को पुकारा जा रहा है। लेकिन आदमियों के प्रॉणों का मन्दिर गिरा हुआ दिखाई पड रहा है,आत्मा का चर्च कहीं दिखाई नहीं दे रहा है। केवल पत्थर की दीवार रह गईं हैं , और उनमें किराये के पुजारी परमात्मा का नाम भी ले रहे हैं,लेकिन आदमी के प्राणों की प्यास और प्रेम परमात्मा की तरफ अर्पित होना बन्द हो चुका है । और यदि इस सत्य को अगर ठीक ढंग से न समझा जा सके, तो शायद फिर हम उस प्रेम को दुबारा जगा भी नहीं सकेंगे ।


6-खाली हाथ आना और जाना-
        आदमी खाली हाथ जन्म लेकर आता है,औरअन्त में खाली हाथ चला जाता है । कहा जाता है कि सिकन्दर ने मरते वक्त कहा था कि,अर्थी में मेरे दोनों हाथ बाहर लटकाये रखना ,यही उसकी वसीयत थी। गॉव के लोग उस समय हैरान थे जब सिकन्दर के दोनों हाथ बाहर लटके थे । यह पागलपन भी क्या ?आजतक किसी भी अर्थी के हाथ बाहर लटके नहीं देखे । भिखारी मरता है तो हाथ अन्दर होते हैं । अगर सम्राट मरे तो हाथ बाहर रहे । सिकन्दर को यह पागलपन क्यों सूझा ? सेनापतियों ने कहा , हमने भी यही कहा था, लेकिन उन्होंने माना ही नहीं .यही कि मेरे हाथ बाहर लटकाये रखना ।ताकि लोग ठीक से देख सकें कि मैं खाली हाथ जा रहा हूं। जिन्दगीभर पागलपन रहा और और हाथ फिर भी खाली के खाली हैं । कुछ नहीं मिला । बहुत दौडा,बहुत लडा,बहुत परेशान हुआ,लेकिन जाते वक्त खाली हाथ गया । एक-एक आदमी देख ले कि सिकन्दर खाली हाथ जा रहा है । इस धरती पर दो तरह के पागल दिखाई देते हैं। एक तो परमात्मा की ओर जाता है,जहॉ हम अपने को खोकर सबकुछ पा लेते हैं ।और एक जो अपने को अहंकार की दिशा में ले जाता है, जहॉ हमें कुछ भी मिल जाय तो कुछ मिलता नहीं। अन्ततः हम खाली हाथ रह जाते हैं । यदि अहंकार के लिए ही पागल होना है तो हम सब पागल हैं । अहंकार के लिए पागल हैं । लेकिन यह पागलपन हमें दिखाई नहीं देता है । क्योंकि हम सभी उसमें सहमत और साथी हैं । एगर एक गॉव में सभी पागल हो जॉय तो फिर उस गॉव में पता ही नहीं चलेगा कि कोई पागल हो गया। बल्कि उस गॉव में खतरा है कि किसी आदमी का अगर दिमाग ठीक हो जाय तो सारा गॉव विचार करने लगेगा ।



जीवन के तत्व

1-जिसकी वॉणीं गन्दी होती है उसका मन भी गन्दा होता है-
        कभी भी अपने मुख से ऎसे शब्द न निकालें जो किसी के दिल को दुखाये और किसी का अहित करे। इस प्रकार की कडवी और अहितकारी वांणी सत्य को बचा नहीं सकती और उसमें सत्य का स्वरूप कुत्सित और भयानक हो जाता है जो कि किसी को भी स्वीकार्य नहीं हो सकता ।ध्यान रखें जिसकी जबान गंदी होती है उसका मन भी गंदा होता है ।इसलिए पवित्र मन के लिए अच्छी वॉणी बोलिए ।


2- दिव्य प्रेम का नशा-
        जब किसी को भगवान के दिव्य प्रेम का नशा चढ जाता है,तो तब उसके कौन पिता कौन माता या कौन पत्नी ? तब उसके लिए कोई कर्तव्य शेष नहीं रह जाता है । वह तो सभी ऋणों से मुक्त हो जाता है ।इस अवस्था में मनुष्य जगत को भूल जाता है । अपनी देह,जो सब को प्रिय होती है उस देह को भी भूल जाता है ।।
 
 


3-सिर्फ अज्ञान है-
       न पाप है, न पुण्य है, सिर्फ अज्ञान है। अद्वैत की उपलव्धि से यह अज्ञान मिट जाता है ।।
    
 
4-आत्मा के जीवन में ही आनन्द है-
        यदि आत्मा के जीवन में मुझे आनन्द नहीं मिलता,तो क्या मैं इन्द्रियों के जीवन में आनन्द पा सकूंगा ? अगर मुझे अमृत नहीं मिलता तो क्या में गढ्ढे के पानी से प्यास बुझाऊं ? चातक तो सिर्फ बादलों के पानी से ही पानी पीता है और ऊंचा उडता हुआ चिल्लाता है,शुद्ध पानी ! शुद्ध पानी ! कोई आंधी या तूफान उसके पंखों को डिगा नहीं पाते और न उसे धरती के पानी को पीने के लिए बाध्य कर पाते हैं ।।
 
 

5-तर्क से सत्य की पहचान-
        जब तर्क से बुद्धि सत्य को जान लेती है, तब भावनाओं के स्रोत ह्दय द्वारा अनुभूत होता है। इस प्रकार बुद्धि और भावना दोनों एक ही क्षण में आलोकिक हो उठते हैं, और तभी उपनिषद में कहा गया है कि ह्दय ग्रन्थि खुल जाती है ,फिर सारे संशय मिट जाते हैं ।।
 
 



6-संसार के दुःख-
        ऊंट को कंटीली घास प्रिय होती है, उसके मुंह में कॉटे चुभते हैं खून निकलता है,लेकिन वह फिर भी उस घास को खाना बन्द नहीं करता है,खाते ही रहता है, उसी प्रकार संसारके लोगों को इस संसार में इतना अधिक कष्ट होने पर भी उनमें लिप्त रहते हैं,कुछ दिनों में वह सब भूलकर ज्यों
के त्यों हो जातेहैं ।
 
 


7-मन दूध और संसार जल के समान है-
        ये मन दूध और संसार जल के समान है । यदि हम मन को संसार में लगाये रखोगे तो दूध जल के साथ मिल जायेगा । इसीलिए लोग दूध को एकान्त में रखकर उसका दही जमाते हैं और फिर उसे मक्खन निकालते हैं । इसी प्रकार हम एकान्त में साधना करते हुए मन रूपी दूध में से ज्ञान और भक्ति का मक्खन निकाल सकते हैं । फिर वह मक्खन संसार रूपी जल में आसानी से रखा जा सकता है ।उसके बाद तो वह संसार में मिल नहीं पायेगा ।ये मन संसार रूपी जल से निर्लिप्त रहकर उसके ऊपर तैरता रहेगा ।।
 
 




8-संसार दूध और जल का मिश्रण है–
        यह संसार जल और दूध के मिश्रण जैसा है । उसमें ईश्वरीय आनन्द और विषय दोनों हैं।तुम हंस बनकर दूध –दूध पी लो और पानी छोढ दो ।।
 
 



9-पत्ती की तरह बने रहो-
        इस संसार में पत्ती की तरह बने रहो, जब आंधी आती है तो आंधी जहॉ ले जाती है वहीं वह जाती है । कभी किसी के घर के भीतर तो कभी कूडे के ढेर पर, कभी अच्छी जगह तो कभी बुरी जगह, यही जीवन है ।।
 
 


10-दुर्जनों से अपनी रक्षा करें–
        इस संसार में दुर्जनों से अपनी रक्षा करना आवश्यक है,वरना वे आपको जीने नहीं देंगे ।इसके लिए आप तमोगुणों का प्रदर्शन करें,लेकिन सिर्फ प्रदर्शन, लेकिन इस बात को ध्यान में रखना होगा कि उसे कोई हानि न पहुंचे ।।
 



11-अंगार भरी राह पर चलना सीखें-
        जो लोग अंगारा बनकर अपने मन की चिन्ताओं,भय और दुख को जला डालते हैं उनको तो जीवन में सफलता पानेसे कोई नहीं रोक सकता है।और जो लोग अंगार भरी राहों पर चलने से डरते हैं वे तो कायर पुरुष कहलाते हैं,वैसे दुश्मन को कभी भी छोटा नहीं समझन चाहिए क्योंकि एक छोटी सी चिंगारी भी दहकता अंगारा बन जाता है ।
 
 





12-मन की बात-
        मन सदैव ही अनेक प्रकार के विषय ग्रहण कर रहा है,सब प्रकार की वस्तुओं में जा रहा है । लेकिन उसके बाद मन की एक ऐसी भी उच्चत्तर अवस्था
है,जब वह केवल एक ही वस्तु को ग्रहण करके अन्य अन्य सब वस्तुओं को छोड दे सकता है ।इस एक वस्तु को ग्रहण करने का फल ही समाधि है ।।
 
 


13-ध्यान क्या है-
        मन किसी एक विषय को सोचने का प्रयत्न करता है,जैसे मस्तिष्क के ऊपर या ह्दय आदि में अपने को पकड रखने का प्रयत्न किया जाता है।और उस अंश को संवेदनाओं द्वारा ग्रहण करने में समर्त होता है तो उसका नाम है धारणॉ, या जब मन शरीर के भीतर या उसके बाहर किसी वस्तु के साथ संलग्न होता है और कुछ समय तक उसी तरह रहता है तो उसे धारणा कहते हैं । और जब हम कुछ समयतक अपने को उसी अवस्था में रखने में समर्थ होते हैं,तो उसका नाम है ध्यान ।
 
 



14-समाधि क्या है-
        जब हम ध्यान में बैठते हैं तो वस्तु का रूप या बाहरी दुनियॉ से हम हट जाते हैं,तो यह समाधि अवस्था मानी जाती है ।जैसे मान लो एक पुस्तक के बारे में ध्यान कर रहा हूं और मैं उसमें चित्त संयम करने में सफल हो गया ।तब विना किसी रूप में प्रकाशित इस पुस्तक की संवेदनाएं मेरे ज्ञान में आने लगती हैं,तो ध्यान की इस अवस्था को ही समाधि कहते हैं ।।
 
 
15-संयम क्या है-
        जब हम अपने मन को किसी निर्धारित वस्तु की ओर लेजाकर उस वस्तु में कुछ समय तक के लिए धारण कर सकते हैं,और उसके बाद उसके अन्तर्भाग को उसके बाहरी भाग से अगल करके काफी समय तक उसी स्थिति को बनाये रखते हैं तो यह संयम कहलाता है।उस स्थिति में बाहरी आकार अचानक न जाने कहॉ चला जाता है यह पता ही नहीं चलता । हममें तो केवल इसका अर्थ मात्र भाषित होता है ।।
 
 


16-संयम में सफल होना ज्ञान का प्रकाश प्राप्त करना है-
        यदि हम इस संयम को साधन के रूप में अपनाने में सफल हो जाते हैं तो सारी शक्तियॉ हमारे हाथ में आ जाती हैं ।यही संयम योगी का प्रधान स्वरूप है।ज्ञान के विषय तो अनन्त हैं ।जैसे स्थूल,स्थूलतम् सूक्ष्म,सूक्ष्मतम् आदि कई विभागों में विभक्त हैं।संयम का प्रयोग पहले स्थूल वस्तु पर करना चाहिए,और जब स्थूल ज्ञान प्राप्त होने लगे,तब थोडा-थोडा करके सूक्ष्मतम् वस्तु पर प्रयोग करना चाहिए ।
 
 


17-समाधि की पहली अवस्था-
        समाधि की पहली अवस्था में मन की समस्त वृतियॉ अवश्य हट जाती हैं, मगर मगर पूर्ण रूप से नही,क्योंकि ऐसा होने से कोई वृत्ति ही नहीं रह जाती।मान लो कि योगी के मन में एक ऐसी वृति उठ रही है जो मन को इन्द्रिय की ओर ले जा रही है,और योगी उस वृत्ति को संयत करने का प्रयास करता है,तो उस स्थिति में उस वृत्ति को भी एक वृत्ति कहना पडेगा ।एक लहर को दूसरी लहर को रोका गया है,तो समाधि नहीं है।लेकिन फिर भी जिस अवस्था में मन तरंग के बाद तरंग उठती रहती है,उसकी अपेक्षा यह निरंतर उच्च समाधि की ओर बढता जाता है जो कि समाधि के एकदम समीप है ।।
 
