1--मनोबल की उपयोगिता
एक राजा के पास एक बड़ा ही पराक्रमी हाथी था। युद्धों में उस पर ही बैठकर राजा ने तमाम राज्यों पर विजय पाई थी। उसे इस तरह प्रशिक्षण दिया गया था कि युद्ध में शत्रु पक्ष के सैनिकों को देखते ही वह उन पर टूट पड़ता और शत्रु अवाक रह जाते और पीछे हट जाते।
ऐसा भी समय आया, जब हाथी बूढ़ा हो गया। राजा ने युद्ध के लिए नए युवा हाथियों को प्रशिक्षण देकर तैयार कर लिया। वह उपेक्षित होकर रह गया। अब उस पर पहले की तरह ध्यान नहीं दिया जा रहा था। उसकी भूख भी कम हो गई थी और उसके पौष्टिक भोजन में भी कमी कर दी गई। वह अशक्त और दुर्बल दिखने लगा था।
एक बार हाथी पानी पीने तालाब में गया। वहां की दलदल में उसका पैर धंस गया। उसने निकलने की कोशिश की, तो उसके शरीर ने साथ नहीं दिया। वह गरदन तक कीचड़ में समा गया। इतने बड़े हाथी को आखिर निकाला कैसे जाए? हाथी के बच जाने की संभावना किसी को नहीं थी। राजा को जब घटना की बात पता चली, तो वे दुखी हो गए।
उन्होंने एक चतुर सेनापति से सलाह मांगी, तो उसने कहा कि महाराज, इस हाथी को निकालने का एक ही तरीका है कि इसके पास युद्ध का माहौल तैयार किया जाए।
युद्ध के वाद्य मंगवाए गए, नगाड़े बजवाये गए और ऐसा माहौल बनाया गया कि शत्रुओं के सैनिक राज्य की ओर बढ़ रहे हैं। यह देखकर हाथी में अचानक फुर्ती और साहस आ गया। उसने जोर से चिंघाड़ लगाई और सैनिकों की ओर दौड़ने की कोशिश करने लगा। इसी प्रयास में वह बाहर आ गया।
2--आत्मविश्वास
जीवनकाल में अनेक असफलताओं का सामना करने वाला व्यक्ति अगर अपना आत्मविश्वास बनाए रखता है तो एक न एक दिन उसे इच्छित सफलता अवश्य मिलती है। वहीं विडंबना यह है कि सामान्य जीवनयापन करते हुए व्यक्ति आत्म-चिंतन नहीं करता। उसका वैचारिक मंथन केवल दैनिक जरूरतों की वस्तुओं और उनके उपभोग की व्यवस्था करने तक सीमित रहता है। जहां जीवन में कठिनाई आई नहीं कि भविष्य की चिंता में सोच-सोचकर मनुष्य तन-मन से कमजोर होता जाता है। संकट के समय में व्यक्ति जीवन संबंधी श्रेष्ठता का विचार करने लगता है। उसमें हर स्थिति का बहुकोणीय विश्लेषण करने की शक्ति उत्पन्न हो जाती है। जीवन के प्रत्येक घटनाक्रम पर आत्ममंथन प्रारंभ हो जाता है।
संकट के समय में व्यक्ति केवल वैचारिक स्तर पर श्रेष्ठ बने रहकर जीवन नहीं चला सकता। उसे खानपान, वस्त्र, आवास आदि आवश्यक भौतिक वस्तुओं के लिए शारीरिक परिश्रम करना पड़ता है। सामान्य जीवन में अचानक आई विपदा से कमजोर पड़ा व्यक्ति नए सिरे से जीवन संभालने के प्रति भावनात्मक रूप से तो आशावान रहता है, परंतु व्यावहारिक रूप से वह निराशा से घिरा होता है।
यदि व्यक्ति की युवावस्था निकल गई हो तो उसे और ज्यादा परेशानियों का सामना करना पड़ता है। ऐसी परिस्थिति में व्यक्ति का आत्मविश्वास ही उसका सबसे बड़ा साथी होता है। किसी नए व जटिल लगने वाले कार्य को करने के लिए विचार, नीति और क्रियान्वयन की आवश्यकता तो होती ही है, पर कार्य की सफलता करने वाले के सतत् आत्मविश्वास पर ही टिकी होती है। कोई भी काम व्यावहारिक स्वरूप में आने से पहले एक विचारमात्र होता है। कर्ता का आत्मविश्वास ही कार्य की परिणति निर्धारित करता है। मृत्यु के निकट पहुंचा व्यक्ति भी जीवन के प्रति समुत्पन्न आत्मविश्वास के सहारे वापस जीवनमार्ग पर चलने लगता है।
विचार का प्रभावमंडल विचारशक्ति के बजाय उसके लिए गठित आत्मविश्वास से अधिक बढ़ता है। इसी प्रकार कार्य में शत-प्रतिशत सफलता कार्यबल से ज्यादा उसके प्रति सच्ची निष्ठा से निर्धारित होती है। निष्ठा व लगन आत्मविश्वास से ही संभव हो पाती है। विचारवान बनने के बाद व्यक्ति जीवन में हर कार्य कर सकता है और इस संदर्भ में ऊर्जा का जो सबसे प्रभावशाली संसाधन है, वह आत्मविश्वास ही है।
संकट के समय में व्यक्ति केवल वैचारिक स्तर पर श्रेष्ठ बने रहकर जीवन नहीं चला सकता। उसे खानपान, वस्त्र, आवास आदि आवश्यक भौतिक वस्तुओं के लिए शारीरिक परिश्रम करना पड़ता है। सामान्य जीवन में अचानक आई विपदा से कमजोर पड़ा व्यक्ति नए सिरे से जीवन संभालने के प्रति भावनात्मक रूप से तो आशावान रहता है, परंतु व्यावहारिक रूप से वह निराशा से घिरा होता है।
