Sunday, August 12, 2012

प्रेममय जीवन की कसौटी

1-        आज की जिन्दगी में व्यक्ति जब एक-दूसरे को पीछे धकेलते हुए आगे बढ़ने की होड़ में संवेदनाओं को खोता चला जा रहा है, रिश्तों और एहसासों से दूर, संपन्नता में क्षणिक सुख खोजने के प्रयास में लगा रहता है, ऐसी स्थिति में जहां प्यार बैंक-बैलेंस और स्थायित्व देखकर किया जाता है, वहां सच्ची मोहब्बत, पहली नजर का प्यार और प्यार में पागलपन जैसी बातें बेमानी लगती हैं परंतु प्रेम शाश्वत है।
2-        प्रेम सोच-समझकर की जाने वाली चीज नहीं है। कोई कितना भी सोचे, यदि उसे सच्चा प्रेम हो गया तो उसके लिए दुनिया की हर चीज गौण हो जाती है। प्रेम की अनुभूति विलक्षण है। प्यार कब हो जाता है, पता ही नहीं चलता। इसका एहसास तो तब होता है, जब मन सदैव किसी का सामीप्य चाहने लगता है। उसकी मुस्कुराहट पर खिल उठता है। उसके दर्द से तड़पने लगता है। उस पर सर्वस्व समर्पित करना चाहता है, बिना किसी प्रतिदान की आशा के।

3-        जयशंकर प्रसाद ने कहा है कि चतुर मनुष्यों के लिए नहीं है। वह तो शिशु-से सरल हृदय की वस्तु है।’ सच्चा प्रेम प्रतिदान नहीं चाहता, बल्कि उसकी खुशियों के लिए बलिदान करता है। प्रिय की निष्ठुरता भी उसे कम नहीं कर सकती। वास्तव में प्रेम के पथ में प्रेमी और प्रिय दो नहीं, एक हुआ करते हैं। एक की खुशी दूसरे की आँखों में छलकती है और किसी के दुःख से किसी की आँख भर आती है।

4-        आचार्य रामचंद्र शुक्ल कहते हैं कि ‘प्रेम एक संजीवनी शक्ति है। संसार के हर दुर्लभ कार्य को करने के लिए यह प्यार संबल प्रदान करता है। आत्मविश्वास बढ़ाता है। यह असीम होता है। इसका केंद्र तो होता है लेकिन परिधि नहीं होती।’ प्रेम एक तपस्या है, जिसमें मिलने की खुशी, बिछड़ने का दुःख, प्रेम का उन्माद, विरह का ताप सबकुछ सहना होता है। प्रेम की पराकाष्ठा का एहसास तो तब होता है, जब वह किसी से दूर हो जाता है।

5-        खलील जिब्रान के अनुसार- ‘प्रेम अपनी गहराई को वियोग की घड़ियां आ पहुँचने तक स्वयं नहीं जानता।’ प्रेम विरह की पीड़ा को वही अनुभव कर सकता है, जिसने इसे भोगा है। इस पीड़ा का एहसास भी सुखद होता है। दूरी का दर्द मीठा होता है। वो कसक उठती है मन में कि बयान नहीं किया जा सकता। दूरी प्रेम को बढ़ाती है और पुनर्मिलन का वह सुख देती है, जो अद्वितीय होता है।


6-        प्यार के इस भाव को इस रूप को केवल महसूस किया जा सकता है। इसकी अभिव्यक्ति कर पाना संभव नहीं है। बिछोह का दुःख मिलने न मिलने की आशा-आशंका में जो समय व्यतीत होता है, वह जीवन का अमूल्य अंश होता है। उस तड़प का अपना एक आनंद है।

7-        प्यार और दर्द में गहरा रिश्ता है। जिस दिल में दर्द ना हो, वहाँ प्यार का एहसास भी नहीं होता। किसी के दूर जाने पर जो खालीपन लगता है, जो टीस दिल में उठती है, वही तो प्यार का दर्द है। इसी दर्द के कारणप्रेमी हृदय कितनी ही कृतियों की रचना करता है।
8-प्रेम को लेकर जो साहित्य रचा गया है, उसमें देखा जा सकता है कि जहाँ विरह का उल्लेख होता है, वह साहित्य मन को छू लेता है। उसकी भाषा स्वतः ही मीठी हो जाती है, काव्यात्मक हो जाती है। मर्मस्पर्शी होकर सीधे दिल पर लगती है।


9-        प्रेम में नकारात्मक सोच के लिए कोई जगह नहीं होती। जो लोग प्यार में असफल होकर अपने प्रिय को नुकसान पहुंचाने का कार्य करते हैं, वे सच्चा प्यार नहीं करते। प्रेम सकारण भी नहीं होता। प्रेम तो हो जाने वाली चीज है।
10-प्रेम की पहचान-
        प्रेम की बात सब जगह सुनाई देती है,हर कोई कहता है,प्रेम हो गया ,ईश्वर से प्रेम करो । लेकिन मनुष्यों को पता नहीं कि प्रेम है क्या ।यदि वे जानते तो इसके सम्बंध में ऐसी खोखली बातें नहीं करते ।प्रेम करने वाले के बारे में शीघ्र पता चल जाता है कि उसके स्वभाव में प्रेम है कि नहीं।एक स्त्री प्रेम की बात करती है लेकिन तीन मिनट में पता चल जाता है कि वह प्रेम नहीं कर सकती है।इस संसार में प्रेम की बातें तो भरी पडीं हैं ,लेकिन प्रेम करना कठिन है।प्रेम कहॉ है?और प्रेम है, यह तुम कैसे जानते हो ?प्रेम का पहला लक्षण तो यह है कि इसमें व्यापार या शौदागरी नहीं होती है।तब तक तुम किसी मनुष्य से कुछ पाने की इच्छा से प्रेम करते हो तो,जान लो बह प्रेम नहीं है। वहॉ कोई प्रेम नहीं रहता ।जब कोई मनुष्य ईश्वर से प्रार्थना करता है,मुझे यह दो, मुझे वह दो,तो वह प्रेम नहीं है।वह प्रेम कैसे हो सकता है?मैं तुम्हें एक प्रार्थना सुनाता हूं और तुम मुझे उसके बदले कुछ दो, यह तो वही दुकानदारी की बात हो गई ।प्रेम का पहला लक्षण है वह शौदा करना नहीं जानता,वह तो सदा देता है।प्रेम सदा देने वाला होता है,लेने वाला कभी नहीं ।भगवान से प्रेम करने वाला कहता है कि ,यदि भगवान चाहे तो मैं अपना सर्वस्व उन्हैं दे दूं,पर मुझे उनसे कोई चीज नहीं चाहिए ।मुझे इस दुनियॉ में किसी चीज की चाह नहीं है।मैं उनसे प्रेम करता हूं,बदले में मैं कुछ नहीं मॉगता। मुझे न उनकी शक्ति चाहिए ,न उनकी शक्ति का प्रदर्शन । वे तो प्रेम स्वरूप भगवान हैं।

