Thursday, March 26, 2015

भारतीय संस्कृति की सुगन्ध

1-ध्यान: मनुष्य के जीवन का आदर्श संस्कार है
 
          अगर देखें तो मेडिटेशन आजकल एक फैशन की तरह इस्तेमाल होने लगा है। कोई किताब पढ़ कर तो कोई किसी से कुछ सुनकर मेडिटेशन का अपना मतलब और अपना तरीका विकसित कर लेता है। ऐसे में बहुत जरूरी है यह जानना कि आखिर मेडिटेशन है क्या? 'मेडिटेशन शब्द के साथ लोगों के दिमाग में कई तरह की गलत धारणाएं हैं।
 
          सबसे पहली बात तो यह कि अंग्रेजी के मेडिटेशन शब्द का कुछ सार्थक मतलब नहीं है। अगर आप बस आंखें बंद कर बैठ जाएं तब भी अंग्रेजी में इसे मेडिटेशन करना ही कहा जाएगा। आप अपनी आंखें बंद करके बैठे हुए बहुत से काम कर सकते हैं- जप, तप, ध्यान, धारना, समाधि, शून्या कुछ भी कर सकते हैं। पश्चिमी समाज में देखें तो जाहिर है कि आज आप जिन चीजों को पाने का सपना देखते हैं, वे ज्यादातर पहले से ही उनके पास हैं।
 
          क्या आपको लगता है, वे संतुष्ट हैं, आनंद की स्थिति में हैं? नहीं आनंद के आसपास भी नहीं हैं वे। या यह भी हो सकता है कि आपको बस सीधे बैठकर सोने की कला में महारत हासिल हो। तो आखिर वह चीज है क्या, जिसे हम मेडिटेशन कहते हैं? आमतौर पर हम ऐसा मान लेते हैं कि मेडिटेशन से लोगों का मतलब ध्यान से होता है। अगर आप ध्यान को मेडिटेशन समझते हैं तो यह कोई ऐसी चीज नहीं है जिसे आप कर सकते हैं। जिन लोगों ने भी ध्यान करने की कोशिश की है, उनमें से ज्यादातर अंत में इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि इसे करना या तो बेहद मुश्किल है या फिर असंभव। और इसकी वजह यह है कि उसे आप करने की कोशिश कर रहे हैं। आप मेडिटेशन नहीं कर सकते, लेकिन आप मेडिटेटिव हो सकते हैं।
 
          ध्यान एक खास तरह का गुण है, कोई काम नहीं। अगर आप अपने तन, मन, ऊर्जा और भावनाओं को परिपक्वता के एक खास स्तर तक ले जाते हैं, तो ध्यान स्वाभाविक रूप से होने लगेगा। यह ठीक ऐसे है, जैसे आप किसी जमीन को उपजाऊ बनाए रखें, उसे वक्त पर खाद पानी देते रहें और सही समय पर सही बीज उसमें डाल दें तो निश्चित तौर से इसमें फूल और फल लगेंगे ही। एक पौधे पर फूल और फल इसलिए नहीं आते हैं, क्योंकि आप ऐसा चाहते हैं। बल्कि इसलिए आते हैं, क्योंकि आपने उनके खिलने के लिए एक उचित वातावरण और अनुकूल परिस्थितियां पैदा कर दी है। ठीक इसी तरह अगर आप अपने भीतर भी एक उचित और जरूरी माहौल पैदा कर लें, अपने सभी पहलुओं को सही परिस्थितियां प्रदान कर दें तो मेडिटेशन आपके भीतर अपने आप होने लगेगा। यह तो एक खास तरह की खुशबू है, जिसे कोई इंसान अपने भीतर ही महसूस कर सकता है।  
 
फिर क्यों करें ध्यान? --
          ध्यान का अर्थ है अपने भौतिक शरीर और मन की सीमाओं से परे जाना। जब आप अपने शरीर और मन की सीमाओं से परे जाते हैं, केवल तभी आप अपने अंदर जीवन के पूर्ण आयाम को पाते हैं। जब आप खुद को शरीर के रूप में देखते हैं तो आपकी पूरी जिंदगी बस भरण पोषण में निकल जाती है। अगर आप बस आंखें बंद कर बैठ जाएं तब भी अंग्रेजी में इसे मेडिटेशन करना ही कहा जाएगा।
 
        आप अपनी आंखें बंद करके बैठे हुए बहुत से काम कर सकते हैं- जप, तप, ध्यान, धारना, समाधि, शून्या कुछ भी कर सकते हैं।जब आप खुद को मन के रूप में देखते हैं तो आपकी पूरी सोच सामाजिक, धार्मिक और पारिवारिक नजरिए से तय होती है। आपकी सोच एक तरह से गुलाम बन जाती है। फिर आप उससे आगे देख ही नहीं सकते। जब आप अपने मन की चंचलता से मुक्त हो जाएंगे, केवल तभी आप शरीर और दिमाग से परे के पहलुओं को जान पाएंगे।
 
        यह शरीर और यह मन आपका नहीं है, इन्हें आपने धीरे-धीरे समय के साथ इकठ्ठा किया है। आपका शरीर उस भोजन का बस एक ढेर भर है, जो आपने खाया है। आपका मन भी बस बाहरी दुनिया के असर और उससे मिले विचारों का ढेर है। आपके मकान और बैंक बैलेंस की तरह ही आपके पास एक शरीर और एक मन है। अच्छा जीवन जीने के लिए इनकी जरूरत होती है, लेकिन कोई भी इंसान इन चीजों से संतुष्ट नहीं होगा। इन चीजों के जरिये लोग अपने जीवन को केवल आरामदायक और सुखमय बना लेते हैं।
 
         पश्चिमी समाज में देखें तो जाहिर है कि आज आप जिन चीजों को पाने का सपना देखते हैं, वे ज्यादातर पहले से ही उनके पास हैं। क्या आपको लगता है, वे संतुष्ट हैं, आनंद की स्थिति में हैं? नहीं आनंद के आसपास भी नहीं हैं वे। बस खाना, सोना, बच्चे पैदा करना और मर जाना, इससे पूर्ण संतुष्टि नहीं होती।
 
        इन सभी चीजों की जीवन में जरूरत पड़ती है। लेकिन इन चीजों से हमारा जीवन पूर्ण नहीं हो पाता। अगर आपने अपने जीवन में इन सारी चीजों को पा लिया है तो भी आपका जीवन पूर्ण नहीं होता। इसकी वजह यह है कि मानव जागरूकता की एक खास सीमा को लांघ चुका है।
 
          इंसान हमेशा कुछ और अधिक चाहता है, नहीं तो वह कभी संतुष्ट नहीं होगा। इसकी असल इच्छा असीमित होने की या फिर अनंत होने की है। तो ध्यान एक ऐसा जरिया है जो आपको, असीमित व अनंत की ओर ले जाता है।
 
 
2-भक्ति भावना एक ऐसा प्रेम हैं जिसमें मनुष्य सेवक बनना पसन्द करता है         
 
        बहुत कम लोग ऐसे प्रेम प्रसंग के लिए तैयार होते हैं, जो दो जिंदगियों को एक कर दे और उन्हें परम-तत्व से मिलन की अवस्था तक पहुंचा दे। बेशर्त प्यार परम मिलन का रास्ता है- दो लोगों का अनुभव में एक होने के लिए, एक अलग तरह की तैयारी की जरुरत है। ज्यादातर लोग प्यार को घरेलू जरूरतों को पूरा करने के लिए इस्तेमाल करते हैं। वे उससे आगे नहीं जाना चाहते।
 
        घरेलु जरूरतों से आगे जाने के लिए दोनों को तैयार होना होगा। अगर एक तैयार है और दूसरा नहीं, या एक कोशिश कर रहा है और दूसरा नहीं, तो ऐसा लग सकता है कि एक व्यक्ति पायदान बन रहा है, या एक का शोषण हो रहा है। मगर जो परम मिलन के लिए खुद ही प्यार बन जाना चाहता है, उसे पायदान या कुछ और बनने की परवाह नहीं होनी चाहिए।  
 
          ऐसा प्यार जिसमें पायदान बनना मंजूर हो भारत में हमारे यहां एक ऐसी संस्कृति है, जहां लोग अपनी मर्जी से खुद को दास बना लेते हैं। आप तुलसीदास, कृष्णदास, या किसी और तरह के 'दास को जानते हैं? वे खुलेआम कहते हैं, 'मैं एक दास हूं। वे पायदान के रूप में इस्तेमाल किए जाने से डरते नहीं हैं। वे तो खुद पायदान बनना चाहते हैं। इस तरह का प्यार परम मिलन के लिए होता है, सिर्फ घरेलू मकसद के लिए नहीं।
 
          अगर आप परम मिलन की खोज में हैं, तो प्यार अलग ही तरीके से होना चाहिए। अगर आप प्यार से सिर्फ घरेलू कामकाज चलाने का रास्ता खोज रहे हैं, तो फिर जरूर आपको शिष्ट तरीके से यह देखना होगा कि 'इस प्यार से किसको क्या मिलता है। अगर कोई जरूरत से ज्यादा दूसरे का इस्तेमाल करता है, तो नतीजा यह होगा कि 'अगर तुम मुझे यह नहीं दोगे, तो मैं तुम्हें वह नहीं दूंगा।
 
          यह एक सामाजिक चीज है। वरना, अगर आप परम मिलन चाहते हैं, तो आपको इन सब चीजों के बारे में नहीं सोचना चाहिए। या दूसरे शब्दों में, अगर प्यार एक खास स्तर से आगे चला जाता है, तो आप हमेशा सुरक्षित रहने की मानसिकता छोड़ देते हैं, और अपने-आप एक तरह से आघात-योग्य बन जाते हैं। हमेशा सुरक्षित रहने की मानसिकता छोड़े बिना, कोई प्रेम संबंध नहीं हो सकता।
 
          सच्चे प्रेम के लिए, आपको प्रेम में गिरना होता है। जब आप गिरते हैं, तो कोई आपको उठा सकता है, या कोई आपको कुचल कर भी जा सकता है। प्रेम के अनुभव का स्त्रोत यह अनुभव सुंदर होता है क्योंकि आप गिरते हैं या फिर हमेशा सुरक्षित रहने की मानसिकता छोड़ कर खुद को आघात-योग्य बना लेते हैं। यह सुन्दर इसलिए नहीं होता क्योंकि आपको उठाया गया, इसलिए भी नहीं कि आपको कुचला गया। इसमें सुन्दरता इसलिए आती है, क्योंकि प्यार में गिरने के लिए आपने अपने अंदर त्याग की भावना पैदा कर ली।
 
          अंग्रेजी का मुहावरा, 'प्यार मे गिरना वाकई सही और बहुत खूबसूरत है। वहां हमेशा प्यार में गिरने की बात की गई। किसी ने कभी प्यार में खड़े होने या प्यार में चढऩे या प्यार में उडऩे की बात नहीं की। क्योंकि आपके 'अहम् के गिरने पर ही आपके अंदर प्यार का एक गहरा अनुभव हो सकता है। आपके प्रेम की सुंदरता उसमें नहीं थी जो उन्होंने आपको दिया या जो उन्होंने आपके लिए किया।
 
          आप अकेले बैठे और सोचा कि वाकई आप इस इंसान को इतना प्रेम करते हैं, कि उसके लिए आप मरने के लिए तैयार हैं वह पल सबसे खूबसूरत पल होता है। वह पल नहीं, जब उन्होंने आपको एक बड़ा तोहफा दिया, वह पल नहीं, जब उन्होंने आपको हीरे की अंगूठी दी, वह पल नहीं जब उन्होंने आपके बारे में ऐसी-वैसी चीजें कहीं नहीं। एक ऐसा पल था जब आप दूसरे व्यक्ति के लिए मरने को तैयार थे वही सच्चे प्यार का पल था। आप न सिर्फ पायदान बनने को, बल्कि उनके पैरों की धूल बनने को तैयार थे। भक्ति का पागलपन मैं यह नहीं कह रहा हूं कि आपको खुद को वैसा बना लेना चाहिए मैं यह कह रहा हूं कि जब प्रेम भक्ति में बदल जाता है, तो आप ऐसे ही बन जाते हैं। अगर आप प्यार में गिरते हैं, तो आप असुरक्षा को अपनाने और आघात-योग्य बनने को तैयार हो जाते हैं। मगर फिर भी प्रेम प्रसंगों में थोड़ी-बहुत 'समझदारी काम करती है आप उस स्थिति को छोड़ कर बाहर आ सकते हैं। लेकिन अगर आप भक्त बन जाते हैं, तो आपके अंदर कोई 'समझदारी नहीं बचती और आप उससे उबर नहीं सकते।  
 
          आप सिर्फ इसलिए भक्त नहीं बनते क्योंकि आपने खुद को किसी एक धर्म, पंथ या किसी और चीज से जोड़ लिया है। एक भक्त खुद को किसी चीज से नहीं जोड़ सकता, वह बस भक्ति की ओर खिंचता है। इसलिए इससे पहले कि आप भक्ति के क्षेत्र में कदम रखें, आपको देख लेना चाहिए कि आप उसके लिए तैयार हैं या नहीं।  
 
          सबसे पहले तो आपके लक्ष्य क्या हैं? अगर आपका लक्ष्य बस दूसरे जीवन को अपना एक हिस्सा बनाना हैं, तो आपके लिए एक संतुलित प्रेम संबंध अच्छा है। लेकिन अगर आप बस एक अच्छा जीवन जीना नहीं चाहते, बल्कि आप खुद को जीवन की प्रक्रिया में विलीन कर देना चाहते हैं अगर आप एक विस्फोटक-जीवन जीना चाहते हैं, अगर आप परवाह नहीं करते कि आपको क्या मिला और क्या नहीं मिला, तो आप एक भक्त बन जाते हैं। एक भक्त 'किसी का भक्त नहीं होता। भक्ति एक गुण है। भक्त का मतलब एक खास एकाग्रता होता है, आप लगातार एक ही चीज पर ध्यान लगाते हैं। जब कोई इंसान इस तरह बन जाता है, कि उसके विचार, उसकी भावनाएं और सब कुछ एक दिशा में केंद्रित हो जाते हैं, तो उस इंसान को कुदरती रूप से कृपा मिल जाती है। वह ग्रहणशील बन जाता है।
 
          भक्ति का मतलब है कि आप अपने भक्ति के केंद्र में खो जाने का इरादा रखते हैं। एक भक्त के रूप में आप यह नहीं सोचते कि आप एक पायदान बनते हैं, या किसी के सिर के ताज। आप जो भी बनते हैं, उससे आपको कोई आपत्ति नहीं होती, जब तक कि आप उस एक के पैरों या सिर या और कुछ को स्पर्श कर सकें। यह अस्तित्व की एक अलग अवस्था है। मुझे नहीं लगता कि घरेलू किस्म के प्रेम संबंध की तलाश में रहने वाले किसी इंसान को यह सवाल पूछना भी चाहिए।
 
 
3-हमारे शरीर की ऊर्जा अच्छी और बुरी हो सकती है
 
          आधुनिक भौतिक शास्त्र के अनुसार अस्तित्व में जो कुछ भी मौजूद है वह ऊर्जा ही है। तो फिर क्या कारण है कि सब कुछ एक होने के बाद भी दुनिया में मतभेद दिखाई देते हैं? क्या एक ऊर्जा दूसरी के खिलाफ है? क्या अच्छी और बुरी ऊर्जा जैसी कोई चीज़ है?----विद्वानों के विचारों के आधार पर आइये जानने का प्रयास करते हैं- आधुनिक विज्ञान ने साबित कर दिया है कि हर चीज एक ही ऊर्जा है।
 
          दुनिया भर के धर्म कहते रहे हैं कि ईश्वर हर जगह है। चाहे आप यह कहें कि ईश्वर हर जगह है, या आप यह कहें कि हर चीज एक ही ऊर्जा है ये दोनों ही बातें एक ही सच्चाई को बताती हैं। सब कुछ एक ही ऊर्जा है यह सृष्टि एक ऊर्जा है, जो खुद को लाखों तरीके से अभिव्यक्त कर रही है। जो पानी गिर रहा है, वह ऊर्जा है, वही ऊर्जा यहां एक पेड़ के रूप में खड़ी है। वही ऊर्जा आपके रूप में बैठी है। वही ऊर्जा मेरे रूप में यहां मौजूद है। वही ऊर्जा एक चट्टान के रूप में खड़ी है।
 
          आधुनिक विज्ञान ने साबित कर दिया है कि हर चीज एक ही ऊर्जा है। दुनिया भर के धर्म कहते रहे हैं कि ईश्वर हर जगह है। चाहे आप यह कहें कि ईश्वर हर जगह है, या आप यह कहें कि हर चीज एक ही ऊर्जा है – ये दोनों ही बातें एक ही सच्चाई को बताती हैं। एक ही बात को दो अलग-अलग तरीकों से कह दिया गया है।
 
          वैज्ञानिकों ने गणितीय आधार पर यह नतीजा निकाला है। धार्मिक लोग बस इस पर विश्वास करते रहे हैं, लेकिन दोनों के जीवन में यह अभी तक जीती जागती हकीकत नहीं है। इसी वजह से हमारे जीवन में रूपांतरण नहीं आता। ऊर्जा के गणित की खोज के बाद आइंस्टीन के जीवन में कोई मूलभूत बदलाव नहीं आया। उन लाखों धार्मिक लोगों के जीवन में भी इससे कोई बदलाव नहीं आया, जो इस पर विश्वास करते रहे हैं। क्योंकि यह बात उनके लिए एक जीवंत सच्चाई नहीं बन पाई है।
 
          अब जब आप यह सवाल पूछते हैं कि क्या एक ऊर्जा दूसरी ऊर्जा पर हावी होती है, तो उसका जवाब है कि ऊर्जा तो एक ही है। यह दूसरी पर हावी कैसे हो सकती है? तो क्या इसका मतलब यह है कि लोग अलग-अलग तरह के नहीं हैं? अलग अलग तरह के लोग मौजूद हैं। अब अगर आप एक आदमी को एक उर्जा के रूप में और दूसरे आदमी को दूसरी उर्जा के रूप में लेते हैं, तो आप पूछ सकते है कि क्या यह ऊर्जा उस ऊर्जा पर हावी हो सकती है? यह इंसान उस इंसान पर हावी हो सकता है, शारीरिक रूप से, मानसिक रूप से, भावनात्मक रूप से और उर्जा के स्तर पर भी। लेकिन यह ऊर्जा के खिलाफ ऊर्जा नहीं है। यह एक इंसान है जो कि दूसरे इंसान के खिलाफ है। वह अपनी ऊर्जा का प्रयोग किसी पर हावी होने के लिए कर रहा है। जैसे पहाड़ों से जब पानी गिरता है तो वह चट्टानों को तोड़ता है।
 
          एक तरह से पानी की ऊर्जा, पत्थर की ऊर्जा पर हावी हो रही है। इसी तरह से लोग भी अपनी ऊर्जा का एक खास तरह से उपयोग करके किसी दूसरे पर हावी हो सकते हैं। ऊर्जा का इस्तेमाल करने का पूरा विज्ञान है आपको लगता है की शायद यह बहती हुई ठंडी हवा सकारात्मक ऊर्जा है, और भयंकर तूफान नकारात्मक ऊर्जा। ऐसा नहीं है। बस बात इतनी है कि इनमें से एक चीज आपको पसंद है और दूसरी नहीं।क्या आप टोने-टोटके और खास तरह की क्रियाओं की मदद से दूसरे लोगों की जिंदगी पर हावी होने के बारे में बात कर रहे हैं? अगर आप उस संदर्भ में जानना चाह रहे हैं कि ऐसा संभव है या नहीं, तो हां ऐसा बिल्कुल संभव है, लेकिन काफी हद तक यह मनोवैज्ञानिक स्तर पर होता है।
 
