Friday, February 27, 2015

जीवन जीने का नाम



 
1--मनोबल की उपयोगिता

                        एक राजा के पास एक बड़ा ही पराक्रमी हाथी था। युद्धों में उस पर ही बैठकर राजा ने तमाम राज्यों पर विजय पाई थी। उसे इस तरह प्रशिक्षण दिया गया था कि युद्ध में शत्रु पक्ष के सैनिकों को देखते ही वह उन पर टूट पड़ता और शत्रु अवाक रह जाते और पीछे हट जाते।


                       ऐसा भी समय आया, जब हाथी बूढ़ा हो गया। राजा ने युद्ध के लिए नए युवा हाथियों को प्रशिक्षण देकर तैयार कर लिया। वह उपेक्षित होकर रह गया। अब उस पर पहले की तरह ध्यान नहीं दिया जा रहा था। उसकी भूख भी कम हो गई थी और उसके पौष्टिक भोजन में भी कमी कर दी गई। वह अशक्त और दुर्बल दिखने लगा था।

 
                        एक बार हाथी पानी पीने तालाब में गया। वहां की दलदल में उसका पैर धंस गया। उसने निकलने की कोशिश की, तो उसके शरीर ने साथ नहीं दिया। वह गरदन तक कीचड़ में समा गया। इतने बड़े हाथी को आखिर निकाला कैसे जाए? हाथी के बच जाने की संभावना किसी को नहीं थी। राजा को जब घटना की बात पता चली, तो वे दुखी हो गए।

                     उन्होंने एक चतुर सेनापति से सलाह मांगी, तो उसने कहा कि महाराज, इस हाथी को निकालने का एक ही तरीका है कि इसके पास युद्ध का माहौल तैयार किया जाए।

                    युद्ध के वाद्य मंगवाए गए, नगाड़े बजवाये गए और ऐसा माहौल बनाया गया कि शत्रुओं के सैनिक राज्य की ओर बढ़ रहे हैं। यह देखकर हाथी में अचानक फुर्ती और साहस गया। उसने जोर से चिंघाड़ लगाई और सैनिकों की ओर दौड़ने की कोशिश करने लगा। इसी प्रयास में वह बाहर गया।
 

 
2--आत्मविश्वास
 
                         जीवनकाल में अनेक असफलताओं का सामना करने वाला व्यक्ति अगर अपना आत्मविश्वास बनाए रखता है तो एक एक दिन उसे इच्छित सफलता अवश्य मिलती है। वहीं विडंबना यह है कि सामान्य जीवनयापन करते हुए व्यक्ति आत्म-चिंतन नहीं करता। उसका वैचारिक मंथन केवल दैनिक जरूरतों की वस्तुओं और उनके उपभोग की व्यवस्था करने तक सीमित रहता है। जहां जीवन में कठिनाई आई नहीं कि भविष्य की चिंता में सोच-सोचकर मनुष्य तन-मन से कमजोर होता जाता है। संकट के समय में व्यक्ति जीवन संबंधी श्रेष्ठता का विचार करने लगता है। उसमें हर स्थिति का बहुकोणीय विश्लेषण करने की शक्ति उत्पन्न हो जाती है। जीवन के प्रत्येक घटनाक्रम पर आत्ममंथन प्रारंभ हो जाता है।

                      संकट के समय में व्यक्ति केवल वैचारिक स्तर पर श्रेष्ठ बने रहकर जीवन नहीं चला सकता। उसे खानपान, वस्त्र, आवास आदि आवश्यक भौतिक वस्तुओं के लिए शारीरिक परिश्रम करना पड़ता है। सामान्य जीवन में अचानक आई विपदा से कमजोर पड़ा व्यक्ति नए सिरे से जीवन संभालने के प्रति भावनात्मक रूप से तो आशावान रहता है, परंतु व्यावहारिक रूप से वह निराशा से घिरा होता है।

                   यदि व्यक्ति की युवावस्था निकल गई हो तो उसे और ज्यादा परेशानियों का सामना करना पड़ता है। ऐसी परिस्थिति में व्यक्ति का आत्मविश्वास ही उसका सबसे बड़ा साथी होता है। किसी नए जटिल लगने वाले कार्य को करने के लिए विचार, नीति और क्रियान्वयन की आवश्यकता तो होती ही है, पर कार्य की सफलता करने वाले के सतत् आत्मविश्वास पर ही टिकी होती है। कोई भी काम व्यावहारिक स्वरूप में आने से पहले एक विचारमात्र होता है। कर्ता का आत्मविश्वास ही कार्य की परिणति निर्धारित करता है। मृत्यु के निकट पहुंचा व्यक्ति भी जीवन के प्रति समुत्पन्न आत्मविश्वास के सहारे वापस जीवनमार्ग पर चलने लगता है।


                   विचार का प्रभावमंडल विचारशक्ति के बजाय उसके लिए गठित आत्मविश्वास से अधिक बढ़ता है। इसी प्रकार कार्य में शत-प्रतिशत सफलता कार्यबल से ज्यादा उसके प्रति सच्ची निष्ठा से निर्धारित होती है। निष्ठा लगन आत्मविश्वास से ही संभव हो पाती है। विचारवान बनने के बाद व्यक्ति जीवन में हर कार्य कर सकता है और इस संदर्भ में ऊर्जा का जो सबसे प्रभावशाली संसाधन है, वह आत्मविश्वास ही है।
 

 
3--स्वावलंबन क्या है

                   वैसे तो जीवन जीने की अनेक विधियां हैं, लेकिन उन्हीं के लिए इन विधियों का महत्व है, जो सचमुच जीवन को सफलतापूर्वक जीना चाहते हैं। जिन लोगों को जीवन से कोई मोह नहीं होता, उनके लिए किसी विधि की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि उनके जीवन में कोई उद्देश्य नहीं होता। उद्देश्यपूर्ण जीवन के लिए कुछ और भी महत्वपूर्ण बिंदु हैं, जिनका पालन हमें करना चाहिए। स्वावलंबन का अर्थ है, स्वयं पर विश्वास करके जीना। कई लोग अपना जीवन स्वयं नहीं जीते, उनका जीवन कोई दूसरा जीता है। वे पराश्रित हो जाते हैं। सड़क किनारे पेड़ों पर पीली-सी लता फैली रहती है, जिसकी अपनी जड़ नहीं होती, यह लता पेड़ से रस लेकर अपना पोषण करती है।

                 कुछ मनुष्य भी पराश्रित होते हैं, वे स्वयं कुछ नहीं कर पाते। दूसरे के द्वारा अर्जित धन का गलत ढंग से उपभोग करते हैं। इसीलिए वे धन का उपयोग नहीं जानते, क्योंकि वे दूसरों की कमाई खाते हैं। अगर छोटे बच्चे बचपन से स्वावलंबी बनें, अपना काम स्वयं करें, तो वे आत्मनिर्भर बन जाएंगे। जो माता-पिता अपने बच्चों को छोटे-छोटे काम भी नहीं करने देते, वे अपने बच्चों के साथ न्याय नहीं करते।


                 आखिर कब तक कोई माता-पिता अपने बच्चों को पराश्रित रहने देंगे। इसलिए प्रत्येक विवेकशील माता-पिता अपने बच्चों को स्वयं के पांव पर खड़ा होने का प्रशिक्षण देते हैं ताकि भविष्य में अगर उन्हें अपने जीवन में कोई संघर्ष करना पड़े, तो वे बहादुरी से उसका मुकाबला कर सकें। स्वावलंबन, आत्मनिर्भरता, अपना काम स्वयं करना, ये बहुत ही उत्तम बातें हैं। अपने घरों में भी अपने सामान की देखभाल अपना प्रत्येक काम स्वयं करने का प्रयास करना चाहिए। कहा जाता है- 'जो व्यक्ति स्वयं अपना काम कर सकता है, वही दूसरों की सहायता कर सकता है।' स्वावलंबी व्यक्ति को ही सुख, शांति और धन-वैभव प्राप्त होता है। इसलिए माता-पिता का दायित्व है कि वे बच्चों को उनका काम स्वयं करने दें।

                अपने सामान की देखभाल अपने अन्य दूसरे काम, अपनी पढ़ाई, होमवर्क, अपनी स्कूल ड्रेस, जूते, पेन-पेंसिल और किताबें आदि वे स्वयं सहेज कर रखें, तभी वे स्वावलंबी बन सकेंगे। आजकल प्यार और दुलार के कारण अनेक माता-पिता अपने बच्चों का सारा काम स्वयं करने लगे हैं। यह तौर-तरीका आगे चलकर बच्चों को बहुत नुकसान करता है।


4-कोई भी देश कर्तव्य से बनता है


                      हम शिकायत करते हैं कि स्वतंत्रता के इतने वर्षो बाद भी हमें देश ने कुछ नहीं दिया, लेकिन यह नहीं सोचते कि हमने देश को क्या दिया। यदि सभी लोग याचना छोड़कर देश के प्रति अपने कर्तव्य निभाएं, तो देश की उन्नति को कोई रोक नहीं सकता।

                   अमेरिका के भूतपूर्व राष्ट्रपति जे.एफ. कैनेडी ने कहा था- 'यह मत सोचो कि देश आपको क्या देता है, बल्कि यह सोचो कि देश को आपने क्या दिया है..' बात स्लोगनों की नहीं है, बात नारों की नहीं है, बात विचार की है। विचार यह कि क्या मैं देश के सामने याचक बन कर आता हूं या देश के लिए कुछ करने की इच्छा से जीता हूं?

                        आमतौर पर हम देश से अपेक्षाएं रखते हैं, स्वतंत्रता से अपेक्षाएं रखते हैं, लेकिन खुद से कोई अपेक्षा नहीं रखते। यह जानते हुए भी कि हमसे ही बनता है देश। हम हमेशा शिकायत करते रहते हैं कि स्वतंत्रता के इतने सालों बाद भी हमें यह नहीं मिला, हमें वह नहीं मिला, लेकिन हम यह नहीं देखते कि हमने देश को क्या दिया। यदि उन लोगों की बात को सही भी मान लें कि देश गर्त में जा रहा है, तो क्या उसके जिम्मेदार हम नहीं हैं? हम देश के लिए कुछ नहीं करते, उसकी आर्थिक, सांस्कृतिक समृद्धि में कोई योगदान नहीं करते और देश से अपेक्षा करते रहते हैं कि वह हमारे लिए करे। हमसे ही देश बनता है। हमारे कार्यो से ही वह प्रगति के रास्ते पर जाएगा।

                         स्वतंत्रता दिवस के समय जरूर हम लोगों में देश के प्रति देशभक्ति उजागर होने लगती है। रेडियो, टेलीविजन में देशभक्ति के गाने हमें कुछ समय के लिए अपने कर्तव्यों के लिए प्रोत्साहित करते हैं। परंतु कुछ समय बाद हमारा मन भी और चीजों में उलझ जाता है।
 
                          दरअसल, व्यक्ति पांच स्तरों पर जीता है। आर्थिक, शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक तथा आध्यात्मिक स्तरों पर। हर स्तर में देश की एक प्रमुख भूमिका होती है। हम सब पर देश का उधार है। देश ने हमारी झोली में इतना कुछ दिया है, फिर भी हम देश के सामने भीख का कटोरा लेकर खड़े रहते हैं। अंग्रेजी में एक कहावत है, जैसा आप सोचते हैं, वैसे ही हो जाएंगे अर्थात आपकी सोच ही आपको बनाती है। अपने आसपास देखिए। अधिकतर लोग आपको याचक बने नजर आएंगे। मां-बाप बच्चों के सामने बैठे हैं कि मेरी झोली में सम्मान डाल दो। कर्मचारी मालिक के सामने याचक बना बैठा है कि मुझे प्रमोशन दे दो। मालिक सरकार के सामने याचक बना बैठा है कि हमें टैक्स में छूट दे दो।

                            हमें सोच को व्यापक बनाना चाहिए। छोटा सोचेंगे तो हम छोटे ही रह जाएंगे। हमारे मन में देने का भाव हो कि लेने का। देश को जब हम देते हैं, उसी का प्रतिफल देश हमें देता है, इसे याद रखें। जैसे ही हमारे अंदर देने का भाव पैदा होता है, अपने आप हम दाता के रूप में स्थापित हो जाते हैं, वहीं जब मन में लेने का भाव होता है, तो हम याचक बन जाते हैं। स्वामी रामतीर्थ जी ने एक नियम बताया था, ' वे टु गेन एनीथिंग इज टु लूज इट' अर्थात कोई भी चीज प्राप्त करना चाहते हो तो उसको देना शुरू कर दो। यदि आप ज्ञान चाहते हो, तो ज्ञान देना शुरू कर दो। जितना ज्ञान आप लोगों को दोगे, उतना आपका ज्ञान बढ़ेगा। यदि आप चाहते हैं कि आपको सम्मान मिले तो अन्य लोगों को सम्मान देना शुरू कर दीजिए। यदि आप सेवा चाहते हैं तो दूसरों की सेवा शुरू कर दीजिए।

