Monday, August 6, 2012

जीवन के आधार


 
1-चरित्र निर्मॉण-
        चरित्र तो एक ज्योति है,जो सूर्यास्त हो जाने और सभी रोशनियों के बुझ जाने पर भी आलोकित होती रहती है। चरित्र एक शक्ति है,जिसके द्वारा हम हारते हुये युद्धों को भी जीत में परिणित कर सकते हैं।यह मनुष्य में एक दिव्यता है,जिसके सामने सभी नत मस्तक हो जाते हैं। यह एक उत्प्रेरणॉ है जो कि निर्धनता के बीच भी चमकती रहती है।यह एक सुदृढ है। लुटेरे सबकुछ लूट सकते हैं मगर चरित्र को नहीं । यदि हमने चरित्र के आलावा सबकुछ खो दिया तो वस्तुतः हमने कुछ भी नहीं खोया। मनुष्य द्वारा निर्मित हर वस्तु को मनुष्य नष्ट कर सकता है,लेकिन चरित्र को नहीं। चरित्र से हम निर्भयतापूर्वक किसी भी प्रकार के वर्तमान और भविष्य का सामना कर विजय प्राप्त कर सकते हैं। इसके अभाव में तो न हमारा कोई वर्तमान है और न भविष्य।


2-शिक्षा का मुख्य उद्देश्य चरित्र निर्मॉण है-
        चरित्र मिर्णॉण शिक्षा का मुख्य मूलभूत उद्देश्य है ।जो लोग अपने बच्चों को सबकुछ देकर भी चरित्र नहीं दे पाते हैं,वे मानो रोटी की जगह मिट्टी दे रहे हैं। वैसे तो मनुष्य अपना चरित्र स्वयं बना सकता है,लेकिन उसके निर्मॉण के बाद खो भी सकता है। इसलिए इस जीवन के लिए स्वॉस लेने के समान, अपने चरित्र की निरन्तर देखभाल करने की आवश्यकता होती है। किसी भी देश की शक्ति की नींव, उसका चरित्र है।


3-चरित्र हीन एक दरिद्रता का नाम है-
        चरित्रहीन वह दरिद्रता है,जिससे अधिक बुरा कुछ भी नहीं है। एक सामान्य व्यक्ति को संसार के संकटों के निवारण में कठिनाई हो सकती है, मगर यदि उसने अपने चरित्र की देखभाल की है, और इसमें दूसरों की भी सहायता की है तो, अपने कर्तव्यों की पूर्ति पर स न्तोष करते हुए अन्य सभी चीजों की चिन्ता छोड सकता है।


4-चरित्र जीवन यापन के लिए आवश्यक है-
        हमें अपने जवन यापन के लिए अच्छे चरित्र की आवश्यकता होती है, क्योंकि हमारे जीवन में व्यक्तिगत,सामाजिक,राष्टीय व अन्तर्राष्टीय स्तरों पर विना अच्छे चरित्र के समस्याओं का समाधान हो ही नहीं सकता। यदि हमारे पास अच्छा चरित्र न हो,तो हमारी शक्तियों की अपेक्षा दुर्वलताएं ही प्रभावी होंगी,और फिर सौभाग्य की तुलना में दुर्भाग्य अधिक प्रबल होगा। हमारे जीवन में लुख-शॉति की जगह शोक-विषाद अधिक होगा।


5-चरित्र हीनता से नकारात्मकता सबल होते हैं-
        अगर हमारा चरित्र अच्छा नहीं है तो हमारे मित्रों की अपेक्षा शत्रु अधिक सबल होंगे।शॉति की अपेक्षा युद्ध, अधिक होंगे,हमारी रेलगाडियॉ समय से नहीं चलेंगी,कारखाने क्षमता के अनुरूप उत्पादन नहीं करेंगे,खेतों में कम उत्पादन होगा,हमारे मन्दिर व्यावसायिक केन्द्र बन जायेंगे,ऐसे कार्यों को हम टालते जायेंगे जो हमें पूर्ण बनाते हैं। हमारे बॉध बाढ पानी को नहीं रोक सकेंगे,हमारे पुल बह जायेंगे,हमारे राजमार्ग जगह-जगह नष्ट हो जायेंगे,हमारे नेता अपने नेत्रृत्व की खरीद-फरोक्त करेंगे,राजनीतिक दलों में फूट होगी,पुरोहित दुकानदारों के समान होंगे और व्यवसायी हर एक का गला काटने में आनन्द का अनुभव करेंगे,अपराध बढेंगे,असुरक्षित स्थानों का बाहुल्य होगा,संस्कृकि कामुकता की पर्याय बन जायेगी,लडाई झगडे बढेंगे। अच्छे चरित्र के अभाव में हम निर्लज्जापूर्वक दूसरों की रोटियों पर पलते रहेंगे,हमारा ज्ञान मनुष्य की बर्वादी के लिए काम करेगा,हमारे चेहरे की चमक,नेत्रों का तेज,ह्दय की आशा,मन का विश्वास,आत्मा का आनन्द सब चले जायेंगे। इसलिए किसी भी राष्ट को सबसे पहले अपने नागरिकों के चरित्र निर्मॉण की ओर विशेश ध्यान देना होगा।