          ऊर्जा के हावी होने के बारे में अगर आप जानना चाहते हैं कि क्या ऐसी कोई चीज है, तो मैं कहूंगा कि बिल्कुल है। इस दिशा में पूरा एक विज्ञान और कला है। चारों वेदों में से अंतिम वेद, जिसे अथर्ववेद कहा जाता है, उसमें यही बताया गया है कि ऊर्जाओं का अपने फायदे और दूसरों का नुकसान करने के लिए कैसे इस्तेमाल किया जाए। लेकिन आध्यात्मिक पथ पर चलने वाले लोगों को कभी इन चीज़ों के बारे में नहीं सोचना चाहिए, क्योंकि यह सब आपको उलझाता है, फंसाता है। इससे आपका जीवन विकसित नहीं होता, बल्कि कई तरह से उलझ जाता है।  
 
          क्या है सकारात्मक और नकारात्मक ऊर्जा आपको किसने बताया कि ऊर्जाएं सकारात्मक और नकारात्मक होती हैं। मैं बिजली के सर्किट की बात नहीं कर रहा हूं। मैं जीवन-ऊर्जा की बात कर रहा हूं। विज्ञान कहता है कि केवल एक ऊर्जा है, धर्म कहता है कि ईश्वर हर जगह है। मैं तो केवल एक ही ऊर्जा के बारे में जानता हूं, लेकिन आपने दो बना लीं। क्यों? क्योंकि अगर आप दो नहीं बनाते तो आप इसके बारे में सोच नहीं पाते। अगर आप इसे बस एक के रूप में ही देखें, तो आपका पूरा का पूरा ज्ञान ही खत्म हो जाएगा। ऊर्जा एक ही तरह की होती है। एक ही ऊर्जा है जो एक खास तरीके से काम कर रही है। आपके कहने का मतलब शायद यह है कि ठंडी बहती हवा सकारात्मक ऊर्जा है, और भयंकर तूफान नकारात्मक ऊर्जा। ऐसा नहीं है। ये एक ही बात है। बस बात इतनी है कि इनमें से एक चीज आपको पसंद है और दूसरी नहीं।
 
 
4-जानें इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना नाडियों का रहस्य
 
          अस्तित्व में सभी कुछ जोड़ों में मौजूद है स्त्री-पुरुष, दिन-रात, तर्क-भावना आदि। इस दोहरेपन को द्वैत भी कहा जाता है। हमारे अंदर इस द्वैत का अनुभव हमारी रीढ़ में बायीं और दायीं तरफ मौजूद नाडिय़ों से पैदा होता है। आइये जानते हैं इन नाडिय़ों के बारे में--- 'नाड़ी का मतलब धमनी या नस नहीं है। नाडिय़ां शरीर में उस मार्ग या माध्यम की तरह होती हैं जिनसे प्राण का संचार होता है, शरीर के ऊर्जा?-कोष में, जिसे प्राणमयकोष कहा जाता है, 72,000 नाडिय़ां होती हैं। ये 72,000 नाडिय़ां तीन मुख्य नाडिय़ों- बाईं, दाहिनी और मध्य यानी इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना से निकलती हैं।
 
          अगर आप रीढ़ की शारीरिक बनावट के बारे में जानते हैं, तो आप जानते होंगे कि रीढ़ के दोनों ओर दो छिद्र होते हैं, जो वाहक नली की तरह होते हैं, जिनसे होकर सभी धमनियां गुजरती हैं। ये इड़ा और पिंगला, यानी बायीं और दाहिनी नाडिय़ां हैं। शरीर के ऊर्जा?-कोष में, जिसे प्राणमयकोष कहा जाता है, 72,000 नाडिय़ां होती हैं। ये 72,000 नाडिय़ां तीन मुख्य नाडिय़ों- बाईं, दाहिनी और मध्य यानी इड़ा, पिंगला और सुषुम्ना से निकलती हैं। 'नाड़ी का मतलब धमनी या नस नहीं है। नाडिय़ां शरीर में उस मार्ग या माध्यम की तरह होती हैं जिनसे प्राण का संचार होता है। इन 72,000 नाडिय़ों का कोई भौतिक रूप नहीं होता।
 
          यानी अगर आप शरीर को काट कर इन्हें देखने की कोशिश करें तो आप उन्हें नहीं खोज सकते। लेकिन जैसे-जैसे आप अधिक सजग होते हैं, आप देख सकते हैं कि ऊर्जा की गति अनियमित नहीं है, वह तय रास्तों से गुजर रही है। प्राण या ऊर्जा 72,000 अलग-अलग रास्तों से होकर गुजरती है। इड़ा और पिंगला जीवन की बुनियादी द्वैतता की प्रतीक हैं। इस द्वैत को हम परंपरागत रूप से शिव और शक्ति का नाम देते हैं। या आप इसे बस पुरुषोचित और स्त्रियोचित कह सकते हैं, या यह आपके दो पहलू लॉजिक या तर्क-बुद्धि और इंट्यूशन या सहज-ज्ञान हो सकते हैं। जीवन की रचना भी इसी के आधार पर होती है। इन दोनों गुणों के बिना, जीवन ऐसा नहीं होता, जैसा वह अभी है। सृजन से पहले की अवस्था में सब कुछ मौलिक रूप में होता है। उस अवस्था में द्वैत नहीं होता। लेकिन जैसे ही सृजन होता है, उसमें द्वैतता आ जाती है।  
 
          पुरुषोचित और स्त्रियोचित का मतलब लिंग भेद से या फिर शारीरिक रूप से पुरुष या स्त्री होने से नहीं है, बल्कि प्रकृति में मौजूद कुछ खास गुणों से है। प्रकृति के कुछ गुणों को पुरुषोचित माना गया है और कुछ अन्य गुणों को स्त्रियोचित। आप भले ही पुरुष हों, लेकिन यदि आपकी इड़ा नाड़ी अधिक सक्रिय है, तो आपके अंदर स्त्रियोचित गुण हावी हो सकते हैं। आप भले ही स्त्री हों, मगर यदि आपकी पिंगला अधिक सक्रिय है, तो आपमें पुरुषोचित गुण हावी हो सकते हैं।
 
          अगर आप इड़ा और पिंगला के बीच संतुलन बना पाते हैं तो दुनिया में आप प्रभावशाली हो सकते हैं। इससे आप जीवन के सभी पहलुओं को अच्छी तरह संभाल सकते हैं। अधिकतर लोग इड़ा और पिंगला में जीते और मरते हैं, मध्य स्थान सुषुम्ना निष्क्रिय बना रहता है। लेकिन सुषुम्ना मानव शरीर-विज्ञान का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है। जब ऊर्जा सुषुम्ना नाड़ी में प्रवेश करती है, जीवन असल में तभी शुरू होता है। वैराग्य- आप अगर इड़ा या पिंगला के प्रभाव में हैं तो आप बाहरी स्थितियों को देखकर प्रतिक्रिया करते हैं। लेकिन एक बार सुषुम्ना में ऊर्जा का प्रवेश हो जाए, तो आप एक नए किस्म का संतुलन पा लेते हैं।मूल रूप से सुषुम्ना गुणहीन होती है, उसकी अपनी कोई विशेषता नहीं होती।
 
          वह एक तरह की शून्यता या खाली स्थान है। अगर शून्यता है तो उससे आप अपनी मर्जी से कोई भी चीज बना सकते हैं। सुषुम्ना में ऊर्जा का प्रवेश होते ही, आपमें वैराग्य आ जाता है। 'राग का अर्थ होता है, रंग। 'वैराग्य का अर्थ है, रंगहीन यानी आप पारदर्शी हो गए हैं। अगर आप पारदर्शी हो गए, तो आपके पीछे लाल रंग होने पर आप भी लाल हो जाएंगे।
 
          अगर आपके पीछे नीला रंग होगा, तो आप नीले हो जाएंगे। आप निष्पक्ष हो जाते हैं। आप जहां भी रहें, आप वहीं का एक हिस्सा बन जाते हैं लेकिन कोई चीज आपसे चिपकती नहीं। आप जीवन के सभी आयामों को खोजने का साहस सिर्फ तभी करते हैं, जब आप आप वैराग की स्थिति में होते हैं। अभी आप चाहे काफी संतुलित हों, लेकिन अगर किसी वजह से बाहरी स्थिति अशांतिपूर्ण हो जाए, तो उसकी प्रतिक्रिया में आप भी अशांत हो जाएंगे क्योंकि इड़ा और पिंगला का स्वभाव ही ऐसा होता है।
 
          अगर आप इड़ा या पिंगला के प्रभाव में हैं तो आप बाहरी स्थितियों को देखकर प्रतिक्रिया करते हैं। लेकिन एक बार सुषुम्ना में ऊर्जा का प्रवेश हो जाए, तो आप एक नए किस्म का संतुलन पा लेते हैं, एक अंदरूनी संतुलन, जिसमें बाहर चाहे जो भी हो, आपके अंदर एक खास जगह होती है, जो किसी भी तरह की हलचल में कभी अशांत नहीं होती, जिस पर बाहरी स्थितियों का असर नहीं पड़ता। आप चेतनता की चोटी पर सिर्फ तभी पहुंच सकते हैं, जब आप अपने अंदर यह स्थिर अवस्था बना लें।
 
 
5-शरीर के पांच तत्वों का शुद्धिकरण अपने हित में किया जा सकता है
 
             विज्ञान के अनुसार हमारा शरीर और यह सारा अस्तित्व पांच तत्वों से मिलकर बना है। ऐसे में खुद को रूपांतरित करने का मतलब होगा बस इन पांच तत्वों को अपने लिए फायदेमंद बना लेना। आइये जानते हैं ऐसी ही यौगिक प्रक्रियाओं के बारे में योग में पांच तत्वों से मुक्त होने की एक वैज्ञानिक प्रक्रिया बनाई है, जिसे भूत-शुद्धि कहते हैं।
 
          अगर आप इन तत्वों का बखूबी शुद्धीकरण करते हैं, तो आप ऐसी स्थिति को प्राप्त कर लेते हैं जिसे भूत-सिद्धि कहते हैं। भूमि, जल, अग्नि, वायु और आकाश ये पांच तत्व इस शरीर, धरती, और पूरी सृष्टि के आधार हैं। इन्हीं पांच तत्वों से सृजन होता है। अगर ये पांच तत्व एक खास तरह से मिलते हैं, तो कीचड़ बन जाते हैं। अगर थोड़ा अलग तरह से मिलते हैं, तो भोजन बन जाते हैं।
 
          अगर वे दूसरी तरह का खेल खेलते हैं, तो वह मानव रूप ले लेते हैं। अगर वे एक अलग तरह का खेल खेलते हैं, तो चैतन्य बन जाते हैं। आप इस सृष्टि में जो कुछ भी देखते हैं, वह बस इन पांच तत्वों की बाजीगरी है। मैं एक पहाड़ पर गाड़ी चलाते हुए जा रहा था, जब मैं पहाड़ पर पहुंचने वाला था, तो मुझे लगा कि लगभग आधा पहाड़ जल रहा है! वहां कोहरा था और मैंने उस पूरी जगह को आग से घिरे हुए देखा। मैं जानता था कि मेरी कार का ईंधन तुरंत आग पकड़ सकता है, इसलिए आग की ओर नहीं जाना चाहता था, फिर भी सावधानी से गाड़ी चलाता रहा। मैं जितना आगे बढ़ता, आग थोड़ी और दूर नजर आती। फिर मुझे एहसास हुआ कि असल में मैं उन सभी जगहों से गाड़ी चलाते हुए आ चुका हूं, जो पहाड़ की तराई से देखने पर जलते नजर आ रहे थे। जब मैं आग की असली जगह पर पहुंचा, तो मैंने देखा कि एक ट्रक खराब पड़ा है, और वहां मौजूद लोगों ने ठंड से बचने के लिए थोड़ी सी आग जलाई हुई है। वह थोड़ी सी आग, कोहरे की वजह से लाखों गुना अधिक लग रही थी और नीचे से ऐसा लग रहा था मानो पूरे पहाड़ में आग लगी हुई हो। उस अदभुत घटना ने मुझे वाकई अचंभित कर दिया। वह बस गरमी के लिए जलाई गई थोड़ी सी आग थी, लेकिन कोहरे का एक-एक कण उसे बढ़ा कर ऐसे दिखा रहा था, कि वह पूरा इलाका आग में जलता हुआ दिख रहा था।
 
          सृष्टि ऐसी ही है जितनी है उससे कई गुना बड़ी लगती है। जिन लोगों ने करीब से उसे देखा है, उन्हें यह बात समझ आ गई है और वे कहते हैं, बढ़ा-चढ़ा रूप देखने की कोई जरूरत नहीं है। बस जीवन के इस छोटे से अंश को देखिए, जिसे आप 'मैं कहते हैं। बाकी का ब्रह्मांड सिर्फ उन पांच तत्वों का ही बढ़ा-चढ़ा रूप भर है। आप जिस वायु में सांस लेते हैं, जो पानी पीते हैं, जो खाना खाते हैं, जिस भूमि पर चलते हैं और अग्नि जो जीवन-ऊर्जा के रूप में काम कर रही है- अगर इन सभी को आप नियंत्रित और केंद्रित रखें, तो आपके लिए स्वास्थ्य, सुख और सफलता सुनिश्चित है। योग में, पांच तत्वों से मुक्त होने की एक वैज्ञानिक प्रक्रिया बनाई है, जिसे भूत-शुद्धि कहते हैं।  
 
          अगर आप इन तत्वों का बखूबी शुद्धीकरण करते हैं, तो आप ऐसी स्थिति को प्राप्त कर लेते हैं जिसे भूत-सिद्धि कहते हैं। योग-प्रणाली में भूत-शुद्धि की इस बुनियादी परंपरा से ही कई दूसरी परंपराएं निकली हैं। दक्षिणी भारत में, लोगों ने इन पांच तत्वों के लिए पांच बड़े मंदिर भी बनाए। ये मंदिर अलग-अलग तरह की साधना के लिए बनाए गए थे। जल तत्व से मुक्त होने के लिए, आप एक खास मंदिर में जाते हैं और एक तरह की साधना करते हैं। वायु से मुक्त होने के लिए, आप दूसरे मंदिर में जाते हैं और दूसरी तरह की साधना करते हैं। इसी तरह, सभी पांच तत्वों के लिए बनाए गए पांच अद्भुत मंदिरों में खास तरह की ऊर्जा स्थापित की गई जो उस किस्म की साधना में मदद करती है।
 
          योगी एक मंदिर से दूसरे मंदिर जाया करते थे और साधना करते थे। योग की बुनियादी प्रक्रिया का मकसद भूत-सिद्धि की स्थिति हासिल करना है, ताकि जीवन की प्रक्रिया कोई आकस्मिक प्रक्रिया न रहे। हमारी जीवन-प्रक्रिया परिस्थितियों के आगे एक विवशता भर न रहे, बल्कि एक सचेतन प्रक्रिया बन जाए। एक बार ऐसा हो जाने के बाद, खुश और आनंदित रहना स्वाभाविक है और फिर मोक्ष की ओर बढऩा तय है। आप जिस वायु में सांस लेते हैं, जो पानी पीते हैं, जो खाना खाते हैं, जिस भूमि पर चलते हैं और अग्नि जो जीवन-ऊर्जा के रूप में काम कर रही है- अगर इन सभी को आप नियंत्रित और केंद्रित रखें, तो आपके लिए स्वास्थ्य, सुख और सफलता सुनिश्चित है। मेरी कोशिश है कि ऐसे कई यंत्र तैयार कर सकूं जो लोगों को इसे साकार करने में मदद करें, लोगों के जीने का ढंग ही पंच-भूत की आराधना बन जाए।
 
          यह शरीर, यह भौतिक रूप जिस तरह से यहां मौजूद है, वह पांच तत्वों की आराधना बन जाए। इसे अपने भौतिक सुख के लिए, अपनी सांसारिक कायमाबी के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है और साथ ही, यह इंसान की परम मुक्ति का एक उत्तम साधन भी हो सकता है। 6-शारीरिक संबंध एक से ही क्यों होना चाहिए समाज में वैवाहिक रिश्ते से बाहर के संबंधों में हो रही वृद्धि को देखते हुए एक सरल सा सवाल एक जिज्ञासु के मन में उठता है कि शारीरिक संबंध किसी एक से रखने और अनेक से रखने में क्या आध्यात्मिक फर्क आएगा? आइए इस कौतुहल का उत्तर जानते हैं जिज्ञासु क्या ईश्वर चाहता है कि इंसान एक ही साथी के साथ जीवन बिताए? क्या एक समर्पित रिश्ते में होना किसी व्यक्ति के लिए बेहतर है? सद्गुरु आपके शरीर की याददाश्त की तुलना में आपके दिमाग की याददाश्त बहुत कम है। अगर आप किसी चीज या किसी इंसान को एक बार छू लें, तो आपका दिमाग भूल सकता है मगर शरीर नहीं ।
 
          जब लोग एक-दूसरे के साथ शारीरिक संबंध बनाते हैं, तो मन उसे भूल सकता है, मगर शरीर कभी नहीं भूलेगा।हो सकता है कि ईश्वर का आपके लिए कोई इरादा न हो। सवाल यह है कि आपके लिए समझदारी वाली बात क्या है? इसके दो पहलू हैं एक सामाजिक पहलू है। आम तौर पर हमेशा समाज को स्थिर या मजबूत रखने के लिए 'एक पुरुष एक स्त्री की बात की गई। दुनिया के कई हिस्सों में, जहां 'एक पुरुष-कई स्त्रियां की बात की गई, वहां समाज को स्थिर रखने के लिए सख्ती से शासन चलाना पड़ा। मैं इसके विस्तार में नहीं जाऊंगा। दूसरा पहलू यह है कि अस्तित्व में सभी पदार्थों की स्मृति या याददाश्त होती है।
 
          आपके शरीर को अब भी जीवंत तरीके से याद है कि एक लाख वर्ष पहले क्या हुआ था। जेनेटिक्स याददाश्त ही तो है। भारतीय संस्कृति में इस भौतिक याददाश्त को ऋणानुबंध कहा गया है। आपकी याददाश्त ही आपको अपने आस-पास की चीजों से बांधती है। मान लीजिए कि आप घर गए और भूल गए कि आपके माता-पिता कौन हैं, तो आप क्या करेंगे? यह खून या प्यार का असर नहीं होता, यह आपकी याददाश्त होती है जो बताती है कि यह व्यक्ति आपकी मां या पिता है। याददाश्त ही रिश्तों और संबंधों को बनाती है। अगर आप अपनी याददाश्त खो बैठे, तो हर कोई आपके लिए पूरी तरह अजनबी होगा।
 
          जब भी आप किसी ऐसे इंसान को देखते हैं, जिसके साथ आप जुडऩा नहीं चाहते, तो सिर्फ 'नमस्कार करें क्योंकि जब आप दोनों हाथों को साथ लाते हैं , तो यह शरीर को याददाश्त ग्रहण करने से रोक देता है। आपके शरीर की याददाश्त की तुलना में आपके दिमाग की याददाश्त बहुत कम है। अगर आप किसी चीज या किसी इंसान को एक बार छू लें, तो आपका दिमाग भूल सकता है मगर शरीर में वह हमेशा के लिए दर्ज हो जाता है। जब लोग एक-दूसरे के साथ शारीरिक संबंध बनाते हैं, तो मन उसे भूल सकता है, मगर शरीर कभी नहीं भूलेगा। अगर आप तलाक लेते हैं, तो चाहे आप अपने साथी से कितनी भी नफरत करते हों, फिर भी आपको पीड़ा होगी क्योंकि शारीरिक याददाश्त कभी नहीं खो सकती।  
 
