Thursday, April 9, 2015

अनमोल सफर

1-भावनाएं आध्यात्मिक जीवन का मार्ग है कमजोरी नहीं

           अकसर यह कहते सुना जाता है कि आध्यात्मिक मार्ग पर चलने वालों के लिए भावनाएं एक बाधा है। तो क्या उस राह पर जाने से पहले से खुद को भाव-शून्य बनाना होगा? अगर किसी इंसान के अंदर कोई भावना ही नहीं है तो आप उसे इंसान नहीं कह सकते। जो लोग कहते हैं कि भावनाएं आध्यात्मिक उन्नति के रास्ते में बाधक हैं, इसका मतलव हुआ कि आपका मन और शरीर भी एक बाधा है।

          यह सच है कि आपका शरीर, मन, भावनाएं, और ऊर्जा ये तमाम चीजें या तो आपके जीवन में बाधा बन सकती हैं, या फिर यही चीजें जीवन में आगे बढऩे का सोपान भी बन सकती हैं। यह सब इस बात पर निर्भर है कि आप उनका इस्तेमाल किस तरह करते हैं। आपकी भावनाएं आपके मन में चल रहे विचारों से अलग नहीं होतीं। जैसा आप सोचते हैं, वैसा आप महसूस करते हैं। विचार शुष्क होते हैं और भावनाएं रसीली। आपको लगता है कि आपका मन भी एक समस्या है। नहीं, समस्या मन नहीं है।

          समस्या यह है कि आपको यह नहीं पता कि उसका इस्तेमाल कैसे करें। इसे ऐसे समझ सकते हैं। मैं जीवन को इस रूप में देखता हूं कि यहां क्या काम करना है और क्या नहीं। अगर आप लगातार नाराज हैं, कुंठित हैं, हताश हैं, नफरत से भरे हैं, तो क्या यह आपके लिए काम करेगा? नहीं। आपको गाड़ी चलाना नहीं आता और हमने आपको तेजी से चलने वाली एक कार दे दी। अब यह कार न सिर्फ आपकी जिंदगी के लिए एक समस्या हो गई, बल्कि दूसरों की जिंदगी के लिए भी, क्योंकि आपने कार चलाना नहीं सीखा। जाहिर है, समस्या की वजह मशीन नहीं है। मन आपके लिए समस्या बन गया है, क्योंकि आपने इसे संभालने का तरीका सीखने की कोई कोशिश नहीं की।

          मन और भावनाएं समस्या नहीं हैं। भावनाएं तो मानवीय जीवन का एक खूबसूरत पहलू हैं। अगर भावनाएं न हों तो लोग बदसूरत हो जाएं। हां, बस इतना है कि जब भावनाएं बेलगाम हो जाती हैं तो यह पागलपन कहलाता है। अगर आपके विचार बेकाबू हो जाते हैं, तो यह पागलपन है। पूरी दुनिया को या यूं कहें कि नब्बे फीसदी दुनिया को सिर्फ भक्ति और प्रेम सिखाया जाता है। भक्ति अपनी भावनाओं को खूबसूरत बनाने का एक तरीका है। मन और भावनाएं समस्या नहीं हैं।

          भावनाएं तो मानवीय जीवन का एक खूबसूरत पहलू हैं।ये भावनाएं बाधा नहीं हैं। मैं जीवन को इस रूप में देखता हूं कि यहां क्या काम करता है और क्या नहीं। अगर आप लगातार नाराज हैं, कुंठित हैं, हताश हैं, नफरत से भरे हैं, तो क्या यह आपके लिए काम करेगा? नहीं। लेकिन अगर आप अपनी भावनाओं को आनंद, दया और प्रेम से भरपूर बना लेते हैं तो यह आपके लिए जरूर काम करेगा। तो अहम बात यह है कि कौन सी चीज काम करती है। सवाल यही है कि कोई चीज काम करती है या नहीं।


2-कभी-कभी ब्रह्म भ्रम के रूप में दिखाई देता हैः

          जब हम ईश्वर या सत्य की बात करते हैं तो हम कई सारे विचारों, सिद्धांतों से खुद को जोड़ लेते हैं। लेकिन क्या हर बार हमारा यह जुड़ाव सही होता है? एक मामूली सा अंतर हमें ब्रह्म की जगह भ्रम से जोड़ सकता है। तो फिर कैसे परखें इस अंतर को? संस्कृति का मतलब है संपूर्ण सृष्टि के स्रोत के प्रति पूरा जुनून, आस-पास के सभी जीवों के प्रति असीम करुणा और खुद को लेकर पूरी तरह से अनासक्ति का भाव होना। संस्कृत भाषा में परम सत्य को ब्रह्म का नाम दिया गया है। ब्रह्म परम सत्य का साकार रूप है।

          इस परम संभावना को ग्रहण करने में अगर जरा सी चूक हो जाए, तो वह भ्रम की स्थिति बन जाती है। इसलिए कहा जाता है कि अज्ञानता और ज्ञान में बस जरा सा फर्क है। इस परम सत्य को पाने के नाम पर दुनिया में बहुत कुछ चलता रहता है। इसी वजह से इस धरती पर तमाम तरह के मूर्खों में से धार्मिक और आध्यात्मिक मूर्ख हमेशा आगे रहते हैं, क्योंकि उनको भगवान या फिर धर्मग्रंथों का पूरा समर्थन मिला होता है। आपकी मूर्खता पर अगर एक बार भगवान के नाम की मोहर लग गई, तो इसका कोई इलाज नहीं है।

          यह एक अजेय शत्रु की तरह है। लोग करोड़ों तरीकों से अपने अंदर के भ्रम को मजबूत किए जा रहे हैं और उनके जटिल विचार उनके विश्वास में तब्दील हो रहे हैं। दरअसल, सारी चीजें इसी सोच पर आकर खत्म हो जाती हैं कि मेरा यह मानना है और फिर इंसान सख्त बन जाता है, अडिय़ल हो जाता है, फिर आप उसे बदल नहीं सकते। इसलिए विचारों के भटकाव से बचने के लिए, अपनी राह पर बने रहने के लिए, किसी भी तरह के धोखे से बचने के लिए, आपमें एक खास तरह की अनासक्ति और निष्ठा होनी चाहिए। इसके लिए आपके अंदर एक सही तरह का माहौल बनाने में संस्कृति बड़ी मदद कर सकती है।

          संस्कृति का मतलब है संपूर्ण सृष्टि के स्रोत के प्रति पूरा जुनून, आस-पास के सभी जीवों के प्रति असीम करुणा और खुद को लेकर पूरी तरह से अनासक्ति का भाव होना। फिलहाल दुनिया में इन सबका उल्टा हो रहा है। लोगों में खुद के लिए पूरा जुनून, दूसरों के लिए अनासक्ति और ऊपर वाले से करुणा की उम्मीद करते हैं। यही फर्क है ब्रह्म और भ्रम में। बस थोड़ी सी चूक हुई और समस्या खड़ी हो गई। अगर आप अपने भीतर सही माहौल तैयार कर लेते हैं, तो आपको जो दीक्षा दी गई है और अभ्यास बताए गए हैं, वह चाहे कितने भी मामूली क्यों न हों, वो भी बेहतरीन तरीके से काम करेंगे। अगर यह माहौल नहीं बनेगा, तो सही चीजें भी बुरी होती जाएंगी। हो सकता है कि आप जो कर रहे हैं, वह बहुत अच्छा हो, लेकिन अगर माहौल सही नहीं है, तो सब व्यर्थ हो जाएगा। इसलिए सबसे ज्यादा जरूरी अपने अंदर सही माहौल को बनाना है।

          आपकी मूर्खता पर अगर एक बार भगवान के नाम की मोहर लग गई, तो इसका कोई इलाज नहीं है। यह एक अजेय शत्रु की तरह है। उस 'परम सत्य को पाने के लिए आपके पास लगन होनी चाहिए। करुणा का मतलब किसी भेदभाव का न होना है, इस भावना में चुनाव का विकल्प नहीं होता, जुनून में आपके पास चुनाव का विकल्प हो सकता है, लेकिन करुणा चुनाव नहीं कर सकती, यह अपने में सब कुछ शामिल करती है, और खुद के प्रति अनासक्त रहती है। इसे अपने अंदर लाना होगा। इसके बाद आध्यात्मिक प्रक्रिया बहुत आसान हो जाती है। असल में इंसान के विकास के लिए, उसके खिलने के लिए यह एक कुदरती प्रक्रिया है।

            अगर मिट्टी सही है और उसमें आपने बीज डाला है, तो उसमें अंकुर फूटना और फिर फूल आना बिलकुल स्वाभाविक है। लेकिन अगर मिट्टी सही नहीं है, तो फल लगना मुश्किल है। जैसे मिशिगन में सहजन उगाने की कोशिश की जाए। वहां आपको इसके लिए बड़ा कृत्रिम तरीका अपनाना पड़ेगा। लेकिन अगर आप इसे भारत में उगाते हैं, तो आप जहां भी इसका बीज डाल देंगे, वहां यह उग जाएगा, क्योंकि उसके लिए यहां सही वातावरण है। बस इतनी सी बात है। कुदरत की संपूर्णता को पाने के लिए वातावरण ही सबसे ज्यादा अहम होता है। परम सत्य को पाने की लगन, सबके लिए करुणा अगर आप इसे अपने अंदर ले आते हैं, तो आपका वातावरण पूरी तरह तैयार हो जाएगा।

          अब जो बीज आपके अंदर बोया जाएगा, कुदरती तरीके से उसमें अंकुर फूटेगा, वह बढ़ेगा और उसमें फूल आएगा और इसे कोई नहीं रोक पाएगा। अगर वातावरण ही सही नहीं होगा, तो इन सब के लिए बहुत मेहनत करनी पड़ेगी।


3-सपने में अपने संचित कर्म कब दिखने लगते हैं

              यह सपनों का तीसरा स्तर है। अगर आपको अपने जीवन में कोई बहुत अद्भुत अनुभव हुआ है, तो उसके बाद आपने अपने सपनों में बदलाव महसूस किया होगा। आपमें से जिन लोगों ने शांभवी, भाव स्पंदन, सम्यमा या किसी और तरह की दीक्षा का शक्तिशाली अनुभव किया होगा, उन्हें इन अनुभवों के बाद अपने सपनों के पैटर्न में बदलाव महसूस होगा।

          सपने किस तरह के और कितने आते हैं-इसमें एक बदलाव सा महसूस होता है। एक सशक्त अनुभव हो जाने के बाद सपने पहले से ज्यादा या कम, या किसी और तरह के हो सकते हैं। यहां एक सवाल जरूर मन में उठ सकता है कि सशक्त अनुभव का मतलब क्या है। इसका सीधा सा मतलब यह है कि आपने किसी तरह से अपने अंदर की कुछ सीमाओं को पार कर लिया है।

          दरअसल, हमने अपनी सुरक्षा के लिए सीमाओं की कई परतें बना रखी है। क्योंकि अगर यादों की सभी गांठें एक साथ खुल जाएं कोई भी दिमाग इसे संभाल नहीं पाएगा और वह टूट जाएगा। चूंकि यादों के एक खास प्रकार के अवरोध को तोडक़र कोई शक्तिशाली अनुभव होता है, इसलिए इससे हमारे सपनों का पैटर्न बदल जाता है। इसके बाद यादों की जमा-पूंजी जो अब तक खर्च नहीं हो रही थी, वह भी खर्च होनी शुरु हो जाती है। यानी निष्क्रिय पड़ी यादें भी सक्रिय हो जाती हैं। इससे कई नई तरह की यादें बाहर आनी शुरू हो जाती हैं। कार्मिक तत्वों या यादों की इस जमा-पूंजी या भंडार को ही संचित कर्म कहते हैं। इनमें से कुछ यादें आपके जीवन में प्रवेश करती हैं।

          इसका मतलब यह है कि इस जीवन में आपके पास पिछले जीवन की तुलना में कुछ अधिक ही मौके होते हैं। अधिक अवसर मिलना आपके लिए अच्छी बात है, लेकिन अगर आप इससे अच्छी तरह नहीं निपटते, तो ये अधिक अवसर बहुत बड़ी समस्या बन जाते हैं। दरअसल इंसान को इतना अधिक संघर्ष इसीलिए करना पड़ता है, क्योंकि उसके पास दूसरे जीवों से अधिक अवसर हैं। अगर आप कोई अन्य जीव-जन्तु होते, तो सिर्फ खाते और सोते और मजे में रहते। तो जब बड़े मौके मिलते हैं और आप उनसे अच्छी तरह से निपट लेते हैं, तो यह बहुत अच्छी बात होगी, और अगर ऐसा नहीं करेंगे तो यह आपके लिए कष्टदायक साबित हो सकता है। वैसे अगर ये पीड़ादायक भी हैं, तो भी आखिरकार ये आपके लिए अच्छे हैं।

          अब हठ योग को ही लें। यह कष्टदायक तो है पर हम इसे करते हैं, क्योंकि दूरगामी नजरिये से यह हमारे लिए लाभदायक होता है। आपके अंदर की यादों के नए खजानों को खोलना आपके लिए कष्टदायक हो सकता है, क्योंकि तब आपका जीवन काफी तेजी से आगे बढऩे लगेगा। जिन चीजों को अगले जीवन में संभालना चाहिए, उन्हें आप इसी जीवन में संभालने की कोशिश करते है, क्योकि आप थोड़ी जल्दी में होते हैं। ऐसे में यह और जटिल हो जाता है। लेकिन अगर आप इसे सही तरीके से संभाल पाते हैं, तो यह आपके लिए बहुत अच्छा है।

          अगर यह आपसे नहीं संभलता है, तो अचानक आपको लगेगा कि आध्यात्मिक रास्ते पर कदम बढ़ाते ही इस जगत की हर चीज आपको हर दिशा से धक्के मार रही है। यह कुछ ऐसा ही है। क्योंकि आपने एक नए पहलू को खोल दिया है, जिसे आप संभाल नहीं पा रहे। यह उसी तरह है जैसे आप अगर दसवीं की परीक्षा, जिसे हमारी शिक्षा-पद्धति में एक मील का पत्थर माना जाता है, पास कर लेते हैं तो उससे आपकी स्थिति बेहतर नहीं हो जाती।

          अचानक ग्यारहवीं और बारहवीं की पढ़ाई आ जाती है जो पहले से कहीं अलग और मुश्किल होती है। सभी चीजें जैसे सिलेबस, विषय की जटिलता और जो कुछ भी आपको पढऩा है, सब कम से कम चार गुना अधिक हो जाता है। ऐसे में दिमाग में यह आ सकता है कि पास होना हमेशा ही अच्छा नहीं होता, लेकिन यह भी सच है कि अगर आप पास नहीं होंगे तो अगली कक्षा में नहीं जा सकते। अगर आप उसी जगह पर रह जाते हैं तो आपको एक तरह की जड़ता की स्थिति से जूझना पड़ेगा।

          अगर आप अगला कदम बढ़ाते हैं, तो एक बड़ी चुनौती से सामना होना तय है। उसी जगह पर रह जाने से जिंदगी आसान लगती है। अगला कदम बढ़ाने पर बड़ी चुनौती संभालनी पड़ती है। सपने के रूप में यह बिल्कुल अलग तरीके से प्रकट होता है। एक बार अगर संचित कर्म आपके सपनों में प्रकट होने लगते हैं, तो हमें कई तरह के अजीब से सपने आने शुरू हो जाते हैं। आप इनका कोई अर्थ नहीं निकाल सकते हैं। एक चीज यहां होती है तो दूसरी वहां, एक यह, तो दूसरी वह। कुछ भी लगातार या तरतीब से नहीं होता। मशहूर नाटककार जॉर्ज बनार्ड शॉ के साथ एक बार एक मजेदार घटना घटी।

          एक नए नाटककार ने एक नाटक लिखा और उसे निर्देशित किया। उसने शॉ को अपने नाटक को देखने के लिए बुलाया। शॉ वहां गए, बैठे और कुछ ही मिनटों में सो गए। जब नाटक खत्म हो गया, तो उस लेखक ने शॉ के पास जाकर कहा, ’मैंने आपको आमंत्रित किया, क्योंकि मैं आपकी टिप्पणी चाहता था। यह मेरा पहला नाटक है।’ शॉ ने हंसते हुए कहा, ’मेरा सोना ही मेरी टिप्पणी है।’ तो आप अच्छे से सो पा रहे हैं या नहीं, इससे आपके जीवन की दशा का पता चल जाता है।


4-जिंदगी एक सच होने वाला सपना है

          सपने हम सभी देखते हैं, लेकिन क्या उन सपनों का वाकई कोई अर्थ होता है? क्या इनका हमारी जिंदगी से किसी तरह का वास्ता भी है? कभी-कभी हम अपने सपनों को याद करने की कोशिश करते हैं और सुबह होते ही कुछ लोग उन्हैं उन्हें लिख लेते हैं। इस सम्बन्ध में एक सवाल मेरे मन में उठता है कि क्या मुझे इन सपनों को याद रखना चाहिए? अगर हां, तो फिर उनके साथ क्या करना चाहिए? हमारे मन और अस्तित्व के कुछ ऐसे पहलू हैं, जिन्हें हम सपना कहते हैं।

          आपने लोगों को अकसर यह कहते तो सुना ही होगा-हां, मेरा एक सपना है। इस दुनिया में अपने सपनों को साकार करने का सचेतन तरीका है, कि आप पहले सपना देखते हैं, फिर उस सपने को लगातार इतना मजबूत बनाते हैं कि वो हकीकत में बदल जाए। अपने सपनों को हकीकत में बदलने की काबिलियत अधिकतर लोगों में नहीं होती। दरअसल, उनके सपनों में कोई एकरूपता नहीं होती। वे हर दिन एक नई चीज का सपना सजाते हैं। दरअसल उनकी चेतना पूरी तरह से अस्त-व्यस्त और बिखरी हुई होती है।

          सपने को साकार करने का एक पहलू यह है कि आपकी चेतना और जीवन उर्जा एक निश्चित दिशा में हों, जिससे वे आपके लिए हकीकत का रूप ले सकें। एक तरह से हम जो भी सृजन करते हैं, वह हमारे सपनों का ही साकार रूप होता है। पर अब हम ऐसे सपनों के बारे में बात करते हैं जिनके बारे में आपने कभी सोचा नहीं, पर उनको अपने सपनों में देखते हैं हमारे नब्बे प्रतिशत सपने तो बस मन में इकट्ठी हुई इच्छाओं को रिलीज करने के एक साधन हैं। यह इंसानी मन बना ही कुछ ऐसा है कि जो भी इसे अच्छा, आकर्षक और खास लगता है, यह उसे पाना चाहता है। इनमें से कई तो ऐसी इच्छाएं होती हैं, जिन्हें हमने सचेतन मन से चाहा भी नहीं होता। ऐसा सिर्फ इसलिए होता है, क्योंकि हमारा मन तमाम इच्छाएं करता रहता है।

          वैसे ये आपकी अच्छी किस्मत है कि ये सभी इच्छाएं पूरी नहीं हो पातीं। अगर सारी सच हो जाएं तो आपकी पूरी जिंदगी एक बहुत बड़ी यातना बन जाएगी। सपने दरअसल आपकी मदद करते हैं। जब लोग हठ योग टीचर ट्रेनिंग कार्यक्रम में हिस्सा ले रहे होते हैं, उस दौरान सुबह उठकर चार घंटे की साधना, पढ़ाई और बाकी सब काम करने के बाद दोपहर को जब आप थक कर चूर हो जाते हैं, तब आपको कॉफी या चाय की जरूरत महसूस होती है। लेकिन बदले में जब आपको बेस्वाद सूप मिलता है, तो आपका मन सोचता है कि काश मुझे एक कप चाय या कॉफी पीने को मिल जाती। उसी रात आप सपने में देखते हैं कि आप ढेर सारी कॉफी पी रहे हैं या आप हिंद महासागर के किनारे टहल रहे हैं और पूरा का पूरा सागर ही कॉफी से भरा हुआ है।

          यह एक मजाकिया उदाहरण है, लेकिन मेरा कहना है कि आपकी इच्छाएं ही सपनों में बढ़ – चढ़ कर सामने आती हैं। दूसरे शब्दों में, यह इच्छाओं का रिलीज होना है। सपने में कॉफी पीने की आपकी इच्छा पूरी हो गई। ऐसे में अगले दिन इस सपने का आप पर असर पड़ता है। जब आपको दूसरे दिन वही बेस्वाद सूप मिलता है तो आप उसे थोड़ी आसानी से पी पाते हैं। अगर सपने में यह इच्छा बह कर नहीं निकली होती, तो यह स्थिति आपके अंदर एक कुंठा, एक विवशता पैदा कर देती।

