Monday, November 26, 2012

असली घटना की परख

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1-घटना एक सपने की
 
          एक रात को मैंने एक सपना देखा । वह सपना बडा अद्भुत था । जैसे कि उस ईश्वर ने प्रार्थना सुन ली है । एक बहुत बडा महल है गॉव भर में एक आवाज जैसे आकाशवॉणी हो रही है कि सभी दुखी लोग अपनी-अपनी दुख की पोटली  को लेकर उस महल में चले जॉय । मैने अपने दुख की पोटली को कंधे में रखकर  सबसे पहले भागा-भागा उस महल की ओर दौडा ।सोचा कि और कोई दुखी नहीं है ।गॉव में सब  सुखी हैं । लेकिन मैने देखा कि लोग मुझसे भी तेज भागे चले जा रहे हैं । जिनसे मैने सुबह पूछा था कि कहो कैसे हो ?और उन्होंने कहा था कि अच्छे हैं  ! वे भी बडे-बडे गठ्ठे लेकर भागे जा रहे हैं । मुझे हैरानी हुई कि गॉव में एक भी आदमी नहीं है । सब भागे जा रहे हैं अपनी-अपनी पोटलियों को लेकर । उस महल में सब लोग पहुंच गये हैं । फिर देखा तो हैरान हो गया, उस गॉव का प्रधान भी वहॉ पहुंचा है,पुजारी भी,सन्यासी,महात्मा सभी वहॉ पहुंचे हैं । सबके पास बडी-बडी पोटलियॉ हैं ।
 
 
          तभी आवाज गूंजती है कि सभी लोग अपनी-अपनी पोटलियों को खूटी पर टॉग दें । सबने दौडकर अपनी-अपनी गठरियों को खूटियों पर टॉग दी । फिर कुछ देर बाद आवाज आई कि जिसको जो पोटली पसन्द हो चुन लें । मैं घबडा गया और भागा गठरी की ओर, दूसरे की नहीं, अपनी गठरी की ओर । कोई और न उठा ले । कमसे कम अपने दुख पहचाने तो हैं । अनजान अपरचित लोगों की गठरियॉ मुझसे बडी दिख रही है । मैने दौडकर अपनी पोटली उठा ली कि कोई और न उटा ले जाय । लेकिन देखकर चकित हो गया कि सबने अपनी-अपनी  पोटली उठाई है । सभी को यह डर था कि कोई दूसरा न उठा ले । क्योंकि कल तक केवल अपना ही दुख देखा था,दूसरे की हंसी देखी थी । आज सब झूठ हो गया था ।
 
 
          लगा जैसा सपने में भी सपना है । आदमी इतने दुख में है ! हम एक दूसरे को दुख देने के नये-नये रास्ते खोजते रहते हैं । धर्म के नाम पर,राजनीति के नाम पर खोज लेते हैं । हम किसी भी बहाने से किसी को सताने का रास्ता खेोज लेते हैं । हिन्दू-मुसलमान बनकर रास्ते खोज लेते हैं । गुजराती या मराठी के नाम पर,उत्तरी भारत और दक्षिणी भार,के नाम पर लडने का बहाना तलाशते हैं ।दूसरे को सताने का,टार्चर करने का बहाना चाहिए । ऐसा नहीं है कि बुरे लोग ही सताते हैं दूसरों को,जिन्हैं कि हम अच्छे लोग कहते हैं,वे भी सताने में पीछे नहीं होते हैं । न सही घर में पति-पत्नी ही लड बैठते हैं । बाप-बेटे ही लड जाते हैं । बस लडाई चाहिए ।दुखी की यही तो पहचान है ।
 
       
           हमारे गॉव में एक महात्मा रहते हैं,वे लोगों को समझाते हैं कि उपवास करो?क्योंकि भूखे मरे बिना परमात्मा नहीं मिलता । अच्छा तरीका अपना रखा है महात्मा जी ने,बडी टेक्नीक से वह लोगों को सताने जा रहा है । महात्मा जी लोगों से कहता है कि सिर के बल खडा होने से सिद्धि मिलती है ।
 
 
           परमात्मा ने हमें पैर के बल खडा किया लेकिन महात्मा समझा रहे हैं कि सिर के बल खडा होने से ही मिलेगा । कुछ नासमझ सिर के बल खडे हो जाते हैं, तो महात्मा सुखी होना शुरू हो जाता है । उसने दूसरों को दुख देना शुरू कर दिया । टार्चर करने के रास्ते खोज लिए । जिन्हैं हम अच्छे लोग कहते थे वे भी सताने लग गये ।
 
 
          हिटलर ने भी लोगों को बहुत सताया, लेकिन उससे बचना आसान है । गॉधी से बचना बहुत कठिन है । इसलिए कि हिटलर तो सीधा दुश्मन की तरह सताता है,लेकिन गॉधी तो हमारे हित में सताते हैं । हिटलर हमारी छाती पर छुरा रखता है ,जबकि गॉधी अपनी छाती पर छुरा रखता है ।गॉधी कहते हैं कि अगर मेरी न मानी तो मैं मर जाऊंगा । इसी को अहिसा कहते हैं ।यह बात भी अजीव है कि दूसरे को मारना हिंसा है,लेकिन अपने को मारना अहिंसा कैसे हो जायेगा ? अगर मैं आपकी छाती पर छुरी रख कर कह दूं कि मेरी बात मान ले,तो यह हिंसा हो गई, क्रिमिनल एक्ट है । और मैं अपनी छाती पर छुरा रखकर कह दूं कि मैं मर जाऊंगा,आग लगा कर जल जाऊंगा,तो मैं महात्मा हो जाऊंगा ,यही तो मान्यता है ! जबकि यह भी हिंसा है । क्रिमिनल एक्ट के अन्तर्गत है । लेकिन यह एक अच्छे ढंग की हिंसा है । अगर मैं आपके दरवाजे पर बैठकर कह दूं कि अगर मेरी बात न मानी तो मैं भूखा मर जाऊंगा, तो यह अच्छे ढंग की हिंसा हो गई,यह आपको मजबूर कर देगी, आपको सता डालेगी ।
 
