Friday, January 23, 2015

हर रोज विचार करें तो प्रगति की ओर बढते जाओगे


            जो लोग आत्मसमीक्षा नहीं करते वे लोग कभी प्रगति नहीं कर सकते, क्योंकि दोष दुर्गुण आत्मसमीक्षा से ही पकड़े जाते हैं। आत्मसमीक्षा के बाद ही समाधान के बारे में सोचने का काम है। इसे बड़ी सावधानी से करने योग्य कार्य है। इसके लिए क्या करना चाहिए–
 
1-            दिन व्यतीत हो जाने पर रात्रि को जब बिस्तर पर जाएं तो दिन भर की मानसिक चिन्तन प्रणाली और शारीरिक गतिविधियों की निष्पक्ष समीक्षा करनी चाहिए। यदि असाधारण उत्कृष्ट कर्तव्य का परिचय दिया गया हो वहां अपने आत्मबल पर गर्व और संतोष अनुभव करना चाहिए और जहां चूक हुई तो उसके लिए पश्चाताप प्रायश्चित करते हुए अगले दिन वैसा करने की अपने आपको कड़ी चेतावनी देनी चाहिए।
 
2-            जिस प्रकार व्यापारी अपने बही खाते से यह अनुमान लगाते रहते हैं कि कारोबार नफे में चल रहा है या नुकसान में, ठीक इसी तरह अपनी भावना और क्रिया के जीवन व्यापार की गतिविधियों की समीक्षा करते हुये इस निष्कर्ष पर पहुंचना चाहिए कि हम ऊपर उठ रहे हैं या नीचे गिर रहे हैं।
 
3-            यदि उठ रहे हों तो उस उत्कर्ष की गति और भी तीव्र करने का उत्साह पैदा करना चाहिए और यदि पतन बढ़ रहा हो तो उसे
रोकने के लिए रुद्र रूप धारण करना चाहिए। गीता में भगवान ने आलंकारिक रूप से जिन कौरवों से लड़ने के लिए कहा था, वस्तुतः वे मनोविकार ही हैं। यह महाभारत हर व्यक्ति के जीवन में लड़ा जाना चाहिए। अपने दोष दुर्गुणों को निरस्त करने के लिए हर व्यक्ति को धनुष बाण संभालकर रखना चाहिए।
 
4-            भूलों के लिए पश्चाताप प्रार्थना भर पर्याप्त नहीं वरन् उसके लिए प्रायश्चित भी किया जाना चाहिए। छोटी भूलों के लिए छोटे शारीरिक दण्ड दिये जा सकते हैं, भोजन में कटौती, कान पकड़कर बैठक लगाना, कुछ समय खड़े रहना, देर तक जागना, चपत लगाना आदि दण्ड हो सकते हैं।
 
5-            यदि दूसरों को क्षति पहुँचाई गई है तो उसकी क्षति पूर्ति समाज की भलाई का कोई काम करके करना चाहिए। संसार में जो अंधेर, अविवेक और अनाचार चल रहा है, उसके प्रति आकर्षण नहीं, घृणा होनी चाहिए। उसे अपनाने के लिए नहीं, प्रतिरोध के लिए ही अपनी चेष्टा होनी चाहिए। व्यक्तित्व का निर्माण इसी प्रकार होगा।

 
 
 

प्रार्थना ऐसी हो जिसकी अनुभूति की जा सके

 

 

1-प्रार्थना करने की कोई विधि नहीं है-

              जी हॉ कुछ लोग प्रार्थना की विधियों का उल्लेख करते हैं, मगर प्रार्थना की कोई भी विधि नहीं हो सकती है। क्योंकि यह न कोई संस्कार है और न कोई औपचारिकता बस प्रार्थना ह्दय से निकलने वाला सहज स्वाभाविक उमडता हुआ एक भाव है। लेकिन इसमें पूछने वाली बात नहीं है कि कैसे?क्योंकि? यहॉ कैसे, जैसा कुछ भी नहीं है, कैसे जैसा कुछ भी हो सकता है। उस क्षण जो भी घटता है, वही ठीक है। अगर आंसू निकलते हैं तो अच्छा है,कोई गीत गाने लगता है तो भी ठीक है,अगर अन्दर से कुछ भी नहीं निकलता है तो शॉत खडे रहते हो,यह भी ठीक है।क्योंकि प्रार्थना कोई अभिव्यक्ति नहीं है,या किसी आवरण में भी वन्द नहीं है। प्रार्थना तो कभी मौन है,तो कभी गीत गाना प्रार्थना बन जाती है। यह तो सबकुछ तुम और तुम्हारे ह्दय पर निर्भर करता है।इसलिए अगर मैं तुमसे गीत गाने के लिए कहता हूं तो तुम गीत इसलिए गाते हो कि ऐसा करने के लिए मैंने तुमसे कहा,इसलिए यह प्रार्थना झूठी है।इसलिए प्रार्थना में अपने ह्दय की सुनो,और उस क्षण को महसूस करो और उसे होने दो। फिर जो कुछ भी होता है वह ठीक ही होता है।

2-प्रार्थना में अपने पर किसी की इच्छा मत लादो-

              प्रार्थना में कोई योजना बनाने की कोशिश कर रहे हो तो तुम प्रार्थना से चूक जाते हो।प्रार्थना पर अपनी इच्छा मत लादो,इसीलिए तो धार्मिक स्थल और धर्म संस्कार और कर्मकाण्ड बनकर रह गये हैं। उनकी तो पहले से ही तय की गई प्रार्थना होती है, उसका एक निश्चित रूप है,एक ही स्वीकृत किया गया है। जबकि प्रार्थना तुम्हारे अन्दर से उठती और उमगती है,प्रत्येक क्षण प्रत्येक चित्तवृत्त में उसकी अपनी निजी प्रार्थना होती है।इसे कोई नहीं जान सकता है कि तुम्हारे अन्दर के संसार में कल क्या घटने
वाला है।

3-परमात्मा की अनुभूति-

              वैसे प्रार्थना में प्रशन्नता की अनुभूति होती है लेकिन हमेशा प्रशन्न रहना भी जरूरी नहीं है कभी तुम उदासी अनुभव कर सकते हो,यह उदासी दिव्य होती है,यही तुम्हारी प्रार्थना होगी। उस स्थिति में तुम अपने ह्दय को रोने और विलखने दो,आंखों में आंसू वरसने दो।तब उस उदासी को ही परमात्मॉ को अर्पित कर दो।जो कुछ भी तुम्हारे ह्दय में है उस परमात्मां के चरणों में अर्पित कर दो-प्रशन्नता है या उदासी और कभी-कभी क्रोध या आक्रोश भी हो सकता है।

4-परमात्मा से नाराजी प्रेम का प्रतीक है-

              कभी तुम परमात्मा से नाराज भी हो सकते हो, यदि तुम कभी परमात्मां से नाराज नहीं हुये तो इसका मतलब तुमने परमात्मां को जाना ही नहीं।अगर कभी तुम उन्माद में होते हो तो तो उस समय उस क्रोध को ही प्रार्थना बन जाने दो।परमात्मा तुम्हारा है,और तुम परमात्मा के हो, इसलिए परमात्मा से लडो! प्रेम में तो सभी प्रकार के संघर्ष बने रह सकते हैं। यदि इसमें लडाई और संघर्ष का अस्तित्व न हो तो वह प्रेम है ही नहीं। इसलिए जब कभी प्रार्थना करना जैसा कुछ भी अनुभव न हो,तो तुम परमात्मा से कह सकते हो कि-सुनो जरा ठहरो, देखो मेरा मूढ ठीक नहीं है, और तुम जिस तरह से यह सबकुछ कर रहे हो, यह तुम्हारी प्रार्थना करने योग्य नहीं है!तुम अपने ह्दय का सहज स्वाभाविक भावोद्वेग बनने
दो।

5-परमात्मा के साथ अप्रमाणिक बनकर मत रहो-

              परमात्मा के साथ अप्रमाणिक बनकर रहना उचित नहीं है क्योंकि अस्तित्व में बने रहने के लिए ईमानदार या प्रमाणिकता का होना जरूरी है,तभी हम परमात्मा के साथ स्तित्व में बने रह सकते हैं।तभी परमात्मा हमारी शिकायत की ओर देखेगा, नकि प्रार्थना की ओर। अप्रमाणिकता झूठ है, हम किसे धोखा देने की कोशिश कर रहे हैं? हमारे चेहरे की मुस्कान परमात्मा को धोखा नहीं दे सकती,वास्तविक सत्य वह जान ही लेता है। केवल वही तो हमारे सत्य को जान सकता है,उसके सामने तो झूठ ठहर ही नहीं सकता है। इसलिए सत्य को बने रहने देना चाहिए। परमात्मा को केवल अपना सत्य ही भेंट करें और कह सकते हो कि- आज में तुमसे नाराज हूं, मैं तुमसे घृणॉ करता हूं, और तुम्हारी प्रार्थना भी नहीं कर सकता, इसलिए आज तुम्हैं मेरी प्रार्थना के विना ही रहना होगा। मैं आज तक बहुत सह चुका हूं,अब तुम सहो। परमात्मा से वैसी बात कर सकते हो जैसे तुम अपने प्रेमी या मित्र या मां के साथ बातचीत करते हो। उससे ऐसे बात करो जैसे किसी छोटे बच्चे के साथ बात करते हैं।