                          परिवार, समाज और ईश्वर तक तो यह बात हमें शायद समझ में जाए, परंतु जब देश की बात होती है तो हम सब लोगों में अधिकतर लूटने, हड़पने, छीनने का विचार जाता है। हम अपने काम से दूसरे शहर जाते हैं, तो एक-एक पैसा संभाल कर खर्च करते हैं, परंतु कभी सरकारी खर्च पर कहीं जाने का अवसर मिल गया, तो अनाप-शनाप खर्च करने लगते हैं। आमतौर पर लोग कहते हैं, 'सब चोरी करते हैं तो हम क्यों करें' यह तो वही बात हुई कि सब कुएं में कूद रहे हैं तो हम क्यों कूदें।

                        यह मानकर चलें कि ईश्वर परमपिता है, यानी वह सबका पिता है। कोई भी पिता नहींचाहता कि उसके पुत्र लोगों से याचना करें। हम सब 'अमृतस्य पुत्रम' हैं। सारे संसार के सामने याचक बने भीख का कटोरा लिए बैठे हैं। ईश्वर सोचते होंगे, 'मैंने मनुष्य को कर्तव्य करने के लिए बनाया था और यह तो याचक बन गया।'
                          देशभक्ति का भाव किसी अवसर का मोहताज नहीं होता, यह हमारे भीतर का स्थायी भाव होना चाहिए। देशभक्ति का मतलब देश से अपेक्षा करना नहीं, बल्कि देश के लिए कुछ करने की प्रवृत्ति पैदा होना है।

 

 
5-ज्ञान वह है जो वर्तमान को संवारे

                         यह यूनान की प्राचीन बोध-कथा है। एक राज-ज्योतिषी था। वह रात-दिन भविष्य-वाणी करने के लिए ग्रहों (सितारों) का अध्ययन करता रहता था। एक दिन वह रात के अंधेरे में तारों को देखता हुआ जा रहा था। उसे पता नहीं चला कि आगे एक गहरा गढ्डा है। वह उसमें गिर गया।

                       उसके गिरने और चिल्लाने की आवाज सुनकर पास ही एक झोपड़ी में रहने वाली वृद्धा उसकी मदद करने के लिए वहां पहुंच गई। उसने उसे रस्सी डालकर कुएं से निकाला। राज-ज्योतिषी बहुत खुश हुआ। वह खुश होकर वृद्धा का कुछ भला करना चाहता था, लेकिन उसमें राज ज्योतिषी वाली अकड़ थी। उसने कहा, 'इस निर्जन स्थान पर तुम नहीं आतीं तो मैं कुएं में ही दम तोड़ देता। मैं राज-ज्योतिषी हूं। राजाओं को उनका भविष्य बताता हूं, लेकिन मैं मुफ्त में तुम्हारा भविष्य बताऊंगा।'
यह सुनकर बुढि़या बहुत हंसी और बोली, 'यह सब रहने दो! तुम्हें अपने दो कदम आगे का तो कुछ पता नहीं है, मेरा भविष्य तुम क्या बताओगे?
कथा-मर्म: ऐसा ज्ञान किसी काम का नहीं, जो व्यक्ति के वर्तमान को संवार सके..

 
6--एकाग्रता के लिए हैं मूर्तियां

                    मूर्तियां माध्यम भर हैं, ईश्वर के प्रति एकाग्र होने का। हमें धर्मग्रंथों या प्रतीक पुरुषों का अनुसरण करने के बजाय स्वयं अनुभव प्राप्त करना चाहिए। स्वामी विवेकानंद का चिंतन..
संसार में सर्वत्र एक एक रूप में आपको मूर्तियां मिलेंगी। कहीं मूर्ति का आकार मनुष्य जैसा है। मूर्तियों में मनुष्य ही सबसे उत्कृष्ट रूप है। यदि मैं किसी मूर्ति की पूजा करना चाहूं, तो मैं पशु, इमारत या अन्य किसी आकृति की अपेक्षा मनुष्य की आकृति को अधिक पसंद करूंगा। एक संप्रदाय समझता है कि अमुक रूप में ही मूर्ति ठीक तरह की है, तो दूसरा समझता है कि वह बुरी है। यही है मूर्ति-पूजा का दोष।

                  वस्तुत: धर्मग्रंथों में हमारा अंधविश्वास जितना कम हो, उतना ही हमारे लिए श्रेयस्कर है। हमने स्वयं क्या अनुभव किया, यही प्रमुख सवाल है। ईसा, बुद्ध या मूसा ने जो किया, उससे हमें कोई मतलब नहीं होना चाहिए, जब तक कि हम भी अपने लिए वही अनुभव प्राप्त कर लें। यदि हम एक कमरे में बंद हो जाएं और ईसा या मूसा ने जो खाया, उसका विचार करें, तो उससे हमारी क्षुधा शांत नहीं हो सकती। इसी प्रकार उनके जो विचार थे, उन्हीं को सोचने से हमारी मुक्ति नहीं हो सकती। इन बातों में मेरे विचार बिल्कुल मौलिक हैं। कभी-कभी तो मैं यह सोचता हूं कि मेरे विचार तभी ठीक हैं, जब वे प्राचीन आचार्यो के विचारों से मिलते-जुलते हैं, पर दूसरे समय मैं समझता हूं कि उन लोगों के विचार तभी ठीक हैं, जब वे मुझसे सहमत होते हैं।

                     स्वतंत्रतापूर्वक विचार करने में मेरा विश्वास है। इन आचार्यो से बिल्कुल स्वतंत्र होकर विचार करो। उनका सब प्रकार आदर करो, पर धर्म की खोज स्वतंत्र होकर ही करो। मुझे अपने लिए प्रकाश अपने आप ढूंढ़ निकालना होगा, जैसा कि उन्होंने अपने लिए खोज निकाला था। उन्हें जिस प्रकाश की प्राप्ति हुई, उससे हमारा संतोष कदापि होगा।

                     तुम्हें स्वयं बाइबिल 'बनना' होगा, उसका अनुसरण करना नहीं। हां, केवल रास्ते के दीपक के समान, मार्ग-प्रदर्शक साइन बोर्ड के समान उसका आदर करना होगा। धर्मग्रंथ की सारी उपयोगिता बस इतनी ही है। पर ये मूर्तियां तथा अन्य वस्तुएं इस काम की हैं कि अपने मन को एकाग्र करने के प्रयत्न में या किसी विचार पर मन को दृढ़ रखने के लिए आवश्यक हैं।

                      दो प्रकार के लोगों को मूर्तियों की आवश्यकता नहीं पड़ती। एक तो वे, जिन्हें ईश्वर का विचार ही नहीं आता और दूसरा, पूर्णत्व को प्राप्त हुआ व्यक्ति, जो इन सब सीढि़यों को पार कर गया होता है। इन दोनों छोरों के बीच में ही सब को किसी किसी बाहरी या भीतरी आदर्श की आवश्यकता होती है। यह आदर्श चाहे किसी स्वर्गीय मनुष्य के रूप का हो अथवा जीवित पुरुष या स्त्री के रूप का। यह व्यक्तित्व और शरीर की पूजा है तथा बिल्कुल स्वाभाविक है। किसी भी वस्तु को ईश्वर मानकर पूजा करना एक सीढ़ी ही है।

                      यह परमेश्वर की ओर मानो एक कदम बढ़ने, उसके कुछ अधिक समीप जाने के समान है। यदि कोई मनुष्य अरुंधती तारे को देखना चाहता है, तो उसे उसके समीप का एक बड़ा तारा पहले दिखाया जाता है और जब उसकी दृष्टि बड़े तारे पर जम जाती है, तब उसको उससे छोटा तारा दिखाते हैं। ऐसा करते-करते क्रमश: उसको अरुंधती तक ले जाते हैं। इसी तरह ये भिन्न-भिन्न प्रतीक और प्रतिमाएं ईश्वर तक पहुंचा देती हैं। बुद्ध और ईसा की उपासना प्रतीक पूजा है।

                     इससे हम ईश्वर की उपासना के समीप पहुंचते हैं। पर इससे मनुष्य का उद्धार नहीं हो सकता। उसे तो ईश्वर तक जाना चाहिए, जिस ईश्वर ने बुद्ध और ईसा के रूप में अपने को प्रकट किया, क्योंकि अकेला ईश्वर ही हमें मुक्ति दे सकता है।



7-देखें दुख कैसे दूर हुआ --

                      हिमालय पर एक संत कुटिया में रहते थे। उनकी प्रसिद्धि इतनी थी कि उनके दर्शनों के लिए लोग नदियां-घाटियां पार कर चले आते। लोगों का मानना था कि वे हर दुख-तकलीफ से उन्हें मुक्ति दिला सकते हैं। जबकि संत नहीं चाहते थे कि उनकी एकांत साधना भंग हो।

                      एक बार तीन दिनों तक संत अपनी कुटिया से बाहर नहीं निकले। तीन दिनों में दुखों से मुक्ति पाने वालों की भारी भीड़ लग गई। जब वहां किसी और के आने की जगह नहीं बची, तब संत बाहर निकले। उन्होंने लोगों को संबोधित करते हुए कहा - मुझे पता है आप लोग अपने कष्टों, समस्याओं को दूर कराने मेरे पास आए हैं। आज आखिरी बार मैं आप लोगों के कष्ट दूर करने का उपाय बता रहा हूं, इसके बाद नहीं बताऊंगा। अब मुझे एक-एक करके अपनी समस्याएं बताएं।

                     सभी एक साथ बोलने लगे, क्योंकि सभी जानते थे कि संत से संवाद का यह अंतिम अवसर था। शोरगुल होने लगा। महात्मा चिल्ला कर बोले- आप लोग शांत हो जाइए। सभी अपने-अपने कष्ट एक पर्चे पर लिखकर मेरे सामने रख दीजिए।

                         सभी ने एक-एक पर्चे पर अपनी समस्या लिख दी। संत ने एक टोकरी में सारे पर्चो को डालकर उन्हें मिला दिया और कहा- हर व्यक्ति इसमें से एक पर्चा उठाए, उसे पढ़े और किसी दूसरे का दुख अपने दुख की जगह ले ले।

                          सारे व्यक्तियों ने टोकरी से पर्चे उठाकर पढ़े और चिंता में पड़ गए। क्योंकि सबके दुख एक से बढ़कर एक थे। आखिरकार, वे इस नतीजे पर पहुंचे कि बेशक उनके पास दुख हैं, पर बहुत से लोगों के पास तो उससे भी ज्यादा दुख-तकलीफें हैं। आखिरकार सभी ने अपने-अपने दुख को ही स्वीकार किया, लेकिन अब उन्हें दुख का प्रभाव कम लग रहा था।
 

8--संतुलन साधना ही शिवत्व है

                            लय और प्रलय, दोनों शिव के अधीन हैं। शिव का अर्थ ही सुंदर और कल्याणकारी, मंगल का मूल और अमंगल का उन्मूलन है। शिव के दो रूप हैं, सौम्य और रौद्र। जब शिव अपने सौम्य रूप में होते हैं, तो प्रकृति में लय बनी रहती है। पुराणों में शिव को पुरुष (ऊर्जा) और प्रकृति का पर्याय माना गया है। यानी पुरुष और प्रकृति का सम्यक संतुलन ही आकाश, पदार्थ, ब्रह्मांड और ऊर्जा को नियंत्रित रखते हुए गतिमान बनाए रखता है। प्रकृति में जो कुछ भी है, आकाश, पाताल, पृथ्वी, अग्नि, वायु, सबमें संतुलन बनाए रखने का नाम ही शिवत्व है।