 
          आज देखा जा रहा है कि बुरे आदमी सता रहे हैं,अच्छे आदमी सता रहे हैं । हम सब एक दूसरे को सताने में लगे हैं । और हमने ऐसी तरकीव खोज ली है कि पता लगाना मुश्किल है कि हम कैसे-कैसे सता रहे हैं । अगर आप किसी स्त्री से प्रेम करते हैं तो, आप उसको सताना शुरू कर देते हैं । और यदि एक स्त्री आपसे प्रेम करती है तो बहुत जल्दी पता नहीं चलता कि कब उसने आपको सताना शुरू कर दिया ।हम तो प्रेम की बात करके एक दूसरे की गर्दन को दबा लेते हैं ।
 
 
          छोटी अवस्था में बेटे को बाप सताता है,लेकिन बहुत जल्दी नाव उलट जाती है । बेटे ताकतवर और बाप बूढा हो जायेगा,फिर बच्चे सताना शुरू कर देंगे । सताने के नये-नये रास्ते खोजते रहते हैं ।
 
 
          औरंगजेव ने तो अपने बाप को लाल किले में बन्द कर दिया था,तो बाप ने पॉच-दस दिन में खबर भेजी कि यहॉ मेरा मन नहीं लगता,अगर तुम तीस लडके मुझे दे दो तो मैं उन्हैं पढाने का कार्य शुरू करूं तो मेरा मन लग जायेगा । औरंगजेव ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि मेरे बाप को दूसरों को सताने में मजा आता था । जब उन्हैं तीस लडके दिये गये तो वे उनके बीच डंडा रखकर बादशाह बन जाते  और शिक्षा देने के नाम पर उनको सताना शुरू कर देते  थे ।
 
 
          अब प्रश्न यह उठता है कि मनुष्य दुख से इतना भरा हुआ है कि इसमें फूल कैसे खिल सकते हैं ?इनकी जिन्दगी में आनन्द की झलक कैसे आ सकेगी ?
 
 
          और यह भी जरूरी है कि यदि आनन्द की झलक न आये तो आदमी कैसे जी सकेगा,जीना न जीना बराबर हो जायेगा । जीवन से हमें जो मिल सकता था,वह हम ले नहीं पायेंगे । पौधा लगा जरूर मगर फूल न खिले । दिया तो ले आये घर में, लेकिन उसमें कभी ज्योति न जली ।
 
 
2- चौथा विश्व युद्ध नहीं हो सकेगा -
       
          जी हॉ आज पूरे विश्व में यही तैयारी है,इतने बम बनाये जा चुके हैं कि अगर हिसाब लगॉयें तो अस्सी गुना बम तैयार है ,चार अरब आदमियों को मारने के लिए अस्सी गुना अधिक बन चुके हैं । अर्थात एक आदमी को हमने अस्सी बार मारने का इन्तजाम कर लिया है,कि भूल चूक कोई बच न जॉय । वैसे एक आदमी एक ही बार मरता है,लेकिन शायद बच जाये तो दुबारा हम मार सकें । फिर भी बच जाये तो हमने आस्सी बार मारने का इन्तजाम कर रखा है । इतने अधिक बम हैं कि यह पृथ्वी बहुत छोटी है इन बमों से मिटाने के लिए । नागासाकी और हिरोशिमा में गिराये गये बमों को उस समय लोगों की सोच में इससे अधिक खतरनाक और कोई बम नहीं होगा लेकिन आज से तुलना करें तो वे सिर्फ एक खिलौने के समान रह गये हैं । एक लाख आदमी एक बम से मरे थे, इन बच्चों के खिलौने से। आज के बमों की क्षमता बहुत अधिक है । पूरे इतिहास में आदमी ने यही तो अर्जित किया है । विनाश और मृत्यु की इतनी तीव्र आकॉक्षा बन चुकी है कि लगता है आदमी का मन कही बीमार तो नहीं है ? क्योंकि स्वस्थ मनुष्य जीने की सोचता है और अस्वस्थ मनुष्य मरने की । हमें कही मनोरोग ने तो नहीं पकडा है ?  हम उस जगह पर खडे हैं जहॉ किसी न किसी दिन हम अपने को समाप्त कर सकते हैं ।
 
 
          आइस्टीन को मरने से पहले किसी ने पूछा था कि तीसरे विश्वयुद्ध के सम्बन्ध में आपका क्या खयाल है ? तो आइस्टीन ने कहा था कि तीसरे के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं कह सकूंगा! लेकिन चौथे के सम्बन्ध में जरूर कहूंगा । उस आदमी ने कहा कि क्या बात कर रहे हैं आप तीसरे के सम्बन्ध में नहीं तो चौथे के सम्बन्ध में कैसे कहेंगे ? तो आइस्टीन ने कहा था कि चौथे के सम्बन्ध में यह बात निश्चित कह सकता हूं कि चौथा महॉयुद्ध कभी नहीं होगा । क्योंकि तीसरे के बाद आदमी के बचने की कोई उम्मीद नहीं है । लेकिन तीसरे के बारे में कुछ भी कहना मुश्किल है ।
 