          इस तरह से सपने आपके लिए काम करते हैं। दरअसल, रात में जब आप गहरी नींद में होते हैं तो शरीर पूरे आराम में होता है। इसलिए आपके मन को अपनी हरकतें करने के लिए बहुत सारी ऊर्जा मिल जाती है। इस उर्जा और समय का इस्तेमाल मन सपनों को पूरा करने में खर्च करता है। नब्बे फीसदी सपने इसी श्रेणी में आते हैं। इनके साथ कुछ भी करने की जरूरत नहीं, इन्हें याद भी रखने की जरूरत नहीं, इन्हें आप भूल ही जाइए। हां, अगर आप रोज ढेर सारे सपने देखते हैं, तो फिर आपको अपने दिन पर ध्यान देना चाहिए।

          आपको पहले से अधिक जागरूक रहना होगा। आप जितने ज्यादा जागरूक रहेंगे, उतने ही कम सपने देखेंगे। अगर आप अचेतन में, दिन के दौरान तमाम चीजों की इच्छाएं करते रहेंगे, तो उस रात आपको उतने ही अधिक सपने आएंगे। अगर आप दिन के दौरान अच्छे से ध्यान करें, तो जब रात को सोएंगे तो ऐसा नहीं है कि आपको सपने आने बंद हो जाएंगे, लेकिन इतना तय है कि आप पहले से काफी कम सपने देखेंगे।


5-शांतनु का प्रेम और पीड़ा

          एक दिन राजा शांतनु गंगा के किनारे टहल रहे थे। वहां उनकी मुलाकात गंगा से हुई। वह उनसे प्रेम करने लगे। वह गंगा से विवाह करना चाहते थे। गंगा ने कहा, ‘अगर आप मुझसे शादी करना चाहते हैं तो आपको मेरी एक शर्त माननी होगी। मैं चाहे जो भी करूं, आप मुझसे कोई प्रश्न नहीं करेंगे।’ एक ऐसी आम शर्त जो आप में से ज्यादातर लोग आजकल रखते हैं। गंगा ने साफ कह दिया कि मैं कितना भी अजीब काम क्यों न करूं, लेकिन आप मुझसे कोई सवाल नहीं करेंगे।

          शांतनु गंगा के प्रेम में इतने पागल थे कि उन्होंने हां कह दी। इस शादी से गंगा ने एक पुत्र को जन्म दिया। उस नवजात को लेकर गंगा नदी के पास गईं और उसे डुबो दिया। शांतनु आश्चर्यचकित रह गए, लेकिन वह इसके बारे में गंगा से कुछ भी पूछ नहीं सकते थे, क्योंकि गंगा ने पहले ही यह शर्त लगा दी थी कि अगर शांतनु ने उसके किसी भी काम के बारे में पूछताछ की तो वह उन्हें छोडक़र चली जाएंगी। शांतनु ने खुद को नियंत्रित कर लिया। इसके बाद गंगा ने एक और पुत्र को जन्म दिया । वह उसे भी नदी तट ले गईं और डुबो दिया। शांतनु बड़े परेशान थे, लेकिन उन्होंने पूछा कुछ भी नहीं क्योंकि अगर वह कुछ पूछते तो गंगा उन्हें छोडक़र चली जातीं। इस तरह सात बच्चों को एक – एक करके गंगा ने नदी में डुबो दिया।

          कुछ समय बाद आठवें पुत्र का जन्म हुआ। शांतनु ने उस स्वस्थ बच्चे को देखा तो उनसे रहा न गया। उन्होंने गंगा से कहा, ‘बहुत हो चुका। तुम सात बच्चों को नदी में डुबो चुकी हो। क्या है यह सब? इसके साथ ऐसा मत करना।’ गंगा ने कहा, ‘आपने शर्त तोड़ दी। मैं अब जा रही हूं। मैंने पहले ही कहा था कि आपको मुझसे कोई सवाल नहीं करना है। चूंकि अब आपने मुझसे पूछ लिया है तो मुझे जाना होगा। इस बच्चे से आपका गहरा लगाव है, इसलिए मैं इसे छोड़ दूंगी। कुछ साल तक मुझे इस बच्चे को पालने दीजिए, फिर मैं इसे आपको सौंप दूंगी, लेकिन हां, आपके और मेरे संबंधों का अब अंत हो गया। इस तरह बच्चे को लेकर गंगा चली गईं और उन्हें दोबारा देखने की उम्मीद में शांतनु नदी के किनारे भटकने लगे।

          एक दिन उन्होंने देखा कि गंगा अपने सामान्य बहाव से थोड़ी हट गई है। एक स्थान पर पानी कुछ उभर गया है और दूसरे स्थान पर धंस गया है। यह पूरा नजारा ही शांतनु को बेहद अजीब लगा। पूरा माजरा जानने के लिए वह उस स्थान के करीब पहुंचे। उन्होंने देखा कि किसी ने बाणों की मदद से एक बांध जैसी रचना बना दी है। वह हैरान रह गए। तभी उन्होंने वहां खड़े एक 12 साल के बच्चे को देखा, जिसके हाथ में धनुष बाण थे। वह बच्चा उस बांध जैसी रचना को और बेहतर बनाने की कोशिश कर रहा था।

          शांतनु बच्चे के पास गए और बोले, ‘तुम कौन हो, जो तुम्हारे अंदर ऐसा कौशल है? तुम अवश्य ही कोई क्षत्रिय हो।’ उन दिनों ऐसा माना जाता था कि अगर आप हथियारों का प्रयोग करने में कुशल हैं तो आप क्षत्रिय ही होंगे। खैर बच्चे ने कहा, ‘मेरा नाम गांगेय है।’ इतने में माता गंगा प्रकट हो गईं। उन्होंने शांतनु से कहा, ‘यह आपका बेटा है। अब यह इतना बड़ा हो चुका है कि आप इसे अपने साथ ले जा सकते हैं। वेदों और उपनिषदों के अलावा युद्ध विद्या में भी यह पारंगत हो चुका है। आप इसे ले जा सकते हैं। यह आपका योग्य उत्तराधिकारी होगा। आपके बाद यह एक योग्य और महान राजा बनेगा।’

          शांतनु बच्चे को अपने साथ ले गए और गंगा दुबारा अंतर्ध्यान हो गईं। अब एक और बात जिसके बारे में हम पहले भी चर्चा कर चुके हैं। महान ऋषि पाराशर घायल अवस्था में एक मछुआरे के गांव पहुंचे। मत्स्यगंधा नाम की कन्या ने उनकी चिकित्सा की और उसके बाद उन दोनों से कृष्ण द्वैपायन यानी वेद व्यास का जन्म हुआ। मत्स्यगंधा से संबंधों के कारण ऋषि पाराशर ने उसे वरदान दिया था कि उसके अंदर से एक खास तरह की लुभावनी सुगंध आएगी। मछली की दुर्गंध से उसे छुटकारा मिल गया।

          शायद यही वजह था कि अब वह मछुआरे समाज में नहीं रह सकती थी। वह देश के दूसरे हिस्सों में भटकी और फिर गंगा के तट पर रहने लगी। उसके भीतर से बहुत भीनी-भीनी सुगंध आती थी, इसलिए उसका नाम सत्यवती पड़ गया। एक दिन वह नदी तट पर थी कि तभी राजा शांतनु वहां टहलते हुए आ गए। जब उन्होंने सत्यवती के भीतर से आ रही सुगंध को महसूस किया तो बेचैन हो उठे और उसे खोजने लगे। आखिर उन्हें सत्यवती मिल गई, जो नदी तट पर ही एक जगह बैठी थी और उसके शरीर से सुगंध आ रही थी। राजा इस सुगंध से मंत्रमुग्ध हो गए और सत्यवती से प्रेम करने लगे। वह उससे विवाह करना चाहते थे।

          राजा सत्यवती के पिता के पास उसका हाथ मांगने गए। लेकिन इसके लिए सत्यवती के पिता ने एक शर्त रखी। फिर से शर्त… बेचारे शांतनु। सत्यवती के पिता ने कहा, ‘अगर आप मेरी बेटी से विवाह करना चाहते हैं तो आपको मुझे वचन देना होगा कि आपके बाद राजगद्दी सत्यवती की संतान ही संभालेगी। आपको पहले से ही एक युवा पुत्र है। जाहिर है, आपने उसे ही अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया होगा।

          अगर आप मुझे यह वचन देते हैं कि मेरी बेटी की संतान को ही आपके बाद सिंहासन मिलेगा, तो मैं उसका विवाह आपके साथ करने को तैयार हूं।’


6-योग जीवन का एक पूर्ण मिलन है

          कुदरती तौर पर जीवन कभी बिल्कुल सही या संपूर्ण नहीं हो सकता, उसमें हमेशा सुधार की गुंजाइश होती है। लेकिन सृष्टि की ज्यामिति एक तरह से संपूर्ण होती है। इस सटीक ज्यामितीय संतुलन के कारण ही जीवन इस तरह फलता-फूलता है।

          मानव जीवन जितना क्षणभंगुर है साथ ही साथ उतना ही जोरदार भी है। एक मनुष्य कितना कुछ कर सकता है। इसकी वजह यह है कि रचना की प्रक्रिया के पीछे जो ज्यामितिय बनावट है, वह संपूर्ण है आज एक पूरा विज्ञान यह पता लगाने में लगा है कि एक कीड़े से लेकर एक हाथी तक, एक पेड़ से लेकर नदी और सागर तक, ग्रहों से लेकर पूरे ब्रह्मांड तक हर रूप में अणु और परमाणु संबंधी संरचना की ज्यामिति कैसी है। अणु से लेकर ब्रह्मांड तक, सभी रूपों की ज्यामिति अपने मूल गुण में बिल्कुल एक जैसी है। यह बनावट इतना संपूर्ण है कि जीवन इतना नाजुक, इतना भंगुर होने के बावजूद इतना मजबूत और इतना खूबसूरत है।

          ज्यामिति की इस संपूर्णता को अपने जीवन में उतारने की कोशिश से ही योग की इस जटिल और परिष्कृत प्रणाली का जन्म हुआ। अपने पूरे सिस्टम को जिसमें- शरीर, मन, भावनाओं, पिछले जन्म के कर्म और मूलभूत ऊर्जा शामिल है, ब्रह्मांड के साथ एक ज्यामितिय संतुलन में लाना के बारे में ही योग बताता है । लगभग 15,000 साल पहले, आदियोगी शिव संपूर्णता की इस स्थिति तक पहुंचे थे। वह इतने स्थिर हो गए थे कि उन्हें देखने वाले यह तय नहीं कर पाते थे कि वह जीवित हैं या नहीं। उनके भीतर जीवन की एकमात्र निशानी थी – उनके गालों पर लुढकते परमानंद के आंसू ।

          आदियोगी संपूर्ण स्थिरता की इस स्थिति से निकलकर अचानक उन्माद में नृत्य करने लगे। यह तांडव दर्शाता था कि उनके भीतर की संपूर्ण ज्यामिति उनके लिए कोई बाधा नहीं थी, उन्हें एक जगह बैठने की जरूरत नहीं थी। वह पूरी उन्मुक्तता से बावलों की तरह नृत्य करते हुए भी अपने और विशाल ब्रह्मांडीय प्रकृति के साथ संपूर्ण संतुलन को खोते नहीं थे। यह तांडव एक आनंदमय अभिव्यक्ति है – भाव, राग, ताल और ब्रह्मांडीय प्रकृति के बीच संतुलन और संपूर्णता की।

          भाव आतंरिक अनुभव है, राग सृष्टि द्वारा निर्धारित सुर हैं और हर व्यक्ति को जिस रिद्म को हासिल करना होता है, उसे ताल कहते हैं। भाव कई तत्वों का एक नतीजा है। राग स्रृष्टा ने उत्पन्न किए हैं। लेकिन अगर आपको सही ताल मिल जाए, तो पागलों की तरह नाचने के बावजूद आप बाकी ब्रह्मांड के साथ संपूर्ण संतुलन में होते हैं। बहुत से योगियों, साधु-संतों और शिव के सभी भक्तों ने इस संभावना का प्रदर्शन भी किया है। योग का अर्थ होता है मेल। जब अपने शरीर और भावनाओं की सीमाओं में कैद कोई व्यक्ति अपने भीतर एक तरह की संपूर्णता को प्राप्त कर लेता है, जहां अपने अनुभव में वह हर चीज के साथ एक हो जाता है, तो वह योग की स्थिति में होता है।

          यह संभावना हर मनुष्य के भीतर एक बीज के रूप में होती है। अगर आप कोशिश करें तो आप अपने भीतर पूरे ब्रह्मांड को महसूस कर सकते हैं। योग की इस अवस्था को लेकर बहुत सारी कहानियां प्रचलित रही हैं। जैसे, यशोदा का कृष्ण के मुंह में ब्रह्मांड को देखना या पूरे ब्रह्मांड को शिव के शरीर के रूप में देखना। योग की अवस्था का मतलब सिर के बल या एक पांव पर खड़ा होना नहीं है। योग का मतलब मेल की स्थिति में होना है। ज्यामिति की यह पूर्णता बहुत तरीकों से पाई जा सकती है।

          बुद्धि से, भावना से, ऊर्जा से, कार्य की शुद्धता से और सबसे बढ़कर भक्ति से – ये सब बेफिक्री या उन्मुक्तता की स्थिति तक आने के टूल्स हैं। जब आप अपने व्यक्तित्व को छोड़ देते हैं तो आप बाकी ब्रह्मांड के साथ मेल की स्थिति में होते हैं। वैसे भी आपका व्यक्तित्व तो बस कर्मों का एक ढेर होता है। इंसान की संपूर्णता की भावना थोड़ी सी बढ़ जाती है, जब वह मेल महसूस करता है। अगर मेल की यह चाह शारीरिक होती है, तो वह कामुकता कहलाती है।

          अगर हम उसे भावनाओं में व्यक्त करते हैं, तो उसे प्रेम या करुणा कहते हैं। अगर संपूर्णाता को बढ़ाने की वही चाह मानसिक रूप से व्यक्त हो तो उसे कामयाबी, विजय, या इन दिनों शॉपिंग कहा जाता है। लेकिन अगर वह अपने अस्तित्व की एक स्थायी अभिव्यक्ति हो तो उसे हम योग कहते हैं। मेल की चाह हमेशा होती है। चाहे कोई धन-दौलत, कामयाबी, आनंद या नशा, किसी भी चीज के पीछे भाग रहा हो, वह बस मेल की चाह के कारण भाग रहा होता है। लेकिन ये सब मेल के बेअसर तरीके होते हैं।

          योग किसी चीज के खिलाफ नहीं होता है, सिवाय अयोग्यता या प्रभावहीनता के। हम इंसान पृथ्वी पर विकास के शिखर पर रहे हैं, इसलिए हमसे थोड़ी बुद्धि और निपुणता से काम करने की उम्मीद की जाती है। सदियों से लोगों ने उन तरीकों से मेल की स्थिति तक पहुंचने की कोशिश की है, जिनसे वो कभी कामयाब नहीं हुए। मैं चाहता हूं कि आप सब अपने मन में यह शपथ लें कि हमारी पीढ़ी एक स्थायी तरीके से काम करेगी। अगर हम मेल हासिल करें तो वह स्थायी हो। आप सब को अपने हृदय और मन की गहराई तक इस बात को उतारना होगा।


7-सात्विक प्रकृति से जीवन में स्थिरता और शुद्धता आती है

         “कोई भी भौतिक चीज इन तीन आयामों – सत्व, रजस और तमस के बिना नहीं होती। हर अणु में ये तीन आयाम होते हैं – कंपन का, ऊर्जा का और एक खास स्थिरता का। अगर ये तीनों तत्व ना हों, तो आप किसी चीज को थाम कर नहीं रख सकते, वह बिखर जाएगी। अगर आपके अंदर सिर्फ सत्व गुण होगा, तो आप एक पल के लिए भी बचे नहीं रहेंगे – आप खत्म हो जाएंगे।

          अगर सिर्फ रजस गुण होगा, तो वह किसी काम का नहीं होगा। अगर सिर्फ तमस होगा, तो आप हर समय सोते ही रहेंगे। इसलिए हर चीज में ये तीनों गुण मौजूद होते हैं। सवाल सिर्फ यह है कि आप इन तीनों को कितनी मात्रा में मिलाते हैं। तामसी प्रकृति से सात्विक प्रकृति की ओर जाने का मतलब है कि आप स्थूल शरीर, मानसिक शरीर, भावनात्मक शरीर और ऊर्जा शरीर को स्वच्छ कर रहे हैं।

          अगर आप उसे इतना स्वच्छ कर दें कि उससे आर-पार दिखने लगे, तो आप अपने भीतर मौजूद सृष्टि के स्रोत को देखने से नहीं चूक सकते। फिलहाल, वह इतना अपारदर्शी है, इतना धुंधला है, कि आप उससे आर-पार देख नहीं सकते। शरीर एक ऐसी दीवार बन गया है, जो हर चीज का रास्ता रोक रहा है। इतनी अद्भुत चीज, सृष्टि का स्रोत यहां, शरीर के भीतर मौजूद है लेकिन यह दीवार उसका रास्ता रोक देती है क्योंकि वह बहुत अपारदर्शी है, धुंधली है। अब उसे साफ करने का समय आ गया है। वरना आप सिर्फ दीवार को जान पाएंगे, यह नहीं जान पाएंगे कि उसके अंदर कौन रहता है।


8-अगर आपमें राजसी प्रकृति की ऊर्जा है तो सही दिशा में उसका उपयोग करें

          पृथ्वी, सूर्य और चंद्रमा – ये वो तीन खगोलीय पिंड हैं, जिनका हमारे शरीर के निर्माण से गहरा संबंध है। धरती माता को तमस माना गया है। सूर्य की प्रकृति रजस है। चंद्रमा को सत्व प्रकृति का माना जाता है। तमस पृथ्वी और आपके जन्म की प्रकृति है।

          आप जिस पल जन्म लेते हैं और हलचल शुरू करते हैं, रजस शुरू हो जाता है। रजस तत्व के सक्रिय होने के बाद आप कुछ करना चाहते हैं। एक बार कुछ करना शुरू करने के बाद, अगर कोई चेतनता या जागरूकता न हो, तो जब तक आपके साथ सब कुछ ठीक चल रहा होता है, तब तक रजस अच्छा होता है। जैसे ही परिस्थिति बिगड़ती है, रजस बहुत बुरा साबित हो सकता है। राजसी प्रकृति वाले इंसान में बहुत ऊर्जा होती है। बस उसे सही दिशा में लगाने की जरूरत होती है।

          आप जो कुछ भी करते हैं, वह या तो मुक्ति की प्रक्रिया हो सकती है या फिर बंधन या उलझाव की।अगर आप किसी काम को पूरी तत्परता और अपनी खुद की इच्छा से करते हैं, तो वह काम खूबसूरत होता है और आपको आनंद देता है। अगर आप किसी भी वजह से बेमन से से कोई काम करते हैं, तो वह काम आपके लिए दुख ले कर आता है। आप चाहे कोई भी काम करें, भले ही आप फर्श पर झाड़ू लगा रहे हों, उस काम में खुद को समर्पित कर दें और पूरे मन से उस काम को करें। बस इतना ही करना है।

          जब आप किसी काम में पूरे जुनून से जुटे होते हैं, तो आपके लिए बाकी चीजों का कोई अस्तित्व ही नहीं होता। जुनून या दीवानगी का मतलब पुरुष और स्त्री के बीच की दीवानगी नहीं है। जुनून का मतलब है, किसी काम में पूरे हद तक लग जाना। वह कोई भी काम हो सकता है, आप पूरे जुनून से गा सकते हैं, आप जुनून से नाच सकते हैं या आप पूरे जुनून से सिर्फ चल भी सकते हैं।

          आप फिलहाल जिस चीज के भी संपर्क में हैं, उससे पूरे जज्बे के साथ जुड़े हुए हैं। आप उत्साह से सांस लेते हैं, आप उत्साह से चलते हैं, आप उत्साह से जिंदगी जीते हैं। आपका अस्तित्व हर चीज के साथ पूरी तरह जुड़ा हुआ है।


9-साधना कैसे करें तेजी से अथवा सहज भाव से

          किसी चीज को तीव्रता से करने की कोई जरूरत नहीं है। जब आप कहते हैं कि मैं कोई चीज बेहद तीव्रता से कर रहा हूं तो आपके कहने का मतलब होता है कि आप उस चीज के पीछे पागल की तरह लगे हैं। स्वयं में तीव्रता लानी चाहिए, आपको यह देखना चाहिए कि अपने अस्तित्व, अपने मस्तिष्क व अपने वजूद में तीव्रता कैसे लायी जा सकती है।

