Monday, March 23, 2015

स्मृति के पंख

1-जल की भी याददास्त होती है
 
          पंचतत्वों के गुणों को बदलना या यह तय करना कि ये तत्व हमारे भीतर कैसे काम करेंगे, काफी हद तक मानव-मन और चेतना के अधीन है। इसके विज्ञान और तकनीक को इस संस्कृति में पूरी गहराई से परखा गया था और उसे एक पीढ़ी से अगली पीढ़ी को सौंपा जाता रहा। सही तरह के नजरिए, एकाग्रता और ध्यान देने से क्या आप शरीर रूपी इस बरतन के जल को मिठास से नहीं भर सकते?
 
         अगर आप ऐसा कर पाएं, तो आप बहत्तर फीसदी मीठे हैं, क्योंकि आपके शरीर में लगभग इतनी ही पानी की मात्रा है। लेकिन पिछले सौ सालों में, जीवन के प्रति अपने बहुत अहंकारी रवैये के कारण हमने बहुत सी चीजें छोड़ दीं। इस देश में हमारे पास ज्ञान का जो भंडार है, अगर हम उसे फिर से अपना लें, तो वह न सिर्फ इस देश के कल्याण के लिए बल्कि पूरी दुनिया के कल्याण के लिए एक महान साधन हो सकता है।
 
          पश्चिम से आने वाले सभी तरीके आम तौर पर बस थोड़े समय के लिए उपयोगी होते हैं। उनके यहां सब कुछ बस इस्तेमाल करके फेंक देने के लिए होता है। यहां तक कि इंसान भी। दिक्कत यह है कि राजनैतिक तथा कुछ दूसरी किस्म के प्रभाव के कारण कोई चीज अगर पश्चिम से आए तो विज्ञान बन जाती है, और अगर पूर्व से आए तो अंधविश्वास। बहुत सी बातें जो आपको कभी आपकी दादी-नानी ने बताई होंगी, आज बड़े-बड़े वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में 'महान-आविष्कारों के रूप में खोजी जा रही हैं।
 
          जो बातें वे अरबों डॉलर के रिसर्च और अध्ययनों के बाद बता रहे हैं, हम अपनी संस्कृति में पहले से कहते आ रहे हैं। इसका कारण यह है कि हमारी संस्कृति जीवन की विवशताओं से विकसित नहीं हुई है। यह वह संस्कृति है, जिसे ऋषि-मुनियों ने विकसित किया है, इसका ध्यान रखते हुए कि आपको कैसे बैठना चाहिए, कैसे खड़े होना चाहिए और कैसे खाना चाहिए। मानव कल्याण के लिए जो सबसे श्रेष्ठ है, उसे ध्यान में रखते हुए इसे तैयार किया गया था और इसका बहुत वैज्ञानिक महत्व है। खास तौर पर पिछले कुछ वर्षों में, पानी और पानी की क्षमता पर काफी शोध किया गया है। वैज्ञानिक एक बात कह रहे हैं कि पानी में याददाश्त होती है। पानी जिसके भी संपर्क में आता है उसे याद रखता है।
 
          आज-कल घरों में जो पानी पहुंचाने की व्यवस्था है उसमें, पानी को बलपूर्वक पंप किया जाता है और उसे आपके नल में आने से पहले पचास घुमावों से गुजरना पड़ता है। जब तक वह पानी आपके घर पहुंचता है, कहा जाता है कि वह साठ फीसदी जहरीला हो चुका होता है, रासायनिक रूप से नहीं, बल्कि इसलिए क्योंकि उसका आणविक-ढांचा यानी 'मॉलिक्यूलर स्ट्रक्चर बदल जाता है। जब आपकी दादी-नानी ऐसा कहती थीं, तो वह अंधविश्वास था। जब आप यह चीज अमेरिका में वैज्ञानिकों से सुनते हैं, तो आप इसे गंभीरता से लेंगे। यह एक तरह की दासता है।
 
          बैक्टीरिया की वजह से कोई चीज जिस तरह दूषित होती है, हो सकता है कि वह उस तरह दूषित न हो, लेकिन तेजी से गुजरने की वजह से पानी के आणविक ढांचे में इस तरह का बदलाव आ जाता है कि वह लाभदायक नहीं रह जाता, बल्कि विषैला भी हो सकता है।
 
          अगर आप इस जल को तांबे के एक बरतन में दस से बारह घंटे तक रखें, तो उस नुकसान की भरपाई हो सकती है। लेकिन अगर आप उसे सीधे नल से पीएं, तो आप एक खास मात्रा में जहर पी रहे हैं। लोग इस तरह से जिंदगी जीते हैं और कहते हैं, 'मुझे कैंसर कैसे हो गया? मुझे यह बीमारी क्यों हो गई? अगर आप जीवन के प्रति बिना किसी संवेदना के जीते हैं, जो तत्व आपको बनाते हैं, उनका ख्याल नहीं रखते तो सब कुछ ठीक होने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं? पाया गया है कि पानी की रासायनिक संरचना को बदले बिना, आप आणविक व्यवस्था को इस तरह व्यवस्थित कर सकते हैं कि पानी आपके शरीर में बिल्कुल अलग तरीके से काम करे।
 
          उदाहरण के लिए, अगर मैं अपने हाथ में एक गिलास पानी लूं, उसे एक खास तरीके से देखूं और आपको दूं, तो उसको पीने से आपका भला हो सकता है। वहीं अगर मैं उसे दूसरे तरीके से देखूं और आपको दूं, तो उसे पीकर आप आज रात को ही बीमार पड़ जाएंगे। आपकी दादी-नानी आपसे कहा करती थीं, 'तुम्हें हर किसी के हाथ से न तो पानी पीना चाहिए और न ही खाना खाना चाहिए। तुम्हें ये चीजें हमेशा उन्हीं लोगों के हाथ से लेनी चाहिएं जो तुमसे प्रेम करते हैं और तुम्हारी परवाह करते हैं। किसी से भी ले कर और कहीं भी बैठ कर कोई चीज नहीं खानी चाहिए।
 
          जब आपकी दादी-नानी ऐसा कहती थीं, तो वह अंधविश्वास था। जब आप यह चीज अमेरिका में वैज्ञानिकों से सुनते हैं, तो आप इसे गंभीरता से लेंगे। यह एक तरह की दासता है। इस संस्कृति में, हमें हमेशा से मालूम था कि जल की अपनी याददाश्त होती है। आप जिसे तीर्थ कहते हैं, वह बस यही है। आपने देखा होगा कि लोग मंदिर से तीर्थ की एक बूंद पाने के लिए कैसे बेचैन रहते हैं।
 
          अगर आप अरबपति भी हैं, तो भी आपमें उस एक बूँद के लिए लालसा होती है, क्योंकि आप उस जल को ग्रहण करना चाहते हैं जिसमें ईश्वर की स्मृति हो। अगर आप तमिलनाडु के किसी पारंपरिक घर में जाएं, तो आप देखेंगे कि जल एक खास तरीके से पीतल या तांबे के बरतनों में रखा गया है। यह रिवाज पहले देश में हर जगह था, लेकिन दूसरे स्थानों में यह काफी हद तक खत्म सा हो गया है। वे हर सुबह पानी वाले बरतन को इमली से मांजते हैं, थोड़ी विभूति और थोड़ा कुमकुम लगाते हैं और उसकी पूजा करते हैं। उसके बाद ही वे उसमें पानी रखते हैं और उसी से पानी पीते हैं क्योंकि उन्हें हमेशा से पता है कि जल की याददाश्त होती है। वे जानते हैं कि आप जल को जिस तरह के बरतन में रखते हैं और उसके साथ जैसा बरताव करते हैं, उससे यह तय होता है कि वह आपके भीतर कैसा व्यवहार करेगा। मैं आपको एक घटना के बारे में बताता हूं।
 
          कुछ साल पहले, मैं एक दक्षिण भारतीय घर में गया। यहां अतिथि सत्कार में सबसे पहले आपके लिए पीने का पानी लाते हैं। तो घर की गृहिणी मेरे लिए पीने का पानी लाईं। मैंने उनके चेहरे की ओर देखा, वो काली की तरह रौद्र दिख रहीं थीं। दरअसल उनके पति नब्बे दिन के एक कार्यक्रम के लिए मेरे साथ आना चाहते थे। वह एक अच्छी महिला हैं, लेकिन उस दिन वह काली की तरह थीं। इसलिए जब वह पानी लाईं, तो मैंने कहा, 'अम्मा, आज आप काली की तरह दिख रही हैं। मुझे इस जल की कोई जरूरत नहीं है। मैं ऐसी बुरी हालत में नहीं हूं कि पानी के बिना काम न चले। वो बोलीं- 'यह अच्छा पानी ही है। मैंने कहा 'यह पानी अच्छा है, लेकिन आप जिस रूप में हैं, मुझे यह पानी पीने की जरूरत नहीं है। अगर सद्गुरु आपके घर आएं और पानी पीने से इनकार कर दें, तो एक दक्षिण भारतीय परिवार में यह कोई छोटी बात नहीं है।
 
          नाटक शुरू होने लगा। इसलिए मैंने उससे कहा इस पानी की एक घूंट आप पीजिए। उनको लगा कि मैं पानी की जांच के लिए उनको चखने को कह रहा हूं, उसने पी लिया और बोली यह अच्छा है। मैंने उनसे वह पानी लेकर बस एक मिनट तक उसे अपने हाथ में पकड़े रखा। फिर उनको दिया। 'अब इसे पीजिए। उन्होंने उसे पीया, उनके आंसू निकलने लगे और वह रोने लगीं 'अरे यह कितना अच्छा है! यह मीठा है। मैंने कहा, 'जीवन ऐसा ही है। अगर आप एक खास रूप में हैं, तो सब कुछ मीठा हो जाता है।
 
          अगर आप किसी दूसरे तरह से हैं, तो आपके जीवन में सब कुछ कटु हो जाएगा। अगर सिर्फ एक विचार या निगाह से, आप किसी बरतन के पानी को मीठा कर सकते हैं, तो सही तरह के नजरिए, एकाग्रता और ध्यान देने से क्या आप शरीर रूपी इस बरतन के जल को मिठास से नहीं भर सकते? अगर आप ऐसा कर पाएं, तो आप बहत्तर फीसदी मीठे हैं, क्योंकि आपके शरीर में लगभग इतनी ही पानी की मात्रा है।
 
 
2--कुंडलिनी जागरण योग खतरनाक भी हो सकता है
 
          सही विधि को अपनाएं योग के बारे में अगर आप थोड़ी-बहुत भी दिलचस्पी रखते होंगे तो कुंडलिनी योग के बारे में जरूर सुना होगा, संभव है कहीं से कुछ पढ़ा या सीखा भी हो, लेकिन सावधान, यह जितना लाभदायक है उतना ही खतरनाक भी। क्यों? आइये जानते हैं अगर आप कुंडलिनी को जाग्रत करना चाहते हैं तो आपको अपने शरीर, मन और भावना के स्तर पर जरूरी तैयारी करनी होगी, क्योंकि अगर आप बहुत ज्यादा वोल्ट की सप्लाई एक ऐसे सिस्टम में कर दें जो उसके लिए तैयार नहीं है तो सब कुछ जल जाएगा। सद्गुरु- आजकल बहुत सारी किताबें और योग-स्टूडियो या योग केंद्र कुंडलिनी योग और उसके लाभों के बारे में बात करते हैं। यह बात और है कि वे इसके बारे में जानते कुछ भी नहीं। यहां तक कि जब हम कुंडलिनी शब्द का उच्चारण भी करते हैं तो पहले अपने मन में एक तरह की श्रद्धा लाते हैं और तब उस शब्द का उच्चारण करते हैं, क्योंकि यह शब्द है ही इतना विशाल, इतना विस्तृत।
 
          अगर आप कुंडलिनी को जाग्रत करना चाहते हैं तो आपको अपने शरीर, मन और भावना के स्तर पर जरूरी तैयारी करनी होगी, क्योंकि अगर आप बहुत ज्यादा वोल्ट की सप्लाई एक ऐसे सिस्टम में कर दें जो उसके लिए तैयार नहीं है तो सब कुछ जल जाएगा। मेरे पास तमाम ऐसे लोग आए हैं जो अपनी शारीरिक क्षमताएं और दिमागी संतुलन खो बैठे हैं। इन लोगों ने बिना जरूरी तैयारी और मार्गदर्शन के ही कुंडलिनी योग करने की कोशिश की। अगर कुंडलिनी योग के लिए उपयुक्त माहौल नहीं है, तो कुंडलिनी जाग्रत करने की कोशिश बेहद खतरनाक और गैरजिम्मेदाराना हो सकती है।
 
          अगर आप इस ऊर्जा को हासिल करना चाहते हैं, जो कि एक जबर्दस्त शक्ति है, तो आपको स्थिर होना होगा। यह नाभिकीय ऊर्जा (न्यूक्लियर एनर्जी) के इस्तेमाल की तकनीक सीखने जैसा है। जापान की स्थिति को देखते हुए आजकल हर कोई परमाणु विज्ञान पर बहुत ध्यान दे रहा है, और उस के बारे में बहुत ज्यादा सीख रहा है। अगर आप रूसी अनुभव को भूल चुके हैं, तो जापानी आपको याद दिला रहे हैं। अगर आप इस ऊर्जा को हासिल करना चाहते हैं तो यह काम आपको बड़ी ही सावधानी से करना होगा।
 
          अगर आप सुनामी और भूकंप जैसी संभावनाओं से घिरे हैं, फिर भी आप न्यूक्लियर एनर्जी से खेल रहे हैं तो आप एक तरह से अपने लिए मुसीबत को ही निमंत्रण दे रहे हैं। कुंडलिनी के साथ भी ऐसा ही है। आज ज्यादातर लोग जिस तरह की जिंदगी जी रहे हैं, उसमें बहुत सारी चीजें, जैसे- भोजन, रिश्ते और तरह-तरह की गतिविधियां पूरी तरह से उनके नियंत्रण में नहीं हैं। उन्होंने कहीं किसी किताब में पढ़ लिया और कुंडलिनी जाग्रत करने की कोशिश करने लगे।
 
          इस तरह कुंडलिनी जाग्रत करना ठीक ऐसा है जैसे आप इंटरनेट पर पढकऱ अपने घर में न्यूक्लियर रिएक्टर बना रहे हों। न्यूक्लियर बम कैसे बनाया जाता है, वर्ष 2006 तक इसकी पूरी जानकारी इंटरनेट पर मौजूद थी। हमें नहीं पता कितने लोगों ने उसे डाउनलोड किया। बस सौभाग्य की बात यह रही कि इस बम को बनाने के लिए जिस पदार्थ की जरूरत होती है, वह लोगों की पहुंच से बाहर था। कुंडलिनी के साथ भी ऐसा ही है।
 
          बहुत सारे लोगों ने पढ़ लिया है कि कैसे कुंडलिनी जाग्रत करके आप चमत्कारिक काम कर सकते हैं। हो सकता है कि बुद्धि के स्तर पर उन्हें पता हो कि क्या करना है, लेकिन अनुभव के स्तर पर उन्हें कुछ नहीं पता। यह अच्छी बात है, क्योंकि अगर वे इस ऊर्जा को हासिल कर लेते हैं, तो वे इसे संभाल नहीं पाएंगे। यह उनके पूरे सिस्टम को पल भर में नष्ट कर देगी। न केवल उनका, बल्कि आसपास के लोगों का भी इससे जबर्दस्त नुकसान होगा। कहीं किसी किताब में पढ़ कर कुंडलिनी जाग्रत करना ठीक ऐसा है जैसे आप इंटरनेट पर पढकऱ अपने घर में न्यूक्लियर रिएक्टर बना रहे हों। इसका मतलब यह नहीं है कि कुंडलिनी योग के साथ कुछ गड़बड़ है।
 
          यह एक शानदार प्रक्रिया है लेकिन इसे सही ढंग से किया जाना चाहिए, क्योंकि ऊर्जा में अपना कोई विवेक नहीं होता। आप इससे अपना जीवन बना भी सकते हैं और मिटा भी सकते हैं। बिजली हमारे जीवन के लिए फायदेमंद हैं, लेकिन अगर आप उसे छूने की कोशिश करेंगे, तो आपको पता है कि क्या होगा। इसीलिए मैं आपको बता रहा हूं कि ऊर्जा में अपनी कोई सूझबूझ नहीं होती। आप जैसे इसका इस्तेमाल करेंगे, यह वैसी ही है। कुंडलिनी भी ऐसे ही है। आप इसका उपयोग अभी भी कर रहे हैं, लेकिन बहुत ही कम।
 
          अगर आप इसे बढ़ा दें तो आप अस्तित्व की सीमाओं से भी परे जा सकते हैं। सभी योग एक तरह से उसी ओर ले जाते हैं, लेकिन कुंडलिनी योग खासतौर से उधर ही ले जाता है। दरअसल पूरा जीवन ही उसी दिशा में जा रहा है। लोग जीवन को जिस तरह से अनुभव कर रहे हैं, उससे कहीं ज्यादा तीव्रता और गहराई से अनुभव करना चाहते हैं। कोई गाना चाहता है, कोई नाचना चाहता है, कोई शराब पीना चाहता है, कोई प्रार्थना करना चाहता है।
 
          वे लोग ये सब क्यों कर रहे हैं? वे जीवन को ज्यादा तीव्रता के साथ महसूस करना चाहते हैं। हर कोई असल में अपनी कुंडलिनी को जाग्रत करना चाहता है, लेकिन सभी इस काम को उटपटांग तरीके से कर रहे हैं। जब आप इसे सही ढंग से, सही मागदर्शन में, वैज्ञानिक तरीके से करते हैं तो हम इसे योग कहते हैं।
 
 
3--विचारों के जंजाल से कैसे मुक्त हों
 
             कैसे मुक्त हो अपने विचारों की आपाधापी से। हमारा जीवित होना या फिर अस्तित्व में होना, और हमारी सोचने की क्षमता ये दो अलग-अलग चीज़ें हैं। आइये अरस्तू और हेराक्लीटस की कहानी के द्वारा यह जानते हैं कि किस तरह हम अपनी विचारों में खो जाते हैं, और यह भूल जाते हैं कि हमारी मौजूदगी ही हमारे विचारों की बुनियाद है। किसी दार्शनिक का यह कथन है 'मैं सोच सकता हूं, इसीलिए मैं हूं। क्या यह वाकई सच है? आपका अस्तित्व है, सिर्फ इसलिए आप कोई विचार उत्पन्न कर पाते हैं।
 
          आप अपने विचार-प्रक्रिया के इतने गुलाम हो गए हैं कि आपका ध्यान अपने अस्तित्व से हटकर पूरी तरह सोच की ओर चला गया है। वह भी इस हद तक कि अब आप यह मानने लगे हैं कि आपका अस्तित्व ही आपकी सोच की वजह से है। मैं आपको बता दूं कि आपके मूर्खतापूर्ण विचारों के बिना भी आपका अस्तित्व हो सकता है। देखा जाए तो आप सोच ही क्या सकते हैं? बस वही बकवास जिसे आपने अपने दिमाग में इकठा कर रखा है और उसे ही बार-बार सोचते रहते हैं। आपके दिमाग में जो भी पहले से भरा हुआ है, उसके अलावा क्या आप कुछ और सोच सकते हैं? आप बस पुराने आंकड़ों को रिसाइकिल कर रहे हैं।
 
          अब यह रिसाइकलिंग ही इतनी अहम हो गई है कि लोग यह तक कहने की हिम्मत कर लेते हैं, 'मैं सोचता हूं, इसलिए मैं हूं। और यही दुनिया की जीवनशैली हो गई है। दरअसल आप हैं, आपका अस्तित्व है इसलिए आप सोच सकते हैं। अगर आप चाहें, तो आप पूरी तरह अपने अस्तित्व को बनाए रख सकते हैं और वह भी बिना सोचे। आपके जीवन के सबसे खूबसूरत पल आनंद के पल, खुशी के पल, परमानंद के पल, नितांत शांति के पल ऐसे पल थे, जब आप किसी चीज के बारे में सोच नहीं रहे थे। आप बस जी रहे थे।
 
          आप एक जीवित प्राणी होना चाहते हैं या विचारों में डूबा प्राणी? फिलहाल नब्बे फीसदी समय आप जीवन के बारे में सोचते हुए बिताते हैं, जीवन को जीते हुए नहीं। आप इस धरती पर जीवन का अनुभव करने आए हैं या जीवन के बारे में सोचने के लिए? आपकी मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया जीवन की प्रक्रिया के मुकाबले एक तुच्छ चीज है, मगर फिलहाल वह कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो गई है।
 
          हमें एक बार फिर से जीवन की प्रक्रिया को महत्व देने की जरूरत है। अरस्तु और हेराक्लीटस- अरस्तू को आधुनिक तर्क का जनक माना जाता है, उनका तर्क बहुत स्पष्ट और अजेय होता था। उनकी बौद्धिक प्रतिभा पर कोई सवाल नहीं है, मगर उन्होंने तर्क को जीवन के सभी पहलुओं तक ले जाने की कोशिश की। कई रूपों में वह अपाहिज या असमर्थ थे। उनके बारे में एक कहानी है। मुझे पता नहीं कि उसमें कितनी सच्चाई है, मगर वह सच सी लगती है। एक दिन, अरस्तू समुद्र तट पर टहल रहे थे।
 
