Wednesday, August 8, 2012

आध्यात्मिक मूल्य



 
-सुविचार-
 1-        एक भव्य विचार सर्वाधिकत मूल्यवान रत्न होता है जिसे मनुष्य स्वागत कर सकता है।

2-        एक विचार परिवर्तन विन्दु वन सकता है, तथा जीवन में पूर्ण रूपान्तरण कर सकता है।

3-        एक विचार विपत्ति के तूफानी समुद्र में जीवन के लडखडाते हुये जलपोत के लिए मार्ग सूचक प्रकाश स्तम्भ बन सकता है।

4-        एक विचार मनुष्य का सदा साथ देने और सहायता वाला परम् महत्वपूर्ण साथी और मित्र बन सकता है।

5-        एक विचार मनुष्य के भय और चिन्ता को निर्मूल करने और उसे साहसपूर्वक कठिन समस्या के साथ जूझने के लिए सन्नद्ध कर सकता है।

6-        एक विचार मनुष्य को जीवन में आश्चर्यप्रद ऊंचाइयों तक पहुंचाने तथा गौरवपूर्ण एवं विस्मयकारी लक्ष्यों की प्राप्ति करने के लिए प्रेरित कर सकता है।

7-        धन्य हैं वे जो प्रकाश को उत्पन्न करते हैं अथवा उसे विकीर्ण करते हैं।

8-        यदि कोई व्यक्ति एक ज्योति प्रज्वलित करता है,बुद्धिमान पुरुष उसे प्रदीप्त रखते हैं तथा अपने जीवन को आलोकित कर लेते हैं।


9-        एक विचार एक शक्ति है तथा सभी समय उसके लिए उत्तम और अनुकूल हो जाते हैं ,जो अपने विचारों को नियमित कर लेता है।


10-        निश्चित ही मन कोई कूडेदान नहीं है जिसे कूडे से भर दिया जाय।देह को अनेक बार भोजन दिया जाता है,मन को भी शक्ति,स्थिरता और शॉति के सहकारी विचारों से संतोषित किया जाना चाहिए।जीवन यात्रा सुखद और उल्लासमय हो जाती है। यदि जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में विचार की सहायता से लक्ष्य सुविचारित हों तथा पथ आलोकमय हों।


11-        एक विचार मानवता की समस्त विपत्तियों का प्रवल समाधान हो सकता है,क्योंकि विचार जीवन में उद्देश्यपूर्ण क्रॉति ला सकता है,तथा मनुष्यों को पाप की शक्तियों के साथ संघर्ष करने और पृथ्वी को प्रेम एवं शॉति का स्वर्ग बना देने के लिए तत्पर कर देता है।


12-        एक विचार जीवन में किसी क्षेत्र में उत्कर्ष प्राप्त करने के लिए प्रेरणॉप्रद एवं प्रोत्साहनप्रद हो सकता है।


ख- प्रार्थना-
हे प्रभो,
1-        मुझे अपने मन की शीतलता को सुरक्षित रखना सिखा दो,जब सभी उग्र हो रहे हों।

2-         मैं अपने विवेक को सुरक्षित रख सकूं जब सभी अन्य उसे खो रहे हों।

3-        मैं अपने कर्तव्य का पालन कर सकूं जब सभी अन्य अपने कर्तव्य से भाग रहे हों।

4-        मेरा भलाई में विश्वास कभी क्षीण न हो तथा मैं सदा उत्तम विचारों को धारण करूं और उत्तम कर्म करूं।मेरा आपकी कृपा में विश्वास सदा अडिग और दृढ रहे।

5-         मैं उन स्थितियों में संयम और धैर्य धारण कर सकूं जो संवेदनशील हों तथा जिनमें शॉतिपूर्ण विचार की आवश्यकता हो ।

6-        मैं अपनी वॉणीं को नियंत्रित कर सकूं जब मौन की आवश्यकता हो।

7-        मैं उपयुक्त और न्यायपूर्ण पग उठा सकूं, तथा आत्म सन्तुष्ट रह सकूं।

8-        मेरी वॉणी मृदु और मधुर हो सके,दब क्रोधोद्दीपन शव्दों का प्रक्षेपण मुझपर हो रहा हो।

9-        मैं सदा वही करूं,जो उचित हो तथा मैं उसे करने में सुख का अनुभव कर सकूं।
10-        मैं विचार और कर्म में पवित्र और साहसपूर्ण रहूं। मुझमें प्रेम और करुणॉ,सहिष्णुता, क्षमॉ,से और त्याग,सहयोग और सहायता का भाव तथा मेरा दैवी सत्ता में विश्वास सदा बढते ही रहे ।

11-        मैं तेरा शॉति का उपकरण बन सकूं,और चारों ओर शॉति का प्रसार कर सकूं।

12-        मैं अपने चारों ओर व्याप्त अन्धकार को धिक्कारने के बजाय एक छोटा सा प्रकाशदीप प्रज्वलित करूं,तथा मैं दूसरों को कोसने के बजाय अपना लधु योगदान करूं।

ग- ज्ञान का महत्व-

1-जीवन में ज्ञान आवश्यक क्यों है?-
        ज्ञान हमारे जीवन का आधार है, जो कि कर्म में श्रेष्ठता लाता है,इसलिए श्रेष्ठ कर्म करने के लिए श्रेष्ठ ज्ञान आवश्यक है।

2-ज्ञान शक्ति किससे प्रकट होती है?-
        ज्ञान शक्ति तो ईश्वरीय चेतना से प्रकट होती है,जिसको कि शरीर में आत्मा कहते हैं।