                             शिव स्वयं भी परस्पर विरोधी शक्तियों के बीच सामंजस्य बनाए रखने के सुंदरतम प्रतीक हैं। शिव का जो प्रचलित रूप है, वह है, शीश पर चंद्रमा और गले में अत्यंत विषैला नाग। चंद्रमा आदिकाल से ही शीतलता प्रदान करने वाला माना जाता रहा है, लेकिन नाग..? अपने विष की एक बूंद से किसी भी प्राणी के जीवन को कालकवलित कर देने वाला। कैसा अद्भुत संतुलन है इन दोनों के बीच। शिव अ‌र्द्धनारीश्वर हैं।


                          पुरुष और प्रकृति (स्त्री) का सम्मिलित रूप। वे अ‌र्द्धनारीश्वर होते हुए भी कामजित हैं। काम पर विजय प्राप्त करने वाले और क्रोध की ज्वाला में काम को भस्म कर देने वाले। प्रकृति यानी उमा अर्थात् पार्वती उनकी पत्नी हैं, लेकिन हैं वीतरागी। शिव गृहस्थ होते हुए भी श्मशान में रहते हैं। मतलब काम और संयम का सम्यक संतुलन। भोग भी, विराग भी। शक्ति भी, विनयशीलता भी। आसक्ति इतनी कि पत्नी उमा के यज्ञवेदी में कूदकर जान दे देने पर उनके शव को लेकर शोक में तांडव करने लगते हैं शिव। विरक्ति इतनी कि पार्वती का शिव से विवाह की प्रेरणा पैदा करने के लिए प्रयत्नशील काम को भस्म करने के बाद वे पुन: ध्यानरत हो जाते हैं।

                            वेदों में शिव को रुद्र ही कहा गया है। वेदों के काफी बाद रचे गए पुराणों और उपनिषदों में रुद्र का ही नाम शिव हो गया और रौद्र स्वरूप में रुद्र को जाना गया। वस्तुत: प्रकृति और पुरुष के बीच असंतुलन उत्पन्न होने के परिणामस्वरूप यह स्वरूप प्रकट होता है। प्रकृति में जहां कहीं भी मानव असंतुलन की ओर अग्रसर हुआ है, शिव ने रौद्र रूप धारण किया है। लय और प्रलय में संतुलन रखने वाले शिव की भूमि रुद्रप्रयाग, चमोली और उत्तरकाशी जैसे तीर्थो में आई प्राकृतिक आपदा इसका उदाहरण हैं।

                            केदारनाथ धाम जाने पर रास्ते में लोक निर्माण विभाग उत्तराखंड की ओर से एक बोर्ड लगा है, 'रौद्र रुद्र ब्रह्मांड प्रलयति, प्रलयति प्रलेयनाथ केदारनाथम्।' इसका भावार्थ यह है कि जो रुद्र अपने रौद्र रूप से पूरे ब्रह्मांड को भस्म कर देने की साम‌र्थ्य रखते हैं, वही भगवान रुद्र यहां केदारनाथ नाम से निवास करते हैं।

                            हमें शिव के संतुलन स्वरूप पर ध्यान देना चाहिए। अपने भीतर तो संतुलन लाना ही चाहिए, साथ ही प्रकृति के संतुलन को भी बनाए रखने का प्रयास करना चाहिए। तभी हम जीवन में लय को कायम रख सकेंगे।

 
9--खोलें मन के द्वार

                        हमारी एकाग्रता में बाधक बनता है हमारा विचलित मन। यदि मन में प्रसन्नता हो तो वह पल भर में एकाग्र हो जाता है। इसके लिए हमें मन के दरवाजे खोल कर रखने पड़ेंगे। आचार्य विनोबा भावे का चिंतन..
प्रसन्न चित्त में एकाग्रता स्वाभाविक होती है। मुझे इसका अनुभव है। मैं देखता हूं कि दो-चार चीजों की ओर ध्यान देना मेरे लिए मुश्किल पड़ता है। उसके लिए मुझे जरा मेहनत करनी पड़ती है। लेकिन एकाग्रता तो सहज ही हो जाती है। उसके लिए कोई कोशिश नहीं करनी पड़ती। आंखें फाड़नी पड़ती हैं, मुंह खोलना पड़ता है। यानी करने में कुछ मेहनत नहीं। चित्त को इधर-उधर दौड़ाना भी नहीं। एक जगह बैठे रहना है, फिर उसमें तकलीफ क्या है? अगर तकलीफ है, तो चारों ओर दौड़ने में है। इसलिए अनेकाग्रता अस्वाभाविक होनी चाहिए और एकाग्रता स्वाभाविक।

                        मेरा मानना है कि जब चित्त पर संस्कार नहीं होते, तो स्मृति भी नहीं होती। मैं कभी-कभी नक्शा देखता हूं, तब मन की स्मृतियां इधर-उधर दौड़ती हैं। फलां-फलां मनुष्य फलां-फलां गांव में रहता है और उस गांव में अमुक-अमुक सभा हुई थी। वहां एक घटना हुई.. इस तरह मन कहां से कहां चला जाता है। इस तरह की अनेकविध स्मृतियां चित्त में होती हैं। इसी को चित्त की अशुचिता कहते हैं। ऐसी स्मृतियों को अगर हम धो सकते हैं, तो चित्त के एकाग्र होने में देर नहीं लगेगी।

                         महाभारत में आता है कि व्यास जी की समाधि लगने में छह महीने लगे। वास्तव में पूर्ण एकाग्रता तुरंत होनी चाहिए। वह नहीं हुई। छह महीने लगे। मतलब यह कि व्यास जी को अपने चित्त के संस्कार यानी स्मृतियों को धोने में इतना समय लगा। लेकिन यह भी हो सकता है कि स्वच्छ, निर्मल ज्ञान की प्रभा मन पर पड़े, तो चित्त एकदम एकाग्र हो जाए, इसलिए मायूस होने का कोई कारण नहीं है। मायूस लोगों से तुलसीदास जी कहते हैं - बिगरी जनम अनेक की, सुधरत पल लगै आधु। अर्थात बिगड़ी बात को सुधरने में पल भर भी नहीं लगता। इसलिए डरते क्यों हैं? मान लीजिए, दस हजार वर्ष पुराना अंधकार गुफा में है।


                          हम लालटेन लेकर गुफा में जाएंगे, तो उस अंधकार को समाप्त होने में दो-चार साल तो नहीं लगेंगे। जहां लालटेन पहुंची, वहां उस क्षण अंधकारमय संस्कार मिट सकते हैं। अंतर में एक क्षण में भी आलोक पड़ सकता है। कभी साधु-संगति से भी आलोक हो सकता है। कहीं दर्शन से भी प्रकाश मिल जाता है, तो एक क्षण में पूरा का पूरा मन धोया जा सकता है। यदि प्रकाश नहींपड़ता तो धीरे-धीरे धोना पड़ता है।

                          यह एक लंबी साधना है। बहुत बड़ी मंजिल है और कड़ी साधना। गौड़पाद ने बताया है कि धीरज कितनी देर तक रखना चाहिए: उत्-बिंदुना कुशाग्रेन उत्सेद। यानी कुशाग्र अर्थात तिनके से समुद्र का पानी निकालना। तिनके से एक-एक बूंद समुद्र से निकालो, तो जितना धीरज रखना होगा, उतने धीरज की मन को जरूरत है। उतना धीरज और उतना उत्साह मन को दिखाना होगा। मन का निग्रह करना होगा। इस तरह खेद छोड़कर, मायूसी छोड़कर उत्साह से और धीरज से काम करना होगा, तो मन का निग्रह होगा।

                         एक ओर गौड़पादाचार्य ने धीरज की बात बताई है, तो दूसरी ओर तुलसीदास जी कहते हैं कि सुधरत पल लगै आधु। एक ओर धीरज बताया है, दूसरी ओर यह बताया है कि एक क्षण में काम हो सकता है। काम हो सकता है, पर इसके लिए मन के दरवाजे खुले होने चाहिए। कहीं से भी ज्ञान मिलता है, तो लेने की तैयारी सदा रहे। ज्ञानी से ज्ञान-च्योति तो मिलती ही है, लेकिन बच्चे से भी मिल सकती है। उसके लिए चित्त उत्सुक और खुला होना चाहिए। उसके लिए मैं हमेशा सूर्य नारायण की मिसाल देता हूं।

                           ज्ञानी पुरुष का लक्षण है कि वह दरवाजे को धक्का देकर अंदर प्रवेश नहीं करता, दरवाजा खोला जाए, तभी वह अंदर आता है, वरना बाहर ही खड़ा रहता है। वैसे ही चित्त का दरवाजा भी अगर खोल दिया जाए और चित्त में उत्सुकता और प्रसन्नता हो तो ज्ञान मिल सकता है और ज्ञानी गुरु अंदर सकता है। सूर्यनारायण के समान ज्ञानी गुरु चित्त को धक्का नहीं देता। हृदय मंदिर खुला हो, धीरज हो, तो कहीं कहीं से प्रकाश मिल ही जाएगा।

                      चित्त की प्रसन्नता से सहज एकाग्रता आती है। चित्त की एकाग्रता के विषय में पतंजलि ने ऐसा संकेत कर रखा है कि ध्यान योग का आचरण यम-नियमपूर्वक ही करना चाहिए, नहीं तो उससे वह तारक होने के बजाय मारक हो जाएगा। इसका अर्थ यह है कि एकाग्रता में शक्ति अवश्य है, परंतु यदि वह अनुचित हुई, तो उससे मनुष्य राक्षस भी बन सकता है। जिस बात पर चित्त एकाग्र करना है, वही यदि अशुभ हो, तो परिणाम भी अशुभ ही होगा।

10--जीवन में सहनशीलता का बड़ा महत्व है

               सहनशीलता एक ऐसा सत्य है, जिससे प्राय: सभी लोगों को अपने जीवनकाल में रू--रू होना पड़ता है। सहनशील होना एक गुण है, जिससे जीवन का वास्तविक विकास होता है। आज हमारे जीवन में दुख और तनाव हावी हैं। इसका परिणाम यह है कि हम थोड़े से कष्टों से शीघ्र घबरा जाते हैं, क्रोधित हो जाते हैं।
 
              संत कबीर एक ऐसे संत थे, जो प्राय: शांत और सहनशील बने रहते थे। उनके जमाने में विरोधियों की कमी नहीं थी, लेकिन अपनी बातों को डंके की चोट पर कहनेवाला, पूरी पुरातनपंथी व्यवस्था को निर्थक करार देने वाला और सगुण उपासना का खंडन कर निर्गुण का प्रचार-प्रसार करने वाला कबीर जैसा व्यक्ति कितना सहनशील रहा होगा। इस बात की आप कल्पना कर सकते हैं। जिसने कभी किसी से लड़ाई-झगड़ा, मार-पीट, गाली-गलौज नहीं की, बल्कि शुद्ध पवित्र मन से साधना करते हुए संत कबीर ने अपना मत केवल सहनशीलता के बलबूते फैलाया। यदि कबीर सहनशील बने होते, तो आज भक्तों, संतों एवं कवियों की परंपरा में नहीं रह पाते। इस तरह यह मानना पड़ेगा कि जीवन में सहनशीलता का कितना बड़ा महत्व है।

                राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का सादगी से भरा जीवन बहुत ही सहनशील था। वह प्राय: अपने प्रत्येक कार्य और व्यवहार में सहनशील बने रहते थे। उनका प्रत्येक कार्य रूटीन के मुताबिक चलता था। समय के बेहद पाबंद थे और अपने मन, वचन कर्म से कभी  कष्ट देना पसंद नहीं करते थे। इसीलिए वे अपने जीवन में प्राय: सफल रहे थे। आज आवश्यकता इस बात की है कि हम सहनशील बनें ताकि हमारे कर्म और व्यवहार से किसी को कोई कष्ट हो।

             सहनशीलता का गुण अभ्यास से सीखा जा सकता है। प्रत्येक कार्य करने की योजना एक सुनिश्चित ढंग से बनाने और उस पर अमल करने से ही सही दिशा में बदलाव संभव है। अच्छे लोगों की संगति, चिंतन विचारों को शुद्ध बनाए रखने से समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त हो सकती है। सहनशीलता का गुण जाने से दोस्तों और पड़ोसियों के बीच आदर होता है। जल्दी तनाव या क्रोध नहीं पाता। इसलिए सहनशील बने रहकर निज लक्ष्य की ओर बढ़ना चाहिए।