          चाहे आप थोड़ी देर तक किसी का हाथ पर्याप्त अंतरंगता से पकड़ें, आपका शरीर कभी उसे नहीं भूल पाएगा क्योंकि आपकी हथेलियां और आपके तलवे बहुत प्रभावशाली रिसेप्टर यानी ग्राहक हैं। जब भी आप किसी ऐसे इंसान को देखते हैं, जिसके साथ आप जुडऩा नहीं चाहते, तो सिर्फ 'नमस्कार करें क्योंकि जब आप दोनों हाथों को साथ लाते हैं (या अपने पैर के दोनों अंगूठों को साथ लाते हैं), तो यह शरीर को याददाश्त ग्रहण करने से रोक देता है। इसका मकसद शारीरिक याददाश्त को कम से कम रखना है, नहीं तो आपको अनुभव के एक भिन्न स्तर पर ले जाना मुश्किल हो जाएगा।
 
          जो लोग भोगविलास में अत्यधिक लीन होते हैं, उनके चेहरे पर एक खास मुस्कुराहट होती है, जिसमें एक धूर्तता भरी होती है, उसमें कोई खुशी नहीं होती। उससे छुटकारा पाने में बहुत मेहनत लगती है क्योंकि भौतिक याददाश्त आपको इस तरीके से उलझा देती है कि आपका दिमाग उसे समझ भी नहीं पाता। इसलिए यह बहुत महत्वपूर्ण है कि आप अपने शरीर को जिन चीजों के संपर्क में लाते हैं, उनके प्रति जागरूक होना सीखें। कीमत चुकानी पड़ती है बहुत ज्यादा अंतरंगता की कीमत हर जगह चुकानी पड़ती है जब तक कि आप यह नहीं जानते कि इस शरीर को खुद से एक दूरी पर कैसे रखें। जिसने यह दूरी बनानी सीख ली, वैसे इंसान को कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह क्या करता है। मगर ऐसे इंसान का ऐसी चीजों की ओर कोई झुकाव नहीं होता।
 
          वह शरीर की सीमाओं और विवशताओं से मजबूर नहीं होता वह अपने शरीर को एक साधन या उपकरण की तरह इस्तेमाल करता है। वरना, अंतरंगता को कम से कम तक रखना सबसे अच्छा होता है। इसलिए हमने कहा कि एक के लिए एक, जब तक कि उनमें से किसी एक की मृत्यु नहीं होती और दूसरा पुनर्विवाह नहीं कर लेता। लेकिन अब तो हालत यह है कि 25 साल का होने से पहले, आप 25 साथी बदल चुके होते हैं इसकी कीमत लोग चुका रहे हैं अमेरिका की 10 फीसदी जनसंख्या डिप्रेशन या अवसाद की दवाओं पर निर्भर है। उसकी एक बड़ी वजह यह है कि उनमें स्थिरता की कमी होती है क्योंकि उनका शरीर भ्रमित होता है। अब तो हालत यह है कि 25 साल का होने से पहले, आप 25 साथी बदल चुके होते हैं इसकी कीमत लोग चुका रहे हैं अमेरिका की 10 फीसदी जनसंख्या डिप्रेशन या अवसाद की दवाओं पर निर्भर है।
 
          शरीर को स्थिर याददाश्त की जरूरत होती है लोग इसे महसूस करते हैं। हो सकता है कि कोई पति या पत्नी बौद्धिक रूप से महान न हो, हो सकता है कि वे आपस में लड़ते-झगड़ते रहते हों, फिर भी वे साथ रहने के लिए कुछ भी छोडऩे के लिए तैयार हो जाएंगे क्योंकि कहीं न कहीं वे यह समझते हैं कि इससे उन्हें अधिक से अधिक आराम और खुशी मिलती है। इसकी वजह यह है कि आपकी शारीरिक याददाश्त आपकी मानसिक याददाश्त से कहीं अधिक आपके जीवन पर असर डालती है।  
 
          अभी आप जैसे हैं, वह आपकी शारीरिक याददाश्त से तय होता है, आपकी दिमागी याददाश्त से नहीं। दिमागी याददाश्त कल सुबह दिमाग से निकाल फेंकी जा सकती है मगर आप अपनी शारीरिक याददाश्त को नहीं फेंक सकते। इसके लिए आपके अंदर बिल्कुल अलग तरह के आध्यात्मिक विकास की जरूरत होगी।
 
          भौतिक याददाश्त को कम करना आधुनिक विज्ञान यह कहता है, और योग प्रणाली में हम हमेशा से यह बात जानते रहे हैं कि पंचतत्वों जैसे जल, वायु, धरती, आदि में काफी जबरदस्त याददाश्त होती है। अगर मैं किसी ऐसी जगह जाता हूं, जो ऊर्जा के लिहाज से महत्वपूर्ण है, तो मैं उसके बारे में लोगों से नहीं पूछता मैं बस किसी पत्थर पर अपने हाथ रख देता हूं। इससे ही मुझे उस जगह की सारी कहानी
 
          पता चल जाती है। वैसे ही जैसे किसी पेड़ के छल्ले आपको उस जगह की इकोलॉजी का इतिहास बता देते हैं। पत्थरों में तो उससे भी बेहतर याददाश्त होती है। आम तौर पर कोई पदार्थ जितना ठोस होता है, याददाश्त को बरकरार रखने की उसकी काबिलियत उतनी ही बेहतर होती है और बेजान चीजों में सजीव चीजों से बेहतर याददाश्त होती है। आज की तकनीक इसे साबित भी कर रही है आपके कंप्यूटर में आपसे बेहतर याददाश्त है। मानव दिमाग याददाश्त के लिए नहीं है वह अनुभव के लिए है। निर्जीव या बेजान चीजें अनुभव नहीं कर सकतीं वह बस याद रख सकती हैं। देवी-देवताओं और दूसरी प्रतिष्ठित वस्तुओं को इसलिए बनाया गया क्योंकि वे याददाश्त के शक्तिशाली रूप हैं।  
 
          बेजान चीजों में सजीव चीजों से बेहतर याददाश्त होती है। आज की तकनीक इसे साबित भी कर रही है आपके कंप्यूटर में आपसे बेहतर याददाश्त है। मानव दिमाग याददाश्त के लिए नहीं है वह अनुभव के लिए है।भारत में एक ऐसा समय था, जब आप किसी शिवमंदिर में बिना कपड़ों के ही प्रवेश कर सकते थे। देश में अंग्रेजों के आने और इन सब चीजों पर उनके प्रतिबंध लगाने के बाद ही हम बहुत संकोची और लज्जालु हो गए हैं। मंदिर में नंगे बदन जाने का मकसद ईश्वर या चैतन्य की स्मृति को अपने शरीर में ग्रहण करना था। आप डुबकी लगाकर गीले बदन फर्श पर लेट जाते थे ताकि वह ईश्वर की स्मृति को सोख ले।
 
          मन बेशक दूसरे लोगों देखता रहे कि आसपास क्या हो रहा है, मगर शरीर उस स्थान की ऊर्जा को अपने अंदर समा लेता है। ध्यानलिंग और लिंग भैरवी मंदिरों के प्रवेश द्वार पर दंडवत करते भक्तों की मूर्तियां हैं। यह आपको दिखाने के लिए है कि शरीर, दिमाग से ज्यादा बेहतर तरीके से ईश्वर को ग्रहण कर लेता है। बात बस इतनी है कि इंसान अब नंगे बदन नहीं जा सकते क्योंकि हम बहुत सभ्य हो गए हैं हम इतने सारे कपड़े पहन लेते हैं कि हमें पता नहीं होता कि शरीर है भी या नहीं। केवल यौन इच्छाओं के उभरने के बाद लोगों को पता चलता है कि उनके पास एक शरीर है। शारीरिक याददाश्त को मिटाना आप गहरी भक्ति या कुछ दूसरे अभ्यासों से अपनी शारीरिक याददाश्त को मिटा सकते हैं। मैंने इस तरह के कुछ भक्त देखे हैं, मगर एक व्यक्ति ने वाकई मुझे प्रभावित किया।
 
          एक महिला सुदूर दक्षिण में कन्याकुमारी आई, जो भारत का दक्षिणी छोर है। हम नहीं जानते कि वह कहां से आई थी, मगर अपने चेहरे से वह नेपाल की लगती थी। वह बस इधर-उधर घूमती रहती थी, कभी कुछ नहीं बोलती थी। कुत्तों का एक झुंड हमेशा उसके पीछे-पीछे चलता था। वह सिर्फ इन कुत्तों का पेट भरने के लिए खाना तक चुरा लेती थी और कई बार इसकी वजह से उसे मार भी खानी पड़ती थी। मगर फिर, लोगों ने कभी-कभार उसे लहरों पर तैरते हुए पाया। यह एक तटीय शहर था, जहां तीन समुद्र मिलते हैं। वह तट पर जाती, पानी पर पालथी मार कर बैठती और तैरती रहती। फिर लोगों ने उसकी पूजा करनी शुरू कर दी। जब वह आती थी, तो वे अपना खाना बचा कर रखते थे मगर वे अब उसे पीटते नहीं थे क्योंकि वह कोई विलक्षण महिला थी। वह पूरी जिंदगी खुली जगहों में ही रही थी। वह सड़क पर या समुद्र तट पर बिना किसी आश्रय के सोती थी। उसके चेहरे पर मौसम के थपेड़ों का पूरा असर था, उसका चेहरा मौसम के असर की वजह से कुछ पुराने मूल अमरीकियों की तरह भी था। उसके जीवन के अंतिम समय में – जब वह 70 साल से अधिक उम्र की थी -एक मशहूर दक्षिण भारतीय संगीतकार ने उसे देखा और उसका भक्त बन गया। वह उसे सलेम, तमिलनाडु ले कर आया और वहां उसके लिए एक छोटा सा घर बनाया। वहां उसके आस-पास कुछ भक्त इकठे हो गए।
           
          अगर आप अपनी शारीरिक याददाश्त मिटा दें, तो आपका शरीर वैसा बन जाएगा जो आपके लिए सबसे ज्यादा मायने रखता है। आपके अंदर सब कुछ पूरी तरह बदल जाएगा। इसका मतलब है कि आप अपनी जेनेटिक विवशताओं से आजाद हो जाएंगे। जब कोई संन्यास लेता है, तो हम उसके माता-पिता और पूर्वजों के लिए एक खास प्रक्रिया करते हैं। आम तौर पर यह प्रक्रिया हम मृत लोगों के लिए करते हैं, मगर संन्यासियों के लिए हम इसे तब भी करते हैं, अगर उनके माता-पिता जीवित हों। ऐसा नहीं है कि हम उनके मरने की कामना करते हैं – इसका मकसद बस इंसान की शारीरिक याददाश्त को मिटाना है। जब आप 18 साल के थे, तो हो सकता है कि आपने अपने माता-पिता के खिलाफ विद्रोह किया हो, या फिर आपको उनकी बातें तब बिल्कुल पसंद नहीं आती हों, मगर 45 का होने तक, चाहे आपको पसंद हो या नहीं, आपकी बातचीत और बर्ताव उन्हीं की तरह हो जाता है। केवल आपके माता-पिता नहीं, आपके पूर्वजों का भी आप पर असर होता है।
 
          आपका व्यवहार उन्हीं से पैदा और नियंत्रित होता है। इसीलिए, अगर आप आध्यात्मिक प्रक्रिया को लेकर गंभीर हैं, तो पहला कदम अपनी जेनेटिक याददाश्त से खुद को दूर करना है। इसके बिना आप अपने पूर्वजों की विवशताओं से छुटकारा नहीं पा सकते। आपके जरिये वे जीवित रहेंगे और बहुत से तरीकों से आप के ऊपर हावी रहेंगे। जब शरीर की याददाश्त आप पर इस कदर हावी होती है, तो इस जीवन में उसे कम से कम रखना बेहतर है। आखिरकार, आपको अपने पूर्वजों से मिली लाखों सालों की याददाश्त से भी तो छुटकारा पाना है। आपका पास रेंगने वाला मस्तिष्क है – रेंगने वाले सर्प और छिपकली की तरह, यहां तक कि बिच्छू भी आपमें जीवित होता है। यह न सोचें कि मस्तिष्क मन है – मस्तिष्क शरीर है।
 
          कम से कम इस जीवन में, आप इन असरों को सीमित रखना चाहते हैं ताकि आपका शरीर भ्रमित न हो। जो लोग इस विषय से परिचित थे, उन्होंने आध्यात्मिक प्रक्रियाओं को इस रूप में तैयार किया कि शरीर पूरी तरह अनुकूल बन जाए। दुनिया में हर कहीं यह ज्ञान है कि अगर कोई अपनी आध्यात्मिक प्रक्रिया को लेकर बहुत गंभीर है, तो वह पहली चीज यह करता है कि हर तरह के रिश्तों से दूर हो जाता है। क्योंकि अगर वह कोई शारीरिक रिश्ता बनाता है, तो स्वाभाविक रूप से चीजें पेचीदा हो जाती हैं। या तो वह इतना विवश हो कि उसे उसकी जरूरत हो, आप अभी उसे इसके परे नहीं ले जा सकते, या फिर वह इतना आजाद हो कि उसकी पहचान शरीर से न हो, तभी हम उसे इसकी इजाजत देते हैं, वरना हम आम तौर पर शारीरिक रिश्ता बनाने की इजाजत नहीं देते। लेकिन अगर आपके लिए यह जरूरी है, तो कम से कम एक शरीर तक सीमित रहें। ज्यादा शरीर भौतिक प्रणाली को भ्रमित कर देंगे।
 
 
7-गुरु पर भरोसा करें या न करें हमारी संस्कृति में हमेशा से गुरु-शिष्य के संबंध को बहुत अहम माना गया है
 
          आध्यात्मिक पथ पर ऐसा क्या ख़ास है कि साधक को एक अनुभवी या आत्मज्ञानी गुरु की ज़रूरत होती है? और क्या एक साधक को अपने गुरु के ऊपर पूरा भरोसा होना जरुरी है? अगर हां तो क्यों? आइये जानते हैं- आप कहते हैं कि हमें किसी चीज पर यूं ही यकीन नहीं कर लेना चाहिए, बल्कि खुद ही जीवन के साथ प्रयोग करके देखना चाहिए। लेकिन ऐसा लगता है कि आध्यात्मिक विकास के लिए गुरु में जबर्दस्त भरोसा रखना जरूरी है। फिर विश्वास और भरोसे में क्या अंतर है? इस सम्बनन्द में हमारे महान लोग कहते हैं कि जब लोग भरोसे की बात करते थे, तो उनका मतलब होता था कि आप किसी और को अपने अंदर प्रवेश करने दें।
 
          अगर आपको किसी और को अपने अंदर प्रवेश करने देना है, तो आपको ऐसा बनना होगा कि वह आपको भेद सके। एक बार वह उर्जा आपके अंदर प्रवेश कर ले, तो आपके साथ कुछ भी किया जा सकता है।विश्वास आपकी उम्मीदों से पैदा होता है। जब आप कहते हैं, 'मैं आप पर विश्वास करता हूं, तो आप उम्मीद करते हैं कि मैं आपकी सही-गलत की समझ के मुताबिक काम करूंगा। मान लीजिए कि मैं कुछ ऐसा करता हूं जो सही और गलत के आपके दायरे के भीतर नहीं आता, तो पहली चीज यह होगी कि आप मेरे पास आ कर कहेंगे, 'मैंने आपका विश्वास किया और अब आपने मेरे साथ ऐसा किया।
 
          अगर आपके गुरु को आपकी सीमाओं के भीतर कैद किया जा सकता हो, तो बेहतर है कि आप उस आदमी के करीब भी न फटकें क्योंकि वह आपकी कोई मदद नहीं कर सकता। वह आपको तसल्ली दे सकता है, आपको दिलासा दे सकता है मगर वह आदमी बंधन है। वह आदमी मुक्ति नहीं है। भरोसा अलग चीज है। भरोसा आपका गुण है। यह किसी और चीज पर निर्भर नहीं है, यह आपके अंदर मौजूद होता है। जब आप कहते हैं, 'मैं भरोसा करता हूं, तो इसका मतलब है, 'चाहे आप जो कुछ भी करें, मैं आप पर भरोसा करता हूं। यह आपकी सीमाओं के दायरे में नहीं होता है। कभी मुझ पर भरोसा करने के लिए नहीं कहा। मैं लोगों के साथ कभी 'भरोसा शब्द का इस्तेमाल नहीं करता क्योंकि यह शब्द बहुत बुरी तरह भ्रष्ट हो चुका है। अगर यहां किसी ने कभी भरोसे की बात की है, तो इसका मकसद आपको अपनी पसंद-नापसंद, अपनी सीमाओं के परे ऊपर उठाना है। मैं आप पर भरोसा करता हूं की भावना ही आपको पसंद और नापसंद के इस ढेर से ऊपर उठा देती है। 'चाहे आप कुछ भी करें, मैं आप पर भरोसा करता हूं।
 
          अगर आप वाकई एक गुरु की मौजूदगी का फायदा उठाना चाहते हैं, तो आपको इस बात के लिए तैयार रहना होगा कि वह मौजूदगी आपको वश में कर ले, अभिभूत कर दे, एक तरीके से आपके अस्तित्व को ध्वस्त कर दे। कम से कम उन चंद पलों में, जब आप उसके साथ होते हैं, आपको अपना अस्तित्व भूल जाना चाहिए। आप खुद को जो भी समझते हैं, वह उसकी मौजूदगी में गायब हो जाना चाहिए। खुद को संवेदनशील बनाना जब लोग भरोसे की बात करते थे, तो उनका मतलब होता था कि आप किसी और को अपने अंदर प्रवेश करने दें।
 
          अगर आपको किसी और को अपने अंदर प्रवेश करने देना है, तो आपको ऐसा बनना होगा कि वह आपको भेद सके। एक बार वह (उर्जा के रूप में) आपके अंदर प्रवेश कर ले, तो आपके साथ कुछ भी किया जा सकता है। आपने दीवारें इसलिए खड़ी की हैं क्योंकि कहीं न कहीं जब आपने खुद को संवेदनशील बनाया, तो किसी ने कुछ ऐसा किया जो आपकी उम्मीदों के मुताबिक नहीं था। इसलिए आप डर गए और आप हमेशा अपना बचाव करने लगे। अब, जब आप कहते हैं, 'मैं आप पर भरोसा करता हूं, तो आप उस दीवार को गिराना चाहते हैं। इसका मतलब है कि सामने वाले इंसान को आपकी उम्मीदों के ढांचे के भीतर रहने की जरूरत नहीं है। इस तरह से भरोसा करने के दो पहलू हैं – एक पहलू है गुरु की मौजूदगी। गुरु के निकट होने भर से आपमें बदलाव आने लगता है।
 
          दूसरा पहलू है – अगर आप इस बात से बेपरवाह हो जाते हैं कि आपके साथ क्या होगा, तो वह अपने आप में रूपांतरण है। लोगों के साथ मैं एक सीमित समय तक ही काम कर सकता हूँ। इसलिए मैं सिर्फ एक मौजूदगी के रूप में खुद को उपलब्ध बना रहा हूं, एक व्यक्ति के रूप में नहीं। एक व्यक्ति के रूप में मैं बस एक खास चेहरा बरकरार रखता हूं जो कई रूपों में आपकी उम्मीदों के ढांचे के भीतर होता है।
 
