Friday, March 6, 2015

पहाडों की सुगन्ध

1-प्रशन्नचित्त रहना सम्पन्नता लाता है
 
         यह अनुमान सही नहीं है कि जो व्यक्ति सुखी और साधन संपन्न होता है वह प्रसन्न रहता है। वास्तविकता इससे बिल्कुल उल्टी है। जो प्रसन्न रहता है वही सुखी और साधन संपन्न बनता है। प्रसन्नता विशुद्ध रूप से एक ऐसी मनोदशा है जो पूर्णतया आंतरिक सुसंस्कारों पर निर्भर रहती है।

         गरीबी में भी मुस्कराने और कठिनाइयों के बावजूद जी खोलकर हंसने वाले तमाम व्यक्ति देखे जा सकते हैं। इसके विपरीत ऐसे भी तमाम लोग हैं, जिनके पास प्रचुर मात्रा में साधन संपन्नता है, पर उनकी आंखें, नसें, तेवर तने और मुखाकृति तनी रहती है। चिंतित, असंतुष्ट और उद्विग्न रहना एक मानसिक दुर्बलता मात्र है, जो अंत:करण की दृष्टि से पिछड़े हुए लोगों में ही पाई जाती है। परिस्थितियां नहीं, मनोभूमि का पिछड़ापन ही इस क्षुब्धता का कारण है।

         उदात्त और संतुलित दृष्टिकोण वाले व्यक्ति हर परिस्थिति में हंसते-हंसते रहते हैं। मानव जीवन सुविधाओं-असुविधाओं, अनुकूलताओं व प्रतिकूलताओं के ताने-बाने से बुना गया है। संसार में अब तक एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं जन्मा, जिसे केवल सुविधाएं और अनुकूलताएं ही मिली हों और जिसे कठिनाइयों का सामना न करना पड़ा हो। इसके प्रतिकूल जिसने अनुकूलताओं पर विचार करना आरंभ किया और अपनी तुलना पिछड़े हुए लोगों के साथ करना शुरू किया उसे लगेगा कि हम करोड़ों से अच्छे हैं। हमारे पास जो प्रसन्नता है वह एक ईश्वरीय वरदान है और यह हर सुसंस्कृत मनोभूमि के व्यक्ति को प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हो सकती है।

         जिसे शुभ देखने की आदत है वह सर्वत्र आनंद बटोरेगा, मंगल देखेगा, ईश्वर की अनुकंपा और लोगों की सद्भावना पर विश्वास रखेगा। ऐसी दशा में हंसने-हंसाने के लिए उसके पास बहुत कुछ होगा, किंतु जिन्हें अशुभ चिंतन की आदत है, दूसरों के दोष, दुर्गण और अपने अभाव खोजने की आदत है, जो इसी शोध में लगे रहते हैं और जो प्रतिकूलताएं दिखती हैं, उन्हें बढ़ा-चढ़ाकर सोचते हैं, ऐसे लोगों को क्षुब्ध ही रहना पड़ेगा। वे असमंजस, खिन्नता और उद्विग्नता ही अनुभव करते रहेंगे। रोष उनकी वाणी से और असंतोष उनकी आकृति से टपकता रहेगा। ऐसे व्यक्ति स्वयं दुखी रहते हैं और अपने संपर्क में आने वाले दूसरों को दुखी करते रहते हैं। हमें असंतुष्ट और क्षुब्ध नहीं रहना चाहिए।


2-स्वाभिमान से सकारात्मक का जन्म होता है--

         कहते हैं कि जीवन में नाम, मान, शान, शोहरत आदि सब कुछ चला जाए तो कोई बात नहीं, परंतु यदि चरित्र पर दाग लग जाए तो मानो जीवन खत्म हो जाता है। हम सभी जीवन भर अपनी चारित्रिक रक्षा के लिए जूझते रहते हैं ताकि जब इस दुनिया से जाने का वक्त आए तो हम बेदाग होकर जाएं।
ठीक ऐसा ही सम्मान के बारे में कहा जा सकता है। दुनिया में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं, जो सम्मान की इच्छा न रखता हो। हम सभी चाहते हैं कि हमें सदैव सभी लोगों द्वारा सम्मान प्राप्त हो, परंतु ज्यादातर लोग सम्मान देना नहीं चाहते, वे सिर्फ लेना चाहते हैं। कोई भी बेआबरू या अपमानित होकर जीना पसंद नहीं करता। जब दूसरे हमारी आलोचना करते हैं और हमारी पीठ के पीछे यदि हमारी आलोचना करते हैं, तब हम नाराज होकर या क्रोधित होकर उन्हें प्रतिक्त्रिया देते हैं। इस स्थिति में हम जैसे उन्हें स्वयं के लिए यह सिद्ध कर बताते हैं कि हमारा आत्मसम्मान इतना कमजोर है, जो किसी के भी पत्थर मारने से टूट जाएगा।
 
         इस दुर्बलता का मुख्य कारण है हमारे आत्म-सम्मान की कमजोर बुनियाद। हम बड़ी आसानी से यह भूल जाते हैं कि हमारे इर्द-गिर्द जो भी लोग हैं, उन सभी की हमारे प्रति अलग-अलग राय होती है, जिसके बारे में हम कभी पता भी कर नहीं पाते, क्योंकि हम किसी के मन में क्या चल रहा है, यह सुन नहीं सकते हैं।
 
         मान लीजिए यदि हम किसी का मन पढ़ भी लें तो क्या उनको अपनी स्वतंत्र राय रखने का अधिकार नहीं है? बिल्कुल है। इसलिए समझदार व्यक्ति वह है, जो दूसरों की राय की फिक्र करने के बजाय अपने आत्म-सम्मान की ऊंचाई पर स्थिर रहकर, निंदा को महिमा और अपमान को स्व-अभिमान में परिवर्तित करे। इसलिए जब हमें अपने आप की पहचान हो जाती है, तब हमें दूसरों की राय पर निर्भर होने की कोई भी आवश्यकता नहीं रहती है। स्वमान और आत्म-सम्मान में बहुत गहरा रिश्ता है। इनमें से किसी एक के बिना दूसरा संभव नहीं है। हम सभी को बचपन से ही दूसरों को सम्मान देने का पाठ पढ़ाया गया है, परंतु क्या आज तक किसी ने हमें यह सिखाया कि हम अपने आपको कैसे सम्मान दें? शायद नहीं। आज हमारे संबंधों में सामंजस्य नहीं रहा और हम संघर्ष से सदा जूझते रहते हैं। स्वमान की कमी के कारण हमारे जीवन में बेसुरापन और नकारात्मकता आ गई है।
 

3-सुख दुख में समष्टि दृष्टि होना सफल व सार्थक जीवन की पहचान है
 
         सफल और सार्थक जीवन के लिए सुख और दुख में हमारी समदृष्टि का होना जरूरी है। आप अपने स्वामी खुद हैं। इसलिए जिस तरह जीवन को बनाना चाहेंगे, बना सकते हैं, केवल दृढ़ संकल्प, एकाग्रता, सच्ची लगन हो तो ऊंचे से ऊंचा लक्ष्य पाने में कोई समस्या नहीं होती।

       न्याय और सत्य के स्वयं पक्षधर बनें तो कोई ताकत आपको महानता के मार्ग में बाधक नहीं बना सकती है। पैसा समय की महत्वपूर्ण आवश्यकता है, किंतु उसके इतने भी दीवाने नहीं बनें कि घर की और स्वयं की सुख-शांति तक में दरारें पड़ जाएं और बाद में आप अपने घर में अकेले पड़ जाएं। अनासक्ति भाव से कमाएं और जरूरी खर्च करने में कभी संकोच भी मत करें। मितव्ययी बनें, कंजूस नहीं। पैसा और नाम कमाना ही जीवन का लक्ष्य न हो। आपको जो मिलना है वह मेहनत, कार्य के प्रति ईमानदारी और प्रभु इच्छा से मिलना सुनिश्चित है फिर किस बात की हाय-तौबा।
 
       समय आने पर ही काम होते हैं, किंतु समय की प्रतीक्षा में टकटकी लगाए रहने वाला भी-'कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे' की स्थिति में दुखी होता है। इसलिए समय से पहले किसान को भी फसल की तैयारी करनी ही पड़ती है, तभी वह फसल की सही कीमत और आनंद प्राप्त कर पाता है। कर्मठ बनने वाला कभी भी घाटे में नहीं रहता। जो मिलना है, वह तो मिलता ही है, उससे श्रेष्ठ कार्य उसकी प्रतिष्ठा बढ़ाकर आगे के भविष्य को भी संवार देते हैं। युधिष्ठिर जब भीष्म पितामह के अंतिम क्षणों में सफलता का रहस्य पूछते हैं तो वह कहते हैं-'अपनी असफलताओं से अपने को अपमानित अनुभव नहीं करना चाहिए। सफलता को सदैव अपने करीब ही समडों। उसे (अपने लक्ष्य के लिए) तलाशें और प्राप्त करने के लिए सतत् लगे रहें।'

       कोई भी व्यक्ति मन, वचन व कर्म से एक है तो वह सदैव मस्त रह सकता है। उसे कभी आडंबर, शो-बाजी का मुखौटा ओढ़ना नहीं पड़ता। त्याग, तप, तपस्या (साधना) के बगैर आदमी अपने क्षेत्र में सर्वोच्च शिखर पर नहीं पहुंच सकता है। सत्य के लिए मितभाषी बनें, संतभाषी बनें। व्यसनों से दूर रहकर संयमित, सादा जीवन, मौसम के अनुरूप आहार-विहार होना, स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन का होना आवश्यक है। व्यभिचार, चोरी, ठगी, झूठ और जालसाजी से बचने वाला ही सदैव प्रसन्न रह सकता है।

