Friday, August 24, 2012

दर्पण




सहयोग













                                            





Thursday, August 23, 2012

जीवन का रहस्य


1-जीने की आकॉक्षा -
          हम बहुत वर्षों से जीकर देखते हैं लेकिन फिर पाते कुछ भी नहीं हैं ।लेकिन फिर भी जीने की आकॉक्षा करते जाते हैं ।कहीं यह जीने की आकॉक्षा का पागलपन तो नहीं है । क्योंकि जीने की तृष्णॉ से भरी लाइफ में  तो परमात्मा के द्वार पर प्रवेश तो सम्भव नहीं है । एक फकीर को सम्राट ने फॉसी की सजा सुनाई । रिवाज के अनुसार उस देश में नदी के किनारे फॉसी का तख्ता खडा करके फॉसी दी जाती है ,लटकते हुये उस आदमी को वहीं छोडना होता है,फिर उसकी लॉश नदी में गिर जाती और बह जाती है। उस फकीर को भी उसी प्रकार फॉसी पर चढाने की व्यवस्था की जा रही थी नदी के किनारे सूली बॉधी जा रही थी, फॉसी पर लटकने ही वाला था तो फकीर के मुंह से निकला मित्रो जरा एक बात ध्यान रखना कि फंदा ठीक ढंग से लगाना ! पिछली बार मैं बडी मुश्किल में पड गया था । कुछ भूल ऐसी हो गई थी कि गले में जो फंदा लगा था वह मजबूत नहीं था ! जिससे मैं जिन्दा ही नदी में गिर गया था ।मुझे तैरना नहीं आता ! मगर किसी तरह किनारे लग गया । क्या मतलव ?हम समझे नहीं ? फॉसी पर चढाने वालों ने कहा । 
          फिर पता चला कि फकीर को दस साल पहले भी यहीं पर फॉसी दी गई थी,और दुबारा फॉसी दी जा रही है। जो फॉसी दे रहे थे हैरान हुये कि यह आदमी कैसा है जिसे डर नहीं है और कहता है ठीक ढंग से फंदा लगाना ! उन्होंने उससे पूछा कि तुम जीना नहीं चाहते हो ? तुम्हें तो भगवान से प्रार्थना करनी चाहिए थी कि भगवान फंदा पिछले समय की तरह ढीला हो जाय ! तो उस फकीर ने कहा कि मैने दस साल जीकर देख लिया ! कुछ पाया नहीं ! अब दुबारा किस मुंह से भगवान से प्रार्थना कर सकता हूं ।
          इसलिए हमें याद रखना होगा कि अपनी जिन्दगी में कभी-कभी इस बात पर विचार जरूर करें कि इस जिन्दगी में हमने क्या पाया ! और यही प्रश्न हमें जिन्दगी को व्यर्थ दिखने का कारण बन सकेगा । क्योंकि जबतक यह जिन्दगी व्यर्थ न हो जाय तबतक दूसरी सार्थक जिन्दगी का द्वार नहीं खुल सकता है । इस जिन्दगी की व्यर्थता का अर्थ है कि हम अब इस जिन्दगी के पार होने के लिए तैयार हैं ।
          जिस प्रकार बच्चा पहली कक्षा से दूसरी कक्षा में जाता है, इसका मतलव है कि अब पहली कक्षा व्यर्थ हो गई, और ऊपर की कक्षा में पहुंच गये । इसी प्रकार जब हमारी यह जिन्दगी व्यर्थ होगी तथी हम ऊपर की जिन्दगी में उठ सकते हैं । लेकिन होता क्या है कि हम इस जिन्दगी के व्यर्थ होने से पहले ही दूसरी जिन्दगी चाहते हैं ।एक इच्छा पूरी नहीं हो पाती कि दूसरी में संलग्न हो जाते हैं । दो इच्छाओं के बीच खडे होकर देखकर पुनर्विचार कर लें कि हमारी जो यह दौड है उससे हमें कुछ मिल रहा है कि नहीं मिल रहा है । ।
 
 
2-जिन्दगी एक बहाव है -
          जो लोग इस जिन्दगी में मकान बनाते हैं,उन्हैं इस बहाव का पता नहीं हैा,इसीलिए तो नदी पर मकान बनाने की कोशिश में जुटे रहते हैं और नष्ट हो जाते हैं । हर चीज को जोर से पकड के रखते हैं,जल धारा के खिलाफ ,जीवन की धारा के खिलाफ, तो फिर परेशान तो होंगे ही ,अपने ही हाथों से । एक नदीं में बाढ का पानी बहते चले जा रहा था छोटे-छोटे तिनके भी बहते चले जा रहे थे । एक तिनका नदी में आडा पडा हुआ नदी से लड रहा था और कोशिश कर रहा था कि नदी को आगे न बढने दिया जाय । नदी को कहॉ पता कि तिनका नदी को रोकने का प्रयास कर रहा है। तिनका बडा बेचैन था क्योंकि वह पूरे वक्त लडता जा रहा था और हारते जा रहा था प्रयास करता और डूब जाता । नदी पर कोई फर्क नहीं पड रहा था । तिनका बहुत परेशान । उस तिनके ने देखा कि एक दूसरा तिनका आडे नहीं बल्कि नदी के बहाव के अनुकूल पडा हुवा था और आनन्दित होकर बहते चले जा रहा था और मन ही मन यह सोच रहा था कि वह नदी को बहने में मदद कर रहा है।लेकिन नदी को इसका भी पता नहीं था, वह तिनका परेशान नहीं था। नदी को इन दोनों तिनकों से कोई फर्क पडने वाला नहीं था, लेकिन उन दोनों तिनकों के दृष्टिकोंणों से उन दोनों तिनकों को फर्क पड रहा था ।
          देखना होगा कि इस जिन्दगी की इस धारा में आप आडे तिनके की तरह पडे रहते हैं कि सीधे तिनके की तरह पडे रहते हैं , अगर जिन्दगी की धारा के अनुरूप आप बहने के लिए तैयार हैं तो यह जिन्दगी की धारा आपको परमात्मा तक पहुंचा देगी ।लेकिन यदि आप इस तरह बहने को राजी नहीं होंगे तो आप परेशान होंगे। और यह परेशानी धुँवॉ वन जायेगी और परमात्मा अगर सामने आ भी जॉय तो फिर आपको दिखाई नहीं पडेगा,सिर्फ अपनी ही हार आपको दिखाई देगी ।
 
 
3-यह समय भी बीत जायेगा-
जी हॉ जिन्दगी में कई घटनाएं सामने आती है,बीत जाती हैं ।दुख हो या सुख । जब सामने आते है, तो याद रखें यह वक्त भी बीत जायेगा । सुख आता है तो न भूलें कि यह समय भी बीत जायेगा इसलिए सुख को देखकर पागलपन न हो जाना । दुख आता है तो भी सम्रण कर लें कि यह भी बीत जायेगा । आपको धैर्य मिलेगा ।एक बार एक सम्राट का दूसरे सम्राट से युद्ध प्रारम्भ हो गया ।युद्ध में जाते समय उसने एक फकीर से ताबीज बनवाकर रख दिया और कहा कि जब अधिक संकट आये तो उस समय इसे खोलकर पढ लेना । युद्ध में राजा की हार हो गई । राजा जान बचाने के लिए जंगल में भाग रहा था,पीछे से पीछा करते दुश्मन के घोडों की टॉप सुनाई दे रही थी,आगे बढने पर रास्ता समाप्त हो गया था, नीचे खाई थी, ।राजा ने घोडे को रोक लिया और सोचा इस ताबीज में क्या लिखा है, खोलकर पढा तो लिखा था बीत जायेगा । इसका मतलव उस समय समझ में तो नहीं आया मगर महशूस किया किया कि घोडों के टॉप की आवाज कुछ देर बाद सुनाई देनी बन्द हो गई । दुश्मन जंगल में कहीं दूसरे रास्ते से चले गये । यही मन में गूंज रहा था कि- यह भी बीत जायेगा । राजा को लगा कि अगर मैं इस ताबीज को खोलकर नहीं पढता तो आत्म हत्या के लिए इस खाई में छलॉग लगा देता । एक छोटे कागज के टुकडे ने राजा की जान बचा ली । बस सब बीत जाता है । बीमारी में,स्वास्थ्य में,रात में,दिन में,जवानी में बुढापे में ,जन्म में मृत्यु में जरूर याद रखना कि यह भी बीत जायेगा । जिन्दगी में कोई तनाव नहीं रहेगा। तनाव मुक्त परमात्मा के मन्दिर की ओर चलना है,जबकि जिन्दगी में तनाव है तो पागलखाने की ओर कदम बढाना है ।
 
 
4- हमारी जिन्दगी एक तूफान है-
हमारी जिन्दगी तूफान है । इसमें बहुत आंधियॉ हैं ।चारों ओर चौबीसों घण्टे न जाने क्या-क्या हो रहा है। एक-एक तूफान का मुकाबला करना होता है ।जो आदमी एक ही तूफान में टूट जाता है,वह आदमी समझो टूट ही जायेगा जो आदमी प्रत्येक तूफान को जानेगा, गिरने के बाद उठेगा और सेकडों तूफानों के बाद खडा होता जाता जायेगा, तो फिर उसे ये तूफान तूफान नहीं,खेल मालूम पडने लगेंगे। ये तूफान फिर लीला हो जाती है ।
 
 
5-अशॉति का कारण इस जिन्दगी से चिपकना है-
          कभी-कभी हम अशॉत होते हैं ,इसलिए कि हम इस जिन्दगी से अधिक चिपक जाते हैं। इस जिन्दगी को नदी की तरह बहने नहीं देते हैं ,उस तिनके की तरह सीधे नहीं बहते हैं बल्कि नदी के बहाव के विपरीत आडे लग जाते हैं । हम अशॉत होते हैं अपने जीने के ढंग के प्रति । हम शॉति की तलाश करते हैं कि हमें कोई मंत्र मिल जाए या किसी से आशीर्वाद मिल जाए या परमात्मा की कृपा मिल जाय । हमें यह मालूम नहीं है कि जिन्हैं हम शॉ्ति के उपाय समझ रहे हैं उनसे तो हमें और अधिक अशॉन्ति पैदा होगी । इसीलिए साधारण आदमी साधारण रूप में और धार्मिक आदमी असाधाररण रूप में अशॉन्त होता है । क्योंकि हमको धन भी चाहिए,यश भी चाहिए,पद भी चाहिए,परमात्मा भी चाहिए और शॉति भी चाहिए । ये चीजें एक साथ नहीं मिल सकती हैं । बल्कि और अधिक अशॉति बढ जायेगी । शॉति को तो चाही नहीं जा सकती, इसलिए कि उसमें अशॉति छिपी है क्योंकि सब इच्छाएं अशॉति पैदा करते हैं, शॉति इच्छा नहीं बन सकती है । जबकि अशॉति को महशूस किया जा सकता है,समझा जा सकता है कि यह अशॉति है । शॉति तो वहॉ होगी जहॉ अशॉति के कारण नहीं होंगे । इसके लिेए हमें अपने जीवन के ढंग को बदलना होगा ।