11-प्रेम में कोई भय नहीं रहता है-
        जब प्रेम होता है तो भय नहीं रहता ।क्या कभी बकरी शेर पर,चूहा बिल्ली पर या गुलाम अपने मालिक पर प्रेम करता है?गुलाम लोग कभी-कभी प्रेम दिखाया करते हैं,पर क्या वह प्रेम है? क्या डर में तुमने प्रेम देखा है? ऐसा प्रेम तो सदा बनावटी होता है।जबतक मनुष्य की ऐसी भावना है कि ईश्वर आकाश में बादलों के ऊपर बैठा है,एक हाथ में पुरुष्कार और दूसरे हाथ में दण्ड,तब तक प्रेम नहीं हो सकता ।प्रेम के साथ भय या किसी भयदायक वस्तु का विचार नहीं आता ।मान लो ,एक युवती माता सडक से जा रही है और एक कुत्ता उसकी ओर भौंकने लगा,तो वह पास वाली मकान में जायेगी ।और दूसरे दिन उसके साथ उसका बच्चा भी है और एक सिंह उस बच्चे पर झपटता है,तब वह माता कहॉ जायेगी? तब तो वह अपने बालक की रक्षा करके सिंह के मुख में प्रवेश कर जायेगी।प्रेम तो सारे भय को जीत लेता है।उसी प्रकार ईश्वर का प्रेम है वह चाहे दण्डदाता है या वर दाता है इसकी किसे परवाह है ?जिन्होंने ईश्वर के प्रेम का स्वाद कभी नहीं लिया,वे ही उससे डरते हैं और जीवन भर उसके सामने भय से कॉपते हैं।अतः डर को दूर करें ।

12-प्रेम तो एक सर्वोच्च आदर्श है-
        प्रेम करने वाला जब सौदागरी छोड देता है और समस्त भय दूर भगा देता है , तब वह ऐसा अनुभव करने लगता है कि प्रेम ही सर्वोच्च आदर्श है।कितनी ही बार एक रूपवती स्त्री कुरूप पुरुष से प्यार करते देखी गई है ।कितनी बार एक सुन्दर पुरुष किसी कुरूप स्त्री से प्रेम करते देखा गया है ,ऐसे प्रसंगों में आकर्षक वस्तु कौनसी है? बाहर से देखने वालों को तो कुरूप पुरुष या कुरूप स्त्री ही दिख पडती है,लेकिन वह प्रेम तो नहीं देखता।प्रेमी की दृष्टि में उससे बढकर सुन्दरता और कहीं नहीं दिखाई देती ।ऐसे कैसे होता है ?जो स्त्री कुरूप पुरुष को प्यार करती है,उसका अपने मन में जो सौंदर्य का आदर्श है,उसे लेकर उस कुरूप पुरुष पर आरोपित करती है,वह जो अपासना या प्यार करती है ,वह उस पुरुष को नहीं बल्कि अपने आदर्श को डालकर उसे आच्छादित कर देती है। यही वात सभी प्रेम पर लागू होती है।जैसे भाई या बहिन साधारण रूप के हैं तो भाई या बहिन होने का भाव ही उन्हैं हमारे लिए सुन्दर बना देता है ।

13-प्रेममय हो जाना ही जीवन है-
        प्रभु ने हमें अपार प्रेंम दिया है तो फिर घुट-घुट कर क्यों जीते हो। प्रेम अनुभव की चीज नहीं है, वह तो स्वयं आप में है,यदि किसी से मिलते हो तो मिलते ही खूब हंसने लग जाते हो,खुश हो जाते हो,इसके लिए आपने कोईप्रयत्न तो नहीं किया यह तो अपने आप हुआ। प्रेम तो मॉगने से कम हो जाता है देने से बढता है,क्योंकि हर व्यक्ति प्रेम चाहता है। और प्रेम चाहने से नहीं होता बल्कि प्रेम देने से होता है। देखने,मिलने से प्रेम होता है। प्रेम से प्यार हो जाता है और प्यार से त्याग हो जाता है तथा यह त्याग ज्ञान में बदल जाता है। जिससे हम प्रेम करते है उसकी हर बात बहुत ध्यान से सुनते हैं। उसका हर काम हर बात बहुत ही अच्छी लगती है,सुन्दर लगती है,इसलिए सबसे प्रेम करों, उस प्रभु से प्रेम करो सब सुन्दर लगेंगे ।

14-प्रेममय जीवन-
        स्वयं पर विजय प्राप्त करें तो तत्वज्ञानी बन सकते हो जिस मनुष्य ने स्वयं के ऊपर अधिकार प्राप्त कर लिया,उसके ऊपर संसार की कोई भी चीज अपना प्रभाव नहीं डाल सकती,उसके लिए तो किसी भी प्रकार का बन्धन शेष नहीं रह जाता ।उसका मन स्वतंत्र हो जाता है ।और वही पुरुष संसार में रहने योगय है।सामान्यतः देखा जाता है कि संसार के सम्बंध में दो प्रकार की धारणॉएं होती हैं।कुछ लोग निराशावादी होते हैं ।वे कहते हैं-संसार कैसा भयानक है,कैसे दुष्ट है।और करछ लोग आशावादी होते हैं और कहते हैं-अहा संसार कितना सुंदर है,कितना आंनंद है । जिन लोगों ने अपने पर विजय प्राप्त नहीं की है,उनके लिए यह संसार या तो बुराइयों से भरा है,या अधिक से अधिक,अच्छाइयोंऔर बुराइयों का एक मिश्रण है ।और यदि हम अपने मन पर विजय प्राप्त कर लेंते हैं,तो यही संसार सुखमय हो जाता है ।फिर हमारे ऊपर किसी बात के अच्छे या बुरे भाव का असर न होगा।इसके लिए अभ्यास जरूरी है।पहले श्रवण करें,फिर मनन करें,फिर अमल करें।प्रत्येकयोग के लिए यही बात सत्य है ।सब बातों को एकदम समक्ष लेना बडा कठिन है।इसमें हमें स्वयं को सिखाना होता है। बाहर के गुरु तो केवल उद्दीपन कारण मात्र हैं, जो कि हमारे अंदर के गुरु कोसब विषयों का मर्म समझने के लिए प्रेरित करते हैं, बहुत सी बातें स्वयं की विचारशक्ति से स्पष्ट हो जाती है और उनका अनुभव हम अपनी ही आत्मा में करने लगते हैं,और यह अनुभूति ही अपनी प्रवल इच्छा में परिवर्तित हो जाती है। पहले भाव फिर इच्छाशक्ति ।इससे कर्म करने की जबरदस्त इच्छा शक्ति पैदा होती है,जो हमारे प्रत्येक नस,प्रत्येक शिरा और प्रत्येक पेशी में कार्यकरती है,जबतक कि हमारा समस्त शरीर इस निष्काम कर्मयोग का एक यंत्र ही नहीं बन जाता,तबतक निरंतर अभ्यास जरूरी है ।फिर सुकदेव जैसे योगी बन सकते हो ।


15-प्रेम में इन्द्रियों व देह का सम्बन्ध नहीं होता-
        ज्ञानी लोग प्रेम से मुक्त होते हैं। वे किसी को व्यक्तिगत रूप से प्रेम नहीं करते, और न वे दूसरों कोव्यक्तिगत रूप से अपने प्रति प्रेम करना, और अपने में आसक्त होना देना चाहते हैं। इसीलिए वे किसी के प्रति माया-मोह में नहीं फंसने देना चाहते हैं। वे तो अपनी आत्मा और भगवान को सभी में देखते हैं,अतः सभी जीवों परउनका प्यार और स्नेह समान होता है। उनके प्रेम में, देह और इन्द्रियों का कोई सम्बन्ध नहीं होता। कामान्ध नहीं। ज्ञानी तो प्रकृत प्रेमी होता है और प्रकृत प्रेमी ही ज्ञानी होता है ।