        अपने आदर्श को ताक में रखने वाला अवसरवादी व्यक्ति उदास चेहरे को लेकर भटकता रहता है। सुख के पीछे भागने की इच्छा जब समाप्त हो जाती है तो वह जीवन में स्थायी आनंद की स्थिति का कारण बनती है
 

4-प्रेम किसी सीमा में बंधने से, प्रेम हल्का हो जाता है

        प्रेम एक ऐसा शब्द है, जिसके अनगिनत आयाम हैं। लिखने वालों ने इस पर बहुत कुछ लिखा है, पर यह विषय कभी भी चुका नहीं है। हर पीढ़ी ने इसको अपने-अपने तरीके से व्याख्यायित किया है, परंतु अनवरत रूप से और भी नए-नए ढंग से इसके व्याख्यायित होने की संभावनाएं कभी समाप्त नही होने वाली हैं।

        राधा-कृष्ण के अमर प्रेम ने धर्मो की आपसी सीमाएं तोड़ रखी हैं। हिंदू और मुस्लिम साहित्यकारों ने इस दिव्य प्रेम का अपने-अपने ढंग से बखान किया है। प्रकृति और पुरुष के सनातन प्रेम की सर्वोत्कृष्ट अभिव्यक्ति हैं-राधा-कृष्ण का प्रेम, जिसके आध्यात्मिक पहलुओं को श्रीमद्भागवत में बखान किया गया है।

         प्रेम को स्त्री-पुरुष की दैहिक सीमाओं से बांधना प्रेम के वास्तविक सत्य के साथ सबसे बड़ा अन्याय है। प्रेम को जब भी किसी सीमा में बांधा जाता है, प्रेम हल्का हो जाता है, समझौतों में दम तोड़ने लगता है और तमाम सामाजिक विसंगतियों को जन्म देता है।
 
         सच्चा प्रेम आकाश के सदृश विस्तृत होता है, अपेक्षाओं से परे होता है और सिर्फ देते रहने के लिए प्रतिबद्व होता है। प्राणी का प्रभु से प्रेम, प्रेम का अत्यंत उदात्त स्वरूप है। जब यह वास्तविक स्वरूप में हमारे जीवन में घटता है तो परमानंद जन्मता है। प्रेम की व्याख्या उसी तरह नहीं की सकती जिस तरह परम आनंद की अनुभूति को शब्दों के माध्यम से बताया नहीं जा सकता, यह तो महज अनुभव करके ही जाना जा सकता है। प्राणी का परमात्मा से प्रेम आध्यात्मिक चेतना का सर्वोत्तम फल है। इस फल को जो भी चख पाता है, वही प्रेम के सच्चे मायनों को पूर्णतया समझ पाता है। प्रेम ईश्वर की तरह अनंत और अनादि है।

        ऐसा प्रेम अपने आप में पूर्ण होता है और उसे अभिव्यक्ति के लिए शब्दों की दरकार नहीं होती, वह तो अनुभूति का सागर होता है। इस अनुभूति के सागर में जो भी कभी डूबा, उसने कभी बाहर नहीं आना चाहा। वस्तुत: प्रेम का रसायन शास्त्र (केमिस्ट्री) विलक्षण है। इस केमिस्ट्री में दो चेतन तत्वों की भावनाएं मिलकर एक हो जाती हैं। प्रेम की इस केमिस्ट्री में अचेतन तत्वों को भी शामिल किया गया है। पहाड़, समुद्र, झरने और प्रकृति के अनेक रूप हैं, जो हमें प्रकृति प्रेम की ओर आकर्षित करते हैं।
 
 
 
5-मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है
 
         मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। कोई भी व्यक्ति अकेला नहीं रह सकता, क्योंकि अकेला रहना एक बहुत बड़ी साधना है। जो लोग समाज या परिवार में रहते हैं वे इसलिए रहते हैं कि उन्हें एक दूसरे की सहायता की आवश्यकता होती है। परिवार का अर्थ ही है माता-पिता, दादा-दादी, चाचा-चाची, भाई-बहन का समूह। इन्हींसे परिवार बनता है और कई परिवारों के मेल से समाज बनता है। व्यक्ति से परिवार, परिवार से समाज, समाज से शहर, राज्य और राष्ट्र बनता है।
 
         इसलिए जो भी व्यक्ति समाज में रहता है, वह एक-दूसरे से जुड़ा रहता है। मित्रता मनुष्य के जीवन की एक अद्भृत उपलब्धि है। जिस व्यक्ति के मित्रों की जितनी अधिक संख्या होती है, वह उतना बड़ा आदमी होता है। मनुष्य धन से बड़ा नहीं होता, मित्रों और शुभचिंतकों से बड़ा होता है। जो व्यक्ति समाज में जितना अधिक लोकप्रिय होता है उस व्यक्ति को ही लोग आदर और सम्मान की नजर से देखते हैं, लेकिन ध्यान रखना चाहिए कि गलत लोगों से मित्रता न हो। जो झूठी प्रशंसा करने वाले हों, चाटुकार हों, किसी प्रलोभन में पड़कर मित्रता करना चाहते हों, उनसे दूर रहना चाहिए।
 
         मित्र का अर्थ है, जो व्यक्ति हमें सुख-दुख में साथ दे। अगर कोई व्यक्ति सुख में साथ दे और किसी संकट में धोखा दे तो ऐसा व्यक्ति मित्र नहीं शत्रु होता है। जब मनुष्य किसी संकट में पड़े और उस समय जो सहायता करे, वही सच्चा मित्र है। वे लोग बड़े भाग्यशाली होते हैं, जिन्हें सच्चा मित्र मिल जाता है। आजकल गलत मित्रों की संख्या बढ़ गई है, जो किसी स्वार्थ में पड़कर दोस्ती करते हैं और जब स्वार्थ पूरा हो जाता है तो लात मारकर भाग जाते हैं।
 
        इसलिए किसी को मित्र बनाते समय ध्यान रखना चाहिए कि वह व्यक्ति किसी स्वार्थ में पड़कर, कोई लाभ उठाने के लिए मित्रता कर रहा है या सही अर्थ में मित्र बनाना चाहता है। जब तक इसकी पूरी पहचान न हो जाए, तब तक कभी भी किसी नए व्यक्ति से मित्रता नहीं करनी चाहिए और न किसी नए व्यक्ति को अपने मन की बात कहनी चाहिए। सोच-समझकर अगर मित्रता की जाए तो वह मित्रता सफल रहती है। एक बात और ध्यान रखना चाहिए कि मित्रता बराबर वालों में होनी चाहिए। बहुत धनी और निर्धन के बीच मित्रता नहीं होती। दोस्ती और शत्रुता हमेशा बराबर वालों से ही की जाती है।
 

6-क्यों करते हैं हम पूजा- पाठ
 
         पूजा हमारी श्रद्धा का प्रतिफल है। किसी में श्रद्धा होती है, तो उसे पूजने का मन करता है। सगुण उपासक कीे पूजा के लिए एक स्वरूप की आवश्यकता है। निर्गुण उपासना के लिए उपासक की श्रद्धा एक परम-शक्ति में होती है, जिसे हम परमात्मा कहते हैं या अल्लाह कहते हैं। इस धरा पर पूजा कैसे शुरू हुई, इस पर सभी धर्म समुदायों के अपने-अपने मत हो सकते हैं, परंतु एक तटस्थ शोधकर्ता के लिए यह शोध का एक महत्वपूर्ण विषय हो सकता है।
 
         कुछ लोग रोज पूजा करते हैं और कुछ लोग कभी-कभी। कुछ लोगों के लिए कर्म ही पूजा है तो कुछ लोग व्यक्ति विशेष के पूजन में ही मगन रहते हैं। आम आदमी से विशेष आदमी तक पूजा फल के लिए की जाती है। गीता जैसे ग्रंथ निष्काम पूजा की वकालत करते हैं। अपने कर्मो के फल की इच्छा किए बगैर प्रभु को समर्पित कर देना ही श्रेयस्कर माना जाता है। भारतीय अध्यात्म कर्म करने को कहता है, पर फल की इच्छा में कर्म का बंधन उचित नहीं है। कर्म बंधन से मुक्त रहकर कार्य करना ही निष्काम-कर्म दर्शन का आधार है।
 
         महाभारत युद्ध के आरंभ में रिश्तों में बंधा अर्जुन कृष्ण के गीता उपदेश के अठारहवें अध्याय तक पहुंचते-पहुंचते निष्काम युद्ध के लिए तैयार हो जाता है। जीवन के महाभारत का युद्ध निष्काम होकर लड़ना ही शायद सच्ची पूजा है। माला फेरने से प्रभु को प्रसन्न करना अच्छी बात है, परंतु जीवन संघर्ष से भागकर केवल माला फेरना, संकीर्तन करना, आरती करना, पाठ करना या हवन करना प्रभु को भी नहीं भाता होगा। संसार में लोगों के बीच रहकर की जाने वाली पूजा ही सर्वश्रेष्ठ है। प्रभु की कृपा उन्हीं पर होती है, जो अपने विहित कर्मो का कुशल संपादन करता है और साथ में निष्काम-भाव से प्रभु की पूजा करता है। ऐसा भक्त अपनी कुशल-क्षेम प्रभु के हाथों में सौंप कर परमानंद में जीता है।
 
         अगर आधुनिक मनोविज्ञान की दृष्टि से विश्लेषण करें, तो पूजा व्यक्ति के अंतर्मन में बैठे अहंकार या दंभ को कम कर व्यक्ति के मन में सकारात्मक भाव पैदा करती है। पूजा मन से और निष्काम की जाए तभी फलीभूत होती है। अगर मन विचलित है तो विधि-विधान से की गई पूजा-अर्चना भी शांति और संतोष नहीं देती।
 