Saturday, February 21, 2015

जीवन चलने का नाम

1-व्यक्ति की पहचान चरित्र से होती

         चरित्र एक ऐसी मशाल के समान होता है जिसका प्रकाश दिव्य और पावन होता है। चरित्र बल के आलोक से अनेक लोगों को प्रेरणा मिलती है, एक नई राह मिलती है। चरित्र एक ऐसा आकर्षण केंद्र होता है, जिसकी ओर सभी अनायास खिंचे चले आते हैं। चरित्र से व्यक्तित्व आकार पाता है, पहचान मिलती है।

         वस्तुत: आमतौर पर अच्छी आदतों व गुणों के समूह को चरित्र में शामिल किया जाता है। चरित्र का क्षेत्र बड़ा ही व्यापक व विस्तृत है। इसे हमने संकीर्णता की सीमाओं में सीमित कर दिया है। चरित्र के संबंध में हम अनेक भ्रांत धारणाओं से ग्रस्त हैं, जबकि यह हमारे समूचे व्यक्तित्व को गढ़ता है और विकसित करता है। यह अपने गुणों के बीजों का हमारे अंतस् में रोपण करता है और कालांतर में इन गुणों के विकास से हमारे व्यक्तित्व का निर्माण होता है। चरित्र के आधार पर व्यक्ति की पहचान होती है। चरित्र के बीज सही और प्रखर हों, सत्य से आवृत्त हों, तो व्यक्तित्व सशक्त होगा। इसके विपरीत दुर्गुण से शिकार हों, तो व्यक्तित्व दोषयुक्त होगा। इसलिए चरित्र को व्यक्तित्व के गुणों का समुच्य कहा जा सकता है। इसमें अच्छे-बुरे और सद्गुण-दुर्गुण दोनों को ही शामिल किया जाता है। ये गुण हमारे समूचे व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं। इसके आधार पर हम जाने व समझे जाते हैं। हम क्या हैं, हमारा अस्तित्व क्या है, हमारी वर्तमान स्थिति क्या है और कहां पर विद्यमान हैं? इसकी समूची जानकारी चरित्र के इर्द-गिर्द घूमती नजर आती हैं।

         अध्यात्म व्यक्तित्व ढालने की टकसाल है और चरित्र-निर्माण की प्रयोगशाला है। ऐसे अनेक, असंख्य जीवंत प्रमाण हैं, जिनका व्यक्तित्व कोयले के समान अनगढ़ व कुरूप था, परंतु बाद में वे ही विद्वान, ज्ञानी और महापुरुष बने। चरित्र से ही व्यक्तित्व की व्याख्या-विवेचना संभव है। व्यक्तित्व निर्माण चिंतन की प्रेरणा प्रदान करता है। चरित्र एक पात्र है, जिसमें चिंतन विकसित होता है। चरित्र की उपजाऊ भूमि पर ही चिंतन का बीजारोपण होता है। यह वह भूमि है, जहां से अध्यात्म की कोंपलें फूटती हैं, परंतु विडंबना है कि आज की तथाकथित आध्यात्मिकता में अध्यात्म की मूलभूत विशेषता चरित्र विलुप्त हो रही है। यही कारण है कि आज तमाम आध्यात्मिक व धार्मिक व्यक्ति बाहर से जैसे दिखते हैं, वैसे अंतर्मन से होते नहीं हैं।
 
 
2-आशा की सतत ऊर्जा से निराशा को दूर करें
 
          संसार में जन्म लेने वाला प्रत्येक मनुष्य आशा और निराशा को अपने जीवन में धूप-छांव की तरह अठखेलियां करते हुए पाता है। जीवन की इस परिवर्तनशीलता को देखकर व्यक्ति अपनी कमजोर मानसिकता के कारण दुखी व संर्घषों से घबराकर निराश हो जाता है। जब व्यक्ति लगातार असफल होता है, तो उसे अपने चारों ओर ऐसा अंधकार दिखाई देता है, जिसमें वह आशा का दीप बुझा हुआ पाता है।

         दुख और अवसाद उसके मन-मस्तिष्क पर कब्जा कर लेते हैं। कुंठा और हीनभावना से ग्रसित व्यक्ति अपना मनोबल भी गंवा बैठता है। उसके सकारात्मक गुण लुप्त हो जाते हैं। अनासक्ति व अकर्मण्यता की स्थिति में पहुंचकर वह अपने जीवन को ही समाप्त करने की बात सोचने लगता है। निराशा अति उत्साह और स्वप्न के टूटने का परिणाम है। अपेक्षाओं के पूर्ण न होने से उत्पन्न दुख से भी निराशा का जन्म होता है। विवेकपूर्ण मनुष्य तो असफलता को चुनौती मानकर पुन: प्रयत्‍‌न करते हैं, परंतु विवेकहीन मनुष्य निराशा से भर उठते हैं। निराशा एक सहज मानवीय सार्वभौमिक अभिव्यक्ति है।

         डॉक्टर मानते हैं कि निराशा और अवसाद कुछ रासायनिक पदार्थो के स्त्रावित होने के परिणाम हैं। इसे एक तरह से बीमारी माना जाता है। इससे बाहर निकलने के लिए मनोचिकित्सकों और दवाओं की सहायता ली जाती है। आध्यात्मिक विधियों जैसे ध्यान (मेडिटेशन) के जरिये भी निराशा को दूर किया जाता है।

         निराशा को घातक बनाने का कार्य मानव मन ही करता है। इसीलिए मन पर अंकुश रखना चाहिए और आशा की सतत ऊर्जा से निराशा को दूर करना चाहिए। असफलता इस बात का संकेत है कि सार्थक प्रयत्‍‌न नहीं किया गया। इसलिए असफलताओं से घबराने की आवश्यकता नहीं है। बस अपने प्रयासों की गति बढ़ा देनी चाहिए। जिस प्रकार रात्रि का अंत सूर्योदय के साथ होता है, उसी प्रकार निराशा का अंत आशा और उम्मीद के साथ होता है। 'गीता' में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं जो व्यक्ति सुख व दुख में, लाभ व हानि में और जय व पराजय की स्थितियों में विचलित नहीं होता, ऐसे शख्स को कोई भी विचलित नहीं कर सकता। निराशा से सामना करने का यही मूल-मंत्र है। इस पर सभी को अमल करना चाहिए।


3-आस्था का भाव संशयग्रस्त न हो
 
         जीवन के बारे में गहराई से सोचने के लिए मनुष्य में आस्था-भाव अवश्य होना चाहिए। मानव जीवन हमेशा सामान्य रूप से नहीं चल सकता। कठिनाइयों के समय धैर्य व साहस के साथ जीवन निर्वाह के बारे में सोचना पड़ता है। भौतिक रूप से खाली होने पर मनुष्य किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है। संघर्ष के ऐसे वक्त में उसे ईश्वर का ध्यान तो आता है, पर वह अपने कल्याण के लिए उसमें पूरी आस्था नहीं रख पाता। उसका ईश्वरीय संस्मरण मात्र डर व शंका के कारण ही होता है, जबकि उस सर्वशक्तिमान के सान्निध्य-प्रसाद को उस पर गहन आस्था रखने से ही प्राप्त किया जा सकता है।

         आस्था का भाव-विचार संशयग्रस्त नहीं होना चाहिए। आस्था के लिए सोचने-विचारने का कार्यक्रम आस्थावान रहकर ही संपन्न हो सकता है। धर्म-कर्म व ईश-मर्म में रुचि भी तब ही बनी रह सकती है। ईश्वरीय उपासना के दौरान गूढ़, रहस्यात्मक विचार हमें निराकार शक्ति की ऊर्जा के निकट ले जाते हैं। इस ऊर्जा प्रवाह से हममें सच्ची धार्मिक स्थिरता आती है। ईश्वर से साक्षात्कार इसी प्रकार होता है। भगवान में आस्था की बात को इसी उच्चकोटि के धर्मानुभव के आधार पर समझी जा सकती है। आस्था कोई पौराणिक व पारंपरिक विधान या नियम नहीं है, जिसका अनुसरण करके ही व्यक्ति आस्था में विश्वास करे। आस्था एक विशुद्ध व्यक्तिगत मान्यता है। धर्म को सम्मान देते हुए ध्यान का विस्तार करना और धर्म-भक्ति के सुर, संगीत और संप्रवाह के माध्यम से उसमें गहरे उतरना आस्था से ही संभव है। आस्था कठिन जीवन परिस्थितियों में एक विश्वास-पुंज के समान होती है। आस्थावान होकर हम जीवन को व्यर्थ व विकार के रूप में देखना बंद कर देते हैं। इसके उपरांत हममें भगवत चेतना का अंकुर फूट पड़ता है। आस्था एक प्रकार का मानसिक व्यायाम है। इसमें ज्ञानेंद्रियां एक सकारात्मक विचार-बिंदु पर स्थिर हो जाती हैं और तत्पश्चात हमारे द्वारा किए जाने वाले प्रत्येक कार्य व कामना में एक शुभभाव आ जाता है। व्यक्ति में ऐसा परिवर्तन उसे नई दिशा प्रदान करता है। आस्था के बलबूते जिंदगी फलती-फूलती है। सच्ची आस्था से ईश्वर का साक्षात्कार या उनकी अनुभूति किसी न किसी रूप में अवश्य होती है।


4-वास्तविक आनंद की अनभूति
 
         एक संत के विषय में यह प्रसिद्ध था कि जो उनकेपास जाता है, आनंदित होकर लौटता है। वह सहजता के साथ आनंदित, सुखी और संतुलित जीवन के सूत्र बता देते। उनकी प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैली हुई थी। एक धनी व्यक्ति एकाएक सुखी और आनंदित होने की चाह लेकर उनके पास गया और उतावला होकर आनंदित रहने की विधि पूछने लगा। संत उसकी बात अनसुनी करते हुए एक पेड़ के नीचे बैठे चिड़ियों को दाना चुगाते रहे। चिड़ियों की प्रसन्नता के साथ संत अपने को जोड़कर आनंदविभोर हो रहे थे। संत की इसी स्थिति को देखकर धनी व्यक्ति अपना धैर्य कायम नहीं रख पा रहा था और उसने अधिक उतावलेपन से संत से सुखी बनने का सूत्र बताने का आग्रह किया। संत अपने काम में आनंदित हो रहे थे। अमीर आदमी उतावला हो रहा था, उसने पुन: संत से आनंदित रहने का रहस्य पूछा। अधिक आग्रह करने पर संत ने अलमस्ती से कहा, ''दुनिया में प्रसन्न होने का एक ही तरीका है-दूसरे को देना। देने में जो आनंद है, जो सुख है वह और किसी चीज में नहीं है। तुम चाहो तो अपनी अमीरी जरूरतमंदों को लुटाकर स्वयं आनंदित रहने वालों में अग्रणी हो सकते हो।'' इसलिए सेवा के नाम पर भूखों को भोजन कराएं, यही बड़ा धार्मिक कार्य हो सकता है, लेकिन इस पुनीत कार्य का भी अब प्रदर्शन हो रहा है।

         लोग धर्म के नाम पर कई प्रकार के कर्म-कांडों और संस्कारों का पालन करते हैं। हममें से तमाम लोग प्राय: दूसरों का ध्यान आकर्षित करने के लिए अपने धार्मिक कार्यो का प्रदर्शन करते हैं, जबकि सच यह है कि मानव की सेवा ही पुण्य का काम है, किसी की आंख के आंसू पोंछना वास्तविक धर्म है और सच्ची संवेदनशीलता है। सभी धर्म हमें यही शिक्षा देते हैं। पुण्य तभी प्राप्त होंगे, जब हम हृदय से पवित्र होंगे, जरूरतमंदों की सहायता करेंगे। कुछ लोग गरीबों को भोजन कराते हैं, लेकिन कितने लोग हैं, जो इनकी गरीबी दूर करने के लिए आगे आते हैं। अगर हम संतों-महात्माओं के जीवन का अध्ययन करें, तो पाएंगे कि उन सबने गरीबों और जरूरतमंदों की सेवा की। उन्होंने हमें इसी बात की शिक्षा प्रदान की। लेकिन हमने उन महात्माओं के नाम पर संप्रदाय बना लिए और सेवा धर्म भूल गए। हम जीवन में पुण्य प्राप्त करने के लिए न जाने कहां-कहां भटकते हैं।