          बहुत खूबसूरत सूर्यास्त हो रहा था, मगर उनके पास रोजाना होने वाली ऐसी छोटी-मोटी चीजों के लिए कोई समय नहीं था। वो गंभीरता से अस्तित्व की किसी बड़ी समस्या के बारे में सोच रहे थे। अरस्तू के लिए अस्तित्व एक समस्या थी, और उन्हें लगता था कि वह उस समस्या को सुलझा देंगे। गंभीरता से सोचते हुए, वह समुद्र तट पर आगे-पीछे टहल रहे थे। उसी तट पर एक और आदमी था जो बहुत गहनता से और लगन से कोई काम कर रहा था इतनी लगन से कि अरस्तू भी उसे अनदेखा नहीं कर पाए। आपको पता है, जो लोग अपनी बेकार की चीजों के बारे में बहुत ज्यादा सोचते हैं, वे अपने आस-पास के जीवन को अनदेखा कर देते हैं।
 
          ये ऐसे लोग होते हैं, जो दुनिया में किसी को देखकर मुस्कुराते नहीं, या किसी की ओर देखते तक नहीं। उनके पास किसी फूल, सूर्यास्त, किसी बच्चे या मुस्कुराते चेहरे की ओर देखने की निगाह नहीं होती या उन्हें किसी उदास चेहरे पर मुस्कुराहट लाने की इच्छा नहीं होती, उनके पास दुनिया में ऐसे कोई छोटे काम या छोटी जिम्मेदारियां नहीं होतीं। वे अपने आस-पास के सारे जीवन को अनदेखा कर देते हैं क्योंकि वे अस्तित्व की समस्याओं को सुलझाने में व्यस्त होते हैं। मगर अरस्तू इस आदमी को अनदेखा नहीं कर पाए।
 
          उन्होंने ध्यान से देखा कि वह क्या कर रहा था, वह आदमी बार-बार समुद्र के पास जा रहा था और वापस आ रहा था। अरस्तू रुके और उससे पूछा, 'अरे, तुम क्या कर रहे हो? वह आदमी बोला, 'मुझे परेशान न करो, मैं बहुत जरूरी काम कर रहा हूं, और वह फिर से वही करने लगा। अरस्तू और भी उत्सुक हो गए और उससे पूछा, 'तुम कर क्या रहे हो? वह आदमी बोला, 'मुझे परेशान मत करो, यह बहुत जरूरी चीज है। अरस्तू बोले, 'यह जरूरी चीज क्या है? उस आदमी ने एक छोटा सा छेद दिखाया, जो उसने रेत में बनाया था, और बोला, 'मैं इस छेद में समुद्र भर रहा हूं। उसके हाथ में एक चम्मच था। अरस्तू यह देखकर हंसने लगे।
 
          अरस्तू उस तरह के इंसान हैं, जो एक बार भी हंसे बिना पूरा साल बिता सकते हैं क्योंकि वह बुद्धिमान हैं। हंसने के लिए दिल चाहिए होता है। बुद्धि हंस नहीं सकती, वह सिर्फ चीड़-फाड़ कर सकती है। मगर इस बात पर अरस्तू भी हंसने लगे और कहा, 'क्या बेतुकी बात कर रहे हो! तुम निश्चित रूप से पागल हो। क्या तुम जानते हो कि यह समुद्र कितना विशाल है? तुम इस समुद्र को इस छोटे से छेद में कैसे भर सकते हो? और वह भी एक चम्मच से? कम से कम तुम्हारे पास एक बाल्टी होती, तो फिर भी कोई संभावना होती। कृपया यह कोशिश छोड़ दो, यह पागलपन है, मैं तुम्हें बता रहा हूं। उस आदमी ने अरस्तू की ओर देखा, चम्मच नीचे फेंक दिया और बोला, 'मेरा काम हो गया।
 
           अरस्तू बोले, 'तुम क्या कहना चाहते हो? समुद्र का खाली होना तो भूल जाओ, यह छेद तक नहीं भरा है। तुम कैसे कह सकते हो कि तुम्हारा काम हो गया? वह दूसरा आदमी था, हेराक्लीटस। हेराक्लीटस खड़े होकर बोले, 'मैं एक चम्मच से इस छेद में समुद्र को भरने की कोशिश कर रहा हूं। आप मुझे बता रहे हैं कि यह मूर्खता है, यह पागलपन है, इसलिए मैं यह काम छोड़ दूं। आप क्या करने की कोशिश कर रहे हैं? क्या आप जानते हैं कि यह अस्तित्व कितना विशाल है? इसमें ऐसे एक अरबों-खरबों समुद्र समा सकते हैं और आप उसे छोटे से छिद्र में, अपने सिर में भरने की कोशिश कर रहे हैं, और वह भी किससे? विचारों के चम्मच से। कृपया यह काम छोड़ दीजिए। यह नितांत मूर्खता है।
 
             अगर आप जीवन के विभिन्न आयामों का अनुभव करना चाहते हैं, तो आप अपने तुच्छ विचारों से उन्हें कभी नहीं जान पाएंगे। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप कितना अच्छा सोच सकते हैं, मानव विचार फिर भी तुच्छ होते हैं। चाहे आपके अंदर आइंस्टीन का दिमाग काम कर रहा हो, वह फिर भी तुच्छ है क्योंकि विचार कभी जीवन से बड़े नहीं हो सकते। विचार सिर्फ तार्किक हो सकते हैं, जो दो पक्षों के बीच काम करते हैं। अगर आप जीवन को उसकी विशालता में जानना चाहते हैं, तो आपको अपने विचारों से कुछ ज्यादा, अपने तर्क से कुछ ज्यादा, अपनी बुद्धि से कुछ ज्यादा की जरूरत होगी।
 
          आपके पास विकल्प है कि या तो आप सृष्टि के साथ रहना सीख जाइए या अपने दिमाग में अपनी बेकार की कल्पनाएं रचते रहिए। आप कौन सा विकल्प आजमाना चाहते हैं? अभी ज्यादातर लोग विचारों में रहते हैं, विचार ऐसी चीज है जो अस्तित्व में नहीं, आपके मन में घटित होते हैं। इसलिए वे असुरक्षित होते हैं क्योंकि वह किसी भी पल ढह सकते हैं। पृथ्वी समय से घूम रही है। कोई छोटी सी भी गड़बड़ नहीं होती। सारे तारामंडल बहुत बढिय़ा तरीके से काम कर रहे हैं, पूरा ब्रह्मांड अच्छी तरह काम कर रहा है। मगर आपके दिमाग में एक छोटे से बुरे विचार का कीड़ा रेंगता है, और आपका दिन खराब हो जाता है।
 
          आपको अपनी मर्जी से कुछ भी सोचने की आजादी है। आप सिर्फ सुखद चीजों के बारे में ही क्यों नहीं सोचते? समस्या बस यही है यह कुछ ऐसा है जैसे आपके पास एक कंप्यूटर तो है, लेकिन उसका की-पैड ढूंढने की आपने कभी परवाह नहीं की। अगर आपके पास कीपैड होता, तो आप उस पर सही शब्द टाइप कर सकते थे। लेकिन आपके पास की-पैड नहीं है और आप अपने कंप्यूटर को किसी असभ्य मनुष्य की तरह धुन रहे हैं, इसलिए उससे सारे गलत शब्द टाइप हो रहे हैं।
 
          अपने कंप्यूटर के साथ यह चीज आजमाएं, नतीजे में आपको बेहूदगी नजर आएगी। आप जीवन का अपना नजरिया, जीवन की दृष्टि खो बैठे हैं क्योंकि आप जो हैं, उससे ज्यादा खुद को समझते हैं। अगर ब्रह्मांड के मुकाबले खुद को देखें, तो आप धूल के एक कण से भी छोटे हैं, मगर आपके ख्याल से आपके विचारों जो आपके अंदर एक कण से भी छोटे हैं को अस्तित्व की प्रकृति तय करनी चाहिए।
 
          मैं जो सोचता हूं और आप जो सोचते हैं, वह कोई अहमियत नहीं रखता। अस्तित्व की भव्यता सबसे महत्वपूर्ण है, वही एकमात्र हकीकत है। आपने 'बुद्ध शब्द के बारे में सुना होगा। जो अपनी बुद्धि से ऊपर उठ गया है, या जो अपने जीवन के पक्षपाती और तार्किक आयाम से ऊपर उठ गया है, वह बुद्ध है। इंसानों ने कष्ट सहने के लाखों तरीके बना लिए हैं। इन सब कष्टों का कारखाना आपके दिमाग में ही है।
 
          जब आप अपने मन से ऊपर उठ जाते हैं, तो यह कष्ट का अंत होता है। जब कष्ट का कोई भय नहीं होता, तो पूर्ण आजादी होती है। जब ऐसा होता है, तभी इंसान अपने जीवन का अनुभव अपनी सीमाओं से ऊपर उठ कर कर सकता है। इसलिए बुद्ध बनने का मतलब है कि आप अपनी ही बुद्धि के एक साक्षी बन गए हैं। योग और ध्यान का मूल तत्व सिर्फ यही है एक बार जब आपके और आपके मन के बीच एक स्पष्ट अंतर आ जाता है, तो आप अस्तित्व के एक बिल्कुल अलग आयाम का अनुभव करते हैं।
 
          आप यह सरल अभ्यास आजमा सकते हैं। अपने नल या किसी भी ऐसी मशीन को इस तरीके से लगाएं कि प्रति मिनट केवल पांच से दस बूंदें गिरे। हर बूंद को ध्यान से देखें वह कैसे बनती है, कैसे गिरती है, कैसे जमीन पर बिखर जाती है। इसे हर दिन पंद्रह से बीस मिनट तक करें। आप अचानक अपने आस-पास और अपने अंदर बहुत सी चीजों के प्रति चेतन हो जाएंगे जिन पर फिलहाल आपका ध्यान बिल्कुल भी नहीं है।
 
 
4-सिर पर चन्द्र और गले में सांप क्यों हैं शिव के
 
            सद्गुरु हर तस्वीर में, हर मूर्ति में, हर जगह शिव के सिर पर चंद्रमा और गले में सांप दिखाया जाता है। क्या है आखिर शिव का इनसे संबंध ? आइए जानते हैं - चंद्रमा शिव के कई नाम हैं। उनमें एक काफी प्रचलित नाम है सोम या सोमसुंदर। वैसे तो सोम का मतलब चंद्रमा होता है मगर सोम का असली अर्थ नशा होता है।
 
          नशा सिर्फ बाहरी पदार्थों से ही नहीं होता, बल्कि केवल अपने भीतर चल रही जीवन की प्रक्रिया में भी आप मदमस्त रह सकते हैं। अगर आपका विशुद्धि चक्र शक्तिशाली हो जाता है, तो आपके अंदर शरीर में प्रवेश करने वाली हर चीज को छानने या शुद्ध करने की काबिलियत आ जाती है। शिव का केंद्र विशुद्धि चक्र में है। उन्हें विषकंठ या नीलकंठ भी कहा जाता है क्योंकि वह सारे जहर को छान लेते हैं।
 
          अगर आप जीवन के नशे में नहीं डूबे हैं, तो सिर्फ सुबह का उठना, अपने शरीर की जरूरतों को पूरा करना, खाना-पीना, रोजी-रोटी कमाना, आस-पास फैले दुश्मनों से खुद को बचाना और फिर हर रात सोने जाना, जैसी दैनिक क्रियाएं आपकी जिंदगी कष्टदायक बना सकती हैं। अभी ज्यादातर लोगों के साथ यही हो रहा है। जीवन की सरल प्रक्रिया उनके लिए नर्क बन गई है।
 
          ऐसा सिर्फ इसलिए है क्योंकि वे जीवन का नशा किए बिना उसे बस जीने की कोशिश कर रहे हैं। चंद्रमा को सोम कहा गया है, यानि नशे का स्रोत। अगर आप किसी चांदनी रात में किसी ऐसी जगह गए हों जहां बिजली की रोशनी नही हो, या आपने बस चंद्रमा की रोशनी की ओर ध्यान से देखा हो, तो धीरे-धीरे आपको सुरूर चढऩे लगता है।
 
          क्या आपने इस बात पर ध्यान दिया है? हम चंद्रमा की रोशनी के बिना भी ऐसा कर सकते हैं मगर चांदनी से ऐसा बहुत आसानी से हो जाता है। अपने इसी गुण के कारण चंद्रमा को नशे का स्रोत माना गया है। शिव चंद्रमा को एक आभूषण की तरह पहनते हैं क्योंकि वह एक महान योगी हैं जो हर समय नशे में चूर रहते हैं। फिर भी वह बहुत ही सजग होकर बैठते हैं। नशे का आनंद उठाने के लिए आपको सचेत होना ही चाहिए।
 
          जब आप शराब पीते हैं, तब भी आप सजग रहकर उस नशे का मजा लेने की कोशिश करते हैं। योगी ऐसे ही होते हैं पूरी तरह नशे में चूर मगर बिल्कुल सजग। योग का विज्ञान आपको हर समय अपने अंदर नशे में चूर रहने का आनंद देता है। योगी आनंद के खिलाफ नहीं होते। बस वे थोड़े से आनंद से या सिर्फ सुख से संतुष्ट नहीं होना चाहते। वे लालची होते हैं। सांप शिव के गले के चारों ओर लिपटा रहता है।
 
          यह सिर्फ एक प्रतीक नहीं है। इसके पीछे एक पूरा विज्ञान है। ऊर्जा शरीर में 114 चक्र होते हैं। आप उन्हें 114 संधि स्थलों या नाडिय़ों के संगम के रूप में देख सकते हैं।वे जानते हैं कि अगर आप एक गिलास शराब पीते हैं तो उससे आपको थोड़ा सा सुरूर होगा जो अगली सुबह सिरदर्द में बदल जाएगा। योगी ऐसा नहीं चाहते। योग के साथ, वे हर समय पूरी तरह नशे में चूर रहते हुए भी सौ फीसदी स्थिर और सचेत रह सकते हैं। कुछ पीकर या किसी भी नशे से ऐसा नहीं किया जा सकता। ऐसा तभी हो सकता है अगर आप खुद अपना नशा तैयार कर रहे हों और उसे पी रहे हों।
 
          प्रकृति ने आपको यह संभावना दी है। पिछले कुछ दशकों में खूब सारा शोध हुआ है और एक वैज्ञानिक ने यह पाया कि मानव मस्तिष्क में लाखों कैनाबिस रिसेप्टर हैं। अगर आप बस अपने शरीर को एक खास तरीके से रखें, तो शरीर अपना नशा खुद पैदा कर सकता है और मस्तिष्क उसे पाने का इंतजार करता है। मानव शरीर अपना नशा खुद पैदा करता है, इसीलिए बिना किसी बाहरी उत्तेजना के ही शांति, आनंद और खुशी की भावनाएं आपके अंदर पैदा हो सकती हैं।
 
          जब उस वैज्ञानिक ने इस रसायन को एक सटीक नाम देना चाहा, तो उसने दुनिया भर के बहुत से ग्रंथ पढ़े। मगर कोई शब्द उसे संतुष्ट नहीं कर पाया। फिर वह भारत आया, जहां उसे 'आनंद शब्द मिला। उसने उस रसायन को 'आनंदामाइड नाम दिया। अगर आप अपने शरीर में पर्याप्त मात्रा में आनंदामाइड पैदा करते हैं, तो आप हर समय नशे में डूबे रहकर भी पूरी तरह जागरूक, पूरी तरह सचेत रह सकते हैं। सर्प योग संस्कृति में, सर्प यानी सांप कुंडलिनी का प्रतीक है। यह आपके भीतर की वह उर्जा है जो फिलहाल इस्तेमाल नहीं हो रही है।
 
          कुंडलिनी का स्वभाव ऐसा होता है कि जब वह स्थिर होती है, तो आपको पता भी नहीं चलता कि उसका कोई अस्तित्व है। केवल जब उसमें हलचल होती है, तभी आपको महसूस होता है कि आपके अंदर इतनी शक्ति है। जब तक वह अपनी जगह से हिलती-डुलती नहीं, उसका अस्तित्व लगभग नहीं के बराबर होता है। अपने इसी गुण के कारण चंद्रमा को नशे का स्रोत माना गया है।
 
          शिव चंद्रमा को एक आभूषण की तरह पहनते हैं क्योंकि वह एक महान योगी हैं जो हर समय नशे में चूर रहते हैं। फिर भी वह बहुत ही सजग होकर बैठते हैं।इस कारण सांप को कुंडलिनी के प्रतीक के रूप में देखा जाता है, क्योंकि कुंडली मारे सांप को भी देखना बहुत मुश्किल होता है, जब तक कि वह आगे नहीं बढ़ता। इसी तरह, आप कुंडलिनी में कैद इस ऊर्जा को सिर्फ तब देख पाते हैं जब वह हिलती-डुलती है।
 
          अगर आपकी कुंडलिनी जाग्रत हो जाती है, तो आपके साथ अविश्वसनीय और चमत्कारी चीजें हो सकती हैं। एक बिल्कुल नई किस्म की ऊर्जा आपके अंदर भरने लगती है और आपके शरीर के साथ-साथ सब कुछ बिल्कुल अलग तरीके से काम करने लगता है। शिव के साथ सांप को दिखाने की यही वजह है। यह दर्शाता है कि उनकी ऊर्जा शिखर तक पहुंच चुकी है। आध्यात्मिकता या रहस्यवाद को सांपों से अलग नहीं किया जा सकता क्योंकि इस जीव में बोध का एक खास आयाम विकसित है। यह एक रेंगने वाला जीव है, जिसे जमीन पर रेंगना चाहिए मगर शिव ने उसे अपने सिर पर धारण किया है। इससे यह पता चलता है कि वह उनसे भी ऊपर है। यह दर्शाता है कि कुछ रूपों में सांप शिव से भी बेहतर हैं।
 
          सांप ऐसा जानवर है जो आपके सहज रहने पर आपके साथ बहुत आराम से रहता है। वह आपको कुछ नहीं करेगा। वह कुछ खास ऊर्जाओं के प्रति बहुत संवेदनशील भी होता है। सांप शिव के गले के चारों ओर लिपटा रहता है। यह सिर्फ एक प्रतीक नहीं है। इसके पीछे एक पूरा विज्ञान है। ऊर्जा शरीर में 114 चक्र होते हैं। आप उन्हें 114 संधि स्थलों या नाडिय़ों के संगम के रूप में देख सकते हैं।
 
          इन 114 में से आम तौर पर शरीर के सात मूल चक्रों के बारे में बात की जाती है। इन सात मूल चक्रों में से, विशुद्धि चक्र आपके गले के गड्ढे में मौजूद होता है। यह खास चक्र सांप के साथ बहुत मजबूती से जुड़ा होता है। विशुद्धि जहर को रोकता है, और सांप में जहर होता है। ये सभी चीजें आपस में जुड़ी हुई हैं। विशुद्धि शब्द का अर्थ है फिल्टर या छलनी। अगर आपका विशुद्धि चक्र शक्तिशाली हो जाता है, तो आपके अंदर शरीर में प्रवेश करने वाली हर चीज को छानने या शुद्ध करने की काबिलियत आ जाती है।
 
          शिव का केंद्र विशुद्धि चक्र में है। उन्हें विषकंठ या नीलकंठ भी कहा जाता है क्योंकि वह सारे जहर को छान लेते हैं। वह उसे अपने शरीर में प्रवेश नहीं करने देते। जहर आपके अंदर सिर्फ भोजन के द्वारा ही नहीं जाता। वह कई तरीकों से आपके अंदर घुस सकता है एक गलत विचार, एक गलत भावना, एक गलत कल्पना, एक गलत ऊर्जा या एक गलत आवेग आपके जीवन में जहर घोल सकता है।
 
          अगर आपका विशुद्धि चक्र सक्रिय है, तो वह सभी कुछ छान देता है। वह आपको इन सभी असरों से बचाता है। दूसरे शब्दों में, विशुद्धि के बहुत सक्रिय हो जाने पर इंसान अपने अंदर इतना शक्तिशाली हो जाता है कि उसके आस-पास जो भी होता है, वह उस पर असर नहीं डालता। वह अपने अंदर स्थिर हो जाता है। वह बहुत शक्तिशाली प्राणी बन जाता है।
 
 
5 का जरा भी अनुभव कर लेते हैं तो अचानक आप पाएंगे कि आपका शरीर, मन, हर चीज जबरदस्त उल्लास से उत्तेजित हो उठेगा। कुल मिलाकर जीवन बिल्कुल अलग तरह का ही होगा। अगर किसी व्यक्ति को स्थिर होना है तो उसे अपने मन को कम से कम अहमियत देनी होगी। यह संपूर्ण अस्तित्व अपने आप में एक जीवंत मन, एक जीवंत दीमाग है। जब इतना विशालकाय दिमाग सक्रिय होकर काम पर लगा है तो फिर अपने इस छुद्र दिमाग को एक किनारे रख दीजिए।
 