7-संवाद की परम्परा भारतीय संस्कृति का अंग है

         सम्यक संवाद की भारत में एक दीर्घ परंपरा रही है। जबसे असहिष्णुता हमारे समाज में घर करने लगी है और उदारता की भावना क्षीण होने लगी है, तब से हमारा समाज संवाद से संवादहीनता की ओर बढ़ने लगा है। आज समाज की अनेक समस्याओं का समाधान संवाद में निहित है। हत्या व आत्महत्या आदि अपराधों से बचा जा सकता है, बशर्ते हम परस्पर संवाद की भावना का विकास करें।
 
         आज के वैश्रि्वक महानगरीय जीवन में किसी के पास दूसरे के लिए समय नहीं है। सभी अपनी-अपनी दिनचर्या में व्यस्त हैं। अन्य समस्त कार्यो के संपादन के लिए समय है, परंतु स्वस्थ संवाद की स्थापना के लिए समयाभाव की स्थिति है। माता-पिता के पास अपने बच्चों से बात करने तक का समय नहीं है। समाज के हर वर्ग में परस्पर बातचीत की प्रक्रिया सिकुड़ गई है। ऐसे में हम न केवल अपने सुख को बांटने से वंचित रह जाते हैं, बल्कि अपना दुख भी नहीं बांट पाते।
 
         सुख बांटने के लिए कोई न भी मिले तो भी कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता, परंतु दुख बांटने के लिए यदि कोई न मिले तो जीवन हताशा व अवसादग्रस्तता की ओर बढ़ता है, जो आगे चलकर आत्महत्या जैसे जघन्य अपराध का कारण बन सकता है। स्वस्थ संवाद भ्रमों और संदेहों का निवारण करता है और जीवन को सही दिशा की ओर ले जाता है। संवाद के अभाव से वैचारिक संकीर्णता घर करती जा रही है।
 
         बढ़ती वैचारिक संकीर्णता और जड़ता परस्पर लड़ाई-झगड़े का कारण है। संवाद का स्तर गिरने से समाज में अशांति का वातावरण बनता है। प्रत्येक व्यक्ति एक-दूसरे को संदेह की दृष्टि से देखने लगता है। यही संदेह आगे चलकर भयंकर विनाश और त्रसदी का कारण बनता है। सामाजिक और पारिवारिक जीवन में विभिन्न व्यक्तियों में परस्पर मतभेद और मनमुटाव एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। ऐसा इसलिए, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति के मस्तिष्क में भिन्न-भिन्न विचार होते हैं, परंतु यही मतभेद और मनमुटाव परस्पर संवाद के अभाव के चलते कब बड़ी दरार में परिवर्तित होकर अपूर्णनीय क्षति का कारण बनता है, इसका पता ही नहीं चलता। संबंध बिखर रहे हैं। परिवार टूट रहे हैं। व्यक्ति का जीवन एकाकी और अवसादग्रस्त बनकर नर्क में परिवर्तित हो रहा है। चारों तरफ बेतहाशा दौड़ है, जिसमें कहीं विराम नहीं दिखाई पड़ता।
 

8-हमें निराशावादी नहीं होना चाहिए
 
         न जाने क्यों इन दिनों मन बहुत परेशान है।' यह विचार किसी एक व्यक्ति का नहीं, बल्कि तमाम लोगों का है। इन लोगों को थोड़ा सा कुरेदने पर बड़ी आसानी से इस तरह के शब्द आप सुन सकते हैं। जैसे 'काम में जी नहीं लगता, बात-बात में गुस्सा आता है। हर समय चिड़चिड़ाहट घेरे रहती है। मन में घाव-सा हो गया है।'
 
         ऊपरी तौर पर ऐसे लोग यदा-कदा ठहाके भी लगा लेते हैं, पर उनके अंतर्मन में क्रोध का ज्वालामुखी दहकता-धधकता रहता है। विख्यात मनोचिकित्सक मौरिस फ्रेडमैन उपयुक्त लक्षणों का ब्योरा देते हुए कहते हैं कि यदि ऐसा है तो परखिए, जरूर कहीं मन की किसी निचली परत में कोई गांठ पड़ गई है। भले ही यह बात सतही तौर पर समझ में न आए, परंतु ये सारी परेशानियां होती इसी कारण से हैं। यही गांठ जब-तब कसकती है, चुभती है, टीसती, दुखती है, आक्रोश दिलाती है और रुलाती भी है। मन की गहरी परतों के विश्लेषक जेडी फ्रैंक ने इस विषय पर काफी ज्यादा शोध-अनुसंधान किए हैं।
 
         उन्होंने अपने अनुसंधान-निष्कर्षो का ब्योरा 'हिडेन माइंड ए फॉरगॉटन चैप्टर ऑफ अवर लाइफ' नामक पुस्तक में प्रकाशित किया है। इस पुस्तक में प्रकाशित विवरण के अनुसार मन में ऐसी गांठ प्राय: किसी के उस कटु व्यवहार के कारण पड़ जाती है, जिसे हम भूल नहीं पाते।
 
         किसी के द्वारा की गई अवहेलना, उपेक्षा, तिरस्कार, अपमान के क्षण हमारे मन में गांठ बनकर पड़े रहते हैं। यह कसक कभी तो बदला लेने के आक्रोश का च्वालामुखी बनना चाहती है और कभी असहाय होने के अहसास की पीड़ा बनकर छटपटाती रहती है। आक्रोश और छटपटाहट का यह दर्द अपने अंतर को अनचाहे टूक-टूक करता रहता है।
 
         जापानी चिकित्सा वैज्ञानिक के. कुरोकावा के अनुसार मन की यह पीड़ा तन में उतरे बिना नहीं रहती। उनके शोध-निष्कर्ष बताते है कि मन की परेशानी जैसे-जैसे गहरी होती जाती है वैसे-वैसे वह मन की बीमारी का रूप ले लेती है। बीते दिनों कुरोकावा और उनकी सहवैज्ञानिक योशीयुकी कागो ने अपने वैज्ञानिक शोध से इस तथ्य का खुलासा किया है कि जो लोग नकारात्मक भावों में डूबे रहते हैं, वे उच्च रक्तचाप और हृदय व गुर्दा रोगों आदि से संबंधित अनेक बीमारियों की चपेट में आ जाते हैं।
 

9-परम आनंद क्या है
 
         अक्सर अध्यात्म के ज्ञाता कहते हैं कि ईश्वर की शरण में जाने से मनुष्य को परम आनंद की प्राप्ति होती है। क्या है परम आनंद और कहां है ईश्वर जहां जाकर वह उनके चरणों में शरण ले। एक आम आदमी को इन दोनों प्रश्नों का उत्तर प्राप्त नहीं होता। इसीलिए उसकी अध्यात्म के पथ पर उन्नति नहीं हो पाती।
 
         परम आनंद के बारे में भगवान ने गीता में बताया है कि वह स्थिति जिसमें मनुष्य सुख, दुख, हानि, लाभ, क्रोध, मोह और अहंकार आदि से मुक्त होकर स्वयं में स्थापित हो चुका हो। यानी मन का पूर्णतया निग्रह। मन, इंद्रियों द्वारा मनुष्य को संसार में लिप्त करके उसकी प्रवृत्ति को वाह्य बनाता है और वह संसार में इंद्रियों के द्वारा सुख की खोज में भटकता रहकर जीवन-मरण का चक्कर लगाता रहता है।
 
         इसीलिए परमानंद की प्राप्ति के लिए सबसे पहले मन की प्रवृत्ति को अपने अंदर की ओर मोड़ना चाहिए। अज्ञानवश लोग मन को बलपूर्वक संसार से विरक्त करने की कोशिश करते हैं जो पूर्णतया निर्थक व गलत मार्ग है। ऐसा इसलिए, क्योंकि ऐसी स्थिति में जब भी मन का नियंत्रण ढीला पड़ता है वह दोबारा इंद्रिय भोग द्वारा संसार के भोगों में लिप्त हो जाता है। इसीलिए आनंद के लिए पहले कदम के रूप में सर्वप्रथम मनुष्य को संसार का लेन-देन समाप्त करना चाहिए। लेन-देन केवल धन तक ही सीमित नहीं है बल्कि भावनात्मक पहलू धन से भी ज्यादा अहम व आवश्यक है।
 
         नकारात्मक भावों के कारण वह कामना रूपी प्रेम, अहंकार, जलन, ईष्र्या और बदले की भावना व क्रोध से पीड़ित रहता है। नकारात्मक भावों के कारण ही उसे शारीरिक रोगों जैसे उच्च रक्तचाप, मधुमेह और हृदयरोग होने की आशंकाएं बढ़ जाती हैं। भगवान का गीता में बताया गया यह कथन कि विषयों का चिंतन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है, आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है और क्रोध से विवेक समाप्त होकर बुद्धि भी नष्ट हो जाती है। इस प्रकार मनुष्य का पतन हो जाता है।
 
         सनातन धर्म में मनुष्य के जीवन चक्र को नियंत्रित करने के लिए आश्रम व्यवस्था है। वानप्रस्थ आश्रम में मनुष्य को धीरे-धीरे अपने आपको गृहस्थ आश्रम व दुनियादारी के लेन-देन से मुक्त कर लेना चाहिए और जीवन के शेष भाग को सम स्थिति में रहकर परमानंद में स्थित हो जाना चाहिए।
 

10--कल्पना-शक्ति का उपयोग एक कला है
 
         कल्पना एक शक्ति है और इसका उपयोग करना आना चाहिए। कल्पना-शक्ति का उपयोग एक कला है। इस कला में पारंगत व्यक्ति ही कल्पना-शक्ति का अच्छे ढंग से प्रयोग कर सकते हैं। कल्पना निरभ्र गगन में उन्मुक्त होकर रोचक-रोमांचक उड़ान भरती है। मन और देह की सीमाओं में आबद्ध नहीं होती।
 