16-प्रेम और ध्यान एक दूसरे के पूरक हैं -
बिना ध्यान के प्रेम संभव नहीं है और बिना प्रेम का ध्यान सम्भव नहीं है ।प्रेम ध्यान का एक ढंग है। लेकिन आपने तो प्रेम का अपना अलग ही अर्थ बना दिया , अगर आपके प्रेम से सत्य मिलता तो पहले ही मिल गया होता । उस प्रेम को तो आप कर ही रहे हो पत्नी से प्रेम ,बच्चे से प्रेम,पिता से प्रेम,मित्रों से प्रेम ऎसा प्रेम तो आपने जन्म से किया है । आप तो प्रेम को देह की भाषा में अनुवाद करते हैं, मेरे लिए तो प्रेम का वही अर्थ है जो प्रार्थना का है । प्रेम का अर्थ है अभिन्नता का बोध, हमें और किसी दूसरे के बीच एकता का अनुभव होना ,प्रेम प्रार्थना है । जहॉ प्रेम है वहॉं ध्यान है ,और जहॉ ध्यान है वहॉ प्रेम है ।


17-प्रेम में पडना वास्तविक पतन है-
        प्रेम में पडना महॉकाली की माया फैलती है और आप आसक्त हो जाते हैं।आपके अहं को बढावा मिलता है ।ऐसे मामलों में दो चीजें हो सकती हैं,अपनी पत्नी या पति,प्रेमी या प्रेमिका जिसके आप भक्त हैं,जिसकी प्रशंसा करते हैं ,उसी के कारण आप पूर्णतः खो जाते हैं,समाप्त हो जाते हैं आपका व्यक्तित्व समाप्त हो जाता है,आप हमेशा के लिए टूट जाते हैं,और फिर एक दुसरे से घृणा करने लगते हैं।इसीलिए कहा जाता है कि –“प्रेम और घृणा सम्बन्ध’ प्रेम किस प्रकार घृणा हो सकता है,परन्तु देवी के इस गुण के कारण ऐसा हो जाता है। एक ओर तो अति प्रेममय, अति करुणांमय और अति कोमल है।परन्तु उसके बाद आपको दूसरी ओर धकेल देती है, इसी कारण जो लोग प्रेम में पडते हैं वे सभी मर्यादायें लॉघ जाते हैं।प्रेम में पडकर वे ऐसे व्यक्ति से विवाह कर लेते हैं कि जो पहले ही विवाहित है,एक वृद्ध महिला युवा व्यक्ति से विवाह करती है।वृद्ध पुरुष युवा लडकी से विवाह कर लेता है,उनमें मर्यादा बिल्कुल नहीं होती है। अतः सावधानी रहें कहीं खो न जायें।

18-प्रेम ज्ञान और मोह अज्ञान है -
        प्रेम और मोह के सम्बन्ध में अगर अन्तर देखें तो , अन्तर के लिए पहला तथ्य स्वयं के सम्बन्ध में सामने आता है कि – मैं अपने आप को जानता हूं अथवा नहीं जानता हूं -इस वाक्य के उत्तर में – मैं कौन हूं- इसको न जानने से जो प्रीति पैदा होती है यह मोह है। और मैं कौन हूं -इसको जानने से तो वास्तविक प्रेम आता है । अतः प्रेम ज्ञान है और मोह अज्ञान है । प्रेम समस्त के प्रति है,वह स्वयं में है , वह किसी से होता नहीं है, बुद्ध उसे करुणॉ कहते हैं , महॉवीर उसे अहिंसा कहते हैं,वह अकारण है, नित्य है, इसलिए प्रेम निर्पेक्ष है । जबकि मोह सापेक्ष है क्योंकि मोह तो नित्य नहीं है, यह किसी कारण से होता है ,यह एक के प्रति होता है इसलिए दुख का मूल है । प्रेम तो तब आता है जब मोह जाता है । मोह की मुक्ति से ही प्रेम होता है और इसे पा लेना सब कुछ पा लेना है।प्रेम तो मुक्ति प्राप्त कर लेना है ।


19-प्रेम ज्ञान और मोह अज्ञान है-
        प्रेम और मोह में तुलना करने के लिए पहला प्रश्न है कि - मैं अपने आप को जानता हूं अथवा नहीं जानता हूं-इस वाक्य के उत्तर में-मैं कौन हूं-इसको न जानने से जो प्रीति पैदा होती है यह मोह है। और मैं कौन हूं-इसको जानने से तो वास्तविक प्रेम आता है। अतःप्रेम ज्ञान है और मोह प्रेम और मोह के सम्बन्ध में अगर अन्तरदेखें तो,अन्तर के लिए पहला तथ्य स्वयं के सम्बन्ध में सामने अज्ञान है।प्रेम समस्त के प्रति है,वह स्वयं में है,वह किसी से होता नहीं है, बुद्ध उसे करुणॉ कहते हैं,महॉवीर उसे अहिंसा कहते हैं,वह अकारण है,नित्य है, इसलिए प्रेम निर्पेक्ष है। जबकि मोह सापेक्ष है क्योंकि मोह तो नित्य नहीं है,यह किसी कारण से होता है,यह एक के प्रति होता है,इसलिए दुख का मूल है।प्रेम तो तब आता है जब मोह जाता है। मोह की मुक्ति से ही प्रेम होता है और इसे पा लेना सबकुछ पा लेना है। प्रेम तो मुक्ति प्राप्त कर लेना है ।

20प्रेम में हमें वहीं दिखाई देता है जो हम हैं –
        प्रेम एक दर्पण हैं इसलिए हमें प्रेम में वहीं दिखाई देता है जो हम हैं।यदि हम दुखी हैं तो हमें दुख ही दुख दिखाई देता है।अगर हम आनन्दित हैं तो हमें आनन्द ही आनन्द दिखाई देता है । और यदि हमें परमात्मा का अनुभव हुआ है तो हमें हर- प्रेम पात्र में परमात्मा दिखाई देगा , और निश्चित रूप से जब प्रेम प्रगाढ होता है तो हमारा परमात्मा तक पहुंचने का सेतु बन जाता है

21-प्रेम से ह्दयचक्र का पोषण होता है-
        प्रत्येक धर्म में प्रार्थनाएं हैं । पर एक बात ध्यान में रखनी होगी कि आरोग्य या धन कमाने के लिए प्रार्थना करना भक्ति नहीं है, यह तो कर्म है ।किसी भौतिक लाभ के लिए प्रार्थना करना कर्म है,जैसे स्वर्ग प्राप्त करने के लिए या किसी अन्य कार्य के लिए जिसमें ईश्वर से प्रेम करना होता है,वह भक्त होना चाहता है,उसे ऐसी प्रार्थना छोड देनी चाहिए।प्रार्थना तो दुकानदारी हो गई,क्रय-विक्रय ।इस दुकानदारी की गठरी बॉधकर अलग रख देनी चाहिए, फिर उस प्रदेश के द्वार में प्रवेश करना चाहिए। जिस वस्तु के लिए प्रार्थना करनी थी विना प्रार्थऩा के पा सकते हो, तुम प्रत्येक वस्तु को पा सकते हो। लेकिन यह तो भिखारियों का धर्म हो गया ।मूर्ख ही कहा जायेगा उन लोगों को जो गंगा के किनारे बैठकर कुंवॉ खोदते हैं, या हीरों की खान में कॉच के टुकडों की खोज करते हैं।आश्चर्य है ईश्वरके पास मॉगा भी तो आरोग्य,भोजन, या कपडे काटुकडा। इस शरीर ने कभी न कभी मरना ही है तो फिर इसकी आरोग्यता के लिए बार-बार प्रार्थना करने से क्या लाभ ?आरोग्य और धन में रखा ही क्या है,मनुष्य अपने जीवन में थोडे से ही अंश का उपभोग कर सकेगा ।हम संसार की सभी चीजें प्राप्त नहीं कर सकते तो क्यों हम उनकी चिंता करें?जब कोई चीज आती है तो अच्छी बात,और जब कोई चीज जाती है तो भी अच्छी बात ।हम तो ईश्वर से साक्षात्कार करने जा रहे हैं, भिखारी के वेष में हम वहॉ प्रवेश नहीं कर पायेंगे,बाइविल में लिखा है कि ईशा मसीह ने खरीदने और बेचने वालों को वहॉ से भगा दिया था,लेकिन फिर भी लोग प्रार्थना करते हैं कि हे ईश्वर मेरी तुच्छ विनती कि मुझे इसके बदले एक नईं पोषाक दे दे ,मेरा सिर दर्द मिटा दे या मैं कल दो घण्टे प्रार्थना अधिक करूंगा। इस मानसिक प्रवॉत्ति से ऊपर उठना होगा यदि मनुष्य ऐसी चीजों के लिए प्रार्थना करे तो फिर मनुष्य और पशु में अन्तर है ही क्या रह गया ।।