5-चरित्र बल सत्य से आवृत्त हों
 
         चरित्र एक ऐसी मशाल के समान होता है जिसका प्रकाश दिव्य और पावन होता है। चरित्र बल के आलोक से अनेक लोगों को प्रेरणा मिलती है, एक नई राह मिलती है। चरित्र एक ऐसा आकर्षण केंद्र होता है, जिसकी ओर सभी अनायास खिंचे चले आते हैं। चरित्र से व्यक्तित्व आकार पाता है, पहचान मिलती है। वस्तुत: आमतौर पर अच्छी आदतों व गुणों के समूह को चरित्र में शामिल किया जाता है। चरित्र का क्षेत्र बड़ा ही व्यापक व विस्तृत है। इसे हमने संकीर्णता की सीमाओं में सीमित कर दिया है। चरित्र के संबंध में हम अनेक भ्रांत धारणाओं से ग्रस्त हैं, जबकि यह हमारे समूचे व्यक्तित्व को गढ़ता है और विकसित करता है। यह अपने गुणों के बीजों का हमारे अंतस् में रोपण करता है और कालांतर में इन गुणों के विकास से हमारे व्यक्तित्व का निर्माण होता है।

         चरित्र के आधार पर व्यक्ति की पहचान होती है। चरित्र के बीज सही और प्रखर हों, सत्य से आवृत्त हों, तो व्यक्तित्व सशक्त होगा। इसके विपरीत दुर्गुणों से शिकार हों, तो व्यक्तित्व दोषयुक्त होगा। इसलिए चरित्र को व्यक्तित्व के गुणों का समुच्चय कहा जा सकता है। इसमें अच्छे-बुरे और सद्गुण-दुर्गुण दोनों को ही शामिल किया जाता है। ये गुण हमारे समूचे व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं। इसके आधार पर हम जाने व समझे जाते हैं। हम क्या हैं, हमारा अस्तित्व क्या है, हमारी वर्तमान स्थिति क्या है और कहां पर विद्यमान हैं? इसकी समूची जानकारी चरित्र के इर्द-गिर्द घूमती नजर आती हैं। अध्यात्म व्यक्तित्व ढालने की टकसाल है और चरित्र-निर्माण की प्रयोगशाला है। ऐसे अनेक, असंख्य जीवंत प्रमाण हैं, जिनका व्यक्तित्व कोयले के समान अनगढ़ व कुरूप था, परंतु बाद में वे ही विद्वान, ज्ञानी और महापुरुष बने। चरित्र से ही व्यक्तित्व की व्याख्या-विवेचना संभव है। व्यक्तित्व निर्माण चिंतन की प्रेरणा प्रदान करता है। चरित्र एक पात्र है, जिसमें चिंतन विकसित होता है। चरित्र की उपजाऊ भूमि पर ही चिंतन का बीजारोपण होता है। यह वह भूमि है, जहां से अध्यात्म की कोंपलें फूटती हैं, परंतु विडंबना है कि आज की तथाकथित आध्यात्मिकता में अध्यात्म की मूलभूत विशेषता चरित्र विलुप्त हो रही है। यही कारण है कि आज तमाम आध्यात्मिक व धार्मिक व्यक्ति बाहर से जैसे दिखते हैं, वैसे अंतर्मन से होते नहीं हैं।
 

6--आत्म तत्व क्या है
 
         मनुष्य तन अत्यंत दुर्लभ है और पूर्व जन्मों के पुण्यों के फलस्वरूप यह प्राप्त होता है। हम प्राय: अपने इस शरीर को ही सब कुछ समझ लेते हैं। इसीलिए संसार में रहकर हम शरीर-सुख के लिए प्रतिपल प्रयासरत रहते हैं, जबकि प्राणी का शरीर नाशवान है, क्षणभंगुर और मूल्यहीन है। शारीरिक सुख क्षणिक हैं, अनित्य हैं। इसलिए ज्ञानी जन शरीर के प्रति ध्यान न देकर, अंतरात्मा के प्रति सचेत रहने की बात करते हैं। अंतरात्मा के प्रति ध्यान देने से प्राणी का जीवन सार्थक होता है। शरीर नाशवान है और आत्मा अजर-अमर। गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं कि मृत्यु के पश्चात हमारा शरीर केवल वस्त्र बदलता है।

         आत्मा तो अपने अस्तित्व के साथ सर्वदा वर्तमान है, क्योंकि उसका अवसान नहीं होता। इतना सब कुछ जानने के बाद भी हम शरीर को पहचानते हैं, उसका गर्व करते हैं और आत्मा के महत्व को हम गौण मानते हैं। यह हमारी अज्ञानता ही तो है। शरीर से हम कर्म भले ही करते हों, किंतु प्रेरक शक्ति आत्मा ही है। जिस प्रकार दीपक का महत्व ज्योति से है, उसी प्रकार शरीर का महत्व आत्मा से है, किंतु हम शरीर को ही सत्य मानकर उसका मोह करते रहते हैं। यह हमारी भयंकर भूल है। यह अज्ञान है। यह तो सभी जानते हैं कि मोह का चिरंतन मूल्य नहीं होता। एक न एक दिन व्यक्ति के मन से मोह दूर हो जाता है। उसे शरीर का रूप, गर्व, अहंकार आदि सभी महत्वहीन लगते हैं। महलों में रहने वाले संपन्न लोगों और जंगलों में तपलीन संन्यासियों-ऋषियों में शरीर के प्रति अलग-अलग अवधारणाएं होती हैं। संपन्न व्यक्ति अपने शरीर को सत्य मानकर सदैव भौतिक सुखों के पीछे भागते रहते हैं। वहीं संन्यासी शरीर को नाशवान और गौण मानकर आत्मा की आराधना में लीन रहकर भजन में व्यस्त रहते हैं। ऋषि को शरीर के चोला बदलने का सत्य ज्ञात हो चुका है। इसीलिए वह मस्त है और संपन्न व्यक्ति सदैव चिंताओं से ग्रस्त और भौतिक सुविधाओं के लिए व्यस्त रहता है। दोनों में यही मौलिक अंतर है। आत्मा के सत्य को समझ लेने के बाद शरीर का महत्व कम हो जाता है। शरीर और आत्मा के बीच संतुलन बनाकर रहने वाला व्यक्ति मोहग्रस्त नहीं होता। ज्ञान का उदय होते ही अज्ञान स्वत: समाप्त हो जाता है। शरीर केवल माध्यम है और आत्मा उसका संचालन करती है।
 

7-आत्मविश्वास घातक भी हो सकता है
 
         प्रश्‍न: सद्‌गुरु, अगर हम अपने आत्मविश्वास और योग्यता को बढ़ाना चाहते हैं तो हमें अपने व्यवसाय या कार्यक्षेत्र में कुछ खास लक्ष्य हासिल करने की जरुरत होती है, जो कि हमें बहुत व्यस्त कर देता है। ऐसे में आत्मज्ञान या आत्मबोध के लिए वक्त कैसे निकाला जाए?


         सबसे पहले तो आत्मबोध के बारे में आपका या किसी और का जो विचार है उसे स्पष्ट कर लें। क्या आपके पास टेलीविजन है? क्या आप कैमरे का इस्तेमाल करते हैं? आपके पास जीवन में जो भी उपकरण हैं, जितना आप उनके बारे में जानते हैं, आपको उन्हें इस्तेमाल करने में उतनी ही आसानी होती है। अगर आप एक ऐसे इंसान को कैमरा दे दीजिए, जो इसके इस्तेमाल के बारे में कुछ नहीं जानता हो, तो वह शायद इसे ऑन भी नहीं कर पाएगा। लेकिन अगर यही कैमरा आप किसी ऐसे व्यक्ति को देते हैं, जो उसके बारे में अच्छी तरह जानता है, तो वह उसी कैमरे से एक जादुई संसार रच देगा। एक ऐसा संसार कि लोग उसे देखने के लिए घंटों अंधेरे में बैठना पसंद करेंगे।


         आत्मबोध या आत्मानुभूति का मतलब महज ‘अपने आप’ को जानना है। ऐसे में यह आपके व्यवसाय या आपके कामकाज का विरोधी कैसे हो सकता है? कल अगर आप मेरे साथ ड्राइव पर चलें, तो मैं आपको दिखा सकता हूं कि हम कार के साथ क्या-क्या कर सकते हैं। किसी चीज के बारे में आप जितना ज्यादा जानते हैं, उसका इस्तेमाल आप उतना ही बेहतर तरीके से कर सकते हैं। यह बात जीवन में हमारे द्वारा किए जाने वाले हर काम के साथ अगर लागू होती है, तो क्या यह खुद हमारे साथ लागू नहीं होगी? आप खुद के बारे में भी जितना ज्यादा जानेंगे, उतना ही बेहतर आप अपना इस्तेमाल कर पाएंगे। इसलिए ऐसा बिल्कुल मत सोचिए कि आत्मबोध सिर्फ हिमालय की कंदराओं में होता है। यह वहां भी होता है, लेकिन मैं चाहता हूं कि आत्मबोध को आप अपने संदर्भ में देखें।

         आप अपने जीवन में जो भी करना चाहते हैं, यह उसके खिलाफ कैसे हो सकता है? मैं आपसे पूछता हूं कि आप अपने बारे में जाने बिना एक प्रभावशाली जीवन कैसे जी सकते हैं? आज लोग एक दूसरे को समझा रहे हैं कि आत्मविश्वास कैसे पाया जाए, वो भी जीवन की प्रक्रिया को समझे बिना। लेकिन स्पष्टता के बिना आत्मविश्वास बेहद घातक है। पिछले दिनों पूरी दुनिया आर्थिकमंदी के दौर से गुजरी है, जिसकी शुरुआत अमेरिका से हुई। इसकी शुरुआत के पीछे अमेरिकी लोगों का बिना स्पष्टता के अति-आत्मविश्वास ही असली वजह था।


8-जीवन में आत्मविश्वास नहीं स्पष्टता की जरूरत है
 
         अफसोस की बात है कि हम सोचते हैं कि आत्मविश्वास, स्पष्टता का विकल्प है। मान लीजिए हम आपकी आंखों पर पट्टी बांध कर आपसे चलने के लिए कहते हैं। अगर आप समझदार हैं तो आप अपना रास्ता महसूस करने की कोशिश करेंगे, दीवारों को छूते हुए आसपास की चीजों का हाथ व पैरों से स्पर्श करते हुए चलेंगे। लेकिन आप अगर आत्मविश्वास से भरे हैं और बिना देखे चलते हैं, उस स्थिति में रास्ते का पत्थर आप पर किसी तरह की करुणा नहीं दिखाने वाला। इसी तरह जिंदगी भी कभी आपके प्रति दयालु नहीं होगी अगर आप स्पष्टता के बिना आत्मविश्वास से भरे हैं। दुनिया में आप जो भी काम कर रहे हैं, उसमें सफलता पाने के लिए या फिर जीवन में चीजों को बेहतर ढंग से करने के लिए इंसान को आत्मविश्वास की नहीं, बल्कि स्पष्टता की जरूरत होती है।


9-हमारी इच्छाएं
 
         मनुष्य जीवनभर इच्छाओं-कामनाओं के पीछे भागता रहता है। जीवन में कुछ इच्छाओं की पूर्ति तो हो जाती है, पर ज्यादातर इच्छाओं की पूर्ति नहीं हो पाती। मनुष्य की जब इच्छाओं की पूर्ति हो जाती है, तो वह फूला नहीं समाता और अहंकारयुक्त हो जाता है। उस कार्य की पूर्ति का सारा श्रेय स्वयं को देता है। वहीं जब इच्छा की पूर्ति नहीं हो पाती तब वह ईश्वर को दोष देने लगता है और अपने भाग्य को दोष देने लगता है। मनुष्य की इच्छाएं अनंत होती हैं। वे धारावाहिक रूप से एक के बाद एक कर आती चली जाती हैं। जीवनपर्यन्त यही क्रम चलता रहता है। वर्तमान के इस भौतिक युग में लोग इच्छाओं से भी बड़ी महत्वाकांक्षाओं को मन में पालने लगे हैं। ऐसी-ऐसी महत्वाकांक्षाएं करते हैं, जिनके बारे में स्वयं जानते हैं कि वे शायद ही कभी पूरी हो सकें।