          अगर आप इसको बेहद तीव्र बना लेते हैं, तो आप जो भी करेंगे, उसके अंदर तीव्रता, प्रचंडता व प्रबलता होगी। लेकिन अगर आप चीजों को तीव्रता से करने के चक्कर में पड़े रहेंगे तो जान लीजिए आप बेवकूफी कर रहे हैं। साथ ही, ऐसा करते-करते आप बुरी तरह थक भी सकते हैं। इसलिए किसी चीज को बेहद तीव्रता से करने की जगह आवश्यक यह है कि हम अपने आप को तीव्र और जीवंत बनाएं।

          अगर हम ऐसा कर पाए तो हम जो भी काम करेंगे, उसमें सहजता और तीव्रता दोनों एक साथ होंगी। बिना सहजता के अगर तीव्रता आ भी गई तो वह बहुत थकाऊ होगी।

10-भूतशुद्धि: भरपूर सुख शांति की विधि

          सारा ब्रह्मांड और हमारा शरीर पांच तत्वों से मिलकर बना है। अगर ये पाँचों तत्व हमारा साथ दें तो हम अपने शरीर और मन को स्वस्थ और शांत कर सकते हैं। शरीर मूल रूप से पांच तत्वों – जल, पृथ्वी, वायु, अग्नि और आकाश का एक खेल है। भारत में शरीर को पंचतत्वों का एक पुतला कहा गया है। शरीर की बनावट में, 72% पानी, 12% पृथ्वी, 6% वायु, 4% अग्नि है और बाकी का 6% आकाश है।

          ‘भूतशुद्धि’ का मतलब भौतिकता से मुक्त होना भी है। ये पंचतत्व आपके भीतर किस तरह काम करते हैं, यह आपके बारे में सब कुछ तय कर देता है। ‘भूत’ का मतलब होता है तत्व, और ‘भूतशुद्धि’ का मतलब है तत्वों की गंदगी खत्म करना। इसका अर्थ भौतिकता से मुक्त होना भी है। योग में भूतशुद्धि एक बुनियादी साधना है जो उस आयाम के लिए हमें तैयार करती है जो भौतिक या शरीर की सीमाओं से परे है।प्राकृतिक तरीके से भूतशुद्धि करने के लिए आप कुछ आसान सी चीजें कर सकते हैं।

         यह सबसे उत्तम भूतशुद्धि नहीं है, मगर आप अपने पंचतत्वों की थोड़ी-बहुत शुद्धि कर सकते हैं।

जल-----
              पांच तत्वों में सबसे बड़ा मामला जल का है। आपको जल पर बहुत ध्यान देना चाहिए क्योंकि वह शरीर में 72% है।जल जिस भी चीज़ के संपर्क में आता है उसके गुणों को अपने भीतर याद रखता है। जल को शुद्ध करने के लिए आप उसमें नीम या तुलसी की कुछ पत्तियां डाल दें। इससे रासायनिक अशुद्धियां तो नहीं हटेंगी, लेकिन इससे जल बहुत जीवंत और ऊर्जावान हो जाएगा।

          अगर आप सीधे नल से पानी पीते हैं, तो आप एक खास मात्रा में जहर पी रहे हैं। अगर आप इस जल को तांबे के एक बरतन में दस से बारह घंटे तक रखें, तो उस नुकसान की भरपाई हो सकती है।

धरती-----
           धरती हमारे शरीर में 12% होती है।भोजन आपके शरीर में किस तरह जाता है, किसके हाथों से आपके पास आता है, आप उसे कैसे खाते हैं, उसके प्रति आपका रवैया कैसा है, ये सब चीजें महत्वपूर्ण हैं। सबसे बढ़कर, जिस भोजन को आप खाते हैं, वह जीवन का अंश होता है।

          हमारा भरण – पोषण करने के लिए जीवन के दूसरे रूप अपने आप को खत्म कर रहे हैं। अगर हम जीवन के उन सभी अंशों के प्रति बहुत आभारी होते हुए भोजन करें, जो हमारे जीवन को बनाए रखने के लिए अपना जीवन त्याग रहे हैं, तो भोजन आपके भीतर बहुत अलग तरीके से काम करेगा।बस नंगे पांव अपने बगीचे में रोजाना एक घंटे तक चलें,जहां कीड़े-मकोड़े और कांटें न हों,एक सप्ताह के भीतर आपका स्वास्थ्य काफी बेहतर हो जाएगा। इसे आजमा कर देखें। इतना ही नहीं,अपने ऊंचे बिस्तर के बदले फर्श पर सो कर देखें,आपको बेहतर स्वास्थ्य का एहसास होगा।

वायु------
          वायु हमारे शरीर में 6% है। उसमें 1% से भी कम आप अपनी सांस के रूप में लेते हैं। बाकी आपके अंदर बहुत से रूपों में घटित हो रही है। आप जिस हवा में सांस लेते हैं, सिर्फ वही आपको प्रभावित नहीं करती, आप उसे अपने भीतर कैसे रखते हैं, यह भी महत्वपूर्ण है। आपको उस 1% का ध्यान रखना चाहिए। लेकिन अगर आप किसी शहर में रह रहे हैं, तो सांस के रूप में शुद्ध हवा लेना आपके बस में नहीं है। पार्क में या झील किनारे टहलने जाएं।

          खास तौर पर अगर आपके बच्चे हैं, तो यह बहुत जरूरी है कि आप कम से कम महीने में एक बार उन्हें बाहर घुमाने ले जाएं – सिनेमा या ऐसी किसी जगह नहीं। क्योंकि उस हॉल के बंद दायरे में सीमित वायु उन सभी ध्वनियों और भावनाओं से प्रभावित होती हैं जो परदे के ऊपर या लोगों के दिमागों में उभरते हैं। उन्हें सिनेमा ले जाने की बजाय, नदी के पास ले जाएं, उन्हें तैरना या पहाड़ पर चढ़ना सिखाएं।

          इसके लिए आपको हिमालय तक जाने की जरूरत नहीं है। छोटा सा टिला भी किसी बच्चे के लिए एक पहाड़ है। यहां तक कि एक चट्टान से भी काम चल सकता है। किसी चट्टान पर चढ़कर बैठें। बच्चों को खूब मजा आएगा और उनका स्वास्थ्य अच्छा होगा। आप भी स्वस्थ हो जाएंगे, आपका शरीर और मन अलग तरीके से काम करेगा। खुली हवा में खड़े होकर वायु स्नान करें आपकी सेहत भी अच्छी हो जाएगी, साथ ही आपका शरीर और दिमाग अलग तरह से काम करने लगेगा।

          और सबसे बड़ी बात यह होगी कि इस तरह आप सृष्टि के संपर्क में होंगे, जो सबसे महत्वपूर्ण चीज है। आप इस बात का भी ध्यान रख सकते हैं कि आपके अंदर किस तरह की अग्नि जलती है।हर दिन अपने शरीर पर थोड़ी धूप लगने दें, क्योंकि धूप अब भी शुद्ध है। खुशकिस्मती से उसे कोई दूषित नहीं कर सकता। आपके अंदर किस तरह की आग जलती है- लालच की आग, नफरत की आग, क्रोध की आग, प्रेम की आग या करुणा की आग, अगर आप इस बात का ख्याल रखें, तो आपको अपने शारीरिक और मानसिक कल्याण के बारे में चिंता करने की जरूरत नहीं है। वह अपने आप हो जाएगा।

          आकाश सृष्टि और सृष्टि के स्रोत के बीच एक मध्य स्थिति है।अगर हम बाकी चार तत्वों को ठीक ढंग से रखें, तो आकाश खुद अपना ध्यान रख लेगा। अगर आप जानते हैं कि अपने जीवन में आकाश का सहयोग कैसे लेना है, तो आपका जीवन आनंदमय हो जाएगा। हर रोज आकाश की ओर देखें और शीश नवाएं


11-खुद पैदा करें अपनी हंसी-खुशी

          होसी-खुशी के बारे में आपका कोई विचार नहीं होना चाहिए। आपको बस खुश रहना चाहिए। चार्ल्स डार्विन ने बताया था कि आप बंदर थे। धीरे-धीरे आपकी पूंछ गायब हो गई और आप इंसान बन गए। पूंछ तो गायब हो गई, लेकिन क्या आपकी बंदर वाली आदतें भी खत्म हुई हैं? आपके और चिम्पैंजी के डीएनए में बस 1.23% का ही फर्क है। जाहिर है, बंदरों के गुण अब भी इंसानों में मौजूद हैं। बहुत पुरानी बात है। एक आदमी था, जिसका नाम था टोपीवाला। वह टोपी बेचता था। गर्मियों की दोपहर थी।

         काम करते-करते वह थक गया, और एक पेड़ के नीचे बैठ गया। उसने अपना खाना खोला और खाने लगा। खाना खाकर उसकी आंख लग गई। आंख खुली तो उसने देखा कि उसकी सारी टोपियां गायब हैं। जब आपको कुछ समझ नही आता कि क्या किया जाए – तो आप क्या करते हैं? ऊपर देखते हैं, ऊपरवाले की याद आती है आपको। खैर, इस टोपीवाले ने भी ऊपर देखा। वह क्या देखता है – कुछ बंदर उसकी टोपियां पहने बैठे हैं। वह उन बंदरों पर चिल्लाया। बंदर भी उस पर चिल्लाए। उसने ईंट के टुकड़े बंदरों पर मारे। बंदरों ने भी इन टुकड़ों को उसकी तरफ वापस फेंका। परेशान होकर टोपीवाले ने अपने टोपी उतारी और जमीन पर फेंक दी। बस फिर क्या था, बंदरों ने भी अपनी-अपनी टोपियां उतारकर जमीन पर फेंक दीं। उस घटना के कई सालों बाद ऐसी ही दूसरी घटना घटी। ऐसे ही एक और टोपीवाला टोपियां बेचने जा रहा था। गर्मी से परेशान होकर वह भी पेड़ के नीचे बैठ गया। इस टोपीवाले के साथ भी कुछ वैसा ही हुआ जैसा सालों पहले उस टोपीवाले के साथ हुआ था। इसकी भी टोपियां बंदर आ कर ले गए। उसने अपने पूर्वजों से वह कहानी सुन रखी थी, इसलिए वह उठा और उसने बंदरों को मुंह चिढ़ाना शुरू कर दिया। बंदरों ने भी उसे बदले में मुंह चिढ़ा दिया। टोपीवाले ने उन बंदरों के साथ खूब मजाक किया। अंत में उसने अपनी टोपी उतारी और जमीन पर फेंकदी। इतने में एक बड़ा बंदर नीचे उतरकर आया, टोपी उठाई और टोपीवाले के पास पहुंचा। टोपीवाले के गाल पर एक जोरदार तमाचा जड़कर बंदर बोला, ‘मूर्ख, तुझे क्या लगता है, कि बस तेरे ही दादा थे।’

          दरअसल, हम दूसरों को देखकर अपनी खुशी तय करने लगते हैं। यूं ही किसी राह चलते शख्स को देखकर हमें लगता है, कि यह वाकई खुश है। बस हम उसी की तरह हो जाना चाहते हैं, और फिर नतीजा होता है – निराशा। कुछ समय बाद हमें लगता है, कि साइकल पर चलने वाला शख्स खुश है। हम साइकल पर चलना शुरू कर देते हैं और कुछ दिन बाद ही निराश होने लगते हैं। फिर हमें लगता है कि जो लोग कार में चल रहे हैं, असल में वे खुश हैं और कार में चलना ही असल मायनों में खुशी है। हो क्या रहा है? दूसरों को देखकर हमें लगता है, कि उनके जैसे काम करके हम खुश हो सकते हैं। इसमें कोई दो राय नहीं कि खुशी के लिए कुछ बाहरी तत्व प्रेरक का काम करते हैं।

          लेकिन सच यही है कि खुशी हमेशा हमारे अंदर से ही आती है। ऐसा नहीं होता कि बाहर कहीं से किसी ने आप पर खुशी की बारिश कर दी। कल्पना कीजिए, 1950 में आपने अपने लिए एक कार खरीदी। कार के साथ आपको दो नौकर भी रखने पड़े, क्योंकि कार धक्का लगाने से स्टार्ट होती थी। आज सब कुछ सेल्फ स्टार्ट होता है। अब आप ही बताइए कि आप अपनी खुशी, अपनी सेहत, शांति और सुख संपन्नता को सेल्फ स्टार्ट करना चाहते हैं, या पुश स्टार्ट? अगर यह सेल्फ स्टार्ट है तो आप यह नहीं पूछेंगे कि खुशी क्या है, क्योंकि आप जानते हैं कि आपके भीतर खुश रहने की क्षमता है। वैसे मेरे काम का एक महत्वपूर्ण हिस्सा यही है – हर किसी को सेल्फ स्टार्ट पर रखना।

          इसका अर्थ है लोगों के लिए खुश होने की तकनीक को बेहतर बनाते जाना। क्या आपको कोई ऐसा शख्स मिला है जिसके बारे में आप कह सकें कि वह बिल्कुल वैसा ही है जैसा आप चाहते हैं? आपमें से कई छात्र इतने रोमांटिक होंगे कि सोचते होंगे, कि किसी न किसी दिन उन्हें कोई न कोई ऐसा अवश्य मिलेगा, जो सौ फीसदी बिल्कुल ऐसा होगा जैसा कि वे चाहते हैं। अगर वह 51 फीसदी भी आपके मुताबिक है, तो यह बहुत बढ़िया है। लेकिन कई लोग महज 10 फीसदी ही होंगे। ऐसे में संघर्ष करना होगा।

          दरअसल, दुनिया में ऐसा कोई भी शख्स नहीं है, जो बिल्कुल आपके मुताबिक चले। तो अगर आपकी खुशी अपने इर्द-गिर्द मौजूद लोगों के हाथों में है तो इस बात की संभावना बेहद कम है कि आप खुश रह सकें। एक बार मैं प्रिंसटन यूनिवर्सिटी में बोल रहा था। यूनिवर्सिटी एक ऐसी जगह होती है जहां लोगों के चेहरे बेहद गंभीर होते हैं। हो सकता है, यह उनके ज्ञान का बोझ हो, जो उनके चेहरों को बोझिल बना देता है। वहां हर कोई बड़ी गंभीरता के साथ बैठा था। इन लोगों के बीच दो युवा चेहरे ऐसे भी थे, जिनके चेहरे पर मुस्कराहट थी।

          मैंने कहा, ’30 साल से ज्यादा उम्र के इन लोगों को क्या हुआ।’ एक महिला खड़ी हुई और बोली, ‘ये सभी शादी शुदा हैं।’ ज्यादातर लोगों के साथ ऐसा ही होता है। जैसे-जैसे उनकी उम्र बढ़ती जाती है, उनके चेहरे से रौनक गायब होने लगती है। किसी सड़क के किनारे खड़े हो जाइए, और वहां से निकलने वाले लोगों को गौर से देखिए और ढूंढिए कि आपको कितने चेहरों पर आनंद दिखाई देता है। अगर आपको कोई आनंदित चेहरा दिखेगा भी तो आमतौर पर वह युवा होगा। वैसे आजकल युवा भी गंभीर और तनाव से भरे दिखाई देते हैं। जैसे-जैसे उनकी उम्र बढ़ती जाती है, वे और गंभीर होते जाते हैं।

          ऐसा लगता है जैसे कब्र की तैयारी करने की उन्हें बड़ी जल्दी है। कब्र की तैयारी किसी और को करनी चाहिए, आपको नहीं। अभी मुझसे किसी ने पूछा, ‘सद्‌गुरु आप कैसे हैं?’ मैंने कहा, ‘मैंने तय किया है कि – या तो मैं बिल्कुल ठीक ठाक रहूंगा या फिर नहीं रहूंगा।’ हर इंसान ऐसा कर पाने में सक्षम है, बशर्ते उसने अपने अंदर सेल्फ स्टार्ट बटन का पता लगा लिया हो। खुशी कोई ऐसी चीज नहीं है, जो किसी खास काम को करने से पैदा होती हो। इसे देखने के तमाम तरीके हैं।

          सबसे आसान तरीका है रासायनिक प्रक्रिया यानी केमिस्ट्री को समझना। इंसान के हर अनुभव के पीछे एक रासायनिक आधार होता है। अगर आप शांति चाहते हैं तो एक निश्चित रासायनिक प्रक्रिया होती है। अगर आप आनंदित रहना चाहते हैं तो एक अलग तरह की रासायनिक प्रक्रिया होगी। यह पूरा मामला विज्ञान और तकनीक का है, जिसे आप अंदरूनी तकनीक भी कह सकते हैं। इसी तकनीक की मदद से आप अपने भीतर सही रासायनिक प्रक्रिया पैदा कर सकते हैं।

          परम आनंद की रासायनिक प्रक्रिया आपके जीवन के हर पल को परम आनंद से भर देगी। अच्छी बात यह है कि हर इंसान ऐसा कर पाने में सक्षम है, बशर्ते उसने अपने अंदर सेल्फ स्टार्ट बटन का पता लगा लिया हो। अगर ऐसा नहीं है तो हर वक्त किसी न किसी को आपको धक्का मार कर स्टार्ट करते रहना पड़ेगा। जीवन में चीजें इस तरह नहीं चलतीं कि, वे हमेशा आपके लिए लाभकारी ही हों। अगर आप चाहते हैं कि जीवन हमेशा आपके अनुसार चलता रहे तो यह तभी हो सकता है जब आप दुनिया में कुछ भी न करें।

          अगर आप चुनौतीपूर्ण स्थितियों का सामना कर रहे हैं, तो ऐसी तमाम चीजें होंगी जो आप नहीं चाहते। और अगर ये परिस्थितियां आपको कष्टों में डाल रही हैं, तो जाहिर है – धीरे धीरे आप अपने जीवन के दिन कम कर रहे हैं। कष्टों के डर ने पूरी मानवता को जकड़ लिया है। अब वक्त आ गया है कि इंसान अपने भीतर एक ऐसी रासायनिक प्रक्रिया पैदा करे या एक ऐसा सॉफ्टवेयर प्रोग्राम तैयार करे कि कष्टों के प्रति उसका डर खत्म हो जाए। कष्टों का डर ख़त्म होने से आनंद में जीना ही उसका स्वभाव बन जाएगा और तभी इंसान अपनी पूर्ण क्षमता को जानने के लिए स्वयं को दांव पर लगा सकेगा।


12-अभिमान का कहर क्या है

          सबसे बड़ी मूर्खता क्रोध, घृणा, लोभ या अभिमान? बेशक क्रोध जलाता है तुम्हें और बनता है कारण दूसरों की पीड़ा व मौत का। घृणा प्रतिनिधि है क्रोध का अधिक प्रत्यक्ष व विनाशक किन्तु है संतान क्रोध की। ऐसा प्रतीत होता है कि नहीं लेना देना कुछ लोभ का इन दोनों से पर यही उपजाता है क्रोध व घृणा उन सबके प्रति जो आड़े आते हैं, लोभ की उस ज्वाला के जो नहीं होती तृप्त कभी क्योंकि है नहीं कुछ ऐसा जो लोभ के उदर को भर सके। अभिमान यद्यपि दिखता है दिलकश और बनाता है इंसान को ढीठ, पर अहम भूमिका निभाता है नष्ट करने में मानवता की सभी संभावनाओं को।

          यह अभिमान ही है जो चढ़ा देता है इंसान को उस मंच पर, जहां छली जाती है हकीकत जो बना देता है झूठ को भी यथार्थ असत्‍य को भी सत्‍य। क्रोध, घृणा व लोभ को चाहिए अभिमान का एक रंगमंच जहां खेल सकें ये अपना नाटक। अभिमान है कांटों का एक ताज जिसको पहनकर पीड़ा भी लगती है सुखद अभिमान माया है, जीवन का भ्रम है अज्ञान का शुद्धिकरण नहीं ले जाता आत्मज्ञान की शरण में -

Monday, April 6, 2015

सत्य के निकट की दृष्टि

1-अपनी छवि बनाइये

 
            हर इंसान, अपने जीवन में जाने-अनजाने अपनी एक खास छवि, एक खास शख्सियत बनाता है। अपने अंदर गढ़ी गई छवि का असलियत से कोई लेना-देना नहीं है। इसका आपके अस्तित्व, आपकी भीतरी प्रकृति से कोई संबंध नहीं है। यह एक खास छवि है, जो आपने खुद, बहुत हद तक अनजाने में, बनाई है। बहुत कम लोगों ने पूरी चेतनता में अपनी छवि बनाई है। बाकी लोग जिस तरह के बाहरी हालातों में फंसते हैं, उसके अनुसार अपनी छवि बना लेते हैं। इससे पहले कि हम कोई छवि बनाएं, हमें यह देखना चाहिए कि हम अब जो छवि तैयार करना चाह्ते हैं, या तैयार करने जा रहे हैं, क्या वह हमारी मौजूदा छवि से बेहतर है। तो क्यों नहीं पूरी जागरूकता के साथ हम अपनी एक नई छवि बनाएं, जैसी छवि हम वाकई चाहते हैं?
 
