
2- प्रेम सोच-समझकर की जाने वाली चीज नहीं है। कोई कितना भी सोचे, यदि उसे सच्चा प्रेम हो गया तो उसके लिए दुनिया की हर चीज गौण हो जाती है। प्रेम की अनुभूति विलक्षण है। प्यार कब हो जाता है, पता ही नहीं चलता। इसका एहसास तो तब होता है, जब मन सदैव किसी का सामीप्य चाहने लगता है। उसकी मुस्कुराहट पर खिल उठता है। उसके दर्द से तड़पने लगता है। उस पर सर्वस्व समर्पित करना चाहता है, बिना किसी प्रतिदान की आशा के।
3- जयशंकर प्रसाद ने कहा है कि चतुर मनुष्यों के लिए नहीं है। वह तो शिशु-से सरल हृदय की वस्तु है।’ सच्चा प्रेम प्रतिदान नहीं चाहता, बल्कि उसकी खुशियों के लिए बलिदान करता है। प्रिय की निष्ठुरता भी उसे कम नहीं कर सकती। वास्तव में प्रेम के पथ में प्रेमी और प्रिय दो नहीं, एक हुआ करते हैं। एक की खुशी दूसरे की आँखों में छलकती है और किसी के दुःख से किसी की आँख भर आती है।
4- आचार्य रामचंद्र शुक्ल कहते हैं कि ‘प्रेम एक संजीवनी शक्ति है। संसार के हर दुर्लभ कार्य को करने के लिए यह प्यार संबल प्रदान करता है। आत्मविश्वास बढ़ाता है। यह असीम होता है। इसका केंद्र तो होता है लेकिन परिधि नहीं होती।’ प्रेम एक तपस्या है, जिसमें मिलने की खुशी, बिछड़ने का दुःख, प्रेम का उन्माद, विरह का ताप सबकुछ सहना होता है। प्रेम की पराकाष्ठा का एहसास तो तब होता है, जब वह किसी से दूर हो जाता है।
5- खलील जिब्रान के अनुसार- ‘प्रेम अपनी गहराई को वियोग की घड़ियां आ पहुँचने तक स्वयं नहीं जानता।’ प्रेम विरह की पीड़ा को वही अनुभव कर सकता है, जिसने इसे भोगा है। इस पीड़ा का एहसास भी सुखद होता है। दूरी का दर्द मीठा होता है। वो कसक उठती है मन में कि बयान नहीं किया जा सकता। दूरी प्रेम को बढ़ाती है और पुनर्मिलन का वह सुख देती है, जो अद्वितीय होता है।
6- प्यार के इस भाव को इस रूप को केवल महसूस किया जा सकता है। इसकी अभिव्यक्ति कर पाना संभव नहीं है। बिछोह का दुःख मिलने न मिलने की आशा-आशंका में जो समय व्यतीत होता है, वह जीवन का अमूल्य अंश होता है। उस तड़प का अपना एक आनंद है।
7- प्यार और दर्द में गहरा रिश्ता है। जिस दिल में दर्द ना हो, वहाँ प्यार का एहसास भी नहीं होता। किसी के दूर जाने पर जो खालीपन लगता है, जो टीस दिल में उठती है, वही तो प्यार का दर्द है। इसी दर्द के कारणप्रेमी हृदय कितनी ही कृतियों की रचना करता है।
8-प्रेम को लेकर जो साहित्य रचा गया है, उसमें देखा जा सकता है कि जहाँ विरह का उल्लेख होता है, वह साहित्य मन को छू लेता है। उसकी भाषा स्वतः ही मीठी हो जाती है, काव्यात्मक हो जाती है। मर्मस्पर्शी होकर सीधे दिल पर लगती है।
9- प्रेम में नकारात्मक सोच के लिए कोई जगह नहीं होती। जो लोग प्यार में असफल होकर अपने प्रिय को नुकसान पहुंचाने का कार्य करते हैं, वे सच्चा प्यार नहीं करते। प्रेम सकारण भी नहीं होता। प्रेम तो हो जाने वाली चीज है।
10-प्रेम की पहचान-
प्रेम की बात सब जगह सुनाई देती है,हर कोई कहता है,प्रेम हो गया ,ईश्वर से प्रेम करो ।
लेकिन मनुष्यों को पता नहीं कि प्रेम है क्या ।यदि वे जानते तो इसके सम्बंध में ऐसी खोखली बातें नहीं
करते ।प्रेम करने वाले के बारे में शीघ्र पता चल जाता है कि उसके स्वभाव में प्रेम है कि नहीं।एक स्त्री प्रेम
