Saturday, March 21, 2015

स्मृतियों का रहस्य

1- भक्ति है तो अद्भुत शक्ति के दर्शन होंगे
 
            जिस दिन भक्ति खो जाती है, उस दिन धर्म भी खो जाता है। भक्ति है, तो भगवान हैं और उनका भक्त भी। भक्ति के हटने पर धर्म कट्टर सिद्धांत के संपुट में बंद हो जाता है और मजहबी उन्माद नकर सामाजिक समरसता को भंग कर सकता है। परमात्मा को तभी जाना जा सकता है जब भक्ति में आनंद बनकर आंसू झरने लगता है। प्रकृति के चारों तरफ उत्सव ही उत्सव है। पक्षियों में, पहाड़ों में, वृक्षों में, सागरों में परमात्मा मौजूद है।

          आप अगर ऐसा नहीं देख पा रहे हैं तो इसके लिए स्वयं जिम्मेदार हैं। उत्सवी भक्ति परमात्मा से मिलाती है। शास्त्र की बुद्धिविलासी चर्चाओं में वह नहीं है। जब भावविभोर होकर भक्त नाचता है तभी भगवान प्रकट होते हैं। भक्ति में अद्भुत शक्ति होती है। यह भक्ति ईश्वर को भी प्रभावित करती है और उन्हें भक्त को गले लगाने के लिए मजबूर कर देती है। सच्चे मन से की जाने वाली भक्ति कभी निष्फल नहीं जाती। ईश्वर उनकी अवश्य सुनता है जो उसे साफ मन से याद करते हैं।

           सच्चा भक्त मिल गया तो समझे कि भगवान तुरंत मिलने वाले हैं। जब तक हृदय की वीणा नहीं बजेगी तब तक परमात्मा समझ में नहीं आएगा। धर्म तर्क-वितर्क का विषय नहीं है। जैसे भोगी शरीर में उलझा रहता है वैसे बुद्धिवादी बुद्धि में उलझे रहते हैं। अंत में दोनों चूक जाते हैं, क्योंकि भगवान हृदय में है। परमात्मा इतना छोटा नहीं है कि उसे बुद्धि में बांधा जाए। इसलिए परमात्मा की कोई परिभाषा नहीं है। प्राणों में प्रेम के गीत उठते ही वह भक्त के पास दौड़ा चला आता है।

          हम उसके पास जा भी तो नहीं सकते, क्योंकि यात्रा बहुत लंबी है और हमारे पैर बहुत छोटे हैं। बिना पता-ठिकाने के जाएं भी तो कहां जाएं? भक्ति प्यास है। जब धरती भीषण गरमी में प्यास से तड़पने लगती है तभी बादल दौड़े हुए आते हैं और उसकी प्यास बुझाते हैं। इसी तरह जब भीतर विरह की अग्नि जलेगी तभी प्रभु की करुणा बरसेगी। छोटा शिशु जब पालने पर रोता है तो मां सहज ही दौड़ी चली आती है। इसी तरह भक्त के भजन मेंऐसी ताकत होती है कि भगवान अपने को रोक नहीं सकते। आखिर सारे भजन तो तड़पते भक्त के आंसुओं की ही छलकन हैं।


  2-हमारा आत्मबल हमें बुराई व विघ्न-बाधाओं से बचाता

          आत्मबल एक ऐसा गुण है जो हमारे पुरुषार्थ को जाग्रत रखता है। यह गुण मुश्किल क्षणों में ऊर्जा का स्नोत साबित होता है। आत्मबल हमें हर बुराई और विघ्न-बाधाओं से बचाता है। कहते हैं कि मरणासन्न शरीर में भी नवजीवन का संचार कर दे, ऐसी अमृत बूंद है-आत्मबल। सच तो यह है कि जहां कोई प्राणी हमारा सहायक नहीं होता वहां हमारा आत्मबल हमें सहारा देता है। यह हमें न सिर्फ दृढसंकल्पी और साहसी बनाता है, बल्कि जीवन-संग्राम में जीतने की अदम्य इच्छाशक्ति भी प्रदान करता है। यह हमें न सिर्फ अच्छे कर्म करने की ओर प्रेरित करता है, बल्कि हमें प्रतिकूल परिस्थितियों से निकलने की हिम्मत भी देता है।

          यह हमारा ऐसा बलवान साथी है, जो जीवन के घनघोर अंधेरे से भी हमें बाहर निकाल सकता है। आत्मबल जिसका साथी है वह कभी कमजोर नहीं पड़ता। हार की निराशा उनके दिलों पर राज नहीं कर पाती। ऐसे लोग अपने आत्मबल की वजह से देश और दुनिया पर राज करते हैं। इसके विपरीत आत्मबलहीनता बहुत ही खतरनाक रोग है, जो हमें कमजोर ही नहीं करता, बल्कि दूसरों के समक्ष दब्बू भी बना देता है। इसलिए हमें इससे बचना चाहिए और अपने आत्मबल को बरकरार रखना चाहिए। आत्मबल से ओत-प्रोत व्यक्ति किसी भी प्रतिकूल परिस्थिति को अपने अनुरूप बदल देने की साम‌र्थ्य रखता है।

          आत्मबल मानव में सात्विक गुणों का विकास कर उसे स्वयं को ईश्वर के प्रति समर्पित कर देने के लिए साहस बंधाता है और ईश्वर की ओर उन्मुख करता है। आत्मबल का औचित्य भी इसी में है कि व्यक्ति ईश्वरोन्मुख हो जाए। परिस्थिति चाहे कैसी भी हो, हम सबको हरदम आत्मबल के माध्यम से आगे बढ़ने का प्रयास करते रहना चाहिए। समस्याओं और परेशानियों से कतई घबराना नहीं चाहिए।

          हम यदि इन समस्याओं पर विजय पा लेंगे तो हमारा आत्मविश्वास बढ़ेगा और हमें आत्मसंतुष्टि भी प्राप्त होगी। किसी समस्या को भार या परेशानी समझना हमारी कायरता है, जो हमें असफलता के पथ की ओर उन्मुख करती है। यदि हम परेशानियों और समस्याओं पर हमला कर उनके सम्मुख डटे रहेंगे, तब हमारी आर्थिक और नैतिक उन्नति अवश्य होगी। हम जीवन की सामान्य स्थिति से ऊपर उठ जाएंगे और सब लोग हमें पहले से कहीं ज्यादा आदर-सम्मान देंगे। समस्या के वक्त हमें धैर्य और साहस से कार्य लेना चाहिए।


3-दिव्य भूमि को ही तीर्थ कहते हैं

          जब कभी इस असीम ब्रह्मांड में ऊर्जा का संग्रह किया जाता है और जब किसी स्थान पर उसे केंद्रित कर दिया जाता है तो वह स्थान दिव्य बन जाता है। इन्हीं दिव्य स्थानों पर दिव्य आत्माओं का अवतरण होता है। इसलिए ऐसे स्थानों को दिव्यभूमि, तीर्थस्थल या तीर्थस्थान कहा जाता है। कोई भी महापुरुष साधना से अनंत परमात्मशक्ति प्राप्त कर लेता है। वह संसार में व्याप्त दिव्य शक्तियों को एकत्रकर उन्हें अपने शरीर में केंद्रित कर लेता है और फिर वह अपनी शक्ति को निकटवर्ती वातावरण में प्रसारित करता है।

          इसीलिए हमारे देश में जहां कहीं भी तीर्थस्थान हैं वहां का वातावरण वृक्ष आदि सब कुछ ऊर्जावान बन जाते हैं। उनमें दिव्यता का बोध होने लगता है। जैसे भगवान बुद्ध की साधना से गया का बोधिवृक्ष, साईंबाबा के आश्रम के निकट स्थित मीठे नीम का पेड़ आदि। इसी तरह महावीर ने जहां साधना की उसे अहिंसा क्षेत्र कहते हैं। उस स्थान के प्रभाव के कारण हिंसक जीव भी वहां पर अहिंसक बन गए थे। देश में ऐसे कई स्थानों पर ऊर्जा क्षेत्रों से परिपूर्ण तीर्थस्थल हैं।

          तीर्थ का एक अर्थ सामान्य तौर पर यह भी है-वह स्थान जहां की भूमि, पेड़, पौधे, नदी-झरने आदि दिव्य ऊर्जा से ओत-प्रोत हो गए हों। इसलिए जब कभी हम देवभूमि में प्रवेश करते हैं तो हमारे जड़ता मूलक अज्ञान को झटका लगता है। हमारा तन-मन वहां की दैवीय ऊर्जा से प्रभावित होने लगता है। शायद ऐसा हर जगह नहीं होता है, लेकिन यदि आप काशी विश्वनाथ मंदिर, वैष्णोमाता, अमरनाथ, केदारनाथ, या अजमेर शरीफ आदि स्थानों पर जाएं तो निश्चित ही वहां का वातावरण हमें प्रभावित करने लगता है। हम तुरंत बदल जाते हैं। हम वह नहीं रहते हैं जो पहले थे। गुरुस्थान भी ऐसा ही होता है। वहां से लौटने पर हमारे अंदर कुछ न कुछ रूपांतरण होता ही है। ऐसी अवधारणा है कि जिन स्थानों पर हमारे तीर्थस्थान या मंदिर हैं, उन स्थानों पर प्राचीनकाल में कभी दिव्यशक्तियों का वास था। पवित्र देवभूमि से, उसके मूल स्थान से आज भी मिट्टी लाने का प्रचलन है।


4-भक्त सेवक,और सेवक का स्वामी के प्रति समर्पण

          भक्त का अर्थ है-सेवक। सेवक का अर्थ है-स्वेच्छा से स्वामी के प्रति समर्पण। प्रेम, आनंद और प्रसन्नता के कारण जब कोई भक्त अपने स्वामी के प्रति समर्पित हो जाता है तो वह सेवक हो जाता है। उसे ही धर्मग्रंथों में सच्चा भक्त, सेवक या दास कहते हैं। रामचरितमानस में सेवक के धर्म को सबसे कठिन बताया गया है। सेवक की अपनी कोई इच्छा नहीं होती। वह अपने मालिक की इच्छा को सर्वोपरि मानता है। भक्त तो प्रतिपल अपने स्वामी की कृपा के लिए इंतजार करता है। वह हर पल रोम-रोम से धन्यवादी और अहोभाव से, कृतज्ञता से परिपूर्ण होता है। भक्त कभी विभक्त नहीं हो सकता। उसकी भक्ति में कमी नहीं आती।

          तत्वज्ञानी भक्त जीव, जगत और ब्रह्म के भेद को समझता है। वह जानता है कि इस सृष्टि से पार जाने के लिए, माया को लांघने के लिए मायापति प्रभु की वरण-शरण में जाना ही पड़ेगा। भक्त संसार की नश्वरता और ब्रह्म की शाश्वतता को जानता है। गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि उसे ही जागा हुआ जानना जिसमें वीतरागता पैदा हो चुकी हो। जिसने जान लिया कि हर विषय-भोग के पीछे 'विष' छिपा है। भक्त के पास तो अपने आराध्य प्रभु के लिए प्रेम-पुष्प ही होता है।

          वह अपने हृदय मंदिर में उस प्रभु को बिठाकर अपने अहंकार का सदैव परित्याग करना चाहता है। प्रेम ही भक्त है, प्रेम ही पूजा-अर्चना है। प्रेम के सामने प्रभु को भी झुकना पड़ता है। भक्त तो हर पल प्रार्थना करता है और कहता है- हे प्रभु! आप अंतर्यामी हैं, आप हमारे हर भाव-कुभाव को जानते और समझते हैं। अपने प्रकाश स्वरूप से हमारे अंदर छिपे अज्ञान, अंधकार और असत्य को दूरकर हमें ज्ञानी, प्रकाशवान और सत्य संकल्पी बनाएं। हमें विवेक प्रदान करें।

          जब ऐसी प्रार्थना भक्त करता है तो प्रभु उसकी पुकार जरूर सुनते हैं। परमपिता परमेश्वर पर पूर्ण भरोसा ही भक्ति है। भगवान भी भक्तों के बीच ही रहते हैं। जहां उनके नाम का गुणगान होता है। भक्ति आती है, तो संतुष्टि भी स्वयं आ जाती है। भक्त विनम्रता, सरलता, सहजता की साक्षात प्रतिमूर्ति होता है। जो भक्त हैं वे सदैव उस सर्वव्यापक परमात्मा के परमपद का प्रत्यक्ष दर्शन करते हैं। भक्त ऐश्वर्य में भी ईश्वर को नहीं भूलता।


5-भगवान तो हमेशा भाव के भूखे रहते हैं

          जीवन में हमें जो कुछ मिला है, वस्तुत: वह हमारे कर्मो का फल होता है, परंतु जब हम उसे प्रभु का दिया हुआ प्रसाद मानकर ग्रहण करते हैं तो बात कुछ और होती है। हमारा हर कर्म पूजा बन जाता है। यही बात भोजन के संदर्भ में भी लागू हो सकती है। कोई चीज जब हम खाने से पहले भगवान को चढ़ाकर यानी अर्पित करके खाते हैं तो वह भोजन भी प्रसाद बन जाता है। इसलिए जो भगवान के भक्त होते हैं वे भोजन से पहले कहते हैं-हे प्रभु, तुम्हारी दी हुई वस्तु पहले मैं तुम्हें समर्पित करता हूं। और भला वे ऐसा क्यों न करें, क्योंकि हमें यह जो मानव शरीर मिला है वह उसका दिया हुआ ही तो है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं कि कोई भक्त यदि प्रेमपूर्वक मुझे फल-फूल, अन्न, जल आदि अर्पित करता है तो उसे मैं प्रेमपूर्वक सगुण रूप में प्रकट होकर ग्रहण करता हूं।

          भक्त की यदि भावना सच्ची हो, श्रद्धा और आस्था प्रबल हो तो भगवान उसके भोजन को अवश्य ग्रहण करते हैं। जैसे उन्होंने शबरी के बेर खाए, सुदामा के तंदुल (चावल) खाए, विदुरानी का साग खाया। प्रभु की कृपा महान है। उसकी कृपा से जो कुछ भी अन्न-जल हमें प्राप्त होता है, उसे प्रभु का प्रसाद मानकर प्रभु को अर्पित करना, कृतज्ञता प्रकट करने के साथ एक मानवीय गुण भी है। कुछ लोग यह प्रश्न भी करते हैं कि जब भगवान चढ़ाया हुआ प्रसाद खाते हैं तो घटता क्यों नहीं? उनका कथन भी सत्य है।

          जिस प्रकार फूलों पर भौंरा बैठता है और फूल की सुगंध से तृप्त हो जाता है, किंतु फूल का वजन नहीं घटता उसी प्रकार प्रभु को चढ़ाया प्रसाद अमृत होता है। प्रभु व्यंजन की सुगंध और भक्त के प्रेम से तृप्त हो जाते हैं। वे भाव के भूखे हैं, भोजन के नहीं। जैसे एक मां बच्चे को कुछ खाने को दे और बच्चा उसे तोतली भाषा में सिर्फ पूछ भर दे तो मां उसे सीने से लगा लेती है। इसी प्रकार भगवान भी तृप्त होते हैं, प्रसन्न होते हैं और अपनी कृपा बरसाते हैं। यह मानव शरीर भी उसकी अनंत कृपा से प्रसाद स्वरूप मिला है। हमें ईश्वर की इस कृपा को कभी नहीं भूलना चाहिए। जब हम इसकी सार्थकता को समझेंगें, तभी जीवन धन्य होगा।


6-धन दौलत के बजाय चरित्र सही हो

          चरित्र का निखार। मौजूदा दौर में व्यक्ति जल्द से जल्द सुख-सुविधाओं की प्राप्ति की लालसा के कारण अनेक समस्याआें और परेशानियों से जूझ रहा है। ये समस्याएं लोगों के चरित्र को प्रभावित करती हैं। ऐसे में अधिकतर व्यक्ति समस्याओं और परेशानियों के दबाव में अपने चरित्र को दांव पर लगा देते हैं और अपने कदमों को गलत मार्ग पर मोड़ लेते हैं। अनुचित व गलत मार्ग सहज-सीधा नजर आता है, जो सभी को अपनी ओर आकर्षित करता है।

