1 – देश भक्ति से ही देश शक्तिशाली बनता है-
एक बार जहॉगीर की लडकी जहॉ आरा बीमार हुई, भारत के कोने-कोने से बैद्ध मंगाये गये पर वह ठीक नहीं हुई फिर अंग्रेज डाक्टर बुलाया गया तो वह ठीक हो गई, जहॉगीर ने डाक्टर से कहा जो मॉगो हम तुम्हैं देंगे डाक्टर ने कहा महॉराज हमेंकुछ नहीं चाहिए, मैं सिर्फ यही चाहता हूं कि ङग्लैंणड से आने वाले माल पर टैक्स न लगाया जाय । उसी समय टैक्स हटा दिया गया ।
2 – ताकतवर का सब साथ देते हैं-
ताकतवर का साथ तो सब देते हैं,निर्वल का साथ कोई नहीं देता, उसी प्रकार जैसे हवा आग को तो बढा देती है जबकिदिया को बुझा देती है ।
3 – समय का पूर्ण उपयोग करें-
एक बार चित्रों की एक प्रदर्शनी में चित्रकार ने एक चित्र में चेहरा ढका रखा था,तथा पॉव में पंख लगे थे ,एक दर्शक ने पूछा कि यह क्या है, चित्रकार ने कहा यह समय है ,ङसका चेहरा ढका क्यों है, ङसलिए कि जब यह सामने आता है तो दिखाई नहीं देता है, और पॉव में पंख क्यों हैं ङसलिए कि यह पुरन्त उड जाता है। इसलिए हरेक को जो समय सामने आता हैउसका भरपूर उपयोग करना चाहिए ।
4-मेघ का पानी सबसे शुद्ध होता है-
वर्षा का जल सबसे अधिक शुद्ध और पवित्र माना जाता है,क्योंकि इस जल का निर्माण सूर्य के द्वारा होता है,सूर्य की ऊष्मा से उसके समस्त कीटाणु नष्ट हो जाते हैं ।
5-अन्न से शरीर का पोषण होता है-
अन्न (शाकाहारी) भोजन शरीर का पोषण करता हैऔर हमारे शरीर के सभी विकारों को नष्ट करता है ।जबकि मॉसाहारी भोजन करने में विकार उत्पन्न होते हैं ।
6-बुद्धिमान कुछ बातों पर चर्चा नहीं करते-
कहते हैं कि जो लोग बुद्धिमान होते हैं वे अपने आर्थिक नुकसान,मन के दुख,घरेलू समस्याओं,ठगना,और अपमान,इन बातों के यथा सम्भव गुप्त ही रखना चाहते हैं । इसका कारण यह है कि यदि वह इन बातों पर चर्चा करेंगे तो, जबाव में वे नतो आपके प्रति लहानुभूति रखेंगे,और न ही आपकी सहायता करेंगे,बल्कि आपका उपहास करेंगे । वे इन बातों को समाज में सार्वजनिक भी कर सकता हैजिससे पूरा समाज आपको अयोग्य समझने लगेगा।और कुछ धूर्त मक्कार लोग तो आपको मूर्ख समझकर आपको ठगने की भी चेष्ठा करेंगे । इसलिए इन बातों के सम्बन्ध में किसी से चर्चा न करें क्योंकि आपकी इन समस्याओं का समाधान नहीं हो सकेगा।
7–अग्नि,गुरु,गाय,वृद्धा,शिशु और कुमारी को पैर से न छुएं-
हमारे वेदों में भी इन आदर्शों का उल्लेख है कि इन्हैं पैर से नहीं छूने चाहिए ।अग्नि को पैर से छूने से पैर जल सकता है, वस्त्रोंमें आग लग सकती है।गुरु(शिक्षक) और ब्राह्मण को को भी पैर से नहीं छूना चाहिए-एक तो वे आदरणीय होते हैं,और दूसरे वे रुष्ठ हो जायेंगे जिससे आप सही ढंग से ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकेंगे ।गाय को भी पैर से नहीं मारना चाहिए क्योंकि गौ माता, फिर क्रोधित होकर सींग मार सकती है ।कुमारी ,वृद्धा और छोटे बच्चों को भी पैर से नहीं मारने चाहिए क्योंकि वे कोमल,नाजुक होते हैं इनको हानि पहुंच गई तो उपचार आपको ही करना पडेगा ।।
8-आत्मा को विवेक से देखें-