यदि व्यक्ति की युवावस्था निकल गई हो तो उसे और ज्यादा परेशानियों का सामना करना पड़ता है। ऐसी परिस्थिति में व्यक्ति का आत्मविश्वास ही उसका सबसे बड़ा साथी होता है। किसी नए व जटिल लगने वाले कार्य को करने के लिए विचार, नीति और क्रियान्वयन की आवश्यकता तो होती ही है, पर कार्य की सफलता करने वाले के सतत् आत्मविश्वास पर ही टिकी होती है। कोई भी काम व्यावहारिक स्वरूप में आने से पहले एक विचारमात्र होता है। कर्ता का आत्मविश्वास ही कार्य की परिणति निर्धारित करता है। मृत्यु के निकट पहुंचा व्यक्ति भी जीवन के प्रति समुत्पन्न आत्मविश्वास के सहारे वापस जीवनमार्ग पर चलने लगता है।
विचार का प्रभावमंडल विचारशक्ति के बजाय उसके लिए गठित आत्मविश्वास से अधिक बढ़ता है। इसी प्रकार कार्य में शत-प्रतिशत सफलता कार्यबल से ज्यादा उसके प्रति सच्ची निष्ठा से निर्धारित होती है। निष्ठा व लगन आत्मविश्वास से ही संभव हो पाती है। विचारवान बनने के बाद व्यक्ति जीवन में हर कार्य कर सकता है और इस संदर्भ में ऊर्जा का जो सबसे प्रभावशाली संसाधन है, वह आत्मविश्वास ही है।
3--स्वावलंबन क्या है
वैसे तो जीवन जीने की अनेक विधियां हैं, लेकिन उन्हीं के लिए इन विधियों का महत्व है, जो सचमुच जीवन को सफलतापूर्वक जीना चाहते हैं। जिन लोगों को जीवन से कोई मोह नहीं होता, उनके लिए किसी विधि की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि उनके जीवन में कोई उद्देश्य नहीं होता। उद्देश्यपूर्ण जीवन के लिए कुछ और भी महत्वपूर्ण बिंदु हैं, जिनका पालन हमें करना चाहिए। स्वावलंबन का अर्थ है, स्वयं पर विश्वास करके जीना। कई लोग अपना जीवन स्वयं नहीं जीते, उनका जीवन कोई दूसरा जीता है। वे पराश्रित हो जाते हैं। सड़क किनारे पेड़ों पर पीली-सी लता फैली रहती है, जिसकी अपनी जड़ नहीं होती, यह लता पेड़ से रस लेकर अपना पोषण करती है।
कुछ मनुष्य भी पराश्रित होते हैं, वे स्वयं कुछ नहीं कर पाते। दूसरे के द्वारा अर्जित धन का गलत ढंग से उपभोग करते हैं। इसीलिए वे धन का उपयोग नहीं जानते, क्योंकि वे दूसरों की कमाई खाते हैं। अगर छोटे बच्चे बचपन से स्वावलंबी बनें, अपना काम स्वयं करें, तो वे आत्मनिर्भर बन जाएंगे। जो माता-पिता अपने बच्चों को छोटे-छोटे काम भी नहीं करने देते, वे अपने बच्चों के साथ न्याय नहीं करते।
आखिर कब तक कोई माता-पिता अपने बच्चों को पराश्रित रहने देंगे। इसलिए प्रत्येक विवेकशील माता-पिता अपने बच्चों को स्वयं के पांव पर खड़ा होने का प्रशिक्षण देते हैं ताकि भविष्य में अगर उन्हें अपने जीवन में कोई संघर्ष करना पड़े, तो वे बहादुरी से उसका मुकाबला कर सकें। स्वावलंबन, आत्मनिर्भरता, अपना काम स्वयं करना, ये बहुत ही उत्तम बातें हैं। अपने घरों में भी अपने सामान की देखभाल अपना प्रत्येक काम स्वयं करने का प्रयास करना चाहिए। कहा जाता है- 'जो व्यक्ति स्वयं अपना काम कर सकता है, वही दूसरों की सहायता कर सकता है।' स्वावलंबी व्यक्ति को ही सुख, शांति और धन-वैभव प्राप्त होता है। इसलिए माता-पिता का दायित्व है कि वे बच्चों को उनका काम स्वयं करने दें।
अपने सामान की देखभाल अपने अन्य दूसरे काम, अपनी पढ़ाई, होमवर्क, अपनी स्कूल ड्रेस, जूते, पेन-पेंसिल और किताबें आदि वे स्वयं सहेज कर रखें, तभी वे स्वावलंबी बन सकेंगे। आजकल प्यार और दुलार के कारण अनेक माता-पिता अपने बच्चों का सारा काम स्वयं करने लगे हैं। यह तौर-तरीका आगे चलकर बच्चों को बहुत नुकसान करता है।
4-कोई भी देश कर्तव्य से बनता है
हम शिकायत करते हैं कि स्वतंत्रता के इतने वर्षो बाद भी हमें देश ने कुछ नहीं दिया, लेकिन यह नहीं सोचते कि हमने देश को क्या दिया। यदि सभी लोग याचना छोड़कर देश के प्रति अपने कर्तव्य निभाएं, तो देश की उन्नति को कोई रोक नहीं सकता।
अमेरिका के भूतपूर्व राष्ट्रपति जे.एफ. कैनेडी ने कहा था- 'यह मत सोचो कि देश आपको क्या देता है, बल्कि यह सोचो कि देश को आपने क्या दिया है..'। बात स्लोगनों की नहीं है, बात नारों की नहीं है, बात विचार की है। विचार यह कि क्या मैं देश के सामने याचक बन कर आता हूं या देश के लिए कुछ करने की इच्छा से जीता हूं?
