Wednesday, August 15, 2012

विवेकपूर्ण नेत्रों से आनन्द की अनुभूति



1-जहॉ धन बढता है वहॉ बुद्धि पंगु हो जाती है-
        धन की तरह विषय-वासना की इच्छा भी विषैली होती है।वासनाएं निरंतर बढती हैं,कभी तृप्त नहीं होती हैं ।यह भोग वासना पाश्चात्य सभ्यता की कलंक कालिमा है।कामी का विवेक नष्ट हो जाता है।जहॉ धन और बढती विषय-वासनाएं हैं वहॉ तो बुद्धि पंगु हो जाती है ।वासना भोग विलास प्रिय व्यक्ति के पास यदि रुपया है तो उसका यह लोक नर्क बन जाता है ।जिस प्रकार दूध सॉप के विष को बढाने का कारण होता है उसी प्रकार दुष्ट का धन उसकी दुष्टता को बढाता है।वासना के मद में अन्धा हुआ व्यक्ति देखता हुआ भी अन्धा ही रहता है ।विषय-वासना तो प्रत्यक्ष विष के समान है ।

2-ऐश्वर्य युक्त ब्राह्मण-
        कल्याण से भ्रष्ट होता है-यदि ब्राह्मण के पास धन का बडा संग्रह हो गया है तो वह ब्राह्मण कल्याण से भ्रष्ट हो जाता है ।क्योंकि धन-सम्पत्ति तो मोह में डालनी वाली होती है और यह मोह नरक में गिरा देता है,इलिए कल्याण चाहने वाले पुरुष को अनर्थ के इन साधनों का परत्याग कर देना चाहिए ।और जिसे धर्म के लिए भी धन-संग्रह की इच्छा होती है,उसके लिए भी उस इच्छा का त्याग ही श्रेष्ठ है ,क्योंकि कीचड लगाकर धोने की अपेक्षा उसका दूर से स्पर्श न करना ही अच्छा है ।धन के द्वारा जिस धर्म की उन्नति की बात की जाती है वह धर्म तो क्षयशील मानाजाना चाहिए ।दूसरे के लिए जो धनका परित्याग है,वही अक्षय धर्म है ।वही मोक्ष प्राप्त कराने वाला है ।।

3-दूर की वस्तु में आकर्षण होता है-
        संसार में दूरी में आकर्षण होता है।जो वस्तु हमारे समीप होती है,और हम उसके मालिक हैं,जिसपर हमारा स्वामित्व है हम उसके प्रति न दिलचस्पी लेते हैं,न उसकी सुन्दरता,महत्व,लाभ, तथा उपयोगिता ही समझते हैं ।मानव जगत में यह अतृप्तता का कारण है । जो वस्तु हमारे पास होती है,हम उससे इतना अधिक परिचित हो जाते हैं कि उसकी उपयोगिता हमारे लिए कुछ भी अर्थ नहीं रखती है।घर में जो व्यक्ति है उनसे हमारा काम आसानी चलता है । हमारी मॉ-पिता भीई-बहिन निकट रहने से उनका महत्व दृष्टिगोचर नहीं होता ।घर के बुजुर्ग लोगों का आदर-सत्कार सेवा आदि करने में अपनी प्रतिष्ठा की हानि समझते हैं ,इसका कारण यही है कि हम प्राप्त का अनादर करते हैं ।एक महॉजन रुपया उधार देता है,उसकी दृष्टि में मूलधन का उतना अधिक महत्व नहीं है जितना कि सूद का है ।उसके पास रुपयों की कमी नहीं है यदि वह चाहे तो अपने रुपयों से जीवन प्रयन्त सुखी रह सकता है ,लेकिन उसका लोभ उसके मार्ग में वाधा उत्पन्न करता है । वह सूद को वसूल करने के लिए जमीन आसमान सिर पर उठा लेता है ।मुकदमेबाजी में फंसता है,वर्षों अदालत में खडा रहकर समय व्यर्थ नष्ट करता है।यदि मुकदमें में सफल रहा तो कुर्की द्वारा मूलधन सूद सहित प्राप्त हो जाता है। लेकिन जब कर्ज लेने वाले का दिवाला निकल जाता है तो सूद के प्रलोभन में मूलधन भी गंवा लेता है ।।

4-विवेक पूर्ण नेत्रों से आनंद की अनुभूति करें -
        यदि आप विवेकपूर्ण नेत्रों से देखें तो आपको विदित होगा कि आपके गरीव घर में निर्धनता,प्रतिकूलता और संघर्ष के वातावरण में प्रभु ने आनंद प्रदान करने वाली अनेक वस्तुएं प्रदान की हैं ।अन्तर केवल यह है कि आपके स्थूल नेत्र उनके सौन्दर्य और उपयोगिता का अवलोकन नहीं करते ।आपके पास कौन-कौन सी वस्तुएं हैं ?क्या आपके पास उत्तम स्वास्थ्य है? यदि अच्छा स्वास्थ्य है तो आपको संसार की एक महानविभूति प्राप्त है,जिसके सामने संसार का समस्त स्वर्ण,बेशकीमती मूंगे,मोती,हीरे, जवाहिरात,दौलत इत्यादि फीके हैं ।अगर देखा जाय तो संसार का स्तित्व आपके स्वास्थ्य पर निर्भर करता है ।आपको जो स्वास्थ्य रूपी सम्पदा प्राप्त है,उसका आदर कीजिए ।अपनी पॉच इन्द्रियॉ –स्वाद,घ्राण,श्रवण,स्पर्श,दर्शन इत्यादि के अनेक आनन्दों का सुख लूट सकते हो। विश्व में ऐसे सेकडों सुख एवं आनन्द हैं जिनका आधार स्वास्थ्य है,जो यह आपको प्राप्त है, जीवन में आनन्द उटाना आपकी बुद्धि पर निर्भर करता है ।

5-वस्तुओं के सम्बन्ध में अपनी रुचि सरल बना लें,दुखी नहों-
        यदि आपके पास बहुमूल्य कीमती वस्त्र,आभूषण,सुसज्जित मकान इत्यादि नहीं है तो दुखी होने की आवश्यकता नहीं है।जैस् वस्त्र हैं,आपके पास जो भी हैं, उन्हीं को स्वच्छ निर्मल रखकर सादगी से अपनी विशेषताएं प्रदर्शित कर सकते हैं ।वस्त्रों के सम्बन्ध में अपनी रुचि सरल बना लीजिए,इस बात के लिए दुखी न हों । यह देखा गया है कि जो व्यक्ति अधिक श्रृंगार में निमग्न रहते हैं,वे प्रायः मिथ्याभिमानी, छिछोरे, अल्पबुद्धि के होते हैं । कपडों के मायाजाल में झूठा सौन्दर्य लाने की चेष्ठा करते हैं ।आपके पास जो भी अच्छा या बुरा है ,उसी का सदुपयोग करना प्रारम्भ कर दीजिए। अपने साधारण वस्त्रों को अच्छी तरह स्वच्छ कीजिए, यदि बाल काटने के पैसे नहीं हैं तो उन्हीं को धोकर ठीक तरह संवार लीजिए ।खद्दर के सस्ते,स्वच्छ और चलाऊ वस्त्रों में व्यक्ति बडा आकर्षक प्रतीत होता है। बस आवश्यकता है शिष्ठाचार की । प्रायः स्त्रियॉ दुकानों पर नईं-नईं साडियॉ,नयें-नयें डिजायनों के आभूषण देखकर अतृप्त एवं अशॉत रहती हैं ,घर में कलह उत्पन्न हो जाता है ,पति के पास आर्थिक संकट उत्पन्न हो जाता है, वह वेचारा इन सबके लिए ऋण लेने के लिए बाध्य होता है ।यह बडी मूर्खता है ।फैशन जिस गति से परिवर्तित हो रहा है अगर हर वर्ष इनका पुनर्निर्माण किया जाय तो असली सोना क्या खाक बचेगा ? प्राप्त का समुचित आदर करना सीखें ।अपनी साधारण सी वस्तु है, उन्हीं की सहायता से अपनी प्रतिभा,योग्यता और विशेषता को प्रदर्शित कीजिए तो सहज ही सुखःशॉति जीवन व्यतीत कर सकते हैं ।।

6--हर उपदेश शक्ति का ज्योति पिंण्ड है-
        प्रत्येक उपदेश का एक ठोस प्रेरक विचार होता है । जैसे कोयले के एक छोटे से कण में विध्वंशकारी शकितु भरी हुई होती है, उसी प्रकार प्रत्येक उपदेश शक्ति का एक जीता जागता ज्योति पिण्ड है।उससे हमें नयॉप्रकाश और नवीन प्रेरणॉ मिलती है ।महॉपुरुषों की अमृत वॉणी, कवीर,रहीम,गुरु नानक,तुलसी,मीरावाई,सूरदास आदि महॉपुरुषों के वचन दोहों और गीतों में महॉन जीवन सिद्धॉत कूट कूट कर भरे हैं ,आज ये अमर तत्ववेत्ता हमारे बीच नहीं हैं ,उनका पार्थिव शरीर विलुप्त हो चुका है, पर अपने उपदेशों के रूप में वे जीवन-सार छोड गये हैं,जो कि हमारे पथ प्रदर्शन में सहायक होतो हैं ।।

7-अनुभव में वृद्धि की गति धीमी होती है-
        जैसे-जैसे मनुष्य की उम्र बढती है उनका अनुभव भी बढता जाता है मगर यह गति बहुत धीमी होती है ।कडुवे मीठे घूंट पीकर हम आगे बढते हैं यदि हम केवल अपने ही अनुभवों पर टिके रहें तो अधिक लम्बे समय में जीवन के सार को पा सकेंगे ।इसलिए हम विद्वानों के अनुभवों को पढते हैं और अपने अनुभवों से परख कर,तौलकर अपने जीवन में ढालते हैं ।उन्होंने जिन अचत्छी आदतों को सराहा है .उन्हैं विकसित करें ।सदुपदेश हमारे लिए प्रकाश के जीते-जागते स्तम्भ हैं ।।

8--विषयों का चिंतन हानिकारक है-
        विषयों का चिंतन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आशक्ति हो जाती है और आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पडने से क्रोध उत्पन्न होता है,क्रोध से अविवेक अर्थात मूढभाव उत्पन्न होता और स्मरणशक्ति भ्रमित हो जाती है। फिर बुद्धि –ज्ञानशक्ति का नाश हो जाता है ।

9-भोजन को पकाने का ढंग बदलें-
        जितना अधिक अन्न पकाया जाता है,उतना ही उसके शक्ति तत्व विलीन हो जाते हैं ।स्वाद चाहे बढ जाय,किन्तु उसके विटामिन पदार्थ नष्ट हो जाते हैं ।कई रीतियों से उबालने,भूनने या तलने से आहार निर्जीव होकर तामसी बन ते हैं ।भोजन पकाने में सुधार करना शारीरिक कायाकल्प करने का प्रथम मार्ग है ।

10-प्रार्थना और प्रयत्न-जीवन में प्रार्थना और प्रयत्न दोनों आवश्यक है,
        अकेले प्रार्थना से काम नहीं चलने वाला, प्रयत्न जरूरी है,मेहनत करनी होती है तभी प्रार्थना सफल होगी ।और प्रयत्न करते हैं तो इसके लिए प्रार्थना जरूरी है,विना ईश्वर की मर्जी के कोई भी कार्य होने वाला नहीं है,इसलिए जीवन में प्रार्थना और प्रयत्न दोनों आवश्यक हैं ।।

11-हममें आशीर्वाद देने की सामर्थ्य होनी चाहिए -
        अगर किसी को आशीर्वाद देते हैं तो हममें आशीर्वाद देने की सामर्थ्य होनी चाहिए ।यह सामर्थ्य तभी होगीजब हम अन्दर से तृप्त हों,क्योंकि तृप्ति से शिद्धि आती है ।दुखी व्यक्ति क्या आशीर्वाद देगे ।जो तुप्त है खुश है वही खुशी वॉट सकता है ।

12-शराब पीना हानिकारक है-
        जी हॉ आपको पता है कि शराब पीना हानिकारक है,आर्थिक हानि के साथ यह एक मानसिक प्रदूषण भी है,जिससे पूरा समाज कुप्रभावित होता है । विज्ञान के अनुसार इससे शरीर में गर्मी उत्पन्न होती है,उससे खासकर यकृत को नुकसान होता है । शरीर के प्रत्येक चक्र का एक अधिकतम तापमान होता है,यदि गर्मी उससे अधिक हो तो बुखार आ जाता है जिससे इस गर्मी से छुटकारा मिल सके ।वैसे लीवर इस गर्मी को बाहर फेंकता रहता है ,लेकिन उसकी भी एक सीमा होती है ।अत्यधिक गर्मी चित्त सम्बन्धी अंगों की कोशिकाओं को जला देती है जिसस कारण उससे सम्बन्धित कार्य मंद हो जाते है ।इसी लिए हमारे जितने भी पैगामेबर हुये हैं सबने शराब को पीना वर्जित बताया है ।शराब को पीने से हमारे चक्रों में वाधी उत्पन्न होती है। वैसे भी यह इंसान की रूह(आत्मा) के खिलाफ है ।

