Sunday, March 17, 2013

जीवन के तथ्य

 
 
 
 
 
 
 
 
 
 1-नहीं शब्द से नईं खोज का जन्म -

          साधारणतया मन कहता है, ‘कुछ भी ठीक नहीं है,इसलिए मन खोजता ही रहता है शिकायतें- ‘यह गलत है, वह गलत है। मन के लिए ‘हां’ कहना बड़ा कठिन है, क्योंकि जब तुम ‘हां’ कहते हो, तो मन ठहर जाता है;स्थिर हो जाता है। फिर मन की कोई जरुरत नहीं होती।

          क्या तुमने ध्यान दिया है इस बात पर? जब तुम ‘नहीं’ कहते हो, तो मन और आगे सोचता है; क्योंकि ‘नहीं’ पर अंत नहीं होता। क्योंकि नहीं के आगे कोई पूर्ण-विराम नहीं है; वह तो एक शुरुआत है। हॉ जब हां कहते हो, तो एक पूर्ण विराम आ जाता है; अब मन के पास सोचने के लिए कुछ नहीं रहता, खीझने के लिए, शिकायत करने के लिए कुछ भी नहीं रहता। जब तुम हां कहते हो, तो मन ठहर जाता है; और मन का वह ठहरना ही संतोष है।

          संतोष कोई सांत्वना नहीं है-मैंने बहुत से लोग देखे हैं जो सोचते हैं कि वे संतुष्ट हैं, क्योंकि वे स्वयं को तसल्ली देते हैं। सांत्वना तो एक खोटा सिक्का है। क्योंकि जब तुम सांत्वना देते हो स्वयं को, तो तुम संतुष्ट नहीं होते हो।

           भीतर बहुत गहरा असंतोष होता है। लेकिन यह समझ कर कि असंतोष चिंता निर्मित करता है, यह समझ कर कि असंतोष परेशानी खड़ी करता है, यह समझ कर कि असंतोष से कुछ हल तो होता नहीं-बौद्धिक रूप से तुमने समझा-बुझा लिया होता है अपने को कि ‘यह कोई ढंग नहीं है।’ तो एक झूठा संतोष ओढ़ लिया होता है स्वयं पर; तुम कहते रहते हो, ‘मैं संतुष्ट हूं। मैं सिंहासनों के पीछे नहीं भागता; मैं धन के लिए नहीं लालायित होता; मैं किसी बात की आकांक्षा नहीं करता।’


           तुमने सुनी होगी एक बहुत सुंदर कहानी। एक लोमड़ी एक बगीचे में जाती है। वह ऊपर देखती हैः अंगूरों के सुंदर गुच्छे लटक रहे हैं। वह कूदती है, लेकिन उसकी छलांग पर्याप्त नहीं है। वह पहुंच नहीं पाती। वह बहुत कोशिश करती है, लेकिन वह पहुंच नहीं पाती। फिर वह चारों ओर देखती है कि किसी ने उसकी हार देखी तो नहीं। फिर वह अकड़ कर चल पड़ती है। एक नन्हा खरगोश जो झाड़ी में छिपा हुआ था बाहर आता है और पूछता है, ‘मौसी, क्या हुआ?’ उसने देख लिया कि लोमड़ी हार गई, वह पहुंच नहीं पाई। लेकिन लोमड़ी कहती है, कुछ नहीं अंगूर खट्टे हैं।
 

2-ध्यान का अर्थ मन का मौन होना है-

          यह इतना स्पष्ट और इतना सरल है कि इसे किसी व्याख्या की आवश्यकता नहीं। इसे मात्र वर्णन करने की आवश्यकता है। ध्यान कुछ और नहीं बस मौन अवस्था में तुम्हारा मन है। जैसे कि कोई झील शांत हो, उसमें कोई लहर न हो,विचार की लहरें हैं। ध्यान है विश्रांत मन,मन का कुछ न करने की अवस्था में, बस विश्रामपूर्ण होना ध्यान है। जिस क्षण तुम मौन और विश्रांत होते हो, उन चीजों के लिए, जिन्हें तुम पहले कभी न समझे थे, एक बड़ी गहन अंतर्दृष्टि और समझ तुममें आती है।
 
          कोई तुम्हें समझा नहीं रहा। बस तुम्हारी दृष्टि की निर्मलता ही चीजों को स्पष्ट कर देती है। गुलाब होता है, पर अब तुम इसके सौंदर्य को बहुआयामी ढंग में जानते हो। तुमने इसे कई बार देखा था-यह बस एक साधारण गुलाब था। पर आज यह साधारण नहीं रहा; आज यह असाधारण हो गया क्योंकि दृष्टि में एक स्पष्टता और निर्मलता है। तुम्हारी अंतर्दृष्टि पर से धूल हट गई है और गुलाब के पास एक आभामंडल है जिसके बारे में तुम पहले सजग न थे।

          तुम्हारे चारों ओर, तुम्हारे भीतर, और बाहर की हर चीज स्फटिक सदृश्य स्पष्ट हो जाती है। और जैसे-जैसे समझ अपने अन्तिम बिंदु पर पहुंचती है,तो प्रकाश का एक विस्फोट हो जाता है। स्पष्ट रूप से, अपनी चरम सीमा पर, प्रकाश का एक विस्फोट हो जाती है जिसे हम ‘संबोधि’ कह कर पुकारते हैं। यह बस उस स्पष्टता की प्रखरता ही है कि अंधकार विलीन हो जाता है। यह इसलिए है कि तुम इतना स्पष्ट देख सकते हो कि वहां अंधकार होता ही नहीं।

          कई ऐसे पशु हैं जो अंधेरे में भी देख सकते हैं; उनकी आंखें अधिक स्वच्छ, अधिक पैनी होती हैं। तुम्हारी अंतर्दृष्टि इतनी पैनी हो जाती है कि सब अंधकार विलीन हो जाता है। दूसरे शब्दों में, तुम्हारे ऊपर प्रकाश का एक विस्फोट हो जाता है। इसे संबोधि कहो, मुक्ति कहो या अनुभूति कहो। पर फिर भी तुम तो इसके बाहर ही होते हो: यह तुम्हारा अनुभव है और तुम अनुभव कर सकते हो।

          यह एक वस्तुगत अनुभव है; और फिर तुम तो एक आत्मचेतना हो। तुम जानते हो कि यह सब घट रहा है; उसे चोटी पर, उसे एवरेस्ट पर...केवल साक्षीभाव, बस शुद्ध साक्षीत्व; किसी चीज के प्रति सजग नहीं, किसी चीज के प्रति साक्षी नहीं-बस एक शुद्ध दर्पण, किसी चीज को प्रतिबिंबित करता हुआ नहीं। ये सब सजीव रूप से संबंधित हैं। एक-एक कदम चलो; दूसरा कदम फिर स्वतः ही आएगा।
 

3-चल माया और अचल असली है-
 
          संत कबीरजी ने बहुत पते की बात कही थी-
चलती चक्की देखके दिया कबीरा रोय। दो पाटन के बीच में साबित बचा ना कोय॥
चक्की चले तो चालन दे तू काहे को रोय। लगा रहे जो कील से तो बाल न बाँका होय॥