 





8-व्यक्ति और बुद्धि दोनों भिन्न हैं-
        अगर देखें अभिन्न समझता है,और उसी से अपने आप को सुखी या दुखी तो व्यक्ति और बुद्धि दोनों एक दूसरे से भिन्न हैं,लेकिन होता यह है कि व्यक्ति बुद्धि में प्रतिबिम्बित होकर बुद्धि के साथ अपने को अनुभव करता है ।बुद्धि के सारे भोग अपने लिए नहीं बल्कि व्यक्ति के लिए होते हैं बुद्धि की दूसरी वह अन्तर्मुखी होकर केवल व्यक्ति का अवलम्बन करती है।इस अवस्था स्वार्थ है। जब बुद्धि निर्मल होती है और उसमें व्यक्ति विशेष रूप से प्रतिविम्बित होता है,तब स्वार्थ में संयम करने से व्यक्ति का ज्ञान होता है ।
 
 


19--देह प्रवेश सम्भव है-
        एक योगी एक शरीर में क्रियाशील रहते हुये अन्य दूसरे मृत देह में प्रवेश कर उसे गतिशील कर सकते हैं।अथवा किसी जीवित शरीर में प्रवेश कर उस व्यक्ति के मन और इन्द्रियों को नियन्त्रित कर सकते हैं,और तबतक चाहें उस शरीर के माध्यम से कार्य कर सकते हैं ।यह सिद्धि संयम के प्रयोग से ही सम्भव है।योगी जनों के अनुसार आत्मा के साथ मन भी सर्वव्यापी है,मन सर्वव्यापी मन का एक अंश मात्र है । वह अभी इस शरीर के स्नायुओं के माध्यम से ही कार्य कर सकता है,लेकिन जब योगी इन स्नायविक प्रवाहों से अपने को मुक्त कर लेते हैं,तब वे दूसरे शरीर के द्वारा भी कार्य ले सकता है ।
 
 




20-हम देह से कार्य करते हैं यह हमारा भ्रम है-
        अज्ञानतावशः हम सोचते हैं कि हम इस देह से कार्य कर रहे है। क्योंकि जब यह मन सर्वव्यापी है,हम तो केवल एक ही प्रकार के स्नायुंओं द्वारा क्यों बंधे हैं,इस अहं को एक ही शरीर में सीमाबद्ध करक क्यों रखे हुये हैं ? योगी लोग इस अहं भाव को जहॉ कहीं इच्छा हो, वहॉ अनुभव करना चाहते हैं ।इस अहं भाव के चले जाने पर,इस देह में जो मानसिक तरंग उठती है, उसमें संयम करने में जब सफल हो जाते हैं,तब प्रकाश के सारे आवरण नष्ट हो जाते हैं और समस्त अंधकार एवं अज्ञान नष्ट हो जाने के कारण उन्हैं सबकुछ चैतन्यमय प्रतीत होता है ।
 
 

21- इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करें -
        हमें वाह्य वस्तु की अनुभूति के समय, इन्द्रियॉ मन से वाहरजाकर विषय की ओर दौडती हैं,तब ज्ञान होता है।जब एक योगीइनमें संयम का प्रयोग करते हैं,तब वे इन्द्रियों पर विजय प्राप्त कर लेता है ।जैसे एक पुस्तक को लेकर उसमें संयम का प्रयोग करें, और फिर पुस्तक के रूप में जो ज्ञान है उसमें भी संयम करें तो जिस अहम् भाव के द्वारा उस पुस्तक का दर्शन होता है,उसमें भी संयम करें ।इस अभ्यास से समस्त इन्द्रियों पर विजय प्राप्त हो जाती हैं ।
 
 

22-दुःख का कारण सत्य और असत्य का विवेक है-
        हम जो भी दुख भोगते हैं,वह सत्य और असत्य के विवेक से उत्पन्न होता है।हम सभी बुरे को भला समझते हैं और स्वप्न को वास्तविक। मात्र आत्मा ही सत्य है,एक लेकिन हम भूल जाते हैं कि शरीर एक मिथ्या स्वप्न मात्र है। हम सोचते हैं कि हम शरीर हैं। यह अविवेक ही दुःख का कारण है। यह अविवेक अविद्या से उत्पन्न होता है। विवेक के आने से बल आता है, और तब हम स्वर्ग, देवता, आदि कल्पनाओं को त्यागने में समर्थ होते हैं। जाति,लक्षण, और स्थान के द्वारा हम वस्तुओं में विभेद करते हैं-जैसे गाय और कुत्ते में भेद जातिगत है । इसी प्रकार दो गायों में भेद हम लक्षण के द्वारा करते हैं ।इसी प्रकार दो समान वस्तुओं में भेद करते हैं स्थानगत मिन्नता के आधार पर ।लेकिन अगर भेद करने के सारे आधार काम न आये तो उपरोक्त साधन प्रणाली के अभ्यास से अपने विवेक द्वारा उन्हैं पृथक कर सकते हैं ।योगियों का उच्चतम दर्शन इस सत्य पर आधारित है कि पुरुष शुद्ध स्वभाव एवं नित्य पूर्ण स्वरूप है। शरीर और मन तो यौगिक वस्तुएं हैं, फिर भी हम सदैव अपने आपको उनके साथ मिला देते हैं और सबसे बडी गलती यही है कि पृथक का ज्ञान नष्ट हो गया है। विवेक शक्ति प्राप्त होने से मनुष्य देख पाता है कि जगत की सारी वस्तुएं चाहे बाहरी जगत की हैं या आन्तरिक जगत की सब यौगिक पदार्थ हैं ।
 
 


23-अन्धकार कितना ही घना क्यों न हो प्रभात अवश्य आयेगा -
        अन्धकार चाहे कितना ही घना क्यों नहो,और अन्धकार रूपी राक्षश कितना ही अट्टहास क्यों न कर रहा हो,लेकिन उसके बाद प्रभात को तो आना ही है।और सूर्योंदय के प्रकाश के साथ ही अन्धकार का सबकुछ शून्य में मिल जायेगा।उसी प्रकार मनुष्य के दुखों की रात्रि जैसी भी हो सूर्यलोक उसके समस्त अन्धकार को दूर कर देगा।और मनुष्य के जीवन में उजाला आयेगा।
 
 


24- लोग स्वर्ग जाना चाहते हैं स्वर्गीय बनना नहीं चाहते -
        लोग स्वर्ग जाना चाहते हैं मगर स्वर्गीय बनना नहीं चाहते हैं,स्वर्ग अपनी मुठ्ठी में रखो, फिर वहॉ जाने की आवश्यकता नहीं होगी परिस्थितियों को आनन्दित बनाओ कि स्वर्ग तुम्हारे पास आ जाय तुम्हें वहॉ न जाना पडे।
 
 

25-अच्छा आदमी बनो -
ऐसा आदमी बनो कि महशूस करो कि दुनियॉ में सभी मॆरी तरह बन जॉय, तो पृथ्वी स्व्रर्ग बन जाय।
 
 

26 – पहले स्वयं को सुधारें-
        जो दूसरों पर अंगुली उठाते हैं, वे एक अंगुली उस ओर करते है,उन्है ङस बात का ध्यान नहीं रहता कि, तीन अंगुलियॉ अपनी ओर कर देते है, अर्थात हम पहले स्वयं को बदलें सुधारें, तभी दूसरों को कह सकते हैं ।
 
 

27 – गुरु का महत्व-
       जिस प्रकार एक के पीछे जितने ही 0 लगाते जाते है उतना ही 1 तथा 0 का महत्व बढता जाता है, लेकिन जब 1 को हटा देते हैं तो, ङन शून्यों का सारा महत्व समाप्त हो जाता है,तो 1 गुरु है, और 0 शिष्य या भक्त होते है ।
 
 


28 -लक्ष्मी और सरस्वती की पूजा -
        लक्ष्मी की पूजा करो मगर उसपर विश्वास मत करो, क्योकि लक्ष्मी हमेशा खडी रहती है, कब चली जाय तैयार रहती है, जिसे दोलत भी कहते हैं, अर्थात जब आती है तो एक लात छाती पर मारती है और जब जाती है,तो एक लात पीठ पर मारकर जाती है,और सरस्वती की पूजा करो तो, विश्वास करो कि जब वह आती है तो बैठ जाती है, जाती नहीं है ।
 
 

28 -क्रोध और घमण्ड से बचें -
        क्रोध और घमण्ड अपने आप विपत्ति को जन्म देते हैं, क्रोधी मनुष्य दूसरों को हानि पहुंचाता है, परन्तु उससे अधिक वह स्वयं को घायल कर देता है ।
 
 



29-कृष्ण को देवताओं ने कैसे भगवान मान लिया था-
        जब ब्रह्मा जी ने देखा कि वृन्दावन में एक बालक को भगवान माना जा रहा है, और वह असामान्य कार्य कर रहा है,तो ब्रह्मा जी ने उस बालक की परीक्षा लेने के लिए कृष्ण के बछणों और संगियों को चुराकर छिपा लिया था। एक साल बाद जब ब्रह्मा जी वृन्दावन लौटे तो देखा कि वे बछडे और संगी वहीं खेल रहे हैं। फिर वे समझ गये कि कृष्ण भगवान हैं। वे भी कृष्ण की शरण में आकर स्तुति करने लगे थे। इसी तरह वृन्दावन में लम्बे समय से वर्षा नहीं हुई तो इन्द्र के लिए यज्ञ करना था।कृष्ण ने अपने पिता नन्द से कहा कि इन्द्र के लिए यज्ञ करने की कोई आवश्यकता नहीं है,क्योंकि वे भगवान के आदेश के अधीन है। कृष्ण ने नन्द से यह नहीं कहा कि मैं भगवान हूं, बल्कि यह कहा कि इन्द्र भगवान के आदेश के अधीन हैं,इसलिए उसे आपके लिए वर्षा करनी ही पडेगी। इसलिए यज्ञ करने की आवश्यकता नहीं है। यज्ञ बन्द होने पर इन्द्र क्रोधित हो उठा, और वृन्दावन वासियों को दण्डित करने के लिए सात दिनों तक मूसलाधार वर्षा कराई,वृन्दावन जल में डूब सा गया–लेकिन सात वर्ष के बालक कृष्ण ने तुरन्त गोवर्धन पर्वत को उठाकर सारे वृन्दावन वासियों को अपने पशुओं सहित पर्वत के नीचे शरण लेने को कहा, और सात दिनों तक वृदन्दावन वासियों की रक्षा के लिए उठाये रखा। फिर इन्द्र की समझ में भी आ गया कि कृष्ण भगवान हैं।।
 
 



30-भक्त और अभक्त के मरने में भेद-
        एक प्रश्न सामने आता है कि भक्त मरते हैं और अभक्त भी मरते हैं फिर दोनों में अन्तर क्या है? इसे इस रूप में देख सकते हैं कि-जैसे चूहा- बिल्ली, बिल्ली चूहे को मुंह में पकडकर ले जाती है,जबकि उसी मुंह में अपने बच्चों को भी ले जाती है। मुंह वही है, बिल्ली के बच्चे अपने को सुरक्षित महशूष करते हैं,जबकि चूहा अपने आप को मृत्यु के जबडे में समझता है। ।इसी प्रकार मृत्यु के समय भक्तजन सीधे वैकुण्ठ जाते हैं जबकि सामान्य पापी सीधे नरक जाते हैं।
 
 