की बात करती है लेकिन तीन मिनट में पता चल जाता है कि वह प्रेम नहीं कर सकती है।इस संसार में प्रेम की बातें तो भरी पडीं हैं ,लेकिन प्रेम करना कठिन है।प्रेम कहॉ है?और प्रेम है, यह तुम कैसे जानते हो ?प्रेम का पहला लक्षण तो यह है कि इसमें व्यापार या शौदागरी नहीं होती है।तब तक तुम किसी मनुष्य से कुछ पाने की इच्छा से प्रेम करते हो तो,जान लो बह प्रेम नहीं है। वहॉ कोई प्रेम नहीं रहता ।जब कोई मनुष्य ईश्वर से प्रार्थना करता है,मुझे यह दो, मुझे वह दो,तो वह प्रेम नहीं है।वह प्रेम कैसे हो सकता है?मैं तुम्हें एक प्रार्थना सुनाता हूं और तुम मुझे उसके बदले कुछ दो, यह तो वही दुकानदारी की बात हो गई ।प्रेम का पहला लक्षण है वह शौदा करना नहीं जानता,वह तो सदा देता है।प्रेम सदा देने वाला होता है,लेने वाला कभी नहीं ।भगवान से प्रेम करने वाला कहता है कि ,यदि भगवान चाहे तो मैं अपना सर्वस्व उन्हैं दे दूं,पर मुझे उनसे कोई चीज नहीं चाहिए ।मुझे इस दुनियॉ में किसी चीज की चाह नहीं है।मैं उनसे प्रेम करता हूं,बदले में मैं कुछ नहीं मॉगता।
मुझे न उनकी शक्ति चाहिए ,न उनकी शक्ति का प्रदर्शन । वे तो प्रेम स्वरूप भगवान हैं।
11-प्रेम में कोई भय नहीं रहता है-
जब प्रेम होता है तो भय नहीं रहता ।क्या कभी बकरी शेर पर,चूहा बिल्ली पर या गुलाम अपने मालिक पर प्रेम करता है?गुलाम लोग कभी-कभी प्रेम दिखाया करते हैं,पर क्या वह प्रेम है? क्या डर में तुमने प्रेम देखा है? ऐसा प्रेम तो सदा बनावटी होता है।जबतक मनुष्य की ऐसी भावना है कि ईश्वर आकाश में बादलों के ऊपर बैठा है,एक हाथ में पुरुष्कार और दूसरे हाथ में दण्ड,तब तक प्रेम नहीं हो सकता ।प्रेम के साथ भय या किसी भयदायक वस्तु का विचार नहीं आता ।मान लो ,एक युवती माता सडक से जा रही है और एक कुत्ता उसकी ओर भौंकने लगा,तो वह पास वाली मकान में जायेगी ।और दूसरे दिन उसके साथ उसका बच्चा भी है और एक सिंह उस बच्चे पर झपटता है,तब वह माता कहॉ जायेगी? तब तो वह अपने बालक की रक्षा करके सिंह के मुख में प्रवेश कर जायेगी।प्रेम तो सारे भय को जीत लेता है।उसी प्रकार ईश्वर का प्रेम है वह चाहे दण्डदाता है या वर दाता है इसकी किसे परवाह है ?जिन्होंने ईश्वर के प्रेम का स्वाद कभी नहीं लिया,वे ही उससे डरते हैं और जीवन भर उसके सामने भय से कॉपते हैं।अतः डर को दूर करें ।
12-प्रेम तो एक सर्वोच्च आदर्श है-
प्रेम करने वाला जब सौदागरी छोड देता है और समस्त भय दूर भगा देता है , तब वह ऐसा अनुभव करने लगता है कि प्रेम ही सर्वोच्च आदर्श है।कितनी ही बार एक रूपवती स्त्री कुरूप पुरुष से प्यार करते देखी गई है ।कितनी बार एक सुन्दर पुरुष किसी कुरूप स्त्री से प्रेम करते देखा गया है ,ऐसे प्रसंगों में आकर्षक वस्तु कौनसी है? बाहर से देखने वालों को तो कुरूप पुरुष या कुरूप स्त्री ही दिख पडती है,लेकिन वह प्रेम तो नहीं देखता।प्रेमी की दृष्टि में उससे बढकर सुन्दरता और कहीं नहीं दिखाई देती ।ऐसे कैसे होता है ?जो स्त्री कुरूप पुरुष को प्यार करती है,उसका अपने मन में जो सौंदर्य का आदर्श है,उसे लेकर उस कुरूप पुरुष पर आरोपित करती है,वह जो अपासना या प्यार करती है ,वह उस पुरुष को नहीं बल्कि अपने आदर्श को डालकर उसे आच्छादित कर देती है। यही वात सभी प्रेम पर लागू होती है।जैसे भाई या बहिन साधारण रूप के हैं तो भाई या बहिन होने का भाव ही उन्हैं हमारे लिए सुन्दर बना देता है ।
13-प्रेममय हो जाना ही जीवन है-