 
3-सबसे अधिक विकास मारने की शक्ति में हुआ-
 
          यह धरती एक बडा बगीचे के समान है, लेकिन फूल एक भी नहीं खिला है, ऐसा ही आज मनुष्य का समाज हो चुका है । मनुष्य तो बहुत हैं,लेकिन सौन्दर्य के,सत्य के,प्रार्थना के कोई फूल नहीं खिलते हैं ।यह पृथ्वी आदमियों से भरती चली जा रही है -दुर्गन्ध से,घृणॉ से,क्रोध से,हिंसा से लेकिन प्रेम और प्रार्थना से नहीं । इतिहास साक्षी है कि कोई तीन हजार वर्षों में आदमियों ने पन्द्रह हजार युद्ध लडे । ऐसा लगता है कि जैसे हमने सिवाय युद्ध लडने के और कोई काम ही नहीं किया ।तीन हजार वर्षों में पन्द्रह हजार युद्ध बहुत होते हैं । प्रति वर्ष पॉच युद्ध । अगर विकास की बात को करें तो यही कहना होगा कि हमने आदमियों को मारने की कला में सबसे अधिक विकास किया है ।


4-अति प्रेम पागलपन है -
 
          अति प्रेम और पागलपन एक दूसरे के पूरक है । जमीन पर इस तरह के पागलपन दो तरह के दिखते हैं -एक जो परमात्मा की दिशा में जाता है,जहॉ हम अपने को खोकर सब पा लेते हैं, मीरा की यही दशा थी । और एक वह जिसमें हम सिर्फ पाने की कोशिश करते हैं,लेकिन मिलता कुछ भी नहीं है, सदा मिलने की आशा में भ्रमित रहते रहते हैं, अन्ततः खाली हाथ रह जाते हैं । अगर पागल ही होना है तो उस परमात्मा के के लिए पागल होना बेहत्तर है,इससे वह चीज मिलती है जो फिर छीनी नहीं जा सकती है ।बुद्धिमान लोग तो उन पागलों से कम नहीं होते, जो परमात्मा के द्वार पर नाचते हुये प्रवेश करते हैं । अच्छा है किसी के प्रेम में पागल न हों, अगर पागल ही होना है तो उस परम सत्ता के प्रेम में पागल होना सीखें जहॉ से आपको वह चीज मिलती है जिसे कोई छीन नहीं सकता है ।
 

Saturday, November 10, 2012

अपने मन से स्वयं को वश में करें

 
 

 
 
 
 
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अपने मन से स्वयं को वश में करें
 
 
          अगर आपका मन आपके वश में नहीं है तो दूसरे की इच्छा से प्रेरित होकर अपने मन को संयमित करने की चेष्ठा न करें,इससे उद्देश्य की पूर्ति नहीं होगी । क्योंकि प्रत्येक जीवात्मा का लक्ष्य मुक्ति या स्वाधीनता,या दासत्व से स्वयं को मुक्त करके उसपर प्रभुत्व स्थापित करना होता है,ताकि अपनी वाह्य तथा आन्तरिक प्रकृति पर अधिकार जमा सके। अगर दूसरे व्यक्ति द्वारा प्रयुक्त इच्छाशक्ति का प्रवाह हम स्वयं पर लागू करने का प्रयास करते हैं तो हमारे अन्दर पुराने संस्कारों और धारणॉओं में भ्रॉति की बेडी की एक और कडी जुड जाती है ।
         
          इसलिए सावधान रहें ।अपने ऊपर ऐसी इच्छाशक्ति का संचालन न करने देना होगा ।अथवा दूसरे पर इस प्रकार की इच्छाशक्ति का प्रयोग अनजाने में न करें । यह बात सही है कि कुछ लोग कुछ व्यक्तियों की प्रवृत्ति को मोडकर कुछ दिनों के लिए उनका कल्याण करने में सफल हो जाते हैं, लेकिन वे दूसरों पर सम्मोहन का प्रयोग करके बिना जाने समझे उन्हैं विकृत जडावस्थापन्न कर डालते हैं,जिससे उन लोगों की आत्मा का अस्तित्व मानो लुप्त हो जाता है । इसलिए कोई भी व्यक्ति तुमसे अन्धविश्वास करने को कहता है,या अपनी श्रेष्ठ इच्छाशक्ति के बल से वशीभूत करके अपना अनुशरण करने के लिए बाध्य करता है,तो उपयुक्त नहीं है ।वह मनुष्य जाति के लिए एक अनिष्ठ कार्य माना जाता है ।
         
          हमेशा इस बात को ध्यान में रखना होगा कि अपने मन को संयतित करने के लिए सदा अपने ही मन की सहायता लें । और इस बात को भी आपको समझ लेना होगा कि अगर आप रोगग्रस्त नहीं हैं तो कोई भी बाहरी इच्छाशक्ति आप पर कार्य नहीं कर सकेगी । जो व्यक्ति आपसे अन्धे के समान विश्वास करने के लिए कहता है हमेशा उससे दूर रहना चाहिए , वह चाहे कितना ही बडा आदमी या महात्मा क्यों न हो । इस संसार में कितने ही सम्प्रदाय हैं,जिनके धर्म का प्रधान अंग नाच-गाना,संगीत,नृत्य है । वे जब अपना संगीत नॉत्य और प्रचार प्रारम्भ करते हैं तो उनके भाव मानो संक्रामक रोग की तरह लोगों के अन्दर फैल जाता है । वे भी एक प्रकार के सम्मोहनकारी होते हैं । परिणॉम यह होता है कि सारी जाति अधःपतित हो जाती है ।
 