22-सच्चा प्रेम आत्मा से उत्पन्न होता है न कि मन से-
        मूलतः अगर हम देखें तो सच्चा प्रेम एक गुंण है, जो कि आत्मा से उत्पन्न होता है,न कि इन्द्रियों या मन से । इसलिए जब कोई किसी से प्रेम की बात करता है तो यह जानना चाहिए कि उसका प्रेम शरीर से है या आत्मा से।शरीरका आकर्षण भौतिक या स्थूल होता है ।यह सेक्स की भावना,आकर्षक राजकुमार के स्वप्न, मनुष्य की कुशलता या बुद्धि की प्रशंसा,कलाकार की कला का प्रदर्शन से आ सकती है।शारीरिक आकर्षण सच्चा प्रेम नहीं है,क्योंकि वह मन से उत्पन्न होता है । मन प्रेम नहीं करता है,वह केवल इच्छा करता है ।लेकिन सामान्यतः सच्चे प्रेम की भावना को भ्रम से सेक्स और व्यक्तिगत स्वार्थ समझ लिया जाता है,जबकि शुद्ध प्रेम निर्लिप्त होता है,वह आत्मा से उत्न्न होता है ।

23-प्रेम क्या है-
        प्रेम कभी मॉगता नहीं है, वह तो हमेशा देता है।प्रेम हमेशा कष्ट सहता है, न कभी झुंझलाता है,और न बदला लेता है। बस मानव जीवन का उद्देश्य तो आत्म दर्शन करना है,और उसकी सिद्धि का मुख्य एवं एक मात्र पाय पारमार्थिक भाव से जीव मात्र की सेवा करना है। मेरे पास मेरी आदिशक्ति माता जी के सिवा और कोई ताकत नहीं है। वही मेरा आसरा है। 24-प्रेम खास खुदा का घर है- आप मंदिर को तोड दो या मस्जिद को या गिरजाघर को तोड दो मगर प्यार की इमारत को मत तोडना, क्योंकि यह परमात्मा का घर है।

24– प्रेम भाव-
       
प्रेम भाव प्राय क्रियाओं द्वारा व्यक्त किया जाता है वॉणी के द्वारा नहीं,वॉणी के द्वारा किया गया प्रेम अपनी गरिमा से च्युत हो जाता है।


25-प्रेम से आत्म विश्वास पैदा होता है-
        प्रेमजीवन के लिए आवश्यक है,क्योंकि प्रेम से आत्मविश्वास पैदा होता है और आत्मविश्वास से स्वाभाविक रूप से व्यक्ति की सुरक्षाव्यवस्था मजबूत होती है,इससे ह्दय चक्र मजबूत होता है,जिससे बाहर की अनिष्ठकारी शक्तियों से रक्षा होती है भय से हमारे भीतर विध्यमान,रोगों से मुक्त रहने की प्राकृतिक शक्ति कमजोर हो जाती है,और हम आसानी से एलर्जी तथा अन्. रोगों के लिए संवेदनशील हो जाते हैं और जब ह्दयचक्र शक्तिशाली होता है,तब मनुष्य के व्यक्तित्व का विकास होता है और उसमें निखार आता है ऐसा व्यक्ति जीवन में विजयी होता है इसके विपरीत अगर प्रेम विहीन स्थिति में व्यक्ति का व्यक्तित्व सूखकर कॉटा हो जाता है,वह भय के गहरे तथा अंत होने वाली स्थ्ति से घिर जाता है,तब बहुत सी शारीरिक बीमारियॉ,जैसे ह्दय की धडकन का बडना,सीने में उत्पन्न होने वाली समस्यायें,असुरक्षा की भावना पैदा होती है
26-प्रेम में पडना वास्तविक पतन है-
        प्रेम में पडना महॉकाली की माया फैलती है और आप आसक्त हो जाते हैं।आपके अहं को बढावा मिलता है ।ऐसे मामलों में दो चीजें हो सकती हैं,अपनी पत्नी या पति,प्रेमी या प्रेमिका जिसके आप भक्त हैं,जिसकी प्रशंसा करते हैं ,उसी के कारण आप पूर्णतः खो जाते हैं,समाप्त हो जाते हैं आपका व्यक्तित्व समाप्त हो जाता है,आप हमेशा के लिए टूट जाते हैं,और फिर एक दुसरे से घृणा करने लगते हैं।इसीलिए कहा जाता है कि –"प्रेम और घृणा सम्बन्धप्रेम किस प्रकार घृणा हो सकता है,परन्तु देवी के इस गुण के कारण ऐसा हो जाता है। एक ओर तो अति प्रेममय, अति करुणांमय और अति कोमल है।परन्तु उसके बाद आपको दूसरी ओर धकेल देती है, इसी कारण जो लोग प्रेम में पडते हैं वे सभी मर्यादायें लॉघ जाते हैं।प्रेम में पडकर वे ऐसे व्यक्ति से विवाह कर लेते हैं कि जो पहले ही विवाहित है,एक वृद्ध महिला युवा व्यक्ति से विवाह करती है।वृद्ध पुरुष युवा लडकी से विवाह कर लेता है,उनमें मर्यादा बिल्कुल नहीं होती है। अतः सावधानी रहें कहीं खो जायें।

27-सत्य का दिया प्रेम रूपी तेल से जलता है-
       
प्रेम वह शक्ति है जो आपके हाथों से बह रही है, वही चैतन्य है जो आपके अन्दर बह रहा है जिसे हम वाइब्रेशन कहते हैं वह तो सिर्फ प्रेम है,जिसदिन आपके प्रेम की धारा टूट जाती है,वाइब्रेशन आना बन्द हो जाता है इसलिए प्रेम का पल्ला छोडें,प्रेम के वाइब्रेशन परमात्मा का ही प्रेम है, जो बहता जा रहा है,आपके अन्दर शुद्ध प्रेम ही बह सकता है,जो कि साक्षात चैतन्य है ,वही सत्य है,वही सौन्दर्य भी है प्रेम का मतलब अहंकार रहित, बिना किसी उपेक्षा के,बिना किसी आशा के प्रेम का साम्राज्य फैलाना सत्य और प्रेम दोनों एक ही चीज है,अगर आप चाहे कि प्रेम को हटा दें तो सत्य बुझ जायेगा, सत्य रह नहीं सकता क्योंकि सत्य का दिया प्रेम के तेल से ही प्रज्वलित होता है ।।