          अगर आप उस ब्रम्हांडीय दिमाग को नहीं देख सकते तो फिर यह देखने की कोशिश कीजिए कि किसी और का दिमाग जो आपसे परे है, आपके लिए काम कर रहा है। लेकिन आज के दौर में इसे लोग गुलामी कहेंगे। आज आध्यात्मिक प्रक्रिया पंगु हो गई है। आज हम बहुत कुछ नहीं कर सकते, लेकिन फिर भी हमसे उम्मीद की जाती है कि हम लोगों को ज्ञान की प्राप्ति करा दें, आत्म-बोध करा दें। यह कुछ ऐसा ही है कि हमसे कहा जाए कि कार के टायर निकाल दो, और फिर भी उम्मीद की जाए कि उसे हम बहुत दूर तक चला कर ले जाएं। आध्यात्मिक गुरु हमेशा ही चीजों को करने के आसान तरीके तलाशते रहते हैं।
 
          आज अगर लंच के समय आप यह तय करते हैं कि आप अपने कान से नूडल्स खाएंगे तो हो सकता है कि मैं आपसे कहूं कि आप अपनी नाक से इन्हें खाने की कोशिश कीजिए, उस स्थिति में खाना कम से कम आपके गले में तो जाएगा। आप चाहें तो सूप से कोशिश कर सकते हैं। यह अपेक्षाकृत आसान रहेगा, फिर भी नाक से पीने में आपको काफी दिक्कत आएगी।
 
            यह संपूर्ण अस्तित्व अपने आप में एक जीवंत मन, एक जीवंत दीमाग है। जब इतना विशालकाय दिमाग सक्रिय होकर काम पर लगा है तो फिर अपने इस छुद्र दिमाग को एक किनारे रख दीजिए। इसके बदले अगर आप मुंह खोल कर खाएं तो वही नूडल्स अपने आप में एक आनंद की चीज होगा।
 
          आध्यात्मिक प्रक्रिया भी ऐसी ही है। फिलहाल आपकी हालत भी कुछ ऐसी है- 'मैं यह नहीं कर सकता, मैं वह नहीं कर सकता, लेकिन मुझे आध्यात्मिक प्रक्रिया के बारे में बताइए। इसलिए हम आपके आंख, नाक, कान के जरिए आपको इसे देने की कोशिश कर रहे हैं, यह प्रक्रिया मुश्किल तो है, लेकिन क्या करें? हमें विश्वास है कि अगर हम आपकी नाक के जरिए जबरदस्ती आपको खाना खिलाते रहेंगे तो एक दिन आप अपना मुंह खोल देंगे। और ऐसा आप कुछ सिखाने की वजह से नहीं करेंगे, महज अपने बोध से आप ऐसा कर देंगे। हम उस दिन का इंतजार कर रहे हैं, जिस दिन आप अपना मुंह खोलेंगे।
 
          एक गुरु होना सचमुच कितना हास्यास्पद और बेतुका है! सम्यमा वह अवस्था है, जहां आप पूरी तरह से जागरूक हो जाते हैं कि आप न तो शरीर हैं, न विचार और न ही यह संसार हैं। अगर आप इन तीनों चीजों से मुक्त हो गए तो फिर आपके लिए कष्ट का कोई कारण ही नहीं होगा। सम्यमा का मकसद ही यही है कि व्यक्ति शरीर और मन के कोलाहल व उथलपुथल से दूर होकर अपने भीतर परम निश्चलता व स्थिरता को पा ले।
 
          दुनियाभर के 670 जिज्ञासु, जो इस अवस्था को पाने के लिए बेचैन हैं, ईशा योग केंद्र में इकठ्ठे हुए हैं। वे सब बहुत अ'छा कर रहे हैं। शुरु के कुछ दिनों में उन्हें अपनी शारीरिक सीमाओं के चलते संघर्ष करना पड़ा, लेकिन अब वे बड़ी खूबसूरती और सहजता के साथ स्थिरता की तरफ बढ़ गए हैं। मेरी कामना है कि आप भी सम्यमा की निश्चलता और स्थिरता को महसूस कर सकें।
 
 
6-कृष्ण का ब्रहमचर्य होना एक विरोधाभास
 
          कई लोगों के मन में यह सवाल उठता है कि गोपियों के साथ रास लीला करने के बाद भी कृष्ण को एक ब्रह्मचारी के रूप में क्यों जाना जाता है। क्या यह दोनों बातें आपस में विरोधी हैं? ब्रह्मचर्य शब्द के क्या मायने हैं..?
 
        प्रश्न- सद्गुरु, अक्सर यह सवाल उठता है कि जब कृष्ण इतनी सारी गोपियों के साथ रासलीला करते थे, तो उनके ब्रह्मचर्य पालन करने का क्या मतलब है ?
 
           इस बारे में हमें समझाएं। सद्गुरु- कृष्ण हमेशा से ब्रह्मचारी थे। ब्रह्मचर्य का अर्थ होता है ब्रह्म या ईश्वर के रास्ते पर चलना। भले ही आप किसी भी संस्कृति या धर्म से ताल्लुक रखते हों, आपको हमेशा यही बताया गया, और आपका विवेक भी आपको यही बताता है, कि अगर ईश्वरीय-सत्ता जैसा कुछ है तो या तो यह सर्वव्यापी है या फिर वह है ही नहीं।
 
          ब्रह्मचर्य का अर्थ है सबको अपने भीतर समाहित करने का रास्ता। आप मैं और तुम में कोई फर्क नहीं करना चाहते। अगर आप किसी को दूसरा इंसान की तरह देखते हैं, तो यह अंतर साफ जाहिर होता है। शारीरिक संबंधों के मामले में मैं और तुम का फर्क बहुत गहराई से जाहिर होता है। इसी वजह से एक ब्रह्मचारी खुद को उससे दूर रखता है।आप अभी इस अवस्था तक नहीं पहुंचे हैं, और आप वहां पहुंचना चाहते हैं, तो सही मायने में आप ब्रह्मचर्य का पालन कर रहे हैं। यह भी मैं हूं, वह भी मैं। न कि यह मैं और वह तुम। आप मैं और तुम में कोई फर्क नहीं करना चाहते। अगर आप किसी को 'दूसरा इंसान की तरह देखते हैं, तो यह अंतर साफ जाहिर होता है। शारीरिक संबंधों के मामले में मैं और तुम का फर्क बहुत गहराई से जाहिर होता है। इसी वजह से एक ब्रह्मचारी खुद को उससे दूर रखता है, क्योंकि वह अपने अंदर ही सबको शामिल कर लेना चाहता है।
 
           कृष्ण में शुरू से ही सब कुछ अपने भीतर समाहित कर लेने का गुण था। बालपन में अपनी मां को जब यह दिखाने के लिए उन्होंने मुंह खोला था कि वह मिट्टी नहीं खा रहे हैं (उनकी मां ने उनके मुंह में सारा ब्रह्मांड देखा था) उस समय भी उन्होंने अपने अंदर सब कुछ समाया हुआ था। जब वे गोपियों के साथ नाचते थे, तब भी सब कुछ उनमें ही समाहित था। उनकी और उन गोपियों की यौवनावस्था के कारण कुछ चीजें हुईं, लेकिन उन्होंने इसे कभी अपने सुख के लिए इस्तेमाल नहीं किया। और न ही ऐसे ख्याल उनके मन में कभी आए। उन्होंने कहा भी है, मैं हमेशा से ही ब्रह्मचारी हूं और हमेशा सदमार्ग पर ही चला हूं। अब मैंने बस एक औपचारिक कदम उठाया है। अब कुछ भी मुझसे अलग नहीं है। बस परिस्थितियां बदली है।
 
          कृष्ण स्त्रियों के बड़े रसिक थे, इसे लेकर उनके बारे में कई कहानियां प्रचलित हैं, लेकिन यह सब तब हुआ जब वे सोलह साल से छोटे थे। सोलह साल का होने के बाद वे पूर्ण अनुशासित जीवन जीने लगे। वह जहां भी जाते, स्त्रियां उनके लिए पागल हो उठती थीं, लेकिन उन्होंने कभी भी अपने सुख के लिए किसी स्त्री का फायदा नहीं उठाया, एक बार भी नहीं। इसी को ब्रह्मचारी कहते हैं।
 
 
7- रंगों की अपनी आवाज होती है जरा सुनें तो
 
          नीला रंग किसी इंसान में आने वाले आध्यात्मिक रूपांतरण के दौरान उसका आभामंडल, या उसके आस-पास मौजूद जीवन-ऊर्जा का घेरा, अलग-अलग रंग धारण कर सकता है। ऐसी बातों के प्रति संवेदनशील लोग जब करीब दो दशक पहले मुझे देखते थे तो हमेशा कहते थे कि मुझे देखने से उन्हें नारंगी या गहरे गुलाबी रंग का अहसास होता है। लेकिन इन दिनों लोग हमेशा मेरे नीले होने की बात करते हैं।
 
          आप देवी मंदिर में जाइए, वह आपको एक जबर्दस्त झटका देती हैं। आप इससे चूक नहीं सकते, क्योंकि वह बेहद जोशपूर्ण हैं। इसी वजह से वह लाल हैं। ये दो अलग-अलग पहलू हैं जिसे कोई इंसान अपनी इच्छा से धारण कर सकता है। अगर हम अपनी साधना में आज्ञा-चक्र को बहुत महत्वपूर्ण बना लेते हैं, तो नारंगी रंग प्रबल होगा। नारंगी रंग त्याग, संयम, तपस्या, साधुत्व और क्रिया का रंग है।
 
         और नीला रंग सबको समाहित करके चलने का रंग है। आप देखेंगे कि इस जगत में जो कोई भी चीज बेहद विशाल और आपकी समझ से परे है, उसका रंग आमतौर पर नीला है, चाहे वह आकाश हो या समुंदर। जो कुछ भी आपकी समझ से बड़ा है, वह नीला होगा, क्योंकि नीला रंग सब को शामिल करने का आधार है। आपको पता ही है कि कृष्ण के शरीर का रंग नीला माना जाता है। इस नीलेपन का मतलब जरूरी नहीं है कि उनकी त्वचा का रंग नीला था। हो सकता है, वे श्याम रंग के हों, लेकिन जो लोग जागरूक थे, उन्होंने उनकी ऊर्जा के नीलेपन को देखा और उनका वर्णन नीले वर्ण वाले के तौर पर किया। कृष्ण की प्रकृति के बारे में की गई सभी व्याख्याओं में नीला रंग आम है, क्योंकि सभी को साथ लेकर चलना उनका एक ऐसा गुण था, जिससे कोई भी इनकार नहीं कर सकता। वह कौन थे, वह क्या थे, इस बात को लेकर तमाम विवाद हैं, लेकिन इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि उनका स्वभाव सभी को साथ लेकर चलने वाला था।
 
          श्वेत रंग -- सफेद यानी श्वेत दरअसल कोई रंग ही नहीं है। कह सकते हैं कि अगर कोई रंग नहीं है तो वह श्वेत है। लेकिन साथ ही श्वेत रंग में सभी रंग होते हैं। सफेद प्रकाश को देखिए, उसमें सभी सात रंग होते हैं। आप सफेद रंग को अपवर्तन (रिफ्रैक्षन) द्वारा सात रंगों में अलग-अलग कर सकते हैं। कहने का अर्थ यह है कि श्वेत में सबकुछ समाहित है। जब आप आध्यात्मिक पथ पर आगे बढ़ते हैं और कुछ खास तरह से जीवन के संपर्क में आते हैं, तो सफेद वस्त्र पहनना सबसे अच्छा होता है। अपने माता-पिता से, दादा- दादी से, अपने पूर्वजों से, यहां तक कि बंदरों से भी आपने भरपूर कर्म बटोर लिए हैं। तब से लेकर अब तक आपको एक पूरी कार्मिक विरासत मिली है। अगर आप आध्यात्मिक पथ पर आगे बढ़ रहे हैं तो आप दुनिया में कम से कम बटोरना चाहते हैं। आप हर उस चीज को बस विसर्जित करने की सोचते हैं, जो अब तक आप ढोते आ रहे हैं। इस काम में श्वेत रंग आपकी मदद करता है। ऐसा नहीं है कि अगर आप सफेद कपड़े पहनना शुरू कर दें तो आपके सभी कर्म विसर्जित हो जाएंगे। लेकिन हां सफेद रंग आपकी मदद अवश्य करता है, क्योंकि इसमें परावर्तन की क्षमता यानी सब कुछ लौटा देने की खूबी होती है, न सिर्फ रंग के मामले में बल्कि गुणों के मामले में भी। आप श्वेत रंग इसलिए पहनते हैं, क्योंकि आप अपने आसपास से कुछ भी इकठा करना नहीं चाहते। आप इस दुनिया से निर्लिप्त होकर निकल जाना चाहते हैं। सफेद रंग सब कुछ बाहर की ओर बिखेरता है, कुछ भी पकडकऱ नहीं रखता है। ऐसे बन कर रहना अच्छी बात है। पहनावे के मामले में या आराम के मामले में, आप पाएंगे कि अगर एक बार आप सफेद कपड़े पहनने के आदी हो गए, तो दूसरे रंग के कपड़े पहनने पर आपकों कहीं न कहीं अंतर पता चल ही जाएगा। तो जो लोग आध्यात्मिक पथ पर हैं और जीवन के तमाम दूसरे पहलुओं में भी उलझे हैं, वे अपने आसपास से कुछ बटोरना नहीं चाहते। वे जीवन में हिस्सा लेना चाहते हैं, लेकिन कुछ भी इकठा करना नहीं चाहते। ऐसे लोग सफेद कपड़े पहनना पसंद करेंगे।
 
          लाल रंग- अगर आप किसी जंगल से गुजर रहे हैं, तो वहां सब कुछ हरे रंग का होता है, लेकिन वहां लाल रंग भी कहीं दिखाई दे जाता है। अगर कहीं कोई लाल रंग का फूल खिल रहा होगा, तो वह आपका ध्यान अपनी ओर खींचेगा, क्योंकि आपके अनुभव में लाल रंग सबसे चमकीला होता है। बाकी के रंग खूबसूरत हो सकते हैं, अच्छे हो सकते हैं, लेकिन सबसे ज्यादा चमकीला लाल रंग ही है। नीला रंग सबको समाहित करके चलने का रंग है। आप देखेंगे कि इस जगत में जो कोई भी चीज बेहद विशाल और आपकी समझ से परे है, उसका रंग आमतौर पर नीला है, चाहे वह आकाश हो या समुंदर। इसीलिए जब हम फूल का नाम लेते हैं तो ज्यादातर लोगों के दिमाग में जो सबसे पहले रंग आता है, वह है लाल रंग। दरअसल लाल फूल ही असली फूल होता है। बहुत सी चीजें जो आपके लिए महत्वपूर्ण होती हैं, वे लाल ही होती हैं। रक्त का रंग लाल होता है। उगते सूरज का रंग भी लाल होता है। मानवीय चेतना में सबसे अधिक कंपन लाल रंग ही पैदा करता है। जोश और उल्लास का रंग लाल ही है। आप कैसे भी व्यक्ति हों, लेकिन अगर आप लाल कपड़े पहनकर आते हैं तो लोगों को यही लगेगा कि आप जोश से भरपूर हैं, भले ही आप हकीकत में ऐसे न हों। इस तरह लाल रंग के कपड़े आपको अचानक जोशीला बना देते हैं। देवी (चैतन्य का नारी स्वरूप) इसी जोश और उल्लास की प्रतीक हैं। उनकी ऊर्जा में भरपूर कंपन और उल्लास होता है। आप देवी मंदिर में जाइए, वह आपको एक जबर्दस्त झटका देती हैं। आप इससे चूक नहीं सकते, क्योंकि वह बेहद जोशपूर्ण हैं। इसी वजह से वह लाल हैं। देवी से संबंधित कुछ खास किस्म की साधना करने के लिए लाल रंग की जरूरत होती है।
 
 
8-हमारा शरीर परमानन्द की सीढी और मन चमत्कार है
 
          जी हां, यह मानव शरीर एक ऐसा तोहफा है आपके लिए जिसे आप चाहें तो स्वर्ग की सीढ़ी बना लें या अपने लिए परेशानियों का द्वार। और हमारा मन एक कमाल का यंत्र है, बस यह समझिए कि सुप्रीम कंप्यूटर। लेकिन अफसोस कि हम इसको समझने और इसका इस्तेमाल सीखने के लिए उतना समय भी नहीं देते जितना एक मामूली कंप्यूटर को सीखने में देते हैं। यही वजह है कि हम इस बेमिसाल यंत्र के पूरे और सही इस्तेमाल से चूक जाते हैं।
 
          इस मानव-प्रणाली को साधारण न समझें, आप इससे ऐसी चीजें कर सकते हैं, जिनके संभव होने की आपने कभी कल्पना नहीं की होगी। एक खास तरह की जीवन-शैली अपना कर आप इस शरीर को एक ऐसा साधन बना सकते हैं, जो ब्रह्मांड की धुरी बन जाता है। दुर्भाग्य से हमारे समाज में ज्यादातर लोगों ने दिमाग को इस्तेमाल करने का तरीका ठीक ढंग से सीखने में भरपूर समय नहीं दिया, इसीलिए वे झंझटों में उलझे रहते हैं। योग में, हम मानव रीढ़ को 'मेरुदंड कहते हैं, जिसका अर्थ होता है- ब्रह्मांड की धुरी।
 
          शारीरिक विकास की प्रक्रिया में, पशुओं के बिना रीढ़ का होने से रीढ़वाले होने तक का विकास एक बड़ी उछाल थी। उसके बाद उसके पशुओं जैसी रीढ़ से लंबवत या सीधी रीढ़ तक का जो विकास हुआ वो मनुष्य के दिमाग के विकास से भी बड़ा कदम था। वैज्ञानिक रूप से यह सिद्ध हो चुका है कि रीढ़ के सीधे होने के बाद ही मस्तिष्क का विकास शुरू हुआ। इसीलिए योग में मेरुदंड को इतना महत्व दिया जाता है।
 
          योगी एक ऐसा व्यक्ति होता है जो अपने शरीर को रूपांतरित करके उसे स्वर्ग की सीढ़ी बना लेता है। इसके लिए रीढ़ पर थोड़ा अधिकार होना जरूरी हो जाता है। पारंपरिक रूप से कहा जाता है कि स्वर्ग की तैंतीस सीढिय़ां होती हैं। ऐसा शायद इसीलिए कहा जाता है क्योंकि आपकी रीढ़ में तैंतीस हड्डियां हैं। यह रीढ़ कष्टदायक भी हो सकती है या इसे उस सीढ़ी का रूप दिया जा सकता है, जिस पर चढकऱ आप अपने भीतर चेतना, आनंद और परमानंद के उच्चतम स्तर पर पहुंच सकें। मानव स्वभाव कोई संघर्ष नहीं है, लोग इसे संघर्ष बना रहे हैं।
 
          आपको एक शानदार तंत्र से नवाजा गया है जिसे दिमाग कहते हैं। इस दिमाग को विकसित होने में करोड़ों साल का समय लग गया। करोड़ों साल तक 'आर एंड डी (शोध और विकास) के चरणों से गुजरने के बाद कहीं जाकर इस शानदार यंत्र का निर्माण हुआ। लेकिन ज्यादातर लोग इस शानदार यंत्र का धड़ल्ले के साथ इस्तेमाल कर रहे हैं, बिना यह जाने कि इसका प्रयोग सही तरीके से कैसे किया जाता है।
 
          अगर मैं आपको एक सस्ता सा सेलफोन लाकर दूं तो आपको उस पर बस दस-बारह बटन मिलेंगे। इसके लिए रीढ़ पर थोड़ा अधिकार होना जरूरी हो जाता है। पारंपरिक रूप से कहा जाता है कि स्वर्ग की तैंतीस सीढिय़ां होती हैं। ऐसा शायद इसीलिए कहा जाता है क्योंकि आपकी रीढ़ में तैंतीस हड्डियां हैं। आपको बस ये सीखना है कि किस बटन को दबा कर कॉल करना है, किससे ऑफ करना है, बस हो गया आपका काम। अब जरा सोचिए मैंने आपको एक स्मार्टफोन दे दिया, जिसमें प्रयोग करने के लिए सैकड़ों फंक्शन हैं।
 
          जो लोग भी स्मार्टफोन का प्रयोग कर रहे हैं, उनमें से ज्यादातर लोग फोन के पांच फीसदी से भी कम फंक्शन का ही इस्तेमाल जानते हैं। आपका फोन, आपकी कार, आपका अंतरिक्षयान, आपका सुपर-कंप्यूटर या ऐसी ही दूसरी चीजें जिन्हें इंसान ने बनाया है, इसी दिमाग की उपज हैं। यह दिमाग एक बेहद जटिल यंत्र है। अगर आपके पास साधारण फोन है तो उसका इस्तेमाल सीखने के लिए आपको पांच से दस मिनट का वक्त चाहिए।
 
          अगर आपके पास स्मार्ट-फोन है तो हो सकता है कि उसके साथ मिली निर्देशिका को पढऩे में ही आपका आधा दिन निकल जाए और उसके बारे में सीखने में आपको दो-चार दिन ध्यान देना पड़े। अगर कंप्यूटर की बात करें तो आपको और भी ज्यादा समय लगाने की जरूरत हो सकती है। हो सकता है कि एक दो महीने लग जाएं। अगर आपको सुपर-कंप्यूटर दे दिया जाए तो उस पर काम करना सीखने के लिए हो सकता है कि आपको पांच साल लग जाएं।
 