आमतौर पर हम देश से अपेक्षाएं रखते हैं, स्वतंत्रता से अपेक्षाएं रखते हैं, लेकिन खुद से कोई अपेक्षा नहीं रखते। यह जानते हुए भी कि हमसे ही बनता है देश। हम हमेशा शिकायत करते रहते हैं कि स्वतंत्रता के इतने सालों बाद भी हमें यह नहीं मिला, हमें वह नहीं मिला, लेकिन हम यह नहीं देखते कि हमने देश को क्या दिया। यदि उन लोगों की बात को सही भी मान लें कि देश गर्त में जा रहा है, तो क्या उसके जिम्मेदार हम नहीं हैं? हम देश के लिए कुछ नहीं करते, उसकी आर्थिक, सांस्कृतिक समृद्धि में कोई योगदान नहीं करते और देश से अपेक्षा करते रहते हैं कि वह हमारे लिए करे। हमसे ही देश बनता है। हमारे कार्यो से ही वह प्रगति के रास्ते पर जाएगा।
स्वतंत्रता दिवस के समय जरूर हम लोगों में देश के प्रति देशभक्ति उजागर होने लगती है। रेडियो, टेलीविजन में देशभक्ति के गाने हमें कुछ समय के लिए अपने कर्तव्यों के लिए प्रोत्साहित करते हैं। परंतु कुछ समय बाद हमारा मन भी और चीजों में उलझ जाता है।
दरअसल, व्यक्ति पांच स्तरों पर जीता है। आर्थिक, शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक तथा आध्यात्मिक स्तरों पर। हर स्तर में देश की एक प्रमुख भूमिका होती है। हम सब पर देश का उधार है। देश ने हमारी झोली में इतना कुछ दिया है, फिर भी हम देश के सामने भीख का कटोरा लेकर खड़े रहते हैं। अंग्रेजी में एक कहावत है, जैसा आप सोचते हैं, वैसे ही हो जाएंगे अर्थात आपकी सोच ही आपको बनाती है। अपने आसपास देखिए। अधिकतर लोग आपको याचक बने नजर आएंगे। मां-बाप बच्चों के सामने बैठे हैं कि मेरी झोली में सम्मान डाल दो। कर्मचारी मालिक के सामने याचक बना बैठा है कि मुझे प्रमोशन दे दो। मालिक सरकार के सामने याचक बना बैठा है कि हमें टैक्स में छूट दे दो।
हमें सोच को व्यापक बनाना चाहिए। छोटा सोचेंगे तो हम छोटे ही रह जाएंगे। हमारे मन में देने का भाव हो नकि लेने का। देश को जब हम देते हैं, उसी का प्रतिफल देश हमें देता है, इसे याद रखें। जैसे ही हमारे अंदर देने का भाव पैदा होता है, अपने आप हम दाता के रूप में स्थापित हो जाते हैं, वहीं जब मन में लेने का भाव होता है, तो हम याचक बन जाते हैं। स्वामी रामतीर्थ जी ने एक नियम बताया था, 'द वे टु गेन एनीथिंग इज टु लूज इट' अर्थात कोई भी चीज प्राप्त करना चाहते हो तो उसको देना शुरू कर दो। यदि आप ज्ञान चाहते हो, तो ज्ञान देना शुरू कर दो। जितना ज्ञान आप लोगों को दोगे, उतना आपका ज्ञान बढ़ेगा। यदि आप चाहते हैं कि आपको सम्मान मिले तो अन्य लोगों को सम्मान देना शुरू कर दीजिए। यदि आप सेवा चाहते हैं तो दूसरों की सेवा शुरू कर दीजिए।
परिवार, समाज और ईश्वर तक तो यह बात हमें शायद समझ में आ जाए, परंतु जब देश की बात होती है तो हम सब लोगों में अधिकतर लूटने, हड़पने, छीनने का विचार आ जाता है। हम अपने काम से दूसरे शहर जाते हैं, तो एक-एक पैसा संभाल कर खर्च करते हैं, परंतु कभी सरकारी खर्च पर कहीं जाने का अवसर मिल गया, तो अनाप-शनाप खर्च करने लगते हैं। आमतौर पर लोग कहते हैं, 'सब चोरी करते हैं तो हम क्यों न करें'। यह तो वही बात हुई कि सब कुएं में कूद रहे हैं तो हम क्यों न कूदें।
यह मानकर चलें कि ईश्वर परमपिता है, यानी वह सबका पिता है। कोई भी पिता नहींचाहता कि उसके पुत्र लोगों से याचना करें। हम सब 'अमृतस्य पुत्रम' हैं। सारे संसार के सामने याचक बने भीख का कटोरा लिए बैठे हैं। ईश्वर सोचते होंगे, 'मैंने मनुष्य को कर्तव्य करने के लिए बनाया था और यह तो याचक बन गया।'