6-चतुर आत्मघाती मनुष्य-
        आज हर मनुष्य चतुर बनने की कोशिष करता है, अलग-अलग छेत्र हैं चतुराई दिखाने के, लेकिन कुछ तो आत्मघाती चतुर हैं। कुदरत के द्वारा मनुष्य को भोजन देने में कोई कमी कसर नहीं की है,मगर कुछ मनुष्य उसे अंधेरे कोने में छिपाकर मनुष्य को ही देने से वंचित कर देते हैं,इसलिए कि वह धन कमाना चाहता है,यह मानवीय आचरण नहीं है। उसे यह पता नहीं है कि एक दिन वह अपनी सारी दौलत को बैंको में छोडकर एक कीट के समान मर जायेगा। ये कुदरत खाद्य पदार्थों में मिलावट नहीं करती है,लेकिन मनुष्य को देखो! स्वयं अपने बच्चों,और अन्य लोगों को खिलाने के लिए पहले भोजन में मिलावट कर लेता है। गाय को ही देखो! कितनी उदार दिल की है, हमें शुद्ध दूध देती है,लेकिन मनुष्य है कि किसी को शुद्ध दूध पीने को नहीं देता। कुदरत के बने खनिज तथा रसायन विध्वँशकारी अस्त्रों का निर्मॉण नहीं करता, लेकिन मनुष्य को देखो! उसने इनकी परस्पर सॉठ-गॉठ करके विध्वंशकारी अस्त्र बना दिये हैं। इस आसमान ने कभी मनुष्य के सिर पर बम नहीं फेंका, पर मनुष्य को देखो! अपनी बुद्धिमता से उस आसमान से अपने ही भाइयों के ऊपर बम फेंकता है,और सोचता है कि मैने विजय प्राप्त कर ली। कुदरत ने पृथ्वी के समस्त मनुष्यों को पृथ्वी पर पर्याप्त भूमि और संसाधन प्रदान किये हैं,लेकिन मनुष्य को देखो! उसने दूसरे मनुष्य को वंचित कर,उसे निर्धन बना दिया है। अगर देखें तो मनुष्य इस धरती पर परमात्मा का एक अभिन्न अंग है,लेकिन अपने एन कृत्यों से वह कितना सीमित हो गया है।



7--अपने स्वार्थ की प्यास-
        अपने जीवन में हमें विभिन्न प्रकार की प्यासों का अनुभव होता है। अगर हम यह देखें कि प्यास कैसे पैदा होती है तो उपयुक्त न होगा, बस उकसाने भर की देरी है। और कभी-कभी विना उकसाये भी पता चल जाता है,लेकिन हम उसे दबा देते हैं। अगर एक बाप का बेटा चोर हो जाय तो बाप इतना परेशान नहीं होता,जितना कि बेटा सन्यासी हो जाने पर होता है।अगर पति शराब पीने लग जाय तो पत्नी इतनी चिंतित नहीं होती,जितना कि पति प्रार्थना में डूब जाने पर चिंतित होती है,इसलिए कि हमें धर्म बहुत डराता है,कि धर्म आदमी को बिल्कुल बदल देता है। शराब पीने वाला बिल्कुल नहीं बदलता, लेकिन सन्यासी बदल जाता है,उसे वापस खींचा नहीं जा सकता है।चोर बेटा बुरा है,मगर फिर भी चल सकता है,लेकिन सन्यासी तो बेटा ही नहीं रह जाता। इसलिए हम चोर बेटे को बर्दास्त कर लेते हैं,सन्यासी बेटे से दिक्कत होगी। अगर हम देखें तो बीज के भीतर अंकुर छिपा होता है,अगर हम बीज को पत्थर पर रख दें तो अंकुर कहॉ से आयेगा। लेकिन हमें देखना होगा कि हमारे आस-पास कहीं हमारी प्यास मिटाने का संयंत्र तो नहीं चल रहा है।अगर हम सजग हो जॉय तो बीज अंकुररित हो जायेगा। अगर एक पति अपनी पत्नी या पत्नी पति से यह कह दे कि तुमसे ज्यादा में परमात्मा को चाहता/चाहती हूं,तो आपस में झगडा हो जायेगा पति चाहता है कि पत्नी उसे परमात्मा समझे।ऐसे पति समझाते रहें कि हम परमात्मा हैं! और पत्नी भी चाहती है कि पति यह कहे कि तेरे सिवाय किसी को नहीं चाहता। यहॉ पर प्रतियोगिता नहीं चल सकती है। बस अपने चारों ओर देखने का प्रयास करें,प्यास को जगाने का उतना प्रश्न नहीं है.जितना कि प्यास को चारों ओर से दबाया हुआ है,इसी दबाव को देखना होता है। इस दबाव की बडी गहरी व्यवस्था है। और यही जीवन का सार है।


8-क्या जिन्दगी एक सपना है?-
        अगर हम जिन्दगी के बारे में जानने का प्रयास करते हैं तो,लगता है वह सपने से भी ज्यादा सपना है।आपने यह महशूस किया होगा कि सपने में कभी याद नहीं आता है, कि जो भी में देख रहा हूं वह सपना है!और यदि याद आ जाय तो समझो सपना टूट गया,कि आप सो नहीं रहे हैं, जग गये हैं।और सपने में पता ही नहीं चलता है कि मैं सपना देख रहा हूं! बस सपना है।हर रोज हम सपने देखते हैं-पर रोज सुबह जागकर पाता हूं कि- सपना झूठा होता है।लेकिन फिर आज रात सपना देखेंगे। तब फिर सच मालूम पडेगा। सपने में सच मालूम पडता है और झूठ मालूम नहीं होता है। तो जिस जिन्दगी को आप जिन्दगी में सच मान रहे हैं,उसे सच मानने का कोई कारण है ? हो सकता है उससे भी जागकर पता चल जाय कि वह भी झूठ है।जिन्होंने इस जिन्दगी को माया कहा है,उनका मतलब यह नहीं है कि यह नहीं है। उनका मतलब तो यह है कि जब उससे भी जागकर देखता है तो हैरान हो जाता है,फिर कहता है वह भी झूठ है। यह भी इसी तरह का एक सपना था। सपने में सत्यता थी। अगर आदमी सपने को समझलें तो जिन्दगी सपना हो जाती है।लेकिन उसे भी हम नहीं देख पाते हैं। कि कही सपने तखलीफ न देने लग जॉय।