प्रभु ने हमें अपार प्रेंम दिया है तो फिर घुट-घुट कर क्यों जीते हो। प्रेम अनुभव की चीज नहीं है, वह तो स्वयं आप में है,यदि किसी से मिलते हो तो मिलते ही खूब हंसने लग जाते हो,खुश हो जाते हो,इसके लिए आपने कोईप्रयत्न तो नहीं किया यह तो अपने आप हुआ। प्रेम तो मॉगने से कम हो जाता है देने से बढता है,क्योंकि हर व्यक्ति प्रेम चाहता है। और प्रेम चाहने से नहीं होता बल्कि प्रेम देने से होता है। देखने,मिलने से प्रेम होता है। प्रेम से प्यार हो जाता है और प्यार से त्याग हो जाता है तथा यह त्याग ज्ञान में बदल जाता है। जिससे हम प्रेम करते है उसकी हर बात बहुत ध्यान से सुनते हैं। उसका हर काम हर बात बहुत ही अच्छी लगती है,सुन्दर लगती है,इसलिए सबसे प्रेम करों, उस प्रभु से प्रेम करो सब सुन्दर लगेंगे
।
14-प्रेममय जीवन-
स्वयं पर विजय प्राप्त करें तो तत्वज्ञानी बन सकते हो जिस मनुष्य ने स्वयं के ऊपर अधिकार प्राप्त कर लिया,उसके ऊपर संसार की कोई भी चीज अपना प्रभाव नहीं डाल सकती,उसके लिए तो किसी भी प्रकार का बन्धन शेष नहीं रह जाता ।उसका मन स्वतंत्र हो जाता है ।और वही पुरुष संसार में रहने योगय है।सामान्यतः देखा जाता है कि संसार के सम्बंध में दो प्रकार की धारणॉएं होती हैं।कुछ लोग निराशावादी होते हैं ।वे कहते हैं-संसार कैसा भयानक है,कैसे दुष्ट है।और करछ लोग आशावादी होते हैं और कहते हैं-अहा संसार कितना सुंदर है,कितना आंनंद है । जिन लोगों ने अपने पर विजय प्राप्त नहीं की है,उनके लिए यह संसार या तो बुराइयों से भरा है,या अधिक से अधिक,अच्छाइयोंऔर बुराइयों का एक मिश्रण है ।और यदि हम अपने मन पर विजय प्राप्त कर लेंते हैं,तो यही संसार सुखमय हो जाता है ।फिर हमारे ऊपर किसी बात के अच्छे या बुरे भाव का असर न होगा।इसके लिए अभ्यास जरूरी है।पहले श्रवण करें,फिर मनन करें,फिर अमल करें।प्रत्येकयोग के लिए यही बात सत्य है ।सब बातों को एकदम समक्ष लेना बडा कठिन है।इसमें हमें स्वयं को सिखाना होता है। बाहर के गुरु तो केवल उद्दीपन कारण मात्र हैं, जो कि हमारे अंदर के गुरु कोसब विषयों का मर्म समझने के लिए प्रेरित करते हैं, बहुत सी बातें स्वयं की विचारशक्ति से स्पष्ट हो जाती है और उनका अनुभव हम अपनी ही आत्मा में करने लगते हैं,और यह अनुभूति ही अपनी प्रवल इच्छा में परिवर्तित हो जाती है। पहले भाव फिर इच्छाशक्ति ।इससे कर्म करने की जबरदस्त इच्छा शक्ति पैदा होती है,जो हमारे प्रत्येक नस,प्रत्येक शिरा और प्रत्येक पेशी में कार्यकरती है,जबतक कि हमारा समस्त शरीर इस निष्काम कर्मयोग का एक यंत्र ही नहीं बन जाता,तबतक निरंतर अभ्यास जरूरी है ।फिर सुकदेव जैसे योगी बन सकते हो ।
15-प्रेम में इन्द्रियों व देह का सम्बन्ध नहीं होता-
ज्ञानी लोग प्रेम से मुक्त होते हैं। वे किसी को व्यक्तिगत रूप से प्रेम नहीं करते, और न वे दूसरों कोव्यक्तिगत रूप से अपने प्रति प्रेम करना, और अपने में आसक्त होना देना चाहते हैं। इसीलिए वे किसी के प्रति माया-मोह में नहीं फंसने देना चाहते हैं। वे तो अपनी आत्मा और भगवान को सभी में देखते हैं,अतः सभी जीवों परउनका प्यार और स्नेह समान होता है। उनके प्रेम में, देह और इन्द्रियों का कोई सम्बन्ध नहीं होता। कामान्ध नहीं। ज्ञानी तो प्रकृत प्रेमी होता है और प्रकृत प्रेमी ही ज्ञानी होता है ।
16-प्रेम और ध्यान एक दूसरे के पूरक हैं -