         यह मन के सरोवर में तरंगों के समान उठती है और इन तरंगों की लपटें अनंत अंतरिक्ष में व्याप्त हो जाती हैं। कल्पना जीवन को बहुविध रंगों से उकेरती है। कल्पना एक शक्ति है, क्षमता है। जब यह ठहरती है तो जीवन नीरस हो जाता है और यह बहती है तो जीवन में नई कोंपलें फूटती हैं। यह जिधर भी बहे, वहीं सुरम्य तरंगों और सरसता का आलोक बिखेर देती है। यह भौतिक क्षमता को पंख देने का कार्य करती है। सुखद कल्पना शीतल छांव के समान है और दुखद कल्पना अंगारों की जलन पैदा करती है।
 
         कल्पनाओं की बनावट और बुनावट अत्यंत मार्मिक है। साहित्य की ऐसी तमाम कृतियां हैं, जिनमें विचारों के साथ कल्पनाशीलता का सटीक सामंजस्य होता है और वे सभी सुखद अहसासों से ओत-प्रोत होती हैं। कल्पना जब परिष्कृत बुद्धि के साथ उड़ान भरती है, तो जीवन के व्यापक अस्तित्व को स्पर्श करती है।
 
         इसी से साधनाओं के तमाम रहस्य अनावृत होते हैं और नई-नई साधनाओं का प्रादुर्भाव होने लगता है। कल्पना से कुछ भी संभव है। यह हमारी मौलिक प्रतिभा का विकास करती है। कल्पना में अपार ऊर्जा की खपत होती है। सृजनशील कल्पना से ऊर्जा के इस अनंत भंडार को एक नई दिशा प्रदान की जा सकती है और जीवन के कई अनछुए पहलुओं को जाग्रत किया जा सकता है। फिर भी सामान्यत: इसका घोर दुरुपयोग किया जाता है। इच्छाओं और वासनाओं से आक्रांत मन सदैव कुकल्पनाओं का आदी हो जाता है। ध्यान से अनगढ़ कल्पनाआें को संवारा जाता है।
 
         कुकल्पनाओं से बचने के लिए हमें मनोनुकूल किसी विशिष्ट कार्य में कल्पना की ऊर्जा को उड़ेलना चाहिए। जैसे-जैसे कल्पना प्रगाढ़ होने लगेगी, इच्छित वस्तु मन में साकार होने लगेगी। यह प्रक्रिया अपनी प्रगाढ़ता में ध्यान के रूप में परिवर्तित होने लगेगी और इसमें मन आनंदित होने लगेगा। कुकल्पनाओं की खरपतवार अपने आप समाप्त हो जाएगी और कल्पना अपने रोमांचक यात्रा पथ पर चल निकलेगी।
 

11--नि:स्वार्थ प्रेम करें
 
         इस स्वार्थमय होती दुनिया में हाशिये पर खिसकते जा रहे मानवीय सरोकारों के बीच अपना सब कुछ दांव पर लगाकर दिलों में रोशनी बिखेरने वाले लोगों की महत्ता कहीं बढ़कर है। स्वार्थ की आंधी में उड़ते मानवीय रिश्तों के बीच यदि कोई प्यार, सहकार और सेवा की ज्योति जलाए, तो ऐसा लगता है कि इस दुनिया के घने अंधेरों में भी कुछ लोग हैं जो सबको थामे मशाल के समान जलते रहते हैं।
 
         इन देवदूतों को देखकर लगता है कि धरा कभी भी ऐसे महान बलिदानियों से और नि:स्वार्थ सेवाभावियों से रिक्त नहीं हो सकती। फिर चाहे ऐसे लोग किसी रूप में क्यों न हों? आज भी इस टूटते-बिखरते संबंधों वाले समाज में ऐसे लोग हैं, जो गुमनाम होकर शांत व निर्विकार भाव से अपने कार्य को अंजाम देने में भरोसा रखते हैं। ऐसे लोगों की जिंदगी किसी श्रेष्ठ साधना अथवा महान यज्ञ से कम नहीं है।
 
         वर्तमान समय में कुछ न करके भी मुफ्त में यश और सम्मान बटोरने के लिए और प्रतिष्ठा पाने के लिए अखबारों और टीवी चैनलों पर भीड़ लगी रहती है। ऐसे आडंबरों और पाखंडपूर्ण प्रचार के बीच कोई व्यक्ति इतना त्याग और सेवा करने के बावजूद लाभ पाने से भी परहेज कर रहा हो तो सोचा जा सकता है कि उसका उद्देश्य और नियम कितना पवित्र है।
 
         इस स्वार्थमय समाज में अभी भी कोई ऐसा है, जो केवल दूसरों के कल्याण के लिए सोचता ही नहीं, बल्कि अपनी पूरी क्षमता से उसे क्रियान्वित भी करता है। समाजसेवा के नाम पर चल रहे कथित गोरखधंधों से दूर, किसी की सहायता के बगैर अपनी हिम्मत और साहस के बल पर इतना बड़ा काम करना अवश्य ही प्रशंसनीय है। ऐसा इसलिए. क्योंकि सेवा के साथ तमाम चुनौतियां भी संलग्न होती हैं।
 
         ऐसी मान्यता है कि उच्चतम उद्देश्य के लिए किया गया कोई प्रयास अधूरा नहीं रहता, उसे दैवीय सहयोग अवश्य मिलता है। ऐसे नि:स्वार्थ समाजसेवियों से प्रेरणा और प्रकाश मिलता है। व्यक्ति सोचने के लिए मजबूर होता है कि दूसरों के लिए करके जो सुख मिलता है उसका कोई विकल्प नहीं है। ऐसे लोगों का हमें हृदय से सम्मान और आदर करना चाहिए, ताकि समाज में उनके कार्यो का प्रभाव बढ़े और लोग उनके जैसे महान कार्यो में नियोजित करके स्वयं को धन्य मानें।
 

12- सकारात्मक सोच आध्यात्मिकता को जन्म देती है
 
         व्यक्ति को अपनी जरा-सी तकलीफ भी बहुत बड़ी लगती है जबकि दूसरे लोगों की बड़ी समस्या भी समस्या नहीं लगती। अधिकांश व्यक्ति परेशानी में अपना धैर्य खो बैठते हैं, सोचने-समझने की शक्ति गंवा देते हैं। ऐसे समय में यदि कोई दूसरे की पीड़ा सुलझाने का प्रयास करे, तो इससे न केवल समस्या हल होती है, बल्कि समस्या हल करने वाले व्यक्ति की विचार क्षमता में भी वृद्धि होती है। अकसर तमाम लोग अपनी परेशानी का समाधान तलाशने के बजाय नकारात्मक दृष्टिकोण रखते हैं। नकारात्मक नजरिये से आध्यात्मिकता का लोप हो जाता है। उन्हें जीवन में नकारात्मक बातें ही नजर आती हैं। ऐसे में उनके दिमाग में हानिकारक रसायन उत्पन्न होते हैं, जो उनकी समस्या को सुलझाने के बजाय और बढ़ा देते हैं।

         मनोवैज्ञानिकों का मानना है कि जब व्यक्ति दूसरे की समस्याओं का समाधान करने का प्रयास करता है, तब उसके दिमाग में एंडॉर्फिन्स नामक केमिकल का स्त्राव होता है, जो दिमाग को ऊर्जावान बनाता है। यह न्यूरो केमिकल सोच को परिवर्तित करता है। ऐसा तभी संभव होता है, जब व्यक्ति समस्या को सुलझाने के लिए सकारात्मक दृष्टिकोण से विचार करे। दूसरे की परेशानी स्वयं के लिए पीड़ादायक नहीं होती। ऐसे समय में यदि प्रसन्नचित्त व्यक्ति सात्विक भाव से बीमार, निर्धन या समस्या से पीड़ित किसी व्यक्ति की मदद करे, तो उसकी आध्यात्मिकता उच्चतम बिंदु पर पहुंच जाती है, जो उसके शरीर में अनेक सकारात्मक बदलावों को उत्पन्न करती है।

         दूसरे की परेशानी का समाधान करने से व्यक्ति का व्यक्तित्व श्रेष्ठ बनता है। उसे अंदरूनी रूप से अच्छा महसूस होता है। लेखक विलियम ग्लॉसर भी इस बात को मानते हैं। उनका कहना है कि हमें हमेशा याद रखना चाहिए कि हम कभी भी दूसरे की पीड़ा खुद महसूस नहीं कर सकते। इसलिए दूसरे की पीड़ा के समय उसकी परेशानी हल करने से न केवल हम किसी के दुख को दूर करने में निर्णायक भूमिका निभा सकते हैं, बल्कि अपने व्यक्तित्व को भी बेहतर तरीके से संवार सकते हैं। किसी व्यक्ति की मुसीबत में मदद करने से आंतरिक सुख की अनुभूति होती है। दूसरे की पीड़ा और समस्या को दूर करके ही व्यक्ति अपने जीवन में खुश रह सकता है और उसे सच्चा सुख व संतोष मिल सकता है।
 

13--तीर्थों की शक्ति पवित्रता से बनती है
 
         सामान्यत: तीर्थ अनेकार्थी शब्द है, जिसका केंद्रीय अर्थ है-पवित्र करने वाला। श्रीमद्भागवत में उल्लेख मिलता है कि संत और महापुरुष ईश्वरीय गुणों की परिपूर्णता के कारण ही परमतीर्थ कहे जाते हैं। इसी प्रकार स्कंद पुराण में भी कहा गया है कि तीर्थ करने का मुख्य प्रयोजन संत-महापुरुष और देव-दर्शन का लाभ प्राप्त करना ही होता है। यही कारण है जिस भू-भाग में संत-महात्मा निवास करते हैं वह तीर्थ कहलाता है।
 
         ऐसा कहा गया है कि संत-महापुरुष तीर्थ को सुतीर्थ, कर्म को सुकर्म और शास्त्रों को 'सत्शास्त्र' बना देते हैं, क्योंकि वे क्षण-क्षण में क्षीण होने वाले संसार की सभी वस्तुओं से प्राप्त होने वाले सुखों की अस्थिरता को समझकर मोह-वासनाओं से विरत और ईश्वरीय गुणों से युक्त होकर व सुखों की अस्थिरता को समझकर शांतचित्त होते हैं।
 