          अगर मुझे अपने व्यक्ति को एक उपकरण के रूप में भी इस्तेमाल करना हो, तो इसके लिए बहुत ज्यादा भरोसे और शायद ज्यादा समय की जरूरत होती है। जो लोग लंबे समय तक मेरे साथ रहते हैं, वे मुझे एक मुश्किल इंसान पाते हैं। जागरूकता से बनाया गया व्यक्तित्व- जिसे आप गुरु कहते हैं, वह कोई इंसान नहीं है। आत्मज्ञान की पूरी प्रक्रिया का यह मतलब है कि कोई अपनी शख्सियत से परे चला गया है और वह सावधानी से एक शख्सियत या व्यक्तित्व तैयार करता है, जो उस तरह की भूमिका के लिए जरूरी हो, जिसे वह निभाना चाहता है।फिलहाल, जिस शख्सियत को आप 'मैं खुद कहते हैं, वह एक संयोग से बना है। यह इस बात पर निर्भर करता है कि आपने किन हालातों का सामना किया है। आपकी शख्सियत लगातार विकसित हो रही है, जो जीवन के थपेड़ों से बनती है। जीवन आप पर जिस रूप में भी आघात करता है, आप उस तरह का रूप और आकार अपना लेते हैं।
 
          आपकी शख्सियत लगातार बाहरी हालातों से बनाई जाती है। जिसे आप गुरु कहते हैं, वह कोई इंसान नहीं है। आत्मज्ञान की पूरी प्रक्रिया का यह मतलब है कि कोई अपनी शख्सियत से परे चला गया है और वह सावधानी से एक शख्सियत या व्यक्तित्व तैयार करता है, जो उस तरह की भूमिका के लिए जरूरी हो, जिसे वह निभाना चाहता है। एक सीमित तरीके से आप भी अपनी शख्सियत इस तरह गढ़ रहे हैं, जो आपके कामों के लिए उपयुक्त होती है। जो प्राणी सीमाओं से परे जाकर खुद का अनुभव कर रहा है, वह ऐसा बहुत गहरे रूप में करता है। वह अपने जीवन के हर पहलू को इस तरह बनाता है जो उसकी चुनी हुई भूमिका के लिए जरूरी हो। यह पूरी जागरूकता में गढ़ी जाती है।
 
          जब कोई ढांचा जागरूकता के साथ तैयार किया जाता है, तो वह सिर्फ एक उपकरण या साधन होता है, वह बंधन नहीं रह जाता। वह किसी भी पल उसे गिरा सकता है। अभी भी, मैं एक इंसान के रूप में अलग-अलग जगहों पर बहुत अलग-अलग तरीके से काम करता हूं। अगर आप दूसरी तरह के हालातों में मुझे देखें, तो आप हैरान हो जाएंगे। आप एक तरह के इंसान को जानते हैं और उससे अच्छे से वाकिफ हैं, इसलिए जब आप उसे किसी दूसरी तरह से बर्ताव करते देखते हैं, तो उसे समझ नहीं पाते। एक गुरु अपनी शख्सियत को इस तरह से तैयार करता है कि लोग समझ नहीं पाते कि उसे प्यार करें या उससे नफरत करें। वह सावधानी से एक शख्सियत गढ़ता है, जहां एक पल आप सोचते हैं, 'हां, मुझे वाकई इस आदमी से प्रेम है।
 
          अगले ही पल आप उसके बारे में बिल्कुल अलग महसूस कर सकते हैं। इन दोनों भावनाओं को कुछ रेखाएं पार करने की इजाजत नहीं होती। उन रेखाओं के भीतर, आप पर लगातार आघात किया जाता है कि कुछ समय के बाद आपको पता चल जाएगा कि यह कोई व्यक्ति नहीं है। यह कोई इंसान नहीं है। या तो वह शैतान है या भगवान। अंतिम लक्ष्य तक का सफऱ- अपनी ऊर्जा को आज्ञा चक्र में ले जाने के कई तरीके हैं। मगर आज्ञा से सहस्रार तक जाने के लिए कोई एक तरीका नहीं है। अगर आपको यह छलांग लगानी है, तो आपको गहरे भरोसे की जरूरत है वरना यह संभव नहीं है। जो आपके अनुभव में नहीं होता, वह आपको बौद्धिक रूप में नहीं सिखाया जा सकता।
 
          किसी व्यक्ति को अनुभव के एक आयाम से दूसरे आयाम तक ले जाने के लिए, आपको एक ऐसे साधन की जरूरत होती है जो तीव्रता और ऊर्जा के एक उच्च स्तर पर हो। उसी साधन या उपकरण को हम गुरु कहते हैं। गुरु-शिष्य का रिश्ता एक ऊर्जा के आधार पर होता है। एक गुरु आपको ऐसे आयाम में स्पर्श करता है, जहां कोई और आपको स्पर्श नहीं कर सकता। अपनी ऊर्जा को आज्ञा चक्र में ले जाने के कई तरीके हैं। मगर आज्ञा से सहस्रार तक जाने के लिए कुछ भी करने का कोई एक तरीका नहीं है। वह बस एक छलांग है। इसी वजह से गुरु-शिष्य रिश्ते को इस संस्कृति में सबसे पवित्र रिश्ता माना गया है।
 
          अगर आपको यह छलांग लगानी है, तो आपको गहरे भरोसे की जरूरत है वरना यह संभव नहीं 8-आप नकल ही कर सकते हैं सिर्फ, सृजन नहीं चाहे कला हो, संगीत हो या किसी भी तरह की तकनीक इनमें सृजन जैसी कोई चीज नहीं है। मतलब पृथ्वी पर मानव ने नया कुछ नहीं रचा है। यह सब कुछ पहले से ही मौजूद था। अगर विज्ञान और तकनीक की बात करें तो भी हमने ऐसा कुछ खास नहीं बनाया है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपने कितनी अच्छी मशीनें बनाई हैं, क्योंकि सबसे शानदार मेकैनिकल-सिस्टम, सबसे बढिय़ा यांत्रिकी तो आपके शरीर के भीतर है।इस बारे में मैं जो कहना चाहता हूं, उसे सुनकर हो सकता है आप लोगों को धक्का लगे। मैं तो यह कहता हूं कि सृजनशीलता जैसी कोई चीज होती ही नहीं है।
 
          इंसान ने जो कुछ भी किया है, वह इस विशाल सृष्टि की नकल या उन चीज़ों में थोड़ी सी तबदीली मात्र ही है जो यहां पहले से मौजूद है। इस धरती पर क्या हमने वाकई किसी चीज की रचना की है? रचना करने के नाम पर हमने जो कुछ भी किया है, वह पहले से मौजूद चीजों की बस मामूली नकल भर ही तो है। अगर आप विज्ञान और तकनीक की भी बात करें तो भी हमने ऐसा कुछ खास नहीं बनाया है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपने कितनी अच्छी मशीनें बनाई हैं, आप देखेंगे कि सबसे शानदार मेकैनिकल-सिस्टम, सबसे बढिय़ा यांत्रिकी तो आपके शरीर के भीतर है। सबसे बेहतरीन इलेक्ट्रिकल-सिस्टम हो या सबसे कारगर इलेक्ट्रॉनिक-सिस्टम, या फिर सबसे जटिल कैमिकल कारखाना ये सब आपके शरीर के भीतर हैं। ये सारी चीजें पहले से ही शरीर में मौजूद हैं।
 
          अगर आप कला के बारे में बात करें तो कोई भी रचना जो आप करते हैं, वह प्रकृति का छोटा सा अनुकरण या नक़ल मात्र ही है। कहने का मतलब यही है कि चाहे कला हो, संगीत हो या कोई और चीज, रचनात्मकता जैसी कोई चीज नहीं है। दरअसल, इन सबको नकल कहना थोड़ा अपमानजनक लगता है, इसलिए लोग इसे सृजनशीलता कह देते हैं। सृजन- बस गौर से देखें अगर आप ध्यान से यह देखते हैं कि आपके भीतर और आपके आसपास क्या कुछ हो रहा है, तो आप हर छोटे से छोटे काम को रचनात्मक तरीके से कर सकते हैं। रचनात्मकता का मतलब यह नहीं है कि आपने किसी शानदार चीज का आविष्कार कर दिया।
 
          रचनात्मकता तो इस बात में भी है कि कोई झाड़ू कैसे लगाता है। हो सकता है, कोई इसी काम को नीरस तरीके से कर रहा हो और कोई दूसरा इसे बड़े रचनात्मक तरीके से।अगर आप किसी भी क्षेत्र में रचनात्मक होना चाहते हैं, तो कुल मिलाकर आपको बस एक ही काम करना होगा- अवलोकन यानी निरीक्षण। चीजों को पूरी गहराई में ध्यान से देखें। यह आपके दृष्टिकोण को बड़ा कर देगा, जिससे आप अपने हर छोटे-छोटे काम को और बेहतर तरीके से कर पाएंगे। अगर आपने गहराई से अवलोकन करने या ध्यान देने की क्षमता विकसित कर ली, तो आप देखेंगे कि आप जो भी कर रहे हैं, उसमें अपने आप रचनात्मकता आ रही है। रचनात्मकता का मतलब यह नहीं है कि आपने किसी शानदार चीज का आविष्कार कर दिया। रचनात्मकता तो इस बात में भी है कि कोई झाड़ू कैसे लगाता है। हो सकता है, कोई इसी काम को नीरस तरीके से कर रहा हो और कोई दूसरा इसे बड़े रचनात्मक तरीके से।
 
          अगर आप ध्यान से यह देखते हैं कि आपके भीतर और आपके आसपास क्या कुछ हो रहा है, तो आप हर छोटे से छोटे काम को रचनात्मक तरीके से कर सकते हैं। आपके भीतर सभी स्तरों पर जो भी हो रहा है, इसका गहराई से अवलोकन करने के साधन अगर आप विकसित कर लें तो आप एक जबर्दस्त सृजनशील व्यक्ति हो जाएंगे। वैसे अगर आप सिर्फ अपने आसपास की चीजों पर ही गहराई से नजर रखें तो भी आप पाएंगे कि आप जो भी काम करते हैं, उन्हें करने के और भी तरीके हो सकते हैं। यानी उसी काम को आप नए और रचनात्मक तरीकों से कर सकते हैं।
 
 
9-आध्यात्मिक मिलन क्या है
 
           एक होना या मिलन न केवल सामाजिक स्तर पर बल्कि आध्यात्मिक स्तर पर भी महत्वपूर्ण समझा जाता है  प्रेमी युगल अकसर तन, मन और भावना से एक होने की बात करते हैं। लेकिन क्या यह संभव है? इस सृष्टि में तन, मन या भावना के धरातल पर कोई भी दो प्राणी क्या एक हो सकते हैं? नहीं। अगर एक हो सकते हैं तो सिर्फ ऊर्जा के स्तर पर, ऊर्जा के कई स्तर होते हैं। इसके एक स्तर को तो आप जानते ही हैं वह भोजन जो आप खाते हैं, वह पानी जो आप पीते हैं, वह हवा जिसमें आप सांस लेते हैं और वह धूप जिसका आप उपयोग करते हैं, ये सभी चीजें आपके शरीर के भीतर जाकर ऊर्जा बन रही हैं। रोजमर्रा के जीवन में आप जिस ऊर्जा का अनुभव करते हैं, वह अलग-अलग लोगों में अलग-अलग सीमा तक होती है। इसे देखने का दूसरा तरीका भी है।
 
          जिसे आप जीवन कहते हैं या जिसे आप 'मैं कहते हैं, वह भी अपने आप में एक ऊर्जा है। आप कितने जीवंत हैं, आप कितने सजग हैं, उसी से यह तय होता है कि आप कितने ऊर्जावान हैं मान लीजिए कोई आपके पास आता है और आपको 'बेवकूफ कह देता है, आप फट पड़ते हैं। अब आपको लगता है कि आप क्रोधित हैं, लेकिन यह भाव पहले से पनप रहा था। लेकिन अपने ऊर्जा स्तर की वजह से आप इसके प्रति जागरूक नहीं हैं।
 
          आप जो भोजन करते हैं, जो पानी पीते हैं, जो सांस लेते हैं या जो कुछ भी भीतर लेते हैं, उसे सक्रिय और लाभकारी ऊर्जा में बदलने के लिए एक खास क्षमता की जरूरत होती है। यह क्षमता अलग-अलग लोगों में अलग-अलग होती है। इस क्षमता से हमारा मतलब अपने भीतर लिए गए पदार्थ को बस पचा लेने या उसे अपने शरीर का एक हिस्सा बना लेने से नहीं है। भी चीज अपने भीतर लेते हैं, उसका ऊर्जा में रूपांतरित होना इस बात पर भी निर्भर करता है कि आप कितने जीवंत हैं या आपके भीतर पहले से मौजूद ऊर्जा कितनी सजग है।
 
          आपने अपने आसपास ऐसे कई लोगों को देखा होगा या खुद भी कभी ऐसा महसूस किया होगा कि जब आप किसी आध्यात्मिक क्रिया का अभ्यास करना शुरू करते हैं तो आपकी ऊर्जा का स्तर बिल्कुल अलग होता है। एक बार जब आप ऐसे अभ्यास करने लगते हैं फिर आपके सजग रहने की क्षमता में पहले से बढ़ोत्तरी हो जाती है, आप पहले जितनी जल्दी थकते नहीं हैं और आप बड़े ही सहज तरीके से जीवन के साथ आगे बढ़ते रहते हैं। अगर आप किसी ऐसी क्रिया का रोज अभ्यास करते हैं तो आप देखेंगे कि अगर किसी दिन आप क्रिया न करें तो एक अलग तरह का फर्क आपको महसूस होगा।
 
          देखा जाए तो क्रिया, प्राणायाम या ध्यान जैसे अभ्यासों का असली मकसद आपके ऊर्जा स्तर को ज्यादा सजग बनाना ही है। अगर आप जीवन के और ऊंचे स्तर पर जाकर काम करना चाहते हैं, तो आपको उच्च स्तर और उच्च गुणवत्ता वाली ऊर्जा की जरूरत होगी। इसलिए सारी आध्यात्मिक प्रक्रियाएं ऊर्जा के इस स्तर को उठाने की है। इसे करने के कई तरीके हैं। आपमें से कइयों ने कुछ आसान से तरीकों से इसकी शुरुआत भी कर दी होगी। किसी इंसान के भीतर ऊर्जा का संचार करने के कई और तरीके भी हैं, जो थोड़े नाटकीय हो सकते हैं। ऐसे तरीकों के लिए खास तैयारी की जरूरत होती है। इसके लिए जीवन पर नियंत्रण और संतुलन चाहिए तो ऊर्जावान होने का मतलब अलग-अलग क्षेत्रों के लोगों के लिए अलग-अलग है।
 
          आपके लिए अगर ऊर्जावान होने का मतलब सिर्फ इतना है कि आप अपने रोजमर्रा के कामों को बेहतर तरीके से बिना जल्दी थके कर सकें, तो इसके लिए आप जो अभ्यास कर रहे हैं, वही काफी है। अगर वह अभ्यास काफी नहीं लग रहा हो, तो उसमें थोड़ा सा सुधार करने से आपकी जरूरतें पूरी हो सकती हैं। एक आसान सा तरीका और है। आपने जरूर गौर किया होगा कि किसी दिन जब आप खुश होते हैं, आप अपने भीतर अधिक ऊर्जा महसूस करते हैं। दूसरे दिन अगर आप उतने खुश नहीं हैं तो आपको अपने भीतर उतनी ऊर्जा महसूस नहीं होती।
 
          हम जो अक्सर हमेशा खुश और शांत रहने की बात करते रहते हैं, उसका कारण यही है कि अगर इंसान भीतर से खुश और शांत होगा तो उसकी ऊर्जाएं एक खास तरीके से सजग होने लगेंगी, नहीं तो उनमें रुकावट आती रहेगी। जब ये ऊर्जाएं सजग होंगी, तभी आप उन्हें ऊंचे स्तर तक ले जा सकते हैं। जब आप एक आध्यात्मिक प्रक्रिया शुरू करते हैं, तो ऊर्जावान होने का अर्थ है अपनी सीमाओं के परे जाना। क्योंकि ऊर्जा के स्तर पर सब कुछ एक होता है।
 
          मेरे लिए सही मायने में ऊर्जावान होने का मतलब यह है कि अगर आप यहां बैठे हैं तो आपकी सीमा शरीर न रहे। अगर आपकी ऊर्जाएं वास्तव में सक्रिय हैं तो आपका शरीर आपके लिए बंधनकारी नहीं होगा। ऊर्जा ही संपर्क का मुख्य साधन बन जाती है। अभी बाकी दुनिया से आपका जो भी संपर्क है, वह आपके शरीर, मन और आपकी भावनाओं के जरिए ही है। इन्हीं के जरिए आप अपनी बात कहते हैं, दूसरों तक अपनी पहुंच बनाते हैं। या तो आप किसी को शारीरिक रूप से छू कर या अपने विचारों के जरिए मानसिक रूप से, या फिर भावनात्मक रूप से अपनी बात दूसरों तक पहुंचाते हैं। लेकिन एक बार अगर आप वास्तव में ऊर्जावान हो गए, तो इस अस्तित्व की हर चीज के साथ आप ऊर्जा के स्तर पर जुड़ सकते हैं।
 
          एक बार अगर आपने ऊर्जा के स्तर पर संपर्क बनाना शुरू कर दिया, तो दो चीजों के बीच कोई अंतर नहीं रह जाएगा। एक बार अगर यह बंधन टूट गया, तो आप अपनी परम प्रकृति को पा लेंगे। ऊर्जावान होने का मतलब अलग-अलग लोगों के लिए बेशक अलग-अलग हो सकता है लेकिन जब आप एक आध्यात्मिक प्रक्रिया शुरू करते हैं, तो ऊर्जावान होने का अर्थ है अपनी सीमाओं के परे जाना। क्योंकि ऊर्जा के स्तर पर सब कुछ एक होता है। शारीरिक स्तर पर हम दूसरों के साथ एक कभी नहीं हो सकते।
 
          मानसिक विचारों में भी कभी एकत्व नहीं हो सकता। हम एक होने की बात कर सकते हैं, लेकिन वह कभी नहीं होने वाला। भावनात्मक स्तर पर भी हम बेशक ऐसा सोच सकते हैं कि हम एक हैं, लेकिन हम अलग-अलग ही होंगे। कोई भी दो लोग एक ही तरह से कभी नहीं महसूस कर सकते। हो सकता है कि हम ऐसा मानते हों, ऐसा विश्वास करते हों कि दो लोग एक जैसा महसूस करते हैं, लेकिन ऐसा होता नहीं है।
 
          कुछ लोगों को इसका अनुभव करने में सालों का वक्त लग जाता है। हो सकता है कुछ लोग बहुत जल्दी इसे अनुभव कर लें। लेकिन कभी न कभी यह अनुभव हर किसीको होगा कि शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक रूप से कोई भी दो लोग बिल्कुल एक जैसे नहीं हो सकते। ऐसा संभव ही नहीं है। लेकिन जब आप वास्तव में ऊर्जावान हो जाते हैं, तो एक हो जाना स्वाभाविक है।

Monday, March 23, 2015

स्मृति के पंख

1-जल की भी याददास्त होती है
 
          पंचतत्वों के गुणों को बदलना या यह तय करना कि ये तत्व हमारे भीतर कैसे काम करेंगे, काफी हद तक मानव-मन और चेतना के अधीन है। इसके विज्ञान और तकनीक को इस संस्कृति में पूरी गहराई से परखा गया था और उसे एक पीढ़ी से अगली पीढ़ी को सौंपा जाता रहा। सही तरह के नजरिए, एकाग्रता और ध्यान देने से क्या आप शरीर रूपी इस बरतन के जल को मिठास से नहीं भर सकते?
 