          यह मार्ग ऐसा होता है जिसमें व्यक्ति को अधिक मेहनत व प्रयास करने की आवश्यकता नहीं होती, लेकिन वह व्यक्ति के सबसे कीमती गुणों व चरित्र पर प्रश्नचिन्ह लगा देता है। जिंदगी में समस्याओं और परेशानियों का भी एक अनूठा महत्व है। यदि व्यक्ति साहस, धैर्य और ईमानदारी से परेशानियों का मुकाबला करे तो वह न सिर्फ अपनी परेशानियों को दूर भगाता है, बल्कि सफलता को भी अपने जीवन का एक अंग बना लेता है। ऐसे में उसका चरित्र और अधिक निखर उठता है।

          जिस प्रकार सोना आग में तप कर और अधिक निखरता है, उसी तरह चरित्र भी कठिन परिस्थितियों और संघर्ष का सामना करते हुए अधिक निखर आता है। सामान्य परिस्थितियों में तो सभी अपने चरित्र को संभाल कर रखने का दावा करते हैं, लेकिन जब हालात विपरीत हों, उस समय अपनी सूझबूझ, दया और शालीनता को बरकरार रखना अधिक महत्वपूर्ण होता है। एक रूसी कहावत है कि हथौड़ा कांच को तोड़ देता है, पर लोहे का कुछ नहीं बिगाड़ता। इसका तात्पर्य है कि सुदृढ़ और सद्कर्मो पर चलने वाला व्यक्ति अपने चरित्र के साथ कभी समझौता नहीं करता।

          कहते हैं कि योग्यता की वजह से सफलता मिलती है और वह चरित्र ही है, जो सफलता को संभालता है। जो सफल व्यक्ति अपने चरित्र को नहीं निखारते सफलता भी उनके पास ज्यादा देर तक नहीं टिकती। ऐसे लोग शीघ्र ही गुमनामियों के अंधेरों में गुम हो जाते हैं। आध्यात्मिक रुझान से न सिर्फ व्यक्ति का चरित्र सुदृढ़ होता है, बल्कि उसके अंदर धैर्य, ईमानदारी, परोपकार आदि सद्गुणों का भी विकास होता है।

          वर्तमान समय में चरित्र का मजबूत होना अत्यंत आवश्यक है। चरित्र को बचपन से ही मजबूत बनाया जाए तो व्यक्ति संस्कारों और अध्यात्म की छांव में बड़ा होकर समाज व देश का नाम रोशन करता है। यदि चरित्र सही नहीं है, तो धन-दौलत भी व्यर्थ है।


7-हमारा मन तो परमात्मा की अमानत है

          मिथ्या है अभिमान। मानव वही है जो दूसरों के भी काम आए और दूसरों का दुख-दर्द समझे। किसी भी प्रकार से किसी को दुख या कष्ट न पहुंचाए। जो सुखाभिमानी दूसरों को दुख में देखकर प्रसन्न होता है उसे एक दिन स्वयं भी दुखी होना पड़ता है। प्रभु प्रेम में आंसू बरसाने वाले को दुख के आंसू नहीं बरसाने पड़ते। जीवों पर करुणा व दया बरसाएं। पूर्ण रूपेण अहिंसा व्रत का पालन करें। मन की चंचलता को रोकें। मन, परमात्मा की अमानत है। इसे परमात्मा में ही लगाएं। इसे संसार, सांसारिकता, भोग-विलासों में लगाने पर अंतत: दुखी होना पड़ेगा। छोटी-छोटी बातों से अपने प्रेम, एकता व सद्भाव को समाप्त न करें। श्रद्धा व विश्वास से ही अंत:करण में स्थित ईश्वर की अनुभूति कर सकते हैं।

          अभिमान प्रभु की प्राप्ति में बाधक है। अभिमान चाहे किसी भी प्रकार (जैसे धन, वैभव, तप और ज्ञान आदि) का क्यों न हो, ठीक नहीं होता। मानव के जीवन पर संगति का प्रभाव अवश्य पड़ता है। इसलिए अच्छा देखें, अच्छा सुनें, अच्छा बोलें, अच्छा विचारें और अच्छी संगति करें। खान-पान व जीवन को सात्विक, शुद्ध और संयमित बनाएं। प्रकृति के नियमों का पालन करें।

          शांति को जीवन में प्रमुखता से स्थान दें। अशांत व्यक्ति को कहीं भी सुख नहीं मिलता। सत्य परमात्मा का स्वरूप है। सत्य जहां भी जुड़ेगा वहां विकृति नहीं आएगी। जिसे सदाचारी व्यक्ति का संग मिले उसका जीवन धन्य है। जिसके जीवन में करुणा, क्षमा, उदारता, कोमलता, सेवा, परोपकार, और परमार्थ का भाव है वही संत है। जीना भी एक कला है। गिरना व गिराना बहुत सरल है, परंतु उठना व उठाना उतना सरल नहीं है। स्वयं जागो व औरों को जगाओ, अपने कल्याण के साथ औरों के कल्याण के भी भागीदार बनो।

          कठिनाइयों, बाधाओं व परीक्षाओं से न घबराकर निरंतर चलते रहो, जब तक कि आपको आपका लक्ष्य प्राप्त न हो जाए। लक्ष्यविहीन मानव का जीवन पेंडुलम की भांति है, जो हिलता-डुलता है। धर्म वह अखंड धारा है, जो कभी टूटती नहीं। धर्म वही है जो जीवन में धारण किया जाए। धर्म व परमात्मा को मात्र मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे, चर्च या सत्संग तक ही सीमित न करें। धर्म को जीवन का अभिन्न अंग बनाएं। धर्म निरंतर सदा-सर्वदा, यत्र-तत्र-सर्वत्र हमारे साथ रहेगा, तभी समाज में आ रही विकृतियों से बच सकेंगे।


8-जैसा संस्कार होगा चलने का मार्ग भी वैसे ही होगा

          जीवन का मार्ग। रास्ते तो अनेक हैं, पर किसी एक ही रास्ते से यात्रा कर सकते हैं आप? सभी रास्ते उसी रास्ते में जाकर मिल जाते हैं। सभी रास्ते सबके लिए हैं, जो जिस रास्ते से चल पड़े। जिसका संस्कार जैसा होता है वह उसी रास्ते पर चल पड़ता है। तुम्हें तो वह रास्ता मिल गया है जो तुम्हारा रास्ता है और जो तुम्हारा लक्ष्य है। अगर अब किसी भी चौराहे पर ठहर जाओगे तो तुम्हारा रास्ता भटक जाएगा। तुम्हारी मंजिल भटक जाएगी और तुम्हारी जीवन यात्र कहीं बीच में ही समाप्त हो जाएगी।

          रास्ता प्रतीक्षा करता ही रह जाएगा, तुम्हारी मंजिल राह देखती रह जाएगी। तुम्हारा उद्देश्य अधूरा रह जाएगा। यह संसार है। यहां अनगिनत लोग हैं। भिन्न-भिन्न तरह के जीव हैं। तरह-तरह की जातियां हैं। तरह-तरह के विकार हैं। कोई किसी की प्रकृति है, तो कोई किसी का विकार। कहीं मनुष्यों का मेला है तो कहीं पशु-पक्षियों का जमघट। कहीं कीड़े-मकोड़ों की अधिकता है तो कहीं पेड़-पौधों का जंगल। कहीं पानी का सुंदर प्रवाह है, तो कहीं सागर की लहरों का खेल। संसार के सभी लोगों के अपने-अपने क्षेत्र हैं। अपना-अपना संस्कार है। अगर तुम इसका अतिक्रमण करोगे तो भटक कर रह जाओगे।

          तुम्हारे आस-पास में एक विराट दुनिया है उस दुनिया में तुम कितनों को जानते हो और अगर सभी को जानने की कोशिश करोगे तो समय साथ नहीं देगा, क्योंकि जिंदगी इतनी लंबी नहीं है। संस्कार भूमि इतनी विराट नहीं है। इस संसार में कुछ ही लोग तुम्हारे हैं। अगर इनसे अधिक और अपेक्षाएं करोगे तो अपेक्षाओं में ही जीवन समाप्त हो जाएगा, भूख बनी की बनी रह जाएगी। इसलिए आज तक आदमी को न सुखी तुमने देखा है और न सुख से प्राण त्यागते हुए किसी व्यक्ति को देखा होगा। कुछ लोग तो ऐसे हैं जो सुख से सो भी नहीं पाते। लोगों को उनका गम खा रहा है। चिंताएं जला रही हैं। वे दुनिया से कहते हैं कि अपने परिवार, अपने बच्चों और समाज के लिए सब कुछ कर रहे हैं, पर इस सबके पीछे उनकी अपनी पद-प्रतिष्ठा और मान अपमान भी जुड़ा हुआ है।

          इच्छाओं की पूर्ति की कामनाएं हैं। अगर तुम भी सांसारिक दुखों का शिकार होना चाहते हो तो चल पड़ो अनेक रास्तों पर, तमाम लोगों के साथ। अनेक अपेक्षाओं के साथ। तब देखना कि जिंदगी को क्या मिलता है।


9-भगवान कण-कण में है

          किसी घर में नहीं आखिर हमारे लक्ष्मीनारायण भला दरिद्रनारायण कैसे हो सकते हैं? फकीरों के संदेश तो इसी ओर इशारा करते हैं, 'बेबस गिरे हुओं के बीच तू खड़ा था। मैं स्वर्ग देखता था, झुकता कहां चरन में।' दीनबंधु हम पर प्रसन्न तभी होंगे जब हम वंचित लोगों को प्रेम से गले लगाएं और निश्छल भाव से उनकी सेवा करें। दीनों की 'आह' बनकर परमात्मा प्रतिफल हमें पुकारता है और हम हैं कि भव्य मंदिरों में जाकर भजन में उसकी पुकार सुनना चाहते हैं। मंदिर जाना अच्छी बात है, लेकिन जरूरतमंदों की मदद करना भी ईश्वर की अनुभूति करा सकता है।

          दुखियों के द्वार पर खड़ा होकर ईश्वर हमारी बाट जोहता है और हम उसे गिरि-कंदराओं में खोजते-फिरते हैं। दुखियों की झोपड़ी में कृष्ण की बज रही वंशी को सुनिए और मजदूरों के पसीने में उसे निहारें। अपने हृदय-द्वार खोलें, यहीं पर उसका दीदार हो जाएगा। भगवान का कोई घर नहीं है। वह सृष्टि के कण-कण में रम रहा है। हम तो दीन-दुखियों को ठुकराकर देवालयों में प्रभु को ढूंढ़ते हैं। प्रभु का असली द्वार दीनों का हृदय है। जिसका कोई नहींहै उसका भगवान है। वह जरूरतमंदों की आह में मिलेगा, भूखों की भूख में मिलेगा और मजलूमों के चीथड़ों में मिलेगा। दुखियों का दिल दुखाना मानो मंदिर को ढहाना है। कमजोरों को दबाना सबसे बड़ा अधर्म है।

          संत मलूकदास भी यही कहते हैं। दरिद्र की सेवा ही ईश्वर की सच्ची सेवा है। आस्तिक वही है, जिसका दिल गरीबों को देखते ही पसीजने लगता है। तभी तो कबीरदास कहते हैं, 'कबिरा सोई पीर है, जो जाने परपीर'। आस्तिक वह नहीं है जो इस पाखंड में उलझा रहता है कि पानी से भरा लोटा दाहिने हाथ से पिएं या बाएं हाथ से। इनसे बेहतर तो ऐसे नास्तिक हैं जो स्वयं अच्छे ढंग से जीते हैं और जरूरतमंदों के काम आते हैं। भगवान सुदामा को मित्र बनाते हैं और झूठी पत्तलें उठाते हैं।

          प्रभु के प्रति हमें कृतज्ञ होना चाहिए कि उसने करुणा के सदुपयोग का अवसर दिया है। दरिद्रों की सेवा करते समय यह भाव भी मन में नहीं आना चाहिए कि हम सेवा कर रहे हैं। लेने का भाव हमारे मन में इतनी गहराई तक पैठ गया है कि हम प्रेम, माधुर्य, समता और करुणा आदि गुणों से दूर होते जा रहे हैं। दीन को केवल मुस्कान दे दो तो वह धन्य हो जाएगा। जिसके दिल में सेवा का जच्बा नहीं है उस पर खुदा रहम नहीं करता।


  10--हमारा शरीर विनाशी है,जबकि आत्मां अविनाशी है

          शरीर विनाशी और आत्मा अविनाशी है। यही शाश्वत सत्य है। ऐसा जानकर आत्म तत्व की ही उपासना करनी चाहिए। उपनिषदों में कहा गया है कि आत्म-मंथन करना चाहिए। आत्मसाक्षात्कार और भगवत दर्शन ही मानव जीवन का परम लक्ष्य है। इस परम लक्ष्य से सांसारिक कर्तव्यों की कोई असंगति नहींहै। ऐसा नहीं है कि इसके लिए घर-बार छोड़ना आवश्यक है। आशय यह है कि संसार में रहते हुए सांसारिक कार्र्यो और अपने लौकिक दायित्वों का निर्वाह करना जरूरी है।

          अपने सांसारिक दायित्वों को पूरा करने में यदि हम असफल रहते हैं तो हम अपने आध्यात्मिक दायित्व का निर्वहन भी नहीं कर सकेंगे। इसके लिए आवश्यकता मात्र यह है कि ऐसे कार्र्यो से हमारी किसी तरह की आसक्ति (लगाव) न हो। आसक्ति का अभाव ही तो मुक्ति है। दुख का कारण हमारी अनंत इच्छाएं ही तो हैं। जब इच्छाएं पूरी नहीं होतीं तब हम दुखी हो जाते हैं। प्रयास करके इच्छाओं को कम करना चाहिए। संसार के समस्त पदार्थ विनाशी हैं। अविनाशी तो केवल आत्मा है।

          यह आत्मा ही है, जिसके लिए कहा गया है कि शरीर के नष्ट हो जाने पर भी यह नहीं मरती। साधकों को इस जीवन में ही सचेत होकर निरंतर आत्म-चिंतन करना चाहिए। जीवन की समापन बेला आने से पहले ही प्रभु प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त करें। प्रभु से प्रार्थना करें कि 'हे ईश्वर! मेरा मन आपके चरणों में लग जाए।'1जीवन में सत्कर्र्मो को अपनाएं। पाप कर्र्मो से विमुख हो जाएं। कर्म सिद्धांत अटूट है।

          किए गए अपराधों के दुष्परिणामों को तो भुगतना ही होगा। इसलिए प्रयास करना चाहिए कि गलत आचरण न हो। किसी को मत सताइए, किसी को मत पीड़ा दीजिए। चेत जाइए। अभी समय है। समय रहते ही स्वयं को सुधार लेना प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य है। समय बर्बाद करने पर दुखी होने से कुछ नहीं होगा। प्राण जाने से पहले ही सुधार किया जाना अपेक्षित है। अंतकाल में अचानक कुछ भी न हो सकेगा। तैयारी अभी से होनी चाहिए। शुभ संकल्प अभी से जगाने होंगे। संतों ने संदेश दिया है कि अच्छे कार्य करते रहें। भक्ति, ध्यान का मार्ग अपनाएं। आराधना द्वारा भगवान को अपना बनाएं। आपकी मुक्ति सुनिश्चित है।


11- आत्मा और मन के संयोग से इच्छाशक्ति बनती है

          इच्छाशक्ति आत्मा और मन का संयोग। जीवन में सफलता और विफलता के निर्णायक तत्वों में इच्छाशक्ति का स्थान सर्वोपरि है। इच्छाशक्ति के माध्यम से व्यक्ति असंभव लगने वाले कार्यो को संभव बना सकता है। इच्छाशक्ति के अभाव में व्यक्ति सब कुछ होते हुए भी दुर्भाग्य का रोना रोता रहता है। इच्छाशक्ति का अभाव जीवन की विफलताओं और संकटों का मूल कारण है। इसके रहते व्यक्ति छोटी-छोटी आदतों व वृत्तियों का दास बनकर रह जाता है।