13 – व्यक्ति का मन -
        व्यक्ति का मन दीपक की लॉ समान होता है। जो वासनाओं के कारण हवा के हल्के झोंक से डोलने लगता है ।काम शक्ति यदि मनुष्य के नियत्रण में न हो तो व्यक्ति का सर्वनाश हो जाता है,आशक्ति सर्वनाश का मूल है

14 -परमात्मा और धर्म-
        परमात्मा एक है, जबकि धर्म एक बन्धन है परमात्मा धर्म से परे है, हमें धर्म सीमाबद्ध रखता है,रोकता है, और परमात्मा से अलग करता है । हमें परमात्मा के दर्शन तभी होंगे जब हम स्वयं को शरीर न समझकर एक आत्मा समझेंगे,क्योंकि शरीर काम,क्रोध,लोभ, मोह से युक्त होता है, शरीर को शरीर चाहिए, जबकि आत्मा का का सम्बन्ध परमात्मा से है, परमात्मा से आत्मा का जन्म होता है,परमात्मा आत्मा का पिता है, अपने पिता से जो चाहे मिल जायेगा, परमात्मा कहते हैं तुम मुझे तभी देख पाओगे जब तुम आत्मा बनोगे ।

15 – दूसरे की निन्दा न करें -
        किसी दूसरे की निन्दा न करें,ईर्ष्यालु ही बुरे किस्म का निन्दक हेाता हैं, वह दूसरों की निन्दा ङसलिए करता है कि वह दूसरे लोगों या मित्रों की नजरों से गिर जायेगा, और तब जो स्थान रिक्त होगा उस पर मुझे बिठा दिया जायेगा,लेकिन ऐसा न आजतक हुआ है और न होगा । कोई भी मनुष्य निन्दा से नहीं गिरता है बल्कि उसके पतन का कारण उसके हृास गुंण हैं ।

16 -अपनी शक्ति को बढायें-
        एक बार 9ने 8 पर थप्पड मारा 8 ने सोचा बडा भाई है माफ कर दिया,उसने 7 पर थप्पड मारा उसने भी बडा भाई समझकर 8 को माफ कर दिया उसी प्रकार 7 ने 6 पर 6 ने 5 पर 5 ने 4 पर 4ने 3 पर 3 ने 2 पर 2 ने 1 पर थप्पड मारा लेकिन1 ने छोटा भाई समझकर 0 पर थप्पड नहीं मारा बल्कि अपने बगल में बिठा दिया, जिससे 1 की ताकत 10 गुनी हो, गय़ी फिर उसने अपने बडे भाई 9 को भी बगल में बिठा दिया फिर आठ को भी बिठा दि जिससे उसकी शक्ति भठती गई ।

17 – महंपुरुषों के आदर्श -
        अगर तुम्हारे साथ किसी ने बुरा किया तो मन में याद न रखें,और किसी का तुमने भला किया तो उसे भी याद न रखें, आपने कोई पुण्य कार्य किया उसका विज्ञापन न करें, दान गुप्त होना चाहिए, अगर दांयॉ हाथ दान देता है तो बॉयें हाथ को पता न चले दान और स्नान गुप्त हों ये हमारी संसंस्कृति के आदर्श हैं।

18 – परमात्मा की पुकार-
        परमात्मा का कहना है कि यदि आप स्वयं को आत्मा समझ लें और दूसरे को भी आत्मा समझें और कह दें कि हे परमात्मा हमें मोक्ष दे दे तो उस आत्मा के अस्तित्व की जिम्मेदारी में स्वयं लेता हूं ।

19-तनाव से मुक्ति -
        जब कभी तनाव से कष्ट होता है, तो कोरा कागज बनो ङसके लिए मन की बड-बड बन्द करनी होगी, जब भी मन बड-बड करे जबाब देना सीखो, ताकि पूर्ण विराम आजाय। मतलव यंत्र, निकालो मतलव मत निकालो ।

20 – सत्य रूपी परमेश्वर -
        यदि आपको ऐसा आभास होने लगे कि पृथ्वी में प्रलय हो रहा है और आकाश टूट रहा है, हम नष्ट होने लग गये हैं, तो भी विश्वास पूर्वक यह मंत्र जपना चाहिए कि सत्य नित्य है और परमेश्वर सत्य के रूप में है, आत्मबल से सत्य रूपी परमेश्वर को अपनाना चाहिए।

21– श्रृष्ठि -
        ङस श्रृ्ष्ठि को हम सत्य समझते हैं, ङसीलिए हमारा मन नाना प्रकार की चिन्ताओं व वासनाओं का शिकार हो जाता है, यह श्रृष्ठि क्षणिक है,मिथ्या है ङस प्रकार का ज्ञान हो जाने पर इस श्रृष्ठि का कोई आकर्षण नहीं रहता है ,श्रृष्ठि के मूल कारणों के स्वरूपों का मन में सुदृढ हो जाने पर चाहे वह दिखे या न दिखे वही सत्य है ।

22 – सत्य-
        ईश्वर का नाम सत्य है,सत्य ही ईश्वर है,नाम सत्य है,जहॉ सूर्य है वहॉ प्रकाश है,जहॉ सत्य है वहॉ ज्ञान है ।देंखें या न देखें पढें या न पढें यदि ङसप्रकार की शंका पैदा होती है तो सत्य से पूछ लेना चाहिए ।

23 – जवानी-
        जवानी जोश है,बल है,दया है, साहस है, आत्मविश्वास है,गौरव है और सवकुछ जो जीवन में पवित्र उज्वल और पूर्ण बना देता है जवानी का नशा घमण्ड है,निर्दयता है ,स्वार्थ है, शेखी है,विषयवासना है, कटुता है और ह सबकुछ जो जीवन को पशुता विकार और पतन की ओर ले जाता है, अब यह हमारे विवेक पर निर्भर है कि हम किस पक्ष के मार्ग को उचित समझते है ।

24 -जीवन-
        उस पुष्प को तो देखो,सूर्य की किरणों ने उसे छुआ तो वह खिल गया,कितना सुन्दर था वह,पर एक ही घंटे में देखते-देखते वह मुरझा गया और झुक गया, अब वह गिर जायेगा, ओह यह जीवन भी ऐसा ही है ।

25-मन-
        मन ही मनुष्य को स्वर्ग या नरक में बिठा देता है, स्वर्ग या नरक में जाने की कुंजी भगवान ने हमारे हाथ में दे रखी है।

26-पररमात्मा का आशीर्वाद -
        पारस पत्थर से स्पर्श करने पर लोहा एक बार जब सोना बन जाता है तब चाहे उसे जमीन में गाढ दें,अथवा कबाड में फेंक दें, वह सोना ही रहता है, फिर लोहा नहीं बनता, सी प्रकार सर्वशक्तिमान परमात्मा के चरण स्पर्श से जिसका हृदय अक बार पवित्र हो जाता है उसका फिर कोई कुछ नहीं बिगाड सकता है चाहे वह संसार के कोलाहल में रहे अथवा जंगल में एकान्तवास करे।

27-कामना -
        दुनियॉ में जितने भी मजे विखरे हैं उसमें तुम्हारा हिस्सा हो सकता है जिसे तुम अपनी पहुंच से परे मान बैठे हो गी के फल को दोनों हाथों से दबाकर निचोडो, रस की निर्झरी तुम्हारे बहाये भी बह सकती है ।

28-कवि-
        जिसे संसार में दुख कहा जाता है वहॉ कवि के लिए सुख है ।धन,ऐशवर्य,रुप,और बल विद्या बुद्धि से विभूतियॉ संसार को चाहे कितना ही मोहित कर ले कवि के लिए जरा भी आकर्षण नहीं है उसको प्रमोद और आकर्षण की वस्तु तो बुझी हुई आशायें और मिटी हुई स्मृतियॉ तथा टुटे हुये ह्रदय के समान  हैं।

29-छोटी-छोटी बातों पर न उलझें-
        बात उलझाकर बढाने से एक दूसरे को देखकर एक दुसरे की गलती ही सामने आती है, जिससे दोनों हमेशा उलक्षे रहते हैं।

30-ज्ञान-
        इस पृथ्वी पर ज्ञान से बडा कोई सुख नहीं है, ज्ञान का अर्थ है आत्मज्ञान-ध्यान और स्वयं का बोध ।

31-वन्दन-
        समय के साथ प्रणाम करने के तरीके भी बदलते जा रहे हैं,लेकिन एक विद्यार्थी जबतक अपने गुरु के समक्ष झुककर प्रणाम नहीं करता है तबतक वह शिक्षा प्राप्त नहीं कर सकता है,क्योंकि हानि,लाभ,जस, अपयस मनुष्य के हाथ में लहीं है,वह उपर वाले के हाथ में है।

32 – आनन्द और मोह -
        आनन्द के आने पर मोह समाप्त हो जाता है,मोह अन्धेरा है और आनन्द सूरज है, आनन्द ही मोह को दूर कर सकता है।जैसे 20 पैसे के चने बेचने वाले की 1 लाख की लाटरी खुलने पर वह चना बेचना बन्द कर देगा, क्योंकि उसके पास आनन्द आ गया,तुलसीदास जी ने राम को आनन्द रुपी सायंकालीन सूर्यकहा है ।

33-सुख-
        आशा और निराशा से मुक्त होकर बुद्धि को स्थिर किया जा सकता है जिससे सुख की प्राप्ति होती है ।

34 – महॉपुरुष-
        ज्ञान के द्वारा बुद्धि को स्थिर किया जा सकता है,जिससे इन्द्रियॉ उसके बस में हो जाय,महॉपुरुष किसी भी परिस्थिति में विचलित नहीं होते हैं क्योंकि उन्हैं यह ज्ञान होता है कि भगवान उनके साथ हैं ।

35-नास्तिक-
        नास्तिक वह है जिसे स्वयं पर भरोशा नहीं है,हमारा धर्म कहता हैं कि जो ईश्वर में विश्वास नहीं रखता है, वह नास्तिक है और आधुनिक धर्म कहता है कि नास्तिक वह है जिसे स्वयं पर विश्वास न हो कि तू कुछ कर सकता हौ ।

36-दृढता -
        दृढता पुरुष के सभी गुणों का राजा है यह एक प्रवल शक्ति है,वीरता का प्रधान अंग है, ङसे कदापि हाथ से जाने न दें, तुम्हारी परीक्षायें होंगी, तुम्हें लगातार निराशाओं का सामना करना पडेगा,ऐसी दशा में दृढता के अतिरिक्त कोई विश्वासपात्र पथप्रदर्शक आपको नहां मिलेगा, दृढता यदि सफल न भी हो सके तो संसार में अपना नाम छोड जाता है। यदि आप दृढता से कार्य करते जायेंगें तो सफलता आपके कदमों को चूमेगी । 

37-जियो और जीने दो-
        जियो और जीने योग्य जीवन जियो, ऐसी जिन्दगी बनाओ जिन्हैं आदर्श और अनुकरणीय कहा जा सके, विश्व में अपने पदचिन्ह छोडकर जाओ, जिन्हैं देखकर कोई अभागी संतति अपना मार्ग ढूंड सके ।

38-ज्ञान -
        जलते दीपक से ही दीपक जलता है बुझे दीपक से दीपक नहीं जला करता और जिस दीपक में तेल ही नहीं वह क्या जलेगा, ङसलिए पहले मन रुपी दिये में ज्ञान का तेल डालो फिर देखोगे कि जलते दिये की लॉ लगने मात्र से दीपमाला जगमगाकर उठेगी ।

39-आत्मा और परमात्मा -
        कुछ लोग आत्मा में परमात्मा का निवास मानते हैं, अगर ऐसा होता तो हम सर्व शक्तिमान और जन्म मरण से मुक्त होते। परमात्मा एक है और आत्मायें कई हैं, परमात्मा से आत्मा का जन्म होता है-आत्मायें कई प्रकार की होती हैं जैसे त्मा,देवात्मा, महात्मा, पुण्यात्मा,आदि । सामान्य मनुष्य में आत्मा होती है। जिसकी क्वालिटी अन्य आत्माओं से उच्च होती है ।आत्मा का जन्म परम परमात्मा के द्वारा होता है ।

40 -परमात्मा और धर्म-
        परमात्मा एक है, जबकि धर्म एक बन्धन है परमात्मा धर्म से परे है, हमें धर्म सीमाबद्ध रखता,है,रोकता है, और परमात्मा से अलग करता है ।

41 -हंसी आना-
        जब हमें अपने अज्ञानता का ज्ञान होता है तो हंसी आती है, यह शुद्ध हंसी है, ङससे बुद्धि के ताले खुल जाते हैं, होंठों की हंसी हास्य की हंसी होती है और मन की हंसी ईश्वर की हंसी होती है।हंसना और हंसाना एक कला है जो स्वास्थ्य के लिए लाभकारी है।मुख खोलकर सभी हंसते है मगर दिल खोलकर हंसना चाहिए,लेकिन ध्यान रहे कि हमारी हंसी से किसी को कष्ट न हो ।