          अगर आप बुद्धिमान हैं, अगर आप पर्याप्त रूप से जागरूक हैं, तो आप अपनी छवि को नया रूप दे सकते हैं, एक बिल्कुल नया रूप, जैसा आप चाहें। यह संभव है। मगर आपको पुरानी छवि छोडऩे के लिए तैयार रहना चाहिए। यह कोई झूठा दावा नहीं है। ऐसा करने के लिए आपको अनजाने में काम करने की बजाय, चेतन होकर काम करना होगा। आप अपनी ऐसी छवि बना सकते हैं, जो आपके लिए सबसे बेहतर हो, जो आपके आस-पास सबसे अधिक सामंजस्य और तालमेल पैदा करे, जिस तरह की छवि में सबसे कम टकराव हो।
 
          आप ऐसी छवि बना सकते हैं, जो आपकी भीतरी प्रकृति के सबसे नजदीक हो। किस तरह की छवि आपको अपनी अंदरूनी प्रकृति के सबसे करीब लगती है? कृपया ध्यान रखिए, अंदरूनी प्रकृति बहुत मौन होती है, वह बहुत प्रधान और वर्चस्व वाली नहीं होती मगर बहुत शक्तिशाली होती है। बहुत सूक्ष्म मगर बहुत शक्तिशाली। जो चीज़ें अपनी अंदरूनी प्रकृति की तरह नहीं हैं अपना गुस्सा, अपनी सीमाएं उन्हें हमें खत्म करने की जरूरत है। अपनी एक नई छवि बनाएं, जो सूक्ष्म हो मगर बहुत ही शक्तिशाली हो।
 
          अगले एक-दो दिन तक इसके बारे में सोचें और अपने लिए एक उपयुक्त छवि बनाएं, जो आपके विचारों और भावनाओं की मूलभूत प्रकृति होनी चाहिए। इससे पहले कि हम कोई छवि बनाएं, हमें यह देखना चाहिए कि हम अब जो छवि तैयार करना चाह्ते हैं, या कहें कि तैयार करने जा रहे हैं, क्या वह हमारी मौजूदा छवि से बेहतर है। ऐसे समय जब आप किसी भी वजह से शांत न हो सकें, पीठ पीछे टिकाकर आराम से बैठ जाएं। अब अपनी आंखें बंद करें और कल्पना करें कि दूसरे लोग आपके बारे में कैसा महसूस करें, आपको लेकर उनका अनुभव कैसा हो। एक बिल्कुल नया इंसान गढ़ें। उसे जितना संभव हो, उतनी बारीकी और विस्तार से देखें। देखें कि क्या यह नई छवि अधिक मानवीय, अधिक निपुण, अधिक प्रेममय है।
 
           इस नई छवि की कल्पना आप जितने प्रभावशाली ढंग से कर सकते हैं, करें। उसे अपने अंदर जीवंत बना दें। अगर आपके विचार पर्याप्त शक्तिशाली हैं, अगर आपकी कल्पना पर्याप्त प्रभावशाली है, तो वह कर्म के बंधनों को भी तोड़ सकती है। आप जो बनना चाहते हैं, उसकी एक शक्तिशाली कल्पना करते हुए कर्म की सीमाओं को तोड़ा जा सकता है।यह विचार, भावना और कर्म की सभी सीमाओं से परे जाने का मौका है।
 
 

2-आपने ध्वनि को नहीं देखा होगा मगर ध्वनि को देख सकते हैं आप

 
          ध्वनि को सिर्फ सुन ही नहीं सकते, देख भी सकते हैं। जी हां, आप ध्वनि को देख सकते हैं। ध्वनि को देखने का, उसे महसूस करने का एक तरीका होता है, आइए जानते हैं उसके बारे में मूल रूप से अस्तित्व में तीन ध्वनियां हैं। इन तीन ध्वनियों से, अनगिनत ध्वनियां पैदा की जा सकती हैं। ये ध्वनियां हैं- 'अ, 'उ और 'म, अर्थात् अकार, उकार और मकार। ध्वनि का मतलब है आवाज।
 
          जब आप किसी ध्वनि का उच्चारण करते हैं तो उस ध्वनि के साथ आप जिस आकृति या रूप का इस्तेमाल करते हैं, वे दोनों आपस में कई तरीके से जुड़े होते हैं। और यही बात मंत्रों के साथ भी है। मंत्र एक ध्वनि होता है, एक पवित्र ध्वनि। और यंत्र का अर्थ है उस ध्वनि से संबंधित आकृति। जिन लोगों ने भौतिकी पढ़ी है, उन्हें यह बात बड़ी आसानी से समझ आ जाएगी। अगर आपने हाईस्कूल तक भी भौतिकी पढ़ी है तो भी आपने एक पाठ तो ध्वनि से संबंधित जरूर पढ़ा होगा।
 
          ध्वनि मापने का एक यंत्र होता है दोलनदर्शी। अगर आप किसी दोलनदर्शी में किसी तरह की ध्वनि भेजें तो यह ध्वनि अपनी कुछ ख़ास गुणों जैसे कि आवृति, आयाम आदि के मुताबिक हर बार यह एक खास आकृति पैदा करेगा। कहने का मतलब यह है कि हर ध्वनि के साथ एक आकृति भी जुड़ी होती है। इसी तरह हर आकृति के साथ एक ध्वनि जुड़ी है। तो जब आप किसी ध्वनि को देखें जी हां, आप ध्वनि को देख सकते हैं, सुनने के मामले में इंसान की सीमा है, वह एक खास स्तर की आवृति वाली ध्वनियों को ही सुन सकता है। यह बहुत छोटी रेंज है। ध्वनि को देखने का, उसे महसूस करने का एक तरीका होता है।
 
          बोध के इस आयाम को योग में 'ऋतंभरा प्रज्ञा कहा जाता है। इसका अर्थ है कि आप ध्वनि को सिर्फ सुन ही नहीं सकते, देख भी सकते हैं। यहां ऐसी बहुत सी ध्वनियां हैं, जिन्हें आप सुन नहीं सकते, लेकिन आप देख सकते हैं, आप उसे महसूस कर सकते हैं। उदाहरण के लिए कोबरा बिल्कुल बहरा होता है, लेकिन वह हर ध्वनि को महसूस कर पाता है। क्योंकि उसके पेट का पूरा हिस्सा धरती से सटा होता है और वह हर चीज को महसूस करता रहता है।
 
          अगर कोई ऋतंभरा प्रज्ञा की अवस्था में आ जाता है, तो उस स्थान की प्रतिध्वनि में एक तरह का पैटर्न बन जाता है और अगर आप इसे थोड़ा सा ट्यून कर लें तो वह ध्वनि बन जाएगी।एक बात कहने में मैं थोड़ा हिचक रहा हूं। यह बड़ी समस्या है कि आध्यात्मिक रास्ते पर चल रहे लोग हर तरह की चीजों को सुनना शुरू कर देते हैं। तो जब लोग मेरे पास आकर बताते हैं कि मुझे यह सुनाई देता है, मुझे वह सुनाई देता है, तो मैं उनसे कहता हूं कि आप जाइए, आपको इलाज की जरूरत है। लेकिन हमेशा ऐसा नहीं होता। अगर आप एक खास तरह से ध्यान की अवस्था में आ जाएं तो अचानक ही आवृति की वह रेंज जिसे आप सुन सकते हैं, बदल जाती है और आप कुछ ऐसा सुनना शुरू कर सकते हैं, जो कोई और नहीं सुन रहा है। ऐसा संभव है।
 
          अब यह कह कर मैं एक 'खतरनाक जोन में घुस गया हूं। अब अचानक ऐसे तमाम लोग पैदा हो जाएंगे, जो आज रात को कई तरह की ध्वनियों को सुनना शुरू कर देंगे। तो कल सुबह अगर कोई आपको बताए कि मैंने कुछ सुना है तो आप समझ सकते हैं कि उनकी समस्या क्या है। तो अगर आप ध्वनि को ध्यान से देखें और उसके पैटर्न को समझें तो आप पाएंगे कि यह हमेशा ही एक खास आकृति के साथ जुड़ी है।
 
          अगर कोई ऋतंभरा प्रज्ञा की अवस्था में आ जाता है, तो उस स्थान की प्रतिध्वनि में एक तरह का पैटर्न बन जाता है और अगर आप इसे थोड़ा सा ट्यून कर लें तो वह ध्वनि बन जाएगी। आपने नाद ब्रह्म गीत सुना होगा। 'नाद का अर्थ है, ध्वनि। 'ब्रह्म का अर्थ है चैतन्य, जो सर्वव्याप्त है। मूल रूप से अस्तित्व में तीन ध्वनियां हैं। इन तीन ध्वनियों से, अनगिनत ध्वनियां पैदा की जा सकती हैं। ये ध्वनियां हैं: 'अ, 'उऔर 'म, अर्थात् अकार, उकार और मकार। अगर आप अपनी जीभ काट भी दें, तब भी आप ये तीन ध्वनियां निकाल सकते हैं। कोई भी दूसरी ध्वनि निकालने के लिए जीभ का इस्तेमाल करना होगा। जीभ इन तीनों ध्वनियों को मिश्रित करके सभी दूसरी तरह की ध्वनियां पैदा करती है।
 
          अब अगर आप इन तीन ध्वनियों का उच्चारण एक साथ करते हैं तो आप क्या पाएंगे? 'ऊं किसी धर्म विशेष का प्रतीक नहीं है, हालांकि हो सकता है कि कोई धर्म इसका प्रयोग एक प्रतीक के रूप में कर रहा हो। 'ऊं अस्तित्व की एक मौलिक ध्वनि है।
 
 

3-प्रेम की सम्भावना

 
         ईसामसीह और ईसाई धर्म लगभग पर्यायवाची हैं। मगर 'ईश्वर के पुत्र के नाम पर, क्या हम उस असाधारण मानवता का मूलतत्व खो बैठे हैं, जिसके प्रतीक ईसामसीह थे। क्रिसमस के मौके पर सद्गुरु हमें याद दिला रहे हैं कि ईसामसीह की भावना को अपने दिल में लाने का क्या मतलब है। जब हम 'ईसामसीह की बात करते हैं, तो हम उस व्यक्ति की बात नहीं करते, जो 2000 साल पहले इस दुनिया में था, बल्कि एक खास संभावना की बात करते हैं, जो हर इंसान में मौजूद होती है।
 
          जब हम 'ईसामसीह की बात करते हैं, तो हम उस व्यक्ति की बात नहीं करते, जो 2000 साल पहले इस दुनिया में था, बल्कि एक खास संभावना की बात करते हैं, जो हर इंसान में मौजूद होती है। यह जरूरी है कि हर व्यक्ति इस गुण को अपने अंदर फलने-फूलने दे क्योंकि आज कल लोग धर्म के नाम पर एक-दूसरे की जान लेने पर तुले हैं। ईश्वर को पाने की चाह में, हम अपनी मानवता को खो रहे हैं।
 
          ईसामसीह की शिक्षा का सबसे अहम पहलू अपने-पराए का भेदभाव किए बिना, बगैर किसी पूर्वाग्रह या पक्षपात के जीवन बिताना है। तभी हम ईश्वर के साम्राज्य को जान सकते हैं। उ न्होंने साफ-साफ कहा, 'ईश्वर का साम्राज्य कहीं ऊपर नहीं है, वह आपके अंदर ही है। केवल अपने शुरुआती 'मार्केटिंग चरण में ईसामसीह ने आपको ईश्वर के साम्राज्य तक ले जाने की बात की। जब काफी लोग उनके आस-पास जुट गए, तो वह पलटे और कहा, 'ईश्वर का साम्राज्य आपके अंदर ही है। उनकी शिक्षा का सार यही है।
 
          बदकिस्मती से, 99 फीसदी लोग अपने अंदर मौजूद शानदार चीज को देख नहीं पा रहे हैं। अगर वह कहीं दूर होता, तो हो सकता है कि आप वहां तक का सफर नहीं करना चाहते। मगर जब वह यहीं है, और तब भी आप उससे चूक रहे हैं, तो क्या यह दुखद नहीं है? अगर ईश्वर का साम्राज्य आपके अंदर है, तो आपको उसे अपने अंदर ही ढूंढना चाहिए। यह इतनी ही सरल चीज है। निष्ठा की शिक्षा आपके भीतर उस आयाम, जो सृष्टि का स्रोत है, तक पहुंचने के वैज्ञानिक तरीके भी हैं, आपका शरीर अपने अंदर से ही बना है।
          ईसामसीह को अपने जीवन में विज्ञान पर विचार करने का पर्याप्त समय नहीं मिला, इसलिए उन्होंने निष्ठा की बात की, जो एक तेज तरीका है। जब उन्होंने कहा, 'केवल बच्चे ही ईश्वर के साम्राज्य में प्रवेश कर पाएंगे, तो वह छोटे बच्चों की बात नहीं कर रहे थे, वह ऐसे लोगों की बात कर रहे थे, जो बच्चों की तरह सरल और निश्छल हों, जो किसी भी चीज के बारे में पहले से धारणा बनाकर नहीं रखते और पक्षपात से मुक्त होते हैं। ईसामसीह की शिक्षा का सबसे अहम पहलू अपने-पराए का भेदभाव किए बिना, बगैर किसी पूर्वाग्रह या पक्षपात के जीवन बिताना है। तभी हम ईश्वर के साम्राज्य को जान सकते हैं।उन्होंने साफ-साफ कहा, 'ईश्वर का साम्राज्य कहीं ऊपर नहीं है, वह आपके अंदर ही है।
 
          आप जो भी निष्कर्ष निकालें, उसमें आप गलत हो सकते हैं क्योंकि जीवन आपके किसी निष्कर्ष में सही नहीं बैठता। जो इंसान बहुत सारे निष्कर्ष रखता है, उसके लिए न तो जीवन, न ही जीवन का स्रोत किसी रूप में मददगार होगा। अगर आप उस भार को नीचे रख देते हैं, तो सब कुछ बहुत सरल हो जाता है। उनके जीवन के अंत के समय, जब यह लगभग निश्चित हो गया था कि ईसामसीह को मृत्यु का सामना करना ही होगा, उनके शिष्यों के दिमाग में आने वाला इकलौता प्रश्न यह था कि 'जब आप अपना शरीर छोड़ेंगे और अपने पिता, अर्थात ईश्वर के साम्राज्य में जाएंगे, तो आप उनके दाहिनी ओर बैठेंगे।
 
          हम कहां होंगे? हममें से कौन आपके दाहिनी ओर बैठेगा? उनके गुरु, जिसे वे ईश्वर के पुत्र के रूप में देखते हैं, को एक भयानक मृत्यु का सामना करना है, और उनका सवाल यह है। मगर उस व्यक्ति की विशेषता देखिए, जो विशेषता उन्होंने पूरी जिंदगी प्रदर्शित की, चाहे हर कोई किसी भी रूप में उन पर दबाव डाल रहा हो, वह जो स्थापित करना चाहते हैं, उस लक्ष्य पर दृढ़ रहते हैं। तो वह जवाब देते हैं, 'जो लोग यहां सबसे आगे खड़े हैं, वे वहां पंक्ति में पीछे होंगे। जो लोग यहां सबसे पीछे खड़े हैं, वे वहां सबसे आगे होंगे। उन्होंने पदक्रम को नष्ट कर दिया, कि यह कुहनी मार कर स्वर्ग में घुसने की बात नहीं है।
 
          आंतरिक क्षेत्र में सिर्फ शुद्धता काम आती है। ईसामसीह की मूल भावना को जीवित रखें यह आस्थाओं और विश्वासों से परे जाकर जीवन को उस रूप में, जैसा वह वाकई है, देखने का समय है। आखिरकार, सृष्टि का स्रोत आपके अंदर है। अगर आप उसे काम करने दें, तो सब कुछ तालमेल में होगा, और उनकी शिक्षा का मूल आधार यही है। ईसामसीह के शब्द दुनिया में काफी बलिदान, भक्ति और प्रेम लाए हैं मगर उनके जीवन का सबसे महत्वपूर्ण पहलू, उनकी शिक्षा का सार और मूल भाव है, 'ईश्वर का साम्राज्य आपके अंदर है। अगर वह अंदर है, तो यह एक आध्यात्मिक प्रक्रिया है।
 
          एक आध्यात्मिक प्रक्रिया का मतलब कोई समूह, संप्रदाय या फैन क्लब नहीं है। यह एक व्यक्तिगत खोज है, जो पूर्व में योग और आध्यात्मिक प्रक्रिया का मूल तत्व है। दुर्भाग्यवश, ईसामसीह ने जो बातें कहीं, उसके सबसे महत्वपूर्ण तत्व भुला दिए गए हैं। अब उनके शब्दों के मूल तत्व को वापस लाने का समय है, किसी खास ग्रुप के लिए नहीं, बल्कि हर किसी के लिए। ईसामसीह की मूल भावना को जीवित रहने दें।
 
 

4-योगी और दिव्यदर्शी किसको कहेंगे

 
          दिव्यदर्शी के सम्बन्ध में हमारे सद्गुरु कहते हैं कि अगर आप चीजों को ठीक वैसे ही देख पा रहे हैं, जैसी वे हैं, तो दुर्भाग्य से आपको दिव्यदर्शी करार दिया जाता है मैंने अपने दिमाग को इस तरह से प्रशिक्षित किया है कि यह किसी भी चीज के बारे में मेरी कोई राय नहीं बनने दे। मैं जो देखता हूं, मैं देखता हूं, जो मैं नहीं देखता, नहीं देखता। ऐसे में मैं किसी भी चीज या किसी इंसान के बारे में कोई राय नहीं व्यक्त कर रहा हूं।
 
          मैं जिस चीज को साफ तौर पर जैसा देखता हूं, उसे वैसे ही देखता हूं। फिर मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता अगर बाकी दुनिया उसके बारे में कुछ और कह रही है। जो मैं नहीं देख पाता, मैं नहीं देखता। इस सृष्टि की बहुत सारी चीजों के बारे में मुझे कुछ नहीं पता, लेकिन जो मैं जानता हूँ, उसे मैं पूरी तरह से जानता हूं। तो यह स्पष्टता कई बार घमंड के रूप में भी बाहर आ सकती है। इस घमंड का विरोध आप अपने सवालों से करें, प्रतिक्रिया से नहीं। ठीक है? आखिर दिव्यदर्शी होता कौन है? सीधे तौर पर कहूं तो बात इतनी है कि जीवन की अपनी समझ या बोध के स्तर पर अगर आपने कोई गलती नहीं की है तो आप दिव्यदर्शी हैं।
 
          अगर आपकी समझ तमाम विचारों, भावों या पहचानों से प्रभावित नहीं है, अगर आप चीजों को ठीक वैसे ही देख पा रहे हैं, जैसी वे हैं, तो दुर्भाग्य से आपको दिव्यदर्शी करार दिया जाता है । और योगी कौन होते हैं?------ योग का अर्थ है जुडऩा। आज आधुनिक विज्ञान इस बात को साबित कर चुका है कि इंसानी शरीर के हर परमाणु का इस संपूर्ण सृष्टि के साथ हरदम लेन-देन हो रहा है। इस तरह से यह पूरी सृष्टि एक खास तरीके से आपस में जुड़ी हुई है।
 
          लेकिन आप सोचते हैं कि आप अलग हैं, आप एक अलग इकाई हैं। जब आप इस विचार को छोड़ देते हैं और जीवन के संपूर्ण एकत्व को अनुभव करने लगते हैं, तो इसे योग कहते हैं। योगी वह इंसान है जो इस जुड़ाव को अनुभव करता है। ना अपने विचार से, ना ज्ञान से और ना किसी शोध या प्रयोग से बल्कि अपने अनुभव से वह जानता है कि इस सृष्टि में जो भी हो रहा है, वह सब एक दूसरे से जुड़ा है।
 
          आप जो सांस छोड़ते हैं, उससे पेड़ सांस लेते हैं। पेड़ जो सांस छोड़ते हैं, वह आपके सांस लेने के काम आता है। ऐसे में आप पेड़ और इंसान को कभी भी अलग करके नहीं देख सकते। जब कोई व्यक्ति अपने अनुभव में इसे महसूस करने लगता हैं तो उसे योगी कहा जाता है।
 
 
6-प्यार हमारे हार्मोंन्स का हमारे साथ सडयंत्र है
 
          हम अपने जीवन में कई तरह के संबंध बनाते हैं। आपसी प्रेम ही हमारे सभी संबंधों में मिठास लाता है। क्या सभी संबंधों में पाए जाने वाले प्रेम में कुछ समानता होती हैं, या फिर एक रिश्ते का प्रेम दूसरे रिश्ते के प्रेम से बिलकुल अलग होता है? इस दुनिया में सबसे अधिक चर्चा रिश्तों पर होती है। पुरुष और स्त्री के प्रेम में किसी भी और रिश्ते से अधिक नाराजगी है।
 