          छोटी-छोटी नैतिक व चारित्रिक दुर्बलताएं जीवन की बड़ी-बड़ी त्रसदियों को जन्म देती हैं। इच्छाशक्ति की दुर्बलता के कारण ही व्यक्ति छोटे-छोटे प्रलोभनों के आगे घुटने टेक देता है और उतावलेपन में ऐसे-दुष्कृत्य कर बैठता है कि बाद में पश्चाताप के अतिरिक्त कुछ हाथ नहीं लगता। जीवन की इस मूलभूत त्रासदी की स्वीकारोक्ति महाभारत में दुर्योधन के मुख से भगवान श्रीकृष्ण के सामने होती है- 'धर्म को, क्या सही है, इसको मैं जानता हूं, किंतु इसे करने की ओर मेरी प्रवृत्ति नहीं होती। इसी तरह अधर्म को, जो अनुचित व पापमय है, इसको भी मैं जानता हूं, किंतु इसको करने से मैं नहीं रोक सकता।

          ' दुर्योधन की इस स्वीकारोक्ति में मानवीय इच्छाशक्ति की दुर्बलता व विफलता का मर्म निहित है। जीवन की सफलता के लिए एकमात्र रास्ता इच्छाशक्ति का विकास रह जाता है। इसके विकास से पूर्व प्रथम यह जानना उचित होगा कि इच्छाशक्ति है क्या? दर्शनकार की भाषा में यह माया यानी प्रकृति से संयुक्त होने वाली आत्मा की प्रथम अभिव्यक्ति है। स्वामी विवेकानंद के शब्दों में- इच्छाशक्ति आत्मा और मन का संयोग है।

          व्यवहारिक जीवन में इच्छाशक्ति मन की वह रचनात्मक शक्ति है, जो निर्णित क्त्रिया को एक निश्चित ढंग से करने की क्षमता देती है। इच्छाशक्ति के विकास के संदर्भ में दूसरा तथ्य यह है कि इसको प्रत्येक व्यक्ति द्वारा बढ़ाया जा सकता है। इच्छाशक्ति के विकास में एकाग्रता बहुत सहायक है। हम जो भी कार्य करें, उसे पूरे मन से करें। इससे इच्छाशक्ति के विकास में बहुत सफलता मिलेगी। साथ ही ऐसे कार्यो से बचें, जिनमें ऊर्जा अनावश्यक क्षय होती है।

          स्पष्ट है, जब आप आत्मजागरण, आत्म-विकास व ईश्वरभक्ति में संलग्न होंगे, उतना ही इच्छाशक्ति के विकास का पथ प्रशस्त होता जाएगा और उतना ही हमारा जीवन सुख, शांति व सफलता से परिपूर्ण होता जाएगा।


12-नियमित साधना के द्वारी ही आध्यात्मिक अनुभूति होती है

          मन का मापदंड। मनुष्य जब भी किसी छोटे या बड़े मुद्दे या वस्तु के विषय में कोई निर्णय लेने का प्रयास करता है तो वह प्राय: भूल कर बैठता है। चूंकि वर्तमान संदर्भ में सवाल यह है कि मानव मन सीमित है इसलिए उसका निर्णय सही कैसे हो? इस प्रकार जहां तक मनुष्य के मापदंड का प्रश्न है, उसके विषय में विचारने पर आप यह बात दर्ज करेंगे कि मनुष्य के मापदंड का आधार ही अत्यंत सीमित है।

          किसी जलाशय को हम अपने हाथों के मापदंड से नापने में समर्थ होते हैं, किंतु यदि हम किसी समुद्र को उसी प्रकार नापना चाहें तो हम असहाय हो जाएंगे। मान लें कि जलाशय अगर समुद्र से भी गहरा हो तो उसको माप सकना हमारे लिए असंभव हो जाएगा। मनुष्य के माप की परिधि में जो है वह यदि बहुत बड़ा हो तो संस्कृत में हम उसे 'विशाल' कहेंगे।

          जैसे हिमालय बहुत ही बड़ा है, पर उसे भी मापा जा सकता है। हम कहते हैं कि वह पूर्व से पश्चिम तक इतने मील लंबा है, उत्तर से दक्षिण तक इतने मील तक चौड़ा है, पर मनुष्य के छोटे मापदंड से मन की सीमित शक्ति की सहायता से और छोटे मापक यंत्र के द्वारा जिसे मापना असंभव हो उसे 'वृहत्' कहते हैं । इसी कारण ईश्वर को वृहत् कहा जाता है, क्योंकि उन्हें मापने में मनुष्य का मन असमर्थ रह जाता है। उन्हें मापे जाने के बाद मन लौटकर कह उठता है-'नहीं, मैं माप नहीं सका।' इसी को कहा जाता है 'वृहत्'। वह कुछ ऐसे भी हैं कि जो भी उनके निकट जाता है, वह भी बहुत बड़ा हो जाता है।


          जो उनका ध्यान करते हैं उन्हें भी वह अपने समान बना लेते हैं। वह उन्हें अपना बना लेते हैं कि उनकी अपनी पृथक सत्ता रहती ही नहीं। इसी कारण उन्हें कहा जाता है 'विपुल'। विपुल हैं, इस कारण ही वह ब्रह्म हैं। इस संदर्भ में एक महत्वपूर्ण बात यह है कि यदि वह अपने नाम की मर्यादा बनाए रखना चाहते हैं तो जो उनका ध्यान करेंगे, जो उनकी कामना करेंगे उसे भी ईश्वर बड़ा बनाने के लिए बाध्य हैं। ऐसा इसलिए, क्योंकि यदि वह ऐसा नहीं करेंगे, तो मैं उनसे कहूंगा, 'दया करके अपना ब्रह्म नाम छोड़ दें।' उन्हें भक्त बृहत् कहते हैं, और साथ ही कहते हैं 'दिव्य'। उस दिव्य शक्ति को पहचानने के लिए आध्यात्मिकअनुभूति की जरूरत है। यह आध्यात्मिक अनुभूति नियमित साधना के द्वारा संभव है।


13-इस युग की हचान है कि एक दूसरे के प्रति संवेदना शून्य होना

          संतोष का अर्थ। आज बाजारवाद से प्रभावित होकर भौतिकवाद के प्रति प्रबल आकर्षण इतना विकराल रूप लेता जा रहा है कि वैश्रि्वक स्तर पर मानव मानव के प्रति संवेदनाशून्य हो गया है। अधिकतर मनुष्य केवल बाजारवाद को ध्यान में रखकर ही कार्य-व्यवहार कर रहे हैं। भौतिक उन्नति के लिए केवल अर्थ की ही प्रधानता होने के कारण लोग येन-केन-प्रकारेण अर्थोपार्जन में लिप्त हैं। इसीलिए भ्रष्टाचार का आचरण पनपता जा रहा है।

          भारतीय संस्कृति का आधार रखने वालों ने बहुत सोच-विचार के बाद और अनुभवों के आधारपर भौतिक संपन्नता के लिए मृग-मरीचिका की तरह माया-मोह व तृष्णा से परे रहकर अपना जीवन आध्यात्मिकता की ओर उन्मुख होने का आग्रह किया है। आज व्यक्ति असीमित इच्छाओं की पूर्ति के लिए असंतोष का जीवन जी रहा है। वह भूल रहा है कि सभी इच्छाओं और कामनाओं की पूर्ति संभव नहीं होती। एक इच्छा की पूर्ति होने पर अनेक पूरक-इच्छाएं पनपने लगती हैं। इसीलिए व्यक्ति को संतोषी होना चाहिए। कहा गया है कि संतोष ही परम सुख है। धर्म के बगैर धन का सही उपयोग नहीं हो सकेगा। धर्म हमें मर्यादित होकर जीना सिखाता है। इस प्रकार मेहनत से कमाया धन अधिक सुख, शांति व संतोष प्रदान करता है।

          प्रख्यात विचारक आचार्य चाणक्य ने संतोष को परिभाषित करते हुए बताया है कि हमें किन पर संतोष करना चाहिए और किन पर संतोष नहीं करना चाहिए। उन्होंने कहा है, अपने भोजन और अपने धन पर जितना, जो कुछ, जैसा है, उस पर संतोष करने से हमें आनंद और सुख मिलेगा।' संतोष जहां हमारे लिए आनंद का सागर है, वहीं आचार्य चाणक्य ने एक संदर्भ विशेष में असंतोष करना भी स्वीकार किया है। उन्होंने लिखा है-विद्या, जप और दान करने में संतोष नहींकरना चाहिए। हमने थोड़ा ही अध्ययन किया, थोड़ी ही परमेश्वर की भक्ति की और कुछ ही दान दिया तो ये संतोष के कारक न बनें।

          इन तीन उपादानों पर असंतोष रहा तो हमारा ज्ञानार्जन के प्रति, भगवत् भक्ति के प्रति और असहाय, दुखी व जरूरतमंदों के प्रति दान देने की प्रवृत्ति बनी रहेगी। जीवन में संतोष करते हुए संतुष्ट रहना ही श्रेयस्कर है।


14-प्रेम आत्मविश्वास से ही जागृत होता है

          आत्मविश्वास। आज हर आदमी सुख की खोज में लगा है और उस थके-हारे इंसान के संदर्भ में दार्शनिक खलील जिब्रान को पढ़ना अच्छा लगता है। जिब्रान लिखते हैं, 'मैं भी कहता हूं कि जीवन सचमुच अंधकारमय है, यदि आकांक्षा न हो। सारी आकांक्षाएं अंधी हैं, यदि ज्ञान न हो। सारा ज्ञान व्यर्थ है, यदि कर्म का ज्ञान न हो। जब तुम प्रेम से प्रेरित होकर कर्म करते हो तब तुम स्वयं से बंधते हो, एकदूसरे से बंधते हो, भगवान से बंधते हो।' जिब्रान के इस कथन में प्रेम का निहितार्थ आत्मविश्वास से है। इसी आत्मविश्वास के बल पर हम वह सब कर सकते हैं जो हम करना चाहते हैं।

          मैं अच्छा आदमी तभी बन सकता हूं, यदि मुझमें आत्मविश्वास है। दृढ़ निश्चय है। साहसपूर्ण निर्णायक क्षमता है। आशावादी दृष्टिकोण है। सकारात्मक सोच है। उत्साही मन है। ऊर्जस्वी पराक्रम है। मैं दुख में से सुख खोज लेना चाहता हूं और ऐसा सोचते हुए, आत्मविश्वास से भरकर सचमुच सुख खोज लेता हूं। आज का आदमी समय के साथ चले, लेकिन उसे बुरे आचरण को छोड़कर अच्छी जिंदगी का सपना देखने का हक है।

          सोचना यह है कि हम गहराई में जमे बैठे संस्कारों को कैसे सुधारें? जड़ों तक कैसे पहुंचें? जड़ के बगैर सिर्फ फूल-पत्तों का क्या मूल्य? पतझड़ में फूल-पत्ते सभी झड़ जाते हैं, मगर वृक्ष कभी इस वियोग पर शोक नहीं करता। उसके पास जड़ की सत्ता सुरक्षित है, जिससे वसंत आने पर पुन: वृक्ष फूल-पत्तों से लहलहा उठते हैं। आज हमें भी आत्मविश्वास को मुकाम तक पहुंचाने के लिए मूल्यों को स्वयं में सहेजना होगा, बाहरी अवधारणाओं को बदलना होगा, जीने की दिशा को मोड़ देना होगा। तभी बंधन ढीले पड़ेंगे और निर्माण का रास्ता साफ-सुथरा बन सकेगा। अंधेरा तभी तक डरावना है जब तक हाथ दीये की बाती तक न पहुंचे।

          आप एकदम से अपने आत्मविश्वास को प्राप्त नहीं कर सकते। अपने आप को अपना भविष्य निर्माता मानिए और फिर कार्य की शुरुआत कर दीजिए। अपने भविष्य की कल्पना कीजिए। सोचिए कि आज से एक वर्ष बाद, दो वर्ष बाद या पांच वर्ष बाद आप कहां पहुंचना चाहते हैं। जहां आपको मनचाही सफलता और जिंदगी हासिल हो। आपको यह मानना होगा कि आप बदल सकते हैं और उस बदलाव के लिए आपके पास पर्याप्त आत्मशक्ति है। एक चीनी कहावत है कि महापुरुषों में आत्मविश्वास होता है और दुर्बलों की केवल इच्छाएं।


15-प्रेम ही तो परमेश्वर है

          प्रेम ही संसार में प्रेरक शक्ति है, जो निरंतर स्फूर्त रखता है और बड़े से बड़ा काम करने को प्रेरित करता है। यही प्रेम सर्वव्यापी होकर ईश्वर का रूप ले लेता है। स्वामी विवेकानंद का चिंतन.. विवेकानन्द के अएनुसार प्रेम सर्वसाक्षी, सर्वव्यापी और सर्वत्र है। चेतन और अचेतन में, व्यष्टि और समष्टि में यही भगवत्प्रेम आकर्षक शक्ति के रूप में प्रकट होता है।

          संसार में यही एक प्रेरक शक्ति है। इसी प्रेम की प्रेरणा से ईसा मानव जाति के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग करता है और बुद्ध एक प्राणी तक के लिए, माता अपनी संतान के लिए और पुरुष स्त्री के लिए कुछ भी कर सकता है। इसी प्रेम की प्रेरणा से मनुष्य अपने देश के लिए प्राण निछावर करने को उद्यत रहते हैं। संसार की यह प्रेरक शक्ति प्रेम निर्लेप और सभी में प्रकाशमान है। इसके बिना संसार क्षण भर में चूर्ण होकर नष्ट हो जाएगा। यह प्रेम ही परमेश्वर है।

         'पति से कोई पत्नी पति के लिए प्रेम नहीं करती, वरन पति में जो आत्मा है, उसी के लिए वह प्रेम करती है। कोई पति पत्नी से पत्नी के लिए नहीं, वरन उसमें जो आत्मा है, उसके लिए प्रेम करता है। कोई किसी भी चीज पर केवल आत्मा को छोड़कर और किसी अन्य बात के लिए प्रेम नहींकरता। (वृहदारण्यकोपनिषद)।' यह भी उसी प्रेम का ही एक रूप है। इस खेल को छोड़कर अलग खड़े हो जाओ, उसमें अपने को शामिल न करो, वरन इस अद्भुत दृश्य को, इस अपूर्व नाटक को, एक के बाद दूसरे अंक के अभिनय को देखते चलो और इस अद्भुत स्वर-संगति को सुनते जाओ। सभी उसी प्रेम की अभिव्यक्तियां हैं।

         स्वार्थपरायणता में भी वही आत्मा या 'स्व' अनेक हो जाता है और बढ़ता ही जाता है। वही एक आत्मा मनुष्य का विवाह हो जाने पर दो आत्मा और बच्चे पैदा होने पर अनेक आत्मा हो जाएगी। वही पूरा गांव हो जाएगा, शहर हो जाएगा और फिर भी बढ़ता ही जाएगा, जब तक कि वह सारी दुनिया को आत्मस्वरूप अनुभव न करने लगे। वही आत्मा अंत में सभी पुरुषों, सभी स्त्रियों, सभी बच्चों, सभी जीवधारियों, यहां तक कि समग्र विश्व को अपने में ढक लेगा। वही सामान्य प्रेम आगे चलकर बढ़कर सर्वव्यापी प्रेम अर्थात अनंत प्रेम का स्वरूप धारण कर लेगा और वही प्रेम ही तो ईश्वर है।


16-सफलता के लिए कठिन तप जरूरी है

          तप के आयाम। जीवन में कठिन तप के बिना सफलता नहीं मिलती। तप का सीधा सा अर्थ है-तपना। ठीक वैसे ही जैसे सोना आग में तप कर कुंदन बनता है। तभी तो इस देश के सिद्ध-साधकों और ऋषि-मुनियों ने तप के सहारे जीवन में परम लक्ष्य की प्राप्ति की। सत्य के महान खोजियों ने तप को एक दर्शन माना। तप एक कठोर साधना है। इस साधना के अंतर्गत तप मनुष्य करता है और सिद्धि परमात्मा देता है। अध्यात्म में तप के विविध आयामों की चर्चा की गई है। कहा गया है कि अपने जीवन के दीपक को तपस्या से प्रकाशित करो। तप के भी कई प्रकार हैं। बहुत से लोग शरीर के तप को महत्व देते हैं।