31- शिक्षा की असफलता-
        आधुनिक शिक्षा के बारे में हमारे आचार्य अनेक विशयों के बारे में बातें करते हैं,चर्चा करते हैं लेकिन अगर हम उन्हीं से पूछते हैं कि आप क्या हैं तो उनके पास कोई उत्तर नहीं रहता है। विश्वविद्यालय उन स्नातकों को उपाधि प्रदान करते हैं,और फिर वे सोचते हैं कि मैं पी.एच.डी हूं,एक विद्वान हूं। लेकिन अगर हम उन विद्वानों से कहें कि वह क्या है, और जीवन का उद्देश्य क्या है तो वह केवल अपने शारीरिक उपाधियॉ का उल्लेख करेगा कि में अमेरिकन हूं,याभारतीय हूं,मैं पुरुष हूं,इत्यादि।वह अपनी पहचान शरीर के साथ बतला सकता है,जो कि वह नहीं होता, इसलिए वह मूर्ख कहा जायेगा। जब सनातन चैतन्य महॉप्रभु के पास उनके शिष्य बनने पहुंचे तो आत्मसमर्पण करते हुये,कहा हे प्रभो जब मैं मंत्री था तो लोग मुझे विद्वान कहते थे,जिससे मैं अपने आपको विद्वान समझ बैठा था,लेकिन न मैं विद्वान हूं और न बुद्धिमान,क्योंकि मैं नहीं जानता कि मैं क्या हूं,और मेरे ज्ञान का यह परिणॉम है कि मैं सब जानता हूं इसके अतिरिक्त कि मैं क्या हूं,जीवन की इस कष्टप्रद अवस्था से किस तरह छूटा जाय ।
 
 


 32-हमारी विस्मृति और वैदिक ज्ञान-
        हम सभी यही सोचते हैं कि मैं एक शरीर हूं,इस शरीर को ही अपनी पहचान मान बैठते हैं। किन्तु हम शरीर नहीं हैं,बल्कि शरीर के स्वामी हैं। जिस तरह कि हम अपना निवास स्थान नहीं बल्कि उस कमरे के स्वामी या रहने बाले हैं। जब हम अपने शरीर का अध्ययन करते हैं तो कहते हैं कि यह मेरा हाथ है,मेरा पॉव है। यह शरीर आत्मा के वाहन के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। हम भूल चुके हैं कि इससे पूर्व हमारा शरीर कौन सा था,यहॉ तक कि इस जीवन में भी हमें यह स्मरण नहीं रहता कि हम अपनी माता की गोद में कभी शिशु थे। न जाने हमारे जीवन में कितनी बातें घटित हुईं, लेकिन हम इन सबको स्मरण नहीं रख पाते। और यदि हम घटित इस जीवन की बातें स्मरण नहीं रख पाते तो विगत जीवन को कैसे स्मरण रख सकते हैं? कोई व्यक्ति पाप कर्म में इसलिए रत् रहता है,क्योंकि वह यह नहीं जानता कि उसने विगत जीवन में क्या किया था! जिससे उसे वर्तमान शरीर प्राप्त हुऐ है। ऐसे पाप कर्मों से ही तो मनुष्य को दूसरा शरीर प्राप्त होता है। फलस्वरूप उसे कष्ट भोगना होता है,कि वह अपने वर्तमान शरीर में अपने विगत पापकर्मों के फल भोग रहा होता है। जिस व्यक्ति को वैदिक ज्ञान नहीं होता है वह सदैव यह भूल कर कर्म करता है कि उसने भूतकाल में क्या किया था, वर्तमान में क्या कर रहा है,और भविष्य में किस प्रकार कष्ट भोगेगा। वह तो पूर्णतः अन्धकार में रहता है। इसलिए
वैदिक आदेश है –तमसि मा-अन्धकार में मत रहो ।ज्योतिर्गम-प्रकाश में जाने का प्रयास करो। यही प्रकाश वैदिक ज्ञान है।
 
 




33-सेवा से वैदिक ज्ञान-
        सेवा के ज्ञान श्रोत गुरु और भगवान माने गये हैं। यदि आप इनके प्रति श्रद्धा रखते हैं,तो आपको वैदिक ज्ञान का सारा सार स्वतः प्रकट हो जाता है। वैदों का आदेश है कि मनुष्य को चाहिए कि गुरु के पास जाये, तभी वेदों का पूर्ण ज्ञान होता है। और भागवत् बनने के लिए गुरु के निर्देशों का पालन करें,तभी वेदों का ज्ञान प्रकट होता है।और जब वैदों का ज्ञान प्रकट हो जाय तो फिर उसे भौतिक अन्धकार में रहने की आवश्यकता नहीं पडती है।
 
 


34-पीडा तथा आन्द की अनुभूति—
        इस भौतिक जगत में कोई आनन्द नहीं है। हर एक वस्तु पीडादायक है,लेकिन हम-आप हैं कि इन्द्रिय कार्यो द्वारा सुखी बनने का ही प्रयास करते हैं,लेकिन परिणॉम निकलता है दुःख तथा निराशा। इसी को माया कहते हैं। भगवान बुद्ध ने तो भौतिक आनन्द के स्वभाव को समझ लिया था। युवा में तो वे राजकुमार थे,खूब ऐश्वर्य और आनन्द भोग रहे थे,लेकिन उन्होंने इन सबका परित्याग कर दिया। ध्यानमग्न हो गये और सारे इन्द्रिय कार्यों को बन्द कर दिया,जोकि इस जगत के कष्टों तथा आनन्दों को दिलाने वाले थे। यह शिक्षा देने के लिए कि इन्द्रिय कार्य हमें मोक्ष प्राप्त करने में सहायक नहीं होते हैं । अपने राज्य को त्याग दिया। और इस जगत के सुख-दुख के चंगुल से बाहर निकल गये। इसीलिए बौद्ध मत हमें यह शिक्षा देता है कि मनुष्य जैसे ही भौतिक शरीर के रूप में भौतिक तत्वों के संयोग को छिन्न-भिन्न कर देता है, वैसे ही सुख-दुख से भी छुटकारा पा सकता है।बौद्ध मत का लक्ष्य निर्वॉण है अर्थात वह दशा जिसमें मनुष्य भौतिक संयोग से अपने सम्बन्ध तोडकर प्राप्त करता है। लेकिन बौद्ध मत में अपूर्णता यह देखी गई है कि इसमें शरीर के स्वामी,आत्मा के विषय में कोई सूचना नहीं दी जाती है । लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि भगवान बुद्ध पूर्ण सत्य से अवगत नहीं थे।
 
 

35-बौद्धवाद और माया वाद-
        धर्म के अन्दर कई वाद देखे गये हैं,जैसे बौद्ध वाद तथा शंकराचार्य का मायावाद दर्शन, दोनों ही अपने अनुयायियों को इन्द्रिय कार्यों से उत्पन्न कष्ट तथा आनन्द से मुक्त होने का प्रयास करने के लिए प्रोत्साहित करते रहे। बुद्ध ने तो केवल पदार्थ की बात कही कि निर्वॉण प्राप्त करने के लिए मनुष्य को शरीर के भौतिक संयोग को छिन्न-भिन्न करना चाहिए। अर्थात-शरीर पॉच तत्वों – पृथ्वी,जल,वायु,अग्नि तथा आकाश का संयोग है,और यही संयोग सुःख-दुःख का कारण है। यदि इस संयोग को ही छिन्न-भिन्न कर दिया जाय तो फिर सुःख-दुःख नहीं रहेंगे। शंकराचार्य जी ने बुद्ध का खण्डन किया,क्योंकि यह आत्मा के विषय में कोई सूचना नहीं देता है। शंकराचार्य के दर्शन में तो अपनी आदि आध्यात्मिक स्थिति को प्राप्त करना है। ब्रह्म का ध्यान करते वक्त मायावादी समझता है कि मैं ईश्वर बन गया हूं। ,क्योंकि गुंण की दृष्टि से आत्मा ईश्वर के ही समान है।लेकिन यह भी एक भूल है,इसलिए कि मात्रात्मक दृष्टि से कभी कोई ईश्वर के समान नहीं बन सकता। मायावादियों कामानना है कि ज्ञान का संचाय करके वे ईश्वर के बराबर हो जाते हैं।इसीलिए वे एक दूसरे को नारायण से पुकारते हैं।यब उनकी बडी भूल है,इसलिए कि हम भगवान नारायण नहीं बन सकते हैं ।कोई भी विवेकवान व्यक्ति यह दावा नहीं कर सकता है कि मैं ईश्वर हूं। लेकिन शंकराचार्य की यह बात कि वह अपने को शरीर नहीं बल्कि आत्मा समझें उपयुक्त है। इसे तो सारे वेद मानते हैं कि मैं यह शरीर नहीं,शुद्ध आत्मा हूं।
 
 




36-अज्ञानी की सेवा किसी समय खतरनाक
       हो सकती है।क्योंकि अज्ञानी की सेवा के पीछे भी अज्ञान खडा रहता है अज्ञानी के भीतर की चेतना तो वहीं की वहीं रह जाती है उसमें कोई अन्तर नहीं आया अज्ञानी के लोभ जहॉ खडे थे वहीं हैं।अगर किसी व्यक्ति को पुण्य करने का अवसर मिलता है तो इसके लिए भी ज्ञान की आवश्यकता होती है अगर बिना ज्ञान के पुण्य करने लगे तो इस पुण्य के महत्व की गहराई की अनुभूति उसे नहीं हो पाती ।इस पुण्य का कोई मूल्य नहीं होगा ।इसलिए जीवन के हर क्षेत्र में ज्ञान आवश्यक है ।
 

37-मानव शरीर श्रेष्ठतम है-
        सब प्रकार के शरीरों में मानव-शरीर को ही श्रेष्ठतम् माना जाता है। मनुष्य ही श्रेष्ठतम जीव है। कहते हैं देवताओं को भी ज्ञान लाभ के लिए मनुष्य देह धारण करनी होती है और एक मात्र मनुष्य ही ज्ञान लाभ का अधिकारी होता है ।यहॉ तक कि देवताओं को भी नहीं। कहा गया है कि देवताओं को मुक्ति लाभ के लिए मनुष्य योनि में आना होता है।लेकिन मनुष्य समाज में भी अत्यधिक धन या अत्यधिक दरिद्रता से आत्मा के उच्चतर विकास में बाधक है। इस संसार में जितने भी महात्मा पैदा हुये हैं,सभी मध्यम वर्ग के लोगों से हुये है,क्यों कि मध्यम वर्ग वालों में सब शक्तियॉ समान रूप से सन्तुलित होती है।
 
 

38-प्रणायाम से शक्ति का प्रवाह—
        जैसे कि प्रणायाम के साधन में जो भी क्रियायें की जाती है,उनका उद्देश्य क्या है,और प्रत्येक क्रिया से देह में किस प्रकार की शक्ति प्रवाहित होती है। इस बात की सत्यता का प्रमाण दिखने के लिये आपको निन्तर अभ्यास की आवश्यकता होगी। इसके लिए आपको स्वयं प्रणायाम करना होगा,तभी आपको देह के भीतर इन शक्तियों के प्रवाह की गति स्पष्ट अनुभव होगी।तभी तो आपका संशय दूर होगा। लेकिन ध्यान रहे कि इसके लिए आपको कठोर अभ्यास करना होगा। दिन में दो वार, प्रातः और सायं ,इस समय प्रकृति शान्त होती है।और इसी वक्त शरीर भी कुछ शान्त रहता है।एक नियम बना लेना चाहिए कि साधना समाप्त किये बिना भोजन नहीं करेंगे। भूख का प्रवल वेग होगा तो आपका अलस्य नष्ट हो जायेगा । और वैसे भी अपने देश की संस्कृति ही स्नान-पूजा और साधना के बाद भोजन करने की बात कहती है। फिर यह क्रिया ऐगे जीवन की दिन चर्या बन जाती है ।
 
 



39-ज्ञान की शक्ति से ही ज्ञान का विकास होता है—
         यह सत्य है कि समस्त ज्ञान हमारे भीतर ही निहित है,जैसा कि आजकल के दार्शनिकों का विचार है कि मनुष्य का ज्ञान स्वयं उसके भीतर से उत्पन्न होता है, लेकिन उसे दूसरे के ज्ञान से जगाना होता है,भले ही जानने की शक्ति हमारे अन्दर विद्यमान है,फिर भी हमें उसे जगाना पडता है। अचेतन जड पदार्थ ज्ञान का विकास नहीं करा सकता, बल्कि ज्ञान की शक्ति से ही ज्ञान का विकास होता है। हमारे अन्दर जो ज्ञान है, उसको जगाने के लिए सदैव ज्ञानी पुरुषों का हमारे पास होना आवश्यक है। जगत कभी भी इन आचार्यों से रहित नहीं हुआ है। इसके लिए अनुकूल परिस्थितियों की आवश्यकता होती है।
 