         संतजन अपनी नैसर्गिक ऊर्जा से वास्तविक सत्संग के परिवेश का निर्माण करते हुए अपने सद्गुणों और सद्विचारों से हमारे मन में शुचिता (पवित्रता) का सृजन और संवर्धन करते हैं। यह मान्यता है कि जहां साधुजन सत्संग के माध्यम से श्रीहरि की कथा का गायन करते हैं, वहां सभी 'तीर्थ' आ जाते हैं। मानव-मन की चंचलता और स्वच्छंदता की नैसर्गिक विशेषता के कारण ही दर्शनशास्त्री 'मन' को उस जलाशय की भांति मानते हैं, जिसका स्थिर जल किंचित हवा से लहरों में परिवर्तित होकर गतिमान हो जाता है।
 
         मछली की भांति चंचल 'मन' को स्थिर और एकाग्र करते हुए संत-महापुरुष उसकी शुचिता पर विशेष बल देते हैं। मन को सप्तपुरियों की भांति सत्य, क्षमा, इंद्रिय-संयम, दया, प्रियवचन, ज्ञान और तप को भी 'सप्ततीर्थ' के रूप में 'मानस-तीर्थ' माना गया है। श्रीमद्भागवत में 'तीर्थद्वयम' के द्वारा स्पष्ट किया गया है कि पवित्र जल से काया के वाह्य भाग को तो धोया जा सकता है, लेकिन बाहरी शुद्धता के साथ ही संत तुलसीदास के शब्दों में 'अभ्यंतर मल' को पवित्र करने के लिए ईश्वरीय प्रेम और भक्ति के 'जल' की परम आवश्यकता होती है।
 
         संत-दर्शन और संत-महापुरुषों के सद्वचन ही हमारे मन की शुद्धता के सुगम माध्यम हैं। मन की शुद्धता के माध्यम से ही हम जगत में व्याप्त अदृश्य सत्ता की अनुभूति करने में सक्षम हो सकते हैं।

Friday, February 27, 2015

जीवन जीने का नाम



 
1--मनोबल की उपयोगिता

                        एक राजा के पास एक बड़ा ही पराक्रमी हाथी था। युद्धों में उस पर ही बैठकर राजा ने तमाम राज्यों पर विजय पाई थी। उसे इस तरह प्रशिक्षण दिया गया था कि युद्ध में शत्रु पक्ष के सैनिकों को देखते ही वह उन पर टूट पड़ता और शत्रु अवाक रह जाते और पीछे हट जाते।


                       ऐसा भी समय आया, जब हाथी बूढ़ा हो गया। राजा ने युद्ध के लिए नए युवा हाथियों को प्रशिक्षण देकर तैयार कर लिया। वह उपेक्षित होकर रह गया। अब उस पर पहले की तरह ध्यान नहीं दिया जा रहा था। उसकी भूख भी कम हो गई थी और उसके पौष्टिक भोजन में भी कमी कर दी गई। वह अशक्त और दुर्बल दिखने लगा था।

 
                        एक बार हाथी पानी पीने तालाब में गया। वहां की दलदल में उसका पैर धंस गया। उसने निकलने की कोशिश की, तो उसके शरीर ने साथ नहीं दिया। वह गरदन तक कीचड़ में समा गया। इतने बड़े हाथी को आखिर निकाला कैसे जाए? हाथी के बच जाने की संभावना किसी को नहीं थी। राजा को जब घटना की बात पता चली, तो वे दुखी हो गए।

                     उन्होंने एक चतुर सेनापति से सलाह मांगी, तो उसने कहा कि महाराज, इस हाथी को निकालने का एक ही तरीका है कि इसके पास युद्ध का माहौल तैयार किया जाए।

                    युद्ध के वाद्य मंगवाए गए, नगाड़े बजवाये गए और ऐसा माहौल बनाया गया कि शत्रुओं के सैनिक राज्य की ओर बढ़ रहे हैं। यह देखकर हाथी में अचानक फुर्ती और साहस गया। उसने जोर से चिंघाड़ लगाई और सैनिकों की ओर दौड़ने की कोशिश करने लगा। इसी प्रयास में वह बाहर गया।
 

 
2--आत्मविश्वास
 
                         जीवनकाल में अनेक असफलताओं का सामना करने वाला व्यक्ति अगर अपना आत्मविश्वास बनाए रखता है तो एक एक दिन उसे इच्छित सफलता अवश्य मिलती है। वहीं विडंबना यह है कि सामान्य जीवनयापन करते हुए व्यक्ति आत्म-चिंतन नहीं करता। उसका वैचारिक मंथन केवल दैनिक जरूरतों की वस्तुओं और उनके उपभोग की व्यवस्था करने तक सीमित रहता है। जहां जीवन में कठिनाई आई नहीं कि भविष्य की चिंता में सोच-सोचकर मनुष्य तन-मन से कमजोर होता जाता है। संकट के समय में व्यक्ति जीवन संबंधी श्रेष्ठता का विचार करने लगता है। उसमें हर स्थिति का बहुकोणीय विश्लेषण करने की शक्ति उत्पन्न हो जाती है। जीवन के प्रत्येक घटनाक्रम पर आत्ममंथन प्रारंभ हो जाता है।

                      संकट के समय में व्यक्ति केवल वैचारिक स्तर पर श्रेष्ठ बने रहकर जीवन नहीं चला सकता। उसे खानपान, वस्त्र, आवास आदि आवश्यक भौतिक वस्तुओं के लिए शारीरिक परिश्रम करना पड़ता है। सामान्य जीवन में अचानक आई विपदा से कमजोर पड़ा व्यक्ति नए सिरे से जीवन संभालने के प्रति भावनात्मक रूप से तो आशावान रहता है, परंतु व्यावहारिक रूप से वह निराशा से घिरा होता है।

                   यदि व्यक्ति की युवावस्था निकल गई हो तो उसे और ज्यादा परेशानियों का सामना करना पड़ता है। ऐसी परिस्थिति में व्यक्ति का आत्मविश्वास ही उसका सबसे बड़ा साथी होता है। किसी नए जटिल लगने वाले कार्य को करने के लिए विचार, नीति और क्रियान्वयन की आवश्यकता तो होती ही है, पर कार्य की सफलता करने वाले के सतत् आत्मविश्वास पर ही टिकी होती है। कोई भी काम व्यावहारिक स्वरूप में आने से पहले एक विचारमात्र होता है। कर्ता का आत्मविश्वास ही कार्य की परिणति निर्धारित करता है। मृत्यु के निकट पहुंचा व्यक्ति भी जीवन के प्रति समुत्पन्न आत्मविश्वास के सहारे वापस जीवनमार्ग पर चलने लगता है।


                   विचार का प्रभावमंडल विचारशक्ति के बजाय उसके लिए गठित आत्मविश्वास से अधिक बढ़ता है। इसी प्रकार कार्य में शत-प्रतिशत सफलता कार्यबल से ज्यादा उसके प्रति सच्ची निष्ठा से निर्धारित होती है। निष्ठा लगन आत्मविश्वास से ही संभव हो पाती है। विचारवान बनने के बाद व्यक्ति जीवन में हर कार्य कर सकता है और इस संदर्भ में ऊर्जा का जो सबसे प्रभावशाली संसाधन है, वह आत्मविश्वास ही है।
 

 
3--स्वावलंबन क्या है

                   वैसे तो जीवन जीने की अनेक विधियां हैं, लेकिन उन्हीं के लिए इन विधियों का महत्व है, जो सचमुच जीवन को सफलतापूर्वक जीना चाहते हैं। जिन लोगों को जीवन से कोई मोह नहीं होता, उनके लिए किसी विधि की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि उनके जीवन में कोई उद्देश्य नहीं होता। उद्देश्यपूर्ण जीवन के लिए कुछ और भी महत्वपूर्ण बिंदु हैं, जिनका पालन हमें करना चाहिए। स्वावलंबन का अर्थ है, स्वयं पर विश्वास करके जीना। कई लोग अपना जीवन स्वयं नहीं जीते, उनका जीवन कोई दूसरा जीता है। वे पराश्रित हो जाते हैं। सड़क किनारे पेड़ों पर पीली-सी लता फैली रहती है, जिसकी अपनी जड़ नहीं होती, यह लता पेड़ से रस लेकर अपना पोषण करती है।

                 कुछ मनुष्य भी पराश्रित होते हैं, वे स्वयं कुछ नहीं कर पाते। दूसरे के द्वारा अर्जित धन का गलत ढंग से उपभोग करते हैं। इसीलिए वे धन का उपयोग नहीं जानते, क्योंकि वे दूसरों की कमाई खाते हैं। अगर छोटे बच्चे बचपन से स्वावलंबी बनें, अपना काम स्वयं करें, तो वे आत्मनिर्भर बन जाएंगे। जो माता-पिता अपने बच्चों को छोटे-छोटे काम भी नहीं करने देते, वे अपने बच्चों के साथ न्याय नहीं करते।


                 आखिर कब तक कोई माता-पिता अपने बच्चों को पराश्रित रहने देंगे। इसलिए प्रत्येक विवेकशील माता-पिता अपने बच्चों को स्वयं के पांव पर खड़ा होने का प्रशिक्षण देते हैं ताकि भविष्य में अगर उन्हें अपने जीवन में कोई संघर्ष करना पड़े, तो वे बहादुरी से उसका मुकाबला कर सकें। स्वावलंबन, आत्मनिर्भरता, अपना काम स्वयं करना, ये बहुत ही उत्तम बातें हैं। अपने घरों में भी अपने सामान की देखभाल अपना प्रत्येक काम स्वयं करने का प्रयास करना चाहिए। कहा जाता है- 'जो व्यक्ति स्वयं अपना काम कर सकता है, वही दूसरों की सहायता कर सकता है।' स्वावलंबी व्यक्ति को ही सुख, शांति और धन-वैभव प्राप्त होता है। इसलिए माता-पिता का दायित्व है कि वे बच्चों को उनका काम स्वयं करने दें।