6-सभी धर्मों में परमात्मा को परम् पिता कहा गया है-

              परमात्मा के सामने तो हर मनुष्य एक बच्चे की भॉति है। इसलिए कि हम परमात्मा को परमपिता कहते हैं।लेकिन हम इस बात को भूल जाते हैं कि परमात्मा परमपिता है। हमें यह भूल जाना है कि वह तुम्हारा पिता है या नहीं है,बस तुम्हें उसके सामने एक बच्चे की भॉ़ति ही जाना होगा-सहज,सच्चे,स्वाभाविक और प्रामाणिक। किसी सी पूछो ही नहीं कि प्रार्थना कैसे की जाय? उस क्षण सत्य ही तुम्हारी प्रार्थना होनी चाहिए। उस क्षण का सत्य चाह् जैसा भी हो, बिना सर्त तुम्हारी प्रार्थना बन जानी चाहिए। और एक बार उस क्षण का सत्य तुम्हारी सम्पत्ति बन जाती है।तुम विकसित होना शुरू हो जाते हो।

7-प्रार्थना एक प्रेमी की भक्ति का मार्ग है-

              एक प्रेमी प्रेम के बन्धन में प्रेम करता है,किसी भी प्रकार से वह उससे बाहर नहीं आना चाहता है। उसकी केवल यही प्रार्थना रहती है कि उसे इस योग्य समझा जाना चाहिए कि परमात्मा उसे निरन्तर अपनी लीला में स्थान देता रहे।यह बहुत सुन्दर खेल है वह इससे मुक्त नहीं होना चाहता है।

8-ध्यान मार्ग बुद्धत्व से सम्बन्ध रखता है-

              ध्यान के मार्ग पर चलने वाले व्यक्ति के लिए प्रार्थना तो एक बन्धन है। अगर देखें तो महॉवीर ने कभी प्रार्थना नहीं की। बुद्ध ने भी कभी प्रार्थना नहीं की। बुद्ध के लिए तो प्रार्थना अर्थहीन थी। इसलिए यदि तुम बुद्ध बनना चाहते हो तो प्रार्थना करना ही नहीं,क्योंकि प्रार्थना एक बन्धन को निर्मित करता है। लेकिन यह बन्धन शुद्ध प्रेम का रूप है।यदि तुम उस मार्ग का चयन करते हैं तो ठीक है मगर इसके लिए बुद्धत्व का प्रयोग सही नहीं होगा।

9-सहायता लेना बन्धन है-

              एक बार एक लडका अपनी मॉ से मछली मारने के लिए जाने हेतु पूछता है,मॉ का कहना था कि,यदि तुम जाना ही चाहते हो तो पूछते क्यों? हो जाओ! क्योंकि पूछने से सहायता नहीं मिल सकती है बल्कि बन्धन मिलेगा तुम बँध जाओगे। इसलिए बुद्धत्व को उपलव्ध होना है तो तुम्हें बिल्कुल अकेले रहना होगा। तो फिर वहॉ कोई भी परमात्मॉ नहीं होगा। कोई भी ऐसा नहीं कि जो तुम्हारी सहायता कर सके। क्योंकि अगर तुम किसी की सहायता चाहते हो तो वह बन्धन बन जायेगा। अर्थात यदि मैं तुम्हें मुक्त होने में सहायता करता हूं तो तुम मुझपर आश्रित होने लग जाओगे, तब बिना मेरे मुक्त किये तुम समर्थ हो सकोगे।और ध्यान के मार्ग पर सहायता करना सम्भव नहीं होगा। केवल संकेत मिल सकते हैं। बुद्ध तो केवल मार्ग दिखाता है,बुद्ध की विधि में तो कोई सहायता नहीं कर सकता है। तुम्हें स्वयं अपने पथ पर आगे बढना होगा।अपना प्रकाश स्वयं बनना होगा

आप अच्छा या बुरा किसे कहेंगे

 
            आप क्या सोचते है,अच्छा आदमी किसी को नुकसान नहीं पहुंचा सकता। दरअसल अच्छा आदमी समाज और दुनिया को सबसे अधिक नुकसान पहुंचाता है। वैसे आप अच्छा या बुरा किसे कहेंगे।अच्छे लोगों के ऐसे ही कर्मों से होता है नुकसान ।


एक ही शादी पर टिका रहने वाला बुरा आदमी-




        बुरे आदमी को मैं,शराब पीता हो इसलिए बुरा नहीं कहता। शराब पीने वाले अच्छे लोग भी हो सकते हैं।शराब पीने वाले बुरे लोग भी हो सकते हैं।या बुरा आदमी इसलिए कहता, कि उसने किसी को तलाक देकर दूसरी शादी कर ली हो। दस शादी करने वाला भी अच्छा आदमी हो सकता है। एक ही शादी पर जन्मों तक टिका रहने वाला आदमी भी बुरा हो सकता है।

 

        मैं बुरा आदमी उसको कहता हूं जिकसी मनोग्रंथि हीनता की है, जिसके भीतर इनफीरि यॉरिटी का कोई बहुत गहरा भाव है। ऐसा आदमी खतरनाक है, क्योंकि ऐसा आदमी पद को पकड़ेगा, जोर से पकड़ेगा, किसी भी कोशिश से पकड़ेगा, और किसी भी कीमत, किसी भी साधन का उपयोग करेगा।
 

 

अच्छे आदमी कर जाते हैं यह गलती----


 
        हिंदुस्तान में अच्छा आदमी वही है,जो न इनफीरियॉरिटी से पीड़ित है और न सुपीरियॉरिटी से पीड़ित है। अच्छे आदमी की मेरी परिभाषा है,ऐसा आदमी, जो खुद होने से तृप्त है,आनंदित है। जो किसी के आगे खड़े होने के लिए पागल नहीं है,और किसी के पीछे खड़े होने में जिसे अड़चन,कोई तकलीफ नहीं।जहां भी खड़ा हो जाए वहीं आनंदित है। ऐसा अच्छा आदमी राजनीति में जाए तो राजनीति शोषण न होकर सेवा बन जाती है।



        लेकिन भारत का अच्छा आदमी हमेशा से देश और समाज को नुकसान पहुंचाता रहा है। क्योंकि हिंदुस्तान के अच्छे आदमी भगोड़े रहे हैं। हिन्दुस्तान ने उनको ही आदर दिया है जो भाग जाए। कोई भी नहीं जानता कि अगर बुद्घ ने राज्य न छोड़ा होता,तो दुनिया का ज्यादा हित होता या छोड़ देने से ज्यादा हित हुआ। गांधी जी ने भी देश को आजाद करवाया और आजदी के बाद खुद राजनीति से हट गए।



        यह परंपरा है हमारी कि अच्छा आदमी हट जाए। लेकिन हम कभी नहीं सोचते कि अच्छा आदमी हटेगा तो जगह खाली नहीं रहेगी।खाली जगह को बुरा आदमी भर देता है। यही कारण है
कि भारत की राजनीति में बुरे आदमी तीव्र संलग्नता से उत्सुक रहते हैं।

धार्मिक चिंतन- विज्ञान और प्रामाणिकता के रूप में

              इस पृथ्वी पर मनुष्य को सिर्फ वही ज्ञान रहता है जो उसे दिखाई देता है,और जिसे वह अनुभव करता है,शेष इस संसार के सूक्ष्म क्रियाकलापों के प्रति जो कि हर समय होते रहते है के प्रति वह वह जानकारी तो रखता है मगर अप्रामाणिक होते हैं। विज्ञान की परिभाषा यदि सही अर्थों में समझ ली जाय तो धर्म, अध्यात्म को विज्ञान की एक उच्चस्तरीय विधा के रूप में माना जाएगा।
 
                   धर्म और विज्ञान को एक दूसरे का विरोधी न मान कर उन्हें एक दूसरे का पूरक समझना चाहिए। धर्म और अध्यात्म का नियंत्रण भावनात्मक क्षेत्र पर हैं उसके आधार पर ही चिंतन का परिष्कार होता है। इसलिए महत्त्व इसी बात पर दिया जाना चाहिए कि विचार पद्धति अध्यात्म के अंकुश तले विनिर्मित हो।
 
                  इतना भर जान लेने से वे सारे विरोधाभास मिट जायेंगे जो विज्ञान और अध्यात्म के बीच बताए जाते हैं। बंधनमुक्ति कैसे हो, माया किसे मानें और जो दीख पड़ता है, वह भी सत्य है, यह कैसे जाने? यदि आज की मूढ़ मान्यताओं, अंधविश्वासों, प्रथा-परंपराओं, कुहासे में घिरे धर्म को विज्ञान का पुट देकर स्वच्छ छवि दी जा सके तो जो भी कुछ आज अज्ञान के रूप हमें समक्ष विज्ञान के ढकोसले में दिखाई देता है, वह स्पष्ट समझ में आने लगेगा।
 
                  विज्ञान पर यदि अध्यात्म रूपी संवेदना के समुच्चय तत्त्वज्ञान की जब तक नकेल नहीं कसी जाए,चो वह स्वच्छंद हो जाएगा। वैसे यह गलत भी नहीं है। ऐसा होता हुआ हम दैनिक जीवन में प्रति पल देख रहे हैं। सौरमण्डल का ही एक अंग हमारी पृथ्वी है। अनेक सौरमण्डल इस सृष्टि में हैं, उसमें हमारी आकाश गंगा के एक सूर्यमण्डल में क्या इसी ग्रह में सुविकसित सभ्यता है या कहीं और भी है?
 