9--अपने लिए रोना शुरू करो तो धर्म का आगमन होगा
        एक सम्राट की कहानी आपने सुनी होगी कि,उसका इकलौता बेटा बीमार मरणॉसन की स्थिति में था। पिता का इकलौता बेटे के दुख में कई दिनों से नहीं सोया था। एक दिन दो बजे रात्रि, कुर्सी में बैठा हुआ, नींद की झपकी आ गई, एकदम गहरी नींद। देखा तो उसके 12 लडके हैं,बहुत सुन्दर शक्तिशाली।सारी पृथ्वी पर उसका राज्य है। आनन्दमय जीवन है। उसी समय उसका बाहर का बेटा मर गया,भीतर के बेटे सब ठीक है ।और पत्नी चीख पडी, सुनकर राजा की नींद टूट गई।जैसे ही नींद टूटी भीतर वाले बारह बेटे मर गये, सपना खत्म हो गया । राजा रोने के बजाय हंसने लगा। उसकी पत्नी के समझ में यही आया कि अधिक दुख से ये पागल हो गये ।पत्नी घबडाई और उन्हैं हिलाकर कहा हंसते क्यों हो? देखते नहीं बेटा मर गया !लेकिन वह हंसता रहा।पत्नी ने कहा,बात क्या है? उसने कहा ,मैं बडी मुश्किल में पड गया,कि किसके लिए पहले रोऊं ? भीतर के लडकों के लिए कि बाहर के लडके के लिए। जब भीतर के लडकों को देखा तो बाहर झूठा था,इस लडके का तो मुझे पता ही नहीं था। और जब बाहर के लडके को देखता हूं तो भीतर के लडके झूठे हैं । कौन सच है? यही मैं जानना चाहता हूं। मैं किसके लिए रोऊं? लोगों ने उस सम्राट को सलाह दी कि इसका उत्तर च्वॉगत्से दे सकते हैं,तुम उसी के पास चले जाओ।सम्राट च्वॉगत्से के पास पहुंचा,पूरा वृतॉत सुनाकर कहने लगा कि ये बताइये कि मैं किसके लिए रोऊं । च्वॉगत्से ने कहा,अपने लिए रोओ! और किसी के लिए रोने की आवश्यकता नहीं है। अर्थात जो आदमी अपने लिए रोना शुरू कर देता है,उस आदमी की जिन्दगी में धर्म का आगमन हो जाता है। या जो आदमी अपने ऊपर हंसना शुरू कर दे तो उसकी जिन्दगी में भी धर्म का आगमन हो जाता है।लेकिन हम दूसरों पर हंसते हैं,अपने को बचा लेते हैं।



10-दिन और रात के सपने में कौन सच और कौन झूठ-
        हम आप सभी सपने देखते है, लेकिन इन सपनों को हमने कभी अपना ज्ञान का आधार नहीं बनाया। और मजे की बात है कि रात के सपने को हम सुबह उठकर कहते हैं यह झूठ है, क्योंकि यह जिन्दगी किसी और तरह की दिखाई देती है,उसमें सपना गलत साबित हो जाता है।लेकिन कभी आपने खयाल किया कि रात के समय जब आप सपना देखते हैं तो जिसे आपने दिन भर को सच कहा था, वह भी इसी तरह झूठ हो जाता है। दोनों झूठों में कौन सच है,इसे सोचा आपने! लेकिन इससे अधिक मजे की बात तो यह है कि रात का सपना थोडा बहुत याद भी रह जाता है,मगर दिन का सपना रात के सपने में बुल्कुल भी याद नहीं रहता।यदि रात को सपने में हम सम्राट हो गये तो सुबह कुछ याद रह जाता है। मगर जो जिन्दगीभर सम्राट रहा है,उसको भी रात के सपने में याद नहीं रहता कि में सम्राट हूं। बस यह जिन्दगी भी सपना से भी बडा सपना है।


11-जीवन के सार्थक
         अगर विचार करें तो जीवन में लोभ,मोह, क्रोध,काम वासना आदि की भी सार्थकता है,इन्हैं हम नकार नहीं सकते हैं,वरना वे होते ही नहीं। इसी प्रकार जीवन में सैक्स की भी सार्थकता है।और सैक्स की एनर्जी यदि वासना से मुक्त हो जाय तो ब्रह्मचर्य बनती है।अगर देखें तो ब्रह्मचर्य और वासना में एक ही शक्ति काम करती है,अगर मनुष्य की काम वासना दूसरे के प्रति बहती है तो सेक्स बन जाता है,और यही ऊर्जा अपनी तरफ बहने लगे तो ब्रह्मचर्य बन जाता है।परमात्मा की तरफ बहने लगे तो भी ब्रह्मचर्य हो जाता है।अगर कोई मनुष्य कहता है कि हमने सेक्स को स्वयं से हटा दिया। यह तर्क अवैज्ञानिक और गलत होगा ।जगत में कोई भी चीज नष्ट नहीं की जा सकती है,यह विज्ञान का आधारभूत सिद्धान्त भी है । इस जगत में सिर्फ चीजों को बदला जा सकता है,इसी प्रकार सेक्स को भी बदला जा सकता है,नष्ट नहीं किया जा सकता है।


12-आदमी नाम बदलकर स्वयं को धोखा देता है
        आदमी चीजों के नाम बदलकर स्वयं को धोखा देता रहता है।रोज वही कार्य। सिर्फ नाम बदल देता है।कभी धन,कभी यश,कभी पद, खोजता है,नाम ही तो बदले हैं,खोज तो उसी अहंकार की है। केवल नाम बदल जाता है। आज जो भूल करता है, फिर कल भी वही भूल। नाम बदलकर स्वयं को धोखा देता रहता है। जिन्दगीभर वही दोहराते चले जाते हैं,एक यंत्र की भॉति। एक कोल्हू के बैल की भॉति। कभी खयाल में भी भी नहीं आता कि सारी जिन्दगी में इस तरह जीकर हमें क्या मिला ।शायद हम डरते हैं,क्योंकि यह सवाल हमें परेशानी में डाल सकता है।जरा गौर से देखें तो सारी जिन्दगी दौडकर हमें मिला क्या? हमने पाया क्या? हमारे हाथ में क्या है? बडे-बडे पद पाकर क्या मिला? सारी सम्पत्ति पाकर कौन सी सम्पत्ति हमें मिल गई? सारा यश पाकर कौन सा यश मिल गया? अगर यदि ये सवाल आदमी के मन में उठने लगे तो उसकी जिन्दगी में धर्म दूर नहीं। लेकिन देखें तो ये सवाल भी नहीं उठते हैं। बस यह चक्र चलता रहता है।