          अगर आपको सुप्रीम-कंप्यूटर मिलता है, जो कि आपके पास ही है, तो आपको उसे सीखने में कुछ समय लगाना चाहिए। दुर्भाग्य से हमारे समाज में ज्यादातर लोगों ने दिमाग को इस्तेमाल करने का तरीका ठीक ढंग से सीखने में भरपूर समय नहीं दिया, इसीलिए वे झंझटों में उलझे रहते हैं। यह इत्तेफाक की बात है कि कुछ लोगों ने दिमाग का अच्छी तरह से प्रयोग करना सीख लिया है, बाकियों ने इसे लेकर सब गड़बड़ कर रखा है।
 
 
9-ध्यान के समय मन को सेवक बनाये रखें मालिक नहीं
 
          हम हर काम करने से पहले यह जरुर सोचते हैं कि इसे करने से हमें क्या मिलेगा। लेकिन जब यही सोच कर हम ध्यान करना चाहते हैं तो सद्गुरु बता रहे हैं कि यह सोचना छोडि़ए। क्यों, आइए जानते हैं- लोग अकसर हिसाब लगाते हैं ध्यान करने से मुझे क्या मिलेगा। यह हिसाब-किताब लगाना छोड़ दीजिए। आपको कुछ भी नहीं मिलने वाला है। आपको इससे कोई लाभ नहीं होगा। जरुरी नहीं है कि कुछ घटित हो।
 
          ध्यान का मकसद सेहतमंद होना, ज्ञान प्राप्त करना या स्वर्ग हासिल कर लेना नहीं है, यह तो बस आपके जीवन का पुष्पित होना है। ' आज के सत्संग से हम क्या ले जाएंगे- अगर आप इस तरह की बातें सोचेंगे कि आप लेकर क्या जाने वाले हैं तो आप देखेंगे कि आप बेहद तुच्छ चीजें लेकर जा रहे हैं। असली चीज आप अपने साथ कभी नहीं ले जा पाएंगे। अगर आप शरीर को स्थिर और शांत कर देंगे तो मन अपने आप शांत और स्थिर हो जाएगा। यही वजह है कि योग में आसनों पर इतना ज्यादा जोर दिया गया है।
 
          अगर आपको असली चीज चाहिए तो ले जाने का चक्कर छोडि़ए। बस वहां रहिए, कुछ भी करने या होने की जरूरत नहीं है। अगर आप अपने जीवन के हर क्षेत्र से इस गणना को खत्म कर दें कि मुझे बदले में क्या मिलेगा, तो आप असीमित और करुणामय हो जाएंगे। इसके अलावा कोई और रास्ता नहीं है। आपको बस इसी एक गणना को छोडऩा है, क्योंकि आपकी पूरी मानसिक प्रक्रिया की, दिमाग में जो कुछ भी हो रहा है उन सबकी चाबी यही है। चूंकि लोगों के पास इतनी जागरूकता नहीं है कि वे बिना कोई हिसाब-किताब लगाए बस यूं ही खुद को रख सकें, इसलिए एक विकल्प दिया गया है और वह विकल्प यह है कि बस प्रेम में रहो।
 
          प्रेम एक ऐसी हालत है, जिसमें रहते हुए काफी हद तक आप कुछ साथ ले जाने के भाव से अलग होते हैं। प्रेम और करुणा का गहन भाव विकसित करने के लिए जो कुछ भी कहा जाता है उन सबका आशय यही है कि आप अपेक्षाओं को खत्म कर रहे हैं। किसी के साथ गहराई में भावनात्मक रूप से जुडऩे पर 'मुझे क्या मिलेगा वाली बात खत्म हो जाती है।
 
           अगर आपने अपने जीवन से इस एक गणना को खत्म कर दिया तो समझिए कि नब्बे फीसदी काम पूरा हो गया। बाकी का दस फीसदी अपने आप पूरा हो जाएगा। यह सांप-सीढ़ी के खेल की तरह है। यहां भी बहुत सारी सीढिय़ां हैं और बहुत सारे सांप भी। प्रेम और करुणा का गहन भाव विकसित करने के लिए जो कुछ भी कहा जाता है उन सबका आशय यही है कि आप अपेक्षाओं को खत्म कर रहे हैं।
 
         किसी के साथ गहराई में भावनात्मक रूप से जुडऩे पर 'मुझे क्या मिलेगा वाली बात खत्म हो जाती है। आप कभी ऊपर जाएंगे, तो कभी अचानक नीचे आ जाएंगे, यह सब चलता रहेगा, लेकिन अगर एक बार आपने अंतिम सीढ़ी को छू लिया तो फिर आपको किसी सांप का सामना नहीं करना है। आप बस एक, एक और एक लाते रहिए। आप मंजिल पर पहुंच ही जाएंगे।
 
          अब आपको डसने के लिए कोई सांप नहीं है। फिर तो मंजिल तक पहुंचना बस कुछ समय की बात है। अगर आप शरीर को स्थिर और शांत कर देंगे तो मन अपने आप शांत और स्थिर हो जाएगा। यही वजह है कि योग में आसनों पर इतना ज्यादा जोर दिया गया है। अगर आप यह सीख लें कि शरीर को शांत और स्थिर कैसे रखा जाता है तो आपका मन अपने आप शांत और स्थिर हो जाएगा। अगर आप अपने शरीर पर गौर करें तो आप पाएंगे कि जब आप चलते हैं, बैठते हैं या बोलते हैं, तो आपका शरीर ऐसी बहुत सी हरकतें करता है, जो गैर जरूरी हैं।
 
          इसी तरह अगर आप अपने जीवन को गौर से देखें तो पाएंगे कि जीवन का आधे से ज्यादा समय ऐसी बातों में बर्बाद हो जाता है, जिनकी आप खुद भी परवाह नहीं करते। अगर आप शरीर को स्थिर रखेंगे तो मन धीरे धीरे अपने आप शिथिल पडऩे लगेगा। मन जानता है कि अगर उसने ऐसा होने दिया तो वह दास बन जाएगा। अभी आपका मन आपका बॉस है और आप उसके सेवक।
 
          जैसे-जैसे आप ध्यान करते हैं, आप बॉस हो जाते हैं और आपका मन आपका सेवक बन जाता है और यह वह स्थिति है, जो हमेशा होनी चाहिए। एक सेवक के रूप में मन बहुत शानदार काम करता है। यह एक ऐसा सेवक है जो चमत्कार कर सकता है, लेकिन अगर आपने इस मन को शासन करने दिया तो यह भयानक शासक होगा। अगर आपको नहीं पता है कि मन को दास के रूप में कैसे रखा जाए तो मन आपको एक के बाद एक कभी न खत्म होने वाली परेशानियों में डालता रहेगा।
 
 
10-हम जो चीज बांटते हैं वहीं हमारा गुण बन जाता है
 
          हम समझते हैं कि हम जो चीज हमारे भीतर है वो हमारा गुण होगा, जबकि जो आप अपने आस पास बिखेरते हैं, जो बांटते हैं, वो आपका गुण होता है। ये ठीक वैसा ही है जैसा रंगों और रौशनी के साथ होता है। आइए जानते हैं विस्तार से - इस जगत में किसी भी चीज में रंग नहीं है। पानी, हवा, अंतरिक्ष और पूरा जगत ही रंगहीन है। यहां तक कि जिन चीजों को आप देखते हैं, वे भी रंगहीन हैं।
 
          रंग केवल प्रकाश में होता है। आप जो भी रंग चाहते हैं, वे सभी सिर्फ प्रकाश में है। अगर प्रकाश किसी वस्तु पर पड़ता है और वह वस्तु कुछ भी परावर्तित नहीं करती, यानी सारा प्रकाश वह सोख लेती है, तो वह काले रंग की नजर आती है। अगर कोई वस्तु सारा प्रकाश परावर्तित कर देती है, या लौटा देती है तो वह सफेद नजर आती है। तो रंग की वजह प्रकाश है।
 
          अगर कोई चीज आपको लाल नजर आ रही है तो इसका मतलब यह नहीं है कि वह चीज लाल रंग की है। इसका मतलब यह है कि वह लाल रंग को छोडकऱ शेष सभी रंगों को अपने भीतर रख लेती है। सिर्फ लाल रंग को वह परावर्तित कर देती है और इसी वजह से आपको वह लाल रंग की दिखाई देती है। रंगों के बारे में इंसान की समझ इसी तरह से काम करती है।
 
          कोई चीज आपको काली नजर आती है, क्योंकि वह कुछ भी परावर्तित नहीं करती। इस जगत में किसी भी चीज में रंग नहीं है। पानी, हवा, अंतरिक्ष और पूरा जगत ही रंगहीन है। यहां तक कि जिन चीजों को आप देखते हैं, वे भी रंगहीन हैं। रंग केवल प्रकाश में होता है। कुछ चीजें सफेद नजर आती हैं, क्योंकि वे सब कुछ परावर्तित कर देती हैं। कुछ चीजें नीली नजर आती हैं, क्योंकि वे नीले को छोडकऱ बाकी सभी रंगों को रोककर रखती हैं। आप रंग के बारे में जो सोचते हैं, रंग उससे बिल्कुल उल्टा है।
 
          जब आप कोई हरे रंग की चीज देखते है तो वास्तव में उसका रंग हरा नहीं होता। हरे रंग को वह बाहर निकालती है, उसे बिखेरती है, इसीलिए वह आपको हरी नजर आती है, उसका रंग हरा नहीं होता। यानी किसी वस्तु का रंग वह नहीं है जैसा वह दिखता है, जो वह त्यागता है वही उसका रंग हो जाता है । आप जो भी चीज परावर्तित करेंगे, वही आपका रंग हो जाएगा।
 
          आप जो अपने पास रख लेंगे, वह आपका रंग नहीं होगा। ठीक इसी तरह से जीवन में जो कुछ भी आप देते हैं, वही आपका गुण हो जाता है। अगर आप आनंद देंगे तो लोग कहेंगे कि आप आनंद से भरे इंसान हैं। अगर आप प्रेम देंगे तो लोग कहेंगे कि आप प्रेममय हैं। अगर आप निराशा देंगे तो कहा जाएगा कि आप निराश व्यक्ति हैं। अगर आप धन देंगे तो लोग कहेंगे कि आप अमीर हैं।
 
          अगर आप कुछ भी नहीं देंगे तो कहा जाएगा कि आपके पास कुछ भी नहीं है। तो आप जो भी देते हैं, हमेशा वही आपका गुण बन जाता है। लेकिन हमारा तार्किक दिमाग सोचता है कि हम जिस चीज को अपने पास रखते हैं, वही हमारा गुण होता है। नहीं, जिस चीज को आप थामकर रखते हैं, वह कभी आपका गुण हो ही नहीं सकता। जो आप देते हैं, वह आपका गुण होता है।
 
 
11-काले रंग का असर?
 
          कभी-कभी हमें परिवार के लोग शुभ दिनों पर या सामान्य तौर पर भी काले कपड़े पहनने से मना करते हैं। क्या सच में काले रंग का बुरा असर हो सकता है? प्रमुख रंग रंगों की जो आपकी समझ और अनुभव है, उसमें तीन रंग सबसे प्रमुख हैं- लाल, हरा और नीला। बहुत सारे ऐसे रंग भी हैं जिन्हें इंसान आमतौर पर नहीं देख पाता, क्योंकि आपकी आंखों के 'वर्ण-शंकु यानी 'कलर कोन मुख्य रूप से लाल, हरे और नीले रंग को ही पहचान पाते हैं।
 
          इस जगत में मौजूद बाकी सारे रंग इन्हीं तीन रंगों से पैदा किए जा सकते हैं। दुनिया के अलग-अलग धर्मों ने अलग अलग रंगों को चुना है, कुछ ने हरा रंग चुना है, कुछ ने लाल या नारंगी रंग चुना है तो कुछ ने नीला। हर रंग का आपके ऊपर एक खास प्रभाव होता है।
 
          आपको पता ही होगा कि कुछ लोग रंग-चिकित्सा यानी कलर-थेरेपी भी कर रहे हैं। वे इलाज के लिए अलग-अलग रंगों की बोतलों का पानी भरने के लिए प्रयोग करते हैं, क्योंकि रंगों का आपके ऊपर एक खास किस्म का प्रभाव होता है। आइए जानते हैं काले रंग के बारे में - काला रंग कोई चीज काली है या आपको काली प्रतीत होती है, इसकी वजह यह है कि यह कुछ भी परावर्तित नहीं करती, कुछ भी लौटाती नहीं,सब कुछ सोख लेती है। तो अगर आप किसी ऐसी जगह हैं, जहां एक विशेष कंपन और शुभ ऊर्जा है तो आपके पहनने के लिए सबसे अच्छा रंग काला है क्योंकि ऐसी जगह से आप शुभ ऊर्जा ज्यादा से ज्यादा अवशोषित करना चाहेंगे, आत्मसात करना चाहेंगे।
 
          जब आप दुनिया से घिरे होते हैं, लाखों-करोड़ों अलग-अलग तरह की चीजों के संपर्क में होते हैं, तो सफेद कपड़े पहनना सबसे अच्छा है, क्योंकि आप कुछ भी ग्रहण करना नहीं चाहते, आप सब कुछ वापस कर देना, परावर्तित कर देना चाहते हैं। काला रंग बाहर से ही नहीं, भीतर से भी अवशोषित करता है। अगर आप लगातार लंबे समय तक काले रंग के कपड़े पहनते हैं और तरह-तरह की स्थितियों के संपर्क में आते हैं तो आप देखेंगे कि आपकी ऊर्जा कुछ ऐसे घटने-बढऩे लगेगी कि वह आपके भीतर के सभी भावों को सोख लेगी और आपकी मानसिक हालत को बेहद अस्थिर और असंतुलित कर देगी।
 
          आपको एक तरह से मौन-कष्ट होने लगेगा यानी ये कष्ट आपको इस तरह होंगे कि आप इनको जाहिर भी नहीं कर पाएंगे। लेकिन अगर आप किसी ऐसी स्थिति में काला रंग पहनते हैं, जो शुभ ऊर्जा से भरपूर है तो आप इस ऊर्जा को अधिक से अधिक ग्रहण कर सकते हैं, जो आपके लिए अच्छा है।
 
          शिव को हमेशा काला माना जाता है क्योंकि किसी भी चीज को ग्रहण करने में उन्हें कोई समस्या नहीं है। यहां तक कि जब उन्हें विष दिया गया तो उसे भी उन्होंने सहजता से पी लिया। उनमें खुद को बचाए रखने की भावना नहीं है, क्योंकि उनके साथ ऐसा कुछ होता भी नहीं है। इसलिए वह हर चीज को ग्रहण कर लेते हैं, किसी भी चीज का विरोध नहीं करते।

Saturday, March 21, 2015

स्मृतियों का रहस्य

1- भक्ति है तो अद्भुत शक्ति के दर्शन होंगे
 
            जिस दिन भक्ति खो जाती है, उस दिन धर्म भी खो जाता है। भक्ति है, तो भगवान हैं और उनका भक्त भी। भक्ति के हटने पर धर्म कट्टर सिद्धांत के संपुट में बंद हो जाता है और मजहबी उन्माद नकर सामाजिक समरसता को भंग कर सकता है। परमात्मा को तभी जाना जा सकता है जब भक्ति में आनंद बनकर आंसू झरने लगता है। प्रकृति के चारों तरफ उत्सव ही उत्सव है। पक्षियों में, पहाड़ों में, वृक्षों में, सागरों में परमात्मा मौजूद है।

          आप अगर ऐसा नहीं देख पा रहे हैं तो इसके लिए स्वयं जिम्मेदार हैं। उत्सवी भक्ति परमात्मा से मिलाती है। शास्त्र की बुद्धिविलासी चर्चाओं में वह नहीं है। जब भावविभोर होकर भक्त नाचता है तभी भगवान प्रकट होते हैं। भक्ति में अद्भुत शक्ति होती है। यह भक्ति ईश्वर को भी प्रभावित करती है और उन्हें भक्त को गले लगाने के लिए मजबूर कर देती है। सच्चे मन से की जाने वाली भक्ति कभी निष्फल नहीं जाती। ईश्वर उनकी अवश्य सुनता है जो उसे साफ मन से याद करते हैं।

           सच्चा भक्त मिल गया तो समझे कि भगवान तुरंत मिलने वाले हैं। जब तक हृदय की वीणा नहीं बजेगी तब तक परमात्मा समझ में नहीं आएगा। धर्म तर्क-वितर्क का विषय नहीं है। जैसे भोगी शरीर में उलझा रहता है वैसे बुद्धिवादी बुद्धि में उलझे रहते हैं। अंत में दोनों चूक जाते हैं, क्योंकि भगवान हृदय में है। परमात्मा इतना छोटा नहीं है कि उसे बुद्धि में बांधा जाए। इसलिए परमात्मा की कोई परिभाषा नहीं है। प्राणों में प्रेम के गीत उठते ही वह भक्त के पास दौड़ा चला आता है।

          हम उसके पास जा भी तो नहीं सकते, क्योंकि यात्रा बहुत लंबी है और हमारे पैर बहुत छोटे हैं। बिना पता-ठिकाने के जाएं भी तो कहां जाएं? भक्ति प्यास है। जब धरती भीषण गरमी में प्यास से तड़पने लगती है तभी बादल दौड़े हुए आते हैं और उसकी प्यास बुझाते हैं। इसी तरह जब भीतर विरह की अग्नि जलेगी तभी प्रभु की करुणा बरसेगी। छोटा शिशु जब पालने पर रोता है तो मां सहज ही दौड़ी चली आती है। इसी तरह भक्त के भजन मेंऐसी ताकत होती है कि भगवान अपने को रोक नहीं सकते। आखिर सारे भजन तो तड़पते भक्त के आंसुओं की ही छलकन हैं।


  2-हमारा आत्मबल हमें बुराई व विघ्न-बाधाओं से बचाता

          आत्मबल एक ऐसा गुण है जो हमारे पुरुषार्थ को जाग्रत रखता है। यह गुण मुश्किल क्षणों में ऊर्जा का स्नोत साबित होता है। आत्मबल हमें हर बुराई और विघ्न-बाधाओं से बचाता है। कहते हैं कि मरणासन्न शरीर में भी नवजीवन का संचार कर दे, ऐसी अमृत बूंद है-आत्मबल। सच तो यह है कि जहां कोई प्राणी हमारा सहायक नहीं होता वहां हमारा आत्मबल हमें सहारा देता है। यह हमें न सिर्फ दृढसंकल्पी और साहसी बनाता है, बल्कि जीवन-संग्राम में जीतने की अदम्य इच्छाशक्ति भी प्रदान करता है। यह हमें न सिर्फ अच्छे कर्म करने की ओर प्रेरित करता है, बल्कि हमें प्रतिकूल परिस्थितियों से निकलने की हिम्मत भी देता है।

          यह हमारा ऐसा बलवान साथी है, जो जीवन के घनघोर अंधेरे से भी हमें बाहर निकाल सकता है। आत्मबल जिसका साथी है वह कभी कमजोर नहीं पड़ता। हार की निराशा उनके दिलों पर राज नहीं कर पाती। ऐसे लोग अपने आत्मबल की वजह से देश और दुनिया पर राज करते हैं। इसके विपरीत आत्मबलहीनता बहुत ही खतरनाक रोग है, जो हमें कमजोर ही नहीं करता, बल्कि दूसरों के समक्ष दब्बू भी बना देता है। इसलिए हमें इससे बचना चाहिए और अपने आत्मबल को बरकरार रखना चाहिए। आत्मबल से ओत-प्रोत व्यक्ति किसी भी प्रतिकूल परिस्थिति को अपने अनुरूप बदल देने की साम‌र्थ्य रखता है।

          आत्मबल मानव में सात्विक गुणों का विकास कर उसे स्वयं को ईश्वर के प्रति समर्पित कर देने के लिए साहस बंधाता है और ईश्वर की ओर उन्मुख करता है। आत्मबल का औचित्य भी इसी में है कि व्यक्ति ईश्वरोन्मुख हो जाए। परिस्थिति चाहे कैसी भी हो, हम सबको हरदम आत्मबल के माध्यम से आगे बढ़ने का प्रयास करते रहना चाहिए। समस्याओं और परेशानियों से कतई घबराना नहीं चाहिए।

          हम यदि इन समस्याओं पर विजय पा लेंगे तो हमारा आत्मविश्वास बढ़ेगा और हमें आत्मसंतुष्टि भी प्राप्त होगी। किसी समस्या को भार या परेशानी समझना हमारी कायरता है, जो हमें असफलता के पथ की ओर उन्मुख करती है। यदि हम परेशानियों और समस्याओं पर हमला कर उनके सम्मुख डटे रहेंगे, तब हमारी आर्थिक और नैतिक उन्नति अवश्य होगी। हम जीवन की सामान्य स्थिति से ऊपर उठ जाएंगे और सब लोग हमें पहले से कहीं ज्यादा आदर-सम्मान देंगे। समस्या के वक्त हमें धैर्य और साहस से कार्य लेना चाहिए।