          जो सच्चा साधक है वह तपस्वी होगा ही। ऐसा इसलिए, क्योंकि उसके जीवन में तप स्वत: बस जाता है। वह दुविधा में भी हर कार्य सुविधा से करता है। उसके आभामंडल का तो कहना ही क्या। देश को राजनीतिक आजादी दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भी तप को जीवन में प्रमुखता दी।

         जहां गांधीजी सत्याग्रह कर रहे थे वहीं भगत सिंह और सुभाष चंद्र बोस जैसे तपस्वी क्त्रांतिकारी आजादी की अलख जगा रहे थे। गौतम बुद्ध ने करुणा को साधा और महावीर ने अहिंसा को साधा। लोग उनकी तपश्चर्या की चर्चा आज भी करते हैं। सदाचरण की साधना दैहिक तप है। वैचारिक रूप से पवित्र रहना मानसिक तप है। एक तप वाणी का भी है। जो कहा वह सोच-समझकर। जो तपस्वी होता है उसका जीवन संतुलित होता है, परंतु अफसोस कि कई बार कुछ तथाकथित लोग इसका भी आडंबर रचकर समाज से छलावा करते हैं। ऐसे लोगों से सतर्क व सजग रहने की आवश्यकता है।

          भारत का स्वाधीनता संग्राम हम परम तपस्वियों के तप से जीत सके। तप कठोर व अनवरत साधना के बाद ही फल देता है। प्रभु श्रीराम 14 वर्षो तक वन में रहे और आसुरी शक्तियों को हराने के लिए तप किया। यह उत्कृष्ट तप है। मनुष्य जीवन में तप का संबंध भी जन्म-जन्मांतरों से होता है। भगवान श्रीराम तो कहते हैं कि एक साधक की साधना को मैं जन्म-जन्मांतर तक निरंतरता प्रदान करता हूं। प्रभु तो हम पर हर पल कृपा बरसाने को तैयार बैठे हैं, लेकिन हम अपने जीवन को सही तरीके से साधें तो।

Friday, March 20, 2015

निर्मल वांणी

1-धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष यही तो हैं चार पुरुषार्थ
 
 
         तुला एक प्रकार का यंत्र है, जिसके द्वारा किसी वस्तु की संहति या उसका भार ज्ञात किया जा सकता है। तुला का शाब्दिक अर्थ है बराबर या समान किया हुआ। चूंकि तुला के दोनों पलड़ों पर गुरुत्वाकर्षण की शक्ति समान रूप से कार्य करती है, इसलिए तुला तभी समान होगी, जब दोनों पलड़ों पर समान भार हो। तुला का यह सिद्धांत हमारे जीवन में बड़ा ही महत्वपूर्ण है। जीवन के चार पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष हैं। मोक्ष मन की शांति पर निर्भर करता है। मन को शांति तभी मिलती है, जब मन पूर्णरूप से स्थिर हो।
 
         मन तभी स्थिर होगा जब धर्म, अर्थ व काम में संतुलन स्थापित हो। यह संतुलन स्थापित करना है अर्थ और काम के बीच। अर्थ है ज्ञान शक्ति व धन का अर्जन और काम है उसका उपयोग। जब अर्थ और काम दोनों ही धर्म से बराबर प्रभावित होंगे, तभी उनमें संतुलन होगा। तभी मन को शांति मिलेगी और आत्मा को मोक्ष मिलेगा। एक विद्यार्थी जो शिक्षा अर्जन में 'क्या' और 'कैसे' के उत्तर समझ लेता है, वह हमेशा अपने अभ्यास में सफल होता है। उसका जीवन संतुलित होता है और उसे शक्ति मिलती है। वहीं जो व्यक्ति समझ के बगैर मात्र परीक्षा में पास होने को ही अपना लक्ष्य बनाता है, वह पास होने पर भी उपार्जन में सफल नहीं होता। ऐसा इसलिए, क्योंकि उसकी सफलता में नैतिक आधार ही नहीं है। इसलिए उसका जीवन संतुलित नहीं होता और वह शांति भी नहीं प्राप्त कर पाता है।
 
          इसी तरह समाज में रहने वाला प्राणी यदि समाज, परंपराओं और प्रकृति के नियमों को समझकर समाज के अनुकूल चलता है, तो वह अपने आप को संतुलित रख पाता है और शांति को प्राप्त होता है। न्यायालय की तुला भी इसी बात की द्योतक है। इसी प्रकार एक योगी यदि यम और नियम के आधार पर अपने आहार-विहार और प्राणायाम में संतुलन स्थापित कर लेता है, तो आगे की ध्यान और धारणा की सीढि़यां, वह आसानी से चढ़ लेता है और अपने आपको संतुलित रख पाता है। वह समाज में निर्लिप्त जीवन जीता है और शांति से जीवन जीता है। इसी प्रकार जो व्यक्ति तुला के संतुलन को समझकर अपने जीवन में सामंजस्य स्थापित करता है उसे जीवन में शांति मिलती है।
 
 
2-क्रोध करना मनुष्य की एक मनोवृत्ति बन जाती है
 
         क्रोध से व्यक्ति का सहज स्वभाव बदल जाता है। क्रुद्ध व्यक्ति की सज्जनता, संवेदनशीलता, शालीनता, विन्रमता, उदारता आदि गुण ओझल हो जाते हैं। उसके अंदर की हमदर्दी कठोरता में और सहृदयता क्रूरता में बदल जाती है। जब क्रोध स्थायी भाव बन जाता है तो यह रोष बन कर प्रकट होता है।
 
         क्रोध एक मनोवृत्ति है। यह एक ऐसी भाव दशा है जो अति शीघ्र प्रकट होती है। इसे दबाया तो जा सकता है, लेकिन इसके प्रभावों को छिपाना संभव नहीं है। क्रोध मानवीय व्यवहार के किसी न किसी पक्ष से उजागर हो ही जाता है। मनोवैज्ञानिकों ने क्रोध को शांत व हिंसक के रूप में वर्गीकृत किया है। शांत क्रोध अंतरमुखी होता है। इससे व्यक्ति में हताशा, निराशा और उदासी छा जाती है। वह हैरान-परेशान रहता है। अपने मन की बात किसी से कह न पाने के कारण वह अंदर ही अंदर घुटता रहता है।
 
         क्रोध के उबाल को दबा देने के कारण उसकी आंतरिक स्थिति और भी अस्थिर व अशांत हो उठती है। हिंसक क्रोध बहिर्मुखी होता है। यह क्रोध अपने उफान को बाहर प्रकट करता है। इसके परिणाम स्वरूप कलह, लड़ाई-झगड़ा से लेकर दंगा-फसाद तक होते देखे जा सकते हैं। यह भी दो प्रकार का होता है- साधारण और असाधारण। साधारण क्रोध अल्पकालिक और क्षणिक होता है। यह दूध के समान तुरंत उफन पड़ता है। इसकी प्रतिक्रिया क्षीण ही सही, परंतु तीव्र होती है। जैसे ही यह क्रोध शांत होता है, अपने किए कर्म पर पश्चाताप होता है। असाधारण क्रोध का आवेश दीर्घकाल तक बना रहता है।
 
         आवेश का यह नशा मदिरा के समान होता है। इसके नशे में व्यक्ति लंबे समय तक आत्मविस्मृत हो कर बेसुध पड़ा रहता है। ऐसे व्यक्ति को कोई भी उपदेश और मार्गदर्शन देना संभव नहीं है, क्योंकि वह अपने ही बुने ताने-बाने में जलता-भुनता रहता है। धीरे-धीरे वह उन्माद के बाहुपाश में जकड़ता चला जाता है और उन्मादी वृत्ति उसके जीवन का अंग बन जाती है।
 
         किसी भी कारण से क्रोध पैदा हो सकता है, परंतु जैसे ही मन में छोटी तरंग उत्पन्न होती है, वैसे ही यह संवेदना का योग पाकर मन की गहराई में उतरती चली जाती है। क्रोध को नियंत्रित किया जा सकता है। आत्म-नियंत्रण व ईश्वर चिंतन द्वारा इस असाध्य मनोरोग से मुक्ति संभव है।
 
 
3-क्या मन सत्य से पवित्र बन सकता है
 
         अस्तेय का अर्थ है चोरी न करना। किसी वस्तु का मूल्य चुकाए बगैर या परिश्रम किए बिना उस वस्तु को प्राप्त करना भी चोरी है। जिस वस्तु पर हमारा अधिकार नहीं हैं उसे पाने की इच्छा बीजरूप में चोरी ही मानी जाएगी। मन पर काबू करते हुए इस दुगरुण से बचना अस्तेय व्रत है। काम, क्रोध, लोभ आदि मनोविकारों के कारण अपराधों में वृद्धि हो रही है। सभी इंद्रियों में मन अत्यंत सूक्ष्म होने के कारण इससे होने वाली चोरी सूक्ष्मतम होती है। किसी वस्तु को देखकर मन ललचाता है।
 
         लालच या प्रलोभन के वशीभूत होने पर अस्तेय का पालन संभव नहीं है। किसी चीज की जरूरत न होने पर भी उसे हड़प कर फालतू चीजों का अंबार लगा लेना परिग्रह कहलाता है, जो अस्तेय व्रत का शत्रु है। आज भी यदि हमें नैतिक मूल्यों को स्थापित करना है तो आर्थिक मर्यादा निश्चित करते हुए संयम आवश्यक है। तभी न केवल हमारे तनाव दूर होंगे, बल्कि हमें सुख व संतोष भी प्राप्त होगा।
 
         आज उपभोगवाद का दौर चल रहा है। ऐसे समय में अस्तेय व्रत की प्रासंगिकता बढ़ गई है। इसके द्वारा ही हम उपलब्ध साधनों का सीमित उपभोग करते हुए सुखी और संतुष्ट जीवन बिता सकते हैं। महात्मा गांधी ने अपने एकादश व्रतों में अस्तेय को महत्वपूर्ण स्थान दिया है। महर्षि पतंजलि ने योग-दर्शन में सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य के साथ अस्तेय को जीवन का अभिन्न अंग माना है।
 
         अस्तेय एक मानसिक संकल्प है, जिससे मन पर नियंत्रण किया जा सकता है, क्योंकि संसार का समस्त कार्य-व्यापार मन ही संचालित करता है। मन ही कर्ता, साक्षी और विवेकी है। मन के वश में होने पर अस्तेय व्रत का पालन सब प्रकार से किया जा सकता है। मन को हम सत्य द्वारा पवित्र बना सकते हैं। अस्तेय व्रत साधने के लिए संतोष का सद्गुण अपनाना होगा।
 
         हम जानते हैं कि सारे व्रत या संकल्प एक दूसरे से जुड़े हैं। इसलिए अस्तेय की प्राप्ति के लिए सत्य, अहिंसा आदि व्रतों का भी पालन करना होगा। संतोष के बिना परिग्रह समाप्त नहीं किया जा सकता है और न ही चोरी समाप्त हो सकेगी। इसलिए सुखमय जीवन और स्वस्थ समाज के लिए अस्तेय व्रत परमावश्यक है।
 
 
4-प्रार्थना में शक्ति होती है अनुभव करके देखें
 
         परिस्थितियां हमारे जीवन को इतना दुखी बना देती हैं कि हम अपने को एकदम असहाय और निरुपाय पाते हैं। ऐसी स्थिति में यह सोचना चाहिए कि हम अपने जीवन के निर्माण के लिए स्वतंत्र, समर्थ और अपने भाग्य के विधाता हैं, क्योंकि परमपुरुष परमात्मा सदैव हमारे साथ हैं और हमारे लिए सच्चे, मार्ग-दर्शक और कल्याणकारी हैं।
 
         परमात्मा अंतर्मन में साहस का संचार करते हैं और साहस हमें सच की राह पर चलना और झूठ का तिरस्कार करना सिखाता है। हममें से तमाम लोग जानते हुए भी गलत को गलत कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। बात दिल को जंचती नहीं, फिर भी न जाने किस मजबूरी में दूसरों की हां में हां मिलाते रहते हैं और अपने मन को मारते रहते हैं। प्रार्थना में बहुत शक्ति है। वह हमें अंधकार से प्रकाश की ओर व असफलता से सफलता की ओर अग्रसर करती है।
 
         हम जैसे ही परमात्मा की ओर उन्मुख होते हैं, उनकी प्रार्थना करते हैं और उनसे किसी भी प्रकार की सहायता की याचना करते हैं, वैसे ही उनकी सहायता के अदृश्य हाथ हमारी ओर बढ़े चले आते हैं। हमें उनकी कृपा प्राप्त होने लगती है। हमारे भीतर से निराशा का भाव जाने लगता है। हम प्रसन्न रहने लगते हैं। फिर हमारा मन सुकार्य में लगने लगता है। ऐसे में परमात्मा भी हमारी सहायता के लिए किसी न किसी के हृदय में प्रेरणा उत्पन्न कर देते हैं। फिर हमारे समक्ष उत्पन्न परिस्थितियों में नया मोड़ आ जाता है। हमारी हारी हुई बाजी भी जीत में बदल जाती है। असफलता तो हमारे निकट फटकती भी नहीं। जैसा हमारा विश्वास होता है, हमें वैसा ही फल भी प्राप्त होता है।
 
         हमारी जैसी आकांक्षाएं होती हैं वे वैसी ही फलीभूत होती हैं। सुविचार और कल्याण की भावना से किए गए कार्य का परिणाम बेहद सुंदर होता है। इसके लिए केवल आपके विचारों में दृढ़ता होनी चाहिए। जरूरत इस बात की भी है कि आपकी हर क्त्रिया सुविचारित और कल्याणकारी हो। वह आपके और आपके परिवार के साथ ही समाज के लिए भी कल्याणकारी हो। प्रभु से प्रार्थना के क्षणों में जब हमारा मन एकाग्र होता है और हम अपनी समस्याएं उनके समक्ष रखकर उनसे कुछ याचना करते हैं तो हमें तुरंत समाधान मिल जाता है। इसीलिए कहा भी जाता है कि सच्चे हृदय से की गई प्रार्थना तुरंत सुनी जाती है।
 
 
5--मनुष्य का जीवन एक रहस्य है
 
         जीव का उत्पन्न होना और जीव की उत्पत्ति के कारण जानना एक बड़ा ही रहस्यमय आध्यात्मिक विज्ञान है। यह ऐसा विज्ञान है जिसे अनादिकाल से लोग समझने का प्रयत्‍‌न करते रहे हैं। जितना इस रहस्य को जानने का प्रयत्‍‌न किया जाता है उतना ही इसका रहस्य और गहन अंधकार की तरह रहस्यमय बन जाता है। ऐसा इसलिए, क्योंकि यह इतना बड़ा विज्ञान है कि हमारी छोटी बुद्धि उसे समझ नहीं पाती।
 
         हमसे अगर कहा जाए कि वह हवा, प्रकाश, यहां तक कि समुद्र की परिभाषा करे तो वह भ्रम में पड़ जाएगा। उसी प्रकार मनुष्य का जीव की उत्पत्ति के संबंध में जानने का प्रयास उतना ही असंभव होता है, क्योंकि हमारे शास्त्रों में जीव और ब्रह्म की जो कल्पना है वह अनुभव पर आधारित है। उसे प्रमाणित करने के लिए हमें अनुभव की उसी स्थिति से गुजरना पड़ेगा, क्योंकि अनुभव को प्रमाणित नहीं किया जा सकता। मनुष्य के जीवन में जो कुछ घटित हो रहा है उसे प्रमाणित नहीं किया जा सकता।
 
         जीव कहां से आता है और कहां चला जाता है, कैसे काम करता है, इस सबको प्रमाणित करना कठिन है। एक महात्मा मंदिर में ध्यान कर रहे थे और शाम हो गई। उसी समय एक बच्चा मंदिर में आया, एक दीपक रखा, माचिस जलाई, दीपक जलने लगा। जब बच्चा वहां से जाने लगा तो महात्मा ने बच्चे से पूछा- बेटे, यह दीपक कैसे जला? प्रकाश कहां से आ गया? यह सुन बच्चे ने महात्मा से कहा-आप महात्मा हो गए, इतना भी नहीं जानते! यह कहकर उसने दीपक पर फूंक मार दी।
 