         अगर आप ऐसा कर पाएं, तो आप बहत्तर फीसदी मीठे हैं, क्योंकि आपके शरीर में लगभग इतनी ही पानी की मात्रा है। लेकिन पिछले सौ सालों में, जीवन के प्रति अपने बहुत अहंकारी रवैये के कारण हमने बहुत सी चीजें छोड़ दीं। इस देश में हमारे पास ज्ञान का जो भंडार है, अगर हम उसे फिर से अपना लें, तो वह न सिर्फ इस देश के कल्याण के लिए बल्कि पूरी दुनिया के कल्याण के लिए एक महान साधन हो सकता है।
 
          पश्चिम से आने वाले सभी तरीके आम तौर पर बस थोड़े समय के लिए उपयोगी होते हैं। उनके यहां सब कुछ बस इस्तेमाल करके फेंक देने के लिए होता है। यहां तक कि इंसान भी। दिक्कत यह है कि राजनैतिक तथा कुछ दूसरी किस्म के प्रभाव के कारण कोई चीज अगर पश्चिम से आए तो विज्ञान बन जाती है, और अगर पूर्व से आए तो अंधविश्वास। बहुत सी बातें जो आपको कभी आपकी दादी-नानी ने बताई होंगी, आज बड़े-बड़े वैज्ञानिक प्रयोगशालाओं में 'महान-आविष्कारों के रूप में खोजी जा रही हैं।
 
          जो बातें वे अरबों डॉलर के रिसर्च और अध्ययनों के बाद बता रहे हैं, हम अपनी संस्कृति में पहले से कहते आ रहे हैं। इसका कारण यह है कि हमारी संस्कृति जीवन की विवशताओं से विकसित नहीं हुई है। यह वह संस्कृति है, जिसे ऋषि-मुनियों ने विकसित किया है, इसका ध्यान रखते हुए कि आपको कैसे बैठना चाहिए, कैसे खड़े होना चाहिए और कैसे खाना चाहिए। मानव कल्याण के लिए जो सबसे श्रेष्ठ है, उसे ध्यान में रखते हुए इसे तैयार किया गया था और इसका बहुत वैज्ञानिक महत्व है। खास तौर पर पिछले कुछ वर्षों में, पानी और पानी की क्षमता पर काफी शोध किया गया है। वैज्ञानिक एक बात कह रहे हैं कि पानी में याददाश्त होती है। पानी जिसके भी संपर्क में आता है उसे याद रखता है।
 
          आज-कल घरों में जो पानी पहुंचाने की व्यवस्था है उसमें, पानी को बलपूर्वक पंप किया जाता है और उसे आपके नल में आने से पहले पचास घुमावों से गुजरना पड़ता है। जब तक वह पानी आपके घर पहुंचता है, कहा जाता है कि वह साठ फीसदी जहरीला हो चुका होता है, रासायनिक रूप से नहीं, बल्कि इसलिए क्योंकि उसका आणविक-ढांचा यानी 'मॉलिक्यूलर स्ट्रक्चर बदल जाता है। जब आपकी दादी-नानी ऐसा कहती थीं, तो वह अंधविश्वास था। जब आप यह चीज अमेरिका में वैज्ञानिकों से सुनते हैं, तो आप इसे गंभीरता से लेंगे। यह एक तरह की दासता है।
 
          बैक्टीरिया की वजह से कोई चीज जिस तरह दूषित होती है, हो सकता है कि वह उस तरह दूषित न हो, लेकिन तेजी से गुजरने की वजह से पानी के आणविक ढांचे में इस तरह का बदलाव आ जाता है कि वह लाभदायक नहीं रह जाता, बल्कि विषैला भी हो सकता है।
 
          अगर आप इस जल को तांबे के एक बरतन में दस से बारह घंटे तक रखें, तो उस नुकसान की भरपाई हो सकती है। लेकिन अगर आप उसे सीधे नल से पीएं, तो आप एक खास मात्रा में जहर पी रहे हैं। लोग इस तरह से जिंदगी जीते हैं और कहते हैं, 'मुझे कैंसर कैसे हो गया? मुझे यह बीमारी क्यों हो गई? अगर आप जीवन के प्रति बिना किसी संवेदना के जीते हैं, जो तत्व आपको बनाते हैं, उनका ख्याल नहीं रखते तो सब कुछ ठीक होने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं? पाया गया है कि पानी की रासायनिक संरचना को बदले बिना, आप आणविक व्यवस्था को इस तरह व्यवस्थित कर सकते हैं कि पानी आपके शरीर में बिल्कुल अलग तरीके से काम करे।
 
          उदाहरण के लिए, अगर मैं अपने हाथ में एक गिलास पानी लूं, उसे एक खास तरीके से देखूं और आपको दूं, तो उसको पीने से आपका भला हो सकता है। वहीं अगर मैं उसे दूसरे तरीके से देखूं और आपको दूं, तो उसे पीकर आप आज रात को ही बीमार पड़ जाएंगे। आपकी दादी-नानी आपसे कहा करती थीं, 'तुम्हें हर किसी के हाथ से न तो पानी पीना चाहिए और न ही खाना खाना चाहिए। तुम्हें ये चीजें हमेशा उन्हीं लोगों के हाथ से लेनी चाहिएं जो तुमसे प्रेम करते हैं और तुम्हारी परवाह करते हैं। किसी से भी ले कर और कहीं भी बैठ कर कोई चीज नहीं खानी चाहिए।
 
          जब आपकी दादी-नानी ऐसा कहती थीं, तो वह अंधविश्वास था। जब आप यह चीज अमेरिका में वैज्ञानिकों से सुनते हैं, तो आप इसे गंभीरता से लेंगे। यह एक तरह की दासता है। इस संस्कृति में, हमें हमेशा से मालूम था कि जल की अपनी याददाश्त होती है। आप जिसे तीर्थ कहते हैं, वह बस यही है। आपने देखा होगा कि लोग मंदिर से तीर्थ की एक बूंद पाने के लिए कैसे बेचैन रहते हैं।
 
          अगर आप अरबपति भी हैं, तो भी आपमें उस एक बूँद के लिए लालसा होती है, क्योंकि आप उस जल को ग्रहण करना चाहते हैं जिसमें ईश्वर की स्मृति हो। अगर आप तमिलनाडु के किसी पारंपरिक घर में जाएं, तो आप देखेंगे कि जल एक खास तरीके से पीतल या तांबे के बरतनों में रखा गया है। यह रिवाज पहले देश में हर जगह था, लेकिन दूसरे स्थानों में यह काफी हद तक खत्म सा हो गया है। वे हर सुबह पानी वाले बरतन को इमली से मांजते हैं, थोड़ी विभूति और थोड़ा कुमकुम लगाते हैं और उसकी पूजा करते हैं। उसके बाद ही वे उसमें पानी रखते हैं और उसी से पानी पीते हैं क्योंकि उन्हें हमेशा से पता है कि जल की याददाश्त होती है। वे जानते हैं कि आप जल को जिस तरह के बरतन में रखते हैं और उसके साथ जैसा बरताव करते हैं, उससे यह तय होता है कि वह आपके भीतर कैसा व्यवहार करेगा। मैं आपको एक घटना के बारे में बताता हूं।
 
          कुछ साल पहले, मैं एक दक्षिण भारतीय घर में गया। यहां अतिथि सत्कार में सबसे पहले आपके लिए पीने का पानी लाते हैं। तो घर की गृहिणी मेरे लिए पीने का पानी लाईं। मैंने उनके चेहरे की ओर देखा, वो काली की तरह रौद्र दिख रहीं थीं। दरअसल उनके पति नब्बे दिन के एक कार्यक्रम के लिए मेरे साथ आना चाहते थे। वह एक अच्छी महिला हैं, लेकिन उस दिन वह काली की तरह थीं। इसलिए जब वह पानी लाईं, तो मैंने कहा, 'अम्मा, आज आप काली की तरह दिख रही हैं। मुझे इस जल की कोई जरूरत नहीं है। मैं ऐसी बुरी हालत में नहीं हूं कि पानी के बिना काम न चले। वो बोलीं- 'यह अच्छा पानी ही है। मैंने कहा 'यह पानी अच्छा है, लेकिन आप जिस रूप में हैं, मुझे यह पानी पीने की जरूरत नहीं है। अगर सद्गुरु आपके घर आएं और पानी पीने से इनकार कर दें, तो एक दक्षिण भारतीय परिवार में यह कोई छोटी बात नहीं है।
 
          नाटक शुरू होने लगा। इसलिए मैंने उससे कहा इस पानी की एक घूंट आप पीजिए। उनको लगा कि मैं पानी की जांच के लिए उनको चखने को कह रहा हूं, उसने पी लिया और बोली यह अच्छा है। मैंने उनसे वह पानी लेकर बस एक मिनट तक उसे अपने हाथ में पकड़े रखा। फिर उनको दिया। 'अब इसे पीजिए। उन्होंने उसे पीया, उनके आंसू निकलने लगे और वह रोने लगीं 'अरे यह कितना अच्छा है! यह मीठा है। मैंने कहा, 'जीवन ऐसा ही है। अगर आप एक खास रूप में हैं, तो सब कुछ मीठा हो जाता है।
 
          अगर आप किसी दूसरे तरह से हैं, तो आपके जीवन में सब कुछ कटु हो जाएगा। अगर सिर्फ एक विचार या निगाह से, आप किसी बरतन के पानी को मीठा कर सकते हैं, तो सही तरह के नजरिए, एकाग्रता और ध्यान देने से क्या आप शरीर रूपी इस बरतन के जल को मिठास से नहीं भर सकते? अगर आप ऐसा कर पाएं, तो आप बहत्तर फीसदी मीठे हैं, क्योंकि आपके शरीर में लगभग इतनी ही पानी की मात्रा है।
 
 
2--कुंडलिनी जागरण योग खतरनाक भी हो सकता है
 
          सही विधि को अपनाएं योग के बारे में अगर आप थोड़ी-बहुत भी दिलचस्पी रखते होंगे तो कुंडलिनी योग के बारे में जरूर सुना होगा, संभव है कहीं से कुछ पढ़ा या सीखा भी हो, लेकिन सावधान, यह जितना लाभदायक है उतना ही खतरनाक भी। क्यों? आइये जानते हैं अगर आप कुंडलिनी को जाग्रत करना चाहते हैं तो आपको अपने शरीर, मन और भावना के स्तर पर जरूरी तैयारी करनी होगी, क्योंकि अगर आप बहुत ज्यादा वोल्ट की सप्लाई एक ऐसे सिस्टम में कर दें जो उसके लिए तैयार नहीं है तो सब कुछ जल जाएगा। सद्गुरु- आजकल बहुत सारी किताबें और योग-स्टूडियो या योग केंद्र कुंडलिनी योग और उसके लाभों के बारे में बात करते हैं। यह बात और है कि वे इसके बारे में जानते कुछ भी नहीं। यहां तक कि जब हम कुंडलिनी शब्द का उच्चारण भी करते हैं तो पहले अपने मन में एक तरह की श्रद्धा लाते हैं और तब उस शब्द का उच्चारण करते हैं, क्योंकि यह शब्द है ही इतना विशाल, इतना विस्तृत।
 
          अगर आप कुंडलिनी को जाग्रत करना चाहते हैं तो आपको अपने शरीर, मन और भावना के स्तर पर जरूरी तैयारी करनी होगी, क्योंकि अगर आप बहुत ज्यादा वोल्ट की सप्लाई एक ऐसे सिस्टम में कर दें जो उसके लिए तैयार नहीं है तो सब कुछ जल जाएगा। मेरे पास तमाम ऐसे लोग आए हैं जो अपनी शारीरिक क्षमताएं और दिमागी संतुलन खो बैठे हैं। इन लोगों ने बिना जरूरी तैयारी और मार्गदर्शन के ही कुंडलिनी योग करने की कोशिश की। अगर कुंडलिनी योग के लिए उपयुक्त माहौल नहीं है, तो कुंडलिनी जाग्रत करने की कोशिश बेहद खतरनाक और गैरजिम्मेदाराना हो सकती है।
 
          अगर आप इस ऊर्जा को हासिल करना चाहते हैं, जो कि एक जबर्दस्त शक्ति है, तो आपको स्थिर होना होगा। यह नाभिकीय ऊर्जा (न्यूक्लियर एनर्जी) के इस्तेमाल की तकनीक सीखने जैसा है। जापान की स्थिति को देखते हुए आजकल हर कोई परमाणु विज्ञान पर बहुत ध्यान दे रहा है, और उस के बारे में बहुत ज्यादा सीख रहा है। अगर आप रूसी अनुभव को भूल चुके हैं, तो जापानी आपको याद दिला रहे हैं। अगर आप इस ऊर्जा को हासिल करना चाहते हैं तो यह काम आपको बड़ी ही सावधानी से करना होगा।
 
          अगर आप सुनामी और भूकंप जैसी संभावनाओं से घिरे हैं, फिर भी आप न्यूक्लियर एनर्जी से खेल रहे हैं तो आप एक तरह से अपने लिए मुसीबत को ही निमंत्रण दे रहे हैं। कुंडलिनी के साथ भी ऐसा ही है। आज ज्यादातर लोग जिस तरह की जिंदगी जी रहे हैं, उसमें बहुत सारी चीजें, जैसे- भोजन, रिश्ते और तरह-तरह की गतिविधियां पूरी तरह से उनके नियंत्रण में नहीं हैं। उन्होंने कहीं किसी किताब में पढ़ लिया और कुंडलिनी जाग्रत करने की कोशिश करने लगे।
 
          इस तरह कुंडलिनी जाग्रत करना ठीक ऐसा है जैसे आप इंटरनेट पर पढकऱ अपने घर में न्यूक्लियर रिएक्टर बना रहे हों। न्यूक्लियर बम कैसे बनाया जाता है, वर्ष 2006 तक इसकी पूरी जानकारी इंटरनेट पर मौजूद थी। हमें नहीं पता कितने लोगों ने उसे डाउनलोड किया। बस सौभाग्य की बात यह रही कि इस बम को बनाने के लिए जिस पदार्थ की जरूरत होती है, वह लोगों की पहुंच से बाहर था। कुंडलिनी के साथ भी ऐसा ही है।
 
          बहुत सारे लोगों ने पढ़ लिया है कि कैसे कुंडलिनी जाग्रत करके आप चमत्कारिक काम कर सकते हैं। हो सकता है कि बुद्धि के स्तर पर उन्हें पता हो कि क्या करना है, लेकिन अनुभव के स्तर पर उन्हें कुछ नहीं पता। यह अच्छी बात है, क्योंकि अगर वे इस ऊर्जा को हासिल कर लेते हैं, तो वे इसे संभाल नहीं पाएंगे। यह उनके पूरे सिस्टम को पल भर में नष्ट कर देगी। न केवल उनका, बल्कि आसपास के लोगों का भी इससे जबर्दस्त नुकसान होगा। कहीं किसी किताब में पढ़ कर कुंडलिनी जाग्रत करना ठीक ऐसा है जैसे आप इंटरनेट पर पढकऱ अपने घर में न्यूक्लियर रिएक्टर बना रहे हों। इसका मतलब यह नहीं है कि कुंडलिनी योग के साथ कुछ गड़बड़ है।
 
          यह एक शानदार प्रक्रिया है लेकिन इसे सही ढंग से किया जाना चाहिए, क्योंकि ऊर्जा में अपना कोई विवेक नहीं होता। आप इससे अपना जीवन बना भी सकते हैं और मिटा भी सकते हैं। बिजली हमारे जीवन के लिए फायदेमंद हैं, लेकिन अगर आप उसे छूने की कोशिश करेंगे, तो आपको पता है कि क्या होगा। इसीलिए मैं आपको बता रहा हूं कि ऊर्जा में अपनी कोई सूझबूझ नहीं होती। आप जैसे इसका इस्तेमाल करेंगे, यह वैसी ही है। कुंडलिनी भी ऐसे ही है। आप इसका उपयोग अभी भी कर रहे हैं, लेकिन बहुत ही कम।
 
          अगर आप इसे बढ़ा दें तो आप अस्तित्व की सीमाओं से भी परे जा सकते हैं। सभी योग एक तरह से उसी ओर ले जाते हैं, लेकिन कुंडलिनी योग खासतौर से उधर ही ले जाता है। दरअसल पूरा जीवन ही उसी दिशा में जा रहा है। लोग जीवन को जिस तरह से अनुभव कर रहे हैं, उससे कहीं ज्यादा तीव्रता और गहराई से अनुभव करना चाहते हैं। कोई गाना चाहता है, कोई नाचना चाहता है, कोई शराब पीना चाहता है, कोई प्रार्थना करना चाहता है।
 
          वे लोग ये सब क्यों कर रहे हैं? वे जीवन को ज्यादा तीव्रता के साथ महसूस करना चाहते हैं। हर कोई असल में अपनी कुंडलिनी को जाग्रत करना चाहता है, लेकिन सभी इस काम को उटपटांग तरीके से कर रहे हैं। जब आप इसे सही ढंग से, सही मागदर्शन में, वैज्ञानिक तरीके से करते हैं तो हम इसे योग कहते हैं।
 
 
3--विचारों के जंजाल से कैसे मुक्त हों
 
             कैसे मुक्त हो अपने विचारों की आपाधापी से। हमारा जीवित होना या फिर अस्तित्व में होना, और हमारी सोचने की क्षमता ये दो अलग-अलग चीज़ें हैं। आइये अरस्तू और हेराक्लीटस की कहानी के द्वारा यह जानते हैं कि किस तरह हम अपनी विचारों में खो जाते हैं, और यह भूल जाते हैं कि हमारी मौजूदगी ही हमारे विचारों की बुनियाद है। किसी दार्शनिक का यह कथन है 'मैं सोच सकता हूं, इसीलिए मैं हूं। क्या यह वाकई सच है? आपका अस्तित्व है, सिर्फ इसलिए आप कोई विचार उत्पन्न कर पाते हैं।
 
          आप अपने विचार-प्रक्रिया के इतने गुलाम हो गए हैं कि आपका ध्यान अपने अस्तित्व से हटकर पूरी तरह सोच की ओर चला गया है। वह भी इस हद तक कि अब आप यह मानने लगे हैं कि आपका अस्तित्व ही आपकी सोच की वजह से है। मैं आपको बता दूं कि आपके मूर्खतापूर्ण विचारों के बिना भी आपका अस्तित्व हो सकता है। देखा जाए तो आप सोच ही क्या सकते हैं? बस वही बकवास जिसे आपने अपने दिमाग में इकठा कर रखा है और उसे ही बार-बार सोचते रहते हैं। आपके दिमाग में जो भी पहले से भरा हुआ है, उसके अलावा क्या आप कुछ और सोच सकते हैं? आप बस पुराने आंकड़ों को रिसाइकिल कर रहे हैं।
 
          अब यह रिसाइकलिंग ही इतनी अहम हो गई है कि लोग यह तक कहने की हिम्मत कर लेते हैं, 'मैं सोचता हूं, इसलिए मैं हूं। और यही दुनिया की जीवनशैली हो गई है। दरअसल आप हैं, आपका अस्तित्व है इसलिए आप सोच सकते हैं। अगर आप चाहें, तो आप पूरी तरह अपने अस्तित्व को बनाए रख सकते हैं और वह भी बिना सोचे। आपके जीवन के सबसे खूबसूरत पल आनंद के पल, खुशी के पल, परमानंद के पल, नितांत शांति के पल ऐसे पल थे, जब आप किसी चीज के बारे में सोच नहीं रहे थे। आप बस जी रहे थे।
 