                 उस विराट में ही ईश्वरीय सत्ता ज्वाला के रूप में विद्यमान है एवं आत्मा एक चिनगारी के रूप में उसका एक घटक है। हर जीवात्मा को ब्रह्म से साक्षात्कार करने की अभीप्सा रखते हुए समर्थ सत्ता को खोजने का प्रयत्न करना चाहिए। यहां जो कुछ भी दिखाई दे रहा है, वह व्यवस्थित व नियमबद्ध किस प्रकार है, इसे भली भाँति प्रमाणित करना चाहिए। तथाकथित प्रत्यक्ष पर विश्वास करने वाले विज्ञान की अपूर्णता एवं अस्थिरता को ध्यान में रखकर भी अध्यात्म को समझना चाहिए। अध्यात्म को भी विज्ञान की कसौटी पर सही साबित होना चाहिए।


 

जिस रास्ते पर चले थे वहीं पहुंचे



                  हम जिस रास्ते पर चले थे वहीं पहुंचे,  हम ऐसा कुछ भी करते हैं जिससे दुख फलित होता है तो हम अपने मित्र नहीं कहे जा सकते। स्वयं के लिए दुख के बीज बोने वाला व्यक्ति तो अपना शत्रु है।
 
                और हम सब स्वयं के लिए दुख के बीज बोते हैं। निश्चित ही, बीज बोने में और फसल काटने में बहुत वक्त लग जाता है। इसलिए हमें याद भी नहीं रहता कि हम अपने ही बीजों के साथ की गई मेहनत की फसल काट रहे हैं।
 
                अक्सर फासला इतना हो जाता है कि हम सोचते हैं, बीज तो हमने बोए थे अमृत के,लेकिन न मालूम कैसा दुर्भाग्य था कि फल जहर का और विष का प्राप्त हुवा हैं! लेकिन इस जगत में जो हम बोते हैं, उसके अतिरिक्त हमें कुछ भी न मिलता है।
 
                 हम वही पाते हैं, जो हम अपने को निर्मित करते हैं। हम वही पाते हैं, जिसकी हम तैयारी करते हैं। हम वहीं पहुंचते हैं, जहां की हम यात्रा करते हैं। हम वहां नहीं पहुंच सकते, जहां की हमने यात्रा ही न की हो। यद्यपि हो सकता है, यात्रा करते समय हमने अपने मन में कल्पना की मंजिल कोई और बनाई हो। रास्ते को इससे कोई प्रयोजन नहीं है।

Thursday, May 30, 2013

संजीवनी पथ

                 http://raghubirnegi.wordpress.com/author/raghubirnegi/
                                                            http://bookdotwordpressdotcom.wordpress.com/
1- ज़रा अपनी ओर देखो| कितने दोष हैं तुममें! प्रकृति ने, ईश्वर ने तुम्हें सभी दोषों के साथ भी स्वीकार कर लिया है| उसने तुम्हें अपनी बाहों में ले लिया है| वह कभी नहीं कहती, "तुमने आज बहुत बुरा बर्ताव किया, मुझे बुरा भला कहा, मैं तुममें श्वास नहीं जाने दूँगी| तुम्हारा दिल धड़काना बंद कर दूँगी|" प्रकृति कभी तुम्हें आंककर तुम पर निर्णय नहीं लेती|
 

2-एक अंकुर फूटकर पुष्प हो जाता है| एक दिल टूटकर दिव्य हो जाता है।
 

3-कठोर शब्द मत कहो, शब्दों से चोट मत पंहुचाओ क्योंकि ईश्वर हर दिल में बसते हैं।
 

4- यदि तुम पहचानते हो कि तुममें अहंकार है, उससे छुटकारा पाने की चेष्टा न करो, उसे जेब में रखो। यदि उससे छुटकारा पाने की चेष्टा करोगे तो वह एक बड़े अहंकार का कारण हो सकता है। अहंकार की एकमात्र दवा सहजता है। तुम अहंकार से छुटकारा इसलिए चाहते हो क्योंकि वह दूसरों से अधिक तुम्हें परेशान कर रहा है। तो यदि तुम्हें स्वयं में अहंकार दिखे, उसे रहने दो। वह आता है, तो आने दो।

 
5- तुम जिसका भी सम्मान करते हो, वह तुमसे बड़ा हो जाता है| यदि तुम्हारे सभी सम्बन्ध सम्मान से युक्त हैं, तो तुम्हारी अपनी चेतना का विकास होता है| छोटी चीज़ें भी महत्त्वपूर्ण लगती हैं| हर छोटा प्राणी भी गौरवशाली लगता है| जब तुममें सरे विश्व के लिए सम्मान है, तो तुम ब्रह्माण्ड के साथ लय में हो


6- कृतज्ञ हो जाओ अपने अस्तित्व, अपने शरीर, जो कुछ तुम्हें मिला है, जितना प्रेम तुम्हें मिला है उसके लिए। यह कृतज्ञता तुमपर समृद्धि और आनंद की वर्षा कर देगी।
 

7- एक दूसरे के प्रति भगवान बन जाओ। भगवान को आकाश में मत ढूँढो, भगवान को नयनों के हर जोड़े में, पर्वतों में, वृक्षों में, पशुओं में देखो। कैसे? जब तुम स्वयं में भगवान को देखो। केवल भगवान ही भगवान की पूजा कर सकते हैं।

 
8- तुम एक आज़ाद पंछी हो, पूरी तरह खुले हुए| उड़ना सीखो| यह तुम्हें अपने भीतर ही अनुभव करना होगा| यदि तुम स्वयं को बाध्य समझते हो, तो तुम बंधन में ही रहोगे| तुम मुक्ति का अनुभव कब करोगे? इसी क्षण मुक्त हो जाओ| बस बैठो और तृप्त हो जाओ| थोड़ा समय ध्यान और सत्संग में बिताओ जिससे तुम्हारा अंतरात्म चुनौतियों से जूझने के लिए दृढ़ हो जाये।
 

9- अहंकार पूर्णतः बुरा नहीं होता। उसका एक सकारात्मक पहलू भी है। अहंकार तुम्हें कर्म करने के लिए प्रेरित करता है। एक व्यक्ति कोई कर्म या तो दया से करेगा या अहंकार से, और समाज में अधिकतर कर्म अहंकार से होता है। ऐसा होने पर भी, अहंकार भिन्नता और अलगाव की भावना है। वह सिद्ध करने और अधिकार जमाने की इच्छा करता है और कर्तापन की परछाईं है। वह स्वयं में न अच्छा है न बुरा। वह केवल जो है वही है।
 

1o- जागो और देखो, क्या सच में तुम्हारा नियंत्रण है? किसपर तुम्हारा नियंत्रण है? संभवतः जाग्रत अवस्था के एक छोटे से भाग पर! निद्रा या स्वप्न अवस्था में तुम्हारा नियंत्रण नहीं है। अपने विचारों या भावनाओं पर तुम्हारा नियंत्रण नहीं है। उन्हें प्रकट करने या न करने का निर्णय तुम्हारा है पर वे तुम्हारी अनुमति लेकर नहीं आते। चाहे तुम यह जानो या न जानो, पर जब तुम अपना नियंत्रण छोड़ देते हो, तभी तुम विश्राम कर पाते हो।
 

11- जब तुम अपना दुःख बांटते हो, तो वह कम नहीं होता, पर जब तुम अपनी प्रसन्नता नहीं बांटते, तो वह कम हो जाती है। अपनी समस्याएं केवल इश्वर के साथ बांटो - किसी और से बांटने से वे केवल बढती ही हैं। अपना आनंद सब के साथ बांटो।