         दीपक बुझ गया। बच्चे ने कहा प्रकाश जहां से आया था, वहीं चला गया। ऐसा हमारे जीवन में प्राय: होता रहता है, लेकिन इन प्रश्नों के उत्तर जानने के लिए हम कभी गंभीर नहीं होते, कभी उत्सुक नहीं होते। इसलिए अनादिकाल से जीव और जीवन के संबंध में प्रश्न तो अवश्य उठते रहे हैं, लेकिन इन प्रश्नों को हम और अनेक प्रश्नों में उलझा देते हैं। दरअसल, मनुष्य स्वयं किसी प्रश्न का उत्तर खोजना नहीं चाहता। इसलिए वह दूसरों से प्रश्न पूछता है।
 
         भगवान बुद्ध ने कभी किसी से प्रश्न नहीं पूछा, उन्होंने स्वयं उत्तर खोजा। हमारे देश में आज भी अनेक संत हैं जो स्वयं प्रश्नों का उत्तर खोजते हैं, क्योंकि जिस व्यक्ति को प्रश्न उठाना आता है वही उसका उत्तर भी खोज सकता है।
 
 
 
6-जीवन में अज्ञानता अंधकार है
 
         सांसारिक जीवन रूपी आभास होने वाले सुख के पौधे पर अंतत: दुख का फल लगता है। यह महज संयोग नहीं है, बल्कि दुखमय संसार की अंतिम व वास्तविक परिणति भी है। हम दुखी क्यों होते हैं? क्या ईश्वर ने दुख प्रदान करने वाले पदार्थो का निर्माण हमारे लिए किया है? ईश्वर ने तो हमें निर्मल मन, निश्छल देह व गंगा-सा पवित्र आनंदमय कानन-कुसुमयुक्त जीवन दिया था। फिर इस सुख में बिन बुलाए दुख आया कैसे? कौन है इसका निर्माता व जिम्मेदार? सच तो यह है कि मनुष्य ने स्वयं ही कामनाओं का यह मकड़जाल बुना है और स्वयं ही उसमें फंसकर छटपटा रहा है।
 
        असहाय व असमर्थ, पग-पग अपने गलत कृत्यों पर पश्चाताप के आंसू बहाता हुआ। ईश्वर ने हमें तपस्वी मन व सशक्त काया दी थी। इसको संग्रही व भोगी हमने बनाया। सुख की चाहत में परिवार, धन-दौलत, जायदाद व अपेक्षा-कामनाओं का अभयारण्य हमने बसाया। अब इसके हानि-लाभों से स्वयं हमें ही रूबरू होगा पड़ेगा। जीवन के हर मार्ग व मोड़ पर शाश्वत सुख व शाश्वत दुख हमारे स्वागत के लिए सदैव खड़े रहते हैं।
 
         शाश्वत सुखों में भौतिक कष्टों का आभास होता है, जबकि शाश्वत दुखों में हमें अतुलनीय आभासित भ्रामक संसार दिखाई देता है। अज्ञानता में इसे ही हमने उपलब्धियों की पूर्वपीठिका मानकर स्वीकार कर लिया है। असली सुख का मार्ग हमसे दूर छूटता चला गया और हमने दुखमय मार्ग को ही अज्ञानता के अंधकार से प्रेरित होकर सुख-सदृश मान लिया। छलावा तो महज छल सकता है। जैसे निद्रा में भव्य स्वर्णमहलों की प्राप्ति, जो स्वप्न टूटते ही खंड-खंड होकर असलियत या यथार्थ से साक्षात्कार करा देता है।
 
         इस संपूर्ण दुखमय सृष्टि का निर्माण व आमंत्रण केवल हमने ही किया है। इससे पनपने वाला हर भाव, स्वभाव, उत्पाद, संबंध व विस्तार दुखमय ही होगा। सुख का मार्ग ईश-भजन की नाव में बैठकर, सांसारिक विस्तार को भुलाकर, सनातन आनंद के उस लोक का दिव्य-दर्शन है, जहां दुख, पीड़ा, पश्चाताप व संताप पनप ही नहीं सकते।
 
 
7--संत वह है जिसके हृदय में सात्विक गुण हो
 
         प्रत्येक व्यक्ति के जीवन के दो पक्ष होते हैं। पहला पक्ष उज्जवल है और दूसरा श्याम। पहले पक्ष का संबंध व्यक्ति के सात्विक गुणों से होता है और दूसरे पक्ष का संबंध असात्विक गुणों से। व्यक्ति अपने स्वभाव और गुणों के आधार पर संतत्व-असंतत्व, यश-अपयश, मान-अपमान, प्रशंसा-निंदा आदि का भागीदार बनता है।
 
         शास्त्रों में वर्णित संतों के 32 लक्षणों के आधार पर संतों की भिन्न-भिन्न व्याख्याएं प्रस्तुत की गई हैं। सामान्यत: संत के हृदय में सात्विक गुणों और स्वभाव की विनम्रता के कारण सदैव भगवान का ही चिंतन रहता है और भगवान के हृदय में सदैव संत का ही वास होता है। संत-सान्निध्य सर्वजन हितकारी, सुखकारी और शांति प्रदाता होता है। संत ही भोग-वासनाओं से विरत, धर्म-नीति के पालक, भगवान के सच्चे भक्त और नवनीत के समान कोमल हृदय होने के कारण दूसरों के दुखों से शीघ्र द्रवित हो जाते हैं।
 
          संत के बिछोह की कल्पना मात्र से ही होने वाली मर्मातक पीड़ा से प्राण त्यागने जैसी व्याकुलता की अनुभू्ति होने लगती है। इसके विपरीत असंत के मिलने मात्र से ही दारुण दुख देने वाली असहनीय वेदना होती है। मानस में संत तुलसी ने कहा है-'संत दरस सम सुखजन नाहीं।' संत चलते-फिरते तीर्थ ही नहीं, बल्कि साक्षात सत्संग भी होते हैं। संत में चेतन-तत्व का प्राबल्य होने के कारण देवत्व की प्रधानता होती है।
 
          संत-सान्निध्य प्राप्त करने की ललक और संस्कारों का धनी व्यक्ति ही संत के निकट पहुंचने की पात्रता रखता है। संत के हृदय की स्वाभाविक पवित्रता के प्रभाव से संपर्क में आने पर व्यक्ति अपनी दुर्बलताओं और कुत्सित मनोविकारों को जान लेता है और संत-कृपा से सजग हो जाता है। संत अपने संतत्व की स्वाभाविक ऊर्जा से सत्संग के परिवेश का निर्माण करते हैं और अपने सद्गुणों और सद्विचारों से उसे अपने जैसा ही बना लेते हैं। संत-सान्निध्य प्राप्त होते ही व्यक्ति क्षण-क्षण में क्षीण होने वाले संसार की क्षुद्र सीमाओं को पार कर सद्मार्ग का अनुगामी होकर शाश्वत सत्य की निकटता की अनुभू्ति करने लगता है।
 
           संत की कृपा ही व्यक्ति को परम प्रभु के निकट पहुंचाने के लिए अनुकूल परिस्थितियों का सृजन करती है। संत-सान्निध्य ही सत्संग की सुवास की जीवंतता को अक्षुण्ण बनाए रखता है।
 
 
 
8-जीवन में खुशी एक सकारात्मक मनोदशा है
 
         वस्तुत: प्रसन्नता या खुशी आपकी मनोदशा पर निर्भर करती है। इसलिए खुश रहना एक हुनर है। तमाम लोगों की धारणा है कि अमुक-अमुक वस्तुओं को हासिल करने से उन्हें खुशी मिलेगी तो उनकी ऐसी सोच बेबुनियाद है। इसका कारण यह है कि खुशी का अहसास किसी वस्तु विशेष पर निर्भर नहीं करता।
 
          दुनिया में तमाम ऐसे धनवान व्यक्ति हैं जिनके पास समस्त भौतिक व विलासितापूर्ण वस्तुएं उपलब्ध हैं। इसके बावजूद आए दिन अखबारों व अन्य प्रचार माध्यमों में इस आशय की खबरें प्रकाशित होती रहती हैं कि अमुक धनवान व्यक्ति ने आत्महत्या कर ली। स्पष्ट है कि ऐसे लोग स्वयं से या हालात से अप्रसन्न होने की स्थिति में ही आत्महत्या करते हैं। इस प्रकार यह बात स्वत: ही स्पष्ट हो जाती है कि प्रसन्नता का कारण सिर्फ धन या वैभव ही नहीं है। वस्तुत: खुशी एक सकारात्मक मनोदशा है, जिसमें आप शांति व आनंद की अनुभूति करते हैं। यदि आपके जीवन में अथक प्रयासों के बाद भी खुशी का अहसास नहीं हुआ है तो इसका अर्थ है कि आपने जीवन के आधारभूत तत्वों की उपेक्षा की है।
 
         बात चाहे संबंधों की प्रगाढ़ता की हो या परिस्थिति विशेष से निबटने में कार्यकुशलता की, आप बेहतर तभी कर सकते हैं जब खुश हों। सच तो यह है कि खुश रहना या नहीं रहना आप पर निर्भर है। जीवन में चाहे आप जो भी पा लें, यह मायने नहीं रखता। यदि आप खुश हैं, कुछ और नहीं भी हासिल करते हैं तो आपका क्या बिगड़ जाता है? खुश रहना आपका स्वभाव है। इसलिए आप खुश रहना चाहते हैं। जब आप छोटे थे तो खुश थे, लेकिन जीवन-यात्र में खुशियों को आपने कहीं खो दिया है, क्योंकि आपका मन और शरीर आपकी पहचान को आसपास की चीजों से जोड़कर देखने का आदी हो चुका है।
 
         जिसे आप मन कहते हैं उस पर सामाजिक परिस्थितियों का प्रभाव पड़ता है। आप जैसे समाज में पले-बढ़े हैं, आपके मन-मस्तिष्क की अवधारणा वैसी ही होगी। आपके मन-मस्तिष्क में भी वही है जो आपने समाज में देखा है। आप इन चीजों से इतने गहन रूप में जुड़ गए हैं कि यह प्रवृत्ति आपकी परेशानियों का मूल कारण बन गई है।
 
 
9-आत्मा का सर्वोपरि साधन है मन
 
           चिंतन का अर्थ है सोचना या विचारना। किसी सुने हुए, पढ़े हुए या विचारणीय विषय पर एकांत स्थान में बैठकर गंभीर विचार करना मनन है। मननशीलता का गुण होने के कारण मानव को मनुष्य कहा जाता है। जैसा मन का स्वभाव या गुण होता है वैसा ही मनुष्य होता है। मन आत्मा का सर्वोपरि साधन है। मन का कार्य है आत्मा से प्राप्त संदेशों को क्रियान्वित कराने का संकल्प करना।
 
         मन ज्ञानेंद्रियों और कर्मेद्रियों के जरिये कार्य करने के लिए प्रेरित करता है। मन की गुणवत्ता पर ही मनुष्यता निर्भर करती है, अन्यथा मन के पतित होने पर मानव का व्यवहार भी पशुवत हो जाता है। हमारे अंत:करण के अंतर्गत मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार को शुमार किया जाता है। कार्य के विभाजन को देखते हुए मन और चित्त भिन्न-भिन्न हैं।
 
         चित्त का काम चिंतन करना है और मन का काम मनन करना है। चिंतन चित्त में होने के कारण उसके साथ बुद्धि का समावेश रहता है। शास्त्रों में बुद्धि को निश्चयात्मक बताया गया है। इस गुण के कारण यह किसी भी विषय का निश्चय करा देती है। चिंतन निर्विकल्प स्थिति है, जो ज्ञानपूर्वक होती है। आध्यात्मिक जगत में केवल आत्मा और परमात्मा का चिंतन होता है, किसी अन्य विषय का नहीं।
 
         मनुष्य ज्ञानरहित अवस्था में ही चिंता करता है। वेदों में कहा गया है कि मनुष्य चिंता न करे, क्योंकि यह हमें पतन की ओर ले जाती है। शास्त्रों में चिंता और चिता पर विचार करते हुए बताया गया है कि मनुष्य चिंता करके चिता की स्थिति तक पहुंच जाता है, परंतु यदि वह चित्त में चिंतन करे तो परमात्मा की प्राप्ति के मार्ग पर अग्रसर हो जाता है। चिंतन साधना की प्रारंभिक अवस्था है।
 
         व्यक्ति अपने चित्त को योग साधना के माध्यम से बाहरी कार्र्यो और विषयों से हटाकर अपनी चित्तवृत्तियों का निरोध कर लेता है। इस स्थिति को गीता में कामनाओं से रहित होकर योगनिष्ठ होना बताया गया है। ऐसा योगनिष्ठ साधक आत्मानंद का अनुभव प्राप्त करते हुए अपने जीवन के मुख्य लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है। वेदों के अनुसार मन हृदय में स्थित है, मस्तिष्क में नहीं। आत्म तत्व को सुसारथि बताया गया है जो चिंतन-मनन के विवेक से परिपूर्ण होकर जीवन रूपी रथ का संचालन करता है।
 
 
10-विचार से तर्क का जन्म होता है
 
         मनुष्य जो कुछ भी करता है, वह सोचकर करता है। वह मंदिर जाता हो, चोरी करता हो या अनैतिक काम करता हो, वह सोचकर करता है। मंदिर जाने के पहले वह मंदिर आने का विचार करता है, तब मंदिर जाता है। अनैतिक काम करने से पहले भी वह विचार करता है।
 
         विचार करते समय उस काम के अच्छे-बुरे प्रभाव के बारे में भी सोचता है, लेकिन जब उसके दिमाग पर बुरे विचारों का प्रभाव रहता है, तो वह अपने सभी अच्छे विचारों को अपने ही तर्क से दबा देता है और अपने बुरे विचारों के समर्थन में तर्क भी गढ़ लेता है। वह अपने तर्को द्वारा मान लेता है कि उसका प्रत्येक गलत काम सही है। ऐसा इसलिए क्याेंकि मनुष्य तार्किक व्यक्ति है।
 
          ऐसा होता भी है कि जो व्यक्ति गलत करता है, उसके पास अपने गलत काम के समर्थन में बहुत तर्क होते हैं। शराब पीने वाला आपको मनवा देगा कि वह सही कर रहा है, क्योंकि वह अपनी चालाकी से अपने समर्थन में मजबूत तर्क एकत्र कर लेता है। जैसे किसी वकील के पास आप जाइए और यह कहें कि मैंने कोई दुराचार किया है, तो वह अपने तर्क से यह साबित कर देगा कि आपने गलत नहीं किया। गलत काम करने वालों के पास तर्क बहुत होते हैं। सत्य को साबित करने के लिए किसी तर्क की आवश्यकता नहीं होती। तर्र्को के द्वारा असत्य को सत्य साबित किया जा सकता है।
 
         कई लोग आपको भी यह साबित कर बता देंगे कि अमुक व्यक्ति मनुष्य नहीं पशुतुल्य है। 1 कई बार सत्य बोलने वाले को असत्यवादी लोग चौराहे पर खड़ा करके असत्य साबित कर देते हैं और ईसा मसीह को सूली पर चढ़ा देते हैं, सुकरात को जहर पिला देते हैं। ऐसे लोग बड़े तार्किक होते हैं। तर्क का जन्म विचार से होता है। शरीर में जो ऊर्जा बनती है, उस ऊर्जा को अगर विवेकपूर्ण कार्यो में खर्च किया जाए तो उसका प्रभाव रचनात्मक होता है।
 
         अगर इस ऊर्जा को गलत दिशा में खर्च किया जाए तो मानवता का नाश करने के लिए हिरोशिमा और नागासाकी की घटना घट जाती है। मनुष्य मूल रूप से न अच्छा होता है और न बुरा होता है। वह केवल मनुष्य होता है। बाद में वह जिस परिवेश में पलता है जैसा विचार करता है, वैसा ही बन जाता है।
 