                अपने सामान की देखभाल अपने अन्य दूसरे काम, अपनी पढ़ाई, होमवर्क, अपनी स्कूल ड्रेस, जूते, पेन-पेंसिल और किताबें आदि वे स्वयं सहेज कर रखें, तभी वे स्वावलंबी बन सकेंगे। आजकल प्यार और दुलार के कारण अनेक माता-पिता अपने बच्चों का सारा काम स्वयं करने लगे हैं। यह तौर-तरीका आगे चलकर बच्चों को बहुत नुकसान करता है।


4-कोई भी देश कर्तव्य से बनता है


                      हम शिकायत करते हैं कि स्वतंत्रता के इतने वर्षो बाद भी हमें देश ने कुछ नहीं दिया, लेकिन यह नहीं सोचते कि हमने देश को क्या दिया। यदि सभी लोग याचना छोड़कर देश के प्रति अपने कर्तव्य निभाएं, तो देश की उन्नति को कोई रोक नहीं सकता।

                   अमेरिका के भूतपूर्व राष्ट्रपति जे.एफ. कैनेडी ने कहा था- 'यह मत सोचो कि देश आपको क्या देता है, बल्कि यह सोचो कि देश को आपने क्या दिया है..' बात स्लोगनों की नहीं है, बात नारों की नहीं है, बात विचार की है। विचार यह कि क्या मैं देश के सामने याचक बन कर आता हूं या देश के लिए कुछ करने की इच्छा से जीता हूं?

                        आमतौर पर हम देश से अपेक्षाएं रखते हैं, स्वतंत्रता से अपेक्षाएं रखते हैं, लेकिन खुद से कोई अपेक्षा नहीं रखते। यह जानते हुए भी कि हमसे ही बनता है देश। हम हमेशा शिकायत करते रहते हैं कि स्वतंत्रता के इतने सालों बाद भी हमें यह नहीं मिला, हमें वह नहीं मिला, लेकिन हम यह नहीं देखते कि हमने देश को क्या दिया। यदि उन लोगों की बात को सही भी मान लें कि देश गर्त में जा रहा है, तो क्या उसके जिम्मेदार हम नहीं हैं? हम देश के लिए कुछ नहीं करते, उसकी आर्थिक, सांस्कृतिक समृद्धि में कोई योगदान नहीं करते और देश से अपेक्षा करते रहते हैं कि वह हमारे लिए करे। हमसे ही देश बनता है। हमारे कार्यो से ही वह प्रगति के रास्ते पर जाएगा।

                         स्वतंत्रता दिवस के समय जरूर हम लोगों में देश के प्रति देशभक्ति उजागर होने लगती है। रेडियो, टेलीविजन में देशभक्ति के गाने हमें कुछ समय के लिए अपने कर्तव्यों के लिए प्रोत्साहित करते हैं। परंतु कुछ समय बाद हमारा मन भी और चीजों में उलझ जाता है।
 
                          दरअसल, व्यक्ति पांच स्तरों पर जीता है। आर्थिक, शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक तथा आध्यात्मिक स्तरों पर। हर स्तर में देश की एक प्रमुख भूमिका होती है। हम सब पर देश का उधार है। देश ने हमारी झोली में इतना कुछ दिया है, फिर भी हम देश के सामने भीख का कटोरा लेकर खड़े रहते हैं। अंग्रेजी में एक कहावत है, जैसा आप सोचते हैं, वैसे ही हो जाएंगे अर्थात आपकी सोच ही आपको बनाती है। अपने आसपास देखिए। अधिकतर लोग आपको याचक बने नजर आएंगे। मां-बाप बच्चों के सामने बैठे हैं कि मेरी झोली में सम्मान डाल दो। कर्मचारी मालिक के सामने याचक बना बैठा है कि मुझे प्रमोशन दे दो। मालिक सरकार के सामने याचक बना बैठा है कि हमें टैक्स में छूट दे दो।

                            हमें सोच को व्यापक बनाना चाहिए। छोटा सोचेंगे तो हम छोटे ही रह जाएंगे। हमारे मन में देने का भाव हो कि लेने का। देश को जब हम देते हैं, उसी का प्रतिफल देश हमें देता है, इसे याद रखें। जैसे ही हमारे अंदर देने का भाव पैदा होता है, अपने आप हम दाता के रूप में स्थापित हो जाते हैं, वहीं जब मन में लेने का भाव होता है, तो हम याचक बन जाते हैं। स्वामी रामतीर्थ जी ने एक नियम बताया था, ' वे टु गेन एनीथिंग इज टु लूज इट' अर्थात कोई भी चीज प्राप्त करना चाहते हो तो उसको देना शुरू कर दो। यदि आप ज्ञान चाहते हो, तो ज्ञान देना शुरू कर दो। जितना ज्ञान आप लोगों को दोगे, उतना आपका ज्ञान बढ़ेगा। यदि आप चाहते हैं कि आपको सम्मान मिले तो अन्य लोगों को सम्मान देना शुरू कर दीजिए। यदि आप सेवा चाहते हैं तो दूसरों की सेवा शुरू कर दीजिए।

                          परिवार, समाज और ईश्वर तक तो यह बात हमें शायद समझ में जाए, परंतु जब देश की बात होती है तो हम सब लोगों में अधिकतर लूटने, हड़पने, छीनने का विचार जाता है। हम अपने काम से दूसरे शहर जाते हैं, तो एक-एक पैसा संभाल कर खर्च करते हैं, परंतु कभी सरकारी खर्च पर कहीं जाने का अवसर मिल गया, तो अनाप-शनाप खर्च करने लगते हैं। आमतौर पर लोग कहते हैं, 'सब चोरी करते हैं तो हम क्यों करें' यह तो वही बात हुई कि सब कुएं में कूद रहे हैं तो हम क्यों कूदें।

                        यह मानकर चलें कि ईश्वर परमपिता है, यानी वह सबका पिता है। कोई भी पिता नहींचाहता कि उसके पुत्र लोगों से याचना करें। हम सब 'अमृतस्य पुत्रम' हैं। सारे संसार के सामने याचक बने भीख का कटोरा लिए बैठे हैं। ईश्वर सोचते होंगे, 'मैंने मनुष्य को कर्तव्य करने के लिए बनाया था और यह तो याचक बन गया।'
                          देशभक्ति का भाव किसी अवसर का मोहताज नहीं होता, यह हमारे भीतर का स्थायी भाव होना चाहिए। देशभक्ति का मतलब देश से अपेक्षा करना नहीं, बल्कि देश के लिए कुछ करने की प्रवृत्ति पैदा होना है।

 

 
5-ज्ञान वह है जो वर्तमान को संवारे

                         यह यूनान की प्राचीन बोध-कथा है। एक राज-ज्योतिषी था। वह रात-दिन भविष्य-वाणी करने के लिए ग्रहों (सितारों) का अध्ययन करता रहता था। एक दिन वह रात के अंधेरे में तारों को देखता हुआ जा रहा था। उसे पता नहीं चला कि आगे एक गहरा गढ्डा है। वह उसमें गिर गया।

                       उसके गिरने और चिल्लाने की आवाज सुनकर पास ही एक झोपड़ी में रहने वाली वृद्धा उसकी मदद करने के लिए वहां पहुंच गई। उसने उसे रस्सी डालकर कुएं से निकाला। राज-ज्योतिषी बहुत खुश हुआ। वह खुश होकर वृद्धा का कुछ भला करना चाहता था, लेकिन उसमें राज ज्योतिषी वाली अकड़ थी। उसने कहा, 'इस निर्जन स्थान पर तुम नहीं आतीं तो मैं कुएं में ही दम तोड़ देता। मैं राज-ज्योतिषी हूं। राजाओं को उनका भविष्य बताता हूं, लेकिन मैं मुफ्त में तुम्हारा भविष्य बताऊंगा।'
यह सुनकर बुढि़या बहुत हंसी और बोली, 'यह सब रहने दो! तुम्हें अपने दो कदम आगे का तो कुछ पता नहीं है, मेरा भविष्य तुम क्या बताओगे?
कथा-मर्म: ऐसा ज्ञान किसी काम का नहीं, जो व्यक्ति के वर्तमान को संवार सके..