हमें सोच को व्यापक बनाना चाहिए। छोटा सोचेंगे तो हम छोटे ही रह जाएंगे। हमारे मन में देने का भाव हो नकि लेने का। देश को जब हम देते हैं, उसी का प्रतिफल देश हमें देता है, इसे याद रखें। जैसे ही हमारे अंदर देने का भाव पैदा होता है, अपने आप हम दाता के रूप में स्थापित हो जाते हैं, वहीं जब मन में लेने का भाव होता है, तो हम याचक बन जाते हैं। स्वामी रामतीर्थ जी ने एक नियम बताया था, 'द वे टु गेन एनीथिंग इज टु लूज इट' अर्थात कोई भी चीज प्राप्त करना चाहते हो तो उसको देना शुरू कर दो। यदि आप ज्ञान चाहते हो, तो ज्ञान देना शुरू कर दो। जितना ज्ञान आप लोगों को दोगे, उतना आपका ज्ञान बढ़ेगा। यदि आप चाहते हैं कि आपको सम्मान मिले तो अन्य लोगों को सम्मान देना शुरू कर दीजिए। यदि आप सेवा चाहते हैं तो दूसरों की सेवा शुरू कर दीजिए।
परिवार, समाज और ईश्वर तक तो यह बात हमें शायद समझ में आ जाए, परंतु जब देश की बात होती है तो हम सब लोगों में अधिकतर लूटने, हड़पने, छीनने का विचार आ जाता है। हम अपने काम से दूसरे शहर जाते हैं, तो एक-एक पैसा संभाल कर खर्च करते हैं, परंतु कभी सरकारी खर्च पर कहीं जाने का अवसर मिल गया, तो अनाप-शनाप खर्च करने लगते हैं। आमतौर पर लोग कहते हैं, 'सब चोरी करते हैं तो हम क्यों न करें'। यह तो वही बात हुई कि सब कुएं में कूद रहे हैं तो हम क्यों न कूदें।
यह मानकर चलें कि ईश्वर परमपिता है, यानी वह सबका पिता है। कोई भी पिता नहींचाहता कि उसके पुत्र लोगों से याचना करें। हम सब 'अमृतस्य पुत्रम' हैं। सारे संसार के सामने याचक बने भीख का कटोरा लिए बैठे हैं। ईश्वर सोचते होंगे, 'मैंने मनुष्य को कर्तव्य करने के लिए बनाया था और यह तो याचक बन गया।'
देशभक्ति का भाव किसी अवसर का मोहताज नहीं होता, यह हमारे भीतर का स्थायी भाव होना चाहिए। देशभक्ति का मतलब देश से अपेक्षा करना नहीं, बल्कि देश के लिए कुछ करने की प्रवृत्ति पैदा होना है।
5-ज्ञान वह है जो वर्तमान को संवारे
यह यूनान की प्राचीन बोध-कथा है। एक राज-ज्योतिषी था। वह रात-दिन भविष्य-वाणी करने के लिए ग्रहों (सितारों) का अध्ययन करता रहता था। एक दिन वह रात के अंधेरे में तारों को देखता हुआ जा रहा था। उसे पता नहीं चला कि आगे एक गहरा गढ्डा है। वह उसमें गिर गया।
उसके गिरने और चिल्लाने की आवाज सुनकर पास ही एक झोपड़ी में रहने वाली वृद्धा उसकी मदद करने के लिए वहां पहुंच गई। उसने उसे रस्सी डालकर कुएं से निकाला। राज-ज्योतिषी बहुत खुश हुआ। वह खुश होकर वृद्धा का कुछ भला करना चाहता था, लेकिन उसमें राज ज्योतिषी वाली अकड़ थी। उसने कहा, 'इस निर्जन स्थान पर तुम नहीं आतीं तो मैं कुएं में ही दम तोड़ देता। मैं राज-ज्योतिषी हूं। राजाओं को उनका भविष्य बताता हूं, लेकिन मैं मुफ्त में तुम्हारा भविष्य बताऊंगा।'
यह सुनकर बुढि़या बहुत हंसी और बोली, 'यह सब रहने दो! तुम्हें अपने दो कदम आगे का तो कुछ पता नहीं है, मेरा भविष्य तुम क्या बताओगे?
कथा-मर्म: ऐसा ज्ञान किसी काम का नहीं, जो व्यक्ति के वर्तमान को न संवार सके..।
5-ज्ञान वह है जो वर्तमान को संवारे
यह यूनान की प्राचीन बोध-कथा है। एक राज-ज्योतिषी था। वह रात-दिन भविष्य-वाणी करने के लिए ग्रहों (सितारों) का अध्ययन करता रहता था। एक दिन वह रात के अंधेरे में तारों को देखता हुआ जा रहा था। उसे पता नहीं चला कि आगे एक गहरा गढ्डा है। वह उसमें गिर गया।
उसके गिरने और चिल्लाने की आवाज सुनकर पास ही एक झोपड़ी में रहने वाली वृद्धा उसकी मदद करने के लिए वहां पहुंच गई। उसने उसे रस्सी डालकर कुएं से निकाला। राज-ज्योतिषी बहुत खुश हुआ। वह खुश होकर वृद्धा का कुछ भला करना चाहता था, लेकिन उसमें राज ज्योतिषी वाली अकड़ थी। उसने कहा, 'इस निर्जन स्थान पर तुम नहीं आतीं तो मैं कुएं में ही दम तोड़ देता। मैं राज-ज्योतिषी हूं। राजाओं को उनका भविष्य बताता हूं, लेकिन मैं मुफ्त में तुम्हारा भविष्य बताऊंगा।'
यह सुनकर बुढि़या बहुत हंसी और बोली, 'यह सब रहने दो! तुम्हें अपने दो कदम आगे का तो कुछ पता नहीं है, मेरा भविष्य तुम क्या बताओगे?