 

40-सच्चा योगी-
        जब पृथ्वी,जल,तेज,वायु और आकाश इस पंच्चभूतों से योग की अनुभूति होने लगती है,तब समझना चाहिए कि योग आरम्भ हो गया है, जिन्हैं कि इस प्रकार का शरीर प्राप्त हो गया है,उस शरीर में फिर रोग,या मृत्यु नहीं रहती।
 
 


41-अधिकारों का सच्चा श्रोत कर्तव्य है-
        अगर हम सब अपने कर्तव्य पूरा करें तो अधिकारों को ढूंडने कहीं अन्यत्र नहीं जाना पडेगा बल्कि अधिकारों का सच्चा स्रोत तो कर्तव्य ही है ।बहुत अधिकार मिल जाने पर तो मनुष्य का विचार दूषित हो जाता है।हमारे पूर्वजों ने तो अधिकारों के लिए संघर्ष किया है लेकिन आज की पीढी को कर्तव्य के लिए संघर्ष करना है। संसार में सबसे बडा अधिकार और त्याग से प्राप्त होता है ।वैसे अधिकार हजम करने के लिए पूरी कीमत चुकानी होती है वरना तबतक यदि अधिकार मिल
भी जाये तो उसे गंवा बैठोगे।अधिकार तो सुख मादक और सारहीन होते हैं।
 
 


42-प्रशन्नचित्त होकर जीवन यापन करें -
        चित्त के प्रशन्न रहने से सब दुख नष्ट हो जाते हैं। जिस व्यक्ति को प्रशन्नता प्राप्त हो जाती है,उसकी बुद्धि तुरन्त स्थिर हो जाती है। यदि हम प्रशन्न रहते हैं तो सारी प्रकृति ही हमारे साथ मुस्कराती प्रतीत होती है । प्रशन्नचित्त व्यक्ति तो कभी अपने कर्म में असफल नहीं होता। जिसका चित्त प्रशन्न है वह व्यवहार में उदारता बन जाता है। इस दुनियॉ में प्रशन्न रहने का एक ही उपाय है कि अपनी आवश्यकताओं को कम करना सीखें ।
 
 

43-हमारा विवेक-
        विवेक का आशय हमारी उस शक्ति से है जिसके द्वारा हम कुछ सच बातों को भली-भॉति जानते हैं ,और इतनी अच्छी तरह से जानते हैं कि उन बातों के लिए हमें किसी से कुछ पूछने या समझने अथवा कहीं पढने सुनने की जरूरत नहीं होती । विवेक तो प्रभु-प्रदत्त -पथ प्रदर्शक है, यह तो एक गुरु है ।
 
 


44-कटु बॉणीं के घाव-
        फरसी से कटा हुआ वन तो फिर से अंकुरित हो जाता है, किन्तु कटु वचन रूपी शस्त्र से किया हुआ भयंकर घाव कभी भी भरता नहीं है ।एसलिए किसी के साथ बात चीत में क्रूरता पूर्ण बात नहीं करनी चाहिए। किसी को नीचा देखना पडे वे शब्द नहीं बोलने चाहिए वे शब्द जिससे दूसरे को उद्वेग हो पाप लोक में ले जाने बाले हो, नहीं बोलना चाहिए।बचन रूपी बॉण जब मुंह से निकलते हैं तो उससे घायल मनुष्य रात-दिन शोकमग्न रहता है ,इसलिए जो बचन सामने वाले को उद्वेग पहुंचाते हों उन्हैं कदापि नहीं बोलना चाहिए ।
 
 

45-मनुष्य को सुख की चाह-
        हर मनुष्य को सुख की चाह होती है,इसके लिए वह चारों ओर दौडता-फिरता है-वह इन्द्रियों के पीछे भागता रहता है पागल की तरह जगत में कतार्य करता है।जो लोग अपने जीवन के संग्राम में सफल हुये हैं,अगर उनसे पूछें तो,उन्हैं यह जगत सत्य दिखता है,उन्हैं सभी बातें सत्य प्रतीत होती हैं,और वे ही लोग जब अधिक उम्र के होते हैं और सौभाग्य लक्ष्मी बार-बार उन्हैं धोखा देती है तो,कहते हैं कि यह किस्मत का खेल है।अर्थात जीवन के अलग-अलग उम्र में अलग-अलग अनुभूतियॉ होती है,प्रतिक्रिया होती है। हर वस्तु क्षण भर के लिए हैं लेकिन स्थाई लगती हैं। जिससे विलास, वैभव, शक्ति, दरिद्रता और यहॉ तक कि यह जीवन भी उसे स्थाई लगता है,जबकि ये क्षणिक होते हैं।
 
 

46-हमारा जीवन हमारा शिक्षक है-
        हमें इस बात की ओर ध्यान देना होगा कि हमें जन्म और मृत्यु दोनों प्रशन्नतापूर्वक स्वीकार करना चाहिए।ईश्वर के प्रेम में आनन्दित रहना चाहिए।इस शरीर के बन्धन से मुक्ति का लक्ष्य होना चाहिए।सच तो यह है कि हमें अपने इस शरीर से इतना प्रेम होता है कि,उसे हम चिरन्तन करना चाहते हैं,सदा के लिए इस शरीर के साथ चलना चाहते हैं।इससे मोक्ष की प्राप्ति का मार्ग अवरुद्ध हो जाता है।हमें तो देह के प्रति आशक्त नहीं होना है,भविष्य में दूसरा शरीर धारण करने की आशा नहीं रखनी है। न शरीर की इच्छा करो और न उन लोगों के शरीर से प्रेम करो जो हमें प्रिय है। यह जीवन तो हमारा शिक्षक है,इसकी मृत्यु से नये शरीर धारण करने का अवसर मिलता है।आत्मघात करोगे तो शिक्षक ही मर जायेगा । और उसका स्थान दूसरा शरीर धारण कर लेगा।इस प्रकार जबतक हमने इस शरीर- बुद्धि से मुक्त होना नहीं सीखा, तबतक हमें इस शरीर को रखना ही होगा,वरना एक शरीर के खोने पर दूसरा शरीर प्राप्त होता रहेगा। लक्ष्य हेतु इस शरीर को एक साधन के रूप में देखना चाहिए,जिसके प्राप्त होने पर इसका पूर्ण उपयोग किया जा सके।
 
 

47-मानव शरीर श्रेष्ठतम है-
        सब प्रकार के शरीरों में मानव-शरीर को ही श्रेष्ठतम् माना जाता है। मनुष्य ही श्रेष्ठतम जीव है। कहते हैं देवताओं को भी ज्ञान लाभ के लिए मनुष्य देह धारण करनी होती है और एक मात्र मनुष्य ही ज्ञान लाभ का अधिकारी होता है ।यहॉ तक कि देवताओं को भी नहीं। कहा गया है कि देवताओं को मुक्ति लाभ के लिए मनुष्य योनि में आना होता है।लेकिन मनुष्य समाज में भी अत्यधिक धन या अत्यधिक दरिद्रता से आत्मा के उच्चतर विकास में बाधक है। इस संसार में जितने भी महात्मा पैदा हुये हैं,सभी मध्यम वर्ग के लोगों से हुये है,क्यों कि मध्यम वर्ग वालों में सब शक्तियॉ समान रूप से सन्तुलित होती है।
 
 

48-प्रणायाम से शक्ति का प्रवाह—
        जैस कि प्रणायाम के साधन में जो भी क्रियायें की जाती है,उनका उद्देश्य क्या है,और प्रत्येक क्रिया से देह में किस प्रकार की शक्ति प्रवाहित होती है। इस बात की सत्यता का प्रमाण दिखने के लिये आपको निन्तर अभ्यास की आवश्यकता होगी। इसके लिए आपको स्वयं प्रणायाम करना होगा,तभी आपको देह के भीतर इन शक्तियों के प्रवाह की गति स्पष्ट अनुभव होगी।तभी तो आपका संशय दूर होगा। लेकिन ध्यान रहे कि इसके लिए आपको कठोर अभ्यास करना होगा। दिन में दो वार, प्रातः और सायं ,इस समय प्रकृति शान्त होती है।और इसी वक्त शरीर भी कुछ शान्त रहता है। एक नियम बना लेना चाहिए कि साधना समाप्त किये बिना भोजन नहीं करेंगे।भूख का प्रवल वेग होगा तो आपका अलस्य नष्टहो जायेगा। और वैसे भी अपने देश की संस्कृति ही स्नान-पूजा और साधना के बाद भोजन करने की बात कहती है। फिर यह क्रिया ऐगे जीवन की दिन चर्या बन जाती है ।
 
 


49-ज्ञान की शक्ति से ही ज्ञान का विकास होता है—
        यह सत्य है कि समस्त ज्ञान हमारे भीतर ही निहित है,जैसा कि आजकल के दार्शनिकों का विचार है कि मनुष्य का ज्ञान स्वयं उसके भीतर से उत्पन्न होता है,लेकिन उसे दूसरे के ज्ञान से जगाना होता है,भले ही जानने की शक्ति हमारे अन्दर विद्यमान है,फिर भी हमें उसे जगाना पडता है। अचेतन जड पदार्थ ज्ञान का विकास नहीं करा सकता, बल्कि ज्ञान की शक्ति से ही ज्ञान का विकास होता है। हमारे अन्दर जो ज्ञान है उसको जगाने के लिए सदैव ज्ञानी पुरुषों का हमारे पास होना आवश्यक है। जगत कभी भी इन आचार्यों से रहित नहीं हुआ है। इसके लिए अनुकूल परिस्थितियों कीआवश्यकता होती है।
 
 


50-सच्चा योगी-
        जब पृथ्वी,जल,तेज,वायु और आकाश इन पंच्चभूतों से योगी को अनुभूति होने लगती है,तब समझना चाहिए कि योग आरम्भ हो गया है,जिन्हैं कि इस प्रकार का शरीर प्राप्त हो गया है,उस शरीर में फिर रोग,या मृत्यु नहीं रहती।
 
 



51-अन्तर्वलोकन-
        अपने अन्दर झॉककर देखें। अपनी चेतना को बेहत्तर बनाने का यह सर्वोत्तम उपाय है। अगर आपका ध्यान नहीं लगता तो कुछ न कुछ खराबी आपके अन्दर आ गई है,कोई न कोई अशुद्ध विचार आपके अन्दर आ गये हैं उन्हैं देखना चाहिए, जानना चाहिए,समझना चाहिए और सफाई करनी चाहिए, इसी को अन्तर्दशन या अन्तर्वलोकन कहते हैं।
 
 



52-अपना गुरुत्वाकर्षण बनाये रखें-
        आपमें अपने वजन का गुरुत्वाकर्षण होना चाहिए- अर्थात चारित्रिक वजन,गरिमा का वजन,आचरण का वजन, श्रद्धा का वजन और आपके प्रकाश का वजन । तुच्छता और मिथ्याभिमान से आप गुरु नहीं बनते । घटियापन,अभद्र भाषा,घटिया मजाक, क्रोध एवं गुस्सा ये सब दुर्गुंण पूरी तरह से त्याग देने चाहिए । अपनी गरिमा अपनी वॉणी के माधुर्य से लोगों को प्रभावित करें ।
 
 


53-विपत्ति के समय निर्विचारिता में मौन रह-
        यहि आपके सामने कोई विपत्ति आती है तो आप अत्यन्त शॉत हो जॉय ।यह एक अवस्था है। आप मौन के उस धुरी पर पहुंचने का प्रयत्न कीजिए । यह शॉति आपको वास्तव में शक्तिशाली बना देगी । यह मौन आपका नहीं है क्योंकि इस अवस्था में आप ब्रह्माण्डीय मौन होते हैं,आपका सम्बन्ध ब्रहमॉण्ड चलाने वाली दैवी शक्ति से होता है ।
 