3-चेतना शक्ति की विशेषता क्या है?-
        यह शक्ति तो एक मात्र ज्ञान स्वरूप है, जिसकी अभिव्यक्ति प्रकृति से होती है,इसलिए प्रकृति के सत्,रज,व तम् गुणों के कारण एक ही ज्ञान अलग-अलग रूपों में अभिव्यक्त होता है।

4-जीवन में ज्ञान मुख्य है या कर्म ?-
        अगर सफल जीवन यापन करना है तो ज्ञान और कर्म दोनों मुख्य है। देखें तो बिना ज्ञान के कर्म अन्धा है,और विना कर्म के ज्ञान पंगु है।ज्ञान को तो कर्म से गति मिलती है।

5-सत्व गुंण से ज्ञान की अभिव्यक्ति कैसे होती है –
        जो व्यक्ति सत्व गुंण प्रधान होता है, वह ज्ञान धार्मिकता,आध्यात्मिकता,ईश्वर प्राप्ति,मोक्ष प्राप्ति सदाचरण आदि रूपों में प्रकट होता है।

6-रजोगुँण के साथ मिलकर ज्ञान किस रूप में प्रकट होता है? –
        रजोगुंण के साथ मिलकर यह ज्ञान व्यक्ति को कर्मशीलता,कर्मठ, कर्तव्यवोध कराने वाला,संकल्पवान दृढप्रतिज्ञ और सोवारत बनाता है।

7-तमोगुण के साथ ज्ञान का प्रभाव कैसा होगा? –
        यदि तमोगुण के साथ ज्ञान मिल जाता है तो मनुष्य जडता,आलस्य,प्रमाद,कुचेष्ठा,दुराचरण तथा अमानवीय कृत्यों की ओर प्रेरित करता है।

8- अकेले ज्ञान और अकेले कर्म का क्या परिणॉम होता है? –
        जिस प्रकार पक्षी एक पंख से नहीं उड सकता, जिस प्रकार एक ही पतवार से नाव नहीं खेई जा सकती है,उसी प्रकार अकेले ज्ञान और अकेले कर्म से मनुष्य दिशाहीन होकर भटकता ही रहता है।ज्ञान से ही कर्म को दिशा मिलती है।

9-ज्ञान में वृद्धि कैसे हो सकती है? –
        सतत् अध्ययन्,चिन्तन,मनन,स्वाध्याय, सत्संग,शिक्षा ऐदि से ज्ञान की अभिवृद्धि होती है।

10-ज्ञान के विना मुक्ति नहीं होती है क्यों-
        इस ज्ञान का अर्त ईश्वरीय ज्ञान और व्रह्म ज्ञान से है। उसकी अनुभूति हो जाने पर मुक्ति प्राप्त मानी जाती है।

11-ज्ञानी के जीवन को श्रेष्ठ क्यों माना गया है? –
        क्योंकि वही सत्य और असत्य का निर्णय करने में समर्थ होता है,जिससे वहीं सत्य को ग्रहण करने की क्षमता वाला होता है।

12-ज्ञान पर कर्म का प्रभाव नहीं पडता है ? –
        क्योंकि ज्ञान की फल प्राप्ति की कोई इच्छा नहीं होती। वह तो निष्काम भाव से जगत हित में कार्य करता है।वह अपने कर्तव्यों को पूरा मात्र करता है।

13-क्या ज्ञानी को लिए भी कर्म करना आवश्यक है? –
        ज्ञानी के लिए कर्म करना आवश्यक हो या न हो लेकिन प्रकृति उसको कर्म करने के लिए वाध्य करती है।इसलिए उसे कर्म करना ही पडेगा। लेकिन कामना,वासना एवं फल की इच्छा रहित होकर कर्म करके वह इस कर्म वंधन से मुक्त हो सकता है।

14-यदि ज्ञान ही श्रेष्ठ है तो कृष्ण ने अर्जुन को कर्म में प्रवृत्त क्यों किया? –
        क्योंकि ज्ञान के विना श्रेष्ठ कर्म नहीं हो सकता है।इसलिए कृष्ण ने अर्जुन को पहले तो ज्ञान का उपदेश दिया फिर उसी के आधार पर उसे कर्म में प्रवृत्त किया।

घ- जीवन में कर्मों के प्रति सचेष्ट रहें-

1-कर्मों का फल -
        हमारे धर्म शास्त्रों के अनुसार कर्मों का फल तो मनुष्य को इस संसार और परलोक दोनों में भोगना होता है। जैसे किसी ने कोई अपराध किया और समाज ने उसकी पिटाई कर दी,यह उसको इस न्यायालय का दण्ड था। और इस संसार में उसका फल भोगने के बाद भी उस ईश्वरीय विधान के अनुसार उसके प्रतिकूल कर्म का फल उसे मरने के बाद भी मिलता है।

2-सुख का क्या राज है? -
        जो कुछ भी और जैसा भी मिलता है उसे स्वीकार कर उसी से सन्तुष्ट रहना।

3-हमारे दुःख का क्या कारण है? -
        मन की कई प्रकार की अपेक्षाएं,कामनाएं और वासना होती है। वे सदा अपने हित में ही सबकुछ पाना चाहता है।जब उसे नहीं मिलता है या उसके विपरीत मिलता है तो वह दुखी होता है।

4-दुखी कौन होता है? -
        इस शरीर को तो पीडा होती है। दुःख तो मन ही को होता है।

5-मनुष्य प्रेम के रहस्य को क्यों ?
        नहीं समझ पाया है -इसलिए कि अहंकार प्रेम का विरेधी है,अहंकारी व्यक्ति प्रेम नहीं कर सकता,क्योंकि प्रेम में समर्पण होना आवश्यक है।