 
6-परमात्मा में शॉति की तलाश का भ्रम-
          हम सोचते हैं कि परमात्मा के द्वारा हमें शॉति मिल जायेगी ,यह हमारी गलत फहमी है। क्योंकि हमारा परमात्मा से सम्बन्ध तभी होगा जब हम शॉत होंगे । इसलिए कि परमात्मा शॉति नहीं दे सकता है। वरन् परमात्मा की तरफ की गई प्रार्थना अंधेरे में फेंकी जाती है । शॉत आदमी ही प्रार्थना कर सकता है । लेकिन होता क्या है कि जब हम अशॉत होते हैं तभी प्रार्थना करते हैं । और हम सोचते हैं कि हमारी प्रार्थना सुनी जा रही है । ठीक उसी प्रकार कि जैसे टेलीफोन उठाये विना बात करते जाना । हम सोचते हैं कि दूसरी तरफ से कोई सुन रहा है । इसलिए परमात्मा से कभी शॉति मत मॉगना वल्कि आप शॉति को लेकर जाना । शॉति तो आपको स्वयं बनानी पडेगी । इसलिए भी कि शॉति तो हमारी पात्रता है, हमारी विशेषता है,जिसके बदले परमात्मा हमें आनन्द देता है । आप स्वयं आनन्दित नहीं हो सकते हो आप तो सिर्फ शॉत हो सकते हो । आनन्द तो ऊपर वाले से वरसता है । शॉति हमारा पात्र है और आनन्द नदी है ,लेकिन हम बिना पात्र के नदी के पास चले जाते हैं और चिल्लाते हैं, नदी से ही कह रहे हैं कि हमें पात्र दे दो । नदी तो पानी दे सकती है,पात्र आपके पास होना चाहिए । इसलिए शॉति जीवन का मूल बिन्दु है ।जो कि हमारे ही अन्दर छिपा है ।
 
 
7-जीवन को पकडो मत बहने दो-
          जिन्दगी में हमें अपने जीवन को पकडकर नहीं रखना है,बहने दें, फिर आप अशॉत नहीं होंगे । क्योंकि पकड अशॉति लाती है ।उपनी जिन्दगी क्या दूसरे की जिन्दगी को भी पकडकर रखना चाहते हैं । चाहे हम प्रेम को पकड लें । जिस चीज को हम पकड लेते हैं वह अशॉति ले आती है । कल एक आदमी हमारा मित्र या दोस्त था, आज मित्र नहीं है तो हम अशॉत हो जाते हैं ,हमारे लिए यह भी कम नहीं है हमें फक्र होना चाहिए था कि वह कल हमारा मित्र था । लेकिन इस बात पर कि कल मित्र था तो आज भी होना ही चाहिए था, हम अशॉत हो जाते हैं । अपेक्षाओं को हम पकडे हुये हैं । हम कहते हैं कि ऐसा होना ही चाहिए ! क्यों ? एक आदमी को नींद नहीं आती थी ,चिकित्सकों ने कहा इनको हो सकता है विजली के शॉक देने पड सकते हैं ।मैने उस आदमी से पूछा कि क्या बात है ? वह कहने लगा कि मुझे बडा नुकसान हो गया !कोई पॉच लाख रुपये का नुकसान हो गया। उनकी पत्नी सामने बैठी थी मैने उनकी पत्नी से कहा कि ये ठीक कह रहे हैं ?उसने कहा एक लिहाज से ठीक भी कह रहे हैं, लेकिन दूसरे लिहाज से ठीक नहीं कह रहे हैं ! इन्हीं से पूछ लीजिए कि लाभ कितना हुआ । उन्होंने कहा लाभ एक ही लाख रुपये का हुआ ,लेकिन हानि पॉच लाख की हो गयी । वे सज्जन छह लाख का लाभ की आशा बंधाये बैठे थे,लेकिन लाभ तो एक ही लाख का हुआ, जिससे उनकी नींद हराम हो गई । परेशान हुये जा रहे थे। तब पता चल पाया कि उनकी हानि अद्भुत है ,जिसने नींद हराम कर दी । हम सब की हानियॉ भी इसी प्रकार की होती हैं ,जिससे हमें नींद नहीं आती है । एक आदमी रास्ते में हर रोज मिलता है, मैं आशा करता हूं कि वह मुझे नमस्कार करे, अगर नहीं करता है तो दुख शुरू हो गया। लेकिन मुझे क्या हक है कि मैं अपेक्षा करूं कि वह नमस्कार करे । नमस्कार न करे तो दुख हो गया ।पत्थर मारे तो दुख हो गया । जिन्दगी में जितना हम जीवन को पकडकर रखेंगे उतना ही हमें दुख होगा ।कुछ भी पकडकर मत रखना ,अपेक्षा,तथ्य,आकॉक्षा, पकडकर मत रखना। इनसे दुख के सिवाय कभी कुछ नहीं मिला । और न ही मिल सकता है । लेकिन यह जानकर भी हम हर चीज को जोरसे पकडकर रखते हैं, और अपने चारों तरफ पकड का इतना जाल बुन लेते हैं कि दुख वअशॉति ही अशॉति जीवन को घेर लेती है । फिर हम एक राख की ढेर रह जाते हैं जिससे अशॉति के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं शेष बचता ।।
 
8-जीवन में आनंद की वर्षा-
          अपने जीवन में अशॉति क कारण हम स्वयं हैं !अगर चाहें तो आन्नद की वर्षा हो सकती है ! महात्मा बुद्ध के एक शिष्य का नाम कश्यप था जब उसकी शिक्षा पूर्ण हुई तो बुद्ध ने कहा कि अब तुम जाओ और मेरे संदेश को लोगों तक पहुंचा दो। उस शिष्य ने आज्ञा के पालन में कहा कि मैं विहार के सूखा नामक स्थान में जाना चाहता हूं । बुद्ध ने की वहॉ मत जाना,वहॉ के लोग अच्छे नहीं हैं । शिष्य ने कहा वहीं जाने की आज्ञॉ दीजिए ।वहॉ मेरी जरूरत भी है । जिस प्रकार जिकित्सक की जरूरत वीमारों में जाने की होती है,इसी प्रकार शिक्षक की जरूरत होती है जहॉ अज्ञानी हैं । तो मेरी जरूरत वहीं है ।मुक्षे वहीं जाने दें । ठीक है तू वहॉ जाने से पहले मेरे तीन सवालों का जबाव देते जाओ ।पहला सवाल यदि वहॉ के लोग तुक्षे गालियॉ देते हैं,अपमान जनक शव्द बोलें तो तेरे मन को कैसा लगेगा ? उसने कहा मेरे मन को लगेगा कि लोग बहुत अच्छे हैं क्योंकि सिर्फ गालियॉ देते हैं,मार पीट नहीं करते हैं । बुद्ध ने कहा कि अगर वे मार-पीट करते हैं तो तेरे मन को कैसा लगेगा ? तो मेरे मन को लगेगा कि ये लोग अच्छे हैं, सिर्फ मारते हैं ,मार ही नहीं डालेंगे ! बुद्ध ने कहा आखिरी सवाल कि यदि वे लोग तुक्षे मार ही डालें तो, मरते क्षण में, आखिरी क्षण में तेरे मन को कैसा लगेगा ? तो मेरे मन को लगेगा कि वे लोग अच्छे हैं, इस जीवन से छुटकारा दिला दिया जिसमें कोई भूल-चूक हो सकती थी,भटकाव हो सकता था,कोई गलती हो सकती थी ।ऐसा आदमी कभी क्या अशॉत हो सकता है ? नहीं !ऐसा आदमी ही शॉति का पात्र बन सकता है । ऐसे आदमी की जिन्दगी में तो परमात्मा के आनंद की वर्षा होती है ।
 
 
9- परमात्मा को आपकी चिन्ता कब होती है-
          यदि आप कुछ बातों को अपने खयाल में रखते हैं तो ,आप परमात्मा को भूल जाते हैं लेकिन परमात्मा आपको नहीं भूल सकता है । जो हमें दिखाई पडता है,जो हमें सुनाई पडता है,और जो हमारी समझ में आता है उतना ही सब कुछ नहीं है।जो हमें दिखाई नहीं पडता है वह भी बहुत कुछ है। बहुत कुछ है जो हमें सुनाई नहीं पडता है । और बहुत कुछ जो हमारी समझ में भी नहीं आता है । यह भी सही है कि हमारी समझ की एक सीमा है,आंख से देखनी की भी एक सीमा है,कान से सुनने की भी एक सीमा है । लेकिन कठिनाई तब शुरू होती है जब मनुष्य अपने अस्तित्व की एक सीमा मान लेता है । क्योंकि मनुष्य कहता है कि जो मुझे दिखाई पडता है वही सत्य है और जो उसे नहीं दिखाई पडता उसे वह असत्य कहने लगता है ।वह कहता है जो मुझे सुनाई पडता है वही है और जो नही सुनाई पडता है वह नहीं है ।
          लेकिन बहुत कुछ है जीवन में जो सुनाई नहीं पडता है और बहुत कुछ है जीवन में जो हाथ की पकड में नहीं आता है,  साधारणतः हम अपने जीवन की सीमा निर्धारित मान लेते हैं । इस प्रकार का आदमी को अधार्मिक आदमी कह सकते हैं ।या नास्तिक भी कह सकते हैं । या भौतिकवादी कह सकते हैं । जिसने भी अपने जीवन की सीमा को समझा, उसे अधार्मिक ही कहना चाहिए । हमें इस सीमा को जगत पर भी नहीं थोपना चाहिए । इसलिए हमें समझना चाहिए कि जो हमें दिखाई पडता है,आगे भी कुछ होगा ,जो मुझे नहीं दिखाई दे रहा है । जो मेरे हाथ की पकड में आता है वहॉ तक मेरी पकड है । वहॉ से आगे का निर्णय मैं नहीं ले सकता हूं । परमात्मा आपके दरवाजे पर रहस्य. के मार्ग से प्रवेश करता है।
          लेकिन हमारी जिन्दगी में तो कोई रहस्य नहीं है । हमें सब चीजें मालूम हैं,जब कि कुछ भी मालूम नहीं है। हमें सब पता है, जबकु कुछ भी पता नहीं है । डाक्टर हजारों बीमारों को ठीक करता है,फिर भी उसे पता नहीं है कि वह क्या है ।लाखों मरीजों को मरने से बचाता है,लेकिन उसे कुछ भी पता नहीं है । कि वह क्या है । इसलिए हमें हर पल रहस्य को खोजते रहना है,अगर सुबह सूरज निकलता है तो भी खोजना है । बच्चे की आंखें चमकदार हैं तो भी खोजना है ।स्त्री का चेहरा अगर सुन्दर है तो भी खोजना है कि सौदर्य का रहस्य क्या है । फूल खिले तो भी खोजना है कि रहस्य क्या है, क्योंकि इन्हीं रहस्यों में परमात्मा दिखाई देगा । इसलिए हमें अपनी जिन्दगी में हरवक्त रहस्य के द्वार खुले रखने चाहिए ।
           होता क्या है कि हम रहस्य के द्वार को बन्द कर लेते हैं ।जिससे हमें ऐसा लगता हगै कि हमें सब कुछ आ जाता है,और जिस आदमी को ऐसा लगता है कि हमें सब मालूम है, इसका मतलव समझो वह बन्द हो गया, असके दरवाजे,खिडकियॉ सब बन्द हो गये । अब परमात्मा किसी भा रास्ते उसमें प्रवेश नहीं कर सकेगा । एडीसन के बारे में कौन नहीं जानता । उन्होंने हजारों आविष्कार किये,और विजली के तो वे सबसे बडे ज्ञाता थे,लेकिन इन चीजों के ज्ञान बारे में वे स्वयं को अपूर्ण समझते थे । इसीलिए तो वे आगे बढते गये ।
          एक बार एडीसन किसी स्कूल में गये और पंखे की और इशारा करते हुये बच्चों से कहा ये पंखा कैसे चल रहा है ?बच्चों ने उत्तर दिया कि इलेक्टिसिटी से ! ,फिर पूछा इलेक्टिसिटी क्या है ? बच्चों ने इसका उत्तर नहीं दिया, सामने उनके शिक्षक खडे थे वे भी वहॉ पर आ गये थे । एडीसन ने उनसे पूछा कि विजली क्या है ?तो शिक्षक ने उत्तर दिया कि विजली एक प्रकार की शक्ति है । फिर एडीसन ने पूछा वह शक्ति क्या है ? उत्तर मिला आपका तो यह कठिन सवाल है ! इसका मैं नहीं दे पाऊंगा । उसी स्कूल में प्रिंसिपल साहब बडे विद्वान थे डाक्टर आप साइंस की उपाधि लिये थे । उन्हैं बुलाकर उनसे पूछा गया कि- प्रश्न यह नहीं है किविजली कैसे पैदा होती है बल्कि प्रश्न यह है कि- विजली क्या है ? उन्हैं इस बात का ज्ञान नहीं था कि जो प्रश्न पूछ रहा है वह एडीसन है । प्रिंसिपल साहब से उत्तर मिला कि आप बडा कठिन सवाल पूछ रहे हैं ! बडा मुश्किल है।इसपर एडीसन हंसने लगा उसने कहा घबडाओ मत मैं एडीसन हूं ।और मैं भी नहीं जानता कि विजली क्या है ! मैं भी इतना ही बता सकता हूं कि विजली कैसे काम करती है ,कैसे पैदा होती है ।
          कहने का तात्पर्य कि किसी भी ज्ञान के बारे में कोई भी पूर्ण नहीं होता । हमारी जिन्दगी में चारों तरफ रहस्यों से भरा पडा है ।सूरज की किरण या फूल का खिलना एक रहस्य है,लेकिन हम बिल्कुल बन्द हैं ।और जो आदमी इस तरह बन्द है उस आदमी की जिन्दगी में परमात्मा कैसे प्रवेश करें ?हममें जिन्दगी के रहस्यों को खोजने की क्षमता होनी चाहिए । अगर आप हर जगह रहस्य देखने लगें तो समझना चाहिए कि परमात्मा से आपका सम्बन्ध होना शुरू हो गया । परमात्मा का पहला अनुभव रहस्य की भॉति ही प्रवेश करता है । उसका पहला स्पर्श रहस्य का स्पर्श है ।
 