बुद्धिमान मनुष्य को विवेक के द्वारा आत्मा और परमात्मा का साक्षात्कार करना चाहिए ।इस प्रकृति में प्रत्येक पदार्थ में कुछ अन्य पदार्थ इस प्रकार से विद्यमान होते हैं कि-वह अलग से दिखाई नहीं देते हैं लेकिन फिर भी उनका अदृश्य अस्तित्व तो होता ही है,जैसे फूलों में सुगन्ध होती है लेकिन अलग से नहीं दिखाई पडती है,बल्कि उसको केवल महसूस किया जा सकता है,तिलों में तेल होता है मगर प्रत्यक्ष नहीं दिखाई देता है,लकडी में अग्नि जलने की सहायता देने वाले तत्व होते हैं,दूध में घी होता है,गन्ने के रस से गुड बनता है ।ठीक उसी प्रकार से शरीर मेंआत्मा विद्यमान होती है,और यह आत्मा परमपिता परमात्मा का ही अंश है । इसलिए बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि वह स्वयं के अन्दर परमात्मा के उपस्थित मानें और उनके प्रतिनिधि के रूप मं कार्य करें-ऐसा विचार धारण कर लेने से वह गलत कर्मों से दूर रह सकेगा ।।
9-संसार-वन्धन से मुक्ति के विचार-
वैसे तो सामान्यतः मनुष्य सदैव मोह माया,लोभ, क्रोध,हानि,लाभ आदि में ही उलझा रहता है,इसीलिए तो वह आत्मिक शॉन्ति प्राप्त नहीं कर पाता है ।लेकिन वही मनुष्य जब किसी धार्मिक स्थान पर जाता है तो उसका मन परमपिता परमात्मा के चरणों में लगने लगता है या वह किसी मनुष्य की अन्त्येष्टि में सम्मिलित होने के लिए श्मशान –भूमि में जाता है तो उसे जीवन की क्षणभंगुरता का अहसास होता है,अथवा किसी रोग से ग्रस्त व्यक्ति विस्तर पर पडे हुये शरीर को देखकरअपने पाप-पुण्य के विषय में सोचता है और मन ही मन ईश्वर को साक्षी मानकर भविष्य में गलत कार्य न करने का प्रण करता है ।लेकिन यदि मनुष्य इन तीनों विचारों को सामान्य स्वस्थ अवस्था में भी अपने मन में स्थिर रखें तो वह आसानी से संसार –बन्धन से मुक्त हो जायेगा और उसे सच्ची आत्मिक शॉति प्राप्त हो जायेगी ।।
10-परिश्रम से धन कमाएं तो सम्मान मिलेगा-
इस संसार में अगर आपके पास प्रयाप्त धन है तो सम्मान मिलेगा,जिस मनुष्य के पास बिल्कुल भी धन नहीं है,उसे बार-बार अपमानित होना पडता है,उसके रिस्तेदार भी उसे कोई महत्व नहीं देते हैं ।इसलिए प्रत्येक मनुष्य को परिश्रमी बनना चाहिए और इतना धन तो अवष्य ही कमाना चाहिए जिससे वह अपनी दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति कर सके।अपने जीविकोपार्जन के लिए दूसरे पर निर्भर न रहें धनवान मनुष्य में समाज को सारे गुंण दिखाई देते हैं ।धनहीन होने पर अपना भाई-बन्धु ,मित्र,नौकर आदि छोडकर चले जाते हैं । लेकिन यदि वह धन प्राप्त कर लेता है तो जाने वाले पुनः लौटकर वापस आ जाते हैं। जो मनुष्य इतना भी परिश्रम न कर सके,उसे तो साधु बनकर जंगलों में चले जाना चाहिए ।
11-गुणवान वही है जिसकी प्रशंसा समाज करे-
सच्चा गुणी वह है जिसकी प्रशंसा समाज के लोग करते हों,लेकिन समाज प्रशंसा क्यों करेगा ? लोग प्रशंसा तब करेंगे जब आपके गुणों से समाज को लाभ प्राप्त होगा। इसलिए अपने गुणों को केवल अपने तक ही सीमित नहीं रखना चाहिए, बल्कि-उसके द्वारा समाज को भी लाभ पहुंचाना चाहिए।किसी मनुष्य में कोई गुंण नहीं है लेकिन लोग उसपर विश्वास करते हों तो उसके मन में भी गुंणी होने की चाह जाग जायेगी,फिर ऐसा मनुष्य अपने गुणों का विकास करके गुणवान बनने का प्रयास करेगा ।
12-नयें गुंण से गुणों की सुन्दरता बढ जाती है-