 
12- जब तुम जीवन में कठिनाई का सामना करते हो, तुम्हारी शांति और स्थिरता तुम्हारी श्रद्धा पर निर्भर करता है। श्रद्धा न होना ही दुखदायी है; श्रद्धा तुरंत सांत्वना देती है। यद्यपि बुद्धि तुम्हें संतुलित रखती है, श्रद्धा के बिना कोई चमत्कार नहीं हो सकता। वह तुम्हें सीमाओं के परे ले जाती है। श्रद्धा से तुम प्रकृति के नियमों को भी पार कर जाते हो, पर वह शुद्ध होनी चाहिए। श्रद्धा है यह जानना कि तुम्हें जो भी आवश्यकता है, तुम्हें मिलेगा। ईश्वर को कुछ करने का अवसर देना श्रद्धा है।

 
'13- Ra' means Radiance; 'Ma' means myself. 'Rama' means ‘the Light inside me’. Happy Ram Navami!'रा' का अर्थ है 'प्रकाश'। 'म' का अर्थ है 'मैं'। 'राम' का अर्थ है 'मुझमें जो प्रकाश है'। राम नवमी पर सबको आशीर्वाद और शुभकामनायें।


14- अपनी गलती का बोध तुम्हें तब होता है जब तुम निर्दोष होते हो। जो भी गलती हुई, स्वयं को दोषी मत ठहराओ, क्योंकि वर्तमान क्षण में तुम पुनः नवीन, शुद्ध और निर्मल हो। गलतियां भूतकाल की होती हैं। जब यह ज्ञान तुम्हें होता है, तब तुम पुनः पूर्ण हो जाते हो।
 

Tuesday, April 16, 2013

पूर्णता के तत्व

1-हंसना सच्ची प्रार्थना है-
           यदि आपका कभी ईश्वर से मिलना हो तो जानते है आप उन्हें क्या कहेंगे? ‘‘अरे! मैं तो अपने भीतर आपसे मिल चुका हूं। आपको मालूम है कि-‘‘ईश्वर आप में नृत्य करते हैं उस दिन जिस दिन आप हंसते और प्रेम में होते हो। सुबह तो हंसना ही सच्ची प्रार्थना है। दिखाने का हंसना नही बल्कि अंदर की गहराई से हंसना। हंसना आपके भीतर से आपके हृदय से आती है। सच्ची हंसी ही सच्ची प्रार्थना है। जब आप हंसते हो तो सारी प्रकृति आपके साथ हंसती है। यही हंसी प्रतिध्वनि होती है और गूंजती है, यही वास्तविक जीवन है। जब सब कुछ आपके अनुसार हो रहा हो तो कोई भी हंस सकता है, लेकिन जब आपके विपरीत हो रहा हो और आप हंस सके तो समझो विकास हो रहा है। आपके जीवन में आपकी हंसी से मूल्यवान और कुछ नही। चाहे जो भी हो जाये इसे खोना नही है।

           घटनाएं तो जिन्दगी में आती हैं और जाती है। कुछ तो सुखद होगी और कुछ दुखद, लेकिन जो कुछ भी हो आप को वे छु न न सकें। आपके अस्तित्व के भीतर ऐसा कुछ है जो कि अनछुआ है। उस पर ही रहे जो अपरिवर्तनशील है। तभी आप हंसने के योग्य होंगे। हंसने में भी भेद है। कभी-कभी आप अपने आप को नही देखने के लिये या कुछ सोचने से बचने के लिये हंसते हो। लेकिन जब आप हर क्षण यह देखते हो और अनुभव करते हो कि जीवन हर क्षण है और जीवन का हर क्षण अपराजेय है तो आपको कोई परेशान नही कर सकता।

           आपने एक नवजात हो देखा होगा, छ माह का या एक वर्ष का। जब वे हंसते हैं तो उनका पूरा शरीर हिलता और कूदता है। उनकी हंसी उनके मुंह से ही नही आती, उनके शरीर का हर एक कण हंसता है। यह समाधि है। यह हंसी अबोध है, शुद्ध है, बिना किसी तनाव की है। हंसी हमें खोलती है, हमारे दिल को खोलती है। और जब हम इस अबोधता को प्राप्त नही हो पाते तो क्या करे? आप पूछे -‘‘मैं उस मुक्ति को या अबोधता को अनुभव नही कर पा रहा हूं। मैं क्या करुं? ‘‘ आपके अस्तित्व के कई स्तर हैं। पहला, शरीर- ध्यान रखे कि आपने पूरा विश्राम किया है, सही भोजन किया है और कुछ व्यायाम किया है। फिर श्वास पर ध्यान दें।

         श्वास की अपनी एक लय है। मन की प्रत्येक स्थिति के लिये श्वास की एक निश्चित लय है। श्वास की उस लय को प्राप्त करके तन और मन दोनो को ऊपर उठाया जा सकता है। तब आप उन धारणाओं और विचारों को देखें जो कि आप मन में सदैव बने रहते हैं। अच्छे, बुरे, सही, गलत, ऐसा करना चाहिये, ऐसा नही करना चाहिये ये सब आपको बांध लेते हैं। हर विचार किसी ना किसी स्पंदन या भावना से जुड़ा है। स्पंदनों को देखें और शरीर में अनुभव को देखें। भावना की लय को देखें- यदि आप देखेंगे तो आप कोई गलती नही करेंगे। आप के पास एक ही तरह की भावनाओं का पथ है, लेकिन आप इन भावनाओं को अलग कारणों से, अलग-अलग वस्तुओं से, अलग अलग लोगों से, स्थितियों-परिस्थितियों से जोड़ लेते हो।

           एक विचार को विचार के रुप में ही देखें, एक भावना को भावना के रुप में ही देखे तब आप खुल जायेगें, अपने आप में ईश्वरत्व को देख पाएंगे। देखना इन्हें अलग-अलग परिणाम देता है। जब आप नकारात्मकता को देखते हैं तो ये तुरंत समाप्त हो जाती है और जब आप सकारात्मकता को देखते हैं तो वे बढ़ने लगती हैं। जब आप क्रोध को देखेंगे तो यह समाप्त हो जाएगा और जब आप प्रेम को देखेंगे तो यह बढ़ जायेगा।

           यही सर्वोत्तम और एकमात्र उपाय है। आने वाले हर विचार को देखें और उन्हें जाते हुये देखें। नकारात्मक विचारों के आने का एकमात्र कारण तनाव है। यदि आप किसी दिन बहुत तनाव में हों तो उसके अगले दिन या उस से अगले दिन आप में नकारात्मक विचार आने लगेंगे और आप परेशान हो जाएंगे। इन विचारों से, जिनका कोई अर्थ नही है, पीछा छुड़ाने के स्थान पर आप उन बिंदुओं को, कारणों को खोजें जिनके कारण ये विचार आ रहे हैं। यदि स्रोत स्वच्छ है तो मात्र सकारात्मक विचार ही आएंगे। यदि नकारात्मक विचार आते है तो आप ये मान ले, ‘‘तो क्या।‘‘ वे आयेंगे और तुरंत गायब हो जाएंगें। हमें जो जैसा है उसे वैसा ही देखने की आवश्यकता है, विषय और पूर्णता के साथ। यह जीवन के लिये सारभूत है। जब आप में ऐसा होने लगे तो आपके जीवन में सही अर्थों में हंसी जन्म लेती है।

2-शब्दों का उद्देश्य मौन बनाना है शोर नहीं-
           वैशाख माह की पूर्णिमा को बुद्ध को जब बोध प्राप्त हुआ था तो ऐसा कहा जाता है कि वे एक सप्ताह तक मौन रहे। उन्होनें एक भी शब्द नहीं बोला। पौराणिक कथायें कहती हैं कि स्वर्ग के सभी देवता चिंता में पड़ गये। वे जानते थे कि करोड़ों वर्षों में कोई विरला ही बुद्ध के समान ज्ञान प्राप्त कर पाता है। और वे अब चुप हैं!