13-परमात्मा की प्यास
        अगर यह कहें कि परमात्मा की प्यास को कैसे पैदा किया जा सकता है?तो इस सवाल के उत्तर के लिए हमें इस महत्वपूर्ण सवाल की ओर देखना होगा कि-जिसे हम जिन्दगी कहते हैं,क्या वह जिन्दगी है? जिसे हमने आज तक जिया है,वह जीने योग्य है? अगर आपको दुबारा इस जिन्दगी को जीने का मौका दिया जाय, जिसे आप पचास साल तक जी सकते हैं,तो आप राजी होंगे? लगता है कोई भी तैयार नहीं होगा, उसी जिन्दगी को जीने के लिए। आप नया जन्म लेना पसन्द करेंगे,लेकिन दुबारा उसी फिल्म को देखने को राजी नहीं होंगे। अगर जिन्दगी में कुछ था तो तब हजार बार जीने के लिए राजी हो जाना चाहिए था! लेकिन जिन्दगी में तो कुछ है ही नहीं। लेकिन हम इस सवाल को नहीं उठाते है तो यह जिन्दगी हमें व्यर्थ नहीं लगती। और जब सवाल उठता है तो यह जिन्दगी हमें व्यर्थ लगती है। परमात्मा की खोज पर तो वही जाते हैं जिन्हैं जिन्दगी व्यर्थ दिखाई देती है।तब वे नये जीवन की सार्थकता को खोजने को अग्रसर होते हैं। हम परमात्मा की बात इस जीवन के श्रृंगार के लिए करते हैं। मकान चाहिए,नौकरी चाहिए। परमात्मा से प्रार्थना करते हैं कि हमें बच्चा चाहिए। इस जिन्दगी की सजावट के लिए परमात्मा खोजते हैं। लेकिन हमारी सब प्रार्थनाएं अनसुनी हो जाती हैं। इसलिए नहीं कि परमात्मा नहीं सुनता,बल्कि इसलिए कि हमारी प्रार्थना, प्रार्थना ही नहीं है। सिर्फ मॉगें हैं,इच्छाएं हैं,आकाक्षॉएं हैं।ये आकॉक्षॉएं उसी व्यर्थ जिन्दगी के लिए है। यह अगर समझ में आ जाये तो आदमी ऊपर उठ सकता है।


14-हर आदमी अपने ही पीछे चलता है
        हर व्यक्ति अपने पीछे चलता है भगवान या किसी महॉन जन के पीछे नहीं। किसी यदि किसी महॉन जन का निर्णय करना हो तो इसका निर्णय करना कठिन है,लेकिन जब भी आप इसका निर्णय करेंगे तो यह निर्णय आपका होगा। इसका मतलव आप महॉ जन से ऊपर हो गये,नीचे नहीं रहेंगे।आप राम को महॉन कहते हैं तो यह निर्णय आपका हो गया।और दूसरा कहता है बुद्ध महॉन हैं,तो यह निर्णय उसका है। जब भी आप कोई निर्णय लेते हैं उस समय आप परम निर्णायक होते हैं। कोई महॉन जन निर्णायक नहीं होता है। इनका निर्णय भी आप ही लेते हैं। इसमें आदमी हमेशा अपने विवेक के पीछे चलता है,किसी महॉन जन के पीछे नहीं चलता। दुनियॉ में हजारों महांन जन हैं,कैसे निर्णय करोगे कि कौन महॉन जन है।लेकिन आप जब भी निर्णय करते हो, इसका मतलब कि आप अपने पीछे चल रहे हैं। यदि आप कहते हैं कि मैं नानक के पीछे चलूंगा तो, यह भी आप अपने निर्णय के पीछे चल रहे हैं। नानक के पीछे नहीं चल रहे हैं।आदमी के पास तो कोई उपाय है ही नहीं कि अपने सिवाय औरों के पीछे चल सकें। ईसाइयों के लिए जीसस महॉन हैं तो हिन्दुओं के लिए कृष्ण।सच्चा शास्त्र कौन है यह भी आपका निर्णय है। और जब सभी निर्णय आपके हैं तो फिर महॉन जन तो आप ही हो गये।अर्थात जो महॉन जन है फिर वह आपकी ही आत्मा है।इसलिए आप उसकी आवाज का ही पीछा करें,फिर वह जो भी निर्णय दें,करें। लेकिन आप हमेशा अपने ही पीछे जाते हैं। इस धोखे में न रहें कि औरों के पीछे जा सकते हैं। अगर आप इस बात को नहीं मानते हैं तो, यह भी आपका ही निर्णय है। अर्थात व्यक्ति की चेतना ही अंतिम निर्णायक तत्व है,अगर एक व्यक्ति कहता है कि मैं भगवान को मानता हूं तो यह भी उसी का निर्णय है। भगवान का नहीं।