वैसे रत्न स्वयं में बहुत अधिक सुन्दर तथा मूल्यवान होते हैं लेकिन जब उसे सोने के आभूषण से जड दिया जाता है तो उसकी सुन्दरता में और भी अधिक वृद्धि हो जाती है ।ठीक इसी प्रकार जब किसी विवेकी मनुष्य (धर्म-अधर्म,सत्य-असत्य, कर्तव्य-अकर्तव्य आदि को समझने वाले मनुष्य ) में कोई नयॉ गुंण उत्पन्न होता है तो उसमें पूर्वविकसित गुंण भी अधिक सार्थक हो जाते हैं ।इसका कारण विवेकी मनुष्य अपने गुणों का सही प्रयोग करने में सक्षम होते है और वे उनके द्वारा को लाभ पहुंचाने का प्रयास करते हैं ।
12-आतच्मीयता से व्यवहार करें करें-
जैसा हम महशूस करते हैं वैसा ही दूसरा भी महशूस करता है। यदि हम से कोई ऊटपटॉग सवाल करता हैतो हमें बुरा लगता है,इसलिए हमें चाहिए कि दूसरों के साथ ऊटपटॉग मूर्खों जैसा सवाल न करें।अगर हमारे साथ चार-पॉच लोग एक साथ बोलने लगते हैं तो हम घबडा जाते हैं, इसी प्रकार दूसरों के साथ भी ऎसा ही होता है। इसलिए किसी के साथ एक समय में एक ही आदमी बोले ध्यान रखना चाहिए कि अपने से श्रेष्ठ को आदर सम्मान दें, आत्मीयता से बोले और आत्मीयता से बैठें ।
13 – आध्यात्मवाद और सुखः-दुःख-
जिस प्रकार दृश्य शरीर सम्बन्धी समस्याओं को सुलझाले के लिए सुविस्तृत विज्ञान है, उसी प्रकार अदृश्य शरीर की गुत्थियों को समझने और सुलझाने के लिए जो शास्त्र है, उसे आध्यात्मवाद कहते हैं। हमारे बुद्धिमान पूर्वजों ने चिरकालीन शोध के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला है कि बाहरी परिस्थितियों से सुख-दुख या उन्नति अवन्नति नही आते बल्कि उनका मूल कारण हमारा मन है ।
14 – आत्म दृष्टि-
परमात्मा की विराट सत्ता को देखना-उस व्यक्ति के समान है जो जन्म से अन्धा है, वह यही सोचता है कि विश्व में सर्वत्र ङसी प्रकार का अन्धकार है,लेकिन अगर किसी विशेष उपकरणों से उसकी आंखें ठीक कर दी जाय तो विश्व के क्रिया कलापों को देखर वह सोचता है कि ङतने दिनों तक मैं कहॉ भटक रहा था आज मुझे ङस संसार का दर्शन हुआ । ठीक उसी प्रकार आत्मदृष्टि भी है ।
15 – पवित्र दृष्टि से आंखों का तेज बढता है -
सुरमे से आंखों में तेज नहीं आता बल्कि पवित्र दृष्टि से आंखों में वह तेज आता है कि कोई आंखें मिला नहीं सकता, शिवाजी की तलवार में तेज उनकी दृष्टि से ही आया था,गान्धारी ने पर पुरुष को देखा ही नहीं उसकी आंखों में तेज आया जिसने दुर्योधन को बज्र जैसा बना दिया,अर्जुन के गाण्डीव ने महॉभारत में तहलका मचा दिया था। यदि आपके अन्दर यह तेज आ जाय तो आप भी एक अदाहरण बन जॉय ।
16 – हाथ फैलाना आध्यात्म नहीं है -
दूसरों को दोष देने के बजाय अपने को देखें यदि अपने को नहीं सुधारोगे तो दूसरे लोंगों के सामने हाथ फैलाओगे,कभीसन्तोषी मॉं के तो कभी साईं बाबा के सामने हाथ फैलाओगे यह आध्यात्मिकता नहीं है उन्नति के द्वार तो हमारे अन्दर बन्द पडे हैं। अपनी ओर देखो ,अपनी पात्रता को देखो, वह तुम्हारी हर धडकन के साथ हैं ।आध्यात्म का मकसद ङस दीवार को तोडना है ।
17 – भगवान उसी की रक्षा करता है जो स्वयं अपनी रक्षा करता है -
भगवान अच्छे के लिए कृपालु है, बुरे के लिए क्रूर और निष्ठुर भी है,सरकार अच्छे विद्यार्थी के लिए वजीफा देती है लेकिन यदि विद्यार्थी दीन हैं गरीब हैं मगर बुद्धू हैं तो वजीफा नहीं मिलेगा,यदि आप दीन हैं, दरिद्र हैं,पापी हैं तो बने रहिेए आपके लिए कोई सहायता नहीं है।कोई देवता,सन्तोषी माता या साईं बाबा आपका उद्धार नहीं करेगा। जब आप अपने लिए कुछ करने के ल्ए पसीना बहायेंगे तभी ईश्वर आपके प्रति खुश रहेगा ।