          मुझे इसकी फितरत के बारे में समझाइए। क्या शादी में ऐसी कोई चीज है जो उसे रोज-रोज के तनावों और परेशानियों से परे ले जाए?आदमी-कुत्ते में प्रेम, पुरुष-स्त्री के प्रेम, पुरुष-मां के प्रेम, पुरुष-बेटे का प्रेम, पुरुष-बेटी का प्रेम जैसी कोई चीज नहीं होती है। प्यार बस भावनाओं की एक खास मिठास है। केवल तरीका महत्वपूर्ण है कि आप उसे कैसे उत्पन्न कर रहे हैं। भारत में शादी के समय मंगलसूत्र बांधा जाता था।
 
          इसमें आपसे और आपके साथी से ऊर्जा का एक तंतु लेकर उसे एक खास तरीके से बांधा जाता है ताकि आपके तर्क, आपकी समझ से परे, आपकी मनोवैज्ञानिक, भावनात्मक और शारीरिक जरूरतों से परे कहीं अंतरतम की गहराई में दो जीव, दो जीवन साथ में बंध जाएं। पुरुष और स्त्री का रिश्ता मजबूरी का प्रेम संबंध है। प्रकृति आपको एक-दूसरे की ओर धकेलती है क्योंकि प्रकृति को सिर्फ एक चीज में दिलचस्पी है, खुद को स्थायी बनाने में। उन्हें किसी न किसी तरह साथ आना है। वरना आप और मैं नहीं जन्मे होते।
 
          यह जरूरत आपको साथ आने के लिए बाध्य करती है। यह ऐसा प्रेम संबंध है, जिसे प्रकृति का रासायनिक सहयोग मिला हुआ है। इनमें से अधिकांश प्रेम संबंधों में बदकिस्मती से जब कैमिस्ट्री यानि रसायन खत्म हो जाता है, तो लोग हैरान होते हैं कि वे आखिर साथ क्यों हैं। इसलिए कैमिस्ट्री के खत्म होने से पहले आपको एक अलग स्तर पर चेतन प्रेम संबंध स्थापित करना पड़ता है जो कैमिस्ट्री से परे हो।
 
          अगर ऐसा नहीं होता, तो यह रिश्ता भद्दा हो जाता है। शरीर की कैमिस्ट्री अपनी जरूरतों के मुताबिक कुछ चीजों को बढ़ा-चढ़ा कर सामने रखती है। जैसी ही आपकी जरूरत पूरी होती है, आप हैरान होने लगते हैं कि आप यहां पर क्यों हैं। यह प्रकृति की चालाकी है। जब आप 10 या 11 वर्ष के थे, तो दुनिया में सब कुछ ठीक-ठाक था। फिर हारमोनों ने आपकी बुद्धि का हरण कर लिया और अचानक से दुनिया अलग सी लगने लगी। कैमिस्ट्री ने आपका हरण कर लिया था। इसमें कुछ भी गलत या सही नहीं है, बस यह सीमित है। क्या सीमित होना कोई अपराध है? नहीं। लेकिन इंसान की फितरत यह है कि सीमाओं से उसे दुख होता है। उसे ये पसंद नहीं हैं। जिसे आप प्यार कह रहे हैं, वह मूल रूप से आपकी भावनाओं की मिठास है।
 
          अगर आप इसे ध्यान से देखें तो आपकी अंदरूनी चाह धरती के हर इंसान से, सभी चीजों से स्वतंत्र होने की है ताकि आप अपनी मर्जी से यहां रह सकें। जब कोई इंसान अपनी प्रकृति को लेकर अधिक जागरूक हो जाता है, तो वह प्रेम और आनंद को महसूस करना शुरू कर देता है। यहां तक कि परमानन्द का अनुभव करने के लिए भी असल में आपको किसी और की जरूरत नहीं है। आप यहां बैठे-बैठे अपने भीतर उसे संभव कर सकते हैं क्योंकि आखिरकार यह आपका शरीर है, यह आपका दिमाग है, यह आपकी भावना है, यह आपकी कैमिस्ट्री है और आप ही अपने जीवन के सभी अनुभवों को उत्पन्न कर रहे हैं।
 
          इसलिए अगर यह खुद ही उत्पन्न करना होता है, तो अभी यहां बैठकर आप अपने दिमाग, शरीर, भावना और ऊर्जा की मिठास को कायम रखना चाहेंगे या किसी कड़वाहट का अनुभव करना चाहेंगे?मैं मिठास पसंद करूंगा। तो आप स्वाभाविक रूप से प्रेम से भरपूर होंगे। किसी पुरुष या स्त्री को देखने पर आप उनके रिश्ते की चर्चा करते हैं। इसके अलग-अलग पहलू हैं, इसके सामाजिक, शारीरिक, मनोवैज्ञानिक या आर्थिक दृष्टिकोण हैं। हम अपने जीवन में बहुत से लोगों से रिश्ता कायम करते हैं।
 
          आपके कारोबारी रिश्ते होते हैं, व्यक्तिगत रिश्ते और व्यावसायिक रिश्ते होते हैं। हम मूल रूप से कुछ खास जरूरतों या किसी और की जरूरतों को पूरा करने के लिए रिश्ते बनाते हैं। लेकिन जिसे आप प्रेम कहते हैं, वह बस आपकी भावनाओं की मिठास है। आप अपने भीतर उसे बढ़ाने के लिए किसी दूसरे इंसान का इस्तेमाल कर सकते हैं। अगर आपको वाकई किसी के साथ रहना है, तो आपको किसी न किसी रूप में अपना एक हिस्सा छोडऩा पड़ता है। इसलिए 'फॉलिंग इन लव की अंग्रेजी कहावत बहुत सार्थक है।
 
          आप उसमें गिर ही सकते हैं। आप उसमें खड़े नहीं हो सकते, आप उसमें चढ़ नहीं सकते आपको उसमें गिरना पड़ेगा। जो इंसान अपने बारे में कुछ ज्यादा ही सोचता है, वह किसी प्रेम संबंध में नहीं हो सकता। प्रेम संबंध में होने के लिए आपको कहीं न कहीं अपना एक हिस्सा छोडऩा होगा। मगर इस स्थिति में क्या आपके लिए किसी ऐसे इंसान के साथ रहना संभव है जो, मैं बस अंदाजा लगा रहा हूं, आपकी अपनी आत्मानुभूति का माध्यम बन जाता है? क्या यह संभव है? क्या यह किसी रिश्ते का आधार हो सकता है? यह निश्चित रूप से संभव है, लेकिन यह जोखिम भरी संभावना है।
 
           आप अपनी चरम प्रकृति पाने की बजाय किसी रिश्ते की ढेर सारी जटिलताओं में उलझ कर खो सकते हैं। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि ऐसा संभव नहीं है। यह निश्चित रूप से संभव है। शरीर की कैमिस्ट्री अपनी जरूरतों के मुताबिक कुछ चीजों को बढ़ा-चढ़ा कर सामने रखती है। जैसी ही आपकी जरूरत पूरी होती है, आप हैरान होने लगते हैं कि आप यहां पर क्यों हैं। यह प्रकृति की चालाकी है। इसलिए भारत में शादी के समय मंगलसूत्र बांधा जाता था।
 
          इसमें आपसे और आपके साथी से ऊर्जा का एक तंतु लेकर उसे एक खास तरीके से बांधा जाता है ताकि आपके तर्क, आपकी समझ से परे, आपकी मनोवैज्ञानिक, भावनात्मक और शारीरिक जरूरतों से परे कहीं अंतरतम की गहराई में दो जीव, दो जीवन साथ में बंध जाएं। इसलिए हमारे देश में हमेशा यह कहा गया कि यह एक जीवनभर का बंधन है, आप इसे तोड़ नहीं सकते।
 
          अगर आप इसे तोड़ेंगे तो आपको दो जिन्दगियों को तोडऩा होगा क्योंकि वह एक तरह का मेल था। अगर आप शादी में पढ़े जाने वाले सभी मंत्रों को ध्यान से सुनें, तो उनमें दो जीवों को साथ जोडऩे की बात कही गई है। एक खास तरीके से संपन्न होने वाली इन शादियों में कभी आपका महत्व नहीं था। इसमें हमेशा दूसरे इंसान की अहमियत थी। अगर दोनों लोग इस तरह सोचें, तो यह एक खूबसूरत दुनिया होगी। अगर सिर्फ एक व्यक्ति इस तरह सोचे, तो यह शोषण हो जाता है।
 
          अगर दोनों की सोच ऐसी नहीं है, तो यह बस एक मजबूरी का रिश्ता है, मैं आपसे कुछ निचोडऩे की कोशिश कर रहा हूं, आप मुझसे कुछ निचोडऩे की कोशिश कर रहे हैं। यह हर समय एक संघर्ष की स्थिति होती है।
 

 

5-खुद को तराशने का समय

 
          तमिल पंचांग के अनुसार मार्गशीर्ष महीना शरीर में एक कुदरती स्थिरता लाता है। बहुत से आध्यात्मिक जिज्ञासु हमेशा आगे-पीछे करते रहते हैं। पूस का महीना है खुद को निखारने का। यही समय है संतुलन और स्थिरता लाने का। यह साल का ऐसा समय है, जिसे आध्यात्मिक मार्ग पर चलने वाले लोगों के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है। मार्गली का तमिल महीना 16 दिसंबर को शुरू होता है।
 
          साल के इस समय के दौरान, पृथ्वी सूर्य के सबसे नजदीक होती है। उत्तरी गोलार्ध में इसे सबसे गर्म महीना होना चाहिए, मगर यह सबसे ठंडा महीना होता है, क्योंकी पृथ्वी का उत्तरी भाग सूर्य के दूसरी तरफ होता है। योग प्रणाली में, किसी भी मानसिक असंतुलन को हमेशा जल तत्व के बेकाबू होने के रूप में देखा जाता है। सूर्य के साथ पृथ्वी ऐसा कोण बनाती है कि सूर्य की किरनें धरती पर आते ही बिखर जाती हैं। इसलिए वे धरती को गर्म नहीं कर पातीं। मगर धरती पर सूर्य का जो गुरुत्वाकर्षण काम कर रहा है, वह इस समय अधिकतम होता है। 3 जनवरी के दिन पृथ्वी सूर्य के सबसे करीब होती है, इसलिए सूर्य के गुरुत्वाकर्षण का अधिकतम खिंचाव इस समय होता है। मार्गली महीने का मानव शरीर पर यही असर होता है यह आपको आधार की तरफ खींचता है। मार्गली का महीना सिस्टम में संतुलन और स्थिरता लाने का समय है।
 
          योग प्रणाली में इस से जुड़े अभ्यास हैं, जिन्हें कई अलग-अलग रूपों में संस्कृति में शामिल किया गया है। यह ऐसा समय है, जब पुरुष वह काम करते हैं, जो आम तौर पर स्त्रियों को करना होता है, और स्त्रियां पुरुषोचित काम करती हैं। तमिलनाडु में, पुरुष नागरसंकीर्तन में जाते हैं, वे गाते हैं और भक्ति करते हैं, जिसे काफी हद तक स्त्री सुलभ या स्त्रैण काम माना जाता है। ज्यामिति और पौरुष सीधे-सीधे एक-दूसरे से जुड़े होते हैं। स्त्रैण गुण हमेशा किसी वस्तु के रंग और बाहरी रूप को सबसे ज्यादा महत्व देता है।
 
          पौरुष गुण हमेशा ज्यामितिक आधार को सबसे पहले देखता है। तो इस महीने, स्त्रियां ज्यामिति का अभ्यास करती हैं कागज पर नहीं, अपने घरों के बाहर, जहां वे ज्यामितीय आकृतियां या कोलम बनाती हैं। सामान्य तौर पर नीचे की ओर खिंचाव के कारण, मूलाधार चक्र प्रधान हो जाता है और इस तरह जीवन की रक्षक प्रकृति प्रधान हो जाती है। इस समय उत्तरी गोलार्ध में सारा जीवन अपने न्यूनतम रूप में होता है।
 
          अगर आप कोई बीज बोते हैं, तो इस समय उसका विकास सबसे धीमा होगा और उसका अच्छे से अंकुरण नहीं होगा। यह ऐसा समय है, जब पुरुष वह काम करते हैं, जो आम तौर पर स्त्रियों को करना होता है, और स्त्रियां पुरुषोचित काम करती हैं। तमिलनाडु में, पुरुष नागरसंकीर्तन में जाते हैं, वे गाते हैं और भक्ति करते हैं, जिसे काफी हद तक स्त्री सुलभ या स्त्रैण काम माना जाता है।
 
          चूंकि जीवन शक्ति में एक खास निष्क्रियता के कारण विकास बाधित होता है, इसलिए इस समय शरीर अपना खोया बल प्राप्त कर सकता है और खुद को सुरक्षित कर सकता है। इसे देखते हुए, अब भी तमिलनाडु में मार्गली के दौरान कोई शादी नहीं होती। यह गर्भधारण के लिए सही समय नहीं होता। यहां तक कि गृहस्थ भी इस समय ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं। यह मानसिक असंतुलनों से जूझ रहे लोगों के लिए खास तौर पर अच्छा समय होता है क्योंकि सूर्य की ऊर्जा नीचे की ओर खिंचती है और वे खुद को स्थिर कर सकते हैं। योग प्रणाली में, किसी भी मानसिक असंतुलन को हमेशा जल तत्व के बेकाबू होने के रूप में देखा जाता है।
 
          अगर आपके पास पानी से भरी टंकी है, और आप उसे हिलाएं, तो वह गंदला हो जाएगा। जल तत्व किसी व्यक्ति में बहुत तरह के असंतुलन पैदा कर देता है, अगर उसे ठीक करने के लिए सही चीजें न की जाएं। पारंपरिक रूप से इस महीने जल के संपर्क में रहने के लिए कई अभ्यास होते हैं। आम तौर पर लोग ब्रह्ममुहूर्त (प्रात: 3.40 बजे, जो आध्यात्मिक साधना के लिए अनुकूल समय होता है) से नहीं चूकना चाहते। सबसे साधारण चीज लोग यह करते हैं कि वे सुबह 3.40 बजे मंदिरों के पवित्र कुंडों में डुबकी लगाते हैं। मार्गली का महीना शरीर में एक कुदरती स्थिरता लाता है।
 
          बहुत से आध्यात्मिक जिज्ञासु हमेशा आगे-पीछे करते रहते हैं। यह बहुत से लोगों के साथ होता है, क्योंकि वे खुद को स्थिर करने के लिए पर्याप्त साधना नहीं करते। अगर आपको ऊपर की ओर खींचा जाता है, और आप अपने भीतर स्थिर नहीं हैं, तो यह असंतुलनों को जन्म देगा। इस महीने शरीर में स्थिरता लाने की कोशिश की जाती है और अगले महीने, यानि थाई के महीने का इस्तेमाल, शरीर में गतिशीलता लाने के लिए किया जाता है। अगर आपने अपने अंदर पर्याप्त स्थिरता बना ली है, तभी आप गतिशील होने का साहस कर पाएंगे। यह संतुलन और स्थिरता लाने का समय है।
 
 

6-आत्मज्ञान देने की अलग सी नईं तरकीब

 
          ज्ञान का बोध कराने के लिए योगिक प्रक्रिया में हजारों मार्ग हैं। न जाने कितने ज्ञानी गुरु हुए हैं। अपने शिष्यों को उनकी परम प्रकृति की ओर ले जाने लिए के इनमें से हरेक के अपने अपने-तरीके रहे हैं। अपने इर्द गिर्द के लोगों के लिए खासतौर से बनाए गए ये तरीके कई बार अजीब सा रूप भी ले लेते हैं, जैसा कि निदघ के मामले में हुआ, जो कि रिभु का एक गुमराह शिष्य था। रिभु महर्षि एक महान संत थे। उनका एक हठी शिष्य था, जिसका नाम निदघ था। रिभु के मन में निदघ के लिए बहुत प्रेम था, लेकिन निदघ उतना एकाग्र नहीं था जितने उनके बाकी शिष्य थे। इस वजह से शिष्यों के बीच थोड़ी समस्या थी।
 
          दूसरे शिष्यों के मन में आता था कि निदघ बिल्कुल ध्यान नहीं देता, फिर भी गुरुजी उसे हमसे ज्यादा चाहते हैं। इस तरह की बातें हमेशा होती हैं, क्योंकि गुरु वो नहीं देखता, जो आप आज हैं, वह आपमें कल की संभावनाओं को देखता है, वो वह देखता है जिसे कर पाने की क्षमता आपके भीतर है। अभी तक आपने क्या किया, गुरु के लिए इसका कोई महत्व नहीं है। आप आज क्या हैं, यह उसके लिए थोड़ा-बहुत महत्व रखता है, लेकिन कल आप क्या हो सकते हैं, उसके लिए यह बात सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है।
 
          कुछ समय के बाद निदघ ने रिभु महर्षि को छोड़ दिया। रिभु अपने शिष्य को देखने के लिए वहां आते-जाते रहते, लेकिन चूंकि निदघ उतना ग्रहणशील नहीं था, इसलिए रिभु हमेशा भेष बदल कर अपने शिष्य से मिलने, उसे आशीर्वाद देने और उसका मार्गदर्शन करने चले जाया करते थे। गुरु वो नहीं देखता, जो आप आज हैं, वह आपमें कल की संभावनाओं को देखता है, वो वह देखता है जिसे कर पाने की क्षमता आपके भीतर है। अभी तक आपने क्या किया, गुरु के लिए इसका कोई महत्व नहीं है।
 
          एक दिन रिभु महर्षि ने एक ग्रामीण जैसे कपड़े पहने और निदघ के पास पहुंच गए। गलियों में से राजा की सवारी निकल रही थी और निदघ चुपचाप उस सवारी को देख रहा था। एक ग्रामीण के भेष में रिभु निदघ के पास जाकर खड़े हो गए और उससे पूछा तुम क्या देख रहे हो? निदघ ने उनकी ओर तिरस्कार के भाव से देखा और मन ही मन सोचा हर कोई सवारी देख रहा है। यह मूर्ख यह भी नहीं जानता कि हम क्या देख रहे हैं। फिर भी उसने जवाब दिया राजा का जुलूस देख रहा हूं।रिभु ने पूछा राजा कहां है?निदघ बोला देखते नहीं, हाथी पर बैठा है।रिभु ने कहा ओह, लेकिन राजा कौन सा है?निदघ को गुस्सा आ गया और उसने कहा बेवकूफ, देखते नहीं हो। जो इंसान ऊपर बैठा है, वह राजा है और उसके नीचे जो जानवर है वह हाथी है।रिभु बोले ओह ये ऊपर नीचे क्या है, मुझे समझ नहीं आता।
 
           अब तो निदघ मानो भडक़ ही गया अरे बड़े बेवकूफ हो! तुम्हें नहीं पता कि ऊपर और नीचे क्या है? लगता है जो तुम्हें दिख रहा है और जो तुम सुन रहे हो, वह तुम्हारी अक्ल में नहीं घुस रहा है। अचानक निदघ के मन में वही मूल प्रश्न कौंध गया मैं कौन हूँ, तुम कौन हो? वह रिभु के चरणों में गिर गया, क्योंकि उसे इस बात का अनुभव हो चुका था, कि यह कोई और नहीं उसके गुरु ही हैं। तुम्हें कुछ करके समझाना पड़ेगा। उसने रिभु को जबर्दस्ती नीचे झुकाया और उनके कंधों पर चढ़ गया। क्या अब तुम्हें समझ आ रहा है कि मैं ऊपर हूं और तुम नीचे? मैं राजा हूं और तुम जानवर। अब समझ आया? रिभु ने कहा ठीक तौर पर तो नहीं। हां, अब मैं ये समझ सकता हूं कि इंसान क्या है और हाथी क्या है।
 
          मैं ये भी समझ सकता हूं कि ऊपर क्या है और नीचे क्या है। लेकिन यह तुम और मैं क्या है जिसके बारे में आप बात कर रहे हैं? अचानक निदघ के मन में वही मूल प्रश्न कौंध गया मैं कौन हूँ, तुम कौन हो? वह रिभु के चरणों में गिर गया, क्योंकि उसे इस बात का अनुभव हो चुका था, कि यह कोई और नहीं उसके गुरु ही हैं। उसी पल उसे आत्मज्ञान हो गया। हर गुरु अपने ही तौर-तरीके अपनाता है।
 
          इनमें से कुछ तरीके सूक्ष्म होते हैं, तो कुछ नाटकीय हालात पैदा करने वाले। कोई भी तरीका तभी काम करता है जब उसे आप पर अचानक आजमाया जाए। अगर इसके बारे में आपको बता दिया जाएगा, तो यह काम नहीं करेगा।
 
 