6-ज्ञानी सेवा क्यों करनी चाहिए? -
इ        सलिए कि जब अज्ञानी ज्ञानी की सेवा स्तुति या पूजा करते हैं तो उसे उस ज्ञानी की देह से किया हुआ पुण्य कर्म मिलता है।

7-कोई कर्म क्या बन्धन का कारण होता है? -
        कर्म स्वयं में किसी बन्धन का कारण नहीं होता बल्कि कामना,आसक्ति या वासना ही बन्धन का कारण है।

8-अकर्म क्या है? -
        ज्ञान प्राप्त करने के बाद ज्ञानी अकर्म हो जाता है।

9-निष्काम कर्म क्या है? -
        फल की इच्छा से रहित कर्म निष्काम कर्म है।

10- मनुष्य पाप क्यों करता है? -
        क्योंकि वह काम और क्रोध के वशीभूत होकर न चाहते हुये भी पाप कर्म कर बैठता है।

11-पाप क्या होता है? -
        जब कोई ईशवर के विधान के प्रतिकूल कर्म करता है तो उसे पाप कर्म कहते हैं। और उसके अनुकूल व्यवहार करना ही पुण्य कर्म है।

12-शुभ कर्म से अशुभ कर्म नष्ट कर सकते हैं? -
        दोनों कर्मों का फल तो भोगना ही होता है।यदि चोरी करके दान देने से चोरी के अपराध से कोई मुक्त थोडी ही नहीं हो जाता।

12-जाति का क्या मतलव है? -
        हमारे शास्त्रों के अनुसार अपने कर्मों के अनुसार मनुष्य को किस किस वंश,परिवार, वातावरण आदि में जन्म लेना है इसका निर्धारण कर्मों के अनुसार ही तो होता है।

13-संचित कर्म क्या हैं? -
        पिछले जन्मों में किये गये कर्म बीज रूप में चित्त में संग्रहित रहते हैं,उन्हीं को संचेत कर्म कहा गया है। और यही बीज नए जन्मों का कारण बनता है।

14-हमारे कर्म कितने प्रकार के होते हैं?-
        कर्म तीन प्रक3र के होते हैं-संचित कर्म, प्रारव्ध कर्म और क्रियमॉण कर्म।

15-प्रारव्ध कर्म क्या है और यह किस रूप में मिलता है? -
        यह संचित कर्मों में से थोडा सा भाग इस जन्म में भोगने के लिए होता है जिन्हैम प्रारव्ध कर्म कहते हैं। इस जीवन में जाति,आयु और भोग ये तीनों प्रारव्ध से ही मिलते हैं ।

16-भाग्य क्या है? -
        पूर्व जन्मों का फल जब अपना फल देने लगते हैं तो उसी को भाग्य कहते हैं।

17-कर्म और भाग्य में कौन प्रवल है? -
        दोनों में कर्म प्रवल है जोकि भाग्य को दबा देता है।कर्महीन पर तो भाग्य हावी हो जाता है।

18-मनुष्य को कर्म करने के लिए कौन वाध्य करता है? -
        मनुष्य में रजोगुणी प्रवृत्ति होती है, जोकि मनुष्य को कर्म करने के लिए वाध्य करती है,इसी से मनुष्य विना कर्म किये रह ही नहीं सकता है।

19-कर्मफल प्राप्ति में लम्बा समय क्यों लगता है? -
        जिस प्रकार बीज को वृक्ष बनने और उसका फल प्राप्ति में देर लगती है।पहलवान बनने में लम्बे समय तक व्यायाम करना होता है।विद्यालय में भरती होने से लेकर स्नातक बनने तकलम्बी अवधि होती है,इसी प्रकार कर्मों के फल के लिए भी धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करनी होती है।

20-हमारे कर्म कितने प्रकार के होते हैं? -
        कर्म दो प्रकार के होते हैं-मानसिक और शारीरिक।मानसिक कर्म वे होते हैंजो भाव या विचार मन में पैदा होते हैं,और यही विचार समय पाकर स्थूल कर्म में परिणित हो जाते हैं।और स्थूल कर्म वे होते हैं जो इस शरीर के द्वारा किया जाता है।दोनों प्रकार के कर्मो का फल भोगना होता है।

ड.- धर्म क्या है? -
1-        अगर देखें तो इस जीवन का अपयोग ही धर्म है।

2-धर्म की हानि के क्या परिणॉम होगे? -
        मनुष्य अपने कर्तव्यों से विमुख होकर पशु के समान व्यवहार करने लगता है।

3-सनातन हिन्दू धर्म की क्या विशेषताएं हैं? -
      यह धर्म प्रांणी मात्र के कल्यांण की कामना करता है,किसी एक वर्ग या समुदाय की नहीं।

4-इसे सनातन धर्म क्यों कहा गया है? -
        इसलिए कि यह धर्म रूढिवादी नहीं है बल्कि सत्यवादी है।

5-क्या धर्म के पालन से मोक्ष की प्राप्ति सम्भव है? -
        धर्म के आचरण से स्वर्ग का सुख तो मिल सकता है,लेकिन मोक्ष प्राप्ति के लिए धर्म की कठिन साधना भी करनी होती है।

6-धर्म का हमारे जीवन से क्या सम्बन्ध है? -
        धर्म तो जीवन के शाश्वत मूल्यों की खोज।जीवन में आदर्शों की की प्राप्ति दर्म की ही देन है।

7-धर्म की और क्या-क्या विशेषताएं हो सकती है? -
        धर्म सामाजिक मूल्यों की रक्षा करता है।धर्म तो जीवन की सम्पूर्ण पद्धति है।धर्म तो जीवन का स्वभाव है। वह हमारे कर्म और आचरण में बसता है।वह मोक्ष का भी साधन है।