          चक्की में गेहूँ डालो या बाजरा डालो तो वह पीस देती है लेकिन वह दाना पिसने से बच जाता है जो कील के साथ सटा रह जाता है। यह बदलने वाला जो चल रहा है, वह अचल के सहारे चल रहा है। जैसे बीच में कील होती है उसके आधार पर चक्की घूमती है, साइकिल या मोटर साइकिल का पहिया एक्सल पर घूमता है। एक्सल ज्यों-का-त्यों रहता है।

          पहिया जिस पर घूमता है, वह घूमने की क्रिया से रहित है। न घूमनेवाले पर ही घूमनेवाला घूमता है। ऐसे ही अचल पर ही चल चल रहा है, जैसे - अचल आत्मा के बल से बचपन बदल गया, दुःख बदल गया, सुख बदल गया, मन बदल गया, बुद्धि बदल गयी, अहं भी बदलता रहता है - कभी छोटा होता है, कभी बढ़ता है ।

          जो अचल है वह असली है, और जो चल है वह माया है। कोई दुःख आये तो समझ लेना यह चल है, सुख आये तो समझ लेना यह चल है, चिंता आये तो समझ लेना चल है, खुशी आये तो समझ लेना चल है। जो आया है वह सब चल है। तो दो तत्त्व हैं - प्रकृति ‘चल’ है और परमेश्वर आत्मा ‘अचल’ है। अचल में जो सुख है, ज्ञान है, सामर्थ्य है उसी से चल चल रहा है।

          जो दिखता है वह चल है, अचल तो दिखता नहीं है। जैसे मन दिखता है बुद्धि से, बुद्धि दिखती है विवेक से और विवेक दिखता है अचल आत्मा से। मेरा विवेक विकसित है कि अविकसित है यह भी दिखता है अचल आत्मा से। अचल से ही सब चल दिखेगा, और सारे चल मिलकर अचल को नहीं देख सकते हैं। अचल को बोलते हैं: 1ओंकार, सतिनाम, करता, कर्ता-धर्ता वही है अचल। वह अजन्मा और स्वयंभू है। चल योनि (जन्म) में आता है, अचल नहीं आता। तो मिले कैसे? बोले: गुरुकृपा से मिलता है। चल के आदि में जो था, चल के समय में भी है, चल मर जाय लेकिन फिर भी जो रहता है युगों से वह अचल है।

          आप हरि ओ... म्... इस प्रकार लम्बा उच्चारण करके थोड़ी देर शांत होते हैं, तो आपका मन उतनी देर अचल में रहता है। थोड़े ही समय में लगता है कि तनावमुक्त हो गये, चिंतारहित हो गये - यह ध्यान का तरीका है। ज्ञान का तरीका है कि चल कितना बदल गया अचल में। सुख-दुःख को जाननेवाला भी अचल है। अगर इस अचल में प्रीति हो जाय, अगर अचल का ज्ञान पाने में लग जायें अथवा ‘मैं कौन हूँ?’ यह खोजने में लग जायें तो यह अचल परमात्मा दिख जायेगा अथवा ‘परमात्मा कैसे मिलें?’ इसमें लगोगे तो अपने ‘मैं’ का पता चल जायेगा।

          क्योंकि जो मैं हूँ वही आत्मा है और जो आत्मा है वही अचल परमात्मा है। जो बुलबुला है वही पानी है और पानी ही सागर के रूप में लहरा रहा है। ‘‘बुलबुला सागर कैसे हो सकता है ?’’ बुलबुला सागर नहीं है लेकिन पानी सागर है। ऐसे ही जो अचल आत्मा है वह परमात्मा का अविभाज्य अंग है। घड़े का जो आकाश है, थोड़ा दिखता है लेकिन है यह महाकाश ही।

          जो अचल है उसमें आ जाओ तो चल का प्रभाव दुःख नहीं देगा। नहीं तो चल कितना भी ठीक करो, शरीर को कभी कुछ-कभी कुछ होता ही रहता है। ‘यह होता है तो शरीर को होता है, मुझे नहीं होता’ - ऐसा समझकर शरीर का इलाज करो लेकिन शरीर की पीड़ा अपने में मत मिलाओ, मन की गड़बड़ी अपने अचल आत्मा में मत मिलाओ तो जल्दी मंगल होगा।
 

4-तनाव पूर्व जन्म का संस्कार है-

          समय ने एक समस्या अत्पन्न की है तनाव। व्यस्त जिंदगी, ऊंचे ख्वाबों को हकीकत में बदलने की आतुरता और भागमभाग में चारों दिशाओं से मिलने वाली चुनौतियां इस समस्या को जन्म देती है। मोटे तौर पर हमारे मन की तीन अवस्थाएं हैं। प्रथम, चेतन मन जिसमें सारे अनुभव हमारी स्मृति में रहते हैं और हमें उनका ज्ञान रहता है। द्वितीय अवचेतन मन इसमें हमारे वे अनुभव होते हैं जो बिना ध्यान के ही रिकॉर्ड हो जाते हैं। अवचेतन मन स्वतः अपना कार्य करता रहता।

          तृतीय,अचेतन मन इसमें पुराने दबे हुए संस्कार रहते हैं। समझा जाता है कि अचेतन मन में पूर्व जन्म के संस्कार भी संचित रहते हैं। समय या सभ्यता के प्रभाव से तनाव जीवन का अंग सा बन गया है तो इसके प्रभाव से मुक्त रहने के बारे में सोचना चाहिए। योगशास्त्र के अनुसार तनाव से मुक्ति का सरल सा उपाय है- योग निद्रा।

          इसके लक्षण गहरी नींद की तरह होते हैं परन्तु वास्तव में यह नींद नहीं होती। इसमें हमारी चेतना मन की आन्तरिक परतों को खोलती हुई अचेतन अवस्था तक पहुंचने का प्रयास करती है। हमारे मस्तिष्क के प्रत्येक भाग में हमारे जीवन से संबंधित लाखों, करोड़ों प्रकार के अनुभव, सिद्धान्त, आदर्श और संस्कार आदि जमा रहते हैं। इसी प्रकार हमारे पूर्व जन्मों के भी लाखों, करोड़ों संस्कार बीज रूप में मौजूद रहते हैं। इन्हीं सब संस्कारों के कारण हमारा मन समय-समय पर तनाव से प्रभावित होने लगता है। योग निद्रा के बार-बार और लगातार लंबे समय तक अभ्यास करते रहने से व्यक्ति उस अचेतन मन में पड़े संस्कारों तक पहुँचकर उनसे मुक्ति प्राप्त करने में सफल हो सकता है।

Monday, March 11, 2013

जीवन जीने का पवित्र मार्ग

1-भक्ति में प्रेम मार्ग-
 
          प्रेम शक्ति भी है और आसक्ति भी। जब व्यक्ति का प्रेम कामना रहित होता है तो यह शक्ति होती है और जब प्रेम में किसी चीज को पाने का लोभ रहता है तो यह आसक्ति बन जाती है। सच्चा प्रेम वह होता है जो प्रेम में किसी प्रकार का लोभ और किसी चीज को पाने की कामना नहीं रखता है। ऐसा व्यक्ति प्रेम में ऐसा कमाल कर जाता है कि, बड़े से बड़े बलवान और धनवान उसके आगे घुटने टेक देते हैं।