          इस प्रकार के धर्मोन्मत व्यक्तियों का उद्देश्य भले ही अच्छा हो मगर इन्हैं किसी उत्तरदायित्व का ज्ञान नहीं होता है । इन लोगों से मनुष्य जाति का अनिष्ठ होता है । वे नहीं जानते कि उनकी इस शक्ति के प्रभाव से लोग जड विकृतग्रस्त और शक्तिहीन होकर सहज ही उनके वश में हो जाते हैं,चाहे वह भाव कितना ही बुरा क्यों न हो । उन लोगों में उसका प्रतिरोध करने की जरा भी शक्ति नहीं रह जाती है । और वे सम्मोहन करने वाले लोग सोचने लगते हैं कि उनमें अद्भुत शक्ति है । वे सोचते हैं कि उन्हैं यह उस परमात्मा के द्वारा अद्भुत शक्ति प्रदान की गई है । बस इसी भावना से वे भावी मानसिक अवन्नति की ओर बढने लगते हैं,यही पाप,उन्मत्तता और मृत्यु के बीज हैं ।
 
          मन को संयमित करना बहुत कठिन होता है ।और इसी मन को हमें सबसे पहले संयमित करना होता है,इसके लिए कई प्रकार की विधियों का उल्लेख विद्वानों ने किया है मगर जो हमारे लिए उपयुक्त है उसे हम अपना सकते हैं । हम अपना सकते हैं ।प्रतिदिन प्रणॉयाम करने के बाद हम एक अभ्यास से अपने इस मन को संयमित करने का प्रयास करते हैं -अपने स्थान पर कुछ समय के लिए चुप्पी साधकर बैठ जॉय और मन को अपने अनुसार चलने दें ।मन चंचल होता है एक बन्दर की तरह । हमारा मन उछल-कूद मचायेगा कोई हानि नहीं है ,धीरज रखें ,प्रतीक्षा करें और मन की गति देखते रहें ।यह बात भी सत्य है कि जबतक आप अपने मन पर नजर रखोगे तबतक मन संयमित नही रह सकेगा ।
 
          यह अभ्यास आपको हर दिन करना होगा । आप देखेंगे कि मन में ऐसी भली-बुरी बातें आयेंगी कि आपको आश्चर्य होगा ।प्रारम्भ में हजारों विचार आयेंगे । फिर घटकर सेकडों में होंगे । फिर कम होते जायेंगे फिर कुछ महीने बाद आपके मन में एक भी विचार नहीं आयेगा,आप शॉत चित्त होंगे अब आपका मन अपने वश में आ जायेगा । इससे आपका मन शॉत होगा,विषयों के प्रति समझने शक्ति बढेगी,आपका मिजाज अच्छा होगा.स्वास्थ्य अच्छा रहेगा, इनमें शरीर की स्वस्थता का पहला लक्षण दिखता है ।लेकिन हर दिन हमें धैर्य के साथ अभ्यास करना होगा । हमें यह साबित करना होगा और दिखाना होगा कि वह किसी के अधीन नहीं है । इसके लिए नियमित अभ्यास की आवश्यकता होगी । अकेले रहने का प्रयत्न करना चाहिए ।
 
          विभिन्न प्रकार के लोगों के साथ रहने से चित्त विक्षिप्त हो जाता है ,उनसे अधिक बात-चीत करना उचित नहीं है,इससे मन अधिक चंचल हो जाता है ।अधिक काम करना भी अच्छा नहीं है,क्योंकि इससे मन डॉवाडोल रहता है ।सारे दिन की कडी मेहनत के बाद मन संयत नहीं हो सकता है । इसके लिए योगी का होना आवश्यक है । इस बात को भी ध्यान में रखना होगा कि अभ्यास के समय अपने भोजन को संयमित कर दें ।प्रारम्भ में हल्का भोजन और दूध उपयुक्त होगा । जबतक मन पर पूर्ण अधिकार न हो जाता तबतक अभ्यास करते रहें,और अल्पाहार करते रहें ।लेकिन जब मन एकाग्र हो जाता है तो आपको मस्तिष्क की सूक्ष्म अनुभूतियॉ होना प्रारम्भ हो जायेगा,जैसा कि मस्तिष्क से वज्र पार हो गया हो,सूक्ष्म अनुभूतियॉ होने लगेंगी । यह भ ध्यान रखना होगा कितर्क और चित्त में विक्षेप उत्पन्न करने वाली बातों को यथा शीघ्र दूर कर दें ।आपका संकल्प कैसा है उसी प्रकार से आपको आगे का रास्ता मिलेगा ।

Friday, November 9, 2012

आस्था की प्रकृति

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1-कर्म जीवन का अंग है-
 
          इस जगत में कोई भी जीव हो, चाहे उनमें सन्यासी हो यागृहस्थी सबको अपने-अपने क्षेत्र में परिश्रम करना होता है ।कर्म को हमें जीवन की साधना के रूप में स्वीकार कर लेना होता है ।धोखा या चालवाजी से कोई चीज प्राप्त नहीं हो सकती है,इससे तो आदमी स्वयं को गढ्ढे में गिराने के समान है। वैसे कहा जाता है कि भगवान की कृपा सन्यासियों की अपेक्षा गृहस्थियों पर अधिक रहती है । क्योंकि सन्यासी लोग तो भगवान का नाम लेने के लिए ही घर छोडकर आये हैं ,यदि वे भगवान को न पुकारें तो उनके लिए वह महॉ पाप माना जाता है ।लेकिन निष्ठावान गृहस्थी भक्त सिर पर भारी बोझ लादे हुये भी भगवान की कृपा याचना करके उसके दर्शन कर सकते हैं ।
 
          हमारे धार्मिक ग्रन्थों की अवधारणॉ को हमें नहीं भूलना होगा कि जीवन में कोई भी कर्म व्यर्थ नहीं जाता है,और न नष्ट होता है । उसका प्रतिफल या कुफल अवश्य मिलता है । इसीलिए जो भी सत्कर्म हो, जिस अवस्था में हो करना चाहिए । और यदि पूर्व में कोई कुकर्म किया हो तो इस पाप राशि से मुक्ति का उपाय भी यही मूल धर्म के कार्य है ।
 