 

54-जगदम्बा चक्र का जागृत होना—
        यदि आपके अन्दर जगदम्बा चक्र जागृत हो जाता है तो आपके अन्दर का भय,आशंका सब भाग जाती है,कोई भी किसी प्रकार की भय ,आशंका नहीं रहती। मनुष्य शेरदिल हो जाताहै ,एकदम शेरदिल, क्योंकि देवी शेर पर विराजती है ।जो लोग दुर्गा जी को मानते है, वे इतनी प्रभावशाली हो जाते हैं कि एक बार प्रशन्न कर लीजिए तो दुनियॉ में किसी से डरने बात नहीं u
 
 

55-पति-पत्नी का प्रेम-
        कोई भी पति पत्नी को केवल पत्नी के नाते ही प्रेम नहीं करता,और न कोई भी पत्नी अपने पति को केवल पति के नाते प्रेम करती है ।पत्नी में जो परमात्मतत्व है, उसी से पति प्रेम करता है,और पति में जो परमेश्वर है,उसी से पत्नी प्रेम करती है । प्रत्येक में जो ईस्वर तत्व है,वही उन्हैं अपने प्रिय के निकट खीचता है । प्रत्येक वस्तु में और प्रत्येक व्यक्ति में जो परमेश्वर है,वही हमसे प्रेम कराता है ।परमेश्वर ही सच्चा प्रेम है ।।
 
 

56-जगदम्बा की शक्ति क्या है –
        देवी जगदम्बा सारी सृष्टि की मॉ है। यह भक्तों की रक्षा करती है । यह देवी शक्ति आपके ह्दय में होती है,ह्दय चक्र से मतलव है जगदम्बा का चक्र । इस देवी तत्व से हमारे अन्दर सुरक्षा स्थापित होती है जिससे हम सुरक्षित होते हैं । श्री जगदम्बा आदिशक्ति का अंश है । दो ह्दयों के मध्य के महत्वपूर्ण विन्दु पर उनका स्थान है । इस चक्र में सारी शक्तियॉ रखी गई हैं । यही आपको सुरक्षा,निद्रा,ऊर्जा एवं आशीर्वाद प्रदान करती हैं । वे पूरे ब्रह्मॉण्ड की मॉ हैं, इसलिए पूरे ब्रह्माण्ड की देख-भाल करती हैं।जगदम्बा की सभी शक्तियॉ सभी प्रकार की नकारात्मता को नष्ट करने के लिए कार्य करती है । आप अपनी मॉ की ज्योति बनें । आपमें वे सारी शक्तियॉ बह रही हैं । आपमें प्रज्वलित ज्योति है जिसे आप अधिक से अधिक फैलाएं । यदि आपके मध्य ह्दय पर वाधा जान पडती है तो आप जगदम्बा का मंत्र लेते हैं । इसके लिए कहना पडता है कि "मैं साक्षात जगदम्बा हूं" ,तब आपमें जगदम्बा जागृत होती है ।जगदम्बा का चक्र जागृत होने से भय,आशंका,सब भाग जाता है ।।
 
 


57–हम स्वयं अपने से अपरचित हैं–
        मनुष्य अपने से दूर भागा चला जा रहा है,इसलिए कि हम अपने से अपरचित हैं,अपने सौन्दर्य से,अपने वौभव से,अपने ज्ञान से और अपने प्रेम से अपरचित,वह आनन्द की खोज बाहर की ओर करते हुये दौड रहा है ।पर आंनंद तो बाहर है ही नहीं,यह तो अंदर है,आपमें है,आप स्वयं आनंद स्वरूप हैं । आप परमात्म स्वरूप हैं,ऐसा सब लोग कहते हैं ।
 
 


58-अपनी दुर्वलता का दर्शन करें-
        हम मोहनिद्रा में पडे होते हैं और अपने सुधार की ओर कोई ध्यान ही नहीं देते, इसलिए कि हमें अपनी त्रुटियों और कमजोरियों का ज्ञान ही नहीं होता है हम गलत राह पर हैं इसका हमें आभास ही नहीं होता,जैसे अंधकार में बढते चले जा रहे हों,और अंत में जब किसी शिला से टकराते हैं तो तब अपनी गलती का अहसास होता है,तब ज्ञान के चक्षु एकाएक खुल जाते हैं, यहीं से उन्नत्ति का प्रभात प्रारम्भ हो जाता है । जो अपनी दुर्वलता का दर्शन करता है,और उसके लिए सच्चा पश्चाताप कर उसे दूर करने की इच्छा से सतत् प्रयास प्रारम्भ करता है समझो उसका आधा काम हो गया। अर्थात पहले दुर्वलता के दर्शन, फिर आत्मग्लानि और फिर दुर्वलता को हटाने की साधना, यही हमारी उन्नत्ति के तत्व हैं ।अगर मन गलत राह से हटकर सन्मार्ग पर आरूढ हो जाता है आध्यात्मिक सिद्धियॉ मिलनी प्रारम्भ हो जाती हैं ।हमारे वेदों में मन को कल्याणकारी मार्ग पर ले जाने के लिए प्रार्थनायें की गईं हैं ।।
 
 



59–ध्यान देने योग्य वातें-
        अगर दो आदमी बात करते हैं तो उनके बीच में न बोलें,अपनी दुद्धिमानी दिखाने का प्रयत्न न करें ,ऐसी बात तो बोलो ही मत जिससे उन लोगों की बात कटे या उन्हैं नीचा देखना पडे,अपनी और अपने वंश की बढाई न करें,यदि दूसरा कोई करता है तो उसे बुरा न कहें, चिल्लाकर न बोलें,ऐसी आवाज और ऐेसे भाव से न बोलें,जिससे सुनने वालों को तुम्हारी हुकूमत या अपना तिरस्कार प्रतीत हैं।
 
 


60-मन को विकृत करने वाले आहार-
        वे आहार जो मन को विकृत करते हैं इन्हैं राजसी आहार भी कहते हैं ।कडवा,खट्टा,नमकीन,बहुत गर्म,तीखा,रूखा,जलन पैदा करने वाला, ऐसे आहार जो रोग एवं शोक उत्पन्न करने वाले होते हैं,राजसी लोगों को प्रिय होते हैं।इन आहारों का प्रत्यक्ष प्रभाव हमारे मन तथा इन्द्रियों पर पडता है।मन में कुकल्पनायें,वासना की उत्तेजना,और इन्द्रियलोलुपता उत्पन्न होती है।मनुष्य कामी,क्रोधी,लालची,और पापी बन जाता है,उसके रोग, शोक,दुःख में अभिवृद्धि होती है।बुद्धि मलिन होती है । इन वस्तुओं में करेला,इमली, बहुत नमकीन,सोडा,गरम-गरम चीजें,राई,गर्म मशाला,लाल मिर्च,तेल से तले हुये गरिषठ पदार्थ,बाजार की मिठाइयॉ,पूडी-कचौडी,अधिक मिर्च व मशाले चाय,पान,चूना,तम्बाकू,प्याज लहसुन आदि चीजों का सेवन करने से दुःख,चिन्ता और रोग पैदा करती हैं।इनसे इन्द्रियॉ कामुक हो जाती हैं,इनका प्रयोग करने वाले लोग विलीसी,क्रोधी,विक्षुव्ध,तथा उत्तेजनाओं में फंसे होते हैं। इनके मुंह से गुर्गंध आती है ।वैसे दालों में मसूर की दाल।चटनी, अचार सोंठ भी विकृत करने वाले पदार्थ हैं ।।
 
 




61-तामसी आहार का प्रयोग से बचें
        तामसी आहारों में मॉस आता है।कई प्रकार के जीवों का मॉस मछली अंण्डों का प्रयोग मात्र स्वाद मात्र के लिए बढ रहा है ।भॉति-भॉति की शक्तिवर्धक दवाइयॉ,मछलियों का तेल,आदि ।शराव,कॉफी,कोको,गॉजा, चरस,अफीम,सिगरेट,बीडी,आदि पदार्थ तामसी हैं ।तामसीआहार से मनुष्य प्रत्यक्ष राक्षस बन जाता है ।ऐसे लोग हमेशा दुःखी,बुद्धिहीन, क्रोधी, आलसी, दरिद्री, अधर्मी,पापी और अल्पायु बन जाते हैं। इन चीजों का प्रयोग करने से बचना चाहिए ।।
 
 

62-भोजन में महान ईश्वरीय शक्ति का प्रवेश होता है
        हम जिस भोजन को ग्रहण करते हैं उससे हमारे शरीर में ईश्वरी शक्ति पहुंचती है।उत्तम से उत्तम भोजन भी दूषित मनः स्थिति से विकार और विषमय हो सकता है ।क्रोध, उद्वेग,चिडचिडापन,आवेश आदि की मनःस्थिति में किया भोजन विशैला हो जाता है ।जिस व्यक्ति के द्वारा भोजन पकाया या परोसा जाता है उसकी मनोदशा उस भोजन के साथ हमारे शरीर में प्रवेश कर जाती हैं ।भोजन करते समय अगर क्रोध की दशा में हैं तो भोजन ठीक ढंग से चबाया नहीं जाता,और न पाचन सही ढंग से होता है ।चिन्तन मनःस्थिति मे भोजन नसों में घाव उत्पन्न कर देता है,हमारी कोमल पाचन नलिकायें शिथिल हो जाती हैं ।इसलिए भोजन बनाने वाले तथा भोजन करने वाले की मनोदशा स्वस्थ होनी चाहिए। प्रशन्नचित्त मुद्रा एवं शॉत मनोदशा में खाया हुआ भोजन शरीर और मन के स्वास्थ्य पर जादू जैसा गुंणकारी प्रभाव डालता है । अन्तःकरण की शॉत सुखद वृत्ति में किये गये भोजन के साथ-साथ हम प्रशन्नता, सुख,शॉति,और उत्साह की स्वस्थ भावनायें भी खाते हैं जिससे हमारा शरीर भी वैसा ही बन जाता है।आनंद और प्रफुल्लता तो ईश्वरीय गुंण है, क्लेश, चिंता,उद्वेग,आसुरी प्रवृत्तियॉ हैं।आपने देखा होगा हंसता-खेलता हुआ बच्चा दूध और मामूली अन्न से सुडौल और निर्विकीर बनता जाता है । इसीलिए घर में मॉ के हाथों पकाया और परोसा गया भोजन अधिक पौष्टिक होता है क्योंकि मॉ मन से प्रशन्नचित् भवना से भोजन वनाती और परोसती है।ध्यान रखें भोजन करते समय घर का माहौल प्रशन्नचित्त बनाने का प्रयास करें ।।
 
 




63-विपत्ति आने पर घबराओ नहीं
        यदि आपके सामने विपत्ति आती है तो तुम उसके सहन करने की शक्ति रखते हो,घबराओ नहीं ।अपना बल लगाकर उसे निकाल दो और यदि तुम्हारी ताकत उसे नाश नहीं कर सकती तब भी रो नहीं।जरूर एक बार विपत्ति तुम्हैं परेशान करना चाहेगी,परन्तु फिर स्वतः ही नष्ट हो जायेगी ।।
 
 

64-अपनी दुर्वलता का दर्शन करें
        हम मोहनिद्रा में पडे होते हैं और अपने सुधार की ओर कोई ध्यान ही नहीं देते, इसलिए कि हमें अपनी त्रुटियों और कमजोरियों का ज्ञान ही नहीं होता है।हम गलत राह पर हैं इसका हमें आभास ही नहीं होता,जैसे अंधकार में बढते चले जा रहे हों,और अंत में जब किसी शिला से टकराते हैं तो तब अपनी गलती का अहसास होता है,तब ज्ञान के चक्षु एकाएक खुल जाते हैं,यहीं से उन्नत्ति का प्रभात प्रारम्भ हो जाता है । जो अपनी दुर्वलता का दर्शन करता है,और उसके लिए सच्चा पश्चाताप कर उसे दूर करने की इच्छा से सतत् प्रयास प्रारम्भ करता है समझो उसका आधाल काम हो गया। अर्थात पहले दुर्वलता के दर्शन, फिर आत्मग्लानि और फिर दुर्वलता को हटाने की साधना, यही हमारी उन्नत्ति के तत्व हैं ।अगर मन गलत राह से हटकर सन्मार्ग पर आरूढ हो जाता है आध्यात्मिक सिद्धियॉ मिलनी प्रारम्भ हो जाती हैं ।हमारे वेदों में मन को कल्याणकारी मार्ग पर ले जाने के लिए प्रार्थनायें की गईं हैं ।।
 