 
11-योग बिना भक्ति उसी तरह है, जैसे सुनार बिना सोना
 
         योग बिना भक्ति उसी तरह है, जैसे सुनार बिना सोना के। हमें ज्ञान और कर्म की भी साधना करनी पड़ेगी। सिर्फ आसन और प्राणायाम करने से परमसत्ता को नहीं पाया जा सकता है। सबसे महत्वपूर्ण है भक्ति। एक अनपढ़ व्यक्ति भी भगवान को पा सकता है, जबकि एक विद्वान भी उसे नहीं प्राप्त कर सकता है। इस संदर्भ में सवाल उठता है कि ज्ञान क्या है? सभी वस्तुओं में परमात्मा की उपस्थिति का अनुभव करने का प्रयास करना ही ज्ञान साधना है।
 
         सभी वस्तुओं में परमात्मा की सत्ता को अनुभव करने के लिए लोग आध्यात्मिक साधना करते हैं। परमात्मा सभी वस्तुओं में नहीं है, बल्कि सभी वस्तुएं उन्हीं में हैं, सभी वस्तुएं वे ही हैं। ज्ञान साधना में यह बोध होता है कि सभी वस्तुएं परमात्मा ही हैं। अब सवाल उठता है कि कर्म साधना क्या है? भौतिक विश्व में सभी व्यक्तियों में कार्य करने की संभावना है, किंतु कुछ लोग ही शत-प्रतिशत संभावना का उपयोग कर पाते हैं, 90 प्रतिशत का उपयोग हो ही नहीं पाता।
 
           कर्म साधना का आशय है- दूसरों के लिए अधिक और अपने लिए कम कर्म करना। साधारणतया मनुष्य अपने लिए ही कार्य में संलग्न रहता है। जो दूसरों के लिए भी कर्म करता है, वह वास्तव में महान है। जो सिर्फ दूसरों के लिए ही कर्म करता है वह 'कर्मसिद्ध' कहा जाता है। इसलिए ज्ञान और कर्म द्वारा भक्ति का जागरण किया जाता है। इस बात को मन में रखें कि ज्ञान और कर्म दोनों को ही करना है, किंतु कर्म साधना, ज्ञान साधना से ज्यादा करनी है। जब कर्म की तुलना में ज्ञान साधना ज्यादा हो जाए, तो अहंकार के पैदा होने की संभावना बढ़ जाती है, जिसका परिणाम पतन होता है। जब ज्ञान से अधिक कर्म किए जाते हैं, तब भक्ति जाग्रत हो जाती है, तब योगी परमात्मा की तरफ बढ़ सकता है।
 
         इसके पहले नहीं। एक योगी संपूर्ण रूप से भक्ति पर आश्रित रहता है। जहां भक्ति नहीं है, उस योगी का हृदय मरुभूमि की तरह हो जाता है। एक साधक का हृदय मिट्टी की तरह होता है। इष्टमंत्र बीज है और भक्ति जल के समान है। जहां भक्ति की ठंडी फुहार नहीं है, उस मरुभूमि में बीज बोना व्यर्थ है। इसलिए एक आदर्श योगी बनना सबका लक्ष्य है, किंतु यह याद रखना चाहिए कि भक्ति की लौ को अंतर्मन में जाग्रत करना जरूरी है।
 
 
12-कृतज्ञता से जीवन का पोषण होता है
 
कृतज्ञता मानव जीवन का पोषक तत्व है। इसके बिना जीवन का रस फीका हो जाता है। यह जीवन मूल्यों में उच्चकोटि का शाश्वत सद्गुण है। संपूर्ण मनुष्य की कसौटी पर खरा उतरने के लिए कृतज्ञता का भाव आत्मसात कर लेने पर दूसरों को सुधारने की पात्रता आती है।
 
         उन्नति करने के लिए कृतज्ञता के गुण की अधिक आवश्यकता है। कृतज्ञता की प्रेरणा नारियल के वृक्ष से मिल सकती है। यह वृक्ष 50 वर्ष से अधिक समय तक फल और स्वास्थ्यवर्धक पानी प्रदान करता है और बदले में कुछ नहीं चाहता। केवल अपने लिए जीना स्वार्थ है। दूसरों का सहयोगी बनना परार्थ है।
 
         सामाजिक ऋण चुकाने की भावना से कार्य करना कृतज्ञता रूपी यज्ञ है। सामाजिक मूल्य न बनने वाले गुण, दोष हो जाते हैं। कृतज्ञता से पहचानने की दृष्टि आती है तो कृतघ्नता से व्यक्ति दूसरों की नजरों में गिर जाता है। अपने काम आए लोगों को नकारना कृतघ्नता है। यह स्थिति मूढ़ता के कारण उत्पन्न होती है। कृतज्ञता की अभिव्यक्ति एक बड़ा सद्गुण है। हनुमान के प्रति राम इतने कृतज्ञ होते हैं कि वह चाहते हैं कि कभी हनुमान पर ऐसा कोई कष्ट आए ही नहीं जिसके लिए राम की उन्हें आवश्यकता पड़े, भले ही राम जीवनपर्यन्त कृतज्ञ बने रहें।
 
           कृतज्ञता वह सदगुण है, जिसकी अभिव्यक्ति करना हमारा कर्तव्य है। कहा गया है- नेकी कर दरिया में डाल। कृतज्ञता रूपी प्रसन्नता को दूसरों की कृतघ्नता रूपी अप्रसन्नता के हवाले करना हितकर नहीं होता। छोटी से छोटी सहायता, श्रेष्ठ भावना और मधुर शब्दों का कृतज्ञता से स्मरण कर यथासंभव लौटाना दिव्य संस्कार है। इस संदर्भ में भरत कहते हैं कि यदि मैंने कोई दोष किया गया हो तो ईश्वर मुडो कृतघ्नता का दंड दे। कृतज्ञता के बदले कृतघ्नता करने वालों के लिए प्रायश्चित करने के लिए किसी विकल्प की संभावना नहीं रहती।
 
         कृतज्ञता किसी के प्रति सच्ची योग्यता को स्वीकार करने का ही भाव है। कृतज्ञता कथनी और करनी का भेद मिटाकर सत्य की स्थापना करती है। कृतज्ञता किसी के प्रति दिया गया आदर का भाव है। सम्मान देने वाले स्वयं को झुकाकर अपने उच्च संस्कारों का परिचय कराते हैं। वस्तुत: महापुरुष कृतज्ञता में जीते हैं। 12-हमारी वांणी की देवी सरस्वती ही तो है वसंत पंचमी को मां सरस्वती के प्रकट होने का दिन माना जाता है।
 
         सरस्वती मनुष्य को ज्ञान के प्रकाश की ओर ले जाती हैं। वे वाणी की देवी हैं, जो संदेश देती हैं कि जो भी बोलें, सोच-समझकर। वाग्देवी सरस्वती वाणी, विद्या, ज्ञान-विज्ञान एवं कला-कौशल आदि की अधिष्ठात्री मानी जाती हैं। वे प्रतीक हैं मानव में निहित उस चैतन्य शक्ति की, जो उसे अज्ञान के अंधकार से ज्ञान के प्रकाश की ओर अग्रसर करती है।
 
         सर्वाधिक प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद में सरस्वती के दो रूपों का दर्शन होता है- प्रथम वाग्देवी और द्वितीय सरस्वती। इन्हें बुद्धि [प्रज्ञा] से संपन्न, प्रेरणादायिनी एवं प्रतिभा को तेज करने वाली शक्ति बताया गया है। ऋग्वेद संहिता के सूक्त में वाग्देवी की महिमा का वर्णन किया गया है। ऋग्वेद संहिता के दशम मंडल का 125वां सूक्त पूर्णतया वाक् [वाणी] को समर्पित है। इस सूक्त की आठ ऋचाओं के माध्यम से स्वयं वाक्शक्ति [वाग्देवी] अपनी सामर्थय, प्रभाव, सर्वव्यापकता और महत्ता का उद्घोष करती हैं।
 
         वाणी का महत्व- बृहदारण्यक उपनिषद् में राजा जनक महर्षि याज्ञवल्क्य से पूछते हैं- जब सूर्य अस्त हो जाता है, चंद्रमा की चांदनी भी नहीं रहती और आग भी बुझ जाती है, उस समय मनुष्य को प्रकाश देने वाली कौन-सी वस्तु है? ऋषि ने उत्तर दिया- वह वाक [वाणी] है। तब वाक ही मानव को प्रकाश देता है। मानव के लिए परम उपयोगी मार्ग दिखाने वाली शक्ति वाक [वाणी] की अधिष्ठात्री हैं भगवती सरस्वती। छांदोग्य उपनिषद् के अनुसार, यदि वाणी का अस्तित्व न होता तो अच्छाई-बुराई का ज्ञान नहीं हो पाता, सच-झूठ का पता न चलता, सहृदय और निष्ठुर में भेद नहीं हो पाता।
 
         अत: वाक [वाणी] की उपासना करो। ज्ञान का एकमात्र अधिष्ठान वाक है। प्राचीनकाल में वेदादि समस्त शास्त्र कंठस्थ किए जाते रहे हैं। आचार्यो द्वारा शिष्यों को शास्त्रों का ज्ञान उनकी वाणी के माध्यम से ही मिलता है। शिष्यों को गुरु-मंत्र उनकी वाणी से ही मिलता है। वाग्देवी सरस्वती की आराधना की प्रासंगिकता आधुनिक युग में भी है।
 
         मोबाइल द्वारा वाणी [ध्वनि] का संप्रेषण एक स्थान से दूसरे स्थान होता है। ये ध्वनि-तरंगें नाद-ब्रह्म का ही रूप हैं। वसंतपंचमी है वागीश्वरी जयंती- जीभ सिर्फ रसास्वादन का माध्यम ही नहीं, बल्कि वाग्देवी का सिंहासन भी है। देवी भागवत के अनुसार, वाणी की अधिष्ठात्री सरस्वती देवी का आविर्भाव श्रीकृष्ण की जिह्वा के अग्रभाग से हुआ था।
 
         परमेश्वर की जिह्वा से प्रकट हुई वाग्देवी सरस्वती कहलाई। अर्थात वैदिक काल की वाग्देवी कालांतर में सरस्वती के नाम से प्रसिद्ध हो गई। ग्रंथों में माघ शुक्ला पंचमी [वसंत पंचमी] को वाग्देवी के प्रकट होने की तिथि माना गया है। इसी कारण वसंत पंचमी के दिन वागीश्वरी जयंती मनाई जाती है, जो सरस्वती-पूजा के नाम से प्रचलित है।
 
            वाणी की महत्ता पहचानो- वाग्देवी की आराधना में छिपा आध्यात्मिक संदेश है कि आप जो भी बोलिए, सोच-समझ कर बोलिए। हम मधुर वाणी से शत्रु को भी मित्र बना लेते हैं, जबकि कटुवाणी अपनों को भी पराया बना देती है। वाणी का बाण जिह्वा की कमान से निकल गया, तो फिर वापस नहीं आता। इसलिए वाणी का संयम और सदुपयोग ही वाग्देवी को प्रसन्न करने का मूलमंत्र है। जब व्यक्ति मौन होता है, तब वाग्देवी अंतरात्मा की आवाज बनकर सत्प्रेरणा देती हैं।

Tuesday, March 17, 2015

निर्मल छाया


1-विपत्ति के समय मनुष्य की सबसे बड़ी योग्यता उसका धैर्य है
 
         जो मनुष्य धार्मिक है या धर्मपथ पर है, उसमें क्या-क्या लक्षण होंगे? इस सवाल का जवाब एक संस्कृत श्लोक में आए शब्दों में निहित है। इन शब्दों के अर्थो में ही धर्म की वास्तविक परिभाषा निहित है।

         इस क्रम में पहला शब्द 'धृति' है। इस शब्द के कई अर्थ हैं, लेकिन इसका प्रमुख अर्थ है धैर्य। मनुष्य के लिए किसी भी अवस्था में विचलित होना उचित नहीं है। विपत्ति के समय सबसे बड़ी योग्यता है-धैर्य। इसके बाद-क्षमा। क्षमा क्या है? किसी के प्रति प्रतिशोधमूलक मनोभाव न रखना ही क्षमा है। अगर मैं धार्मिक हूं तो मेरे लिए क्षमा करना ही उचित होगा।

         'दम' शब्द का अर्थ है आत्म-शासन। संस्कृत शब्द 'शम' और 'दम' लगभग समपर्यायवाची हैं। 'दमन' हुआ स्वयं को शासित करना और शमन हुआ दूसरों पर शासन करना। धार्मिक व्यक्ति को अवश्य ही 'दमन' मनोभाव का होना चाहिए। इसके बाद हुआ-अस्तेय। यम-नियम में 'अस्तेय' शब्द शामिल है। अस्तेय शब्द का अर्थ है-चोरी नहीं करना। चोरी दो प्रकार की है-बाहर की चोरी और भीतर की चोरी। भीतर की चोरी से आशय मन ही मन चोरी करने का भाव लाने से है। इसलिए 'अस्तेय' का अर्थ है-किसी प्रकार की चोरी न करना। 'शौचम् का अर्थ है-शुद्ध रहना। असल में शौच का एक आशय है-मन को शुद्ध रखना। मन को स्वच्छ रखने का क्या उपाय है? प्रथम और एकमात्र उपाय सत्कर्मो में मन को व्यस्त करना है। इंद्रियनिग्रह के द्वारा क्या होता है? इंद्रियनिग्रह कर मनुष्य किसी कार्य में पूरे मनोयोग से अपनी ऊर्जा को केंद्रित कर सकता है। 'धी' का अर्थ है मेधा, बुद्धि। किसी ने हजारों-हजार किताबें पढ़ी हैं, परंतु वह सभी को याद नही रख सकेगा। अधिकांश को भूल जाएगा, यह स्वाभाविक है। मनुष्य की स्मृति अधिक दिनों तक कायम नहीं रह सकती है। साधना के द्वारा मनुष्य को इसे जगाना पड़ता है।

         शब्द का वास्तविक अर्थ है धुव्रास्मृति। विद्या यानी जो ज्ञान मनुष्य को परमार्थ की ओर ले जाता है उसे ही विद्या कहते हैं। जो ज्ञान मनुष्य को अकल्याणकारी कार्यो को करने के लिए प्रेरित करता है उसे कहा जाता है-'अविद्या'। 'सत्यम' यानी लोगों के हित की भावना लेकर मनुष्य जो भी सोचेगा या बोलेगा वही सत्य है। इस क्रम में धर्म का अंतिम लक्षण है अक्रोध यानी क्रोध न करना।
 

2-अध्यात्म साधना का प्रवेश द्वार है स्वाध्याय
 
         स्वाध्याय मस्तिष्क के लिए शक्तिवर्धक रसायन के सदृश है। इससे बुद्धि की निर्मलता बढ़ती है। अनुशासन की रक्षा और संशय की निवृत्ति होती है। जिन्हें स्वाध्याय रूपी रत्‍‌न मिल जाता है उनके लिए कुबेर का रत्‍‌नकोष भी आकर्षक नहीं रह जाता।
 
         वाचन से विचारों में नवीनता आती है। श्रेष्ठ कृतियां प्रकाश स्तंभ हैं। स्वाध्याय के समान अन्य तप नहीं है। यह अध्यात्म साधना का प्रवेश द्वार है। भगवान श्रीकृष्ण ने स्वाध्याय को महायज्ञ बताया है। अध्ययन और स्वाध्याय में अंतर है। जब अध्ययन, स्वाध्याय के रूप में परिवर्तित होता है तो अध्ययन जीवन के लिए वरदान बन जाता है। अपने द्वारा अपना अध्ययन स्वाध्याय है।
 
          स्वाध्याय का स्तर पढ़ने मात्र से ऊंचा है। यह सूक्ष्म अध्ययन की उत्कृष्ट विधि है। स्वाध्याय का उद्देश्य सद्साहित्य में वर्णित सच्चरित्रता को अपने जीवन में व्यावहारिक रूप से धारण करना है। सत्य को जानने-मानने में स्वाध्याय सहायक है। चिंतन इसका अभिन्न अंग है। स्वाध्याय जीवन मंत्र है। यह कृतज्ञता की भावना लाता है। स्वाध्याय मन का संयम और सदाचार बढ़ाता है। यह अवगुणों को दूर कर सद्गुणों का समावेश करता है। साधना से नई ऊर्जा का जन्म होता है। भौतिकता मनुष्य को महान नहीं बनाती है, बल्कि यह हमारी लौकिक आवश्यकताओं की पूर्ति करती है। नैतिक मूल्यों से मानव जाना जाता है, इसलिए यह हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं।
 