          आप एक जीवित प्राणी होना चाहते हैं या विचारों में डूबा प्राणी? फिलहाल नब्बे फीसदी समय आप जीवन के बारे में सोचते हुए बिताते हैं, जीवन को जीते हुए नहीं। आप इस धरती पर जीवन का अनुभव करने आए हैं या जीवन के बारे में सोचने के लिए? आपकी मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया जीवन की प्रक्रिया के मुकाबले एक तुच्छ चीज है, मगर फिलहाल वह कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो गई है।
 
          हमें एक बार फिर से जीवन की प्रक्रिया को महत्व देने की जरूरत है। अरस्तु और हेराक्लीटस- अरस्तू को आधुनिक तर्क का जनक माना जाता है, उनका तर्क बहुत स्पष्ट और अजेय होता था। उनकी बौद्धिक प्रतिभा पर कोई सवाल नहीं है, मगर उन्होंने तर्क को जीवन के सभी पहलुओं तक ले जाने की कोशिश की। कई रूपों में वह अपाहिज या असमर्थ थे। उनके बारे में एक कहानी है। मुझे पता नहीं कि उसमें कितनी सच्चाई है, मगर वह सच सी लगती है। एक दिन, अरस्तू समुद्र तट पर टहल रहे थे।
 
          बहुत खूबसूरत सूर्यास्त हो रहा था, मगर उनके पास रोजाना होने वाली ऐसी छोटी-मोटी चीजों के लिए कोई समय नहीं था। वो गंभीरता से अस्तित्व की किसी बड़ी समस्या के बारे में सोच रहे थे। अरस्तू के लिए अस्तित्व एक समस्या थी, और उन्हें लगता था कि वह उस समस्या को सुलझा देंगे। गंभीरता से सोचते हुए, वह समुद्र तट पर आगे-पीछे टहल रहे थे। उसी तट पर एक और आदमी था जो बहुत गहनता से और लगन से कोई काम कर रहा था इतनी लगन से कि अरस्तू भी उसे अनदेखा नहीं कर पाए। आपको पता है, जो लोग अपनी बेकार की चीजों के बारे में बहुत ज्यादा सोचते हैं, वे अपने आस-पास के जीवन को अनदेखा कर देते हैं।
 
          ये ऐसे लोग होते हैं, जो दुनिया में किसी को देखकर मुस्कुराते नहीं, या किसी की ओर देखते तक नहीं। उनके पास किसी फूल, सूर्यास्त, किसी बच्चे या मुस्कुराते चेहरे की ओर देखने की निगाह नहीं होती या उन्हें किसी उदास चेहरे पर मुस्कुराहट लाने की इच्छा नहीं होती, उनके पास दुनिया में ऐसे कोई छोटे काम या छोटी जिम्मेदारियां नहीं होतीं। वे अपने आस-पास के सारे जीवन को अनदेखा कर देते हैं क्योंकि वे अस्तित्व की समस्याओं को सुलझाने में व्यस्त होते हैं। मगर अरस्तू इस आदमी को अनदेखा नहीं कर पाए।
 
          उन्होंने ध्यान से देखा कि वह क्या कर रहा था, वह आदमी बार-बार समुद्र के पास जा रहा था और वापस आ रहा था। अरस्तू रुके और उससे पूछा, 'अरे, तुम क्या कर रहे हो? वह आदमी बोला, 'मुझे परेशान न करो, मैं बहुत जरूरी काम कर रहा हूं, और वह फिर से वही करने लगा। अरस्तू और भी उत्सुक हो गए और उससे पूछा, 'तुम कर क्या रहे हो? वह आदमी बोला, 'मुझे परेशान मत करो, यह बहुत जरूरी चीज है। अरस्तू बोले, 'यह जरूरी चीज क्या है? उस आदमी ने एक छोटा सा छेद दिखाया, जो उसने रेत में बनाया था, और बोला, 'मैं इस छेद में समुद्र भर रहा हूं। उसके हाथ में एक चम्मच था। अरस्तू यह देखकर हंसने लगे।
 
          अरस्तू उस तरह के इंसान हैं, जो एक बार भी हंसे बिना पूरा साल बिता सकते हैं क्योंकि वह बुद्धिमान हैं। हंसने के लिए दिल चाहिए होता है। बुद्धि हंस नहीं सकती, वह सिर्फ चीड़-फाड़ कर सकती है। मगर इस बात पर अरस्तू भी हंसने लगे और कहा, 'क्या बेतुकी बात कर रहे हो! तुम निश्चित रूप से पागल हो। क्या तुम जानते हो कि यह समुद्र कितना विशाल है? तुम इस समुद्र को इस छोटे से छेद में कैसे भर सकते हो? और वह भी एक चम्मच से? कम से कम तुम्हारे पास एक बाल्टी होती, तो फिर भी कोई संभावना होती। कृपया यह कोशिश छोड़ दो, यह पागलपन है, मैं तुम्हें बता रहा हूं। उस आदमी ने अरस्तू की ओर देखा, चम्मच नीचे फेंक दिया और बोला, 'मेरा काम हो गया।
 
           अरस्तू बोले, 'तुम क्या कहना चाहते हो? समुद्र का खाली होना तो भूल जाओ, यह छेद तक नहीं भरा है। तुम कैसे कह सकते हो कि तुम्हारा काम हो गया? वह दूसरा आदमी था, हेराक्लीटस। हेराक्लीटस खड़े होकर बोले, 'मैं एक चम्मच से इस छेद में समुद्र को भरने की कोशिश कर रहा हूं। आप मुझे बता रहे हैं कि यह मूर्खता है, यह पागलपन है, इसलिए मैं यह काम छोड़ दूं। आप क्या करने की कोशिश कर रहे हैं? क्या आप जानते हैं कि यह अस्तित्व कितना विशाल है? इसमें ऐसे एक अरबों-खरबों समुद्र समा सकते हैं और आप उसे छोटे से छिद्र में, अपने सिर में भरने की कोशिश कर रहे हैं, और वह भी किससे? विचारों के चम्मच से। कृपया यह काम छोड़ दीजिए। यह नितांत मूर्खता है।
 
             अगर आप जीवन के विभिन्न आयामों का अनुभव करना चाहते हैं, तो आप अपने तुच्छ विचारों से उन्हें कभी नहीं जान पाएंगे। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप कितना अच्छा सोच सकते हैं, मानव विचार फिर भी तुच्छ होते हैं। चाहे आपके अंदर आइंस्टीन का दिमाग काम कर रहा हो, वह फिर भी तुच्छ है क्योंकि विचार कभी जीवन से बड़े नहीं हो सकते। विचार सिर्फ तार्किक हो सकते हैं, जो दो पक्षों के बीच काम करते हैं। अगर आप जीवन को उसकी विशालता में जानना चाहते हैं, तो आपको अपने विचारों से कुछ ज्यादा, अपने तर्क से कुछ ज्यादा, अपनी बुद्धि से कुछ ज्यादा की जरूरत होगी।
 
          आपके पास विकल्प है कि या तो आप सृष्टि के साथ रहना सीख जाइए या अपने दिमाग में अपनी बेकार की कल्पनाएं रचते रहिए। आप कौन सा विकल्प आजमाना चाहते हैं? अभी ज्यादातर लोग विचारों में रहते हैं, विचार ऐसी चीज है जो अस्तित्व में नहीं, आपके मन में घटित होते हैं। इसलिए वे असुरक्षित होते हैं क्योंकि वह किसी भी पल ढह सकते हैं। पृथ्वी समय से घूम रही है। कोई छोटी सी भी गड़बड़ नहीं होती। सारे तारामंडल बहुत बढिय़ा तरीके से काम कर रहे हैं, पूरा ब्रह्मांड अच्छी तरह काम कर रहा है। मगर आपके दिमाग में एक छोटे से बुरे विचार का कीड़ा रेंगता है, और आपका दिन खराब हो जाता है।
 
          आपको अपनी मर्जी से कुछ भी सोचने की आजादी है। आप सिर्फ सुखद चीजों के बारे में ही क्यों नहीं सोचते? समस्या बस यही है यह कुछ ऐसा है जैसे आपके पास एक कंप्यूटर तो है, लेकिन उसका की-पैड ढूंढने की आपने कभी परवाह नहीं की। अगर आपके पास कीपैड होता, तो आप उस पर सही शब्द टाइप कर सकते थे। लेकिन आपके पास की-पैड नहीं है और आप अपने कंप्यूटर को किसी असभ्य मनुष्य की तरह धुन रहे हैं, इसलिए उससे सारे गलत शब्द टाइप हो रहे हैं।
 
          अपने कंप्यूटर के साथ यह चीज आजमाएं, नतीजे में आपको बेहूदगी नजर आएगी। आप जीवन का अपना नजरिया, जीवन की दृष्टि खो बैठे हैं क्योंकि आप जो हैं, उससे ज्यादा खुद को समझते हैं। अगर ब्रह्मांड के मुकाबले खुद को देखें, तो आप धूल के एक कण से भी छोटे हैं, मगर आपके ख्याल से आपके विचारों जो आपके अंदर एक कण से भी छोटे हैं को अस्तित्व की प्रकृति तय करनी चाहिए।
 
          मैं जो सोचता हूं और आप जो सोचते हैं, वह कोई अहमियत नहीं रखता। अस्तित्व की भव्यता सबसे महत्वपूर्ण है, वही एकमात्र हकीकत है। आपने 'बुद्ध शब्द के बारे में सुना होगा। जो अपनी बुद्धि से ऊपर उठ गया है, या जो अपने जीवन के पक्षपाती और तार्किक आयाम से ऊपर उठ गया है, वह बुद्ध है। इंसानों ने कष्ट सहने के लाखों तरीके बना लिए हैं। इन सब कष्टों का कारखाना आपके दिमाग में ही है।
 
          जब आप अपने मन से ऊपर उठ जाते हैं, तो यह कष्ट का अंत होता है। जब कष्ट का कोई भय नहीं होता, तो पूर्ण आजादी होती है। जब ऐसा होता है, तभी इंसान अपने जीवन का अनुभव अपनी सीमाओं से ऊपर उठ कर कर सकता है। इसलिए बुद्ध बनने का मतलब है कि आप अपनी ही बुद्धि के एक साक्षी बन गए हैं। योग और ध्यान का मूल तत्व सिर्फ यही है एक बार जब आपके और आपके मन के बीच एक स्पष्ट अंतर आ जाता है, तो आप अस्तित्व के एक बिल्कुल अलग आयाम का अनुभव करते हैं।
 
          आप यह सरल अभ्यास आजमा सकते हैं। अपने नल या किसी भी ऐसी मशीन को इस तरीके से लगाएं कि प्रति मिनट केवल पांच से दस बूंदें गिरे। हर बूंद को ध्यान से देखें वह कैसे बनती है, कैसे गिरती है, कैसे जमीन पर बिखर जाती है। इसे हर दिन पंद्रह से बीस मिनट तक करें। आप अचानक अपने आस-पास और अपने अंदर बहुत सी चीजों के प्रति चेतन हो जाएंगे जिन पर फिलहाल आपका ध्यान बिल्कुल भी नहीं है।
 
 
4-सिर पर चन्द्र और गले में सांप क्यों हैं शिव के
 
            सद्गुरु हर तस्वीर में, हर मूर्ति में, हर जगह शिव के सिर पर चंद्रमा और गले में सांप दिखाया जाता है। क्या है आखिर शिव का इनसे संबंध ? आइए जानते हैं - चंद्रमा शिव के कई नाम हैं। उनमें एक काफी प्रचलित नाम है सोम या सोमसुंदर। वैसे तो सोम का मतलब चंद्रमा होता है मगर सोम का असली अर्थ नशा होता है।
 
          नशा सिर्फ बाहरी पदार्थों से ही नहीं होता, बल्कि केवल अपने भीतर चल रही जीवन की प्रक्रिया में भी आप मदमस्त रह सकते हैं। अगर आपका विशुद्धि चक्र शक्तिशाली हो जाता है, तो आपके अंदर शरीर में प्रवेश करने वाली हर चीज को छानने या शुद्ध करने की काबिलियत आ जाती है। शिव का केंद्र विशुद्धि चक्र में है। उन्हें विषकंठ या नीलकंठ भी कहा जाता है क्योंकि वह सारे जहर को छान लेते हैं।
 
          अगर आप जीवन के नशे में नहीं डूबे हैं, तो सिर्फ सुबह का उठना, अपने शरीर की जरूरतों को पूरा करना, खाना-पीना, रोजी-रोटी कमाना, आस-पास फैले दुश्मनों से खुद को बचाना और फिर हर रात सोने जाना, जैसी दैनिक क्रियाएं आपकी जिंदगी कष्टदायक बना सकती हैं। अभी ज्यादातर लोगों के साथ यही हो रहा है। जीवन की सरल प्रक्रिया उनके लिए नर्क बन गई है।
 
          ऐसा सिर्फ इसलिए है क्योंकि वे जीवन का नशा किए बिना उसे बस जीने की कोशिश कर रहे हैं। चंद्रमा को सोम कहा गया है, यानि नशे का स्रोत। अगर आप किसी चांदनी रात में किसी ऐसी जगह गए हों जहां बिजली की रोशनी नही हो, या आपने बस चंद्रमा की रोशनी की ओर ध्यान से देखा हो, तो धीरे-धीरे आपको सुरूर चढऩे लगता है।
 
          क्या आपने इस बात पर ध्यान दिया है? हम चंद्रमा की रोशनी के बिना भी ऐसा कर सकते हैं मगर चांदनी से ऐसा बहुत आसानी से हो जाता है। अपने इसी गुण के कारण चंद्रमा को नशे का स्रोत माना गया है। शिव चंद्रमा को एक आभूषण की तरह पहनते हैं क्योंकि वह एक महान योगी हैं जो हर समय नशे में चूर रहते हैं। फिर भी वह बहुत ही सजग होकर बैठते हैं। नशे का आनंद उठाने के लिए आपको सचेत होना ही चाहिए।
 
          जब आप शराब पीते हैं, तब भी आप सजग रहकर उस नशे का मजा लेने की कोशिश करते हैं। योगी ऐसे ही होते हैं पूरी तरह नशे में चूर मगर बिल्कुल सजग। योग का विज्ञान आपको हर समय अपने अंदर नशे में चूर रहने का आनंद देता है। योगी आनंद के खिलाफ नहीं होते। बस वे थोड़े से आनंद से या सिर्फ सुख से संतुष्ट नहीं होना चाहते। वे लालची होते हैं। सांप शिव के गले के चारों ओर लिपटा रहता है।
 
          यह सिर्फ एक प्रतीक नहीं है। इसके पीछे एक पूरा विज्ञान है। ऊर्जा शरीर में 114 चक्र होते हैं। आप उन्हें 114 संधि स्थलों या नाडिय़ों के संगम के रूप में देख सकते हैं।वे जानते हैं कि अगर आप एक गिलास शराब पीते हैं तो उससे आपको थोड़ा सा सुरूर होगा जो अगली सुबह सिरदर्द में बदल जाएगा। योगी ऐसा नहीं चाहते। योग के साथ, वे हर समय पूरी तरह नशे में चूर रहते हुए भी सौ फीसदी स्थिर और सचेत रह सकते हैं। कुछ पीकर या किसी भी नशे से ऐसा नहीं किया जा सकता। ऐसा तभी हो सकता है अगर आप खुद अपना नशा तैयार कर रहे हों और उसे पी रहे हों।
 
          प्रकृति ने आपको यह संभावना दी है। पिछले कुछ दशकों में खूब सारा शोध हुआ है और एक वैज्ञानिक ने यह पाया कि मानव मस्तिष्क में लाखों कैनाबिस रिसेप्टर हैं। अगर आप बस अपने शरीर को एक खास तरीके से रखें, तो शरीर अपना नशा खुद पैदा कर सकता है और मस्तिष्क उसे पाने का इंतजार करता है। मानव शरीर अपना नशा खुद पैदा करता है, इसीलिए बिना किसी बाहरी उत्तेजना के ही शांति, आनंद और खुशी की भावनाएं आपके अंदर पैदा हो सकती हैं।
 
          जब उस वैज्ञानिक ने इस रसायन को एक सटीक नाम देना चाहा, तो उसने दुनिया भर के बहुत से ग्रंथ पढ़े। मगर कोई शब्द उसे संतुष्ट नहीं कर पाया। फिर वह भारत आया, जहां उसे 'आनंद शब्द मिला। उसने उस रसायन को 'आनंदामाइड नाम दिया। अगर आप अपने शरीर में पर्याप्त मात्रा में आनंदामाइड पैदा करते हैं, तो आप हर समय नशे में डूबे रहकर भी पूरी तरह जागरूक, पूरी तरह सचेत रह सकते हैं। सर्प योग संस्कृति में, सर्प यानी सांप कुंडलिनी का प्रतीक है। यह आपके भीतर की वह उर्जा है जो फिलहाल इस्तेमाल नहीं हो रही है।
 
          कुंडलिनी का स्वभाव ऐसा होता है कि जब वह स्थिर होती है, तो आपको पता भी नहीं चलता कि उसका कोई अस्तित्व है। केवल जब उसमें हलचल होती है, तभी आपको महसूस होता है कि आपके अंदर इतनी शक्ति है। जब तक वह अपनी जगह से हिलती-डुलती नहीं, उसका अस्तित्व लगभग नहीं के बराबर होता है। अपने इसी गुण के कारण चंद्रमा को नशे का स्रोत माना गया है।
 
          शिव चंद्रमा को एक आभूषण की तरह पहनते हैं क्योंकि वह एक महान योगी हैं जो हर समय नशे में चूर रहते हैं। फिर भी वह बहुत ही सजग होकर बैठते हैं।इस कारण सांप को कुंडलिनी के प्रतीक के रूप में देखा जाता है, क्योंकि कुंडली मारे सांप को भी देखना बहुत मुश्किल होता है, जब तक कि वह आगे नहीं बढ़ता। इसी तरह, आप कुंडलिनी में कैद इस ऊर्जा को सिर्फ तब देख पाते हैं जब वह हिलती-डुलती है।
 
          अगर आपकी कुंडलिनी जाग्रत हो जाती है, तो आपके साथ अविश्वसनीय और चमत्कारी चीजें हो सकती हैं। एक बिल्कुल नई किस्म की ऊर्जा आपके अंदर भरने लगती है और आपके शरीर के साथ-साथ सब कुछ बिल्कुल अलग तरीके से काम करने लगता है। शिव के साथ सांप को दिखाने की यही वजह है। यह दर्शाता है कि उनकी ऊर्जा शिखर तक पहुंच चुकी है। आध्यात्मिकता या रहस्यवाद को सांपों से अलग नहीं किया जा सकता क्योंकि इस जीव में बोध का एक खास आयाम विकसित है। यह एक रेंगने वाला जीव है, जिसे जमीन पर रेंगना चाहिए मगर शिव ने उसे अपने सिर पर धारण किया है। इससे यह पता चलता है कि वह उनसे भी ऊपर है। यह दर्शाता है कि कुछ रूपों में सांप शिव से भी बेहतर हैं।
 