8-धर्म से हीन व्यक्ति किस श्रेणी में आता है? -
       धर्म तो मानव और पशु में भेद बनाये रखता है।

9-धर्म की स्थापना किसने की? -
        हमारे ऋषियों ने अपनी सन्तानों के लिए परम्पराओं,लोकाचारों,और रीतियों पर चलने के लिए जिन-जिन नियमों का प्रचलन किया तथा जो सामाजिक नियम दिये,वे ही धर्म के संस्थापक कहे जाते हैं।

10- धर्म का पालन करने से क्या लाभ होता है? -
        धर्म का पालन करने से इस जीव चेतना का विकास होता है और अन्त में मोक्ष को प्राप्त होती है। साथ ही समाज में एक सुव्यवस्था बनी रहती है।

11-कर्म और धर्म में कौन श्रेष्ठ है? -
        दोनों समान रूप से उच्च जीवन के लिए आवश्यक हैं।इनमें से किसी एक की उपेक्षा नहीं की जा सकती है।

12-धर्म का लक्ष्य क्या है? -
        अगर देखें तो धर्म एक प्रकार की साधना है जो ईश्वर और आत्मा के बीच सम्बन्ध स्थापित करता है।इससे अच्छा मानवीय जीवन प्राप्त होता है। धर्म तो मनुष्य के सर्वंगींण विकास का साधन भी है,जिससे आध्यात्मिक उन्नति प्राप्त होती है।

च- साधना के तथ्य-
1-साधना क्या है?-
        साधना निरन्तर आध्यात्मिक चेष्टा है,जो नकारात्मक प्रतिसंचरण को अवरुद्ध कर परमात्मा की ओर गति की धारा को तीव्र करती है।या अपने को निम्न स्तर पर गिरने से बचाकर आध्यात्मिक क्रियाओं का अभ्यास ही साधना है,जिससे व्यक्ति तीव्रता से आगे बढ सके।

2-योग क्या है? -
        जीवात्मा और परमात्मा के मिलन को योग कहते हैं।

3-योग किस प्रकार होता है? -
        जब हमारा व्यष्टि मन उस समष्टि में समाहित हो जाता है तो उस समय आत्म चैतन्य भी उस समष्टि चैतन्य में समाहित हो जाता है।यही तो इस आत्मचैतन्य की एकता है। और यह स्थिति समाधि अवस्था में आती है।

4-समाधि की अवस्था क्या है? -
        अपने चित्त को शून्य एवं जाग्रत अवस्था को ही समाधि कहते हैं।

5-समाधि कितने प्रकार की होती है? -
        वैसे तो पातॉजलि योग दर्शन में कई समाधियों का उल्लेख है मगर मुख्य रूप से उसके दो ही भेद हैं-सविकल्प और निर्विकल्प। सविकल्प समाधि में जब व्यष्टि मन समष्टि मन में विलीन हो जाता है तो उसे मुक्ति कहते हैं।सविकल्प समाधि दो प्रकार की होती है स्थाई और अस्थाई ।अस्थाई में जीव का संस्कारबना रहता है,जिसे सबीज संस्कार भी कहते हैं।लेकिन स्थाई समाधि में कोई भी संस्कार शेष नहीं रहता है,जिससे पुनर्जन्म नहीं होता है। इसे निर्जीव समाधि कहते हैं।

6- सविकल्प समाधि की अवस्थाएं क्या हैं? -
        इसकी पॉच अवस्थाएं गिनाई गईं हैं-1-सालोक्य अवस्था-इसमें साधक यह अनुभव करता है कि वह तथा उसका इष्ट एक ही लोक में है।2-सामीप्य-इस अवस्था में साधक यह अनुभव करता है कि वह अपने इष्ट के समीप है।3-सामुज्य-इसमें वह अनुभव करता है कि वह अपने इष्ट से जुड गया है।4-सारूप्य-इसमें वह अनुभव करता है कि वह अपने इष्ट के स्वरूप वाला हो गया।5-सार्ष्टी-इस अवस्था में वह अनुभव करता है कि मैं वही हूं।

7-निर्विकल्प समाधि क्या है? -
        साधना द्वारा जब व्यष्टि महत को चैतन्य में विलीन कर दिया जाता है तो इसी को निर्विकल्प समाधि कहते हैं।निर्विकल्प समाधझि के भी दो भेद होते हैं-स्थाई और अस्थाई।अस्थाई निर्विकल्प समाधि को मुक्ति कहते हैं,तथा स्थाई निर्विकल्प समाधि का परिणॉम तो मुक्ति है।

8-मुक्ति और मोक्ष?-
        मुक्ति में व्यष्टि मन समष्टि मन में विलीन हो जाता है,लेकिन उस परम चैतन्य से पृथकत्व बना रहता है।इसी को मुक्तावस्था कहते हैं।इसमें जीव जन्म-मृत्यु बन्धन से छूट जाता है।जबकि मोक्ष में वह समष्टि
मन भी उस परम चैतन्य में विलीन हो जाता है,जिससे उसका पृथकत्व समाप्त हो जाता है।यही तो मोक्ष है।मुक्ति- में जीव सगुण अवस्था में रहता है, तथा मोक्ष में वह निर्गुण अवस्था को प्राप्त हो जाता है। वहॉ तो सतोगुण भी विद्यमान नहीं रहता ।दोनों स्थितियों में ही पुनर्जन्म नहीं होता ।

9-जीवन मुक्त और देह मुक्त-
        इस जीवन काल में सभी प्रकार के बन्धनों से मुक्त हो गया तो उसे जीवन्मुक्त कहते हैं।वही अपने देह त्याग के बाद विदेहमुक्त कहलाता है।