 
10- सभ्यता के विकास में रहस्य -
          यह देखने में आता है कि जैसे-जैसे हमारी सभ्यता विकास की ओर आगे बढती है वैसे ही हम रहस्य से दूर होते जाते हैं । हमने अपने चारों ओर सभ्यता का जाल बना दिया है,यह हमने ही बनाया है, इसलिए इसमें कोई रहस्य नहीं है । सीमेंट की सडक हमने बनाई तो इसमें क्या रहस्य है ? सीमेंट के ही ऊंचे मकान हमने बनाये, उनमें क्या रहस्य है ? बडे कारखानों में लगी मशीनें, क्या रहस्य हो सकता है ?   
          अर्थात जो भी आदमी ने बनाया उनमें रहस्य नहीं हो सकता है । इसलिए जैसे-जैसे सभ्यता का विकास होता है वैसे ही प्रकृति और विश्व का जो रहस्य है,उसके और हमारे बीच एक दीवार जैसी खडी होती दिखाई दे रही है । हम जिन्दगी में हर रोज रहस्य की खोज में निकलें तो ,सेकडों रहस्यों का पता लग जायेगा । हम उठकर मंदिर में या मस्जिद में जाते हैं,ये तो आदमी के बनाये हैं, वे रहस्य नहीं हैं। मूर्ति भी तो आदमी ने ही बनाई है । रहस्या है -सुबह जब आखिरी तारे डूबते हैं तो हाथ जोडकर सामने बैठ जॉय , उन तारों को डूबते हुये को ध्यान से देखो ,आप देखेंगे कि आपके भीतर भी कुछ डूबते जा रहा है । या सुबह उगते हुये सूरज को देखते रहें तो आपके भीतर भी कुछ उगेगा । आधा घंटे आकाश के नीचे लेट जाओ,आकाश को देखते रहो,विस्तार का अनुभव होगा । फूल को खिलते हुये देखो ।वृक्ष को गले लगाकर उसके पास बैठ जाओ,रहस्य का पता लग जायेगा । 
          लेकिन आदमी तो होशियार है ,वह अपने साथ परमात्मा के लिये भी घर बना लेता है ।वह परमात्मा से कहता है कि तुम इधर रहो और हम उधर ।जब जरूरत पडे तो हम आ जायेंगे । मिल लेंगे । दो बात कर लेंगे । वैसे परमात्मा सब जगह है मन्दिर हो या मस्जिद । लेकिन जब हमें सिर्फ मंदिर में होने का खयाल आया,उस स्थिति में हमें और कही भी परमात्मा नहीं दिखाई देगा,सिर्फ मंदिर में ही दिखाई देगा,लेकिन मंदिर में रहस्य तो है ही नहीं । हमें इस मंदिर में भी रहस्य की खोज करनी होगी,ताकि परमात्मा के साक्षात दर्शन हो सकें । 
          एक फकीर मंदिर के एक किनारे रातभर भक्ति में लीन था ।सुबह जब पक्षियॉ धीमे-धीमे गीत गा रही थी,एक आदमी ने मंदिर के दरवाजे खोला और मूर्ति के सामने हाथ जोडकर बैठ गया और कहने लगा परमात्मा तू कहॉ है मुझे दर्शन दे दे । कोने पर बैठा फकीर भी चिल्ला रहा था कि भगवान तू कहॉ है मुझे भी दर्शन दे दे । कुऑ देर बाद फकीर बाहर निकला और उस आदमी को हिलाकर कहा अरे पागल बाहर पक्षियॉ चिल्लाकर कहरही हैं ईश्वर यहॉ है,बाहर खिलने वाले फूल कह रहे हैं ईश्वर यहॉ है,निकलने वाला सूरज कह रहा है यहॉ है । उस आदमी ने मेरी पूजा में बाधा मत डालो नास्तिक मालूम पडते हो । हटो यहॉ से मुझे पूजा करने दो ।फिर वह पूजा करने लगा हे भगवान तू कहॉ है मुझे दर्शन दे दे । इस आदमी को भगवान के दर्शन नहीं हो पायेंगे । इसलिए कि वह गलत पूछ रहा है कि भगवान तू कहॉ है ।क्योंकि धार्मिक व्यक्ति पूछता है कि हे भगवान तू कहॉ नहीं है, वह तो जहॉ खोजता है उसे वहॉ मिल जाता है,वह तो सब जगह है ।
 


Saturday, August 18, 2012

निर्मल भक्ति की तस्वीरें


           "जय श्री माता जी"
 

 





सहजयोग की नीव





















1-आदिशक्ति माता की शक्ति-
 
          य़दि आपको आदिशक्ति माता जी के प्रति विश्वास है तो आपको किसी भी प्रकार का भय नहीं होना चाहिए।जो भी कार्य आपके हित में होगा वही माता जी करेंगी । जो भी आप कर रहे हैं निडरता पूर्वक करें ,देवी की सभी शक्तियॉ आप में अभिव्यक्त होने लगेंगी। इस प्रकार आप आत्म निर्भर होने लगेंगे और इस आत्मविश्वास का विकास होना भी आवश्यक है। जब आप आत्मनिर्भर हो जॉय तो आप न केवल अपनी सहायता कर सकते हैं बल्कि अन्य लोगों की भी सहायता कर सकते हैं। मॉ की एक अन्य शक्ति यह भी है कि वे आपको साक्षी स्थिति प्रदान कर देती है । आप सभी कुछ साक्षी भाव से देखते हैं,आपमें अथाह धैर्य आ जाता है,जो भी होता है ठीक है,क्रोध नामक भयानक अवगुंण से आपको छुटकारा प्राप्त हो जाता है,आपका व्यक्तित्व अत्यन्त शॉतिमय हो जाता है क्योंकि आपकी मॉ आपके साथ होती है,इस दृढ विश्वास के साथ कि मॉ सदा हमारे साथ हैं,हमारी रक्षा करती हैं ।।
2-निर्विचारिता में ईश्वरीय शक्ति पैदा होती है-
          जब आप निर्विचारिता में होते हैं तो आप परमात्मा की श्रृष्ठि का पूरा आनंद लेने लगते हैं,बीच में कोई वाधा नहीं रहती है ।विचार आना हमारे और सृजनकर्ता के बीच की बाधा है ।हर काम करते वक्त आप निर्विचार हो सकते हैं, और निर्विचार होते ही उस काम की सुन्दरता,उसका सम्पूर्ण ज्ञान और उसका सारा आनंद आपको मिलने लगता ङै ।।
 


3-चैतन्य लहरियों की अनुभूति करें-
          अपने शरीर में चैतन्य लहरियों की अनुभूति करें। यह ह्दय मे प्रकाश की टिमटिमाती लपट है,जो हर समय जलती रहती है। यह परमात्मा का प्रतिबिम्ब है।जब कुण्डलिनी उठती है और ब्रह्मरन्द्र को खोलती है तो सदाशिव के दर्शन होते है,प्रकाश दैदीप्यमान होता है,चैत्य लहरियॉ हमारे अन्दर से बहने लगती हैं,ये चैतन्य लहरियॉ हमारे शरीर में बहने वाली सूक्ष्म ऊर्जा का प्रवाह होना है ।यह तभी होता है जब कुण्डलिनी ब्रह्मरन्द्र का भेदन कर ऊपर सदा शिव से मिलन होता है । ये चैतन्य लहरियॉ हमें पूर्ण सन्तुलन प्रदान करती है,हमारी शारीरिक,मानसिक एवं भावनात्मक समस्याओं का निवारण करती है। ये हमें परमात्मा से पूर्ण आध्यात्मिक एकाकारिता का विवेक प्रदान करती है,तथा परमात्मा से पूर्णतः एकरूप कर देती है ।।
 

4-महानतम् आध्यात्मिक घटना-
         साक्षी नारगोल का वृक्ष जो आज भी दृढतापूर्वक खडा है,इसी पेड के नीचे  5मई1970 को श्री माता जी ने अन्तिम चक्र खोलने का दिव्य कार्य किया था,यह जान पाना मानव बुद्धि से परे है कि स्वर्ग में किस प्रकार चीजैं कार्यान्वित होती हैं।यह हमारा सौभाग्य और परमात्मा का प्रेम है कि यह आश्चर्यजनक चमत्कार घटित हुआ है।अगर यह घटना न होती तो आज लोगों को आत्मसाक्षात्कार देने की कोई सम्भावना न होती । इसमें रूसी सहजयोगियों द्वारा बनाई गई वैबसाइट पर चित्रों द्वारा इस घटना को दिखाया गया है।।