18 -महॉपुरुष कभी बडा आदमी नहीं बनता-
महॉपुरुष कभी बडा आदमी नहीं बनता और बडा आदमी महॉपुरुष नहीं हो सकता है ।चाणक्य ने एक लडके को पकड कहा था कि हम तुम्हें सम्राट बनायेंगे, तुंम्हें सिर्फ खडा रहना है,तुम्हारे कन्धे पर बन्दूक रखकर चलानी है, लडके ने कहा आप स्वयं सम्राट क्यों नहीं बन जाते हो स्वयं ही बन्दूक क्यों नहीं चलाते हों , चाणक्य ने कहा महॉपुरुष बडा आदमी नही बन सकता जितने भी बडे आदमी बने हैं वे कोई भी महॉपुरुष नहीं थे ।
19 – एक समय मे केवल एक ही कार्य करें-
एक समय में कई कार्य करने से शक्तियॉ बंट जाती हैं और एक भी काम ठीक तरह से नहीं हो पाता हैं, काम कुछ और मन कहीं और चित्त की अस्थिरता,एवं चंचलता सद्गुणों को निरर्थक बना देता हैं,कुशल से कुशल कारीगर जब अस्थिर चित्त से काम करता है तो बनने वाली चीज निम्न दर्जे की होगी ।ङसलिए एक समय में एक ही काम करें । एकाग्र चित्त से कार्य करें तों चमत्कारिक परिवर्तन होगा ।
20 – मनुष्य अनन्त महॉशक्तियों का भण्डार है-
मनुष्य जन्म के समय परमात्मा मनुष्य शरीर में आत्मा को अथाह शक्ति के साथ सृजित करता है। इसीलिए यह मनुष्य महॉशक्तियों का भण्डार है, जितना बल उसके अन्दर मौजूद है उसका लाखवें भाग का प्रयोग वह अभी तक नहीं कर पाया है,इस छिपे हुये भण्डार में अतुल रत्न राशि छिपी पडी है, जो कोई जितना उसमें से निकाल लेता है वह उतना ही धनी बन जाता है ।
21 – स्वभाव से स्वर्ग और नरक बन जाता है -
दार्शनिक ङमर्शन कहते थे कि यदि मुझे नरक में रहना पडे तो में अपने उत्तम स्वभाव से वहॉ भी स्वर्ग बना दूंगा ।अर्थात जिनकी मनोभावनायें,विचारधारायें,मान्यतायें, उच्चकोटि की सात्विक होती हैं हैं उनके लिए सर्वत्र स्वर्ग ही स्वर्ग है, उसके चारों ओर आनन्द और प्रेम उमडा हुआ दिखाई देता है,किन्तु जिसका दृष्टिकोण निकृष्ट है, नीति अच्छी नहीं है , भावनायें अच्छी नहीं हैं उनके लिए तो यह जीवन नर्क है ।
22 – संसार में अधिकॉश दुख काल्पनिक होते हैं-
संसार में जितने भी दुख हैं उनमें से तीन चोथाई दुःख मनुष्य अपनी कल्पना शक्ति के सहारे उन्हैं गढकर तैयार करतेहैं,और उन्हीं से डर-डर कर खुद दुखी होता रहता है, वह चाहे तो अपनी कल्पनाशक्ति को परिमार्जित कर अपने दृष्टिकोण को शुद्ध करके ङन काल्पनिक दुखों के जंजाल से आसानी से छुटकारा पा सकता है ।
23-आंनंद की खोज-
सारी खोज के पीछे आनंद की प्यास हमें घसीटे चली जा रही है,किसी अज्ञात की ओर,सारी खोजों में ढूंडते-ढूंडते जब हम हार जाते हैंऔर कुछ नहीं मिलता है तो हम धर्म की ओर मुडते हैं तब भी उसे बाहर ही खोजते हैं।कारण यह कि जो हमस्वयं हैं, उसे खोजते हैं।अपने से हम भागते हैं,हर समय अपने से भागते हैं,इसलिए कि अपने से परिचित नहीं हैं, अपने सौदर्य से, अपने वैभव से,अपने ज्ञान से और अपने प्रेम से अपरिचित हैं और आनंद की खोज में बाहर की ओर दौडते हैं लेकिन आनंद तो बाहर नहीं है,यह तो अंदर है,आप में है,आप तो स्वयं आनंद स्वरूप हैं ।।
24-नास्तिक और आस्थावान के विचार-