बिना ध्यान के प्रेम संभव नहीं है और बिना प्रेम का ध्यान सम्भव नहीं है ।प्रेम ध्यान का एक ढंग है। लेकिन आपने तो प्रेम का अपना अलग ही अर्थ बना दिया , अगर आपके प्रेम से सत्य मिलता तो पहले ही मिल गया होता । उस प्रेम को तो आप कर ही रहे हो पत्नी से प्रेम ,बच्चे से प्रेम,पिता से प्रेम,मित्रों से प्रेम ऎसा प्रेम तो आपने जन्म से किया है । आप तो प्रेम को देह की भाषा में अनुवाद करते हैं, मेरे लिए तो प्रेम का वही अर्थ है जो प्रार्थना का है । प्रेम का अर्थ है अभिन्नता का बोध, हमें और किसी दूसरे के बीच एकता का अनुभव होना ,प्रेम प्रार्थना है । जहॉ प्रेम है वहॉं ध्यान है ,और जहॉ ध्यान है वहॉ प्रेम है ।
17-प्रेम में पडना वास्तविक पतन है-
प्रेम में पडना महॉकाली की माया फैलती है और आप आसक्त हो जाते हैं।आपके अहं को बढावा मिलता है ।ऐसे मामलों में दो चीजें हो सकती हैं,अपनी पत्नी या पति,प्रेमी या प्रेमिका जिसके आप भक्त हैं,जिसकी प्रशंसा करते हैं ,उसी के कारण आप पूर्णतः खो जाते हैं,समाप्त हो जाते हैं आपका व्यक्तित्व समाप्त हो जाता है,आप हमेशा के लिए टूट जाते हैं,और फिर एक दुसरे से घृणा करने लगते हैं।इसीलिए कहा जाता है कि –“प्रेम और घृणा सम्बन्ध’ प्रेम किस प्रकार घृणा हो सकता है,परन्तु देवी के इस गुण के कारण ऐसा हो जाता है। एक ओर तो अति प्रेममय, अति करुणांमय और अति कोमल है।परन्तु उसके बाद आपको दूसरी ओर धकेल देती है, इसी कारण जो लोग प्रेम में पडते हैं वे सभी मर्यादायें लॉघ जाते हैं।प्रेम में पडकर वे ऐसे व्यक्ति से विवाह कर लेते हैं कि जो पहले ही विवाहित है,एक वृद्ध महिला युवा व्यक्ति से विवाह करती है।वृद्ध पुरुष युवा लडकी से विवाह कर लेता है,उनमें मर्यादा बिल्कुल नहीं होती है। अतः सावधानी रहें कहीं खो न जायें।
18-प्रेम ज्ञान और मोह अज्ञान है -
प्रेम और मोह के सम्बन्ध में अगर अन्तर देखें तो , अन्तर के लिए पहला तथ्य स्वयं के सम्बन्ध में सामने आता है कि – मैं अपने आप को जानता हूं अथवा नहीं जानता हूं -इस वाक्य के उत्तर में – मैं कौन हूं- इसको न जानने से जो प्रीति पैदा होती है यह मोह है। और मैं कौन हूं -इसको जानने से तो वास्तविक प्रेम आता है । अतः प्रेम ज्ञान है और मोह अज्ञान है । प्रेम समस्त के प्रति है,वह स्वयं में है , वह किसी से होता नहीं है, बुद्ध उसे करुणॉ कहते हैं , महॉवीर उसे अहिंसा कहते हैं,वह अकारण है, नित्य है, इसलिए प्रेम निर्पेक्ष है । जबकि मोह सापेक्ष है क्योंकि मोह तो नित्य नहीं है, यह किसी कारण से होता है ,यह एक के प्रति होता है इसलिए दुख का मूल है । प्रेम तो तब आता है जब मोह जाता है । मोह की मुक्ति से ही प्रेम होता है और इसे पा लेना सब कुछ पा लेना है।प्रेम तो मुक्ति प्राप्त कर लेना है ।
19-प्रेम ज्ञान और मोह अज्ञान है-
प्रेम और मोह में तुलना करने के लिए पहला प्रश्न है कि - मैं अपने आप को जानता हूं अथवा नहीं जानता हूं-इस वाक्य के उत्तर में-मैं कौन हूं-इसको न जानने से जो प्रीति पैदा होती है यह मोह है। और मैं कौन हूं-इसको जानने से तो वास्तविक प्रेम आता है। अतःप्रेम ज्ञान है और मोह प्रेम और मोह के सम्बन्ध में अगर अन्तरदेखें तो,अन्तर के लिए पहला तथ्य स्वयं के सम्बन्ध में सामने अज्ञान है।प्रेम समस्त के प्रति है,वह स्वयं में है,वह किसी से होता नहीं है, बुद्ध उसे करुणॉ कहते हैं,महॉवीर उसे अहिंसा कहते हैं,वह अकारण है,नित्य है, इसलिए प्रेम निर्पेक्ष है। जबकि मोह सापेक्ष है क्योंकि मोह तो नित्य नहीं है,यह किसी कारण से होता है,यह एक के प्रति होता है,इसलिए दुख का मूल है।प्रेम तो तब आता है जब मोह जाता है। मोह की मुक्ति से ही प्रेम होता है और इसे पा लेना सबकुछ पा लेना है। प्रेम तो मुक्ति प्राप्त कर लेना है ।
20प्रेम में हमें वहीं दिखाई देता है जो हम हैं –