          प्रह्लाह का आग के शोलों में भी मुस्कुराते हुए रहना और तुलसीदास का उफनती नदी को पार कर जाना यह प्रेम की शक्ति का उदाहरण है। संतजन कहते हैं कि जिसके हृदय में सच्चा प्रेम होता है वही व्यक्ति ईश्वर का भक्त हो सकता है। जरूरत है बस प्रेम की चाहे वह पैसे से हो, किसी स्त्री से, बच्चे से या अन्य सांसारिक वस्तुओं से।

          अगर हृदय में प्रेम होगा ही नहीं तो ईश्वर क्या संसार में किसी चीज से लगाव हो ही नहीं सकता। भगवान से प्रेम करना वास्तव में उसी प्रकार है जैसा एक दिशाहीन गाड़ी को सही दिशा देना। संत श्री गोकुलनाथ जी ने कहा है कि जिसके हृदय में प्रेम का अंकुर होता है उस व्यक्ति को भक्ति की ओर प्रेरित किया जा सकता है, क्योंकि प्रेम का वृक्ष तभी उग सकता है जब प्रेम का बीज, प्रेम का अंकुर हृदय में मौजूद हो। बिना बीज के खेती भला कैसे हो सकती है।

          इस संदर्भ में एक कथा है कि एक बार संत श्रीगोसाईं गोकुलनाथ जी के यहां एक धनवान व्यक्ति बहुत सारा धन लेकर शिष्य बनने की कामना से आया। गोसाईं जी ने उस व्यक्ति से पूछा कि क्या तुम्हारा कहीं किसी वस्तु पर ऐसा स्नेह है, जिसके बिना तुम्हारा मन व्याकुल हो जाता हो। उस व्यक्ति ने उत्तर दिया मेरा कहीं किसी वस्तु में तनिक भी स्नेह नहीं है।

          उत्तर सुनकर गोसाईं जी ने कहा कि फिर तो हम तुम्हें दीक्षा कदापि नहीं दे सकते। तुम किसी और गुरू को ढूंढ लो। भक्तिमार्ग में प्रेम ही प्रधान है। व्यक्ति का जो प्रेम संसार से होता है, दीक्षा शिक्षा से उसी को पलटकर भगवान में लगा दिया जाता है। जब तुम्हारे हृदय में कहीं प्रेम है ही नहीं तो भगवान के प्रेम से भला कैसे सराबोर हो सकते है।
 
 

2-अपने लिये कर्ज को अवश्य चुकाएं-
 
          लोग सुख-सुविधा में वृद्धि के लिए हर उपाय करते हैं, किसी से कर्ज लेना पड़े तो इसमें हिचकते नहीं हैं। लेकिन जब कर्ज चुकाने का समय आता है तो दस तरह के बहाने बनाने शुरू कर देते हैं। जब कर्ज देने वाला व्यक्ति पीछे पड़ जाता है तब उससे कन्नी काटते फिरते हैं कि, कहीं आमना-सामना न हो जाएं। मन में यह भी विचार आता रहता है कि किसी तरह कर्ज देने वाला व्यक्ति मर जाए ताकि कर्ज चुकाने के झंझट से मुक्ति मिल जाए। ऐसी स्थिति तब होती है जब कर्ज चुकाने की भावना नहीं रहती है। लेकिन आप चाहें न चाहें बिना कर्ज चुकाये मुक्ति नहीं मिल सकती।

          आप वर्तमान रूप में चुकाएं अथवा किसी अन्य रूप में कर्ज हर हाल में चुकाना पड़ता है। जिसने आपको कर्ज दिया है वह आपसे हर हाल में कर्ज वसूल कर रहेगा। इस नियम से भगवन भी वंचित नहीं है। तिरूपति बालाजी के विषय में मान्यता है कि इन्होंने विवाह के लिए कुबेर से सोना ऋण लिया था। जब तक बालाजी कुबेर का ऋण नहीं चुका देते तब तक इन्हें पृथ्वी लोक में रहना होगा। इसी मान्यता के कारण तिरूपति मंदिर में सोना चढ़ाया जाता है।

          ग्रामीण इलाकों में किसी की अल्पायु में मृत्यु होने पर लोग आज भी कहते हैं कि मरने वाला व्यक्ति किसी कर्ज की वसूली के लिए आया था। शास्त्रों में कहा गया है कि मृत्यु के समय किसी भी प्रकार का बंधन नहीं होना चाहिए। कर्ज भी एक प्रकार का बंधन बताया गया है जो जीवात्मा को बार-बार जीवन मृत्यु के चक्र में भटकाता है इसलिए जिससे कर्ज लिया है उसका कर्ज समय रहते चुका देना चाहिए।
 
 

3-पाप की पूंजी जमां न करें-
 
          आपने कभी किसी के ऊपर हो रहे अत्याचार के विरूद्ध आवाज उठायी है। किसी कमज़ोर और लाचार को पिटता देखकर मदद के लिए आगे आएं हैं। अगर आपने ऐसा नहीं किया है तो समझ लीजिए आपने अपने खाते में पाप की पूंजी जमा कर ली है। शास्त्रों में जिस प्रकार से पाप और पुण्य को परिभाषित किया गया है उसके अनुसार जो व्यक्ति किसी को कष्ट में देखकर उसकी मदद नहीं करता है। किसी के भय से अथवा अपने स्वार्थ के कारण झूठ बोलता है और शरण में आये व्यक्ति की रक्षा नहीं करता है वह पापी है।

          इस संदर्भ में एक कथा का उल्लेख पुराणों में मिलता है। एक थे राजा शिवि। इनके धार्मिक स्वभाव और दयालुता एवं परोपकार के गुण की ख्याति स्वर्ग में भी पहुंच गयी। इन्द्र और अग्नि देव ने योजना बनायी कि राशि शिवि के गुणों को परखा जाए। एक दिन अग्नि देव कबूतर बने और इन्द्र बाज। कबूतर उड़ता हुआ राजा शिवि की गोद में आकर बैठ गया और अपनी रक्षा के लिए प्रार्थना करने लगा। इसी बीज बड़ा सा बाज राजा शिवि के पास पहुंचा और कबूतर को वापस करने के मांग करने लगा। बाज ने कहा कि, कबूतर मेरा आहार है अगर आप मुझे वापस नहीं करेंगे तो आपको मुझे भूखा रखने का पाप लगेगा।

          बाज की बातों को सुनकर राजा शिवि ने कहा कि कबूतर मैं तुम्हें नहीं दूंगा अगर कोई अन्य उपाय है तो बताओ। बाज ने कहा कि कबूतर के मांस के बराबर मुझे मांस दे दीजिए इससे मेरा काम हो जाएगा। राजा ने विचार किया कि एक जीव को बचाने के लिए दूसरे जीव का कष्ट देना पाप होगा। यही सोच कर राजा ने कबूतर को तराजू के एक पलडे में डाल दिया और अपने शरीर से मांस काटकर दूसरे पलड़े में रखने लगे। लेकिन काफी मांस रखने के बाद भी पलड़ा हिला तक नहीं। अंत में राजा शिव स्वयं दूसरे पलड़े पर बैठ गये और बाज से कहा कि तुम मुझे खाकर अपनी भूख शांत कर लो।