हमारा प्रश्न है कि ईश्वर क्या है?नास्तिक कहते हैं कि ईश्वर नहीं है, लेकिन आस्थावान दृढता से कहते हैं कि ईश्वर है,भले ही उसने देखा नहीं है। इनमें कौन सच है, मुख्य बात तो यह है कि नास्तिक किस आधार पर कहता है कि परमात्मा नहीं है,किस आधार पर अपनी मान्यता को सिद्ध कर रहे हैं ।क्या कभी उसने ध्यान,चिंतन,औरमनन किया है ?कितने वर्ष तक उसने अपनी अन्तरात्मा कीखोज की ?और खोज में साधना की है?जिसके आधार पर वे ऐसा कहते हैं ।और दूसरी ओर जो लोग परमात्मा में विश्वास रखते हैं वे तो अपने भीतर मन और बुद्धि से परे अवचेतन से कुछमहसूस करते हैं कि इसके पीछे कोई सिद्धॉत है जो जो ब्रह्मॉण्ड के कार्यों को सुचारु रूप से चलाता है। जीवित या चेतन शक्ति जो ब्रह्मॉण्ड चला रही है परमात्मा है ।।
25-महान चेतना हमारी उत्पत्ति से पहले मौजूद थी-
हमें विनम्रता पूर्वक स्वीकार करना चाहिए कि ऐसी महान चेतना हमारी उत्पत्ति से पहले से मौजूद थी ।हम तो उसके बारे में जान सकते हैं जो हमारे बाद उत्पन्न हुई,उन घटनाओं के बारे में हम नहीं जान सकते जो हमारे पैदा होने से युगों पहले घटित हुई थी।फिर भी हम उपलब्ध ज्ञान के द्वारा अनुमान लगा सकते हैं,किसी नतीजे पर नहीं पहुंच सकते हैं क्योंकि खोजों के आधार पर देखा गया है कि लोग अलग-अलग निष्कर्षों पर जहुचे ।और सच क्या है फिर इसपर विवाद शुरू होने लगा । इस आधार पर निश्चित आकृति देना सम्भव नहीं है कि हम उसे कोई नाम दें,बस उसे हम परम चेतना का सिद्धान्त या सर्वशक्तिमान कह सकते है ।परम चेतना का सिद्धान्त ही सबकी उत्पत्ति का सिद्धान्त है,यही जीवन का सूत्र है।उस महान चेतना का गुण बल,शक्ति,या ताकत है,जो अपनी तेजस्विता में अपनी इच्छा तथा अपने कार्यों के नुसार बढती-घटती रहती है ।
26-मनुष्य की झूठी धारणॉ-
जो मनुष्य कोई कार्य करता है तो वह अज्ञानता में यह सोचता है कि सारा कार्य वह स्वयं कर रहा है,परन्तु वह केवलनिर्जीव कार्य ही कर सकता है।केवल प्रकृति ही सजीव कार्य कर सकती है।यह धारणॉ मनुष्य की झूठी है कि वह सब करता है इससे उसका ईगो(अहंकार) मजबूत होता है,उसका यह अहंकार गुब्बारे की तरह फूलने लगता है ।यह अहंकार मनुष्य के मस्तिष्क के बायें भाग में होता है अहंकार का यह गुब्बारा फूलते जाता है और एक अवस्था आती है जब और फूलने की जगह नहींहोती है,परिणाम स्वरूप विपरीत दिशा की ओर उसका आकार बढने लगता है,ऐसा व्यक्ति अपनी संवेदनशीलता खो देते हैं। भौतिक लाभ के लिए स्वार्थी बन जाते हैं,दूसरों पर अपना अधिकार जमाने लगते हैं।उसका व्यक्तित्व कुटिल,रूखा और आक्रामक बन जाता है।अपने अहंकार में अंधा होकर उसकी स्थिति मूर्खों की जैसी हो जाती है।।
27-अत्यन्त भाउक होना नाडीतंत्र की कमजोरी का फल है-
जब नाडी तंत्र कमजोर होती है तो हम किसी भी बात पर भाउक हो जाते हैं। इससे हर्ष और विषाद के बीच एक नाटकीय द्वंद बना रहता है ।इससे वे आलसी, नकारात्मक,तामसी,और अपने आप से पीढित रहते हैं।बायें ओर की यह चन्द्रनाडी मस्तिष्क के दायें भाग पर प्रतिअहंकार के रूप में अधिक दबाव डालती है,तो मनुष्य पागलपन,पाक्षाघात तथा वृद्धावस्था को प्राप्त होता है और जो लोग अत्यधिक भाउक होते हैं वे सन्तुलन खो देते हैं।परिणाम स्वरूप उसका प्रतिअहंकार दाहिने मस्तिष्क के ऊपर फूल जाता है,और जब यह अधिक बढ जाता है तब बायें ओर स्थित अहंकार को दबाता है, ताकि सूर्यनाडी को राहत मिले।इस प्रकार वह असंतुलन की स्थिति में रहता है ।।