प्रेम एक दर्पण हैं इसलिए हमें प्रेम में वहीं दिखाई देता है जो हम हैं।यदि हम दुखी हैं तो हमें दुख ही दुख दिखाई देता है।अगर हम आनन्दित हैं तो हमें आनन्द ही आनन्द दिखाई देता है । और यदि हमें परमात्मा का अनुभव हुआ है तो हमें हर- प्रेम पात्र में परमात्मा दिखाई देगा , और निश्चित रूप से जब प्रेम प्रगाढ होता है तो हमारा परमात्मा तक पहुंचने का सेतु बन जाता है
21-प्रेम से ह्दयचक्र का पोषण होता है-
प्रत्येक धर्म में प्रार्थनाएं हैं । पर एक बात ध्यान में रखनी होगी कि आरोग्य या धन कमाने के लिए प्रार्थना करना भक्ति नहीं है, यह तो कर्म है ।किसी भौतिक लाभ के लिए प्रार्थना करना कर्म है,जैसे स्वर्ग प्राप्त करने के लिए या किसी अन्य कार्य के लिए जिसमें ईश्वर से प्रेम करना होता है,वह भक्त होना चाहता है,उसे ऐसी प्रार्थना छोड देनी चाहिए।प्रार्थना तो दुकानदारी हो गई,क्रय-विक्रय ।इस दुकानदारी की गठरी बॉधकर अलग रख देनी चाहिए, फिर उस प्रदेश के द्वार में प्रवेश करना चाहिए। जिस वस्तु के लिए प्रार्थना करनी थी विना प्रार्थऩा के पा सकते हो, तुम प्रत्येक वस्तु को पा सकते हो। लेकिन यह तो भिखारियों का धर्म हो गया ।मूर्ख ही कहा जायेगा उन लोगों को जो गंगा के किनारे बैठकर कुंवॉ खोदते हैं, या हीरों की खान में कॉच के टुकडों की खोज करते हैं।आश्चर्य है ईश्वरके पास मॉगा भी तो आरोग्य,भोजन, या कपडे काटुकडा। इस शरीर ने कभी न कभी मरना ही है तो फिर इसकी आरोग्यता के लिए बार-बार प्रार्थना करने से क्या लाभ ?आरोग्य और धन में रखा ही क्या है,मनुष्य अपने जीवन में थोडे से ही अंश का उपभोग कर सकेगा ।हम संसार की सभी चीजें प्राप्त नहीं कर सकते तो क्यों हम उनकी चिंता करें?जब कोई चीज आती है तो अच्छी बात,और जब कोई चीज जाती है तो भी अच्छी बात ।हम तो ईश्वर से साक्षात्कार करने जा रहे हैं, भिखारी के वेष में हम वहॉ प्रवेश नहीं कर पायेंगे,बाइविल में लिखा है कि ईशा मसीह ने खरीदने और बेचने वालों को वहॉ से भगा दिया था,लेकिन फिर भी लोग प्रार्थना करते हैं कि हे ईश्वर मेरी तुच्छ विनती कि मुझे इसके बदले एक नईं पोषाक दे दे ,मेरा सिर दर्द मिटा दे या मैं कल दो घण्टे प्रार्थना अधिक करूंगा। इस मानसिक प्रवॉत्ति से ऊपर उठना होगा यदि मनुष्य ऐसी चीजों के लिए प्रार्थना करे तो फिर मनुष्य और पशु में अन्तर है ही क्या रह गया ।।
22-सच्चा प्रेम आत्मा से उत्पन्न होता है न कि मन से-
मूलतः अगर हम देखें तो सच्चा प्रेम एक गुंण है, जो कि आत्मा से उत्पन्न होता है,न कि इन्द्रियों या मन से ।
इसलिए जब कोई किसी से प्रेम की बात करता है तो यह जानना चाहिए कि उसका प्रेम शरीर से है या आत्मा से।शरीरका आकर्षण भौतिक या स्थूल होता है ।यह सेक्स की भावना,आकर्षक राजकुमार के स्वप्न, मनुष्य
की कुशलता या बुद्धि की प्रशंसा,कलाकार की कला का प्रदर्शन से आ सकती है।शारीरिक आकर्षण सच्चा प्रेम नहीं है,क्योंकि वह मन से उत्पन्न होता है । मन प्रेम नहीं करता है,वह केवल इच्छा करता है ।लेकिन सामान्यतः सच्चे प्रेम की भावना को भ्रम से सेक्स और व्यक्तिगत स्वार्थ समझ लिया जाता है,जबकि शुद्ध प्रेम निर्लिप्त होता है,वह आत्मा से उत्न्न होता है ।
23-प्रेम क्या है-
प्रेम कभी मॉगता नहीं है, वह तो हमेशा देता है।प्रेम हमेशा कष्ट सहता है, न कभी झुंझलाता है,और न बदला लेता है। बस मानव जीवन का उद्देश्य तो आत्म दर्शन करना है,और उसकी सिद्धि का मुख्य एवं एक मात्र पाय पारमार्थिक भाव से जीव मात्र की सेवा करना है। मेरे पास मेरी आदिशक्ति माता जी के सिवा और कोई ताकत नहीं है। वही मेरा आसरा है।