7-देवता और राक्षस में बस जरा सा अंतर है

 
          दुनिया में दो तरह के प्राणी होते हैं। कुछ प्राणी जो प्राप्त करते हैं, उसे वे अपने तक ही सीमित रखते हैं और कुछ प्राणी उसे बांट देते हैं। अगर आप बांटने का चुनाव करते हैं तो आप देव बन जाते हैं। अगर आपको पेड़ अच्छा लगता है तो पेड़ को चुन लीजिए। बस किसी भी एक जीवन को चुन लें, फिर उसे खूब ध्यान से देखें। आप पाएंगे कि सारे के सारे प्राणी जितना ज्यादा से ज्यादा जीवन हो सकता है, वे दे रहे हैं। अगर आप उसे जमा करते जाते हैं तो आप राक्षस बन जाते हैं।
 
          आप राक्षस इसलिए नहीं बनते, क्योंकि आप जो कर रहे हैं, वो दूसरों की नजरों में बुरा है, बल्कि इसलिए बनते हैं क्योंकि आपमें देने का कोई भाव नहीं है। देव ऐसे प्राणी होते हैं जो तेजस्वी होते हैं, जिनमें बिखेरने का गुण होता है। देने का भाव होने से मतलब यह नहीं है कि ये चीज देना या वो चीज देना। इसका मतलब बस इतना है कि आपकी जीवन प्रक्रिया ही ऐसी हो जाए कि आप हमेशा कुछ दे रहे हों।
 
          जो भी दिया जा सकता है, उसे दे दिया जाए, जहां भी उसकी जरूरत हो। इसमें यह महत्वपूर्ण नहीं है कि आपको कहां देना है, कितना देना है और क्या देना है। इस तरह के हिसाब से सब बेकार हो जाता है। अगर आप अपने जीवन को 'मैं क्या पा सकता हूं से 'मैं क्या दे सकता हूं में रूपांतरित कर दें, तो आप देव बन जाते हैं। सिर्फ परोपकार के बारे में सोच कर आप तेजस्वी नहीं बन जाते।
 
          आप तेजस्वी तब बनते हैं, जब आपके भीतर रख लेने का भाव खत्म हो जाता है। आप जीवन को थोड़ा ध्यान से देखने की कोशिश करें। आप पाएंगे कि यहां कुछ भी ऐसा नहीं है जो दिया जा सके, क्योंकि यहां ऐसा कुछ भी नहीं है जो आप अपने साथ लेकर आए थे। आज आपके पास जो कुछ भी है, वह सब कुछ आपने इसी धरती से लिया है। जरा सोच कर देखिए, 'अगर मैं सब कुछ दे दूं, तो मेरे साथ क्या होगा? तब होगा ये कि सारी दुनिया आपकी हो जाएगी। हम अकसर सोचते हैं, 'अगर मैं यह दे दूंगा, तो इतना चला जाएगा, अगर मैंने वह दे दिया तो उतना चला जाएगा। जबकि ये सब हिसाब-किताब बेकार है, घटिया है।
 
          सच तो यह है कि अगर आप अपना जीवन अपने आसपास मौजूद हर इंसान से बांटते रहते हैं, उनको देते रहते हैं, तो हर कोई आपकी देखभाल करेगा। 'मुझे क्या करना चाहिए? अपनी तनख्वाह का कितना हिस्सा मुझे दान करना चाहिए? बात इसकी नहीं है। आपको खुद को रूपांतरित करना होगा। क्या आपको लगता है कि एक नारियल का पेड़ ये हिसाब लगाता है कि मुझे कितने नारियल देने चाहिए? अगर मैं सौ नारियल दे दूंगा, तो ये लोग ज्यादा पैसे बना लेंगे।
 
          क्या आपको लगता है कि एक नारियल का पेड़ ये हिसाब लगाता है कि मुझे कितने नारियल देने चाहिए?चलो मैं पचास नारियल ही देता हूं। क्या आपको लगता है कि नारियल का पेड़ खुद को रोक रहा है? सच तो यह है कि नारियल का पेड़ जितना भी पोषण हो सकता है, उसे पाने की कोशिश करता है और फिर ज्यादा से ज्यादा नारियल देता है। क्या आपको भी इसी तरीके से नहीं जीना चाहिए? इस जीवन को तेजस्वी बनाने के लिए आपको धर्मग्रंथ पढऩे की जरूरत नहीं है- ज्यादा धर्मग्रंथ आपको हजम नहीं होंगे। देवताओं को पाने के लिए ऊपर या नीचे मत देखिए। इस अस्तित्व में बस एक प्राणी को चुन लीजिए।
 
          अगर आपको कीड़ा सही लगता है तो कीड़ा ही ले लीजिए। अगर आपको पेड़ अच्छा लगता है तो पेड़ को चुन लीजिए। बस किसी भी एक जीवन को चुन लें, फिर उसे खूब ध्यान से देखें। आप पाएंगे कि सारे के सारे प्राणी जितना ज्यादा से ज्यादा जीवन हो सकता है, वे दे रहे हैं। ये सिर्फ इंसान ही है, जो चीजें अपने पास रोके रखने की कोशिश कर रहा है। शायद इसकी वजह यह है कि उसकी बुद्धि तो तार्किक है, लेकिन वह उसका सही इस्तेमाल करना नहीं जानता।
 
          इस अस्तित्व ने, सृष्टा ने आपको बुद्धि इसलिए दी है, कि आप उसका वैसे इस्तेमाल कर सकें, जैसे संसार के दूसरे प्राणी नहीं कर सकते- ऊंचा उठने के लिए, अपने रूपांतरण के लिए, न कि संचय के लिए। यह बुद्धि आपको इसलिए दी गई थी, कि आप उन चीजों तक पहुंच सकें, जो इस दुनिया से परे की हैं। प्रकृति को विश्वास था कि आप उस असीम प्रकृति को खोजने की कोशिश करेंगे, न कि हिसाब लगाने में उलझ जाएंगे।
 
 

8-अपने जीवन का लक्ष्य निर्धारित  

 
                   हम सबकी नजर में लक्ष्य का अपना एक अलग मतलब होगा, उसके लिए हमारी अपनी एक अलग परिभाषा होगी।हो सकता है किसी के लिए एक अच्छी नौकरी तो किसी के लिए एक मकान खरीद लेना एक लक्ष्य हो। लेकिन क्या ये सब वाकई एक लक्ष्य हैं? जानते हैं सद्गुरु से कि आखिर सही मायनों में लक्ष्य किसे कह सकते हैं- व्यक्ति जो भी सोचता है या कल्पना करता है, खासकर अपने कैरियर या रिश्तों के बारे में या किसी सामुदायिक मुद्दे पर ही, उसे वह हकीकत में कैसे बदल सकता है ?एक खास तरह का मानसिक फोकस रखकर आप अपने जीवन में कुछ चीजों को हासिल कर सकते हैं।
 
        लेकिन वास्तव में उपलब्धि होती क्या है, इसे हमें फिर से परिभाषित करने, या कहें कि समझने की जरूरत है।इसे कोई उपलब्धि मत समझिए कि 'मैं नए मॉडल की कार खरीदना चाहता था और मैंने वो ले ली। दरअसल, यह तो होना ही था, क्योंकि बाजार आपको जीरो फीसदी ब्याज दर पर कार खरीदने के लिए कर्ज दे रहा है जो चीज आप चाहते हैं, वो अगर आपको मिल जाए तो इसका यह मतलब नहीं कि आपने कुछ हासिल कर लिया या यह आपकी कोई उपलब्धि है। यह बेहद औसत दर्जे का मानव स्वभाव है। यह चीज मैं खास तौर से पश्चिम में ज्यादा देखता हूं, जिसे मैं सचमुच बदलना चाहूंगा।
 
          जीवन में ऐसी बहुत सी भौतिक चीजें हैं, जिन्हें आप पाना चाहते हैं, जैसा कि आपने कहा कैरियर, रिश्ते या फिर सामुदायिक परियोजनाएं यानी कम्युनिटि प्रोजेक्ट्स। हालांकि ये प्रोजेक्ट्स भी एक तरह का कैरियर ही है। इसे एक उदाहरण से समझते हैं- एक ऑटोरिक्शा तीन लोगों को बैठा सकता है लेकिन वास्तव में वह दस लोगों को ढोता है। उसका ड्राईवर किसी तरह से इधर-उधर से खींचता हुआ उसे पहाड़ी पर चलाता है और उसकी चोटी पर पहुंच जाता है, ऊपर पहुंचकर उसे यह किसी उपलब्धि की तरह लगता है। इस उपलब्धि का जश्न मनाने के लिए वह इंजन को बंद कर एक कप चाय पीने बैठ जाएगा।
 
          यह चीज उसके लिए निजी या आर्थिक तौर पर महत्वपूर्ण हो सकती है, लेकिन यह कोई उपलब्धि या बड़ी सोच नहीं है। यह एक तुच्छ इच्छा है, जिसे कई दूसरे तरीकों से भी पूरा किया जा सकता था। ऐसी चीजें लोगों के मन में बहुत बड़ी नजर आती हैं, क्योंकि उन्होंने अपनी जिंदगी के लक्ष्य को एक खास तरीके से तय कर रखा है। जीवन में आप जो भी इकठ्ठा करते हैं, जो व्यवस्था आप तैयार करते हैं, वह एक सामाजिक व्यवस्था का परिणाम है, न कि आपके अस्तित्व या जीवन का। इनर इंजिनियरिंग कार्यक्रम की शुरुआत में ही, परिचय के दौरान हम इस बारे में बात करते हैं।
 
          योग के संदर्भ में हम इसे समझाते हैं कि अगर आपने अपने लक्ष्य पर एक आंख टिकाई है तो आपको अपना रास्ता तलाशने के लिए भी सिर्फ एक ही नजर का सहारा मिलेगा। एक नजर से देखने वाला व्यक्ति घर का रास्ता पाने को ही अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि मानता है। घर का रास्ता मिलने पर उसे लगता है कि उसने कोई बड़ा तीर मार लिया। लेकिन जो व्यक्ति साफ-साफ सबकुछ देख सकता है, उसे घर का रास्ता पाना कोई बड़ी चीज नहीं लगती।
 
          दरअसल, उसके हिसाब से इस आसान से काम को तो कोई भी कर सकता है। इंसानी जीवन और उसकी क्षमताओं को बढ़ाने की बजाय हमने अपने जीवन में बड़े ही मामूली लक्ष्य तय कर रखे हैं। एक ऑटो का मामूली सा इंजन, जिसमें पहाड़ी पर चढऩे की क्षमता नहीं है, अगर उसे किसी तरह से वह पहाड़ी पर चढ़ा लेता है तो उसे लगता है कि उसने कोई मैदान मार लिया।
 
          लेकिन अगर इंसान ने खुद को एक शक्तिशाली इंजन के रूप में तैयार कर लिया तो वह बिना किसी कोशिश के, हर हाल में, खुद ब खुद पहाड़ की बुलंदी पर होगा। 'मुझे क्या बनना चाहिए या 'मेरे पास क्या होना चाहिए की बजाय इंसान का फोकस खुद को शक्तिशाली बनाने पर होना चाहिए। 'होने और बनने की बजाय आपका फोकस इस बात पर होना चाहिए कि 'इस जीवन को ऊपर कैसे उठाएं।
 
          जब मैं जीवन का बात करता हूं तो उसका आशय कैरियर, रिश्ते या सामुदायिक परियोजनाएं नहीं हैं। मेरा आशय उस जीवन से है, जो आपके शरीर में मौजूद है। इस जीवन को इसकी मौजूदा स्थिति से एक शक्तिशाली जीवन में कैसे तब्दील किया जाए, उसी पर काम कीजिए। अगर आपने यह कर लिया तो यह जीवन हर वो काम करेगा, जो इसे करना चाहिए। योग इसी चीज को संभव बनाता है। आपके पास क्या है और आपको क्या बनना है, इसकी चिंता छोड़कर आप इस इंजन को शक्तिशाली बनाने पर काम कीजिए, यह किसी भी पहाड़ और उसकी चोटी पर चढ़ जाएगा।
 
          'मुझे क्या बनना चाहिए या 'मेरे पास क्या होना चाहिए की बजाय इंसान का फोकस खुद को शक्तिशाली बनाने पर होना चाहिए। 'होने और बनने की बजाय आपका फोकस इस बात पर होना चाहिए कि 'इस जीवन को ऊपर कैसे उठाएं। आपके जीवन का यही नजरिया होना चाहिए, ना कि 'मुझे ऐसी नौकरी चाहिए, मुझे इतने लाख या करोड़ रुपये कमाने हैं या फिर मुझे अपने पड़ोस की सबसे सुंदर लड़की से शादी करनी है। यह सब छोड़कर बस इस इंजन की मौजूदा आकार और क्षमताओं को बढ़ाने पर ध्यान दीजिए, बाकी सभी चीजें तो अपने आप ऐसे होने लगेंगी कि जैसी आपने कल्पना भी नहीं की होगी।
 
          सबसे बड़ी बात है कि आपके जीवन का स्वरूप, आपके जीवन की व्यवस्था से तय नहीं होगा, बल्कि यह इससे तय होगा कि आपके भीतर क्या धड़क रहा है। जीवन ऐसा ही होना चाहिए, क्योंकि जीवन भीतर से ही घटित होता है। जीवन में आप जो भी करते हैं, जो व्यवस्था आप तैयार करते हैं, वह एक सामाजिक व्यवस्था का परिणाम है, न कि आपके अस्तित्व या जीवन का। इसलिए आप अपनी तुक्ष्छ इच्छाओं को जीवन का लक्ष्य मत बनाइए। इसे कोई उपलब्धि मत समझिए कि 'मैं नए मॉडल की कार खरीदना चाहता था और मैंने वो ले ली।
 
          दरअसल, यह तो होना ही था, क्योंकि बाजार आपको जीरो फीसदी ब्याज दर पर कार खरीदने के लिए कर्ज दे रहा है, जो वह आपसे आने वाले दस सालों में वापस वसूल लेगा। अब तो कोई भी कार ले सकता है। कार लेना कोई बड़ी चीज नहीं है, लेकिन सवाल है कि आप कार में बैठ कर क्या करेंगे? आपकी कार को देख कर जब पड़ोसी ईष्र्या करेगा तब तो आपको अच्छा लगेगा। और अगर उन सभी के पास आपसे बड़ी गाडिय़ां हुईं तो आप एक फिर बुरा महसूस करने लगेंगे। लेकिन अगर एक इंसान के तौर पर, एक जीवन के तौर पर आप खुद को बड़ा बनाते हैं, तो फिर आप शहर में हों या किसी पहाड़ पर अकेले बैठे हों, आप शानदार महसूस करेंगे। आपके जीवन में आगे के लिए यही नजरिया होना चाहिए।
 
 

9- जिंदगी का आनंद कैसे लें

 
         हम में से अधिकतर लोग अपनी खुशी और आनंद के लिए बाहरी कारणों पर निर्भर करते हैं, यह कुछ ऐसा ही है कि हम पानी के लिए अपना कुंआ ना खोदकर बारिश का इंतजार करें। आखिर क्यों ?जब इंसान सुख को ही आनंद समझ लेता है तो उसके भीतर आनंद को लेकर तमाम सवाल उठने शुरू हो जाते हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप किस तरह आनंदित होते हैं। आप किसी भी तरह आनंद का अनुभव करें, यही सबसे बड़ी बात है। अब सवाल है इसे कायम रखने का।
 
          जब आप असलियत में सत्य के सम्पर्क में होते हैं, तब आप सहज ही आनंद में होते हैं। आनंद में घिरे होकर भी उससे अनजान रहना दुखद है। यह सवाल शायद एक खास सोच से आता हुआ लगता है। अगर मैं सूर्यास्त को निहारते हुए आनंद का अनुभव करता हूं, तो क्या यह सच्चा आनंद है? यदि मैं प्रार्थना करते हुए आनंदित हो जाता हूं, तो क्या यह सच्चा आनंद है? जब मैं ध्यान करता हूं और आनंद का अनुभव करता हूं, तो क्या यह सच्चा आनंद है? इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप किस तरह आनंदित होते हैं। आप किसी भी तरह आनंद का अनुभव करें, यही सबसे बड़ी बात है।
 
          अब सवाल है इसे कायम रखने का। इसे बरकरार रखने के काबिल कैसे बनें? अधिकांश लोग सुख को ही आनंद समझ लेते हैं। आप सुख को कभी स्थायी नहीं बना सकते हैं, ये आपके लिए हमेशा कम पड़ते हैं; लेकिन आनंद का मतलब है कि यह किसी भी चीज पर निर्भर नहीं है, यह तो आपकी अपनी प्रकृति है।
 
          सुख हमेशा किसी चीज या इंसान पर निर्भर करता है। आनंद को असल में किसी बाहरी प्रेरणा की जरूरत नहीं होती। एक बार जब आप आनंद के सम्पर्क में आ जाते हैं, तो आप जान जाएंगे कि इसे हासिल करने की आपकी सारी कोशिशें बचकानी थीं। तो जिसे भी आप सच्चा आनंद कह रहे हैं, वह बस आपके भीतर के कुएं से जल निकालने की तरह है।
 
          आनंद बाहर से हासिल करने वाली चीज नहीं है। यह तो अपने भीतर गहराई में खोद कर ढूंढ निकालने की चीज है। यह एक कुआं खोदने जैसा है। बरसात में अगर आप अपना मुंह खोलकर बाहर खड़े हों, तो बारिश की कुछ बूंदें आपके मुंह में गिरती हैं। बरसात में मुंह खोल कर प्यास बुझाना काफी निराशाजनक ही है। और फिर बरसात हर वक्त होने वाली चीज भी नहीं।
 
          इसलिए यह जरूरी है कि आप खुद का कुंआ खोदें, ताकि सालभर आपको पानी मिलता रहे। तो जिसे भी आप सच्चा आनंद कह रहे हैं, वह बस आपके भीतर के कुएं से जल निकालने की तरह है। यह हर समय आपको सींचता रहता है। आप जब चाहें तब जल पा सकें, यही आनन्द है। यह बरसात में मुंह खोलने जैसी बात नहीं है।
 
 

10--कर्म और मुक्ति दोनों बंधे हैं, खुद ही मुक्त होंगे

 
          हम अकसर अपने अच्छे या बुरे कर्मों के लिए किसी और को जिम्मेदार ठहराते रहते हैं, हालातों और मजबूरियों का हवाला देते रहते हैं। लेकिन क्या कर्मों के इन बंधनों से बचना, मुक्ति पाना हमारे खुद के वश में है? आप जिनसे बहुत प्रेम करते हैं या जिनसे आप बहुत घृणा करते हैं, उन दोनों के साथ ही आपका बहुत सारा कर्म बंधन है।
 
          कई बार होता है कि आप किसी इंसान से कभी नहीं मिले, और वो भी कहीं बहुत दूर है, फिर भी आप उससे नफरत करते हैं। बंधन का कर्म करने के लिए आपका विवाहित होना जरूरी नहीं है। इसे तो आप खुद-ब-खुद भी कर सकते हैं। अपना शेष जीवन एक कमरे में अकेले बैठ कर बिता सकते हैं और वहां बैठे बैठे भी आप संसार के अनगिनत लोगों के साथ कर्म कर सकते हैं।
 
          निश्चित तौर पर आपका लिथुआनिया की अपेक्षा पाकिस्तान के साथ कर्म बंधन ज्यादा है, क्योंकि भारत और पाकिस्तान के बीच इतना सब चल रहा है। तो कर्म इस वजह से नहीं होता, क्योंकि आप जीवन में किसी से संबंध बनाते हैं, बल्कि कर्म इसलिए हैं कि आप अपने भीतर किस तरह जूझ रहे हैं।
 
          यह ऐसी चीज है, जो जीवन आपके साथ नहीं कर रहा, बल्कि आप अपने साथ खुद कर रहे हैं। इसलिए आप अपने साथ किस तरह का कर्म करते हैं, इसका चुनाव आपको खुद करना है। अगर आप चाहें तो आप आनंद पाल सकते हैं, इसी तरह आप चाहें तो दुख पाल सकते हैं। आप चाहें तो आनंदमय हो सकते हैं और चाहें तो कृतज्ञता में जी सकते हैं।
 
          आप चाहें तो बिना कारण खुद को तकलीफ दे सकते हैं। सब कुछ आपका ही किया-धरा है। इसलिए इस बात को समझना होगा कि कर्म का अर्थ है: करनी। किसकी करनी? मेरी अपनी करनी। दूसरे शब्दों में कहें तो यह आपके जीवन का एक बड़ा सच है। आपको यह समझ लेना है कि जीवन स्वयं आपका रचा हुआ है। यह आपकी खुद की करनी है, किसी और की नहीं। चूंकि यह सिर्फ आपकी करनी है, केवल आपकी करनी, इसलिए इससे मुक्ति पाई जा सकती है।
 