28-प्रेम का मतलव किसी से प्यार करना नहीं है-
अ        गर आप प्रेम के अर्थ को किसी लडकी या लडके, भाई-बहिन, माता-पिता से प्रेम करने से लगाते हैं तो यह उपयुक्त नहीं है,प्रेम तो अलिप्त होता है,फिर आप कहेंगे कि यदि मॉ प्रेम निर्लेप हो जाये तो फिर समस्या पैदा हो जायेगी, मगर ऐसा नहीं है ।एक पेड को देखियेउसके प्रेम की धारा, उसका रस सारे पेड में चढता है,हर जगह उसके मूल में जाता है,पत्तों में जाता है,उसकी शाखाओं में जाता है,लेकिन रुकता नहीं है,वह किसी जगह रुकता नहीं है,यदि उसे एक फल पसन्द गया तो समझो पेड ही मर जायेगा,बाकी फल-फूल भी मर जायेंगे। इसलिए जिसको जो देना हो देना चाहिए अपने घर में,गृहस्थी में,समाज में,अपने देश में और सारे विश्व में जिसको जो देना है वो दीजिए लेकिन उसमें लिपट जाइये उससे लिपटना एक तरह चिपकना है उससे प्रेम की शक्ति क्षीण हो जाती है,बढेगी नहीं सारी धरा ही उसका कुटुम्ब है-ये प्रेम की महिमा है-यदि इस प्रेम की महिमा को आपने जान लिया तो आपको आश्चर्य होगा कि आत्मा के दर्शन से ये घटित होता है ।।

29-श्री महॉवीर के सिद्धान्तों को अति की अवस्था तक ले जाया गया-
       
श्री महॉवीर के अनुयाय़ियों ने जैन मत चलाया था । श्री महॉवीर के नियम कठोर थे,जिन्हैं अति की अवस्था तक ले जाया गया एक दिन ध्यानावस्था में उनकी धोती किसी झाडी में उलझ गई थी जिससे उन्हैं धोती फाडनी पडी और आधी ही धोती पहनकर चलना पडा भिखारी के वेष में श्री कृष्ण उनकी परीक्षा लेने के लिए जब वहॉ पहुंच,और महॉवीर से एक कपडा मॉगने लगे तो श्री महॉवीर ने उस आधी धोती को उस भिखारी को दे दिया तथा स्वयं पत्तों से अपने शरीर को ढककर वस्त्र पहनने के लिए अपने घर वापिस चले गये परन्तु आज उनके अनुयायी इसी वृतॉत की आड में निर्वस्त्र होकर घूमते फिरते हैं ।हमें ऐसा नहीं करना है ,हमें निम्नावस्था तक जाकर आत्मानुशाशासन सीखना है इसके बिना पूर्ण ज्ञान,प्रेम तथा आनंद की गहनता तक नहीं पहुंच सकते सहजयोग में महॉवीर जी को भैरवनाथ का अवतरण माना जाता है। आपको महॉवीर की सीमा तक जाने की आवश्यकता नहीं है,क्योंकि सौभाग्यवश आपको सहजयोग में आत्मसाक्षात्कार प्रदान किया है ।।

30-प्रेम मानव का अन्तर्जात गुंण है-
       
प्रेम आपकी अन्तर्जात सम्पदा है,यह तो आपमें निहित गुंण है,देवी की यह शक्ति प्रेम की शुद्ध इच्छा के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। आदि शक्ति का तो पूर्ण शरीर,उनकी पूरा व्यक्तित्व ही करुणॉ एवं प्रेम से बना है,उनके सभी कार्य उनकी करुणॉ एवं प्रेम के माध्यम से होते हैं प्रेम की यह शक्ति जिस प्रकार गणेश को दी गई थी कि एक बार आप इसे धारण कर लेंगे तो व्यक्तिगत रूप से या सामूहिक रूप से आप इसे सम्पादित कर सकेंगे ।किसी व्यक्ति को यदि जीतना चाहें तो अपने ह्दय में आप कहें देवी मॉ कृपा करके इस व्यक्ति पर कार्य करें ,मेरा पवित्र प्रेम इस व्यक्ति पर कार्य करें ,और आप हैरान होंगे कि आप किस प्रकार उस व्यक्ति के ह्दय को जीत लेते हैं।इतना ही नहीं यह पवित्र प्रेम उन सभीनकारात्मक शक्तियों को नष्ट करता है जो आपको हानि पहुंचाने का प्रयत्न कर रही हैं

 
 

Saturday, August 11, 2012

तर्क से बुद्धि सत्य को जान लेती है

1- तर्क से बुद्धि सत्य को जान लेती है-


         भावनाओं के स्रोत ह्दय द्वारा अनुभूत होता है न कि तर्क के द्वारा बुद्धि तो सत्य को जान लेती है। इस प्रकार बुद्धि और भावना दोनों एक ही क्षण में आलोकिक हो उठते हैं, ह्दय ग्रन्थि खुल जाती है जिससे सब संशय मिट जाते हैं । प्राचीन काल में ऋषियों के ह्दय में ज्ञान और भाव एक साथ प्रस्फुटित हो उठते थे,तबसर्वोच्च सत्य ने काव्य की भाषा ग्रहण की, फलस्वरूप वेद और अन्य ग्रन्थ रचे गये । उन्हैं पढते समय लगता है कि मानो भाव और ज्ञान की दोनों सामान्तर रेखायें अन्ततः मिलकर एकाकार हो गई हैं और एक दूसरे से अभिन्न हैं ।।

2-भौतिक वस्तुओं के भीछे भागना मृत्यु के पाश में बंधना है-
        मनुष्य बाहरी वस्तुओं के पीछे दौडते फिरते हैं,जिससे व्याप्त मृत्यु के पाश में बंध जाते हैं,लेकिन ज्ञानीपुरुष अमृत्व को जानकर अनित्य वस्तुओं में नित्य वस्तु की खोज नहीं करते ।अनन्त की खोज अनन्त में ही करनी होगी,और हमारी अन्तवर्ती आत्मा की एकमात्र अनन्त वस्तु है । शरीर, मन आदि जो प्रपंच हम देखते हैं अथवा जो हमारी चिन्ताएं या विचार हैं,अनमें से कोई भी अनन्त नहीं हो सकता ।मनुष्य की आत्मा जो सदा जाग्रत है,वही एकमात्र अनन्त है ।जो नाना रूप दिखते है,वे बारम्बार मृत्यु को प्राप्त होते हैं ।

3-अद्भुत विषय के प्रति जिज्ञासा-
        जब लोग किसी अद्भुत विषय के सम्बन्ध में सुनते हैं.तो वे समझने लगते हैं कि वे उसे एकदम प्राप्त कर लेंगे ।क्षणभर में वे विचारते हैं कि उसकी प्राप्ति के लिए उन्हैं उसका रास्ता तय करना पडेगा ।वे कूदकर पहुंच जाना चाहते हैं । यदि वह स्थान उच्च है तब भी पहुंच जाना चाहते हैं। वे यह नहीं सोचते कि हममें उतनी शक्ति है या नहीं । नतीजा यह होता है कि वे कुछ नहीं कर पाते हैं ।हम किसी व्यक्ति को जबर्दस्ती उठाकर ऊपर नहीं धकेल सकते हैं,हम आप कुछ नहीं कर सकते हैं । हम सबको प्रयत्न करने की आवश्यकता होती है । अतः धर्म का यह पहला भक्ति का भाग है, यह उपासना की पहली और निचली सीढी है।