15-शास्त्र की सत्यता-
        जब मैं कहता हूं कि शास्त्र में सत्य नहीं मिलेगा, लेकिन मैं यह नहीं कह रहा हूं कि शास्त्र में सत्य नहीं है। कहने वाले के लिए शास्त्र में सत्य तो हैं मगर पढने वाले के लिए सत्य नहीं है। पढने वाले के लिए क्या हो सकता है? कोरे शव्द , जिनका उसके पास कोई अनुभव नहीं है।और यदि अनुभव होता तो वह गीता की फिक्र ही न करता। ।और यदि जिसके पास अपना अनुभव नहीं है, वह तो गीता को छाती से लगा लेगा। जो कि खतरनाक है ।यह कृष्ण तक पहुंचने में बाधक बनेगा। अगर गीता को पढना हो तो मुक्त मन से पढें। समझें,मुक्त मन से। इस बात को हम जान रहे हैं कि जिस बात को हम पढ रहे हैं वे शव्द हैं,अभी तो सत्यता की यात्रा नहीं हुई। सागर तक पहुंचना है,इतना खयाल रखना होगा। इसलिए शास्त्र से सावधान रहे। इससे भ्रॉति पैदा हो सकती है और आदमी चाहता है कि विना खोजे ही सत्य मिल जाय,खोजना न पडे।अगर चोट खाई है तो वह सोचता है कि गीता से मिल जायेगा,और जिन्दगीभर पढते रहेंगे तो मिल जायेगा। लेकिन चोट पहुंचती है तब जब यह कहता हूं कि खोजना पडेगा फिर मिल जायेगा। सत्य इतना सस्ता नहीं है कि जिसे कहें कि उसके लिए है। लेकिन आपको उसदिन मिलेगा जिस दिन तुम जानोगे, इससे पहले नहीं।


16-अपने मन पर विश्वास न करें-
        हमें हमेशा सजग रहना होगा । अपने मन पर विश्वास न करें ।क्योंकि पाप सूक्ष्म भाव में कभी धर्म का रूप धारण कर,कभी दया के रूप में, कभी मित्र के रूप में तुम्हैं भुलाकर तुम्हैं वश में करने की चेष्ठा करेगा। भुलावे में पडकर परास्त हो जाओगे, समझ भी नहीं सकोगे । और जब समझ में आयेगा,तब शायद लौटना ही असम्भव हो जाय।


17-प्रेम में इन्द्रियों व देह का सम्बन्ध नहीं होता-
        ज्ञानी लोग प्रेम से मुक्त होते हैं। वे किसी को व्यक्तिगत रूप से प्रेम नहीं करते, और न वे दूसरों को व्यक्तिगत रूप से अपने प्रति प्रेम करना, और अपने में आसक्त होना देना चाहते हैं। इसीलिए वे किसी के प्रति माया-मोह में नहीं फंसने देना चाहते हैं। वे तो अपनी आत्मा और भगवान को सभी में देखते हैं,अतः सभी जीवों पर उनका प्यार और स्नेह समान होता है। उनके प्रेम में, देह और इन्द्रियों का कोई सम्बन्ध नहीं होता। कामान्ध नहीं। ज्ञानी तो प्रकृत प्रेमी होता है और प्रकृत प्रेमी ही ज्ञानी होता है ।


18- मन को वश में करना सबसे कठिन काम है-
        कहा जाता है कि इस संसार में मन को वश में करने जैसा कठिन काम और नहीं है । भगवान रामचन्द्र ने हनुमान से कहा था, कि-चाहे सातों समुद्र कोई तैरकर पार कर सके,वायु को अवशोषित कर ले सके,पहाडों को उठाकर अपना खेल दिखा सके,पर इस चंचल मन को वश में करना,उसकी अपेक्षा अधिक कठिन है। लेकिन इतना होने पर भी भयभीत होने का या निराश होने का कोई कारण नहीं है । वीर साधक तो दृढ संकल्प के साथ भगवान पर निर्भर होकर यदि प्रॉणपण से चेष्ठा तथा साधना करें,तो उनकी कृपा से वह असाध्य साधन कर सकता है।



19-कर्म ही बन्धन के कारण हैं-
        अगर देखें तो समस्त कर्म ही बन्धन के कारण होते हैं। चाहे सुख हो या दुख,दोनों ही बन्धन हैं ।अगर इन दोनों से पार न गये, तो मुक्ति का लाभ सम्भव नहीं है।कर्म तो केवल उन्हीं के लिए बन्धन का कारण नहीं होता जो निस्वार्थ परहित के लिए कार्य करते हैं। क्योंकि वे किसी फल की आकॉक्षा ही नहीं रखते,और न अपने नाम के यश, यास्वार्थ-साधन के लिए भी काम नहीं करते। उनके ह्दय में तो प्रेम का संचार होता है,वे तो प्रॉणि मात्र में ईश्वर दर्शन करके ,उनकी सेवा समझकर कर्म करते रहते हैं। और मन में नये संस्कार के बीज का सृजन भी नहीं होता। इसलिए वे पुनः जन्म-मरण से मुक्त हो जाते हैं ।


20-ज्ञानयोग कठिन त्याग है-
        त्यागों में सबसे कठिन त्याग ज्ञानयोग को माना जाता है,क्योंकि इसमें पहले से ही धॉरणॉ करनी होती है कि समस्त संसार और उसके साथ का सम्बन्ध मिथ्या है,माया है ।समस्त जीवन स्वप्न के समान है।इस मार्ग को नेति कहते हैं--मैं यह नहीं वह नहीं,मैं देह-मन-इन्द्रिय कुछ नहीं। मुझे सुख नहीं,दुःख नहीं,मेरा जन्म नहीं,मरण नहीं,वन्धन नहीं,मुक्ति नहीं,मैं तो नित्य चैतन्मयस्वरूप पूर्ण ब्रह्म परमात्मा हगूं। इसलिए वे समस्त वाह्य विषयों को त्याग कर,अपने स्वरूप के ध्यान में ही मग्न रहते हैं।