          सांप ऐसा जानवर है जो आपके सहज रहने पर आपके साथ बहुत आराम से रहता है। वह आपको कुछ नहीं करेगा। वह कुछ खास ऊर्जाओं के प्रति बहुत संवेदनशील भी होता है। सांप शिव के गले के चारों ओर लिपटा रहता है। यह सिर्फ एक प्रतीक नहीं है। इसके पीछे एक पूरा विज्ञान है। ऊर्जा शरीर में 114 चक्र होते हैं। आप उन्हें 114 संधि स्थलों या नाडिय़ों के संगम के रूप में देख सकते हैं।
 
          इन 114 में से आम तौर पर शरीर के सात मूल चक्रों के बारे में बात की जाती है। इन सात मूल चक्रों में से, विशुद्धि चक्र आपके गले के गड्ढे में मौजूद होता है। यह खास चक्र सांप के साथ बहुत मजबूती से जुड़ा होता है। विशुद्धि जहर को रोकता है, और सांप में जहर होता है। ये सभी चीजें आपस में जुड़ी हुई हैं। विशुद्धि शब्द का अर्थ है फिल्टर या छलनी। अगर आपका विशुद्धि चक्र शक्तिशाली हो जाता है, तो आपके अंदर शरीर में प्रवेश करने वाली हर चीज को छानने या शुद्ध करने की काबिलियत आ जाती है।
 
          शिव का केंद्र विशुद्धि चक्र में है। उन्हें विषकंठ या नीलकंठ भी कहा जाता है क्योंकि वह सारे जहर को छान लेते हैं। वह उसे अपने शरीर में प्रवेश नहीं करने देते। जहर आपके अंदर सिर्फ भोजन के द्वारा ही नहीं जाता। वह कई तरीकों से आपके अंदर घुस सकता है एक गलत विचार, एक गलत भावना, एक गलत कल्पना, एक गलत ऊर्जा या एक गलत आवेग आपके जीवन में जहर घोल सकता है।
 
          अगर आपका विशुद्धि चक्र सक्रिय है, तो वह सभी कुछ छान देता है। वह आपको इन सभी असरों से बचाता है। दूसरे शब्दों में, विशुद्धि के बहुत सक्रिय हो जाने पर इंसान अपने अंदर इतना शक्तिशाली हो जाता है कि उसके आस-पास जो भी होता है, वह उस पर असर नहीं डालता। वह अपने अंदर स्थिर हो जाता है। वह बहुत शक्तिशाली प्राणी बन जाता है।
 
 
5 का जरा भी अनुभव कर लेते हैं तो अचानक आप पाएंगे कि आपका शरीर, मन, हर चीज जबरदस्त उल्लास से उत्तेजित हो उठेगा। कुल मिलाकर जीवन बिल्कुल अलग तरह का ही होगा। अगर किसी व्यक्ति को स्थिर होना है तो उसे अपने मन को कम से कम अहमियत देनी होगी। यह संपूर्ण अस्तित्व अपने आप में एक जीवंत मन, एक जीवंत दीमाग है। जब इतना विशालकाय दिमाग सक्रिय होकर काम पर लगा है तो फिर अपने इस छुद्र दिमाग को एक किनारे रख दीजिए।
 
          अगर आप उस ब्रम्हांडीय दिमाग को नहीं देख सकते तो फिर यह देखने की कोशिश कीजिए कि किसी और का दिमाग जो आपसे परे है, आपके लिए काम कर रहा है। लेकिन आज के दौर में इसे लोग गुलामी कहेंगे। आज आध्यात्मिक प्रक्रिया पंगु हो गई है। आज हम बहुत कुछ नहीं कर सकते, लेकिन फिर भी हमसे उम्मीद की जाती है कि हम लोगों को ज्ञान की प्राप्ति करा दें, आत्म-बोध करा दें। यह कुछ ऐसा ही है कि हमसे कहा जाए कि कार के टायर निकाल दो, और फिर भी उम्मीद की जाए कि उसे हम बहुत दूर तक चला कर ले जाएं। आध्यात्मिक गुरु हमेशा ही चीजों को करने के आसान तरीके तलाशते रहते हैं।
 
          आज अगर लंच के समय आप यह तय करते हैं कि आप अपने कान से नूडल्स खाएंगे तो हो सकता है कि मैं आपसे कहूं कि आप अपनी नाक से इन्हें खाने की कोशिश कीजिए, उस स्थिति में खाना कम से कम आपके गले में तो जाएगा। आप चाहें तो सूप से कोशिश कर सकते हैं। यह अपेक्षाकृत आसान रहेगा, फिर भी नाक से पीने में आपको काफी दिक्कत आएगी।
 
            यह संपूर्ण अस्तित्व अपने आप में एक जीवंत मन, एक जीवंत दीमाग है। जब इतना विशालकाय दिमाग सक्रिय होकर काम पर लगा है तो फिर अपने इस छुद्र दिमाग को एक किनारे रख दीजिए। इसके बदले अगर आप मुंह खोल कर खाएं तो वही नूडल्स अपने आप में एक आनंद की चीज होगा।
 
          आध्यात्मिक प्रक्रिया भी ऐसी ही है। फिलहाल आपकी हालत भी कुछ ऐसी है- 'मैं यह नहीं कर सकता, मैं वह नहीं कर सकता, लेकिन मुझे आध्यात्मिक प्रक्रिया के बारे में बताइए। इसलिए हम आपके आंख, नाक, कान के जरिए आपको इसे देने की कोशिश कर रहे हैं, यह प्रक्रिया मुश्किल तो है, लेकिन क्या करें? हमें विश्वास है कि अगर हम आपकी नाक के जरिए जबरदस्ती आपको खाना खिलाते रहेंगे तो एक दिन आप अपना मुंह खोल देंगे। और ऐसा आप कुछ सिखाने की वजह से नहीं करेंगे, महज अपने बोध से आप ऐसा कर देंगे। हम उस दिन का इंतजार कर रहे हैं, जिस दिन आप अपना मुंह खोलेंगे।
 
          एक गुरु होना सचमुच कितना हास्यास्पद और बेतुका है! सम्यमा वह अवस्था है, जहां आप पूरी तरह से जागरूक हो जाते हैं कि आप न तो शरीर हैं, न विचार और न ही यह संसार हैं। अगर आप इन तीनों चीजों से मुक्त हो गए तो फिर आपके लिए कष्ट का कोई कारण ही नहीं होगा। सम्यमा का मकसद ही यही है कि व्यक्ति शरीर और मन के कोलाहल व उथलपुथल से दूर होकर अपने भीतर परम निश्चलता व स्थिरता को पा ले।
 
          दुनियाभर के 670 जिज्ञासु, जो इस अवस्था को पाने के लिए बेचैन हैं, ईशा योग केंद्र में इकठ्ठे हुए हैं। वे सब बहुत अ'छा कर रहे हैं। शुरु के कुछ दिनों में उन्हें अपनी शारीरिक सीमाओं के चलते संघर्ष करना पड़ा, लेकिन अब वे बड़ी खूबसूरती और सहजता के साथ स्थिरता की तरफ बढ़ गए हैं। मेरी कामना है कि आप भी सम्यमा की निश्चलता और स्थिरता को महसूस कर सकें।
 
 
6-कृष्ण का ब्रहमचर्य होना एक विरोधाभास
 
          कई लोगों के मन में यह सवाल उठता है कि गोपियों के साथ रास लीला करने के बाद भी कृष्ण को एक ब्रह्मचारी के रूप में क्यों जाना जाता है। क्या यह दोनों बातें आपस में विरोधी हैं? ब्रह्मचर्य शब्द के क्या मायने हैं..?
 
        प्रश्न- सद्गुरु, अक्सर यह सवाल उठता है कि जब कृष्ण इतनी सारी गोपियों के साथ रासलीला करते थे, तो उनके ब्रह्मचर्य पालन करने का क्या मतलब है ?
 
           इस बारे में हमें समझाएं। सद्गुरु- कृष्ण हमेशा से ब्रह्मचारी थे। ब्रह्मचर्य का अर्थ होता है ब्रह्म या ईश्वर के रास्ते पर चलना। भले ही आप किसी भी संस्कृति या धर्म से ताल्लुक रखते हों, आपको हमेशा यही बताया गया, और आपका विवेक भी आपको यही बताता है, कि अगर ईश्वरीय-सत्ता जैसा कुछ है तो या तो यह सर्वव्यापी है या फिर वह है ही नहीं।
 
          ब्रह्मचर्य का अर्थ है सबको अपने भीतर समाहित करने का रास्ता। आप मैं और तुम में कोई फर्क नहीं करना चाहते। अगर आप किसी को दूसरा इंसान की तरह देखते हैं, तो यह अंतर साफ जाहिर होता है। शारीरिक संबंधों के मामले में मैं और तुम का फर्क बहुत गहराई से जाहिर होता है। इसी वजह से एक ब्रह्मचारी खुद को उससे दूर रखता है।आप अभी इस अवस्था तक नहीं पहुंचे हैं, और आप वहां पहुंचना चाहते हैं, तो सही मायने में आप ब्रह्मचर्य का पालन कर रहे हैं। यह भी मैं हूं, वह भी मैं। न कि यह मैं और वह तुम। आप मैं और तुम में कोई फर्क नहीं करना चाहते। अगर आप किसी को 'दूसरा इंसान की तरह देखते हैं, तो यह अंतर साफ जाहिर होता है। शारीरिक संबंधों के मामले में मैं और तुम का फर्क बहुत गहराई से जाहिर होता है। इसी वजह से एक ब्रह्मचारी खुद को उससे दूर रखता है, क्योंकि वह अपने अंदर ही सबको शामिल कर लेना चाहता है।
 
           कृष्ण में शुरू से ही सब कुछ अपने भीतर समाहित कर लेने का गुण था। बालपन में अपनी मां को जब यह दिखाने के लिए उन्होंने मुंह खोला था कि वह मिट्टी नहीं खा रहे हैं (उनकी मां ने उनके मुंह में सारा ब्रह्मांड देखा था) उस समय भी उन्होंने अपने अंदर सब कुछ समाया हुआ था। जब वे गोपियों के साथ नाचते थे, तब भी सब कुछ उनमें ही समाहित था। उनकी और उन गोपियों की यौवनावस्था के कारण कुछ चीजें हुईं, लेकिन उन्होंने इसे कभी अपने सुख के लिए इस्तेमाल नहीं किया। और न ही ऐसे ख्याल उनके मन में कभी आए। उन्होंने कहा भी है, मैं हमेशा से ही ब्रह्मचारी हूं और हमेशा सदमार्ग पर ही चला हूं। अब मैंने बस एक औपचारिक कदम उठाया है। अब कुछ भी मुझसे अलग नहीं है। बस परिस्थितियां बदली है।
 
          कृष्ण स्त्रियों के बड़े रसिक थे, इसे लेकर उनके बारे में कई कहानियां प्रचलित हैं, लेकिन यह सब तब हुआ जब वे सोलह साल से छोटे थे। सोलह साल का होने के बाद वे पूर्ण अनुशासित जीवन जीने लगे। वह जहां भी जाते, स्त्रियां उनके लिए पागल हो उठती थीं, लेकिन उन्होंने कभी भी अपने सुख के लिए किसी स्त्री का फायदा नहीं उठाया, एक बार भी नहीं। इसी को ब्रह्मचारी कहते हैं।
 
 
7- रंगों की अपनी आवाज होती है जरा सुनें तो
 
          नीला रंग किसी इंसान में आने वाले आध्यात्मिक रूपांतरण के दौरान उसका आभामंडल, या उसके आस-पास मौजूद जीवन-ऊर्जा का घेरा, अलग-अलग रंग धारण कर सकता है। ऐसी बातों के प्रति संवेदनशील लोग जब करीब दो दशक पहले मुझे देखते थे तो हमेशा कहते थे कि मुझे देखने से उन्हें नारंगी या गहरे गुलाबी रंग का अहसास होता है। लेकिन इन दिनों लोग हमेशा मेरे नीले होने की बात करते हैं।
 
          आप देवी मंदिर में जाइए, वह आपको एक जबर्दस्त झटका देती हैं। आप इससे चूक नहीं सकते, क्योंकि वह बेहद जोशपूर्ण हैं। इसी वजह से वह लाल हैं। ये दो अलग-अलग पहलू हैं जिसे कोई इंसान अपनी इच्छा से धारण कर सकता है। अगर हम अपनी साधना में आज्ञा-चक्र को बहुत महत्वपूर्ण बना लेते हैं, तो नारंगी रंग प्रबल होगा। नारंगी रंग त्याग, संयम, तपस्या, साधुत्व और क्रिया का रंग है।
 
         और नीला रंग सबको समाहित करके चलने का रंग है। आप देखेंगे कि इस जगत में जो कोई भी चीज बेहद विशाल और आपकी समझ से परे है, उसका रंग आमतौर पर नीला है, चाहे वह आकाश हो या समुंदर। जो कुछ भी आपकी समझ से बड़ा है, वह नीला होगा, क्योंकि नीला रंग सब को शामिल करने का आधार है। आपको पता ही है कि कृष्ण के शरीर का रंग नीला माना जाता है। इस नीलेपन का मतलब जरूरी नहीं है कि उनकी त्वचा का रंग नीला था। हो सकता है, वे श्याम रंग के हों, लेकिन जो लोग जागरूक थे, उन्होंने उनकी ऊर्जा के नीलेपन को देखा और उनका वर्णन नीले वर्ण वाले के तौर पर किया। कृष्ण की प्रकृति के बारे में की गई सभी व्याख्याओं में नीला रंग आम है, क्योंकि सभी को साथ लेकर चलना उनका एक ऐसा गुण था, जिससे कोई भी इनकार नहीं कर सकता। वह कौन थे, वह क्या थे, इस बात को लेकर तमाम विवाद हैं, लेकिन इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि उनका स्वभाव सभी को साथ लेकर चलने वाला था।
 
          श्वेत रंग -- सफेद यानी श्वेत दरअसल कोई रंग ही नहीं है। कह सकते हैं कि अगर कोई रंग नहीं है तो वह श्वेत है। लेकिन साथ ही श्वेत रंग में सभी रंग होते हैं। सफेद प्रकाश को देखिए, उसमें सभी सात रंग होते हैं। आप सफेद रंग को अपवर्तन (रिफ्रैक्षन) द्वारा सात रंगों में अलग-अलग कर सकते हैं। कहने का अर्थ यह है कि श्वेत में सबकुछ समाहित है। जब आप आध्यात्मिक पथ पर आगे बढ़ते हैं और कुछ खास तरह से जीवन के संपर्क में आते हैं, तो सफेद वस्त्र पहनना सबसे अच्छा होता है। अपने माता-पिता से, दादा- दादी से, अपने पूर्वजों से, यहां तक कि बंदरों से भी आपने भरपूर कर्म बटोर लिए हैं। तब से लेकर अब तक आपको एक पूरी कार्मिक विरासत मिली है। अगर आप आध्यात्मिक पथ पर आगे बढ़ रहे हैं तो आप दुनिया में कम से कम बटोरना चाहते हैं। आप हर उस चीज को बस विसर्जित करने की सोचते हैं, जो अब तक आप ढोते आ रहे हैं। इस काम में श्वेत रंग आपकी मदद करता है। ऐसा नहीं है कि अगर आप सफेद कपड़े पहनना शुरू कर दें तो आपके सभी कर्म विसर्जित हो जाएंगे। लेकिन हां सफेद रंग आपकी मदद अवश्य करता है, क्योंकि इसमें परावर्तन की क्षमता यानी सब कुछ लौटा देने की खूबी होती है, न सिर्फ रंग के मामले में बल्कि गुणों के मामले में भी। आप श्वेत रंग इसलिए पहनते हैं, क्योंकि आप अपने आसपास से कुछ भी इकठा करना नहीं चाहते। आप इस दुनिया से निर्लिप्त होकर निकल जाना चाहते हैं। सफेद रंग सब कुछ बाहर की ओर बिखेरता है, कुछ भी पकडकऱ नहीं रखता है। ऐसे बन कर रहना अच्छी बात है। पहनावे के मामले में या आराम के मामले में, आप पाएंगे कि अगर एक बार आप सफेद कपड़े पहनने के आदी हो गए, तो दूसरे रंग के कपड़े पहनने पर आपकों कहीं न कहीं अंतर पता चल ही जाएगा। तो जो लोग आध्यात्मिक पथ पर हैं और जीवन के तमाम दूसरे पहलुओं में भी उलझे हैं, वे अपने आसपास से कुछ बटोरना नहीं चाहते। वे जीवन में हिस्सा लेना चाहते हैं, लेकिन कुछ भी इकठा करना नहीं चाहते। ऐसे लोग सफेद कपड़े पहनना पसंद करेंगे।
 
          लाल रंग- अगर आप किसी जंगल से गुजर रहे हैं, तो वहां सब कुछ हरे रंग का होता है, लेकिन वहां लाल रंग भी कहीं दिखाई दे जाता है। अगर कहीं कोई लाल रंग का फूल खिल रहा होगा, तो वह आपका ध्यान अपनी ओर खींचेगा, क्योंकि आपके अनुभव में लाल रंग सबसे चमकीला होता है। बाकी के रंग खूबसूरत हो सकते हैं, अच्छे हो सकते हैं, लेकिन सबसे ज्यादा चमकीला लाल रंग ही है। नीला रंग सबको समाहित करके चलने का रंग है। आप देखेंगे कि इस जगत में जो कोई भी चीज बेहद विशाल और आपकी समझ से परे है, उसका रंग आमतौर पर नीला है, चाहे वह आकाश हो या समुंदर। इसीलिए जब हम फूल का नाम लेते हैं तो ज्यादातर लोगों के दिमाग में जो सबसे पहले रंग आता है, वह है लाल रंग। दरअसल लाल फूल ही असली फूल होता है। बहुत सी चीजें जो आपके लिए महत्वपूर्ण होती हैं, वे लाल ही होती हैं। रक्त का रंग लाल होता है। उगते सूरज का रंग भी लाल होता है। मानवीय चेतना में सबसे अधिक कंपन लाल रंग ही पैदा करता है। जोश और उल्लास का रंग लाल ही है। आप कैसे भी व्यक्ति हों, लेकिन अगर आप लाल कपड़े पहनकर आते हैं तो लोगों को यही लगेगा कि आप जोश से भरपूर हैं, भले ही आप हकीकत में ऐसे न हों। इस तरह लाल रंग के कपड़े आपको अचानक जोशीला बना देते हैं। देवी (चैतन्य का नारी स्वरूप) इसी जोश और उल्लास की प्रतीक हैं। उनकी ऊर्जा में भरपूर कंपन और उल्लास होता है। आप देवी मंदिर में जाइए, वह आपको एक जबर्दस्त झटका देती हैं। आप इससे चूक नहीं सकते, क्योंकि वह बेहद जोशपूर्ण हैं। इसी वजह से वह लाल हैं। देवी से संबंधित कुछ खास किस्म की साधना करने के लिए लाल रंग की जरूरत होती है।
 
 
8-हमारा शरीर परमानन्द की सीढी और मन चमत्कार है
 
          जी हां, यह मानव शरीर एक ऐसा तोहफा है आपके लिए जिसे आप चाहें तो स्वर्ग की सीढ़ी बना लें या अपने लिए परेशानियों का द्वार। और हमारा मन एक कमाल का यंत्र है, बस यह समझिए कि सुप्रीम कंप्यूटर। लेकिन अफसोस कि हम इसको समझने और इसका इस्तेमाल सीखने के लिए उतना समय भी नहीं देते जितना एक मामूली कंप्यूटर को सीखने में देते हैं। यही वजह है कि हम इस बेमिसाल यंत्र के पूरे और सही इस्तेमाल से चूक जाते हैं।
 