42-व्यक्ति की पहचान उसके स्वभाव से होती है-
        किसी भी व्यक्ति की पहचान उसके स्वभाव से की जाती है । यदि व्यक्ति का स्वभाव अच्छा है तो समझना चाहिए स्वर्ग उसके साथ है , प्रशन्नता से भरी दुनियॉ उसके साथ है।और यदि उसका स्वभाव दोषपूर्ण है तो वह जहॉ भी बैठेगा , उसका दुःख उसके साथ चलेगा । इसलिए अपना स्वभाव अच्छा बनायें-माथे को ढीला छोडकर शॉत रहना,चेहरे पर हमेशा मुस्कराहट और वॉणी में माधुर्य रखें, ये आपके श्रृंगार हैं घर से जाते समय इन्हैं लेकर जाइये और लौटते समय इन्हैं साथ लेकर आयें तोसमझना कि घर से आप सुख शॉति लेकर गये थे और सुख शॉति लेकर आ गये हैं ।

43-लडते समय बच्चों को कैसे समझायें-
        जब बच्चे लडते हैं और उन्हैं समझाना है तो उस समय बच्चे आपकी बात नहीं सुनेंगे,और कभी-कभी आपको भी बच्चों के झगडे से गुस्सा आता है, तो उस समय संयम रखें आप स्वयं पर नियंत्रण रखें और जब बच्चे शॉत हो जाते हैं उस समय समझायें बच्चों को।

44-मेरा मन-
        मेरा मन आज बादलों के संग उड गया, कौन जाने वह उडता -उडता कहॉ जायेगा,दल के दल बादल उमड-घुमड रहे हैं, उनके घने नीले अंधकार ने मुझे लपेट लिया है, मदमाती हवा नाचने में मस्त है,वह भी मेरे मन के साथ, बादलों के संग उमड रही है।

45 – मन की प्यास-
        जब तक सॉस चला करती है,तब तक आस नहीं मिटती, जीवन भर खुशियों की,भीनी-भीनी वास नहीं मिटती, कोई कितनी कोशिश कर ले,कोई कितना प्यार करले .तन की भूख तो मिट जाती है, मन की प्यास नहीं मिटती ।

46– प्यार में पूजप्यार में पूजा-
        प्यार में पूजा उतनी ही अनिवार्य है,जितनी मौत के उपरान्त कफन ।

47-दोस्त-
        दोस्त ही दोस्त को प्यार किया करते हैं,दोस्त ही दोस्त पर जान दिया करते हैं,मगर एक वक्त ऐसा भी आता है, दोस्त ही दोस्त की जान लिया करते हैं ।

48 व्यक्तित्व-
        प्रत्येक व्यक्ति का अपना-अपना दृष्टिकोंण होता है एक विश्वास की नीव पर वह अपना जीवन बनाता है,बिना एक सिद्धान्त के वह आगे नहीं बढ सकता है। उसका यही दृष्टिकोण यही विश्वास और यही सिद्धान्त उसके व्यक्तित्व को बनाता है।

49 -महान दार्शनिक सुकरात-
        सुकरात के विचारों का विरोध सबसे पहले उसकी पत्नी ने किया था क्योंकि उनका उपदेश देने का तरीका संवेदात्मक था, प्रश्न कर्ताओं से नाना प्रकार के प्रश्न पूछकर उनकी शंकाओं का समाधान करते थे,सुकरात का मुख्य उद्देश्य लोंगों को सत्य की ओर प्रेरित करना था,वे देवी-देवताओं को नहीं मानते थे, ङसलिए उनके ऊपर आरोप निर्धारित किये गये ।

50 – सहानुभूति-
        किसी के प्रति सहानुभूति रखना अच्छी बात है,यह मानवीय गुंण है, अत्यधिक सहानुभूति मानव में आत्म हीनता भर देता है, जिससे वह कायर बन जाता है ।

51-शब्दों का रस शब्दों की आत्मा है-
        शब्द तन की भॉति है, और इन शब्दों के भीतर जो रस छिपा होता है वह उन शब्दों की आत्मा है।शब्दों का उतना महत्व नहीं है जितना कि इनमें निहित रस का है, हर व्यक्ति के शब्दों के रसों में भिन्नता होती है, कुछ तो अधिक प्रभावकारी होते हैं और कुछ प्रभाव हीन होते हैं,शब्दों में जितना अधिक रस होता है उनमेंपरमात्मा की शक्ति उतनी ही अधिक होती है । यदि किसी नाराज हुये व्यक्ति को समझाना हो तो कई लोग एक ही प्रकार के शब्दों का प्रयोग करते हैं,मगर उनमें कुछ ही लोगों बात अधिक प्रभावकारी होती है । इसी प्रकार आधुनिक कविताओं में न कोई छन्द न लयबद्धता होती है मगर उन शब्दों का भाव ऎसा होता है कि उन्हैं बार-बार पढा जाता है। अगर संगीत के क्षेत्र में देखते हैंतो संगीत की तो कोई भाषा सीमित नहींहै कोई भी भाषा बोलने वाला हो, यदि किसी भी देश या क्षेत्र के संगीत की धुन शुरू हुई नहीं कि सबके सब थिरकने लग जाते हैं,वाह-वाह करने लगते हैं यह शब्दों के उन रसों का ही कमाल था ।शब्द तो तर्क जाल है, तर्क के कारण ही कई लोग भटकते रह जाते हैं। और शब्दों के रसों के कारण अधिकॉश लोग इन तर्कों के चक्कर में नहीं पढते हैं बस यदि तुम्हैं गुगुनाना आता है तो गा लेना,प्रेम के शब्दों का प्रयेग करना, बैठे मत रहना,जिस तरह हवा के झोंके आते हैं ऎसे ही उस प्रभु के झोंके भी आते रहेंगे।


Tuesday, August 14, 2012

शक्ति का संचय



 

1-मनुष्य जीवन स्वतंत्र नहीं है-
        क्या आप स्वयं को स्वतंत्र महशूस करते है?नहीं,आप तो परतंत्र हैं,स्वतंत्र तो केवल परमात्मा है।हम तो भ्रमवश ऎसा समझते हैं कि हम स्वतंत्र हैं,मुक्त हैं,किन्तु जिसे लोभ सताता है,वह क्रोध के वःश में होता है वह स्वतंत्र कैसे हो सकता है।यदि मोह,माया,काम,क्रोध,के अधीन रहने वाला मनुष्य अपने को स्वतंत्र माने यह तो केवल विडम्बना ही हो सकती है।।

2-अपराध-
        पाप करना इतना बडा अपराध नहीं है,जितना कि पाप को स्वीकार न करना है ।पाप को स्वीकार न करना और पाप के लिए पछतावा न करना बडा अपराध है।पाप करने के बाद जिसने पछतावा नहीं किया, वह वह मनुष्य नहीं है। सच्चा मनुष्य तो वह है जो बुरे कर्म के बाद आत्म ग्लानि अनुभव न करे ।।

3-मनुष्य स्वयं में पूर्ण है-
        वह मुक्त है ।उसके अपूर्ण दिखने का कारण है उसकी दुर्वलतायें हैं। उसे,भ्रम, राग,भय,तथा क्रोध की बेडियों ने जकड कर रखे हुये हैं ।यदि वह इन्हैं निकाल कर फेंक दें तो वह स्वयं पुरुषोत्तम बन जाता है ।।


4-पुरुषार्थ क्या है-
        योजनाबद्ध होकर नियमित रूप से कर्तव्यों का पालन करना ही पुरुषार्थ है। पुरुषार्थी तो सतयुग में जीताहै।जबकि आलसी और विलासी का जीवन तो कलयुग है ।और कलयुग से सतयुग में प्रवेश करना जीवन में शुभ प्रभात होना है। तो फिर उठो,जागो,प्राप्त करो । प्रभात की वेला तो तुम्हैं आगे बढने के लिए पुकार रही है ।अपने जीवन की वाटिका को पुरुषार्थ के सुमनों से सजाकर मुस्कराओ। तो फिर देखना दैव(भाग्य) भी मुस्करा रहे होंगे ।।
 
5-बुद्धि के सदुपयोग से सुख –
        शॉति का जीवन यापन करें यदि मनुष्य को अपने चिंतन का तथा अपनी बुद्धि का का सदुपयोग करने की कला आ जाय तो वह संसार में खूब आनंद,शॉति और प्रेंम से जी सकता है। और स्वर्ग के सुख से कई गुना अधिक गुना सुख पा सकता है।मृत्यु से पहले और बाद भी मुक्ति का अनुभव करें ।। 
 
6-ज्ञान की उपयोगिता-
        पहली बात है कि ज्ञान स्वयं ज्ञान प्राप्ति का सर्वोच्च पुरुस्कार है। यह हमारे सारे दुखों का हरण करने करने वाला है। जब मनुष्य अपने मन का विश्लेषण करते-करते ऐसी एक वस्तु से साक्षात्कार कर लेता है, तो उसको फिर दुःख नहीं रहता, उसका सारा विषाद गायब हो जाता है। भय और अपूर्ण वासना ही तो समस्त दुखों का मूल है। मनुष्य समझ जाता है कि मृत्यु किसी काल में है ही नहीं, तो फिर उसे मृत्यु से मुक्ति मिल जाती है, अपने को पूर्ण समझने से वासनाएं नहीं रहतीं। फिर कोई दुःख नहीं रहता। उसकी जगह इसी देह में परमानन्द की प्राप्ति हो जाती है ।।
 
7-चलते रहो-
        जीवन में सोते ही रहना कलयुग है,निद्रा से उठकर बैठना ही द्वापर है,और उठकर खडा हो जाना त्रेता युग है और चल पडना सतयुग है।इसलिए जीवन में चलते रहो-चलते रहो ।।

8–चरित्र जितना ही अधिक परिस्कृत होगा उतना ही अधिक भगवान का प्यार मिलेगा -
        परमात्मा तक पहुचने के लिए जीवन का शोधन करना होगा,पाप और पतन सरल है, घर में आग लगा दीजिए और दस हजार रुपये जला दीजिए यह तो सरल है, लेकिन मकान बनाना और दस हजार रुपये कमाना कठिन है । आत्मा को परमात्मा तक पहुंचाने के लिए रास्ता सरल नहीं है, संयमी- सदाचारी और ईमानदार बनिए कीमत को चुकाङये ।।
 
9 – कर्तव्यों का पालन ही स्वर्ग है -
        कर्तव्यों का पालन करना स्वर्ग की अनुभूति है,कर्तव्य पालन से आंखों में एक नईं ज्योति आती है,यह आत्म बल से उत्पन्न हुई शॉति होती है,कर्तव्य करते हुये यदि हम असफल हो भी जाते हैं तो कोई बात नहीं गॉधी,सुकरात,या ईसामसीह भी असफल हो गये थे, मगर यह असफलता सफलता से सौ गुनी अच्छी है ।।

10-स्मरण शक्ति का विकास करें-
        आध्यात्म में विस्मरण का निवारण ध्यान योग है,ध्यान योग का उद्देश्य मूलभूत स्थिति के बारे में,सोच विचार कर सकने योग्य स्मृति को वापिस लौटाना है,जीव का ब्रह्म के साथ मिलन से स्मृति ताजा हो जाती है, ध्यान योग हमें ङसी लक्ष्य की पूर्ति में सहायता करता है, ङससे आत्म बोध होता है, जो कि जीवन में सबसे बडी उपलब्धि है ।।
 
11 –मानसिक असंतुलन से मुक्ति के उपाय-
        मानसिक असंतुलन को सन्तुलन में बदलने के लिए ध्यान साधना से बढकर और कोई उपयुक्प उपाय नहीं है,ङसका सीधा लाभ आत्मिक और भौतिक दोनों रूपों में मिलता है,कई बार मन क्रोध, शोक, प्रतिशोध, कामुकता, विक्षोभ जैसे उद्वेगों में उलझ जाता है, ङससे कुछ भी अनर्थ हो सकता है, मस्तिष्क को ङन विक्षोभों से कैसे उबारा जाय ङसका समाधान ध्यान साधना से जुडा है ।।

12 – मुसीबत अपने साथ विपत्तियों का नया परिवार समेटकर लाती है -
        जिन्दगी में कभी-कभी ऐसे क्षण आते हैं कि एक मुसीबत के साथ कई मुसीबतें आ जाती हैं, ङसका कारण जब व्यक्ति आवेश में आता है तो संतुलन खो बैठता है, फिर न सोचने योग्य बातें सोचने लगता है,न कहने योग्य कहता है, न करने योग्य करता है, उनके दुष्परिणाम निश्चित रूप से होते हैं ।।
 
13 – देवता कभी बूढे नहीं होते हैं -
        आपने राम,कृष्ण या किसी देवी मातृ की शक्ल को बूढी नहीं देखी होगी।बूढे तो वे होते हैं जिनके अन्दर उत्साह उमंग नहीं रहता है ।श्रीकृष्ण भगवान108 वर्ष मे मरे थे,उनके बाल सफेद हो गये थे,दॉत उखड गये थे लेकिन उनको बूढा नहीं कहा गया,क्योंकि जिनके अन्दर उमंग ,उत्साह है और जो निराशा की बात नहीं करते उन्हैं जवान कहते हैं । ।
 
14 -ईश्वर भक्ति का नशा -
        जिस प्रकार शराबी को शराब का नशा होता है, उसी प्रकार भक्त को भक्ति का नशा होता है, हनुमान ने सारा जीवन भगवान के काम लगाया, सुग्रीव ने भी यही किया,बुद्ध ने अपने सारे सुखों का त्याग कर दिया था, स्वामी विवेकानन्द तथा गॉधी जी ने अपना जीवन भगवान के सुपुर्द कर दिया था,विभीषण तथा शिवाजी की भक्ति को देखिए सारा जीवन भगवान को समर्पित कर दिया था ।।
 