           कर्मयोग के द्वारा चित्त शुद्धि होती है,आत्म ज्ञान होता है । कर्म तो सभी करते हैं मगर कर्मयोग की साधना सभी नहीं करपाते हैं,क्योंकि कर्मों के बन्धन में उन्हैं दुख का भोग करना होता हैं । भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं कि कर्म करना तुम्हारा अधिकार है,कर्मफल नहीं । कर्मफल की आशा से कर्म करने वाले तो दीन,दुर्वल और निम्न श्रेणी के लोग होते हैं । कर्म करो,किन्तु निस्वार्थ भाव से करो,यही परमानन्द को प्राप्ति का मार्ग है ।
 
          अधिकॉश लोगों की धारणॉ है कि यदि निष्काम होकर कर्म किया जाय तो फिर कर्म के प्रति आकर्षण और प्रेरणॉ कैसे उत्पन्न होगी,किसी भी काम को मन लगाकर कैसे किया जाय,यदि खुद को फायदा न हो तो मैं कर्म करने क्यों जाऊं ? यह भावना सही नहीं है । अगर सुख के लिए ही लोग कर्म करते हैं,तो सुख मिलता कितना है ? पहली बात तो यही है कि अपने स्वार्थ के लिए दूसरों को सुखों से वंचित और उन्हैं दुखी करना होता है । और इससे जो भी सुख मिलता है वह अस्थाई होता है । स्थाई सुख के लिए तो निस्वार्थ कर्म आवश्यक है । हमारे महॉन पुरुषों की यही अवधारणॉ है ।
 
          ईश्वर के दर्शन सबके भाग्य में इसी जन्म में नहीं होता है बल्कि कुछ लोग जन्म जन्मॉतर से उन्हैं पाने के लिए कठोर तपस्या,साधन भजन करते चले आरहे हैं,और पूर्व जन्म के कर्म के अनुसार,और साधना के प्रभाव से इस जन्म की अनुकूल साधना से बचे हुये कार्य को सहज ही पूरा कर देते हैं। और जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त हो जाते हैं ।
 
          सत्कर्मों का फल अक्षय माना जाता है,जितना संचय उसका किया जाय,भविष्य में,इस जन्म में,या अगले जन्म में अवश्य मिलता है । विपत्ति,घात-प्रतिघात,भयप्रलोभन,या अन्धकार या निराशा के समय समय यह फल काम आता है । सत्कर्मों की संचित सम्पति स्थाई मानी जाती है । यह देखा गया है कि सत्कर्मों को पैदा करने में दुख,रक्षा करने में दुख,नष्ट होने में दुख व कष्ट होता है । इसलिए सत्कर्मों के संचय का प्रतिफल हमें सुख के रूप में प्राप्त होता है ।
 
 
 
2- कच्चे मन का स्वभाव
 
          कच्चा मन एक महॉमायावी के समान होता है। यह हमें कब,किस तरह से कुमार्ग में ले जाकर मायावी जाल में फंसा देगा,यह समझ पाना कठिन है । कच्चे मन की पहचान है- देह और इन्द्रियों के सुखों को ढूडते रहना,स्त्री,पुत्र,परिवार को अपना समझकर उसकी माया में मोहग्रस्त होना, धन-जन,यश-प्रतिष्ठा और प्रभुत्व को जीवन की एकमात्र कामयाब वस्तु को समझना । इस स्थिति में वह सुख चाहने की लालसा में उसे पग-पग धक्का खाकर और दुख पाकर भी चैतन्य का लाभ नहीं होता है । चारों ओर लोग मरते हैं लेकिन कच्चे मन वाला मनुष्य यह कभी नहीं सोचता कि मुझे भी कब किस क्षण सबकुछ छोडकर चले जाना पडेगा । बस वह यही सोचता है कि कैसे धोखा देकर,चालाकी से,या किसी भी उपाय से अपना काम बन जाय,चाहे उससे दूसरे को नुकसान पहुंचे या दुख मिले इसकी उसे कोई परवाह नहीं होती है । अपना सुख ही उसका सर्वस्व संसार होता है ।
 
          अगर मन को हम एक फल के रूप में देखें तो उपयुक्त होगा ,कि जब वह कच्चा होता है तो उसमें खट्टापन,कसैला और बेस्वाद होता है और जिसे खाने पर रोग उत्पन्न करता है,लेकिन पक जाने पर अच्छा स्वाद और उपकारी होता है, मन की दशा भी इसी प्रकार की मानी जाती है ।
 
           कच्चे मन से किया गया कार्य चाहे वह देश या जगत के कल्याण के लिए किया जाता हो उनका उद्देश्य महान होते हुये भी उनके द्वारा संसार का हित के बजाय अहित ही देखा गया है । अपने आदर्शों में वे अधिक समय तक अटूट रूप से नहीं टिक पाते हैं । नाम यश प्रतिष्ठा और दूसरों पर प्रभुत्व करने की लालसा उनकी बलवती हो जाती है । शीघ्र उनपर हिंसा,द्वेष,संकीर्णता और स्वार्थपरता का भूत सवार हो जाता है,जिससे उनके सारे कार्य विफल हो जाते हैं । वे अपने भीतर के विष को समाज में फैलाकर जन मानस को कलुषित कर देते हैं । यहॉ तक कि वे धर्म के प्रति अविश्वास और अश्रद्धा के भाव भी पैदा करते हैं ।
 