          अगर यह भगवान की करनी होती तो आप इसका तोड़ कहां से निकाल पाते? अगर यह भगवान का बनाया फंदा होता, रचयिता का फंदा, तो आप सब कुछ कर लेते, फिर भी इसे तोड़ नहीं पाते। चूंकि इसे आपने बनाया है, इसलिए आप ही इसे तोड़ सकते हैं। आखिर यह आपकी करनी जो है। आप आसपास मौजूद इंसान का इस्तेमाल अपने कर्म को तोडने, मुक्ति का कर्म करने या फिर बंधन का कर्म करने जैसे किसी भी रूप में कर सकते हैं।
 
          इस तरह से आप लगातार कुछ न कुछ करते रहते हैं, कुछ किए बिना आप रह नहीं सकते, है कि नहीं? सोते, जागते, शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक व ऊर्जा के स्तर पर हर हाल में आपके साथ हमेशा कुछ-न-कुछ होता रहता है, आप इससे छूट नहीं सकते। अगर आप जागरूक हैं तो मुक्ति का कर्म करेंगे, लेकिन अगर आप जागरूक नहीं है तो बंधन का कर्म करेंगे। बंधन का कर्म करने के लिए आपका विवाहित होना जरूरी नहीं है। इसे तो आप खुद-ब-खुद भी कर सकते हैं। अपना शेष जीवन एक कमरे में अकेले बैठ कर बिता सकते हैं और वहां बैठे बैठे भी आप संसार के अनगिनत लोगों के साथ कर्म कर सकते हैं। इसके लिए किसी की जरूरत नहीं, क्योंकि इसमें तो आप जो कुछ भी कर रहे हैं, वो अपने साथ कर रहे हैं।
 
          यह किसी और के साथ संसर्ग या संपर्क नहीं है। यह वो है, जो आपके भीतर होता रहता है। आप रेशम के कीड़े की तरह हैं। रेशम तो बहुत ही सुंदर धागा और कपड़ा होता है, लेकिन यह रेशम के उस कीड़े की तरह है, जो अपनी ही मज्जा से वह अपने लिए एक ककूननुमा कैद बुनता है। इस ककून यानी पिटारी का अपना महत्व है, अगर वह कीड़ा किसी दिन उस ककून को नहीं तोड़ेगा तो यह ककून एक दिन उसी का प्राण ले लेगा।
 
          लेकिन उस ककून को तोड़ देने पर वह उसमें से एक सुंदर तितली बन कर बाहर निकलता है और उडऩे के लिए स्वतंत्र हो जाता है। अगर वह ऐसा नहीं करता तो उस पिटारी के अंदर ही दम तोड़ देगा। बस यही कर्म है। जिस पल आप सोचते हैं कि मेरा कर्म मेरी पत्नी के कारण है तो आप पूरी बात पर गौर नहीं कर पाते। कर्म उसके या किसी और के कारण नहीं है। कर्म का अर्थ है मेरा किया हुआ, मेरी ही करनी।
 
          यदि आप उसकी पेचीदगी को समझ लें तो यह आपकी मुक्ति का आधार बन जाता है और फिर कुछ ऐसा घटित होता है, जो बहुत सुंदर होगा। कोई भी कीड़ा यह कल्पना नहीं कर सकता कि तितली होने का मतलब क्या है, है न? लेकिन अगर इस पिटारी के अंदर रहते हुए आपकी मृत्यु हो जाती है तो यह एक बहुत बड़ा बंधन बन जाता है, क्योंकि आप किसी और की बुनी हुई नहीं, बल्कि अपनी ही बुनी हुई पिटारी में दम तोड़ देते हैं। इसका अर्थ यह है कि कर्म किसी और के बारे में नहीं है, वे आपके प्रियजन हों या दूर का कोई और इंसान हो, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
 
          कर्म वो है जो आप अपने भीतर कर रहे हैं। कर्म की मूल बात यह है कि यह मेरी करनी है। मैं जो कुछ भी हूं वह मेरा ही किया हुआ है। जिस पल आप सोचते हैं कि मेरा कर्म मेरी पत्नी के कारण है तो आप पूरी बात पर गौर नहीं कर पाते। कर्म उसके या किसी और के कारण नहीं है। कर्म का अर्थ है मेरा किया हुआ, मेरी ही करनी।
 
          यह मेरा बनाया हुआ है, सारे बंधन मेरे बनाये हुए हैं, इसलिए मुक्ति भी मेरी ही करनी होनी चाहिए। हां, कोई आपकी सहायता कर सकता है, पर यह आपका आंतरिक कार्य है। चूंकि यह आंतरिक कार्य है इसलिए थोड़ी-सी बाहरी सहायता की जरूरत होती है। हो सकता है कि दो व्यक्ति साथ रहते हों, बहुत-से काम साथ करते हों, लेकिन संभव है कि उनमें से एक मुक्त हो जाए और दूसरा बंधनों में उलझ जाए।
 
          क्या ऐसा नहीं है? क्या ऐसा नहीं हो रहा? दोनों एक साथ रहते हैं, एक ही काम करते हैं, लेकिन एक इस करनी का उपयोग बंधनों में उलझने के लिए कर रहा है और दूसरा मुक्ति के मार्ग पर आगे बढऩे के लिए, क्योंकि यह उनकी स्वयं की करनी है। अगर यह परस्पर एक-दूसरे के लिए की गई करनी होती तो दोनों बंधनों में उलझ गए होते। लेकिन ऐसा नहीं है। कर्म शब्द का अर्थ ही यह है कि यह मेरी करनी है, इससे किसी दूसरे का कोई लेना-देना नहीं है।
 
 

11--शिव का मतलब है जो  नहीं है

 
          'जो नहीं है ध्यानलिंग को प्रतिष्ठित किए 16 साल हो गए। योगिक पद्धति में 16 एक महत्वपूर्ण संख्या है। जब आदियोगी ने अपने ज्ञान को फैलाना चाहा तो उन्होंने देखा कि इंसान के पास अपना परम लक्ष्य पाने के एक सौ बारह तरीके हैं। आने वाले 16 सालों में हम ध्यानलिंग को और ज्यादा लोगों तक पहुंचाने के लिए कुछ खास तरह की चीजें करने की तैयारी कर रहे हैं। लेकिन जब उन्होंने देखा कि उनके सात शिष्यों को इन 112 तरीकों को सीखने में समय लगेगा तो उन्होंने उन सभी तरीकों को 16-16 के समूह में सात हिस्सों में बांट दिया। जब इन सातों शिष्यों ने उन सोलह तरीकों को सीख लिया तो आदियोगी ने उनसे कहा, 'अब वक्त आ गया है कि तुम लोग इस ज्ञान को बाकी दुनिया में बांटने जाओ।
 
          यह सुनकर वे पूर्णतया भावों से भर गए। वे लोग आदियोगी के बिना जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते थे। जब वे लोग वहां से जाने लगे तो अचानक आदियोगी ने उनसे कहा, 'मेरी गुरुदक्षिणा का क्या होगा? परंपरा है कि ज्ञान पाने के बाद शिष्य को गुरु के पास से जाने से पहले उन्हें कुछ भेंट या दक्षिणा देनी होती है। ऐसा नहीं है कि गुरु को किसी दक्षिणा या भेंट की जरूरत होती है, लेकिन वह चाहता है कि जाते समय शिष्य अपनी कोई अनमोल चीज समर्पित कर, समर्पण के भाव में जाए। इसके पीछे वजह यह है कि समपर्ण के दौरान इंसान अपनी सर्वश्रेष्ठ अवस्था में होता है।
 
          आदियोगी की बात सुनकर उनके सातों शिष्य हैरानी में पड़ गए कि उन्हें क्या भेंट किया जाए। दरअसल, उन शिष्यों के पास उनके शरीर पर पहने बाघचर्म के अलावा और कुछ भी नहीं था। फिर अगस्त्य मुनि ने कहा, 'मेरे भीतर 16 रत्न हैं, जो सबसे अनमोल हैं। इन 16 रत्नों को, जिन्हें मैंने आपसे ही ग्रहण किया है, अब मैं आपको समर्पित करता हूं। इतना कहकर आदियोगी से सीखे हुए उन 16 तरीकों को उन्होंने गुरु के चरणों में समर्पित कर दिया और खुद पूरी तरह से रिक्त हो गए। उनके इस समर्पण से बाकी छह शिष्यों को भी संकेत मिल गया और उन्होंने भी आदियोगी से सीखी सारी विद्याएं उन्हीं को भेंट कर दीं। अब वे सब पूरी तरह से खाली हो गए थे।
 
          आपको इस समर्पण के भाव को समझना चाहिए। उन सारे ऋषियों के जीवन का परम लक्ष्य उस ज्ञान को हासिल करना था। उस ज्ञान को पाने के लिए उन्होंने 84 साल की कठोर साधना की थी और फिर जब उन्हें यह ज्ञान मिला तो एक ही पल में उन्होंने अपने जीवन की उस सबसे बेशकीमती चीज को अपने गुरु के कदमों में रख दिया, और पूरी तरह से खाली हो गए। उनके पास कुछ भी न रहा।
 
          आदियोगी की शिक्षा का यह सबसे महान पहलू था। चूंकि वे शिष्य पूरी तरह से रिक्त हो चुके थे, इसलिए वे उनकी यानी आदियोगी की तरह हो गए। दरअसल, शिव का मतलब ही है- 'जो नहीं है। आदियोगी की शिक्षा का यह सबसे महान पहलू था। चूंकि वे शिष्य पूरी तरह से रिक्त हो चुके थे, इसलिए वे उनकी यानी आदियोगी की तरह हो गए।इस तरह से उनके शिष्य भी उनकी तरह शिव यानी 'जो नहीं है हो गए।
 
          अगर ऐसा न हुआ होता तो ये शिष्य अपनी सीखी 16 विद्याओं को ताज की तरह अपने सिर पर ले कर निकलते और दुनियाभर में उसका दिखावा व प्रचार करते। चूंकि समर्पण के बाद वे सभी भीतर से खाली हो गए, इसलिए आदियोगी द्वारा बताई सभी 112 विद्याएं उन सभी के भीतर स्वत: जाग्रत हो गईं।
 
          जो चीज वे पहले नहीं सीख सकते थे और जिसे ग्रहण करने की उनमें क्षमता नहीं थी उसी चीज को वे महज इसलिए सीख पाए, क्योंकि उन्होंने अपने जीवन की सबसे अनमोल चीज वापस उन्हीं को समर्पित कर दी थी। तो 16 की संख्या हमारे लिए खास महत्व की है। आने वाले 16 सालों में हम ध्यानलिंग को और ज्यादा लोगों तक पहुँचाने के लिए कुछ खास तरह की चीजें करने की तैयारी कर रहे हैं।
 
          अभी बहुत थोड़े से लोगों ने ही इसका फायदा उठाया है। जबकि यह ज्ञान का एक जबरदस्त भंडार है, दुनिया में कहीं ऐसी कोई कोशिश नहीं हुई है। इसका रूप या कहें इसका ऊर्जा रूप अपने आप में बेहद अनूठा है। अब समय आ गया है कि लोग इसके प्रति और ज्यादा संवेदनशील हो जाएं। लोग यहां पर्यटकों की तरह आते हैं और 15 मिनट बैठने के बाद पूछते हैं कि कोई प्रसाद वगैरह नहीं मिलता क्या? मैं किसी दुर्भावना या असम्मान की भावना से यह नहीं कह रहा। फिर कोई यह भी पूछ बैठेगा ये 15 मिनट कब खत्म होंगे? जबकि वहीं दूसरे लोगों के लिए ये 15 मिनट एक पल के समान भी होते हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप एक पर्यटक की तरह आते हैं, लेकिन अगर आप एक पर्यटक की तरह से इस दुनिया से विदा होते हैं तो वह सबसे दयनीय बात है। फिर अगस्त्य मुनि ने कहा, 'मेरे भीतर 16 रत्न हैं, जो सबसे अनमोल हैं। इन 16 रत्नों को, जिन्हें मैंने आपसे ही ग्रहण किया है, अब मैं आपको समर्पित करता हूं।
 
          इस दुनिया से जाने से पहले, इस दुनिया को बनाने वाला आपका हो जाना चाहिए, पूरी तरह नहीं तो कम से कम आंशिक रूप से ही सही। अगर वह आपका नहीं हो सका तो उसके बिना आप सिर्फ एक माटी के ढेर की तरह हैं, जिसे हर हाल में आपसे वापस ले लिया जाएगा।
 
          अगर आपके भीतर कुछ सुलग रहा है, अगर आपके भीतर कुछ आग है जो आपके शरीर की कुदरती गर्मी से अलग तरह की है, तो आने वाले सालों में हम आपके लिए ऐसी संभावनाएं पेश कर सकते हैं, कि ध्यानलिंग आपके लिए और अधिक तरीके से काम कर सके, भले ही आप आश्रम में स्थाई रूप से रहते हों या फिर यहां छोटी सी अवधि के लिए आ कर ठहरें हों। मेरी एकमात्र कोशिश है कि आपको आपके भौतिकता से परे कुछ और अनुभव करा सकूं। सिर्फ अनुभवों की तलाश करने या उसकी चाह करने से ऐसा नहीं होगा, बल्कि इसके लिए आपको खुद को ग्रहणशील बनाना होगा। यह ध्यान रखिए कि आपकी साधना ही आपकी जीवन रेखा है। मैं आपके साथ हूं।
 
 

12-कल्पवृक्ष- चाहो तो पा लो

 
        हम अक्सर ऐसे लोगों के बारे में सुनते हैं जिन्होंने जीवन में जो भी लक्ष्य बनाया उसे पा लिया। लेकिन सभी के साथ ऐसा नहीं होता। ऐसा क्या है जो यह तय करता है कि हम अपने जीवन में क्या पा सकते हैं? एक इंसान के रूप में जो कुछ भी हमने इस धरती पर बनाया है, उसकी रचना पहले हमारे मन में हुई। आप देख सकते हैं कि इंसान द्वारा किए गए हर काम का विचार पहले उसके मन में आया, उसके बाद ही वह चीज बाहरी दुनिया में हुई। एक ही विकल्प है और वह है प्रतिबद्धता।
 
        जिन चीजों को आप चाहते हैं, उन्हें हासिल करने के लिए अगर आप खुद को झोंक दें, तो आपके विचार इतने गहरे हो जाते हैं कि यह संभव है या नहीं जैसा कुछ बचता ही नहीं। इससे हमें एक बात समझ लेनी चाहिए कि इस धरती पर हमने जो भी खूबसूरत या भयानक काम किए हैं, वे दोनों ही हमारे मन की उपज हैं। इस संसार में हम जो कुछ भी करते हैं, अगर उसके लिए हम वाकई चिंतित हैं, तो सबसे पहले हमें अपने मन में सही चीजों की रचना करना सीखना होगा। हम यह सीखें कि मन को कैसे संभालना है।
 
          एक बार जब आपके चारों आयाम भौतिक शरीर, मन, भावना और जीवन ऊर्जाएं एक ही दिशा में काम करने लगते हैं तो आप जिस चीज की इच्छा करते हैं, वह बिना कुछ किए ही वास्तव में आपके सामने आ जाती है। अगर आप ऐसा कर पाते हैं तो आप खुद ही एक कल्पवृक्ष बन जाते हैं।
 
          लेकिन मन की समस्या यह है कि यह हर पल दिशा बदल रहा है। यह ऐसे ही है जैसे आप कहीं जाना चाहते हैं और हर दो कदम पर अपनी दिशा बदल रहे हैं। ऐसी हालत में आपके लिए मंजिल तक पहुंचने की संभावना बहुत कम हो जाती है। हां, अगर संयोग से पहुंच गए तो बात दूसरी है। दरअसल, अपने मन को व्यवस्थित करने का बुनियादी मतलब है: काम करने की विवशतापूर्ण तरीके को सचेतन तरीके में बदलना।
 
          आपने शायद उन लोगों के बारे में सुना होगा, जिन्होंने जिस किसी चीज की इच्छा की, वह उन्हें मिल गई। आमतौर पर ऐसा उन्हीं लोगों के साथ होता है, जिनमें अटल विश्वास होता है। मान लेते हैं कि आप एक घर बनाना चाहते हैं। अगर आप सोचना शुरू करते हैं, मैं एक घर बनाना चाहता हूं। इसके लिए मुझे पचास लाख रुपये की जरूरत है पर मेरी जेब में तो बस पचास रुपये ही हैं। यह संभव नहीं है।
 
          जिस पल आप कहते हैं 'यह संभव नहीं है, उस पल आप यह भी कह रहे होते हैं कि मुझे यह नहीं चाहिए। एक तरफ तो आप इच्छा कर रहे हैं कि आपको चाहिए, और दूसरी तरफ आप कह रहे हैं कि मुझे यह नहीं चाहिए। ऐसी दुविधा में कुछ हासिल नहीं होता। यह संभव है या नही यही विचार मानवता को नष्ट कर रहा है। जिन लोगों को किसी भगवान, किसी मंदिर या किसी अन्य चीज में भरोसा होता है, उनकी बुद्धि सरल होती है। उसे अटल विश्वास होता है कि शिव उसकी इच्छा पूरी करेंगे।
 
          आपको क्या लगता है? क्या शिव आकर घर बना देंगे? नहीं। मैं आपको समझाना चाहता हूं कि भगवान आपके लिए अपनी छोटी उंगली भी नहीं उठाएंगे। विश्वास केवल उन्हीं लोगों के लिए काम करता है, जो सरल मन के होते हैं। विचारशील व्यक्ति, जो बहुत ज्यादा सोचते हैं, उनके लिए यह कभी कारगर नहीं होता। क्या संभव है और क्या नहीं, यह सोचना आपका काम नहीं है।
 
          यह प्रकृति का काम है। आपका कर्तव्य तो बस उस चीज के लिए कोशिश करना है जो आपको चाहिए। अगर जीवन को वैसा होना है, जैसा आप सोचते हैं, तो वह जरूर हो सकता है। लेकिन यह इस पर निर्भर है कि आप कैसे सोचते हैं, कितनी गहराई से सोचते हैं, आपके विचारों में कितनी स्थिरता है। यही तय करेगा कि आपका विचार हकीकत बनता है या यह सिर्फ एक सतही विचार ही बना रह जाता है।
 
          एक ही विकल्प है और वह है प्रतिबद्धता। जिन चीजों को आप चाहते हैं, उन्हें हासिल करने के लिए अगर आप खुद को झोंक दें, तो आपके विचार इतने गहरे हो जाते हैं कि यह संभव है या नहीं जैसा कुछ बचता ही नहीं। आपकी विचार प्रक्रिया में कोई बाधा नहीं आती। आप जिस दिशा में चाहते हैं, उसी दिशा में आपके विचार सहज रूप से बहने लगते हैं। एक बार जब ऐसा हो जाता है, फिर उनका साकार होना भी सहज हो जाता है।
 
          जो चीज आपको चाहिए, उसे हासिल करने के लिए सबसे अहम बात है कि उस चीज की तस्वीर आपके मन में पूरी तरह से साफ होनी चाहिए। अगर जीवन को वैसा होना है, जैसा आप सोचते हैं, तो वह जरूर हो सकता है। लेकिन यह इस पर निर्भर है कि आप कैसे सोचते हैं, कितनी गहराई से सोचते हैं, आपके विचारों में कितनी स्थिरता है। आपको पता होना चाहिए कि यही वह चीज है, जो मैं चाहता हूं।
 
          क्या यह वही है, जो आप सच में चाहते हैं? इस पर गौर करना जरूरी है, क्योंकि कई बार ऐसा होता है कि आपने कुछ चीजों की इच्छा की, लेकिन जैसे ही वे चीजें आपको मिलीं, तभी आपको एहसास हुआ कि ये वे चीजें नहीं हैं, जो मुझे चाहिए। जो मुझे चाहिए, वह तो कुछ और है। तो सबसे पहले हमें इस बात का पता लगाना होगा कि हमें वाकई क्या चाहिए।
 
          एक बार जब यह बात स्पष्ट हो जाए और हम इसे साकार करने के लिए समर्पित हो जाएं, तो उस दिशा में विचार की एक निरंतर प्रक्रिया होगी। जब आप बिना दिशा बदले विचारों की स्थायी धारा को कायम रखेंगे, तो आपका लक्ष्य निश्चित रूप से एक सच्चाई के रूप में प्रकट होगा।
 
 

13-गुस्सा करना ठीक नहीं

 
          गुस्सा कभी दूसरों को हम पर तो कभी हमें दूसरों पर आता है। कभी-कभी तो पूरी व्यवस्था पर हीं हम बौखला जाते हैं। लेकिन कभी सोचा है कि क्या गुस्से से कभी भी कुछ भी अच्छा बदलाव आता है ? या गुस्सा होने के सिर्फ नुकसान ही होते हैं? जब हम चीजों को उस तरह से नहीं संभाल पाते, जैसे कि उन्हें संभाला जाना चाहिए और जब हालात बेकाबू होते लगते हैं, तो आपको सक्रिय हो जाने का एक ही तरीका आता है, और वह है अपने अंदर गुस्सा पैदा करना।
 