          इस मानव-प्रणाली को साधारण न समझें, आप इससे ऐसी चीजें कर सकते हैं, जिनके संभव होने की आपने कभी कल्पना नहीं की होगी। एक खास तरह की जीवन-शैली अपना कर आप इस शरीर को एक ऐसा साधन बना सकते हैं, जो ब्रह्मांड की धुरी बन जाता है। दुर्भाग्य से हमारे समाज में ज्यादातर लोगों ने दिमाग को इस्तेमाल करने का तरीका ठीक ढंग से सीखने में भरपूर समय नहीं दिया, इसीलिए वे झंझटों में उलझे रहते हैं। योग में, हम मानव रीढ़ को 'मेरुदंड कहते हैं, जिसका अर्थ होता है- ब्रह्मांड की धुरी।
 
          शारीरिक विकास की प्रक्रिया में, पशुओं के बिना रीढ़ का होने से रीढ़वाले होने तक का विकास एक बड़ी उछाल थी। उसके बाद उसके पशुओं जैसी रीढ़ से लंबवत या सीधी रीढ़ तक का जो विकास हुआ वो मनुष्य के दिमाग के विकास से भी बड़ा कदम था। वैज्ञानिक रूप से यह सिद्ध हो चुका है कि रीढ़ के सीधे होने के बाद ही मस्तिष्क का विकास शुरू हुआ। इसीलिए योग में मेरुदंड को इतना महत्व दिया जाता है।
 
          योगी एक ऐसा व्यक्ति होता है जो अपने शरीर को रूपांतरित करके उसे स्वर्ग की सीढ़ी बना लेता है। इसके लिए रीढ़ पर थोड़ा अधिकार होना जरूरी हो जाता है। पारंपरिक रूप से कहा जाता है कि स्वर्ग की तैंतीस सीढिय़ां होती हैं। ऐसा शायद इसीलिए कहा जाता है क्योंकि आपकी रीढ़ में तैंतीस हड्डियां हैं। यह रीढ़ कष्टदायक भी हो सकती है या इसे उस सीढ़ी का रूप दिया जा सकता है, जिस पर चढकऱ आप अपने भीतर चेतना, आनंद और परमानंद के उच्चतम स्तर पर पहुंच सकें। मानव स्वभाव कोई संघर्ष नहीं है, लोग इसे संघर्ष बना रहे हैं।
 
          आपको एक शानदार तंत्र से नवाजा गया है जिसे दिमाग कहते हैं। इस दिमाग को विकसित होने में करोड़ों साल का समय लग गया। करोड़ों साल तक 'आर एंड डी (शोध और विकास) के चरणों से गुजरने के बाद कहीं जाकर इस शानदार यंत्र का निर्माण हुआ। लेकिन ज्यादातर लोग इस शानदार यंत्र का धड़ल्ले के साथ इस्तेमाल कर रहे हैं, बिना यह जाने कि इसका प्रयोग सही तरीके से कैसे किया जाता है।
 
          अगर मैं आपको एक सस्ता सा सेलफोन लाकर दूं तो आपको उस पर बस दस-बारह बटन मिलेंगे। इसके लिए रीढ़ पर थोड़ा अधिकार होना जरूरी हो जाता है। पारंपरिक रूप से कहा जाता है कि स्वर्ग की तैंतीस सीढिय़ां होती हैं। ऐसा शायद इसीलिए कहा जाता है क्योंकि आपकी रीढ़ में तैंतीस हड्डियां हैं। आपको बस ये सीखना है कि किस बटन को दबा कर कॉल करना है, किससे ऑफ करना है, बस हो गया आपका काम। अब जरा सोचिए मैंने आपको एक स्मार्टफोन दे दिया, जिसमें प्रयोग करने के लिए सैकड़ों फंक्शन हैं।
 
          जो लोग भी स्मार्टफोन का प्रयोग कर रहे हैं, उनमें से ज्यादातर लोग फोन के पांच फीसदी से भी कम फंक्शन का ही इस्तेमाल जानते हैं। आपका फोन, आपकी कार, आपका अंतरिक्षयान, आपका सुपर-कंप्यूटर या ऐसी ही दूसरी चीजें जिन्हें इंसान ने बनाया है, इसी दिमाग की उपज हैं। यह दिमाग एक बेहद जटिल यंत्र है। अगर आपके पास साधारण फोन है तो उसका इस्तेमाल सीखने के लिए आपको पांच से दस मिनट का वक्त चाहिए।
 
          अगर आपके पास स्मार्ट-फोन है तो हो सकता है कि उसके साथ मिली निर्देशिका को पढऩे में ही आपका आधा दिन निकल जाए और उसके बारे में सीखने में आपको दो-चार दिन ध्यान देना पड़े। अगर कंप्यूटर की बात करें तो आपको और भी ज्यादा समय लगाने की जरूरत हो सकती है। हो सकता है कि एक दो महीने लग जाएं। अगर आपको सुपर-कंप्यूटर दे दिया जाए तो उस पर काम करना सीखने के लिए हो सकता है कि आपको पांच साल लग जाएं।
 
          अगर आपको सुप्रीम-कंप्यूटर मिलता है, जो कि आपके पास ही है, तो आपको उसे सीखने में कुछ समय लगाना चाहिए। दुर्भाग्य से हमारे समाज में ज्यादातर लोगों ने दिमाग को इस्तेमाल करने का तरीका ठीक ढंग से सीखने में भरपूर समय नहीं दिया, इसीलिए वे झंझटों में उलझे रहते हैं। यह इत्तेफाक की बात है कि कुछ लोगों ने दिमाग का अच्छी तरह से प्रयोग करना सीख लिया है, बाकियों ने इसे लेकर सब गड़बड़ कर रखा है।
 
 
9-ध्यान के समय मन को सेवक बनाये रखें मालिक नहीं
 
          हम हर काम करने से पहले यह जरुर सोचते हैं कि इसे करने से हमें क्या मिलेगा। लेकिन जब यही सोच कर हम ध्यान करना चाहते हैं तो सद्गुरु बता रहे हैं कि यह सोचना छोडि़ए। क्यों, आइए जानते हैं- लोग अकसर हिसाब लगाते हैं ध्यान करने से मुझे क्या मिलेगा। यह हिसाब-किताब लगाना छोड़ दीजिए। आपको कुछ भी नहीं मिलने वाला है। आपको इससे कोई लाभ नहीं होगा। जरुरी नहीं है कि कुछ घटित हो।
 
          ध्यान का मकसद सेहतमंद होना, ज्ञान प्राप्त करना या स्वर्ग हासिल कर लेना नहीं है, यह तो बस आपके जीवन का पुष्पित होना है। ' आज के सत्संग से हम क्या ले जाएंगे- अगर आप इस तरह की बातें सोचेंगे कि आप लेकर क्या जाने वाले हैं तो आप देखेंगे कि आप बेहद तुच्छ चीजें लेकर जा रहे हैं। असली चीज आप अपने साथ कभी नहीं ले जा पाएंगे। अगर आप शरीर को स्थिर और शांत कर देंगे तो मन अपने आप शांत और स्थिर हो जाएगा। यही वजह है कि योग में आसनों पर इतना ज्यादा जोर दिया गया है।
 
          अगर आपको असली चीज चाहिए तो ले जाने का चक्कर छोडि़ए। बस वहां रहिए, कुछ भी करने या होने की जरूरत नहीं है। अगर आप अपने जीवन के हर क्षेत्र से इस गणना को खत्म कर दें कि मुझे बदले में क्या मिलेगा, तो आप असीमित और करुणामय हो जाएंगे। इसके अलावा कोई और रास्ता नहीं है। आपको बस इसी एक गणना को छोडऩा है, क्योंकि आपकी पूरी मानसिक प्रक्रिया की, दिमाग में जो कुछ भी हो रहा है उन सबकी चाबी यही है। चूंकि लोगों के पास इतनी जागरूकता नहीं है कि वे बिना कोई हिसाब-किताब लगाए बस यूं ही खुद को रख सकें, इसलिए एक विकल्प दिया गया है और वह विकल्प यह है कि बस प्रेम में रहो।
 
          प्रेम एक ऐसी हालत है, जिसमें रहते हुए काफी हद तक आप कुछ साथ ले जाने के भाव से अलग होते हैं। प्रेम और करुणा का गहन भाव विकसित करने के लिए जो कुछ भी कहा जाता है उन सबका आशय यही है कि आप अपेक्षाओं को खत्म कर रहे हैं। किसी के साथ गहराई में भावनात्मक रूप से जुडऩे पर 'मुझे क्या मिलेगा वाली बात खत्म हो जाती है।
 
           अगर आपने अपने जीवन से इस एक गणना को खत्म कर दिया तो समझिए कि नब्बे फीसदी काम पूरा हो गया। बाकी का दस फीसदी अपने आप पूरा हो जाएगा। यह सांप-सीढ़ी के खेल की तरह है। यहां भी बहुत सारी सीढिय़ां हैं और बहुत सारे सांप भी। प्रेम और करुणा का गहन भाव विकसित करने के लिए जो कुछ भी कहा जाता है उन सबका आशय यही है कि आप अपेक्षाओं को खत्म कर रहे हैं।
 
         किसी के साथ गहराई में भावनात्मक रूप से जुडऩे पर 'मुझे क्या मिलेगा वाली बात खत्म हो जाती है। आप कभी ऊपर जाएंगे, तो कभी अचानक नीचे आ जाएंगे, यह सब चलता रहेगा, लेकिन अगर एक बार आपने अंतिम सीढ़ी को छू लिया तो फिर आपको किसी सांप का सामना नहीं करना है। आप बस एक, एक और एक लाते रहिए। आप मंजिल पर पहुंच ही जाएंगे।
 
          अब आपको डसने के लिए कोई सांप नहीं है। फिर तो मंजिल तक पहुंचना बस कुछ समय की बात है। अगर आप शरीर को स्थिर और शांत कर देंगे तो मन अपने आप शांत और स्थिर हो जाएगा। यही वजह है कि योग में आसनों पर इतना ज्यादा जोर दिया गया है। अगर आप यह सीख लें कि शरीर को शांत और स्थिर कैसे रखा जाता है तो आपका मन अपने आप शांत और स्थिर हो जाएगा। अगर आप अपने शरीर पर गौर करें तो आप पाएंगे कि जब आप चलते हैं, बैठते हैं या बोलते हैं, तो आपका शरीर ऐसी बहुत सी हरकतें करता है, जो गैर जरूरी हैं।
 
          इसी तरह अगर आप अपने जीवन को गौर से देखें तो पाएंगे कि जीवन का आधे से ज्यादा समय ऐसी बातों में बर्बाद हो जाता है, जिनकी आप खुद भी परवाह नहीं करते। अगर आप शरीर को स्थिर रखेंगे तो मन धीरे धीरे अपने आप शिथिल पडऩे लगेगा। मन जानता है कि अगर उसने ऐसा होने दिया तो वह दास बन जाएगा। अभी आपका मन आपका बॉस है और आप उसके सेवक।
 
          जैसे-जैसे आप ध्यान करते हैं, आप बॉस हो जाते हैं और आपका मन आपका सेवक बन जाता है और यह वह स्थिति है, जो हमेशा होनी चाहिए। एक सेवक के रूप में मन बहुत शानदार काम करता है। यह एक ऐसा सेवक है जो चमत्कार कर सकता है, लेकिन अगर आपने इस मन को शासन करने दिया तो यह भयानक शासक होगा। अगर आपको नहीं पता है कि मन को दास के रूप में कैसे रखा जाए तो मन आपको एक के बाद एक कभी न खत्म होने वाली परेशानियों में डालता रहेगा।
 
 
10-हम जो चीज बांटते हैं वहीं हमारा गुण बन जाता है
 
          हम समझते हैं कि हम जो चीज हमारे भीतर है वो हमारा गुण होगा, जबकि जो आप अपने आस पास बिखेरते हैं, जो बांटते हैं, वो आपका गुण होता है। ये ठीक वैसा ही है जैसा रंगों और रौशनी के साथ होता है। आइए जानते हैं विस्तार से - इस जगत में किसी भी चीज में रंग नहीं है। पानी, हवा, अंतरिक्ष और पूरा जगत ही रंगहीन है। यहां तक कि जिन चीजों को आप देखते हैं, वे भी रंगहीन हैं।
 
          रंग केवल प्रकाश में होता है। आप जो भी रंग चाहते हैं, वे सभी सिर्फ प्रकाश में है। अगर प्रकाश किसी वस्तु पर पड़ता है और वह वस्तु कुछ भी परावर्तित नहीं करती, यानी सारा प्रकाश वह सोख लेती है, तो वह काले रंग की नजर आती है। अगर कोई वस्तु सारा प्रकाश परावर्तित कर देती है, या लौटा देती है तो वह सफेद नजर आती है। तो रंग की वजह प्रकाश है।
 
          अगर कोई चीज आपको लाल नजर आ रही है तो इसका मतलब यह नहीं है कि वह चीज लाल रंग की है। इसका मतलब यह है कि वह लाल रंग को छोडकऱ शेष सभी रंगों को अपने भीतर रख लेती है। सिर्फ लाल रंग को वह परावर्तित कर देती है और इसी वजह से आपको वह लाल रंग की दिखाई देती है। रंगों के बारे में इंसान की समझ इसी तरह से काम करती है।
 
          कोई चीज आपको काली नजर आती है, क्योंकि वह कुछ भी परावर्तित नहीं करती। इस जगत में किसी भी चीज में रंग नहीं है। पानी, हवा, अंतरिक्ष और पूरा जगत ही रंगहीन है। यहां तक कि जिन चीजों को आप देखते हैं, वे भी रंगहीन हैं। रंग केवल प्रकाश में होता है। कुछ चीजें सफेद नजर आती हैं, क्योंकि वे सब कुछ परावर्तित कर देती हैं। कुछ चीजें नीली नजर आती हैं, क्योंकि वे नीले को छोडकऱ बाकी सभी रंगों को रोककर रखती हैं। आप रंग के बारे में जो सोचते हैं, रंग उससे बिल्कुल उल्टा है।
 
          जब आप कोई हरे रंग की चीज देखते है तो वास्तव में उसका रंग हरा नहीं होता। हरे रंग को वह बाहर निकालती है, उसे बिखेरती है, इसीलिए वह आपको हरी नजर आती है, उसका रंग हरा नहीं होता। यानी किसी वस्तु का रंग वह नहीं है जैसा वह दिखता है, जो वह त्यागता है वही उसका रंग हो जाता है । आप जो भी चीज परावर्तित करेंगे, वही आपका रंग हो जाएगा।
 
          आप जो अपने पास रख लेंगे, वह आपका रंग नहीं होगा। ठीक इसी तरह से जीवन में जो कुछ भी आप देते हैं, वही आपका गुण हो जाता है। अगर आप आनंद देंगे तो लोग कहेंगे कि आप आनंद से भरे इंसान हैं। अगर आप प्रेम देंगे तो लोग कहेंगे कि आप प्रेममय हैं। अगर आप निराशा देंगे तो कहा जाएगा कि आप निराश व्यक्ति हैं। अगर आप धन देंगे तो लोग कहेंगे कि आप अमीर हैं।
 
          अगर आप कुछ भी नहीं देंगे तो कहा जाएगा कि आपके पास कुछ भी नहीं है। तो आप जो भी देते हैं, हमेशा वही आपका गुण बन जाता है। लेकिन हमारा तार्किक दिमाग सोचता है कि हम जिस चीज को अपने पास रखते हैं, वही हमारा गुण होता है। नहीं, जिस चीज को आप थामकर रखते हैं, वह कभी आपका गुण हो ही नहीं सकता। जो आप देते हैं, वह आपका गुण होता है।
 
 
11-काले रंग का असर?
 
          कभी-कभी हमें परिवार के लोग शुभ दिनों पर या सामान्य तौर पर भी काले कपड़े पहनने से मना करते हैं। क्या सच में काले रंग का बुरा असर हो सकता है? प्रमुख रंग रंगों की जो आपकी समझ और अनुभव है, उसमें तीन रंग सबसे प्रमुख हैं- लाल, हरा और नीला। बहुत सारे ऐसे रंग भी हैं जिन्हें इंसान आमतौर पर नहीं देख पाता, क्योंकि आपकी आंखों के 'वर्ण-शंकु यानी 'कलर कोन मुख्य रूप से लाल, हरे और नीले रंग को ही पहचान पाते हैं।
 
          इस जगत में मौजूद बाकी सारे रंग इन्हीं तीन रंगों से पैदा किए जा सकते हैं। दुनिया के अलग-अलग धर्मों ने अलग अलग रंगों को चुना है, कुछ ने हरा रंग चुना है, कुछ ने लाल या नारंगी रंग चुना है तो कुछ ने नीला। हर रंग का आपके ऊपर एक खास प्रभाव होता है।
 
          आपको पता ही होगा कि कुछ लोग रंग-चिकित्सा यानी कलर-थेरेपी भी कर रहे हैं। वे इलाज के लिए अलग-अलग रंगों की बोतलों का पानी भरने के लिए प्रयोग करते हैं, क्योंकि रंगों का आपके ऊपर एक खास किस्म का प्रभाव होता है। आइए जानते हैं काले रंग के बारे में - काला रंग कोई चीज काली है या आपको काली प्रतीत होती है, इसकी वजह यह है कि यह कुछ भी परावर्तित नहीं करती, कुछ भी लौटाती नहीं,सब कुछ सोख लेती है। तो अगर आप किसी ऐसी जगह हैं, जहां एक विशेष कंपन और शुभ ऊर्जा है तो आपके पहनने के लिए सबसे अच्छा रंग काला है क्योंकि ऐसी जगह से आप शुभ ऊर्जा ज्यादा से ज्यादा अवशोषित करना चाहेंगे, आत्मसात करना चाहेंगे।
 
          जब आप दुनिया से घिरे होते हैं, लाखों-करोड़ों अलग-अलग तरह की चीजों के संपर्क में होते हैं, तो सफेद कपड़े पहनना सबसे अच्छा है, क्योंकि आप कुछ भी ग्रहण करना नहीं चाहते, आप सब कुछ वापस कर देना, परावर्तित कर देना चाहते हैं। काला रंग बाहर से ही नहीं, भीतर से भी अवशोषित करता है। अगर आप लगातार लंबे समय तक काले रंग के कपड़े पहनते हैं और तरह-तरह की स्थितियों के संपर्क में आते हैं तो आप देखेंगे कि आपकी ऊर्जा कुछ ऐसे घटने-बढऩे लगेगी कि वह आपके भीतर के सभी भावों को सोख लेगी और आपकी मानसिक हालत को बेहद अस्थिर और असंतुलित कर देगी।
 
          आपको एक तरह से मौन-कष्ट होने लगेगा यानी ये कष्ट आपको इस तरह होंगे कि आप इनको जाहिर भी नहीं कर पाएंगे। लेकिन अगर आप किसी ऐसी स्थिति में काला रंग पहनते हैं, जो शुभ ऊर्जा से भरपूर है तो आप इस ऊर्जा को अधिक से अधिक ग्रहण कर सकते हैं, जो आपके लिए अच्छा है।
 
          शिव को हमेशा काला माना जाता है क्योंकि किसी भी चीज को ग्रहण करने में उन्हें कोई समस्या नहीं है। यहां तक कि जब उन्हें विष दिया गया तो उसे भी उन्होंने सहजता से पी लिया। उनमें खुद को बचाए रखने की भावना नहीं है, क्योंकि उनके साथ ऐसा कुछ होता भी नहीं है। इसलिए वह हर चीज को ग्रहण कर लेते हैं, किसी भी चीज का विरोध नहीं करते।