          अगर देखें तो सभी कुछ मन का खेल है,मन के ऊपर ही सब निर्भर है । मन में बन्धन है,मन ही मुक्ति है । कहते हैं जैसी मति वैसी गति । यदि कठोर तपस्या करके भी कोई अपने अन्तःनिहित वासना के वशीभूत होकर विषयसुख और नाम यज्ञ के प्रति आकृष्ट हो तो उसका सारी तपस्या भस्म हो जाती है ,लेकिन जो लोग ईश्वर के शरणॉगत हो जाते हैं तो वे इस दुख से बच जाते हैं ।

 
 
3-ईश्वर में आस्था का स्वभाव
 
          यह देखा जाता है कि हम बात-बात में भगवान की मर्जी कहकर ईश्वर की दुहाई देते रहते हैं,यह तो सार शून्य है,सिर्फ आवाज मात्र है,जैसे कि छोटे-छोटे बालक बालिका कहते रहते हैं,भगवान कसम,राम दुहाई आदि,जैसे अंग्रेजी में कहते हैं Thank God या My God लेकिन इन शब्दों का प्रयोग वहीं कर सकता है जिसे ईश्वर का पूरा ज्ञान हो,जिसने ईश्वर को आत्मसमर्पण कर दिया हो,जिसे पक्का ज्ञान है । ये शब्द आत्मा की आवाज है जो उसकी आत्मा से निकलकर सत्य की परख के लिए प्रयुक्त होते हैं । लेकिन आज एक परम्परा बन गई है कि ईश्वर के सम्बन्ध में कोई ज्ञान नहीं है,और आत्म समर्पण भी नहीं है लेकिन इन शब्दों का प्रयोग करते हैं, ताकि शीघ्र विश्वास दिलाया जा सकें ।
 
          हमारे वेद कहते हैं कि जो पूर्ण है वह चिरकाल में भी सदा पूर्ण ही रहता है,इसमें क्षय नहीं होता । पूर्ण से पूर्ण का विनिमय करने पर ही हम पूर्णता के प्राप्त कर सकते हैं । वह परमात्मा स्वयं में पूर्ण है, इसे प्राप्त करने के लिए इस शरीर का सम्पूर्ण सामर्थ्य और मन ,प्राण,अन्तःकरण को समर्पित करना होता है तभी हमें पूर्णता की प्राप्ति हो सकती है ।
 
          एस दुनियॉ में उस परमात्मा को प्राप्त करने की सामर्थ्य हर एक में अलग-अलग होती है, उनमें कुछ लोग शरीर से बहुत दुर्वल होते हैं या जिन्दगी भर रोगग्रस्त होते हैं,जोकि उस साधना को सम्पन्न करने में असमर्थ होते हैं । इसका मतलव वे लोग तूफान के समय समुद्र में पडी छोटी नाव के समान पछाड खाते हुये पडे रहेंगे ?क्या वे कीडे मकोडों की तरह पिसते रहेंगे ? नहीं ईश्वर के राजस्व में यह कभी नहीं हो सकता ।,यदि उनके मन मेंअटूट श्रद्धा भक्ति और प्रेम है तो उन लोगों की ह्दय विदारक आवाज उस प्रभू कानों में अवश्य पहुंचती है । चाहे उनके आसपास की परिस्थितियॉ कितनी ही प्रतिकूल क्यों न हो। इस लिए इस जीवन में सिर्फ उस परमात्मा से प्रेम करें,उसकी अपार कृपा तभी प्राप्त हो सकती है ।वे लोग इसी जीवन में शॉति के अधिकारी होते हैं,और अन्त में परम पद का लाभ प्राप्त कर सकते हैं ।



Thursday, November 1, 2012

जीवन के सवाल


                                                   

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1-जिन्दगी के अहम सवाल-

 
          जिन्दगी में कई प्रश्न हमारे सामने उठते हैं कि-  जो मैने पाया है वह पाया है कि खोया है? जिसे में उपलब्धि समझ रहा हूं यह उपलब्धि है या गंवाना है?जिसे मैं सफलता समझ रहा हूं वह सफलता है या असफलता ? जिसे मैं जीत समझ रहा हूं वह जीत है या हार ?जिसे मैं ज्ञान समझ रहा हूं वह ज्ञान है या सिर्फ अज्ञान को ढक लेना है ?
         
          जिस जिन्दगी में ये सवाल न उठे वह जिन्दगी कभी भी धार्मिक नहीं हो सकती है। और होता यह है कि हम उस धर्म को जिन्दगी का हिस्सा बना लेते हैं,जबकि धर्म दूसरी जिन्दगी है,धर्म तो इस जिन्दगी की राख के ऊपर खिला हुआ दूसरा फूल है । और यह भी  उन्हीं के लिए खिल सकता है जिन्हैं यह आभास हो गया कि हम अभी तक राख बटोरने में लगे हैं या बच्चों की तरह नदी के किनारे पर कंकड-पत्थर बीनने में बिता रहे हैं ।
 
 

2- अनुभव और ज्ञान की कसौटी-

 
          अनुभव से आदमी सीखता नहीं है,अनुभव तो हम सबको होते हैं लेकिन सीखने की भावना पैदा नहीं होती है।अनुभव तो सबके पास है,लेकिन ज्ञान नहीं हो पाता । अनुभव से आदमी सीख लेता है,उसके जीवन में तो ज्ञान का आना शुरू हो जाता है। जो सिर्फ अनुभव को दोहराये चला जाता है। अनुभव से  उसके जीवन में ज्ञान का आना शुरू नहीं होता है। इसलिए इस बात को समझना होगा कि अनुभव स्वयं ज्ञान नहीं है, बल्कि अनुभव से सीख लेने का नाम ज्ञान है। ज्ञान तो अनुभवों का निचोड है। जैसे इत्र फूलों से निचोडा हुआ तत्व है,ऐसे ही समस्त अनुभवों से जो निचोड लिया जाता है  वह ज्ञान है । अनुभव सबके पास है लेकिन ज्ञान बहुत कम लोगों के पास है । क्योंकि अगर अनुभवों से हम सीखते नहीं तो ज्ञान कैसे पैदा होता ।
 