10-क्या इस जीवन में मुक्ति सम्भव है -
        यदि पूर्व जन्म में की गई साधना पूर्ण हो चुकी है तो इसी जन्म में मुक्ति सम्भव है।

11-मुक्ति कब होती है?-
        जब लौकिक एवं पारलौकिक सभी प्रकार की कामनाओं का त्याग कर दिया जाय तो तभी साधक मुक्त हो जाता है।

12-क्या आत्मज्ञान के बाद भी कुछ जानना शेष रह जाता है?-
        आत्म ज्ञान अंतिम नहीं है।वह तो उस चरम का द्वार है, जिसमें प्रवेश कर विश्व चेतना को जाना जा सकता है।

13-आध्यात्म में वैराग्य भावना क्यों आवश्यक है ?-
        इस संसार में भौतचिक पदार्थों के प्रति जो आकर्षण है उसका त्याग ही वैराग्य है। आध्यात्मिक उपलव्धि के लिए इस आकर्षण का त्याग तो करना ही पडेगा।

14-साधना का प्रारम्भ कहॉ से किया जाता है? -
        इसके लिए यम,नियम के पालन से ही इसका आरम्भ करना होता है ।अन्यथा उपलव्दि संधिग्ध ही रहती है।एक-एक कदम कर बढाना ही श्रेयस्कर है। एकदम समाधि में पहुंचने के प्रयास में साधक का योग भ्रष्ट हो जाता है। इसके बाद मनोनिग्रह का अभ्यास करके फिर ध्यान- धारणॉ व समाधि में प्रवेश करें तो अच्छे परिणॉम सामने आते हैं।

छ- पुनर्जन्म की धारणॉ-
        अगर शास्त्रों का अध्ययन करें तो पूनर्जन्म के सम्बन्ध में धारणॉएं कुछ इस प्रकार दिखती हैं-

1-पुनर्जन्म-
        अर्थात मरने के बाद क्या पुनः जन्म होता है,जी हॉ कई प्रमॉण है, जिसके आधार पर हम कह सकते हैं कि मरने के बाद पुनर्जन्म होता है। अधिकॉश धर्म जैसे हिन्दू,जैन,बौद्ध,सिक्ख आदि सभी भारतीय धर्म इसकी सत्यता को स्वीकार करते हैं। एक नहीं हजारों प्रम़ॉण हैं जिसमें लोगों ने अपने पूर्व जन्मों का सही-सही वर्णन किया है। विभिन्न पत्र पत्रिकाओं ने इन घटनाओं को समय- समय पर प्रकाशित किया है।पुनर्जन्म का कारण-हिन्दू धर्म के अनुसार कर्मफल भोग के कारण तथा भोगों की वासना ही इसका मुख्य कारण है। अगर देखें तो पुनर्जन्म जीव चेतना के विकास के लिए भी आवश्यक है।क्योंकि जीव चेतना का विकास धीरे-धीरे तथा क्रम से होता है,और एक ही जन्म से इसका पूर्ण विकास सम्भव नहीं है। इसके लिए तो उसे कई जन्म लेने पडते हैं । मनुश्य के विकास की अनन्त सम्भावनाएं हैं ,जो कि कई जन्मों जाकर पूर्ण होती हैं एक जन्म में तिये गये कार्य तथा अनुभव अगले जीवन के लिए आधार बनते हैं।जिस प्रकार एक ही वर्श के कोई स्नातक नहीं बन सकता है,उसे तो सोलह से अदिक साल अध्ययन करना होता है,उसी प्रकार एक जन्म एक कक्षा है,जिसे सफलतापूर्वक उतीर्ण करने पर ही अगली कक्षा में प्रवेश पाता है। और बार-बार जन्म लेकर ही मनुष्य की चेतना का विकास होता है। जिसे वह अन्त में पूर्ण विकसित होकर ईश्वर तत्व का अनुभव करता है ।

2-कर्मफल का भोग-
        हमारे वेद शास्त्रों के अनुसार मनुष्य इस जन्म में हो पर्व जन्मों में जो भी अच्छे या बुरे कर्म करता है,उसका फल उसे अवश्य भोगना मिलता है ।विना भोगे तो कोई भी कर्म समाप्त नहीं होता ,यह तो प्रकृति का नियम भी है।स्थूल कर्मों का भोग तो स्थूल शरीर स्थूल लोक में भोगना होता है,इसी लिए तो पुर्जन्म होता है।और यह हिन्दू दर्शन की मान्यता भी है।जीसस ने भी यही तो कहा कि जैसा बोओगे वैसा काटोगे। यह तो कर्मफल का ही नियम है ।

3-पुर्जन्म का आधार-
        सृष्टि का नियम है कि विना कारण के कार्य नहीं होता है। बीज से ही वृक्ष बनता है,सम्भवतः पूर्व में सूक्ष्म रूप में बीज में विद्यमान था जो कि नये जन्म का कारण बनता है।

4-मृत्यु और जन्म के बीच का समय का समय-
        सामान्यतः व्यक्ति का पुनर्जन्म शीघ्र हो जाता है जेकिन असाधारण व्यक्ति के पुनर्जन्म में समय लगता है। अपने णनुकूल वातावरण मिलने पर ही वह पुनर्जन्म लेता है।

5-पुनर्जन्म किसका होता है-
        सभी सामान्य व्यक्तियों का पुनर्जन्म होता रहता है,जबतक कि वे पूर्णता को प्राप्त नहीं कर लेते । पूर्णता की प्राप्ति का अर्थ है अपने को ईश्वर की सभी विभूतियों से सम्पन्न बना देना ।