5-कुण्डलिनी ज्योतित रस्सी सम है-
        सहज योग अत्यन्त सूक्ष्म प्रक्रिया है, एस तथ्य को बहुत थोडे लोग जानते हैं। कुणडलिनी छोटे-छोटे तन्तुओं से बनी ज्योतितसम रस्सी सम है। सुषुम्ना नाडी अत्यन्त पतली नाडी है,पापों और बुराइयों के कारण इतनी संकीर्ण हो जाती है कि कुण्डलिनी के सूक्ष्म तन्तु ही इसमें से गुजर सकते हैं ।यह अत्यन्त सुक्ष्म और गहन प्रक्रिया है,मूलाधार से इस पतले मार्ग में कमसे कम एक सूक्ष्म तन्तु गुजर सकता है, उसी एक तन्तु से ये ब्रह्मरन्द्र का भेदन करती है।आरम्भ में अधिकतर लोगों में यह घटना आसानी से घट जाती है, प्रकाश में देखने पर उन्हैं लगता है कि ये सब चीजों उनके अन्दर निहित हैं आनंदित हो जाते हैं । लेकिन बोझ के दवाव से पुनः नीचे की ओर खिंच जाती है,उन्हैं बहुत बडा झटका लगता है तब वे घबराकर संशयालु बन जाते हैं ।।
 
6-आत्म साक्षात्कार के बाद की स्थिति-
        आत्म साक्षात्कार के बाद आप चक्रों की तरह घूमते हुय़े बहुत से छल्ले देख सकते हैं। आत्मा सभी तत्वों के कारण-कार्य़ सम्बन्धों से लीला करती है।छल्लों के रूप में ये हमारे शरीर के पिछले हिस्से से जुडी है। सभी चक्रों एवं पावन अस्थि में इसका निवास है।ये सात छल्ले बनाती है ।आत्म साक्षात्कार के पश्चात आप चक्रों के इर्द-गिर्द घूमते हुये और एक छल्ले को दूसरे छल्ले में जाते हुये बहुत से छल्लों को देख सकते हैं।कभी-कभीbतो एक छल्ले में बहुत से छल्ले और कभी एक छल्ले में चिंगारियों जैसे अर्धविराम चिन्ह भी आप देख सकते हैं ।ये चेतन्य होता है ।ये मृत आत्मायें होती हैं ।ये हमारे ऊपर ग्री क्षेत्र में प्रतिविम्बित होती है हाल ही में अमेरिका में एक कोषाणु के ग्राही का फोटो लिया गया,ये बिल्कुल वैसा ही दिखाई दिया जैसा आप आत्म साक्षात्कार के बाद देखते हैं । लेकिन व्यक्ति पर कोई अन्य आत्मा बैठती है तो वह कोषाणु पर प्रतिविम्बित होती है।ये आत्मा किसी भी चक्र से या सभी चक्रों से जुड सकती है।जुससे व्यक्ति अचेतन हो जाता है और मादकता, मिर्गी, मस्तिष्क रोग तथा कैंसर आदि रोगों का कारण बनती है।।

7-कुण्डलिनी जागरण गणेश के विना सम्भव नहीं है-
            क्योंकि कुण्डलिनी गौरी शक्ति है और गणेश जी हर क्षण उनकी रक्षा करने के लिए वहॉ होते हैं, इतना ही नहीं,बल्कि कुण्डलिनी के चक्र भेदन करने के बाद श्री गणेश उस चक्र को बन्द कर देते हैं,ताकि कुण्लिनी फिर नीचे न चली जाय ।गणेश मूलाधार चक्र पर विराजमान हैं ।बहुत से लोग गलती करते हैं ,क्योंकि त्रिकोणाकार मूलाधार में तो केवल कुण्डलिनी का निवास है और इससे नीचे मूलाधार चक्र पर श्री गणेश विराजमान हैं.वे इतने पावन अबोध हैं और कुण्डलिनी श्रीगणेश की कुमारी मॉ हैं ।।
 

8–गलत विचार आने पर गणेश का आह्वान करें-
            सहजयोगी हमेशा सोचें और जब-जब भी गलत विचारों का सामना करना पडे,तो उन्हैं नियंत्रित करने के लिए गणेश की शक्तियों की याचना करें प्रार्थना करें क्योंकि उनके कठोर परिश्रम और पावनता के कारण ही मनुष्य इतनी महान ऊंचाइयों को पार कर पाता है जोकि व्यक्ति को वास्तव में स्वप्न जैसा दिखाई देता है। प्रारम्भ में जिन्होंने मूलाधार पर श्री गणेश को देखा है उन्हैं गलतफहमी हुई है और उन्होंने यह स्वीकार कर लिया कि यही मूलाधार है,कुण्डलिनी का निवास। इसी कारण तांत्रिकों ने बहुत सी समस्यायें उत्पन्न कर दी थी ।।
 
9-मूलाधार चक्र सबसे अधिक शक्तिशाली है-
            मूलाधार चक्र सबसे अधिक कोमल और सबसे अधिक शक्तिशाली है इसकी बहुत सी सतहें हैं और बहुत से आयाम। यदि मूलाधार ठीक नहीं है तो आपकी याददास्त खराब हो जायेगी आपका विवेक गडबड हो सकता है।आपमें दिशा विवेक नहीं रहेगा।अमेरिका में 40 वर्ष से कम उम्र में किसी प्रकार का पागलपन रोग आ रहा है,इसका कारण मूलाधार चक्र का खराब होना है ।बहुत से असाध्य रोग दुर्वल मूलाधार के कारण कारण आते हैं ।90प्रतिशत मानसिक रोगी दुर्वल मूलाधार के कारण होते हैं।यदि व्यक्ति का मूलाधार शक्तिशाली है तो उसे किसी भीप्रकार की तखलीफ नहीं होगी । आप मस्तिष्क को दोष देते हैं यह मस्तिष्क के कारण नहीं बल्कि मूलाधार के कारण होता है। इसलिए मूलाधार के प्रति विवेकशील रहें ।।

10-अहं और क्षं बीज मंत्र है-
          क्षमा प्रार्थना आज्ञाचक्र का मंत्र हैं।हं और क्षं इसके दो पक्ष हैं ।हं अर्थात ‘मैं हूं’ और “क्षं‘अर्थात ‘मैं क्षमा करता हूं ‘।अतः जब आज्ञाचक्र पकडता है है तो आपको कहना पडता है “ मै क्षमा करता हूं“आपके अन्दर यदि प्रति अहं है तो भी आपको कहना होगा “मैं क्षमा करता हूं” ।यदि हमारे अन्दर प्रति अहं है तो हमें कहना चाहिए ‘मैं हूं मै हूं’ तो ‘हं’ और ‘क्षं’ बीज मंत्र हैं।ये प्रार्थना के –क्षमा प्रवचन के बीज हैं।।
 
11-हमें हम (we)कहकर बात करनी चाहिए-
          मैं(I)सम्बोधन से नहीं जब किसी चीज से अधिक लगाव होता है तो मेरा,तेरा शव्द का प्रयोग होने लगता है,मेरा घर है मेरा शव्द को त्याग देना चाहिए, इसके स्थान पर हम शव्द का प्रयोग करें, हम अर्थात सब एक हैं, आप उस परमात्मा के अंग प्रत्यंग हैं ?क्या हम हम नहीं हैं ? क्या मैं अपनी अंगुली को ह्दय सेअलग कर सकता हूं ?अपना तो इस पृथ्वी पर कुछ भी नहीं है? ये मेरा बच्चा है,मेरी पत्नी है ?निसंदेह आपने अपनी पत्नी ,बच्चों की देख-भाल करनी है क्योंकि यह आपकी जिम्मेदारी है, लेकिन जितना आप अपने बच्चों के लिए करते हैं उससे अधिक अन्य बच्चों के लिए भी करें ,आपको विश्वास करना होगा कि आपका परिवार आपके पिता(परमात्मा)का परिवार है और आपकी मॉ (आदिशक्ति)इसकी देख-भाल कर रही है । यदि आप सोचते हैं कि आप अपने परिवार की देख-भाल स्वयं कर रहे हैं तो-आगे बढकर देखें ?इसलिए अपने परिवार के बारे में अधिक चिंतित नहों । किसी चीज को अपने तक सीमित न रखें, आप तभी करते हैं जब वह करवाता है ।डोर तो उसके हाथ में है ।।

12- सत्यखण्ड का प्रकाश-
          यह वैसे गहन अध्यन का विषय है कि मस्तिष्क में जब कुण्डलिनी का प्रकाश आता है तो मस्तिष्क के माध्यम से सत्य को समझा जा सकता है। इसी कारण इसे सत्य खण्ड कहा जाता है, अर्थात मस्तिष्क द्वारा समझे गये सत्य को आप देखने लगते हैं।क्योंकि अभीतक मस्तिष्क द्वारा जो कुछ भी आप देख रहे थे वह सत्य नहीं था,वह सिर्फ वाह्य पक्ष था। अपने मस्तिष्क द्वारा आप दिव्यता के विषय में कुछ नहीं जान पाते हैं,जब तक कुण्डलिनी इस भाग में नहीं पहुंच जाती किसी व्यक्ति को दिव्यता के बारे में जान पाना कठिन है,कोई व्यक्ति सच्चा है या नहीं यह जान पाना कठिन है, जबतक आत्मा का प्रकाश मस्तिष्क में चमकने न लग जाय।वैसे आत्मा की अभिव्यक्ति ह्दय में होती है अर्थात आत्मा का केन्द्र ह्दय में होता है ,लेकिन वास्तव में आत्मा की पीठ ऊपर है,श्री माता जी अपना दॉयॉ हाथ अपने सिरके ऊपर रखकर कहती हैं कि यही आत्मा है। जिसे हम सर्व शक्तिमान परमात्मा कहते हैं,सदा शिव,परवर्दिगार कहते हैं, जिस नाम से भी भगवान को बुलाया जाता है,बुलाते हैं। जोकि प्रकाश के रूप में चमकने लगता है।।


13-हमें स्वप्न कुण्डलिनी से आते हैं-
          होता क्या है कि कुण्डलिनी मध्य भाग में जुडी हुई नहीं है लेकिन इसके अन्दर बीते हुये समय का पूरा लेखा-जोखा टेप होता है, जब आप बहुत गहन सुषुप्त अवस्था में चले जाते हैं, तब नीचे से प्रतीक उभरते हैं और नीली लाइन से होते हुये आपके मस्तिष्क से गुजरते हैं,जिससे आप स्वप्न देखने लगते हैं लेकिन सारे स्वप्न विकृत हो जाते हैं।उसमें अजीबोगरीव प्रतीकात्मकता आ जाती है ।कभी- कभी तो आपके समझ में ही नहीं आता कि क्या हो रहा है,एक प्रकार की मिली-जुली अभिव्यक्ति बन जाती है। इसलिए सपनों पर