15 -आध्यात्म जीवन के लिए आवश्यक है -
        आध्यात्म से शारीरिक,मानसिक,आर्थिक समस्याओं का समाधान हो जाता है।आध्यात्म का जीवन में आने से परिवारों में राम-कृष्ण,भीम-अर्जुन, हनुमान जैसी सन्तानें पैदा होंगी ,व्यक्ति,परिवार,समाज एवं राष्ट का कल्याण होगा जिस प्रकार रामलीला के लिए पहले रिहर्सल करते हैं उसी प्रकार आध्यात्म को जीवन में अपनाने के लिए हमें प्रेक्टिकल करना होता है ।।

16 – श्रेष्ठ परम्पराओं को बढाना ही वंश परम्परा है -
        वंश परम्परा का मतलव औलाद से नहीं है बल्कि श्रेष्ठ परम्पराओं को आगे बढाना है हमारे पूर्वजों द्वारा आाध्यात्म की जो नीव रखी है उसे हमें संजोकर तथा परिष्कृत करके रखना है,ताकि अगली पीढी को ङसमें सन्देह न हो,महान श्रृषि गुफा में ही नहीं बैठते थे बल्कि लोगों को अपना ज्ञान बॉटते थे, ईसा मसीह, मुहम्मद साहब,गॉधी जी ने सारा जीवन दुनियॉ की सेवा में समर्पित किया ।।

17–सम्पत्ति जमा करने से अहंकार बढता है-
        जहॉ सम्पत्ति होती है वहॉ कलह होता है प्रशन्नता नहीं होगी । जब शरीर मोटा होता है तो वह कुछ भी काम नहीं कर सकता है, उसी प्रकार बडा आदमी बनने से कोई फायदा नहीं, अहंकार बढता है, जो कि जीवात्मा को पसन्द नहीं है। महात्मॉ गॉधी जी ने जब आंतरिक महानता को स्वीकार किया तो पूरे विश्व में अपनी छाप छोड गये ।बडप्पन से महानता बडी है।।

18–सुख और शॉन्ति का जीवन-
        इस शरीर को सुख चाहिए जबकि आत्मा के लिए शॉन्ति । सुख का सम्बन्ध भौतिक सम्पदा से है जैसे बीबी बच्चे,मकान, मोटर गाडी,रुपये पैसे अगर हैं तो कहते हैं सुखी है, लेकिन आत्मॉ के लिए ये चीजें व्यर्थ हैं ङन चीजों से शॉन्ति नहीं मिल सकती है,सुखों को बॉटने से शॉन्ति मिलती है,रावण हो या कंस या सिकन्दर सभी सुखी थे,मगर शॉन्ति नहीं थी ।।

19-मुझे नहीं चाहिए आप लीजिए मंत्र का प्रयोग करके देखें-
        जी हॉ ङस महॉ मंत्र का प्रयोग करके देखें, विश्व में आज व्याप्त वैचेनी, पीडा,छीना- झपटी,और युद्धों की जैसी स्थिति को ङस नीति से समाप्त किया जा सकता है । सतयुग में ङसी नीति का प्रयोग होता था,जिससे मानव सुखी था । ङतिहास की धटनाओं में कई उदाहरण हैं -जैसे रामायण युग में कैकई ने जब ङस नीति का उलंघन किया था और, मैं लूंगा आपको न दूंगा ,नीति को अपनाई थी तो सारी अयोध्या नगरी नरक धाम बन गयी थी, राम को चौदह वर्ष का वनवास और भरत को राज गद्दी ।दशरथ ने प्राण त्याग दिये। लेकिन जब भरत ने ,मुझे नहीं चाहिए आप लीजिए, की नीति अपनाई तो, धटना क्रम बदलकर दूसरे ही दृष्य उपस्थित हो गये, भरत ने राज-पाट को लात मारकर भाई के चरणों में लिपटकर बच्चों की तरह रोने लगे, और बोले भाई मुझे राज्य नहीं चाहिए,यह राजपाट मेरे लिए नहीं है, ङसे आप ले लीजिए,श्री राम ने कहा भरत भाई मेरे लिए तो वनवास ही श्रेष्ठ है,राज्य का सुख तुम भोगो ।ङधर सीता जी ने भी कहा कि नाथ यह राज्य भवन मुझे नहीं चाहिए ,मैं तो आपके साथ रहूंगी ।सुमित्रा ने लक्ष्मण को निर्देश दिया, कि हे पुत्र अगर सीता जी श्री राम चन्द्र जी के साथ वन जा रहीं हैं तो, उनकी सेवा के लिए तुम भी वन में जाओ । आज के युग में ङस नीति की नितान्त आवश्यकता है, ङस नीति से त्याग ,दूसरों की सुख-सुविधा,उन्नति का अधिक ध्यान रखकर मानवताकी रक्षा और विकास हो सकता है
 
20-चार पुरुषार्थ हिन्दू धर्म में प्रत्येक मनुष्य के लिए चार पुरुषार्थ बताये गये हैं –
        धर्म,अर्थ,काम,नोक्ष । प्रत्येक मनुष्य को अवश्य ही इन्हैं प्राप्त करना चाहिए, या जितना अधिक सम्भव हो प्राप्त करना चाहिए -
1-धर्म का तात्पर्य है अपने अन्दर सद्गुणों का विकास करना,जैसे ज्ञान प्राप्त करना और समाज के संदर्भ में व्यावहारिक जानकारी प्राप्त करना ।
2-अर्थ से तात्पर्य –परिश्रम और ईमानदारी से धन का उपार्जन करना ।
3- काम से तात्पर्य –आदर्श गृहस्थ जीवन व्यतीत करना एवं अपनी सन्तान को सुयोग्य नागरिक बनाना । मोक्ष से तात्पर्य –अपने घर-व्यापार के कार्यों से मुक्त होकर समाज-देश –धर्म के हित के लिए कार्य करना । जो मनुष्य इन चारों में से एक भी पुरुषार्थ प्राप्त नहीं कर पाते हैं,उनकता जीवन व्यर्थ एवं निष्फल है ।
 
21-बोलने में संयम वरतें-
        जब वसंत ऋतु आती है- तभी कोयल कूकना शुरू करती है, अन्य ऋतुओं में वह मौन रहती है । इसी प्रकार से, बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि- वह भी मौन रहे और सही अवसर आने पर सोच-विचार करके मीठी वॉणी में अपनी बात कहे । विना अवसर के बोलना,दूसरों के वीच में बोलना,बार-बार बोलना,सोचविचार किये बिना बोलना-यह मूर्खता के लक्षण हैं ।।

22-गुंण-दोषों में केवल गुणों को ही ग्रहण करें-
        अनेक वस्तुएं इस प्रकार की होती हैं कि जिनका सेवन करने से मनुष्य को नशा होता है और लगातार कई दिनों तक सेवन करने से बुद्धि भी नष्ट हो जाती है।इनका अधिक मात्रा में सेवन करने से मृत्यु तक होसकती है ।जैसे तम्बाकू,भॉग,गॉजा,धतूरा आदि ।लेकिन ध्यान देने वाली बात है कि –इन सभी वस्तुओं से विभिन्न प्रकार आयुर्वेदिक और होमियोपैथिक दवाइयॉ भी बनाई जाती हैं । इसलिए इन वस्तुओं का महत्व नकारा नहीं जा सकता है ।ध्यान रखने वाली बात होगी कि यदि किसी वस्तु में गुंण और दोष दोनों ही हैं तो हमें उनसे केवल गुँणों को ही ग्रहण करना चाहिए ।।

23-मूल्यवान कहीं भी हो ग्रहण कर लें-
        कोई भी उत्तम पदार्थ या मनुष्य किसी भी स्थान में मिल रहे हों तो उन्हैं ग्रहण कर लेना चाहिए,अपने मन में किसी भी प्रकार का संदेह नहीं रखना चाहिए । मूल्यवान वस्तु यदि किसी अशुद्ध स्थान पर हो तो भी उसे प्राप्त करके उसे संरक्षण करना चाहिए ।यदि आपका धन या आभूषण कहीं सडक पर गिर जाये तो आप क्या उसे वापस नहीं उठायेंगे ? उठायेंगे,अवश्य उठायेंगे । और यदि नहीं उठायेंगे तो आपको भारी आर्थिक हानि पहुंचेगी ।इसी प्रकार यदि कोई मनुष्य उत्तम गुंणों से युक्त हो अर्थात वह गुंणवान,चरित्रवान,तथा विद्वान हो तो हमें उसका आदर करना चाहिए और उसके गुंणों को सीखने का प्रयास करना चाहिए-भले ही वह किसी भी जाति –धर्म का क्यों न हो। इसी लिए कहा गया है कि-विष में से अमृत को,अशुद्ध पदार्थों में से सोने को,नीच मनुष्य से उत्तम विद्या को और दुष्ट कुल से भी स्त्री रत्न को ले लेना चाहिए ।।
 
24- बच्चों से प्यार करें मगर अधिक नहीं-
        बच्चों को प्यार करना आवश्यक है लेकिन जब यह प्यार बहुत ज्यादा हो जाय तो हानिकारक हो जाता है । जिस प्रकार अधिक मिठाई खाने से मधुमेह की वीमारी हो जाती है उसी प्रकार अधिक लाड प्यार से बच्चे विगड जाते हैं । इसीलिए बच्चों के कार्यों का निरन्तर निरीक्षण करते रहना चाहिए और जब भी कोई गलत कार्य करता दिखाई दे तो तुरन्त उसे समझाना चाहिए कि – यह कार्य गलत है और सही कार्य इस प्रकार से होगा ।यदि बच्चा फिर भी न माने तो उसे दण्डित करना चाहिए-उसकी गलतियों को क्षमा नहीं करना चाहिए ।इस प्रक्रिया से बच्चों में सद्बुद्धि तथा विवेक का विकास होता है और योग्यमनुष्य बनता है ।।

25--योग्य गुँणवान पुत्र से परिवार को सम्मान मिलता है-
        जिस प्रकार सुगन्ध से भरपूर एक ही वृक्ष से सारा वन महक उठता है या जिस प्रकार एक मात्र चन्द्रमा के निकलने से ही रात्रि का अन्धकार दूर हो जाता है,उसी प्रकार से केवल एक योग्य पुत्र अपने पूरे परिवार को समाज में प्रतिष्ठा दिलवाता है ।इसलिए सभी को चाहिए कि अपने सन्तान में गुणों का विकास करें ।।

26-मोह के समान कोई शत्रु नहीं है-
        हम अपने सम्बंधियों के प्रति अत्यधिक प्रेम भाव रखने से हम उनके दोषों को देख पाने में असमर्थ रहते हैं और इस मोह के कारण हानि भी उठाते हैं।माता अगर मोह के अधीन होकर अपनी सन्तान के अवगुंणों को न देखे और उसे दण्डित न करे तो वह संतान पूर्णतः अयोग्य बन जायेगी ।।
 
27-दुष्ट लोगों के अंग-
        अंग में विष होता है- सॉप के दॉतों में विष होता है,मक्खी के सिर में विष होता है,विच्छू के पूंछ में विष होता है- इन प्रॉणियों के तो केवल एक अंग में ही विष होता है।लेकिन दुष्ट मनुष्य के तो सभी अंगों में विष होता है और वह अन्य लोगों को सदा हानि पहुंचाने की चेष्टा करता है।अतः दुर्जन मनुष्य से सदैव दूर ही रहना चाहिए ।।
 
28-मैं नाम की कोई वस्तु है ही नहीं-
        मैं कौन हूं,इसका भली भॉति विचार करने पर दिखाई देता है कि मैं नाम की कोई वस्तु है ही नहीं-ठीक उस प्याज के समान जिसके छिलकों को एक-एक करके निकाल दिया जॉय तो अंत में तुम्हैं कुछ भी नहीं मिलेगा । यह मनुष्य शरीर भी उसी प्रकार का है,पंच्चतत्वों में विलय के बाद इस शरीर का कोई रूप शेष नहीं रहता । उस अवस्था में मनुष्य को अपने अहं का अस्तित्व ही नही मिलता और उसे ढूंडने वाला ही कहॉ रह जाता ? उस अवस्था में उसे अपने शुद्ध बोध में ब्रह्म के यथार्थ स्वरूप का जो अनुभव होता है,उसका वर्णन कौन कर सकता है।।

29-मूर्ख लोगों में ज्ञान का अभाव होता है-
        बहुत से मूर्ख लोग इस प्रकार के होते हैं कि जिन्हैं किसी भी विषय में कोई जानकारी नहीं होती है लेकिन फिर भी वह प्रत्येक वस्तु में –कमी और मीन-मेख निकालते रहते हैं ।इस प्रकार के लोग केवल अपने समय और ऊर्जा को ही नष्ट करते हैं क्योंकि इस प्रकार की निन्दा करने से न तो स्वयं उनके कोई लाभ होता है और न ही उस वस्तु का कुछ विगडता है ।।
 