4-ईश्वर को अनुभव करने की सामर्थ्य-
        सामान्यतः आपकी उस सर्वशक्तिमान के सम्बन्ध में क्या कल्पना हुआ करती है ?कुछ भी नहीं । ईश्वर के बारे में आपकी जो कल्पना है उसका अनुभव करना ही धर्म है । और ईश्वर के विषय में,जो आपकी कल्पना है, उसका अनुभव करने में जब आप समर्थ हो जायेंगे,तब हम आपको ईश्वर का उपासक कहेंगे । अभी तो आप शब्द तक के बारे में ही जानकारी रखते हैं । इससे अधिक आप कुछ भी नहीं जानते । उस अवस्था में पहुंचने के लिए, जिसमें ईश्वर का अनुभव कर सकेंगे,साकार माध्यम से ठीक उसी प्रकार जाना होगा जैसे बच्चे प्रथम बार साकार वस्तुओं का अभ्यास करके क्रमशः भाववाचक की ओर जाते हैं ।धीरे-धीरे चलने का तरीका है । यहॉ धर्म के क्षेत्र में सब बच्चे ही हैं, उम्र में चाहे हम बूढे हों,संसार की सारी पुस्तकों का अध्ययन चाहे हमने कर लिया हो, आध्यात्मिक क्षेत्र में तो हम सब बच्चे ही हैं । अनुभव करने की इसशक्ति से ही धर्म बनता है ।

5-अपने को प्रेम से भर लो-
        नफरत से बहुत शक्तिशाली है प्यार की बात,समुद्र की जैसी होती है प्रेम की थाह,समुद्र कितना भी बढ जाय उसकी थाह बढती ही रहती है ।कितनी भी नफरत बढ जाय संसार की, पर प्यार उससे भी ज्यादा बढता रहेगा।आपके अन्दर जो चैतन्य बह रहा है वह प्रेम ही तो है। आज के मानव जीवन के भयानक तौर-तरीकों को समाप्त करने के लिए हमें अपने ह्दयों में प्रेम की शक्ति विकसित करनी होगी, प्रेम की पहचान है वह कभी किसी का अहित करने की नहीं सोच सकता, जो कुछ भी होगा हितकारी ही होगा । अबोधिता प्रेम का स्रोत है । पवित्रता का सम्मान करने पर ही हम प्रेम मय हो सकते हैं,घृणॉ से तो प्रेम को धोया जाता है,हमारा लक्ष्य अपने प्रेम को उन्नत करना होना चाहिए । ध्यान धारण से प्रेम की शक्ति विकसित की जा सकती है । अगर किसी से मार-पीट भी होती है तो प्रेम में,सबकुछकरना धरना प्रेम में हो सकता है,जिसमें जिसका जितना हित हो वही प्रेम है, इसी को तो प्रेममय जीवन कहते हैं।

6-तुम्हारी कमजोरी अगले की ताकत है-
        अपनी कमजोरी कभी भी प्रकट मत करो,एक दिन आपको धोखा मिलेगा। क्योंकि आपकी कमजोरी अगले की ताकत बन जाती है।जैसे कमजोर की बीबी सबकी भाभी होती है और पहलवान की बीवी सबकी बहन ।कमजोर दिलवाला तो हर जगह दुत्कारा जाता है। बस कमर कसो, तुम्हारी फतह होगी ।

7-त्रुटियॉ करना मानवीय स्वभाव है-
        अपनी त्रुटियों के सम्बन्ध में हम अपने आपको स्वयं धोखा देते रहते हैं और अंत में उन्हैं को अपना सद्गुंण समझने लगते हैं। गलतियों की सबसे बडी औषधि तो उनको विस्मृति करना है।वैसे संसार में कुछ भी त्रुटि रहित नहीं है।त्रुटि करना तो मानवीय स्वभाव है, जबकि क्षमा कर देना स्वर्गिक। त्रुटि निकालना सरल है,अच्छा कार्य करना कठिन है। यदि आपको अपने पडोसियों की त्रुटियों के बारे में कहना है तो पहले अपनी त्रुटियों पर दृष्टि डालें। वैसे पुरुषों की त्रुटियों में उसकी स्वार्थपरता निहित होती है,जबकि नारियों की त्रुटियों के मूल में उनकी

8-दुःख जीवन की सबसे बडी पाठशाला है-
        जीवन में दुःख से न घबडायें,दुःख तोसबसे बडी पाठशाला है,यह हमें अपने अन्दर झॉकने का अवसर देता है और कुछ नया करने को मजबूर करता है। दुख के लिए किस्मत या भगवान को कभी न कोसें । होंसला रखें जो काम सामने आये उसे जी जान से करें ।फिर आप महशूस करेंगे कि आपके पास मातम मनाने के लिए भी वक्त नहीं है। दुःख तो सिर्फ तबतक है जब तक आप मातम मनाते हैं ।

9-दुःख से मुक्ति पायें-
        हम अपनी आत्मा से अपरचित होने के कारण स्वयं को दीन-हीन और दुःखी मानते हैं ।यदि अपने आपको दीन-हीन मानते रहें तो जीवनभर रोते रहोगे। ऎसा है कौन जो आपको दुखी कर सके। यदि आप न चाहो तो दुःख की क्या मजाल कि आपको स्पर्श भी कर सकें।जो इस ब्रह्मॉण्ड को संचालित कर रहा है वह चेतन तो आपके भीतर चमक रहा है,इसलिए अपनी आत्म महिमा में जग कर उसकी अनुभूति कर लो,वही तो हमारा-तुम्हारा वास्तविक स्वरूप है ।

10-दुर्भावना एक कलंक है-
        दुर्भावना तो मनुष्य के लिए एक कलंक है।जो कि अपने विश का आधा भाग स्वयं पी लेती है। दूसरों के दुर्भाग्य से दुद्धिमान व्यक्ति यह शिक्षा ग्रहण करते हैं कि उन्हैं किस बात से बचना चाहिए। आदमी की दुर्भावना उसके दुश्मन के बजाय उसे ही अधिक दुख देती है ।दूसरों के दुर्भाग्य सहने के लिए भी हमसब में पर्याप्त सहनशीलता है।यदि सारा दुर्भाग्य एक ही स्थान पर एक ढेर में रख दिए जॉय और उनमें सबको समान भाग लेना पडे तो हममें से धिकॉंश अपना ही भाग लेकर संतुष्ट होकर विदा हो जायेंगे।

11-दुष्ट मनुष्य का साथ न करें-
        दुष्ट मनुष्य के पास न तो किसी को ठहरना चाहिए और न उसके साथ कहीं जाना चाहिए ।दुष्ट व्यक्ति तो दूसरों के कार्य को नष्ट करना ही जानते हैं।सिद्ध करना नहीं। जिस प्रकार वायु वृक्षों को उखाडना ही जानती उन्हैं खडा करना नहीं ।इन्हैं तो महॉन लोगों के कार्य अच्छे नहीं लगते,इसीलिए वे उनसे द्वेष करते हैं। दुष्टों और कॉटों को सही रास्ते पर लाने के केवल दो ही उपाय हैं,या तो जूते से उनका मुंह तोड दिया जाय या उनकी अवहेलना कर दी जाय। दुष्ट यदि विद्वान हो तब भी उसके संग से बचना चाहिए,।दुष्ट बुद्धि के लोग दूसरों के उत्तम गुंणों को जानने की वैसी इच्छा नहीं करते,जैसी इच्छा उनके अवगुंणों को जानने की करते हैं। बिना कारण शत्रुता दिखाने वाले व्यक्ति से कौन नहीं डरता,जिसके मुंह में सॉप के विष जैसे असह्य अपशब्द रहते हैं।