           देवताओं नें उनसे बोलने की विनती की। महात्मा बुद्ध ने कहा, ''जो जानते हैं, वे मेरे कहने के बिना भी जानते हैं और जो नहीं जानते है, वे मेरे कहने पर भी नहीं जानेंगे। एक अंधे आदमी को प्रकाश का वर्णन करना बेकार है। जिन्होनें जीवन का अमृत ही नहीं चखा है उनसे बात करना व्यर्थ है, इसलिए मैनें मौन धारण किया है। जो बहुत ही आत्मीय और व्यक्तिगत हो उसे कैसे व्यक्त किया जा सकता है? शब्द उसे व्यक्त नहीं कर सकते। शास्त्रों में कहा गया है कि, "जहाँ शब्दों का अंत होता है वहाँ सत्य की शुरुआत होती है''।

           देवताओं ने उनसे कहा, ''जो आप कह रहे हैं वह सत्य है परन्तु उनके बारे में सोचें जो सीमारेखा पर हैं, जिनको पूरी तरह से बोध भी नहीं हुआ है और पूरी तरह से अज्ञानी भी नहीं हैं। उनके लिए आपके थोड़े से शब्द भी प्रेरणादायक होंगे, उनके लाभार्थ आप कुछ बोलें और आपके द्वारा बोला गया हर एक शब्द मौन का सृजन करेगा''।

           शब्दों का उद्देश्य मौन बनाना है। यदि शब्दों के द्वारा और शोर होने लगे तो समझना चाहिए, वे अपने उद्देश्य को पूरा नहीं कर पा रहे हैं। बुद्ध के शब्द निश्चित ही मौन का सृजन करेंगे, क्योंकि बुद्ध मौन की प्रतिमूर्ति हैं। मौन जीवन का स्त्रोत है और रोगों का उपचार है। जब लोग क्रोधित होते हैं तो वे मौन धारण करते है। पहले वे चिल्लाते हैं और फिर मौन उदय होता है। जब कोई दुखी होता है, तब वह अकेला रहना चाहता है और मौन की शरण में चला जाता है। उसी तरह जब कोई शर्मिंदा होता है तो भी वह मौन का आश्रय लेता है। जब कोई ज्ञानी होता है, तो वहाँ पर भी मौन होता है।

           अपने मन के शोर को देखें। वह किसके लिए है? धन? यश? पहचान? तृप्ति? सम्बन्धों के लिये? शोर किसी चीज़ के लिए होता है; और मौन किसी भी चीज़ के लिए नहीं होता है। मौन मूल है; जबकि शोर सतह है।

Thursday, April 4, 2013

साधना का पथ

1-जीवन का संचालन सहयोग से न कि संघर्ष से-
 
          मानव जीवन के आधार के सम्बन्ध में कई विद्वानों ने अपने-अपने सिद्धान्त प्रस्तुत किये, जैसे चार्ल्स
डार्विन का सिद्धान्त,या फ्रिंस क्रोपाटकिन का मनोविश्लेषण जिनमें जीवन के संघर्षों के आधार की विवेचना है, मगर हमारा मानना है कि इस जीवन में कोई भी संघर्ष नहीं है बल्कि जीवन का संचालन होता है एक सहयोग से,परस्पर सहयोग से। जिस चीज का प्रयोग हम करते हैं वह हमें हमारे कार्य में सहयोग देती है,जैसे हम पेड से सेव निकालते हैं और उसे खाते हैं तो वह सेव सेव हमें सहयोग देता है।जब हम उसे खाते हैं तो हमारे शरीर के निर्मॉण में कार्य करता है। उसी प्रकार एक शेर किसी पशु का शिकार कर उसे अपने आहार में प्रयोग करता है,और फिर शेर सन्तुष्ट होता है। अगर जीवन संघर्ष होता जैसे कि डार्विन कहते हैं,  शेर द्वारा इस शिकार को खाने पर शेर के पेट में यह शिकार मुशीवत खडी कर देता। यह शिकार उस शेर को अपने मॉश को हजम करने की अनुमति नहीं देता। या सेव खाने से विकार उत्पन्न हो जाता।डार्विन का कहना है कि अगर दो मित्रों में घनिष्ठ दोस्ती है,वे दोनों एक दूसरे के लिए मर मिटने को तैयार रहते हैं तो यह सिर्फ एक बहाना है। अपनी गहराई में यह एक संघर्ष,युद्ध,प्रतियोगिता और ईर्ष्या है। यह धारणॉ उपयुक्त प्रतीत नहीं होती है,हो सकता है यह घटना उनके साथ घटी हो।

 
2-बच्चे का पोषण-
 
          अगर दर्शनशास्त्र का अध्ययन करें तो पायेंगे कि एक दार्शनिक द्वारा जो कुछ भी लिखा जाता है वह उसके अनुभवों पर आधारित होता है- कि यदि बच्चा अपनी मॉ के गहरे प्रेम में रहा है और मॉ ने भी उसपर अपना प्रेम बरसाया है तो इसी से भविष्य के लिए विश्वास का प्रारम्भ हो सकेगा।फिर यह बच्चा स्त्रियों के साथ प्रेमपूर्ण सम्बन्ध बनायेगा,अपने मित्रों के साथ प्रेमपूर्ण होगा,और एकदिन सद्गुरु को समर्पण करने में सफल रहेगा- और अंतिम रूप से उस परमात्मा में घुलमिलकर एक हो जाने में सफल हो सकेगा।लेकिन यदि बालक के मूल सम्बन्ध ही से चूक हो गयी तो बुनियाद ही खोखली हो जायेगी। फिर कठोर प्रयास करना होग। जिससे जीवन अधिक से अधिक कठिन होता जाता है।


 
 
3-श्रद्धा के पालन से जीवन का पोषण होता है-
 
          हमारे जीवन को सुगम बनाने के लिए श्रद्धा आवश्यक है,इसलिए कि श्रद्धा से जीवन का पोषण होता है,सूक्ष्म पोषक तत्व। यदि तुम श्रद्धा नहीं कर सकते हैं तो इसका मतलव हुआ कि तुम जीवन्त नहीं हो।तुम सदा भयग्रस्त रहते हो,तुम चारों ओर मृत्यु से घिरे रहते हो। लेकिन अगर तुम्हारे अन्दर गहरा विश्वास है तो फिर पूरा दृष्य ही बदल सकता है। इस स्थिति में कोई संघर्ष ही नहीं रहता,फिर तुम साश्वत अपने घर में रहते हो,यह संसार तुम्हारा ही तो है,तुम्हारे होने से यह संसार प्रशन्न है,यह संसार तो तुम्हारी रक्षा कर रहा है,और गहरी सुरक्षा का अहसास तुम्हैं देता है और तुम्हैं अनजाने रास्ते पर चलने के लिए प्रेरित करता है।इसलिए श्रद्धा को जीवन का आधार स्वीकार करना होगा,यह सफल जीवन का मूल मंत्र है। पहले दो फिर मिलेगा।जीवन में हर व्यक्ति को श्रद्धा की जरूरत होती है,जो व्यक्ति श्रद्धा नहीं करता है,उसके लिए तो इसकी नितान्त आवश्यकता है। और जो व्यक्ति श्रद्धा कर सकता है वह इसकी जरूरत के प्रति सजग नहीं रहता है। इसकी जरूरत तभी होती है जब तुम भूखे होते हो।

 
4-बचपन के प्रेम से आपमें विश्वास बढता है-
 
अगर बचपन में आपके ऊपर प्रेम की वर्षा अधिक हुई है तो आप स्वयं अपने बारे में सुन्दर छवि बना लेते हैं।यदि आपके माता-पिता एक दूसरे से गहरा प्रेम करते हैं,तुम्हैं पाकर बहुत खुश रहते हैं, क्योंकि तुम उनके प्रेम की चरम सीमा हो। आप उनके संगीत की धुन और गीत हो। इसका साक्षी सिर्फ आप हैं कि उन दोनों में कितना प्रेम रहा होगा। आप जैसे भी रहे हों,वे आपको देखकर प्रशन्नता का अनुभव करते हैं।वे प्रेमपूर्ण तरीके से आपकी सहायता करते हैं। यदि कभी वे किसी काम को करने के लिए मना करते हैं तो आपका ह्दय न तो दुखता है और न आप अपमान का अनुभव करते हैं। यही अनुभव तो आपको होता है कि आपके बारे में परवाह की जा रही है। लेकिन अगर आप उनका प्रेम नहीं पाते हैं और फिर कहते हैं इस काम को करो तो धीरे-धीरे बच्चा यह करना सीखता है। लेकिन उस समय आप जिस रूप में है उस रूप में स्वीकार नही किया जाते। और जब आप कुछ विशिष्ठ काम करते हैं, तभी आपको प्रेम किया जाता है।अगर आप विशिष्ठ कार्य नहीं करते हैं तो आपको प्रेम नहीं मिलता है। और यदि आप उनके मन के अनुसार कार्य नहीं करते हैं तो आपसे घृणॉ की जाती है। आपको सशर्त प्रेम मिलता है,इसलिए कि श्रद्धा खो गई है।उस स्थिति में आप कभी भी अपनी छवि बनाने में समर्थ नहीं हो सकोगे। क्योंकि वे मॉ की आंखें हैं,जिनमें पहली बार आप प्रतिबिम्बित होते हैं,प्रशन्नता,अनुग्रह,भावना और परमानन्द के रूप में इसलिए कि आप उसके लिए मूल्यवान हो,और स्वाभाविक रूप से उसकी दृष्टि तुम्हारा कुछ मूल्य है।फिर श्रद्धा और समर्पण होना आसान हो जाता है।