24-प्रेम खास खुदा का घर है-
आप मंदिर को तोड दो या मस्जिद को या गिरजाघर को तोड दो मगर प्यार की इमारत को मत तोडना, क्योंकि यह परमात्मा का घर है।
24– प्रेम भाव-
प्रेम भाव प्राय क्रियाओं द्वारा व्यक्त किया जाता है वॉणी के द्वारा नहीं,वॉणी के द्वारा किया गया प्रेम अपनी गरिमा से च्युत हो जाता है।
प्रेम भाव प्राय क्रियाओं द्वारा व्यक्त किया जाता है वॉणी के द्वारा नहीं,वॉणी के द्वारा किया गया प्रेम अपनी गरिमा से च्युत हो जाता है।
25-प्रेम से आत्म विश्वास पैदा होता है-
प्रेमजीवन के लिए आवश्यक है,क्योंकि प्रेम से आत्मविश्वास पैदा होता है और आत्मविश्वास से स्वाभाविक रूप से व्यक्ति की सुरक्षा –व्यवस्था मजबूत होती है,इससे ह्दय चक्र मजबूत होता है,जिससे बाहर की अनिष्ठकारी शक्तियों से रक्षा होती है । भय से हमारे भीतर विध्यमान,रोगों से मुक्त रहने की प्राकृतिक शक्ति कमजोर हो जाती है,और हम आसानी से एलर्जी तथा अन्. रोगों के लिए संवेदनशील हो जाते हैं । और जब ह्दयचक्र शक्तिशाली होता है,तब मनुष्य के व्यक्तित्व का विकास होता है और उसमें निखार आता है । ऐसा व्यक्ति जीवन में विजयी होता है । इसके विपरीत अगर प्रेम विहीन स्थिति में व्यक्ति का व्यक्तित्व सूखकर कॉटा हो जाता है,वह भय के गहरे तथा अंत न होने वाली स्थ्ति से घिर जाता है,तब बहुत सी शारीरिक बीमारियॉ,जैसे ह्दय की धडकन का बडना,सीने में उत्पन्न होने वाली समस्यायें,असुरक्षा की भावना पैदा होती है ।
26-प्रेम में पडना वास्तविक पतन है-
प्रेम में पडना महॉकाली की माया फैलती है और आप आसक्त हो जाते हैं।आपके अहं को बढावा मिलता है ।ऐसे मामलों में दो चीजें हो सकती हैं,अपनी पत्नी या पति,प्रेमी या प्रेमिका जिसके आप भक्त हैं,जिसकी प्रशंसा करते हैं ,उसी के कारण आप पूर्णतः खो जाते हैं,समाप्त हो जाते हैं आपका व्यक्तित्व समाप्त हो जाता है,आप हमेशा के लिए टूट जाते हैं,और फिर एक दुसरे से घृणा करने लगते हैं।इसीलिए कहा जाता है कि –"प्रेम और घृणा सम्बन्ध’ प्रेम किस प्रकार घृणा हो सकता है,परन्तु देवी के इस गुण के कारण ऐसा हो जाता है। एक ओर तो अति प्रेममय, अति करुणांमय और अति कोमल है।परन्तु उसके बाद आपको दूसरी ओर धकेल देती है, इसी कारण जो लोग प्रेम में पडते हैं वे सभी मर्यादायें लॉघ जाते हैं।प्रेम में पडकर वे ऐसे व्यक्ति से विवाह कर लेते हैं कि जो पहले ही विवाहित है,एक वृद्ध महिला युवा व्यक्ति से विवाह करती है।वृद्ध पुरुष युवा लडकी से विवाह कर लेता है,उनमें मर्यादा बिल्कुल नहीं होती है। अतः सावधानी रहें कहीं खो न जायें।
27-सत्य का दिया प्रेम रूपी तेल से जलता है-
प्रेम वह शक्ति है जो आपके हाथों से बह रही है, वही चैतन्य है जो आपके अन्दर बह रहा है। जिसे हम वाइब्रेशन कहते हैं वह तो सिर्फ प्रेम है,जिसदिन आपके प्रेम की धारा टूट जाती है,वाइब्रेशन आना बन्द हो जाता है । इसलिए प्रेम का पल्ला न छोडें,प्रेम के वाइब्रेशन परमात्मा का ही प्रेम है, जो बहता जा रहा है,आपके अन्दर शुद्ध प्रेम ही बह सकता है,जो कि साक्षात चैतन्य है ,वही सत्य है,वही सौन्दर्य भी है । प्रेम का मतलब अहंकार रहित, बिना किसी उपेक्षा के,बिना किसी आशा के प्रेम का साम्राज्य फैलाना । सत्य और प्रेम दोनों एक ही चीज है,अगर आप चाहे कि प्रेम को हटा दें तो सत्य बुझ जायेगा, सत्य रह नहीं सकता क्योंकि सत्य का दिया प्रेम के तेल से ही प्रज्वलित होता है ।।