12-दूसरे की विवशता को समझें-
        जब कभी हमसे कोई गलती होती है तो हम कहते हैं कि हमसे भूल हो गई लेकिन जब कोई दूसरा वैसी ही गलती करता है तो हमको इसके पीछे कुछ गलत मंशा दिखने लगती है। हम तो यही सोचते हैं कि उसने जान बूझकर ऐसा किया।जबकि सच बात तो यह है कि हम दूसरे व्यक्तियों को वैसा नहीं देखते जैसे वे हैं अगर हम दूसरे की विवशता को समझें तो हम परेशान नहीं होंगे बल्कि उससे सहानुभूति रखते ।

13द्वेष-भाव हानिकारक है-
        जिसका ह्दय द्वेष या वैर की आग में जलता है, उसे रात में नींद नहीं आती है।यदि आप द्वेष भाव कोमिटाना चाहते हैं तो,प्रेम की शक्ति ही उसे मिटा सकती है।किसी दूसरे की द्वेषयुक्त बुद्धि को हम द्वेष से नहीं मिटा सकते हैं बस द्वेष और कपट को त्याग दो,संगठित होकर दूसरे की सेवा करना सीखो,यही हमारे देश की पहली आवश्यकता है ।

14ध्यान क्या है-
        ध्यान का अर्थ हैं एकाग्रचित्त होना, अर्थात जागृत होकर एकाग्रचित्त में किसी कार्य को करना ध्यान है। चलना,उठना, सुनना,ध्यान हो सकता है पक्षियों की चहचहाहट सुनना ध्यान हो सकता है,य़दि आप एकाग्रचित्त तथा जागृत होकर सुनते हैं या अपने भीतर की आवाजों को सुनना ध्यान हो सकता है।अर्थात सोये न रहें जागृत होकर जो करोगे ध्यान हो सकता है।ध्यान को चार चरणों में विभाजित किसा जा सकता हैः-
पहला चरण- अपने शरीर को पूर्ण जागृत रखकर,एकाग्रचित्त, निर्विचारिता की स्थिति में ले जाना है,
इससे आपके शरीर को अधिक विश्राम और शॉति मिलेगी। आपका शरीर लयबद्ध हो जाता है,महशूस करोगे कि शरीर में एक सूक्ष्म संगीत सा फैलता जा रहा है।
दूसराचरण-अपने लक्ष्य के अनुरूप शरीर में निहित सूक्ष्म विचार के प्रति जागृत होना।फिर धीरे-धीरे महशूस करोगे कि आपके अन्दर उस विचार के प्रति क्या अनुभूति होती है अगर लिख डालते हो तो,स्वयं चकित हो जाओगे।
तीसरा चरण-यदि आप अपने विचारों के प्रति जागृत हैं तो फिर एक कदम और आगे बढना है कि उस विचार के प्रति अधिक गहन जागृत होना है बस ये तीनों आयाम जुडकर एक घटना बन जाती है फिर देखोगे कि क्या अनुभूति होती है।
चौथा चरण–यह तुरीय स्थिति की घटना की अवस्था है, जो जब प्रथम तीन चरणों को साधचुके होते हैं उनके लिए यह पुरुष्कार प्राप्त होता है।जिसमें व्यक्ति बुद्ध हो जाता है

15-ध्यान से प्रेम होता है क्रोध नहीं-
        जब ध्यान की बात आती है तो उस समय निर्विचारिता की स्थिति उत्पन्न होती है,और जहॉ निर्विचारिता होगी वहॉ ईश्वरीय शक्ति उत्पन्न होगी ,प्रेम जिसका प्रतीक है, इसलिए ध्यान करने पर प्रेम स्वतःही उत्पन्न हो जाता है अकबर ने अपनी आत्म कथा में ध्यान के सम्बन्ध मे एक रोचक घटना का उल्लेख किया हैः-कि जब मैं शिकार खेलने जंगल में गया था और साथियों से बिछुड गया, रास्ता भी भूल गया अंधेरा होनो लगा,मैं डरा हुआा था रात को कहॉ रुकूंगा,जंगल में खतरा था, भाग रहा था, तभी उसे सॉझ के वक्त प्रार्थना की याद आई यह तो जरूरी है, अपनी चादर विछाकर नमाज पढने लगा उसी समय अकबर ने देखा कि कोई स्त्री भागती हुई जा रही थी उसकी चादर में पॉव रखकर और उसपर घक्का देकर चली गई।अकबर को बडा क्रोध आया जल्दी-दल्दी नमाज पूरी कर घोडे पर सवार होकर भागा और रास्ते में उस स्त्री को पकड लिया और कहा बदतमीज तुम्हारी यही तमीज हैकि नमाज पढते वक्त तुमने ऎसा व्यवहार किया और फिर में तो एक सम्राट हूं। उस स्त्री ने जवाव में कहा महॉराज मुझे क्षमा करें मुझे पता नहीं था कि आप नमाज पढ रहे हैं,लेकिन महॉराज मुझे आपसे एक बात पूछनी है कि मैंअपने प्रेमी से मिलने जा रही थी तो मुझे कुछ भी नहीं दिखाई दिया कि मेरा प्रेमी राह देख रहा होगा,लेकिन आप तो परमात्मा से प्रार्थना कर रहे थे,मेरा धक्के का आभास आपको कैसे हो गया आपकी यह कैसी प्रार्थना है और ध्यान में तो प्रेम होता है आप तो गुस्से में हैं,इसका मतलव आप ढोंग कर रहे थे ।जो परमात्मा के सामने डा हो ,उसे तो सब भूल जाना चाहिए था,कोई आपकी गर्दन भी तलवार से काट लेता तो भी पता न चलता अकबर के दिल को कठोर चोठ पहुंची और इस घटना को अपनी आत्म कथा में लिखवाई । अकबर को महशूस हुआ कि प्रेम का ही विकास प्रार्थना है ।ध्यान में प्रेम का जागरण होता न कि क्रोध का

16-ध्यान से मन शॉत होता है-
        किसी काम को करने के लिए मन को जितना मना करते हैं मन उतना ही उस काम को करना चाहता है, इसलिए मन को मना न करें,मन जो कर रहा है करने दें। बस ध्यान रहे कि आप शरीर से न करें । उस मन को अपने आप में लगाइये,बाहर न लगने दें,क्योंकि बाहर लगने से दुख होगा,कष्ट होगा ।इस बात को ध्यान में रखें कि ध्यान से मन शॉत होता है, स्थिर होता है। जब मन शॉत होगा तो आत्मा का दर्शन होगा । इसलिए ध्यान करना न भूले।

17–आहार में ईश्वरीय शक्ति का प्रवेश -
        शुद्ध आहार ग्रहण करने से अन्त-करण की शुद्धि होती है। जिस भोजन को हम खाते हैं उससे केवल हमारे शरीर का पोषण ही नहीं होता है, बल्कि उस समय जिन संस्कारों या वातावरण में हम भोजन ग्रहण करते हैं,वे हमारे शरीर में बसते है और मॉस, रक्त, मज्जा,आदि का निर्माण करते हैं।क्योंकि भोजन के साथ हम विचार, भावनायें,मनोभावनाओ को भोजन व जल के साथ ग्रहण करते हैं इसलिए हमारा मन भी वैसा ही बन जाता है ।

18 – भय और वैराग्य-
        भय का मनुष्य से गहरी मित्रता होती है, वह मनुष्य का पीछा नहीं छोडता है, ङसीलिए भोग विलास में मनुष्य को रोग का भय रहता है, बल में बैरी का भय,धन होने पर राजा का भय, मौन में दीनता का भय,रूप में बुढापे का भय,गुणों में दुष्टों का भय,शरीर को मृत्यु का भय,शास्त्र में विवाद का भय, कुल में च्युत होने का भय अर्थात संसार की सभी वस्तुओं..