3-दिव्य भूमि को ही तीर्थ कहते हैं

          जब कभी इस असीम ब्रह्मांड में ऊर्जा का संग्रह किया जाता है और जब किसी स्थान पर उसे केंद्रित कर दिया जाता है तो वह स्थान दिव्य बन जाता है। इन्हीं दिव्य स्थानों पर दिव्य आत्माओं का अवतरण होता है। इसलिए ऐसे स्थानों को दिव्यभूमि, तीर्थस्थल या तीर्थस्थान कहा जाता है। कोई भी महापुरुष साधना से अनंत परमात्मशक्ति प्राप्त कर लेता है। वह संसार में व्याप्त दिव्य शक्तियों को एकत्रकर उन्हें अपने शरीर में केंद्रित कर लेता है और फिर वह अपनी शक्ति को निकटवर्ती वातावरण में प्रसारित करता है।

          इसीलिए हमारे देश में जहां कहीं भी तीर्थस्थान हैं वहां का वातावरण वृक्ष आदि सब कुछ ऊर्जावान बन जाते हैं। उनमें दिव्यता का बोध होने लगता है। जैसे भगवान बुद्ध की साधना से गया का बोधिवृक्ष, साईंबाबा के आश्रम के निकट स्थित मीठे नीम का पेड़ आदि। इसी तरह महावीर ने जहां साधना की उसे अहिंसा क्षेत्र कहते हैं। उस स्थान के प्रभाव के कारण हिंसक जीव भी वहां पर अहिंसक बन गए थे। देश में ऐसे कई स्थानों पर ऊर्जा क्षेत्रों से परिपूर्ण तीर्थस्थल हैं।

          तीर्थ का एक अर्थ सामान्य तौर पर यह भी है-वह स्थान जहां की भूमि, पेड़, पौधे, नदी-झरने आदि दिव्य ऊर्जा से ओत-प्रोत हो गए हों। इसलिए जब कभी हम देवभूमि में प्रवेश करते हैं तो हमारे जड़ता मूलक अज्ञान को झटका लगता है। हमारा तन-मन वहां की दैवीय ऊर्जा से प्रभावित होने लगता है। शायद ऐसा हर जगह नहीं होता है, लेकिन यदि आप काशी विश्वनाथ मंदिर, वैष्णोमाता, अमरनाथ, केदारनाथ, या अजमेर शरीफ आदि स्थानों पर जाएं तो निश्चित ही वहां का वातावरण हमें प्रभावित करने लगता है। हम तुरंत बदल जाते हैं। हम वह नहीं रहते हैं जो पहले थे। गुरुस्थान भी ऐसा ही होता है। वहां से लौटने पर हमारे अंदर कुछ न कुछ रूपांतरण होता ही है। ऐसी अवधारणा है कि जिन स्थानों पर हमारे तीर्थस्थान या मंदिर हैं, उन स्थानों पर प्राचीनकाल में कभी दिव्यशक्तियों का वास था। पवित्र देवभूमि से, उसके मूल स्थान से आज भी मिट्टी लाने का प्रचलन है।


4-भक्त सेवक,और सेवक का स्वामी के प्रति समर्पण

          भक्त का अर्थ है-सेवक। सेवक का अर्थ है-स्वेच्छा से स्वामी के प्रति समर्पण। प्रेम, आनंद और प्रसन्नता के कारण जब कोई भक्त अपने स्वामी के प्रति समर्पित हो जाता है तो वह सेवक हो जाता है। उसे ही धर्मग्रंथों में सच्चा भक्त, सेवक या दास कहते हैं। रामचरितमानस में सेवक के धर्म को सबसे कठिन बताया गया है। सेवक की अपनी कोई इच्छा नहीं होती। वह अपने मालिक की इच्छा को सर्वोपरि मानता है। भक्त तो प्रतिपल अपने स्वामी की कृपा के लिए इंतजार करता है। वह हर पल रोम-रोम से धन्यवादी और अहोभाव से, कृतज्ञता से परिपूर्ण होता है। भक्त कभी विभक्त नहीं हो सकता। उसकी भक्ति में कमी नहीं आती।

          तत्वज्ञानी भक्त जीव, जगत और ब्रह्म के भेद को समझता है। वह जानता है कि इस सृष्टि से पार जाने के लिए, माया को लांघने के लिए मायापति प्रभु की वरण-शरण में जाना ही पड़ेगा। भक्त संसार की नश्वरता और ब्रह्म की शाश्वतता को जानता है। गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि उसे ही जागा हुआ जानना जिसमें वीतरागता पैदा हो चुकी हो। जिसने जान लिया कि हर विषय-भोग के पीछे 'विष' छिपा है। भक्त के पास तो अपने आराध्य प्रभु के लिए प्रेम-पुष्प ही होता है।

          वह अपने हृदय मंदिर में उस प्रभु को बिठाकर अपने अहंकार का सदैव परित्याग करना चाहता है। प्रेम ही भक्त है, प्रेम ही पूजा-अर्चना है। प्रेम के सामने प्रभु को भी झुकना पड़ता है। भक्त तो हर पल प्रार्थना करता है और कहता है- हे प्रभु! आप अंतर्यामी हैं, आप हमारे हर भाव-कुभाव को जानते और समझते हैं। अपने प्रकाश स्वरूप से हमारे अंदर छिपे अज्ञान, अंधकार और असत्य को दूरकर हमें ज्ञानी, प्रकाशवान और सत्य संकल्पी बनाएं। हमें विवेक प्रदान करें।

          जब ऐसी प्रार्थना भक्त करता है तो प्रभु उसकी पुकार जरूर सुनते हैं। परमपिता परमेश्वर पर पूर्ण भरोसा ही भक्ति है। भगवान भी भक्तों के बीच ही रहते हैं। जहां उनके नाम का गुणगान होता है। भक्ति आती है, तो संतुष्टि भी स्वयं आ जाती है। भक्त विनम्रता, सरलता, सहजता की साक्षात प्रतिमूर्ति होता है। जो भक्त हैं वे सदैव उस सर्वव्यापक परमात्मा के परमपद का प्रत्यक्ष दर्शन करते हैं। भक्त ऐश्वर्य में भी ईश्वर को नहीं भूलता।


5-भगवान तो हमेशा भाव के भूखे रहते हैं

          जीवन में हमें जो कुछ मिला है, वस्तुत: वह हमारे कर्मो का फल होता है, परंतु जब हम उसे प्रभु का दिया हुआ प्रसाद मानकर ग्रहण करते हैं तो बात कुछ और होती है। हमारा हर कर्म पूजा बन जाता है। यही बात भोजन के संदर्भ में भी लागू हो सकती है। कोई चीज जब हम खाने से पहले भगवान को चढ़ाकर यानी अर्पित करके खाते हैं तो वह भोजन भी प्रसाद बन जाता है। इसलिए जो भगवान के भक्त होते हैं वे भोजन से पहले कहते हैं-हे प्रभु, तुम्हारी दी हुई वस्तु पहले मैं तुम्हें समर्पित करता हूं। और भला वे ऐसा क्यों न करें, क्योंकि हमें यह जो मानव शरीर मिला है वह उसका दिया हुआ ही तो है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं कि कोई भक्त यदि प्रेमपूर्वक मुझे फल-फूल, अन्न, जल आदि अर्पित करता है तो उसे मैं प्रेमपूर्वक सगुण रूप में प्रकट होकर ग्रहण करता हूं।

          भक्त की यदि भावना सच्ची हो, श्रद्धा और आस्था प्रबल हो तो भगवान उसके भोजन को अवश्य ग्रहण करते हैं। जैसे उन्होंने शबरी के बेर खाए, सुदामा के तंदुल (चावल) खाए, विदुरानी का साग खाया। प्रभु की कृपा महान है। उसकी कृपा से जो कुछ भी अन्न-जल हमें प्राप्त होता है, उसे प्रभु का प्रसाद मानकर प्रभु को अर्पित करना, कृतज्ञता प्रकट करने के साथ एक मानवीय गुण भी है। कुछ लोग यह प्रश्न भी करते हैं कि जब भगवान चढ़ाया हुआ प्रसाद खाते हैं तो घटता क्यों नहीं? उनका कथन भी सत्य है।

          जिस प्रकार फूलों पर भौंरा बैठता है और फूल की सुगंध से तृप्त हो जाता है, किंतु फूल का वजन नहीं घटता उसी प्रकार प्रभु को चढ़ाया प्रसाद अमृत होता है। प्रभु व्यंजन की सुगंध और भक्त के प्रेम से तृप्त हो जाते हैं। वे भाव के भूखे हैं, भोजन के नहीं। जैसे एक मां बच्चे को कुछ खाने को दे और बच्चा उसे तोतली भाषा में सिर्फ पूछ भर दे तो मां उसे सीने से लगा लेती है। इसी प्रकार भगवान भी तृप्त होते हैं, प्रसन्न होते हैं और अपनी कृपा बरसाते हैं। यह मानव शरीर भी उसकी अनंत कृपा से प्रसाद स्वरूप मिला है। हमें ईश्वर की इस कृपा को कभी नहीं भूलना चाहिए। जब हम इसकी सार्थकता को समझेंगें, तभी जीवन धन्य होगा।


6-धन दौलत के बजाय चरित्र सही हो

          चरित्र का निखार। मौजूदा दौर में व्यक्ति जल्द से जल्द सुख-सुविधाओं की प्राप्ति की लालसा के कारण अनेक समस्याआें और परेशानियों से जूझ रहा है। ये समस्याएं लोगों के चरित्र को प्रभावित करती हैं। ऐसे में अधिकतर व्यक्ति समस्याओं और परेशानियों के दबाव में अपने चरित्र को दांव पर लगा देते हैं और अपने कदमों को गलत मार्ग पर मोड़ लेते हैं। अनुचित व गलत मार्ग सहज-सीधा नजर आता है, जो सभी को अपनी ओर आकर्षित करता है।

          यह मार्ग ऐसा होता है जिसमें व्यक्ति को अधिक मेहनत व प्रयास करने की आवश्यकता नहीं होती, लेकिन वह व्यक्ति के सबसे कीमती गुणों व चरित्र पर प्रश्नचिन्ह लगा देता है। जिंदगी में समस्याओं और परेशानियों का भी एक अनूठा महत्व है। यदि व्यक्ति साहस, धैर्य और ईमानदारी से परेशानियों का मुकाबला करे तो वह न सिर्फ अपनी परेशानियों को दूर भगाता है, बल्कि सफलता को भी अपने जीवन का एक अंग बना लेता है। ऐसे में उसका चरित्र और अधिक निखर उठता है।

          जिस प्रकार सोना आग में तप कर और अधिक निखरता है, उसी तरह चरित्र भी कठिन परिस्थितियों और संघर्ष का सामना करते हुए अधिक निखर आता है। सामान्य परिस्थितियों में तो सभी अपने चरित्र को संभाल कर रखने का दावा करते हैं, लेकिन जब हालात विपरीत हों, उस समय अपनी सूझबूझ, दया और शालीनता को बरकरार रखना अधिक महत्वपूर्ण होता है। एक रूसी कहावत है कि हथौड़ा कांच को तोड़ देता है, पर लोहे का कुछ नहीं बिगाड़ता। इसका तात्पर्य है कि सुदृढ़ और सद्कर्मो पर चलने वाला व्यक्ति अपने चरित्र के साथ कभी समझौता नहीं करता।

          कहते हैं कि योग्यता की वजह से सफलता मिलती है और वह चरित्र ही है, जो सफलता को संभालता है। जो सफल व्यक्ति अपने चरित्र को नहीं निखारते सफलता भी उनके पास ज्यादा देर तक नहीं टिकती। ऐसे लोग शीघ्र ही गुमनामियों के अंधेरों में गुम हो जाते हैं। आध्यात्मिक रुझान से न सिर्फ व्यक्ति का चरित्र सुदृढ़ होता है, बल्कि उसके अंदर धैर्य, ईमानदारी, परोपकार आदि सद्गुणों का भी विकास होता है।

          वर्तमान समय में चरित्र का मजबूत होना अत्यंत आवश्यक है। चरित्र को बचपन से ही मजबूत बनाया जाए तो व्यक्ति संस्कारों और अध्यात्म की छांव में बड़ा होकर समाज व देश का नाम रोशन करता है। यदि चरित्र सही नहीं है, तो धन-दौलत भी व्यर्थ है।


7-हमारा मन तो परमात्मा की अमानत है

          मिथ्या है अभिमान। मानव वही है जो दूसरों के भी काम आए और दूसरों का दुख-दर्द समझे। किसी भी प्रकार से किसी को दुख या कष्ट न पहुंचाए। जो सुखाभिमानी दूसरों को दुख में देखकर प्रसन्न होता है उसे एक दिन स्वयं भी दुखी होना पड़ता है। प्रभु प्रेम में आंसू बरसाने वाले को दुख के आंसू नहीं बरसाने पड़ते। जीवों पर करुणा व दया बरसाएं। पूर्ण रूपेण अहिंसा व्रत का पालन करें। मन की चंचलता को रोकें। मन, परमात्मा की अमानत है। इसे परमात्मा में ही लगाएं। इसे संसार, सांसारिकता, भोग-विलासों में लगाने पर अंतत: दुखी होना पड़ेगा। छोटी-छोटी बातों से अपने प्रेम, एकता व सद्भाव को समाप्त न करें। श्रद्धा व विश्वास से ही अंत:करण में स्थित ईश्वर की अनुभूति कर सकते हैं।

          अभिमान प्रभु की प्राप्ति में बाधक है। अभिमान चाहे किसी भी प्रकार (जैसे धन, वैभव, तप और ज्ञान आदि) का क्यों न हो, ठीक नहीं होता। मानव के जीवन पर संगति का प्रभाव अवश्य पड़ता है। इसलिए अच्छा देखें, अच्छा सुनें, अच्छा बोलें, अच्छा विचारें और अच्छी संगति करें। खान-पान व जीवन को सात्विक, शुद्ध और संयमित बनाएं। प्रकृति के नियमों का पालन करें।

          शांति को जीवन में प्रमुखता से स्थान दें। अशांत व्यक्ति को कहीं भी सुख नहीं मिलता। सत्य परमात्मा का स्वरूप है। सत्य जहां भी जुड़ेगा वहां विकृति नहीं आएगी। जिसे सदाचारी व्यक्ति का संग मिले उसका जीवन धन्य है। जिसके जीवन में करुणा, क्षमा, उदारता, कोमलता, सेवा, परोपकार, और परमार्थ का भाव है वही संत है। जीना भी एक कला है। गिरना व गिराना बहुत सरल है, परंतु उठना व उठाना उतना सरल नहीं है। स्वयं जागो व औरों को जगाओ, अपने कल्याण के साथ औरों के कल्याण के भी भागीदार बनो।

          कठिनाइयों, बाधाओं व परीक्षाओं से न घबराकर निरंतर चलते रहो, जब तक कि आपको आपका लक्ष्य प्राप्त न हो जाए। लक्ष्यविहीन मानव का जीवन पेंडुलम की भांति है, जो हिलता-डुलता है। धर्म वह अखंड धारा है, जो कभी टूटती नहीं। धर्म वही है जो जीवन में धारण किया जाए। धर्म व परमात्मा को मात्र मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, चर्च या सत्संग तक ही सीमित न करें। धर्म को जीवन का अभिन्न अंग बनाएं। धर्म निरंतर सदा-सर्वदा, यत्र-तत्र-सर्वत्र हमारे साथ रहेगा, तभी समाज में आ रही विकृतियों से बच सकेंगे।


8-जैसा संस्कार होगा चलने का मार्ग भी वैसे ही होगा

          जीवन का मार्ग। रास्ते तो अनेक हैं, पर किसी एक ही रास्ते से यात्रा कर सकते हैं आप? सभी रास्ते उसी रास्ते में जाकर मिल जाते हैं। सभी रास्ते सबके लिए हैं, जो जिस रास्ते से चल पड़े। जिसका संस्कार जैसा होता है वह उसी रास्ते पर चल पड़ता है। तुम्हें तो वह रास्ता मिल गया है जो तुम्हारा रास्ता है और जो तुम्हारा लक्ष्य है। अगर अब किसी भी चौराहे पर ठहर जाओगे तो तुम्हारा रास्ता भटक जाएगा। तुम्हारी मंजिल भटक जाएगी और तुम्हारी जीवन यात्र कहीं बीच में ही समाप्त हो जाएगी।

          रास्ता प्रतीक्षा करता ही रह जाएगा, तुम्हारी मंजिल राह देखती रह जाएगी। तुम्हारा उद्देश्य अधूरा रह जाएगा। यह संसार है। यहां अनगिनत लोग हैं। भिन्न-भिन्न तरह के जीव हैं। तरह-तरह की जातियां हैं। तरह-तरह के विकार हैं। कोई किसी की प्रकृति है, तो कोई किसी का विकार। कहीं मनुष्यों का मेला है तो कहीं पशु-पक्षियों का जमघट। कहीं कीड़े-मकोड़ों की अधिकता है तो कहीं पेड़-पौधों का जंगल। कहीं पानी का सुंदर प्रवाह है, तो कहीं सागर की लहरों का खेल। संसार के सभी लोगों के अपने-अपने क्षेत्र हैं। अपना-अपना संस्कार है। अगर तुम इसका अतिक्रमण करोगे तो भटक कर रह जाओगे।

          तुम्हारे आस-पास में एक विराट दुनिया है उस दुनिया में तुम कितनों को जानते हो और अगर सभी को जानने की कोशिश करोगे तो समय साथ नहीं देगा, क्योंकि जिंदगी इतनी लंबी नहीं है। संस्कार भूमि इतनी विराट नहीं है। इस संसार में कुछ ही लोग तुम्हारे हैं। अगर इनसे अधिक और अपेक्षाएं करोगे तो अपेक्षाओं में ही जीवन समाप्त हो जाएगा, भूख बनी की बनी रह जाएगी। इसलिए आज तक आदमी को न सुखी तुमने देखा है और न सुख से प्राण त्यागते हुए किसी व्यक्ति को देखा होगा। कुछ लोग तो ऐसे हैं जो सुख से सो भी नहीं पाते। लोगों को उनका गम खा रहा है। चिंताएं जला रही हैं। वे दुनिया से कहते हैं कि अपने परिवार, अपने बच्चों और समाज के लिए सब कुछ कर रहे हैं, पर इस सबके पीछे उनकी अपनी पद-प्रतिष्ठा और मान अपमान भी जुड़ा हुआ है।

          इच्छाओं की पूर्ति की कामनाएं हैं। अगर तुम भी सांसारिक दुखों का शिकार होना चाहते हो तो चल पड़ो अनेक रास्तों पर, तमाम लोगों के साथ। अनेक अपेक्षाओं के साथ। तब देखना कि जिंदगी को क्या मिलता है।


9-भगवान कण-कण में है

          किसी घर में नहीं आखिर हमारे लक्ष्मीनारायण भला दरिद्रनारायण कैसे हो सकते हैं? फकीरों के संदेश तो इसी ओर इशारा करते हैं, 'बेबस गिरे हुओं के बीच तू खड़ा था। मैं स्वर्ग देखता था, झुकता कहां चरन में।' दीनबंधु हम पर प्रसन्न तभी होंगे जब हम वंचित लोगों को प्रेम से गले लगाएं और निश्छल भाव से उनकी सेवा करें। दीनों की 'आह' बनकर परमात्मा प्रतिफल हमें पुकारता है और हम हैं कि भव्य मंदिरों में जाकर भजन में उसकी पुकार सुनना चाहते हैं। मंदिर जाना अच्छी बात है, लेकिन जरूरतमंदों की मदद करना भी ईश्वर की अनुभूति करा सकता है।

          दुखियों के द्वार पर खड़ा होकर ईश्वर हमारी बाट जोहता है और हम उसे गिरि-कंदराओं में खोजते-फिरते हैं। दुखियों की झोपड़ी में कृष्ण की बज रही वंशी को सुनिए और मजदूरों के पसीने में उसे निहारें। अपने हृदय-द्वार खोलें, यहीं पर उसका दीदार हो जाएगा। भगवान का कोई घर नहीं है। वह सृष्टि के कण-कण में रम रहा है। हम तो दीन-दुखियों को ठुकराकर देवालयों में प्रभु को ढूंढ़ते हैं। प्रभु का असली द्वार दीनों का हृदय है। जिसका कोई नहींहै उसका भगवान है। वह जरूरतमंदों की आह में मिलेगा, भूखों की भूख में मिलेगा और मजलूमों के चीथड़ों में मिलेगा। दुखियों का दिल दुखाना मानो मंदिर को ढहाना है। कमजोरों को दबाना सबसे बड़ा अधर्म है।

          संत मलूकदास भी यही कहते हैं। दरिद्र की सेवा ही ईश्वर की सच्ची सेवा है। आस्तिक वही है, जिसका दिल गरीबों को देखते ही पसीजने लगता है। तभी तो कबीरदास कहते हैं, 'कबिरा सोई पीर है, जो जाने परपीर'। आस्तिक वह नहीं है जो इस पाखंड में उलझा रहता है कि पानी से भरा लोटा दाहिने हाथ से पिएं या बाएं हाथ से। इनसे बेहतर तो ऐसे नास्तिक हैं जो स्वयं अच्छे ढंग से जीते हैं और जरूरतमंदों के काम आते हैं। भगवान सुदामा को मित्र बनाते हैं और झूठी पत्तलें उठाते हैं।