 
5-झुकना श्रेष्ठता का प्रतीक है-
 
            कुछ लोग होते हैं जो आलोचना पसन्द नहीं करते हैं वे, यह नहीं चाहते हैं कि कोई उनसे कहे कि इस काम को करो। वे लोग किसी के सामने समर्पण नहीं कर सकते,इसलिए कि वे स्वयं को शक्तिशाली समझते हैं। इस प्रकार के लोग मानसिक रोगी होते हैं। जबकि समर्पण केवल शक्तिशाली स्त्री,पुरुष ही कर सकते हैं,दुर्वल व्यक्ति कभी भी समर्पण नहीं कर सकता है। क्योंकि वे सोचते हैं कि समर्पण करने से उनकी दुर्वलता सारे संसार में प्रकट हो जायेगी,वे दुर्वल हैं,जिसे वे भलीभॉति जानते हैं,जिस कारण वे झुक नहीं सकते हैं,ऐसा करना उनके लिए कठिन कार्य है। झुकने का अर्थ यह स्वीकार करना होगा कि वे हीन हैं। केवल श्रेष्ठ व्यक्ति ही झुक सकता है। ऐसे लोक किसी दूसरे का सम्मान भी नहीं कर सकते हैं,क्योंकि वे तो स्वयं का सम्मान नहीं करते हैं। वे तो यह भी नहीं जानते कि सम्मान होता क्या है। वे तो सम्मान से हमेशा भयभीत रहते हैं,वे सोचते हैं कि-समर्पण का अर्थ है उनमें दुर्वलता का होना।
 
            हमें इस बात को ध्यान में रखना होगा कि समर्पण तभी हो सकता है जब तुम अत्यधिक शक्तिशाली हो,इस सम्बन्ध में तुम्हैं कोई चिन्ता नहीं है इसलिए कि तुम समर्पण कर सकते हो,फिर तुम दुर्वल नहीं हो सकते। वे अपनी संकल्पशक्ति नहीं खोते,समर्पण के द्वारा तुम यह दिखला रहे हो कि तुम्हारे पास महान संकल्पशक्ति है।

 
6-स्वयं में सुधार के लिए अतीत की गहराई में पहुंचें-
 
            अगर तुम यह अनुभव करते हो कि श्रद्धा करना कठिन है,तो इसके लिए तुम्हैं अपनी स्मृतियों की गहरी गोद में जाना होगा,अपने अतीत में लौटना होगा।अपने मन से अतीत के प्रभावों को साफ करना होगा।तुम्हारे पास अतीत के कूडे कर्कट का जो एक बडा ढेर है,तुम्हैं उस भार से मुक्त होना होगा। इसके लिए तुम्हें लौटकर वापस अपने उस जीवन में आना होगा,केवल स्मृतियों में नहीं बल्कि फिर वही जीवन जी सको। इस बात को अपना एक ध्यान बना लो।प्रति दिन सोने से पहले,एक घंटे अतीत में वापस लोट जाओ। वह सभी खोजने का प्रयास करो,जो तुम्हारे बचपन में घटा था,जितने गहरे में जा सको उतना ही अच्छा है-क्योंकि तुम उन बहुत सी चीजों को छिपा रहे हो,जो कभी घटी थीँ,तुम उन्हैं चेतना तल तक ऊपर आने की अनुमति नहीं देते हो। बस उन्हैं सतह तक आने की अनुमति दे दो।प्रति दिन वापस लौटते हुये गहराई में जाने का अनुभव करो। पहले तुम्हें कुछ वहॉ की घटनाएं याद आयेंगी,कि जब तुम चार पॉच वर्ष के थे तो उसपार जाने जाने में असमर्थ थे,जैसा कि चीन की दीवार जैसा अवरोध सामने आगया,इसका तुम्हें सामना करना होगा। फिर धीमे-धीमे और गहराई में जाने पर तुम देखोगे कि तुम तो दो या तीन वर्ष के हो,लेकिन लोग तो उस बिन्दु तक पहुंच जाते हैं जब उनका जन्म हुआ था। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो गर्भ की स्मृतियों तक पहुंचे हैं। और कुछ लोग तो अपने पूर्व जन्म में जब उनकी मृत्यु हुई थी,तक भी पहुंचे हैं।
 
            अगर तुम अपनी गहराई में पहुंच गये हो तो फिर तुम्हें वापस लौट आना होगा। हर शाम वहॉ जाओ और लौट आओ। कम से कम तीन से नौ माह तक का समय लगेगा,प्रत्येक दिन भार मुक्त होने का अनुभव होगा,तुम अधिक से अधिक हल्के होते जाओगे,साथ ही विश्वास का भी जन्म होगा। बस एक बार अतीत स्पष्ट हो जाय और तुम वह सब कुछ देख लो,जो पूर्व में तुम्हारे साथ घटा था,तो तुम उससे मुक्त हो जाओगे। फिर तुम अपनी स्मृति में किसी घटना के प्रति सजग हो जाते हो तो तुम उससे मुक्त हो जाओगे। यही सजगता तुम्हें मुक्त कराती है,तभी विश्वास करना सम्भव हो सकेगा।

 
7-प्रेम हमारा भोजन है-
 
            मनोविज्ञान में प्रेम को एक भोजन माना गया है।जिस प्रकार बच्चे को भोजन दिया जाता है,वह उस बच्चे का पोषण करता है,और यदि उस प्रेम न दिया जाय तो उस स्थिति में उसकी आत्मॉ विकसित नहीं होगी उसकी आत्मॉ अपरिपक्व और अविकसित रह जाती है। है।मनो वैज्ञानिकों द्वारा कई विधियों का प्रयोग किया है जिनसे ज्ञात किया जा सकता है कि एक बच्चे के पोषण के लिए प्रेम दिया गया या नहीं,उसे प्रेम की ऊष्णता दी गई या नहीं,जिसकी कि उसे जरूरत थी। इसलिए बच्चे को पालन-पोषण में उसकी हर जरूरत को पूरा करें।
 
            एक उस बच्चे के पालन का प्रयोग है- जिसमें अस्पताल में डाक्टर द्वारा उसकी देखभाल कराएं,उस समय उसकी मॉ से उस बच्चे को दूर रखना चाहिए।बच्चे को दूध,दवा,देखभाल सभी कुछ दो,लेकिन उस समय उसे न तो आलिंगन में लें और न उसे चूमो और न स्पर्श ही करो, उस दशा में बच्चा धीमे-धीमें अपने आप सिकुडने लगता है,वह रूग्ण हो जाता है,अधिकतर की मृत्यु हो जाती है। जिसका कि कोई कारण नहीं दिखता है। और यदि बच भी गया तो निम्नतम् धरातल पर जीवित रहता है,वह अल्पमति या मूढ बनकर रह जाता है वह जीवित रहेगा,लेकिन एक किनारे पर।वह तो जीवित तो रहेगा मगर जीवन की गहराइयों में नहीं पहुंच सकेगा,उसके पास ऊर्जा होगी ही नहीं। इसलिए उस बच्चे को अपने ह्दय से लगा लेना,उसे अपने शरीर की गर्मी देना,वही उसका सूक्ष्म भोजन होगा।

 
8-श्रद्धा जीवन में उच्च स्तर का भोजन है-
 
            प्रेम हमारा भोजन तो है,लेकिन उससे भी उच्च स्तर का भोजन श्रद्धा है,प्रार्थना जैसी। लेकिन .ह भोजन सूक्ष्म है,इसे अनुभव कर सकते हो।यदि तुम्हारे पास श्रद्धा है तो इसका मतलब तुम एक महान साहसिक अभियान पर चल पडे हो।जिससे तुम्हारे जीवन में एक परिवर्तन होना शुरू हो जायेगा। और यदि तुम्हारे पास श्रद्धा नहीं है तो तुम वहीं खडे रहोगे।कितना ही बोलें,कोई फर्क नहीं पडेगा,तुम जड होकर खडे ही रहोगे,इस तरह हर समय तुमसे ऐसी चूक होती जायेगी। इसलिए अपने में श्रद्धा को जन्म दो यही श्रद्धा तुममें और मुझमें एक सेतु बन जायेगा। तुम दीप्तिवान बन जाओगे,तुम्हारा पुनर्जन्म हो जायेगा।
 
            अब प्रश्न उठता है कि आपको श्रद्धा की सख्त जरूरत तो है मगर वह तुम्हारे पास है ही नहीं,तुम स्वयं में बहुत पीढित हो,इसलिए कि तुममें इतना साहस नहीं है,जिससे मरने वाले पर भी श्रद्धा किया जा सके। इसके लिए तुम्हारे लिए एक ही रास्ता है कि तुम्हें किसी खास तरह से मरना होगा,जिससे तुम्हारा पुनर्जन्म हो सके।अतीत से तुम्हें पूरी तरह कट जाना होगा,तुम्हारी जीवन कथा नष्ट करनी होगी,तभी तो तुम्हारा पुनर्जन्म हो सकेगा!