 

3-जन्म लेने का अर्थ पाना नहीं है-

 
          अगर हमने मान लिया कि इस जीवन का जन्म होने से हमें सबकुछ मिल गया तो यह हमारी भूल है,इस भूल को तोडने की जरूरत है। और यदि जीवन में यह भूल टूट जाय़, तो जीवन में इतना आनन्द है कि जिसकी अनुभूति करना असंभव है। और जीवन में जो यह अनुभव करता है,वहीं परमात्मा को भी अनुभव कर पाता है। क्योंकि परमात्मा का अर्थ सिर्फ जीवन की गहराई । जीवन की जितनी गहराई में उतर जाते हैं,उतना हम परमात्मा के निकट हो जाते हैं ।और जीवन से जितने दूर हम खडे रह जाते हैं उतने ही हम परमात्मा से दूर रहते हैं ।
 
 

4-धर्म हमें जीवन से दूर रखते हैं-

         
          अगर देखें तो धर्मों ने हमें जीवन से दूर रखा हुआ है,जिस कारण हम परमात्मा से दूर खडे हैं । ये महात्मा किसी न किसी अर्थ में परमात्मा के दुश्मन सिद्ध हुये हैं। क्योंकि वे कहते हैं कि जीवन को जियो ही मत ।जीवन को जीना गुनाह है। जीवन से बचो। जीवन से भाग जाओ । जहॉ -जहॉ भी जीवन हो वहॉ से भाग जाओ। वहॉ रुकना नहीं। कहीं जीवन बुला न ले,कहीं जीवन आमंत्रण न दे दे। धर्म ने तो हमेशा तोडने का काम किया है,मनुष्यों ने मनुष्यों से नाता तोडा है ,पत्नियों ने पति से,बेटों ने बाप से,धर्म ने जीवन से नाता तोडने का कार्य किया है। जबकि सच्चा धर्म जीवन से जोडने का कार्य करता है तोडने का नहीं। क्योंकि अगर कहीं कोई परमात्मा है तो निश्चित ही वह मृत्यु की शक्ल में नहीं हो सकता, वह जीवन की शक्ल में ही हो सकता है । और यदि कहीं परमात्मा है तो उसे हम जीवन-धारा की गहराई में उतर कर ही पहचान सकते हैं । उसे अपने ही नसों में  अनुभव करते हैं। अपने ही स्वासों में डोलता हुआ अनुभव करते हैं। अपने ही आंखों से उसे देखता हुआ अनुभव करते हैं, और अपने ही हाथों उसे प्रेम करता हुआ जान सकते हैं ।
 
 

5-परमात्मा की खोज नकल से-

 
          जी हॉ परमात्मा की ओर हम नकल करके जाते हैं।पिता को देखकर एक बेटा परमात्मा को खोजने लगता है। पडोस वालों को देखकर परमात्मा को खोजने लगते हैं। बडों को मन्दिर में जाते देख कर छोटे मन्दिर में चले जाते हैं । अब प्रश्न उटता है कि क्या किसी के पीछे चलकर परमात्मा को पा सकते हैं ? असंभव !इसलिए कि हमारे अन्दर यह प्यास अभी जगी नहीं है । यह झूठी प्यास है । झूठी प्यास से आदमी सरोबर तक नहीं पहुंच सकता है। और यदि पहुंच भी जाय तो पानी को पहचान नहीं पायेगा कि यह पानी है ।क्योंकि पानी को पहचानने के लिए अपनी प्यास चाहिए ।प्यास ही पानी की पहचान है!
 
 
          परमात्मा तो हर समय हमारे चारों ओर मौजूद है,लेकिन प्यास न होने से कोई उसे काशी खोजने जायेगा,कोई मक्का और कोई जेरुसलम,और कोई कैलाश में खोजने जायेगा। इसलिए कि हमें प्यास नहीं है । लेकिन यदि प्यास है तो हमारे श्वास-श्वास में,हवा के कण-कण में,,वृक्ष के पत्ते-पत्ते में वह मौजूद है । जहॉ भी देखो वहीं मौजूद रहेगा उसके अतिरिक्त और किसी का कोई अस्तित्व नहीं है ।
 
 

6-परमात्मा का स्वरूप-

 
          अगर हम नानक, कबीर, रैदास या महॉवीर को देखें तो इनकी जिन्दगी में हम दो मौके पायेंगे । वेदना और आनन्द ।लेकिन हम है कि उनमें एक मौके को देखना ही नहीं चाहते,सिर्फ दूसरे मौके को ही देखते हैं। नानक के जीवन में दो मौके पाएंगे, एक वह वक्त है जब वे रोते हैं और एक वक्त है जब वे आनन्द से भर जाते हैं। एक वक्त है जो पीडा और विरह का है और एक वक्त है जो प्रस्फुटित का है । अगर मीरा को देखें तो एक वक्त है जब मीरा रोती है और एक वक्त है जब मीरा नाचती है। लेकिन हम रोने की बात को भूल गये,और नाचने की बात याद रख ली । बुद्ध को देखें तो उनकी जिन्दगी में रोशनी आने की हमें याद है मगर अमावश की काली रात के वक्त की याद हम भूल गये ।हम रोशनी चाहते हैं, अमावश की काली रात कौन चाहेगा । हम परमात्मा के आनन्द में डूबना चाहते हैं मगर असकी पीडा नहीं।
 