          राजा के इस दयालुता और शरण में आये हुए कि मदद करने की भावना को देखकर कबूतर अग्नि देव और बाज देवराज इन्द्र के रूप में प्रकट हुए। आसमान से फूलों की वर्षा होने लगी। देवराज इन्द्र ने कहा कि तुम ने धर्म की लाज रखी है। जो शरण में आये की रक्षा नहीं करता वह पापी है। कमज़ोर की सहायता न करने वाला भी अधर्मी है। दोनों देवताओं ने राजा शिवि को आशीर्वाद दिया और स्वर्ग चले गये।
 
 

4-भगवान की नजर में सब एक समान हैं-
 
          इतिहास के पन्नों को उलट करके देखेंगे तो पाएंगे कि आज जितना ऊंच-नीच एवं अमीर-गरीब का भेद-भाव है वह वैदिक काल के आरंभ में नहीं था। उस समय सामाजिक व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए कर्म के अनुसार वर्ग विभेद किया गया। लेकिन बाद में व्यवस्थाओं में जटिलता आती गयी और भेद-भाव बढ़ता गया। लेकिन यह भेद-भाव ऊपरी स्तर पर है। मूल में कहीं भेद-भाव नहीं है। मूल ईश्वर है और ऊपरी दुनिया वह है जहां हम मनुष्य और जीव-जन्तु विचरण करते हैं।

          भगवान की नज़र में सभी एक समान हैं। ईश्वर की दृष्टि में न तो जात-पात है और न लिंग भेद। श्री रामानंदाचार्य ने कहा है 'जात-पात पूछे न कोई। हरि को भजे सो हरि का होई।।' भगवान कभी किसी के साथ किसी आधार पर भेद-भाव नहीं करते हैं। केवट ने भगवान से प्रेम किया तो भगवान� बिना किसी भेद-भाव के केवट की नैया में बैठे और केवट की जीवन नैया को पार लगा दिया। श्री राम के चरण रज को पीकर केवट परम पद पाने में सफल हुआ।

          भगवान की दृष्टि में सभी बराबर हैं इसका उदाहरण भक्त सबरी के जीवन की एक घटना है। सबरी भील जाति की एक महिला थी। राम की भक्ति इनके मन में ऐसी बसी की राम में ही खुद को अर्पित कर दिया। एक बार सबरी मार्ग में झाड़ू लगा रही थी उस समय साधुओं का एक समूह मार्ग से गुजरा। अनजाने में सबरी का स्पर्श साधुओं से हो गया।

          साधु इससे नाराज हुए कि एक भीलनी उससे स्पर्श कर गयी। भगवान को यह बात अच्छी नहीं लगी। साधुओं को जात-पात के भेद-भाव की नासमझी को दूर करने के लिए भगवान ने एक लीला की। साधुगण जिस सरोवर में स्नान करते थे। उस सरोवर में जैसे ही साधुओं ने प्रवेश किया सरोवर का जल दूषित हो गया। सरोवर के जल से बदबू आने लगी।

          साधुओं ने सरोवर के जल को शुद्घ करने के लिए कई हवन और यज्ञ किया लेकिन कोई परिणाम नहीं निकला। एक दिन सीता की खोज करते हुए भगवान राम जब सबरी की कुटिया में पधारे तब साधुओं को अपने ऊपर काफी ग्लानि हुई। उन्हें समझ में आ गया कि सबरी की भक्ति उनकी भक्ति भावना से बढ़कर है। सभी साधु सबरी की कुटिया में पधारे।

          भगवान राम के दर्शनों के पश्चात साधुओं ने राम से प्रार्थना की, कि सरोबर के जल को निर्मल करने का उपाय बताएं। भगवान राम ने साधुओं से कहा कि आप सबरी के पैरों को धोएं और उस जल को ले जाकर सरोबर में मिलाएं। इस उपाय को करने से सरोबर का जल निर्मल हो जाएगा। साधुओं ने ऐसा ही किया और सरोवर का जल सुगंधित और स्वच्छ हो गया>
 
 

5-श्री कृष्ण और शंकर में छिड गया था युद्ध-
 
          भगवान श्री कृष्ण विष्णु के अवतार माने जाते हैं। भगवान विष्णु और शिव एक दूसरे के भक्त भी हैं। पुराणों में जो कथाएं मिलती हैं उनके अनुसार शिव को नहीं मानने वाला व्यक्ति विष्णु का प्रिय नहीं हो सकता। इसी प्रकार विष्णु का शत्रु शिव की कृपा का भागी नहीं हो सकता है। लेकिन एक घटना ऐसी हुई जिससे भगवान शिव और विष्णु के अवतार श्री कृष्ण युद्ध में आमने सामने आ गये, और छिड़ गया महासंग्राम।

          पुराणों में शिव और श्री कृष्ण के बीच हुए युद्ध की जो कथा मिलती है उसके अनुसार। राजा बलि के पुत्र वाणासुर ने भगवान शिव की तपस्या करके उनसे सहस्र भुजाओं का वरदान प्राप्त कर लिया। वाणासुर के बल से भयभीत होकर सभी उससे युद्ध करने से डरते थे। इससे वाणासुर को बल का अभिमान हो गया।

          वाणासुर की पुत्री उषा ने एक रात स्वप्न में श्री कृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध को देखा। उषा स्वप्न में ही अनिरुद्ध को देखकर उस पर मोहित हो गयी। उषा ने अपने मन की बात सखी को बतायी। सखी ने अपनी मायावी विद्या से अनिरुद्ध को उसके पलंग सहित महल से चुरा कर उषा के शयन कक्ष में पहुंचा दिया। अनिरुद्ध की नींद खुली तो उसकी नज़र उषा पर गयी, अनिरुद्ध भी उषा के सौन्दर्य पर मोहित हो गया।

          जब वाणासुर को पता चला कि उसकी पुत्री के शयन कक्ष में कोई पुरूष है तो सैनिकों को लेकर उषा के शयन कक्ष में पहुंचा। वहां पर वाणासुर ने अनिरुद्ध को देखा। वाणासुर के क्रोध की सीमा न रही और उसने अनिरुद्ध को युद्ध के ललकारा। वाणासुर और अनिरुद्ध के बीच युद्ध होने लगा। वाणासुर के सभी अस्त्र विफल हो गये तब उसने नागपाश में अनिरुद्ध को बांध कर बंदी बना लिया।

          इस पूरी घटना की जानकारी जब श्री कृष्ण को मिली तो वह अपनी सेना के साथ वाणासुर की राजधानी में पहुंच गये। श्री कृष्ण और वाणासुर के बीच युद्ध होने लगा। युद्ध में अपनी हार होता हुआ देखकर वाणासुर को शिव की याद आयी जिसने वाणासुर को संकट के समय रक्षा करने का वरदान दिया था।