14-परमात्मा से कोई लेना देना नहीं है-
          कौन कहता है जो लोग यह सोचते हैं कि मैं बेहत्तर हूं परमात्मा से मेरा कोई लेना-देना नहीं है,ऐसे लोगो को बायें ओर के एकादश की समस्या हो जाती है,जोकि बहुत खतरनाक होता है इन लोगों को दायें ओर के ह्दयघात की समस्या हो जाती है। कुण्डलिनी के सहस्रार में प्रवेश करने में एकादश रुद्र सबसे बडी समस्या है ।यह समस्या भवसागर से आती है,इस प्रकार यह तालू क्षेत्र में भी प्रवेश करती है ,गलत गुरुओं के पास गये हैं और बाद में सही निष्कर्ष पर न पहुंचने से सहजयोग के प्रति समर्पित हुये हैं अपनी गलतियॉ स्वीकार कर कहते हैं कि मैं स्वयं का गुरु हूं तो वे ठीक हो सकते हैंऔर जो लोग कहते हैं मैं सबसे ऊपर हूं मैं परमात्मा में विश्वास नहीं करता परमात्मा कौन है, उसके अन्दर की समस्या का निवारण भी हो सकता है कि वह नम्र होकर सहजयोग की परम चेतना में प्रवेश करने का एक मात्र मार्ग स्वीकार कर लें।।
 
15-शव्द बोलते हैं-
         हर शव्द का अपना महत्व है,और मंत्र इन्हीं शव्दों से बनें होते हैं,जैसे हमारे शरीर के अन्दर तीन देवियॉ विराजमान हैं महॉ काली, महॉलक्ष्मी, और सरस्वती तो इन्हैं ऐं,हीं, क्लीं कहते हैं ।इसी प्रकार ‘री’ र..र..शव्द शक्ति का शव्द है। र जैसे राधा रा अर्थात शक्ति और धा धारण करने वाली जैसे राधा-राम-और कृष्ण शव्द की उत्पत्ति कृषि शव्द से हुई कृ का उच्चारण करते ही विशुद्धि चक्र कार्यान्वित होने लगता है,इसलिए कृष्ण शव्द का उच्चारण करना चाहिए, क्योंकि कृष्ण शव्द सीधा विशुद्धि चक्र से जुडा है, अतःकृष्ण नाम केवल उसी का हो सकता है।क्षं शब्द का अर्थ है क्षमा करना। सहजयोग प्रेम का पथ है,प्रेम में अधिक विश्लेषण करने की आवश्यकता नहीं है।छोटे से शव्द प्रेम को संमझ लेने मात्र से ही व्यक्ति पंडित हो जाता है।वैसे अधिक पढ-पढकर पंडित भी मूर्ख बन जाता है ।।
 
 
16-कुण्डलिनी जब उठती है तो स्वर उत्पन्न होते हैं-
            कुण्डलिनी जब उठती है तो स्वर उत्पन्न करती है, सभी स्वरों के अलग-अलग अर्थ होते हैं ।और चक्रो पर जो स्वर सुनाई देते हैं उनका उच्चारण इस प्रकार है-मूलाधार पर चार पंखुडियॉ हैं-निम्न स्वर हैं-व,श,ष,स-।स्वादिष्ठान पर छः पंखुडियॉ हैं तो छः स्वर निकलते हैं-ब,भ,म,य,र,ल -मणिपुर पर दस पंखुडियॉ हैं दस स्वर उत्पन्न होते हैं –ड, ढ,ण,त,थ,द,ध,न,प,फ-अनाहत चक्र पर बारह पंखुडियॉ हैं-स्वर –क,ख,ग,घ,ड.च,छ,ज,झ,ञ,ट,ठ –।विशुद्धि चक्र-सोलह पंखुडियॉ- सोलह स्वर अ,आ, इ,ई,उ, ऊ,श्र,रू, लृ,ए,ऐ,ओ,,अं,अः आज्ञा चक्र में के स्वर-ह,क्ष -। सहस्रार पर पहुंचने पर साधक निवर्विचार हो जाता है और कोई स्वर नहीं निकलता है शुद्ध स्पंदन ह्दय में होता है-लप-टप-लप- टप ।ये सारे स्वर एकत्रित होकर इस समन्वय से उत्पन्न होने वाला स्वर ओं …होता है।सूर्य के सातों रंग अंततः सफेद किरणें बन जाती हैं या स्वर्णिम रंग की किरणें ।।
17-ह्दय मस्तिष्क के चंगुल में कैसे फंस जाता है-
          ह्दय सात चक्रों के सात परिमलों से घिरा हुआ है और इसके अन्दर आत्मा निवास करती है ।आपके सिर के शिखर पर सर्व शक्तिमान सदाशिव निवास करते हैं ।कुण्डलिनी जब इस विन्दु को छूती है तो आपकी आत्मा प्रसारित होने लगती है,और आपके मध्य नाडी तन्त्र पर कार्य करने लगती है क्योंकि स्वतःचैतन्य लहरियॉ आपके मस्तिष्क में प्रवाहित होने लगती है ,और आपकी नाडियों को ज्योतिर्मय करती है।परन्तु अभी भी ह्दय में पहचान नहीं आई कि आप शीतल लहरियॉ महशूस करने लगते हैं,आप उस स्थिति में दूसरों की कुंण्डलिनी उठा सकते हैं,लोगों को रोग मुक्त कर सकते हैं तथा और भी बहुत से कार्य कर सकते हैं ।परन्तु अभी भी यह पहचान नहीं है क्योंकि पहचान तॉ आपके ह्दय की मानसिक गतिविधि है ।यदि आप हिन्दू हैं तो श्री राम की फोटो देखते ही आपका ह्दय पहचान लेता हैं।लेकिन एक ऐसे व्यक्ति को पहचानना बहुत कठिन है जो आपके साथ रह रहा है ।ह्दय की गहनता में जाने के लिए क्या किया जाना चाहिए? ह्दय के माध्यम से दिमाग के कार्य को किस प्रकार किया जा सकता है। आपको याद रखना होगा कि ह्दय पूरी तरह से मस्तिष्क से जुडा हुआ है, ह्दय जब रुक जाता है तो मस्तिष्क भी रुक जाता है।सारा शरीर बेकार हो जाता है।कोई खतरा दिखने लगता है कि ह्दय धडकने लगता है। आपके ह्दय में इसकी रचना करने के लिए आपको क्या अनुभव होना चाहिए । ये आपके अपने दिव्यत्व और आध्यात्मिकता का अनुभव है।एक बार जब आपमें यह अनुभव विकसित होने लगता है तब आप जान पाते हैं कि आप दिव्य व्यक्ति हैं ।और जब तक आप पूर्ण रूपेण विश्वस्त नहीं होते कि आप दिव्य व्यक्ति हैं तो चाहे जितनी क्षद्धा आपमें हो यह पहचान अधूरी है,क्योंकि मुझे पहचानने वाला व्यक्ति अन्धा व्यक्ति है ।।
 
18-श्री गणेश यदि हमें बुद्धि प्रदान करते हैं तो हनुमान सद्विवेक-
          हम जब भी और जहॉ भी विद्युत चुम्बकीय शक्ति को कार्य करते हुये देखते हैं तो यह हनुमान के आशीर्वाद से होता है ।वे ही विध्युत चुम्बकीय शक्तियों का सृजन करते हैं ।अतः हम देख सकते हैं कि श्री गणेश जी के अन्दर चुम्बकीय शक्तियॉ हैं वे चुम्बक हैं उनमें चुम्बकीय शक्ति है पदार्थ की अवस्था में वे मस्तिष्क तक जाते हैं ।मस्तिष्क के विभिन्न पक्षों में सहसम्बंधों का सृजन करते हैं।अतः गणेश जी हमें बुद्धि प्रदान करते हैं तो श्री हनुमान हमें सद्विवेक प्रदान करते हैं ।।

 
19-आत्मा जब आपके मस्तिष्क में पहुंचती है तो आप पच्च आयामी हो जाते हैं-
          शिव आत्मा का प्रतिनिधित्व करते हैंऔर आत्मा का निवास आपके ह्दय में है सदा शिवका स्थान आपके सिर के शिखर पर है परन्तु आपके ह्दय में प्रतिविम्बित होते हैं आपका मस्तिष्क विठ्ठल है आत्मा को आपके मस्तिष्क में लाने का अर्थ आपके मस्तिष्क का ज्योतिर्मय होना है।अर्थात परमात्मा का साक्षात्कार करने की आपके मस्तिष्क की सीमित क्षमता का असीमित बनना आत्मा मस्तिष्क में आती है तो आप जीवन्त चीजों का सृजन करते हैं।मृत भी जीवित की तरह से व्यवहार करने लगता है ।।

 

Friday, August 17, 2012

विचार













 

1–अच्छा आदमी बनो –

         दिल एक पवित्र मंदिर होता है, एक बार इसमें जिस देवता की मूर्ति स्थापित कर ली जाती है, पुजारी हर स्थिति में उसकी पूजा करता है।

 

2–मित्र-

        मित्र धनी हो या गरीब,सुखी हो या दुखी , निर्दोष हो सदोष,वह हमारे लिए सबसे बडा सहायक होता है।

3–दुष्ट व्यक्ति-

        दुष्ट व्यक्ति उन ओलों के समान होता है, जो फसल को नषट करके स्वयं भी नष्ट हे जाता है।

4–विचार-

        निशेधात्मक निचार व्यक्ति की शक्ति को क्षीण करते हैं,सकारात्मक विचार शक्ति को बढाते हैं।

5-जीवन-

        साधारण लोग सोचते है कि जीवन जन्म और मृत्यु के बीच जो है उसी का नाम जीवन है,,बल्कि जीवन उसका नाम है जिसके मध्य में जन्म और मृत्यु बार-बार घटते हैं, और बहुत बार घटते हैं, और घटते रहेंगे तबतक घटते रहेंगे जबतक तुम जीवन को पहचान न लो,जिसदिन तुमने जीवन को पहचान लिया उस दिन तुम्हारे भीतर दीप जलेगा ,अपने से मुलाकात हुई,फिर न लौटना होगा,न कहीं आना या जाना होगा ।

6-सत्य बोलो-

        घर के बाहर झूठ बोलते हो तो चल सकता है किसी तरह ,लेकिन घर में झूठ बोलते हो तो नहीं चलेगा, ध्यान रखें अपने घर में परिवार के किसी भी सदस्य से झूठ न बोलें ।

7–भारत माता -

        विश्व में एक ही देश है जिसे माता का दर्जा प्राप्त है, भारत माता,यह भारत भूमि हमारी मॉ है तो भारत में जन्म लेने वाले हम सब भाई -बहिन हो गये सब एक परिवार की तरह रहें और अपनी मॉ का सम्मान कर उसका नाम ऊंचा रखें ।




 

8-भगवान का प्यारा होना-

        जब कोई व्यक्ति मरता है तो कहते हैं कि भगवान का प्यारा हो गया, बात तब है जब जीते जी भगवान का प्यारा हो जाय ।

9-आनन्द की अनुभूति-

        परमानन्द आध्यात्मिक चेतना की जागृति से सम्भव है, भौतिक सुख से स्थाई आनन्द की अनुभूति नहीं होती,सिर्फ आध्यात्मिक आनन्द स्थाई होता है जिसे बनाये रखने का प्रयास करें ।अगर यह आनन्द चाहिए तो उन सन्तों से प्राप्त करें जिन्होंने कठिन तपस्या की है और उन्हैं लम्बे प्रयासों का अनुभव है ।