कथा-मर्म: ऐसा ज्ञान किसी काम का नहीं, जो व्यक्ति के वर्तमान को न संवार सके..।
6--एकाग्रता के लिए हैं मूर्तियां
मूर्तियां माध्यम भर हैं, ईश्वर के प्रति एकाग्र होने का। हमें धर्मग्रंथों या प्रतीक पुरुषों का अनुसरण करने के बजाय स्वयं अनुभव प्राप्त करना चाहिए। स्वामी विवेकानंद का चिंतन..
संसार में सर्वत्र एक न एक रूप में आपको मूर्तियां मिलेंगी। कहीं मूर्ति का आकार मनुष्य जैसा है। मूर्तियों में मनुष्य ही सबसे उत्कृष्ट रूप है। यदि मैं किसी मूर्ति की पूजा करना चाहूं, तो मैं पशु, इमारत या अन्य किसी आकृति की अपेक्षा मनुष्य की आकृति को अधिक पसंद करूंगा। एक संप्रदाय समझता है कि अमुक रूप में ही मूर्ति ठीक तरह की है, तो दूसरा समझता है कि वह बुरी है। यही है मूर्ति-पूजा का दोष।
वस्तुत: धर्मग्रंथों में हमारा अंधविश्वास जितना कम हो, उतना ही हमारे लिए श्रेयस्कर है। हमने स्वयं क्या अनुभव किया, यही प्रमुख सवाल है। ईसा, बुद्ध या मूसा ने जो किया, उससे हमें कोई मतलब नहीं होना चाहिए, जब तक कि हम भी अपने लिए वही अनुभव न प्राप्त कर लें। यदि हम एक कमरे में बंद हो जाएं और ईसा या मूसा ने जो खाया, उसका विचार करें, तो उससे हमारी क्षुधा शांत नहीं हो सकती। इसी प्रकार उनके जो विचार थे, उन्हीं को सोचने से हमारी मुक्ति नहीं हो सकती। इन बातों में मेरे विचार बिल्कुल मौलिक हैं। कभी-कभी तो मैं यह सोचता हूं कि मेरे विचार तभी ठीक हैं, जब वे प्राचीन आचार्यो के विचारों से मिलते-जुलते हैं, पर दूसरे समय मैं समझता हूं कि उन लोगों के विचार तभी ठीक हैं, जब वे मुझसे सहमत होते हैं।
स्वतंत्रतापूर्वक विचार करने में मेरा विश्वास है। इन आचार्यो से बिल्कुल स्वतंत्र होकर विचार करो। उनका सब प्रकार आदर करो, पर धर्म की खोज स्वतंत्र होकर ही करो। मुझे अपने लिए प्रकाश अपने आप ढूंढ़ निकालना होगा, जैसा कि उन्होंने अपने लिए खोज निकाला था। उन्हें जिस प्रकाश की प्राप्ति हुई, उससे हमारा संतोष कदापि न होगा।
तुम्हें स्वयं बाइबिल 'बनना' होगा, उसका अनुसरण करना नहीं। हां, केवल रास्ते के दीपक के समान, मार्ग-प्रदर्शक साइन बोर्ड के समान उसका आदर करना होगा। धर्मग्रंथ की सारी उपयोगिता बस इतनी ही है। पर ये मूर्तियां तथा अन्य वस्तुएं इस काम की हैं कि अपने मन को एकाग्र करने के प्रयत्न में या किसी विचार पर मन को दृढ़ रखने के लिए आवश्यक हैं।
दो प्रकार के लोगों को मूर्तियों की आवश्यकता नहीं पड़ती। एक तो वे, जिन्हें ईश्वर का विचार ही नहीं आता और दूसरा, पूर्णत्व को प्राप्त हुआ व्यक्ति, जो इन सब सीढि़यों को पार कर गया होता है। इन दोनों छोरों के बीच में ही सब को किसी न किसी बाहरी या भीतरी आदर्श की आवश्यकता होती है। यह आदर्श चाहे किसी स्वर्गीय मनुष्य के रूप का हो अथवा जीवित पुरुष या स्त्री के रूप का। यह व्यक्तित्व और शरीर की पूजा है तथा बिल्कुल स्वाभाविक है। किसी भी वस्तु को ईश्वर मानकर पूजा करना एक सीढ़ी ही है।
यह परमेश्वर की ओर मानो एक कदम बढ़ने, उसके कुछ अधिक समीप जाने के समान है। यदि कोई मनुष्य अरुंधती तारे को देखना चाहता है, तो उसे उसके समीप का एक बड़ा तारा पहले दिखाया जाता है और जब उसकी दृष्टि बड़े तारे पर जम जाती है, तब उसको उससे छोटा तारा दिखाते हैं। ऐसा करते-करते क्रमश: उसको अरुंधती तक ले जाते हैं। इसी तरह ये भिन्न-भिन्न प्रतीक और प्रतिमाएं ईश्वर तक पहुंचा देती हैं। बुद्ध और ईसा की उपासना प्रतीक पूजा है।
इससे हम ईश्वर की उपासना के समीप पहुंचते हैं। पर इससे मनुष्य का उद्धार नहीं हो सकता। उसे तो ईश्वर तक जाना चाहिए, जिस ईश्वर ने बुद्ध और ईसा के रूप में अपने को प्रकट किया, क्योंकि अकेला ईश्वर ही हमें मुक्ति दे सकता है।
7-देखें दुख कैसे दूर हुआ --