21-आत्म विश्वास बढायें-
        हमें आत्मा विश्वास वढाने के प्रति सजग होना होगा,इसके लिए इस बात का विश्वास करना होगा कि मैं आत्मा हूं। मुझे कोई न तलवार से काट सकता है न वरछी से भेद सकता,न आग जला सकती है और न हवा सुखा सकती है।मैं तो सर्वशक्तिमान हू,सर्वज्ञ हूं। हमेशा इन आशाप्रद वाक्यों का उच्चारण करें। ये न कहें कि हम दुर्वल हैं। हम क्या नहीं कर सकते हैं! हमसे सबकुछ हो सकता है! हम सबके भीतर एक ही हिमालय आत्मा है। इसपर हमें विश्वास करना होगा। उपनिषद में उल्लिखित कि मेरी इच्छा है कि तुम लोगों के भीतर इसी श्रद्धा का अभिर्भाव हो,तुममे से हर व्यक्ति खडा होकर संकेत मात्र से संसार को हिला देने वाला प्रतिभासम्पन्न महॉपुरुष हो,ईश्वरीत तुल्य हो।णैं तुम लोगों को ऐसा देखना चाहता हूं । फिर देखना ऐसी ही शक्ति प्राप्त होगी।


22-स्वयं में शक्ति का संचार करें-
        हमें इस बात को ध्यान में ऱखना होगा कि,हमारे जीवन में उच्च आदर्श और उत्कृष्ठ व्यावहारिकता का सुन्दर सामज्जस्य हो। जीवन का अर्थ प्रेम है,इसलिए प्रेम ही जीवन है,यही जीवन का एकमात्र नियम है। और स्वार्थपरता मृत्यु के समान है। गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है कि -प्रवल कर्मयोग-ह्दय में अमित साहस,और अपरिमित शक्ति के संचार से सब लोग जाग उठेंगे, नहीं तो जिस अन्धकार में हो,उसी में रहोगे ।




23-सेवा और त्याग की भावना रखे-
        हमें ईश्वर ने जन्म दिया है,इसलिए हमारा दायित्व है कि हम हर एक को ईस्वर के ही समान देखें। हम किसी की सहायता नहीं कर सकते हैं, हमें तो केवल सेवा का अधिकार है। यदि आप भी भाग्यवान हैं तो प्रभु की सेवा करें,यदि किसी की सेवा कर सकते हो तो,तुम धन्य हो जाओगे ।अपने ही को बहुत बडा न समझें। तुम धन्य हो कि तुम्हैं सेवा करने का अधिकार मिला है और दूसरों को नहीं मिला। ईश्वर पूजा के भाव से सेवा करो। दरिद्र व्यक्तियों में हमें भगवान को देखना होगा। अपनी ही मुक्ति के लिए उनके निकट जाकर हमें उनकी पूजा करनी चाहिए। अनेक दुखी और कंगाल प्रॉणी हमारी मुक्ति के माध्य हैं ।


24-सर्वशक्तिमान बनो-
        तुम्हें सर्वशक्तिमान बनना होगा,इसके लिए अपने अन्दर झॉककर देखो और महशूस करो कि-क्या तुम मनुष्य जाति से प्रेम करते हो ? क्या ये सब गरीव,दुखी,दुर्वल ईश्वर नहीं हैं ? ईश्वर की पूजा पहले क्यों नहीं करते ? गंगा तट पर कुंवा खोदना क्यों जाते हो ? प्रेम की असाध्य शक्ति पर विश्वास करो ! झूठ जगमगाहट वाले नाम-यश की परवाह कौन करते हो ? क्या तुम्हारे पास प्रेम है ? तो फिर तुम सर्व शक्तिमान हो !क्या तुम सम्पूर्ण निस्वार्थ हो ? यदि हो तो फिर तुम्हें कौन रोक सकता है !चरित्र की तो सर्वत्र विजय होती है। ईर्ष्या और अहं भाव को दूर कर दो !संगठित होकर दूसरों के लिए कार्य करना सीखो! हमारे देश में तो सबसे बडी आवश्यकता यही तो है। धीरज रखो और जीवनभर विश्वासपात्र बनो !आपस में लडो नहीं । स्वयं में ईमानदारी,भक्ति और विश्वास का संचार करें तो कभी भी असफल न होंगें। भेदभाव मिटा दो। फिर-चाहे आप रण में हों या वन में,चाहे पर्वत के शिखर पर -तुम्हारे लिए कोई भय नहीं रहेगा। जबतक तुम यह न जान लो कि वह हितकर है,तबतक अपने मन का भेद न खोलो । शत्रु के प्रति भी प्रिय और कल्याणकारी शव्दों का व्यवहार करो ।फिर देखोगे कि आप सर्वशक्तिमान होंगे ।


25-सुख भोग में नहीं त्याग में है-
        जिसने जिन्दगी को जीकर देखा है,अगर उनसे इस सम्बन्ध में पूछे तो उत्तर मिलता है, भोगों में सुख नहीं है बल्कि त्याग में सुख है। जो सद्विवेक से भोग भोगकर उनसे शिक्षा ग्रहण करता है,विषय-भोगों को परिणॉम में दुःखदाई जानकर ,स्वेच्छापूर्वक समस्त त्याग करता है,तो वही परम सुखी है,वही अमृत का अधिकारी होता है।स्वामी विवेकानन्द जी ने तो त्याग को योगों का प्रॉण माना है।


26-दुनियॉ में अच्छा क्या है बुरा क्या है-
        दुनियॉ में क्या अच्छा है और क्या बुरा है यह आप पर नहीं समाज पर निर्भर करता है। अच्छी बातें नहीं बल्कि अच्छे काम करो। दुनियॉ में तो अच्छाई और बुराई दोनों हैं,बस यही तुम्हारी कसौटी है,जो बाहर से बुरा दिखता है वह तो भीतर सेअच्छा हो सकता है,बाहर की अच्छाई तो नफरत का पात्र है