28-सुख-दुख-
हमेशा सुख-दुख में सम रहो।न सुख में अपने को भूलो,नदुःख की चपेट में एकदम टूटो ।सुख-दुखदोनों को प्रभु की इच्छा मानकर आनन्द से स्वीकार करो।दुःख को भी पर्भु का आशीर्वाद मानो ।।
29-ईश्वर को महसूस करना-
हर व्यक्ति को ईश्वर अलग-अलग तरह से महसूस होता है,इसलिए किसी एक व्यक्ति के ईश्वर साक्षात्कार का अनुभव दूसरे से नहीं मिल सकता है।इसलिए हर व्यक्ति को ईश्वर पाने का अपना अलग ही रास्ता बनाना होता है।वहॉ तकपहुंचने के लिए कोई बना बनाया रास्ता नहीं है।
30-कपटी और धोखेबाज आध्यात्मिक गुरु से बचें-
अधिकॉश आध्यात्मिक संगठन नशीली औषधि के समान हैं।वे साधकों को फुसलाते हैंऔर अपने जाल में फंसाते हैं।वे धूर्त कपटी और धोखेबाज हैं।उनसे होने वाले खतरे तब दिखाई देते हैं जब देर हो चुकी होती है।हर वस्तु जो अनित्य (क्षणिक) हैं वह सत्य नहीं हो सकती,और सभी शक्तियॉ मनुष्य को सत्य के मार्ग पर नहीं ले जाती । वॉणी –सिद्धि दृष्टि शक्ति,नक्षत्रीय गडना,प्रकाश की धारियॉ,प्रेत-शक्ति के वाहन का कार्य़,भविष्यवॉणी करना,मृत आत्माओं से सम्पर्ख करना, और हठ योग आदि सभी सम्भव है,परन्तु वे हमें सत्य तक नहीं पहुंचा सकते ।वे हमें क्षणिक शक्ति देते हैं,तथा हमारे अहंकार को हवादेते हैं कि हम कोई विशेष व्यक्ति हैं।परन्तु ये सब शक्तियॉ शीघ्र ही क्षीण हो जाती हैं और बीमारी,तखलीफ,और उदासीनता पैदा करती हैं।वे प्रेत-बाधा को स्पष्ट रूप से आमंत्रित करती है ।वे धोखा या भ्रम पैदा करते हैं ।और हमसे पैसा ऐंठने के चक्कर में रहते हैं।वे हमारी आत्मा को नष्ट करने पर तुले हैं और आत्मा का परमात्मा से मिलने का अवसर समाप्त हो जाता है ।।
31-गुरु या समुदाय का चयन कैसे करें-
अगर हम किसी समुदाय मेंशामिल होना चाहते हैं या गुरु का चयन करते हैं तो निम्न प्रश्न पूछ लेना चाहिए ।
1-क्या किसी समय पैसा लिया जाता है।क्योंकि सत्य को खरीदा नहीं जाता ।।
2-क्या गुरु द्कानदार के समान दबाव तो नहीं डालता है ।
3-क्या हम स्वयं उनकी पद्धति का लाभ उटा सकते हैं,झूठे आश्वासनों पर संतुष्ट नहों ।
4-क्या वे अपने अनुयायियों को अजीव किस्म के पहनावे के लिए कहते हैं,क्योंकि सत्य इनमें नहीं है ।
5-क्या यह संतुलित मार्ग है ।
6-क्या उनके संगठन के सदस्यों का गुरु पर विश्वास है ।
7-क्या वहॉ सदस्य को स्वतंत्रता है कि जब चाहे छोड सकता है ।
8-क्या कोई ऐसा तरीका है,जिससे उनकी तकनीक की जॉच की जा सके ।इन प्रश्नों के
उत्तरों से संतुष्ट होने पर ही किसी गुरु या समुदाय का चयन करना चाहिए ।
32-उतार और चढाव जीवन की अपनी समस्या है-
जीवन की अपनी समस्या है उसमें उतार-चढाव हैं जैसे दुःख-दर्द का चक्र हमारे साथ चलता है ।लेकिन हम दुखी हो जॉय और लगातार हमारे साथ चलता रहेगा ऐसा नहीं है।हमेंदुर्भाग्य की गलत धारणॉ में नहीं पडना चाहिए,सकारात्मकता सेहमें अपनी गलतफहमी को दूर करना होगा ।जब काले बादल छाये हों तो हमें प्रकाश की चमकीली रेखाओं की ओर देखना चाहिए। और जब हम कीचड में हैं तो हमें कमल की ओर देखना चाहिए,जो उस कीचड में खिलते हैं ।आवास्तव में जीवन ईश्वर का एक उपहार है-आइये हम एक दूसरे का हाथ पकड कर इस मार्ग पर बढें जिससे चौराहों के इशारों को नहीं चूकेंगे।अंधे लोग गूंगे की आंखों से देख सकेंगे और बहरे लोग अंधों के कान से सुन सकेंगे।अपने जीवन उपहार को बॉटने से जीवन यात्रा छोटी पड जायेग