         इस क्षणभंगुर संसार में सांसारिक सुख की प्राप्ति करने के लिए मनुष्य सदा प्रयत्‍‌नशील रहता है। इसके लिए वह सदैव कामना करता रहता है। वह नहीं जानता कि सुखस्वरूप तो वह स्वयं ही है। गुणों के अधीन यह सांसारिक सुख तो क्षणभंगुर हैं। यह समाप्त होने वाला है, तब फिर इन संसारी सुख की इच्छाओं के पीछे क्यों भागते रहा जाए? भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में कहा है कि रजोगुण से उत्पन्न यह कामना बहुत खाने वाली है अथवा हमें परेशान करने वाली है। ऐसी मनोकामना की पूर्ति कभी नहीं होती। इसका पेट कभी नहीं भरता। भगवान कहते हैं कि मन में उठने वाली कामना यदि पूरी हो जाती है तो राग उत्पन्न हो जाता है और इसकी पूर्ति न होने पर मन में क्त्रोध जन्म ले लेता है। कहने का मतलब यही है कि दोनों ही स्थितियों में मनुष्य की हानि है अथवा उसे नुकसान उठाना पड़ता है। हमें यह समझना होगा कि किसी भी व्यक्ति के जीवन में उसकी संपूर्ण इच्छाओं की पूर्ति कभी नहीं हो पाती, जबकि इन इच्छाओं की पूर्ति करने में मनुष्य अपना सारा श्रम लगा देता है। मनुष्य को चाहिए कि इन इच्छाओं का दामन छोड़कर अपने नियमित कर्र्मों को आसक्ति से रहित होकर करते हुए सारे जगत के रचयिता परमात्मा को अपना सर्वस्व न्योछावर करे और इस जगत में निर्लिप्त होकर रहे। इससे वह शाश्वत सुख व शांति प्राप्त कर सकेगा और फिर वह इच्छाओं के जाल में नहीं फंसेगा।


10--आज के धर्म का स्वरूप
 
         आज मनुष्य अनेक प्रकार की समस्याओं से घिरा है। कभी वह बीमारी की समस्या से जूझता है तो कभी उसे वृद्धावस्था सताती है, कभी वह मौत से घबराता है तो कभी व्यवसाय की असफलता का भय उसे बेचैन करता है। कभी अपयश का भय उसे तनावग्रस्त कर देता है ..और भी न जाने कितने प्रकार हैं भय के। मनुष्य इन सब समस्याओं से निजात चाहता है। हर इंसान की कामना रहती है कि उसके समग्र परिवेश को ऐसा सुरक्षा कवच मिले, जिससे वह निश्चित होकर जी सके, समस्यामुक्त होकर जी सके। जीवन एक संघर्ष है। इसे जीतने के लिए धर्मरूपी शस्त्र जरूरी है।

         महाभारत में लिखा है-'धर्मो रक्षति रक्षित:।' मनुष्य धर्म की रक्षा करे तो धर्म भी उसकी रक्षा करता है। यह विनियम का सिद्धांत है। संसार में ऐसा व्यवहार चलता है। भौतिक सुख की चाह में लोग धर्म की ओर प्रवृत्त होते हैं। कुछ देने की मनौतियां- वायदे होते हैं, स्वार्थो का सौदा चलता है। पाप को छिपाने के लिए पुण्य का प्रदर्शन किया जाता है। यदि ऐसा होता है, तो धर्म से जुड़ी हर परंपरा, प्रयत्न और परिणाम गलत हैं, जो हमें साध्य तक नहीं पहुंचने देते। आचार्य तुलसी ने इसीलिए ऐसे धर्म को आडंबर माना। 'धर्मो रक्षति रक्षित:'-यह एक बोधवाक्य है, जीवन का वास्तविक दर्शन है। मनुष्य की धार्मिक वृत्ति उसकी सुरक्षा करती है, यह व्याख्या सार्थक है। ऐसा इसलिए क्योंकि वास्तव में धर्म का न कोई नाम होता है और न कोई रूप। व्यक्ति के आचरण, व्यवहार या वृत्ति के आधार पर ही उसे धार्मिक या अधार्मिक होने का प्रमाणपत्र दिया जा सकता है। धार्मिक व्यक्ति के जीवन में किसी प्रकार का कष्ट नहीं आता, उसे बुढ़ापा, बीमारी या आपदा का सामना नहीं करना पड़ता, ऐसी बात नहीं है। धार्मिक व्यक्ति के जीवन में भी बुढ़ापा का समय आता है, लेकिन उसे यह सताता नहीं है। बीमारी आती है, पर उसे व्यथित नहीं कर पाती। आपदा आती है, पर उससे उसका धैर्य विचलित नहीं होता। इस कथन का सारांश यह है कि धार्मिक व्यक्ति दुख को सुख में बदलना जानता है। इस बात को यों भी कहा जा सकता है कि धार्मिक वही होता है, जो दुख को सुख में बदलने की कला से परिचित रहता है। यही है धर्म की वास्तविक उपयोगिता।

10--सफल व्यावहारिक जीवन कैसा हो
 
         डॉ. राजेंद्र साहिल ने इस विचार को कुछ इस तरह व्यक्त किया है कि गुरु ग्रंथ साहिब एक ऐसा ग्रंथ है, जिसकी दार्शनिक अवधारणाएं आज के समय के लिए अत्यंत व्यावहारिक हैं और सफल जीवन की ओर ले जाती हैं।
 
         गुरु ग्रंथ साहिब भारतीय दर्शन एवं विचार परंपरा का चिंतन है। पांचवें गुरु श्री अर्जुन देव जी द्वारा संपादित और बाद में दसवें गुरु गोविंद सिंह जी द्वारा पुनर्संपादित इस अद्भुत ग्रंथ में सिख गुरुओं, भक्त कवियों, दार्शनिकों की वाणी दर्ज है। इसमें विभिन्न दार्शनिक सिद्धांत एवं उनका निचोड़ मिलता है, परंतु यहां सामाजिक-आर्थिक पक्ष की भी अलग और विशिष्ट स्थापनाएं मिलती हैं। ये स्थापनाएं सहज, स्वाभाविक एवं खुशहाल जीवन जीने की युक्ति सुझाती हैं।
 
क-संसार के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण
 
         अधिकांश दार्शनिक अवधारणाओं में संसार अथवा सृष्टि को नश्वर, मिथ्या और क्षणभंगुर माना गया है, परंतु 'गुरु ग्रंथ साहिब' में संसार को नश्वर, कूड़ (मिथ्या) एवं क्षणभंगुर मानने के बावजूद भी 'सचे तेरे खंड, सचे ब्रहमंड। सचे तेरे लोअ सचे आकार।' कहकर सृष्टि अथवा संसार को सत्य भी माना गया है। गुरु नानक देव जी संसार को ईश्वर का घर मानते हैं और उस 'अकाल पुरख' (ईश्वर) को इसमें निवास करने वाला बताते हैं।
 
ख-आर्थिक उन्नति आवश्यक
 
         संसार में रहते हुए अपनी भौतिक जरूरतें पूरी करने के लिए अर्थ-उपार्जन को गुरुग्रंथ साहिब में उचित व श्रेष्ठ बताया गया है। इसीलिए कार्य करके जीविका कमाने को सर्वश्रेष्ठ प्राप्ति माना गया है। गुरु अर्जुन देव तो गुरु ग्रंथ में स्पष्ट कहते हैं कि खाते-पीते, खेलते-पहनते हुए भी मुक्ति या 'मोक्ष' प्राप्त किया जा सकता है। इसमें मनुष्य की आर्थिक उन्नति को सामाजिक उन्नति का आधार माना गया है।
 
ग-स्तरीय जीवन जीने का अधिकार
 
         गुरु ग्रंथ साहिब में स्तरीय और खुशहाल जीवन गुजारने को मनुष्य का बुनियादी हक माना गया है। इसीलिए गुरुग्रंथ साहिब में 'देग तेग फतहि' का सिद्धांत स्थापित हुआ है। 'देग' (भोजन वाला बर्तन) मनुष्य की आर्थिक एवं भौतिक जरूरतों का प्रतीक है, जिसे 'फतहि' (जीतने यानी प्राप्त) करने की कामना की गई है।
 
घ-गृहस्थ जीवन की श्रेष्ठता
 
         गुरुग्रंथ साहिब में गृहस्थ जीवन को सर्वोतम धर्म कहा गया है। आर्थिक उन्नति एवं स्तरीय जीवन जीने जैसे लक्ष्य गृहस्थ जीवन में रहकर ही प्राप्त किए जा सकते हैं। गुरु नानक देव जी स्पष्ट कहते हैं कि सबसे उत्तम गृहस्थी है।मानवीय अधिकारों की बात इस ग्रंथ में समस्त मानवीय अधिकारों को मनुष्य के लिए अनिवार्य मानने की व्यापक चर्चा की गई है। गुरु नानक देव जी मानवीय अधिकारों के हनन को सबसे बड़ा पाप मानते हैं।
 
च-स्त्री-पुरुष समानता
 
         गुरु ग्रंथ साहिब में स्त्री और पुरुष के अधिकार समान माने गए हैं। गुरु नानक देव जी का कथन है कि जीवन के समस्त कार्य-व्यवहार का आधार है नारी, अत: नारी बुरी कैसे हो सकती है। इस प्रकार 'गुरु ग्रंथ साहिब' मात्र दार्शनिक चिंतन का संग्रह ही नहीं, बल्कि सहज और खुशहाल जीवन जीने की युक्ति भी है।

नि:स्वार्थ सेवा के फल को पुण्य कहा जाता

         अठारह पुराणों के रचनाकार महर्षि व्यास का यह कहना था कि यदि आप कुछ अच्छा कार्य करते हैं तो इस स्थिति में आपको कुछ प्रतिकर्म मिलते हैं। प्रत्येक कार्य का एक समान और विपरीत प्रतिकर्म मिलता है, बशर्ते तीन आपेक्षिक तत्व अर्थात देश, काल और पात्र अपरिवर्तित रहें। यही नियम है। यदि आप कुछ अच्छा करते हैं, तो स्वाभाविक रूप से वहां एक अच्छा प्रतिकर्म प्राप्त होगा।

         जब कहीं आप किसी मनुष्य की सेवा करते हैं, और विशेषकर नि:स्वार्थ सेवा तो उसके प्रतिकर्म स्वरूप आप कुछ पाएंगे। आप चाहें या न चाहें, किंतु उसका प्रतिकर्म प्राप्त होगा और प्रतिकर्म के फल को पुण्य कहा जाता है। यदि आपने कुछ बुरा किया, किसी को क्षति पहुंचाई या कर्म के द्वारा अधोगति तक पहुंच गए तो इस प्रतिकर्म को पाप कहा जाता है। आप पुण्य कर्म में दिन-रात व्यस्त रहे। इसलिए आपको इन चौबीस घंटों को किस कार्य में व्यतीत करना है? स्पष्ट है, 'पुण्य' में और पुण्य क्या है? अब कोई कह सकता है कि दिन के समय पुण्य कर्म किया जा सकता है, लेकिन रात्रि में सोते समय पुण्य कर्म कैसे किए जा सकते हैं? इसका उत्तर है कि पुण्य कर्म करते समय आपको मानसिक, आध्यात्मिक शक्ति की आवश्यकता होती है।

         कोई बुरा कार्य करते समय आपको किसी नैतिक साहस या किसी आध्यात्मिक शक्ति की आवश्यकता नहीं पड़ती है, लेकिन कुछ अच्छा कार्य करने के लिए आपको नैतिक साहस और आध्यात्मिक शक्ति की आवश्यकता पड़ सकती है। वह शक्ति आपको ध्यान और जप के माध्यम से प्राप्त हो सकती है। अर्थात मानसिक जप के द्वारा। यद्यपि आप सो रहे हैं तो भी स्वचालित, श्वास-प्रश्वास के साथ आपकी यह जप क्रिया स्वचालित रूप से चलती रहेगी, जिसे 'अजपा' जप कहते हैं। वहां आपको कोई विशेष प्रयत्‍‌न अपनी ओर से नहीं करना है। जप अपने आप स्वचालित रूप से चलता रहेगा। इस प्रकार रात्रि के समय भी आप पुण्य कर सकते हैं। आप 24 घंटे पुण्य कर सकते हैं। आप हमेशा याद रखें कि आप यहां अल्प समय के लिए आए हैं। आप इस पृथ्वी पर दीर्घ समय तक नहीं रहेंगे।

ममता, स्नेह, आदर्श व प्रणय, क्या यह सब प्रेम है

         प्रेम की बूंद तो सब ने देखी है। ममता, स्नेह, आदर्श और प्रणय, यह सब प्रेम ही है, जिसे मनुष्य सदियों से निभा रहा है। आप भी प्रेम की भाषा इसी तरह समझ रहे हैं। आप भी बह रहे हैं। नदी के दो पाटों के बीच आपका बहना-आपके साथ नहीं है। आप समय के साथ नहीं हैं। बस आप बह रहे हो जीने के लिए।