27-दूसरों पर प्रभाव डालने वाले उदास रहते हैं-
        जो लोग दूसरों पर अपना प्रभाव डालना चाहते हैं, यह देखा गया है वे लोग अधिक उदास रहते हैं।वे चेतनया अचेतन में दूसरों पर प्रभाव डालने पर उनके हाथ केवल उदासी ही लगती है ।प्लास्टिक के फूलों से मनमोहक खुसबू नहीं आ सकती है ।जब वह दूसरों के साथ रौब से व्यवहार करता है तो वह उन लोगों की मिठास का आनंद नहीं ले सकता है।अधिक से अधिक वह एक सामाजिक तितली के समान बनकर रह जाता है ।


28–अपने प्रति वफादार रहो-
        सैक्सपियर ने कहा था कि अपने प्रति वफादार बनो ।ईश्वर उसी की रक्षा करता जो स्वयं अपनी रक्षा करता है । जब कोई परमात्मा के प्रति निष्ठावान होता है तब उसके अन्दर के सद्गुंण चमनने लगते हैं ।सत् ही पवित्र है,और उसकी पवित्रता ही सबसे बडी शक्ति है ।वह एक गुरुत्वाकर्षण है जो लोगों को अपनी ओर आकर्षित करती है । यह वही बल है जो समान गुंणयुक्त कल्यांणकारी और ईमानदार व्यक्तियों को आकर्षित करता है ।संसार में ईमानदारी से व्यवहार करने से आनंद और संतोष प्राप्त होता है ।


29–आत्मज्ञानी कलाकार की परख-
        यदि एक कलाकार आत्मज्ञानी है तो उसकी कला में,परमात्मा के प्रेम की सर्वव्यापी शक्ति,परावर्तित होती है,और अज्ञात चेतना का सूत्रपात होता है ।परमात्मा का आशीर्वा उतर आता है,ऐसी अनुपम कृति एक यादगार बन जाती है ।एक अनोखी कलाकृति आनंद की वस्तु और हमेशा के लिए सौन्दर्य का प्रतीक हो जाती है ।वह हमेशा के लिए प्रेरणॉ और चैतन्य का स्रोत बन जाती है,जैसे माइकिल ऐंजिलो की चित्रकारी,या मोजार्ट का संगीत ऐसी कला मनुष्य की आत्मा में हल-चल पैदा कर देती है,और विकास की सीढियॉ ऊपर उठने लगती हैं ।।


30-भव सागर में बाधा होने से मति भ्रम हो जाता है-
        कभी-कभी हम मतिभ्रम और कल्पना की उडानें,दोनों से ग्रसित हो जाते हैं,इसका कारण भव सागर में खलबली मचने से होता है ।भव सागर में जो बाधा बनती है उससे एक ऐसा भ्रम का परदा पडता है कि,सत्य को ढक लेता है ।और जब-तक गुरु के द्वारा भव सागर की सफाई नहीं होती,तब तक साधक भ्रम के समुद्र में डूबा रहता है ।भव सागर हमारे गुरु का परिचायक है ।जब यह जाग जाता है तब हम गुरु बन जाते हैं,अर्थात जिससे हम दैवी शक्ति से गुरुत्व का अधिकार प्राप्त करते हैं,जिसमें वह प्रकट होती है और हम दूसरों की कुंण्डलिनी जागृत कर सकते हैं ।


31-मनुष्य के शरीर में आत्मा की पहचान-
        मनुष्य जो कुछ भी दूसरों में देखता है,उसकी वह केवल अपनी ही परछाई है ।लेकिन जब वह आत्मवत् हो जाता है, तब वह अपना सम्बन्ध मनुष्य की आत्मा से रखता हैं और उसी से बात करता है ।ऐसे वार्तालाप में बडी गहराई होती है ,जिससे मनुष्य को पूर्ण सन्तोष,और अमर-प्रेम का आनंद देती है ।मनुष्य के शरीर में आत्मा की पहचान करने का ज्ञान । प्राचीन संस्कृति में दबा पडा है ।विवाह एक आत्मीय मिलाप है क्योंकि आत्मा जाने विना विवाह केवल एक सामाजिक रीति का ठेका बनकर रह जाता है।


32-भगवान आपको देना चाहता है -
        यदि आपके ऊपर भगवान की कृपा होती है और भगवान आपको कुछ देना चाहते हैं तो सबसे पहले आपको सद्बुद्धि देंगे,इससे आपको सबकुछ मिल जायेगा। यदि भगवान आप पर नाराज होते हैं और आपको दण्ड देना चाहते हैं या आपसे कुछ छीनना चाहते हैं तो आपकी बुद्धि हर लेंगे जिससे आपका पतन हो जाय। इसलिए ध्यान रहे भगवान को कभी भी नाराज न करें ।


33-दूसरों पर प्रभाव डालने वाले उदास रहते हैं-
        जो लोग दूसरों पर अपना प्रभाव डालना चाहते हैं,यह देखा गया है वे लोग अधिक उदास रहते हैं।वे चेतन या अचेतन में दूसरों पर प्रभाव डालने पर उनके हाथ केवल उदासी ही लगती है ।प्लास्टिक के फूलों से मनमोहक खुसबू नहीं आ सकती है ।जब वह दूसरों के साथ रौब से व्यवहार करता है तो वह उन लोगों की मिठास का आनंद नहीं ले सकता है ।अधिक से अधिक वह एक सामाजिक तितली के समान बनकर रह जाता है ।


34-आत्मज्ञानी कलाकार की परख-
        यदि एक कलाकार आत्मज्ञानी है तो उसकी कला में,परमात्मा के प्रेम की सर्वव्यापी शक्ति,परावर्तित होती है, और अज्ञात चेतना का सूत्रपात होता है ।परमात्मा का आशीर्वाद उतर आता है,ऐसी अनुपम कृति एक यादगार बन जाती है ।एक अनोखी कलाकृति आनंद की वस्तु और हमेशा के लिए सौन्दर्य का प्रतीक हो जाती है ।वह हमेशा के लिए प्रेरणॉ और चैतन्य का स्रोत बन है,जैसे माइकिल ऐंजिलो की चित्रकारी,या मोजार्ट का संगीत ऐसी कला मनुष्य की आत्मा में हल-चल पैदा कर देती है,और विकास की सीढियॉ ऊपर उठने लगती हैं ।।