30-दुष्ट लोगों से मित्रता न करें-
        दुष्ट और अयोग्य व्यक्तियों से कभी भी मित्रता नहीं करनी चाहिए लेकिन किन्हीं कारणों से ऐसे लोगों से मित्रता हो भी जाय तो भी उन पर विश्वास नहीं करना चाहिए ।लेकिन यदि आपका कोई योग्य और घनिष्ठ मित्र है तो उसपर भी आंख बंद करके विश्वास नहीं करना चाहिए ।यदि घनिष्ठ मित्र से आपने अपने विषय में समस्त वातें बता दी और वह आपसे रुष्ट हो गया तो, आपके विरोधियों को आपके विषय में सभी जानकारियॉ देकर आपको हानि पहुंचा सकता है ।और यदि रुष्ट न भी हुआ तब भी धन आदि के लालच में आपके विरोधियों से मिल सकता है ।।

31-धन का सदुपयोग करें-
        मधुमक्खियॉ अत्यधिक परिश्रम करके अपने छते में शहद एकत्र करती हैं ।लेकिन उस मधु का न तो उपभोग करती है और न किसी को दान करती है ।और जब उसका छता बडा हो जाता है तो अन्य प्रॉणी जैसे भालू, मनुष्य आदि उन छतों कोतोडकर मधु को निकाल देते हैं । तब उन मधुमक्खियों को बहुत दुख होता है कि हमारा सारा परिश्रम बेकार हो गया ।इसी प्रकार कुछ मनुष्य ऐसे होते हैं जो कि दिन-रात परिश्रम करके अपार धन एकत्रित करते हैं लेकिन उस धन को न तो वे स्वयं अपने उपभोग में खर्च करते हैं और न उसका प्रयोग देश-धर्म के हित के कार्य में व्यय करते हैं अतः उसका समस्त धन व्यर्थ हो जाता है। अतः बुद्धिमान मनुष्य को चाहिए कि वह जो भी धन प्राप्त करता है,उससे स्वयं के सुख के साधन एकत्रित करें और देश-धर्म के हित के लिए भी कार्य करें ।।

32-धन और ज्ञान दोनों का मेल असंभव है-
        मनुष्य अपने जीवन में कितना ही परिक्षम करले लेकिन धन और ज्ञान दोनों को बहुत अधिक मात्रा में प्राप्त कर ले यह सम्भव नहीं है। इस संसार में कोई भी ऐसा नहीं है जिसको धन और ज्ञान दोनों एक साथ प्राप्त हो गये हों ।सच तो यह है कि धनवान लोग विद्वान नहीं होते हैं ।इसी प्रकार विद्वान लोग बहुत अधिक धनवान नहीं होते।इसलिए यदि आपको अधिक धन कमाना हो तो आपको उसी क्षेत्र में प्रयास करना चाहिए और बहुत अधिक ज्ञान प्राप्त करने की आशा छोड देनी चाहिए।और यदि आपको अधिक मात्रा में ज्ञान प्राप्त करना हो तो आपको उसी क्षेत्र में प्रयास करना चाहिए और बुत अधिक धन प्राप्त करने की आशा छोड देनी चाहिए ।।

 
33-स्त्री-पुरुष का भेद-भाव छोड दें-
        यदि आप पूर्ण योगी होना चाहते हैं तो सबसे पहले आपको स्त्री पुरुष का भेद भाव छोड देना होगा ।आत्मा का कोई लिंग नहीं होता है-उसमें न स्त्री है ,न पुरुष ह,तब क्यों स्त्री –पुरुष के भेद-ज्ञान द्वारा अपने आपको कलुषित करें? यह अच्छी तरह समझना होगा कि ये भाव हमें छोड देना चाहिए ।।


34-रोना बन्द करें-
        मेरे दोस्त, तुम रोते क्यों हो?तुम्हारे लिए तो न जन्म है न मरण,क्यों रोते हो ? तुम्हें रोग शोक कुछ भी नहीं है,तुम तो अनंत आकाश के समान हो ।उस पर नाना प्रकार के मेघ आते हैं और कुछ देर खेलकर न जाने कहॉ अन्तर्निहित हो जाते हैं,पर वह आकाश जैसा पहले नीला था,वैसा ही नीला रह जाता है ।संसार की बुराई की बात मन में न लाओ,रोओ कि जगत में अब भी तुम बुराई देखने को मजबूर हो,रोओ कि अब भी तुम सर्वत्र पाप देखने को बाध्य हो और यदि तुम जगत का उपकार करनाचाहते हो,तो जगत का दोषारोपण करना छोड दो ।उसे और भी दुर्वल मत करो। आखिर ये सब पाप,दुख आदि क्या है ?ये तो दुर्वलता के ही फल हैं।इस प्रकार की शिक्षा से संसार दिन प्रति दिन दुर्वल होता जा रहा है।।
 
 
35-घर का मालिक अंधेरे कमरे में है-
        वह सर्वशक्तिमान उस अंधेरे कमरे में सो रहा है वही तो हमारे घर का मालिक है।उसे ढूंडने के लिए कोई अंधेरे कमरे में टटोलता फिरता है।वह खाट छूता है और कहता है,नहीं यह वह नहीं है। वह दरवाजा छूता है और कहता है,नहीं,यह भी नहीं है।वह दरवाजा छूता है और कहता है,नहीं यह वह नहीं है।वेदॉत में इस प्रकृति को नेति कहते हैं ।अंत में उसका हाथ मालिक पर पड जाता है और वह एकदम कह उठता है,यह है ।अब उसे मालिक के अस्तित्व का ज्ञान हो गया है।उसने उसे पा लिया है,परन्तु अभी भी वह उसे घनिष्ठ रूप से नहीं जान पाया है ।।

 
 
36-यश शक्ति का स्रोत है-
        त्याग से यश मिलता है धोखाधडी से नहीं । यश तो मित्र का काम करता है,सभा समाज मेंप्रधानता प्राप्त करता है, इसको प्राप्त करके सभी प्रशन्न होते हैं । क्योंकि यश के द्वारा तो शक्ति मिलती है और सब प्रकार से लाभ होता है।यश के कपाट सदा खुले रहते हैं और उनपर भीड भी हमेशा बनी रहती है, कुछ लोग घुसपैठ करते हैं तो कुछ धक्का देकर ।।
 
 
37-यश शक्ति का स्रोत है-
        त्याग से यश मिलता है धोखाधडी से नहीं ।यशतो मित्र का काम करता है,सभा समाज में प्रधानता प्राप्त करता है , इसको प्राप्त करके सभी प्रशन्न होते हैं । क्योंकि यश के द्वारा तो शक्ति मिलती है और सब प्रकार से लाभ होता है। यश के कपाट सदा खुले रहते हैं और उनपर भीड भी हमेशा बनी रहती है, कुछ लोग घुसपैठ करते हैं तो धक्का देकर ।।


38-यह शरीर और दुनियॉ अपनी नहीं है-
        यह संसार अपना नहीं और यह शरीर भी अपना नहीं है ये तो हमें प्राप्त हुये हैं और हमसे विछुड जायेंगे।जबकि ईश्वर हमको मिला हुआ नहीं है,यह हमसे विछुडने वाला भी नहीं है,ईश्वर तो हमेशा हमारे साथ रहने वाला है,ईश्वर हमसे दूर नहीं रहता बल्कि हम ही ईश्वन से दूर रहते हैं,हमें ईश्वर चाहे प्रिय लगे, मीठे लगे या जैसा भी लगे लेकिन खास विशेषता यहीं है कि यह ईश्वर अपना है इसलिए उस ईश्वर को अपना मानें, इस संसार को अपना न मानें ।।


39-विचार करने की शैली में परिवर्तन कर सुखी जीवन यापन करें-
        आज मनुष्य निराश और दुखी क्यों है! जबकि उसके पास सुख-सुविधाओं की कमी नहीं है, वह वैभवशाली जीवन यापन करता है, बटन दबाते ही हर कार्य पूर्ण हो जाता है। इसके विपरीत सतयुग में लोग जंगलों में रहकर कंद-मूल फल खाते थे, कठोर तथा अभावग्रस्त जीवन होने पर भी लोग खुश और मस्त रहते थे आखिर कैसे ,इसका रहस्य जानने के लिए हमें गहराई में उतरकर इसके मूल श्रोत पर ध्यान केन्द्रित करना होगा। हमारे सुख-दुख का कारण है हमारे विचार करने की शैली है। वैज्ञानिक प्रगति के कारण सभी सुख सुविधाओं के रहते हुये जिन्दगी में नीरसता,अशॉति,दुख आदि का कारण विचार करने की शैली में परिवर्तन का न होना है । हमने परिस्थितियों को तो बदला है मगर अपने चिन्तन पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया है। हम कैसे हैं और हमारा भविष्य कैसा होगा, यह सब विचार शैली पर निर्भर करता है, विचारों में अपार शक्ति होती है, वे हमेशा कर्म करने की प्रेरणा देते हैं, विचार शक्ति यदि अच्छे कार्यों में लगा दी जाय तो अच्छे और यदि बुरे कार्यों में लगा दी जाय तो बुरे परिणाम प्राप्त होते हैं ।विचार अच्छे हों या बुरे लेकिन यह निश्चित है कि विचार मनुष्य की अनिवार्य पहिचान है मनुष्य विचारहींन नहीं हो सकता है । हॉ विशेष योगिक क्रियाओं में विचार शून्यता की स्थिति प्राप्त की जा सकती है इसका उद्देश्य व्यर्थ के विचारों को त्यागकर लोकमंगल के विचारों को प्रधानता देना है । संसार में आजतक जितने भी श्रेष्ठ कार्य हुये इसका कारण व्यक्ति या समाज में उत्कृष्ठ विचारों का होना रहा है । हमें प्रकृति द्वारा निशुल्क वेशकीमती धरोहर प्राप्त है हम जब चाहें इसका उपयोग कर सकते हैं तो फिर आज हम इतने निराश,चिंतित,दुखी या हतोत्साहित क्यों हैं । आओ हम अपने भाग्य और सुखद भविष्य का निर्माण करें, इसके लिए हमें अपनी विचार शैली में परिवर्तन करना होगा निराशा से छुटकारा पाने के सूत्र -. जिन्दगी में आशावादी बनें। निराशा से छुटकारा पाने के लिए कुछ सूत्र सुझाव के रूप में दिए जा रहे हैं इन्हैं अपनाकर जीवन को उपयोगी बना सकते हैं ः-
1- किसी भी कार्य पर नकारात्मक सोच व्यक्त करने वाले व्यक्तियों से कोई सलाह मसवरा न करें ।
2- हर समय उदास रहने वाले लोगों से संम्बन्ध न बनायें, उनसे दूर रहने का प्रयास करें ।
3- श्रेष्ठ अध्ययन व चिन्तन करते रहें ।
4- स्वयं को कुंठित न रखें ,स्वयं को हर कार्य को करने योग्य समझें ।
5- असफलताओं से न घबरायें ,उनसे शिक्षा लें और दुबारा गलती न करें ।
6- समय का पालन करें,और हमेशा के लिए इसे अपने संस्कार का अंग बनायें ।
7- दूसरे लोगों के द्वारा दी गई प्रतिक्रियाओं पर ध्यान न देकर निराशा को दूर रखने का प्रयास करें ।
8- कर्म में निष्ठा रखने वाले आशावादी लोगों से मित्रता बढायें ।
9- हमेशा प्रशन्न व खुशदिल लोगों से दोस्ती रखने से निराशा दूर भागेगी ।
10-मस्तिष्क को हमेशा सार्थक एवं सकारात्मक विचारों पर ही केन्द्रित रखें ।
11- बुरे समय में हिम्मत न हारें, खुश रहकर संघर्शशील बनें । मुसीबतों का मुकाबला करें ।
12- महॉपुरुषों के संघर्षमय जीवन के बारे मे पढें ।
13- आशा ही जीवन है ,जीवन ही आशा है को स्मरण करते रहें ।
14- साहस और परिश्रम कठिन से कठिन परिस्थितियों को भी आसान तथा असम्भव को सम्भव बना देता है। 15- जिसमें सत्य के साथ रहने तथा सत्य के लिए अपने आप से प्रश्न करने की हिम्मत हो, परमात्मा की कृपा से उनकी इच्छायें पूर्ण होती हैं ।




40-कानों को पौष्टिक भोजन देना न भूलें-
        हम पेट को तो भोजन देते हैं,पर कान को भोजन देना भूल जाते हैं,इस बात का हमें अहसास ही नहीं होता है । अगर पेट भूखा रहता है तो शरीर क्षीण हो जाता है,लेकिन अगर कान भूखे रहेंगे तो हमारी बुद्धि मन्द हो जायेगी ।इसलिए यदि श्रेष्ठ पुरुषों के अभिवचन सुनने का अवसर मिलता है तो अन्य कार्यों को छोडकर वहॉ पहुंच जाओ,क्योंकि उनके वचन तुम्हें वह वस्तु देंगे जो रुपये-पैसों की अपेक्षा हजारों गुना मूल्यवान होती है । जो लोग जीभ से अच्छा खाना खाने में तो कुशल होते हैं, पर कानों से सदुपदेश सुनने का आनंद नहीं जानते,उन्हैं तो बहरा ही कहना चाहिए।ऐसे लोगों का जीना और मर जाना तो एक ही समान है ।।