 

65-ध्यान देने योग्य वातें
        अगर दो आदमी बात करते हैं तो उनके बीच में न बोलें,अपनी दुद्धिमानी दिखाने का प्रयत्न न करें, ऐसी बात तो बोलो ही मत जिससे उन लोगों की बात कटे या उन्हैं नीचा देखना पडे,अपनी और अपने वंश की बढाई न करें,यदि दूसरा कोई करता है तो उसे बुरा न कहें, चिल्लाकर न बोलें,ऐसी आवाज और ऐेसे भाव से न बोलें,जिससे सुनने वालों को तुम्हारी हुकूमत या अपना तिरस्कार प्रतीत हैं।
 
 

66–मन को विकृत करने वाले आहार
        वे आहार जो मन को विकृत करते हैं इन्हैं राजसी आहार भी कहते हैं ।कडवा,खट्टा, नमकीन,बहुत गर्म,तीखा,रूखा,जलन पैदा करने वाला, ऐसे आहार जो रोग एवं शोक उत्पन्न करने वाले होते हैं,राजसी लोगों को प्रिय होते हैं।इन आहारों का प्रत्यक्ष प्रभाव हमारे मन तथा इन्द्रियों पर पडता है। मन में कुकल्पनायें,वासना की उत्तेजना,और इन्द्रियलोलुपता उत्पन्न होती है।मनुष्य कामी,क्रोधी,लालची,और पापी बन जाता है,उसके रोग,शोक,दुःख में अभिवृद्धि होती है।बुद्धि मलिन होती है। इन वस्तुओं में करेला,इमली,बहुत नमकीन,सोडा,गरम-गरम चीजें,राई, गर्म मशाला,लाल मिर्च,तेल से तले हुये गरिषठ पदार्थ,बाजार की मिठाइयॉ, पूडी-कचौडी,अधिक मिर्च व मशाले चाय, पान, चूना, तम्बाकू, प्याज लहसुन आदि चीजों का सेवन करने से दुःख,चिन्ता और रोग पैदा करती हैं।इनसे इन्द्रियॉ कामुक हो जाती हैं, इनका प्रयोग करने वाले लोग विलीसी,क्रोधी,विक्षुव्ध,तथा उत्तेजनाओं में फंसे होते हैं।इनके मुंह से गुर्गंध आती है ।वैसे दालों में मसूर की दाल।चटनी,अचार सोंठ भी विकृत करने वाले पदार्थ हैं ।।
 
 





67-तामसी आहार का प्रयोग से बचें-
        तामसी आहारों में मॉस आता है।कई प्रकार के जीवों का मॉस मछली अंण्डों का प्रयोग मात्र स्वाद मात्र के लिए बढ रहा है ।भॉति-भॉति की शक्तिवर्धक दवाइयॉ,मछलियों का तेल,आदि ।शराव,कॉफी,कोको,गॉजा, चरस,अफीम,सिगरेट,बीडी,आदि पदार्थ तामसी हैं ।तामसीआहार से मनुष्य प्रत्यक्ष राक्षस बन जाता है ।ऐसे लोग हमेशा दुःखी, बुद्धिहीन, क्रोधी, आलसी, दरिद्री,अधर्मी,पापी और अल्पायु बन जाते हैं। इन चीजों का प्रयोग करने से बचना चाहिए ।।
 
 
 

68-भोजन में महान ईश्वरीय शक्ति का प्रवेश होता है-
        हम जिस भोजन को ग्रहण करते हैं उससे हमारे शरीर में ईश्वरी शक्ति पहुंचती है।उत्तम से उत्तम भोजन भी दूषित मनः स्थिति से विकार और विषमय हो सकता है ।क्रोध,उद्वेग,चिडचिडापन,आवेश आदि की मनःस्थिति में कियाभोजन विशैला हो जाता है ।जिस व्यक्ति के द्वारा भोजन पकाया या परोसा जाता है उसकी मनोदशा उस भोजन के साथ हमारे शरीर में प्रवेश कर जाती हैं ।भोजन करते समय अगर क्रोध की दशा में हैं तो भोजन ठीक ढंग से चबाया नहीं जाता,और न पाचन सही ढंग से होता है ।चिन्तन मनःस्थिति मे भोजन नसों में घाव उत्पन्न कर देता है,हमारी कोमल पाचन नलिकायें शिथिल हो जाती हैं।इसलिए भोजन बनाने वाले तथा भोजन करने वाले की मनोदशा स्वस्थ होनी चाहिए।प्रशन्नचित्त मुद्रा एवं शॉत मनोदशा में खाया हुआ भोजन शरीर और मन के स्वास्थ्य पर जादू जैसा गुंणकारी प्रभाव डालता है ।अन्तःकरण की शॉत सुखद वृत्ति में किये गये भोजन के साथ-साथ हम प्रशन्नता,सुख,शॉति,और उत्साह की स्वस्थ भावनायें भी खाते हैं जिससे हमारा शरीर भी वैसा ही बन जाता है।आनंद और प्रफुल्लता तो ईश्वरीय गुंण है, क्लेश, चिंता,उद्वेग,आसुरी प्रवृत्तियॉ हैं।आपने देखा होगा हंसता-खेलता हुआ बच्चा दूध और मामूली अन्न से सुडौल और निर्विकीर बनता जाता है । इसीलिए घर में मॉ के हाथों पकाया और परोसा गया भोजन अधिक पौष्टिक होता है क्योंकि मॉ मन से प्रशन्नचित् भवना से भोजन वनाती और परोसती है।ध्यान रखें भोजन करते समय घर का माहौल प्रशन्नचित्त बनाने का प्रयास करें ।।
 
 


69-विपत्ति आने पर घबराओ नहीं-
        यदि आपके सामने विपत्ति आती है तो तुम उसके सहन करने की शक्ति रखते हो,घबराओ नहीं ।अपना बल लगाकर उसे निकाल दो और यदि तुम्हारी ताकत उसे नाश नहीं कर सकती तब भी रो नहीं।जरूर एक बार विपत्ति तुम्हैं परेशान करना चाहेगी,परन्तु फिर स्वतः ही नष्ट हो जायेगी ।।
 
 


70-बॉणीं पर नियंत्रण रखें-
         मनुष्य जितना गुनाह अपने हाथों से करता है उससे अधिक गुनाह अपनी वॉणी से करता है।बोलने पर बहुत नियंत्रण रखना चाहिए। जीभ को इस तरह न चलाइये कि सिर पर रखी मान रूपी पगडी नीचे गिर जाय। अपने शब्दों को अपनी छलनी से छानकर बॉणी बोलना चाहिए ।इसीलिए भगवान ने जिह्वा को ह्दय और मस्तिष्क के मध्य रखा है ताकि सोच समझकर वॉणी को बोला जा सके।
 
 

71-प्रेम एक प्रार्थना है-
        लेकिन आप जिस प्रेम के बारे में सोच रहे हैं वह तो देह का प्रेम है,यह तो प्रेम के नाम पर एक धोखा है,आपकी भूखी इन्द्रियॉ दूसरी भूखी इन्द्रियों से भीख मॉग रही हैं,यह कभी सोचने का प्रयास किया आपने कि एक भिखारी दूसरे भिखारी के सामने भिझा पात्र लिए खडा है।,लेकिन फिर भी तृप्ति नहीं होती,आप पत्नी से मॉंग रहे हे पत्नी आपसे भीख मॉग रही है,आप बेटे से मॉग रहे हो ,बेटा आप से मॉंग रहा है। सब खाली हैं, देने को कुछ भी नहीं है ,सब मॉग रहे हैं,भिखमंगों की जमात लगी है। प्रेम तो हो जाता है मॉंगा नहीं जाता,प्रेम तो एक बार जब मिलता है तो तृप्तहो जाता है,लेकिन आपका प्रेम तो बार-बार मिलने पर भी आप तृप्त नहीं होते।आप जिनसे प्रेम करने की बात कर रहे हैं यह तो पंच्च भूतों की भीडहै,जिसे आप देह समझते हो यह तो केवल संयोग है यह तो विखर जायेगा,हवा,पानी,आकाश में मिल जायेंगे इस बात को पहचानो और उसमें डुबकी लगाओ बस उसमें डुबकी लगाने का ढंग ही ध्यान है,देखना आपको किस प्रकार के प्रेम की अनुभूति होतीहै तृप्त हो जाओगे। बस एक बात ध्यान में रखें कि अगर आप ध्यान में डूबते हैं तो प्रेम स्वतः प्राप्त हो जायेगा, प्रेम कहो या ध्यान या प्रार्थना।या पूजा ये नाम पर्यायवाची हैं ।
 
 




72-अहंकार से बचें-
        अपने जीवन में किसी न किसी बात में हम अहंकार के कारागार में जकडे होते हैं ।अपने अहंकार को थोडा कम करें,थोडा झुकें तो अपने आप को जान सकते हो, सत्य का साक्षात्कार हो सकता है ।यह अहंकार ही हमारे-तुम्हारे लिए कारागार है ।जिन्होंने सत्य को जाना है,उन सभी ने अपनी भूलों को स्वीकार किया है।अपने अहंकार को समाप्त किया जाय ।
 
 


73-जीवन जीने का नाम है,
        और जीने के लिए आगे चलना होगा। समस्त बाधा,विपत्तियों के रोडे, समस्त आंधी तूफान,उल्का तथा व्रज प्रात के प्रकोपों की उपेक्षा कर समस्त कुसंस्कारों को,दुविधा शून्य होकर,भस्म करते हुये आगे बढो,परम पुरुष तुम्हारे साथ हैं ,जय तुम्हारी होगी ।
 
 

74 – मन के अनवरत सत्य-असत्य के युद्ध पर विजय प्राप्त करें -
        मनुष्य का मन दो प्रकार की भावनाओं का स्थल है, अच्छी और बुरी भावनायें,यह भी आश्चर्य की बात है कि मन तो एक है मगर उसमें शुभ-अशुभ दोनों वर्ग की भावनायें रहती हैं, इन दोनों भावनाओं में निरन्तर संघर्ष चलता रहता है, एक भावना के जन्म के साथ दूसरी भावना का भी जन्म हो जाता है, फिर दोनों में संघर्ष जारी होने लगता है,अच्छे से अच्छे व्यक्ति इससे बच नहीं पाते हैं।
 
 

75 – जैसा भोजन करोगे वैसा विचार बनेगा -
        ङस तथ्य में गहरी सत्यता है कि जैसा अन्न वैसा मन, अर्थात हम जैसा खाते हैं वैसा ही मन बनता है, क्योंकि उस खाये हुये से रुघिर बनता है, और उस रुघिर में उसी प्रकार के गुंण होते हैं ।प्राकृतिक भोजन उपयुक्त भोजन माना जाता है ,ङससे मृदुलता,सरलता, सहानुभूति, आदि के भाव उत्पन्न होते हैं,जैसे पशु जगत में देखें -बैल,भैंस,घोडे, गधे हाथी ङनका भोजन प्रकृतिक होता है ।
 
 


76 – आध्यात्म से सकारात्मक सोच उत्पन्न होती है -
        जिस आध्यात्म ने आदमी को भिकारी बना दिया, वह आध्यात्म नहीं है, जीवन में जब आप विगडना प्रारम्भ होते हैं तो देखोगे कि सेकडों लोग आपके गिरने में सहयोग करेंगे-जैसे -आप शराब पीना प्रारम्भ करते हैं तो आपके सेकडों मित्र बन जायेंगे और आपको वर्वाद कर देंगे, यदि आप जुआ खेलना शुरू करते हैं तो जुआरियों की एक भीड आपके साथ हो जायेगी। आध्यात्म वह है जो इनसे दूर अलग सी भावना को जन्म देता है, सकारात्म सोच पैदा हो जाती है ।
 