33-संसार का स्वर्ग क्या है-
हमारे शास्त्र कहते हैं कि सत् से सुख उपजता है । यदि आप जीवन के उच्चतम् लाभों को प्राप्त करना चाहते हैं तो वह बाह्य जगत में नहीं बल्कि अन्तर्जगत में प्राप्त होगा ।स्वर्ग,मुक्ति तथा परम पद की कुंजी आपके हाथ में है। आप चाहे तो आत्म निर्माण द्वारा इन तत्वों को प्राप्त कर सकते हैं।संसार का स्वर्ग समस्त दुष्ट भावनाओं–काम,क्रोध,मोह,इच्छा,तृष्णा इत्यादि से दूर रहना है ।जो व्यक्ति इन वासनाओं का दास है वह नरक की यातनायें भुगत रहा है ।संसारकी वस्तुओं से मनुष्य को कोई स्थाई सुख प्राप्त नहीं होता।हर क्षण दूसरी वस्तु की ओर मन भागता है।एक इच्छा के बाद हजार नईं इच्छायें जन्म लेती हैं। जिससे मस्तिष्क में निर्बलता,चिडचिडापन,अनिद्रा,उद्वेग,अरुचि,भ्रम,व्याकुलता, आदि दुष्ट भावनायें उत्पन्न होती हैं। इसलिए इस अहितकर मार्ग को त्यागकर सत्मार्ग की ओर चलना है-स्वर्ग की ओर यात्रा प्रारम्भ करना है।जब ह्दय से अपवित्र,अशुभ वासनायें नष्ट हो जायेंगी और उनके स्थान पर शुभ संकल्पों का निर्माण होने लगेगा,तभी मनुष्य को वासना शुद्धि प्राप्त होगी।इसी को मुक्ति पद समझना चाहिए,फिर विशुद्धि जीवन की तीव्रता से प्रगति प्रारम्भ हो जाती है ।।
34-मनुष्य का मन एक मार्गी है-
मन एक मंदिर है मनोवैज्ञानिकों के मत के अनुसार मनुष्य का मन एक मार्गी है,अर्थात उसमें एक समय में एक ही विचार रहता है,कई विचार एक साथ नहीं आते हैं यदि दया का विचार चल रहा है तो क्रोध का विचार नहीं चल सकता,यदि प्रेम, सहानुभूति,करुणॉ की त्रिवेणी प्रवाहित हो रही है, तो हिंसा,वैमनस्य, आवेस के आसुरी विचार नहीं रह सकते।हमारे मन में रहने वाला अच्छा विचार एक प्रकार का ऐसा कवच है जो हिंसा,पाप,क्रोध,वासना,स्वार्थ या अन्याय के अनिष्ठ विचारों से हमारी रक्षा कर सकता है ।मन का सात्विक वातावरण ही हमारा वह कवच है जो दूषित विचारधारा या अमंगलकारी वासनाओं से हमारी रक्षा करता है ।इसलिए अमंगल विचारों को रोकने के लिए मंगल विचारों का प्रयोग किया जा सकता है । जैसे क्रोध भाव को शॉत करने के लिए शॉति,द्वेष भावना को रोकने के लिए प्रीति भवना का प्रयोग किया जा कता है,अर्थातमन में अनिष्ठ विचार प्रवाहित हो रहे हों तो इन्हैं रोकने के लिए विपरूत सद्गुंण और धर्म वाली भावना मन में प्रवाहित कर मानस प्रदेश को धो डालना चाहिए।अनिष्ठ विचार का प्रवाह स्वतः बदल जायेगा ।इस नियम का पालन करें तो आप अपने जीवन में परिवर्तन कर सकते हैं ।
35-पाप कर्म एक वृक्ष के समान है-