 
          हमने गुरु नानक की मुस्कराती तस्वीर को तो खयाल में रख लिया मगर हमने वह तस्वीर छोड दी है जो रोते हुये खयालों में है। यह तो परमात्मा का आधा रूप है, इसे चुना नहीं जा सकता है। परमात्मा को पूरा ही चुनना होता है। फूल का तो कोई भी स्वागत कर सकता है लेकिन फूल के पौधे को बडा करने का भी संकल्प है। कहते हैं कि धर्म आनन्द का द्वार खोल देता है ,लेकिन उसके लिए ही खुलता है जिसके लिए पूरा जगत पीडा और दुख बन जाता है। जिसको अभी पीडा ही नहीं अनुभव हुई ,उसे् आनन्द का कोई अनुभव ही नहीं हो सकता। नानक ने आनन्द के लिए भजन गाये थे। लेकिन हमने बिना पीडा पाये उन भजनों को गाते हैं तो उनका कोई अर्थ नहीं रह जायेगा।
 
 
          अगर देखें तो कोई नर्तकी मीरा से अच्छा नाच सकती है। लेकिन उस नाचने में मीरा का आनन्द नहीं हो सकता है ,क्योंकि उस नाचने के पहले मीरा की पीडा,मीरा की लम्बी दुखद यात्रा नहीं है।
 
 
          परमात्मा के दो पहलू हैं । एक विरह का,दुख का,और आगे आनन्द का द्वार है ।वैसे विरह,दुख और पीडा अन्धकार का रास्ता है ,इस मार्ग पर हम कोई भी नहीं चलना चाहते हैं। हम सभी आनन्द चाहेंगे,हम सभी चाहेंगे कि परमात्मा मिल जाय। इसलिए हम सभी आधे परमात्मा की की खोज पर निकले हैं। हमारा मिलन नहीं हो सकता है।
 
 
          हम सुबह उठते हैं शॉम को सो जाते है ,जन्म लेते हैं और मर जाते हैं। कमाते हैं,गंवाते हैं,पूरी जिन्दगी की कथा बिना अर्थ के,बिना किसी प्रयोजन के-उस तिनके समान है जो लहरों पर डोलता हुआ कभी इस किनारे और कभी उस किनारे के थपेडों से जूझता है,और सोचता है मैं यात्रा कर रहा हूं।ठीक हम भी उसी प्रकार जिन्दगी को जीते हैं ,सोचते हैं कि यात्रा कर रहे हैं। यात्रा तो सिर्फ धार्मिक आदमी के जीवन में होती है। बाकी लोगों की जिन्दगी में तो बस इस किनारे से उस किनारे होना होता है।
 
 

7-खालीपन की पहचान है अधार्मिक होना-

 
          एक  फकीर ने रातभर परमात्मा से प्रार्थना की कि मेरे पडोस में एक आदमी रहता है वह बहुत ही अधार्मिक है,तू उसे इस दुनियॉ से उठा ले। वह एक चोर, बेइमान, और नास्तिक भी है। रात के सपने मे परमात्मा ने उसे कहा कि तू मुझसे ज्यादा समझदार मालूम होता है ! इस आदमी को मैं चालीस साल से स्वॉस दे रहा हूं,भोजन दे रहा हूं,इस आदमी से चालीस साल में मैने कोई शिकायत नहीं की! ,तू मुझसे ज्यादा धार्मिक हो गया मालूम होता है !क्योंकि तुझे यह आदमी अधार्मिक मालूम होने लगा है।
 
 
              दूसरे को अधार्मिक दिखने का खयाल,और दूसरे की चिन्ता करने का खयाल अधर्म है। लेकिन हम दूसरों की चिन्ता में इतने उलझे रहते हैं कि सिर्फ अपने को छोडकर सबके बावत सोचेंगे ।सुबह से शॉम तक दूसरे के बारे में सोचेंगे,सिर्फ अपने सम्बन्ध में नहीं सोचेंगे। जिन्दगी गुजर जाती है एक नहीं बहुत सारी जिन्दगियॉ उसकी गुजर सकती है। जो अपने सम्बन्ध में नहीं सोचेगा  ।वह अपने भीतर खालीपन का अनुभव भी नहीं कर सकेगा । और जिसे अपने भीतर खालीपन का अनुभव नहीं होगा उसकी जिन्दगी में परमात्मा की खोज शुरू नहीं होगी अपने भीतर खालीपन एक पहलू और परमात्मा की खोज उसी सिक्के का दूसरा पहलू है।
 
 
          क्या आपको लगता है कि आपके भीतर कोई कमी है ? लगता है भीतर कोई अभाव है ? लगता है भीतर कोई कुछ खाली-खाली है ? अगर यह अनुभव होता है तो आपकी जिन्दगी में परमात्मा की किरण उतर सकती है। लेकिन इस खालीपन को ठीक से समझना होगा,और समझकर इस खालीपन से भागने और बचने की कोशिश मत करना। क्योंकि बचने के बहुत उपाय हैं। एक आदमी अपने भीतर के खालीपन से बचने के लिए या तो सिनेमा देखता है दूसरा आदमी संगीत सुनता है ,तीसरा आदमी ताश खेल सकता है और अपने भीतर खालीपन को भूल जायेगा। चौथा आदमी कीर्तन-भजन करके खालीपन को भूलने की कोशिश करता है,यह असली भजन नहीं है,यह सिर्फ भुलावा है,यह अपने को भुलाना है,अपने को जानना नहीं है।
 
 
          बस अगर अपने भीतर खालीपन दिखाई पडे तो समझो परमात्मा की खोज का रास्ता खुल जाता है। उस खालीपन में खडे होने से पीडा शुरू हो जाती है,नीचे की जमीन खिसक जाती है ऊपर का आकाश खो जाता है ,एक आह उठेगी जो परमात्मा की खोज बन जाती है।