10-बात –

        जो बात सिद्धान्त से गलत है,वह ब्यवहार में कभी उचित नहीं हो सकती ।

11-आदर्श-

        प्रेम सबसे करो, विश्वास कुछ पर करो,बुरा किसी का मत करो ।

12-मॉ का सम्मान करें -

        जिस घर में मॉ तथा बहू-बेटियों का सम्मान नहीं होता है वहॉ नारायण की कृपा नहीं होती,वहॉ लक्ष्मी आ ही नहीं सकती , मॉ पृथ्वी पर प्रथम पूज्यनीय होती है, बिना माता-पिता के आशीश से मानव आगे बढ ही नहीं सकता है ।

13-अच्छा कार्य करो -

           रात के अन्धेरे में कोई ऐसा कार्य न करो कि दिन के उजाले में चेहरा छिपाना पडे ।

14-बीडी-सिगरेट तथा नशीले पदार्थों का प्रयोग न करें -

        हमारे महॉपुरुष कहते हैं कि बीडी सिगरेट पीने वाले अपने पुण्य तो खत्म कर देते हैं लेकिन उनकी 21 पीढियों का पुण्य भी धुंआ बनकर उड जाता है ।

15–जीवन-

        जीवन एक गंगा है, कभी ङधर मुडती है,कभी उधर मुडती है, लेकिन फिर भी पवित्र है ।

16-मीठा बोलिए -

        आदमी खाना मीठा पसन्द करता है मगर बोलता कडुवा है ,बूढे स्वयं तो अधिक बोलते हैं दूसरे को भी अधिक बुलवाते हैं ।जरूरत से ज्यादा मत बोलो,चाय में मीठा डालना भूल जाओ कोई बात नहीं मगर वॉणी में माधुर्य होना मत भूलना । मन कुछ बोलता है जीभ कुछ और बोलती है । मन क्या बोलता है यह महत्वपूर्ऩ है,शब्द जीवन में महत्वपूर्ण होते हैं शब्दों से जीवन में अद्भुत परिवर्तन होता है ।

17-महॉप्रसाद -

        धन की शुद्धि दान से, तन की शुद्धि स्नान से, मन की शुद्धि ध्यान से होती है लेकिन दान महॉप्रसाद बन जाता है । 18-चुनौती- चुनौती को स्वीकार कर आगे बढना सीखो वही सफल होता है।

18-विद्या-

        विद्या वह है जो विनम्रता लाती है, विद्या ग्रहण करने पर विनम्रता का गुंण पहला लक्षण है।

19-यादों के दीपक-

        अपनी यादों के दीपक हमारे साथ रहने दो, न जाने जिन्दगी की किस गली में शाम हो जाय।।

20-हमें किसी जीव से घृणा करने का अधिकार नहीं है-

        परमात्मा की रची हुई इस दुनिया में हमें किसी भी भी जीव से घृणॉ करने का अधिकार नहीं है। हम तो केवल सेवा कर सकते है।प्रत्येक जीव को ब्रह्म के स्वरूप का विकास समझकर ही सेवा कर सकते है ।लेकिन यह सौभाग्य भी उन्हीं को मिलता है जिनको यह शक्ति प्राप्त करने का गौरव प्राप्त हो, जिससे कि सेवा करने की योग्यता प्राप्त होती है ।

21-हर्ष और शोक के वशीभूत न हों-

        मनुष्य जन्म के बाद मृत्यु,उत्थान के बाद पतन,संयोग के बाद वियोग संचय के बाद क्षय तो निश्चित है,यह समझकर ज्ञानी हर्ष और शोक के वशीभूत नहीं होते हैं।पूर्ण हर्ष में तो आंनंद की अपेक्षा गहनता अधिक होती है।अधिक हर्ष तो शॉत होता है और जिह्वा की अपेक्षा ह्दय में वास करता है। हर्ष तो सर्व प्रथम स्वास्थ्य में होता है ।

जो सामने है वही सच






     

1- ज्ञान का सार है आचार-

        वही ज्ञान उपयोगी होता है जो अहंकार न बढाये, जो बंधन न बने, जिससे स्व की विस्मृति न हो, जो संस्कार का शोधन करे, तथा मानसिक शॉति की ओर ले जाये। ज्ञान की उपयोगिता की चरम कसौटी है कि वह आत्मा की ओर ले जाये ,जो ज्ञान आत्मा से विमुख बनाता है उसे भारतीय मनीषा में अज्ञान कहा जैता है। ज्ञान का सार है आचार ,इसलिए वही ज्ञान उपयोगी है जो अहंकार न बढाये ।



2- ज्ञान का दुरुपयोग विनाश और सदुपयोग विकास है-

        जिस प्रकार गंगा नदी के प्रवाह को,सुखाया नहीं जा सकता,केवल उस प्रवाह के मार्ग को बदला जा सकता है। उसी प्रकार ज्ञान के प्रवाह को सुखाया नहीं जा सकता है,उसे पर हित के लिए उपयोग में लाया जा सकता है ।ज्ञान का दुरुपयोग होना विनाश है और ज्ञान का सदुपयोग करना ही विकास है,सुख है,उन्नति है ।ज्ञान के सदुपयोग के लिए तो जागृति परम आवश्यक है ।

 

 

 3- आदर्श साहित्यकार की पहचान –

        आदर्श साहित्यकार वही है जो समाज की पीडा और सुख का अनुभव कर समाज के लिए रोता और हंसता है ।वह तो एक दिया है,जो जलकर केवल दूकरों को ही प्रकास देता है।जब साहित्यकार की भावना,ज्ञान और कर्म एक साथ मिलती हैं तो युग प्रवर्तक साहित्य का निर्माण होता है।किसी देश का साहित्य वहॉ की जनता की चित्त वृत्ति का द्योतक है।साहित्य तो आनंद देता है ।ज्ञानराशि के संचित कोष का नाम ही साहित्य है, जिसका निर्माण साहित्यकार द्वारा किया जाता है ।

 

 

4- वास्तविक सौन्दर्य ह्दय की पवित्रता में है-

        योग्य मनुष्यों के आचरण का सौन्दर्य ही उसका वास्तविक सौन्दर्य है,शारीरिक सौन्दर्य उसकी सुंदरता में किसी भी प्रकार की अभिवृद्धि नहीं करता।सुन्दर और कल्याणमय के साथ यदि हम ह्दय की समीपता बढाते रहें तो संसार सत्य और पवित्रता की ओर अग्रसर होगा ।अलंकार तो भावों का आवरण है और सुन्दरता को तो अलंकारों की जरूरत है ही नहीं।

 

 

5- शंका जीवन का विश है-

        आदमी के लिए विश्वास ही सबकुछ है,जिसे अपने पर विश्वास नहीं,उसे भगवान पर भी विश्वास नहीं हो सकता। स्वयं को ईश्वर पर छोड देना ही विश्वास है।

 

 

6-अपने मन पर विश्वास न करें-

        हमें हमेशा सजग रहना होगा । अपने मन पर विश्वास न करें ।क्योंकि पाप सूक्ष्म भाव में कभी धर्म का रूप धारण कर,कभी दया के रूप में, कभी मित्र के रूप में तुम्हैं भुलाकर तुम्हैं वश में करने की चेष्ठा करेगा। भुलावे में पडकर परास्त हो जाओगे, समझ भी नहीं सकोगे । और जब समझ में आयेगा,तब शायद लौटना ही असम्भव हो जाय।

 

 

7- मन को वश में करना सबसे कठिन काम है-

        कहा जाता है कि इस संसार में मन को वश में करने जैसा कठिन काम और नहीं है । भगवान रामचन्द्र ने हनुमान से कहा था, कि-चाहे सातों समुद्र कोई तैरकर पार कर सके,वायु को अवशोषित कर ले सके,पहाडों को उठाकर अपना खेल दिखा सके,पर इस चंचल मन को वश में करना,उसकी अपेक्षा अधिक कठिन है। लेकिन इतना होने पर भी भयभीत होने का या निराश होने का कोई कारण नहीं है । वीर साधक तो दृढ संकल्प के साथ भगवान पर निर्भर होकर यदि प्रॉणपण से चेष्ठा तथा साधना करें,तो उनकी कृपा से वह असाध्य साधन कर सकता है।

 

 

8-कर्म ही बन्धन के कारण हैं-

        अगर देखें तो समस्त कर्म ही बन्धन के कारण होते हैं। चाहे सुख हो या दुख,दोनों ही बन्धन हैं ।अगर इन दोनों से पार न गये, तो मुक्ति का लाभ सम्भव नहीं है।कर्म तो केवल उन्हीं के लिए बन्धन का कारण नहीं होता जो निस्वार्थ परहित के लिए कार्य करते हैं। क्योंकि वे किसी फल की आकॉक्षा ही नहीं रखते,और न अपने नाम के यश, यास्वार्थ-साधन के लिए भी काम नहीं करते। उनके ह्दय में तो प्रेम का संचार होता है,वे तो प्रॉणि मात्र में ईश्वर दर्शन करके ,उनकी सेवा समझकर कर्म करते रहते हैं। और मन में नये संस्कार के बीज का सृजन भी नहीं होता। इसलिए वे पुनः जन्म-मरण से मुक्त हो जाते हैं ।

 

 

9-सुख भोग में नहीं त्याग में है-

        जिसने जिन्दगी को जीकर देखा है,अगर उनसे इस सम्बन्ध में पूछे तो उत्तर मिलता है, भोगों में सुख नहीं है बल्कि त्याग में सुख है। जो सद्विवेक से भोग भोगकर उनसे शिक्षा ग्रहण करता है,विषय-भोगों को परिणॉम में दुःखदाई जानकर ,स्वेच्छापूर्वक समस्त त्याग करता है,तो वही परम सुखी है,वही अमृत का अधिकारी होता है।स्वामी विवेकानन्द जी ने तो त्याग को योगों का प्रॉण माना है।

 

 

10-ज्ञानयोग कठिन त्याग है-

        त्यागों में सबसे कठिन त्याग ज्ञानयोग को माना जाता है,क्योंकि इसमें पहले से ही धॉरणॉ करनी होती है कि समस्त संसार और उसके साथ का सम्बन्ध मिथ्या है,माया है ।समस्त जीवन स्वप्न के समान है।इस मार्ग को नेति कहते हैं–मैं यह नहीं वह नहीं,मैं देह-मन-इन्द्रिय कुछ नहीं। मुझे सुख नहीं,दुःख नहीं,मेरा जन्म नहीं,मरण नहीं,वन्धन नहीं,मुक्ति नहीं,मैं तो नित्य चैतन्मयस्वरूप पूर्ण ब्रह्म परमात्मा हगूं। इसलिए वे समस्त वाह्य विषयों को त्याग कर,अपने स्वरूप के ध्यान में ही मग्न रहते हैं।

 

 

11-आत्म विश्वास बढायें-

        हमें आत्मा विश्वास वढाने के प्रति सजग होना होगा,इसके लिए इस बात का विश्वास करना होगा कि मैं आत्मा हूं। मुझे कोई न तलवार से काट सकता है न वरछी से भेद सकता,न आग जला सकती है और न हवा सुखा सकती है।मैं तो सर्वशक्तिमान हू,सर्वज्ञ हूं। हमेशा इन आशाप्रद वाक्यों का उच्चारण करें। ये न कहें कि हम दुर्वल हैं। हम क्या नहीं कर सकते हैं! हमसे सबकुछ हो सकता है! हम सबके भीतर एक ही हिमालय आत्मा है। इसपर हमें विश्वास करना होगा। उपनिषद में उल्लिखित कि मेरी इच्छा है कि तुम लोगों के भीतर इसी श्रद्धा का अभिर्भाव हो,तुममे से हर व्यक्ति खडा होकर संकेत मात्र से संसार को हिला देने वाला प्रतिभासम्पन्न महॉपुरुष हो,ईश्वरीत तुल्य हो।णैं तुम लोगों को ऐसा देखना चाहता हूं । फिर देखना ऐसी ही शक्ति प्राप्त होगी।