 
6--एकाग्रता के लिए हैं मूर्तियां

                    मूर्तियां माध्यम भर हैं, ईश्वर के प्रति एकाग्र होने का। हमें धर्मग्रंथों या प्रतीक पुरुषों का अनुसरण करने के बजाय स्वयं अनुभव प्राप्त करना चाहिए। स्वामी विवेकानंद का चिंतन..
संसार में सर्वत्र एक एक रूप में आपको मूर्तियां मिलेंगी। कहीं मूर्ति का आकार मनुष्य जैसा है। मूर्तियों में मनुष्य ही सबसे उत्कृष्ट रूप है। यदि मैं किसी मूर्ति की पूजा करना चाहूं, तो मैं पशु, इमारत या अन्य किसी आकृति की अपेक्षा मनुष्य की आकृति को अधिक पसंद करूंगा। एक संप्रदाय समझता है कि अमुक रूप में ही मूर्ति ठीक तरह की है, तो दूसरा समझता है कि वह बुरी है। यही है मूर्ति-पूजा का दोष।

                  वस्तुत: धर्मग्रंथों में हमारा अंधविश्वास जितना कम हो, उतना ही हमारे लिए श्रेयस्कर है। हमने स्वयं क्या अनुभव किया, यही प्रमुख सवाल है। ईसा, बुद्ध या मूसा ने जो किया, उससे हमें कोई मतलब नहीं होना चाहिए, जब तक कि हम भी अपने लिए वही अनुभव प्राप्त कर लें। यदि हम एक कमरे में बंद हो जाएं और ईसा या मूसा ने जो खाया, उसका विचार करें, तो उससे हमारी क्षुधा शांत नहीं हो सकती। इसी प्रकार उनके जो विचार थे, उन्हीं को सोचने से हमारी मुक्ति नहीं हो सकती। इन बातों में मेरे विचार बिल्कुल मौलिक हैं। कभी-कभी तो मैं यह सोचता हूं कि मेरे विचार तभी ठीक हैं, जब वे प्राचीन आचार्यो के विचारों से मिलते-जुलते हैं, पर दूसरे समय मैं समझता हूं कि उन लोगों के विचार तभी ठीक हैं, जब वे मुझसे सहमत होते हैं।

                     स्वतंत्रतापूर्वक विचार करने में मेरा विश्वास है। इन आचार्यो से बिल्कुल स्वतंत्र होकर विचार करो। उनका सब प्रकार आदर करो, पर धर्म की खोज स्वतंत्र होकर ही करो। मुझे अपने लिए प्रकाश अपने आप ढूंढ़ निकालना होगा, जैसा कि उन्होंने अपने लिए खोज निकाला था। उन्हें जिस प्रकाश की प्राप्ति हुई, उससे हमारा संतोष कदापि होगा।

                     तुम्हें स्वयं बाइबिल 'बनना' होगा, उसका अनुसरण करना नहीं। हां, केवल रास्ते के दीपक के समान, मार्ग-प्रदर्शक साइन बोर्ड के समान उसका आदर करना होगा। धर्मग्रंथ की सारी उपयोगिता बस इतनी ही है। पर ये मूर्तियां तथा अन्य वस्तुएं इस काम की हैं कि अपने मन को एकाग्र करने के प्रयत्न में या किसी विचार पर मन को दृढ़ रखने के लिए आवश्यक हैं।

                      दो प्रकार के लोगों को मूर्तियों की आवश्यकता नहीं पड़ती। एक तो वे, जिन्हें ईश्वर का विचार ही नहीं आता और दूसरा, पूर्णत्व को प्राप्त हुआ व्यक्ति, जो इन सब सीढि़यों को पार कर गया होता है। इन दोनों छोरों के बीच में ही सब को किसी किसी बाहरी या भीतरी आदर्श की आवश्यकता होती है। यह आदर्श चाहे किसी स्वर्गीय मनुष्य के रूप का हो अथवा जीवित पुरुष या स्त्री के रूप का। यह व्यक्तित्व और शरीर की पूजा है तथा बिल्कुल स्वाभाविक है। किसी भी वस्तु को ईश्वर मानकर पूजा करना एक सीढ़ी ही है।

                      यह परमेश्वर की ओर मानो एक कदम बढ़ने, उसके कुछ अधिक समीप जाने के समान है। यदि कोई मनुष्य अरुंधती तारे को देखना चाहता है, तो उसे उसके समीप का एक बड़ा तारा पहले दिखाया जाता है और जब उसकी दृष्टि बड़े तारे पर जम जाती है, तब उसको उससे छोटा तारा दिखाते हैं। ऐसा करते-करते क्रमश: उसको अरुंधती तक ले जाते हैं। इसी तरह ये भिन्न-भिन्न प्रतीक और प्रतिमाएं ईश्वर तक पहुंचा देती हैं। बुद्ध और ईसा की उपासना प्रतीक पूजा है।

                     इससे हम ईश्वर की उपासना के समीप पहुंचते हैं। पर इससे मनुष्य का उद्धार नहीं हो सकता। उसे तो ईश्वर तक जाना चाहिए, जिस ईश्वर ने बुद्ध और ईसा के रूप में अपने को प्रकट किया, क्योंकि अकेला ईश्वर ही हमें मुक्ति दे सकता है।



7-देखें दुख कैसे दूर हुआ --

                      हिमालय पर एक संत कुटिया में रहते थे। उनकी प्रसिद्धि इतनी थी कि उनके दर्शनों के लिए लोग नदियां-घाटियां पार कर चले आते। लोगों का मानना था कि वे हर दुख-तकलीफ से उन्हें मुक्ति दिला सकते हैं। जबकि संत नहीं चाहते थे कि उनकी एकांत साधना भंग हो।

                      एक बार तीन दिनों तक संत अपनी कुटिया से बाहर नहीं निकले। तीन दिनों में दुखों से मुक्ति पाने वालों की भारी भीड़ लग गई। जब वहां किसी और के आने की जगह नहीं बची, तब संत बाहर निकले। उन्होंने लोगों को संबोधित करते हुए कहा - मुझे पता है आप लोग अपने कष्टों, समस्याओं को दूर कराने मेरे पास आए हैं। आज आखिरी बार मैं आप लोगों के कष्ट दूर करने का उपाय बता रहा हूं, इसके बाद नहीं बताऊंगा। अब मुझे एक-एक करके अपनी समस्याएं बताएं।

                     सभी एक साथ बोलने लगे, क्योंकि सभी जानते थे कि संत से संवाद का यह अंतिम अवसर था। शोरगुल होने लगा। महात्मा चिल्ला कर बोले- आप लोग शांत हो जाइए। सभी अपने-अपने कष्ट एक पर्चे पर लिखकर मेरे सामने रख दीजिए।

                         सभी ने एक-एक पर्चे पर अपनी समस्या लिख दी। संत ने एक टोकरी में सारे पर्चो को डालकर उन्हें मिला दिया और कहा- हर व्यक्ति इसमें से एक पर्चा उठाए, उसे पढ़े और किसी दूसरे का दुख अपने दुख की जगह ले ले।

                          सारे व्यक्तियों ने टोकरी से पर्चे उठाकर पढ़े और चिंता में पड़ गए। क्योंकि सबके दुख एक से बढ़कर एक थे। आखिरकार, वे इस नतीजे पर पहुंचे कि बेशक उनके पास दुख हैं, पर बहुत से लोगों के पास तो उससे भी ज्यादा दुख-तकलीफें हैं। आखिरकार सभी ने अपने-अपने दुख को ही स्वीकार किया, लेकिन अब उन्हें दुख का प्रभाव कम लग रहा था।
 

8--संतुलन साधना ही शिवत्व है

                            लय और प्रलय, दोनों शिव के अधीन हैं। शिव का अर्थ ही सुंदर और कल्याणकारी, मंगल का मूल और अमंगल का उन्मूलन है। शिव के दो रूप हैं, सौम्य और रौद्र। जब शिव अपने सौम्य रूप में होते हैं, तो प्रकृति में लय बनी रहती है। पुराणों में शिव को पुरुष (ऊर्जा) और प्रकृति का पर्याय माना गया है। यानी पुरुष और प्रकृति का सम्यक संतुलन ही आकाश, पदार्थ, ब्रह्मांड और ऊर्जा को नियंत्रित रखते हुए गतिमान बनाए रखता है। प्रकृति में जो कुछ भी है, आकाश, पाताल, पृथ्वी, अग्नि, वायु, सबमें संतुलन बनाए रखने का नाम ही शिवत्व है।

                             शिव स्वयं भी परस्पर विरोधी शक्तियों के बीच सामंजस्य बनाए रखने के सुंदरतम प्रतीक हैं। शिव का जो प्रचलित रूप है, वह है, शीश पर चंद्रमा और गले में अत्यंत विषैला नाग। चंद्रमा आदिकाल से ही शीतलता प्रदान करने वाला माना जाता रहा है, लेकिन नाग..? अपने विष की एक बूंद से किसी भी प्राणी के जीवन को कालकवलित कर देने वाला। कैसा अद्भुत संतुलन है इन दोनों के बीच। शिव अ‌र्द्धनारीश्वर हैं।


                          पुरुष और प्रकृति (स्त्री) का सम्मिलित रूप। वे अ‌र्द्धनारीश्वर होते हुए भी कामजित हैं। काम पर विजय प्राप्त करने वाले और क्रोध की ज्वाला में काम को भस्म कर देने वाले। प्रकृति यानी उमा अर्थात् पार्वती उनकी पत्नी हैं, लेकिन हैं वीतरागी। शिव गृहस्थ होते हुए भी श्मशान में रहते हैं। मतलब काम और संयम का सम्यक संतुलन। भोग भी, विराग भी। शक्ति भी, विनयशीलता भी। आसक्ति इतनी कि पत्नी उमा के यज्ञवेदी में कूदकर जान दे देने पर उनके शव को लेकर शोक में तांडव करने लगते हैं शिव। विरक्ति इतनी कि पार्वती का शिव से विवाह की प्रेरणा पैदा करने के लिए प्रयत्नशील काम को भस्म करने के बाद वे पुन: ध्यानरत हो जाते हैं।

                            वेदों में शिव को रुद्र ही कहा गया है। वेदों के काफी बाद रचे गए पुराणों और उपनिषदों में रुद्र का ही नाम शिव हो गया और रौद्र स्वरूप में रुद्र को जाना गया। वस्तुत: प्रकृति और पुरुष के बीच असंतुलन उत्पन्न होने के परिणामस्वरूप यह स्वरूप प्रकट होता है। प्रकृति में जहां कहीं भी मानव असंतुलन की ओर अग्रसर हुआ है, शिव ने रौद्र रूप धारण किया है। लय और प्रलय में संतुलन रखने वाले शिव की भूमि रुद्रप्रयाग, चमोली और उत्तरकाशी जैसे तीर्थो में आई प्राकृतिक आपदा इसका उदाहरण हैं।