 
9-विश्वास करने वाले को सहारा चाहिए-
 
          जो लोग विश्वास करते हैं,उनमें भय होता है,इसलिए वे लोग किसी के साथ बंधना चाहते हैं,सहारे के लिए किसी का हाथ का सहारा चाहते हैं।वे लोग आकाश की ओर देखकर अभय का अनुभव करने के लिए परमात्मा की प्रार्थना करते हैं। आपने उस वक्त को देखा होगा जब रात के वक्त अंधेरी सुनसान सडक से गुजरते वक्त अनायास मुंह से सीटी बजाना शिरू कर लेते हो,अथवा गाना शुरू कर लेते हो-इसलिए नहीं कि उससे तुम्हें कोई सहायता मिल जायेगी,बल्कि इसलिए कि आप ऊष्णता का अनुभव करते हो,जिससे भय का दमन हो जाता है।सीटी बजाने से तुम्हें अच्छा लगता है,तुम यह भूल जाते हो कि तुम अंधेरे में हो और यह खतरनाक है। लेकिन इससे यथार्थ में कोई वास्तविक परिवर्तन नहीं होता है,क्योंकि तुम्हारे अन्दर जो भय और खतरा है वह अभी भी वहॉ है।पहले से कही अधिक है,इसलिए कि सिटी बजाने से अपने चारों ओर एक भ्रम खडा कर रहे हो। गाने में व्यस्त होने से अधिक आसानी से लूटा जा सकता है। अगर यहॉ पर ईश्वर के प्रति साहारे के लिए तुम्हारी श्रद्धा भय से उत्पन्न हुई है तो इससे यही अच्छा है कि तुम वह श्रद्धा करो ही मत,इसलिए कि वह श्रद्धा नकली है,भय के कारण उत्पन्न हुई है। श्रद्धा तो प्रेम से उत्पन्न होती है।इसके लिए तुम्हें कठोर परिश्रम करना होगा।तुम्हारे अतीत में कूडे कर्कट का ढेर है,तुम्हें उसे साफ करना होगा,भार रहित बनाना होगा।

 
10-विश्वास करना एक झूठी श्रद्धा है-
 
          जी हॉ विश्वास करना एक बहाना है,किसी भी चीज में विश्वास करने से तुम्हें असहाय का अहसास कराती है,यह खतरनाक है।अगर तुमने दिव्यता जैसी किसी चीज का अनुभव नहीं किया है,तो फिर श्रद्धा करने की कोई जरूरत नहीं है,वहॉ परमात्मॉ पर भी विश्वास करने की कोई जरूरत नहीं है। जैसे मैं विशावास करता हूं कि वहॉ परमात्मॉ है तो इसका मतलव हुआ कि वहॉ कोई शक्ति जरूर होनी चाहिए, जो कि पूरे ब्रह्मॉण्ड को एक साथ संभाले हुये है।यह एक तर्क का प्रश्न है,लेकिन परमात्मॉ को एक तार्किक व्याम बनाना उपयुक्त नहीं है।ब्रह्मॉण्ड या अस्तित्व सभी चीजें एक साथ गतिशील हैं,प्रत्येक वस्तु बहुत सुन्दरता के साथ चली जा रही है लेकिन मन का तर्क है कि वहॉ कोई ऐसा जरूर होना चाहिए जो सभी को एक साथ संभाले हुये है।

 
11-तर्क से परमात्मॉ तक नहीं पहुंच सकते हो-
 
          जहॉ पर परमात्मॉ तक पहुंचने के लिए तर्क होता है वहॉ फिर परमात्मॉ तक पहुंचना सम्भव नहीं है।केवल प्रेम के द्वारा ही परमात्मॉ तक पहुंचा जा सकता है।क्योंकि परमात्मॉ कोई तर्क के पार का निष्कर्ष नहीं है। इसीलिए वैज्ञानिक परमात्मॉ तक कभी नहीं पहुंचते। वास्तविक विचारक तो परमात्मॉ के स्तित्व को इंकार करते रहे हैं।यदि तुम इस बात पर चिंतन कर रहे हो तो परमात्मॉ पर विश्वाष नहीं कर सकते हो।उन्हैं परमात्मॉ निरर्थक और असम्भव प्रतीत होता है,उन्हैं यह सच नहीं लगता है।

Sunday, March 17, 2013

जीवन के तथ्य

 
 
 
 
 
 
 
 
 
 1-नहीं शब्द से नईं खोज का जन्म -

          साधारणतया मन कहता है, ‘कुछ भी ठीक नहीं है,इसलिए मन खोजता ही रहता है शिकायतें- ‘यह गलत है, वह गलत है। मन के लिए ‘हां’ कहना बड़ा कठिन है, क्योंकि जब तुम ‘हां’ कहते हो, तो मन ठहर जाता है;स्थिर हो जाता है। फिर मन की कोई जरुरत नहीं होती।

          क्या तुमने ध्यान दिया है इस बात पर? जब तुम ‘नहीं’ कहते हो, तो मन और आगे सोचता है; क्योंकि ‘नहीं’ पर अंत नहीं होता। क्योंकि नहीं के आगे कोई पूर्ण-विराम नहीं है; वह तो एक शुरुआत है। हॉ जब हां कहते हो, तो एक पूर्ण विराम आ जाता है; अब मन के पास सोचने के लिए कुछ नहीं रहता, खीझने के लिए, शिकायत करने के लिए कुछ भी नहीं रहता। जब तुम हां कहते हो, तो मन ठहर जाता है; और मन का वह ठहरना ही संतोष है।

          संतोष कोई सांत्वना नहीं है-मैंने बहुत से लोग देखे हैं जो सोचते हैं कि वे संतुष्ट हैं, क्योंकि वे स्वयं को तसल्ली देते हैं। सांत्वना तो एक खोटा सिक्का है। क्योंकि जब तुम सांत्वना देते हो स्वयं को, तो तुम संतुष्ट नहीं होते हो।

           भीतर बहुत गहरा असंतोष होता है। लेकिन यह समझ कर कि असंतोष चिंता निर्मित करता है, यह समझ कर कि असंतोष परेशानी खड़ी करता है, यह समझ कर कि असंतोष से कुछ हल तो होता नहीं-बौद्धिक रूप से तुमने समझा-बुझा लिया होता है अपने को कि ‘यह कोई ढंग नहीं है।’ तो एक झूठा संतोष ओढ़ लिया होता है स्वयं पर; तुम कहते रहते हो, ‘मैं संतुष्ट हूं। मैं सिंहासनों के पीछे नहीं भागता; मैं धन के लिए नहीं लालायित होता; मैं किसी बात की आकांक्षा नहीं करता।’


           तुमने सुनी होगी एक बहुत सुंदर कहानी। एक लोमड़ी एक बगीचे में जाती है। वह ऊपर देखती हैः अंगूरों के सुंदर गुच्छे लटक रहे हैं। वह कूदती है, लेकिन उसकी छलांग पर्याप्त नहीं है। वह पहुंच नहीं पाती। वह बहुत कोशिश करती है, लेकिन वह पहुंच नहीं पाती। फिर वह चारों ओर देखती है कि किसी ने उसकी हार देखी तो नहीं। फिर वह अकड़ कर चल पड़ती है। एक नन्हा खरगोश जो झाड़ी में छिपा हुआ था बाहर आता है और पूछता है, ‘मौसी, क्या हुआ?’ उसने देख लिया कि लोमड़ी हार गई, वह पहुंच नहीं पाई। लेकिन लोमड़ी कहती है, कुछ नहीं अंगूर खट्टे हैं।
 

2-ध्यान का अर्थ मन का मौन होना है-

          यह इतना स्पष्ट और इतना सरल है कि इसे किसी व्याख्या की आवश्यकता नहीं। इसे मात्र वर्णन करने की आवश्यकता है। ध्यान कुछ और नहीं बस मौन अवस्था में तुम्हारा मन है। जैसे कि कोई झील शांत हो, उसमें कोई लहर न हो,विचार की लहरें हैं। ध्यान है विश्रांत मन,मन का कुछ न करने की अवस्था में, बस विश्रामपूर्ण होना ध्यान है। जिस क्षण तुम मौन और विश्रांत होते हो, उन चीजों के लिए, जिन्हें तुम पहले कभी न समझे थे, एक बड़ी गहन अंतर्दृष्टि और समझ तुममें आती है।
 
          कोई तुम्हें समझा नहीं रहा। बस तुम्हारी दृष्टि की निर्मलता ही चीजों को स्पष्ट कर देती है। गुलाब होता है, पर अब तुम इसके सौंदर्य को बहुआयामी ढंग में जानते हो। तुमने इसे कई बार देखा था-यह बस एक साधारण गुलाब था। पर आज यह साधारण नहीं रहा; आज यह असाधारण हो गया क्योंकि दृष्टि में एक स्पष्टता और निर्मलता है। तुम्हारी अंतर्दृष्टि पर से धूल हट गई है और गुलाब के पास एक आभामंडल है जिसके बारे में तुम पहले सजग न थे।