          वाणासुर ने शिव का ध्यान किया तो शिव जी युद्ध भूमि में प्रकट हो गये। वाणासुर की रक्षा के लिए शिव ने श्री कृष्ण से कहा कि युद्ध भूमि से लौट जाएं अन्यथा मेरे साथ युद्ध करें। श्री कृष्ण ने शिव से युद्ध करना स्वीकार किया और छिड़ गया शिव एवं श्री कृष्ण के बीच महासंग्राम। श्री कृष्ण ने देखा कि शिव के रहते हुए वह वाणासुर को परास्त नहीं कर सकते तो उन्होंने शिव से कहा कि मेरे हाथों से वाणासुर का पराजित होना विधि का विधान है।

          आपके रहते मैं विधि के इस नियम का पालन नहीं कर पाऊंगा श्री कृष्ण कि इन बातों को सुनकर भगवान शिव युद्ध भूमि से चले गये। इसके बाद श्री कृष्ण ने वाणासुर चार बाजुओं को छोड़कर सभी को सुदर्शन चक्र से काट दिया। वाणासुर का अभिमान चूर हुआ और उसने श्री कृष्ण से क्षमा मांगकर अनिरुद्ध का विवाह उषा से करवा दिया।
 
 
 
6-जीसस क्राइस्ट कृष्ण के अवतार थे-
 
          लुईस जेकोलियत ने 1869 ई. में अपनी एक पुस्तक 'द बाईबिल इन इंडिया' में लिखा है कि जीसस क्राइस्ट और भगवान श्री कृष्ण एक थे। लुईस जेकोलियत फ्रांस के एक साहित्यकार और वकील थे। इन्होंने अपनी पुस्तक में कृष्ण और क्राईस्ट का तुलना प्रस्तुत की है। इन्होंने अपनी पुस्तक में यह भी कहा है कि क्राईस्ट शब्द कृष्ण का ही रूपांतरण है। क्राइस्ट के अनुयायी क्रिश्चियन कहलाये।

          जीसस शब्द के विषय में लुईस ने कहा है कि क्राईस्ट को 'जीसस' नाम भी उनके अनुयायियों ने दिया है इसका संस्कृति में अर्थ होता है 'मूल तत्व'। भगवान श्री कृष्ण को गीता एवं धार्मिक ग्रंथों में इस रूप में ही व्यक्त किया गया है। जीसस क्राइस्ट के विषय में यह भी उल्लेख मिलता है कि इन्होंने अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा भारत में बिताया।

          निकोलस नातोविच नामक एक रूसी युद्घ संवाददाता ने अपनी पुस्तक 'द अननोन लाईफ ऑफ जीसस क्राइस्ट' में लिखा है कि जीसस ने अपने जीवन का 18 वर्ष भारत में बिताया। जीसस प्राचीन व्यापारिक मार्ग सिल्क रूट से भारत आये थे। इन्होंने तिब्बत और कश्मीर के मोनेस्ट्री में काफी समय बिताया और बौद्घ एवं भारतीय धर्म ग्रंथों एवं आध्यात्मिक विषयों का अध्ययन किया। अपनी भारत यात्रा के दौरान जीसस ने उड़ीसा के जगन्नाथ मंदिर की भी यात्रा की थी एवं यहां रहकर इन्होंने अध्ययन किया था।

          माना जाता है कि भारत में जब बौद्घ धर्म एवं ब्राह्मणों के बीच संघर्ष छिड़ा तब जीसस भारत छोड़कर वापस चले गये। भारत से वापसी के समय जीसस पर्सिया यानी वर्तमान ईरान गये। यहां इन्होंने जरथुस्ट्र के अनुयायियों को उपदेश दिया। जीसस के विषय में यह भी मान्यता है कि जीसस जीवन के अंतिम समय में पुनः भारत आये थे।

          सादिक ने अपनी ऐतिहासिक कृति 'इकमाल-उद्-दीन' में उल्लेख किया है कि जीसस ने अपनी पहली यात्रा में तांत्रिक साधना एवं योग का अभ्यास किया। इसी के बल पर सूली पर लटकाये जाने के बावजूद जीसस जीवित हो गये। इसके बाद ईसा फिर कभी यहूदी राज्य में नज़र नहीं आये। यह अपने योग बल से भारत आ गये और 'युज-आशफ' नाम से कश्मीर में रहे। यहीं पर ईसा ने देह का त्याग किया ।

Thursday, March 7, 2013

जीवन की परिधि

 
1- सौन्दर्य का स्वरूप
 
1-          इस ग्रह पर जन्मा हरेक बच्चा सुंदर है, जैसे-जैसे वो बड़ा होने लगता है, बच्चे की सुंदरता, मासूमियत खो जाती है। निर्दोषता तुम्हें सुंदर बनाती है। दिखने में तुम चाहे जितने भी सुंदर क्यूं न हों, अगर तुम्हारा मन तनावग्रस्त है, अगर तुम्हारी चेतना क्रोध, निराशा और नकारात्मक विचारों से भरी है, तो यह तुम्हारे चेहरे पर साफ़ दिखाई देता है।
 
2-          असली सौन्दर्य आनंद है, और आनंद भीतर से आता है, जागो और देखो कि तुम एक बालक जैसे निर्दोष हो, एक बार जब हम मान लेते हैं कि हम स्वयं के, जीवन के बारे में बहुत कम जानते हैं, तब हम निर्दोषता की ओर वापस जाते हैं, ज्ञान का उद्देश्य तुम्हें उस अज्ञानमय "मैं कुछ नहीं जानता से एक सुन्दर "मैं कुछ नहीं जानता" तक ले के जाना है। जब ये परिवर्तन भीतर से घटित होता है। तब तुम सबसे सुन्दर व्यक्ति बन जाते हो।

3-          निराशा, क्रोध हमेशा अतीत को लेकर होते हैं और व्यग्रता हमेशा भविष्य के लिए होती है। जीवन में तुम्हें चिंता और पश्चाताप के बहुत से उदहारण मिले होंगे। अगर तुम भूतकाल से छुटकारा पा लो और वर्तमान में आ जाओ तो तुम आत्मा की निर्दोषता पर वापस आ सकते हो।

4-          भरोसा भी तुम्हारी सुन्दरता को बढ़ाता है। तुम लोगों की अच्छाई पर शक करते हो लेकिन लोगों के बुरे गुणों पर कभी शक नहीं करते। शक के स्वभाव को समझो। तुम इस संसार में भरोसे के गुणों को ले कर आए हो। एक बच्चे के रूप में हम इस ग्रह पर भरोसे के साथ आए हैं। इसीलिए बच्चा इतना सुंदर है। बालक उसके आनंद, मासूमियत और भरोसे की वजह से सुंदर है।

5-          बालक का दूसरा गुण है वर्तमान में जीना। ये गुण तुम्हारी सुन्दरता को बढ़ाता है। ज़रा आइने में अपने चेहरे पर निगाह डालो और देखो इस शरीर के भीतर क्या है। क्या भरोसा है। अगर नहीं, तो ऐसा कब होगा। अब ये होना चाहिए। जिस क्षण तुम उस पर ध्यान लगाओगे। तुम पाओगे कि भरोसा निरंतर बढ़ रहा है।