 

 

12-स्वयं में शक्ति का संचार करें-

        हमें इस बात को ध्यान में ऱखना होगा कि,हमारे जीवन में उच्च आदर्श और उत्कृष्ठ व्यावहारिकता का सुन्दर सामज्जस्य हो। जीवन का अर्थ प्रेम है,इसलिए प्रेम ही जीवन है,यही जीवन का एकमात्र नियम है। और स्वार्थपरता मृत्यु के समान है। गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है कि -प्रवल कर्मयोग-ह्दय में अमित साहस,और अपरिमित शक्ति के संचार से सब लोग जाग उठेंगे, नहीं तो जिस अन्धकार में हो,उसी में रहोगे ।

 

 

13-सेवा और त्याग की भावना रखे-

        हमें ईश्वर ने जन्म दिया है,इसलिए हमारा दायित्व है कि हम हर एक को ईस्वर के ही समान देखें। हम किसी की सहायता नहीं कर सकते हैं, हमें तो केवल सेवा का अधिकार है। यदि आप भी भाग्यवान हैं तो प्रभु की सेवा करें,यदि किसी की सेवा कर सकते हो तो,तुम धन्य हो जाओगे ।अपने ही को बहुत बडा न समझें। तुम धन्य हो कि तुम्हैं सेवा करने का अधिकार मिला है और दूसरों को नहीं मिला। ईश्वर पूजा के भाव से सेवा करो। दरिद्र व्यक्तियों में हमें भगवान को देखना होगा। अपनी ही मुक्ति के लिए उनके निकट जाकर हमें उनकी पूजा करनी चाहिए। अनेक दुखी और कंगाल प्रॉणी हमारी मुक्ति के माध्य हैं ।

 

 

14-सर्वशक्तिमान बनो-

        तुम्हें सर्वशक्तिमान बनना होगा,इसके लिए अपने अन्दर झॉककर देखो और महशूस करो कि-क्या तुम मनुष्य जाति से प्रेम करते हो ? क्या ये सब गरीव,दुखी,दुर्वल ईश्वर नहीं हैं ? ईश्वर की पूजा पहले क्यों नहीं करते ? गंगा तट पर कुंवा खोदना क्यों जाते हो ? प्रेम की असाध्य शक्ति पर विश्वास करो ! झूठ जगमगाहट वाले नाम-यश की परवाह कौन करते हो ? क्या तुम्हारे पास प्रेम है ? तो फिर तुम सर्व शक्तिमान हो !क्या तुम सम्पूर्ण निस्वार्थ हो ? यदि हो तो फिर तुम्हें कौन रोक सकता है !चरित्र की तो सर्वत्र विजय होती है। ईर्ष्या और अहं भाव को दूर कर दो !संगठित होकर दूसरों के लिए कार्य करना सीखो! हमारे देश में तो सबसे बडी आवश्यकता यही तो है। धीरज रखो और जीवनभर विश्वासपात्र बनो !आपस में लडो नहीं । स्वयं में ईमानदारी,भक्ति और विश्वास का संचार करें तो कभी भी असफल न होंगें। भेदभाव मिटा दो। फिर-चाहे आप रण में हों या वन में,चाहे पर्वत के शिखर पर -तुम्हारे लिए कोई भय नहीं रहेगा। जबतक तुम यह न जान लो कि वह हितकर है,तबतक अपने मन का भेद न खोलो । शत्रु के प्रति भी प्रिय और कल्याणकारी शव्दों का व्यवहार करो ।फिर देखोगे कि आप सर्वशक्तिमान होंगे ।

 

 

15-स्वर्ग का राज्य तुम्हारे भीतर है–

        ईसा मसीह,तथा वेदान्त यही कहते हैं कि स्वर्ग का राज्य तुम्हारे भीतर है ।जिसके पास देखने के लिए आंख है वह देखें,जिसके पास सुनने के लिए कान है वह सुनें । वह पहले से तुम्हारे अन्दर है । वेदान्त यह सिद्ध करता है कि जिस सत्य को अज्ञान के कारण हम सोचते थे कि हमने उसे खो दिया है,वह सदा ही हमारे ह्दय के अन्तस्तल में वर्तमान था । उसे हम वहीं पा सकते हैं ।

 

 

16-ज्ञान अज्ञान का नाश करता है-

        ज्ञान हमेशा अज्ञान को दूर भगाता है,व्यवहार का नाश नहीं करता है। दैवीय शक्ति हमारे ज्ञान को पुष्ट करती है,जबकि आसुरी शक्ति उसका आच्छादन करती है । इसलिए शुभ कर्मों को छोडना नहीं चाहिए । चित्त का स्वभाव तो चिंतन करना है, और शुभ कर्म छोड देने से चित्त विषय चिंतन करेगा । कर्म तो बुद्धि का विषय है,आत्मा का नहीं । अतः विचारवान पुरुष कर्म करता हुआ उसका साक्षी बना रहता है ।

 

 

17-त्याग का अर्थ है सब जगह ईश्वर दर्शन-

        वेदान्त हमें माया के जगत का त्याग कर काम करने की शिक्षा देता है । त्याग का अर्थ है सब जगह ईश्वर का दर्शन करना । जो व्यक्ति सत्य को न जानकर अबोध की भॉति संसार के भोग विलास में निमग्न हो जाता है, समझलो कि उसे ठीक मार्ग नहीं मिला ,उसका पैर फिसल गया है । दूसरी ओर जो व्यक्ति संसार को कोसता हुआ वन में चला जाता है,अपने शरीर को कष्ट देता रहता है,धीरे-धीरे अपने को सुखाकर अपने को मार डालता है,अपने ह्दय को शुष्क मरुभूमि बना डालता है,अपने सभी भावों को कुचल डालता है और कठोर विभत्स और रूखा हो जाता है,तो समझलो कि वह भी मार्ग भूल गया है। ये दोनों दो छोर की बातें हैं – दोनों ही भ्रम में हैं-एक इस ओर और दूसरा उस ओर । दोनों ही पथभ्रष्ट हैं-दोनों ही लक्ष्यभ्रष्ट हैं ।

 

 

18-हमारे जीवन के पीछे दुख और मृत्यु छाया के रूप में होते हैं-

        हम देखते हैं कि इस संसार में हर व्यक्ति के जीवन में जितने भी सुख हैं उनके पीछे दुख और मृत्यु छाया के रूप में दिखती है । दुख और मृत्यु सदा एक साथ रहते हैं । वे दोनों विरोधी नहीं है बल्कि दोनों एक ही वस्तु के अलग-अलग रूप हैं,जीवन,मृत्यु,सुख-दुख,अच्छे-बुरे सब अलग-अलग रूप हैं। शुभ और अशुभ दोनों अलग-अलग नहीं हैं वे वास्तव में एक ही वस्तु के रूप हैं- कभी अच्छे और कभी बुरे रूप में महशूस होती हैं । एक ही स्नायु प्रणाली अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के प्रवाह ले जाती है ।यदि स्नायु प्रणॉली किसी तरह विगड जाय तो उसमें जो सुख की अनुभूति थी नहीं आयेगी बल्कि दुख की अनुभूति आयेगी,दोनों एक साथ नहीं आयेंगे,कभी सुख तो कभी दुख ।मॉसाहारी को मॉस खाने में सुख मिलता है मगर जिसका मॉस खाया ,उसके लिए भयानक कष्ट है । एक ही वस्तु से किसी को सुख मिलता है तो किसी को दुख, ऐसा कोई विषय नहीं कि जो सबको समान रूप से सुख देता हो ।कुछ लोग सुखी रहते हैं तो कुछ दुखी,यह इसी प्रकार चलता रहेगा ।

 

 

19- संकोच किस प्रकार का हो-

        मर्यादा का पालन करते हुये संकोच उपयुक्त है मगर आवश्यकतानुसार संकोच को त्याग देना चाहिए,स्पष्ट बात करनी चाहिए । भोजन करते समय भरपेट आहार करना चाहिए क्योंकि अधिक संकोच करने से भूखा रहना पड सकता है।लेन-देन करते समय उसकी लिखा-पढी पक्की होनी चाहिए क्योंकि संकोच करने से धन की हानि हो सकती है । जीवन में संकोच की एक सीमा है वरना दुख या हानि हो सकती है ।।

 

 

19-हमारी यादें-

        याद ही केवल ऎसा स्वर्ग है जहॉ से हमको भगाया नहीं जा सकता है ।दुःख की याद तो केवल खुशी को मधुर बना देती है ।यादें हमारे जीवन को हरा-भरा रखने हेतु,हमारे साथ प्रभु का पक्षपात है।यादें तो पंख हैं जो उडने को पुरुषार्थ देती है ।

 

 

20- परमात्मा के द्वारा इस दुनियॉ में हमें केवल एक ही जन्म सिद्ध अधिकार प्राप्त है-

        देने का अधिकार। लेने या मॉगने का अधिकार कदापि प्राप्त नहीं है।इस धिकार से जो कुछ भी हम देते हैं उसी से हम धनी होते है,और सुख-शॉति भी प्राप्त होती है । लोग सुख शॉति को प्राप्त करने के लिए कभी इधर कभी उधर भटकते हैं,लोग इसे मॉग-मॉग कर प्राप्त करना चाहते हैं, इससे अधिक भयंकर भूल और क्या हो सकती है जबकि ये चीजें हमें देने से स्वतः ही प्राप्त हो जाती हैं ।इसलिए कर्म करते जाओ फल की आशा परमात्मा पर छोड दो ।

 

 

21-जीवन की जल धारा रुक नहीं सकती–

        बच्चे थे हम ,बचपन गया,रोक सके ?क्या करते? कैसे रोकते ? जवान हुये हम,जवानी भी गई,रोक सके? बुढापा भी चला गया ।देह थी ,देह भी चली जायेगी।जो भी है सब बह रहा है,यहॉ कुछ रुकेगा नहीं।यहॉ तो कुछ रुकता ही नहीं ।सब जल की धार है,इस जल की धार में अगर हमने रोकना चाहा तो दुखी हो जाओगे बस तुमने जान लिया कि यह जलधार का स्वभाव है कि यहॉ कुछ रुकता ही नहीं है बस उसी क्षण दुःख चला गया । अब दुखी होने का कोई कारण न रहा बस अगर तुमने माना कि रुक सकता है तो फिर दुःख आ जायेगा ।

 

 

22-महान कौन होता है-

        किसी पद से आपकी नहीं बल्कि आप से पद की शोभा होती है ,और यह तभी होगा जब आपके काम महान और अच्छे होंगे । एक वे हैं जो इतिहास में नाम आने से महान कहलाते हैं,दूसरे बे हैं जिनके नाम से इतिहास अमर हो जाता है और वास्तव में वे ही महान होते हैं ।

 

 

23-जो सामने है वही सच है-

        मनुष्य जीवन तो जो आज और अभी है उसे कभी अतीत या भविष्य में न देखें ,जिसने जीवन को अतीत या भविष्य में देखा उसने तो जीवन जाना ही नहीं। ध्यान रखें कि जो सामने है वही सच है इसके बाद जोकुछ भी है वह सिर्फ सम्भावना है ।