          प्रभु के प्रति हमें कृतज्ञ होना चाहिए कि उसने करुणा के सदुपयोग का अवसर दिया है। दरिद्रों की सेवा करते समय यह भाव भी मन में नहीं आना चाहिए कि हम सेवा कर रहे हैं। लेने का भाव हमारे मन में इतनी गहराई तक पैठ गया है कि हम प्रेम, माधुर्य, समता और करुणा आदि गुणों से दूर होते जा रहे हैं। दीन को केवल मुस्कान दे दो तो वह धन्य हो जाएगा। जिसके दिल में सेवा का जच्बा नहीं है उस पर खुदा रहम नहीं करता।


  10--हमारा शरीर विनाशी है,जबकि आत्मां अविनाशी है

          शरीर विनाशी और आत्मा अविनाशी है। यही शाश्वत सत्य है। ऐसा जानकर आत्म तत्व की ही उपासना करनी चाहिए। उपनिषदों में कहा गया है कि आत्म-मंथन करना चाहिए। आत्मसाक्षात्कार और भगवत दर्शन ही मानव जीवन का परम लक्ष्य है। इस परम लक्ष्य से सांसारिक कर्तव्यों की कोई असंगति नहींहै। ऐसा नहीं है कि इसके लिए घर-बार छोड़ना आवश्यक है। आशय यह है कि संसार में रहते हुए सांसारिक कार्र्यो और अपने लौकिक दायित्वों का निर्वाह करना जरूरी है।

          अपने सांसारिक दायित्वों को पूरा करने में यदि हम असफल रहते हैं तो हम अपने आध्यात्मिक दायित्व का निर्वहन भी नहीं कर सकेंगे। इसके लिए आवश्यकता मात्र यह है कि ऐसे कार्र्यो से हमारी किसी तरह की आसक्ति (लगाव) न हो। आसक्ति का अभाव ही तो मुक्ति है। दुख का कारण हमारी अनंत इच्छाएं ही तो हैं। जब इच्छाएं पूरी नहीं होतीं तब हम दुखी हो जाते हैं। प्रयास करके इच्छाओं को कम करना चाहिए। संसार के समस्त पदार्थ विनाशी हैं। अविनाशी तो केवल आत्मा है।

          यह आत्मा ही है, जिसके लिए कहा गया है कि शरीर के नष्ट हो जाने पर भी यह नहीं मरती। साधकों को इस जीवन में ही सचेत होकर निरंतर आत्म-चिंतन करना चाहिए। जीवन की समापन बेला आने से पहले ही प्रभु प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त करें। प्रभु से प्रार्थना करें कि 'हे ईश्वर! मेरा मन आपके चरणों में लग जाए।'1जीवन में सत्कर्र्मो को अपनाएं। पाप कर्र्मो से विमुख हो जाएं। कर्म सिद्धांत अटूट है।

          किए गए अपराधों के दुष्परिणामों को तो भुगतना ही होगा। इसलिए प्रयास करना चाहिए कि गलत आचरण न हो। किसी को मत सताइए, किसी को मत पीड़ा दीजिए। चेत जाइए। अभी समय है। समय रहते ही स्वयं को सुधार लेना प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है। समय बर्बाद करने पर दुखी होने से कुछ नहीं होगा। प्राण जाने से पहले ही सुधार किया जाना अपेक्षित है। अंतकाल में अचानक कुछ भी न हो सकेगा। तैयारी अभी से होनी चाहिए। शुभ संकल्प अभी से जगाने होंगे। संतों ने संदेश दिया है कि अच्छे कार्य करते रहें। भक्ति, ध्यान का मार्ग अपनाएं। आराधना द्वारा भगवान को अपना बनाएं। आपकी मुक्ति सुनिश्चित है।


11- आत्मा और मन के संयोग से इच्छाशक्ति बनती है

          इच्छाशक्ति आत्मा और मन का संयोग। जीवन में सफलता और विफलता के निर्णायक तत्वों में इच्छाशक्ति का स्थान सर्वोपरि है। इच्छाशक्ति के माध्यम से व्यक्ति असंभव लगने वाले कार्यो को संभव बना सकता है। इच्छाशक्ति के अभाव में व्यक्ति सब कुछ होते हुए भी दुर्भाग्य का रोना रोता रहता है। इच्छाशक्ति का अभाव जीवन की विफलताओं और संकटों का मूल कारण है। इसके रहते व्यक्ति छोटी-छोटी आदतों व वृत्तियों का दास बनकर रह जाता है।

          छोटी-छोटी नैतिक व चारित्रिक दुर्बलताएं जीवन की बड़ी-बड़ी त्रसदियों को जन्म देती हैं। इच्छाशक्ति की दुर्बलता के कारण ही व्यक्ति छोटे-छोटे प्रलोभनों के आगे घुटने टेक देता है और उतावलेपन में ऐसे-दुष्कृत्य कर बैठता है कि बाद में पश्चाताप के अतिरिक्त कुछ हाथ नहीं लगता। जीवन की इस मूलभूत त्रासदी की स्वीकारोक्ति महाभारत में दुर्योधन के मुख से भगवान श्रीकृष्ण के सामने होती है- 'धर्म को, क्या सही है, इसको मैं जानता हूं, किंतु इसे करने की ओर मेरी प्रवृत्ति नहीं होती। इसी तरह अधर्म को, जो अनुचित व पापमय है, इसको भी मैं जानता हूं, किंतु इसको करने से मैं नहीं रोक सकता।

          ' दुर्योधन की इस स्वीकारोक्ति में मानवीय इच्छाशक्ति की दुर्बलता व विफलता का मर्म निहित है। जीवन की सफलता के लिए एकमात्र रास्ता इच्छाशक्ति का विकास रह जाता है। इसके विकास से पूर्व प्रथम यह जानना उचित होगा कि इच्छाशक्ति है क्या? दर्शनकार की भाषा में यह माया यानी प्रकृति से संयुक्त होने वाली आत्मा की प्रथम अभिव्यक्ति है। स्वामी विवेकानंद के शब्दों में- इच्छाशक्ति आत्मा और मन का संयोग है।

          व्यवहारिक जीवन में इच्छाशक्ति मन की वह रचनात्मक शक्ति है, जो निर्णित क्त्रिया को एक निश्चित ढंग से करने की क्षमता देती है। इच्छाशक्ति के विकास के संदर्भ में दूसरा तथ्य यह है कि इसको प्रत्येक व्यक्ति द्वारा बढ़ाया जा सकता है। इच्छाशक्ति के विकास में एकाग्रता बहुत सहायक है। हम जो भी कार्य करें, उसे पूरे मन से करें। इससे इच्छाशक्ति के विकास में बहुत सफलता मिलेगी। साथ ही ऐसे कार्यो से बचें, जिनमें ऊर्जा अनावश्यक क्षय होती है।

          स्पष्ट है, जब आप आत्मजागरण, आत्म-विकास व ईश्वरभक्ति में संलग्न होंगे, उतना ही इच्छाशक्ति के विकास का पथ प्रशस्त होता जाएगा और उतना ही हमारा जीवन सुख, शांति व सफलता से परिपूर्ण होता जाएगा।


12-नियमित साधना के द्वारी ही आध्यात्मिक अनुभूति होती है

          मन का मापदंड। मनुष्य जब भी किसी छोटे या बड़े मुद्दे या वस्तु के विषय में कोई निर्णय लेने का प्रयास करता है तो वह प्राय: भूल कर बैठता है। चूंकि वर्तमान संदर्भ में सवाल यह है कि मानव मन सीमित है इसलिए उसका निर्णय सही कैसे हो? इस प्रकार जहां तक मनुष्य के मापदंड का प्रश्न है, उसके विषय में विचारने पर आप यह बात दर्ज करेंगे कि मनुष्य के मापदंड का आधार ही अत्यंत सीमित है।

          किसी जलाशय को हम अपने हाथों के मापदंड से नापने में समर्थ होते हैं, किंतु यदि हम किसी समुद्र को उसी प्रकार नापना चाहें तो हम असहाय हो जाएंगे। मान लें कि जलाशय अगर समुद्र से भी गहरा हो तो उसको माप सकना हमारे लिए असंभव हो जाएगा। मनुष्य के माप की परिधि में जो है वह यदि बहुत बड़ा हो तो संस्कृत में हम उसे 'विशाल' कहेंगे।

          जैसे हिमालय बहुत ही बड़ा है, पर उसे भी मापा जा सकता है। हम कहते हैं कि वह पूर्व से पश्चिम तक इतने मील लंबा है, उत्तर से दक्षिण तक इतने मील तक चौड़ा है, पर मनुष्य के छोटे मापदंड से मन की सीमित शक्ति की सहायता से और छोटे मापक यंत्र के द्वारा जिसे मापना असंभव हो उसे 'वृहत्' कहते हैं । इसी कारण ईश्वर को वृहत् कहा जाता है, क्योंकि उन्हें मापने में मनुष्य का मन असमर्थ रह जाता है। उन्हें मापे जाने के बाद मन लौटकर कह उठता है-'नहीं, मैं माप नहीं सका।' इसी को कहा जाता है 'वृहत्'। वह कुछ ऐसे भी हैं कि जो भी उनके निकट जाता है, वह भी बहुत बड़ा हो जाता है।


          जो उनका ध्यान करते हैं उन्हें भी वह अपने समान बना लेते हैं। वह उन्हें अपना बना लेते हैं कि उनकी अपनी पृथक सत्ता रहती ही नहीं। इसी कारण उन्हें कहा जाता है 'विपुल'। विपुल हैं, इस कारण ही वह ब्रह्म हैं। इस संदर्भ में एक महत्वपूर्ण बात यह है कि यदि वह अपने नाम की मर्यादा बनाए रखना चाहते हैं तो जो उनका ध्यान करेंगे, जो उनकी कामना करेंगे उसे भी ईश्वर बड़ा बनाने के लिए बाध्य हैं। ऐसा इसलिए, क्योंकि यदि वह ऐसा नहीं करेंगे, तो मैं उनसे कहूंगा, 'दया करके अपना ब्रह्म नाम छोड़ दें।' उन्हें भक्त बृहत् कहते हैं, और साथ ही कहते हैं 'दिव्य'। उस दिव्य शक्ति को पहचानने के लिए आध्यात्मिकअनुभूति की जरूरत है। यह आध्यात्मिक अनुभूति नियमित साधना के द्वारा संभव है।


13-इस युग की हचान है कि एक दूसरे के प्रति संवेदना शून्य होना

          संतोष का अर्थ। आज बाजारवाद से प्रभावित होकर भौतिकवाद के प्रति प्रबल आकर्षण इतना विकराल रूप लेता जा रहा है कि वैश्रि्वक स्तर पर मानव मानव के प्रति संवेदनाशून्य हो गया है। अधिकतर मनुष्य केवल बाजारवाद को ध्यान में रखकर ही कार्य-व्यवहार कर रहे हैं। भौतिक उन्नति के लिए केवल अर्थ की ही प्रधानता होने के कारण लोग येन-केन-प्रकारेण अर्थोपार्जन में लिप्त हैं। इसीलिए भ्रष्टाचार का आचरण पनपता जा रहा है।

          भारतीय संस्कृति का आधार रखने वालों ने बहुत सोच-विचार के बाद और अनुभवों के आधारपर भौतिक संपन्नता के लिए मृग-मरीचिका की तरह माया-मोह व तृष्णा से परे रहकर अपना जीवन आध्यात्मिकता की ओर उन्मुख होने का आग्रह किया है। आज व्यक्ति असीमित इच्छाओं की पूर्ति के लिए असंतोष का जीवन जी रहा है। वह भूल रहा है कि सभी इच्छाओं और कामनाओं की पूर्ति संभव नहीं होती। एक इच्छा की पूर्ति होने पर अनेक पूरक-इच्छाएं पनपने लगती हैं। इसीलिए व्यक्ति को संतोषी होना चाहिए। कहा गया है कि संतोष ही परम सुख है। धर्म के बगैर धन का सही उपयोग नहीं हो सकेगा। धर्म हमें मर्यादित होकर जीना सिखाता है। इस प्रकार मेहनत से कमाया धन अधिक सुख, शांति व संतोष प्रदान करता है।

          प्रख्यात विचारक आचार्य चाणक्य ने संतोष को परिभाषित करते हुए बताया है कि हमें किन पर संतोष करना चाहिए और किन पर संतोष नहीं करना चाहिए। उन्होंने कहा है, अपने भोजन और अपने धन पर जितना, जो कुछ, जैसा है, उस पर संतोष करने से हमें आनंद और सुख मिलेगा।' संतोष जहां हमारे लिए आनंद का सागर है, वहीं आचार्य चाणक्य ने एक संदर्भ विशेष में असंतोष करना भी स्वीकार किया है। उन्होंने लिखा है-विद्या, जप और दान करने में संतोष नहींकरना चाहिए। हमने थोड़ा ही अध्ययन किया, थोड़ी ही परमेश्वर की भक्ति की और कुछ ही दान दिया तो ये संतोष के कारक न बनें।

          इन तीन उपादानों पर असंतोष रहा तो हमारा ज्ञानार्जन के प्रति, भगवत् भक्ति के प्रति और असहाय, दुखी व जरूरतमंदों के प्रति दान देने की प्रवृत्ति बनी रहेगी। जीवन में संतोष करते हुए संतुष्ट रहना ही श्रेयस्कर है।


14-प्रेम आत्मविश्वास से ही जागृत होता है

          आत्मविश्वास। आज हर आदमी सुख की खोज में लगा है और उस थके-हारे इंसान के संदर्भ में दार्शनिक खलील जिब्रान को पढ़ना अच्छा लगता है। जिब्रान लिखते हैं, 'मैं भी कहता हूं कि जीवन सचमुच अंधकारमय है, यदि आकांक्षा न हो। सारी आकांक्षाएं अंधी हैं, यदि ज्ञान न हो। सारा ज्ञान व्यर्थ है, यदि कर्म का ज्ञान न हो। जब तुम प्रेम से प्रेरित होकर कर्म करते हो तब तुम स्वयं से बंधते हो, एकदूसरे से बंधते हो, भगवान से बंधते हो।' जिब्रान के इस कथन में प्रेम का निहितार्थ आत्मविश्वास से है। इसी आत्मविश्वास के बल पर हम वह सब कर सकते हैं जो हम करना चाहते हैं।

          मैं अच्छा आदमी तभी बन सकता हूं, यदि मुझमें आत्मविश्वास है। दृढ़ निश्चय है। साहसपूर्ण निर्णायक क्षमता है। आशावादी दृष्टिकोण है। सकारात्मक सोच है। उत्साही मन है। ऊर्जस्वी पराक्रम है। मैं दुख में से सुख खोज लेना चाहता हूं और ऐसा सोचते हुए, आत्मविश्वास से भरकर सचमुच सुख खोज लेता हूं। आज का आदमी समय के साथ चले, लेकिन उसे बुरे आचरण को छोड़कर अच्छी जिंदगी का सपना देखने का हक है।

          सोचना यह है कि हम गहराई में जमे बैठे संस्कारों को कैसे सुधारें? जड़ों तक कैसे पहुंचें? जड़ के बगैर सिर्फ फूल-पत्तों का क्या मूल्य? पतझड़ में फूल-पत्ते सभी झड़ जाते हैं, मगर वृक्ष कभी इस वियोग पर शोक नहीं करता। उसके पास जड़ की सत्ता सुरक्षित है, जिससे वसंत आने पर पुन: वृक्ष फूल-पत्तों से लहलहा उठते हैं। आज हमें भी आत्मविश्वास को मुकाम तक पहुंचाने के लिए मूल्यों को स्वयं में सहेजना होगा, बाहरी अवधारणाओं को बदलना होगा, जीने की दिशा को मोड़ देना होगा। तभी बंधन ढीले पड़ेंगे और निर्माण का रास्ता साफ-सुथरा बन सकेगा। अंधेरा तभी तक डरावना है जब तक हाथ दीये की बाती तक न पहुंचे।

          आप एकदम से अपने आत्मविश्वास को प्राप्त नहीं कर सकते। अपने आप को अपना भविष्य निर्माता मानिए और फिर कार्य की शुरुआत कर दीजिए। अपने भविष्य की कल्पना कीजिए। सोचिए कि आज से एक वर्ष बाद, दो वर्ष बाद या पांच वर्ष बाद आप कहां पहुंचना चाहते हैं। जहां आपको मनचाही सफलता और जिंदगी हासिल हो। आपको यह मानना होगा कि आप बदल सकते हैं और उस बदलाव के लिए आपके पास पर्याप्त आत्मशक्ति है। एक चीनी कहावत है कि महापुरुषों में आत्मविश्वास होता है और दुर्बलों की केवल इच्छाएं।


15-प्रेम ही तो परमेश्वर है

          प्रेम ही संसार में प्रेरक शक्ति है, जो निरंतर स्फूर्त रखता है और बड़े से बड़ा काम करने को प्रेरित करता है। यही प्रेम सर्वव्यापी होकर ईश्वर का रूप ले लेता है। स्वामी विवेकानंद का चिंतन.. विवेकानन्द के अएनुसार प्रेम सर्वसाक्षी, सर्वव्यापी और सर्वत्र है। चेतन और अचेतन में, व्यष्टि और समष्टि में यही भगवत्प्रेम आकर्षक शक्ति के रूप में प्रकट होता है।

          संसार में यही एक प्रेरक शक्ति है। इसी प्रेम की प्रेरणा से ईसा मानव जाति के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग करता है और बुद्ध एक प्राणी तक के लिए, माता अपनी संतान के लिए और पुरुष स्त्री के लिए कुछ भी कर सकता है। इसी प्रेम की प्रेरणा से मनुष्य अपने देश के लिए प्राण निछावर करने को उद्यत रहते हैं। संसार की यह प्रेरक शक्ति प्रेम निर्लेप और सभी में प्रकाशमान है। इसके बिना संसार क्षण भर में चूर्ण होकर नष्ट हो जाएगा। यह प्रेम ही परमेश्वर है।

         'पति से कोई पत्नी पति के लिए प्रेम नहीं करती, वरन पति में जो आत्मा है, उसी के लिए वह प्रेम करती है। कोई पति पत्नी से पत्नी के लिए नहीं, वरन उसमें जो आत्मा है, उसके लिए प्रेम करता है। कोई किसी भी चीज पर केवल आत्मा को छोड़कर और किसी अन्य बात के लिए प्रेम नहींकरता। (वृहदारण्यकोपनिषद)।' यह भी उसी प्रेम का ही एक रूप है। इस खेल को छोड़कर अलग खड़े हो जाओ, उसमें अपने को शामिल न करो, वरन इस अद्भुत दृश्य को, इस अपूर्व नाटक को, एक के बाद दूसरे अंक के अभिनय को देखते चलो और इस अद्भुत स्वर-संगति को सुनते जाओ। सभी उसी प्रेम की अभिव्यक्तियां हैं।

         स्वार्थपरायणता में भी वही आत्मा या 'स्व' अनेक हो जाता है और बढ़ता ही जाता है। वही एक आत्मा मनुष्य का विवाह हो जाने पर दो आत्मा और बच्चे पैदा होने पर अनेक आत्मा हो जाएगी। वही पूरा गांव हो जाएगा, शहर हो जाएगा और फिर भी बढ़ता ही जाएगा, जब तक कि वह सारी दुनिया को आत्मस्वरूप अनुभव न करने लगे। वही आत्मा अंत में सभी पुरुषों, सभी स्त्रियों, सभी बच्चों, सभी जीवधारियों, यहां तक कि समग्र विश्व को अपने में ढक लेगा। वही सामान्य प्रेम आगे चलकर बढ़कर सर्वव्यापी प्रेम अर्थात अनंत प्रेम का स्वरूप धारण कर लेगा और वही प्रेम ही तो ईश्वर है।


16-सफलता के लिए कठिन तप जरूरी है

          तप के आयाम। जीवन में कठिन तप के बिना सफलता नहीं मिलती। तप का सीधा सा अर्थ है-तपना। ठीक वैसे ही जैसे सोना आग में तप कर कुंदन बनता है। तभी तो इस देश के सिद्ध-साधकों और ऋषि-मुनियों ने तप के सहारे जीवन में परम लक्ष्य की प्राप्ति की। सत्य के महान खोजियों ने तप को एक दर्शन माना। तप एक कठोर साधना है। इस साधना के अंतर्गत तप मनुष्य करता है और सिद्धि परमात्मा देता है। अध्यात्म में तप के विविध आयामों की चर्चा की गई है। कहा गया है कि अपने जीवन के दीपक को तपस्या से प्रकाशित करो। तप के भी कई प्रकार हैं। बहुत से लोग शरीर के तप को महत्व देते हैं।

          जो सच्चा साधक है वह तपस्वी होगा ही। ऐसा इसलिए, क्योंकि उसके जीवन में तप स्वत: बस जाता है। वह दुविधा में भी हर कार्य सुविधा से करता है। उसके आभामंडल का तो कहना ही क्या। देश को राजनीतिक आजादी दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भी तप को जीवन में प्रमुखता दी।