6-          किसी ऐसे व्यक्ति की तरफ देखो जो किसी चीज़ के लिए तरस रहा है और किसी ऐसे व्यक्ति की तरफ देखो जो संतुष्ट और तृप्त है। जो संतुष्ट है वह ज़्यादा सुन्दर लगता है। हम जितने ज़्यादा संतुष्ट होंगे उतनी ज़्यादा उन्नति कर सकेंगे।

7-          जब तुम अपना जीवन किसी उद्देश्यपूर्ण, उपयोगी सेवा में लगा देते हो, तुम्हारी सुन्दरता बढ़ती है, यदि तुम हमेशा अपने बारे में सोचते रहते हो, तो यह तुम्हें बदसूरत बनाने के लिए काफी है। अगर तुम अपना जीवन किसी के लिए बाँट सकते हो, तब भीतर से जो सुन्दरता उगती है, वो अद्वितीय है, असली सुन्दरता तुम्हारे भीतर जो गुण हैं उन्हें प्रदर्शित करने में है।

8-          बस, महसूस करो कि तुम इस दैवत्व का हिस्सा हो। यह ब्रह्माण्ड प्राणशक्ति का अखंड प्रवाह है। बस इस सत्य पर तुम्हारा ध्यान तुम्हारे भीतर की सुन्दरता को जागृत करता है। तुम्हारे पास जो भी है जैसे तुम्हारी ऑंखें, कानए पैर, आदि कुछ चीज़ों के लिए कृतज्ञता महसूस करो। हर रोज़ सुबह, जीवन में तुम्हें जो भी मिला है उसके बारे में सोचो। फिर तुम्हारा सारा दिन ज़्यादा कृतज्ञता और आभार में व्यतीत होगा।

9-          कृतज्ञता तुम्हें और भी सुंदर बनाती है। लगभग सभी सभ्यताओं में माँ अपने बच्चों को सोने से पहले प्रार्थना करना सीखाती है। इस प्राचीन अभ्यास का महत्त्व ये है कि जब तुम अपने हृदय में इतनी कृतज्ञता ले कर सोते हो, तुम्हारा मन शांत और स्थिर हो जाता है, रोज़ सोने से पहले तुम्हें जितने वरदान मिले हैं उनकी गिनती करना, ये तुम्हारे भीतर की सुन्दरता का आह्वान करेगी और तुम दुसरे दिन तरोताज़ा, तनावमुक्त और पुनर्जीवित हो कर जागोगे।

 

2-छोटा सुख बडे सुख में कैसे बदलें
 
अ-          छोटी सी बात हमें याद रखनी होगी कि कभी-कभी ऐसा होता है कि आज हमें लगता है कि इसमें खूब सुख है और हमें यह भी दिखायी पड़ता है कि अगर हम इसका त्याग कर दें तो कल अनंतगुना सुख हो सकता हैं। लेकिन वह कल तो होगा, लेकिन हम आज के ही सुख को पकड़ लेते हैं। कल के अनंत गुने को छोड़ देते है। इसलिए हम दीन रह जाते हैं, दरिद्र रह जाते हैं। माना तुम्हारे पास मुट्ठी भर अन्न है, हम उसे आज खा लेते हैं, तो थोड़ा सा सुख मिलेगा। लेकिन अगर तुम इसे बो देते हैं तो शायद दो-चार महीने प्रतीक्षा करनी पड़ेगी,लेकिन बड़ी फसल पैदा होगी। शायद साल भर के लायक भोजन पैदा हो जाए।

ब-          हमात्मॉ बुद्ध ने कहा है कि बुद्धिमान वह है, जो अल्प को छोड़कर विराट को उपलब्ध करने में लगा रहता है। जो जीवन में सदा ध्यान रखता है कि जो मैं कर रहा हूं, इसका अंतिम फल क्या होगा? आज का ही सवाल नहीं है, इसका अन्तिम परिणाम क्या होगा?


स-          गंगा बूंद-बूंद पैदा होती है। गोमुख से गिरती है गंगोत्री,उस समय तुम उस जल को अपनी मुट्ठी में ले सकते हो। फिर बड़ी होती जाती है, और बड़ी होती जाती है। जब गंगा सागर में गिरती है तब तुम विश्वास भी न कर सकोगे कि यह वही गंगा है जो गोमुख से गिरती है। जो गंगोत्री में बूंद-बूंद टपकती है, जिसको तुम मुट्ठी में बांध ले सकते थे, यह वही गंगा है? पहचान नहीं आती।

द-          बीज के बाद छोटा, वृक्ष फिर बहुत बड़ा हो जाता है। बुद्धिमान व्यक्ति अल्पसुख को महासुख के लिए छोड देता है। छोटे को न पकड़े, क्षुद्र को न पकड़े, विराट पर ध्यान रखे। ‘दूसरे को दुख देकर जो अपने लिए सुख चाहता है, वह वैर चक्र में फंसा हुआ व्यक्ति कभी वैर से मुक्त नहीं होता।’ और बुद्ध ने कहा है कि - सुख तो सभी चाहते हैं, मगर सुख की चाह में एक बात खयाल रखना-पहला सूत्र- अल्पसुख को छोड़ देना महासुख के लिए। दूसरा सूत्र कहा-यह खयाल रखना कि- सुख तो चाहना, लेकिन दूसरे के दुख पर तुम्हारा सुख निर्भर न हो। दूसरे के दुख पर आधारित सुख तुम्हें अंततः दुख में ही ले जाएगा, महादुख में ले जाएगा।


 

3-सुख चाहिए तो पहले दुख को जानना सीखो

अ-          यदि तुम्हैं दुख को मिटाना हो, तो सुख की कल्पना छोड़ देनी पड़ेगी और पहले दु:ख को ही जानना पड़ेगा। और देखने वाली बात होगी कि जो दुख को जानता है, उसका दु:ख स्वतः मिट जाता है,और जो सुख को मानता है, उसका दुख छिप जाता है; मिटता नहीं, भीतर चला जाता है। इसी प्रकार अगर अज्ञान को मिटाना है, तो ज्ञान की कल्पना नहीं करनी है-अज्ञान को ही जानना है। अज्ञान को जो जानता है, उसे ज्ञान उपलब्ध हो जाता है। लेकिन जो ज्ञान को, झूठे ज्ञान को, कल्पित ज्ञान को पकड़ लेता है, उसका अज्ञान छिप जाता है, अज्ञान मिटता नहीं, जिससे ज्ञान उसे मिलता नहीं है, क्योंकि कल्पित ज्ञान का कोई भी अर्थ नहीं है।

ब-          जैसे एक प्रश्न है कि- क्या हम सुखी हैं? क्या हमने कभी भी सुख जाना है? अगर कोई बहुत निष्पक्ष रूप से अपने जीवन पर लौट कर देखेगा, तो पाएगा, सुख-सुख तो कभी नहीं जाना, दुख ही जाना है। लेकिन दुख को हम भुलाते हैं। और जिस सुख को नहीं जाना, उसको कल्पित करते हैं, उसको थोपते हैं। हां, एक आशा है मन में कि कभी जानेंगे। और आशा उसी की होती है, जिसने न जाना हो। सुख को जाना नहीं है, इसलिए निरंतर सोचते हैं- आने वाले कल, भविष्य में सुख मिलेगा। जो और भी ज्यादा काल्पनिक हैं,फिर वे सोचते हैं, अगले जन्म में। जो और भी ज्यादा काल्पनिक हैं, वे सोचते हैं, किसी स्वर्ग में,या मोक्ष में सुख मिलेगा।