          तुम्हारे चारों ओर, तुम्हारे भीतर, और बाहर की हर चीज स्फटिक सदृश्य स्पष्ट हो जाती है। और जैसे-जैसे समझ अपने अन्तिम बिंदु पर पहुंचती है,तो प्रकाश का एक विस्फोट हो जाता है। स्पष्ट रूप से, अपनी चरम सीमा पर, प्रकाश का एक विस्फोट हो जाती है जिसे हम ‘संबोधि’ कह कर पुकारते हैं। यह बस उस स्पष्टता की प्रखरता ही है कि अंधकार विलीन हो जाता है। यह इसलिए है कि तुम इतना स्पष्ट देख सकते हो कि वहां अंधकार होता ही नहीं।

          कई ऐसे पशु हैं जो अंधेरे में भी देख सकते हैं; उनकी आंखें अधिक स्वच्छ, अधिक पैनी होती हैं। तुम्हारी अंतर्दृष्टि इतनी पैनी हो जाती है कि सब अंधकार विलीन हो जाता है। दूसरे शब्दों में, तुम्हारे ऊपर प्रकाश का एक विस्फोट हो जाता है। इसे संबोधि कहो, मुक्ति कहो या अनुभूति कहो। पर फिर भी तुम तो इसके बाहर ही होते हो: यह तुम्हारा अनुभव है और तुम अनुभव कर सकते हो।

          यह एक वस्तुगत अनुभव है; और फिर तुम तो एक आत्मचेतना हो। तुम जानते हो कि यह सब घट रहा है; उसे चोटी पर, उसे एवरेस्ट पर...केवल साक्षीभाव, बस शुद्ध साक्षीत्व; किसी चीज के प्रति सजग नहीं, किसी चीज के प्रति साक्षी नहीं-बस एक शुद्ध दर्पण, किसी चीज को प्रतिबिंबित करता हुआ नहीं। ये सब सजीव रूप से संबंधित हैं। एक-एक कदम चलो; दूसरा कदम फिर स्वतः ही आएगा।
 

3-चल माया और अचल असली है-
 
          संत कबीरजी ने बहुत पते की बात कही थी-
चलती चक्की देखके दिया कबीरा रोय। दो पाटन के बीच में साबित बचा ना कोय॥
चक्की चले तो चालन दे तू काहे को रोय। लगा रहे जो कील से तो बाल न बाँका होय॥

          चक्की में गेहूँ डालो या बाजरा डालो तो वह पीस देती है लेकिन वह दाना पिसने से बच जाता है जो कील के साथ सटा रह जाता है। यह बदलने वाला जो चल रहा है, वह अचल के सहारे चल रहा है। जैसे बीच में कील होती है उसके आधार पर चक्की घूमती है, साइकिल या मोटर साइकिल का पहिया एक्सल पर घूमता है। एक्सल ज्यों-का-त्यों रहता है।

          पहिया जिस पर घूमता है, वह घूमने की क्रिया से रहित है। न घूमनेवाले पर ही घूमनेवाला घूमता है। ऐसे ही अचल पर ही चल चल रहा है, जैसे - अचल आत्मा के बल से बचपन बदल गया, दुःख बदल गया, सुख बदल गया, मन बदल गया, बुद्धि बदल गयी, अहं भी बदलता रहता है - कभी छोटा होता है, कभी बढ़ता है ।

          जो अचल है वह असली है, और जो चल है वह माया है। कोई दुःख आये तो समझ लेना यह चल है, सुख आये तो समझ लेना यह चल है, चिंता आये तो समझ लेना चल है, खुशी आये तो समझ लेना चल है। जो आया है वह सब चल है। तो दो तत्त्व हैं - प्रकृति ‘चल’ है और परमेश्वर आत्मा ‘अचल’ है। अचल में जो सुख है, ज्ञान है, सामर्थ्य है उसी से चल चल रहा है।

          जो दिखता है वह चल है, अचल तो दिखता नहीं है। जैसे मन दिखता है बुद्धि से, बुद्धि दिखती है विवेक से और विवेक दिखता है अचल आत्मा से। मेरा विवेक विकसित है कि अविकसित है यह भी दिखता है अचल आत्मा से। अचल से ही सब चल दिखेगा, और सारे चल मिलकर अचल को नहीं देख सकते हैं। अचल को बोलते हैं: 1ओंकार, सतिनाम, करता, कर्ता-धर्ता वही है अचल। वह अजन्मा और स्वयंभू है। चल योनि (जन्म) में आता है, अचल नहीं आता। तो मिले कैसे? बोले: गुरुकृपा से मिलता है। चल के आदि में जो था, चल के समय में भी है, चल मर जाय लेकिन फिर भी जो रहता है युगों से वह अचल है।

          आप हरि ओ... म्... इस प्रकार लम्बा उच्चारण करके थोड़ी देर शांत होते हैं, तो आपका मन उतनी देर अचल में रहता है। थोड़े ही समय में लगता है कि तनावमुक्त हो गये, चिंतारहित हो गये - यह ध्यान का तरीका है। ज्ञान का तरीका है कि चल कितना बदल गया अचल में। सुख-दुःख को जाननेवाला भी अचल है। अगर इस अचल में प्रीति हो जाय, अगर अचल का ज्ञान पाने में लग जायें अथवा ‘मैं कौन हूँ?’ यह खोजने में लग जायें तो यह अचल परमात्मा दिख जायेगा अथवा ‘परमात्मा कैसे मिलें?’ इसमें लगोगे तो अपने ‘मैं’ का पता चल जायेगा।

          क्योंकि जो मैं हूँ वही आत्मा है और जो आत्मा है वही अचल परमात्मा है। जो बुलबुला है वही पानी है और पानी ही सागर के रूप में लहरा रहा है। ‘‘बुलबुला सागर कैसे हो सकता है ?’’ बुलबुला सागर नहीं है लेकिन पानी सागर है। ऐसे ही जो अचल आत्मा है वह परमात्मा का अविभाज्य अंग है। घड़े का जो आकाश है, थोड़ा दिखता है लेकिन है यह महाकाश ही।

          जो अचल है उसमें आ जाओ तो चल का प्रभाव दुःख नहीं देगा। नहीं तो चल कितना भी ठीक करो, शरीर को कभी कुछ-कभी कुछ होता ही रहता है। ‘यह होता है तो शरीर को होता है, मुझे नहीं होता’ - ऐसा समझकर शरीर का इलाज करो लेकिन शरीर की पीड़ा अपने में मत मिलाओ, मन की गड़बड़ी अपने अचल आत्मा में मत मिलाओ तो जल्दी मंगल होगा।
 

4-तनाव पूर्व जन्म का संस्कार है-

          समय ने एक समस्या अत्पन्न की है तनाव। व्यस्त जिंदगी, ऊंचे ख्वाबों को हकीकत में बदलने की आतुरता और भागमभाग में चारों दिशाओं से मिलने वाली चुनौतियां इस समस्या को जन्म देती है। मोटे तौर पर हमारे मन की तीन अवस्थाएं हैं। प्रथम, चेतन मन जिसमें सारे अनुभव हमारी स्मृति में रहते हैं और हमें उनका ज्ञान रहता है। द्वितीय अवचेतन मन इसमें हमारे वे अनुभव होते हैं जो बिना ध्यान के ही रिकॉर्ड हो जाते हैं। अवचेतन मन स्वतः अपना कार्य करता रहता।

          तृतीय,अचेतन मन इसमें पुराने दबे हुए संस्कार रहते हैं। समझा जाता है कि अचेतन मन में पूर्व जन्म के संस्कार भी संचित रहते हैं। समय या सभ्यता के प्रभाव से तनाव जीवन का अंग सा बन गया है तो इसके प्रभाव से मुक्त रहने के बारे में सोचना चाहिए। योगशास्त्र के अनुसार तनाव से मुक्ति का सरल सा उपाय है- योग निद्रा।

          इसके लक्षण गहरी नींद की तरह होते हैं परन्तु वास्तव में यह नींद नहीं होती। इसमें हमारी चेतना मन की आन्तरिक परतों को खोलती हुई अचेतन अवस्था तक पहुंचने का प्रयास करती है। हमारे मस्तिष्क के प्रत्येक भाग में हमारे जीवन से संबंधित लाखों, करोड़ों प्रकार के अनुभव, सिद्धान्त, आदर्श और संस्कार आदि जमा रहते हैं। इसी प्रकार हमारे पूर्व जन्मों के भी लाखों, करोड़ों संस्कार बीज रूप में मौजूद रहते हैं। इन्हीं सब संस्कारों के कारण हमारा मन समय-समय पर तनाव से प्रभावित होने लगता है। योग निद्रा के बार-बार और लगातार लंबे समय तक अभ्यास करते रहने से व्यक्ति उस अचेतन मन में पड़े संस्कारों तक पहुँचकर उनसे मुक्ति प्राप्त करने में सफल हो सकता है।