         जहां गांधीजी सत्याग्रह कर रहे थे वहीं भगत सिंह और सुभाष चंद्र बोस जैसे तपस्वी क्त्रांतिकारी आजादी की अलख जगा रहे थे। गौतम बुद्ध ने करुणा को साधा और महावीर ने अहिंसा को साधा। लोग उनकी तपश्चर्या की चर्चा आज भी करते हैं। सदाचरण की साधना दैहिक तप है। वैचारिक रूप से पवित्र रहना मानसिक तप है। एक तप वाणी का भी है। जो कहा वह सोच-समझकर। जो तपस्वी होता है उसका जीवन संतुलित होता है, परंतु अफसोस कि कई बार कुछ तथाकथित लोग इसका भी आडंबर रचकर समाज से छलावा करते हैं। ऐसे लोगों से सतर्क व सजग रहने की आवश्यकता है।

          भारत का स्वाधीनता संग्राम हम परम तपस्वियों के तप से जीत सके। तप कठोर व अनवरत साधना के बाद ही फल देता है। प्रभु श्रीराम 14 वर्षो तक वन में रहे और आसुरी शक्तियों को हराने के लिए तप किया। यह उत्कृष्ट तप है। मनुष्य जीवन में तप का संबंध भी जन्म-जन्मांतरों से होता है। भगवान श्रीराम तो कहते हैं कि एक साधक की साधना को मैं जन्म-जन्मांतर तक निरंतरता प्रदान करता हूं। प्रभु तो हम पर हर पल कृपा बरसाने को तैयार बैठे हैं, लेकिन हम अपने जीवन को सही तरीके से साधें तो।

Friday, March 20, 2015

निर्मल वांणी

1-धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष यही तो हैं चार पुरुषार्थ
 
 
         तुला एक प्रकार का यंत्र है, जिसके द्वारा किसी वस्तु की संहति या उसका भार ज्ञात किया जा सकता है। तुला का शाब्दिक अर्थ है बराबर या समान किया हुआ। चूंकि तुला के दोनों पलड़ों पर गुरुत्वाकर्षण की शक्ति समान रूप से कार्य करती है, इसलिए तुला तभी समान होगी, जब दोनों पलड़ों पर समान भार हो। तुला का यह सिद्धांत हमारे जीवन में बड़ा ही महत्वपूर्ण है। जीवन के चार पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष हैं। मोक्ष मन की शांति पर निर्भर करता है। मन को शांति तभी मिलती है, जब मन पूर्णरूप से स्थिर हो।
 
         मन तभी स्थिर होगा जब धर्म, अर्थ व काम में संतुलन स्थापित हो। यह संतुलन स्थापित करना है अर्थ और काम के बीच। अर्थ है ज्ञान शक्ति व धन का अर्जन और काम है उसका उपयोग। जब अर्थ और काम दोनों ही धर्म से बराबर प्रभावित होंगे, तभी उनमें संतुलन होगा। तभी मन को शांति मिलेगी और आत्मा को मोक्ष मिलेगा। एक विद्यार्थी जो शिक्षा अर्जन में 'क्या' और 'कैसे' के उत्तर समझ लेता है, वह हमेशा अपने अभ्यास में सफल होता है। उसका जीवन संतुलित होता है और उसे शक्ति मिलती है। वहीं जो व्यक्ति समझ के बगैर मात्र परीक्षा में पास होने को ही अपना लक्ष्य बनाता है, वह पास होने पर भी उपार्जन में सफल नहीं होता। ऐसा इसलिए, क्योंकि उसकी सफलता में नैतिक आधार ही नहीं है। इसलिए उसका जीवन संतुलित नहीं होता और वह शांति भी नहीं प्राप्त कर पाता है।
 
          इसी तरह समाज में रहने वाला प्राणी यदि समाज, परंपराओं और प्रकृति के नियमों को समझकर समाज के अनुकूल चलता है, तो वह अपने आप को संतुलित रख पाता है और शांति को प्राप्त होता है। न्यायालय की तुला भी इसी बात की द्योतक है। इसी प्रकार एक योगी यदि यम और नियम के आधार पर अपने आहार-विहार और प्राणायाम में संतुलन स्थापित कर लेता है, तो आगे की ध्यान और धारणा की सीढि़यां, वह आसानी से चढ़ लेता है और अपने आपको संतुलित रख पाता है। वह समाज में निर्लिप्त जीवन जीता है और शांति से जीवन जीता है। इसी प्रकार जो व्यक्ति तुला के संतुलन को समझकर अपने जीवन में सामंजस्य स्थापित करता है उसे जीवन में शांति मिलती है।
 
 
2-क्रोध करना मनुष्य की एक मनोवृत्ति बन जाती है
 
         क्रोध से व्यक्ति का सहज स्वभाव बदल जाता है। क्रुद्ध व्यक्ति की सज्जनता, संवेदनशीलता, शालीनता, विन्रमता, उदारता आदि गुण ओझल हो जाते हैं। उसके अंदर की हमदर्दी कठोरता में और सहृदयता क्रूरता में बदल जाती है। जब क्रोध स्थायी भाव बन जाता है तो यह रोष बन कर प्रकट होता है।
 
         क्रोध एक मनोवृत्ति है। यह एक ऐसी भाव दशा है जो अति शीघ्र प्रकट होती है। इसे दबाया तो जा सकता है, लेकिन इसके प्रभावों को छिपाना संभव नहीं है। क्रोध मानवीय व्यवहार के किसी न किसी पक्ष से उजागर हो ही जाता है। मनोवैज्ञानिकों ने क्रोध को शांत व हिंसक के रूप में वर्गीकृत किया है। शांत क्रोध अंतरमुखी होता है। इससे व्यक्ति में हताशा, निराशा और उदासी छा जाती है। वह हैरान-परेशान रहता है। अपने मन की बात किसी से कह न पाने के कारण वह अंदर ही अंदर घुटता रहता है।
 
         क्रोध के उबाल को दबा देने के कारण उसकी आंतरिक स्थिति और भी अस्थिर व अशांत हो उठती है। हिंसक क्रोध बहिर्मुखी होता है। यह क्रोध अपने उफान को बाहर प्रकट करता है। इसके परिणाम स्वरूप कलह, लड़ाई-झगड़ा से लेकर दंगा-फसाद तक होते देखे जा सकते हैं। यह भी दो प्रकार का होता है- साधारण और असाधारण। साधारण क्रोध अल्पकालिक और क्षणिक होता है। यह दूध के समान तुरंत उफन पड़ता है। इसकी प्रतिक्रिया क्षीण ही सही, परंतु तीव्र होती है। जैसे ही यह क्रोध शांत होता है, अपने किए कर्म पर पश्चाताप होता है। असाधारण क्रोध का आवेश दीर्घकाल तक बना रहता है।
 
         आवेश का यह नशा मदिरा के समान होता है। इसके नशे में व्यक्ति लंबे समय तक आत्मविस्मृत हो कर बेसुध पड़ा रहता है। ऐसे व्यक्ति को कोई भी उपदेश और मार्गदर्शन देना संभव नहीं है, क्योंकि वह अपने ही बुने ताने-बाने में जलता-भुनता रहता है। धीरे-धीरे वह उन्माद के बाहुपाश में जकड़ता चला जाता है और उन्मादी वृत्ति उसके जीवन का अंग बन जाती है।
 
         किसी भी कारण से क्रोध पैदा हो सकता है, परंतु जैसे ही मन में छोटी तरंग उत्पन्न होती है, वैसे ही यह संवेदना का योग पाकर मन की गहराई में उतरती चली जाती है। क्रोध को नियंत्रित किया जा सकता है। आत्म-नियंत्रण व ईश्वर चिंतन द्वारा इस असाध्य मनोरोग से मुक्ति संभव है।
 
 
3-क्या मन सत्य से पवित्र बन सकता है
 
         अस्तेय का अर्थ है चोरी न करना। किसी वस्तु का मूल्य चुकाए बगैर या परिश्रम किए बिना उस वस्तु को प्राप्त करना भी चोरी है। जिस वस्तु पर हमारा अधिकार नहीं हैं उसे पाने की इच्छा बीजरूप में चोरी ही मानी जाएगी। मन पर काबू करते हुए इस दुगरुण से बचना अस्तेय व्रत है। काम, क्रोध, लोभ आदि मनोविकारों के कारण अपराधों में वृद्धि हो रही है। सभी इंद्रियों में मन अत्यंत सूक्ष्म होने के कारण इससे होने वाली चोरी सूक्ष्मतम होती है। किसी वस्तु को देखकर मन ललचाता है।
 
         लालच या प्रलोभन के वशीभूत होने पर अस्तेय का पालन संभव नहीं है। किसी चीज की जरूरत न होने पर भी उसे हड़प कर फालतू चीजों का अंबार लगा लेना परिग्रह कहलाता है, जो अस्तेय व्रत का शत्रु है। आज भी यदि हमें नैतिक मूल्यों को स्थापित करना है तो आर्थिक मर्यादा निश्चित करते हुए संयम आवश्यक है। तभी न केवल हमारे तनाव दूर होंगे, बल्कि हमें सुख व संतोष भी प्राप्त होगा।
 
         आज उपभोगवाद का दौर चल रहा है। ऐसे समय में अस्तेय व्रत की प्रासंगिकता बढ़ गई है। इसके द्वारा ही हम उपलब्ध साधनों का सीमित उपभोग करते हुए सुखी और संतुष्ट जीवन बिता सकते हैं। महात्मा गांधी ने अपने एकादश व्रतों में अस्तेय को महत्वपूर्ण स्थान दिया है। महर्षि पतंजलि ने योग-दर्शन में सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य के साथ अस्तेय को जीवन का अभिन्न अंग माना है।
 
         अस्तेय एक मानसिक संकल्प है, जिससे मन पर नियंत्रण किया जा सकता है, क्योंकि संसार का समस्त कार्य-व्यापार मन ही संचालित करता है। मन ही कर्ता, साक्षी और विवेकी है। मन के वश में होने पर अस्तेय व्रत का पालन सब प्रकार से किया जा सकता है। मन को हम सत्य द्वारा पवित्र बना सकते हैं। अस्तेय व्रत साधने के लिए संतोष का सद्गुण अपनाना होगा।
 
         हम जानते हैं कि सारे व्रत या संकल्प एक दूसरे से जुड़े हैं। इसलिए अस्तेय की प्राप्ति के लिए सत्य, अहिंसा आदि व्रतों का भी पालन करना होगा। संतोष के बिना परिग्रह समाप्त नहीं किया जा सकता है और न ही चोरी समाप्त हो सकेगी। इसलिए सुखमय जीवन और स्वस्थ समाज के लिए अस्तेय व्रत परमावश्यक है।
 
 
4-प्रार्थना में शक्ति होती है अनुभव करके देखें
 
         परिस्थितियां हमारे जीवन को इतना दुखी बना देती हैं कि हम अपने को एकदम असहाय और निरुपाय पाते हैं। ऐसी स्थिति में यह सोचना चाहिए कि हम अपने जीवन के निर्माण के लिए स्वतंत्र, समर्थ और अपने भाग्य के विधाता हैं, क्योंकि परमपुरुष परमात्मा सदैव हमारे साथ हैं और हमारे लिए सच्चे, मार्ग-दर्शक और कल्याणकारी हैं।
 
         परमात्मा अंतर्मन में साहस का संचार करते हैं और साहस हमें सच की राह पर चलना और झूठ का तिरस्कार करना सिखाता है। हममें से तमाम लोग जानते हुए भी गलत को गलत कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। बात दिल को जंचती नहीं, फिर भी न जाने किस मजबूरी में दूसरों की हां में हां मिलाते रहते हैं और अपने मन को मारते रहते हैं। प्रार्थना में बहुत शक्ति है। वह हमें अंधकार से प्रकाश की ओर व असफलता से सफलता की ओर अग्रसर करती है।
 
         हम जैसे ही परमात्मा की ओर उन्मुख होते हैं, उनकी प्रार्थना करते हैं और उनसे किसी भी प्रकार की सहायता की याचना करते हैं, वैसे ही उनकी सहायता के अदृश्य हाथ हमारी ओर बढ़े चले आते हैं। हमें उनकी कृपा प्राप्त होने लगती है। हमारे भीतर से निराशा का भाव जाने लगता है। हम प्रसन्न रहने लगते हैं। फिर हमारा मन सुकार्य में लगने लगता है। ऐसे में परमात्मा भी हमारी सहायता के लिए किसी न किसी के हृदय में प्रेरणा उत्पन्न कर देते हैं। फिर हमारे समक्ष उत्पन्न परिस्थितियों में नया मोड़ आ जाता है। हमारी हारी हुई बाजी भी जीत में बदल जाती है। असफलता तो हमारे निकट फटकती भी नहीं। जैसा हमारा विश्वास होता है, हमें वैसा ही फल भी प्राप्त होता है।
 
         हमारी जैसी आकांक्षाएं होती हैं वे वैसी ही फलीभूत होती हैं। सुविचार और कल्याण की भावना से किए गए कार्य का परिणाम बेहद सुंदर होता है। इसके लिए केवल आपके विचारों में दृढ़ता होनी चाहिए। जरूरत इस बात की भी है कि आपकी हर क्त्रिया सुविचारित और कल्याणकारी हो। वह आपके और आपके परिवार के साथ ही समाज के लिए भी कल्याणकारी हो। प्रभु से प्रार्थना के क्षणों में जब हमारा मन एकाग्र होता है और हम अपनी समस्याएं उनके समक्ष रखकर उनसे कुछ याचना करते हैं तो हमें तुरंत समाधान मिल जाता है। इसीलिए कहा भी जाता है कि सच्चे हृदय से की गई प्रार्थना तुरंत सुनी जाती है।
 
 
5--मनुष्य का जीवन एक रहस्य है
 
         जीव का उत्पन्न होना और जीव की उत्पत्ति के कारण जानना एक बड़ा ही रहस्यमय आध्यात्मिक विज्ञान है। यह ऐसा विज्ञान है जिसे अनादिकाल से लोग समझने का प्रयत्‍‌न करते रहे हैं। जितना इस रहस्य को जानने का प्रयत्‍‌न किया जाता है उतना ही इसका रहस्य और गहन अंधकार की तरह रहस्यमय बन जाता है। ऐसा इसलिए, क्योंकि यह इतना बड़ा विज्ञान है कि हमारी छोटी बुद्धि उसे समझ नहीं पाती।
 
         हमसे अगर कहा जाए कि वह हवा, प्रकाश, यहां तक कि समुद्र की परिभाषा करे तो वह भ्रम में पड़ जाएगा। उसी प्रकार मनुष्य का जीव की उत्पत्ति के संबंध में जानने का प्रयास उतना ही असंभव होता है, क्योंकि हमारे शास्त्रों में जीव और ब्रह्म की जो कल्पना है वह अनुभव पर आधारित है। उसे प्रमाणित करने के लिए हमें अनुभव की उसी स्थिति से गुजरना पड़ेगा, क्योंकि अनुभव को प्रमाणित नहीं किया जा सकता। मनुष्य के जीवन में जो कुछ घटित हो रहा है उसे प्रमाणित नहीं किया जा सकता।
 
         जीव कहां से आता है और कहां चला जाता है, कैसे काम करता है, इस सबको प्रमाणित करना कठिन है। एक महात्मा मंदिर में ध्यान कर रहे थे और शाम हो गई। उसी समय एक बच्चा मंदिर में आया, एक दीपक रखा, माचिस जलाई, दीपक जलने लगा। जब बच्चा वहां से जाने लगा तो महात्मा ने बच्चे से पूछा- बेटे, यह दीपक कैसे जला? प्रकाश कहां से आ गया? यह सुन बच्चे ने महात्मा से कहा-आप महात्मा हो गए, इतना भी नहीं जानते! यह कहकर उसने दीपक पर फूंक मार दी।
 
         दीपक बुझ गया। बच्चे ने कहा प्रकाश जहां से आया था, वहीं चला गया। ऐसा हमारे जीवन में प्राय: होता रहता है, लेकिन इन प्रश्नों के उत्तर जानने के लिए हम कभी गंभीर नहीं होते, कभी उत्सुक नहीं होते। इसलिए अनादिकाल से जीव और जीवन के संबंध में प्रश्न तो अवश्य उठते रहे हैं, लेकिन इन प्रश्नों को हम और अनेक प्रश्नों में उलझा देते हैं। दरअसल, मनुष्य स्वयं किसी प्रश्न का उत्तर खोजना नहीं चाहता। इसलिए वह दूसरों से प्रश्न पूछता है।
 
         भगवान बुद्ध ने कभी किसी से प्रश्न नहीं पूछा, उन्होंने स्वयं उत्तर खोजा। हमारे देश में आज भी अनेक संत हैं जो स्वयं प्रश्नों का उत्तर खोजते हैं, क्योंकि जिस व्यक्ति को प्रश्न उठाना आता है वही उसका उत्तर भी खोज सकता है।
 
 
 
6-जीवन में अज्ञानता अंधकार है
 
         सांसारिक जीवन रूपी आभास होने वाले सुख के पौधे पर अंतत: दुख का फल लगता है। यह महज संयोग नहीं है, बल्कि दुखमय संसार की अंतिम व वास्तविक परिणति भी है। हम दुखी क्यों होते हैं? क्या ईश्वर ने दुख प्रदान करने वाले पदार्थो का निर्माण हमारे लिए किया है? ईश्वर ने तो हमें निर्मल मन, निश्छल देह व गंगा-सा पवित्र आनंदमय कानन-कुसुमयुक्त जीवन दिया था। फिर इस सुख में बिन बुलाए दुख आया कैसे? कौन है इसका निर्माता व जिम्मेदार? सच तो यह है कि मनुष्य ने स्वयं ही कामनाओं का यह मकड़जाल बुना है और स्वयं ही उसमें फंसकर छटपटा रहा है।
 
        असहाय व असमर्थ, पग-पग अपने गलत कृत्यों पर पश्चाताप के आंसू बहाता हुआ। ईश्वर ने हमें तपस्वी मन व सशक्त काया दी थी। इसको संग्रही व भोगी हमने बनाया। सुख की चाहत में परिवार, धन-दौलत, जायदाद व अपेक्षा-कामनाओं का अभयारण्य हमने बसाया। अब इसके हानि-लाभों से स्वयं हमें ही रूबरू होगा पड़ेगा। जीवन के हर मार्ग व मोड़ पर शाश्वत सुख व शाश्वत दुख हमारे स्वागत के लिए सदैव खड़े रहते हैं।
 
         शाश्वत सुखों में भौतिक कष्टों का आभास होता है, जबकि शाश्वत दुखों में हमें अतुलनीय आभासित भ्रामक संसार दिखाई देता है। अज्ञानता में इसे ही हमने उपलब्धियों की पूर्वपीठिका मानकर स्वीकार कर लिया है। असली सुख का मार्ग हमसे दूर छूटता चला गया और हमने दुखमय मार्ग को ही अज्ञानता के अंधकार से प्रेरित होकर सुख-सदृश मान लिया। छलावा तो महज छल सकता है। जैसे निद्रा में भव्य स्वर्णमहलों की प्राप्ति, जो स्वप्न टूटते ही खंड-खंड होकर असलियत या यथार्थ से साक्षात्कार करा देता है।
 
         इस संपूर्ण दुखमय सृष्टि का निर्माण व आमंत्रण केवल हमने ही किया है। इससे पनपने वाला हर भाव, स्वभाव, उत्पाद, संबंध व विस्तार दुखमय ही होगा। सुख का मार्ग ईश-भजन की नाव में बैठकर, सांसारिक विस्तार को भुलाकर, सनातन आनंद के उस लोक का दिव्य-दर्शन है, जहां दुख, पीड़ा, पश्चाताप व संताप पनप ही नहीं सकते।
 
 
7--संत वह है जिसके हृदय में सात्विक गुण हो
 
         प्रत्येक व्यक्ति के जीवन के दो पक्ष होते हैं। पहला पक्ष उज्जवल है और दूसरा श्याम। पहले पक्ष का संबंध व्यक्ति के सात्विक गुणों से होता है और दूसरे पक्ष का संबंध असात्विक गुणों से। व्यक्ति अपने स्वभाव और गुणों के आधार पर संतत्व-असंतत्व, यश-अपयश, मान-अपमान, प्रशंसा-निंदा आदि का भागीदार बनता है।
 
         शास्त्रों में वर्णित संतों के 32 लक्षणों के आधार पर संतों की भिन्न-भिन्न व्याख्याएं प्रस्तुत की गई हैं। सामान्यत: संत के हृदय में सात्विक गुणों और स्वभाव की विनम्रता के कारण सदैव भगवान का ही चिंतन रहता है और भगवान के हृदय में सदैव संत का ही वास होता है। संत-सान्निध्य सर्वजन हितकारी, सुखकारी और शांति प्रदाता होता है। संत ही भोग-वासनाओं से विरत, धर्म-नीति के पालक, भगवान के सच्चे भक्त और नवनीत के समान कोमल हृदय होने के कारण दूसरों के दुखों से शीघ्र द्रवित हो जाते हैं।
 
          संत के बिछोह की कल्पना मात्र से ही होने वाली मर्मातक पीड़ा से प्राण त्यागने जैसी व्याकुलता की अनुभू्ति होने लगती है। इसके विपरीत असंत के मिलने मात्र से ही दारुण दुख देने वाली असहनीय वेदना होती है। मानस में संत तुलसी ने कहा है-'संत दरस सम सुखजन नाहीं।' संत चलते-फिरते तीर्थ ही नहीं, बल्कि साक्षात सत्संग भी होते हैं। संत में चेतन-तत्व का प्राबल्य होने के कारण देवत्व की प्रधानता होती है।
 