19 -नयें स्वस्थ विचारों का विकास कैसे किया जाय -
        मारे अन्दर यदि बुरे विचार हैं और उनके स्थान पर हम अच्छे विचारों को विकसित करना चाहते हैं ,तो ङसके लिए हमें उन बुरे विचारों को दबाने के लिए विरोधी शुभ विचार विकसित करने होंगे, जैसे क्रोध को दूर करने के लिए हमें प्रेम और शॉत विचारों का विकास करना होगा, यदि गंदे विचार या वासनाओं को दूर करना है तो उन्हैं दबाने के लिए विरोधी शुभ विचारों को विकसित करना होगा।

20 -स्थान परिवर्तन से विचारों में भी परिवर्तन हो जाता है -
        प्रत्येक विचार या वासना का सम्बन्ध स्थान विशेष से होता है, किसी विशेष स्थान में रहने से मन में विशेष प्रकार के विचार उत्पन्न होते हैं। क्योंकि उस स्थान के ङर्द-गिर्द उस स्थान से सम्बन्धित गुप्त विचारों का वातावरण छाया रहता है। जैसे मन्दिर में जाने पर पवित्र विचारों का प्रवाह स्वतः आने लगता है,और ङसके विपरीत दूषित स्थान में रहने से विचार दूषित हो जाते हैं।

21निर्जीव साधन सजीव हो जाते हैं-
        साधन तो निर्जीव होते हैं,और योग्यता जीवन का लक्षण है। यदि ये निर्जीव साधन किसी योग्य व्यक्ति के हाथ में पहुंचते हैं तो वे सजीव हो उठते हैं। इसलिए योग्यता आवश्यक है,साधन तो योग्य व्यक्ति के चरणों में खुद जा गिरते हैं

22- निर्विचार समाधि ही उत्थान का मार्ग है-
        उत्थान पाने के लिए निर्विचार समाधि में होना आवश्यक है,बिना इसके उत्थान नहीं हो सकता है।इसके बिना चाहे आप कोई भी योजना बना लें,जो चाहें करें,यह कार्यान्वित नहीं होगा।सहज योग में यह सहज ही कार्यान्वित होता है।आप जागृत हो जॉय फिर देखना सहज किस प्रकार आपकी सहायता करता है। निर्विचार समाधि एक सुन्दर स्थिति है जो कि आपको पाना है,इस जीवन को नाटक मानकर लोगों को साक्षी भाव में देखते हुये आनंद की अनुभूति के साथ उत्थान की ओर अग्रसर होना है ।

23- समर्ण का अर्थ है परमात्मा के साम्राज्य में स्थापित हो जाना-
        समर्पण का अर्थ यह नहीं है कि आप अपने बच्चों और घर को त्याग करें वल्कि अहं एवं वन्धनों का त्याग करें ।समर्पण से आपके अन्दर एक ऎसी स्थिति विकसित होती है जिसमें आन्तरिक रूप में आप सन्यासी बन जाते हैं।समर्पण का अर्थ है स्वयं को पूर्णतया शुद्ध करना। यह निर्लिप्सा ही उत्थान का एक मात्र मार्ग है।आपको यह मान लेना चाहिए कि मैं एक सहजयोगी हूँ,सारी शक्तियों को मैं अपने अन्दर आत्मसात कर सकता हूं।उन शक्तियों को अपने अन्दर बनाये रखें, ग्रहण करें और विश्वस्त हो जॉय कि मेरे अन्दर ये शक्तियॉ हैं।आपका सर्वव्यापक शक्ति से सम्बन्ध सच्चा,दृढ और निष्कपट होना चाहिए।तो फिर परमात्मा से एकाकारिता का आभास होना सहज है।आप जितना उन्नत होना चाहेंगे आपकी शक्ति आपको उतनी ही अधिक सामर्थ्य देगी ।आत्म निरीक्षण करें।समर्पण का अर्थ है आप( आदि शक्ति मॉ) सहज योग,सत्य से दृढतापूर्वक जुडे हैं।समर्पण में आपको किसी का कोई भय नहीं है,अपनी हानियों का भी नहीं ।समर्पण से गतिशील बन जाते हैं आप वास्तविक सृजनात्मकता शक्ति बन जाते हैं।

24-जहॉ कोई नहीं होता है वहॉ परमात्मा का निवास होता है-
        यह सत्य है कि जहॉ कोई नहीं है वहॉ परमात्मॉ का निवास होता है, मस्तिष्क को विचारशून्य रखें यही निर्विचारिता है। निर्विचारिता की अवस्था में जो भी घटित होता है वह प्रकाशवान होता है, निर्विचारिता में आपके मन में जो विचार आता है वह एक अन्तः प्रेरणा होती है।निर्विचारिता में आप परमात्मा की शक्ति के साथ एक रूप हो जाते है,अर्थात आप परमात्मा में आकर मिल जाते हैं । परमात्मा की शक्ति आपके अन्दर आ जाती है।कोई भी निर्णय लेने से पहले निर्विचारिता में जाओ, अब जो निर्णय सामने आ जाए, उसी को कीजिए, यही सबसे उपयुक्त निर्णय होगा, क्योंकि उसमें आपका ईगो और सुपर ईगो दोनों काम करते हैं ।आपका संसार आपके पीछे खडा है,आपने जो भी लौकिक कमाया है,वह आपके पीछे खडा होगा लेकिन निर्विचारिता में करोगो तो आलौकिक व चमत्कारिक निर्णय होगा,आप ऎसा निर्णय लेंगे जो बडे-बडे लोगों के बस में नहीं। किसी भी कार्य को निर्वचारिता में करने से जान जाओगे कि कहॉ से कहॉ डाएनैमिक हो गया मामला। निर्विचारिता में रहना सीखें यही आपका स्थान है, आपका धन,आपका बल,शक्ति,आपका स्वरूप, सौन्दर्य तथा यही आपका जीवन है।निर्विचार होते ही बाहर का यन्त्र पूरा आपके हाथ में घूमने लग जाता है। सिर्फ जीवंतता का दर्शन होगा,आपको उस जगह से दिखाई देगा जहॉ से जीवन की धारा बहती है। इसलिए निर्विचारिता समाधि से स्वयं को ज्योतिर्मय बनाइयें यह कार्य कठिन नहीं है, यह स्थिति आपके अन्दर है, क्योंकि विचार या तो इधर से आते हैं या उधर से,ये आपके मस्तिष्क की लहरियॉ नहीं हैं,ये तो आपकी प्रतिक्रियायें हैं। लेकिन ध्यान धारण करने पर आप निर्विचार चेतना में चले जाते हैं, यह स्थिति प्राप्त करना आवश्यक है और तब आपके मस्तिष्क में आने वाले मूर्खतापूर्ण एवं व्यर्थ विचार समाप्त हो जाते है, इन विचारों के समाप्त होने पर ही आपका उत्थान सम्भव है तभी हम आप उन्नत होते हैं।

25-निर्विचारिता में निर्णय लें-
        कोई भी निर्णय लेने से पहले निर्विचारिता मे जाओ, अब जो निर्णय सामने आ जाय,वह करिए,कभी गलत हो ही नहीं सकता है क्योंकि इसमें आपका ईगो और सुपर ईगो दोनों काम करते हैं।हर काम को करते समय हम निर्विचार हो सकते हैं,और निर्विचारिता होते ही उस की सुन्दरता,उसका सम्पूर्ण ज्ञान और सारा आनन्द आपको मिलने लगता है।