स-          अगर आदमी ने सुख जाना होता, तो स्वर्ग की कल्पना कभी न करता। स्वर्ग की कल्पना उन लोगों ने की है, जिन्होंने सुख कभी भी नहीं जाना । जो नहीं जाना है, उसको स्वर्ग में निर्मित करने की आशा बांधे बैठे हुए हैं! सुख हमने जाना है कभी? कोई ऐसा क्षण है जीवन का जब हम कह सकें कि मैंने जाना सुख? और यह भी ध्यान रखने वाली बात है कि बहुत जल्दी में ऐसा मत कह देना; क्योंकि जिसने एक बार सुख जान लिया, वह दुख जानने में असमर्थ हो जाता है। जिसने सुख जान लिया, वह दुख जानने में असमर्थ हो जाता है। फिर वह दुख जानता ही नहीं। फिर वह दुख जान ही नहीं सकता। क्योंकि जो सुख जानता है, उसे यह भी पता चल जाता है कि मैं सुखी हूं। और चूंकि हम दुख जानते ही चले जाते हैं, यह इस बात का सबूत है कि सुख हमने कभी जाना नहीं। आशा है, कल्पना है। और कभी-कभी सुख को थोप भी लेते हैं।

द-          एक मित्र आया है, गले लग गया है और हम कहते हैं, बहुत सुख मिल रहा है। गले मिल कर कितना सुख मिला है, उसके आलिंगन में कितना रस मिला है; लेकिन कभी आपने सोचा है कि जो मित्र आकर गले मिल गया है, दस मिनट, पंद्रह मिनट, बीस मिनट और गला छोड़े ही नहीं, तब क्या होगा जानते हो? ऐसी तबीयत होगी कि कोई पुलिस वाला आकर छुडा लेता, किसी तरह इससे छुटकारा दिलाए, यह क्या कर रहा है? और अगर घंटे दो घंटे वह गले को न छोड़े तो फांसी मालूम पड़ेगी।

य-          अगर सुख था तो और बढ़ जाता? जो एक क्षण में सुख मिला था तो दस क्षण में और दस गुना हो जाता? लेकिन एक क्षण में सुख लगा था और दस क्षण में फांसी मालूम होने लगी! सुख नहीं था, कल्पित था; एक क्षण में खो गया। जो कल्पित है, वही क्षण भर टिकता है; जो सत्य है, वह सदा है। जो कल्पित है, वही क्षणभंगुर है। जो क्षणभंगुर है, उसे कल्पित जानना। क्योंकि जो है, वह शाश्वत है, वह सदा है। वह क्षण में नहीं है, वह नित्य है, वह कभी मिटता नहीं। वह है, और है, और है। था, और होगा, और होगा। कभी ऐसा क्षण नहीं आएगा, जब वह न हो जाए। जो सुख दु:ख में बदल जाता है, उसे कल्पित जानना। वह सुख था ही नहीं। और सब सुख जो हम जानते हैं, दु:ख में बदलने में समर्थ हैं।

4-           हमारे पास मन के सिवा और कुछ नहीं होता है
अ-इस सम्बन्ध में हम सन्यासी के अर्थ को जानते हैं कि-संन्यास का अर्थ यही है कि मैं निर्णय लेता हूं कि अब से मेरे जीवन का केंद्र बिन्दु ध्यान होगा। धन नहीं होगा, यश नहीं होगा, संसार नहीं होगा। जीवन का केंन्द्र ध्यान होगा, धर्म होगा, परमात्मा होगा-ऐसा निरणय लेना ही संन्यास है। जीवन के केंद्र को बदलने की प्रक्रिया संन्यास है। वह जो जीवन के मंदिर में हमने प्रतिष्ठा कर रखी है--इंद्रियों की, वासनाओं की, इच्छाओं की, उनकी जगह मुक्ति की, मोक्ष की, निर्वाण की, प्रभु-मिलन की, मूर्ति की प्रतिष्ठा ध्यान है।

ब-          जो व्यक्ति ध्यान को जीवन में अन्य कामों में एक काम की तरह करता है, घंटे भर ध्यान भी कर लेता है या चौबीस घण्टे ध्यान करता है-निश्चित ही उस व्यक्ति को बजाय जो व्यक्ति अपने चौबीस घंटे के जीवन को ध्यान में समर्पित करता है, चाहे दुकान पर बैठेगा तो ध्यानपूर्वक, चाहे भोजन करेगा तो ध्यानपूर्वक, चाहे बात करेगा किसी के साथ तो ध्यानपूर्वक, रास्ते पर चलेगा तो ध्यानपूर्वक, रात सोने जाएगा तो ध्यानपूर्वक, सुबह में बिस्तर से उठेगा तो ध्यानपूर्वक-ऐसे व्यक्ति का अर्थ है संन्यासी, जो ध्यान को अपने चैबीस घंटों पर फैलाने की आकांक्षा से भर गया है।

स-          निश्चित ही संन्यास ध्यान के लिए गति देगा। और मनुष्य के मन का नियम है कि निर्णय लेते ही मन बदलना शुरू हो जाता है। आपने भीतर एक निर्णय किया कि आपके मन में परिवर्तन होना शुरू हो जाता है। वह निर्णय ही परिवर्तन के लिए क्रिस्टलाइजेशन बन जाता है।

द-          कभी बैठे-बैठे इतना ही सोचें, चोरी करनी है, तो तत्काल आप दूसरे आदमी हो जाते हैं-तत्काल! चोरी करनी है इसका निर्णय आपने लिया कि चोरी के लिए जो मदद रूप है, वह मन आपको देना शुरु कर देता है सुझाव कि क्या करें, क्या न करें, कैसे कानून से बचें, क्या होगा, क्या नहीं होगा! एक निर्णय मन में बना कि मन उसके पीछे काम करना शुरु कर देता है। मन आपका गुलाम है। आप जो निर्णय ले लेते हैं, मन उसके लिए सुविधा शुरू कर देता है कि जब चोरी करनी ही है तो कब करें, किस प्रकार करें कि, फंस न जाएं, मन इसका इंतजाम जुटा देता है।

य-          जैसे ही किसी ने निर्णय लिया कि मैं संन्यास लेता हूं कि, मन संन्यास के लिए भी सहायता पहुंचाना शुरू कर देता है। असल में निर्णय न लेने वाला आदमी ही मन के चक्कर में पड़ता है। जो आदमी निर्णय लेने की कला सीख जाता है, मन उसका गुलाम हो जाता है। वह जो अनिर्णयात्मक स्थिति है वही मन है। वह जो निर्णय है, संकल्प है,मन उनके बीच में खड़ा हो जाता है, मन उसके पीछे चलेगा। लेकिन जिसके पास कोई निर्णय नहीं है, संकल्प नहीं है, उसके पास सिर्फ मन होता है। और उस मन से बहुत पीड़ित और परेशान होते हैं। संन्यास का निर्णय लेते ही जीवन का रूपांतरण शुरू हो जाता है।