          संत-सान्निध्य प्राप्त करने की ललक और संस्कारों का धनी व्यक्ति ही संत के निकट पहुंचने की पात्रता रखता है। संत के हृदय की स्वाभाविक पवित्रता के प्रभाव से संपर्क में आने पर व्यक्ति अपनी दुर्बलताओं और कुत्सित मनोविकारों को जान लेता है और संत-कृपा से सजग हो जाता है। संत अपने संतत्व की स्वाभाविक ऊर्जा से सत्संग के परिवेश का निर्माण करते हैं और अपने सद्गुणों और सद्विचारों से उसे अपने जैसा ही बना लेते हैं। संत-सान्निध्य प्राप्त होते ही व्यक्ति क्षण-क्षण में क्षीण होने वाले संसार की क्षुद्र सीमाओं को पार कर सद्मार्ग का अनुगामी होकर शाश्वत सत्य की निकटता की अनुभू्ति करने लगता है।
 
           संत की कृपा ही व्यक्ति को परम प्रभु के निकट पहुंचाने के लिए अनुकूल परिस्थितियों का सृजन करती है। संत-सान्निध्य ही सत्संग की सुवास की जीवंतता को अक्षुण्ण बनाए रखता है।
 
 
 
8-जीवन में खुशी एक सकारात्मक मनोदशा है
 
         वस्तुत: प्रसन्नता या खुशी आपकी मनोदशा पर निर्भर करती है। इसलिए खुश रहना एक हुनर है। तमाम लोगों की धारणा है कि अमुक-अमुक वस्तुओं को हासिल करने से उन्हें खुशी मिलेगी तो उनकी ऐसी सोच बेबुनियाद है। इसका कारण यह है कि खुशी का अहसास किसी वस्तु विशेष पर निर्भर नहीं करता।
 
          दुनिया में तमाम ऐसे धनवान व्यक्ति हैं जिनके पास समस्त भौतिक व विलासितापूर्ण वस्तुएं उपलब्ध हैं। इसके बावजूद आए दिन अखबारों व अन्य प्रचार माध्यमों में इस आशय की खबरें प्रकाशित होती रहती हैं कि अमुक धनवान व्यक्ति ने आत्महत्या कर ली। स्पष्ट है कि ऐसे लोग स्वयं से या हालात से अप्रसन्न होने की स्थिति में ही आत्महत्या करते हैं। इस प्रकार यह बात स्वत: ही स्पष्ट हो जाती है कि प्रसन्नता का कारण सिर्फ धन या वैभव ही नहीं है। वस्तुत: खुशी एक सकारात्मक मनोदशा है, जिसमें आप शांति व आनंद की अनुभूति करते हैं। यदि आपके जीवन में अथक प्रयासों के बाद भी खुशी का अहसास नहीं हुआ है तो इसका अर्थ है कि आपने जीवन के आधारभूत तत्वों की उपेक्षा की है।
 
         बात चाहे संबंधों की प्रगाढ़ता की हो या परिस्थिति विशेष से निबटने में कार्यकुशलता की, आप बेहतर तभी कर सकते हैं जब खुश हों। सच तो यह है कि खुश रहना या नहीं रहना आप पर निर्भर है। जीवन में चाहे आप जो भी पा लें, यह मायने नहीं रखता। यदि आप खुश हैं, कुछ और नहीं भी हासिल करते हैं तो आपका क्या बिगड़ जाता है? खुश रहना आपका स्वभाव है। इसलिए आप खुश रहना चाहते हैं। जब आप छोटे थे तो खुश थे, लेकिन जीवन-यात्र में खुशियों को आपने कहीं खो दिया है, क्योंकि आपका मन और शरीर आपकी पहचान को आसपास की चीजों से जोड़कर देखने का आदी हो चुका है।
 
         जिसे आप मन कहते हैं उस पर सामाजिक परिस्थितियों का प्रभाव पड़ता है। आप जैसे समाज में पले-बढ़े हैं, आपके मन-मस्तिष्क की अवधारणा वैसी ही होगी। आपके मन-मस्तिष्क में भी वही है जो आपने समाज में देखा है। आप इन चीजों से इतने गहन रूप में जुड़ गए हैं कि यह प्रवृत्ति आपकी परेशानियों का मूल कारण बन गई है।
 
 
9-आत्मा का सर्वोपरि साधन है मन
 
           चिंतन का अर्थ है सोचना या विचारना। किसी सुने हुए, पढ़े हुए या विचारणीय विषय पर एकांत स्थान में बैठकर गंभीर विचार करना मनन है। मननशीलता का गुण होने के कारण मानव को मनुष्य कहा जाता है। जैसा मन का स्वभाव या गुण होता है वैसा ही मनुष्य होता है। मन आत्मा का सर्वोपरि साधन है। मन का कार्य है आत्मा से प्राप्त संदेशों को क्रियान्वित कराने का संकल्प करना।
 
         मन ज्ञानेंद्रियों और कर्मेद्रियों के जरिये कार्य करने के लिए प्रेरित करता है। मन की गुणवत्ता पर ही मनुष्यता निर्भर करती है, अन्यथा मन के पतित होने पर मानव का व्यवहार भी पशुवत हो जाता है। हमारे अंत:करण के अंतर्गत मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार को शुमार किया जाता है। कार्य के विभाजन को देखते हुए मन और चित्त भिन्न-भिन्न हैं।
 
         चित्त का काम चिंतन करना है और मन का काम मनन करना है। चिंतन चित्त में होने के कारण उसके साथ बुद्धि का समावेश रहता है। शास्त्रों में बुद्धि को निश्चयात्मक बताया गया है। इस गुण के कारण यह किसी भी विषय का निश्चय करा देती है। चिंतन निर्विकल्प स्थिति है, जो ज्ञानपूर्वक होती है। आध्यात्मिक जगत में केवल आत्मा और परमात्मा का चिंतन होता है, किसी अन्य विषय का नहीं।
 
         मनुष्य ज्ञानरहित अवस्था में ही चिंता करता है। वेदों में कहा गया है कि मनुष्य चिंता न करे, क्योंकि यह हमें पतन की ओर ले जाती है। शास्त्रों में चिंता और चिता पर विचार करते हुए बताया गया है कि मनुष्य चिंता करके चिता की स्थिति तक पहुंच जाता है, परंतु यदि वह चित्त में चिंतन करे तो परमात्मा की प्राप्ति के मार्ग पर अग्रसर हो जाता है। चिंतन साधना की प्रारंभिक अवस्था है।
 
         व्यक्ति अपने चित्त को योग साधना के माध्यम से बाहरी कार्र्यो और विषयों से हटाकर अपनी चित्तवृत्तियों का निरोध कर लेता है। इस स्थिति को गीता में कामनाओं से रहित होकर योगनिष्ठ होना बताया गया है। ऐसा योगनिष्ठ साधक आत्मानंद का अनुभव प्राप्त करते हुए अपने जीवन के मुख्य लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है। वेदों के अनुसार मन हृदय में स्थित है, मस्तिष्क में नहीं। आत्म तत्व को सुसारथि बताया गया है जो चिंतन-मनन के विवेक से परिपूर्ण होकर जीवन रूपी रथ का संचालन करता है।
 
 
10-विचार से तर्क का जन्म होता है
 
         मनुष्य जो कुछ भी करता है, वह सोचकर करता है। वह मंदिर जाता हो, चोरी करता हो या अनैतिक काम करता हो, वह सोचकर करता है। मंदिर जाने के पहले वह मंदिर आने का विचार करता है, तब मंदिर जाता है। अनैतिक काम करने से पहले भी वह विचार करता है।
 
         विचार करते समय उस काम के अच्छे-बुरे प्रभाव के बारे में भी सोचता है, लेकिन जब उसके दिमाग पर बुरे विचारों का प्रभाव रहता है, तो वह अपने सभी अच्छे विचारों को अपने ही तर्क से दबा देता है और अपने बुरे विचारों के समर्थन में तर्क भी गढ़ लेता है। वह अपने तर्को द्वारा मान लेता है कि उसका प्रत्येक गलत काम सही है। ऐसा इसलिए क्याेंकि मनुष्य तार्किक व्यक्ति है।
 
          ऐसा होता भी है कि जो व्यक्ति गलत करता है, उसके पास अपने गलत काम के समर्थन में बहुत तर्क होते हैं। शराब पीने वाला आपको मनवा देगा कि वह सही कर रहा है, क्योंकि वह अपनी चालाकी से अपने समर्थन में मजबूत तर्क एकत्र कर लेता है। जैसे किसी वकील के पास आप जाइए और यह कहें कि मैंने कोई दुराचार किया है, तो वह अपने तर्क से यह साबित कर देगा कि आपने गलत नहीं किया। गलत काम करने वालों के पास तर्क बहुत होते हैं। सत्य को साबित करने के लिए किसी तर्क की आवश्यकता नहीं होती। तर्र्को के द्वारा असत्य को सत्य साबित किया जा सकता है।
 
         कई लोग आपको भी यह साबित कर बता देंगे कि अमुक व्यक्ति मनुष्य नहीं पशुतुल्य है। 1 कई बार सत्य बोलने वाले को असत्यवादी लोग चौराहे पर खड़ा करके असत्य साबित कर देते हैं और ईसा मसीह को सूली पर चढ़ा देते हैं, सुकरात को जहर पिला देते हैं। ऐसे लोग बड़े तार्किक होते हैं। तर्क का जन्म विचार से होता है। शरीर में जो ऊर्जा बनती है, उस ऊर्जा को अगर विवेकपूर्ण कार्यो में खर्च किया जाए तो उसका प्रभाव रचनात्मक होता है।
 
         अगर इस ऊर्जा को गलत दिशा में खर्च किया जाए तो मानवता का नाश करने के लिए हिरोशिमा और नागासाकी की घटना घट जाती है। मनुष्य मूल रूप से न अच्छा होता है और न बुरा होता है। वह केवल मनुष्य होता है। बाद में वह जिस परिवेश में पलता है जैसा विचार करता है, वैसा ही बन जाता है।
 
 
11-योग बिना भक्ति उसी तरह है, जैसे सुनार बिना सोना
 
         योग बिना भक्ति उसी तरह है, जैसे सुनार बिना सोना के। हमें ज्ञान और कर्म की भी साधना करनी पड़ेगी। सिर्फ आसन और प्राणायाम करने से परमसत्ता को नहीं पाया जा सकता है। सबसे महत्वपूर्ण है भक्ति। एक अनपढ़ व्यक्ति भी भगवान को पा सकता है, जबकि एक विद्वान भी उसे नहीं प्राप्त कर सकता है। इस संदर्भ में सवाल उठता है कि ज्ञान क्या है? सभी वस्तुओं में परमात्मा की उपस्थिति का अनुभव करने का प्रयास करना ही ज्ञान साधना है।
 
         सभी वस्तुओं में परमात्मा की सत्ता को अनुभव करने के लिए लोग आध्यात्मिक साधना करते हैं। परमात्मा सभी वस्तुओं में नहीं है, बल्कि सभी वस्तुएं उन्हीं में हैं, सभी वस्तुएं वे ही हैं। ज्ञान साधना में यह बोध होता है कि सभी वस्तुएं परमात्मा ही हैं। अब सवाल उठता है कि कर्म साधना क्या है? भौतिक विश्व में सभी व्यक्तियों में कार्य करने की संभावना है, किंतु कुछ लोग ही शत-प्रतिशत संभावना का उपयोग कर पाते हैं, 90 प्रतिशत का उपयोग हो ही नहीं पाता।
 
           कर्म साधना का आशय है- दूसरों के लिए अधिक और अपने लिए कम कर्म करना। साधारणतया मनुष्य अपने लिए ही कार्य में संलग्न रहता है। जो दूसरों के लिए भी कर्म करता है, वह वास्तव में महान है। जो सिर्फ दूसरों के लिए ही कर्म करता है वह 'कर्मसिद्ध' कहा जाता है। इसलिए ज्ञान और कर्म द्वारा भक्ति का जागरण किया जाता है। इस बात को मन में रखें कि ज्ञान और कर्म दोनों को ही करना है, किंतु कर्म साधना, ज्ञान साधना से ज्यादा करनी है। जब कर्म की तुलना में ज्ञान साधना ज्यादा हो जाए, तो अहंकार के पैदा होने की संभावना बढ़ जाती है, जिसका परिणाम पतन होता है। जब ज्ञान से अधिक कर्म किए जाते हैं, तब भक्ति जाग्रत हो जाती है, तब योगी परमात्मा की तरफ बढ़ सकता है।
 
         इसके पहले नहीं। एक योगी संपूर्ण रूप से भक्ति पर आश्रित रहता है। जहां भक्ति नहीं है, उस योगी का हृदय मरुभूमि की तरह हो जाता है। एक साधक का हृदय मिट्टी की तरह होता है। इष्टमंत्र बीज है और भक्ति जल के समान है। जहां भक्ति की ठंडी फुहार नहीं है, उस मरुभूमि में बीज बोना व्यर्थ है। इसलिए एक आदर्श योगी बनना सबका लक्ष्य है, किंतु यह याद रखना चाहिए कि भक्ति की लौ को अंतर्मन में जाग्रत करना जरूरी है।
 
 
12-कृतज्ञता से जीवन का पोषण होता है
 
कृतज्ञता मानव जीवन का पोषक तत्व है। इसके बिना जीवन का रस फीका हो जाता है। यह जीवन मूल्यों में उच्चकोटि का शाश्वत सद्गुण है। संपूर्ण मनुष्य की कसौटी पर खरा उतरने के लिए कृतज्ञता का भाव आत्मसात कर लेने पर दूसरों को सुधारने की पात्रता आती है।
 
         उन्नति करने के लिए कृतज्ञता के गुण की अधिक आवश्यकता है। कृतज्ञता की प्रेरणा नारियल के वृक्ष से मिल सकती है। यह वृक्ष 50 वर्ष से अधिक समय तक फल और स्वास्थ्यवर्धक पानी प्रदान करता है और बदले में कुछ नहीं चाहता। केवल अपने लिए जीना स्वार्थ है। दूसरों का सहयोगी बनना परार्थ है।
 
         सामाजिक ऋण चुकाने की भावना से कार्य करना कृतज्ञता रूपी यज्ञ है। सामाजिक मूल्य न बनने वाले गुण, दोष हो जाते हैं। कृतज्ञता से पहचानने की दृष्टि आती है तो कृतघ्नता से व्यक्ति दूसरों की नजरों में गिर जाता है। अपने काम आए लोगों को नकारना कृतघ्नता है। यह स्थिति मूढ़ता के कारण उत्पन्न होती है। कृतज्ञता की अभिव्यक्ति एक बड़ा सद्गुण है। हनुमान के प्रति राम इतने कृतज्ञ होते हैं कि वह चाहते हैं कि कभी हनुमान पर ऐसा कोई कष्ट आए ही नहीं जिसके लिए राम की उन्हें आवश्यकता पड़े, भले ही राम जीवनपर्यन्त कृतज्ञ बने रहें।
 
           कृतज्ञता वह सदगुण है, जिसकी अभिव्यक्ति करना हमारा कर्तव्य है। कहा गया है- नेकी कर दरिया में डाल। कृतज्ञता रूपी प्रसन्नता को दूसरों की कृतघ्नता रूपी अप्रसन्नता के हवाले करना हितकर नहीं होता। छोटी से छोटी सहायता, श्रेष्ठ भावना और मधुर शब्दों का कृतज्ञता से स्मरण कर यथासंभव लौटाना दिव्य संस्कार है। इस संदर्भ में भरत कहते हैं कि यदि मैंने कोई दोष किया गया हो तो ईश्वर मुडो कृतघ्नता का दंड दे। कृतज्ञता के बदले कृतघ्नता करने वालों के लिए प्रायश्चित करने के लिए किसी विकल्प की संभावना नहीं रहती।
 
         कृतज्ञता किसी के प्रति सच्ची योग्यता को स्वीकार करने का ही भाव है। कृतज्ञता कथनी और करनी का भेद मिटाकर सत्य की स्थापना करती है। कृतज्ञता किसी के प्रति दिया गया आदर का भाव है। सम्मान देने वाले स्वयं को झुकाकर अपने उच्च संस्कारों का परिचय कराते हैं। वस्तुत: महापुरुष कृतज्ञता में जीते हैं। 12-हमारी वांणी की देवी सरस्वती ही तो है वसंत पंचमी को मां सरस्वती के प्रकट होने का दिन माना जाता है।
 
         सरस्वती मनुष्य को ज्ञान के प्रकाश की ओर ले जाती हैं। वे वाणी की देवी हैं, जो संदेश देती हैं कि जो भी बोलें, सोच-समझकर। वाग्देवी सरस्वती वाणी, विद्या, ज्ञान-विज्ञान एवं कला-कौशल आदि की अधिष्ठात्री मानी जाती हैं। वे प्रतीक हैं मानव में निहित उस चैतन्य शक्ति की, जो उसे अज्ञान के अंधकार से ज्ञान के प्रकाश की ओर अग्रसर करती है।
 
         सर्वाधिक प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद में सरस्वती के दो रूपों का दर्शन होता है- प्रथम वाग्देवी और द्वितीय सरस्वती। इन्हें बुद्धि [प्रज्ञा] से संपन्न, प्रेरणादायिनी एवं प्रतिभा को तेज करने वाली शक्ति बताया गया है। ऋग्वेद संहिता के सूक्त में वाग्देवी की महिमा का वर्णन किया गया है। ऋग्वेद संहिता के दशम मंडल का 125वां सूक्त पूर्णतया वाक् [वाणी] को समर्पित है। इस सूक्त की आठ ऋचाओं के माध्यम से स्वयं वाक्शक्ति [वाग्देवी] अपनी सामर्थय, प्रभाव, सर्वव्यापकता और महत्ता का उद्घोष करती हैं।
 
         वाणी का महत्व- बृहदारण्यक उपनिषद् में राजा जनक महर्षि याज्ञवल्क्य से पूछते हैं- जब सूर्य अस्त हो जाता है, चंद्रमा की चांदनी भी नहीं रहती और आग भी बुझ जाती है, उस समय मनुष्य को प्रकाश देने वाली कौन-सी वस्तु है? ऋषि ने उत्तर दिया- वह वाक [वाणी] है। तब वाक ही मानव को प्रकाश देता है। मानव के लिए परम उपयोगी मार्ग दिखाने वाली शक्ति वाक [वाणी] की अधिष्ठात्री हैं भगवती सरस्वती। छांदोग्य उपनिषद् के अनुसार, यदि वाणी का अस्तित्व न होता तो अच्छाई-बुराई का ज्ञान नहीं हो पाता, सच-झूठ का पता न चलता, सहृदय और निष्ठुर में भेद नहीं हो पाता।
 
         अत: वाक [वाणी] की उपासना करो। ज्ञान का एकमात्र अधिष्ठान वाक है। प्राचीनकाल में वेदादि समस्त शास्त्र कंठस्थ किए जाते रहे हैं। आचार्यो द्वारा शिष्यों को शास्त्रों का ज्ञान उनकी वाणी के माध्यम से ही मिलता है। शिष्यों को गुरु-मंत्र उनकी वाणी से ही मिलता है। वाग्देवी सरस्वती की आराधना की प्रासंगिकता आधुनिक युग में भी है।
 
         मोबाइल द्वारा वाणी [ध्वनि] का संप्रेषण एक स्थान से दूसरे स्थान होता है। ये ध्वनि-तरंगें नाद-ब्रह्म का ही रूप हैं। वसंतपंचमी है वागीश्वरी जयंती- जीभ सिर्फ रसास्वादन का माध्यम ही नहीं, बल्कि वाग्देवी का सिंहासन भी है। देवी भागवत के अनुसार, वाणी की अधिष्ठात्री सरस्वती देवी का आविर्भाव श्रीकृष्ण की जिह्वा के अग्रभाग से हुआ था।
 
         परमेश्वर की जिह्वा से प्रकट हुई वाग्देवी सरस्वती कहलाई। अर्थात वैदिक काल की वाग्देवी कालांतर में सरस्वती के नाम से प्रसिद्ध हो गई। ग्रंथों में माघ शुक्ला पंचमी [वसंत पंचमी] को वाग्देवी के प्रकट होने की तिथि माना गया है। इसी कारण वसंत पंचमी के दिन वागीश्वरी जयंती मनाई जाती है, जो सरस्वती-पूजा के नाम से प्रचलित है।
 
            वाणी की महत्ता पहचानो- वाग्देवी की आराधना में छिपा आध्यात्मिक संदेश है कि आप जो भी बोलिए, सोच-समझ कर बोलिए। हम मधुर वाणी से शत्रु को भी मित्र बना लेते हैं, जबकि कटुवाणी अपनों को भी पराया बना देती है। वाणी का बाण जिह्वा की कमान से निकल गया, तो फिर वापस नहीं आता। इसलिए वाणी का संयम और सदुपयोग ही वाग्देवी को प्रसन्न करने का मूलमंत्र है। जब व्यक्ति मौन होता है, तब वाग्देवी अंतरात्मा की आवाज बनकर सत्प्रेरणा देती हैं।