6-पुनर्जन्म से मुक्ति-
        जीवन मुक्त ज्ञानी पुरुष ही इससे मुक्त हो सकते हैं। मुक्ति के तो लिए मन मुख्य बाधा है। मन ही संसार है एवं मन से मुक्त होना ही मुक्ति है। मन से ही सभी प्रकार के मानसिक एवं शारीरिक कर्म होते हैं जिसके अनुभव ही संस्कार बनते हैं। और ये संस्कार ही पुनर्जन्म का कारण बनते हैं। इन संस्कारों का मिट जाना ही मुक्ति है। पुनर्जन्म से मुक्ति के बाद यह जीव चेतना सभी प्रकार के बन्धनों से मुक्त होकर परम् स्वतंत्रता का अनुभव करती है । मुक्ति के लिए सभी प्रकार की भौतिक कामनाओं वासनाओं एवं आसक्ति का त्याग किया जाना आवश्यक है। आशक्ति तो बन्धन का कारण है ।

7-मुक्ति और मोक्ष-
        मुक्ति में तो अहं भाव शेष रह जाता है यह द्वैत की स्थिति है।द्वैत का अर्थ है-अहंकार से वह स्वयं को ईश्वर से भिन्न समझता है। वह जीव -चेतना अपने को ईश्वर से भिन्न समझकर केवल उसकी समीपता का अनुभव करता है। लेकिन अहं भाव के नष्ट होने से अर्थात अद्वैत की स्थिति में वह उस परम चैतन्य ईश्वर के साथ एकाकार हो जाता है। और इसी को मोक्ष कहते हैं।।

8-मुक्त आत्माओं का पुनर्जन्म-
        इस प्रकार की आत्माएं कर्मफल के लिए जन्म न लेकर स्वयं की इच्छा से जगत के कल्याण के लिए जन्म ले सकती हैं तथा अपना कार्य पूर्ण करके पुनः विदा हो जाती हैं ।

9-पुनर्जन्म के रूप-
        हिन्दू धर्म में तो मान्यताए हैं कि अगला जन्म कीट, पतंग आदि रूपों में हो सकता है, मगर थियोसोफी की मान्यता है कतिपय मनुष्य की चेतना शक्ति इतनी विकसित हो चुकी होती है, कि वह पुनः निम्न योनियों में नहीं जा सकती। अपने कर्मों का भोग वह मनुष्य योनि में ही रहकर भोगोगी । निम्न योनियों में जन्म लेने का कारण केवल कर्मफल भोग को ही मुख्य कारण माना जाता है । दूसरा कारण भय दिखाकर उन्हैं सदाचार पर लाना रहा है ।

10-पूर्व जन्मों की स्मृति-
        माना जाता है कि जिनका जन्म लम्बे समय बाद होता है वे वे अपने पूर्व जन्म की स्मृतियों को भूल जाते हैं। किन्तु जिनकी मृत्यु किसी दुर्घटना ,जल में डूबना,जल जाना आदि कारणों से होती है उनको उनकी समृति बनी रहती है।जो पूर्णायु मरते हैं उनकी भी स्मृति नहीं रहती है। यही माना जाता है कि यह स्मृति तीन वर्ष से लेकर सात या आठ वर्। तक की उम्र तक रहती है। इसके बाद वह भूल जाता है।

11-पूर्व जन्म और अवतार-
        सामान्यतः मनुष्य का पुनर्जन्म कर्मफल भोग एवं वासना तथा आसक्ति के कारण होता है जबकि जबकि जीवन मुक्त आत्माएं स्वयं की इच्छानुसार अथवा ईश्वर की आज्ञा से जगत के कल्याण के लिए इस लोक में अवतरित होती हैं । इन्हैं अवतार इसलिए कहते हैं कि ये सामान्य जनों से भिन्न तथा ईश्वर की दिव्य विभूतियों से सम्पन्न होते हैं जिससे वे असाधारण कार्य कर सकते हैं। उनकी चेतनाशक्ति पूर्ण विकसित होती है।

12-पुनर्जन्म के ज्ञान का जीवन में महत्व-
        अगर देखें तो इस ज्ञान से जीवन की उन्नति का आधार बन सकता है, इस ज्ञान से मनुष्य के कर्मों में श्रेष्ठता आती है। जिससे जीवन में परिवर्तन आता है। ज्ञान के विना जीवन का विकास ही नहीं हो सकता ।अगर इस ज्ञान के बाद मनुष्य के जीवन में परिवर्तन नहीं आता तो इस कोरे बौद्धिक ज्ञान का विशेष महत्व नहीं है।इस जन्म का ज्ञान अगले जन्म के जीवन में संस्कार रूप में विद्यमान रहकर उसके जीवन में परिवर्तन लाता है। इसी से तो मनुष्य का निरंतर विकास होता जाता है। और एक जन्म में यह सब सम्भव नहीं है।

13-हमारे संस्कार क्या हैं-
        इस जन्म में हम जो भी शारीरिक एवं मानसिक कर्म करते हैं उसके अनुभव चित्त में संग्रहित होते रहते हैं,जो कि अगले जन्म में उसकी प्रेरणॉ का कार्य करते हैं । अच्छे कर्मों से अच्छे संस्कार बनते हैं तथा बुरे कर्मों से बुरे संस्कार बनते हैं इसीलिए मनुष्य अच्छे व बुरे कर्म करने के लिए प्रेरित होता है।



आध्यात्मिक तत्वों के भाव

 

        कुछ तथ्यों का प्रयोग हम अपने दैनिक जीवन में करते हैं,जिनके प्रति हमें सदा भ्रॉति रहती है। अगर शास्त्रों का अध्ययन करें तो उनके भावों का विश्लेषण व्यापक है, मगर उनके भाव को संक्षिप्त रूप में हम आपके सामने रखने का प्रयास करेंगे -