हिमालय पर एक संत कुटिया में रहते थे। उनकी प्रसिद्धि इतनी थी कि उनके दर्शनों के लिए लोग नदियां-घाटियां पार कर चले आते। लोगों का मानना था कि वे हर दुख-तकलीफ से उन्हें मुक्ति दिला सकते हैं। जबकि संत नहीं चाहते थे कि उनकी एकांत साधना भंग हो।
एक बार तीन दिनों तक संत अपनी कुटिया से बाहर नहीं निकले। तीन दिनों में दुखों से मुक्ति पाने वालों की भारी भीड़ लग गई। जब वहां किसी और के आने की जगह नहीं बची, तब संत बाहर निकले। उन्होंने लोगों को संबोधित करते हुए कहा - मुझे पता है आप लोग अपने कष्टों, समस्याओं को दूर कराने मेरे पास आए हैं। आज आखिरी बार मैं आप लोगों के कष्ट दूर करने का उपाय बता रहा हूं, इसके बाद नहीं बताऊंगा। अब मुझे एक-एक करके अपनी समस्याएं बताएं।
सभी एक साथ बोलने लगे, क्योंकि सभी जानते थे कि संत से संवाद का यह अंतिम अवसर था। शोरगुल होने लगा। महात्मा चिल्ला कर बोले- आप लोग शांत हो जाइए। सभी अपने-अपने कष्ट एक पर्चे पर लिखकर मेरे सामने रख दीजिए।
सभी ने एक-एक पर्चे पर अपनी समस्या लिख दी। संत ने एक टोकरी में सारे पर्चो को डालकर उन्हें मिला दिया और कहा- हर व्यक्ति इसमें से एक पर्चा उठाए, उसे पढ़े और किसी दूसरे का दुख अपने दुख की जगह ले ले।
सारे व्यक्तियों ने टोकरी से पर्चे उठाकर पढ़े और चिंता में पड़ गए। क्योंकि सबके दुख एक से बढ़कर एक थे। आखिरकार, वे इस नतीजे पर पहुंचे कि बेशक उनके पास दुख हैं, पर बहुत से लोगों के पास तो उससे भी ज्यादा दुख-तकलीफें हैं। आखिरकार सभी ने अपने-अपने दुख को ही स्वीकार किया, लेकिन अब उन्हें दुख का प्रभाव कम लग रहा था।
8--संतुलन साधना ही शिवत्व है
लय और प्रलय, दोनों शिव के अधीन हैं। शिव का अर्थ ही सुंदर और कल्याणकारी, मंगल का मूल और अमंगल का उन्मूलन है। शिव के दो रूप हैं, सौम्य और रौद्र। जब शिव अपने सौम्य रूप में होते हैं, तो प्रकृति में लय बनी रहती है। पुराणों में शिव को पुरुष (ऊर्जा) और प्रकृति का पर्याय माना गया है। यानी पुरुष और प्रकृति का सम्यक संतुलन ही आकाश, पदार्थ, ब्रह्मांड और ऊर्जा को नियंत्रित रखते हुए गतिमान बनाए रखता है। प्रकृति में जो कुछ भी है, आकाश, पाताल, पृथ्वी, अग्नि, वायु, सबमें संतुलन बनाए रखने का नाम ही शिवत्व है।
शिव स्वयं भी परस्पर विरोधी शक्तियों के बीच सामंजस्य बनाए रखने के सुंदरतम प्रतीक हैं। शिव का जो प्रचलित रूप है, वह है, शीश पर चंद्रमा और गले में अत्यंत विषैला नाग। चंद्रमा आदिकाल से ही शीतलता प्रदान करने वाला माना जाता रहा है, लेकिन नाग..? अपने विष की एक बूंद से किसी भी प्राणी के जीवन को कालकवलित कर देने वाला। कैसा अद्भुत संतुलन है इन दोनों के बीच। शिव अर्द्धनारीश्वर हैं।
पुरुष और प्रकृति (स्त्री) का सम्मिलित रूप। वे अर्द्धनारीश्वर होते हुए भी कामजित हैं। काम पर विजय प्राप्त करने वाले और क्रोध की ज्वाला में काम को भस्म कर देने वाले। प्रकृति यानी उमा अर्थात् पार्वती उनकी पत्नी हैं, लेकिन हैं वीतरागी। शिव गृहस्थ होते हुए भी श्मशान में रहते हैं। मतलब काम और संयम का सम्यक संतुलन। भोग भी, विराग भी। शक्ति भी, विनयशीलता भी। आसक्ति इतनी कि पत्नी उमा के यज्ञवेदी में कूदकर जान दे देने पर उनके शव को लेकर शोक में तांडव करने लगते हैं शिव। विरक्ति इतनी कि पार्वती का शिव से विवाह की प्रेरणा पैदा करने के लिए प्रयत्नशील काम को भस्म करने के बाद वे पुन: ध्यानरत हो जाते हैं।
वेदों में शिव को रुद्र ही कहा गया है। वेदों के काफी बाद रचे गए पुराणों और उपनिषदों में रुद्र का ही नाम शिव हो गया और रौद्र स्वरूप में रुद्र को जाना गया। वस्तुत: प्रकृति और पुरुष के बीच असंतुलन उत्पन्न होने के परिणामस्वरूप यह स्वरूप प्रकट होता है। प्रकृति में जहां कहीं भी मानव असंतुलन की ओर अग्रसर हुआ है, शिव ने रौद्र रूप धारण किया है। लय और प्रलय में संतुलन रखने वाले शिव की भूमि रुद्रप्रयाग, चमोली और उत्तरकाशी जैसे तीर्थो में आई प्राकृतिक आपदा इसका उदाहरण हैं।