         जीना ही आपका स्वभाव बन गया है। जीने के लिए ही कुछ करना आपका कर्म बन गया है। इसलिए आप सांसारिक प्रेम की बूंद में ही डूब गए हो। प्रेम की बरसात को कुछ लोगों ने ही जाना है। रिम-झिम फुहारों के साथ प्रेम की अनेक बरसातों को आपने बिताया होगा, पर प्रेम को पड़ाव डालते आपने नहीं देखा। और आज तक मैंने भी नहीं देखा है। मीरा का प्रेम पदों में सिमटकर रहा है। वह भाव के सागर में लहरों से ही खेलती रह गईं। विष को प्रेम का प्याला समझ कर पी गईं।

         इतिहास के पन्नों पर प्रेम की अनेक गाथाएं अंकित हैं। कहीं पर बुद्ध व महावीर का निर्वाण और बुद्धत्व की शांति प्रदायनी प्रेमकथा है, तो कहीं पर कबीर, नानक, रहीम, रसखान, बिहारी के दोहे, सत्संग और वाणी है, तो कहीं पर पतंजलि, गोरखनाथ, भैरव का योग प्रेम। कहीं पर गौतम, कणाद, पुलस्त्य, अत्रि, अनुसूया, व्यास व सुखदेव का भक्ति प्रवाह है। कहीं पर जीसस, मुहम्मद, अरस्तू, सुकरात का प्रेम है तो कहीं पर राम-सीता की प्रेम विरह यात्रा है। कहीं पर कृष्ण की रासलीला प्रेम की अद्भूत लोक यात्राएं हैं। गोपियों की विरह वेदना में राधा की प्रेम गाथा। ये सब प्रेम के बहाव का अंग बन कर लुप्त हो गए, केवल श्रृंखलाओं की कड़ियों में माला की कोई प्रथम श्रृंखला बन गया तो कोई माध्यम की कड़ी। किसी ने अंतिम श्रृंखला बनने का प्रयास किया, लेकिन प्रेम ने किसी के साथ पड़ाव नहीं किया। सब कुछ अभिव्यक्ति बन कर रह गई। सब कुछ अनुभूतियों के बहाव में केवल स्मृतियां ही शेष रह गईं।

         इन स्मृतियों से सुसज्जित पुराण और इतिहास की गाथाएं, जिन्हें पढ़-पढ़कर आप सब अपने आपको समझाते हो, सांत्वना देते हो और इस तरह से अपने आपको धोखा भी देते हो। आप भी अपना अतीत उन्हीं की तरह बनाना चाहते हो, लिखना चाहते हो। इसलिए उस कल को आप आज तक ढो रहे हो। आपका कल तो खराब हो ही गया। आप आज को भी उस कल के बोझ से दबाये हुए हो। आप जो हो, उसे समझ नहीं पाते। आप जो हो, वह बन नहीं पाते।

एकाग्रता तभी सम्भव है जब मन पर नियंत्रण होगा

         मन के सभी संकल्पों-विकल्पों का किसी एक केंद्र पर स्थित हो जाना एकाग्रता है। दीपक का लौ पर ठहर जाना एकाग्रता है। भंवरे का फूल पर फिदा हो जाना ही एकाग्रता है। गीता में अर्जुन ने भी भगवान श्रीकृष्ण से यही प्रश्न किया कि मन अत्यंत चंचल है, दृढ़ है, बलवान है। आंधी से भी ज्यादा वेगवान है।
 
         भगवान ने बताया कि लगातार अभ्यास से हम स्थितप्रज्ञ मन वाले बन सकते हैं। स्वयं को एकाग्र कर सकते हैं। दूसरे शब्दों में लक्ष्य के प्रति प्रतिबद्वता ही एकाग्रता है। हमने जो लक्ष्य जीवन में निर्धारित किया, उसके लिए हम मन व प्राणों से समर्पित हों और तब तक उसमें लगे रहें जब तक कि अभीष्ट की प्राप्ति न हो जाए। एकाग्रता के लिए मन पर नियंत्रण आवश्यक है, जो स्वयं एक साधना है। मन को वश में करना इतना आसान भी नहीं है।
 
         हमें एकाग्र होने के लिए कुछ बातों का विशेष ध्यान देना होगा। हम सीधे दसवीं मंजिल पर चढ़ने की बात करें, यह ठीक नहीं होगा। इसके लिए मैं तो कहूंगा कि क्रमश: आगे बढ़ने का प्रयास करें। अभ्यास करते समय अपनी स्थिति उस कछुए की तरह बनाएं, जिसे मारने पर भी वह अपने हाथ और पैर अंदर सिकोड़ कर बैठा रहता है, बाहर नहीं निकालता। उसका इंद्रियों पर अद्भूत नियंत्रण होता है। साधक को 'स्व' की चिंता करते हुए यह विशेष रूप से ध्यान देना चाहिए कि मन को साधते समय उसका चित्त, शांत व निर्मल हो। बाहर चाहे कितना ही कोलाहल क्यों न हो, समुद्र का ज्वार ही क्यों न उमड़ आए।
 
         सबसे पहले तन को साधें, तन की एकाग्रता आसन के स्थिर होने से आएगी। प्राणायाम श्वास को एकाग्र करने में मदद करता है। एकाग्रता में मौन संजीवनी का काम करता है। साथ ही विचारों को भी एकाग्र करने का प्रयास करें। सांसों की लयबद्धता मन की गहराई तक ले जाती है। मन के लयबद्ध होते ही जीवन में एक अनूठी लय बन जाती है। एकाग्र बुद्धि वाला व्यक्ति हर निर्णय सोच समझकर सटीक लेता है। मन रूपी झील में दुनियादारी का कंकड़ पड़ने से जो हलचल आ गई थी वह भी प्राणायाम से धीरे-धीरे शांत होने लगती है। लगातार प्रयास से कुछ नियमों का पालन करके व्यक्ति आसानी से एकाग्रता के रथ पर सवार हो सकता है।

प्रेम व आनंद ही हमारी अनुभूतियों का संसार है

         मानव धर्म सभी के साथ एकता की अपेक्षा करता है। परमपिता परमेश्वर ने जब सृष्टि की रचना की तो धरती पर उसने कहीं भी सीमाएं नहीं बनाई, परंतु अफसोस कि फिर भी मनुष्य ने कागज के नक्शे बनाकर समस्त मानव जाति को भिन्न-भिन्न सीमाओं और संप्रदायों में बांट रखा है, पर आज आवश्यकता है तो यह जानने और समझने की कि मानव धर्म के महासागर में कहीं भी गोता लगाओ, उसका स्वाद एक जैसा होगा।

         इस सर्वश्रेष्ठ मानव जीवन में हम भूल गए कि हम सब एक ही धागे से बंधे हुए हैं। यह धागा है-केवल इंसानियत का और प्रेम का। बहती हुई नदियां, लहराता पवन और हमारी यह पावन धरा-सब कुछ ईश्वर की अनमोल देन है। आज आवश्यकता है तो पुजारी बनने की, उस मानवता के प्रति जो आज हमारे बीच धड़कन बनकर धड़क रही है। हमारे देश की परंपरा ने हमेशा ही भावना, सद्भावना और प्रेममय वातावरण का निर्माण किया है। भारत महान है, क्योंकि इसकी संस्कृति और सभ्यता सदियों से शांति और प्रेम की पोषक रही हैं।

         शांति और प्रेम के पुजारी हमारे राष्ट्र ने हमेशा ही ऐसे बीज बोए हैं जिनसे प्रेम के फूल मुस्कराते रहे हैं। उन फूलों से ही शांति की अनवरत सुगंध बहती रही है। हमें यह भी जानना चाहिए कि प्रेम और आनंद ही हमारी अनुभूतियों का संसार है। इसी से हमने समस्त विश्व को आलोकित किया है। परम-पिता परमेश्वर ने जब सृष्टि की रचना की थी तो उसने मनुष्य को हर प्रकार की आध्यात्मिक और भौतिक संपदा से संपन्न किया। सांसारिक संपदाओं में मनुष्य इतना उलझ गया है कि उसने मानवीय संवेदनाओं पर प्रहार करना शुरू कर दिया। जरा सोचिए! क्या उस परमपिता ने हमें यही शिक्षा दी है? क्या जीवन जीने का यही तरीका है? क्या सिर्फ शक्तिशाली को जिंदा रहना होगा? अच्छा तो तब होगा, जब हम हर द्वेष, दुराव व मतभेद को मिटाकर नए युग में नयी चेतना के सूत्रपात का संकल्प लें। जहां कोई लड़ाई न हो, अगर हो तो मात्र प्रेम, सौहार्द, एकता और भाईचारा। उस परमपिता का यही संदेश है। एकता से ही हम अपने समाज और देश को मजबूत बना सकते हैं और लोगों को प्रगति के पथ पर अग्रसर कर सकते हैं।

जैसा स्वभाव होगा व्यवहार भी वैसा ही होगा

         व्यक्ति का परम लक्ष्य है शांति और आनंद की प्राप्ति। दैनिक जीवन में साधना के द्वारा हम अपने व्यक्तित्व को बदल सकते हैं। स्वस्थ जीवन के लिए सर्वप्रथम आत्मावलोकन करना होता है। स्वयं के द्वारा स्वयं को देखना होगा। इस तरह से स्वयं के सही अस्तित्व का बोध होने लगता है।

         केवल लक्ष्य के निर्धारण से शांति और आनंद की प्राप्ति नहीं हो जाती। लक्ष्य के अनुरूप पुरुषार्थ भी अपेक्षित है। पुरुषार्थ के अभाव में लक्ष्य उपलब्ध नहीं होता। आसन और प्राणायाम केवल शरीर को ठीक रखने या बीमारियों को दूर करने का ही मार्ग नहीं है, बल्कि शरीर के यंत्र को सम्यक और प्राण को सशक्त करने का साधन है। आसन-प्राणायाम के सम्यक् अभ्यास से मुद्रा प्रगट होती है। मुद्रा का संबंध भावों से है, जिसकी भावधारा निर्मल है, उसकी मुद्रा भी सुंदर बनेगी, क्योंकि मुद्रा भाव से निर्मल बनती है। मुद्रा और भाव का गहरा संबंध है, इसलिए आचार्यश्री महाप्रज्ञ ने प्रेक्षाध्यान के अंतर्गत एक फामरूला मापदंड के लिए निर्मित किया।

         जैसी मुद्रा वैसा भाव, जैसा भाव वैसा स्नाव, जैसा स्नाव वैसा स्वभाव बन जाता है, जैसा स्वभाव वैसा व्यवहार बन जाता है। इसलिए अपनी भावधारा को निर्मल बनाने से रोग मिटता है, योग होता है और व्यक्तित्व का पूर्ण विकास होता है। योग और ध्यान साधना केवल चिकित्सा पद्धति नहीं है, यह स्वस्थ जीवन-शैली है, जिससे व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का संपूर्ण विकास करता है। उससे परम अस्तित्व को उपलब्ध होता है।

         मंत्र साधना, 'विज्ञान भैरव' पर आधारित तंत्र साधना, शक्ति साधना आदि कितनी तरह की पद्धतियां इस देश में विकसित हुईं। महापुरुषों का कथन है कि ध्यान तो जीवन जीने की एक कला है। ज्यों-ज्यों ध्यान में गहरी डुबकी लगती चली जाएगी, तो फिर किसी समय या स्थान की सीमा नहीं रह जाएगी। फिर तो उसे प्रभु की याद अहर्निश अखंड रूप से जीव पर स्वत: ही भीतर कृपा बनकर बरसेगी।

       राबिया नाम की महान सूफी फकीर से किसी ने पूछा, 'मां, प्रभु को याद करने का कौन-सा समय अनुकूल है? आप किस समय प्रभु को याद करने के लिए ध्यान में बैठती हैं? राबिया यह अटपटा प्रश्न सुनकर हंस पड़ी और बोली-'क्या प्रभु को याद करने का भी कोई समय होता है? उसकी याद, उसका ध्यान ही तो मेरा जीवन है।

जीवन को हम जैसा चाहें, वैसा बना सकते हैं

         निद्रा का जन्म आलस्य से होता है और आलस्य जीवन के पतन का मार्ग प्रशस्त करता है। निद्रा का विज्ञान यह है कि निद्राकाल में जब शरीर की सारी इंद्रियां काम करना बंद कर देती हैं तो शरीर ऊर्जा का संग्रह करने लगता है। यह एक प्राकृतिक व्यवस्था है। जो ऊर्जा जाग्रत अवस्था में खर्च हो जाती है उसे पुन: प्राप्त करने के लिए निद्रा में जाना आवश्यक है।
 