         धर्म के सप्तम लक्षण अर्थात् विमल बुद्धि की प्राप्ति का साधन स्वाध्याय है। मनु ने स्वाध्याय को सवरेत्तम तप माना है। स्वाध्याय पंच महायज्ञों में एक यज्ञ है। 'शतपथ ब्राह्मण' में योग के आठ अंगों में स्वाध्याय भी एक उपांग है। श्रेष्ठ पुस्तकों के पास रहने से मित्रों की कमी नहीं खटकती। स्वाध्याय से विनम्रता आती है। पंचकोशों के रहस्य को समझने में यह सहायक है। सच तो यह है कि विवेकपूर्ण जीवन जीने की कला स्वाध्याय से आती है। शांति पाने का एक अच्छा उपाय स्वाध्याय है। स्वाध्याय से विकसित चेतना नई दिशा पाती है। जीवन को जानने वाले बहुत कम हैं, पर उसे नष्ट करने वाले अधिक हैं। स्वाध्याय सार्थक जीवन जीने की प्रेरणा देता है। यह आत्म साक्षात्कार के लिए प्रेरित करता है।
 

3-मनुष्य के मन की शक्ति का कमाल
 
         मन दो प्रकार का होता है। पहला चेतन व दूसरा अवचेतन। चेतन मन के द्वारा मनुष्य जाग्रत अवस्था में सोचता है और बाहरी दुनिया का अनुभव करता है। अवचेतन मन इन्हीं सब बातों को ग्रहण कर सुरक्षित रख लेता है। एक प्रकार से अवचेतन मन को आत्म तत्व के साथ जोड़कर देखा जाता है।

           एक नियत परिस्थिति में अचानक प्रतिक्रिया इसी अवचेतन मन से आती है और इसी को आत्मशक्ति भी कहते हैं। दुनिया के सभी धर्म विश्वास के रूप हैं और विश्वास कई तरीकों से स्पष्ट किए जाते हैं। अपने जीवन और ब्रह्मंड के बारे में जैसा विश्वास होगा, मनुष्य को वैसा ही मिलता है। मनुष्य अगर विश्वास कर सके, तो उसके लिए हर चीज संभव है।

         नेपोलियन को विश्वास था कि दुनिया में असंभव शब्द है ही नहीं और इसी विश्वास के चलते उसने बड़े-बड़े युद्ध जीते। जहां पर सकारात्मक विश्वास मनुष्य को सफलता दिलाता है, वहीं पर नकारात्मक व निराशाजनक सोच मनुष्य को असफलता, संदेह व आत्मविश्वास में कमी की ओर ले जाती है। आज चारों तरफ आपाधापी व स्वार्थपरायणता ने अनेक नौजवानों को नकारात्मक सोच की तरफ अग्रसर कर दिया है। जब यह सोच ज्यादा बढ़ जाती है, तो अवचेतन मन ऐसी स्थिति में उनसे आत्महत्या जैसा अपराध करा देता है। इससे यह सिद्ध होता है कि मनुष्य का अवचेतन मन शक्ति का भंडार है, जिसमें जैसा मनुष्य एकत्र करेगा, उसका कई गुना वह पाएगा। इसीलिए कहा गया है कि मन के हारे हार है और मन के जीते जीत। अमेरिका के डॉ. जोसेफ मर्फी ने शोध से पता लगाया कि यदि चेतन मन को विश्वास हो जाता है कि वह अब ठीक हो सकता है, तो अवचेतन मन उसे पूरा करने के लिए शक्ति पैदा करता है और अवचेतन मन के आदेश पर मस्तिक उसी प्रकार के हार्मोन पैदा करके उस कार्य को पूरा करता है।
 
         ऐसी मान्यता है कि अवचेतन मन केवल वर्तमान जीवन को ही नहीं प्रभावित करते, बल्कि आत्मा के साथ दूसरे शरीर धारण के समय भी साथ रहता है। दूसरे जन्म में इसी अवचेतन मन के कारण व्यक्तित्व निर्माण व संस्कार प्राप्त होते हैं। इसीलिए यदि मनुष्य वर्तमान जीवन और अगले जीवन में आनंद चाहता है, तो उसे अपने चेतन मन व अवचेतन मन को सकारात्मक सोच व विचारों से परिपूर्ण करना होगा।

4-शरीर में प्राणवायु की पहचान कैसे करें
प्राणवायु से ही हमारा शरीर स्वस्थ रहता है, लेकिन मनुष्य जब बीमार पड़ जाता है, तब प्राणवायु का प्रवाह शरीर में कम होने लगता है। इस कारण शरीर कमजोर हो जाता है, उत्साह में कमी आ जाती है, थकान महसूस होने लगती है, आलस्य बढ़ जाता है, जीवन से मोह कम हो जाता है और कुछ भी अच्छा नहीं लगता।
 
         दूसरी ओर शरीर में अगर प्राणवायु की विपुलता है तो चेहरा लावण्यपूर्ण हो जाता है, मन प्रसन्न रहता है, उत्साह बना रहता है। किसी भी काम को करने में मन लगता है। वह गीत गाता है, किसी से प्रेम करता है, मुस्कराता है, खेलता है और नाचने लगता है। इसका अर्थ है, उसके शरीर में प्राणवायु का निरंतर प्रवाह चल रहा है। इसी से प्राणवायु की पहचान होती है।
 
         अब विज्ञान के आईने में इस प्राणवायु या प्राणशक्ति के संबंध में चर्चा की जाए। पहली बात तो यह है कि विज्ञान के पास प्राण को पहचानने का कोई यंत्र नहीं है। विज्ञान केवल पदार्थ का अध्ययन करता है। पदार्थ के अतिरिक्त वह कहीं झांक भी नहीं सकता। इसलिए विज्ञान के शिखर पुरुष आइंस्टीन को कहना पड़ा था कि धर्म के बिना विज्ञान लंगड़ा है और विज्ञान के बिना धर्म अंधा है, लेकिन मेरा मानना है कि विज्ञान जब धर्म को समझने में पूरी तरह असमर्थ है तो उसके बिना धर्म लंगड़ा कैसे हो सकता है। विज्ञान तो संभावना में जी रहा है। वह जो आज कह रहा है, कल उसकी बात कट जाएगी।
 
         मशहूर विचारक ऑसपेन्सकी कहते हैं कि साधारण गणित के अनुसार दो और दो चार होता है। चार में से अगर चार घटा दिया जाए, तो शून्य बचता है, लेकिन एक महागणित भी होता है जिसमें पूर्ण से पूर्ण को घटा दिया जाए, तब भी पूर्ण ही बचता है। यह गणित विज्ञान को समझ में नहीं आता। प्राण को अगर समझना हो तो केवल अध्यात्म से ही समझा जा सकता है, क्योंकि उसके पास अनुभव है। विज्ञान के आंकड़ों से प्राण को नहीं समझा जा सकता। यह केवल अनुभव से समझा जा सकता है। सच पूछा जाए तो प्राण ऊर्जा को समझने की शक्ति विज्ञान में नहीं है। इसलिए जो प्राण को समझना चाहते हैं, उन्हें इसका उत्तर अध्यात्म से ही मिलेगा। प्राण ब्रह्मंाड का स्पंदन है। यह ब्रह्मांड ग्रहों व नक्षत्रों के माध्यम से सांस लेता है और मनुष्य भी अपनी सांसों के माध्यम से इस ब्रह्मंाड से जुड़ा है। प्राण के कारण ही जीव को प्राणी कहा जाता है।
 

5--अंधेरे से उजाले की ओर
 
         स्वयं को जानकर और समझकर ही मनुष्य ऊंचाई की मंजिलों की तरफ बढ़ सकता है। ऐसा इसलिए, क्योंकि हम एक परमपिता परमेश्वर की संतान हैं, उसके अंश हैं, परंतु आज हर व्यक्ति भाग रहा है, एक जगह से दूसरे जगह की ओर। व्यक्ति शायद स्वयं को खोज रहा है, क्योंकि उसने स्वयं को खो दिया है।

         स्वयं के साथ संबंधों को तोड़ लिया है और अब उसे ही खोज रहा है। यदि आप अपने आस-पास के हर व्यक्ति की तरफ ध्यान देंगे, तो सबमें यही बात नजर आएगी। हर व्यक्ति स्वयं को भूलकर एक व्यर्थ की दौड़ में भागता जा रहा है। वह स्वयं को भूल गया है कि आखिर वह है कौन? क्या खोज रहा है, कहां खोज रहा है? उसे स्वयं पता नहीं, परंतु फिर भी हरेक से पूछ रहा है, हरेक के बारे में पूछ रहा है।

         आज आवश्यकता इस झंझावात से निकलने और स्वयं के अस्तित्व को समझने की है। यात्रा हो, परंतु शून्य से महाशून्य की ओर, परिधि से केंद्र की, अज्ञान से ज्ञान की ओर, अंधकार से प्रकाश की ओर, असत्य से सत्य की ओर। स्वयं के अस्तित्व को तलाश कर ही हम जीवन के सही मूल्यों को समझ सकेंगे।

         हम प्राय: ही अपना जीवन कंकड़-पत्थर बटोरने में गंवा देते हैं। सत्ता, संपत्ति, सत्कार आदि सब कुछ पाकर भी अंतत: शून्य ही हाथ लगता है। तो हम क्यों न आज ही जाग जाएं, उठ खड़े हों। स्वयं की खोज करके अपनी अंतरात्मा को प्रकाशित करें। हम बहिमरुखी हैं, अंतमरुखी नहीं। बस, यही हम सबको समझना है। स्वयं को समझकर ही हम उस एक परमात्म तत्व में विलीन हो सकते हैं। परमपिता परमेश्वर के प्रति हम कृतज्ञता तक ज्ञापित नहीं करते, जिसने अपनी परम कृपा से हमें अपना ही अंश बनाकर इस धरा पर मनुष्य रूप में भेजा है।

         यदि हम स्वयं के प्रति थोड़ा-सा सचेत हो जाएं, तो बात बनते देर नहीं लगेगी। आइंस्टीन जैसा महान वैज्ञानिक ही नहीं, बल्कि तमाम ऐसे लोग जिन्होंने जीवन में कुछ गौरवशाली कार्य किए हैं, वे सभी स्वयं के अंदर निहित अथाह सागर को समझने और मापने की बात करते हैं। जो कृत्रिमता से कोसों दूर हो, जहां हो एक गहन शांति। शांति मिलती है, कामनाओं को शांत करने से। जीवन मात्र चलते रहने का नाम नहीं है, बल्कि जीवन में कुछ अच्छा कर गुजरने का नाम जिंदगी है। इसे जानकर ही आगे बढ़ना सही अर्थो में जीवन की सार्थकता है।
 

6-क्षमाशीलता व्यक्ति का उत्तम आभूषण है
         क्षमा एक ऐसा आभूषण है, जो किसी के व्यक्तित्व में चार चांद लगा देता है। क्षमा करना बहुत मुश्किल कार्य है, खास तौर पर उस समय, जब आप शक्तिशाली हों और किसी का नुकसान करने में सक्षम हों। एक दीन-हीन व्यक्ति को समय-समय पर अपमानजनक स्थितियों से गुजरना पड़ता है।

         अपमान को नजर अंदाज करना कमजोर व्यक्ति की मजबूरी होती है , परंतु क्रोध का शमन कर लेना शक्तिशाली व्यक्ति की क्षमाशीलता की पहचान है। महात्मा गांधी का जीवन इसका जीवंत उदाहरण है। प्रतिशोध की भावना मानव स्वभाव का अंग है। क्षमाशीलता से ही इसका नियंत्रण संभव है।

         अच्छे संस्कार क्षमाशीलता को पुष्पित और पल्लवित करते हैं परंतु यदा-कदा कड़ी परीक्षा में सब कुछ धरा रह जाता है । संस्कारों की शीतलता भी प्रतिशोध की आग को नियंत्रित नहीं कर पाती। ऐसे में प्रभु की शरण में जाना ही बेहतर होता है और विश्व की विराटता में अपने क्षुद्र अस्तित्व को देखना होता है, मृत्यु की अनिवार्यता पर विचार करना और समय की गतिशीलता के बारे में भी सोचना होता है। क्षमाशीलता का अभ्यास करते रहना चाहिए। अभ्यास करते रहने से परीक्षा की घड़ी में हम अपना आपा नहीं खोते हैं। समय बीतने के साथ-साथ उस क्षण का आवेश ठंडा हो जाता है और हम असहज स्थितियों से बच जाते हैं। इसलिए आवश्यक है कि हम अपने मन को नियंत्रण में रखने की कोशिश करें और आवेश को खुद पर हावी न होने दें।

         जो क्रोध के प्रभाव में आ जाता है उसका अहित होना निश्चित है। कभी-कभी जिसे क्षमा किया जाता है, वह ऐसा आभास देता लगता है कि उसने तो होशियारी से क्षमा प्राप्त कर ली। अपना उल्लू सीधा करने के लिए उसने हमें बेवकूफ बना दिया। ऐसी मन: स्थिति में नेकी कर कुएं में डाल वाली कहावत पर घ्यान देना चाहिए। यह सोचना चाहिए कि चलो हमने तो अपना काम सही किया। हमें किन्हीं अपेक्षाओं के बगैर क्षमा के गुण का विकास करना चाहिए। क्षमाशील दिखने और होने में बहुत फर्क है। क्षमाशील होने में जो परमानंद है, वह अकल्पनीय है। यह वही जानता है, जो वास्तविक रूप में क्षमाशील है। सात खून माफ नहीं किए जाते हैं और जो करने की ताकत रखता है, वही क्षमावान और प्रभु के बहुत नजदीक है।  
 

7-सृजन और संहार प्रकृति के नियम हैं

         विकार अपने आप में बुरे नहीं हैं। सवाल है उनसे जुड़ने का। देव से जु़ड़कर वे सद्गुण बन जाते हैं और दानव से जुड़कर दुर्गूण। यह वैसे ही होता है जैसे जल नाली में गिरने से गंदा और गंगा में मिलने से निर्मल हो जाता है। ब्रह्म को सृष्टिकर्ता कहा जाता है।

         भगवान कृष्ण स्वयं गीता में कहते हैं 'मैं इच्छाओं में काम हूं।' यही उदात्तकाम परमात्मा से जुड़कर भक्ति बन जाता है, परंतु जब यही काम वासना के कीचड़ में फंसता है तो अनर्थकारी व्यभिचार का रूप ले लेता है। जहां राम का काम लोकमंगल का कारण बनता है वहीं रावण का काम सर्वनाश का कारण।

         विष्णु से जुड़ते ही लोभ सकल ब्रह्मांड का पालक बन जाता है। मितव्ययी समाज के लिए कुछ कर गुजरता है और र्दुव्यसनी स्वयं मिट जाता है। कंजूस का गड़ा हुआ धन किस काम का? धन परमात्मा की विभूति है। इसलिए इसे लोकसंग्रह के क्षेत्र में निरंतर बहते रहना चाहिए। हम धन के मालिक न होकर उसके 'ट्रस्टी' हैं। व्यक्ति केंद्रित धन शोषण को बढ़ावा देता है। इसे असुरों के हाथ में नहीं होना चाहिए। कुबेर का खजाना देवताओं के अभ्युदय के लिए था। जब वह रावण के हाथ में चला गया तो संतों का उत्पीड़क बन गया।

         शंकर को क्रोध का देवता माना जाता है। नवसृजन के लिए ध्वंस जरूरी है। सृजन और संहार, दोनों सृष्टि के विधान के अंतर्गत हैं। असंयमित काम को अनुशासित करने के लिए शिव को तीसरा नेत्र खोलना पड़ा था। राजा बलि के दंभ को मिटाने के लिए भगवान को वामन का रूप धारण करना पड़ा था। काम और लोभ पर विजय हासिल करने वाले परशुराम के क्रोध के शमन के लिए भगवान राम को झुकना पड़ा था। काम, लोभ और क्रोध की वृत्तियां जब वासनाजन्य इच्छाओं को तृप्त करने में लग जाती हैं तब समाज के चारों ओर अनर्थ घटने लगता है। काम और लोभ क्रियाएं हैं और क्रोध इनकी तीखी प्रतिक्रिया है। यानी काम और लोभ की अतृप्त वृत्तियां क्रोध को जन्म देती हैं। नारद में कामजन्य क्रोध है तो कैकेयी में लोभजन्य क्रोध। नारद भगवान को बुरा-भला कहते हैं। चूंकि देवर्षि नारद भगवान के भक्त हैं इसलिए वह अपनी करुणा से उन्हें काम की जकड़ से मुक्त कर देते हैं। राम ने भरत को सन्निपात का सबसे बड़ा वैद्य माना। भरत ने राज्य न लेकर लोभ को जीता, मंथरा को क्षमा करके क्रोध को जीता और नंदी ग्राम में तपस्या करके काम को जीता।
 