1-स्वर्ग-
    यह मन की उच्च अवस्था है।उच्च भोग।

2-नरक-
दुःख,संताप,ग्लानि। यह मन की निम्न अवस्था है।

3-स्वर्ग प्राप्ति का साधन-
        सद्कर्म ही स्वर्ग प्राप्ति का साधन है।कर्मों की गति स्वर्ग से आगे नहीं होती है।

4-लोक-
        यह समष्टि मन के परत का नाम है। लोकों को सात बताया गया है-1-भू लोक,-(भौतिक जगत)2- भुवर्लोक-(स्थूल मानस जगत)3- स्वर्लोक-(सूक्ष्म मनस अवस्था)4-महर्लोक-(अति मानस जगत)5-जनर्लोक-(अति उन्नत मनसातीत जगत)6-मह जन तप लोक-(मन कारण अवस्था में तथा शरीर सूक्ष्म रूप में) 7-सत्य लोक-(शरीर कारण अवस्था में) ।लोकों की रचना सूक्ष्म से स्थूल की ओर होती है। सबसे सूक्ष्म लोक सत्य लोक है।जिसे ब्रह्मलोक भी कहते हैं तथा सबसे स्थूल भूलोक है।

5-स्वर्गलोक से आगे जीवन मुक्त लोक-
        इस लोक में कुछ सिद्ध महात्मा ही जा सकते हैं। जीवन्मुक्त पुरुष ही इसमें प्रवेश करते हैं।


6- तरंगें क्या हैं?-
        इस ब्रह्मॉड में तीन तरह की तरंगों का समन्वय होता है-भौतिक,मानसिक औरक आध्यात्मिक। होती हैं


7-तन्मात्रा क्या है?-
        तरंगों में भौतिक तरंग ही तन्मात्रा है,जोकि हमारी ज्ञानेंद्रियों द्वारा ग्रहण किया जाता है।


8- पच्च महॉभूत-
        हमारे समष्टि चित्त के ऊपर तमोगुण के प्रभाव के कारण आकाश का निर्मॉण हुआ ।इसी प्रभाव से वायु का निर्मॉण हुआ। और वायु के घर्षण से अग्नि,अग्नि से जल तथा जल से पृथ्वीकी उत्पत्ति हुई जोकि सबसे अधिक ठोस स्वरूप हैष इन्हीं पॉचों मूल घटकों को पमच महॉभूत कहा जाता है।


9-भूत-
        जो सृजित हो गया अर्थात अस्तित्व में गया। ये भूत भी पॉच मानेगये हैं-आकाश,वायु,अग्नि,जल और पृथ्वी और इनके मूल घटक को पंचमहाभूत कहते हैं।

10- अहम और अहंकार में अन्तर-
        इस सृष्टि में सभी कर्म प्रकृति के गुणों के अनुसार होता है,लेकिन मैं कर्ता हूं ऐसा मानना ही अहंकार है,जोकि सिर्फ अज्ञान मात्र है।

11-संचरण प्रति संचरण-
        एक से अनेक की ओर जाने की प्रवृत्ति को संचरण,इसमें रूपों का निर्मॉण होता है। और अनेक से एक की ओर चलने की धारा प्रतिसंचरण कहलाती है।

12- मन की गतिशीलता-
मन की गतिशीलता तीन बातों पर निर्भर है-भौतिक संघर्ष,मानसिक संघर्ष, और अभिलाषा।

13-ब्रह्म क्या है?-
        इस, सम्पूर्ण जड-चेतनात्मक जगत का मूल तत्व है। शिव और शक्ति या पुरुष और प्रकृति के मिश्रित भाव को ब्रह्म कहते हैं।शिव को चैतन्य,या चित्ति शक्ति या मूल शक्ति भी कहते हैं। और इसी को ईश्वर और माया कहते हैं।


14-जड और चेतन शक्ति-
        ये दोनों एक ही ब्रह्म की दो परिस्थितियॉ हैं। अनमें भिन्नता अज्ञानताके कारण दिखाई देता है।

15-ईश्वर क्या है?-
        माया की उपाधि से युक्त उस चैतन्य तत्व को ही ईश्वर या भगवान कहते हैं।

16-ब्रह्म और ईश्वर में अन्तर-
        ब्रह्म निर्गुण अवस्था में रहता है जबकि ईश्वर उसी का सगुण रूप है।

17-क्या ईश्वर भी बन्धन में होता है?-
        माया शक्ति के आवृत होने से ईश्वर भी बन्धन में है।जिस प्रकार एक सिपाही किसी कैदी को बॉधता है तो वह भी उस कैदी से बंध जाता है।इसी प्रकार ईश्वर भी माया शक्ति से बंध जाता है।इसीलिए उसे ईश्वर कहा गया,वरना वह तो ब्रह्म है।

18-पुरुष तत्व क्या है?-
        प्रत्येक सत्ता में निहित साक्षी भाव को पुरुष कहते हैं। ईश्वर का अंश होने से वह पुरुष तत्व(आत्मा) भी चतैतन्य है,जो कि इस प्रकृति और विकृति से परे है।

19-पुरुष और चैतन्य में अन्तर-
        पुरुष चैतन्य और प्रकृति जड है।प्रकृति तो उस पुरुष की शक्ति है।

20- क्या ब्रह्म को देख सकते हैं-
        यह ब्रह्म कोई व्यक्ति जैसा नहीं है कि जिसे देख सकते हैं,उसकी तो अनुभूति होती है।

21-ब्रह्म ऋष्टि रूप में क्यों है?-
        ब्रह्म की दो प्रकृतियॉ हैं-जड और चेतन ।जड से सृष्टि का विस्तार और चेतन से चेतन से-जीव सृष्टि का विस्तार होता है। उपनिषदों में तो इनहीं को परा और अपरा प्रकृति कहा गया है।