35-भव सागर में बाधा होने से मति भ्रम हो जाता है-
        कभी-कभी हम मतिभ्रम और कल्पना की उडानें,दोनों से ग्रसित हो जाते हैं,इसका कारण भव सागर में खलबली मचने से होता है ।भव सागर में जो बाधा बनती है उससे एक ऐसा भ्रम का परदा पडता है कि,सत्य को ढक लेता है। और जब-तक गुरु के द्वारा भव सागर की सफाई नहीं होती,तब तक साधक भ्रम के समुद्र में डूबा रहता है ।भव सागर हमारे गुरु का परिचायक है ।जब यह जाग जाता है तब हम गुरु बन जाते हैं ,अर्थात जिससे हम दैवी शक्ति से गुरुत्व का अधिकार प्राप्त करते हैं,जिसमें वह प्रकट होती है और हम दूसरों की कुंण्डलिनी जागृत कर सकते हैं ।


36-भिखारियों की तरह न भटकें-
        आज का जीवन भिखारियों की तरह भटकने का जैसा बन गया है।अपनी आस्था को स्थिर रखें,जीवन में श्रद्धा को स्थान दें,अपनी निष्ठा को मजबूत करें।भिखारियों की तरह मत भटकिये। भिखारी तो सदा भिखारी ही रहता है वह कभी बादशाह नहीं बन सकता। उसकी मनोवृति तो भिखारी की ही बनी रहती है।भटकने वालों के हाथ कभी कुछ नहीं लग सकता ।वे कभी शॉति को प्राप्त नहीं कर सकते। भिखारियों के हाथ कभी खजाने नहीं लगते।वे कभी सच्ची सम्पदा को प्राप्त नहीं कर सकते, वे दैवीय सम्पदा के अधिकारी नहीं हो पाते।बस उसके हाथ तो केवल आसुरी सम्पदा ही लगती है।और हम तो एक पवित्र आत्मा हैं,सबकुछ हमारे पास है,उसे पहचानें,भटकने की आवश्यकता नहीं होगी ।


37-मनुष्य के शरीर में आत्मा की पहचान-
        मनुष्य जो कुछ भी दूसरों में देखता है,उसकी वह केवल अपनी ही परछाई है ।लेकिन जब वह आत्मवत् हो जाता है,तब वह अपना सम्बन्ध मनुष्य की आत्मा से रखता हैं और उसी से बात करता है ।ऐसे वार्तालाप में बडी गहराई होती है ,जिससे मनुष्य को पूर्ण सन्तोष,और अमर-प्रेम का आनंद देती है ।मनुष्य के शरीर में आत्मा की पहचान करने का ज्ञान । प्राचीन संस्कृति में दबा पडा है ।विवाह एक आत्मीय मिलाप है क्योंकि आत्मा जाने विना विवाह केवल एक सामाजिक रीति का ठेका बनकर रह जाता है ।


38-विश्वास की बातें-
1 -विश्वास हमें तारता है जबकि अहंकार डुबोता है ।
2-जबतक अज्ञानता है तबतक जीव भ्रमित रहता है ।
3-अगर ईश्वर को देखना चाहते हो तो माया को हटा दो ।
4-अगर कोई दृढ रहे तो पतन का गम नहीं,उठकर वह
फिर आगे चल देगा ।
5-यदि हम गिरते हैं तो अधिक अच्छी तरह चलने का
रहस्य सीख जाते हैं।
6-माया को जान लेने पर वह दूर हो जाती है ।
7-मन एक उजला वस्त्र है,इसे जिस रंग में डुबो जाओ
उसी रंग का हो जायेगा ।
8-जीवन में जो जितना सह सकता है ,वह उतना ही
महात्मा है ।
9- भक्त का ह्दय भगवान की बैठक है ।


39-मौन का महत्व
        मौन सभी रोगों की औषधि है। मौन बुद्धिमानों के लिए हितकारी है, तो फिर मूर्खों के लिए कितना अधिक हितकारी होगा ।मैं अपने जीवन में बुद्धिमानों के बीच पला-बढा हूं और मैं मौन की तुलना में कोई भी वेहत्तर सेवा नहीं जानता ।।


40-अन्तर्ज्योति
        यदि तुम ईश्वर से मिलना चाहते हो तो,अपने को ईश्वर में विलीन कर दो क्योंकि अहंकार ही तुम्है ईश्वर से दूर रखे हुये है । तुम पूछते हो कि,मैं निरानन्द शून्यता को कैसे पार करूं? अपने अहंकार से परे जाकर एक कदम चलना ही सब कुछ है ।।


41-प्रकाश-
        जब प्रकाश ईश्वर की ओर से प्रवाहित होता है,तो सभी आंखें देख सकती हैं ,अपने पूर्ण चकाचौध किरणों वाले भव्य मौन-सूर्य को मुझे दे दो ।।


42-हमारा मन एक तराजू है-
        हमारा मन एक तराजू के समान है,तराजू का पलडा जिस ओर भारी होता है उधर झुक जाता है और जिधर हल्का होता है उधर ,उधर ऊपर उठ जाता है । एक ओर संसार है और दूसरी ओर भगवान है ।जब मन में संसार,मान एत्यादि का भार अधिक होता है तो, मन भगवान की ओर से हटकर संसार की ओर झुक जाता है ।और जब मन में वैराग्य,विवेक तथा भगवत्-शक्ति का भार अधिक होता है,तो मन संसार की ओर से हटकर भगवान की ओर झुक जाता है ।।

रघुवीर नेगी