8-धर्म नित्य पवित्र होने का संकल्प है
 
         मनुष्य में अपने भावों को पहचानने की अपूर्व क्षमता है। अपने आचरण में वह संस्कार जन्य है, विकासमान है। उसमें ग्रहण करने और त्याग करने की योग्यता है। मनुष्य प्रकृतिबद्ध नहीं है। वह प्रकृति को अपने अनुकूल बनाता है। पशु-पक्षी प्रकृति के अनुकूल होकर रहते हैं। वे केवल अपने को देखते हैं। अपने स्वार्थ के लिए कुछ भी कर सकते हैं। प्रभुत्व की स्थापना का लोभ मनुष्य को पशु-तुल्य बना देता है, जहां वह अपने गुणों से विमुख हो जाता है। यह उसका विकार है, रोग है।

         धर्म नित्य-नव्य होने की प्रेरणा है। अपने गुण में प्रतिष्ठित होने का पवित्र संकल्प है। विगत और वर्तमान में समस्त बाधाओं को छोड़कर ही नव्य में प्रवेश संभव है। प्रत्येक जीव, वस्तु और पदार्थ हर क्षण बीत रहा है, नया आ रहा है, यही विद्यमानता है। इस आने-जाने और रहने के स्वभाव के साथ तन्मय होकर जीना ही धर्म को जीना है।

         धर्म बतलाता है कि हमें इस तरह जीने की आदत डालनी चाहिए जिससे हमारे अंत:करण में अशांति, क्षोभ, असंतोष जैसी कोई चीज पैदा न हो, क्योंकि ये सब चीजें जीवन-रस को नष्ट करने वाली हैं। जीवन-रस आत्मा की खुराक बनकर उसे पोषण देता है। भौतिक विज्ञान पदार्थो को देखता है। प्रकृति का दोहन कर सुविधाओं का विस्तार करते जाना ही उसकी उपलब्धि है।

         धर्म यथार्थ को देखता है, मूलभूत शाश्वत मूल्यों की आधार-शिला पर प्रकृति को देखना, समझना और तदनुकूल आचरण करना ही धर्म का लक्षण है। धर्म जीवन का गुण है, स्वभाव है जो सदैव विद्यमान रहता है। गुण में अपना ज्ञान, समझ और प्राण नहीं है, वह गुण अपने लक्षणों में प्रकट होता है। कोई भी वस्तु अपने लक्षण से अलग नहीं हो सकती। गुण पर आवरण आ सकते हैं, दबे भी रह सकते हैं, पर समाप्त नहीं होते। अपनी कामनाओं को कायम रखते हुए जीवन के यथार्थ को समझा नहीं जा सकता। धर्म दीपक में ज्योति की तरह है। च्योति की रक्षा करनी होती है, वैसे ही सत्य की रक्षा करनी होती है। कुछ अनीश्वरवादी लोगों ने धर्म को अफीम करार दिया है, लेकिन धर्म कभी मूच्र्छा नहीं देता। सूर्य प्रकाश में प्रगट होता है, धर्म भी अपने गुणों में प्रगट होता है। धर्म झरने की तरह गतिशील है, इसी कारण नित्य-नूतन है।
 

9-जिंदगी के मायने क्या हैं?
 
         आप अपनी जिंदगी किस तरह जीना चाहते हैं? यह तय करना जरूरी है। आखिरकार जिंदगी है आपकी। यकीनन, आप जवाब देंगे-जिंदगी को अच्छी तरह जीने की तमन्ना है।

         यह भाव, ऐसी इच्छा इस तरह का जवाब बताता है कि आपका मन सकारात्मकता से परिपूर्ण है, लेकिन यहां एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठता है-जिंदगी क्या है, इसके मायने क्या हैं? इसका यही निष्कर्ष सामने आया है कि दूसरों के भले के लिए जो सांसें हमने जी हैं वही जिंदगी है, पर कोई जीवन अर्थवान कब और कैसे हो पाता है, यह जानना बेहद आवश्यक है।

         दरअसल, जीवन एक व्यवस्था है। ऐसी व्यवस्था, जो जड़ नहीं चेतन है। स्थिर नहीं, गतिमान है। इसमें लगातार बदलाव भी होने हैं। जिंदगी की अपनी एक फिलासफी है, यानी जीवन-दर्शन। सनातन सत्य के कुछ सूत्र, जो बताते हैं कि जीवन की अर्थवत्ता किन बातों में है। ये सूत्र हमारी जड़ों में हैं। जीवन के मंत्र ऋचाओं से लेकर संगीत के नाद तक समाहित हैं। हम इन्हें कई बार समझ लेते हैं, ग्रहण कर पाते हैं तो कहीं-कहीं भटक जाते हैं और जब-जब ऐसा होता है, जिंदगी की खूबसूरती गुमशुदा हो जाती है। हम केवल घर को ही देखते रहेंगे तो बहुत पिछड़ जाएंगे और केवल बाहर को देखते रहेंगे तो टूट जाएंगे। मकान की नींव देखे बगैर मंजिलें बना लेना खतरनाक है, पर अगर नींव मजबूत है और फिर मंजिल नहीं बनाते तो अकर्मण्यता है। केवल अपना उपकार ही नहीं परोपकार भी करना है। अपने लिए नहीं दूसरों के लिए भी जीना है। यह हमारा दायित्व भी है और ऋण भी, जो हमें समाज और अपनी मातृभूमि को चुकाना है।

         परशुराम ने यही बात भगवान कृष्ण को सुदर्शन चक्र देते हुए कही थी कि वासुदेव कृष्ण, तुम बहुत माखन खा चुके, बहुत लीलाएं कर चुके, बहुत बांसुरी बजा चुके, अब वह करो जिसके लिए तुम धरती पर आए हो। परशुराम के ये शब्द जीवन की अपेक्षा को न केवल उद्घाटित करते हैं, बल्कि जीवन की सच्चाइयों को परत-दर-परत खोलकर रख देते हैं। हम चिंतन के हर मोड़ पर कई भ्रम पाल लेते हैं। प्रतिक्षण और हर अवसर का महत्व जिसने भी नजरअंदाज किया, उसने उपलब्धि को दूर कर दिया। नियति एक बार एक ही क्षण देती है और दूसरा क्षण देने से पहले उसे वापस ले लेती है। याद रखें, वर्तमान भविष्य से नहीं अतीत से बनता है।
 

10-हमारा मन हमारे शरीर का राजा है
 
         मन हमारी इंद्रियों का राजा है। उसी के आदेश को इंद्रियां मानती हैं। आंखें रूप-अरूप को देखती हैं। वे मन को बताती हैं और हम उसी के अनुसार आचरण करने लगते हैं। आशय यह है कि हम मन के दास हैं। गलत काम करने को मन करता है और हम उसे करने लगते हैं। गलत काम कराते समय मन हम पर हावी हो जाता है। काम कराकर वह भाग जाता है और जब हमें होश आता है, तब लगता है कि ऐसा गलत काम कैसे कर लिया। यही पछताने वाली हमारी आत्मा है और गलत काम कराने वाला हमारा मन है।

         संत व महापुरुष मन को वश में करने का प्रयास करते हैं, ताकि वे मन के पार जा सकें, क्योंकि जब तक मनुष्य मन के प्रभाव में दबा रहेगा, तब तक वह आत्म तत्व में अवगाहन नहीं कर सकेगा। परमात्मा तक पहुंचने के लिए आत्मा का ही मार्ग है। ऐसा इसलिए क्योंकि आत्मा और परमात्मा एक ही हैं। आत्मा परमात्मा का लघु रूप है और परमात्मा आत्मा का विस्तार है। इसलिए दोनों दृश्य नहीं हैं, सूक्ष्म हैं। जो भी भावरूप होता है, वह सूक्ष्म होता है, अनुभवगम्य होता है जैसे प्रेम, करुणा, दया, वात्सल्य आदि भाव। मन को केवल अनुभव किया जा सकता है। आप अनुभव कर सकते हैं कि आप प्रेम करना चाहते हैं या घृणा चाहते हैं। आश्चर्य की बात है कि मन अधिकतर मामलों में हमेशा नीच कर्म की ओर ही प्रेरित करता है, क्याेंकि वह इंद्रियों का राजा है।

         इंद्रिया अपने राजा मन से भोग मांगती हैं। आंख को सुंदर रूप देखने का मौका मिले, जीभ को स्वाद मिले, हाथ को स्पर्श सुख चाहिए। सभी इंद्रिया अपना भोग-विलास मन से मांगती हैं। मन को इनकी मांगें पूरी करनी पड़ती हैं। इसलिए यह चंचल रहता है, चारों ओर भागता रहता है। इस स्थिति में मन को स्थिर करना कठिन हो जाता है। इसी चंचलता के कारण मन विवेक को त्याग देता है। मन महास्वार्थी है, उसे भोग चाहिए। अगर वह विवेकशील बन जाए, तो इंद्रियों की जो अनैतिक मांगें हैं, उन्हें कैसे पूरा कर सकता है? विवेक उसे गलत काम नहीं करने देगा इसलिए मन के साथ विवेक कभी नहीं रहता। मन और विवेक का बैर है। मनुष्य ज्यों ही विवेकी बन जाता है, वह मन के पार चला जाता है। इसी को संयम कहते हैं।
 

11-मनुष्य के विवेक की उपयोगिता
 
         भारतीय संस्कृति का मूलाधार अनुभूतियां हैं। इस संस्कृति ने सिद्धांत का निरूपण किया, परंतु सिर्फ इतने तक ही अपने को सीमित नहीं रखा। ज्ञान को अनुभूत किया यानी सिद्धांत को व्यावहारिक जीवन में उतारा। यही कारण है कि भारतीय संस्कृति आज तक जीवंत है। जिसकी कथनी और करनी में अंतर नहीं होता, वही समाज में आदर के योग्य बनता है।

         इसलिए कहा गया है कि गुणवान की हमेशा पूजा होती है। इन दिनों मानवीय मूल्यों का ह्रास हो रहा है। नैतिकता चरमरा रही है और इंसानियत की नींव कमजोर पड़ती जा रही है। चारों ओर भौतिकतावादी मूल्य छा गए हैं। यही वजह है कि विविध प्रकार की विकृतियों से मानव, समाज और राष्ट्र आक्त्रांत हो गया है।

         भारतीय संस्कृति में एकता, सत्य, उदारता, अन्याय के खिलाफ संघर्ष, साहस, सच्चरित्रता, निस्पृहता, सहानुभूति, संवेदना और समन्वयवादी दृष्टिकोण निहित हैं। इन्हीं सद्गुणों के आधार पर मनुष्य, मनुष्य बना रह सकता है और राष्ट्र विश्व के समक्ष आदर्श उपस्थित कर सकता है।

         कोई भी आदमी फरिश्ता नहीं होता। विशेषताओं के साथ कमियों की संभावनाओं को नकारा नहीं जा सकता। आचार्य श्रीमहाप्रज्ञ ने कहा है कि जब व्यक्ति अपने आपको नहीं देख पाता, तब हजारों-हजार समस्याएं पैदा होती चली जाती हैं। इनका कहीं अंत नहीं होता। गरीबी की समस्या हो, मकान और कपड़े की समस्या हो या अन्याय व उत्पीड़न, ये सब गौण समस्याएं हैं। ये पत्तों की समस्याएं हैं, जड़ की नहीं। पतझड़ आता है, सारे पत्ते झड़ जाते हैं। वसंत आता है और सारे पत्ते आ जाते हैं, वृक्ष हरा-भरा हो जाता है। यह मूल समस्या नहीं है। मूल समस्या यह है कि व्यक्ति अपने आपको नहीं देख पा रहा है। उसके पीछे ये पांच कारण काम कर रहे हैं- मिथ्या दृष्टिकोण, असंयम, प्रमाद, कषाय और चंचलता। जैन दर्शन के अनुसार यही पांच मूल समस्याएं हैं। यही वास्तव में दुखों का कारण हैं और दुखों का चक्र भी। जब तक दुख के इस चक्र को नहीं तोड़ा जाएगा, तब तक जो सामाजिक, मानसिक और आर्थिक समस्याएं हैं, उनका सही समाधान नहीं हो पाएगा। समय-सापेक्ष जीवन मूल्यों को आचरण में लाने के लिए हमें दायित्व और कर्तव्य की सीमाओं को समझना होगा। इसके लिए हमें विवेक जाग्रत करना होगा।
 
 
12-बुद्धिबल और शरीर बल में बडा कौन
 
         नीतिशास्त्र का एक कथन है कि जिसमें बुद्धि है, उसमें बल है। निरबुद्धि में बल कहां से आ सकता है? जो जितना बुद्धिमान है, वह उतना ही बलवान है। इसी बुद्धि के कारण मनुष्य-मनुष्य के बीच अंतर दिखाई देता है। जिसमें जितना अधिक बुद्धि-तत्व है, वह उतना ही सफल व्यक्ति बन जाता है।

         एक कहावत है कि अक्ल बड़ी या भैंस? निश्चय ही शारीरिक बल से बुद्धिबल बड़ा होता है। हर व्यक्ति विद्या व बुद्धि की शक्ति से संपन्न नहीं होता, किन्हीं बिरलों को ही यह ज्ञान-संपदा मिलती है। ऐसे लोग जिन्हें विशिष्ट बुद्धिबल प्राप्त है, वे दूरदर्शी हुआ करते हैं। जिन्होंने विस्तृत अध्ययन किया हुआ है।

         वही असाधारण कार्य करने की क्षमता रखते हैं। इसके विपरीत जिन्हें कम बुद्धिबल प्राप्त है, वे छोटी-छोटी अड़चनों से ही घबरा जाते हैं और कभी-कभी अपने प्राण तक गंवा बैठते हैं। आए दिन तरह तरह के दुख भोगा करते हैं। अगर एक विशेष पहलू से देखें, तो मनुष्य अन्य जीव-जंतुओं की तुलना में पिछड़ा हुआ है। जैसे पक्षियों की तरह वह आकाश में उड़ नहीं सकता, कछुओं और मछलियों की तरह जल में किल्लोल नहीं कर सकता। हिरन और घोड़े की तरह दौड़ नहीं सकता, हाथी के बराबर बोझ नहीं ले जा सकता, सिंह जैसा बलवान नहीं है, उल्लू व चमगादड़ की तरह रात्रि में देख नहीं सकता।

         इतना निर्बल व पिछड़ा होते हुए भी वह अन्य समस्त जीव-जंतुओं से अधिक ताकतवर है। वह सृष्टिकर्ता विधाता की अनुपम रचना है।

         बुद्धि बल से आज का इन्सान नई-नई खोज करके मानव सभ्यता को श्रेष्ठतम ऊंचाइयों पर पहुंचाने की कोशिश में लगा है। उसका बुद्धि बल ही उसे साधारण मानव से महान बना रहा है। इसी बुद्धिबल से हम सब निकलकर समाज में व्याप्त बुराइयों को सरलता से दूर कर सकते हैं। हर इंसान का उद्देश्य अज्ञान के अंधकार में डूबे लोगों को आलोक प्रदान करना होना चाहिए। दीन-दुखियों की पीड़ा को समझकर उनका निवारण करना चाहिए। इन्हीं महान उद्देश्यों की पूर्ति के लिए अनकानेक धर्मो और धर्मग्रंथों की रचना की गई है। ये धर्मग्रंथ ही श्रेष्ठ पथ पर अग्रसर करने में हमारा मार्गदर्शन करते रहे हैं। सभी श्रेष्ठ कर्म बुद्धि बल के द्वारा ही संभव हैं।