पाप तो एक वृक्ष के समान है,उसका बीज लोभ है ,मोह उसकी जड है, असत्य उसका तना है और माया उसकी शखाओं का विस्तार है,दम्भ और कुटिलता उसके पत्ते,कुबुद्धि फूल हैं और नृशंसता उसकी गंध और अज्ञान फल हैं ।और छल, पाखण्ड, चोरी,ईर्ष्या,क्रूरता,कूटनीति,पापाचार से युक्त प्राणी उस वृक्ष के पक्षी हैं,जो कि माया रूपी शखाओं पर बसेरा करते हैं।अज्ञान उस वृक्ष का फल है और अधर्म उस फल का रस है,तृष्णा रूपी जल से उस वृक्ष को सींचने पर वह वृक्ष बढता है। जो मनुष्य उस वृक्ष की छाया का आश्रय लेकर संतुष्ट रहता है, उसके पके हुये फलों को खाता है वह ऊपर से कितना ही प्रशन्न क्यों न हो,वास्तव में पतन की ओर जाता है।इसलिए लोभ को त्याग देना चाहिए,धन की चिंता तो कभी न करें । कितने ही विद्वान हैं जो मूर्खों के मार्ग पर चलते हैं दिन-रात मोह में डूबे रहते हैं,निरंतर इसी चिंता में डूबे रहते हैं कि किस प्रकार मुझे अच्छी स्त्री मिले, धन-दौलत मिले ।चाहें वे किसी भी गुफा में चले जॉय उस पाप कर्म को छुपाने का प्रयास करें मगर पाप ऐसा कुटिल है किवह स्वयं पुकार-पुकार कर अपना ढोल पीटता है। आपके पैरों के नीचे उगी घास इस बात का साक्षी देगी,आपके इर्द-गिर्दखडे पेड मुंह खोलकर आपके विरुद्ध कहेंगे,उस पापकर्म को देखने के लिए सहस्रों नेत्र,सहस्रों कान अनगिनत हाथ हैं वे दिन-रात आपकी विभिन्न लीलायें निहारा करते है।पाप की सजा अवश्य मिलेगी ईश्वर दुष्कर्म की सजा देने में किसी को रियायत नहीं करता है ।।
36-आत्मोन्नति की ओर बढें-
आत्मोन्नति का अर्थ है अपने दैनिक जीवन में नित्यप्रति घटने वाली सुख-दुख हर्ष विषाद की भावनाओं से उपर उठें अर्थात इनके वश में आने के स्थान पर अपनी आत्मिक दृढता,साहस और संयम द्वारा इनपर राज्य करें मनोविकारों को मजूती से अपने वश में रखना,उनसे अविचलित रहना,स्वयं उपनी इच्छानुसार उन्हैं ढालना,क्रोध के समय प्रशन्न रहना यह आत्मोन्नत व्यक्ति ही कर सकता है।आत्मोन्नति की यात्रा तो लम्बी है ,इसकी भिन्न-भिन्न स्थितियॉ तथा अवस्थायें हैं।मनोविकार उसे खूब नाच नचाते हैं।कभी वह हंसता है कभी आंसू बहाता है,कभी वह अपने ऐश्वर्य में पागल हो जाता है, तो कभी वह अपने धन-जन की की हानि से इतना उद्विग्न हो जाता है कि उसे अपना आगा-पीछा ही कुछ नहीं सूझता ।आत्मोन्नति का अर्थ है पशुत्व से मनुष्य कू ओर आना है। पशुत्व का अर्थ है अपने मनोविकारों पर तनिक भी शासन न कर पाना,जो जैसा मनोविकार आया,उसे ज्यों का त्यों प्रकट कर दिया।काम,भूख,प्यास आदि वासनायें उत्पन्न हुईं कि तुरन्त उसकी पूर्ति कर ली गयी, पशुत्व है ।और जब इन वासनाओं पर संयम आना प्रारम्भ होता है और मानवता के उच्चतम् गुंण प्रेम, सहानुभूति,करुणॉ,सहायता संगठन,सहयोग,समष्टि के लिए व्यक्तित्व का त्याग इत्यादि भावनाओं का उदय होता है,तब मनुष्य मनुष्यत्व के स्तर पर निवास करता है ।धीरे-धीरे उसका और भी विकास होता है और वह सॉसारिक बन्धनों से छूटकर आत्मा जैसे ईश्वरीय तत्व की प्राप्ति में अग्रसर हो जाता है ।उसे अब प्रतीत होने लगता है कि विश्व में जो कुछ भी है ,उसका स्वामी परमात्मा है,सब में प्रभु का निवास है,इसलिए वह त्यागपूर्ण भोग करता है,और जिसको यह दृष्टि प्राप्त हो गई वह धन्य है ।
37-भगवान कृष्ण ने नरक के तीन द्वार बताये-
भगवान कृष्ण ने गीता में नरक के तीन द्वार बताये –काम,क्रोध,और लोभ ।आत्म सल्याण चाहने वालो इन तीनों से सावधान रहें अन्यथा वह नरक में पहुंच जायेगा हे मनुष्य तू उन्नति की ओर बढ, कोई ऐसा कार्य न कर जिससे तू नीचे गिरे तथा तुझे दुख या संताप हो।