केदारनाथ धाम जाने पर रास्ते में लोक निर्माण विभाग उत्तराखंड की ओर से एक बोर्ड लगा है, 'रौद्र रुद्र ब्रह्मांड प्रलयति, प्रलयति प्रलेयनाथ केदारनाथम्।' इसका भावार्थ यह है कि जो रुद्र अपने रौद्र रूप से पूरे ब्रह्मांड को भस्म कर देने की सामर्थ्य रखते हैं, वही भगवान रुद्र यहां केदारनाथ नाम से निवास करते हैं।
हमें शिव के संतुलन स्वरूप पर ध्यान देना चाहिए। अपने भीतर तो संतुलन लाना ही चाहिए, साथ ही प्रकृति के संतुलन को भी बनाए रखने का प्रयास करना चाहिए। तभी हम जीवन में लय को कायम रख सकेंगे।
9--खोलें मन के द्वार
हमारी एकाग्रता में बाधक बनता है हमारा विचलित मन। यदि मन में प्रसन्नता हो तो वह पल भर में एकाग्र हो जाता है। इसके लिए हमें मन के दरवाजे खोल कर रखने पड़ेंगे। आचार्य विनोबा भावे का चिंतन..प्रसन्न चित्त में एकाग्रता स्वाभाविक होती है। मुझे इसका अनुभव है। मैं देखता हूं कि दो-चार चीजों की ओर ध्यान देना मेरे लिए मुश्किल पड़ता है। उसके लिए मुझे जरा मेहनत करनी पड़ती है। लेकिन एकाग्रता तो सहज ही हो जाती है। उसके लिए कोई कोशिश नहीं करनी पड़ती। न आंखें फाड़नी पड़ती हैं, न मुंह खोलना पड़ता है। यानी न करने में कुछ मेहनत नहीं। चित्त को इधर-उधर दौड़ाना भी नहीं। एक जगह बैठे रहना है, फिर उसमें तकलीफ क्या है? अगर तकलीफ है, तो चारों ओर दौड़ने में है। इसलिए अनेकाग्रता अस्वाभाविक होनी चाहिए और एकाग्रता स्वाभाविक।
मेरा मानना है कि जब चित्त पर संस्कार नहीं होते, तो स्मृति भी नहीं होती। मैं कभी-कभी नक्शा देखता हूं, तब मन की स्मृतियां इधर-उधर दौड़ती हैं। फलां-फलां मनुष्य फलां-फलां गांव में रहता है और उस गांव में अमुक-अमुक सभा हुई थी। वहां एक घटना हुई.. इस तरह मन कहां से कहां चला जाता है। इस तरह की अनेकविध स्मृतियां चित्त में होती हैं। इसी को चित्त की अशुचिता कहते हैं। ऐसी स्मृतियों को अगर हम धो सकते हैं, तो चित्त के एकाग्र होने में देर नहीं लगेगी।
महाभारत में आता है कि व्यास जी की समाधि लगने में छह महीने लगे। वास्तव में पूर्ण एकाग्रता तुरंत होनी चाहिए। वह नहीं हुई। छह महीने लगे। मतलब यह कि व्यास जी को अपने चित्त के संस्कार यानी स्मृतियों को धोने में इतना समय लगा। लेकिन यह भी हो सकता है कि स्वच्छ, निर्मल ज्ञान की प्रभा मन पर पड़े, तो चित्त एकदम एकाग्र हो जाए, इसलिए मायूस होने का कोई कारण नहीं है। मायूस लोगों से तुलसीदास जी कहते हैं - बिगरी जनम अनेक की, सुधरत पल लगै न आधु। अर्थात बिगड़ी बात को सुधरने में पल भर भी नहीं लगता। इसलिए डरते क्यों हैं? मान लीजिए, दस हजार वर्ष पुराना अंधकार गुफा में है।
हम लालटेन लेकर गुफा में जाएंगे, तो उस अंधकार को समाप्त होने में दो-चार साल तो नहीं लगेंगे। जहां लालटेन पहुंची, वहां उस क्षण अंधकारमय संस्कार मिट सकते हैं। अंतर में एक क्षण में भी आलोक पड़ सकता है। कभी साधु-संगति से भी आलोक हो सकता है। कहीं दर्शन से भी प्रकाश मिल जाता है, तो एक क्षण में पूरा का पूरा मन धोया जा सकता है। यदि प्रकाश नहींपड़ता तो धीरे-धीरे धोना पड़ता है।
यह एक लंबी साधना है। बहुत बड़ी मंजिल है और कड़ी साधना। गौड़पाद ने बताया है कि धीरज कितनी देर तक रखना चाहिए: उत्-बिंदुना कुशाग्रेन उत्सेद। यानी कुशाग्र अर्थात तिनके से समुद्र का पानी निकालना। तिनके से एक-एक बूंद समुद्र से निकालो, तो जितना धीरज रखना होगा, उतने धीरज की मन को जरूरत है। उतना धीरज और उतना उत्साह मन को दिखाना होगा। मन का निग्रह करना होगा। इस तरह खेद छोड़कर, मायूसी छोड़कर उत्साह से और धीरज से काम करना होगा, तो मन का निग्रह होगा।