Monday, August 13, 2012

पहले आज को सवारें


1-स्वयं में रचनात्मकता को विकसित करें-
         हमें स्वयं में सभी तरह के रचनात्मकता को विकसित करने के लिए उसके दरवाजे खोलने होंगे ।आज लोगों में अप्रत्याशित ऊर्जा है,लेकिन उन्हैं रचनात्मक कार्यों की की दिशा में मोडने की प्रेरणॉ नहीं दी जा रही है।वह मूल रहित है,किसी आधार के विना,परमात्मा के सम्पर्क के बिना दिशाहीन है, इसलिए वह छितराकर नष्ट होती जा रही है ।रचनात्मकता में यदि उसमें परमात्मा का प्रेम परावर्तित न हो तो वह स्वयं घातक है । वह तो उस वीमार वृक्ष के समान है जो जीवित तो है पर उसमें फल नहीं लगते हैं। चित्रकला का अर्थ केवल रंगों को उतारना ही नहीं है बल्कि उससे अधिक कुछ और भी है,जो कि जीवन का पोषण करता है । इसलिए रचनात्मकता में परमात्मा का प्रेम जीवन का लक्ष्य होना चाहिए ।

2-कलाकार को परमात्मा का आशीर्वाद-
        हर मनुष्य कलाकार हैं, और यदि कलाकार आत्मज्ञानी है तो उसकी कला में परमात्मा के प्रेम की सर्वव्यापी शक्ति परावर्तित होती है ।जब कलाकार की कला और कैनवस आपस में एकाकार हो जाते हैं तब अज्ञात चेतना के कार्य का सूत्रपात होता है।उस सहजता में,आत्मा की अभिव्यक्ति स्वयं होती है।तब मनुष्य रूपी यंत्र(कलाकार)में परमात्मा का आशीर्वाद उतर आता है,इस प्रकार की अनुपम कृति एक यादगार बन जाती है ।जो एक अनोखी कलाकृति,आनंद की वस्तु और हमेशा के लिए सौन्दर्य का प्रतीक हो जाती है,प्रेरणॉ और चैतन्य का स्रोत वन जाती है। जैसे सिस्टीन चैपल में माइकेल ऐंजलो की चित्रकारी या मोजार्ट का संगीत,इस प्रकार की कला मनुष्य की आत्मा में हलचल पैदा कर देती है और विकास के लिए ऊपर उठने की सीढियॉ बन जाती हैं ।



3-बेईमान भी ईमानदार साथी चाहता है-
        जो लोग बेईमान होते हैं वे प्रत्यक्ष में ईमानदारी का समर्थक और प्रशंसक पाये जाते हैं,बेईमान व्यक्ति भी ईमानदार साथी चाहता है। प्रमाणिक व्यक्तियों की तो सर्वत्र मॉग है वे सिर्फ अपने आत्मीय परिजनों में ही सम्मान नहीं पाते बल्कि शत्रु तक उनकी सच्चाई एवं ईमानदारी की प्रशंसा किए बिना नहीं रहते ।


 
4-भगवान की अनुभूति -
        जबतक हमें भगवान दूर प्रतीत होते हैं तबतक अज्ञान है।लेकिन जब हमें अपने अंदर उसका अनुभव होने लगता है, तब यथार्थ ज्ञान का उदय होने लगता है जो कि हमें अपने ह्दय मंदिर में दिखाई देने लगता है और जगत मंदिर में भी वही दिखाई देता है ।जबतक आदमी समझता है कि भगवान वहॉ है तबतक तो वह अज्ञानी है । परन्तु जब वह अनुभव करता है कि भगवान यहॉ है तभी उसे ज्ञान प्राप्त होता है ।


 
5-ईश्वर और जीव का सम्बन्ध-
        ईश्वर और जीव का सम्बंध वैसा ही है जैसा चुम्बक और लोहे का ।तो फिर ईश्वर जीव को आकर्।त क्यों नहीं करते ? इस लिए कि जिसप्रकार कीचड में लिपटा हुआ लोहा चुंबक चुंबक से आकर्षितनहीं होता,उसी प्रकार अत्यधिक माया में लिप्त जीव ईश्वर के आकर्षण का अनुभव नहीं करता,लेकिन जैसे ही पानी से कीचड धुल जाने पर लोहा चुंबक की ओर आकर्षित होने लगता है उसी प्रकार अनवरत् प्रार्थना तथा पश्चाताप के असुओं द्वारा संसारबंधन में डालने वाली माया का वह कीचड धुल जाता है,तो जीव शीघ्र ही ईश्वर की ओर आकर्षित होने लगता है ।



6-भीष्म पितामह की आंख अंतिम क्षण में खुली थी-
        जब भीष्म पितामह देहत्याग के समय शरशय्या पर पडे हुये थे, तब एक दिन उनके नेत्र से आंसू निकलते देख अर्जुन ने भगवान श्री कृष्ण से कहा,हे सखे आश्चर्य की बात है कि पितामह जो सत्यवादी, जितेन्द्रिय, ज्ञानी और ष्ट वस्तुओं में से एक हैं,शरीर त्यागते समय माया से रो रहे हैं ।भगवान त्री कृष्ण ने जब यह बात भीष्म पितामह से कही,तो उन्होंनेकहा,भगवन् आप तो अच्छी तरह जानते हैं कि मैं ममता के कारण नहीं रो रहा हूं, मेरे रोने का कारण यह है कि भगवान की लीला को आजतक में नहीं समझ पाया जिनका नाम मात्र जपने से मनुष्य अनेकोंनेक विपदाओं से तर जाता है,और वे ही भगवान पाण्डवों के सारथी और सखा –रूप में विद्यमान हैं।।


 
7-अवतारी पुरुष की पहचान-
        जिस प्रकार एक रेल का एंजन स्वयं भी आगे बढता ङै और कितने ही मालडिब्बों को भी साथ खीचकर लेजाता है उसी प्रकार वतारी पुरुष भी हजारों-लाखों मनुष्यों को ईश्वर के निकट लेजाता है ।।

8-सबके भीतर परमात्मा विराजमान है-
        मनुष्य तो एक के गिलाफ के समान है ।ऊपर से देखने में कोई गिलाफ लाल है तो कोई काला,लेकिन सबके भीतर रुई भरी होत है,उसी प्रकार मनुष्य देखने में कोई सुन्दर है कोई काला है,कोई महात्मा हैतो कोई दुराचारी है,पर सबके भीतर वही परमात्मा विराजमान है ।।


 
9-संसारिक जीवों में धर्म का प्रभव कम पडता है-
        जिस प्रकार एक मगर पर शस्त्र से वार किया जाय,तो उससे मगर का कुच भी नहीं होता है,बल्कि शस्त्र ही छिटककर अलग गिर जाता है ।इसी प्रकार संसारी जीवों के बीच यदि धर्म चर्ची कितनी ही क्यों न कीजाय,उसके ह्दय पर तनिक भी प्रभाव नहीं पडता ।।


 
10-मन तराजू के पलडे के समान है-
        तराजू का जिधर पल्ला भारी होता है,उधर झुक जाता है और जिधर हल्का होता है,उधर का भाग ऊपर को उठ जाता है। मनुष्य का मन भी तराजू की भॉति है।उसके एक ओर संसार है औरnदूसरी ओर भगवान है । जिसके मन में संसार ,मान इत्यादि का भार धिक होता है, उसका मन संसार की ओर से उठकर भगवान की ओर झुक जाता है ।।


 
11-हमारे हाथ आंखों पर हैं-
        विश्व की समस्त शक्तियॉ हमारी हैं,हमने तो अपने हाथ अपने आंखों पर रख लिए हैं और चिल्लाते हैं कि सब ओर अंधेरा है ।जान लो कि हमारे चारों ओर अंधेरा नहीं है, पने हाथ अलग करो,तुम्हें प्रकाश दिखाई देने लगेगा ,जो कि पहले भी था ।अंधेरा कभी नहीं था, कमजोरी कभी नहीं थी।हम सब मूर्ख हैंजो चिल्लाते हैं कि हम कमजोर हैं,अपवित्र हैं ।।


 
12-एक विचार पालो-
        एक विचार लेलो ।उसी एक विचार के अनुसार जीवन को बनाओ,उसी को सोचो,उसी का स्वप्न देखो और उसी पर अवलम्बित रहो ।शरीर के प्रत्येक भाग को उसी विचार से ओत-फ्रोत होने दो और दूसरेसब विचारों को अपने से दूर रखो यही सफलता का रास्ता है ।।


 
13-ईश्वर के कई रूपों में दिखता है-
        एक बार एक मनुष्य जंगल गया य़वहॉ उसने एक वृक्ष पर एक सुन्दर प्राणी देखा ।घर लौटकर उसने अपने मित्र से कहा कि मैने जंगल में एक पेड पर लाल रंग का एक प्राण देखा,मित्र बोला मैने भी देखा लेकिन वह तो हरा है,तीसरे व्यक्ति ने कहा नहीं उसे तो मैने भी देखा वह तो पीला है,उन्य लोगों ने भी कहा किसी ने कहा सफेद रंग का है किसी ने कोई और रंग बताया ।उन्हैं परस्पर झगडा होने लगा अंत में वे उस वृक्ष के पास गये वहॉ पर एक व्यक्ति बैठा था उसने उनके प्रश्नों के उत्तर में कहा,मैं तो इसी वृक्ष के नीचे बैठा रहता हूं और उस जन्तु को खूब अच्छी तरह से जानता हूं।तुम लोग उसके विषय में जो कह रहे हो सब सही है ।कभी वह लाल होता है कभी पीला,कभी सफेद उसके रंग बदलते रहते हैं और कभी विना रंग का दिखता है ।इसी प्रकार जो निरंतर भगवान का चिंतन करता है वह उनके रूपों तथा अवस्थाओं के बारे में जान सकता है। भगवान के अपने गुंण हैं,साथ ही वे निर्गुंण भी हैं।केवल वही व्यक्ति जो वृक्ष के नीचे रहता है,जानता है कि वह कितने रंगों में दिखाई देता है ।दूसरे लोग, जो पूरे सत्य को नहीं जानते ,परस्पर झगडा करते रहते हैं और कष्ट पाते हैं ।।



14-ईश्वर निराकारव साकार से परे है-
        ईश्वर के वारे में भ्रॉतियॉ निराकार और कार के सम्बंध में ।ईश्वर तो निराकार भी है साकार भी है तथा इससे परे भी है।केवल वे ही स्वयं जानते हैं कि वे क्या हैं।जो लोग उनसे प्रेम करते हैं उनके लिए वे नाना प्रकार से नाना रूपों स्वयं को व्यक्त करते हैं ।किन्तु निश्चित ही वे साकार अथवा निराकार की सीमा से बंधे नहीं हैं ।।



15-श्रद्धा और विश्वास में बहुत बडी शक्ति है-
        एक आदमी से विभीषण ने कहा लो इस चीज को अपने पास कपडे के एक छोर से बॉध के रख लो ,इसके बल पर तुम सहज ही समुद्र पार हो जाओगे ,तुम पानी पर चल सकोगे, लेकिन ध्यान रखना इसे देखना नहीं,नहीं तो डूब जाओगे।वह आदमी पानी पर बडी सरलता से चलते हुय़े आगे बढने लगा–विश्वास में ऐसा ही बल होता है ।लेकिन कुछ दूर जाने पर उसके मन में कुतूहल हुआ-कि विभीषण ने मुझे कौन सी वस्तु दी है कि जिसके बल पर मैं पानी के ऊपर ही ऊपर चला जा रहा हूं ? उसने गॉठ खोल ली और देखा तो उसमें केवल एक पत्ता था, जिसपर लिखा था राम नाम। उसने कहा –बस यही,और तत्काल वह डूब गया ।कहते हैं कि हनुमान ने राम के नाम पर विश्वास करके एक छलॉग में समुद्र को लॉघ दिया था लेकिन रामचन्द्र जी को सेतु बॉधना पडा था ।।


 
16-हम माया के अन्दर सुख ढूंडते हैं-
        इस संसार में जीवन और मृत्यु,शुभ और अशुभ,ज्ञान और अज्ञान का यह मिश्रण ही माया या जगत प्रपंच है ।तुम्हें सुख के साथ ब हुत दुख तथा अशुभ भी मिलेगा ।यह कहना कि मैं केवल शुभ लूंगा,अशुभ नहीं लूंगा, लडकपन है-यह असम्भव है ।।


 
17-संयम क्या है-
        जब हम अपने मन को किसी निर्धारित वस्तु की ओर लेजाकर उस वस्तु में कुछ समय तक के लिए धारण कर सकते हैं,और उसके बाद उसके अन्तर्भाग को उसके बाहरी भाग से अलल करके काफी समय तक उसी स्थिति को बनाये रखते हैं, तो यह संयम कहलाता है।उस स्थिति में बाहरी आकार अचानक गायब हो जाता है यह पता ही नहीं चलता । हममें तो केवल इसका अर्थ मात्र भाषित होता है ।।


 
18-संयम में सफल होना ज्ञान का प्रकाश प्राप्त करना है-
        यदि हम इस संयम को साधन के रूप में अपनाने में सफल हो जाते हैं तो सारी शक्तियॉ हमारे हाथ में आ जाती हैं ।यही संयम योगी का प्रधान स्वरूप है।ज्ञान के विषय तो अनन्त हैं ।जैसे स्थूल,स्थूलतम् सूक्ष्म, सूक्ष्मतम् आदि कई विभागों में विभक्त हैं।संयम का प्रयोग पहले स्थूल वस्तु पर करना चाहिए,और जब स्थूल ज्ञान प्राप्त होने लगे,तब थोडा-थोडा करके सूक्ष्मतम् वस्तु पर प्रयोग करना चाहिए ।।