 




77 – जो जैसा होता है उसे सब वैसा ही दिखाई देता हैं-
        हमें सबसे पहले स्वयं को देखना होगा,अपने अंतरंग देखना है।बाहर नहीं,स्वयं को परखना और मूल्यॉकन करना है, दुनियॉ में तो एक से एक विद्वान हैं ।इस पृथ्वी पर सूरज बडा खूबसूरत है अविरल गति से वहने वाली नदियॉ, ऊचे पर्वत कश्मीर की वादियॉ खूबसूरत है,लेकिन आपकी आंखों की रोशनी इससे भी अधिक खूबसूरत है, यदि आंख का यह तिल बुझ जाय तो ये सब काले हो जाते हैं । इसी तरह हमारे अन्दर इस दुनियॉ के प्रति सोच जितनी अच्छी होगी हमें यह दुनियॉ उतनी खूबसूरत दिखाई देगी ।।
 
 




78 – हर वक्त अपने मन की जॉच पडताल करते रहना चाहिए -
        जब हमारे मन में बुरे भाव आते है,पाप के भाव हों जैसे ईर्ष्र्या-द्वेष आदि तो समझना चाहिए कि हमारे मन में शैतान या पिशाच नृत्य कर रहे हैं और यदि मन में श्रेष्ठ विचार हों तो समझना चाहिए कि कृष्ण का राश हो रहा है । श्रेष्ठ विचार भगवान है, यदि हमारे दिमाग में श्रेष्ठ विचार हों तो समझना चाहिए कि वहॉ भगवान विद्यमान है,हम और बगवान एक हो गये । हर वक्त हमें अपनी जॉ करते रहना चाहिए कि हमारे अन्दर कही शैतान का वास तो नहीं हो रहा है ।
 
 




79 – विश्वव्यापी प्राण एक है,सबमें अपनेपन का दर्शन करें-
        प्राणिमात्र में एक ही प्रकार की आत्मा निवास करती है, सभी लोग ङस ब्रह्माणड में व्याप्त प्राण तत्व को प्राप्त कर जीवित हैं,सब एक ही नाव के सवारी हैं, सब एक ही नदी की लहरें हैं, एक ही जलाशय के बुलबुले हैं,सब एक ही माला के दाने हैं सबका ईश्वर एक ही है,तो फिर अपना पराया क्यों, एक ही चैतन्य तत्व प्राणिमात्र में समाया हुआ है,एक दूसरे में अपनेपन को महशूस करें, फिर देखोगे जीवन का आनन्द किस रूप में रंग लाता है ।
 
 

80 – परमात्मा को खुशामद पसन्द नहीं है -
        परमात्मा को खुशामद बिल्कुल पसन्द नहीं है। पूजा- पाठ से ईश्वर प्रशन्न नहीं होता,यह तो एक आध्यात्मिक व्यायामहै, जिससे आत्मबल बढता है, सतोगुँण की मात्रा में वृद्धि होती है,ध्यान,प्रार्थना, कीर्तन,जप मनोवैज्ञानिक क्रियायें हैं जिनके द्वारा मनोभूमि में चिपके हुये कुसंस्कार छूटते हैं औ सुसंस्करों की स्थापना होती है,ईश्वर के नाम पर दान करने से ।
 
 

81- अपने शरीर में प्रॉण शक्ति की पूर्ति करें -
        हमारे आध्यात्म में यह पूरा ब्रह्मॉणड प्रॉण तत्व से भरा है, जिससे पृथ्वी पर जड-चेतन पदार्थों की संरचना निर्धारित होती है, तथा संचालन होता है, जिसमें मनुष्य भी सम्मिलित है, हम कभी-कभी अपने प्राणों की क्षीणता का अनुव करते हैं, जिसके फलस्वरूप हमारे अन्दर उत्साह तथा साहस का अभाव महशूस होता है, स्वाभाविक है कि आवश्यकताओं के दबाव से यह आभास होता है । लेकिन ब्रह्मॉण्ड में फैले प्रॉण तत्व से इसकी पूर्ति की जा सकती है । फिर वही उत्साह और ऊर्जा दिखाई देगी ।
 

82 -आतुरता से बचें -
        आतुरता मनुष्य की वह दशा है,जब वह अधैर्ययुक्त जलदीबाजी की स्थिति में रहता है,उसे चैन नहीं रहता है, अचेतन में स्थित यह अनेक मानसिक रोगों के रूपों में प्रकट होता है,किसी भी प्रकार का अधैर्य एक समय बाद उसके व्यवहार का अंग बन जाता है, तो मनोरोग का स्वरूप ले लेता है,ऐसे व्यक्ति अपने हर काम को निर्धारित समय से पहले करना चाहते हैं । आतुरता के रोग से बचते रहना चाहिए । 

83- आत्म बल -
        जब अकर्मण्य के आंचल में हम अपना मुंह छिपाते हैं तो हमारे सामने निराशा की एक मोटी दीवार खडी हो जाती है, आत्मबल से ही हम उसे पार कर सकते हैं ।
 
 

84 – आत्म अनुभूति-
        वह दिन धन्य होगा जिस दिन हम अनुभव करें कि हम स्वयं रक्षक तथा भक्षक हैं, उसमें उसके समस्त दुखों तथा ज्ञान के अभाव के कारण मौजूद हैं,और स्वयं उसके भीतर शॉति और प्रकाश के स्रोत हैं ।
  
85 – भारत भूमि की विशेषताः-
        हमारे महान पुरुषों ने कहा है कि ईश्श्वर की ओर जाने वाली सारी आत्माओं का आखिरी पडाव भारत भूमि है, दुनियॉ में किसी भी देश से सीधे मोक्ष की प्राप्ति की व्यवस्था नहीं है, यह इस भूमि की विशेषता है, अपनी ङस संस्कृति को बचाकर रखना हमारा दायित्व है ।
 
 





86 – भक्तों का उद्धार और विरोधियों का पतन-
        इस धरती पर जब महॉपुरुष आये तो साथ में उनके विरोधी भी आये जैसे राम के साथ रावण पॉडवों के साथ दुर्योधन ये विरोधी इन महॉपुरुषों के रास्ते पर नहां चले ङसलिए ङनका पतन हो गया लेकिन महॉपुरुषों के साथ उनके भक्त भी आये उनका उद्धार हो गया ।
 
 

87 – मारने का अधिकार उसी को है जो जीवित कर सके -
        जंगल में शिकार खेलने गये राजा भृत्रृहरि द्वारा एक हिरन को घायल कर दिया था, हिरन भागते हुए गोरखनाथ के पास पहुंचकर उसकी गोद में लेट गया और मर गया, तब तक भृत्रृहरि आ गया और चिल्लाते हुये कहने लगा यह शिकार मेरा है ङसे मैने मारा है ङसे मुझे दो गोरखनाथ ने कहा मैं सोच रहा था ङसे किसने मारा होगा,ङसे जिन्दा कर, काफी जिद्द के बाद राजा ने कहा मुझे जिन्दा करना नहीं आता,अगर जिन्दा करने नहीं आता तो मारा क्यों,गोरखनाथ ने कहा,फिर गोरकनाथ ने हिरन को जिन्दा कर दिया,और राजा को कहा कि मारने का अधिकार उसी को है जो जिन्दा कर सके। कहते हैं कि राजा ने उसके बाद,अपने राज-पाट को त्यागकर भ्रत्रृहरि के जरणों में अपना शेष जीवन विताया ।।
 
 




88 – बडा आदमी बनो-
        बडा आदमी बनने के लिए आवश्यक है अपनी ङद्रियों को अपने बस में करके स्वयं को भगवान के हवाले कर दो, हर पल उस परमात्मा को सामने देखो,स्मरण करो तो जिन्दगी संवर जायेगी ।
 
 

89 – मनुष्य की पहिचान-
        लात का जबाव लात गधा देता है,मारने का जबाव सींग से जानवर देते हैं, हम तो मनुष्य हैं,मनुष्य की पहिचान है गुस्से का जबाब प्रेम,आग का जबाब पानी से देना।
 
 


90 – बुराई एक डकैत के समान होती है -
        जब व्यक्ति में एक बुराई आती है तो उसके पीछे तमाम बुराङयॉ आती हैं, बुराई एक डकैत के समान होती है जो अगर आ गई तो कुछ लेकर ही जाती है जैसे शराब की बुराई घर में आती है तो लक्ष्मी घर से चली जाती है बाजार की लक्ष्मी आगे के दरवाजे से जाती है जबकि घर की लक्ष्मी पीछे के दरवाजे से जाती है ।
 
 




91 – तनाव से मुक्ति -
        यदि कभी तनाव होता है तो लेट जाओ और ईश्वर से कहो कि तुम अपना काम करो मेरा कोई ब्यवधान नहीं होगा या आप उस दिन को स्मरण करें जो आपके जीवन में सबसे अधिक खुशी का दिन रहा ।
 

92 – सफलता का राज-
        बडी सोच,कडी मेहनत, पक्का ङरादा ङन तीनों का पालन करें तो कभी हार नहीं होगी । आज हम कठपुतली के समान हैं, जिसके घागे दुनियॉ के हाथ में है। ध्यान रखें अपना आत्म विश्वास बनायें, अपने आप को कठपुतली न बनायें कठपुतली के धागों के हिलने पर अपने अन्तःकरण को मत हिलाना, और न ही जीवन रूपी कठ- पुतली के घागे दूसरों के हाथ में देना अन्यथा इस संसार के लोग आपको जीने नहीं देंगे। इस संसार में प्रतिक्रिया रहित रहें, संसार के भडकाने पर भडकना नहीं। प्रशंसा से फिसलना नहीं, यदि अपमान जनक व्यंग बॉणों का भी सामना करना पडे डरना नहीं आत्मविश्वास से आगे बढते रहना ।
 
 

93- क्रोध का प्रभाव-
        क्रोध व गाली का जबाब 5 मिनट बाद देना चाहिए,ये 5 मिनट जिन्दगी को बदल देगा ,क्रोध तो एक ब्रह्मास्त्र है,जब सारे शासत्र फेल हो जाते हैं तो तब ङसका प्रयोग करना चाहिए,तभी क्रोध का प्रभाव होगा।
 
 

49 – कोई व्यक्ति प्रसिद्ध कब होता है-
        कोई व्यक्ति प्रसिद्ध होता है दो बातों से1-बातों से 2-कृतियों से । बाकी ङस दुनियॉ में कौन आया कौन गया मालूम नहीं इन्हीं दो बातों से व्यक्ति अमर होता है ।व्यक्ति को कार्य करने से पहले ध्यान रखना चाहिए कि उस कार्य की गुंणवत्ता तथा क्वालिटी अच्छी हो, 3 तथा 3जोडने पर 6 होता ही है मगर आप ऐसा कार्य करो कि जिससे 3तथा 3 जोडकर 9 हो जाय ।
 
 

95 – आत्मा को बार-बार जगायें-
        आत्मा को बार-बार जगाने से आत्मा की जंक निकलेगी ,कभी बीती को याद मत करो, अगर तुम परमात्मा को भूलो नही,बार-बार याद करो तो परमात्मा का कार्य है कि आत्मा द्वारा किये गये कार्यों को सफलतापूर्वक सम्पन्न करना ।
 
 


96 – सतयुग की तैयारी-
        आत्मा ,परमात्मा,व प्रकृति तीनों स्वयं बने हैं, अनादि अविनाशी हैं, जिसमें दो का रौल मुख्य है, मनुष्य और प्रकृति, जब मनुष्य प्रकृति पर हावी होता है तो वह सतयुग है और जब प्रकृति मनुष्य पर हावी होती है तो कलयुग होता है, परमात्मा का कार्य चल रहा है ।एक परिवर्तन होना है,कलयुग के बाद सतयुग के लिए, कलयुग के लिए छटनी होनी है यह कार्य शीघ्र होने वाला है ।
 
 