          आपको लगता है कि इससे मदद मिलेगी, लेकिन सोचिए अगर कोई ऐसी हालत है जिसे संभालना आपको आता है तो क्या आप नाराज होंगे? चूंकि आप यह नहीं जानते कि उस हालत को कैसे संभाला जाए, इसलिए आप गुस्सा होते हैं। क्योंकि आम तौर पर आप आलस की अवस्था में हैं, या यों कहें कि आप सोए हुए हैं। तो जगने का, कुछ कर गुजरने का आपको एक ही तरीका आता है, और वह है गुस्सा।
 
          आपका वह गुस्सा चाहे एक इंसान पर उसके बर्ताव की वजह से हो, या समाज में बढ़ रही अव्यवस्था और अपराध की वजह से हो, बात एक ही है। मैं कहता हूं कि जैसे ही आप गुस्से में आते हैं, आप दुनिया को विभाजित कर देते हैं। आप किसी से किसी बात पर नाराज हैं और जैसे ही आप किसी चीज के खिलाफ जाते हैं, तो आप आधी दुनिया को खत्म कर देना चाहते हैं।
 
          यह समस्या का हल नहीं है। यह तो एक असहाय और कमजोर आदमी का हथियार है। इंसान इतना ज्यादा कमजोर इसलिए हो गया है, क्योंकि वह समय पर काम नहीं करता। जब चीजों को सुधारा जाना चाहिए, हम नहीं सुधारते, सोते रहते हैं। और फिर जब सब कुछ बेकाबू हो जाता है, तो लगता है कि हम असहाय हैं। तब हमें गुस्से के अलावा कुछ और नहीं सूझता। आपको लगता है कि इससे मदद मिलेगी, लेकिन सोचिए अगर कोई ऐसी हालत है जिसे संभालना आपको आता है तो क्या आप नाराज होंगे? चूंकि आप यह नहीं जानते कि उस हालत को कैसे संभाला जाए, इसलिए आप गुस्सा होते हैं।
 
          कभी-कभी आपको गुस्सा करने से नतीजे निकलते नजर आते हैं। इसीलिए आपको लगता है कि लोगों को बदलने का यही तरीका है, इसी तरीके से काम बन सकते हैं। जब आप युवा थे, तो आपके माता-पिता आपको एक खास रास्ते पर चलाना चाहते थे, लेकिन आप अलग ही रास्ते जा रहे थे।
 
          याद कीजिए उन पलों को जब आपके पिताजी या माताजी गुस्से में भरकर आपके ऊपर चीखते-चिल्लाते थे। तब क्या आप उनकी तारीफ करते थे? नहीं, आप हमेशा उनका विरोध करते थे। उन्होंने अपनी बात मनवाने के लिए आपको कई बार प्यार से समझाया, लेकिन जब उससे बात नहीं बनी, तो हो सकता है एक दो बार वे आपके ऊपर चिल्लाए हों। लेकिन सोचिए अगर वे रोजाना आप पर गुस्से से भड़कते, तो क्या होता? आप भी उनसे भिड़ जाते। फिर इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि रिश्ते में वे आपके कौन लगते हैं।
 
          जब आपके ऊपर कोई गुस्सा करता है तो आपको अच्छा नहीं लगता, लेकिन फिर भी आपको लगता है कि दुनिया की समस्याओं का हल गुस्से से ही निकल सकता है। किसी असहाय आदमी का यह अंतिम सहारा है। यह कमजोर आदमी का हथियार है, जो अपने या अपने आसपास के जीवन के लिए कुछ भी नहीं करता। तो समस्या पैदा करके क्या आपको समाधान नहीं ढूंढना चाहिए ? हम इतने ज्यादा असंवेदनशील हो गए हैं कि कुछ भी हो जाए, हम समाधान नहीं खोजते। फिर गुस्सा हमें एक सद्गुण मालूम पड़ता है। यह कोई सद्गुण नहीं है, यह तो ऐसा है मानो किसी इंसान ने खुद ही अपना दर्जा घटा लिया हो, यह तो तौहीन है।
 
          दरअसल, जब आप गुस्सा होते हैं तो आप इंसान ही नहीं रह जाते। यह बड़े अफसोस की बात है। देखिए, कहीं न कहीं आपके और तमाम दूसरे लोगों के दिमाग में यह गलत ख्याल बैठ गया है कि लोगों को जगाने का मतलब है, उनके भीतर गुस्सा पैदा करना।
 
         जागने का मतलब है ज्यादा जागरूक हो जाना। मेडिकल आधार पर हम आपको यह बात साबित कर सकते हैं कि अगर आप पांच मिनट के लिए गुस्सा हो जाएं और इस गुस्से की वजह चाहे जो भी हो, तो आपका खून आपको बता देगा कि आप अपने शरीर में जहर घोल रहे हैं। खुद के शरीर में जहर घोलना क्या यह कोई अच्छी बात हो सकती है? गुस्से में होने के लिए आपको जागरूक होने की जरूरत नहीं है, लेकिन आप अगर गुस्से से बचना चाहते हैं तो आपको जागरूक होना पड़ेगा।
 
          जैसे ही आप जागरूक हो जाते हैं, तो सबको साथ लेकर चलने की काबिलियत आपके अंदर आ जाती है और ऐसा होते ही आप खुद ही समस्या का हल बन जाते हैं। आजकल हम अपनी बुद्धिमत्ता का इस्तेमाल समस्या का हल निकालने में नहीं कर रहे, बल्कि समस्याएं पैदा करने में कर रहे हैं। जब समस्याएं हमें परेशान करती हैं, जब हम असहाय हो जाते हैं, तो हमें तेज गुस्सा आता है और हम समझते हैं कि यही एक तरीका है। देखिए, कहीं न कहीं आपके और तमाम दूसरे लोगों के दिमाग में यह गलत ख्याल बैठ गया है कि लोगों को जगाने का मतलब है, उनके भीतर गुस्सा पैदा करना।
 
           गुस्से में होने के लिए आपको जागरूक होने की जरूरत नहीं है, लेकिन आप अगर गुस्से से बचना चाहते हैं तो आपको जागरूक होना पड़ेगा। जागने का मतलब है ज्यादा जागरूक हो जाना। नींद से जाग्रत अवस्था में आ जाना। यही अंतर है। नींद से जाग्रत अवस्था में आना अचेतन अवस्था से चेतना की अवस्था की ओर बढऩा है। तो जागना शब्द का इस्तेमाल हमें उस हालात के लिए नहीं करना चाहिए, जब हम अचेतन की ओर जा रहे हैं। जागने का मतलब हमेशा ज्यादा चेतनापूर्ण होना है।
 
          जब आप गुस्से में होते हैं, तो आप जागरूक नहीं होते। इस स्थिति में आप तमाम बेवकूफी भरे काम करते हैं। फिर गुस्से में जागने का सवाल कहां होता है?
 


14-कृष्ण व राधा, क्यों नहीं बंधे विवाह बंधन में

 
          जब कृष्ण के प्रति राधा का प्रेम समाज को चुभने लगा तो घर से उनके निकलने पर रोक लगा दी गई। लेकिन कृष्ण की बंसी की धुन सुनकर राधा खुद को रोक नहीं पाती थी। यह देखकर उनके घरवालों ने उन्हें खाट से बांध दिया था।
 
          राधे को बांसुरी की मधुर आवाज सुनाई दी। उन्हें लगने लगा कि अपने शरीर को छोडकऱ बस वहां चली जाएं। कृष्ण को राधे की इच्छा और उस पीड़ा का अहसास हुआ, जिससे वह गुजर रही थीं। वह उद्धव और बलराम के साथ राधे के घर गए और उसकी छत पर जा चढ़े। कृष्ण ने कहा, 'आठ साल पहले जब मुझे ओखली से बांध दिया गया था, तो यह लडक़ी मेरे पास आई थी। तभी उसकी नजर मुझ पर पड़ी। उस पल से मैं ही उसके जीवन का आधार बन चुका हूं।
 
          उन्होंने राधे के कमरे की खपरैल को हटाया, धीरे-धीरे नीचे उतरे और राधे को आजाद कर दिया। इतने में ही बलराम भी छत से नीचे आ गए। उन्होंने कृष्ण और राधे दोनों को उठाया और बाहर आ गए। इसके बाद सभी ने पूरी रात खूब नृत्य किया। अगली सुबह जब मां ने देखा तो राधे अपने बिस्तर पर सो रही थीं। पूर्णिमा का यह अंतिम रास था। कृष्ण ने माता यशोदा से कहा कि वह राधे से विवाह करना चाहते हैं। इस पर मां ने कहा, 'राधे तुम्हारे लिए ठीक लड़की नहीं है; इसकी वजह है कि एक तो वह तुमसे पांच साल बड़ी है, दूसरा उसकी मंगनी पहले से ही किसी और से हो चुकी है। जिसके साथ उसकी मंगनी हुई है, वह कंस की सेना में है। अभी वह युद्ध लडऩे गया है।
 
          वह जब लौटेगा तो अपनी मंगेतर से विवाह कर लेगा। इसलिए तुम्हारा उससे विवाह नहीं हो सकता। वैसे भी जैसी बहू की कल्पना मैंने की है, वह वैसी नहीं है। इसके अलावा, वह कुलीन घराने से भी नहीं है। वह एक साधारण ग्वालन है और तुम मुखिया के बेटे हो। हम तुम्हारे लिए अच्छी दुल्हन ढूंढेंगे। यह सुनकर कृष्ण ने कहा, 'वह मेरे लिए सही है या नहीं, यह मैं नहीं जानता। मैं तो बस इतना जानता हूं कि जब से उसने मुझे देखा है, उसने मुझसे प्रेम किया है और वह मेरे भीतर ही वास करती है।
 
          मैं उसी से शादी करना चाहता हूं। मां और बेटे के बीच यह वाद-विवाद बढ़ता गया। माता यशोदा के पास जब कहने को कुछ न रहा तो बात पिता तक जा पहुंची। माता ने कहा, 'देखिए आपका बेटा उस राधे से विवाह करना चाहता है। वह लड़की ठीक नहीं है। वह इतनी निर्लज्ज है कि पूरे गांव में नाचती फिरती है। उस वक्त के समाज के बारे में आप अंदाजा लगा ही सकते हैं। कृष्ण के पिता नंद बड़े नरम दिल के थे, अपने पुत्र से बेहद प्रेम करते थे। उन्होंने कृष्ण से इस बारे में बात की, लेकिन कृष्ण ने उनसे भी अपनी बात मनवाने की जिद की। ऐसे में नंद को लगा कि अब कृष्ण को गुरु के पास ले जाना चाहिए। वही उसे समझाएंगे। गर्गाचार्य और उनके शिष्य संदीपनी कृष्ण के गुरु थे। गुरु ने कृष्ण को समझाया, 'तुम्हारे जीवन का उद्देश्य अलग है। इस बात की भविष्यवाणी हो चुकी है कि तुम मुक्तिदाता हो।
 
          इस संसार में तुम ही धर्म के रक्षक हो। तुम्हें इस ग्वालन से विवाह नहीं करना है। तुम्हारा एक खास लक्ष्य है। कृष्ण बोले, 'यह कैसा लक्ष्य है, गुरुदेव? अगर आप चाहते हैं कि मैं धर्म की स्थापना करूं, तो क्या इस अभियान की शुरुआत मैं इस अधर्म के साथ करूं? आप समाज में धार्मिकता और साधुता स्थापित करने की बात कर रहे हैं। क्या यह सही है कि इस अभियान की शुरुआत एक गलत काम से की जाए? गुरु गर्गाचार्य ने कहा, 'धर्मविरुद्ध काम करने के लिए तुमसे किसने कहा? कृष्ण ने कहा, 'आठ साल पहले जब मुझे ओखली से बांध दिया गया था, तो यह लडक़ी मेरे पास आई थी। तभी उसकी नजर मुझ पर पड़ी। कृष्ण ने कहा, 'नहीं, मैं बढ़ा चढ़ाकर नहीं बता रहा हूं। यही सच है।
 
          गर्गाचार्य ने दोबारा कहा, 'तुम मुक्तिदाता हो, तुम्हें धर्म की स्थापना करनी है। कृष्ण बोले, 'मैं मुक्तिदाता नहीं बनना चाहता। मुझे तो बस अपनी गायों से, बछड़ों से, यहां के लोगों से, अपने दोस्तों से, इन पर्वतों से, इन पेड़ों से प्रेम है और मैं इन्हीं के बीच रहना चाहता हूं। उस पल से मैं ही उसके जीवन का आधार बन चुका हूं। उसका दिल, उसके शरीर की हर कोशिका मेरे लिए ही धडक़ती है।
 
          एक पल के लिए भी वह मेरे बिना नहीं रही है। अगर एक दिन मुझे न देखे तो वह मृतक के समान हो जाती है। वह पूरी तरह मेरे भीतर निवास करती है और मैं उसके भीतर। ऐसे में अगर मैं उससे दूर चला गया, तो वह निश्चित ही मर जाएगी। मैं आपको बताना चाहता हूं कि जब सांपों वाली घटना हुई, अगर मैं वहीं मर जाता तो गांव में दुख तो बहुत से लोगों को होता, लेकिन राधे वहीं अपने प्राण त्याग देती। देखो, हर कोई सोचता है कि कृष्ण अजेय हैं, वह मर नहीं सकते, लेकिन खुद कृष्ण अपनी नश्वरता के प्रति पूरी तरह सजग थे।
 
         गर्गाचार्य ने कहा, 'तुम्हें नहीं लगता, तुम पूरी घटना को कुछ ज्यादा ही बढ़ा चढ़ाकर बता रहे हो? कृष्ण ने कहा, 'नहीं, मैं बढ़ा चढ़ाकर नहीं बता रहा हूं। यही सच है। गर्गाचार्य ने दोबारा कहा, 'तुम मुक्तिदाता हो, तुम्हें धर्म की स्थापना करनी है। कृष्ण बोले, 'मैं मुक्तिदाता नहीं बनना चाहता। मुझे तो बस अपनी गायों से, बछड़ों से, यहां के लोगों से, अपने दोस्तों से, इन पर्वतों से, इन पेड़ों से प्रेम है और मैं इन्हीं के बीच रहना चाहता हूं।यह सब सुनने के बाद गर्गाचार्य को लगा कि अब समय आ गया है कि कृष्ण को उनके जन्म की सच्चाई बता दी जाए।
 
          राधे से विवाह के लिए एक तरफ कृष्ण का आग्रह था, तो दूसरी तरफ यशोदा और नंद की वंश-मर्यादा। जब विवाद बढ़ता गया तो इस संकट की घड़ी से सबको निकाला गुरु गर्गाचार्य ने, कृष्ण को उनके जन्म की हकीकत और मकसद बता कर। आइये देखते हैं गुरु ने कृष्ण को क्या बताया- इसके बाद गर्गाचार्य ने कृष्ण को नारद द्वारा उनके बारे में की गई भविष्यवाणी के बारे में बताया। पहली बार उन्होंने कृष्ण के साथ यह राज साझा किया कि वह नंद और यशोदा के पुत्र नहीं हैं।
 
          कृष्ण को पता था कि अब उन्हें वहां से विदा लेना है। जाने से पहले उन्होंने एक रास का आयोजन किया। कृष्ण बचपन से नंद और यशोदा के साथ रह रहे थे। अचानक उन्हें बताया गया कि वह उनके पुत्र नहीं हैं। यह सुनते ही वह वहीं उठ खड़े हुए और अपने अंदर एक बहुत बड़े रूपांतरण से होकर गुजरे। अचानक कृष्ण को महसूस हुआ कि हमेशा से कुछ ऐसा था, जो उन्हें अंदर ही अंदर झकझोरता था।
 
          लेकिन वह इन उत्तेजक भावों को दिमाग से निकाल देते थे और जीवन के साथ आगे बढ़ जाते थे। जैसे ही गर्गाचार्य ने यह राज कृष्ण को बताया, उनके भीतर न जाने कैस-कैसे भाव आने लगे! उन्होंने गुरु से विनती की, 'कृपया, मुझे कुछ और बताइए। गर्गाचार्य कहने लगे, 'नारद ने तुम्हें पूरी तरह पहचान लिया है। तुमने सभी गुणों को दिखा दिया है। तुम्हारे जो लक्षण हैं, वे सब इस ओर इशारा करते हैं कि तुम ही वह शख्स हो, जिसके बारे में तमाम ऋषि मुनि बात करते रहे हैं।
 
          नारद ने हर चीज की तारीख, समय और स्थान तय कर दिया था और तुम उन सब पर खरे उतरे हो। कृष्ण अपने आसपास के लोगों और समाज के लिए पूरी तरह समर्पित थे। राधे और गांव के लोगों के प्रति उनके मन में गहरा लगाव और प्रेम था, लेकिन जैसे ही उनके सामने यह राज आया कि उनका वहां से संबंध नहीं है, वह किसी और के पुत्र हैं, उनका जन्म कुछ और करने के लिए हुआ है,तो उनके भीतर सब कुछ बदल गया। ये सब बातें उनके भीतर इतने जबर्दस्त तरीके से समाईं कि वह चुपचाप उठे और धीमे कदमों से गोवर्द्धन पर्वत की ओर चल पड़े। वह इतनी ज्यादा भाव-विभोर और आनंदमय हो गईं कि अपने आसपास की हर चीज से वह बेफिफ्र हो गईं।
 
          कृष्ण जानते थे कि राधे के साथ क्या घट रहा है। वह उनके पास गए, उन्हें बांहों में लिया, अपनी कमर से बांसुरी निकाली और उन्हें सौंपते हुए बोले, 'राधे, यह बांसुरी सिर्फ तुम्हारे लिए है। पर्वत की सबसे ऊंची चोटी तक पहुंचे और वहां खड़े होकर आकाश की ओर देखने लगे। सूर्य अस्त हो रहा था और वह अस्त हो रहे सूर्य को देख रहे थे। अचानक उन्हें ऐसा लगा, जैसे एक जबर्दस्त शक्ति उनके भीतर समा रही है। यहीं उनके अंदर ज्ञानोदय हुआ और उस पल में उन्हें अपना असली मकसद याद आ गया।
 
          वह कई घंटों तक वहीं खड़े रहे और अपने भीतर हो रहे रूपांतरण और तमाम अनुभवों को देखते और महसूस करते रहे। वह जब पर्वत से उतरकर नीचे आए तो पूरी तरह से बदल चुके थे। चंचल और रसिक ग्वाला विदा हो चुका था, उसकी जगह उनके भीतर अचानक एक गहरी शांति नजर आने लगी, गरिमा और चैतन्य का एक नया भाव दिखने लगा। जब वह नीचे आए तो अचानक वे सभी लोग उनके सामने नतमस्तक हो गए, जो कल तक उनके साथ खेलते और नृत्य करते थे।
 
            उन्होंने कुछ नहीं किया था। वह बस पर्वत पर गए, वहां कुछ घंटों के लिए खड़े रहे और फिर नीचे आ गए। इसके बाद जो भी उन्हें देखता, वह सहज ही, बिना कुछ सोचे समझे उनके सामने नतमस्तक हो जाता। कृष्ण को पता था कि अब उन्हें वहां से विदा लेना है। जाने से पहले उन्होंने एक रास का आयोजन किया। जाने से पहले वह अपने उन लोगों के साथ एक बार और नृत्य कर लेना चाहते थे। वह जब पर्वत से उतरकर नीचे आए तो पूरी तरह से बदल चुके थे। चंचल और रसिक ग्वाला विदा हो चुका था।
 
          उन्होंने जमकर गाया, नृत्य किया। हर किसी को पता था कि वह जा रहे हैं, लेकिन राधे थीं कि भीतर ही भीतर परम आनंद के एक जबर्दस्त उन्माद से सराबोर थीं और भावनाओं की सामान्य हदों से कहीं आगे निकल गई थीं।
 
          वह इतनी ज्यादा भाव-विभोर और आनंदमय हो गईं कि अपने आसपास की हर चीज से वह बेफ्रिक हो गईं। कृष्ण जानते थे कि राधे के साथ क्या घट रहा है। वह उनके पास गए, उन्हें बांहों में लिया, अपनी कमर से बांसुरी निकाली और उन्हें सौंपते हुए बोले, 'राधे, यह बांसुरी सिर्फ तुम्हारे लिए है। अब मैं बांसुरी को कभी हाथ नहीं लगाऊंगा। इतना कहकर वह चले गए। इसके बाद उन्होंने कभी बांसुरी नहीं बजाई। उस दिन के बाद से राधे ने कृष्ण की तरह बांसुरी बजानी शुरू कर दी।