22-भगवद् कृपा कब होती है?-
        पुरुषार्थ की एक सीमा है, जिससे पात्रता आती है।इसके बाद भगवतद् कृपा ही ईश्वर प्राप्ति का मुख्य कारण है।

23-अज्ञान से मुक्ति-
        प्रत्यक्ष दर्शन से।

24-चेतनाशक्ति में वृधि-
        ज्ञान में वृधि चेतनाशक्ति में वृधि का गुण है।

25-आदि और अनादि-
        आदि का अर्थ है उससे पहले भी कुछ था,जिससे उसका आरम्भ हुआ। और अनादि का अर्थ है जिसके पहले कुछ नहीं था।बस वही एक मात्र था।

26-अन्त और अनन्त-
       अवन्त का अर्थ है,उसके बाद भी कुछ है। और अनन्त का अर्थ है जिसका कोई अन्त नहीं है।सभी पदार्थ आदि और अन्त वाले हैं,जबकि यह अस्तित्व अनादि और अनन्त है,इसी का नाम तो ब्रह्म है।उसी को माया कहते हैं।लेकिन माया सीमित है ब्रह्म असीमित।

27-प्रकृति क्या है?-
        प्रकृति अर्थात शक्ति,यह तो पुरुष का विशेष धर्म है।प्रकृति भिन्नता का सृजन करती है। प्रकृति तो विरोधी संघर्षशील शक्तियॉ हैं।

28-प्रॉणशक्ति-
        यह जैव ऊर्जा(वायो एलेक्टिसिटी) है, जिससे पदार्थ में हल-चल गति पैदा होती है। पदार्थ में जीवन का यही मुख्य कारण है।

29-आत्मा-
        जीव में परमात्मा का जो प्रतिबिम्ब हैउसे आत्मा कहा गया है।

30-आत्मा और परमात्मा में अन्तर-
        दोनों एक ही सत्ता अलग-अलग नाम हैं।शरीर चेतना का नाम आत्मा है तथा समष्टि चेतना का नाम परमात्मा है।

31-जीवन-
        मानसिक और भौतिक तरंग की सामान्तरता ही जीवन है।

32-मृत्यु-
        भौतिक और मानसिक तरंग की सामान्तरता का नष्ट होना मृत्यु है।

33-मृत्यु के कारण-
        तीन कारण हैं-1-भौतिक कारण2-मानसिक कारण3-आध्यात्मिक कारण।

34-क्षर क्या है?-
        जिसका क्षरण होता है।प्रकृति।जिसका रूप बदलता रहता है।

35-जीवात्मा को अक्षर क्यों कहते हैं?-
        जिसका क्षरण नहीं होता है, वही जीवात्मा अक्षर है।

36-ईश्वर और जीव मे भेद-
        जिस प्रकार माया के कारण ब्रह्म और ईश्वर में भेद दिखता है,उसी प्रकार अविद्या रूपी उपाधि के कारण जीव और ईश्वर में भी भेद होता है।

37-जीवन का भौतिक कारण क्या है?-
        सहवास के समय जब सुक्रॉणु और अण्डे का मिलन होता है तो भौतिक संरचना-शरीर का निर्मॉण होता है।

38-पदार्थ में जीवन का विकास कैसे?-
        जब पॉच घटक आवश्यक अनुपात में और अनुकूल वातावरण हो तो पदार्थ में जीवन का विकास होता है।

39-प्रकृति क्या है?-
        प्रकृति का अर्थ उसका ऐसा स्वभाव जैसे अग्नि का स्वभाव गर्म है या वर्फ का स्वभाव शीतल है इसी प्रकार प्रकृति का स्वभाव ब्रह्म का स्वभाव है।

40-प्रकृति के तीनों गुणों के कार्य-
        1-सतोगुंण के कारण मैं का बोध होता है। इसी से उसे अपने स्तित्व का बोध होता है।2- रजोगुंण क्रिया शक्ति है।वह मैं भाव को कर्तापन में परिवर्तित करता है।3-तमोगुँण जडता प्रदान करने वाली शक्ति है। इससे मैने किया का भाव उत्पन्न होता है।

41-सृष्टि का निर्मॉण-
        प्रकृति और पुरुष के संयोग से ही सृष्टि निर्मॉण का निर्मॉण होता है। कोई भी ईश्वर स्वयं सृष्टि की रचना निर्मॉण नहीं करता बल्कि उसकी योजना के अनुसार इसका क्रमिक विकास होता है। जब पुरुष पर सतोगुंण का प्रभाव पडता है तो उस पुरुष में मैं पन का बोध होता है।बस यही उसके विकास का प्रथम चरण है जिसे महत् भी कहा जाता है।

42-अहम तत्व-
        जब महत् पर रजोगुंण का प्रभाव पडता है तो महत् का कुछ अंश रूपॉतरित होकर अहम् तत्व बन जाता है जिसमें कि कर्तापन का भाव पैदा होता है जो कि अहम तत्व है।

43-पुरुष और प्रकृति के संयोग का कारण-
        ये संयोग तो अनादि हैं। दोनों अलग-अलग रह ही नहीं सकते हैं।प्रकृति में पुरुष हमेशा विद्यमान रहता है और पुरुष में प्रकृति विद्यमान रहती है।दोनों साथ-साथ मित्रभाव से रहते हैं।जिस प्रकार गुंण को गुंणी से अलग नहीं किया जा सकता है,उसी प्रकार प्रकृति को पुरुष से अलग नहीं किया जा सकता है।जैसे चन्द्रमॉ से चॉदनी चीनी से मिठास।