एक ओर गौड़पादाचार्य ने धीरज की बात बताई है, तो दूसरी ओर तुलसीदास जी कहते हैं कि सुधरत पल लगै न आधु। एक ओर धीरज बताया है, दूसरी ओर यह बताया है कि एक क्षण में काम हो सकता है। काम हो सकता है, पर इसके लिए मन के दरवाजे खुले होने चाहिए। कहीं से भी ज्ञान मिलता है, तो लेने की तैयारी सदा रहे। ज्ञानी से ज्ञान-च्योति तो मिलती ही है, लेकिन बच्चे से भी मिल सकती है। उसके लिए चित्त उत्सुक और खुला होना चाहिए। उसके लिए मैं हमेशा सूर्य नारायण की मिसाल देता हूं।
ज्ञानी पुरुष का लक्षण है कि वह दरवाजे को धक्का देकर अंदर प्रवेश नहीं करता, दरवाजा खोला जाए, तभी वह अंदर आता है, वरना बाहर ही खड़ा रहता है। वैसे ही चित्त का दरवाजा भी अगर खोल दिया जाए और चित्त में उत्सुकता और प्रसन्नता हो तो ज्ञान मिल सकता है और ज्ञानी गुरु अंदर आ सकता है। सूर्यनारायण के समान ज्ञानी गुरु चित्त को धक्का नहीं देता। हृदय मंदिर खुला हो, धीरज हो, तो कहीं न कहीं से प्रकाश मिल ही जाएगा।
चित्त की प्रसन्नता से सहज एकाग्रता आती है। चित्त की एकाग्रता के विषय में पतंजलि ने ऐसा संकेत कर रखा है कि ध्यान योग का आचरण यम-नियमपूर्वक ही करना चाहिए, नहीं तो उससे वह तारक होने के बजाय मारक हो जाएगा। इसका अर्थ यह है कि एकाग्रता में शक्ति अवश्य है, परंतु यदि वह अनुचित हुई, तो उससे मनुष्य राक्षस भी बन सकता है। जिस बात पर चित्त एकाग्र करना है, वही यदि अशुभ हो, तो परिणाम भी अशुभ ही होगा।
10--जीवन में सहनशीलता का बड़ा महत्व है
सहनशीलता एक ऐसा सत्य है, जिससे प्राय: सभी लोगों को अपने जीवनकाल में रू-ब-रू होना पड़ता है। सहनशील होना एक गुण है, जिससे जीवन का वास्तविक विकास होता है। आज हमारे जीवन में दुख और तनाव हावी हैं। इसका परिणाम यह है कि हम थोड़े से कष्टों से शीघ्र घबरा जाते हैं, क्रोधित हो जाते हैं।
संत कबीर एक ऐसे संत थे, जो प्राय: शांत और सहनशील बने रहते थे। उनके जमाने में विरोधियों की कमी नहीं थी, लेकिन अपनी बातों को डंके की चोट पर कहनेवाला, पूरी पुरातनपंथी व्यवस्था को निर्थक करार देने वाला और सगुण उपासना का खंडन कर निर्गुण का प्रचार-प्रसार करने वाला कबीर जैसा व्यक्ति कितना सहनशील रहा होगा। इस बात की आप कल्पना कर सकते हैं। जिसने कभी किसी से लड़ाई-झगड़ा, मार-पीट, गाली-गलौज नहीं की, बल्कि शुद्ध व पवित्र मन से साधना करते हुए संत कबीर ने अपना मत केवल सहनशीलता के बलबूते फैलाया। यदि कबीर सहनशील न बने होते, तो आज भक्तों, संतों एवं कवियों की परंपरा में नहीं रह पाते। इस तरह यह मानना पड़ेगा कि जीवन में सहनशीलता का कितना बड़ा महत्व है।
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का सादगी से भरा जीवन बहुत ही सहनशील था। वह प्राय: अपने प्रत्येक कार्य और व्यवहार में सहनशील बने रहते थे। उनका प्रत्येक कार्य रूटीन के मुताबिक चलता था। समय के बेहद पाबंद थे और अपने मन, वचन व कर्म से कभी कष्ट देना पसंद नहीं करते थे। इसीलिए वे अपने जीवन में प्राय: सफल रहे थे। आज आवश्यकता इस बात की है कि हम सहनशील बनें ताकि हमारे कर्म और व्यवहार से किसी को कोई कष्ट न हो।
सहनशीलता का गुण अभ्यास से सीखा जा सकता है। प्रत्येक कार्य करने की योजना एक सुनिश्चित ढंग से बनाने और उस पर अमल करने से ही सही दिशा में बदलाव संभव है। अच्छे लोगों की संगति, चिंतन व विचारों को शुद्ध बनाए रखने से समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त हो सकती है। सहनशीलता का गुण आ जाने से दोस्तों और पड़ोसियों के बीच आदर होता है। जल्दी तनाव या क्रोध नहीं आ पाता। इसलिए सहनशील बने रहकर निज लक्ष्य की ओर बढ़ना चाहिए।