97 – मनुष्य में आध्यात्म के द्वार-
        हमारे महॉपुरुष मनुष्य में आध्यात्म के दस द्वार मानते हैं ,जिसमें दसवॉ द्वार न अधिक पढ लिखकर या न अधिक पैसों से या न अधिक ताकत से खुलता है ,बल्कि सतगुरु के शरण में जाकर ईश्वर की भक्ति से ही खुलता है।
 
 

98 -ङच्छा मनुष्य को प्रभु से दूर ले जाती हौ-
        जब प्रभु रूप में ङच्छा आती है तो मानव बन गया,और यदि ङच्छा हट जाती है तो प्रभु बन जाता है,क्योंकि ङच्छामनुष्य को प्रभु से दूर ले जाती है ।
 
 

99 – शून्य चित्त ही ईश्वर प्राप्ति का द्वार हैः-
        एक दिन शिष्य अपने गुरु की पीठ की मालिश कर रहा था, तो शिष्य के मुख से स्वतः निकल गया कि मन्दिर तो बहुत सुन्दर है पर भीतर भगवान की मूर्ति नहीं है, क्रोधित होकर गुरु ने शुष्य को अपने आश्रम से निकाल दिया, एक दिन गुरु जब धर्म ग्रम्थ का अध्ययन कर रहा था तो वही शिष्य अचानक कहीं से आकर पास में बैठ गया,और बैठा रहा, अचानक कहीं से एक जंगली मधुमक्खी कमरे में आई और भिनभिनाने लगी वह बार-बार खिडकी के शीशे पर टकरा रही थी,शिश्य के मुख से निकला कि बाहर जाने का दरवाजा यदि नहीं दिखता है तो ऐसे ही सर को टकराकर मरोगे, मधुमक्खी थक कर किसी कोने में बैठ गई,फिर सीधे उडकर दरवाजे से बाहर चली गई। शिश्य का कहा हुआ मधुमक्खी ने तो क्या सुना होगा लेकिन गुरु जी ने जरूर सुना ।
 
 




100 – किसी से ईर्ष्या करोगे तो स्वयं का नुकसान होगा-
        एक बार एक आदमी छाता ओढकर चल रह था,छाता ने उस आदमी से कहा कि हे आदमी मैं धूप से परेशान हूं और तुम अकडकर चल रहे हो मैं तुम्हारी धूप पानी से रक्षा करता हूं और तुम मेरी परवाह नहीं करते,आदमी ने कहा नहीं भय ऐसा नहीं है मैं तुम्हैं सम्भालकर रखता हूं,हर समय तुम्हारी ङज्जत करता हूं, जब धूप-वर्षा नहीं होती है तो तुम्हैं लपेटकर लम्भालकर रखता हूं ,लेकिन छाता अपने ही अकड में था,उसी समय आंधी आई और छाता उल्टी होकर टूट गया।


शरीर के सात चक्र


1-मूलाधार (पहला चक्र)
        यह हमारे शरीर के सात चक्रों में पहला चक्र है।चार पंखुडियों वाला।रीड के अंत में स्थित त्रिकोंणाकार पावन अस्थि के नीचे स्थित है।इस चक्र को रीड की हड्डी से बाहर बनाया गया है।यह हमारी मल विसर्जन की क्रियाओं, जिसमें योन गतिविधियॉ भी सम्मिलित हैं, को चलाता है।यद्यपि कुण्डलिनी को छः केन्द्रों को पार करना होता है, फिर भी मूलाधार चक्र कुण्डलिनी जागृति के समय उसकी पावनता एवं सतीत्व की रक्षा करता है।मूलाधार हमारी अबोधिता के लिए है, और हमें समझना चाहिए कि अबोधिता को नष्ट नहीं किया जा सकता है ।कामुक विचार इस चक्र को दुर्वल करते हैं।प्राकृतिक नियम के निरंकुश त्याग के बावजूद भी मूलाधार की शक्ति सुप्त या रुग्ण अवस्था में बनी रहती है और इसे कुण्डलिनी जागृति द्वारा रोग मुक्त करके इसकी वास्तविक अवस्था में लाया जा सकता है ।
2-स्वादिष्ठान (दूसरा चक्र)-
        छः पंखुडियों वाला ये केन्द्र स्वादिष्ठान कहलाता है।यह पेट में स्थित है।यह चक्र हमें सृजनात्मक तथा भावमय विचारों के लिए शक्ति प्रदान करता है ।चर्बी के अणुओं को मस्तिष्क कोषाणुओं में परिवर्तित करके मस्तिष्क को ऊर्जा प्रदान करता है।बहुत अधिक सोच-विचार और भविष्य के लिए योजनायें बनाना इस चक्र को दुर्वल करता है और व्यक्ति का चित्त बहुत दुर्वल हो जाता है।चित्त की पीठ का यही चक्र संचालन करता है। अग्याशय,गर्भाशय तथा बडी आन्त्र के कुछ हिस्सों को भी यही चक्र नियंत्रित करता है ।कुण्डलिनी जागृत होकर जब व्यक्ति के इस चक्र को खोलती है तो व्यक्ति अपनी गतिविधियों में अत्यन्त सृजनात्मक,गतिशीलएवं स्वाभाविक हो दाता है।


3- नाभि(तीसरा चक्र)
        दस पंखुडियों वाला यह चक्र नाभि चक्र कहलाता है।यह चक्र हमारे अन्दर चीजों को संभालने की शक्ति प्रदान करता है।यह चक्र पचाने स्वीकार करने और पेट,आंत्र,एवं जिगर के कुछ भागों की देख-भाल करने के कार्य के लिए जिम्मेदार है।प्लीहा द्वारा नियमित की जाने वाली जैविंकलय को भी नाभिचक्र नियंत्रित करता है। यह चक्र मानव की सुख समृद्धि और उन्नति को देखता है।जब साधक की कुण्डलिनी जागृत होती है तो इस चक्र का भेदन करती है,जिससे उसके अन्दर संतोष आ जाता है और वह अत्यनत उदार हो जाता है।


भव सागर
        नाभिचक्र के चारों ओर भव सागर है।जीवन के सभी पक्ष जैसे व्यक्तित्व,ग्रहों एवं गुरुत्वाकर्षण शक्ति का हमारी व्यवहार प्रणाली एवं शारीरिक भरण-पोषण पर प्रभाव आदि के लिए यह जिम्मेदार है ।यह बाह्य प्रभाओं का क्षेत्र है ।जब हम अंधकारमय अवस्था में होते हैं (आत्म साक्षात्कार से पूर्व) तब यह उस शून्यता का प्रतीक है जो हमारी चेतना के स्तर को सत्य से पृथक करती है।इस रिक्ति को जब कुण्डलिनी भर देती है तब हमारा चित्त भ्रम-सागर से निकलकर चेतना की वास्तविकता में प्रवेश करता है।यह दस आदि गुरुओं का चक्र है जो मानवता को वास्तविकता एवं सत्य के साम्राज्य में ले जाने के लिए अवतरित हुये।कुण्डलिनी जब इस रिक्ति को भर देती है तो व्यक्ति स्वयं का गुरु बन जाता हैऔर उसके अन्तर्गत प्राकृतिक मर्यादायें जागृत हो जाती हैं ।ऐसा व्यक्ति अत्यन्त ईमानदार एवं योग्य अगुआ बन जाता हैऔर उसकी सभी अभिव्यक्तियों में गम्भीरता होती है।

4- अनाहत(चौथा चक्र)
        बारह पंखुडियों वाला ये चक्र अनाहत कहलाता है।ये चक्र ह्दय चक्र के अनुरूप है जो बारह वर्ष की आयु तक रोग प्रतिकारक शक्ति पैदा करता है।उसके बाद रोग प्रतिकारक हमारे शरीर तंत्र में फैल जाते है और शरीर या मस्तिष्क पर होने वाले किसी भी आक्रमण का मुकाबला करते हैं।व्यक्ति पर भावनात्मक या शारीरिक आक्रमण की स्थिति में रोग प्रतिकारकों को सूचना दी जाती है क्योंकि । ह्दय तथा फेफडों की कार्य प्रणाली का नियमन करते हुये ये केन्द्र श्वास प्रक्रिया को नियंत्रित करता है।कुण्डलिनी जब इस चक्र का भेदन करती है तो व्यक्ति अत्यन्त आत्म विश्वस्त,सुरक्षित,चारित्रिक रूप सेजिम्मेदार एवं भावनात्मक रूप से संतुलित व्यक्तित्व का बन जाता है।ऐसा व्यक्ति अत्यन्त हितैषी एवं बिना किसी स्वार्थ के मानवता एवं सर्वप्रिय बन जाते हैं ।


5-विशुद्धि(पॉचवॉ चक्र)
        मेरुरज्जु के ग्रीवा में स्थापित सोलह पंखुडियों वाला ये चक्र विशुद्धि चक्र कहलाता है ।यह कान,गला,गर्दन,दॉत,जिह्वा,हाथ,एवं भाव भंगिमाओं आदि के कार्यों को नियमित करता है।ये चक्र अन्य लोगों से सम्पर्क के लिए जिम्मेदार हैं क्योंकि इन्हींअंगों के माध्यम से हम अन्य लोगों से सम्पर्क स्थापित करते हैं।शारीरिक रूप में यह गल-ग्रंथि के कार्य को नियंत्रित करता है। कटु वॉणी,धूम्रपान,बनावटी व्यवहार,एवं अपराध –भाव इस केन्द्र को अवरोधित करते हैं।कुण्डलिनी जब इस चक्र का भेदन करती है तो व्यक्ति अपने व्यवहार में अत्यन्त सत्यनिष्ठ,कुशल एवं मधुर अहं को बढावा दिये परिस्थितियों पर नियंत्रण करने में वह अत्यन्त –कुशल हो जाता है।


6- आज्ञा(छटा चक्र)
        दो पंखुडियों के इस चक्र का नाम आज्ञा चक्र है। मस्तिष्क में जहॉ एक दूसरे को पार करती है वह आज्ञा चक्र का स्थान है।ये चक्र पीयुष,तथा शंकुरूप ग्रंथियों की देख-ऊल करता है।शरीर तंत्र में अहं तथा प्रतिअहं नाम की संस्थाओं की अभिव्यक्ति करती है।यह चक्र आंखों की देख-ऊल करता है इसलिए सिनेमा, कम्प्यूटर,टेलिविजन,पुस्तकों आदि पर हर समय दृष्टि गढाये रखना इस चक्र को दुर्वल करता है।बहुत अधिक मानसिक व्यायाम एवं बौद्धिक कलाबाजियॉ इस चक्र को अवरोधित करती है और व्यक्ति के अन्दर अहं- भाव विकसित हो जाता है।जब कुण्डलिनी इस चक्र का भेदन करती है तो व्यक्ति एकदम से निर्विचारऔर क्षमाशील हो जाता है निर्विचारिता एवं क्षमाशील इस चक्र का सार है।अर्थात यह चक्र क्षमाशक्ति प्रदान करता है ।
7-सहस्रार (सातवॉ चक्र)
        मस्तिष्क या तालू क्षेत्र स्थित हजार पंखुडियों वाला ये महत्वपूर्ण चक्र सहस्रार कहलाता है।वास्तव में इसमें एक हजार नाणियॉ हैं यदि मस्तिष्क को आडा काटे तो सुंदर पंखुडियों की शक्ल में सहस्रदल कमल बनाती हुई इन नाडियों को आप देख सकते हैं।आत्म साक्षात्कार से पूर्व वन्द कमल की तरहयह चचक्र मस्तिष्क के तालू क्षेत्र को आच्छादित करता है। जागृत होकर कुण्डलिनी जब इस चक्र का भेदन करती है तो सारी नाडियॉ भी जागृत हो जाती हैं ऐर सभी नाडी केन्द्रों को ज्योंतिर्मय करती है हम कहते हैं कि व्यक्ति आत्म साक्षात्कारी (ज्योतिर्मय है)तालू क्षेत्र का भेदन करके कुण्डलिनी ब्रह्मॉण्ड में एक मार्ग खोलती है और इसे हम सिर पर शीतल चैतन्य –लहरियों के रूप में अनुभव करते हैं।यह योग का वास्तवीकरण है ,परमात्मा की सर्वव्यापी शक्ति से एकाकारिता (आत्म साक्षात्कार)हो जाता है ।