                            केदारनाथ धाम जाने पर रास्ते में लोक निर्माण विभाग उत्तराखंड की ओर से एक बोर्ड लगा है, 'रौद्र रुद्र ब्रह्मांड प्रलयति, प्रलयति प्रलेयनाथ केदारनाथम्।' इसका भावार्थ यह है कि जो रुद्र अपने रौद्र रूप से पूरे ब्रह्मांड को भस्म कर देने की साम‌र्थ्य रखते हैं, वही भगवान रुद्र यहां केदारनाथ नाम से निवास करते हैं।

                            हमें शिव के संतुलन स्वरूप पर ध्यान देना चाहिए। अपने भीतर तो संतुलन लाना ही चाहिए, साथ ही प्रकृति के संतुलन को भी बनाए रखने का प्रयास करना चाहिए। तभी हम जीवन में लय को कायम रख सकेंगे।

 
9--खोलें मन के द्वार

                        हमारी एकाग्रता में बाधक बनता है हमारा विचलित मन। यदि मन में प्रसन्नता हो तो वह पल भर में एकाग्र हो जाता है। इसके लिए हमें मन के दरवाजे खोल कर रखने पड़ेंगे। आचार्य विनोबा भावे का चिंतन..
प्रसन्न चित्त में एकाग्रता स्वाभाविक होती है। मुझे इसका अनुभव है। मैं देखता हूं कि दो-चार चीजों की ओर ध्यान देना मेरे लिए मुश्किल पड़ता है। उसके लिए मुझे जरा मेहनत करनी पड़ती है। लेकिन एकाग्रता तो सहज ही हो जाती है। उसके लिए कोई कोशिश नहीं करनी पड़ती। आंखें फाड़नी पड़ती हैं, मुंह खोलना पड़ता है। यानी करने में कुछ मेहनत नहीं। चित्त को इधर-उधर दौड़ाना भी नहीं। एक जगह बैठे रहना है, फिर उसमें तकलीफ क्या है? अगर तकलीफ है, तो चारों ओर दौड़ने में है। इसलिए अनेकाग्रता अस्वाभाविक होनी चाहिए और एकाग्रता स्वाभाविक।

                        मेरा मानना है कि जब चित्त पर संस्कार नहीं होते, तो स्मृति भी नहीं होती। मैं कभी-कभी नक्शा देखता हूं, तब मन की स्मृतियां इधर-उधर दौड़ती हैं। फलां-फलां मनुष्य फलां-फलां गांव में रहता है और उस गांव में अमुक-अमुक सभा हुई थी। वहां एक घटना हुई.. इस तरह मन कहां से कहां चला जाता है। इस तरह की अनेकविध स्मृतियां चित्त में होती हैं। इसी को चित्त की अशुचिता कहते हैं। ऐसी स्मृतियों को अगर हम धो सकते हैं, तो चित्त के एकाग्र होने में देर नहीं लगेगी।

                         महाभारत में आता है कि व्यास जी की समाधि लगने में छह महीने लगे। वास्तव में पूर्ण एकाग्रता तुरंत होनी चाहिए। वह नहीं हुई। छह महीने लगे। मतलब यह कि व्यास जी को अपने चित्त के संस्कार यानी स्मृतियों को धोने में इतना समय लगा। लेकिन यह भी हो सकता है कि स्वच्छ, निर्मल ज्ञान की प्रभा मन पर पड़े, तो चित्त एकदम एकाग्र हो जाए, इसलिए मायूस होने का कोई कारण नहीं है। मायूस लोगों से तुलसीदास जी कहते हैं - बिगरी जनम अनेक की, सुधरत पल लगै आधु। अर्थात बिगड़ी बात को सुधरने में पल भर भी नहीं लगता। इसलिए डरते क्यों हैं? मान लीजिए, दस हजार वर्ष पुराना अंधकार गुफा में है।


                          हम लालटेन लेकर गुफा में जाएंगे, तो उस अंधकार को समाप्त होने में दो-चार साल तो नहीं लगेंगे। जहां लालटेन पहुंची, वहां उस क्षण अंधकारमय संस्कार मिट सकते हैं। अंतर में एक क्षण में भी आलोक पड़ सकता है। कभी साधु-संगति से भी आलोक हो सकता है। कहीं दर्शन से भी प्रकाश मिल जाता है, तो एक क्षण में पूरा का पूरा मन धोया जा सकता है। यदि प्रकाश नहींपड़ता तो धीरे-धीरे धोना पड़ता है।

                          यह एक लंबी साधना है। बहुत बड़ी मंजिल है और कड़ी साधना। गौड़पाद ने बताया है कि धीरज कितनी देर तक रखना चाहिए: उत्-बिंदुना कुशाग्रेन उत्सेद। यानी कुशाग्र अर्थात तिनके से समुद्र का पानी निकालना। तिनके से एक-एक बूंद समुद्र से निकालो, तो जितना धीरज रखना होगा, उतने धीरज की मन को जरूरत है। उतना धीरज और उतना उत्साह मन को दिखाना होगा। मन का निग्रह करना होगा। इस तरह खेद छोड़कर, मायूसी छोड़कर उत्साह से और धीरज से काम करना होगा, तो मन का निग्रह होगा।

                         एक ओर गौड़पादाचार्य ने धीरज की बात बताई है, तो दूसरी ओर तुलसीदास जी कहते हैं कि सुधरत पल लगै आधु। एक ओर धीरज बताया है, दूसरी ओर यह बताया है कि एक क्षण में काम हो सकता है। काम हो सकता है, पर इसके लिए मन के दरवाजे खुले होने चाहिए। कहीं से भी ज्ञान मिलता है, तो लेने की तैयारी सदा रहे। ज्ञानी से ज्ञान-च्योति तो मिलती ही है, लेकिन बच्चे से भी मिल सकती है। उसके लिए चित्त उत्सुक और खुला होना चाहिए। उसके लिए मैं हमेशा सूर्य नारायण की मिसाल देता हूं।

                           ज्ञानी पुरुष का लक्षण है कि वह दरवाजे को धक्का देकर अंदर प्रवेश नहीं करता, दरवाजा खोला जाए, तभी वह अंदर आता है, वरना बाहर ही खड़ा रहता है। वैसे ही चित्त का दरवाजा भी अगर खोल दिया जाए और चित्त में उत्सुकता और प्रसन्नता हो तो ज्ञान मिल सकता है और ज्ञानी गुरु अंदर सकता है। सूर्यनारायण के समान ज्ञानी गुरु चित्त को धक्का नहीं देता। हृदय मंदिर खुला हो, धीरज हो, तो कहीं कहीं से प्रकाश मिल ही जाएगा।

                      चित्त की प्रसन्नता से सहज एकाग्रता आती है। चित्त की एकाग्रता के विषय में पतंजलि ने ऐसा संकेत कर रखा है कि ध्यान योग का आचरण यम-नियमपूर्वक ही करना चाहिए, नहीं तो उससे वह तारक होने के बजाय मारक हो जाएगा। इसका अर्थ यह है कि एकाग्रता में शक्ति अवश्य है, परंतु यदि वह अनुचित हुई, तो उससे मनुष्य राक्षस भी बन सकता है। जिस बात पर चित्त एकाग्र करना है, वही यदि अशुभ हो, तो परिणाम भी अशुभ ही होगा।

10--जीवन में सहनशीलता का बड़ा महत्व है

               सहनशीलता एक ऐसा सत्य है, जिससे प्राय: सभी लोगों को अपने जीवनकाल में रू--रू होना पड़ता है। सहनशील होना एक गुण है, जिससे जीवन का वास्तविक विकास होता है। आज हमारे जीवन में दुख और तनाव हावी हैं। इसका परिणाम यह है कि हम थोड़े से कष्टों से शीघ्र घबरा जाते हैं, क्रोधित हो जाते हैं।
 
              संत कबीर एक ऐसे संत थे, जो प्राय: शांत और सहनशील बने रहते थे। उनके जमाने में विरोधियों की कमी नहीं थी, लेकिन अपनी बातों को डंके की चोट पर कहनेवाला, पूरी पुरातनपंथी व्यवस्था को निर्थक करार देने वाला और सगुण उपासना का खंडन कर निर्गुण का प्रचार-प्रसार करने वाला कबीर जैसा व्यक्ति कितना सहनशील रहा होगा। इस बात की आप कल्पना कर सकते हैं। जिसने कभी किसी से लड़ाई-झगड़ा, मार-पीट, गाली-गलौज नहीं की, बल्कि शुद्ध पवित्र मन से साधना करते हुए संत कबीर ने अपना मत केवल सहनशीलता के बलबूते फैलाया। यदि कबीर सहनशील बने होते, तो आज भक्तों, संतों एवं कवियों की परंपरा में नहीं रह पाते। इस तरह यह मानना पड़ेगा कि जीवन में सहनशीलता का कितना बड़ा महत्व है।

                राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का सादगी से भरा जीवन बहुत ही सहनशील था। वह प्राय: अपने प्रत्येक कार्य और व्यवहार में सहनशील बने रहते थे। उनका प्रत्येक कार्य रूटीन के मुताबिक चलता था। समय के बेहद पाबंद थे और अपने मन, वचन कर्म से कभी  कष्ट देना पसंद नहीं करते थे। इसीलिए वे अपने जीवन में प्राय: सफल रहे थे। आज आवश्यकता इस बात की है कि हम सहनशील बनें ताकि हमारे कर्म और व्यवहार से किसी को कोई कष्ट हो।

             सहनशीलता का गुण अभ्यास से सीखा जा सकता है। प्रत्येक कार्य करने की योजना एक सुनिश्चित ढंग से बनाने और उस पर अमल करने से ही सही दिशा में बदलाव संभव है। अच्छे लोगों की संगति, चिंतन विचारों को शुद्ध बनाए रखने से समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त हो सकती है। सहनशीलता का गुण जाने से दोस्तों और पड़ोसियों के बीच आदर होता है। जल्दी तनाव या क्रोध नहीं पाता। इसलिए सहनशील बने रहकर निज लक्ष्य की ओर बढ़ना चाहिए।