र-          आदमी बहुत अनूठा है। उसका अनूठापन ऐसा है कि कोई अगर आपसे कहे कि दो हजार, या दो करोड़ या अरब तारे हैं, तो आप बिल्कुल मान लेते हैं। लेकिन अगर किसी दीवार पर नया पेंट किया गया हो और लिखा हो कि ताजा पेंट है, छूना मत, तो छूकर देखते ही हैं कि है भी ताजा कि नहीं! जब किया गया हो और लिखा हो कि ताजा पेंट है, छूना मत, तो छूकर देखते ही हैं कि है भी ताजा कि नहीं! जब तक अंगुली खराब न हो जाए तब तक मन नहीं मानता।

ल-          सूरज को बिना सोचे मान लेते हैं और दीवार पर पेंट नया हो तो छूकर देखने का मन होता है। जितनी दूर की बात हो उतनी बिना दिक्कत के आदमी मान लेता है। जितनी निकट की बात हो उतनी दिक्कत खड़ी होती है। संन्यास आपके सर्वाधिक निकट की बात है। उससे निकट की और कोई बात नहीं है। अगर जो विवाह करेंगे तो वह भी दूर की बात है। क्योंकि उसमें दूसरा सम्मिलित है, आप अकेले नहीं है। संन्यास अकेली घटना है जिसमें आप अकेले ही हैं, कोई दूसरा सम्मिलित नहीं है। बहुत निकट की बात है। उसमें आप बड़ी परेशानी में हैं। उस निर्णय को लेकर मन को बड़ी कठिनाई होती है।

 


5-असुरक्षा में जीना सीखें
 
अ-          पूर्ण असुरक्षा और उसमें जीने की क्षमता तो बुद्धि का ही प्रयोग है। जो व्यक्ति अल्पबुद्धि युक्त है,वह तो असुरक्षा में नहीं रह सकता और जो पूर्ण असुरक्षा में नहीं रह सकता वह संबुद्ध नहीं हो सकता। ये दो बातें नहीं है, ये एक ही बात को कहने के दो ढंग हैं। तो तुम असुरक्षा में रहने की तब तक प्रतीक्षा न करो जब तक तुम संबुद्ध न हो जाओ। क्योंकि फिर तो तुम कभी संबुद्ध न हो पाओगे।

ब-           असुरक्षा में जीना शुरू करों, यही बुद्धत्व का मार्ग है।इसके लिए तुम्हैं पूर्ण असुरक्षा के बारे में नहीं सोचना है। जहां तुम हो वहीं से शुरू करो। जैसे तुम हो वैसे तो किसी चीज में समग्र नहीं हो सकते, लेकिन कहीं से तो शुरू करना ही होता है। शुरू में इससे संताप होगा, शुरू में इससे दुख होगा। लेकिन बस शुरू में ही। यदि तुम शुरूआत पार कर सको, तो दुख मिट जाएगा, संताप मिट जाएगा।

स-          इस प्रक्रिया को समझना पड़ेगा। जब तुम असुरक्षित अनुभव करते हो तो परेशान क्यों होते हो? यह असुरक्षा का कारण नहीं है बल्कि सुरक्षा की मांग के कारण हैं। जब तुम असुरक्षित अनुभव करते हो तो परेशानी होने लगती है, संताप पैदा होता है। वह असुरक्षा के कारण पैदा नहीं हो रहा बल्कि जीवन को एक सुरक्षा प्रदान करने की मांग से पैदा हो रहा है। यदि तुम असुरक्षा में रहने लगो और सुरक्षा की मांग न करो तो जब मांग चली जाएगी तो संताप भी चला जाएगा। वह मांग ही संताप पैदा कर रही है।

द-          असुरक्षा तो जीवन का स्वभाव है। बुद्ध के लिए संसार असुरक्षित है; जीसस के लिए भी असुरक्षित है। लेकिन वे संतप्त नहीं है, क्योंकि उन्होनें इस तथ्य को स्वीकार कर लिया है। वे इस वास्तविकता की स्वीकृति के लिए प्रौढ़ हो गये हैं। उस व्यक्ति को मैं अपरिपक्व कहता हूं, जो कल्पनाओं और सपनों के लिए वास्तविकता से लड़ता रहता है। वह व्यक्ति अपरिपक्व है। प्रौढ़ता का अर्थ है वास्तविकता का साक्षात्कार करना, सपनों को एक ओर फेंक देना और वास्तविकता जैसी है वैसी स्वीकार कर लेना। बुद्ध प्रौढ़ है। वह स्वीकार कर लेते है कि यह ऐसा ही है।

य-          उदाहरण के लिए, भले ही मृत्यु सुनिश्चित है, पर अपरिपक्व व्यक्ति सोचे चला जाता है कि बाकी सब चाहें मर जाए लेकिन वह नहीं मरना चाहता। अपरिपक्व व्यक्ति सोचता है कि उसके मरने के समय तक कुछ खोज लिया जाएगा, कोई दवा खोज ली जाएगी, जिससे वह नहीं मरेगा। अपरिपक्व व्यक्ति सोचता है कि मरना कोई नियम नहीं है। निश्चित ही, बहुत से लोग मरे हैं, लेकिन हर चीज में अपवाद होते हैं और वह सोचता है कि वह अपवाद है।

र-          जब भी कोई मरता है तो तुम सहानुभूति अनुभव करते हो, तुम्हें लगता है, बेचारा मर गया। लेकिन तुम्हारे मन में यह कभी नहीं आता कि उसकी मृत्यु तुम्हारी भी मृत्यु है। नहीं, तुम उससे बचकर निकल जाते हो। इतनी सूक्ष्म बातों को तो तुम छूते ही नहीं। तुम सोचते रहते हो कि कुछ न कुछ तुम्हें बचा लेगा-कोई मंत्र, कोई चमत्कारी गुरु। कुछ हो जाएगा और तुम बच जाओगे। तुम कहानियों में, बच्चों की कहानियों में जी रहे हो।

ल-          प्रौढ़ व्यक्ति वह है जो इस तथ्य की ओर देखता है और स्वीकार कर लेता है कि जीवन और मृत्यु साथ-साथ हैं। मृत्यु जीवन का अंत नहीं है, वह तो जीवन का शिखर है। वह जीवन के साथ घटी कोई दुर्घटना नहीं है, वह तो जीवन के हृदय में विकसित होती है और एक शिखर पर पहुंचती हैं। प्रौढ़ व्यक्ति मृत्यु को स्वीकार कर लेता है और उसे मृत्यु का कोई भय नहीं रहता। वह समझ लेता है कि सुरक्षा असंभव है।

व-          तुम चाहे एक चारदीवारी बना सकते हो, बैंक बैलेंस रख लो, स्वर्ग में सुरक्षा पाने के लिए धन दान दे दो, तुम सब कर लो, लेकिन गहरे में तुम जानते हो कि असल में कुछ भी सुरक्षित नहीं है। बैंक तुम्हें धोखा दे सकता है। और पुरोहित धोखेबाज हो सकता है, वह सबसे बड़ा धोखेबाज हो सकता है, कोई नहीं जानता।