 
19-भूत और भविष्य का ज्ञान-
        जब मन बाहरी भाग को छोडकर उसके आन्तरिक भावों के साथ अपने को एक रूप करने की अवस्था में पहुंचता है,तब दीर्घ अभ्यास के द्वारा मन केवल उसी की धारणॉ करके क्षण भर में उस अवस्था में पहुंच जाने की शक्ति प्राप्त कर लेता है, लेकिन इसके लिए हमें संयम की परिभाषा को नहीं भूलना चाहिए । और इस अवस्था को प्राप्त करके यदि भूत और भविष्य जानने की इच्छा करे,तो उन्हैं संस्कार के परिणॉमों में संयम का प्रयोग करना चाहिए । फिर भूत और भविष्य को जाना जा सकता है ।



20-कुल श्रेष्ठ कौन हैः-
        किसी कुल में उसी को श्रेष्ठ माना जाता है जो संपूंर्ण प्राणिर्यों को शॉत रखने का प्रयत्न करता है, हमेशा सत्य व्यवहार करता है, कोमल स्वभाव होकर सबका सम्मान करता है, सर्वदा शुद्ध भाव से रहता है।।



21-भूल-सुधार मानव स्वभाव है-
        भूल करके आदमी सीखता है ,पर इसका मतलव नहीं कि जीवनभर भूल ही करता जाये और कहे कि हम सीख रहे हैं । भूल होना स्वाभाविक है, पर अवसर आने पर उसको सबके सामने मानने की हिम्मत करना महॉपुरुषों का ही काम है ।यदि हम पुरानी भूल को नईं तरह से केवल दुहराते रहें तो इससे कोई लाभ नहीं है ।।


 
22-भूल-सुधार मानव स्वभाव है-
        भूल करके आदमी सीखता है ,पर इसका मतलव नहीं कि जीवनभर भूल ही करता जाये और कहे कि हम सीख रहे हैं । भूल होना स्वाभाविक है,पर अवसर आने पर उसको सबके सामने मानने की हिम्मत करना महॉपुरुषों का ही काम है ।यदि हम पुरानी भूल को नईं तरह से केवल दुहराते रहें तो इससे कोई लाभ नहीं है।।


 
23-मन की शक्ति-
        मन स्वभावतः बहिर्मुखी होता है,अर्थात बाहरी विषयों पर अधिक ध्यान रहता है। लेकिन मनोविज्ञान या दर्शन शास्त्र के अनुसार मन एक ऐसी शक्ति है,जिससे वह अपने अन्दर जो कुछ भी हो रहा है,उसे देख सकता है। जिसे अन्तः पर्यवेक्षण शक्ति कहते हैं। मैं तुमसे बात-चीत कर रहा हूं,लेकिन साथ ही मैं मानो एक और व्यक्ति बाहर खडा हूं,और जो कुछ कह रहा हूं उसे सुन रहा हूं। अर्थात एक ही समय चिन्तन और काम दोनों हो रहे हैं। तुम्हारे मन का एक अंश मानो बाहर खडे होकर, जो तुम चिन्तन कर रहे हो उसे देख रहा है। मन की समस्त शक्तियों को एकत्र करके मन पर ही उसका प्रयोग किया जा रहा है। जिस प्रकार प्रकाश की किरणों के सामने घने अन्धकार के गुप्त तथ्य भी खुल जाते हैं। उसी प्रकार एकाग्र मन अपने सब अन्तर्मय रहस्य प्रकासित कर देता है। तभी तो हम विश्वास की सच्ची बुनियाद पर पहुंचते हैं। तभी हमको धर्म की प्राप्ति होती है,हम आत्मा हैं या नहीं,संसार में ईश्वर है या नहीं। यह हम स्वयं देख सकते हैं।जितने भी उपदेश दिये जाते हैं,उनका उद्देश्य सबसे पहले मन की एकाग्रता और उसके बाद ज्ञान प्राप्त करना है।।



24-मन और शरीर का सम्बन्ध-
        मन और शरीर के सम्बन्ध को देखें तो, हमारा मन एक सूक्ष्म अवस्था में है। लेकिन वह इस शरीर पर कार्य करता है। और हमें यह भी स्वीकार करना होगा कि शरीर भी मन पर कार्य करता है। यदि शरीर अस्वस्थ होता है तो मन भी अस्वस्थ हो जाता है,और शरीर के स्वस्थ होने पर मन भी स्वस्थ और तेजस्वी होता है। यदि किसी व्यक्ति को क्रोध आता है तो उसका मन अस्थिर हो जाता है,और मन अस्थिर होने से उसका पूरा शरीर अस्थिर हो जाता है। कुछ लोगों का मन शरीर के अधीन होता है। उनकी संयम शक्ति पशुओं से विशेष अधिक नहीं होती है। इस प्रका के मन पर अधिकार पाने के लिए कुछ वाह्य दैहिक साधनाओं की आवश्यकता होती है,जिसके द्वारा मन को वश में किया जाता है। जब बहुत कुछ मन वश में हो जाय तब हम इच्छानुसार उससे काम ले सकते हैं।


 
25-भोजन के सम्बन्ध में सावधानी-
        हमें भोजन इस प्रकार करना चाहिए,जिससे हमारा मन पवित्र रहे। क्योंकि भोजन के साथ जीव का घनिष्ठ सम्बन्ध होता है। यदि हम किसी आजायबघर में जाकर देखते हैं तो यह सम्बन्ध स्पष्ट दिखता है। हाथी को देखते हैं,बडा भारी प्रॉणी है,लेकिन उसकी प्रकृति शॉत होती है। और यदि सिंह या बाघ के पिंजडे की ओर जाते है तो देखोगे कि वे बडे चंचल हैं। इससे समझ में आ जायेगा कि आहार का सम्बन्ध कितना भयानक परिवर्त कर देता है। हमारे शरीर में जितनी शक्तियॉ कार्यरत हैं,वे आहार से पैदा हुई हैं,इसे हम प्रति दिन प्रत्यक्ष देखते हैं। यदि हम उपवास करना आरम्भ करें तो हमारा शरीर दुबला हो जायेगा,दैहिक ह्रास होगा,और कुछ दिन बाद मानसिक शक्तियों का भी ह्रास होने लगेगा। पहले स्मृति शक्ति जायेगी,फिर धीरे-धीरे सोचने की सामर्थ्य भी जाती रहेगी। इसलिए साधना की पहली अवस्था में,भोजन के सम्बन्ध में विशेष ध्यान रखना होता है।।



26- हमारा शरीर परिवर्तनशील अणुओं से बना है-
        इस जगत असुर प्रकृति के लोगों की संख्या अधिक है,लेकिन ऐसा भी नहीं है कि देवता प्रकृति के लोग नहीं हैं, यदि कोई कहे कि आओ तुम लोगों को मैं ऐसी विद्या सिखाऊंगा,जिससे तुम्हैं इन्द्रिय सुखों में वृद्धि हो जाय,तो अनगिनत लोग दौडे चले आयेंगे। लेकिन अगर कोई कहे कि आओ में तुम्हैं परमात्मा का विषय सिखाऊंगा तो शायद ही उनकी बातों का कोई परवाह भा करेगा। अर्थात ऊंचे तत्व की धारणॉ करने की शक्ति बहुत कम लोगों में दिखने को मिलती है, और संसार में ऐसे भी महॉपुरुष भी हैं,जिनकी यह धारणॉ है कि चाहे शरीर हजार वर्ष रहे या लाख वर्ष, अन्त में परिणॉम एक ही होगा।जिन शक्तियों के बल से देह कायम है,उनके चले जाने से देह नहीं रहेगी। कोई भी व्यक्ति पल भर के लिए भी शरीर का परिवर्तन रोकने में समर्थ नहीं हो सकता है। क्योंकि यह शरीर कुछ परिवर्तनशील परमाणुओं से बना है। नदी का उदाहर देखो,पल भर में वह चली गई,और उसकी जगह एक एक नईं जल राशि आ गई। जो जल राशि आई वह सम्पूर्ण नहीं है,लेकिन देखने में पहले जलराशि की तरह ही है। हमारा यह शरीर भी ठीक उसी तरह सदैव परिवर्तनशील है। परन्तु इस तरह परिवर्तनशील होने पर भी उसे उसे स्वस्थ और बलिष्ठ रखना आवश्यक है। क्योंकि शरीर की सहायता से ही हमें ज्ञान की प्राप्ति करनी होती है । यही शरीर तो हमारे पास एक सर्वोत्तम साधन है ।।


 
27-अज्ञान और दुःख पर्यायवाची हैं-
        अज्ञानता के कारण ही दुख आता है, ऎसा नहीं कि दुःख तो है लेकिन मैं ज्ञानी हूं। मैं अज्ञानी हूं,इसलिए दुख है।मेरा अज्ञान ही मेरा दुःख है। जिस दिन मैं जान लूंगा,उस दिन दुःख दूर भाग जायेगा।और ऎसा भी नहीं कि यह जानने के बाद ज्ञान की नौका बनाकर दुःख के भवसागर को पार करूंगा। दुःख का तो कोई भवसागर ही नहीं है,बस मेरा अज्ञान ही मेरा दुःख है,मेरी पीडाओं का जन्म दाता है,मेरे अज्ञानता के कारण ही मैं उलझ गया हूं, मैं अपने पैरों पर कुल्हाडी मारने चला था। अपने अज्ञानता के कारण ही मैं अपने को जहर से भरकर अमृत से वंचित हो जाता हूं,यह तो मेरी ही भूल है सिर्फ भूल ।।



28-स्वयं अपने ही विचारों में भिन्नता क्यों होती है-
        लेख लिखते समय या विचार व्यक्त करने में यह महशूस किया कि, किसी तथ्य के विश्लेषण में अलग-अलग समय में,एक ही तथ्य के विश्लेषण में भिन्नता पाई जाती है,ऐसा क्यों ? किसी तथ्य के सम्बन्ध में लेख लिखा,फिर दूसरे समय में उसी को पूरा करना है तो विचार बदल गया और पुनः लिखना होता है, फिर यही संसय कि इसमें परिवर्तन की संभावना तो नहीं होगी । पहले से ही अपने लिए तो यह एक शोध का विषय बना रहा। और इस निश्कर्ष पर पहुंचा कि,हमारी मनोवृत्ति दो प्रकार की होती है-एक आंतरिक और दूसरी वाह्य। हर आदमी के तीन चक्षु होते हैं दो सामने दिखने वाले वाह्य चक्षु, और तीसरा ज्ञान चक्षु अंतरिक ।महशूस किया कि जब हमें बाहरी दुनियॉ सेअधिक लगाव होता है अर्थात वाह्य चक्षुओं से माया को देखकर विचार व्यक्त करते हैं तो, उसका सार कुछ और ही होता है,जबकि वह स्थिति जब हम बाहरी दुनियॉ से हटकर परमचैतन्य की ऊर्जा में उसी तथ्य की विवेचना करते हैं तो परिणाम पहले से भिन्न होते है,और इसमें किसी भी प्रकार के सुधार की आवश्यकता महसूस नहीं होती है।जीवन में अलग-अलग परिस्थितियों में,संवेगों में भिन्नता के कारण मनोवृत्ति भी बदल जातीं हैं। जिसका सीधा प्रभाव हमारे विचारों ,लेखों पर पडता है। इस असंतुलन को संतुलित करने का कार्य ज्ञान चक्षु का है,जिसका कि दुहरा रौल है,बस उसे स्मरण दिलाना होता है। इसलिए लेख लिखना हो या किसी विवेचना में भाग लेना हो तो,स्वयं की जॉच कर ले,लेकिन इस बात का ध्यान हर पल रखें,कि आप सिर्फ आप हैं।।


 
29-आपकी मनोदशा ही आपकी सफलता है-
        आपका मनोवृत्ति ही आपके जीवन की सफलता असफलता को निर्धारित करती है ।इसलिए अपनी जिन्दगी को सुखमय बनाने के लिए आज ही और अभी से रुचि और प्रशन्नता को अपनी जिन्दगी में धारण कीजिए।किसी के प्रति अरुचि प्रदर्शित न करें।सबको प्रकृति द्वारा प्रदत्त उपहार समझकर मुस्कराहट के साथ उसका स्वागत कीजिएगा,फिर देखना जिन्दगी खुशी से खिल उठेगी।मन आंनंद से भर उठेगा ।सभी कष्ट,सभी परेशानियॉ पल भर में छू मंतर हो जायेंगे,लगेगा जैसे कभी कोई दुःख था ही नहीं।मन की ज्योति प्रज्वलित हो उठेगी।सभी ओर प्रकाश ही प्रकाश होगा ।सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती नजर आएंगी।हरतरफ आनंदही आनंद होगा ।।