         जितनी ऊर्जा हमारे शरीर को चाहिए उसके लिए छह घंटे का समय काफी होता है। जन्मकाल के बाद बच्चा लगभग 23 घंटे सोता है। ज्यों-ज्यों बढ़ता जाता है, निद्रा कम होती जाती है। यही कारण है कि आम तौर पर वृद्ध लोग 2 से 3 घंटे से अधिक नहीं सोते। इतने ही समय में उनके शरीर के लिए आवश्यक ऊर्जा संग्रहीत हो जाती है।

         जो लोग आलस्य के कारण अधिक सोते हैं, धीरे-धीरे सोना उनकी आदत बन जाता है और वे आलसी बन जाते हैं। आलस्य, नींद और जम्हाई लेना अच्छा लक्षण नहीं माना जाता। जो लोग साधक होते हैं, उनके लिए आवश्यक है कि वे नींद के वश में न रहें, क्योंकि नींद साधना की विरोधी है। साधना करते समय साधक को अगर आलस्य आ जाए, नींद आने लगे, तो साधना में उतरना संभव नहीं है। हमारा जीवन किसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए हैं, उसे उद्देश्यहीन बनाकर अपनी मूल प्रवृत्तियों के वश में होकर इसे नष्ट नहीं करना है।

         जीवन की सार्थक भूमिका यही है कि हम आत्मिक चिंतन करें और सारी ऊर्जाशक्ति को संग्रहित कर जीवन में विवेकशक्ति को जाग्रत करें और इसके लिए दूसरों को भी प्रेरित करें। जो शरीर साधना के मार्ग से बुद्धि और विवेक से नियंत्रित होकर परमात्मा की अनुभूति नहीं करता है अंतत: उसका लौकिक और अलौकिक जीवन निर्थक हो जाता है। मूल प्रवृत्तियां शरीर को स्थिर करने में सहायक मात्र होती हैं और जब शरीर सही ढंग से काम करता रहता है तभी आत्म तत्व को परमात्म तत्व में मिलने का सहज मार्ग बन पाता है। इसलिए सभी को आलस्य और निद्रा से वशीभूत होने से बचने की आवश्यकता है। हमारा जीवन बड़ा महत्वपूर्ण है। इस जीवन को हम जैसा चाहें, वैसा बना सकते हैं। अगर हमारा जीवन कर्मशील है, तो हम जीवन में यशस्वी बन सकते हैं। अगर आलसी है, तो समाज में निंदा के पात्र भी बन सकते हैं।

पाप और पुण्य क्या है

          प्राय: पाप-पुण्य के सबंध में प्रश्न उठा करते हैं। विद्धानों का मानना है कि इनकी कोई निश्चित सर्वमान्य परिभाषा नहीं है। लोगों का विश्वास है कि परिस्थितियां पाप को पुण्य में और पुण्य को पाप में बदल दिया करती हैं।

          जिस प्रकार सुबह के प्रकाश के लिए सूर्य को अंतरिक्ष का वक्ष चीरना होता है, इसी प्रकार पुण्य की महिमा से दीक्षित होने के निमित्त, संभवत: हर क्षण पाप की ज्वाला से पिघलने की जरूरत होती है। जीवन पुण्य के बिना संभव है, किंतु पाप की परछाई भी जीवन का स्पर्श करती है। समाज में रहकर हम परिवार को चलाने के लिए अनेक उद्यम करते हैं, किंतु कहां कितना पाप हो रहा है और कितना पुण्य, हम इसका लेखा-जोखा नहीं रखते। हमारा एकमात्र लक्ष्य धनार्जन होता है। यदि धन, झूठ और पाप से अर्जित है तो वह पेट में खप जाता है, किंतु पाप तो आपके पास संचित है। याद रहे पाप से अर्जित धन तो व्यय हो जाता है, लेकिन पाप व्यय नहीं होता।

          यही बात पुण्य के संबंध में भी है। शास्त्र कहते हैं जीव मात्र ही भूल करता है। ऐसा कौन है जो इससे बचा हो? जो इससे पृथक है वह मनुष्य नहीं देवता है, किंतु जो पाप करके प्रायश्चित नहीं करता, वह दानव है। जब तक मनुष्य अज्ञानी है, तब तक पाप, वासना व असत्य आदि उसके हृदय में उपस्थित रहते हैं। इसलिए तत्व ज्ञान की प्राप्ति आवश्यक है। इसके अभाव में पाप वासना नहीं मिटती।

          ज्ञान प्राप्ति से सभी भेद मिट जाते हैं और व्यक्ति जन-कल्याणकारी कार्य में लग जाता है। इस अनुशासित जीवन से पाप-वासना से वह मुक्त होकर, तपस्या, ब्रह्मचर्य, इंद्रियों को वशीभूत करने, स्थिर मति, दान, सत्य और अंतर्मन की पवित्रता आदि से अतीत के पापों से मुक्त हो जाता है, लेकिन इसके लिए प्रभु में निष्कपट विश्वास रखना जरूरी है।

          पुण्य प्राप्ति की अगली कड़ी है- आंतरिक शत्रुओं को पराजित करने के लिए आत्मज्ञान की उपलब्धि। इससे ही तत्वज्ञान प्राप्त होते हैं। काम, क्रोध, मोह, लोभ, मद, ईष्र्या-ये छह शत्रु मन को उद्वेलित करते रहते हैं। इनका दमन करने पर मनुष्य दुख और पाप से मुक्त हो जाता है। मन के भीतर झांकते ही प्रभु कृपा से इन शत्रुआें का नाश आरंभ हो जाता है। हमें पुण्य प्राप्ति के लिए बस इतना करना है कि हम शास्त्र सम्मत ढंग से जीवनयापन और धनार्जन करते हुए, लोक कल्याणकारी कायरें में लगे रहें और अपने सभी कमरें को प्रभु आश्रित कर दें। यही पाप मुक्त होने का तरीका है।

सुखी रहने के लिए किसी से कोई अपेक्षा न रखें

          इस पृथ्वी पर अगर जीवन है, अगर जीवन का संचार हो रहा है, प्राण ऊर्जा का संचार हो रहा है, तो उसका मूल केंद्र सूर्य है। सूर्य के तेज से यह शरीर कार्यरत है, सूर्य के तेज से यह सारी प्रकृति कार्यरत है, पर सूर्य को न कुछ देने का भाव है, न लेने का कुछ भाव है, न उसको हमसे कुछ अभीष्ट इच्छाएं हैं, न अपेक्षाएं हैं, फिर भी वह दे रहा है। हमारे जीवन का केंद्रबिंदु, इस जगत का केंद्रबिंदु, जिससे हम प्राणशक्ति पा रहे हैं, वह बगैर देने के भाव से है, वह बगैर किसी अपेक्षा के भाव से है। न ले कुछ, न दे कुछ, परंतु आप अपने जीवन को देखें तो आपका जीवन अमावस्या की काली रात्रि जैसा हो गया है जिसमें सिर्फ घनघोर अंधकार है अपेक्षाओं का।

          किसी से कुछ चाहते हैं, किसी से कुछ मांगते हैं। किसी से आप तमन्नाएं करते हैं, कोई आपसे तमन्नाएं करता है। किसी से आप अपेक्षाएं करते हैं, कोई आपसे अपेक्षा कर रहा है और इन्हीं अपेक्षाओं के जाल में बंधा हुआ आदमी का मन विश्रामपूर्ण कभी नहीं हो सकता। ऋषि कहते हैं कि सूर्य की भांति दैदीप्यमान बनो। सूर्य की भांति तेजस्वी बनो। सूर्य की भांति दाता बनो, पर देने के भाव के बगैर।

          ऋषियों ने सूर्य को देव कहकर उसे नमस्कार भी किया है। पतंजलि योग शास्त्र में एक प्राणायाम है, जिसका नाम सूर्य से जोड़ा गया है, एक आसन है, जिसका नाम सूर्य ही सूर्य नमस्कार है। सूर्य दे रहा है, लेकिन अगर सीधे सूर्य से यह पूछें कि आपने हमें कुछ दिया? तो वह कहेंगे नहीं। सच कहूं, कोई किसी को कुछ दे भी नहीं सकता। ऐसा विचार रखना किसी भी व्यक्ति के लिए ठीक नहीं। यह सब हमारी अपनी ही मन की धारणाएं होती हैं, हमारे अपने ही मन की कुछ व्याख्याएं होती हैं, जिससे हम अपने आपको संतुष्ट कर लेते हैं। बात कुछ भी नहीं है, आप सुबह घर में जगे और बाहर उठकर आए।

          आपके घर के सदस्यों ने आपको नमस्कार कह दिया तो आप खुश हो गए। नमस्कार नहीं कहते तो आप व्यथित होते और कहते कि 'इनको अक्ल नहीं है, संस्कार नहीं रह गए, प्रणाम नहीं करते हैं।' आदर-सम्मान नहीं करते हैं, तो हम कुढ़ते हैं। कहने वाला बेमन से भी नमस्कार कह सकता है, तो आप प्रसन्न हो जाते हैं। अगर आप शांत मन से संतुष्ट जीवन जीना चाहते हैं तो बस देने का भाव रखें। किसी से कोई अपेक्षा न रखें।

जीवन में अहंकार भी पतन का एक कारण है

          छह विकारों में मद अर्थात अहंकार पतन का चौथा कारण द्वार है। यह मनुष्य का स्वयं अर्जित किया हुआ मनोरोग है। रोग का अर्थ होता है शरीर की प्रक्रिया को विकृत कर देना। जिस प्रकार भला-चंगा हाथी मदांध हो जाता है तो वह विवेक खो देता है और गलत आचरण करने लगता है उसी प्रकार मनुष्य जब मदांध हो जाता है तब उसका विवेक नष्ट हो जाता है।

          विवेक के बगैर मनुष्य पशु से भी बदतर हो जाता है। पशु का अर्थ होता है जो पाश में बंधा हो। पशु को इसलिए बांधा जाता हैं कि वह अविवेकी प्राणी है। कभी-कभी मदांध व्यक्ति को भी पाश में बांधा जाता है ताकि वह गलत आचरण न करे। ऐसा इसलिए, क्योंकि, पशुता केवल पशु का ही धर्म नहीं है, कुछ मनुष्य भी पशुतुल्य बन जाते हैं, जब उनका अपना सब कुछ नष्ट हो जाता है और वे गलत आवरण ओढ़ लेते हैं। मद मनुष्य का प्राकृतिक गुण नहीं है। इसे हम अपने बारे में गलत खयालों के कारण धारण कर लेते हैं।

          हमारे संतों ने इसीलिए कहा कि मदांध व्यक्ति भीतर से पूरी तरह खाली होता है और इस खालीपन को भरने के लिए वह कभी काम के माध्यम से तो कभी क्रोध के माध्यम से और कभी लोभ के माध्यम से अपने गलत अभिमान को प्रदर्शित कर दूसरों के बीच अपनी स्वीकृति चाहता है। ऐसा इसलिए क्योंकि मद का अर्थ ही होता है जो आप नहीं है, वैसा होने का आचरण करना। फलों से भरी डाली झुकी रहती है, लेकिन सूखी डाली तनी खड़ी रहती है। इस सूखी डाली को भी फल होने का गौरव चाहिए।
 
          इसीलिए वह फलयुक्त होने का व्यवहार करती है। हमारे जीवन में भी वैसे लोग आते हैं जो स्वयं तो कंगाल होते हैं, लेकिन कभी अपनी बातों से, कभी व्यवहार से ऐसा आचरण करने लगते हैं जिससे लोग उनकी झूठी शान को वास्तविक समझ लें। मदांध व्यक्ति बाहर और भीतर दोनों तरफ से दरिद्र होता है, कंगाल होता है और वह अपनी दरिद्रता को छिपाने के लिए बार-बार घोषणा करता रहता है कि मैं दरिद्र नहीं हूं। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार यदि व्यक्ति अपने बड़े होने की सफाई दे, तो निश्चित रूप से वह बड़ा नहीं है। यही कारण है कि जो मदांध होते हैं उसे किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। उनकी राय में मदांध व्यक्ति अपनी विकृतियों का शिकार होता है। साधना के क्षेत्र में मदांध व्यक्ति के लिए कोई स्थान नहीं है।