प्रेम वह शक्ति है जो आपके हाथों से बह रही है, वही चैतन्य है जो आपके अन्दर बह रहा है। जिसे हम वाइब्रेशन कहते हैं वह तो सिर्फ प्रेम है,जिसदिन आपके प्रेम की धारा टूट जाती है,वाइब्रेशन आना बन्द हो जाता है । इसलिए प्रेम का पल्ला न छोडें,प्रेम के वाइब्रेशन परमात्मा का ही प्रेम है, जो बहता जा रहा है,आपके अन्दर शुद्ध प्रेम ही बह सकता है,जो कि साक्षात चैतन्य है ,वही सत्य है,वही सौन्दर्य भी है । प्रेम का मतलब अहंकार रहित, बिना किसी उपेक्षा के,बिना किसी आशा के प्रेम का साम्राज्य फैलाना । सत्य और प्रेम दोनों एक ही चीज है,अगर आप चाहे कि प्रेम को हटा दें तो सत्य बुझ जायेगा, सत्य रह नहीं सकता क्योंकि सत्य का दिया प्रेम के तेल से ही प्रज्वलित होता है ।।
28-प्रेम का मतलव किसी से प्यार करना नहीं है-
अ गर आप प्रेम के अर्थ को किसी लडकी या लडके, भाई-बहिन, माता-पिता से प्रेम करने से लगाते हैं तो यह उपयुक्त नहीं है,प्रेम तो अलिप्त होता है,फिर आप कहेंगे कि यदि मॉ प्रेम निर्लेप हो जाये तो फिर समस्या पैदा हो जायेगी, मगर ऐसा नहीं है ।एक पेड को देखिये –उसके प्रेम की धारा, उसका रस सारे पेड में चढता है,हर जगह उसके मूल में जाता है,पत्तों में जाता है,उसकी शाखाओं में जाता है,लेकिन रुकता नहीं है,वह किसी जगह रुकता नहीं है,यदि उसे एक फल पसन्द आ गया तो समझो पेड ही मर जायेगा,बाकी फल-फूल भी मर जायेंगे। इसलिए जिसको जो देना हो देना चाहिए । अपने घर में,गृहस्थी में,समाज में,अपने देश में और सारे विश्व में जिसको जो देना है वो दीजिए लेकिन उसमें लिपट न जाइये । उससे लिपटना एक तरह चिपकना है । उससे प्रेम की शक्ति क्षीण हो जाती है,बढेगी नहीं । सारी धरा ही उसका कुटुम्ब है-ये प्रेम की महिमा है-यदि इस प्रेम की महिमा को आपने जान लिया तो आपको आश्चर्य होगा कि आत्मा के दर्शन से ये घटित होता है ।।
अ गर आप प्रेम के अर्थ को किसी लडकी या लडके, भाई-बहिन, माता-पिता से प्रेम करने से लगाते हैं तो यह उपयुक्त नहीं है,प्रेम तो अलिप्त होता है,फिर आप कहेंगे कि यदि मॉ प्रेम निर्लेप हो जाये तो फिर समस्या पैदा हो जायेगी, मगर ऐसा नहीं है ।एक पेड को देखिये –उसके प्रेम की धारा, उसका रस सारे पेड में चढता है,हर जगह उसके मूल में जाता है,पत्तों में जाता है,उसकी शाखाओं में जाता है,लेकिन रुकता नहीं है,वह किसी जगह रुकता नहीं है,यदि उसे एक फल पसन्द आ गया तो समझो पेड ही मर जायेगा,बाकी फल-फूल भी मर जायेंगे। इसलिए जिसको जो देना हो देना चाहिए । अपने घर में,गृहस्थी में,समाज में,अपने देश में और सारे विश्व में जिसको जो देना है वो दीजिए लेकिन उसमें लिपट न जाइये । उससे लिपटना एक तरह चिपकना है । उससे प्रेम की शक्ति क्षीण हो जाती है,बढेगी नहीं । सारी धरा ही उसका कुटुम्ब है-ये प्रेम की महिमा है-यदि इस प्रेम की महिमा को आपने जान लिया तो आपको आश्चर्य होगा कि आत्मा के दर्शन से ये घटित होता है ।।
29-श्री महॉवीर के सिद्धान्तों को अति की अवस्था तक ले जाया गया-