 
30-सफलता की कसौटी-
        सफलता का मार्ग कॉटों से भरा होता है जीवन में सफला प्राप्ति का मार्ग आसान नहीं है,उसके पग-पग में कॉटे विछे होते हैं। शहद पाने के लिएजहरीले मधुमक्खियों के डंक सहन करने होते हैं।मोती पाना हो तो गहरे समुद्र में मगरमच्छों के बीच से गहरे समुद्र में जाना होता है ।अगर संतान को सुख देना है तो माता-पिता को कष्ट सहन करना होता है । हर उन्नति की के मार्ग में कठिनाइयों का व्यवधान तो होता ही है ।ऐसी एक भी सफलता नहीं है कि कठिनाइयों से संघर्षकिये विना ही प्राप्त हो जाती है ।मनुष्य जाति का यह सबसे बडा दुर्भाग्य होता जब सरलता से सफलता प्राप्त हो जाती, तब वह नीरस हो जाती ।क्योंकि जो भी वस्तु जितनी कठिनता से प्राप्त होती है वह उतनी ही आनंद दायक होती है ।जो वस्तुएं दुर्लभ हैं,सर्व साधारण को वे आसानी से प्राप्त नहीं होती हैं ,और उन्ही को पाने को सफलता कहते हैं।अगर महत्वपूर्ण वस्तु को पाने के लिए कठिनाई न होती तो वे महत्वपूर्ण ही न होते,और उनमें कोई रस न होता ।कोई रस और विशेषता न रहने पर यह संसार बडा ही नीरस एवं कुरूप हो जाता,लोगों को जीवन एक भार की भॉति अप्रिय प्रतीत होने लगता ।।



31-आत्म विश्वास-
        सफलता की कुंजी है फ्रॉस एक बहुत बडा देश था, जिसने छोटे से देश हालैण्ड पर आक्रमण किया,और कई बार किया बहुत प्रयत्न करने के बाद भी हालैण्ड पर विजय प्राप्त न कर सका।फ्रॉस के शासक ने अपने सेनापति को बुलाकर पूछा कि क्या कारण है कि, हम लोग इतने साधन सम्पन्न होने पर भी एक छोटे से देश को पराजित नहीं कर सके ।सेनापति ने नम्रता पूर्वक कहा कि लडाइयॉ मात्र साधनों के बल पर ही नहीं जीती जा सकती हैं ,बल्कि उस देश का आत्म विश्वास और सहयोग भी इसमें अपेक्षित होता है ।इस दृष्टि से हालैण्ड के नागरिक हमसे आगे हैं और वे सहज रूप से पराजय कभी स्वीकार नहीं करते ।प्रास के सेनापति का यह कथन सत्य है, ही है,क्योंकि जब आपका स्वयं पर भी विश्वास नहीं होगा,तो फिर सफलता कैसी।सफलता तभी है,जब आपका स्वयं पर विश्वास है ।।
 
 
 
32-अति महत्वाकॉक्षी न बनें -
        अपनी जिन्दगी में महत्वाकॉक्षी होना चाहिए अच्छी बात है,लेकिन अति महत्वाकॉक्षी होना उससे भी बुरी बात है ।अतः आप भी सावधान हो जाइयेगा।कहीं आपकी भी अति महत्वाकॉक्षी तो नहीं हैं। कहीं आपकी निराशा का प्रमुख कारण यह अति महत्वाकॉक्षा तो नहीं है अगर ऐसा है, तो आपकी यह निष्क्रियता, निस्तेजता, उदासीनता,निराशा आदि की असली जड यही अति महत्वाकॉक्षा है।,इसे समाप्त कर दीजिए ।जिन्दगी के वास्तविक लक्ष्य को हमेशा ध्यान रखिए, इसी बीच अगर कुछ अवॉछनीय आकॉक्षाएं जन्म लेती हैं,तो मन द्वारा उन्हैं हटा दीजिए।प्रयत्न कीजिए सफलता अवश्य मिलेगी ।ध्यान रखें कि एक बडी आकॉक्षा को साकार रूप देने की अपेक्षा छोटी-छोटी आकॉक्षाओं की पूर्ति में शक्ति नष्ट कर देने से बडी आकॉक्षा अधूरी रह जाती है और यही असफलता निराशा का प्रमुख कारण होती है। अतः आपको व्यर्थ की आकॉक्षाओं को मन से विस्मृत कर देना ही उपयुक्त है ।।



33-एक ही माता पिता की संतानें एक समान नहीं होती हैं-
        एक ही माता-पिता और एक ही नक्षत्र जन्में हुये बालक गुंण-कर्म-स्वभाव में समान नहीं होते हैं,जैसे कि बेर और उसके कॉटे एक ही पेड पर उगते हैं लेकिन फिर भी उनका–स्वरूप,गुंण-धर्म उपयोगिता आदि भिन्न-भिन्न होते हैं।यदि बच्चे जुडवा हैं तब भी उनके गुंण -दोष अलग-अलग होते हैं ।अर्थात प्रत्येक बच्चे के गुंण-दोष,प्रवृत्ति, रुचि,क्षमतायें आदि अलग-अलग होती हैं ।इस, लिए सभी बच्चों को उनकी क्षमता के उनुसार ही सम्बंधित क्षेत्रों में भेजना चाहिए ।।


 
34--जब विनाश का समय आता है,मनुष्य की बुद्धि विपरीत हो जाती है-
        जब भगवान श्री राम के बारे में आपने सुना है कि वे चौदह वर्ष के लिए वनवास गये थे तो एक दिन मारीच नामक राक्षस ने स्वर्ण-मृग का रूप धारण किया और कुटी के बाहर विचरण करने लगा। और उसे देखकर सीता माता ने श्री राम को उस मृग को पकडने के लिए कहा,श्री राम उस मृग को पकडने के लिए गये और इधर रावण सीता का हरण करके ले गया ।यहॉ पर सोचने वाली बात यह है कि ऐसा स्वर्ण मृग न पहले किसी ने देखा न किसी ने बनाया और ऐसे मृग के बारे में न पहले कभी सुना गया था, तो फिर ऐसी स्थिति में स्वर्ण मृग का दिखाई देना एक अजीव सी घटना थी और किसी सम्भावित अनहोनी घटना की पूर्व सूचना थी ।फिर भी भगवान श्री राम ने उसकी पडताल नहीं की और मृग को पकडने चल दिय़े ।इसका अर्थ हुआ कि जब किसी मनुष्य पर कोई विपत्ति आने वाली होती है तो फिर उसकी बुद्धि भी उसे विपरीत मार्ग पर पर ही अग्रसर करती है ।अर्थात मनुष्य को कोई भी कार्य करना हो,पहले भली भॉति धैर्यपूर्वक सोच विचारकर लेना चाहिए और यदि आप किसी विषय पर सोचने में सक्षम न हों तो किसी योग्य व्यक्ति से सलाह ले लेनी चाहिए।इससे किसी भी सम्भावित हानि को रोका जा सकता है,या उसका प्रभाव कम किया जा सकता है।विना सोच-विचार किये ही कोई कार्य करने से बहुत अधिक हानि उठानी पड सकती है ।।



35-सफलता हेतु अपनी योजनाओं के बारे में प्रचार न करें-
        यदि आपको अपने कार्यों में सफलता प्राप्त करनी है तो योजनाओं के बारे में प्रचार न करें बल्कि मौन रहकर ही उल योजनाओं के क्रियान्वित करने का प्रयास करें ।जो लोग अपनी योजनाओं के बारे में गाते फिरते हैं उनका तो समय और ऊर्जा इसी कार्य में समाप्त हो जाती है –फिर वे उन कार्यों को सम्पन्न ही नहीं कर पाते हैंजिससे समाज में उनका उपहास होता है।कभी-कभी जब उनके विरोधियों को उनकी योजनाओं के बारे में ज्ञात हो जाता है तो वे उनका लाभ उठा लेते हैं । अत- मनुष्य को शॉत रहकर ही अपनी योजनाओं को क्रियान्वित रना चाहिए ।हिन्दू लोगों में यही तो अवगुंण है, कि वह किसी बात को गुप्त नहीं रख पाते हैं।यह अवगुंण पुराने समय से हैं और आज भी है।स्वयं नेता सुभाष चन्द्र बोस तो इसी बात से परेशान थे ।वे यही कहते थे कि भारतीय लोगों को कोई भी बात गुप्त रखनी नहीं आती ।अपनी प्रशंसा के लिए गुप्त बातों को उजागर कर लेते हैं ।।



36-मन विश्व का असीम पुस्तकालय है-
        कोई भी ज्ञान बाहर से नहीं आता,सब अन्दर ही है। हम जो कहते हैं मनुष्य जानता है,मनोवैज्ञानिक भाषा में कहा जाय तो वह आविष्कार करता या प्रकट करता है ।मनुष्य जो कुछ सीखता है,वह वास्तव में आविष्कार करना ही है ।आविष्कार का अर्थ है-मनुष्य का अपनी अनन्त ज्ञानस्वरूप आत्मा के ऊपर से आवरण को हटा लेना । अगर हम कहते हैं कि न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण का आविष्कार किया,तो क्या यह आविष्कार कहीं एक कोने में बैठा हुआ न्यूटन की प्रतीक्षा कर रहा था ?वह तो उसके मन में ही था।समय माया और उसने उसे ढूंड निकाला । संसार ने जो कुछ ज्ञान लाभ किया है,वह मन से ही निकला है।विश्व का असीम पुस्तकालय तुम्हारे मन में ही विद्यमान है ।।



37-भगवान को बाहर प्राप्त करना असंम्भव-
        हम बाहर ईश्वर की तलाश करते हैं । अपने से बाहर भगवान को प्राप्त करना असंभव है,क्योंकि बाहर जो ईश्वर-तत्व की उपलव्धि होती है,वह हमारी आत्मा का ही प्रकाश मात्र है । हम ही भगवान के सर्वश्रेष्ठ मंदिर हैं । बाहर जो कुछ उपलब्धि होती है,वह हमारे अभ्यॉतरिक ज्ञान का ही प्रतिबिम्ब है । हमारे मन की शक्तियों की एकाग्रता ही हमारे लिए ईश्वर दर्शन का एकमात्र साधन है । यदि तुम एक परमात्मा को जान सको तो तुम भूत,भविष्यत्,वर्तमान सभी आत्माओं को जान सकोगे । एकाग्र मन मानो दीप है, जिसके द्वारा आत्मा का स्वरूप स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है ।।



38-गाली देने वाले का भी कृतज्ञ बनो-
        अगर कोई तुम्हें गाली देता है तो उसके प्रति कृतज्ञ प्रकट करना चाहिए। क्योंकि गाली क्या है,यही देखने के लिए उसने मानो तुम्हारे सामने एक दर्पण रखा है ,और वह तुम्हारे लिए आत्मसंयम का अभ्यास करने के लिए अवसर दे रहा है ।से आशीर्वाद दो और सुखी बनो। अभ्यास करने का अवसर मिले विना व्यक्ति का विकास नहीं हो सकता है, और दर्पण सामने रखे विना हम अपना मुख नहीं देख सकते ।।



39-श्री शिव-
        शिव जी एक सन्यासी हैं।वे अतुलनीय हैं,उनका वर्णन शब्दों से नहीं किया जा सकता। शिव सर्वदा पवित्र एवं निष्कलंक हैं ।प्रेम के सिवाय शिव कुछ भी नहीं हैं।प्रेम सुधारता है,पोषण करता है और आपके हित की कामवना करता है ।शिव आपके हितों को ध्यान में रखते हैं ।प्रेम से जब आप दूसरों के हितों का ध्यान रखते हैं तो जीवन का सारा ढॉचा ही बदल जाता है,आप वास्तव में जीवन का आंनंद उठाते हैं । श्री महॉदेव सभी कलाओं ,संगीत तथा ताल के स्वामी हैं ।लयबद्ध जीवन जो हमें प्राप्त है,उसका अभी हमें ज्ञान नहीं है । भिन्न प्रकार के पुष्प जो अपने-अपने समय पर खिलते हैं ।प्रकृति में विभिन्न ऋतुएं आती हैं,इन सारी चीजों को कौन लयबद्ध करता है ?शिव जी स्वयं लय हैं और प्रकृति तथा अन्य सभी चीजों में उसी लय को बनाये रखते है,हर चीज में एक लय है। लयबद्ध व्यक्ति वही है जिसका ह्दय बहुत विशाल है ।किसी भी क्रूर तथा बुरे व्यक्ति को देखते ही यह लय विगड जाता है।एक शॉत सुन्दर झील में तरंगों नहीं होती ,केवल प्रेम होता है और जब यह लय ह्दय की शॉति टूट जाती है तो श्री शिव स्थिति को अपने हाथ में ले लेते हैं ।।


 
40-मनुष्य खाली हाथ आता है और खाली हाथ जाता है अनुचित है-
        यह एक आम धारणा है कि मनुष्य खाली हाथ इस पृथ्वी पर जन्म लेता है और मृत्यु के बाद खाली हाथ जाता है।लेकिन यह सही नहीं है। जब मनुष्य का जन्म होता है उस समय वह सॉसों की पूंजी लेकर आता है जिससे उसका जीवित होना या जन्म लेना कहते हैं,और वह इस पृथ्वी से खाली हाथ नहीं जाता बल्कि अच्छाई की पूंजी और बुराई का बोझ लेकर जाता है जो कि हमारे जीवन भर के कर्मों पर निर्भर करता है। ध्यान रहे हम अपने जीवन में अपनी सॉसों की पूंजी को अज्ञानता के कारण व्यर्थ न गवायें,यह अज्ञानता सत्संग से ही दूर हो सकती है ।