 

 

24-जीवन चलने का नाम है-

        जीवन में सोते ही रहना कलयुग है,निद्रा से उठकर बैठना ही द्वापर है,और उठकर खडा हो जाना त्रेता युग है और चल पडना सतयुग है। इसलिए जीवन में चलते रहो-चलते रहो ।

 

 

25-धर्म जीवन की कला है-

        धर्म कोई पूजा-पाठ नहीं है,धर्म का मंदिर और मस्जिद से कोई लेना-देना नहीं है, बस धर्म तो है जीवन की कला है ।जीवन को कलात्मक ढंग से जिया जा सकता है,ऎसे प्रसादपूंर्ण ढंग से कि जीवन में हजार पंखुडियों वाला कमल खिल जाय कि जीवन में समाधि लग जाय, कोयल के समान गीत उठे ,ह्दय में ऎसी भाव –भंगिमाएं जगें जैसे मीरा का नृत्य पैदा हो जाय,चैतन्य के भजन बन जॉय ।

 

 

26-यथार्थ ज्ञान हमारी आत्मा में है –

        ज्ञान किताबों में नहीं होता, बल्कि यथार्थ ज्ञान तो हमारी आत्मा में विद्यमान है,पर कर्म–मैल ने उसे ढक रखा है । धर्मशास्त्र तो इस कर्म मैल को साफ करने में मार्गदर्शन का काम करते हैं सच्चा ज्ञान तो वही है जोआत्मा के सच्चे स्वरूप को जानें । जो ज्ञान चिन्ता को मिटाता है बस वही सुख का कारण है ।

 

 

27–जीवन का स्तित्व-

        हमारे जीवन का स्तित्व होना तो आत्मा की कमजोरी है अपने होने के कारण की खोज करने से ही जीवन की शुरूआत होती है । बस इसके बाद के प्रत्येक क्षण एक नईं खोज प्रारम्भ होती है प्रत्येक क्षण एक नया रहस्य लेकर सामने आयेगा,नई खुशी लेकर आयेगा ।एक नयॉ प्रेम पनपना शुरू होगा ,एक नईं किरण विकसित होगी कि जिनका अनुभव पहले कभी न हुआ होगा ।यहीं से अच्छाई और सौन्दर्य के प्रति नईं संवेदना विकसित होगी ।

 

 

28-बेइमान भी ईमानदार साथी चाहता है-

        जो लोग बेइमान होते हैं वे प्रत्यक्ष में ईमानदारी का समर्थक और प्रशंसक पाये जाते हैं,बेइमान व्यक्ति भी ईमानदार साथी चाहता है। प्रमाणिक व्यक्तियों की तो सर्वत्र मॉग है वे सिर्फ अपने आत्मीय परिजनों में ही सम्मान नहीं पाते बल्कि शत्रु तक उनकी सच्चाई एवं ईमानदारी की प्रशंसा किए बिना नहीं रहते ।

 

 

29–चरित्र और आनंद की अनुभूति –

        अच्छा आदमी बनने से सुख की प्राप्ति नहीं हो सकती है। अर्थात चरित्रहीन व्यक्ति कभी भी सही अर्थों में समृद्धिशाली नहीं बन सकता है ।सदाचार के विना आनंद और प्रशन्नता नहीं मिल सकती है ।यह भी सत्य है कि प्रकृति की हर वस्तु में परस्पर ईश्वरीय सम्बन्ध है,इसलिए जबतक आप इस तथ्य को नहीं समझ लेते और इसे स्वीकार नहीं कर लेते, इसे जीवन में मान्यता नहीं देते ,तबतक आनंद की खोज में आप सफल नहीं हो सकते ।

 

 

30-आप स्वयं शक्तिमान हो -

        यदि आप अपने जीवन में अतीत की घटनाओं को याद करो तो देखोगे कि आप सदैव व्यर्थ ही दूसरों से सहायता पाने की चेष्ठा करते रहे ,लेकिन कभी पा न सके ,जो कुछ आपने सहायता पाई है वह तो अपने अन्दर से ही थी ।यह कभी न कहें कि मैं नहीं कर सकता,इसलिए कि आप अनन्त स्वरूप हो आपकी जो इच्छा होगी वही कर सकते हो, आप तो शक्तिमान हैं ।

 

 

31-व्यक्ति से नहीं उसके जीवन से घृणा करें-

        जीवन में अनुकूलता और प्रतिकूलता में एक समान जीना ही त्याग है ,व्यक्ति सुन्दर नहीं होता उसका जीवन सुन्दर होता है ।व्यक्ति से घृणा न करते हुये उसके दुष्कर्म से घृणा करो,क्योंकि व्यक्ति मूल रूप से अच्छा ही है। उससे घृणा करके हम खुद दुखी हो जायेंगे।इन्सान ही इन्सान के काम आता है,अगर इन्सान दूसरे इन्सान की मदद नहीं करेगा तो और कौन करेगा ।

 

 

32-शक्ति जीवन और कमजोरी उसकी मृत्यु है -

        यह एक सच्चाई है कि मानव की शक्ति ही उसका जीवन है और उसकी कमजोरी ही उसकी मृत्यु है। शक्ति परम सुख और जीवन अजर- अमर है ।कमजोरी तो कभी न हटने वाला बोझ और यंत्रणा है,और कमजोरी मत्यु है ।

 

 

33-पहले आज को सवारें-

        हमारे जीवन का स्वर्णिम कल आज पर निर्भर है,यदि आपके मन में भविष्य को उज्वल करने की आकॉक्षा है तो पहले आज को संवारना होगा,क्योंकि स्वर्णिम भविष्य के महल की दीवार आज है ।आज को संवारो, आज को मत टालो । बुराई कल पर टालो ।भलाई को आज करने के लिए तत्पर हो जाओ।

 

 

34-हमारे अवगुंण-

        हमारे अऩ्दर गुंण होते हुये भी यदि एक अवगुंण है तो वह सारे गुँणों को ढक देता है। अपने अवगुंण तो अपने को ही तखलीफ देते हैं ।यदि हम दूसरों के अवगुंणों की चर्चा करते हैं,तो हम अपने ही अवगुणों को प्रकट करते है।

 

 

35-पाप क्या है-

        पाप एक दुर्भाव है,जिसके कारण हमारे आन्तरिक मन तथा अन्तरात्मा पर ग्लानि का भाव आता है ।जब हम कभी गन्दा कार्य करते हैं तो ह्दय में एक गुप-चुप पीडा का अनुभव होता रहता है,हारे मन का दिव्य भाग हमें प्रताडित करता रहता है,बुरा-बुरा कहता रहता है ।इसी आत्मभर्त्सना से मनुष्य पश्चाताप करने की बात सोचता है ।यह पाप पानी की तरह होता है,यह हमें नीचे की ओर खींचता है ।आप चाहे कितने ही प्रयत्न करें,आन्तरिक पाप से कलुषित मन स्पस्ट प्रकट हो जाता है।अवगुंण से तो मनुष्य की उच्च सृजनात्मक शक्तियॉ पंगु हो जाती हैं,बुद्धि और प्रतिभा कुण्ठित हो जाती है ।किसी भी स्थिति में पाप और द्वेष की प्रवृत्ति बुरी और त्यागने योग्य है ।।

 

 

36-गुनाह या पाप वह अग्नि है जो सुलगती रहती है-

        हम जो पाप या गुनाह करते हैं वे जलते हुये वे वस्त्र हैं जिन्हैं यदि छिपाकर रखा जाता है तो वह अग्नि अन्दर ही अन्दर सुलगती रहती है, और धीरे-धीरे समीप के वस्त्रों तथा अन्य वस्तुओं को भी जला डालती है ।सम्भवतः उस अग्नि का धुआं उस समय न दिखाई दे,लेकिन अदृश्य रूप में वह वातावरण में सदा मौजूद रहता है ।पाप या गुनाह की अग्नि ऐसी अग्नि है,जो अन्दर ही अन्दर मनुष्य में विकार उत्पन्न करती है,इस आन्तरिक पाप की काली छाया अपराधी के मुख,हाव-भाव,नेत्र,चाल-ढाल इत्यादि द्वारा अभिव्यक्त होती रहती है ।अपराधी या पापी चाहे कुछ भी समझता रहे वह अपराध को छिपाना चाहता है,परन्तु वास्तव में पाप छिपता नहीं है।मनुष्य का अपराधी मन उसे सदा व्यग्र,अशॉत और चिंतित रखता है ।।

 

 

37-पाप में प्रवृत्त मनुष्य के अंग-

        प्रायः मनुष्य के तीन अंग पाप में प्रवृत्त होते हैं ।शरीर,वॉणी,और मन ,इनके द्वारा किये गये पाप-कर्मों के नाना रूप होते हैं,इनसे बचे रहें।अर्थात शरीर वॉणी और मन का उपभोग करते हुये सचेत रहें ।कहीं ऐसा न हो कि आत्मसंयम में शिथिलता आ जाय और पाप पथ पग बढ जाय ।कभी-कभी हमें विदित नहीं होता कि हम कब गलत रास्ते पर चले जा रहे हैं । गुप-चुप पाप हमें बहा ले जाता है और हमें अपनी सोचनीय अवस्था का ज्ञान तब होता है जब हम पतित हो जाते हैं ।

 

 

38- पाप कर्म मनुष्य जीवन के लिए अभिशाप है -

        अपने शरीर के द्वारा अनुचित कार्य करना शारीरिक पाप है।इसमेंवे समस्त कुकृत्य हैं,जिन्हैं करने से ईश्वर के मंदिर रूपी इस मानव शरीर का क्षय होता है ।परिणॉम स्वरूप इस काया में नाना प्रकार के रोग उत्पन्न होते हैं, जिससे जीवित अवस्था में ही मनुष्य को कुत्सित कर्म की यन्त्रणॉयें भोगनीं होती हैं ।शरीर के पाप में हिंसा पहला पाप है ।इसमें इस शरीर का अनुचित प्रयोग किया जाता है ।उसे उचित अनुचित का विवेक नहीं रहता है,उसकी मुख मुद्रा में दानव जैसे क्रोध,घृणॉ और द्वैष की अग्नि निकलती है । इस प्रकार के लोगों में मानवोचित्त गुंण क्षय होकर राक्षसी प्रवृत्तियॉ उत्तेजित हो उठती हैं, मरणोंपरान्त भी उसकी आत्मा अशॉत रहती है ।

 

 

39- पाप कर्म कई रूपों में मनुष्य पर आक्रमण करता है-

        पाप कर्म ऐसी घृणित दुष्प्रवृत्ति है जो कई रूपों में और अवस्थाओं में मनुष्य पर आक्रमण किया करती है,इसलिए इससे सावधान रहने की आवश्यकता है ।कहते हैं मनुष्य के मन के एक अज्ञात कोने में शैतान का निवास होता है,मनुष्य उस पाप की ओर अज्ञानतावशः खिचता जाता है क्षणिक वासना या थोडे लाभ के अन्धकार में उसे उचित-अनुचित का विवेक नहीं रहता है ,वह अपना स्थाई लाभ नहीं देख पाता है और किसी न किसी पतन के ढालू मार्ग पर आरूढ हो जाता है ।।