श्री महॉवीर के अनुयाय़ियों ने जैन मत चलाया था । श्री महॉवीर के नियम कठोर थे,जिन्हैं अति की अवस्था तक ले जाया गया । एक दिन ध्यानावस्था में उनकी धोती किसी झाडी में उलझ गई थी जिससे उन्हैं धोती फाडनी पडी और आधी ही धोती पहनकर चलना पडा । भिखारी के वेष में श्री कृष्ण उनकी परीक्षा लेने के लिए जब वहॉ पहुंच,और महॉवीर से एक कपडा मॉगने लगे तो श्री महॉवीर ने उस आधी धोती को उस भिखारी को दे दिया तथा स्वयं पत्तों से अपने शरीर को ढककर वस्त्र पहनने के लिए अपने घर वापिस चले गये । परन्तु आज उनके अनुयायी इसी वृतॉत की आड में निर्वस्त्र होकर घूमते फिरते हैं ।हमें ऐसा नहीं करना है ,हमें निम्नावस्था तक न जाकर आत्मानुशाशासन सीखना है । इसके बिना पूर्ण ज्ञान,प्रेम तथा आनंद की गहनता तक नहीं पहुंच सकते । सहजयोग में महॉवीर जी को भैरवनाथ का अवतरण माना जाता है। आपको महॉवीर की सीमा तक जाने की आवश्यकता नहीं है,क्योंकि सौभाग्यवश आपको सहजयोग में आत्मसाक्षात्कार प्रदान किया है ।।
श्री महॉवीर के अनुयाय़ियों ने जैन मत चलाया था । श्री महॉवीर के नियम कठोर थे,जिन्हैं अति की अवस्था तक ले जाया गया । एक दिन ध्यानावस्था में उनकी धोती किसी झाडी में उलझ गई थी जिससे उन्हैं धोती फाडनी पडी और आधी ही धोती पहनकर चलना पडा । भिखारी के वेष में श्री कृष्ण उनकी परीक्षा लेने के लिए जब वहॉ पहुंच,और महॉवीर से एक कपडा मॉगने लगे तो श्री महॉवीर ने उस आधी धोती को उस भिखारी को दे दिया तथा स्वयं पत्तों से अपने शरीर को ढककर वस्त्र पहनने के लिए अपने घर वापिस चले गये । परन्तु आज उनके अनुयायी इसी वृतॉत की आड में निर्वस्त्र होकर घूमते फिरते हैं ।हमें ऐसा नहीं करना है ,हमें निम्नावस्था तक न जाकर आत्मानुशाशासन सीखना है । इसके बिना पूर्ण ज्ञान,प्रेम तथा आनंद की गहनता तक नहीं पहुंच सकते । सहजयोग में महॉवीर जी को भैरवनाथ का अवतरण माना जाता है। आपको महॉवीर की सीमा तक जाने की आवश्यकता नहीं है,क्योंकि सौभाग्यवश आपको सहजयोग में आत्मसाक्षात्कार प्रदान किया है ।।
30-प्रेम मानव का अन्तर्जात गुंण है-
प्रेम आपकी अन्तर्जात सम्पदा है,यह तो आपमें निहित गुंण है,देवी की यह शक्ति प्रेम की शुद्ध इच्छा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। आदि शक्ति का तो पूर्ण शरीर,उनकी पूरा व्यक्तित्व ही करुणॉ एवं प्रेम से बना है,उनके सभी कार्य उनकी करुणॉ एवं प्रेम के माध्यम से होते हैं । प्रेम की यह शक्ति जिस प्रकार गणेश को दी गई थी कि एक बार आप इसे धारण कर लेंगे तो व्यक्तिगत रूप से या सामूहिक रूप से आप इसे सम्पादित कर सकेंगे ।किसी व्यक्ति को यदि जीतना चाहें तो अपने ह्दय में आप कहें देवी मॉ कृपा करके इस व्यक्ति पर कार्य करें ,मेरा पवित्र प्रेम इस व्यक्ति पर कार्य करें ,और आप हैरान होंगे कि आप किस प्रकार उस व्यक्ति के ह्दय को जीत लेते हैं।इतना ही नहीं यह पवित्र प्रेम उन सभीनकारात्मक शक्तियों को नष्ट करता है जो आपको हानि पहुंचाने का प्रयत्न कर रही हैं ।
प्रेम आपकी अन्तर्जात सम्पदा है,यह तो आपमें निहित गुंण है,देवी की यह शक्ति प्रेम की शुद्ध इच्छा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। आदि शक्ति का तो पूर्ण शरीर,उनकी पूरा व्यक्तित्व ही करुणॉ एवं प्रेम से बना है,उनके सभी कार्य उनकी करुणॉ एवं प्रेम के माध्यम से होते हैं । प्रेम की यह शक्ति जिस प्रकार गणेश को दी गई थी कि एक बार आप इसे धारण कर लेंगे तो व्यक्तिगत रूप से या सामूहिक रूप से आप इसे सम्पादित कर सकेंगे ।किसी व्यक्ति को यदि जीतना चाहें तो अपने ह्दय में आप कहें देवी मॉ कृपा करके इस व्यक्ति पर कार्य करें ,मेरा पवित्र प्रेम इस व्यक्ति पर कार्य करें ,और आप हैरान होंगे कि आप किस प्रकार उस व्यक्ति के ह्दय को जीत लेते हैं।इतना ही नहीं यह पवित्र प्रेम उन सभीनकारात्मक शक्तियों को नष्ट करता है जो आपको हानि पहुंचाने का प्रयत्न कर रही हैं ।